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बुधवार, 5 दिसंबर 2018

सत्य की खोज-(प्रवचन-02)

दूसरा--प्रवचन

भ्रम से सत्य की ओर

(26 फरवरी 1969 सुबह)
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक विस्तार मनुष्य के बाहर है। आंखें बाहर देखती हैं, हाथ बाहर स्पर्श करते हैं, कान बाहर सुनते हैं।
एक विस्तार बाहर है, एक विस्तार भीतर भी है, लेकिन न वहां आंख देखती है, न वहां हाथ स्पर्श करते हैं, न वहां कान सुनते हैं। शायद इसीलिए जो भीतर है, वह अनजाना और अपरिचित रह जाता है। या इसलिए भी कि वह इतने निकट है कि हमें दिखाई नहीं पड़ता। जो दूर है, वह दिखाई पड़ जाता है। जो निकट है, वह छिप जाता है!
देखने के लिए भी दूरी चाहिए, फासला चाहिए। आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं, क्योंकि मुझसे दूर हैं। मैं स्वयं को ही दिखाई नहीं पडूंगा, क्योंकि वहां दूरी जरा भी नहीं है। आंख सब कुछ देखती है, सिर्फ स्वयं को छोड़ कर। आंख अपने को ही नहीं देख पाती, जो सबको देखती है वह भी अपने को नहीं देख पाती है।

हम जो सबको जानते हैं, अपने को ही नहीं जान पाते! और सत्य की खोज में जो अपने को ही नहीं जानता हो, वह और क्या जान सकता है?
सत्य का पहला अनुभव स्वयं के भीतर है।


क्योंकि वही है निकटतम। वही है, जहां हमारा प्रवेश है। और सबको हम बाहर से ही जान सकते हैं, भीतर प्रवेश नहीं कर सकते। सिर्फ एक बिंदु है अस्तित्व का, जहां हम भीतर भी प्रविष्ट हो सकते हैं। वह स्वयं का बिंदु है। और इसलिए सत्य के मंदिर का पहला द्वार है वहीं है, स्वयं के भीतर।
लेकिन अदभुत है यह पहेली कि जीवन भर बीत जाता है और हमें अपनी न कोई गंध मिलती है, न अपनी कोई खबर मिलती। अपने से अपरिचित यह पूरा जीवन बीत जाता है!
एक विचारक था, शॉपनहार। वह एक रात एक बगीचे में घूमने गया। अभी कोई तीन ही बजे होंगे, अभी सुबह होने में बहुत देर थी। वह रात भर सो नहीं सका था, किसी प्रश्न में उलझा था और जल्दी ही बगीचा पहुंच गया था। माली ने देखा कि आधी रात गए कौन बगीचे में आ गया! माली अपनी लालटेन और अपना भाला उठा कर देखने गया। दूर से ही देखने की कोशिश की कि कौन है? और तब उसे यह भी शक हुआ कि जो आदमी घुस आया है, वह पागल भी मालूम पड़ता है। क्योंकि शॉपनहार एक वृक्ष के नीचे खड़े होकर अपने से ही बातें कर रहा था! दूसरा कोई भी न था! वह जोर-जोर से बात कर रहा था! तो माली ने समझा पागल है। उसने जोर से अपने भाले को पटक कर आवाज की और कहा कि कौन हैं आप? और कैसे आ गए हैं यहां? और कहां से आ गए?
शॉपनहार बहुत हंसने लगा और उसने कहा, बड़ी मुसीबत हो गई, यही तो मैं अपने से पूछ रहा हूं जिंदगी भर से-कि मैं कौन हूं? और कहां से आ गया हूं? और कैसे आ गया हूं? और यही तुम भी पूछते हो! काश, मेरे पास इसका उत्तर होता!
निश्चित ही माली ने समझा होगा कि आदमी पागल है, जिसे यह भी पता नहीं कि वह कौन है? कहां से आ गया है? और क्यों? लेकिन हमें पता है?
शॉपनहार पर हम भी हंस सकते हैं। लेकिन शॉपनहार की जो स्थिति है, वही स्थिति हमारी भी है। हमें भी कुछ पता नहीं--कि कौन हैं हम? कहां से आ गए हैं? और क्यों आ गए हैं? और यह यात्रा कहां के लिए चल रही है?
जीवन का कोई भी जरूरी तत्व हमसे परिचित नहीं है, अपरिचित है! और सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि हम अपने से ही अपरिचित है कि--मैं कौन हूं! और जो यह भी नहीं जानता कि मैं कौन हूं, वह सत्य के और पहलुओं को कैसे जान सकता है?
स्वयं को जानना, सत्य के जानने की दिशा में अनिवार्य चरण है। उसके बिना कोई सत्य की तरफ नहीं जा सकता।
हममें से न मालूम कितने लोग पूछते हैं--ईश्वर है? न मालूम कितने लोग पूछते हैं--मोक्ष है? न मालूम कितने लोग और कितने प्रश्न पूछते हैं। शायद एक प्रश्न कोई भी नहीं पूछता कि--मैं कौन हूं! हूं, तो कौन हूं?
धर्म का सबसे बुनियादी प्रश्न ईश्वर नहीं। धर्म का सबसे ज्यादा बुनियादी प्रश्न स्वयं का होना है।
सत्य की यात्रा बाहर की तरफ नहीं है। सत्य की यात्रा भीतर की तरफ है।
बाहर जो यात्रा चल रही है, खोज चल रही है, उससे सत्य कभी भी उपलब्ध नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा काम-चलाऊ बातें ज्ञात हो जाती हैं। सत्य की उपलब्धि तो भीतर की तरफ चलने से ही हो सकती है।
मैंने सुना है, एक, एक राजधानी में एक भिखारी की मृत्यु हो गई। तो रोज ही कोई मरता है। उस गांव में भी वह भिखारी मर गया तो कोई आश्चर्य की बात तो न थी। लेकिन बड़ा आश्चर्य हो गया और सारा गांव उस भिखारी की, जहां लाश पड़ी थी, वहां इकट्ठा हो गया। तीस-पैंतीस वर्षों तक वह भिखारी उस चौरस्ते पर बैठ कर भीख मांगता रहा, फिर उसकी मौत हुई। तो लोगों ने उसके चीथड़ों में आग लगा दी, उसके फूटे-टूटे बर्तन फेंक दिए और वह उसकी लाश को उठा कर ले जा रहे थे, तभी किन्हीं लोगों ने कहा, इस भिखारी ने इस जमीन पर बैठ कर तीस वर्षों में जमीन भी गंदी कर दी है। थोड़ी जमीन की मिट्टी भी खोद कर साफ कर दी जाए।
जैसे ही उन्होंने जमीन खोदी, वे सब हैरान रह गए, सारा नगर वहीं इकट्ठा हो गया। खुद सम्राट भी वहां आया। जैसे उन्होंने जमीन खोदी वे हैरान रह गए, वह भिखारी जिस जगह पर बैठ कर भीख मांगता रहा, उस जगह बहुत धन गड़ा हुआ था, बहुत खजाने भरे हुए थे! लेकिन उस भिखारी ने सब तरफ हाथ फैलाए, कभी वह जगह खोद कर न देखी, जहां वह बैठा था। तब वह सारे गांव के लोग हंसने लगे कि भिखारी बिल्कुल पागल था।
लेकिन गांव में से किसी आदमी को यह ख्याल न आया कि कहीं ऐसा ही मेरे साथ भी तो नहीं हो रहा, कि मैं जहां खड़ा हूं, वहीं खजाने गड़े हों और मैं जिंदगी भर बाहर हाथ फैला कर भीख मांगता रहूं!
