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शनिवार, 8 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-18)

अठारहवां प्रवचन

संन्यास प्रेम है परमात्मा का

प्रश्न-सार:

01-ओशो, मैं जो जी रहा हूं और जैसा जी रहा हूं, क्या यही जीवन है?
02-ओशो, मैं संन्यास से भयभीत क्यों हूं?
03-ओशो, मनुष्य के रूपांतरण के लिए क्या मनोविज्ञान पर्याप्त नहीं है? मनोविज्ञान के जन्म के पश्चात धर्म की क्या आवश्यकता है?


पहला प्रश्नः ओशो, मैं जो जी रहा हूं, और जैसा जी रहा क्या यही जीवन है?

मधुकर! मनुष्य साधारणतः जिसे जीवन समझता है, वह तो जीवन का प्रारंभ भी नहीं। जीवन तो दूर, वह अभी जन्म भी नहीं है। एक जन्म तो होता है माता-पिता से। वह केवल देह का जन्म है। उस से तुम सांसें तो लेने लगते हो, मगर जीते नहीं। भोजन भी पचाने लगते हो, लेकिन जीते नहीं। शरीर बढ़ने लगता है, लेकिन तुम कोरे के कोरे। तुम्हारे भीतर आत्मा का कोई विकास नहीं होता; कोई प्रौढ़ता नहीं, कोई भीतर गति नहीं, कोई नृत्य नहीं, कोई उत्सव नहीं। इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है, जब तक द्विज न हो जाओ, जब तक तुम्हारा दुबारा जन्म न हो, तब तक समझना अभी जीवन शुरू ही नहीं हुआ।


