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मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

जीवन गीत-(प्रवचन-02)

जीवन गीत-(विविध) ओशो

प्रवचन-दूसरा

ध्यान आँख के उपाय है


बहुत से प्रश्न आए हैं। धीरे- धीरे उत्तर दूंगा। अगर कोई आज छूट जाएगा तो परेशान न
हों, कल या परसों उस पर बातें हो जाएंगी।

सबसे पहले तो : ईश्वर सगुण है या निर्गुण? ईश्वर
है या नहीं है? ईश्वर में विश्वास मैं करता हूं या
नहीं करता हूं? या किस भांति के ईश्वर में
विश्वास करता हूं? इस भांति के जो एक-दो प्रश्न
हैं उनको मैं लूंगा।



एक बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और विचार करने जैसी है वह यह है किहजारों वर्षों से मनुष्य को विश्वास करने की प्रेरणा दी गई है। उसे समझाया गया है कि तुमविश्वास करो! ईश्वर में विश्वास करो आत्मा में विश्वास करो धर्म में विश्वास करो, गुरुजनों में विश्वास करो, शास्त्रों में विश्वास करो। इस भांति कोई हजारों वर्षों से मनुष्यको विश्वास के लिए दीक्षित और तैयार किया गया है।


सबसे पहले जो मैं कहना चाहूंगा वह यह कि मेरा विश्वास में ही विश्वास नहीं है।मैं इस पूरी धारा को ही गलत मानता हूं। मनुष्य को दीक्षित किया जाना चाहिए विवेक मेंविश्वास में नहीं। क्योंकि विश्वास तो अंधी चीज है। विश्वास का अर्थ है : जिस बात कोतुम नहीं जानते हो उसे मान लो।
जैसे एक अंधा आदमी प्रकाश को जानता तो नहीं है लेकिन विश्वास कर सकताहै कि प्रकाश है। लेकिन यदि अंधा आदमी विश्वास भी कर ले कि प्रकाश है, तो भी क्याउसे प्रकाश का कोई अनुभव होगा? क्या उसके मन में कोई रूप बनेंगे? क्या उसके मन मेंकोई प्रतीति होगी? क्या वह किसी भांति उस प्रकाश को जानने में विश्वास के द्वारा समर्थहो सकेगा?
अंधा आदमी विश्वास भी करे तो भी प्रकाश को नहीं जानेगा। प्रकाश तो दूर है, अंधा आदमी अंधेरे को भी नहीं जानता है। तुम शायद सोचते होओगे कि अंधे को अंधेरादिखता होगा तो तुम गलती में हो। अंधेरा देखने के लिए भी आंख चाहिए। तुम अगरसोचते होओगे कि अंधे को कम से कम अंधेरा तो मालूम होता होगा तो भी तुम गलती मेंहो। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए।आंखें न हों तो अंधेरा और प्रकाश दोनोंही दिखाई नहीं पड़ते हैं।
तुम अपनी आंख बंद करके देखोगे तो तुमको अंधेरा दिखाई पड़ेगा इससे तुम यहमत सोचना कि जिसकी आंख नहीं है उसको भी अंधेरा दिखाई पड़ता होगा। बंद आंखफिर भी आंख है। और जिसकी आंख नहीं है उसे कैसा दिखाई पड़ता है यह तो तुमकल्पना ही नहीं कर सकते। उसे कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता क्योंकि देखने के लिए आंखचाहिए। प्रकाश देखने के लिए भी आंख चाहिए और अंधकार को देखने के लिए भीआंख चाहिए।
अंधे आदमी को हम विश्वास दिला सकते हैं कि प्रकाश है लेकिन वह विश्वासझूठा होगा। क्योंकि अंधे को कोई अपना अनुभव तो हो नहीं सकता। तुम्हारी बात मानलेगा। और मानी हुई बात के पीछे संदेह खड़ा रहता है। शक शंका बनी रहती है कि पतानहीं लोग ठीक कह रहे हैं या झूठ कह रहे हैं!
विश्वास जो हम दूसरों से सीख लेते हैं वह हमेशा अधूरा और कच्चा होगा।उसके पीछे शंका होगी संदेह होगा। केवल वही विश्वास जो ज्ञान से उपलब्ध होता हैवास्तविक होता है सच्चा होता है। जिसे हम खुद अनुभव से जानते हैं वही जीवन काआधार बनता है।
दुनिया में जो धर्म का पतन हुआ और लोग अधार्मिक हुए, वह इसीलिए कि धर्मविश्वास पर खड़ा किया गया है। और विश्वास अंधा होता है। इसलिए धार्मिक जीवनधीरे- धीरे अंधा होता चला गया। धीरे- धीरे अंधविश्वास होता चला गया सुपरशिटशनहोता चला गया। उसमें न तो कोई ज्ञान की ज्योति रही न कोई अनुभूति का बल रहा नप्राणों का उससे कोई संबंध रहा। झूठा हो गया, मिथ्या हो गया। सारे लोग इसलिए मानतेहैं कि हमसे कहा जाता है लेकिन हमें खुद कोई अनुभव नहीं है।
तो मैं तो यह कहूंगा कि विश्वास मत करना मैं तो कहूंगा खोजना विचार करनाश्रम करना जानने के लिए तो एक दिन जरूर ही परमात्मा को या सत्य को जाना जासकता है। विश्वास जो कर लेगा वह फिर कभी नहीं जान पाता वह विश्वास पर ही रुकजाता है। जो विश्वास नहीं करता है : वह खोज करता है प्रयास करता है, श्रम करता हैजानने का और किसी दिन जान पाता है।
विश्वास तो बाधा है।
इसलिए चाहे निर्गुण ईश्वर पर विश्वास करो, चाहे सगुण ईश्वर पर विश्वास करोतुम्हारे विश्वास का कोई भी मूल्य नहीं है। किसी के विश्वास का कोई मूल्य नहीं है। औरचाहे तुम किसीभी ईश्वर पर विश्वास न करो, अविश्वास करो अविश्वास का भी कोईमूल्य नहीं है। मूल्य है खोज का संदेह का डाउट और इंक्वायरी। संदेह करो और खोजकरो। और जब तक तुम्हें खुद कुछ अनुभव न हो जाए तब तक कुछ भी मत मानना; न तेआस्तिक को मानना जो कहता है ईश्वर है और न नास्तिक को मानना जो कहता है ईश्वरनहीं है। तुम कहना कि मैं नहीं जानता हूं मैं नहीं जानती हूं मुझे तो खोज करनी है मुझेपहचानना है मुझे जानना है में खुद जानने को उत्सुक हूं। मैं बिना जाने कोई भी बातमानने को राजी नहीं हूं।