हम जहां खड़े हैं, जहां हमारा अस्तित्व है, जो हमारा होना है, वहीं खजाने गड़े हैं सत्य के।
और हम शास्त्रों में खोजेंगे, गुरुओं के चरणों को पकड़ेंगे, शब्दों में खोजेंगे, सिद्धांतों में खोजेंगे और वहां कभी नहीं, कभी नहीं--जहां हम हैं! कोई गीता में खोजेगा सत्य को! कोई कुरान में, कोई बाइबिल में, कोई महावीर के पास, कोई बुद्ध के पास, लेकिन कभी कोई वहां फिकर नहीं करेगा, जहां वह है, जहां वह खुद है।
और सत्य जब भी मिलता है, तो वहीं मिलता है, जहां हम हैं। चाहे बुद्ध को मिले-तो किसी और के पास नहीं मिलता, अपने भीतर मिलता है। और चाहे महावीर को मिले-तो किसी के पास नहीं मिलता अपने भीतर मिलता है। और चाहे क्राइस्ट को मिले--तो किसी के पास नहीं मिलता, अपने भीतर मिलता है।
सत्य जब भी मिला है, तो अपने भीतर मिला है और जिन्हें भी कभी मिलेगा, अपने भीतर ही मिलेगा।
और हम सब बाहर ही खोजते-खोजते समाप्त हो जाते हैं, इसलिए उसे हम उपलब्ध नहीं कर पाते! इसलिए दूसरे सूत्र की पहली बात समझ लेनी जरूरी है।
सत्य है तो स्वयं के भीतर है।
इसलिए किसी और से मांगने से नहीं मिल जाएगा। सत्य की कोई भीख नहीं मिल सकती। सत्य उधार भी नहीं मिल सकता। सत्य कहीं से सीखा भी नहीं जा सकता, क्योंकि जो भी हम सीखते हैं, वह बाहर से सीखते हैं। जो भी हम मांगते हैं, वह बाहर से मांगते हैं। सत्य पढ़ कर भी नहीं जाना जा सकता, क्योंकि जो भी हम पढ़ेंगे, वह बाहर से पढ़ेंगे।
सत्य है हमारे भीतर--न उसे पढ़ना है, न मांगना है, न किसी से सीखना है--उसे खोदना है। उस जमीन को खोदना है, जहां हम खड़े हैं। तो वे खजाने उपलब्ध हो जाएंगे, जो सत्य के खजाने हैं।
एक और छोटी सी कहानी मुझे याद आती है। सुना है मैंने, कि जब भगवान ने दुनिया बनाई और आदमी को बनाया तो आदमी को बनाते ही वह बहुत परेशान हो गया! और उसने सारे देवताओं को बुलाया कि आदमी को बना कर मैं बहुत मुसीबत में पड़ गया हूं और ऐसा मुझे लगता है कि यह आदमी चौबीस घंटे मेरे दरवाजे पर खड़े होकर शिकायतें करता रहेगा। अब मैं न सो सकूंगा, न शांति से बैठ सकूंगा। इस आदमी से मुझे बच जाना बहुत जरूरी है। मैं कहां छिप जाऊं कि आदमी मुझे खोज न पाए?
और उसके देवताओं ने बहुत से रास्ते सुझाए। किसी देवता ने कहा, कि आप हिमालय पर गौरीशंकर पर बैठ जाएं। ईश्वर ने कहा, कि तुम्हें पता नहीं है, बहुत जल्द तेनजिंग और हिलेरी नाम के लोग वहां पहुंच जाएंगे और मेरी मुसीबत शुरू हो जाएगी। किसी ने कहा, कि पेसिफिक महासागर में पांच मील नीचे गहराई में छिप जाइए। ईश्वर ने कहा, तुम्हें पता नहीं है, जल्दी ही वहां वैज्ञानिक पहुंच जाएंगे। किसी ने कहाः चांद-तारों पर बैठ जाएं। ईश्वर ने कहाः तुम्हें पता नहीं, क्षण भी नहीं बीत पाएंगे और वैज्ञानिक वहां चरण रख देंगे। मुझे कोई ऐसी जगह बताओ, जहां आदमी न पहुंच सके।
फिर एक बूढ़े देवता ने ईश्वर के कान में कहा कि आप आदमी के भीतर ही छिप जाएं, आदमी वहां कभी नहीं जाएगा! और ईश्वर ने वह बात मान ली और वह आदमी के भीतर बैठ गया। और सच में ही आदमी, कभी वहां नहीं जाता!
एक जगह छोड़ कर आदमी सब जगह जाता है! एक जगह चूक जाती है, वहां वह नहीं जाता! वह खुद के भीतर होने की जो डायमेंशन है, वह जो खुद के भीतर होने की दिशा है, वहां हमारे कोई पैर कभी नहीं पड़ते!
शायद हमें उसका पता ही नहीं है कि भीतर भी एक मार्ग है। शायद हमें पता ही नहीं है कि भीतर भी एक द्वार है। शायद हमें पता ही नहीं है कि भीतर भी कुछ है। हमें उसका कोई स्मरण नहीं है और इसलिए एक जगह से हम चूक जाते हैं! और उस जगह से जो चूक जाता है, वह सत्य से भी चूक जाता है।
कोई अगर पूछे कि सत्य का मंदिर कहां है? कोई अगर पूछे कि सत्य का आवास कहां है? कोई अगर पूछे कि कहां है सत्य? तो एक ही उत्तर है कि वह जो भीतर है, वह जो इनरनेस है, वह जो भीतर होना है; वही मंदिर है, वही आवास है, वही जगह है, जहां सत्य बैठा है।
एक बीज हम जमीन में बो देते हैं। एक अंकुर निकलता है, पत्ते निकलते हैं, पौधा बड़ा हो जाता है। कभी आपने सोचा कि यह पौधा यह इतना बड़ा वृक्ष जिसके नीचे हजारों लोग विश्राम करें, यह इतना बड़ा वृक्ष कहां से आया? इस वृक्ष की आत्मा कहां है? उस छोटे से बीज में! उस बीज को तोड़ें-फोड़ें तो उसमें वृक्ष कहीं भी नहीं मिलेगा! लेकिन वहीं कहीं छिपा है। यह जो इतना बड़ा वृक्ष प्रकट हो गया है, उस छोटे से बीज के प्राणों में छिपा है!
यह जो इतना बड़ा विस्तार है सारे जगत का, यह भी, वह जो भीतर होने का बीज है, वहां कहीं छिपा है! वहीं से सब फैलता है--बड़ा होकर। हम भी अपने भीतर किसी कोने में, किसी बीज में छिपे हैं। वहीं से प्रकट होते हैं, फैलते हैं। फिर सिकुड़ते हैं और फिर विलीन हो जाते हैं।
जीवन की सारी गति भीतर से बाहर की ओर है। सारी चीजें भीतर से बाहर की ओर फैलती हैं और विकसित होती हैं। उलटा नहीं होता है, बाहर से भीतर की तरफ कुछ भी नहीं जाता। सब-कुछ भीतर से बाहर की तरफ आता है। यह जो भीतर होना है, यह जो बीइंग, आत्मा है--यह जो भीतर होना है, इस पर ध्यान तभी जा सकता है, जब हम बाहर से मुक्त हो जाएं। जब हमारी नजर बाहर से मुक्त हो जाए, तो भीतर की तरफ जा सकती है। बाहर की तरफ भटकती हुई दृष्टि, भीतर की तरफ नहीं जा सकती। स्वाभाविक है जब तक हम बाहर देखते रहते हैं, तब तक हम भीतर कैसे देख सकते हैं?
और हम सब बाहर देख रहे हैं। बाहर भी हम इसलिए देख रहे हैं कि हमें यह ख्याल है कि जो भी मिलना है, वह बाहर मिलेगा। जो भी पाना है, वह बाहर पाया जा सकता है। जो उपलब्धि होगी, वह बाहर है। इसलिए हम बाहर देख रहे हैं।
भीतर हम तभी देख सकते हैं, जब हमें यह स्पष्ट हो जाए कि बाहर किसी को कभी कुछ नहीं मिला। बाहर देखने वालों ने व्यर्थ देखा। बाहर दौड़ने वाले व्यर्थ दौड़े हैं। वे कभी कहीं पहुंचे नहीं।
शायद आपने सुना हो कि सिकंदर जिस दिन मरा और जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली तो लोग देख कर हैरान रह गए। उसकी अरथी के, दोनों हाथ बाहर लटके हुए थे! लोग पूछने लगे कि सिकंदर की अरथी के बाहर हाथ क्यों लटके हुए हैं? क्योंकि कभी किसी अरथी के बाहर हाथ लटके हुए देखे नहीं गए! इस सिकंदर की अरथी के साथ भूल हो गई कोई?
लेकिन यह कोई भिखमंगे की अरथी न थी कि भूल हो जाती, यह सिकंदर की अरथी थी। हजारों सम्राट आए थे, बड़े सेनापति आए थे। बड़े-बड़े सम्राट अरथी में कंधा लगाए हुए थे। किसी को तो दिखाई पड़ जाता कि हाथ बाहर क्यों लटके हुए हैं? फिर हर आदमी यही पूछने लगा!
सांझ होते-होते लोगों को पता चला कि सिकंदर ने मरने के पहले अपने मित्रों को कहा था कि मेरी अरथी जब निकले तो मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। तो मित्रों ने पूछा, कैसे पागलपन की बात करते हो? हाथ कभी अरथी के बाहर लटके देखे हैं? सिकंदर ने कहाः लेकिन मैं यही चाहता हूं कि मेरे हाथ बाहर लटके रहें।
मित्र पूछने लगे, चाहते क्यों हो ऐसा?