द्विज होने की प्रक्रिया ही संन्यास है। यह ब्राह्मण होने की विधि है। क्योंकि यह ब्रह्म को जानने का उपाय है। कोई ब्राह्मण की तरह पैदा नहीं होता। सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। ब्राह्मणत्व तो अर्जित करना होता है, कमाना होता है, मुप132त नहीं मिलता। श्रम से और साधना से ब्राह्मणत्व के फूल खिलाने होते हैं। ब्राह्मण के घर में भी पैदा होकर कोई ब्राह्मण नहीं होता। पहला जन्म तो शूद्र का ही है। दूसरा जन्म! और दूसरे जन्म से अर्थ है: अंतर्यात्रा का। पहला जन्म बहिर्यात्रा की तैयारी करवा देता है। शरीर बहिर्यात्रा माध्यम है। मन बहिर्यात्रा की व्यवस्था है। जब ध्यान पैदा होगा तो जीवन शुरू होगा।
इसलिए असली जीवन तो सदगुरु के पास मिलता है। असली जीवन तो सत्संग में मिलता है। जहां तुम्हें ध्यान की प्यास जग जाए, वहां मिलता है। जहां तुम्हारे प्राण परमात्मा के लिए आतुर होने लगें, ऐसे आतुर कि अगर यह जीवन चढ़ा भी देना पड़े सौदे में तो तुम सौदा करने को राजी हो जाओ, तब दूसरा जीवन मिलता है। दूसरे जीवन के लिए त्वरा चाहिए, एक तीव्र अभीप्सा चाहिए, एक गहन प्यास चाहिए..सत्य की। तुम जैसे अभी जी रहे हो, जो तुम जी रहे हो, वह कामचलाऊ जीवन है। ऐसे तो कोल्हू के बैल की तरह चल रहे हो। उठ जाते हो रोज, रोज रात सो जाते हो, रात सपने हैं, दिन विचार हैं, हजार कामों में व्यस्त हो, मगर परिणाम क्या है? निष्पत्ति क्या है? इन कामों का निचोड़ क्या है? मौत आएगी, सब पोंछ कर साफ कर देगी। जीवन की परिभाषा याद रखो: जिसे मौत न मिटा पाए, वही जीवन है। जिसे मौत मिटा दे, वह क्या ख़ाक जीवन है! अभी तुम जो जी रहे हो, उसे मौत मिटा देगी या नहीं, बस इतना ही पूछ लेना। इसी कसौटी पर कसते रहना। ये श्वासें मौत छीन लेगी, यह देह मिट्टी में गिर जाएगी, यह धन-पैसा, पद-प्रतिष्ठा, सब तिरोहित हो जाएंगे, जैसे सुबह जागने पर रात के सपने तिरोहित हो जाते हैं, इसे जीवन मानना चाहो तो मान लो, अपने को सांत्वना देनी हो तो दे लो, मगर यह जीवन नहीं है।
ऐसी ही एक सुबह रही होगी और जीसस एक झील के पास रुके। एक मछुए ने अपना जाल झील में फेंका ही था मछलियां पकड़ने को, जीसस ने उस मछुए के कंधे पर हाथ रखा, उस मछुए ने चैंक कर पीछे देखा: कौन है? ..इतनी सुबह, सर्द सुबह। और जीसस की आंखों में झांका। वे आंखें झील से भी ज्यादा गहरी उसे मालूम पड़ीं। उन आंखों में झील से भी ज्यादा ताजगी थी। और यह व्यक्ति अनूठा मालूम पड़ा। ठगा रह गया मछुआ।
जीसस ने उससे कहा: कब तक मछलियां ही पकड़ते रहोगे? कुछ और करना है या नहीं? क्या मछलियां पकड़ना ही जीवन है? उस सुबह ही जीसस ने अपना वह प्रसिद्ध वचन कहा था कि मनुष्य केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता। कुछ और चाहिए, रोटी से कुछ बड़ा, रोटी से कुछ ज्यादा गरिमामय, रोटी से कुछ ऊपर। आजीविका ही जीवन नहीं है। मछुए ने सुना, जाल जहां का तहां छोड़ दिया..झील से खंींचा भी नहीं..और जीसस से कहा कि मैं भी उस जीवन की तलाश करना चाहता हूं। जीसस ने कहा: आओ मेरे पीछे। वे गांव को छोड़ते ही थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उसने उस मछुए को कहा, पागल, तू कहां जा रहा है? तेरे पिता बीमार थे न, उनकी मृत्यु हो गई। चल वापस घर। स्वभावतः मछुए ने जीसस से कहा कि मुझे तीन-चार दिन की छुट्टी दे दें, लौट आऊंगा, लेकिन पिता का अंतिम संस्कार कर आऊं। और जीसस के वचन बड़े प्यारे हैं। जीसस ने कहा: तू फिकर मत कर, गांव में बहुत मुरदे हैं वे मुरदे को ठिकाने लगा देंगे। तू मेरे पीछे आ।
गांव में बहुत मुरदे हैं, वे मुरदे को ठिकाने लगा देंगे! इस वचन पर ध्यान करना, विचार करना। तुम सब को जीसस मुरदा कह रहे हैं। तुम्हें वे जीवित नहीं मानते। मैं भी तुम्हें जीवित नहीं मानता। क्योंकि जीवन से तो तुम्हारी अभी पहचान ही नहीं हुई। जब तक शाश्वत को न जाना, जब तक कालातीत को न पहचाना, जब तक उससे तुम्हारी सगाई न हुई जिसका न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत, जब तक परमात्मा से मिलन न हुआ, तब तक कैसा जीवन? तब तक आजीविका है, रोटी-रोजी कमा लेते हो, कि दो पैसे तिजोड़ी में भी बचा लोगे, मगर सब ठीकरे हैं, सब पड़े रह जाएंगे।
मगर मैं तुम्हारी मजबूरी भी समझता हूं। दूसरे जीवन की खबर भी देने वाले लोग दिखाई नहीं पड़ते। दूसरे जीवन का संदेश लाने वाले लोग भी मिलते नहीं। जिनको तुम धर्म के नाम पर पूज रहे हो, वे भी तुम जैसे ही लोग हैं, उनके जीवन में भी कोई क्रांति नहीं घटी, कोई किरण नहीं उतरी; उनके जीवन का अंधकार भी वैसा ही है जैसा तुम्हारा..और कभी-कभी तो तुमसे भी ज्यादा! जिनको तुम भोगी कहते हो, उनके जीवन में तो कुछ पुलक भी है, उनके जीवन में तो कभी-कभी 132तो कोई प्यास, कोई पुकार भी उठती है, लेकिन जिनको तुम तथाकथित महात्मा, योगी, संत कहते हो, वे तो बिल्कुल मुरदा हैं। वे तुम से भी ज्यादा मुरदा हैं। उनकी आंखों में तो राख जमी है। उन्होंने तो धीरे-धीरे आत्मघात कर लिया है। और आत्मघात को ही सदियों से धर्म समझा जाता रहा है। जो आदमी जितना आत्मघाती हो, हम उसको उतना बड़ा महात्मा मानते हैं। जो आदमी जितना अपने को दुख दे, उतना ही बड़ा हम उसको त्यागी कहते हैं, तपस्वी कहते हैं।
स्वयं को दुख देना एक मानसिक रुग्णता है। स्वयं को दुख देने वाला, ध्यान रखना, दूसरों को भी दुःख देगा ही। वह उस गणित का अनिवार्य अंग है। परोक्ष रूप से देगा। जो आदमी खुद उपवास करेगा और सताएगा अपने को, वह दूसरों को भी समझाएगा कि उपवास करो और सताओ अपने को। और अगर न सताओगे अपने को, न करोगे उपवास, तो देखना उस की आंखों में तुम्हारी निंदा, तुम्हारा अपमान, तुम्हें नरक में कड़ाहों में जलाना, देखना तुम उस की आंखों में, तुम कीड़े-मकोड़े हो, आदमी भी नहीं। इसी अहंकार के बल तो वह अपने को इतना दुख दे पाता है। यह पवित्र होने का अहंकार कि मैं विशिष्ट, मैं पवित्र, मैं महात्मा। फिर तुम जो चाहो करवा लो। कांटों की सेज पर सुला लो, उपवास करवा लो, जो तुम्हें करवाना हो करवा लो। लेकिन तुम जो भी धर्म के नाम से करवाते रहे हो, करते हो, जरा गौर से तो देखना, उसमें कहीं अपने को मिटा लेने, मार डालने की, आत्मघात की प्रवृत्ति तो नहीं है?
सिग्मंड फ्रायड ने अपने जीवन के प्राथमिक वर्षो में जो पहली महत्वपूर्ण खोज की थी, वह थी लिबिडो की खोज। लिबिडो का अर्थ होता है: जीवेषणा। कि मनुष्य के भीतर जीवन की महत आकांक्षा है। मनुष्य जीना चाहता है। हर कीमत पर जीना चाहता है। और यह सच है। भिखमंगा भी जी रहा है। सड़क पर घिसट रहा है, रहने को जगह नहीं है, खाने को भोजन नहीं है, नालियों में पड़ा है, अपंग है, कोढ़ी है, मगर फिर भी जीना चाहता है। दो-दो कौड़ी मांगता फिरता है, घसिटता फिरता है, लेकिन जीना चाहता है। जीने की जरूर गहन आकांक्षा होगी।
इजिप्त की एक पुरानी कथा है।
एक विराट आश्रम था। उस आश्रम की यह व्यवस्था थी कि जब भी कोई संन्यासी मर जाए, तो आश्रम के नीचे ही भूमिगर्भ में छिपा हुआ एक बड़ा कब्रिस्तान था, पत्थर हटाया जाता था, कब्रिस्तान का मुंह खुल जाता था, मर गए संन्यासी की लाश को उस ग167े में गिरा दिया जाता था, पत्थर फिर बंद कर दिया जाता था। वह नीचे एक लंबी गुफा थी, जिसमें सदियों से न मालूम कितने संन्यासी मरे और उनकी लाशें उतार दी गई थीं। यह संयोग की बात थी कि इस बार जो संन्यासी मरा वह वस्तुतः मरा नहीं था सिर्प बेहोश था और जल्दबाजी में उस को ग167े में उतार दिया। ग167े में उतरा, कोई घड़ी-दो घड़ी बाद उसे होश आ गया। होश आया तो बहुत घबड़ाया। चिल्लाया। मगर कौन सुनता! पत्थर बंद हो चुका था। कोई संभावना न थी कि कोई सुन ले। थक गया चिल्ला-चिल्ला कर।
तुम भी होते उसकी जगह तो क्या करते फिर? तुम शायद सोचोगे, आत्महत्या कर लेते, पत्थरों से सिर मार कर फोड़ लेते, मर जाते। नहीं, उस आदमी ने जीवन की व्यवस्था की। वह वहां भी जीने लगा। बड़ा अजीब, बड़ा गर्हित जीवन रहा होगा। जो लाशें सड़ी हुई पड़ी थीं, उनका ही मांस खाने लगा जो कीड़े मकोड़े पैदा हो गये थे लाशों में उन कीड़े मकोडों को पकड़-पकड़ कर खाने लगा पानी की बड़ी असुविधा थी। आश्रम की नालियों में से जो पानी रिस-रिस कर नीचे कब्रिस्तान में पहुंच जाता था, उसी को दीवालों से चाट-चाट कर पीने लगा। और रोज प्रार्थना करता था, एक ही प्रार्थना, कि कोई मर जाए संन्यासी, तो फिर से चट्टान उठे तो मैं बाहर निकल आऊं।
बारह वर्ष वह आदमी जिंदा रहा। उस की प्रार्थना बारह वर्ष बाद सुनी गई। बारह वर्ष बाद कोई मरा, फिर क्रबिस्तान का द्वार खुला..और उस आदमी ने आवाज दी। जो लाश को उतारने आए थे, उनकी भी छाती कंप गईः कौन बुला रहा है अंदर से? भूत-प्रेत? क्या मामला है? लेकिन रस्सी डालनी पड़ी, वह आदमी निकाला गया। उसके बाल इतने बड़े हो गए थे, उसकी दाढ़ी इतनी बड़ी हो गई थी बारह वर्षो में कि जमीन छूती थी। और सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी, बारह वर्ष अंधेरे में रहने के कारण वह अंधा भी हो गया था, लेकिन साथ में एक पोटली लिए हुए आया। तो उन्होंने पूछा, यह पोटली क्या है? तो उसने खोल कर दिखा दी। इजिप्त में रिवाज था कि जब कोई मर जाए तो उसके साथ परलोक की यात्रा के लिए..टिकट इत्यादि के लिए कम से कम..कुछ पैसे रख दो, कुछ कपड़े रख दो..रास्ते में बदलने का कम से कम एकाध जोड़ा। सो उसने मुर्दो के कपड़े और पैसे इकट्ठे कर लिए थे, इस आशा में कि जब बाहर निकलूंगा तो सब लेता जाऊंगा। वह पोटली में सारे कपड़े और पैसे बांध कर ले आया था।
ऐसी जीवेषणा है आदमी की!
यह कहानी नहीं है, यह सत्य है, यह घटना घटी है।
तो फ्रायड ने ठीक खोजबीन की थी कि मनुष्य के भीतर सबसे बड़ी आकांक्षा है जीने की। वह जीने के लिए कुछ भी कर सकता है। और हम देखते हैं कि यह बात सच है। आदमी जीने के लिए कुछ भी करता है। चोरी करता, बेईमानी करता, हत्या करता।
लेकिन मरने के पहले फ्रायड जीवन के अंतिम वर्षो में दूसरी खोज भी किया। क्योंकि उसने देखा कि अगर जीवेषणा ही अकेली एकमात्र वृत्ति है, तो कुछ लोग आत्महत्या कैसे करते हैं? फिर आत्महत्या को कैसे समझाओगे? फिर आत्महत्या का क्या कारण होगा? और कभी-कभी तो बड़ी अच्छी हालतों में रहने वाले लोग आत्महत्या करते हैं..अक्सर तो अच्छी हालतों में जो लोग हैं, वही आत्महत्या करते हैं। गरीब देशों में कम लोग आत्महत्या करते हैं, अमीर देशों में ज्यादा। जितना समृद्ध वर्ग होता है, उतनी आत्महत्या बढ़ जाती है। तो जिनके पास सब है, ऐसे लोग आत्महत्या क्यों कर लेते हैं? फ्रायड पुनः खोज में लगा जीवन के अंतिम वर्षो में। उसने दूसरी वृत्ति भी खोजी और सिद्धांत पूरा हुआ। पहली विधि को लिबिडो कहा था..जीवेषणा..और दूसरे सिद्धांत को थानाटोस कहा..मृत्यु की आकांक्षा। और सिद्धांत तब पूरा हुआ। ये सिक्के के दोनों पहलू हैं।
इस जीवन में हर चीज अपने विरोधी के साथ होती है। अंधेरा है प्रकाश के साथ। जीवन है मृत्यु के साथ। प्रेम है घृणा के साथ। मित्रता है शत्रुता के साथ। इस जीवन में हर चीज अपने विपरीत के साथ है। कोई चीज अकेली नहीं होती। जीवन द्वंद्वात्मक है, द्वैत से भरा है। जन्म है तो मृत्यु है। सुख है तो दुख है। सफलता है तो असफलता है। यश है तो असफलता है। यश है तो अपयश है।
और यह मनुष्य के मन के ही संबंध में नहीं, जीवन की प्रत्येक चीज। वैज्ञानिक कहते हैं कि विद्युत में दो छोर हैं: ऋण और धन। अगर एक छोर न हो तो दूसरा छोर भी नहीं हो सकता। मनुष्य के जीवन में सभी चीजों में ऋण और धन के छोर हैं।
फ्रायड की खोज अधूरी रह जाती, मगर वह उसे पूरी कर गया। मनुष्य के भीतर मरने की भी आकांक्षा है। कुछ लोगों को तीव्रता से पकड़ लेती है और लोग आत्महत्या कर लेते हैं। और कुछ लोगों को इतनी तीव्रता से नहीं पकड़ती, वे धीरे-धीरे करते हैं। जिनको तुम महात्मा कहते हो, वे शनै:-शनै: आत्महत्या करते हैं। कोई एक बार भोजन छोड़ देता है, कोई कपड़े नहीं पहनता, कोई ठंढ में खड़ा रहता है, कोई धूप में खड़ा रहता है, कोई सूरज को देख-देख कर आंखें फोड़ लेता है, कोई रात भर जागता है; कुछ संन्यासी हैं जो खड़े हैं वर्षो से, बैठे ही नहीं; कुछ हैं जो कांटों पर लेटे हैं, कुछ हैं जिन्होंने भाले अपने मुंह में छेद लिए हैं। ईसाइयों में ऐसे फकीर हुए हैं जो रोज सुबह अपने को कोड़े मारते। और जो जितने ज्यादा कोड़े मारता, स्वभावतः उतना बड़ा महात्मा समझा जाता। जिसकी चमड़ी उधड़ जाती, सारे शरीर पर कोड़ों के निशान हो जाते। ऐसे ईसाइयों में फकीर हुए हैं, अब भी हैं, जो अपनी कमर में एक लोहे का बेल्ट पहनते हैं, जिसमें अंदर की तरफ कांटे रहते हैं, जो कांटे उनकी कमर में छिद जाते हैं और हमेशा घाव को बनाए रखते हैं। जूते पहनते हैं जिनमें अंदर की तरफ खीले लगे होते हैं, जो उनके पैरों में घाव बनाए रखते हैं। लोग उनके घाव देखने जाते हैं और कहते हैं..अहा!, कैसा त्याग!
रूस में ईसाइयों का एक सम्प्रदाय था क्रांति के पहले, जो अपनी जननेन्द्रियां काट देता था। ढेर लगा देते थे जननेन्द्रियों के। स्त्रियां भी पीछे नहीं रहती थीं, वे अपने स्तन काट देती थीं। स्तनों के ढेर लगा देती थीं। इसकी बड़ी गरिमा और गौरव समझा जाता था।
ये सब आत्मघाती वृत्तियां हैं। तो जिनको तुम महात्मा समझते हो, वे तुम्हें क्या ख़ाक जीवन की दिशा देंगे, वे तो खुद ही मरने के रास्ते पर चल रहे हैं। वे तुम से भी ज्यादा विकृत हैं। तुम तो कम से कम सामान्य हो, वे सामान्य भी नहीं। जीवन की खोज के लिए तो सिर्प एक ही चीज आवश्यक है, सिर्प एक..न तो त्याग, न तप, न शरीर को गलाना, न सताना, न परेशान करना; ये सब हिंसक बातें हैं, और हिंसा से कोई आत्मज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। फिर हिंसा दूसरों की हो या अपनी, हिंसा हिंसा है और हिंसा पाप है। आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने से व्यक्ति जीवन से संबंधित होता है। अभी यह भी तुम्हें पता नहीं कि मैं कौन हूं, कैसे तुम जीवित हो सकते हो? वह क्या है एक बात? वह ध्यान है। तुम्हें साक्षी बनना होगा। तुम्हें अपने भीतर उतर कर उस चेतन तत्त्व को पहचानना होगा जो तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है। जिस दिन तुम चैतन्य को अनुभव करोगे, जिस दिन तुम जानोगे मैं देह नहीं, मन नहीं, धन नहीं, पद नहीं, प्रतिष्ठा नहीं, मैं तो सिर्प वह हूं जो द्रष्टा है सब का द्रष्टा है; दिन आता है तो दिन को देखता है, रात आती है तो रात को देखता है, जवानी तो जवानी को देखता है, बुढ़ापा तो बुढ़ापे को देखता है, मैं तो द्रष्टा हूं, ऐसा जिस दिन तुम अनुभव करोगे, उस दिन द्विज हुए, उस दिन ब्राह्मण हुए, उस दिन शूद्र होना मिटा, उस दिन से तुम्हारे जीवन में क्रांति की शुरुआत है, रोशनी और रोशनी बढ़ती जाएगी। प्रकाश गहन होता जाएगा, अंधकार क्षीण होता चला जाएगा।
मधुकर, अभी तो तुम जिसे जीना कहते हो, बस नाममात्र का जीना है।
फिर भी तो जीना होगा ही!
इसलिए, हृदय, क्यों हो अधीर
फिर ध्यान तुम्है उसका आता?
पागल! क्यों फिर से जोड़ रहे
हो आशा-छलना से नाता?
यदि वह सपना भी सच न हुआ,
फिर भी तो जीना होगा ही!