अंधा आदमी एक हुआ बुद्ध के समय में। बुद्ध एक गांव में गए, उस अंधे आदमीको उसके मित्र समझाते थे कि प्रकाश है लेकिन वह मानता नहीं था। वह उनसे कहता थाकि मैं छूकर देखना चाहता हूं कि प्रकाश कैसा है? और प्रकाश को स्पर्श करने का कोईउपाय नहीं है। वह कहता था कि मैं चख कर देखना चाहता हूं कि प्रकाश कैसा है? लेकिनचखने का भी कोई उपाय नहीं है। वह कहता था, तुम प्रकाश को बजाओ, उसमें कोईध्वनि निकले तो मैं ध्वनि सुन लूं। यह भी कोई उपाय नहीं है।
फिर बुद्ध उस गांव में आए तो उसके मित्र उस अंधे आदमी को लेकर बुद्ध के पासगए और उन्होंने कहा : आप तो बहुत विचारपूर्ण हैं इसे समझा दें। यह प्रकाश को माननेसे इनकार करता है।
बुद्ध ने कहा : अगर वह मान लेता तो ही में उसे गलत कहता। वह नहीं मानता यहतो ठीक है। उसे नहीं दिखाई पड़ता, वह कैसे माने? और मेरे पास तुम व्यर्थ लाए। मेरीबजाय तुम किसी वैद्य के पास ले जाओ। उसे उपदेश की नहीं उपचार की जरूरत है।उसकी चिकित्सा होनी चाहिए, उसका इलाज होना चाहिए। समझाना व्यर्थ है क्योंकिप्रकाश को देखने के लिए आंखें चाहिए प्रकाश को देखने के लिए उपदेशों की कोई भीआवश्यकता नहीं है। और आंख नहीं है तो कितना ही समझाओ, प्रकाश का कोई अनुभवनहीं हो सकता और न प्रकाश पर वस्तुत: कोई श्रद्धा हो सकती है।
वे मित्र उस अंधे आदमी को चिकित्सकों के पास ले गए। उसकी आंख पर जालीथी, वह कुछ ही दिनों के इलाज से ठीक हो गई कट गई। वह आदमी नाचता हुआभागता हुआ बुद्ध को धन्यवाद देने आया। उनके पैरों में गिर पड़ा और उसने कहा कि अबमैं क्या कहूं? प्रकाश तो है पहले भी था, लेकिन मेरे पास आंखें नहीं थीं।
जो है, दूसरे प्रकार का है। यह अनुभव प्राणों का अनुभवअब यह अनुभव बहुतहो गया। इस अनुभव को अब कोई झूठा नहीं कर सकता, इस अनुभव को अब कोईखंडित नहीं कर सकता अब कोई तर्क इसे नष्ट नहीं कर सकता, अब कोई इसे हिला नहींसकता डिगा नहीं सकता। यह तो प्राणों के प्राण ने जाना कि प्रकाश है।
ठीक ऐसे ही परमात्मा भी जाना जा सकता है। लेकिन उसके लिए भी आंख चाहिए।ये जो हमारी साधारण आंखें हैं ये केवल वस्तुओं को पदार्थों को देख पातीहैं। और एक विवेक की विचार की आंख होती है जो परमात्मा को भी जान सकती है।उसे जगाने और खोलने की जरूरत है। वह हरेक के भीतर है और हरेक के भीतर बंदपड़ी हुई है। जब उस आंख को कोई खोलता है और जगा लेता है तो उसे परमात्मा काअनुभव होता है।
उस अनुभव में न तो कोई सगुण और निर्गुण है; उस अनुभव में न तो हिंदुओं कापरमात्मा है न मुसलमानों का; उस अनुभव में न तो ईसाइयों का परमात्मा है न किसीऔर धर्म वालों का। उस अनुभव में तो यह सारी सत्ता यह सारा विश्व ही एक परमात्माका रूप दिखाई पड़ने लगता है। उस अनुभव में तो फूल में भी परमात्मा दिखता है वृक्ष मेंभी, पत्थर में भी मनुष्य में भी पक्षी में भी। उसमें तो दिखाई पड़ता है एक पूरा का पूराजीवन यह जो जीवन-शक्ति है जो सब तरफ फैली हुई है यह सभी कुछ परमात्मा काअनुभव देने लगती है। वहां कोई परमात्मा मनुष्य की भांति खड़ा नहीं होता कि हम उससेबातें कर रहे हैं और वह हमारे सामने खड़ा है। वहां तो समग्र जीवन सारी सृष्टि हीपरमात्म-स्वरूप अनुभव होती है।
और तब जीवन में एक क्रांति हो जाती है। और तब व्यक्ति का पूरा का पूरा आमूलआचरण बदल जाता है। फिर वह और ढंग से जीता है और ढंग से बोलता है और ढंगसे उठता है।
लेकिन विश्वास करने वाले आदमी के जीवन में कोई फर्क नहीं होता। विश्वासकरने वाले का जीवन वैसा ही होता है जैसा अविश्वास करने वाले का जीवन होता है। तुमउसे धक्का दो तो वह भी तुम्हें धक्का देगा; तुम उसे गाली दो तो वह तुम्हें दुगुने वजनकी गाली देगा; तुम ईंट मारो तो वह पत्थर मारेगा। उसे भी क्रोध होता है वह भी ईर्ष्या सेभरता है, वह भी गुस्से में आता है-जो विश्वास करने वाला है। लेकिन जो परमात्मा कोजानता है उसका जीवन बदल जाता है। उसके जीवन में घृणा क्रोध हिंसा समाप्त हो जातेहैं। उसके जीवन में प्रेम ही प्रेम रह जाता है। वही सबूत है वही प्रमाण है इस बात का किउसने जाना है। उसके जीवन में सारी बात बदल जाती है। उसके जीवन में कोई दुख कोईचिंता नहीं रह जाती। मृत्यु भी आ जाए तो भी उसके जीवन में आनंद ही बजता रहता हैउसके हृदय में गीत ही गूंजते रहते हैं।