सिकंदर ने कहाः मैं इसलिए चाहता हूं, ताकि सारे लोग देख लें कि सिकंदर के हाथ भी खाली हैं।
जिंदगी भर दौड़ कर, बाहर सब खोज कर भी हाथ भर नहीं पाए, हाथ खाली रह गए! सिकंदर के हाथ भी खाली रह जाते हैं! हम सबके हाथ भी खाली रह जाएंगे। बाहर तो कोई भी कुछ नहीं पा सका है। आशा बढ़ती है कि बाहर कुछ मिल जाएगा, जीवन चूक जाता है और आशा निराशा हो जाती है।
एक भी आदमी ने नहीं कहा आज तक पृथ्वी पर कि मैंने खोजा और मुझे बाहर मिल गया हो। और जिन्होंने भीतर खोजा, उनमें से एक ने भी यह नहीं कहा कि मैंने भीतर खोजा और मुझे न मिला हो!
इसलिए धर्म को मैं परम विज्ञान कहता हूं, सुप्रीम साइंस कहता हूं। क्योंकि विज्ञान का अर्थ होता है, जहां अपवाद न होते हों, एक्सेप्शन न होते हों। और विज्ञान में, जिसको हम साइंस कहते हैं, अपवाद मिल सकते हैं। धर्म के जगत में आज तक कोई एक भी अपवाद नहीं है। जिन्होंने बाहर खोजा, उन्होंने निरपवाद रूप से कभी कुछ नहीं पाया! जिन्होंने भीतर खोजा, उन्होंने निरपवाद रूप से सदा पाया!
इसलिए दूसरे सूत्र पर जोर देना चाहता हूं कि बाहर नहीं है सत्य की संपदा। जीवन का सत्य भीतर है। यह बहुत स्पष्ट रूप से मन में साफ हो जाए तो हमारी भीतर की तरफ यात्रा शुरू हो सकती है। लेकिन हमारे मन में कहीं यह ख्याल है कि नहीं, बाहर है! बाहर सब-कुछ मालूम पड़ता है, सब बाहर दिखाई पड़ता है। इतना बड़ा विस्तार दिखाई पड़ता है जगत का बाहर कि लगता है, भीतर क्या होगा! बाहर सब मालूम पड़ता है--भीतर क्या होगा?
इतना छोटा मालूम पड़ता है भीतर का होना--मेरे भीतर, आपके भीतर, क्या हो सकता है? जो भी है वह इस अनंत विस्तार में है, बाहर। सब बाहर दिखाई पड़ता है, अंतहीन फैला हुआ। भीतर तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बड़े विस्तार के कारण ही यह भ्रम पैदा होता है कि भीतर क्या हो सकता है, छोटी सी जगह में!
लेकिन सवाल छोटे का नहीं। और चूंकि हम भीतर नहीं गए, इसलिए हमें मालूम पड़ता है कि भीतर छोटा है। जिस दिन जाएंगे, उस दिन पता चलेगा कि बाहर, अनंत बाहर समा जाएं उस छोटे में, इतना बड़ा है! जाएंगे, तभी स्मरण हो सकता है, तभी बोध हो सकता है। अनुभव करेंगे, तभी ख्याल हो सकता है। बाहर की तो सीमा भी है, भीतर की कोई सीमा नहीं! लेकिन बिना अनुभव के कोई रास्ता नहीं।
और कुछ चीजें हैं, जो केवल अनुभव से ही जानी जा सकती हैं। अगर मेरे हाथ में दर्द हो रहा हो तो मैं किसी दूसरे को नहीं समझा सकता हूं कि वह दर्द कैसा हो रहा है। मैं लाख उपाय करूं तो भी नहीं समझा सकता हूं। और मैं इस दर्द को निकाल कर भी नहीं बता सकता हूं कि वह दर्द यह रहा। और अगर मैं अपने हाथ को भी काटूं, पीटूं तो भी वह दर्द कहीं से निकाल कर मैं खुद भी नहीं देख सकता हूं कि यह है वह दर्द।
हम सबके भीतर विचार चलते हैं और अगर सिर को काट-पीट कर देखा जाए तो नसें मिलेंगी, नाड़ियां मिलेंगी, विचार कहीं भी नहीं मिलेंगे। आज तक एक भी विचार को बाहर निकाल कर नहीं देखा जा सका है। और अगर हम देखने की ही जिद्द करें तो मानना पड़ेगा कि विचार होते ही नहीं। लेकिन हम सब जानते हैं कि विचार होते हैं।
हम सब जानते हैं कि भीतर प्रेम भी होता है। लेकिन वैज्ञानिक कहेगा कि हृदय को हम बहुत काटते-छांटते हैं, देखते हैं, वहां तो कोई प्रेम जैसी चीज मिलती नहीं। और न ही मैं अपने भीतर के प्रेम को निकाल कर किसी को दिखा सकता हूं कि यह रहा। किसी दूसरे की फिकर छोड़ दूं, मैं भी नहीं देख सकता कि यह रहा! फिर भी हम जानते हैं कि भीतर प्रेम भी है, भीतर विचार भी है, भीतर अनुभव भी है, दर्द भी है, पीड़ा भी है। लेकिन वे सब अनुभव की बातें हैं।
और भीतर जो छोटा सा प्रेम है, जब किसी के जीवन में प्रकट होता है, तब छोटा सा नहीं रह जाता। जब भीतर प्रेम प्रकट होता है तो यह सारा जगत छोटा हो जाता है और प्रेम बड़ा हो जाता है। और जब भीतर पीड़ा होती है तो पीड़ा छोटी नहीं रह जाती। यह सारा जगत छोटा हो जाता है और पीड़ा बड़ी हो जाती है। और भीतर जब आनंद का जन्म होता है तो आनंद छोटा नहीं होता, यह सारे जगत का सारा आनंद छोटा पड़ जाता है और वह आनंद बड़ा हो जाता है। छोटा और बड़ा होना तभी पता चल सकता है, जब भीतर जो है, उसका हमें अनुभव हो।
और भीतर के जिस सत्य की हम बात कर रहे हैं, जिस दिन उसका अनुभव होता है, उस दिन तो वह सत्य इतना बड़ा है, इतना विराट कि हम जिस जगत को जानते हैं, इस तरह के अनंत जगत भी उसकी विराटता को नहीं छूते! लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं। उस दिशा में हमने कोई कदम ही नहीं उठाया।
हम उस अंधे की भांति हैं, जिसे प्रकाश का कोई पता न हो और उस अंधे को हम लाख समझाने की कोशिश करें तो भी उसे पता नहीं चल सकता है कि प्रकाश क्या है। प्रकाश पर लिखे बड़े-बड़े ग्रंथ उसके सामने रख दें तो भी कुछ पता नहीं चलता है। शायद हमारे ग्रंथों से नासमझी पैदा हो जाए, समझ पैदा नहीं हो सकती।
रामकृष्ण कहते थे कि एक आदमी, एक अंधा आदमी, अपने मित्रों के घर मेहमान था। मित्रों ने बहुत-बहुत उसका स्वागत किया था, बहुत सत्कार किया था, बहुत स्वादिष्ट मिष्ठान्न बनाए थे। फिर वह अंधा मित्र पूछने लगा कि यह जो, जो मैं खा रहा हूं, बहुत स्वादिष्ट है, यह काहे से बना है, यह क्या है? मित्रों ने कहा कि यह दूध से बनी हुई चीज है। वह अंधा आदमी कहने लगा, दूध के संबंध में मुझे कुछ समझाओ, कैसा होता है दूध? वे मित्र कहने लगे, दूध! बगुला देखा है? वह बगुले की तरह सफेद, बगुले के पंखों की तरह सफेद होता है, बिल्कुल शुभ्र।
वह अंधा आदमी कहने लगा पहेलियां मत बुझाओ, मुझे यही पता नहीं कि दूध क्या होता है? अब तुम कहते हो कि बगुले के पंखों की तरह सफेद! मुझे यह भी पता नहीं कि बगुले के पंख क्या होते हैं। मुझे यह भी पता नहीं कि यह सफेद क्या है। तुमने और मुश्किलें खड़ी कर दीं। मेरी पहली मुश्किल अपनी जगह है कि दूध क्या है? और दूसरी मुश्किल खड़ी हो गई कि बगुला क्या है? और तीसरी मुश्किल खड़ी हो गई कि यह सफेद क्या है? अब तो तुम मुझे समझाओ कि यह बगुला क्या है?