मन! तुम अधीर, मैं निराधार;
हूं निराधार, पर क्या चारा?

पहले भी कितनी बार इसी
जीवन में हूं जग से हारा।
यदि हुई हार इस बार मुझे,
फिर भी तो जीना होगा ही!

तुम पर, अपने पर ही न हुआ,
तो होगा मेरा किस पर वश?
क्या होगा यदि हूं भी हताश?
क्या हूं सांसों से भी न विवश?
यदि मौत न आई अब के भी,
फिर भी तो जीना होगा ही!
क्यों कह उठते हो घबड़ा कर,
‘इन सुख-सपनों में आग लगे? ‘
था सिर धुनना ही इष्ट मुझे,
तो क्यों ये सोए भाग जगे?
पर सब दिन सिर धुनना भी हो,
फिर भी तो जीना होगा ही!

फिर सोच-फिकर क्यों, मूरख मन?
होना है जो कुछ होगा ही!
थे आगे भी सुख-दुख आए,
उनको रो-गा कर भोगा ही!
अब घड़ी, दो घड़ी रोए भी,
फिर भी तो जीना होगा ही!
अभी तो किसी तरह जी रहे हो! एक बोझ ढो रहे हो! क्या करो और न जीओ तो! उठ आते सुबह, जुत जाते कोल्हू में बैल की तरह, खींचते रहते कोल्हू को दिन भर, रात थक कर फिर गिर जाते हो, फिर सुबह उठ आना, फिर वही कोल्हू का बैल है..मगर करो तो करो क्या! इस जीवन में चारों तरफ तुम्हारे ही जैसे लोग हैं। उनको देखते हो तो लगता है शायद यही जीवन है। इसीलिए पूछा भी तुमने कि क्या यही जीवन है जो मैं जी रहा हूं? चारों तरफ तुम्हारे ही जैसा जीवन लोग जी रहे हैं। यह जीवन नहीं है। यह केवल जीवन को पाने का एक अवसर है। यह कोल्हू को खींचने मात्र को ही सब कुछ मत समझ लेना। थोड़ी घड़ियां निकाल लो इस आपा-धापी से, इस दौड़-धूप से, इस व्यर्थ के संघर्ष से..और मैं नहीं कहता भाग जाओ! भाग कर जाओगे भी कहां? जहां जाओगे वहीं संसार बन जाएगा। क्योंकि संसार तुम्हारे मन में है। तुम जहां जाओगे वहीं, जहां जाओगे वहीं संसार बनना सुनिश्चित है। क्योंकि मन को कहां छोड़ जाओगे? इसी मन से तो यह संसार बन गया है। इसी मन से वहां भी संसार बनेगा। कुछ फर्क न पड़ेगा। इसलिए मैं भागने को नहीं कहता, मैं जागने को कहता हूं। मैं कहता हूं: जागो! जहां हो, वहीं जागो! थोड़े घड़ी-पल निकाल लो, चैबीस घंटे में थोड़ा सा समय निकाल लो..इतना गरीब तो कोई भी नहीं जो थोड़ा सा समय न निकाल सके अंतर्यात्रा के लिए..और अंततः तुम पाओगे, वे ही क्षण बचे जो तुमने भीतर बिताए; बाकी सब खो गया।
मगर लोग अजीब हैं! अगर उनसे कहो, ध्यान करो, वे कहते हैं, समय कहां है? और वे इस तरह से कहते हैं कि लगता है धोखा नहीं दे रहे। वे इस तरह से कहते हैं कि लगता है झूठ नहीं बोल रहे। और झूठ शायद वे बोल भी नहीं रहे। वे भी यही मानते हैं कि कहां समय है? मगर इन्हीं को मैं देखता हूं ताश खेलते, इन्हीं को मैं देखता हूं शतरंज बिछाए, इन्हीं को देखता हूं सिनेमागृह के बाहर कतार में खड़े, इन्हीं को देखता हूं रोटरी क्लब, लायंस क्लब में भीड़-भाड़ मचाए हुए, यही बैठे हैं होटलों में। तब इनसे पूछो तो ये कहते हैं, क्या करें, समय काट रहे हैं! तब मैं बड़ा चकित होता हूं। ध्यान की कहो, तो कहते हैं: कहां समय? और ताश खेलते हों; उसी अखबार को जिसको सुबह से तीन बार पढ़ चुके हैं, चैथी बार पढ़ते हों..वैसे वह एक भी बार पढ़ने योग्य नहीं था, चैथी बार पढ़ रहे हैं..तो इनसे पूछो, क्या कर रहे हो? तो कहते हैं क्या करें, समय काट रहे हैं!
तुम समय को काट रहे हो! या समय तुम्हें काट रहा है? किसको धोखा दे रहे हो? मगर ऐसा लगता है ध्यान से आदमी बचना चाहता है। अपने से बचना चाहता है। कुछ कारण होंगे, कुछ भय होगा। सबसे बड़ा भय यही है कि जो व्यक्ति भीतर जाते हैं, बाहर के जगत में उनकी दौड़ शिथिल हो जाती है। धन के पीछे फिर वे ऐसे पागल नहीं रह जाते। आ जाए, ठीक, न आए तो भी ठीक। सुख-दुख समान होने लगते हैं। महत्वाकांक्षा का ऐसा बल नहीं रह जाता। हो जाए पूरी तो ठीक, न हो जाए तो भी ठीक। हर हाल उनके भीतर एक मंगलध्वनि बजने लगती है। हर हाल में वे मस्त रहने लगते हैं। इससे थोड़ा डर लगता है कि अभी तो सफलता भी नहीं मिली, अभी धन कमाया भी नहीं, अभी पद पाया भी नहीं, अभी भीतर अगर गए तो मेरी महत्त्वाकांक्षा का क्या होगा?
एक राजनेता मेरे पास आते थे। मुझसे पूछते थे, मन की शांति का उपाय? मैंने कहा: पहला काम तो राजनीति छोड़ दो, क्योंकि वह मन की अशांति का उपाय है। वे बोले, यह तो नहीं हो सकेगा। असल में आया ही मैं इसीलिए हूं कि राजनीति में हूं तो मन बड़ा अशांत रहता है, तो कुछ शांति का उपाय मिल जाए ताकि राजनीति में भी रह सकूं और मन शांत रहे। और आप तो जड़ से ही काटने लगे। आप कहते हैं, राजनीति ही छोड़ दो। अभी तो नहीं छोड़ सकता। थोड़े दिन बाद छोड़ दूंगा। मैंने कहा, थोड़े दिन में क्या होना है? उन्होंने कहा: बस, थोड़े दिन की और बात है कि मुख्यमंत्री हुआ जा रहा हूं। अब सारी जिंदगी दौड़ में लगाई, अब थोड़े दिन के लिए क्या छोड़ना! मैंने उनसे कहा: तो फिर पहले मुख्यमंत्री हो लो! क्योंकि भीतर जाओगे तो दौड़ छूट जाएगी। क्योंकि भीतर उतरने का अर्थ ही यह होता है कि अब बाहर जो व्यर्थ के आकर्षण थे, वे फीके पड़ने लगेंगे। बाहर के दीये बुझने लगेंगे, भीतर के दीये जलने लगेंगे। भीतर दीवाली होगी। बाहर दीवाला! और मैंने उनसे कहा: बाहर तो दीवाला होने ही वाला है, भीतर दीवाली कर लो तो ठीक, नहीं तो बहुत पछताओगे।
नहीं माने। अभी आए थे तो बहुत पछता रहे हैं। क्योंकि मुख्यमंत्री तो हुए ही नहीं, मंत्री भी नहीं रह गए। कहने लगे, अब बता दें ध्यान! मैंने कहा, अब फिर आना! जब मुख्यमंत्री बनने का फिर मौका कभी जीवन में आ जाए, तब आना। ध्यान लोग मुफ्त चाहते हैं। कुछ भी गंवाना न पड़े। और ध्यान इस जीवन में सबसे मूल्यवान वस्तु है। उससे बड़ा कोई हीरा नहीं। उसके लिए सब भी गंवाओ तो कुछ भी नहीं गंवाया।
ध्यान में लगो, मधुकर! नाम तुम्हारा प्यारा है! भीतर खिला है असली फूल। चलो भीतर। गुनगुनाओ वहां। वहां है असली रस। जिसने पिआ, वह सदा के लिए तृप्त हो गया।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!

माना अब आकाश खुला सा और धुला सा
फैला-फैला, नीला-नीला
बर्प-जली सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिस पर खिलता फूल फबीला,
तरु की निरावरण डालों पर मूंगा, पन्ना
औ‘ दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!

माना, गाना गाने वाली चिड़िया आई,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्मप्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दूल्हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!

डार-पात सब पीत पुष्पमय जो कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्यों फहराए?
छोड़ नगर की संकरी गलियां, घर-दर, बाहर
आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं दिखते पियराए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!