एक फकीर मरा। जीवन भर आनंद से भरा हुआ था। उसकी मौत करीब आने लगीवह बहुत बीमार पड़ गया। तो लोग उसके पास देखने आते थे यह सोच कर कि अब तो दुखीहो गया होगा, अब तो मौत करीब आ रही है, अब तो इसके चित्त में दुख और पीड़ा औरउदासी आ रही होगी। लेकिन वह खाट पर पड़ा था, उसका शरीर तो सूख गया था लेकिनउसकी आंखों की वही शांति, वही ज्योति कायम थी। वह मरने के करीब था। चिकित्सकों नेकहा कि अब यह कल सुबह तक नहीं बच पाएगा। तो लोग उत्सुक थे कि शायद अब दुखीहो जाएगा। लेकिन वह मरने के आखिरी क्षण तक हंसता रहा और प्रसन्न रहा। और मरते वक्तउसने कहा कि मित्रो, तुम एक काम करना, मेरे मरने के बाद मेरे वस्त्रों को अलग मत करनामैं जिन वस्त्रों में महेत उन्हीं वस्त्रों के साथ मुझे तुम चिता पर चढ़ा देना।
हमारे मुल्क में भी ऐसा करते हैं वस्त्र बदलते हैं, स्नान कराते हैं उस मुल्क में भीऐसा ही करते थे। लेकिन उसके निवेदन को खयाल में रख कर, वह पर गया तो उसकोउन्हीं वस्त्रों में ले जाकर जलाया। जब चिता पर उसकी लाश रखी तब तक तो लोग उदासथे और दुखी थे लेकिन चिता पर लाश रखते ही से सारे लोग हंसने लगे। तुम खयाल भीनहीं कर सकते कि क्यों हंसने लगे? तुम्हें कल्पना भी नहीं आ सकती कि कोई मर गया हैकोई जल रहा है, कोई प्रियजन अपना और लोग हंसेंगे! लोगों को हंसना पड़ा।
उस फकीर ने मरने के पहले अपने कपड़ों के भीतर पटाखे और फुलझड़ियां छिपारखी थीं। जब वह लाश पर चढ़ाया गया तो वे सब पटाखे फूटने लगे और फुलझड़ियांछूटने लगीं तो लोगों को हंसी आने लगी। और लोगों ने कहा कि अदभुत आदमी था, जीता था तब भी हंसता था, प्रसन्न था, आनंदित था; मृत्यु आई तब भी प्रसन्न था; औरअब मर गया है तो भी इस बात की खबर दे रहा है कि मैं प्रसन्न हूं मैं खुश हूं और दुखमनाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
जो आदमी परमात्मा को जानता है उसके जीवन में सब-कुछ आनंद हो जाता है।लेकिन विश्वास करना जानना नहीं है। इसलिए यह मुझसे मत पूछो कि मैं क्या विश्वासकरता हूं?
मैं तो विश्वास कुछ भी नहीं करता और न किसी से कहता हूं कि कभी विश्वासकरना। मैं तो कहता हूं : जानना खोजना खुद अपने प्राणों को संलग्न करना कि वह किसीभांति आंखें भीतर की खुल सकें और तुम्हें खुद परमात्मा का अनुभव और दर्शन हो सके।विश्वास पर नहीं विचार पर, विवेक पर, व्यक्तिगत श्रम पर मेरी श्रद्धा है। विश्वासतो खतरनाक बात है। उसका अर्थ है दूसरों को मान लेना। और जो दूसरों को मान लेता है, उसका खुद का विकास कुंठित हो जाता है, रुक जाता है। किसी और को मानने की जरूरतनहीं है; खुद ही जानने की, पहचानने की जरूरत है।
तो इसलिए इस छोटे से जीवन में जल्दी मत करना और कुछ मान मत लेना। हालांकिमां-बाप सिखाएंगे, अध्यापक सिखाएंगे- यह मान लो, वह मान लो। छोटी-मोटी चीजों मेंतो ठीक है, लेकिन परमात्मा जैसी बड़ी चीज में किसी को मानने की जरूरत नहीं है।
कैसे आंख खुल सकती है उसकी - मैं अभी तुम्हारे प्रश्नों की बात कर लूं- तोफिर मैं उसकी चर्चा करूंगा। ध्यान का प्रयोग भी हम करेंगे तीन दिन। ध्यान आंख केखुलने का उपाय है। ध्यान के द्वारा भीतर की आंख धीरे- धीरे खुलती है।
और भीतर की आंख खुल जाएगी तो खुद ही जान सकोगे कि परमात्मा है यानहीं? है तो कैसा है? उसका रूप है या नहीं? उसमें कोई गुण हैं या नहीं? उसका आकारहै या नहीं? या क्या है परमात्मा? किस अनुभूति को परमात्मा कहते हैं? यह तुम खुद हीजान सकोगे। तो बजाय इसके कि मैं यह बताऊं कि परमात्मा कैसा है क्या यही उचितनहीं है कि हम उस विधि और मार्ग का विचार करें जिससे प्रत्येक को अनुभव हो सके, प्रत्येक जान सके!
प्रत्येक जान सकता है। क्योंकि सबके भीतर यह संभावना है। कोई मनुष्य ऐसापैदा नहीं होता, जिसके भीतर एक आंख न हो जो बंद है और जो खुल न सकती हो।लेकिन खोलने का उपाय करेंगे तभी, खोलने के लिए चेष्टा करेंगे तभी।
उसी चेष्टा को साधना कहा जाता है उसी चेष्टा को ध्यान।
तो वह हम अभी बात करेंगे कि ध्यान क्या है। और फिर हम सब साथ बैठ करप्रयोग भी करेंगे तीन दिन।
अगर पूरे श्रम से पूरे मन से पूरे संकल्प से तुमने उस प्रयोग को किया तो तीनदिन में भी एक झलक मिल सकती है शांति की एक झलक मिल सकती है आनंद कीएक आलोक या प्रकाश का दर्शन हो सकता है। और अगर तीन दिन के छोटे से समय मेंभी पूरे प्राणों से संलग्न होकर उस प्रयोग को किया तो बहुत कुछ द्वार खुल सकते हैं जोभीतर बंद हों। और फिर अगर उस प्रयोग को जारी रखा तो दो-चार-छह महीने में ही तुम्हेंप्रतीत होगा कि तुम्हारे भीतर तो फर्क होना शुरू हो गया तुम्हारे भीतर एक नई आंखखुलनी शुरू हो गई तुम्हें तो कुछ नये अनुभव होने लगे जो कभी भी नहीं हुए थे। औरअगर कोई व्यक्ति जीवन भर थोड़ा सा समय भी ध्यान के लिए दे साधना के लिए दे तोकोई कारण नहीं है कि जीवन के अंत होते-होते वह परमात्मा के समक्ष खड़ा न हो जाए।
तो मैं नहीं कहता कि मानो विश्वास करो; मैं कहता हूं जानो। जब कि जाना हीजा सकता है तो विश्वास करना व्यर्थ है। किसी की मानने की जरूरत नहीं है। द्वारखोलो मार्ग खोजो खुद पहचानो।

