प्रवचन-दूसरा
मेरा दायित्व
प्रश्न आप जो कुछ कह रहे हैं, उसमें आप कहां तक पहुंचे हैं? क्या कोई इतना ऊंचा फल दिखाई दे रहा है?ओशो, इन सब बातों में इतने जल्दी फल दिखाई देते। और भारत जैसे मुल्क में, जहां परंपराएं बहुत पुरानी और बहुत जड़ हो गयी हैं, फल देखने की जल्दी भी नहीं करनी चाहिए। वैसे भी फल के प्रति मैं बहुत उत्सुक नहीं हूं। हमें जो ठीक दिखाई पड़ता है, उसके लिए श्रम करना चाहिए। अगर वह ठीक है, तो फल आएगा--आज, कल हमारे न होने पर। यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। ठीक क्या है, उसकी दिशा में श्रम करना उचित है। लेकिन ऐसा कह सकते हैं कि हल दिखाई देने भी शुरू हुए। क्योंकि उत्सुकता बढ़ी है और हजारों लोग उत्सुक हुए हैं। उस दिशा में चिंतन भी शुरू हुआ है, विचार भी शुरू हुआ है।
और मेरी दृष्टि में विचार ही महत्वपूर्ण है। कर्म को मैं विचार की छाया मानता हूं। अगर एक बार विचार में बदलाहट आयी, तो कर्म में बदलाहट सुनिश्चित है। वह आएगी ही। मेरा लक्ष्य भी विचार की क्रांति से ज्यादा नहीं है; क्योंकि मेरी ऐसी समझ है कि भारत ने हजारों वर्षों से सोचना ही बंद कर दिया है। एक बार सोचने की धारा शुरू हो जाए, तो बड़ी से बड़ी क्रांति संभव है। और सोचने की धारा शुरू करेंगे, तो निगेटिव माइंड, वह निषेध करने वाला चित्त पैदा करना जरूरी है। इतना ही काम मैं कर रहा हूं। इनकार कर सकें, ऐसी वृत्ति पैदा हो जाए। वैसे हम हजारों साल से हो करने वाली कौम हैं, जोर हर बात में हां कहते हैं। स्वीकार हमारा भाव हो गया है।
प्रश्न--अगर आपको कोई फालो कर रहा हो?
ओशो--अगर वे ऐसा कर रहे हैं, तो मैं उनसे ही लड़ रहा हूं। मेरी तरफ से तो नहीं करने दूंगा उनको। अगर कोई ऐसा कर रहा है, तो वह मुझे फालो भी नहीं कर रहा है। क्योंकि मैं कह रहा हूं--कहने की हिम्मत स्वयं और सोचनी की वृत्ति की बात। किसी को भी आंख बंद करके किसी के भी पीछे नहीं जाना है। उसमें मैं भी सम्मिलित हूं। अगर कोई आंख बंद करके मेरे पीछे जा रहा है, तो उससे बड़ा मेरा दुश्मन कोई नहीं है। मैं उससे भी लड़ रहा हूं। वह जाएगा। क्योंकि हमारी जो पुरानी आदत है हां कहने की, तो हम उसमें भी हां कह सकते हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। अगर अंधा होना हमारी प्रवृत्ति बन गयी है, तो हम उसमें भी अंधे हो सकते हैं।
मेरे लिए हां कहना बहुत मुश्किल है, आउट आफ हैबिट है। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं, वह समस्त पुराने चिंतन के विपरीत है। इसलिए मेरे लिए हां कहना बहुत मुश्किल है, आउट आफ हैबिट है। बहुत मुश्किल है। यानि मुझे तो सोचना ही पड़ेगा। सोचना इसलिए पड़ेगा कि पुराना जो मन है हमारा वह, लंबी तैयारी है। मैं उसके बिलकुल विपरीत हूं। अगर मैं उससे ही जुड़ा हुआ हूं, उसकी ही कंटिन्युटी हूं, तब तो कहां कहना बहुत आसान है।
प्रश्न--आप जो बोलते हैं, वह तो आम वर्ग में छायी हुई है और आप कहते है कि आप उससे अलग बात बताते हैं, तो जो यहां के आचार्य नास्तिक होना बोले तो वह पुराने जमाने में नास्तिकपन था।
जब भी कोई परंपरा मरने के किनारे पहुंचती है, तो आखिरी उपाय बचन का, वह यह बचता है कि जो नया है, वह हम में है ही। यह आखिरी उपाय है, किसी भी मरती हुई संस्कृति का, कि वह अंत में दावा यह करती है कि जो भी कहा जा रहा है उसके खिलाफ, वह हमारे भीतर है। तो यह अंतिम उपाय है। हां, बिलकुल ही उस जगह खड़ा है, जहां से उसको मिटना पड़ेगा। क्योंकि हिंदूइज्म का ही सवाल नहीं है पूर्ण माइंड का--वह चाहे जैन का हो, चाहे बौद्ध का हो, चाहे मुसलमान का हो सबका है।
प्रश्न--स्पष्ट रिकाघडग
ओशा--कभी नहीं। बुद्ध को एक्सेप्ट किया उसने उसी क्षण में जब, उसका बचना मुश्किल हो गया। और एक्सेप्ट करके, हिंदूइज्म ने बुद्ध की पूरी की पूरी व्याख्या और अवस्था बदल दी। बौद्ध धर्म तो मर गया हिंदुस्तान में। और बुद्ध ने जो कहा था, उसकी सारी व्याख्या हिंदू धर्म ने अपने अनुकूल कर ली। हिंदू धर्म ने कभी कुछ स्वीकार नहीं किया है। व्याख्याएं बदलने में हिंदू धर्म कुशल है। स्वीकार कभी नहीं किया है। व्याख्या बदलकर स्वीकार करना बड़ी कुशलता की बात है। हिंदूइज्म मरना नहीं चाहता किसी भी कीमत पर, जिंदा रहना चाहता है किसी भी कीमत पर! क्योंकि असल में जो भी चीज पैदा होती है, उसे एक समय तो मरने की तैयारी दिखानी चाहिए, अन्यथा वह बोझिल हो जाती है।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--नहीं, कोई आइडिया गुड और बैड नहीं होता। कोई चीज हमेशा जिंदा नहीं रहती। हर चीज जो पैदा हुई, उसका एक वक्त है जिंदा रहने का, और मरने का। जब वह मरने से इनकार करती है, तो बोझिल हो जाती है। अल्टीमेट ट्रुथ होगा, लेकिन अल्टीमेट ट्रुथ का तुम्हें पता नहीं चल सकता। तुम्हारे सारे ट्रुथ रिलेटिव होंगे और कोई रिलेटिव ट्रुथ कभी भी आखिरी तक जिंदा नहीं रहता। अल्टीमेट ट्रुथ क्या है, यह भी हमें पता नहीं है, किसी को भी पता नहीं।
प्रश्न--उसका अर्थ लोग करते हैं बहुत?
नहीं, नहीं वह सबकी फिलासफी है और सभी अल्टीमेट ट्रुथ का दावा करनेवाले लोग हुए हैं। अलग-अलग दावे कर सकते हैं कि उनका जो ट्रुथ है, वह अल्टीमेट है। किसी का ट्रुथ अल्टीमेट नहीं है। सबके ट्रुथ रिलेटिव हैं। जो भी आज मैं कह रहा हूं, वह भी उतना ही रिलेटिव है। कल इसका करने की तैयारी दिखानी चाहिए। अगर वह जिद्द कर ले इस बात की, अगर मैं जिद्द कर लूं कि मैं जो कह रहा हूं वह अल्टीमेट है, तो मैं मनुष्य के विकास में बाधा बनूंगा। अल्टीमेट का दावा हमेशा विकास में बाधा बनता है। चूंकि विज्ञान कोई अल्टीमेट का दावा नहीं करता है, इसलिए विज्ञान निरंतर विकासमान है। और जो अल्टीमेट का दावा करते हैं, वे मनुष्य के ज्ञान में सबसे बड़ी बाधाएं खड़ी कर देते हैं। दावा सभी करते हैं। सारे लोग अलग-अलग कहेंगे, सब लोग अलग-अलग कहेंगे, लेकिन सबके पास अपने अल्टीमेट कंसेप्शन हैं। मैं जो कह रहा हूं, उसमें हिंदू धर्म से विरोध का सवाल नहीं है। मेरा तो इज्म से ही विरोध है। हिंदूइज्म का सवाल नहीं है।
प्रश्न--हिंदूइज्म तो वे आफ लाइफ है।
ओशो--यह तो सभी कहते हैं। यह तो क्रिश्चियन भी कहता है कि वह, वे आफ लाइफ है। सूफी भी कहता है कि इस्लाम धम, वे आफ लाइफ है। जैन भी यही कहता है वे आह लाइफ है, बुद्धिस्ट भी यही कहता है। यह सब तो बहुत कनिंगनेस के हिस्से हैं। जब इज्म मरने लगता है, तो वह अपनी व्याख्या बदलना शुरू करता है। वह कहता है कि यह वे आफ लाइफ है। यह फिलासफी आफ लाइफ है, इसको इज्म से कोई संबंध नहीं है। इज्म को मतलब ही यह है कि जब भी कोई यह दावा करता है कि जो जाना है, वह अल्टी मेट है; जो जाना गया है, वही सत्य है। जो जाना गया है, इसके विपरीत असत्य है, तब इज्म खड़ा हो जाता है। इज्म डाग्मेटिक है। तो सारी दुनिया में धर्म, सारी दुनिया के मत, इज्म हैं। मेरा जो कहना है, वह हिंदूइज्म के खिलाफ नहीं है। मनुष्य का मन वहां पहुंच गया है, जहां कोई इज्म उसे बांधने में समर्थ नहीं है। अब इज्म की धारणा टूट जानी चाहिए। मनुष्य एक ऐसी जगह आ गया है, जहां उसे वाद से, पंथ से, धर्म से मुक्त होना चाहिए। यह मनुष्य के विकास में बहुत बड़ी छलांग होगी। हिंदूइज्म से मुझे कोई मतलब नहीं है। मैं इजम के अगेंस्ट हूं।
यह जो सवाल है हिंदू या मुसलमान या किसी इज्म का, उससे मेरा कोई संबंध नहीं है। विरोध से भी मतलब नहीं है। मेरा कहना सिर्फ इतना है कि इज्म में बंधनेवाला चित्त सीमित होता है, रोकता है। यह जो रोकने की प्रक्रिया है, उसे तोड़ने की जरूरत है--सब तरफ से तोड़ने की जरूरत है। न माक्र्स किसी को बांध पाए, न कृष्ण किसी को बांध पाए, न बुद्ध न महावीर न कोई किसी को बांधने की कोशिश करे और न कोई बंधने की ही कोशिश करे। व्यक्ति मुक्त हो सके। समस्त विचार की धारणाओं से और स्वयं सोचने में समर्थ हो सके इसकी मेरी चेष्टा है।
अगर कोई कहता है कि यही हिंदूइज्म कर रहा है, तो ठीक है वह मेरे साथ है, वह मेरे काम में लग जाएगा। अगर कोई कहता है कि यही मुसलमान कह रहा है, तो ठीक है, वह मेरे साथ हो जाए। लेकिन वह यह कहकर भी मुझे लड़ाई जारी रखेगा। हमेशा जब भी इज्म खड़ा होता है तो व्हेस्टेड इन्ट्रेस्ट पैदा हो ही जाएंगे। क्योंकि पुजारी होगा, मंदिर होगा, आश्रम होगा, धन होगा, व्यवस्था होगी, गुरु होंगे, शिष्य होंगे तो व्हेस्टेड इन्ट्रेस्ट पैदा होगा ही।
प्रश्न-अस्पष्ट है
ओशो--अफ्रेड होना चाहिए अफ्रेड उन्हें होना चाहिए। मैं भी अफ्रेड हूं, भयभीत मैं भी हूं, वह सब मेरे पास भी खड़ा हो सकता है। और इसलिए न मेरा कोई अनुयायी है, न संप्रदाय है। मैं तो मानता हूं कि समस्त चिंतन इंडीविजुअल है। इसलिए न मेरा कोई अनुयायी है, न मेरा कोई संप्रदाय है, और न मैं किसी का गुरु हूं।तो, मैं भी अफ्रेड तो हूं, इसलिए तो सारे इंतजाम कर रहा हूं कि मेरे साथ वह बात न बन सके। मैं किसी को बांधनेवाला सिद्ध नहीं होना चाहूंगा।
अगर ऐसा तुम्हारा खयाल हो, तो मेरे साथ खड़े होना चाहिए। और जिन लोगों को भी यह लगता हो कि यह सब पुराना है, वही है; जिनको भी ऐसा लगता हो, उन्हें मेरे साथ खड़ा होना चाहिए।
प्रश्न--आपके साथ क्यों?