प्रातः से संध्या तक पशुवत मेहनत करके
चूर चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी,
मौसम की मदमस्त हवा पी जो हो उठते
हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्खा नहीं जगाए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूं मधुऋतु आई!
भीतर भी आता है मौसम। भीतर भी आता है वसंत। कल ही तो हम गुलाल की बात करते थे न! गुलाल कहता है: वसंत आ गया, फागुन आ गया, अब तो अपने प्यारे के संग होली खेलूंगा। उन्हीं की बात में मैं भूल ही गया कि अभी होली नहीं है। सो रायपुर के संबंध में कुछ सच्ची बातें कह गया। एक मित्र ने प्रश्न पूछा है कि आपने मुझे बहुत धक्का पहुंचाया; मैं रायपुर से आया हूं। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं! कहना तो चाहिए, भैया, होली है, बुरा न मानो! मगर होली थी नहीं, वह तो गुलाल...कसूर गुलाल का! ऐसी होली मचाई उन्होंने कल कि मैं भूल गया कि होली अभी है नहीं, सो सच्ची बातें कह गया रायपुर के संबंध में। अगर बुरा लगा हो तो आज झूठी बातें कह दूं।
रायपुर तो भारत की राजधानी होने योग्य है। भारतीय संस्कृति का ऐसा प्रतीक नगर और कोई! संस्कारधानी है रायपुर। इसलिए तो कहा था कि लोग अद्वैतवादी हैं। भेद ही नहीं करते। सारे संसार को ही संडास समझते हैं। और रायपुर का इलाका कहलाता छत्तीसगढ़। तुम तो जानते हो ही छत्तीस गुण!
मैं रायपुर के कालेज में जब प्रोफेसर था तो वहां एक प्रोफेसर थे, वे थे नाई। तो लोग कहते हैं कि नउओं में छत्तीस गुण होते हैं। मुझे पक्का पता नहीं, मगर मैं हैरान हुआ कि लोग उनको कहते थे: मिस्टर सेवनटी टू। मैं कुछ चैंका। मैंने कहा कि सुना है मैंने कि नाई में छत्तीस गुण होते हैं, मगर बहत्तर! तो किसी ने मुझे समझाया जानकार अनुभवी ने कि आप समझे नहीं, इनकी एक ही आंख है, सो दोहरे गुण। दो आंख वाले नाई में छत्तीस गुण होते हैं, इनकी एक ही आंख है एक आंख वाला आदमी तो बहुत ही ग.जब का होता है, बहुत गुणी होता है, इसलिए इनको मिस्टर सेवनटी टू कहते हैं। अब रायपुर तो छत्तीसगढ़ की राजधानी है। छत्तीसों गुण हैं वहां लोगों में।
बुरा न मानो, होली की बात थी!
भीतर भी ऐसा वसंत आता है। भीतर भी ऐसी गुलाल उड़ती है। मधुकर! भीतर चलो! वहां खिले हैं फूल। फूल जो कभी कुम्हलाते नहीं। जिनको ऋषियों ने सहस्रदल कमल कहा! हजार पंखुड़ियों वाले कमल कहा। वे वहां खिले हैं। तुम्हारे भीतर भी उतने ही खिले हैं जितने बुद्धों के भीतर। जरा भी कम नहीं, जरा भी भेद नहीं। तुम में और बुद्ध में इतना ही भेद है कि तुम अपने ही कमलों की तरफ पीठ किए खड़े हो और बुद्धों ने अपने कमलों की तरफ मुंह फेर लिया है। बस, इतना ही भेद है। अबाउट टर्न! बस एक सौ अस्सी डिग्री घूम जाओ। और तुम चकित हो जाओगे। परम जीवन अपने आप झरने लगेगा। झरत दसहुं दिस मोती!

दूसरा प्रश्नः ओशो, मैं संन्यास से भयभीत क्यों हूं?