यह तो मैंने पहले दो-एक प्रश्नों के बाबत कहा। और प्रश्न इसी भांति आत्मा के
संबंध में पूछा है।

और प्रश्न पूछा है कि मरने के बाद क्या होता है?
और प्रश्न पूछा है कि आत्माएं मर जाने के बाद
भटकती हैं, वह सच है या झूठ है?


ये सारे प्रश्न हैं। इन सारे प्रश्नों में भी यह समझने की बात है कि मरने के बादआत्मा का क्या होता है इस संबंध में तुम उत्सुक हो। लेकिन तुम्हारी उत्सुकता इस संबंधमें बिलकुल भी नहीं है कि तुम्हारे भीतर जो आत्मा है अभी जिंदा हालत में उसकी क्याहालत है? मरने के बाद का तुम विचार करोगे कि मरने के बाद आत्मा का क्या होता है।और अभी आत्मा का क्या हो रहा है इसका कोई विचार नहीं? यह तो बड़ी नासमझी कीबात हुई। यह तो बहुत ही गलत बात हुई।
महत्वपूर्ण तो यह है कि मैं इस वक्त सो, कि जिंदा स्थिति में मेरी आत्मा का क्याहाल है? लेकिन हम पूछते हैं : मरने के बाद क्या हाल होगा?
मरने के बाद वही हाल होगा जो अभी जिंदा हालत में है। उससे भिन्न थोड़े सहोगा। लेकिन अगर अभी हमारे भीतर आत्मा की स्थिति अच्छी नहीं है - दुख है शांतिनहीं है आनंद नहीं है- तो मरने के बाद की चिंता करने से क्या फायदा? महत्वपूर्ण केयही है कि हम अभी सोचे कि जिंदा स्थिति में आत्मा का क्या हाल है?
और बड़े रहस्य की बात यह है कि जिंदा रहते हुए जो आदमी आत्मा को जान लेताहै, उसे यह भी पता चल जाता है कि मेरी आत्मा की कोई मृत्यु नहीं हो सकती। आत्मामरणधर्मा नहीं है।
लेकिन यह कोई दूसरे के कहने से नहीं यह तो तुम खुद ही जब अनुभव कर सकोअपने भीतर तो तुम्हें स्पष्ट दिखाई पड़ सकता है कि तुम्हारा शरीर अलग है और तुम्हारीआत्मा अलग है। यह उतना ही स्पष्ट दिखाई पड़ सकता है जिस तरह तुम्हें दिखाई पड़ रहाहै कि तुम्हारे वस्त्र अलग है और तुम अलग हो। यह उसी तरह दिखाई पड़ सकता है जिसतरह तुम्हें दिखाई पड़ता है कि जिस मकान में हम बैठे हैं वह अलग है और हम अलग हैं।यह तो इतना साफ दिखाई पड़ सकता है...
तुम छोटे बच्चे का विचार करो। मां के पेट में एक बच्चा आता है छोटा सा अणुबनता है। पहले दिन वही देह होती है वही शरीर होता है। फिर वह अणु बड़ा होता है,फिर मां के पेट में नौ महीने में वह बच्चा बड़ा होता है। फिर वह बाहर आता है, फिर औरबड़ा होता चला जाता है। अगर पहले दिन के बच्चे की तस्वीर तुम्हारे सामने रख दी जाएतुम्हारी खुद की तस्वीर तो तुम पहचान नहीं सकोगे कि यह मेरी तस्वीर है। अगर पहलेदिन की तुम्हारी तस्वीर रख दी जाए तो कोई भी नहीं पहचान सकेगा कि यह मेरी तस्वीरहै। कोई भी कह देगा- यह मेरी तस्वीर है? कैसे हो सकती है? लेकिन एक दिन वहीतुम्हारा शरीर था। आज तुम युवा हो, कल तुम बूढ़े हो जाओगे। बुढ़ापे में तुम्हारी आज कीतस्वीर तुम्हें बहुत भिन्न मालूम पड़ेगी।
बचपन जवानी, बुढ़ापा बहुत फर्क हो जाता है शरीर में। लेकिन भीतर कोई है जोवही का वही बना रहता है। तुमने शायद कभी यह फिकर न की हो कि आंख बंद करके तुमयह सोचो कि मेरी आत्मा की कितनी उम्र है? अगर तुम आंख बंद करके सोचोगी तो तुम्हेंवहां आत्मा की कोई उस पता नहीं चलेगी- कि दस साल कि बीस साल, कि तीस साल।और जैसा आज लगेगा वैसा ही दस साल बाद भी लगेगा तीस साल बाद भी लगेगा, मरतेवक्त भी वैसा ही लगेगा। भीतर कोई उम्र नहीं है, सब उम्र शरीर की होती है। जैसे एकआदमी ट्रेन में जाए, नासिक पर से गुजरे फिर वह कल्याण पहुंचे या बंबई पहुंचे, तो क्यावह यह कहेगा कि मैं नासिक था, अब मैं कल्याण हो गया? अब मैं बंबई हो गया? वहकहेगा मैं नासिक पर से निकला कल्याण पर से निकला अब बंबई से निकल रहा हूं।
तुम बच्ची थीं आज युवा हो कल ही हो जाओगी, तो क्या तुम यह कहोगी किकभी हम बच्चे थे? अगर समझ आएगी तो मनुष्य ऐसा सोचना शुरू करता है कि कभी मैंबचपन से निकला अब मैं जवानी से निकल रहा हूं अब मैं बुढ़ापे से निकल रहा हूं।भीतर तो कोई एक यात्री है जो वही का वही है स्टेशस बदल जाते हैं- बचपन से जवानीआ जाती है जवानी से बुढ़ापा आ जाता है।
शरीर तो रोज मरता रहता है। वैज्ञानिक बताते हैं सात वर्ष में पूरे शरीर के अणु-अणु बदल जाते हैं। सात वर्ष बाद तुम्हारे शरीर में एक टुकड़ा भी नहीं होता वही जो सातवर्ष पहले था। सत्तर वर्ष जो आदमी जीता है उसका पूरा शरीर दस बार बदल जाता है।पूरा का पूरा बदल जाता है। उसमें कुछ भी बचता नहीं। शरीर प्रतिदिन मरता जाता है औरअपने मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंकता रहता है।
तुम्हारे बाल हैं तुम्हें शायद कभी खयाल न आया हो कि तुम बाल काटती हो तोउनमें दर्द क्यों नहीं होता? अगर वे जिंदा हिस्से होते तो उनमें दर्द होता। वे मरे हुए हिस्सेहैं। नाखून हैं वे मरे हुए हिस्से हैं। शरीर अपने मुर्दा अणुओं को बाहर फेंक रहा है – बालोंके रूप में नाखूनों के रूप में पसीने के रूप में मल के रूप में अपने मुर्दा अणुओं कोबाहर फेंक रहा है। इसीलिए तो बाल को काटते वक्त या नाखून को काटते वक्त दर्द नहींहोता। ये मरे हुए हिस्से हैं इनको शरीर बाहर फेंक रहा है। इनको बाहर फेंकता जाता है येबेकार हिस्से हैं इनकी जगह नये हिस्से भीतर स्थापित होते चले जाते हैं।
ऐसे शरीर तो रोज मरता है लेकिन भीतर कोई है जो रोज नहीं मरता। भीतर कोई हैजिसकीस्मृति स्थायी है। लेकिन उसे जाना पहचाना जा सकता है। शांत क्षणों में भीतरजाकर यह देखा जा सकता है। और जब यह दिखाई पड़ेगा तो तुम्हें ज्ञात होगा कि मेरीआत्मा तो शरीर से अलग है। और जिस दिन तुम्हें यह ज्ञात हो जाएगा कि मेरी आत्माशरीर से अलग है उसी दिन तुम्हें यह भी ज्ञात होगा कि मेरा शरीर तो मरेगा लेकिनआत्मा नहीं मरेगी।