ओशो--मैं जो कह रहा हूं, अगर वह लग रहा हो कि यही वेद में है, यही पुराण में है, यही कृष्ण कहते हैं, यही महावीर कहते हैं, यही बुद्ध कहते हैं, अगर ऐसा लगता है, तो वह जो महावीर और बुद्ध को माननेवाले है, उसे मेरी दुश्मनी में खड़े होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन वह मेरी दुश्मनी में खड़ा है, और इसलिए मैं कहता हूं कि जब वह यह कहता है कि यही पुराण कहते हैं, तो गलत कहता है। इन दोनों में से कोई एक बात भी ठीक है, और यही पुराण कहते हैं, तो मैं उसके पुराणों को ही सिद्ध कर रहा हूं। तब मुझसे दुश्मनी का कोई कारण नहीं है। मेरी दो बातें हैं--अगर मेरी बात पुरानी ही है, तो मुझसे दुश्मनी का क्या कारण है? कोई कारण नहीं रह जाता। और अगर दुश्मनी का कारण है और फिर वह कहता है, मेरी बात पुरानी है, तो फिर उसमें चालाकी है।
प्रश्न--व्यक्ति को रिस्पेक्ट तो मिलती ही है, जैसे कृष्ण को मिला है।
ओशो--अगर यह कह रहे हों, तो मैं यही कह रहा हूं कि व्यक्ति का रिस्पेक्ट करना गलत है। तो फिर मेरी बात नयी हो जाएगी। यह सवाल नहीं है, मैं यह कह रहा हूं कि आप जान ही नहीं सकते कि कौन एनलाइटेंड सोल है और कौन नहीं है। और न आप तय कर सकते है; क्योंकि उसी कृष्ण को जैनों ने नर्क में डाल दिया है। एनलाइटेंड सोल का तो सवाल ही नहीं है। समझना चाहिए कारण। जैनों के क्राइटेरियन सोचने के, अहिंसा के हैं। तो कृष्ण इनलाइटेंड नहीं हो सकत; क्योंकि कृष्ण तो लोगों को हिंसा में ले गए हैं अतः उनको नर्क में डाला गया है। मैं तो यह कह रहा हूं कि अगर तुम कहते हो कि पुरानी धारणा कृष्णको, महावीर को, बुद्ध को, व्यक्तियों को आदर देने की है, तो मैं कहता हूं कि व्यक्तियों को आदर देनेवाला, बांधनेवाला सिद्ध हुआ है। व्यक्तियों को आदर देने की जरूरत नहीं है। तो फिर मेरी बात नयी हो जाएगी, अगर तुम कहते हो। और अगर पुरानी है, तो मैं झगड़ा नहीं करता कि पुरानी होने में मुझे कुछ विशेष दर्द है। मेरा कहना कुछ इतना है कि जो लोग यही सिद्ध करना चाहते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, वही हमारी पोथी में कहा है,तो फिर मेरा उनसे क्या झगड़ा है? उनको क्या परेशानी है मुझसे? मैं तो यह कहता हूं कि अपने को रिस्पेक्ट करना पर्याप्त है।
प्रश्न--ओशो, क्या यह सच नहीं है कि आप एक बहुत अहम चीज को नजरंदाज कर गए कि सनातन परंपराओं में एक ही स्वयं ही प्रक्रिया है, जो हर नयी चीज को आत्मसात करने की क्षमता रखती है। और उस दृष्टि से आप देखें, तो आपकी विचार क्रांति जो उथल-पुथल लाएगी सोचने की दिशा में यह आप विरोध में नहीं है, बल्कि
ओशो--यह सवाल नहीं है कि इसकी हम क्या व्याख्या करते हैं। इसे आप विरोध कहें, इसे आप समन्वय की प्रक्रिया कहें, यह सवाल भी नहीं है। सोचने का ढंग विचार को उकसाते नहीं हैं। विचार को मारने की तरफ भगवान है, तो फिर मेरी बात पर शक और संदेह और विचार करने का सोचने के ढंग विचारा को उकसाते नहीं हैं। विचार को मारने की तरफ बल देते हैं; क्योंकि अगर किसी व्यक्ति ने यह मान लिया कि कृष्ण जो कहते हैं, उसे मानने का मन ज्यादा होता है। अगर मैं वादा करूं कि मैंने भगवान को पा लिया है, या मैं भगवान हूं, तो फिर मैं आपको विचार को नुकसान ही पहुंचाता है। अगर आप ही मुझे मान लें कि यह आदमी भगवान है, तो फिर मेरी बात पर शक और संदेह और विचार करने का उपाय कम हो जाता है। मेरा कहना कुल इतना है कि कोई व्यक्ति अथारिटी नहीं है।
और अब यह हमारे खयाल में आएगा कि कोई अथारिटी नहीं है तभी हम सोचने को मजबूर होंगे, अन्यथा विचार की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अगर अथारिटी है और पुराना सारा चिंतन अथारिटेटिव है--वह यह मानकर चलता है कि एक आदमी तीर्थंकर है, एक भगवान है, एक सर्वज्ञ है, उसने पा लिया है, और जान लिया है। वह जो कह रहा है वह ट्रुथ है, तो फिर बाकी लोगों को कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। बाकी लोगों के तो मानने का सवाल है। पुराना सारा मन माननेवाला मन है। तो उसे लड़ाई कहें, समन्वय कहें, यह सवाल नहीं नहीं है; क्योंकि अंततः लड़ाई भी समन्वय ही लाती है। अगर हम दोनों विरोध भी करें एक दूसरे का और अंततः जिद्दी और अहंकारी नहीं हैं, तो हम एक जगह पहुंच जाएंगे, जहां हमारा विरोध आत्मसात होगा और दोनों बातें एक हो जाएगी। वह बात न आपकी होगी फिर, न मेरी होगी, बल्कि दोनों के संघर्ष का अंतिम फल होगी। सारा विरोध भी, थीसिस, एंटीथीसिस की सारी प्रक्रिया भी, अंततः सिन्थीसिस पर ले जाती है। तो, समन्वय और विरोध का सवाल बड़ा नहीं है। लेकिन समस्त समन्वय विरोध से ही होते हैं। कोई समन्वय बिना विरोध के नहीं आता। और जो समन्वय बिना विरोध के आने की कोशिश करता है, वह हमेशा मरा हुआ समन्वय होता है, वह समन्वय कभी सच्चा नहीं होता। क्योंकि समन्वय आने के लिए भी एंटीथीसिस से गुजर जाना एकदम जरूरी है। यह मैं नहीं कह रहा हूं मैं जो कहता हूं उससे नया मन पदा हो जाएगा। मैं यह कह रहा हूं कि पुराने मन के साथ अगर एक संघर्ष चले, तो एक नया मन पैदा होगा, जो न पुराने जैसा होगा, न उन लोगों जैसा होगा जो लोग संघर्ष चलाएंगे।
प्रश्न--तो रूप क्या होगा?
ओशो--हां, रूप बहुत तरह के हम सोच सकते हैं। जरूरी नहीं है कि वह वैसा ही होगा, लेकिन कुछ अनुमान लगा सकत हैं। जैसा कि पुराना पुरा का पुरा मन किसी रूप में प्रामाणिक है, अथारिटी है, साक्षी है, विश्वास और आस्था पर खड़ा है। नए मन की अब कोई संभावना नहीं है कि वह आस्था, शास्त्र, विश्वास पर खड़ा हो। नया मन संदेह पर, विचार पर खड़ा होगा।
प्रश्न--क्या आप कुछ गाइड करेंगे?
ओशो--नहीं मैं किसी को गाइड नहीं कर रहा बात चित कर रहा हूं मित्रों से, गाइड किसी को नहीं कर रहा। क्योंकि मैं मानता ही नहीं कि कोई किसी का गाइड हो सकता है। हम मित्र हो सकते हैं, हम बात कर सकते हैं।
प्रश्न--अभी आपने गीता का दृष्टांत दिया कुछ?