हरीश! संन्यास से भय स्वाभाविक है। संसार में तुम रंगे हो..खूब रंगे हो। जन्म के साथ ही संसार की दीक्षा मिलती है। अब अगर तुम्हारी उम्र चालीस साल है या पचास साल, तो पचास साल का सम्मोहन है संसार का। हम छोटे-छोटे बच्चों को सम्मोहित करने लगते हैं, संसार की भाषा में। हम छोटे-छोटे बच्चों को कहते हैं, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब। उनको नवाब बनाने के लिए उनका सिर खराब करने में लगे हो। नवाबों की हालत देखते नहीं कि सब नवाबों का कबाब हो गया है और तुम उनको अभी भी नवाब बना रहे हो! लेकिन, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब। और खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब।
बेचारा बच्चा खेलकूद छोड़ कर पढ़ना-लिखना शुरू कर देता है। पढ़ना-लिखना महत्त्वाकांक्षा बन जाती है। प्रथम आओ! स्वर्ण-पदक लाओ! दौड़ शुरू हो गई प्रथम आने की। और जीसस कहते हैं कि जो इस जगत में प्रथम है, वह मेरे प्रभु के राज्य में अंतिम होगा। और जो यहां अंतिम है, वह मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होगा। और हम लोगों को सिखाते हैं: प्रथम हो जाओ। दौड़ो, दौड़ते रहो, लेकिन प्रथम होकर रहो। तो लोग बूढ़े हो जाते हैं, ...देखा मोरारजी देसाई, चैरासी साल की उम्र, मगर दौड़ते ही रहे, दौड़ते ही रहे! अभी भी दौड़ बंद नहीं हो गई, अभी भी भीतर-भीतर खुसर-पुसर चल रही है। जैसे आदमी अपना बचपना कभी खोता ही नहीं। बूढ़े भी बूढ़े नहीं हो पाते। ऐसा दिखता है, यहां सभी बाल लोग धूप में पका लेते हैं। कोई प्रौढ़ता नहीं आती। वह पद की आकांक्षा। छोटे-छोटे बच्चे कुर्सी पर चढ़ जाते हैं और कहते हैं अपने पिता से, दद्दू, हम तुम से बड़े! कुर्सी पर चढ़े। जब कुर्सी पर चढ़े तो हम तुम से बढ़े। और ये बड़े-बड़े दद्दू, इनमें भी कोई फर्क नहीं है। ये चढ़ जाते हैं कुर्सी पर तो कहते हैं कि हम बड़े, सर्वोच्च, हमसे ऊपर कोई भी नहीं। वही अकड़, वही पागलपन, वही विक्षिप्तता।
लेकिन हम बच्चों को सिखाते हैं: खूब धन कमाना, खूब पद कामना, अपने बापदादों का नाम उजागर करना! कौन सी जरूरत है बापदादों का नाम उजागर करने की? अगर वे खुद नहीं कर पाए उजागर, तो ये बेचारे काहे को उजागर करें! इनका क्या कसूर है! और उजागर ही हो जाएगा नाम तो क्या होना है? इतिहास की किताबों में स्वर्ण अक्षरों में लिख जाएगा तो भी क्या होना है? लेकिन नाम उजागर करना! अपने मां-बाप की प्रतिष्ठा बढ़ाना! मां-बाप मर गए हैं तो भी अभी तक इन बच्चों के कंधों पर बंदूक रख कर चलाने की कोशिश कर रहे हैं..मरे-मराए मां-बाप, कब्रों में पड़े हैं, मगर लड़कों के कंधों पर से बंदूक चला रहे हैं।
हम महत्त्वाकांक्षा सिखाते हैं। महत्त्वाकांक्षा यानी संसार। अब संन्यास का अर्थ होता है: महत्वाकांक्षा से मुक्ति। संन्यास का अर्थ होता है: यह जो आपा-धापी, यह जो दौड़ है, यह जो व्यर्थ की दौड़ है, आगे होने की, इसकी व्यर्थता का दिखाई पड़ जाना। तो अड़चन तो होगी। तुम्हारे जीवन भर के सम्मोहन के विपरीत है यह। और सम्मोहन को तोड़ने में समय लगता है। यहां मुझे सबसे ज्यादा जो मेहनत करनी पड़ती है वह यही कि तुम्हारा सम्मोहन कैसे टूटे? पचास वर्ष-साठ वर्ष का सम्मोहन लेकर तुम आए हो, और एक जन्म का नहीं, जन्मों-जन्मों का सम्मोहन लेकर तुम आए हो, तुम्हारी धारणाएं मजबूत हो चुकी हैं, पत्थर की तरह तुम्हारी छाती में बैठ गई हैं, उनको हटाना मुश्किल है। उनको हटाओ तो तुम्हीं रुकावट डालते हो। क्योंकि तुम समझने लगे हो वे तुम्हारे प्राण हैं। उनमें ही तुम्हारे प्राण अटके हैं।
इससे, हरीश, संन्यास से भय लगता है।
पहला तो भय यह कि मुझे बदलना होगा। बदलना कोई चाहता नहीं। जैसे हम हैं अगर वैसे ही कुछ हो जाए तो अच्छा। इसलिए हम थोथे धर्म में पड़ जाते हैं। क्योंकि थोथा धर्म तुमसे किसी रूपांतरण की अपेक्षा नहीं करता। मंदिर चले जाओ, हनुमान जी को दो फूल चढ़ा आओ, तुम्हारा क्या बिगड़ता है? फूल भी लोग अक्सर पड़ोसियों के बगीचे से तोड़ कर ले आते हैं। मैं अपने अनुभव से कहता हूं। जबलपुर में मैंने बहुत सुंदर बगीचा बनाया हुआ था। बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। धार्मिक लोग एकदम आने लगे। सुबह से ही चले आए अपनी-अपनी डलिया लिए, फूल तोड़ने लगें। मैंने उनको रोका, उन्होंने कहा कि यह हम धर्म के लिए तोड़ रहे हैं! वे इस अकड़ से बोलें जैसे कि धर्म के लिए तोड़ रहे हैं तो कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। मैंने कहा, अधर्म के लिए तोड़ रहे हो तो तोड़ने दे सकता हूं, मैं धर्म के लिए तो बिल्कुल नहीं तोड़ने दूंगा। मैंने तख्ती लगा दी कि धर्म के लिए फूल तोड़ना सख्त मना है। लोगों ने मुझसे पूछा कि आप भी खूब हैं! धर्म के लिए तोड़ना मना है! अधर्म के लिए तोड़ना नहीं मना है! मैंने कहा, अधर्म के लिए नहीं। जैसे तुम्हारा किसी स्त्री से प्रेम हो जाए और तुम फूलमाला बना कर ले जाओ, मुझे समझ में आता है कि चलो, कोई बात नहीं, कुछ काम आ गई। मगर बेचारे हनुमान जी! न फूल मेरे काम आए, न पौधे के काम आए, न तुम्हारे काम आए और हनुमान जी क्या करेंगे! उनके क्या काम आने हैं?
और परमात्मा के लिए तो फूल चढ़े ही हुए हैं, वृक्षों पर चढ़े हुए ही चढ़े हुए हैं। वे परमात्मा का ही गीत गा रहे हैं, उसका ही गुंजन कर रहे हैं, उसकी ही गंध उड़ा रहे हैं। तुम तोड़ कर उनकी और जान ले रहे हो। नहीं, वे बोले कि प्यारे-प्यारे फूल, इनको परमात्मा के चरणों में चढ़ाना! मैंने कहा कि ये वृक्षों को लाभ मिलेगा इसका, तुम को क्या मिलेगा? तुम कुछ प्यारी-प्यारी चीज अपनी चढ़ाओ! जैसे अपनी गर्दन उतार कर चढ़ा दो। कैसा प्यारा-प्यारा चेहरा दर्पण में देखते हो! तो कुछ तुम्हें लाभ होगा। ये तो फूल अगर हुए तो गुलाब के पौधे के हैं। परमात्मा अगर धन्यवाद भी देगा तो गुलाब के पौधे को देगा, तुम कहां आते हो?
लोग पड़ोसियों के यहां से फूल तोड़ लेंगे, रास्तों के किनारे से, लोगों की दीवालों पर चढ़ कर फूल तोड़ लेंगे..चले मंदिर में चढ़ाने! फूल भी अपने नहीं, मंदिर में मूर्ति भी पत्थर की, कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, ये बिल्कुल आसान धर्म हुआ। यह दो कौड़ी का धर्म हुआ। रट लिया गायत्री मंत्र, दोहरा दिया, तोतों की तरह रट लिया, पुनरुक्त कर दिया, यह तो ग्रामोफोन का रिकार्ड कर दे, इसमें तुम क्या कर रहे हो? तुमसे ज्यादा बेहतर ढंग से कर दे। गायत्री मंत्र का ग्रामोफोन रिकॅार्ड ले आओ, अब तो बनते भी हैं, नमोंकार का रिकार्ड ले आओ, चढ़ा दिया सुबह से, बजता रहेगा गायत्री मंत्र, लाभ तुम्हें मिल जाएगा। और तुम सोचते हो, तुम जब गायत्री मंत्र पढ़ते हो तो कुछ भिन्न कर रहे हो? तुम्हारे मस्तिष्क में जो स्मृति है, वह भी ग्रामोफोन रिकार्ड जैसी है।
अभी वैज्ञानिकों ने जो खोज की है स्मृति के संबंध में, वह पूर्ण रूप से सिद्ध करती है कि स्मृति बिल्कुल ग्रामोफोन का रिकार्ड है। मस्तिष्क में केंद्र हैं जहां चीजें संगृहीत होती हैं। अगर बिजली के द्वारा उन केंद्रों को छुआ जाए, तो स्मृति एकदम सक्रिय हो जाती है। जैसे कोई आदमी गायत्री मंत्र पढ़ता है। यह बैठा है शांत, वैज्ञानिक उस केंद्र को छू सकते हैं बिजली के तार से जहां गायत्री मंत्र पढ़ता है। यह बैठा है शांत, वैज्ञानिक उस केंद्र को छू सकते हैं बिजली के तार से जहां गायत्री का मंत्र संगृहीत है, बस यह आदमी एकदम गायत्री मंत्र बोलने लगेगा..हालांकि यह बोलना नहीं चाहता। यह बोलना चाहे कि न बोलना चाहे, इसको बोलना पड़ेगा। वह तो ग्रामोफोन का रिकार्ड शुरू हो गया, सुई लग गई, अब यह क्या करेगा, इसको गायत्री मंत्र बोलना ही पड़ेगा। और एक बड़े मजे की बात और है। जैसे ही सुई अलग कर लो, बंद हो जाता है। फिर सुई लगाओ, फिर शुरू। इतना ही फर्क है ग्रामोफोन रिकार्ड में और इसमें कि जब भी तुम सुई लगाओगे, हमेशा पहले से शुरू होगा, शुरू से शुरू होगा। ऐसा नहीं कि जहां से छोड़ दिया था, बीच में से शुरू हो। यह मस्तिष्क की खूबी है कि वह तत्क्षण अपने-आप वापिस पुरानी जगह पर लौट जाता है। आटोमेटिक। तुमने अगर बीच में से सुई हटा ली, तत्क्षण रिकार्ड घूम कर वापस अपनी जगह पहुंच जाता है। पुनः पूर्व-स्थिति में। फिर सुई छुआई, फिर चल पड़ा। तुम हजार बार सुई चुभाओ, हजार बार वही मंत्र दोहराएगा। और तुम जगह-जगह, अलग-अलग जगह सुई चुभाओ, अलग-अलग चीजें आदमी बोलेगा। क्योंकि अलग-अलग केंद्रों पर अलग-अलग चीजें संगृहीत हैं।
किसी केंद्र से एकदम गालियां बकने लगेगा। ये सज्जन आदमी हैं, चरखा चलाता, खादी पहनता, गांधी टोपी लगाता है, एकदम गाली बकने लगेगा। और इसको बड़ी मुश्किल तो यह होगी इसको खुद ही समझ में नहीं आएगा मैं क्या कर रहा हूं। कभी-कभी तुमको भी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कर रहे हो? कई बार तुम कहते भी हो कि मेरे बावजूद यह बात हो गई। वह क्यों हो जाती है तुम्हारे बावजूद? तुम कहते हो, उस आदमी ने मेरी बटन दबा दी। मतलब? बटन दबाने का मतलब क्या हुआ? और बटनें हैं तुम्हारी। और सबको पता है कि किसकी बटन कहां से दबाओ तो बस, वह एकदम गर्मा जाता है। कोई भी छोटी सी चीज पर्याप्त है तुम्हारी बटन को दबाने के लिए। और तत्क्षण तुम वही व्यवहार करना चाहते हो जो तुम नहीं करना चाहते।
पत्नियां जानती हैं पतियों की बटनें, वे घर आए कि उनने दबाईं। दबाईं कि बस पति ने वही काम शुरू कर दिया जो वह रोज करता है और हजार बार तय कर चुका है कि अब नहीं करेंगे, लाख पत्नी दबाए। मगर पत्नी जानती है कि बटन कहां है। वह एकदम दबा देती है। पति भी जानते हैं पत्नियों की बटनें। कहां से दबाओ, कैसे दबाओ? जो लोग एक-दूसरे के नैकट216ा में रहते हैं, वे धीरे-धीरे स्वभावतः जानने लगते हैं कि किसकी बटन कहां है? किस तरह दबाओ?
अरे, आदमी की तो आदमी, कुत्ते तक जानते हैं।