लेकिन यह मैं नहीं कहूंगा कि ऐसा है। मेरा सारा जोर इसी बात पर है कि तुम्हें खुदअनुभव होना चाहिए। मेरी बात मान लेने से कोई फायदा नहीं है। आत्मा नहीं मरती हैआत्मा नहीं मर सकती है। लेकिन इसे अनुभव किया जाना चाहिए। इसे मान नहीं लेनाचाहिए, ऐसे किसी की बात स्वीकार नहीं कर लेनी चाहिए। खुद प्रयोग करना चाहिएसाहस के साथ। और छोटा सा प्रयोग भी जारी रहे तो प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में इसमहानतम वस्तु को जान सकता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती। और अगर यह ज्ञात होजाए तो तुम्हारा सारा भय तुम्हारा सारा डर, तुम्हारी सारी चिंता सब समाप्त हो जाएगी।अगर यह पता चल जाए कि मैं अमर हूं तो फिर मृत्यु का कोई भय नहीं है। दुख पीड़ाकोई भी फिर मुझे नष्ट नहीं कर सकते। तब तुममें एक साहस का उदय होगा- अदम्य
साहस का-जब तुम्हें यह ज्ञात हो जाएगा कि मेरी कोई मृत्यु नहीं है।
मृत्यु के भय के कारण ही तो मनुष्य कमजोर हो जाता है भयभीत हो जाता है।मरने से जो डरता है वह भयभीत हो जाता है। केवल धार्मिक व्यक्ति ही ठीक-ठीक अर्थोंमें अभय फियरलेसनेस को उपलब्ध हो सकता है जिसको यह ज्ञात हो कि मेरी कोईमृत्यु नहीं है।
क्राइस्ट को सूली पर लटकाया। जिन्होंने उनको लटकाया उन्होंने सोचा होगा कियह घबड़ाएगा। उनके हाथों में कीलें ठोक दिए और अंत में उनसे कहा कि अब इसकेपहले कि हम तुम्हें सूली पर चढ़ा दें तुम्हें कुछ कहना हो तो कहो। तो क्राइस्ट ने कहा : हेपरमात्मा इन सारे लोगों को क्षमा कर देना क्योंकि इनको पता नहीं कि ये क्या कर रहे है।क्राइस्ट ने कोई क्रोध की बात नहीं कही। क्योंकि क्राइस्ट के सामने कोई फर्क ही नहींपड़ता है जिंदा या मुर्दा। भीतर वे जानते हैं कि उनकी मृत्यु असंभव है।
मंसूर हुआ एक फकीर। उसके लोगों ने हाथ- पैर काट डाले, उसकी आंखें फोड़दीं। लेकिन वह हंसता था हंसता रहा। लोगों ने उससे पूछा कि तुम मृत्यु से घबड़ा नहीं
रहे हो? उसने कहा : घबड़ाके तब जब मुझे यह पता हो कि मैं मरूंगा। मैं तो जानता हूं कि
मेरी मृत्यु असंभव है।
सिकंदर हिंदुस्तान आया था। यहां से एक फकीर को यूनान ले जाना चाहता था।जब हिंदुस्तान से जाने लगा तो उसने खोज-बीन की कि कोई बड़ा फकीर कोई बड़ा साधुक्या मेरे साथ जाने को राजी है? तो एक गांव में गया। लोगों ने कहा कि वहां एक बहुतबड़ा साधु है। उसके पास गया। उससे जाकर कहा- नंगी तलवार उसने अपने हाथ मेंनिकाल ली और उस साधु से कहा : मेरे साथ यूनान चलने को राजी हो जाओ।
उस साधु ने कहा : शायद तुम्हें पता नहीं है तलवार भीतर कर लो तुम्हें शायदपता नहीं है कि साधु को डराया नहीं जा सकता। तलवार व्यर्थ बाहर क्यों निकाल रहे हो? सिकंदर ने कहा : अगर मैं तुम्हारी गर्दन काट दूं तो तुम डरोगे नहीं?
उस संन्यासी ने कहा : डर का कोई सवाल नहीं। तुम गर्दन को काटोगे, वह मेरेलिए वस्त्रों जैसी हो गई है। और मेरी कोई गर्दन काट दे तो भी मैं नहीं मरता हूं। यह मेराअनुभव है और इसलिए मुझे भयभीत करना संभव नहीं है।
जो मृत्यु से डरता है जानना चाहिए कि वह आत्मा को नहीं जानता।
और मृत्यु से डरने वाले लोग पूछते हैं कि क्या आत्मा अमर है? वे इसलिए पूछतेहैं ताकि उनको विश्वास आ जाए कि आत्मा नहीं मरती तो उनका भय थोड़ा कम हो जाए।लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए तुम्हें यह दिखाई पड़ेगा भारत जैसामुल्क है हमारा यहां सारे लोग मानते हैं कि आत्मा अमर है। लेकिन कभी तुमने यह भीदेखा कि यहां इस जमीन पर पूरी दुनिया में मृत्यु से डरने वाले सर्वाधिक लोग भी यहीं रहतेहैं - इसी मुल्क में! आत्मा को मानने वाले लोग भी यहीं रहते हैं, आत्मा को अमर माननेवाले लोग भी यहीं हैं और मृत्यु से डरने वाले लोग भी यहीं हैं। इतना दुनिया में मृत्यु सेकोई भी नहीं डरता जितना इस मुल्क में लोग डरते हैं। क्यों? क्योंकि इन्होंने आत्मा जानीनहीं है केवल मृत्यु के भय की वजह से यह मान लेते हैं कि आत्मा अमर है, ऐसा
विश्वास कर लेते हैं ताकि मरने का भय थोड़ा कम हो जाए।
तो यह मत पूछो कि आत्मा अमर है या नहीं? आत्मा का मरने के बाद क्या होगा? यही पूछो कि अभी भीतर मेरे कोई आत्मा है? अगर है तो उसे मैं कैसे जा! कैसेपहचानू क्या रास्ता है उसे जानने का?
यह पूछोगे तब तो कोई बात आगे बढ़ सकती है। और अगर तुमने यह पूछा किसीसे कि आत्मा है मरने के बाद या नहीं? और उसने कह दिया कि है तो फिर क्या करोगे? और उसने कह दिया कि नहीं है तो भी क्या करोगे? दोनों हालत में चुपचाप रह जाओगेउत्तर सुन कर। उत्तर तुम्हारे जीवन में कौन सा फर्क लाएगा? तुमने पूछा, ईश्वर है? किसीने कह दिया कि है फिर क्या करोगे? किसी ने कह दिया कि नहीं है तो क्या करोगे? तुम्हारे जीवन में कौन सा फर्क आएगा?
हमेशा स्मरण रखो : वे ही प्रश्न महत्वपूर्ण हैं वे ही उत्तर खोजने जैसे हैं जिनसेहमारा जीवन बदलता हो जिनसे हमारे जीवन में क्रांति आती हो जिनसे हमारा जीवन नयाहोता हो जिनसे हमारा अनुभव और ज्ञान किन्हीं नई दिशाओं को जानता हो, किन्हीं नयेक्षेत्रों में प्रवेश करता हो।
जिन उत्तर और प्रश्नों से हम वहीं के वहीं खड़े रह जाते हों उनका कोई भी मूल्य नहींहै। और उनको न कभी पूछने की जरूरत है, न उनके उत्तर खोजने की जरूरत है। क्या फर्कपड़ेगा कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया में जिस भांति नास्तिक जीते हैं उसी भांति आस्तिकजीते हैं। जिस भांति वे लोग जीते हैं जो मानते हैं आत्मा अमर है, उसी भांति वे लोग जीते हैंजो मानते हैं आत्मा अमर नहीं है। उनके जीने में कोई फर्क नहीं पड़ता। नहीं पड़ सकता है।जीवन में तो फर्क तभी पड़ता है जब किसी व्यक्ति को स्पष्ट रूप से कुछ बोध होते हैं।
इस बोध के लिए मार्ग है- ध्यान। इस बोध के लिए केवल विचार करना केवलसोच लेना किसी से पूछ लेना मार्ग नहीं है। उसकी मैं बात करूं।