ओशो--यह मैं मना कह रहा हूं। यह जो तुम दूसरी बातें कह रहे हो, उसमें कोई मुझे झंझट नहीं है। गीता का दावेदार जो कृष्ण है, वह कहता है, आओ मेरी शरण में, और सब छोड़ दो, मेरी शरण में आ जाओ, तुम उपलब्ध हो जाओगे। इसे मैं इनकार करूंगा।
प्रश्न--यह तो साधन की सुगमता के लिए है।
ओशो--उसको मैं साधन भी नहीं कह रहा हूं। यही तो झगड़ा है। मैं यह कह रहा हूं कि जब भी कोई व्यक्ति किसी कि शरण में जाता है, तो आत्मघात कर लेता है। जो शरण में गया उसने आत्मघात किया, और जिसने शरण में बुलाया, वह आदमी दूसरे का मित्र नहीं है, वह दूसरे को मिटा ही रहा है। गीता मित्र हो सके, कृष्ण मित्र हो सके, यही मैं चाह रहा हूं। कृष्ण गुरु हैं, गाइड हैं, मित्र नहीं है। कोई जैन हिम्मत नहीं करेगा, महावीर को मित्र कहने की। मीरा कह सकती है, सखा। पति भी कह सकती है, लेकिन मीरा का भी समर्पण भाव पूरा है। मैं कह रहा हूं कि समर्पण का भाव ही गलत है। किसी एक का किसी दूसरे के प्रति सरेंडर होने की बात ही गलत है।
प्रश्न--व्यक्ति की बात है न तो विश्वास चाहिए।
ओशो--फिर वही बात हो गयी न। फिर तो यह आपको मानकर चलना पड़ेगा कि अचीव किया। यह तो विश्वास की बात हो गयी आपके। तो वही मैं कह रहा हूं कि पुराना जो माइंड था, वह विश्वास पर खड़ा हुआ है, विचार पर खड़ा नहीं है। कृष्ण को एक आदमी मान सकता है कि वह पहुंच गए, दूसरा आदमी मान सकता है कि नहीं पहुंचे। लेकिन विचार का कोई उपाय नहीं है कि पहुंचे या नहीं पहुंचे। क्राइस्ट या नहीं पहुंचे। एक मान सकता है कि पहुंच गए, दूसरा मान सकता है कि पागल हैं। यह बात विचार पर खड़ी हुई नहीं है। यानी इसके लिए कोई विचार निर्णायक नहीं हो सकता है कि कृष्ण पहुंच गए या नहीं पहुंचे।
प्रश्न--अस्पष्ट है
ओशो--नहीं, नहीं टाइम कुछ प्रूव नहीं कर सका। जरा भी प्रुव नहीं कर सका, एक जैन नहीं समझा सका टाइम, कि कृष्ण पहुंच गए हैं। एक हिंदू को नहीं समझा सका, महावीर का समय गुजर जाना कि महावीर सर्वज्ञ हैं। टाइम की तो बात दूर है। कितने ही करोड़ वर्ष बीत जाए, तो कुछ तय न होगा, क्योंकि तय क्या होगा? विश्वास करने में तय कभी होना ही नहीं है। जिसको विश्वास करना है, करना है। नहीं करना है, नहीं करना है। टाइम सिर्फ आइंटिफिक ट्रुथ को प्रूव करता है, रिलीजस ट्रुथ को प्रूव नहीं करता है। नहीं करता है इसलिए कि रिलीजस ट्रुथ विश्वास पर खड़ा है। विश्वास का टाइम से कोई संबंध नहीं है।
बिलकुल हैं, लेकिन विश्वास से वह नहीं जानी जा सकती। वह तो विचार का अतिक्रमण होगा, तब जानना होगा। इसका कोई विचार करे कि उस जगह पहुंच जाए, जहां विचार व्यर्थ हो जाए, तो ट्रांसेंडेंस होगी, लेकिन वह विश्वास से नहीं होती है। विश्वास तो विचार को बिलकुल प्राथमिक प्रक्रिया है।
प्रश्न--अगर विचार निरंतर है तो शाश्वत क्या है, और विचार का मतलब क्या है?
ओशो--शाश्वत को खोजना ही विचार का मतलब है, और विचार निरंतर है। और एक सीमा आती है और की जहां विचार को पता चलता है कि और आगे जाना हो, तो विचार छोड़ देना पड़ेगा। विचार की अंतिम प्रक्रियाओं से गुजरकर यह बोध होता है कि एक जगह विचार भी छूट जाता है। लेकिन तब विश्वास नहीं आता। विश्वास तो विचार के पहले है। जो आदमी विचार करता ही नहीं, वह विश्वास करता है। जो व्यक्ति विचार का ट्राटेंड कर जाता है, वह जानता है--ही नोज। वह विश्वास नहीं करता है। जानने में और विश्वास करने में जमीन आसमान का फर्क है। जहां जानने का संबंध है, वहां विश्वास बिलकुल नहीं है। विश्वास की कोई बात ही नहीं है जानने में।
यह इस पुराने माइंड को ही तोड़ना है। यह मस्तिष्क खतरनाक सिद्ध हुआ है, हितकर सिद्ध नहीं है; क्योंकि मस्तिष्क ही नहीं है। जो सोच ही नहीं सकता, वह ठीक अर्थों में आदमी ही नहीं है। उसमें सोचना पैदा करना ही पड़ेगा। लेकिन पुराना धर्म उस आदमी को भी जगह देने की कभी नहीं सोच सकता। इसलिए पुराने धर्म ने मनुष्य को विकास में सहायता कम दी, मनुष्य के विकास को रोकने में सहयोगी बना। जो आदमी सोच नहीं सकता, उसको मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन उसे पुराना धर्म विश्वास बनाकर संत भी बना सकता है। तो ईडियट भी परमहंस हो सकते हैं पुराने धर्म की दुनिया में। जो कुछ भी नहीं सोच सकता है, बिलकुल इंबेलाइल है, वह भी परमहंस हो सकता है। परमहंस इसलिए हो सकता है कि वह सोच नहीं सकता। वह निपट गंवारपन का काम कर रहा है पाखाने के पास बैठा हुआ है, पेशाब पी रहा है, उसमें कोई भेद नहीं है लेकिन उसे हम परमहंस भी कह सकता हैं। मैं यह कह रहा हूं कि अगर गलत नहीं है--विचार ही मनुष्य की लक्षण है--तो फिर हेजीटेट करो, तब कोई बात ही नहीं है। फिर तुम पेड़ हो जाओ, जानवर हो जाओ। मैं यह कह रहा हूं कि पत्थर हो जाओ, फिर कोई हर्जा नहीं है।
जिनको यह खयाल है कि सब फार्म भगवान के हैं, ठीक है, हो जाए कुछ भी। और मैं मानता हूं कि मनुष्य के भीतर कोई घटना घटी है, जो पत्थर के भीतर नहीं घट रही है। मनुष्य के भीतर कोई घटना घटी है जो परमात्मा को भी विकसित करने में, अविकसित करने में सहयोगी हुई है। वह जो मनुष्य की चेतना है, उसे हम कितना बल दे सके, कितनी गति दे सकें--दो रास्ते हो सकते हैं। या तो उस चेतना को हम रोकें, या उसे गति दें! मेरा कहना कुल इतना है इतना है कि पुराना मन उसको रोकनेवाला सिद्ध हुआ है।
प्रश्न--वह इतनी गति दे कि वह अल्टीमेटली अल्टीमेट चेतना...।
ओशो--अभी तो अल्टीमेट का सवाल नहीं है। और मर्ज (विलीन) होती है या नहीं होती, यही मेरा कहना है। यह विचार करने की बात है। इसलिए ऐग्री करता हूं। वह विश्वास करने की बात है। यह विचार करने की बात है। वही मैं कह रहा हूं। पुराना मन कहता है कि विचार करो कि मर्ज (विलीन) होती है। और विश्वास करो कि इस भांति मर्ज होती है। झगड़ा मेरा यह नहीं है कि मर्ज (विलीन) होती है कि नहीं होती। झगड़ा मेरा यह है कि जीवन के समस्त विचार सत्य विचार करने योग्य हैं, विश्वास करने के योग्य नहीं है। अगर यह प्राइमरी है, तो फिर मैं जो कह रहा हूं, उसमें भेद हैं। भिन्नता है। क्योंकि पुराना मन बिलकुल दूसरी बात कहता है। वह यह कहता है कि विचार मत करो, विश्वास करो। विश्वास प्राइमरी (प्राथमिक) बात है। और तुमने संदेह किया, शक किया कि भटक जाओगे। मेरा कहना यह है कि संदेह नहीं किया, तो कभी पहुंच ही नहीं सकोगे। संदेह करोगे तो खोजोगे, प्रश्न करोगे, चिंतन करोगे, मनन करोगे, श्रम अनुसंधान करोगे, तो कभी न कभी पहुंच सकते हो।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--यह सवाल नहीं है। आप बिना जाने रख नहीं सकते कंपलीट कानिफिडेंस। इसको थोड़ा समझें--जब हम कहते हैं कंपलीट कान्फिडेंस। जिस बात को मैं नहीं जानता हूं उसे मैं कितना ही कान्फिडेंस रखने की कोशिश करूं, वह इनकंप्लीट रहेगा। क्योंकि बेसिकली, बुनियादी तौर पर मैं यह जानता ही रहूंगा कि मैं नहीं जानता। इसको भुलाया नहीं जा सकता। तुम थिंक (विचार करो या न करो, क्योंकि कंपलीट कान्फिडेंस भी थिंकिंग है और क्या हैं तुम यह सोचोगे न, कि मुझे कंपलीट कान्फिडें रखना है, तो क्या करोगे? यह कैसे करोगे? सोचोगे न?