मालिक आएगा तो कुत्ता एकदम पूंछ हिलाने लगता है। वह पूंछ हिला कर क्या कर रहा है, मालूम? तुम्हारी बटन दबा रहा है। वह खुशामद कर रहा है। वह कह रहा है कि आप महान हो! बेचारा कह नहीं सकता मुंह से, पूंछ हिला रहा है। अजनबी आदमी आ जाता है, भौंकने लगता है। कभी-कभी दुविधा की हालत भी होती है। उसको। तो वह दोनों काम एक साथ भी करता है। कभी दुविधा होती है कि अजनबी भी मालूम होता है आदमी और कुछ पहचाना भी लगता है, अब पता नहीं क्या हो? तो कुत्ता कूटनीतिज्ञ हो जाता है। वह पूंछ भी हिलाता है, भौंकता भी है। देखता है, तौलता है कि मामला जैसा होगा, वह फिर कर लेंगे। देखता है कि मालिक नमस्कार कर रहा है, भौंकना बंद कर देता है, पूंछ ही हिलाता रहता है। और देखता है कि मालिक ध्यान ही नहीं दे रहा है आदमी पर, पूंछ हिलाना बंद कर देता है, भौंकना जारी रखता है।
वह तो तुम बिल्कुल ही अंधे होओ तो बात अलग है।
चंदूलाल बुढ़ापे में बहरे हो गए थे। वज्र-बधिर। गए थे ढब्बू जी के घर, उनका कुत्ता एकदम भौंकने लगा। भयंकर कुत्ता ढब्बू जी रखते हैं, अलसेशियन, कि देख कर आदमी के छक्के छूट जाएं। मगर चंदूलाल डरे ही नहीं। सुनाई ही न पड़े तो डरें क्यों? चंदूलाल बोले: ढब्बू जी, मालूम होता है तुम्हारा कुत्ता रात भर सोया नहीं। ढब्बू जी ने कहा: तुम्हारा मतलब? उन्होंने कहा कि देखो, कैसी जम्हाइयां ले रहा है! वह भौंक रहा है। मगर अब सुनाई ही न पड़ता हो, तो जम्हाइयां ले रहा है; दिखाई पड़ता है चंदूलाल को कि ढब्बूजी का कुत्ता जम्हाइयां ले रहा है।
बिल्कुल अंधे आदमी हों और बहरे आदमी हों, तो बात अलग। लेकिन उनको भी कुछ न कुछ तो दिखाई पड़ता ही है, कुछ न कुछ अनुभव में आता ही है। जिनके पास हम रहते हैं, उनकी बटनें हमारी समझ में आ जाती हैं। इसलिए लोग जानते हैं कि किस की खुशामद किस तरह से करना, किस की स्तुति किस तरह से करना? निंदा किस तरह करना? किस तरह से अपमान करना? किस तरह से सम्मान करना?
वह तो कभी-कभी मुश्किल होती है!
एक सूफी फकीर को कुछ लोगों ने जूते की माला पहना दी। वह फकीर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह जूते की माला पहन कर चल पड़ा मस्ती से। लोग बड़े हैरान हुए, क्योंकि वे अपमान करने आए थे। उन्होंने कहा कि सुनो जी, ये जूतों की माला हमने पहनाई और तुम मस्ती से चले! उसने कहा, और क्या करोगे तुम? मालियों के गांव में जाता हूं, फूलों की माला पहनाते हैं। यह चमारों का गांव होगा..उसमें तुम कर भी क्या सकते हो? ..तो तुमने जूतों की माला लाई। भई, जिसके पास जो है, लाता है! प्रेमवश जो ले आए! धन्यवाद तुम्हारा। और जूते अच्छे हैं, काम आ जाएंगे, फूल तो मुरझा जाते हैं। तुम्हारा भाव मैं समझा; ये जूते मेरे भी काम आ जाएंगे, मेरे शिष्यों के भी काम आ जाएंगे, इतने इकट्ठे दे दिए तुमने। और सब अच्छी हालत में हैं। तो प्रसन्न क्यों न होऊं।
ऐसे आदमी की बटन तुम नहीं दबा सकते। ऐसे आदमी के साथ गड़बड़ हो जाएगी। ऐसे व्यक्ति को गीता ने कहा है: समदृष्टि। ऐसा ही व्यक्ति महावीर ने कहा है: सम्यक दृष्टि। सम्यक्त्व को उपलब्ध। कृष्ण कहते हैं ऐसे व्यक्ति को स्थिरध्री स्थितिप्रज्ञ जो बिल्कुल समतुल हो गया है, शांत हो गया है। इतना शांत कि अब उसका मस्तिष्क से कोई तादात्म्य नहीं रह गया। तुम्हारा मस्तिष्क से तादात्म्य है। वहां महत्त्वाकांक्षाएं भरी पड़ी हैं; बड़ी एषणाएं, बड़ी तृष्णाएं, तुम दौड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? और संन्यास कहता है: ठहरो। संन्यास कहता है: रुको। संन्यास कहता है: थोड़े बैठो। थोड़े अपने भीतर बैठो। भीतर डुबकी मारो। और तुम्हें जाना है दिल्ली! तुम्हारा हर उपाय दिल्ली जाने के लिए! तुम हर टेन में घुसने की कोशिश कर रहे: दिल्ली पहुंचना है! तुम्हारे कानों में एक ही आवाज गूंज रही है..दिल्ली दूर नहीं। अब पहुंचे, तब पहुंचे। तुम कैसे संन्यास लो? इससे भय लगता है कि कहीं तुम्हारे जीवन की जो अभी तक व्यवस्था रही है, संन्यासी उसे अस्त-व्यस्त न कर दे।
और मैं तुम्हें कह देना चाहता हूं कि संन्यास निश्चित रूप से अस्त-व्यस्त करेगा। यह होने ही वाला है। और महत्वाकांक्षा का ही जगत नहीं, और सारी चीजों में भी अस्त-व्यस्तता आ जाएगी।
एक बहुत बड़े परिवार की महिला ने मुझसे पूछा कि मैं ध्यान करना चाहती हूं, इससे मेरे जीवन में किसी तरह की अड़चन तो नहीं आएगी? क्यों आएगी, खुद ही बोली, कि ध्यान से तो लाभ ही होगा, हानि तो कुछ होनी नहीं। इससे तो मैं और अच्छी बन जाऊंगी, तो मेरे जीवन में कोई अड़चन तो आने का प्रश्न ही नहीं उठता। मगर सवाल उठता है, इसलिए आप से पूछती हूं। मैंने उससे कहा कि तू प्रश्न ठीक पूछती है। उपद्रव होंगे। क्योंकि तू शांत हो जाएगी, लेकिन तेरे पति! तेरे पति को फिर से तेरे साथ समायोजन करना होगा। तू बदल जाएगी। तो जैसे पत्नी ने अगर सच में गहरी बदलाहट कर ली तो पति को इस तरह समायोजन करना होगा कि जैसे दूसरा विवाह किया। झंझट होगी!
और एक और आश्चर्य की बात है कि अगर कोई व्यक्ति भला हो जाए, तो दूसरे लोगों को ज्यादा चोट पहुंचती है। उसके बुरे होने से चोट नहीं पहुंचती। पति अगर शराब पिए, चलेगा। जुआ खेले, चलेगा। लेकिन ध्यान करने लगे, बस पत्नी उपद्रव खड़ा कर देगी। जुआ खेलता था, शराब पीता था, चलता था। क्यों? क्योंकि पत्नी ऊपर थी, पति नीचे था। और पत्नी जब देखो तब कौन मरोड़ती रहती थी कि तुम्हें कब अकल आएगी? पति जब भी आता था, पूंछ दबा कर घर में आता था। जब भी आता था, डरा हुआ आता था, घबड़ाया हुआ आता था। जब भी आता था, कभी साड़ी ला रहा है, कभी हार ला रहा है, कभी आइस्क्रीम ला रहा है, कभी रसगुल्ले ला रहा है..कुछ न कुछ ला रहा है पत्नी की सेवा के लिए कि वह ज्यादा गड़बड़ न करे। अगर यह पति ध्यानी हो जाए, तो फिर न यह साड़ी लाएगा, न यह आइस्क्रीम लाएगा..यह कहेगा, क्यों लाऊं? किसलिए? और यह पत्नी से ऊपर होने लगेगा। और पत्नी के अहंकार को चोट पहुंचने लगेगी।
तो मैंने उससे कहा कि तू सोच-समझ के कर। ध्यान करना है, तो चारों तरफ अस्त-व्यस्तता तो होगी। जैसे तूफान आए। हालांकि तूफान के बाद बहुत शांति आएगी! लेकिन तूफान तो आएगा। अंधड़ तो उठेगा। तेरे और तेरे पति के बीच, तेरे और तेरे बच्चों के बीच बाधाएं पड़नी शुरू हो जाएंगी।
यह मेरा रोज का अनुभव है। पत्नी अगर ध्यान करने लगे, पति बाधा डालता है। पति की तो दूर, छोटे-छोटे बच्चे बाधा डालते हैं। अगर उनकी मां ध्यान करने लगे, तो आकर हिलाते हैं। क्योंकि उनको डर लगता है कि यह क्या हो रहा है? मुझे छोटे-छोटे बच्चों ने पत्र तक लिखे हैं कि आपने हमारी मां को क्या कर दिया? वह घंटों बैठी रहती है बिल्कुल आंख बंद करके, ऐसी पहले तो नहीं थी। पहले हमारी तरफ बहुत ध्यान देती थी; अब हमारी उपेक्षा करती मालूम पड़ती है। पहले हर छोटी चीज का ख्याल करती थी। अब उतनी चिंता रखती नहीं मालूम पड़ती। क्या हो गया है हमारी मां को? आपने क्या कर दिया? छोटे बच्चे मुझे लिखते हैं। छोटे बच्चों को भी बेचैनी होती है कि हमारी मां को क्या हो गया! पहले हम शोरगुल करते थे तो डांटती-डपटती थी, वह समझ में आता था। लेकिन अब हम शोरगुल भी कर रहे हैं, सिर पर उठा लेते हैं पूरे मकान को, और वह बैठी है शांत सो शांत ही बैठी है। वह ऐसे देख रही है जैसे है ही नहीं, जैसे हम हैं ही नहीं..बच्चों को गुस्सा आ जाता है कि यह मामला क्या है? हमारी कोई कीमत ही न रही! हमारा कोई बल न रहा। हमारी राजनीति अब चलती ही नहीं। हम पैर पटक रहे हैं, हम गुड़िया तोड़ रहे हैं, हम स्लेट फोड़ रहे हैं और मां बैठी देख रही है। क्योंकि उसकी मां को मैंने कहा है कि साक्षीभाव रखना। अब साक्षीभाव रखोगे तो अड़चन आएगी! बच्चों तक को अड़चन आ जाएगी। सारा परिवार चिंतित होने लगेगा करना क्या अब? दुखी थे तो ठीक थे, सुखी होओगे तो अड़चन आएगी।
यह दुनिया बड़ी अजीब है। यह बहुत अद्भभुत है। यह आश्चर्यचकित करने वाली दुनिया है। यह बुराई को बरदाश्त कर लेती है, भलाई को बरदाश्त नहीं करती।
तो तुम संन्यास से भयभीत हो, हरीश, स्वाभाविक है। पत्नी होगी, बच्चे होंगे, परिवार होगा, माता-पिता होंगे।
एक युवक ने संन्यास लिया, उनके बूढ़े बाप मेरे पास आ गए। बाप की उम्र होगी कोई पचहत्तर साल। बेटा तो कोई चालीस साल का है। और मुझसे आकर बड़े नाराज थे। एकदम गुस्से में बोलने लगे कि आपने यह क्या किया? संन्यास की व्यवस्था तो शास्त्रों में पचहत्तर साल के बाद है। चार आश्रम होते हैं, पच्चीस-पच्चीस वर्ष के। पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, पच्चीस वर्ष गृहस्थ आश्रम, फिर पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ रहो धर में ही मुंह रखो, जंगल की तरफ। वानप्रस्थ! फिर पचहत्तर वर्ष की, उम्र में जंगल चले जाओ: संन्यस्त। आपने चालीस साल के मेरे जवान बेटे को संन्यास दे दिया! आप घर-गृहस्थी बरबाद करने पर उतारू हैं। बहुत नाराज थे तो मैंने कहा, देखें, एक काम करें, एक सौदा किए लेते हैं। उन्होंने कहा: क्या सौदा? मैंने कहा: आपकी उम्र पचहत्तर साल है। उन्होंने कहा: हां? थोड़े डरे भी। जब मैंने कहा, पचहत्तर साल, तो उन्हें याद आया कि अब मामला गड़बड़ होता है। तो मैंने कहा कि मैं आपके बेटे को वापस गृहस्थ बना देता हूं, आप संन्यास हो जाएं। बेटा भी साथ आया था, वह प्रसन्न हो कर मेरी तरफ देखा, उसने कहा कि यह दबाई ठीक जगह बटन। वह जानता है अपने बाप को कि यह बुढ़ऊ संन्यासी! कभी नहीं। ये मर जाएं तो नहीं हो सकते संन्यासी! ये मरते दम तक पकड़े रखेंगे हर चीज को।
मैंने कहा, आप शास्त्र को मानते हैं, शास्त्र में कहा हुआ है: पचहत्तर साल बाद संन्यस्त। पचहत्तर साल तक आमतौर से कई लोग जिंदा ही नहीं रहते। आप जिंदा रह गए, बड़े सौभाग्य की बात! शास्त्र को मानने का समय आ गया; आप संन्यास हो जाएं। लड़के का संन्यास मैं वापिस कर लूंगा। लड़के को समझा-बुझा दूंगा। मैंने उनके लड़के से कहा, भाई बोल! उसने कहा कि ठीक! अगर ये संन्यासी होते हों, तो मैं संन्यास छोड़ने को राजी हूं। बाप ने कहा कि मैं तीन दिन बाद सोच कर आऊंगा। वे अभी तक नहीं आए। आज कोई तीन साल हो रहे हैं। उनके लड़के को मैं पूछता हूं, वे कहते हैं वे कभी नहीं आएंगे। वे आएंगे ही नहीं अब! मगर एक फायदा हुआ, उनका लड़का बोला, कि उस दिन से वे मेरे संन्यास की चर्चा नहीं उठाते। अब वे बात ही नहीं करते हैं, संन्यास की बात ही नहीं उठाते हैं। चार आश्रम इत्यादि पहले बहुत बकवास मचाते थे! अब आश्रम वगैरह की बात ही नहीं करते।