उसके मित्रों ने कहा कि यह तो बहुत मुश्किल हो गई। यह आदमी अंधा है, इसे रंग कैसे समझाया जा सकता है? उस मित्र ने कहा कि कोई तरकीब निकालो, जिससे कि मैं समझ सकूं बगुला क्या होता है।
एक मित्र बहुत समझदार होगा। वह पास आया और अपना हाथ उस अंधे के पास ले गया और उसने कहा मेरे हाथ पर फेरें। जिस तरह मेरा हाथ सुडौल झुका हुआ है, इसी तरह बगुले की गरदन होती है।
उस अंधे आदमी ने हाथ पर हाथ फेरा, फिर वह खुशी से नाचने लगा और कहने लगा मैं समझ गया कि दूध कैसा होता है। मैं समझ गया, मैं बिल्कुल समझ गया कि मुड़े हुए हाथ की तरह दूध होता है!
उस अंधे के मित्रों ने अपने हाथ सिर से ठोंक लिए और उन्होंने कहाः यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। समझाने हम चले और नासमझी पैदा हो गई।
अंधे को बताना बहुत मुश्किल है कि रंग कैसा होता है। जिसे वह भीतर से नहीं जानता, उसे बाहर से बताने का कोई उपाय नहीं है। अंधा अगर भीतर से जानता हो कि रंग कैसा होता है तो बाहर से बताया जा सकता है। फिर बताने की कोई जरूरत नहीं।
यही उलझन है--जीवन की सबसे बड़ी उलझन यही है। कि जो जानते हैं, उन्हें बताने की कोई जरूरत नहीं है। और जो नहीं जानते, उन्हें बताने का कोई उपाय नहीं है। जो नहीं जानते हैं, उन्हें बताने से और उलझन पैदा हो जाती है। और जो जानते हैं, उन्हें तो बताने का कोई सवाल नहीं है, कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन जाना भीतर से जा सकता है। और बताया हमेशा बाहर से जा सकता है। इसलिए सत्य को कभी बताया नहीं जा सकता, जाना जा सकता है। जानने का अर्थ यह हुआ कि भीतर से हमारी कोई पकड़ और पहचान होनी चाहिए। और बताने का यह अर्थ हुआ कि जिनकी पकड़ और पहचान हो, वह हमें बता दें।
एक गांव में बुद्ध मेहमान थे। कुछ लोग अंधे आदमी को पकड़ लाए और कहने लगे कि हम इस मित्र को समझाते हैं कि प्रकाश है। यह आदमी इनकार करता है। यह कहता है, प्रकाश नहीं है। हम जानते हैं कि प्रकाश है, और सिद्ध नहीं कर पाते हैं कि प्रकाश है। यह आदमी हमसे कहता है कि मैं छूकर देखना चाहता हूं तुम्हारे प्रकाश को। कहां है, लाओ, मैं जरा छूकर देख लूं।
अब प्रकाश को छूकर नहीं देखा जा सकता। लेकिन अंधा आदमी तो चीजों को छूकर ही जानता है। उसके जीवन की पहचान का रास्ता स्पर्श है। होने का, अस्तित्व का सबूत स्पर्श है उसके लिए। वह कहता है कि मैं प्रकाश को छूकर देखना चाहता हूं। और गलत तो नहीं कहता, वह चीजों को छूकर ही जानता है। जिनको छू लेता है, मानता है कि वे हैं। जिनको नहीं छू पाता है, मानता है कि वे नहीं है। छूना ही होने का प्रमाण है। और फिर वह अंधा आदमी हंसता है और कहता है, नहीं ला पाते अपने प्रकाश को, क्यों व्यर्थ की बातें करते हो? क्यों स्वप्न देखते हो? प्रकाश नहीं होगा।
उन मित्रों ने बुद्ध से कहा कि आप आए हैं गांव में तो हमने सोचा कि शायद आप समझा सकेंगे, इसलिए हम इस मित्र को ले आए हैं। यह कहता है कि मैं छूकर देख सकता हूं, स्वाद लेकर देख सकता हूं। बजाओ तुम्हारे प्रकाश को, मैं ध्वनि सुन लूं। सुगंध हो तुम्हारे प्रकाश में तो उसकी वास ले लूं। लेकिन जब हम कहते हैं कि प्रकाश को न छुआ जा सकता है, न सुगंध ली जा सकती है, न वास; न उसकी ध्वनि है; उसे तो देखा जा सकता है। तब यह अंधा आदमी कहता है कि यह देखना क्या है? क्योंकि अंधे आदमी को अगर देखने का ही पता हो तो वह अंधा नहीं है। और तब यह हंसता है और कहता है कि नाहक मुझे अंधा सिद्ध करने को क्यों प्रकाश की बातें करते हो? तुम्हें भी नहीं दिखाई पड़ता, किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता, जो नहीं है, वह कैसे दिखाई पड़ सकता है?
बुद्ध ने कहा मैं इसे नहीं समझाऊंगा, क्योंकि इस दिशा में समझाना नासमझी होगी। मैं तुमसे कहूंगा कि इसे किसी विचारक के पास ले जाने की जरूरत नहीं है। इसे किसी वैद्य के पास ले जाओ। इसे उपदेश की आवश्यकता नहीं है, इसके उपचार की जरूरत है। इसकी आंख का इलाज करवाओ, ताकि यह देख सके। जिस दिन यह देख सकेगा भीतर से, उस दिन ही जान सकेगा, उसके पहले नहीं। लाख बुद्ध समझाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ सकता।
उस अंधे आदमी को वैद्य के पास ले जाया गया। उसकी आंख पर कोई जाली थी, जो छह महीने के प्रयोग से कट गई।
वह आदमी नाचता हुआ बुद्ध के पास आया, उनके चरणों पर गिर पड़ा और कहने लगा प्रकाश है। लेकिन बुद्ध ने कहाः छूकर दिखाओ कहां है? मैं छूकर देखना चाहता हूं। वह अंधा आदमी हंसने लगा और कहने लगा कि नहीं वह छूकर नहीं जाना जा सकता। तो बुद्ध ने कहाः मैं उसका स्वाद लेना चाहता हूं। वह अंधा आदमी कहने लगा कि आप मजाक न करें, उसका स्वाद भी नहीं लिया जा सकता। तो बुद्ध ने कहाः बजाओ, ताकि मैं उसकी ध्वनि सुन लूं। वह अंधा आदमी कहने लगा कि आप पुरानी बातें छोड़ दें। अब मुझे भी दिखाई पड़ता है। प्रकाश को देखा जा सकता है, मैं देख रहा हूं, वह है।
लेकिन बुद्ध ने कहाः पहले वे तुझे समझाते थे, तू हमें समझा रहा है!