प्रश्न--इट इज ए वेरी सिम्पल थाट।
ओशो--नहीं, नहीं, कितना ही सिम्पल इट इज ए थाट। डिसीजन (निर्णय) भी थाट (विचार) है। तुम डिसीजन लोगे न, जोकि नहीं जानता है। दी बेसिक इग्नोरंस रिमेन। कितना ही कंपलीट कान्फिडेंस हो, यह तुम जानते ही रहोगे कि कान्फिडेंस तुम्हारा लाया हुआ है।
रियलाइजेशन की जल्दी मत करो। जो कंपलीट कान्फिडेंस कर रहा है, वह तो बिलकुल इग्नोरेंट आदमी है। रियलाइजेशन करनेवाले को कान्फिडेंस करने की जरूरत नहीं है। कान्फिडेंस होता है। यह अगर जस्ट कमिंग की बात हो, तो न गाइड की जरूरत है, न गीता की जरूरत है, न धर्म की, न मंदिर की, न मूर्ति की।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--क्या मतलब है तुम्हारे हिंदू नहीं रहने का। तुम्हारे रहने की जरूरत ही नहीं है, अगर यह एलीमेंटरी बात है। तो हिंदू होने की क्या जरूरत है? बिलीव्हर करते हो न तुम, तो कुछ करते हो न? अगर तुम हिंदू हो, तो हिंदू होने में बिलीव्हर करते हो न? जब हम कहते हैं कि मैं हिंदू हूं, तो मैं हिंदू होने में बिलीव्हर कर रहा हूं न? तो विलीव्ह तो तुम कर रहे हो। और अगर कुछ भी हनीं करना है तो इतना कहना भी बेमानी है कि मैं हिंदू हूं।
हां, और उसको तुमने बिलीव्ह कर लिया है, और क्या किया है? तो यह पीपुल को डेड जो कर रहे हैं हजारों साल से, मैं उसके खिलाफ हूं। मैं कहता हूं, तुम जो हो, हो। न तुम हिंदू हो, न मुसलमान हो। यह हिंदू होना मुसलमान होना, सिखायी हुई बात है। और सिखाकर विश्वास दिलाया जा रहा है। बचपन से कि यह आदमी हिंदू है, यह मुसलमान है, यह ईसाई है। और तुम जो हो, वह हो। तुम जो हो, अगर उसे खोजना है, तो इस प्रोपेगेंडा से मुक्त होना पड़ेगा--जो सोसाइटी सिखा रही है कि तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, तुम फलां हो, तुम ढिकां हो। ये बिलकुल झूठी बातें हैं।
प्रश्न--ये एलीमेंट्री बातें हैं?
ओशो--एलीमेंट्री ही बातें कर रहा हूं। एलीमेंट्री बात करने की ही जरूरत है। यह मैं कह ही नहीं रहा हूं, यह तुम ही बार-बार कहते हो न कि इट हैज बीन सेड? जैसे ही इसको हम कहते हैं कि यह कही गयी है, फेलो की गयी है, तो मुझसे विरोध क्या है? फिर तुम मुझसे बात क्या कर रहे हो? फिर तुम्हें पहले से ही बिलकुल चुप होना है। मेरा मतलब आप समझे? मैं जो कह रहा हूं, वही यदि कहा गया है, वह माना गया है, तब तो मुझसे बात करने का सवाल ही नहीं उठता। बात ही नहीं करना चाहिए।
प्रश्न--आपने कहा कि विचार का जो चरम लक्ष्य है, वह शाश्वत की खोज है। तो क्या यह संभव नहीं है कि विरोधी विचारधारा के पश्चात शाश्वत सत्य, चिरंतन सत्य खोज में आया है, जो हमारे सामने है, गीता और वेद के रूप में है। इसके पीछे भी हजारों की चिंतन प्रक्रिया रही है, लगातार प्रयास के बाद यह फल निकला है। तो खोज शास्त्रों की खोज हो गयी, हम उसको, सनातन को दोहराने के बजाय यह समाज जड़ न हो जाए, उसको बचाने की कोशिश हम कर रहे हैं। हम उसमें और एक करने की कोशिश करें बजाए इसके--
ओशो--असल में शाश्वत की जो खोज है--शाश्वत कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी ने मुट्ठियां बांध ली हों और आपको दे दे। शाश्वत को पाने में खोज इतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना शाश्वत को पाना है। सच तो यह है कि खोज और प्राप्ति दो चीजें नहीं हैं। खोजने की प्रक्रिया मैं ही प्राप्ति है। तो अगर कृष्ण को मिल गया हो शाश्वत और आप खोज नहीं करते हैं, फिर कृष्ण को मान लेते हैं, तो आपको कभी नहीं मिल सकता। क्योंकि खोजने में ही मिलने की प्रक्रिया है। वह जो खोजने की बड़ी कोशिश है वही आपको रुपांतरिक करती है, और वहां पहुंचती है जहां शाश्वत के दर्शन होते हैं। आप तो कृष्ण को मानेंगे। कृष्ण को शाश्वत मिला है या नहीं, या आप जान नहीं सकते। मिला भी हो सकता है, नहीं भी मिला हो सकता है। आपके लिए तो यह सिर्फ मानने की बात होगी। यह विज्ञान के बाबत बिलकुल सच है, डुप्लीकेशन की कोई जरूरत नहीं है विज्ञान में। क्योंकि जो मिल गया है, वह आब्जेक्टिव है।
जैसे एक आदमी ने बिजली के बाबत खोज कर ली है, तो मुझे और आपको बिजली के बाबत फिर से खोज करने की कोई जरूरत नहीं है, नासमझी है वह। बिजली फिर आब्जेक्टिव है, बाहर है। आपने भी खोज ली है, तो पचास लोगों के सामने प्रयोग करके आप बता देते हैं कि यह रही बिजली।
शाश्वत सत्य, जिसे हम धर्म का शाश्वत सत्य कहते है, चूंकि सब्जेक्टिव है, चाहे कृष्ण को मिला हो, चाहे और किसी को मिला हो--सामने रखकर बताया नहीं जा सकता है दूसरों के सामने, कि यह मुझे मिल गया है। और तुम पहचान लो कि इसे पाकर मैं आनंदित हो गया हूं। कृष्ण इतना ही कह सकते हैं कि जो मुझे मिला है, उसके विषय में मैं सबसे बात कर सकता हूं। वह मिलना तो बहुत आंतरिक है, और इतना आंतरिक है कि दूसरे व्यक्ति के लिए अर्जित हो नहीं पाता कभी भी। इसलिए धर्म की दुनिया में, विज्ञान का अर्थ काम नहीं करेगा। धर्म की दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को खोज से गुजरना ही पड़ेगा--अनिवार्य है खोज से गुजरना। और कृष्ण जिस तरह पहुंचते हैं, उसी तरह उसे भी पहुंचना पड़ेगा, अपनी ही खोज से। कृष्ण को जो मिला है, या कृष्ण जो कह रहे हैं तो बुद्ध को कोई जरूरत नहीं खोजन की--कृष्ण को मिल गया है, बुद्ध उसको पकड़ लें, मामला खत्म हो गया। लेकिन बुद्ध कितना ही पकड़ते हैं, उससे कुछ हल नहीं होता। बुद्ध को खोजना पड़ता है। बुद्ध को मिल गया है, तो महावीर को भी खोजने की जरूरत नहीं है--बुद्ध को पकड़ लें, बात खत्म हो जाती है। लेकिन नहीं, जितने लोगों को चरम सत्य मिला है, वह व्यक्तिगत खोज की निष्पत्ति है, सामूहिक खोज की निष्पत्ति चरम सत्य नहीं है!
दो तरह के सत्य हैं--एक को हम आब्जेक्टिव ट्रुथ कहें, जो हमसे बाहर है। उसे तो विज्ञान खोज रहा है। और दूसरा वह जो हमारे भीतर है, उसे धर्म खोज रहा है। विज्ञान के लिए आप कहते हैं कि बिलकुल ठीक है, डुप्लीकेशन बिलकुल बेमानी है। एब्सर्ड है, कोई जरूरत नहीं है। हम आगे खोजते चले जाएंगे। इसलिए विज्ञान में तो एडीशन होता है और धर्म में कभी एडीशन नहीं होता। धर्म का आपको फिर से रिवीलेशन होता है। और वह रिवीलेशन उतना ही ओरिजनल है, जितना कभी किसी को हुआ हो, वह डुप्लीकेट नहीं है। क्योंकि आप किसी को मानकर कभी कहां पहुंचते नहीं है। आप खोजते हैं, खोजते हैं और पहुंचते हैं वह जो पहुंचना है, उतना आंतरिक है कि यह कभी सोशल प्रापर्टी बन नहीं पाता और बन ही नहीं सकता।
मेरा कहना कुल इतना ही है कि हम उसको सोशल प्रापर्टी बनाकर नुकसान में पड़ें हैं। पुराने शिक्षकों ने यह कह दिया है कि एक दफा मिल गया वेद को सत्य, तो बाकी लोगों का काम है कि वेद को मान लें। मोहम्मद का मिल गया था, फिर बाकी लोगों का काम है कि मोहम्मद को मान लें। मेरा कहना यही है किसी को भी सत्य मिल गया हो, बाकी लोगों के मानने से नहीं मिल जाएगा। बाकी लोगों को भी उस प्रक्रिया से खोजने निकलना ही पड़ेगा, जो एकदम आंतरिक और व्यक्तिगत है, इसका किसी से ट्रांसफरेबल नहीं है ट्रुथ।
चरम सत्य कभी हस्तांरित नहीं होती है। न कभी हो सकता है। उसका कोई उपाय नहीं है। अगर मुझे मिल गया है, तो मैं लाख उपाय करूं तो आपको नहीं दे सकता हूं। या आपको मिल गया है तो आप मुझे नहीं दे सकते। अगर यही संभव होता, तो दुनिया में एक धर्म का बच जाता, जरूरत न थी पचास धर्मों की। और दुनिया के सारे लोगों ने जैसे विज्ञान को स्वीकार कर लिया है--क्योंकि कोई सवाल नहीं झगड़े का कि हिंदू की केमिस्ट्री अलग हो, मुसलमान की केमिस्ट्री अलग हो। केमिस्ट्री के बाबत हम राजी हो जाएंगे, चाहे कोई हिंदू हो, चाहे कोई मुसलमान हो। एक एक्सपेरीमेंट करते हैं, आब्जेक्ट ट्रुथ का, हम राजी हो जाते हैं। लेकिन धर्म की खोज व्यक्तिगत है।
तो रिलीजन के साथ उपद्रव यह है कि ट्रुथ सब्जेक्टिव है, इनर है।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--नहीं यह मैं नहीं कहता। हो ही नहीं सकता। है तो एक ही, दो नहीं हैं, क्योंकि दो कैसे हो सकते हैं? और एक भी नहीं हो सकता है, इन अर्थ में कि हम सब एक से राजी हो जाएं। लेकिन जब भी कोई व्यक्ति उपलब्ध होता है, तो उसी को जान लेता है जिसे बहुत बार जाना गया हो। लेकिन फिर भी यह डुप्लीकेशन नहीं है। फिर भी हर व्यक्ति के लिए अनुभव बिलकुल ओरिजनल है। क्योंकि इसके लिए बिलकुल नया हैं, और किसी के हाथ से नहीं मिला है। इसलिए धर्म के अनुभव से उपलब्धि हमेशा ट्रांसपरेंट रहेगी, वह कभी पुरानी नहीं पड़ेगी। जब आपको होगा, तब ऐसा ही होगा, जैसे पहली दफा आपको हो रहा है और किसी को नहीं हुआ। आपके लिए यह बिलकुल पहली दफा है। प्रश्न--तो आपको कार्य क्षेत्र बड़ा सुनिश्चित हुआ इस माने में कि कुछ विचारों की उथल-पुथल पैदा करके आपके साथ हो जाएंगे। उसके बाद जो नयी संस्कृति, नयी धारणा होगी उसी पर
ओशो--मैं उससे बहुत उत्सुक नहीं हूं। मैं उत्सुक इसलिए नहीं हूं कि मेरा मानना यह है कि हम बनावट की, रूप रेखा की, पाजिटिव प्रोग्रेम की जो बहुत चिंता करते हैं, वह इसीलिए कि समाज के पास थिंकिंग बहुत कम है। समाज के पास विचार की शक्ति अगर तीव्र हो जाए, तो उस विचार से सहज ही क्या करना है, निकलना शुरू होता है। अगर समाज के पास विचार की शक्ति ज्यादा न हो, तो प्रोग्रेम देना पड़ता है। कोई आदमी यह करेगा कि यह-यह करो, और समाज करेगा। अब तक यही हुआ है। आज तक वही हुआ है कि एक आदमी तय करता है, दस आदमी तय करते हैं कि यह करने योग्य है, हमें फिकर यह करनी चाहिए कि वह विचार की शक्ति ज्यादा न हो, तो प्रोग्रेम देना पड़ता है। कोई आदमी तय करेगा कि यह-यह करो, और समाज करेगा। अब तक यही हुआ है। अब तक यही हुआ है कि एक आदमी तय करता है, दस आदमी तय लें। और एक-एक चीज संदिग्ध हो जाए, एक-एक चीज के संबंध में चिंतन शुरू हो जाए। मैं भी संदिग्ध रहूं। मैं कोई विश्वास का आधार बन जाऊं यह सवाल नहीं है। मैं भी संदिग्ध रहूं, चिंतन चले, विचार चले, लोग सोचें। सोचने की प्रक्रिया से प्रत्येक के भीतर चेतना उस जगह आनी शुरू होती है, जहां से दर्शन संभव है, जहां से चीजें दिखाई देना शुरू हो जाती है और यह दिखाई देना पाजिटिव प्रोग्रेम को जन्म देता है।
प्रश्न--क्या आपको भारत में नव चिंतन के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे हैं--राजनीति में और समाज में?