और यह पूछा है कि मैंने सुबह कहा कि
महत्वाकांक्षा प्रतिस्पर्धा बाहर के जीवन में तो
इनके सिवाय विकास नहीं हो सकता ऐसा प्रश्न
पूछा है। और मैंने यह कहा कि बाहर के और भीतर
के दोनों के जीवन में संतुलन होना चाहिए दोनों का
विकास होना चाहिए। तो उन्हें पूछने वाले को यह
तो समझ में आया है कि भीतर के जीवन का
विकास तो बिना प्रतिस्पर्धा के हो सकता है लेकिन
बाहर के जीवन का विकास नहीं हो सकता।


यह बात गलत है। अभी तक सचमुच ऐसा ही हुआ है कि बाहर के जीवन में बहुतप्रतिस्पर्धा है और तभी विकास होता है। लेकिन नहीं इससे भिन्न हो सकता है।
एक चमार है, वह जूते सीता है। वह इस कारण भी अच्छे जूते सी सकता हैकि पड़ोसी जो दूसरा चमार है उससे उसको आगे निकलना है इसलिए उससे अच्छे जूते सिए। ज्यादा कमाई होगी ज्यादा पैसा आएगा बड़ा मकान बना सकेगा। नहीं लेकिन वहइसलिए भी अच्छे जूते सी सकता है कि उसे जूते सीने की कला से प्रेम है। या जो आदमीउसके जूते पहनेगा वह चाहता है कि वह उसके प्रति बुरा भाव न लाए, वह चाहता है किवह प्रसन्न हो वह चाहता है कि मैंने जो चीज बनाई है वह उसे खुशी दे।
कबीर का नाम तुमने सुना होगा। वे कपड़ा सीते थे। फकीर थे इतने बड़े साधु थेलेकिन फिर भी कपड़ा सीते थे। लोगों ने उनसे कहा कि यह तो उचित नहीं है कि आप' कपड़ा सिएं और बाजार में बेचने जाएं। आप जैसे साधु को क्या जरूरत?
लेकिन कबीर ने कहा कि नहीं अगर मैं कपड़े नहीं सिऊंगा तो जो भगवानअनेक- अनेक रूपों में मेरे द्वारा सिए हुए कपड़े पहनता है, उसे इतने अच्छे कपड़े फिर नहींमिल सकेंगे। क्योंकि दूसरे जुलाहे तो पैसा कमाने के लिए कपड़े सीते हैं मैं तो प्रेम सेकपड़ा सीता हूं।
तो कबीर कपड़ा सीते थे गीत गाते थे। इतने प्रेम से कपड़ा सीकर बाजार बेचनेजाते थे। और जब कोई खरीदने वाला आता था तो उसके गले में खुद ओढ़ा देते थे औरउससे कहते थे : राम बहुत सम्हल कर इसको पहनना। मैंने बड़ी मेहनत से बड़े प्रेम से, अपने प्राणों का पूरा भाव इसमें पिरोया है। अब यह तो बहुत और तरह की बात हो गई।और कबीर के मुकाबले कपड़े किसी के भी नहीं होते थे बाजार में। हो भी नहीं सकते थे।मगर इसमें कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी।
तुमने गोरा कुम्हार का नाम शायद सुना हो। एक बहुत बड़ा कुम्हार हुआ, बहुतविचारक हुआ बहुत बड़ा साधु हुआ। वह घड़े बनाता रहा जिंदगी भर मिट्टी के औरबड़ाघड़े बेचता रहा। वह इतने मजबूत घड़े बनाता था कि दूसरे कुम्हारों ने उस पर एतराजउठाया कि तुम तो हमारे धंधे को खराब किए दे रहे हो। क्योंकि तुम्हारा घड़ा तो इतनाचलता है जिसका कोई हिसाब नहीं! घड़े तो ऐसे बनाओ कि जल्दी फूट जाएं ताकि फिरखरीदने वाला दुबारा आए। लेकिन गोरा कुम्हार ने कहा : मैं कोई धंधा नहीं करता हूं मैं तोप्रेम करता हूं घड़े बनाने को। और इतना अच्छे से अच्छा घड़ा बनाना चाहता हूं कि जो लेजाए उसे दुबारा फिर घड़ा खरीदने की जरूरत न पड़े।
अब इसमें कोई काम्पिटीशन न रहा, इसमें किसी से कोई प्रतिस्पर्धा न रह, इसमेंतो काम करने से प्रेम हुआ। हम अपने काम से प्रेम करें तो भी काम का विकास होगा।एक बागवान अपनी बगिया लगाने से प्रेम करे एक किसान अपने खेत में बीज बोने सेप्रेम करे एक दफ्तर का नौकर अपनी दफ्तर की नौकरी से प्रेम करे। सारी दुनिया में अपनेकाम से प्रेम होना चाहिए।
अभी यह है नहीं। इसके न होने की भी कुछ बुनियादी बातें हैं। इसके न होने कासबसे बड़ा कारण तो यह है कि जो छोटे काम हैं उन कामों में किसी आदमी को इज्जत नहींमिलती है, प्रतिष्ठा नहीं मिलती है, रिस्पेक्ट नहीं मिलती है। जो बड़े काम, जिनको हम कहतेहैं उनमें आदर मिलता है, इज्जत मिलती है। तो हर आदमी बड़ा काम करना चाहता है।
अगर अच्छी शिक्षा हो तो बच्चों को यह समझाया जाना चाहिए कि कोई काम छोटाऔर बड़ा नहीं है। एक चमार भी अगर अच्छे जूते सीता है तो उतना ही आदर योग्य है जितनाकिसी राज्य का मंत्री है, अगर वह अच्छा काम करता है। अगर राज्य का मंत्री बुरा कामकरता है तो अच्छे काम करने वाले चमार से भी उसको कम इज्जत मिलनी चाहिए। एकराष्ट्रपति को भी उतनी ही इज्जत मिलनी चाहिए जितनी एक चपरासी को। सवाल काम अच्छेऔर बुरे का होना चाहिए सवाल पदों का नहीं होना चाहिए। पद का कोई मूल्य नहीं होनाचाहिए। अगर दुनिया अच्छी होगी और जैसा मैंने कहा, अगर वह प्रतिस्पर्धा पर खड़ी नहींहोगी तो दुनिया में पदों का कोई सवाल नहीं होगा। पदों का कोई सवाल है भी नहीं।