उस आदमी ने कहाः मेरी भी कोई गलती न थी। गलती थी तो उनकी ही थी, जो समझाते थे। क्योंकि अंधे आदमी को कैसे समझाया जा सकता है? और अगर मैं उनकी बात मान लेता तो गलती में पड़ जाता। मैंने उनकी बात नहीं मानी, नहीं मानी, नहीं मानी तो उन्हें मेरा इलाज करवाना पड़ा। अगर मैं उनकी बात मान लेता तो शायद इलाज की भी कोई जरूरत न थी। मैं मान लेता और बात खत्म हो जाती, मैं अंधा ही रह जाता और मैं कभी भी नहीं जान पाता।
जाना जा सकता है सत्य को, माना नहीं जा सकता।
सीखा नहीं जा सकता, सिखाया नहीं जा सकता। सत्य की कोई लर्निंग नहीं होती। इसीलिए सत्य का कोई स्कूल नहीं हो सकता, जहां कि सिखा दिया जाए और लोग सीख लें। लेकिन चिकित्सा हो सकती है। आंख का उपचार हो सकता है। वह आंख का उपचार कैसे हो सकता है, वह कल सुबह हम तीसरे सूत्र में बात करेंगे।
अभी दूसरे सूत्र में तो यह समझ लेना जरूरी है कि जाना जा सकता है, लेकिन जानना हमेशा भीतर से आता है। और जिसे हम ज्ञान कहते हैं, वह हमेशा बाहर से आता है। नोइंग भीतर से आती है और नालेज बाहर से आती है। प्रकाश के संबंध में ज्ञान तो प्रकाश के संबंध में लिखी हुई किताबों में मिल जाएगा। लेकिन प्रकाश का जानना किसी किताब में नहीं मिल सकता, वह भीतर से आता है। जानने और ज्ञान में अंतर है। यह समझ लेना नोइंग और नालेज में अंतर है--यह समझ लेना, जानना भीतर से आता है और ज्ञान बाहर से आता है। ज्ञान आदमी को पंडित बना सकता है, ज्ञानी नहीं।
ज्ञानी आदमी बनता है जानने से, खुद के जानने से।
एक आदमी किताबें पढ़ ले तैरने के संबंध में, हजारों किताबें पढ़ ले, तैरने के संबंध का पंडित हो जाए। तैरने के संबंध में जो भी लिखा है, सब जान ले; तैरने के संबंध में जो भी कभी कहा गया है, सब जान ले। तैरने के संबंध में खुद भी किताब लिख सके, व्याख्यान दे सके, तैरने के संबंध में पी एच डी कर ले। लेकिन उस आदमी को भूल से भी पानी में धक्का मत दे देना। क्योंकि वह आदमी और सब कर सकता है, तैर नहीं सकता। तैरने के संबंध में जानना, तैरना जानना नहीं है। तैरना जानना बिल्कुल और बात है। तैरने के संबंध में जानना बिल्कुल और बात है।
और ध्यान रहे, यह भी हो सकता है कि जो तैरना जानता हो, वह तैरने के संबंध में कुछ भी न बता सके। वह कहे कि बस तैरा जा सकता है। हम कूद जाते हैं और तैरते हैं, तुम भी कूद जाओ और तैरो। लेकिन उससे कहो कि एक व्याख्यान दो तैरने के संबंध में। वह कहेगा, व्याख्यान कैसे दें? पानी हो तो हम कूद कर बता दें। और तैर जाए। लेकिन व्याख्यान क्या हो सकता है तैरने के संबंध में? तैरने के संबंध में जानना, नोइंग अबाउट एक बात है।
सत्य के संबंध में तो जाना जा सकता है, लेकिन वह सत्य का जानना नहीं। सत्य के संबंध में जो जानते हैं, उन पंडितों की लंबी कतारें सारी दुनिया में हैं। लेकिन जो सत्य को जानते हैं, वे बहुत थोड़े लोग हैं कभी मुश्किल से।
और जो सत्य को जानते हैं, अक्सर सत्य के संबंध में जानने वाले उनके दुश्मन हो जाएंगे। अक्सर यह होगा कि सत्य को जानने वाला आदमी और सत्य के संबंध में जानने वाले आदमियों के बीच दुश्मनी खड़ी हो जाएगी। क्योंकि वह जो सत्य को जानता है वह कहेगा कि सत्य के संबंध में, जो भी बातें जानी जाती हैं, सब फिजूल हैं, दो कौड़ी की। क्योंकि जो तैरना जानता है, वह कहेगा कि तैरने के संबंध में जानने का क्या अर्थ? जिस संबंध में जानने से तैरना न आ जाता हो--क्या प्रयोजन उस ज्ञान का, जो तैरना न सिखा देता हो?
आपने सुनी होगी वह बात। एक मुल्ला नसरुद्दीन एक फकीर था। वह एक छोटे से गांव में नाव चलाने का काम करता था। दो पैसे नाव पर लेता था लोगों से। एक दिन गांव का बड़ा पंडित नाव पर सवार होकर पार जा रहा था। बीच नाव में उसने मुल्ला से पूछा, कि मुल्ला गणित जानते हो? उस मुल्ला ने कहा, गणित! गणित कैसा होता है? उस पंडित ने कहा, अरे मूर्ख, पूछता है, गणित कैसा होता है? गणित भी नहीं जानता! तेरी जिंदगी बेकार गई, तेरी चार आना जिंदगी बिल्कुल बेकार चली गई। क्योंकि जो आदमी गणित नहीं जानता वह और क्या जान सकता है?
मुल्ला ने कहा, आप कहते हैं तो ठीक है, चली गई हो।
थोड़ी दूर आगे फिर उस पंडित ने कहा, ज्योतिष-शास्त्र जानता है? मुल्ला ने कहा, ज्योतिष-शास्त्र! यह क्या बला है? उस पंडित ने अपने सिर से हाथ ठोक कर कहा कि तेरी चार आना जिंदगी और बेकार गई। जो आदमी ज्योतिष ही नहीं जानता, वह और क्या जीवन को जानेगा? तेरी आठ आना जिंदगी बेकार हो गई।
और तभी जोर का तूफान आया और आंधियां घिर गईं और बादल घिर गए और नाव डगमगाने लगी। उस मुल्ला ने कहाः पंडित जी आपको तैरना आता है? पंडित जी ने कहा, बिल्कुल नहीं! उस मुल्ला ने कहाः यह सोलह आना जिंदगी बेकार हो गई। मैं कूद कर जाता हूं। गणित मुझे नहीं आता, न ज्योतिष मुझे आता है, लेकिन तैरना मुझे आता है। और मैं जा रहा हूं, अब नाव डूबने के करीब है। अब आपकी सोलह आना जिंदगी खराब होगी।
जिंदगी में वह जो नोइंग अबाउट है, चीजों के संबंध में जानना, वह किसी बहुत मूल्य का नहीं है। सत्य के आमने-सामने खड़े होने का तो कुछ मतलब है, सत्य के संबंध में जानने का कोई भी मतलब नहीं।
लेकिन बाहर से जो भी हम जानते हैं, वह संबंध में ही जानते हैं, वह कभी हम सत्य को नहीं जानते। हम जान भी नहीं सकते हैं, यह स्पष्ट हो जाना चाहिए तो उस दिशा में हमारी यात्रा होनी बंद हो जाए। कोई आदमी आकर आपसे कह सकता है कि सत्य ऐसा है, सत्य वैसा है, आपको इससे क्या पता चलेगा? कोई आदमी आकर कह सकता है ईश्वर ऐसा है, ईश्वर वैसा है, आप इससे क्या जान लेंगे? सिवाय शब्दों के आप कुछ भी नहीं जान लेंगे।
और अकेले शब्दों में कुछ भी नहीं होता। हम जिंदगी में ऐसी भूल नहीं करते हैं। हम जिंदगी में ऐसी भूल नहीं करते, भाषाकोश में लिखा हुआ है घोड़ा, उसको हम घोड़ा समझ कर उसके ऊपर सवारी नहीं करते। घोड़ा अस्तबल में बंधा हुआ है, उस पर सवारी करते हैं। शब्दकोश में भी लिखा हुआ है घोड़ा, लेकिन उस पर सवारी नहीं करते हैं। न हम उस शब्द को घोड़ा मान लेते हैं। जिंदगी के आम हिसाब में हम कभी शब्दों को सत्य नहीं मानते। लेकिन सत्य की खोज में हमने शब्दों को ही सत्य मान लिया है! एक किताब में लिखा हुआ है ईश्वर, हम उसको नमस्कार करते हैं किताब को! क्योंकि उसमें लिखा हुआ है ईश्वर! जैसे कि कोई घोड़े पर सवारी कर रहा हो! ईश्वर-लिखी किताब में पैर लग जाता है तो घबड़ा जाते हैं कि ईश्वर को पैर लग गया!
शब्द को लगा हुआ पैर ईश्वर को लगा हुआ पैर नहीं है। शब्द में कुछ भी नहीं, शब्द कोरे कागज पर खींची हुई लकीर से ज्यादा नहीं!
लेकिन एक आदमी कहता है कि धर्मशास्त्रों को हम सम्हाल कर सिर पर ले जा रहे हैं। कोई शास्त्र धर्मशास्त्र नहीं है। क्योंकि धर्मशास्त्र वह शास्त्र हो सकता है, जिसमें सत्य हो। और किसी शास्त्र में सत्य नहीं हो सकता, सिर्फ शब्द होते हैं। शब्दों को हम घोड़ा कभी नहीं मानते, लेकिन शब्दों को ईश्वर जरूर मानते हैं! शब्दों की पूजा चलती है! शब्दों को कंठस्थ कर लेते हैं, शब्दों को दोहराते रहते हैं और उन दोहराए हुए शब्दों को समझते हैं कि हम जानते हैं!