ओशो--अभी तो नहीं दिखाई दे रहे हैं। नहीं, कभी भी नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। यहां सब रिप्लसमेंट चल रहा है। मजा यह है कि भारत के वामपंथी से भी मैं हुत परिचित हूं। फिर भी उसके भीतर अराजकता चित नहीं है। एक विद्रोह है, बगावत है। उसमें तोड़-फोड़ भी है, जल्दी बाजी भी है, और उसको लगता है कि यह गलत है, वह गलत है, लेकिन मैं सही हूं और गलत की जगह इसे बैठा दूं; यह आग्रह परिपूर्ण है। यानी बहुत नया नहीं है वह। जब तक यह आग्रह है कि गुरु बदल कर मैं गुरु बन जाऊं, तब तक गुरुडम से मेरा विरोध नहीं है। गुरु से विरोध हो सकता है। यह गुरु गलत है, दूसरा गुरु चाहिए। मैं चाहता हूं, गुरुडम गलत है। उसमें माक्र्स भी गलत हैं और महावीर भी गलत हैं।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--मेरा मानना है कि आदमी के अनेक जन्म हैं, और सारे जन्मों का सार, निचोड़ स्मृति का हिस्सा है। वह कभी मिटता नहीं है। और उसका जो पूरा का पूरा कलेक्टिव अनुभव है, वह आपके भीतर आज भी मौजूद है। ध्यान के रास्ते हैं कि अपने सारे पुराने अनुभवों में उन्हें उतार सकते हैं। अपनी पुरानी पूरी स्मृतियों को जगा सकते हैं, जो आपने जन्मों-जन्मों में कभी किए हैं, और उस सारे अंश का आज आप उपयोग कर सकते हैं। इस तरह के ध्यान के प्रयोग का नाम जाति स्मरण है। बुद्ध और महावीर इस पर बहुत मेहनत की है। बल्कि उन दोनों का दान ही वही है, और कोई खास दान नहीं है--रिमेंबरिंग आफ द पास्ट लाइफ।
प्रश्न--वे दोनों परिणीत थे?
ओशो--महावीर तो परिणीत नहीं थे। बुद्ध परिणीत थे। महावीर की सारी चिंतना जीवन के ब्रह्मचर्य के विषय में थी और पिछले जन्मों के अनुभव से संबंधित थी। मेरी भी इधर निरंतर चेष्टा पीछे के जन्मों में उतरने की रही है। और निश्चित ही किसी के भी उतरने की संभावना है। थोड़े से प्रयोग करने की बात है कि कोई भी व्यक्ति पिछले जन्मों में उतर जाए। इस जन्म में मेरा सेक्स का कोई अनुभव नहीं है। कोई जरूरत भी ही है। उस तरफ ही सारी मेहनत करने में लगा हुआ हूं। मेरी सारी भीतरी चेष्टा उसी तरफ है।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--हां, बिलकुल ही। अब यह तो लंबी बात करनी पड़ेगी और यह बात ऐसी होगी कि आपके लिए सिर्फ विश्वास का कारण बनेगी, इसलिए बेमानी होगी, मैं कितना भी कहूं।
वह तो जैसे ही आप अपने भीतर जाएंगे, आप अपनी उस स्मृति को आज की स्मृति की मेमोरी में उतरेंगे, तो आपके भीतर की परतें जगनी शुरू हो जाएंगी अनिवार्य। जो भी आदमी भीतर जाएगा, जितना भीतर प्रवेश करेगा, जितना अनकांशस में उतरेगा, उतनी स्मृति उठनी शुरू हो जाएगी, लेकिन पहले बिलकुल के मानी होगी। क्योंकि पहले समझना मुश्किल होगा कि ये क्या हैं?
प्रश्न--यानी ईश्वर की आस्था को आप चुनौती दे रहे हैं?
ओशो--आस्था पर चुनौती है, ईश्वर पर चुनौती नहीं है। आस्था पर सबकी चुनौती है। मैं नहीं कहता आपसे कि आप आस्था करें कि पिछले जन्म हैं।
प्रश्न--आप पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं?
ओशो--विश्वास बिलकुल नहीं करता हूं, मैं अपने अनुभव की बात कर रहा हूं। मेरी बात आप नहीं समझे, विश्वास से मेरी बिलकुल दुश्मनी है। जब तक मुझे अनुभव नहीं हुआ, मैंने विश्वास नहीं किया। जब तक मुझे नहीं हुआ, तब तक मैं जानने को राजी नहीं हुआ। जिस दिन मुझे अनुभव हुआ उस दिन से मैं मानता हूं।
प्रश्न--आपको सब्जेक्टिव रियलाइजेशन हुआ कि पिछले जन्म का पता चला, तो पुनर्जन्म पर विश्वास हुआ?
ओशो--विश्वास नहीं, अभी मेरा जानना है। वह विश्वास मैं नहीं करना चाहता। मेरा मतलब समझेगा। बिलीव्ह का सवाल ही नहीं है, आई नो। आई हैव कम टु नो इट सो, नाऊ इट इज नाट बिलीव्ह विथ मी, इट इज ए डर्टेन नालेज। अगर आप विश्वास करते हैं और नहीं जानते हैं--नहीं जानते हैं, तो विश्वास होता है। अज्ञान में ही विश्वास है। ज्ञान के साथ विश्वास का कोई संबंध नहीं है। जिस दिन मुझे पता नहीं था, मैं विश्वास कर सकता था। वह विश्वास होता, पर वह मैंने नहीं किया।
प्रश्न--मेरा प्रश्न यह है कि आपको जब ज्ञान हो गया, तो फिर ईश्वर की सत्ता से आपका विरोध क्यों है?
ओशो--सत्ता से कहां विरोध है? सिर्फ विश्वास से है। आप मेरा फर्क नहीं समझ पा रहे हैं। मैं ईश्वर के विरोध में नहीं हूं। मुझसे ज्यादा ईश्वर के पक्ष में आदमी खोजना मुश्किल है। मैं ईश्वर की आस्था के विरोध में हूं। मेरा कहना इसलिए विरोध में है कि आस्थावान कभी ईश्वर को जान ही नहीं सकता।
प्रश्न--आप तो शब्दों की बारीकी बात कर रहे हैं?
ओशो--नहीं, नहीं, बारीकी शब्दों की नहीं बता रहा हूं। बिलकुल ही डर्िस्टिक्ट अनुभव की बात है दोनों की। ईश्वर पर विश्वास करने वाला आदमी ईश्वर को कभी नहीं जान सकता; क्योंकि विश्वास करने वाला कुछ जान ही हनीं सकता। विश्वास करनेवाला जानने की चेष्टा ही नहीं करता।
प्रश्न--ज्ञान के बाद नहीं?