अब्राहम लिंकन प्रेसिडेंट हुआ अमरीका का। उसका बाप तो जूता सीता था चमारथा। जब वह प्रेसिडेंट हुआ और पहले दिन वहां की सीनेट में बोलने को खड़ा हुआ तोअनेक लोगों को उससे बड़ी पीड़ा हो गई कि एक चमार का लड़का और प्रेसिडेंट हो जाएमुल्क का! तो एक आदमी ने खड़े होकर व्यंग्य कर दिया और कहा कि महानुभाव लिंकनज्यादा गरूर में मत फूलो मुझे अच्छी तरह याद है तुम्हारे पिता जूते सिया करते थे। तोजरा इस बात का खयाल रखना नहीं तो प्रेसिडेंट होने में भूल जाओ।
और कोई आदमी होता तो दुखी हो जाता क्रोध से भर जाता। शायद गुस्से में आताऔर उस आदमी को कोई नुकसान पहुंचाता। प्रेसिडेंट नुकसान पहुंचा सकता था। लेकिनलिंकन ने क्या कहा? लिंकन की आंखों में आंसू आ गए और उसने कहा कि तुमने ठीकसमय पर मेरे पिता की मुझे याद दिला दी। आज वे दुनिया में नहीं हैं लेकिन फिर भी मैंयह कह सकता हूं कि मेरे पिता ने कभी किसी के गलत जूते नहीं सिए हैं और जूते सीने मेंवे अदभुत कुशल थे। वे इतने कुशल कारीगर थे जूता सीने में कि मुझे आज भी उनकानाम याद करके गौरव का अनुभव होता है। और मैं यह भी कह देना चाहता हूं- और यहबात लिख ली जाए लिंकन ने कहा - कि जहां तक मैं समझता हूं कि मैं उतना अच्छाप्रेसिडेंट नहीं हो सकूंगा जितने अच्छे वे चमार थे! मैं उनके ऊपर नहीं निकल सकता हूं।उनकी कुशलता बेजोड़ थी!
यह एक समझ की बात है एक बहुत गहरी समझ की। जब तक दुनिया में पदों केसाथ इज्जत होगी तब तक अच्छी दुनिया पैदा नहीं हो सकती और ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धाचलेगी। प्रतिस्पर्धा काम के कारण नहीं है प्रतिस्पर्धा है पदों के साथ जुड़े हुए आदर केकारण। कोई आदमी बागवान नहीं होना चाहता बागवान होने में कौन सी इज्जत मिलेगी? राष्ट्रपति होना चाहता है। यह तब तक चलेगा जब तक हम गरीब बागवान को भी इज्जतदेना शुरू नहीं करेंगे।
तुम्हारे घर में एक चपरासी है बूढ़ा आदमी है तुम उसको कोई इज्जत नहीं दोगे।उससे आदमी की तरह भी व्यवहार नहीं करोगे।
लेकिन तुम्हें शायद यह खयाल न हो पदों से आदमीयत में कोई फर्क नहींपड़ता-पदों से कोई फर्क नहीं पड़ता। और सच तो यह है कि दुनिया में जिन बड़े-बड़ेपदों की बहुत इज्जत होती है उन बड़े-बड़े लोगों ने जितने नुकसान पहुंचाए हैं उतने छोटे-छोटे और निरीह लोगों ने कोई नुकसान नहीं पहुंचाए। दुनिया की सेवा छोटे-छोटे लोगों नेकी है दुनिया का काम छोटे-छोटे लोग चलाते रहे हैं दुनिया की जिंदगी छोटे-छोटे लोगोंपर निर्भर है। और जिनको हम बड़े-बड़े लोग कहते हैं - राष्ट्रपति हैं और प्रधानमंत्रइ।? हेऔर मंत्री हैं- इन सारे लोगों ने दुनिया को कोई कोई अच्छी स्थिति में नहीं पहुंचाया है।इन सारे लोगों ने दुनिया को उपद्रवों में डाला है, परेशानियों में डाला हे दिक्कतों में डाला
है। और जिंदगी चलाने वाले जो छोटे-छोटे लोग हैं उनका कोई आदर नहीं है काई सम्माननहीं है। यह हमारी पूरी स्थिति गलत है।
जब मैंने यह कहा कि इस भांति का व्यक्तित्व होना चाहिए कि प्रतिस्पर्धा न ले केउसका मतलब है कि पूरी शिक्षा और ढंग की होनी चाहिए, पूरे समाज की व्यवस्थासोचना और ढंग का होना चाहिए। और ढंग का हो सकता है- अगर बच्चे तैयारियांकरेंगे, अगर छोटी लड्‌कियां और छोटे लड़के यह निर्णय करेंगे कि हम एक दूसरे तरह कासमाज बनाना चाहते हैं जहां हम काम को आदर देंगे पदों को नहीं; जहां हम श्रम कोआदर देंगे धन को नहीं।
अभी तो धन की प्रतिष्ठा है, श्रम की कोई प्रतिष्ठा नहीं। एक रही से रही आदमीबहुत बड़ा धनवान है तो तुम उसको आदर दोगे। और एक अच्छे से अच्छा आदमी जिसकेपास कोई धन नहीं है, तुम उसकी तरफ मुंह उठा कर भी नहीं देखोगे।
यह तो गलत बात है, यह एकदम गलत बात है। आदर होना चाहिए अच्छे मनुष्यका, प्रेमपूर्ण मनुष्य का, सच्चे मनुष्य का।
आदर होता है धनी का। जब कि हो सकता है धन इकट्ठा करने में उसने झूठ भीबोला हो, बेईमानी भी की हो, पाप भी किए हों, बुरा भी किया हो। लेकिन आदर उसका हैजहां धन है। अच्छा समाज होगा तो वहां आदर काम का होगा, श्रम का होगा, धन कानहीं। वहां आदर उन लोगों का होगा जो नींव की बुनियाद हैं, केवल उनका ही नहीं जोभवन के शिखर हैं।
तो ऐसे समाज की रचना के लिए और ऐसी शिक्षा के लिए जो मैंने बात कही, उसपर विचार करना। तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि भीतर का विकास भी हो सकता है और बाहरका भी- बिना किसी प्रतिस्पर्धा के।