तो अड़चन तो आएगी, हरीश! और फिर संन्यास अज्ञात में प्रवेश है। तो मन भयभीत होता है। अनजान, अपरिचित, दूर है किनारा दूसरा। यह किनारा तो अपना जाना-पहचाना है, इस पर तो हम रहे हैं जन्मों से। माना कि हमारे घर रेत के हैं, जैसे गुलाल कहते हैं, मगर फिर भी घर तो हैं। कम-से-कम नाम तो घर है। नाम से ही मन भर लेते हैं। माना कि रेत के हैं, गिर जाएंगे, मगर कम से कम किनारे की सुरक्षा तो है, तूफान से तो बचे हैं, मझधार में तो नहीं डूबेंगे, मरेंगे भी तो भी किनारे पर मरेंगे, कब्र भी बनेगी तो किनारे पर बनेगी! दूसरा किनारा पता नहीं हो या न हो! कैसे मान लें दूसरे किनारे को? प्रमाण क्या है? प्रमाण तो सिर्प उनको है जिन्होंने देखा है। तुम देखोगे तो ही प्रमाण होगा। अनुभव करोगे तो ही प्रमाण होगा। और मझधार और आंधी और तूफान, खतरे तो हैं ही। संन्यास तो खतरनाक रास्ता है। लेकिन खतरों से गुजर कर ही तो जीवन पकता है, प्रौढ़ होता है। जो खतरे में जीता है, वही तो जीता है। बाकी तो सिर्प धोखा खाते हैं जीने का। तो तुम्हें भय लगता होगा।
इस पार, प्रिए, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा?
यह चांद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा-लहरा यह शाखाएं
कुछ शोक भुला देतीं मन का
कल मुर्झानेवाली कलियां
हंसकर कहती हैं, मग्न रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिए, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की नदियां बहतीं,
रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिल-सी झांकी
नयनों के आगे आती है,
स्वर-तालमई वीणा बजती
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार प्रिए,
ये साधन भी छिन जाएंगे;
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार प्रिए, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है, पर पी पाएंगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है
असमर्थ बना कितना हमको;
कहने वाले, पर कहते हैं,
हम कर्मो में स्वाधीन सदा;
करने वालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको;
कह तो सकते हैं, कह कर ही
कुछ दिल हलका कर लेते हैं;
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार प्रिए, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
संन्यास तो नाव है उस पार जाने के लिए। और नाव भी कहना ठीक नहीं, डोंगी ही कहनी चाहिए। कोई बड़ा जहाज भी नहीं है यह कि जिसमें भीड़-भाड़ सम्मिलित हो जाए, प्रत्येक को अकेले जाना है। इसलिए भी भय लगता है। क्योंकि भीतर की यात्रा पर तुम किसी को संग-साथ नहीं ले सकते। तुम चार मित्रों को लेकर भीतर नहीं जा सकते। भीतर तो अकेले जाना होगा। पहुंचोगे जब तुम स्वयं के अंतर्तम पर, तो बिल्कुल एकांत होगा। समग्ररूप से एकांत। कोई दूसरा न होगा वहां। इससे डर लगता है!
इस पार, प्रिए, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
बाहर तो मित्र हैं, प्रिय हैं, प्रियजन हैं, साथी हैं, संगी हैं, मित्र हैं, शत्रु हैं, बड़ा मेला है, बड़ा झमेला है, मगर भीतर न मेला है, न झमेला है। भीतर तो शून्य है। और शून्य में उतरने की तैयारी संन्यास है। मगर जो शून्य में उतरते हैं, वे धन्यभागी हैं। क्योंकि वे पूर्ण को पाने के अधिकारी हो जाते हैं।
हरीश, हिम्मत करो! और ये जीवन तो यूं भी चला जाएगा, यूं भी जा ही रहा है, इसको जरा दांव पर लगा कर देख लो! ऐसे ही खो जाएगा, ...मौत जब द्वार पर आकर दस्तक देगी तो क्या करोगे? क्या कहोगे कि मुझे भय लगता है, मैं आता नहीं; कि मुझे भय लगता है, मैं दरवाजा नहीं खोलता; कि मुझे भय लगता है, मैं मरना नहीं चाहता। मौत एक न सुनेगी। और जब मौत एक न सुनेगी और जाना ही पड़ेगा अज्ञात अंधकार में, तो क्यों न स्वेच्छा से हम जाएं। और स्वेच्छा से क्रांति घटित हो जाती है।
जब हम अपनी इच्छा के विपरीत मौत के द्वारा घसीटे जाते हैं, तो दुख और पीड़ा होती है, संताप होता है। और जब हम स्वेच्छा से कदम उठाते हैं, अज्ञात, तो आनंद होता है। अपूर्व आनंद होता है।
मौत भी वही करती है, जो संन्यास करता है। फर्क इतना है कि मौत जबरदस्ती करती है; तुम किनारे को पकड़ते हो और मौत तुम्हें छीन कर उस तरफ ले जाती है। इस छीनाझपटी में मरने का मजा नहीं ले पाते। जीने का भी नहीं ले पाए, मरने का भी नहीं ले पाते। संन्यासी जीने का भी मजा लेता है और मरने का भी। संन्यासी मजा ही मजा लेता है। संन्यास को मैं परम भोग कहता हूं, क्योंकि वह परमात्मा का भोग है। संन्यासी जीवन को भी बूंद-बूंद पी लेता है, निचोड़ लेता है उसका रस, और मृत्यु को भी। मृत्यु भी उसे भयभीत नहीं करती। क्योंकि वह मरने के पहले ही अज्ञात में प्रवेश कर चुका है, मौत उसे और कहां ले जाएगी? तो तुम्हें जो मौत की तरह दिखाई पड़ती है, उसके लिए तो परमात्मा का द्वार बन जाती है। ये जो यमदूत आते हैं, भैंसों पर सवार होकर, ये संन्यासी के लिए नहीं आते। अब तक किसी संन्यासी ने ऐसा नहीं कहा। ये तो गैर-संन्यासी के लिए, ये तो संसारी के लिए हैं। ये भैंसें वगैरह कहीं भी नहीं हैं, तुम्हारी कल्पना है। तुम घबड़ाए हुए हो, तुम डरे हुए हो, डर से तुम्हारे भैंसे खड़े हो जाते हैं। भैंसों पर सवार यमदूत।
कहां की सवारी! जमाना बदल गया। यमदूत आएंगे भी तो ऐसे आएंगे जैसे कोई टक डरइवर आता है। अब भी तुम सोच रहे हो कि वे भैंसों पर सवार होकर आएंगे! अब भैंसों से कौन डरता है? हां, टक डरइवर से जरा डरना पड़ता है। क्योंकि चले आ रहे हैं पीए हुए!
मैंने सुना, एक टक डरइवर मरा। उसे स्वर्ग ले जाया गया। वह खुद भी हैरान हुआ। उसने द्वारपाल से पूछा कि भइया, कुछ भूल-चूक हो गई? क्योंकि मुझे ले आए! मैं तो नरक जाने को तैयारी किए बैठा था। मैंने तो मान ही लिया था कि मैं तो नरक जाऊंगा ही। मगर बैंड-बाजे बज रहे हैं। बिसमिल्ला खां शहनाई बजा रहे हैं। यह मामला क्या है? फूलमालाएं पहनाई जा रही हैं। कुछ भूल-चूक हो गई! पहरेदार ने कहा कि नहीं, भूल-चूक कुछ नहीं हुई, तुम्हें इसलिए यहां लाया गया कि तुमने टक इस गजब ढंग से चलाया कि न मालूम कितने लोगों को तुम भगवान की याद दिला देते थे। जो तुम्हारा टक आते देखता, वही कहता: हे राम! लोग उचक कर एकदम पटरी पर चढ़ जाते। जो बच जाता, वह भगवान को धन्यवाद देता। तुमने जितने लोगों को प्रभु का स्मरण करवाया, उतना बड़े-बड़े पंडित और महात्मा भी नहीं करवा सके। तुम टक क्या चलाते थे बिल्कुल यमदूत की तरह चलाते थे! इसलिए परमात्मा तुम पर बहुत प्रसन्न है। इसलिए तुम्हें स्वर्ग लाया गया है।
तुम सोचते हो अभी भी यमदूत भैंसों पर सवार होते होंगे! मगर काला भैंसा, काले यमदूत, जमती थी जोड़! राम मिलाई जोड़ी, कोई अंधा कोई कोढ़ी। बिल्कुल तालमेल खाते थे।
मगर ये तुम्हारे भय से पैदा हुए हैं।
जो जान कर मरे हैं, जो जीवन को पहचान कर मरे हैं, उन्होंने कुछ और कहा है। उन्होंने कहा कि परम प्रकाश हो जाता है। मरने की घड़ी में जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ ऊग आएं। जैसे झील पर कमल खिलते ही जाएं, खिलते ही जाएं, खिलते ही जाएं। जैसे अनंत झील, अनंत कमल खिल जाएं। जो जाग कर मरे हैं, जो ध्यान में मरे हैं, उन्होंने मृत्यु में न तो कोई कालिख देखी, न कोई भैंसे देखे, न कोई यमदूत देखे। हां, परमात्मा का आलिंगन पाया है, मिलन पाया है।
मगर इसके लिए जरूरत है कि पहले तुम थोड़ी हिम्मत जुटाओ।
संन्यास साहसी के लिए है। भीरु के लिए तो बहुत मंदिर हैं। यह मंदिर भीरुओं के लिए नहीं। भीरुओं के लिए तो बहुत मंदिर हैं, बहुत मस्जिदें हैं। वे चले जाएं वहां। वहां घुटने टेके हुए करते रहें प्रार्थनाएं। कुछ पाएंगे नहीं। कहीं भय से भगवान मिला है! भय से संबंध जुड़ते ही नहीं, टूट जाते हैं। प्रेम से संबंध जुड़ते हैं। संन्यास प्रेम है परमात्मा से। और जिस दिन परमात्मा का प्रेम तुम्हारे भीतर सघन होता है, उस दिन संसार की व्यर्थ बातें अपने आप विदा हो जाती हैं। मैं तुम से संसार को छोड़ने को कहता नहीं। सिर्प इसीलिए नहीं कहता हूं कि जिस दिन परमात्मा का प्रेम जगेगा, जो व्यर्थ है वह अपने आप छूटने लगेगा। छूटना ही चाहिए। छोड़ने की जरूरत पड़े, तो समझो कि अभी परमात्मा का प्रेम पैदा नहीं हुआ। अरे, जिसके हाथों में हीरे आ जाएंगे, वह पत्थर ढोता रहेगा! जिसे हीरे की खदान मिल जाएगी, वह कंकड़-पत्थर बीनेगा? जिसके चारों तरफ मोतियों की वर्षा होगी, वह मोतियों से झोली भरेगा। वह क्यों संसार की क्षुद्र बातों में पड़ा रहेगा!
संसार नहीं छूटता मेरे संन्यासी का। इस अर्थ में नहीं छूटता कि वह घर में रहेगा, दुकान पर भी बैठेगा, बाजार में भी जाएगा; मगर इस अर्थ में छूट जाता है कि संसार उसके लिए एक नाटक हो जाता है, एक अभिनय हो जाता है। एक खेल है। जो दिया परमात्मा ने अभिनय, जो पात्र बना दिया, उसे पूरा कर देना है। जो करवाए, करवा ले, वह सब उसकी मर्जी पर छोड़ देता है।
भय तो पकड़ेगा, लेकिन घबड़ाओ मत! यह सभी को पकड़ता है। इसके बावजूद भी छलांग लेने की हिम्मत जुटाओ। तुम्हारे भीतर उतना ही बल है जितना किसी और के भीतर। अपने बल को पुकारो, आवाहन दो। भय को पड़ा रहने दो एक तरफ। छोड़ दो नाव। है भय तो सही, रहने दो भय को, तुम छोड़ो नाव। नाव छोड़ते ही भय विदा हो जाएगा। संन्यस्त होते ही भय तो अपने-आप विलीन हो जाता है, उसकी जगह उमड़ती है पीर, प्रीति; उमड़ता है प्रेम, उमड़ते हैं गीत; वीणा बजने लगती है।
भय तो दुर्गंध है, प्रेम सुगंध है। भय से भरे रहोगे, दुर्गंध से भरे रहोगे। भय से तो कोई काम मत करना। भय से तो जीवन में कोई भी कदम मत उठाना। अभय से ही कुछ करो। क्योंकि अभय ही तुम्हें परमात्मा तक ला सकता है, सत्य तक ला सकता है। महावीर ने कहा है: अभय पहली शर्त है सत्य को जानने की।