ज्ञान के बाद तो विश्वास का सवाल ही हनीं है।
एक घटना मुझे याद आती है। एक जर्मन विचारक अरविंद से मिलने आया। उसने अरविंद से पूछा, डू यू बिलीव्ह इन गाड? अरविंद ने कहा, नो अब्सोलूटली नो। वह तो बहुत घबरा गया। उसने आश्चर्य से पूछा कि आप ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं? मैं तो यही सोचकर आया था कि ईश्वर को जाननेवाले के पास जा रहा हूं। तो अरविंद ने कहा, कि तुम पूछते ही गलत हो! तुम्हें पूछना चाहिए, यू यू नो गाड, पर तुम पूछते हो, डू यू बिलीव्ह? आई नो, बट आई डोंट बिलीव्ह।
असल में नोइंग का बिलीव्हिग से कोई संबंध हनीं है। उल्टी बातें हैं। हमेशा नाट नोइंग में बिलीव्हिग आती है। जब हम नहीं जानते हैं तो, बिलीव्ह करते हैं। जब मानते हैं तो बिलीव्ह का सवाल ही नहीं है। मैं इसमें बिलीव्ह थोड़े ही करता हूं कि वृक्ष है। मैं इसमें बिलीव्ह करता हूं कि भूत है। वृक्ष है, यह मैं जानता हूं। यह बात खत्म हो गयी। इसमें बिलीव्ह करने की कोई जरूरत नहीं है। सूरज है, यह मैं मानता हूं। इसमें बिलीव्ह करने की कोई जरूरत नहीं है। सूरज और वृक्ष मालूम हो रहे हैं कि हैं। जिस दिन आप भीतर के अनुभव में उतरते हैं, परमात्मा इस ड्रीमलैंड मालूम होती हैं। ईश्वर विरोध में मैं नहीं हूं, धर्म विरोधी मैं नहीं हूं। मेरा कहना यह है कि धर्म पर जो आस्था का आवरण है, उसका मैं विरोधी हूं। ईश्वर का, आस्था का जो भाव है, उसका मैं विरोधी हूं।
प्रश्न--आप जो पुराने जन्म से सेक्स की बातें समझकर अभी बोल रहे हैं, तो वह तो बहुत पुरानी हुई। पर अभी आप माडर्न इंटरप्रीटेशन लाकर क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए यह बताते हैं।
ओशो--समझा, समझा। अनुभव असल में कभी पुराना नहीं होता है, आपने चाहे पिछले जन्म में सेक्स जाना हो, चाहे कल रात जाना हो, चाहे आज जाना हो। और जब स्मृति जगती है, तो वह उस वक्त पुरानी जैसी नहीं होती है। जब स्मृति जगती है, अब आप भीतर प्रवेश करते हैं, तो जो स्मृति आपको अनुभव होती है, वह इतनी ही प्रेजेंट (वर्तमान) में होती है। स्मृति तो पास्ट (अतित) की होती है। जब होती है, प्रेजेंट में होती है, अभी होगी, अभी होगी।
प्रश्न--और वह कैसे होना चाहिए, यह आप इंटरप्रीट कर रहे हैं?
ओशो--यह तो सवाल ठीक ही है। अनुभव जब हमें होगा और जब हम बात करेंगे, तो इंटरप्रीटेशन शुरू होगा। मैंने क्या जाना, उसको तो कहने का कोई उपाय नहीं है। सिर्फ व्याख्या ही कर सकता हूं, तो भी हम जानते हैं। आपने प्रेम जाना है, फिर आप किसी को समझाएंगे। तब आप प्रेम के संबंध में किसी को समझाएंगे, तो आप व्याख्या ही कर रहे हैं। आप विचार ही कर रहे हैं। जो आपने जाना है, वह आपके विचार के पीछे खड़ा है; लेकिन जब आप किसी से कह रहे हैं, तो आप व्याख्या ही कर रहे हैं। अपने ही अनुभव की व्याख्या आप कर रहे हैं, इस भाषा में, इस स्थिति में, कि दूसरा समझ सके। और मेरा कहना सिर्फ इतना है कि मेरी व्याख्या को आप अगर पकड़ लेंगे, तो आप अनुभव को उपलब्ध नहीं होंगे। मेरी व्याख्या अगर आपको सिर्फ इतनी प्रेरणा दे सके, इतनी उथल-पुथल दे सके कि आप भी अनुभव की दिशा में जाना शुरू करें, तो कुछ हो सकेगा। तो मेरी व्याख्या अगर आपके विश्वास का आधार बन जाती है, तो आपकी मैं हत्या कर रहा हूं, आपको मैं मार डाल रहा हूं। क्योंकि आप इसी व्याख्या को प्रेम समझ लेंगे जो कि प्रेम नहीं है। प्रेम कुछ और ही बात है और व्याख्या ही अलग बात है।
प्रश्न--आप जब यह कह रहे हैं कि इस तरह करना चाहिए, इस तरह होना चाहिए, तो आप भी लोगों को गाइड ही कर रहे हैं।
ओशो--नहीं, बिलकुल नहीं; कम्युनिकेशन, जो मेरे खयाल में हैं, मेरे अनुभव में हैं। गाइड बिलकुल नहीं कर रहा हूं।
प्रश्न--आपका अनुभव तो पुराना ही था?
ओशो--मैं कहता हूं, अनुभव पुराना या नया होता ही नहीं। इसको अगर ठीक से समझेंगे, तो पता चलेगा। अनुभव सिर्फ अनुभव है। और जिस अनुभव से आप गुजर गए हैं, वह सदा नया है। अनुभव कभी पुराना नहीं होता है; क्योंकि वह आपके कांशसनेस का हिस्सा हो गया है। वह कभी पुराना नहीं है। वह कहीं आप से दूर नहीं रह गया है। जो आपने जान लिया है, वह आपका हिस्सा हो गया है। वह आप ही हैं। आप अपने जानने का एक जोड़ हैं। वह सब का सब आपके भीतर मौजूद है, बिलकुल इतना ही ताजा और नया, जितना पहले क्षण में था। वह कहीं पुराना हुआ नहीं था। अनुभव की खूबी यह है कि वह बासी नहीं होता, पुराना नहीं होता। सदा ताजा है। और जब मैं कह रहा हूं आपसे, तब मैं आपका गाइड नहीं हूं। और जब मैं आपसे कह रहा हूं, तो इस खयाल से नहीं कह रहा हूं कि आप मेरी बात मानें। सिर्फ इसी खयाल से कह रहा हूं कि जो मुझे लगा है, वह मैं आपसे निवेदन कर देता हूं, कम्युनिकेट कर देता हूं और उसका कारण उसका मेरा अपना आंतरिक है। जब भी कोई अनुभव किसी को मिल जाए, तो उसके साथ ही यह दायित्व भी मिल जाता है कि उसको साझीदार बना ले।
प्रश्न--पुराने जमाने में यह प्रेम की बातें कम थीं और मैरिज का तो अरेंजमेंट होता था, और ऐसा विवाह करने के बाद भी परिवार बड़े परिवार में दबे हुए और कंट्रोल में रहते थे, और बहुत से सामाजिक तथा अन्य बंधन थे। तो इस तरह के लोग इसे समझ भी नहीं सकते थे।-- तो अब तो वही जमाने।
ओशो--बिलकुल ठीक कहते हैं कि आप। हमारे सारे ढांचे बांधते हैं, लेकिन कोई भी अगर प्रयोग करना चाहे, तो कोई ढांचा बांधता नहीं है। आज भी हम सब एक ही समाज के ढांचे में जीते हैं, फिर भी हमारे अनुभव अलग-अगल होते हैं, और हमारे बीच भी कोई आदमी डी. एच. लारेंस का अनुभव करता है। सेक्स पर गहरे से गहरे प्रयोग करता है, जैसे कि साधारण आदमी नहीं करता। हमारे बीच भी, हमारे समाज में भी कोई आदमी सेक्स पर गहरे प्रयोग करता है। कोई आदमी रंगों पर गहरे प्रयोग करता है, तो पेंटर हो जाता है। हम भी रंग देते हैं, लेकिन हम सब पेंटर नहीं हैं। और शायद जब हम देखते हैं हरा रंग, तो हमें हरा रंग ही दिखाई पड़ता है। पर जब एक पेंटर देखता है तो एक हरे में पचास भेद उसे दिखाई पड़ते हैं। उसके हरे का अनुभव हमारे हरे के अनुभव से बहुत भिन्न है। उसके हरे का बोध भी हमसे बहुत भिन्न है। उसके हरे पैनीट्रेशन भी हमसे बहुत भिन्न है। वह जैसा हरे को जानता है, हम नहीं जानते हैं, क्योंकि हम हरे के पास से सिर्फ गुजर जाते हैं। वह हमारा जानना नहीं है। हरे में न हम कभी डूबे हैं, न कभी जिए हैं, न कोई प्रयास किया है कि हम हरे की गहरी अनुभूति में उतर जाए। रंग से हमारा कहीं वास्ता नहीं, जैसा कि कभी कोई चित्रकार उतरता है। इसी तरह सेक्स से भी हमारा कोई वास्ता नहीं है। कभी कोई साधक उतरता है। सेक्स को भी कोई साधना की तरह ले, तभी उतरता है, नहीं तो नहीं उतरता है।
प्रश्न--भारत के धर्मनिरपेक्ष हो जाने पर क्या विचार क्रांति में कोई मदद मिलेगी?
ओशो--अगर ऐसा है तो धर्म निरपेक्ष राज्य बुरा नहीं है। धर्म निरपेक्षता की गलती नहीं है, क्योंकि राज्य धर्म निरपेक्ष नहीं है। यानी मेरे हिसाब से राज्य को किसी को हिंदू, मुसलमान नहीं मानना चाहिए, अगर धर्म निरपेक्ष है। उसे तो व्यक्ति के हित और सुख के लिए सोचना चाहिए, अगर एक स्त्री के हित में एक पति है, और एक पति के हित में एक स्त्री है, तो सवाल हिंदू, मुसलमान का नहीं है। यह बिलकुल बेमानी बात है। कानून स्त्री के लिए होना चाहिए। भारत ठीक धर्म निरपेक्ष नहीं है। वह धर्मों को स्वीकार करके चलता है, तो मुल्क धर्म निरपेक्ष नहीं है। धर्म निरपेक्ष की आड़ में ढेर बेईमानी है। धर्म निरपेक्ष कैसे है? वह कहे यह मुसलमान भी अलग नहीं है, यह हिंदू भी अलग नहीं है। रिकग्नीशन भी देने की जरूरत नहीं है। आदमी का रिकग्नीशन होना चाहिए कि यह हमारा नागरिक है, वह भी हमारा नागरिक है। हमें दोनों के हित में सोचना चाहिए। नहीं, अभी हमारा मुल्क धर्म निरपेक्ष नहीं हैं। धर्म निरपेक्ष की आड़ में ढेर बेईमानी है।
मेरा कहना आपके लिए विश्वास ही होगा। हां, मैं तो कहता हूं कि हां लेकिन आपके लिए विश्वास ही होगा। इसलिए मेरी बात मानने की कोई जरूरत नहीं है।
प्रश्न--आपने जो पुनर्जन्म की बातें की हैं, तो आपको भगवान बना देने की स्थिति आएगी और लोग समझेंगे कि वह तो बहुत बड़े आदमी हैं, अपने पूर्वजन्म की बातें समझते हैं।
ओशो--आप अपने पेपर में यह भी देना कि यह बड़े आदमी नहीं है, और भगवान भी नहीं है और हर आदमी को सावधान रहना चाहिए कि ऐसी भूल न हो। देना चाहिए।
मैं लड़ाई जारी रखूंगा, कामनसेंड की ही तो लड़ाई है सारी की सारी। व लड़ाई जारी रखूंगा।
प्रश्न--जो मत परिवर्तन में विश्वास रखते हैं ऐसे धर्म, और जो मत की संस्था पर विश्वास रखते हैं ऐसे धर्म, इन दोनों में कैसे संबंध होने चाहिए, क्योंकि एक ही आबादी दूसरे से न बढ़ जाए और दूसरे की उससे न बढ़ जाए।
ओशो--उसकी चिंता राज्य को नहीं करनी चाहिए, इन दोनों के विचारकों को करनी चाहिए। इसका राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है।
प्रश्न--बहुत विचारक बेईमान हैं।
ओशो--तो दूसरे को बेईमान होने की तैयारी करनी चाहिए, और क्या करेंगे आप? सवाल यह है कि जो ईसाइयत है, वह कन्वर्ट करने में लगी है। और राज्य कहता है कि हम किसी को स्वीकार नहीं करते हैं कि कौन ईसाई है, कौन मुसलमान है। लेकिन यह हक तो हर आदमी को है कि अपनी बात किसी को, दूसरे को समझाए। इसे तो राज्य नहीं रोक सकता। अगर दूसरा आदमी राजी होता है ईसाई होने को, तो राज्य नहीं रोक सकता। अगर दूसरा धर्म कहता है कि इस भांति हमारी संख्या कम होती है, तो उसका कारण तुम्हारा न तो स्थिरता का सिद्धांत है कि उसे तुम बदलो, या कन्वर्ट करो। अगर तुम सोचते हो कि तुम्हारा सिद्धांत ठीक है, तो संख्या कम करने को राजी रहो। इसमें झगड़ा क्या है? लेकिन राज्य की ओर से बाधा देना गलत है। अगर राज्य किसी तरह रुकावट डालता है ईसाई को कि वह किसी को ईसाई बनाने से रोके, तो फिर राज्य ठीक अर्थों में धर्म निरपेक्ष नहीं है।
प्रश्न--अभी जो संघर्ष की बात विचार के तल पर आप कह रहे हैं तो वह तो पकड़ ली जाएगी न? और संघर्ष होगा तथा फेमिली में भी संघर्ष होगा?