एक आदमी अगर गीता को कंठस्थ कर लेता है तो वह ज्ञानी हो जाता है! गीता को कंठस्थ करने से कोई ज्ञानी कैसे हो जाएगा? स्टुपिड, बुद्धिहीन आदमी का लक्षण है किसी चीज को कंठस्थ करना। बुद्धिमान आदमी का लक्षण नहीं है।
लेकिन अगर गीता कंठस्थ हो गई, या कुरान कंठस्थ हो गया और उसकी आयतें कोई कोई आदमी पूरा दोहराने लगा तो वह ज्ञानी समझा जाता है! उसके पास है क्या? शब्दों की रिकार्डिंग, शब्दों का जोड़-तोड़ उसके पास है। शब्द उससे छीन लो, उसके पास पीछे कुछ भी नहीं। उसके पास उतना ही ईश्वर है, जैसा किसी ने घोड़ा याद कर लिया हो और, कंठस्थ घोड़ा कर लिया हो। जितना घोड़ा उसके पास है, उतना ही ईश्वर को कंठस्थ करने वाले के पास ईश्वर है।
लेकिन एक आदमी को घोड़ा शब्द कितना ही कंठस्थ हो जाए तो हम कभी यह नहीं मानते कि उसके पास घोड़ा है। लेकिन ईश्वर का शब्द कंठस्थ हो जाए तो हम मानने लगते हैं कि इस आदमी के पास ईश्वर है! सत्य के संबंध में हमने शब्दों को ही स्वीकार कर लिया है और कुछ भी नहीं है पीछे! बाहर से शब्द ही आ सकते हैं, भीतर से आता है सत्य। यह बहुत साफ हो जाए तो हम बाहर के उलझाव से मुक्त हो सकते हैं और भीतर की यात्रा कर सकते हैं। जब तक हमें यह ख्याल है बाहर से मिल जाएगा, तब तक हमसे यह यात्रा नहीं हो सकती।
रूस में एक बहुत अदभुत विचारक था, आस्पेंस्की। एक फकीर था, कोकेसियस में गुरजिएफ। आस्पेंस्की उससे मिलने गया। आस्पेंस्की जब उससे मिलने गया, तब तक आस्पेंस्की की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं। और एक किताब में तो इतनी प्रसिद्धि उसको मिली थी कि लोग कहते हैं कि दुनिया में उसमुकाबले की सिर्फ तीन ही किताबें हैं। एक अरस्तू ने लिखी है किताब, यूनान के बड़े दार्शनिक ने। उस किताब का नाम, आरगेनम। वह है सत्य का पहला सिद्धांत। फिर बेकन ने दूसरी किताब लिखी है, नोवम आरगेनम, सत्य का दूसरा सिद्धांत। और तीसरी किताब ऑस्पेंस्की ने लिखी है, टरसीयम आरगेनम, सत्य का तीसरा सिद्धांत। तो लोग कहते हैं कि बस ये तीन ही किताबें हैं अदभुत।
आस्पेंस्की की किताब छप गई थी। उसकी बड़ी कीर्ति और प्रसिद्धि फैल गई थी। वह गुरजिएफ से मिलने गया। गुरजिएफ एक बिल्कुल ही गांव का फकीर। गुरजिएफ से जाकर उसने पूछा कि मैं आपसे कुछ पूछने आया हूं। आस्पेंस्की ने कहा कि मैं आपसे कुछ पूछने आया हूं, आस्पेंस्की बड़ा पंडित था।
गुरजिएफ ने एक कोरा कागज उसको दे दिया और कहा कि पहले इस पर तुम लिख दो, कि तुम जो जानते हो और नहीं जानते हो। क्योंकि जो तुम जानते हो, उस संबंध में मैं कोई बात नहीं करूंगा। क्योंकि तुम जानते ही हो, बात खत्म हो गई। जिस संबंध में तुम नहीं जानते, उस संबंध में कुछ बात करूंगा तो तुम्हें कुछ फायदा हो सकेगा। कहा, जाओ इस कोने में बैठ जाओ और जिन संबंध में तुम्हें मुझसे पूछना हो, ईश्वर, आत्मा, मोक्ष--लिख दो कि किस संबंध में तुम जानते हो और किस में नहीं जानते।
आस्पेंस्की कागज लेकर बैठा और बहुत मुश्किल में पड़ गया। सोचने लगा, ईश्वर को मैं जानता हूं। तो ख्याल आया ईश्वर के संबंध में जानता हूं, ईश्वर को तो बिल्कुल नहीं जानता। आत्मा को जानता हूं? तो ख्याल आया आत्मा के संबंध में जानता हूं, आत्मा को तो बिल्कुल नहीं जानता। घंटे भर कलम-दवात लिए, कागज लिए बैठा रहा। एक शब्द लिखने की हिम्मत न पड़ी!
लौट कर कोरा कागज गुरजिएफ के हाथ में दे दिया और कहा कि क्षमा करना, यह तो मुझे आज तक ख्याल ही नहीं आया, तुमने एक मुसीबत खड़ी कर दी। मैं तो समझता था कि मैं जानता हूं। लेकिन तुमने इतने जोर से पूछा और तुम्हारी आंखों को देख कर मुझे डर पैदा हो गया कि यह आदमी भागने नहीं देगा। अगर इससे कहा कि जानता हूं तो पकड़ लेगा, तो मेरी हिम्मत नहीं पड़ती कि मैं कुछ लिखूं।
तब गुरजिएफ ने कहा कि वह जो तुमने अब तक बड़ी-बड़ी किताबें लिखी हैं, वे कैसे लिखीं? तुम्हारी किताबों की तो बड़ी कीर्ति है! वे किताबें तुमने कैसे लिखीं?
आस्पेंस्की ने कहाः अब तक मुझे यही ख्याल था कि मैं जानता हूं। लेकिन आज जब यह सवाल सीधा सामने खड़ा हो गया, यह कभी खड़ा ही नहीं हुआ। तो मुझे लगता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता। शब्दों की यात्रा कर ली है मैंने। बहुत से शब्द सीख लिए हैं, इसी को मैंने ज्ञान समझ लिया है। मेरा जहां तक जानने का संबंध है, मैं कुछ भी नहीं जानता।
गुरजिएफ ने कहाः कि फिर अब तुम कुछ जान सकते हो, क्योंकि जानने योग्य पहली बात तुमने जान ली है कि तुम कुछ भी नहीं जानते हो। यह पहली बात तुमने जान ली।
यह ज्ञान का पहला चरण है कि तुम कुछ भी नहीं जानते। यह बड़ी हिम्मत की बात है। यह समझ लेना कि मैं नहीं जानता हूं कुछ, बड़ी हिम्मत की बात है। क्योंकि भीतर से अहंकार यही कहता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं नहीं जानता हूं? इतने दिन से गीता पढ़ता हूं, इतने दिन से उपनिषद पढ़ता हूं, इतने दिन से मंदिर जाता हूं, सत्संग करता हूं, यह कैसे हो सकता है कि मैं नहीं जानता हूं?
तलवारें निकल आती हैं जानने पर कि मेरा जानना सही है! दूसरा कहता है कि मेरा जानना सही है! जिस संबंध में कुछ भी पता नहीं, उस संबंध में हम दावेदार हो जाते हैं।
और अगर अब तक हम कुछ भी नहीं जान सके हैं शब्दों को सीख कर तो आगे भी शब्दों को सीख कर हम कुछ नहीं जान सकते हैं। एक जन्म नहीं, अनंत जन्मों तक हम शब्दों को सीखते रहें, तब भी हम कुछ नहीं जान सकते हैं। शब्दों को सीखने वाला ज्ञान के भ्रम में होता है, ज्ञान को कभी उपलब्ध नहीं होता।
फिर कैसे जान सकते हैं? फिर जानने का मार्ग क्या है?
अब तक तो हम यही सोचते थे कि अध्ययन, मनन--यही ज्ञान का मार्ग हैं। अब तक यही हमें कहा जाता रहा है कि किताबें पढ़ो, सत्संग करो, ज्ञानियों की बातें सुनो, और तुम भी जान लोगे! यह सरासर झूठी बात है। कितनी ही किताबें पढ़ो और कितने ही ज्ञानियों का सत्संग करो, कभी भूलकर कुछ भी नहीं जान सकोगे।
आज तक सत्संग से कभी किसी ने कुछ नहीं जाना। आज तक शास्त्र को पढ़ कर कभी किसी ने कुछ नहीं जाना। हां, जानने का भ्रम जरूर पैदा हो जाता है। और जानने का भ्रम अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि अज्ञानी को तो यह भी पता रहता है कि मैं नहीं जानता हूं, तो शायद वह कभी जानने की कोई खोज करे। लेकिन ज्ञान के भ्रम में यही कठिनाई हो जाती है--उसे लगता है, मैं जानता हूं और अब जानने को कुछ बच नहीं रह जाता।
यह दुनिया अज्ञान के कारण परेशान नहीं है, झूठे ज्ञान के कारण, सुडो नालेज के कारण परेशान है। यह जो हम सत्य से इतने दूर हैं, यह दूर अज्ञान के कारण दूर नहीं हैं हम, यह दूरी झूठे ज्ञान के कारण, मिथ्या ज्ञान के कारण है।
सुकरात जब बूढ़ा हो गया तो सुकरात ने खबर कर दी एथेंस में कि जाओ सबसे कह दो कि कोई मुझे भूल कर ज्ञानी न कहे। जब मैं जवान था, तब मुझे यह भ्रम था कि मैं जानता हूं। जैसे-जैसे मेरी समझ बढ़ी उसके शब्द सोचने जैसे हैं। उसने कहा कि जैसे-जैसे मेरी समझ बढ़ी, वैसे-वैसे वह मेरा ज्ञान सब हवा होता चला गया। जैसे-जैसे समझ बढ़ी वैसे-वैसे ज्ञान हवा हो गया और अब जब कि समझ पूरी बढ़ गई है, मैं कहता हूं कि मुझसे बड़ा अज्ञानी खोजना मुश्किल है, मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
एथेंस के बूढ़े लोगों ने उस दिन खुशी जाहिर की और कहा कि सुकरात मालूम होता है, ज्ञान के मंदिर में प्रविष्ट हो गया।
लोगों ने कहाः वह तो खुद कह रहा है, कि मुझसे बड़ा अज्ञानी नहीं है और तुम कहते हो कि ज्ञान के मंदिर में प्रविष्ट हो गया!