और दूसरी बात यह पूछी है कि क्या प्रतिस्पर्धा
हमेशा ही बुरी होती है, कभी अच्छी नहीं होती?


हां, प्रतिस्पर्धा कभी अच्छी नहीं होती है। कभी अच्छी नहीं हो सकती। नहींइसलिए हो सकती है अच्छी, क्योंकि प्रतिस्पर्धा में तुम्हारा दूसरे के साथ हमेशा विचार जुड़ाहुआ है- उससे आगे होना है।
नहीं, विचार होना चाहिए : मुझे स्वयं को विकसित करना है। मुझे आज जहां मैं हूंवहां से कल मुझे आगे होना है। दूसरे से आगे नहीं, मुझे स्वयं से प्रतिदिन आगे होते जानाहै। प्रतिस्पर्धा में मुझे दूसरे से आगे होते जाना है और वास्तविक विकास में मुझे स्वयं सेआगे होते जाना है। जहां आज सांझ का सूरज जिस जगह मुझे छोड़ गया है, सुबह उठतेजब सूरज निकले तो मुझे उसी जगह न पाए, मुझमें कुछ विकास हो जाए। सुबह का उगनेवाला सूरज जहां मुझे पाए, सांझ का डूबने वाला सूरज मुझे उसी जगह खड़ा न पाए, मुझमेंकुछ विकास हो जाए। मैं आगे पहुंच जाऊं। मेरे जीवन में कुछ नया अनुभव, कुछ नयाज्ञान, कुछ नया प्रेम जाग्रत हो जाए।
यह अगर खयाल हो कि मुझे खुद के ही साथ सतत विकास करना है, तब तोजीवन अच्छा होता है। और जहां दूसरे के साथ स्पर्धा है, वहां जीवन गलत हो जाता है।दूसरे के साथ किसी भी तरह की स्पर्धा शुभ नहीं है।

और प्रश्न तुम्हारे बच जाएंगे, उनकी मैं कल चर्चा करूंगा।

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