ओशो--करना ही पड़ेगा। फेमिली हमारी बहुत जड़ता का हिस्सा है। यहां संघर्ष जरी है और बेटा जब आप से लड़ना बंद कर देता है विचार के तल पर, तो समाज गतिमान नहीं होता है।
वह बाप यही करता है, लेकिन बेटे को डिक्टेशन लेना बंद करना पड़ेगा। क्योंकि बेटा बिलकुल आदमियत खो रहा है। तो मुश्किल है। बेटे को मैं तैयार करने की कोशिश में लगता हूं कि वह बेटा विक्टेशन लेना बंद करे।
प्रश्न--क्या आप इससे आगाह हैं कि वैचारिक स्थिरता अगर आ गयी तो हमारे नौजवान पाश्चात्य विचारों में दीक्षित हो जाएंगे?
ओशो--मैं मानता ही यह हूं कि अब दुनिया पश्चिम और पूरब में बटी नहीं रह सकती। यह धारणा ही गलत है। अब दुनिया बटी नहीं रह सकती। अब दुनिया एक होगी और इस एक होने में कुछ पूरब का पश्चिम में जाएगा, कुछ पश्चिम का पूरब में आएगा।
प्रश्न--आप जो अराजकता और इस प्रकार की बातें करते हैं, इसमें जो मर्डर होते हैं, तो इसे बंद करना चाहिए न?
ओशो--मेरा मनाना यह है कि यह हंगामा, यह मर्डर, यह इलूजन जो है, यह बहुत दिनों तक समाज को सप्रेस करने या रोकने का परिणाम है। यह अराजकता का परिणाम नहीं है। जैसे एक आदमी को हम बीस दिन खाना न दे, उपवास पर रख दें। और फिर कहें कि इसको खाने के लिए मुक्त करो। और वह आदमी किचन में पहुंचकर एकदम खाने पर टूट पड़े, और बर्तन तोड़ दे, और पटक दें, और खाए--इतना खाए कि बेहोश होकर गिर जाए, तो आप कहेंगे कि देखो, यह खाने का कैसा दुष्परिणाम हुआ! मैं कहूंगा, यह खाने का दुष्परिणाम नहीं है, यह बीस दिन के उपवासों का परिणाम है। जो तोड़-फोड़ होती है, वह अराजक चित्त का परिणाम नहीं है। वह अराजक चित्त के विपरीत, जो हजारों सालों का परंपरागत चित्त है, उसमें जो रुकावटें लगायी थी, उसका परिणाम है। यह होगा संक्रमण के काल में। एक ट्रांसफार्मेशन का पीरियड होगा। यह होगा।
लेकिन अगर दुनिया राजी हो गयी, धीरे-धीरे मनुष्य का चित्त इस बात के लिए राजी हुआ है कि बहुत बंधन, बहुत नियम, बहुत रूढ़ियां नहीं चाहिए। तो एकदम तोड़-फोड़ मिट जानेवाली है, क्योंकि वह उनकी प्रतिक्रिया में पैदा होती हैं, वह सीधी पैदा होती हैं। मेरी अपनी समझ यह है कि पश्चिम में जो इतने जोर से सेक्सुअलिटी बढ़ी है, वह क्रिश्चियानिट के कारण बढ़ी है, क्योंकि क्रिश्चियनिटी न सेक्स के खिलाफ इतना सख्त रुख लिया कि उसको आप मान लिया।
प्रश्न--अभी सेक्स क्या होमोसेक्सुअलिटी तक पहुंचेगी?
ओशो--मैं भी मानता हूं, गलत नहीं है। अगर किसी आदमी को होमोसेक्सुअलिटी से सुख मिलता हो, तो समाज को रोकने का हम क्या है? और अगर दो आदमी राजी हों, तो हम क्या है किसी को रोकने का?
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--आदमी प्रकृति की हर चीज में विकास कर रहा है। जहां तक प्रकृति का, बायोलाजी का संबंध है, सेक्स प्रिपरेशन के लिए, लेकिन आदमी हर चीज के कल्चर ले आया है, और लाना चाहिए, और उसने सेक्स को प्लेजर भी बनाया है। यह आदमी की खूबी है, जानवर की खूबी नहीं है। आर्टीफीशियल नहीं है। क्रिएटेड नहीं है यह। यह एव्यूलूशन है, यह विकास है। आदमी के माइंड ने सेक्स की बायोलाजी ने मुक्ति पायी है और ऊपर उठाया है सेक्स को।
जानवर भी खाना खा रहा है। आदमी का विकास है इसमें। तो ईसाई मिशनरियों ने इतना काम किया है कि हमारे मान्यता के पीछे पड़ गए हैं। क्योंकि हम परिचित नहीं होते हैं। हम तो क्रिश्चियनिटी से समझते हैं बाइबिल। जैसे कोई समझ ले कि हिंदू धर्म का मतलब है वेद। तो है क्या वेद में? बाइबिल तो ओरिजनल है। लेकिन पिछले दो हजार सालों में इतनी साधना की है क्रिश्चियनिटी ने, जिसकी हम कल्पना ही नहीं कर सकते।
प्रश्न--क्रिश्चियनिटी के पीछे तो ईसा खड़े हैं न?
ओशो--ईसा का बहुत विज्ञान है और ईसा महा साधकों में से है। वह साधारण साधक नहीं हैं। बल्कि मेरा मानना है कि वे न केवल साधक हैं बल्कि क्रांतिकारी भी हैं।
जैसे मैं एक विचार फैलाता हूं, जिससे तुमको डर है कि नुकसान होगा। तो तुम मेरे खिलाफ विचार फैलाओ, इसकी स्वतंत्रता तुम्हें भी है। राज्य न मुझे रोके, न तुम्हें रोके। यह राज्य का सवाल नहीं है। निरपेक्षता का मतलब यह होगा; नहीं तो बदमाशी है। नहीं तो जैसा तुम कहते हो, हो सकता है कि ईसाई पालिटिक्स फैलाए, यह बिलकुल पालिटिक्स है। लेकिन यह हिंदू की है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ती। यह जनसंघी की है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ती। और ईसाई के साथ है, लेकिन तुम नुकसान पहुंचा सकते हो कि तुम्हारी मेजारिटी है। तुम मिशनरी को रोक सकते हो, और अभी दर्ुव्यवहार हुआ है, ईसाई के साथ हो रहा है। हम भी तो पालिटिक्स कर सकते हैं, कर रहे हैं पूरी तरह से। मेरा कहना है, राज्य न हिंदू है, न ईसाई है, न जैन है, न नास्तिक है--राज्य को इससे कोई प्रयोजन नहीं है। निरपेक्षता का यही मतलब है। राज्य कहे कि जो हिंदू को ठीक लगता है, वह समझाए। जो मुसलमान को ठीक लगता है, वह समझाए। अगर मुसलमान की बात ठीक समझ कर हिंदू मुसलमान हो जाए, तो हो जाए। राज्य को क्या लेना-देना है? राज्य इस मामले में कोई प्रयोजन नहीं रखता। मगर हिंदू होने आता है, हिंदू मेजारिटी है, तो हिंदू अपनी राजनीति चला सकता है।
प्रश्न--तो जो सिस्टम रिलीजन प्रचारित हो रहा है, वह तो बिलीव्ह पर आधारित है?
ओशो--हो रहा है। प्रचारित इसलिए तुम भी बिलीव्ह पर खड़े थे और तुमने हिंदुस्तान को बिलीव्ह सिखायी थी। ईसाइयत उसकी ही जगह बिलीव्ह सिखा रहा हो, तुम्हारे हाथ है इसमें सवाल यह है कि तुम पूरी शक्ति लगाओ। इसमें कसूर किसका है? तुमने शूद्र के साथ जो दर्ुव्यवहार किया है, वह शूद्र भी ईसाई हुआ जा रहा है। इसमें कारण तुम्हारे दर्ुव्यवहार। ब्राह्मण क्यों नहीं ईसाई हो रहा है? अगर शक्ति से ही हो रहा है, तो ब्राह्मण कोई ईसाई होता नहीं दिखाई पड़ता, जैन कोई ईसाई नहीं होता। होता है शूद्र और आदिवासी! इसके साथ दर्ुव्यवहार किया गया है हजारों साल से । मैं मानता हूं, वह नासमझ है, अगर ईसाई न हो जाए।
तुमको गलत दिखता है तो तुमको प्रचार करने का हक है, प्रचार करो। यानी मेरा कहना है, इसमें राज्य का इंटरफियरेंस नहीं चाहिए किसी भी तल पर। जैसे कि मैं हूं, मैं अकेला आदमी हूं। मैं जो कह रहा हूं, सारा मुल्क यह तय करे कि भई इस आदमी को बोलने नहीं देना है, उसके ऊपर दबाव डालो, इसे रोको,। आखिर अदालत में ले जाने का प्रयोजन क्या है? प्रयोजन यह है कि किसी तरह मुझ पर दबाव पड़े और मैं बोलना बंद करूं। राज्य को निपट इनकार करना चाहिए। अगर राज्य धर्म निरपेक्ष है, तो इसका मतलब यह है कि हर आदमी को बोलने का हक है जब तक कि आपको कोई नुकसान नहीं पहुंचता है, आपकी जेब नहीं काटता है, आपको छुरा नहीं भोंकता है। बोलने का तो हक है। अगर गलत लगता है, तो आपको बोलकर उत्तर देने का हक है। बात खत्म होती है, इसके आगे क्या सवाल है?