तो उन बूढ़ों ने कहा कि पागलो, तुम्हें पता ही नहीं ज्ञान के मंदिर में केवल वे ही प्रविष्ट होते हैं, जिनको ज्ञान का भ्रम छूट जाता है; जो कहते हैं, हम नहीं जानते। जो इतने सरल हो जाते हैं कि कह देते हैं कि हमें पता नहीं, ज्ञान के मंदिर के द्वार उनके लिए खुल जाते हैं। क्योंकि जो यह समझ लेता है कि मैं नहीं जानता, उसकी आंख बाहर से भीतर की तरफ लौटनी शुरू हो जाती है। बाहर के ज्ञान से छुटकारा होते ही मनुष्य भीतर के ज्ञान की दिशा में प्रविष्ट होना शुरू हो जाता है।
जब तक यह ख्याल है कि मैं जानता हूं, जब तक यह ख्याल है कि बाहर से जाना जा सकता है। जब तक यह ख्याल है कि शास्त्र और शब्दों से जाना जा सकता है, तब तक कोई भीतर की तरफ नहीं मुड़ता, वह टर्निंग नहीं आती, वह मुड़ना नहीं पैदा होता।
 यह दूसरे सूत्र में शब्दों के जाल से मुक्त हो जाना जरूरी है। और उनके जाल से हम तभी मुक्त होंगे, जब हम स्पष्ट जान लें कि शब्द सदा असत्य। शब्द कभी भी सत्य नहीं। शब्द सदा असत्य है, शब्द कभी भी सत्य नहीं है। शब्द से कभी सत्य नहीं कहा गया है, न कहा जा सकता है। शब्द सीख कर न कभी शब्द से सत्य जाना गया है, न जाना जा सकता है। जो शब्दों से मुक्त होते हैं, और शब्दों से मुक्त होने का मतलब ही भीतर जाना शुरू हो जाता है। क्योंकि बाहर हैं शब्द और भीतर है शून्य, भीतर कोई शब्द नहीं हैं।
यह दूसरी बात, यह दूसरा सूत्र है--सत्य की खोज में ज्ञान से मुक्त हो जाएं। ज्ञान जो सीखा हुआ है, ज्ञान जो कल्टीवेटेड है, ज्ञान जो दूसरों से मिला है--उधार, बारोड, उससे मुक्त हो जाएं; ताकि वह ज्ञान खोजा जा सके--अनबारोड, जो कभी किसी से नहीं मिलता, जो भीतर मौजूद है। वह ज्ञान मिल सके, जो किसी किताब में नहीं लिखा, जो स्वयं के प्राणों में लिखा है। वह ज्ञान मिल सके, जिसकी भीख नहीं मांगनी पड़ती, जो खुद के भीतर से आता है और जीवन पर छा जाता है। वही ज्ञान सत्य है। क्योंकि उस ज्ञान को फिर छीना नहीं जा सकता। जो दूसरे से मिला है, वह छीना जा सकता है। जो अपने से आता है, वही अपना है और कभी नहीं छीना जा सकता। जो ज्ञान दूसरों से सीखा है, संदिग्ध है, हमेशा संदिग्ध है। उस पर कभी श्रद्धा नहीं हो सकती। जो ज्ञान अपने से आता है, वह असंदिग्ध है। उस पर संदेह का कभी कोई सवाल नहीं उठता।
विवेकानंद अपनी खोज में थे, सत्य की। महर्षि देवेंद्रनाथ के पास वे गए। अंधेरी रात थी और महर्षि एक बजरे पर गंगा में निवास करते थे। विवेकानंद पानी में कूद कर आधी रात में बजरे पर पहुंच गए। द्वार को धक्का दिया, जाकर महर्षि की गरदन पकड़ ली। वे ध्यान में बैठे थे। घबड़ा कर उन्होंने आंख खोली। कोई युवक, पानी में लथपथ, आधी रात में दरवाजे पर खड़ा था। और विवेकानंद पूछने लगे कि मैं जानना चाहता हूं, ईश्वर है?
बहुत पूछने वाले लोग महर्षि देवेंद्रनाथ के पास आए होंगे, लेकिन ऐसा आदमी कभी नहीं आया। गरदन पकड़ कर किसी से ईश्वर के संबंध में पूछा जाता है! और आधी रात बेवक्त पानी को तैर कर आ गया है यह युवक!
वह भी घबड़ा गए होंगे, एक क्षण को झिझक गए। कहा कि बेटा, बैठ जाओ, फिर मैं बात करूं। विवेकानंद ने कहा, बात खत्म ही हो गई, आपकी झिझक ने सब कुछ कह दिया। वह आदमी तो, विवेकानंद कूद कर वापस चला गया। महर्षि बुलाते रहे कि सुनो भी, बैठो भी। उसने कहा, बात खत्म हो गई!
यही युवक दो महीने बाद रामकृष्ण के पास गया। उसी ढंग से जाकर रामकृष्ण को पकड़ लिया और कहा कि ईश्वर है? रामकृष्ण ने कहाः है, उसके सिवाय और कुछ भी नहीं, तुझे जानना हो तो बोल!
यहां कोई झिझक न थी। और रामकृष्ण ने यह नहीं कहा, कि मैं तुझे समझाऊंगा--"है।" रामकृष्ण ने कहाः तुझे जानना हो तो बोल! यह फिकर छोड़ कि है या नहीं। तुझे जानना है कि नहीं, यह बता।
विवेकानंद ने कहा है कि पहली दफा मैं झिझक कर खड़ा हो गया। अब तक मैं लोगों को पकड़ कर झिझका देता था। क्योंकि अभी तक मैंने यह सोचा ही नहीं था कि मुझे जानने की तैयारी है या नहीं। रामकृष्ण के पास कुछ बात और थी। जिनसे पहले पूछा था, उनके पास सीखे हुए शब्द होंगे, भीतर उनके खुद भी संदेह होगा।
रामकृष्ण के पास अपना अनुभव था, शब्द नहीं थे। अनुभव के पास झिझक नहीं होती। अनुभव बेझिझक है, अनुभव असंदिग्ध है, वह इनडिबेटिवल है, उसमें कोई संदेह नहीं।
लेकिन ऐसा ज्ञान सदा भीतर से आता है, जो असंदिग्ध है और जो मुक्त करता है। भीतर से वह आ सके, उसके पहले बाहर के ज्ञान से मुक्त हो जाना जरूरी है। क्योंकि जो बाहर के ज्ञान को ज्ञान समझ कर रुका रहता है, वह कभी भीतर की तरफ नहीं मुड़ता।
जिस आदमी ने कंकड़-पत्थर को हीरे-जवाहरात समझ रखे हों और कंकड़-पत्थरों को तिजोरी में बंद करके बैठा हो, वह आदमी कभी हीरे-जवाहरात खोज सकता है? हीरे-जवाहरात की खोज में पहला काम तो यह होगा कि वह जान ले कि जिनको उसने अब तक पकड़ा है, वह कंकड़-पत्थर है। वह तिजोरी खाली करके फेंक दे। हीरे-जवाहरात की खोज में पहले यह जान लेना जरूरी है कि पत्थर क्या है, कंकड़ क्या है? कंकड़-पत्थर हीरे नहीं हैं, यह जान लेना पहले जरूरी है। तभी हीरों को खोजा जा सकता है कि हीरे क्या हैं।
ज्ञान क्या नहीं है, ज्ञान की खोज में पहले यह ज्ञान जान लेना जरूरी है। जो भी बाहर से सीखा गया है, वह ज्ञान नहीं। जो भी शब्दों से आया है, वह ज्ञान नहीं है। जो भी दूसरों से आया है, वह ज्ञान नहीं। यह बहुत स्पष्ट हो जाए कि ऐसा ज्ञान झूठ है तो फिर उस जानने की खोज हो सकती है, जो कि सत्य होगा।
इसलिए दूसरे सूत्र में मैं कहता हूं, ज्ञान से मुक्त हो जाएं, ताकि वास्तविक ज्ञान उपलब्ध हो सके। ज्ञान से छूट जाएं, ताकि ज्ञान का जन्म हो सके। ज्ञान से मुक्त हो जाएं ताकि ज्ञान के मंदिर में प्रवेश हो सके। इस दूसरे सूत्र को सोचते हुए थोड़ा जाएंगे कि मेरे पास जो भी ज्ञान है, वह मेरा है? यह एक प्रश्न छोड़ कर आज की बात मैं पूरी करता हूं।
यह पूछते हुए जाना कि जो भी मैं जानता हूं, वह मेरा है? वह मैं जानता हूं? और अगर मैं नहीं जानता हूं तो उसका कोई भी उपयोग नहीं। अगर मैं नहीं जानता हूं तो वह ज्ञान नहीं। बासी, उधार, मरी हुई बातें हैं, इनफर्मेशन है, नालेज नहीं। सूचनाएं हैं, खबरें हैं, अफवाहें हैं।
और मजे की बात है कि हम आदमियों के संबंध में तो अफवाहें मान ही लेते हैं। सत्य के संबंध में भी अफवाहें मान लेते हैं!
यह अपने से पूछना कि जो मैं जानता हूं, वह मैं जानता हूं? बहुत कठोर है यह प्रश्न और बहुत निर्मम। क्योंकि यह प्रश्न अहंकार को बहुत दुख पहुंचाएगा। क्योंकि अब तक यह ख्याल था कि मैं जानता हूं। वह यह प्रश्न सारा ख्याल छीन लेगा। एक-एक ईंट गिर जाएगी उस जानने की। इस एक कसौटी पर अपने सारे जानने को कस लेना कि जो मैं जानता हूं, वही ज्ञान हो सकता है। जो मैं नहीं जानता हूं, वह दुनिया जानती हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह मेरे लिए ज्ञान नहीं है।
और अगर यह स्पष्ट हो जाए कि वह मेरे लिए ज्ञान नहीं है तो फिर तीसरे सूत्र पर काम आगे हो सकता है। उसके पहले तीसरे सूत्र पर काम नहीं हो सकता।
एक सीढ़ी हम छोड़ें तो नई सीढ़ी पर पैर रखा जा सकता है। अगर हम पिछली सीढ़ी न छोड़ें तो नई सीढ़ी पर पैर नहीं रखा जा सकता।
नई सीढ़ी पर पैर रखने के लिए पुरानी सीढ़ी छोड़ देनी पड़ती है। पुरानी भूमि से पैर उठा लेते हैं, तब नई भूमि पर पैर रखा जा सकता है।
अगर जिद हो कि हम पुरानी भूमि पर पैर रखे रहेंगे, और हमें चलने का रास्ता बताया जाए, तो चलना नहीं हो सकता। ज्ञान को जाने दें, जिसको पकड़ा है, सीखा है। तो फिर वह ज्ञान आ सकता है जो अनसीखा है, अनलर्नड है। उसके तीसरे सूत्र में हम बात करेंगे।

अभी इस सूत्र के बाद दस मिनट के लिए हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
रात को बहुत भीड़ हो जाती है तो शायद उतना आसान नहीं पड़ता। अभी थोड़े लोग हैं तो हम दस मिनट के लिए ध्यान के लिए बैठें। ध्यान बहुत सरल सी बात है। दो-तीन बातें समझ लें। पहली बात तो यह कि थोड़ा इतने फासले पर हो जाएं कि कोई किसी को छूता हुआ न हो। अगर बहुत भीड़ में आप हों तो बाहर उठ आएं, दूसरी जगह बैठ जाएं। कोई किसी का स्पर्श न करता हो...
ध्यान का अर्थ हैः भीतर जाना। वह तो कल तीसरे सूत्र में हम पूरी तरह समझने की कोशिश करेंगे। लेकिन तैरने के संबंध में जानने के पहले तैरना जान लेना बहुत अच्छा है। तो थोड़ा हम भीतर कूदें और तैरें। एक बहुत सरल सा मार्ग है। और वह सरल मार्ग यह है कि बाहर के प्रति जितना चित्त जागरुक हो उतना ही भीतर चला जाता है। इस छोटे से सूत्र को समझ लें। बाहर के प्रति चित्त जितना जागरुक हो उतना ही गहरे भीतर चला जाता है। अभी दस मिनट में हम जागरुकता का, अवेयरनेस का, होश का, एक प्रयोग करेंगे। यहां वृक्षों में हवाएं चल रही हैं। पत्तों में आवाज हो रही है, पक्षी आवाज करेंगे; सुबह की हवाओं की खबर होगी। चारों तरफ धीमी-धीमी आवाज। धूप है, हवाएं हैं, पक्षी हैं।
दस मिनट के लिए हम आंख बंद कर लेंगे और दस मिनट हम बाहर के जगत के प्रति परिपूर्ण होश रखने की कोशिश करेंगे...
एक भी पक्षी की आवाज हमारे बिना सुने न गुजर जाए। एक भी पत्ते का हिलना हमारे बिना जाने न गुजर जाए। चारों तरफ ध्वनियों का जो जाल है--वह हम जानते रहें, हमें पता चलता रहे, होश बना रहे। जितने जोर से आप जागेंगे इस बाहर के जगत के प्रति, आप हैरान हो जाएंगे, उतने ही गहरे भीतर प्रवेश हो जाएगा। उतनी ही भीतर एक शांति और एक अदभुत आनंद का भाव पैदा हो जाएगा। तो हम बैठें। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह करने से जाना जा सकता है। उसे करें और जानें। बैठें... शरीर को ढीला और आसान छोड़ दें। कोई तनाव शरीर पर न हो। आंख बिल्कुल आहिस्ता से बंद कर लें। उस पर भी कोई जोर न हो। भींचे ना। धीमे पलकों को छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर ढीला छोड़ दें। बिल्कुल आराम से बैठ जाएं। बिल्कुल शांत बैठ जाएं।
सुनें... पक्षियों की आवाजें हैं। हवाओं की आवाजें हैं। शांत, मौन, बाहर जो भी हो रहा है... उसे सुनें। सिर्फ सुनें... पूरे होश से सुनते रहें। सुनें... अनुभव करें... बाहर जो भी हो रहा है। जागे हुए अनुभव करें... हवाएं शरीर को स्पर्श करेंगी... उसका अनुभव होगा। पक्षियों की आवाजें गूंजेगी... उसका अनुभव होगा। आज अनुभव के एक बिंदु मात्र रह जाएं... एक अनुभोक्ता... एक साक्षी... एक विटनेस। आप देख रहे हैं... सुन रहे हैं ... जान रहे हैं। बस... सिर्फ एक ध्यान मात्र हैं। आप सिर्फ जान रहे हैं... जो भी हो रहा है... जाग कर। एक दस मिनट के लिए मात्र, ज्ञान मात्र रह गए हैं... सुनें... पूरे होश से सुनें। दस मिनट के लिए सिर्फ सुनते... जागते हुए रह जाएं...
सुनते रहें... जानते रहें... जागे रहें। पूरे होश से एक-एक चीज अनुभव करें। हवाओं को... सूरज की किरणों को... पक्षियों की आवाज को। और जैसे-जैसे अनुभव करेंगे... मन वैसे-वैसे शांत होता जाएगा। मन शांत होता जा रहा है... मन धीरे-धीरे शांत होता जा रहा है। मन बिल्कुल शांत हो जाएगा... मन शांत हो रहा है... मन शांत हो रहा है... मन शांत हो रहा है... मन शांत हो रहा है... मन शांत हो रहा है... सुनें... अनुभव करें। जितना तीव्रता से अनुभव करेंगे, मन उतना ही शांत हो जाएगा। हवाओं को, सूरज की किरणों को, पक्षियों के गीतों को... एक साक्षी होकर रह जाएं... मन शांत हो रहा है। मन धीरे-धीरे बिल्कुल शांत हो जाएगा। सुनें... एक साक्षी मात्र रह जाएं... सब... जान रहे हैं... पक्षियों की आवाजें सुन रहे हैं... हवाओं का अनुभव कर रहे हैं... एक साक्षी मात्र जो हो रहा है... उसे जान रहे हैं। चुपचाप... मन शांत हो जाएगा... मन धीरे-धीरे बिल्कुल शांत हो जाएगा...
मन शांत हो रहा है... मन गहरे में शांत होता जा रहा है। मन शांत हो रहा है... मन शांत हो गया है...

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