प्रश्न--अस्पष्ट है
ओशो--यह मानना नहीं है। हम सब जानने का प्रयास कर रहे हैं। एक आदमी ने कहा, हम देखें। मानकर नहीं चल पड़े हैं। हम देख रहे हैं, एक आदमी ने कहा है कि उस झाड़ के पीछे सुंदर फूल खिला है। हम मान नहीं लेते हैं कि वहां फूल है, लेकिन हम जाकर देखना चाहते हैं हम जाकर देखते हैं, फूल है या नहीं। माननेवाला कहता है कि जाने वाने की कोई जरूरत नहीं है। पूर्ण श्रद्धा रखो तो फूल मिलेगा। पूर्ण श्रद्धा में खतरा है कि फूल न हो, तो भी मिल जाए। मन की दुनिया का मामला ऐसा है कि वहां जो नहीं है, वह भी मिल जाए, और यही होता रहा है हमेशा। मेरा कहना है कि मेरी बात मानने की जरूरत नहीं है, विश्वास करने की जरूरत नहीं है। इतना ही पर्याप्त है कि अगर तुम समझते हो कि यह आदमी कहता है, तो हम जाकर देख लें। अगर फूल की तलाश करना है, तो जाकर देख लें, होगा तो दिख जाएगा; नहीं होगा, नहीं दिखेगा।
प्रश्न--श्री अरविंद ने सरेंडर करने को ही कहा था न?
ओशो--हां, हां, साधना इनकी भी है। सरेंडर साधारण बात नहीं है। लोग तो समझ लेते हैं कि साधारण मामला है, सरेंडर कर दिया। तुम सरेंडर हो ही नहीं सकते, जब तब अहंकार है। इसलिए मैं सरेंडर की बातें नहीं करता। मैं कहता हूं, अहंकार को जाने दो, सरेंडर हो जाएगा। तुम्हें करने की जरूरत नहीं है। बहुत ठीक से समझो, तो सरेंडर किया ही हनीं जा सकता। क्योंकि जब तक तुम करनेवाले हो, तो सरेंडर हो कैसे सकता है? तुम्हीं करोगे न? और कल तुम्हारा दिन होगा, तो वापस ले लोगे। और तुम तो हमेशा पीछे मौजूद हो। हमने सरेंडर किया, अब नहीं करना चाहते हैं, खत्म। लेकिन सरेंडर वापस थोड़े ही हो सकता है। वह तो वापस हो सकता है, जब तुम मिट गए हो। वापस लेनेवाला ही नहीं है, तो वापस होगा वहां? वह कभी नहीं हो सकता। एक हिस्सा तुम्हारे भीतर मौजूद रहेगा, जो कहेगा, यह तुमने विश्वास किया है।
मैं एक कमरे में बैठा हूं, जहां अंधेरा है। मैं आंख बंद कर के पक्का विश्वास करता हूं कि उजाला है। लेकिन क्या यह संभव है कि मेरे मन के एक कोने से यह बात खत्म ही हो जाए कि अंधेरा नहीं है? क्योंकि जानता तो मैं अंधेरे को हूं, और मान रहा हूं उजाले को। और जानना मानने से हमेशा बलवान होता है। जाते तुम हो कि अंधेरा है, मानते तुम हो कि उजाला है। मानते रहो, मानते रहो, कितना ही मान लो, एक हिस्से में तुम जानते ही रहोगे कि एक कोने पर अंधेरा था। और उजाला माना है। इसलिए टोटल कभी नहीं होगा सरेंडर। टोटल तो तब होगा, जब तुम जानोगे, जानने से चाहोगे, माने से नहीं। जो मानकर सरेंडर करेगा, उसका तो जानना व्यर्थ ही है। वह चाहे क्रिश्चियनिटी करवाए चाहे हिंदू करवाए, चाहे मुसलमान करवाए। इसलिए मेरा झगड़ा हिंदू, मुसलमान, ईसाई का नहीं है। मेरा झगड़ा तो मानकर करवाने वाले किसी से भी है।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--वह तो सभी कर रहे हैं। हिंदू कैसे फैल गए? राज्य की शक्ति के बिना? बौद्धों को कैसे उखाड़ दिया है? और बौद्ध कैसे फैले? राज्य की शक्ति से फैले। यह तो सवाल ही नहीं है, इसलिए जो क्रिश्चियनिटी कर रही है, वह सवाल थोड़े ही है। बौद्ध फैल गए, क्योंकि राजाओं की शक्ति मिल गयी। फिर हिंदुओं को राजाओं की शक्ति मिल गयी, तो बौद्धों का सफाया कर दिया गया। जैनों को राजाओं की शक्ति मिल गयी, तो फैल गए। शक्ति नहीं मिली, तब फिर मर गए। अब इसमें कसूर क्या है? यानी मेरा मतलब यह है कि बेवकूफी बिना राजाओं की शक्ति के फैलती नहीं; क्योंकि उसमें खुद को कोई ज्ञान नहीं होता कि उसमें ताकत है--धन की, पद की प्रतिष्ठा की। तो फैल जाती है। तो फिर ईसाई का क्या सवाल है? जो आज हिंदू बना बैठा है, उसका बाप दादा किसी न किसी राजा के प्रभाव में हिंदू बनाया गया था।
प्रश्न--हमको विरोध करना चाहिए उस शक्ति का जो विश्वास प्रचारित कर रही है।
ओशो--सभी शक्तियां विश्वास का प्रचार कर रही है, सभी धर्म कर रहे हैं। वह कम ज्यादा हो सकता है। लड़ाई सभी विश्वासियों की है। और ऐसी लड़ाई कभी नहीं थी, यानी जिस लड़ाई की मैं बात कर रहा हूं। हमेशा लड़ाई ऐसी थी कि एक विश्वास करनेवाले वर्ग की दूसरे विश्वास करनेवाले वर्ग से लड़ाई थी मैं जिस लड़ाई की बात करता हूं, यह कोई वर्ग नहीं है, और समस्त विश्वास करनेवालों से लड़ाई है। यह लड़ाई बिलकुल नए ढंग का मोर्चा है, इसलिए इसमें दिक्कतें भी नए प्रकार की हैं। इसमें कठिनाइयां हैं। हम भी जो कन्वर्ट नहीं कर रहे हैं, किसी को कहने का कि तुम यह हो जाओ, कि तुम वह मत रह जाओ। किंतु अगर उसे हमारी बात समझ में आती है, तो वह न हिंदू रह जाएगा, न मुसलमान रह जाएगा। असली लड़ाई हमारी मुसलमान से भी है, हिंदू से भी है। एक मुसलमान अगर मेरी बात समझता है, तो वह मुसलमान रह जाएगा। तो मेरा तो हिंदू भी दुश्मन हो जाएगा, मुसलमान भी दुश्मन हो जाएगा। पुरानी लड़ाई ऐसी थी कि हिंदू को मुसलमान बनाया जा रहा था तो कम से कम मुसलमान तो उसके साथ। हिंदू दुश्मन होता था, कोई फिकर नहीं।
प्रश्न--विज्ञान की भांति साधना के उपयोग के लिए यदि राज्य की सत्ता का उपयोग हो, तो क्या हितकर नहीं होगा?
भगवान श्री--नहीं, इसके लिए बिलकुल उपयोगी नहीं है। विज्ञान का मामला बहुत भिन्न है। वह ऐसा है कि दो तरह से नहीं लड़ रहे हैं हम सारी दुनिया में साइंस एक है, चाहे अमेरिका ताकत लगाए, चाहे रूस। चांद पर चाहे अमरीका पहुंच गया, चाहे रूस, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी चांद पर पहुंच गया। अब आदमी का ज्ञान चांद पर पहुंचने वाला हो गया। अब तो हालतें यह हुई जा रही है कि अभी रूस के वैज्ञानिक ने कहा कि अब अमेरिका और रूस के सहयोग के बिना साइंस विकसित नहीं होनेवाली है। अब कोई एक राज्य बढ़ा ही नहीं सकता, उसको इतनी बड़ी शक्ति की जरूरत पड़ गयी है। विज्ञान का मामला बिलकुल उल्टी है।
अगर मुसलमान बढ़ता है; तो उससे हिंदू को नुकसान होता है। अगर ईसाई बढ़ता है, तो हिंदू और मुसलमान का नुकसान होता है। इनके विश्वास न तो वैज्ञानिक हैं, न विचार को बल देते हैं, न विचार को रोकते हैं। इसलिए सारी दुनिया के राज्यों का धर्म से छुटकारा न हो जाना चाहिए। यह भी ध्यान रहे, जब तक राज्य का धर्म से छुटकारा न हो, तब तक साइंस के पास हम ठीक से खड़े न हो पाएंगे; क्योंकि धर्म और
उसका कुल कारण इतना है कि इंगलैंड ईसाई मुल्क है, आर्थोंडाक्स है, और यह आर्थोंडाक्सी उसकी जान लिए ले रहे हैं। रूस ने पचास साल में साइंस को इतनी गति दी जमीन पर, कि किसी दूसरे मुल्क को उतनी गति करने में पांच सौ साल लगेंगे, क्योंकि रूस धर्म से बिलकुल मुक्त हो गया है। वह जिंदगी ही खत्म कर दी है। उसकी सारी ताकत साइंस में लग गयी है। हिंदुस्तान तो इसलिए बुरी तरह पिछड़ा हुआ है साइंस में कि वह धर्मों से मुक्त नहीं हो पाया है। और नुकसान ही होगा, जब तक वह धर्मों से मुक्त न होगा।
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