तीसरा प्रश्नः ओशो, मनुष्य के रूपांतरण के लिए क्या मनोविज्ञान पर्याप्त नहीं है? मनोविज्ञान के जन्म के पश्चात धर्म की क्या आवश्यकता है?

नरेश! मनोविज्ञान रूपांतरण में उत्सुक ही नहीं है। मनोविज्ञान तो समायोजन में उत्सुक हैं, एडजस्टमेंट में। मनोविज्ञान तो चाहता है कि तुम भीड़ के साथ समायोजित रहो, तुम भीड़ से छूट न जाओ, टूट न जाओ, अलग-थलग न हो जाओ, तुम भीड़ के हिस्से रहो। मनोविज्ञान का तो पूरा उपाय यही है कि तुम व्यक्ति न बन पाओ, समाज के अंग रहो। तो जैसे ही कोई व्यक्ति समाज से छिटकने लगता है, हटने लगता है, कुछ निजता प्रगट करने लगता है, वैसे ही हम मनोवैज्ञानिक के पास भागते हैं कि इसको समायोजन दो, इसको वापिस लाओ, यह कुछ दूर जाने लगा; इसने कुछ पगडंडी बनानी शूरु कर दी, राजपथ पर लाओ! मनोविज्ञान रूपांतरण में उत्सुक ही नहीं है।
रूपांतरण का अर्थ होता है: क्रांति। और पहली क्रांति तो है समाज से मुक्त हो जाना, व्यक्ति हो जाना। पहली तो क्रांति है: आत्मवान होना। पहली तो क्रांति है कि भेड़चाल छोड़ देना। साधारणतः आदमी भेड़ों की तरह है। जहां सारी भेड़ें जा रही हैं, वह भी जा रहा है। उससे पूछो, तुम क्यों जा रहे हो? वह कहता, औरों से पूछो। ये क्यों जा रहे हैं? हमारे बापदादे भी जाते थे, उनके बापदादे भी जाते थे, इसलिए हम भी जा रहे हैं। तुमने कभी खुद से भी पूछा कि तुम क्यों उठ कर चले मंदिर की तरफ, या मस्जिद की तरफ? क्योंकि बापदादे भी वहीं जाते थे। और बापदादों से तुमने पूछा कि वे क्यों जाते थे? उनके बापदादे भी वही जाते थे। इस भीड़ से जब भी कोई छिटकने लगता है तो भीड़ चिंतित हो जाती है।
मनोविज्ञान तो अभी भीड़ की सेवा करता है, अभी उसमें क्रांति नहीं है। अभी तो वह चाहता है कि तुम्हें मनोचिकित्सा के द्वारा भीड़ का अंग बना दिया जाए। वह तुम्हें भीड़ के साथ राजी करवाता है। और दूसरा काम वह यह करता है कि तुम्हारे भीतर तुम अगर अपने से ही परेशान होने लगो, तो वह तुम्हारी परेशानियों से भी तुम्हें धीरे-धीरे राजी करवाता है।
एक शराबघर में एक आदमी आता था। वह पूरा गिलास तो शराब का पी जाता, लेकिन आखिरी घूंट वह शराबघर के मालिक के ऊपर बुलक देता। मालिक ने पहली दफा समझा कि नशे में ज्यादा है। मगर जब यह बार-बार हुआ तो उसने कहा, यह क्या बदतमीजी है! उसने कहा, मैं क्या करूं? मैं लाख रोकना चाहता हूं मगर नहीं रोक पाता। असल में अब तुमने पूछा ही है तो सच्ची बात कह दूं। मेरी पत्नी मर गई। जब तक वह जिंदा थी, मैं उस पर बुलकना चाहता था लेकिन कभी बुलक नहीं पाया। वह महाभयंकर थी। वह ऐसा सताती मुझे! सो मैं रुका रहा, रुका रहा, रुका रहा। अब वह मर गई। जब से वह मरी है, तब से मुझे यह फितूर हो गया है। तुम पर ही नहीं करता हूं यह काम, कहीं भी! और जगह-जगह दिक्कत खड़ी होती है। अब किसी पर भी तुम पानी बुलक दो, या शराब बुलक दो, या चाय बुलक दो...! तो उस शराबखाने के मालिक ने कहा, ऐसा करो कि मैं मनोवैज्ञानिक को जानता हूं, तुम वहां जाओ, चिकित्सा हो जाएगी, ठीक हो जाओगे। यह कोई खास बात नहीं है। एक रोग तुम्हें पकड़ गया है, एक मानसिक रुग्णता।
तीन महीने तक वह आदमी आया नहीं, तीन महीने बाद आया, भला-चंगा लग रहा था, बिल्कुल ठीक लग रहा था, स्वस्थ दिख रहा था। शराबघर के मालिक ने पूछा कि कहो, गए मनोवैज्ञानिक के पास? कहा कि गया तीन महीने। कुछ लाभ हुआ? उसने कहा कि पूरा लाभ हो गया। उसने कहा: अब बुलकते हो कि नहीं? उसने कहा: अब भी बुलकता हूं, मगर अब जरा भी अपराध-भाव अनुभव नहीं होता। मनोवैज्ञानिक ने समझा दिया कि यह तो साधारण सी बात है, यह कोई बड़ी बीमारी नहीं है। तीन महीने लगे उसको समझाने में, लेकिन समझा ही दिया कि यह कोई खास बात नहीं है! इसमें क्या बिगड़ता है, किसी का क्या बिगड़ता है? अरे, कोई मिट्टी के पुतले थोड़े ही हैं कि गल जाएंगे! और इसमें तुमने ऐसा कौन सा पाप कर दिया! लोग ऐसे-ऐसे पाप कर रहे हैं! चंगेजखां की सोचो, तैमूरलंग, एडोल्फ हिटलर, माओत्से तुंग, अयातुल्ला रुहेल्ला खुमैनी, इनकी सोचो! एक से एक पागल दुनिया में पड़े हैं। तुम हो ही क्या? जरा पानी बुलक दिया, इसमें क्या बिगड़ रहा है! एक निर्दोष कृत्य। और होली पर तो सभी करते हैं। तुम यह समझो कि तुम्हारी रोज ही होली है। उसने मुझे समझा दिया। करते तो अब भी मैं वही हूं, मगर अब डरता नहीं हूं और न अपराध-भाव अनुभव होता है, न बेचैनी अनुभव होती है। तुमने ठीक पता दिया था, उस आदमी ने मुझे बिल्कुल स्वस्थ कर दिया।
मनोवैज्ञानिक यही कर रहे हैं। वे तुम्हारी बीमारियों से तुम्हें राजी करते हैं। तुम्हारी बीमारियों का अपराध-भाव तुमसे मिटा देते हैं। और दूसरा काम वे यह करते हैं कि वे समाज के साथ तुम्हारा पुराना समायोजन फिर से थिर कर देते हैं। रूपांतरण का तो सवाल ही मनोविज्ञान में नहीं है। रूपांतरण तो धर्म के द्वारा ही हो सकता है। रूपांतरण तो उनके द्वारा ही हो सकता है जिनका स्वयं रूपांतरण हुआ हो। मनोवैज्ञानिक तो खुद रुग्ण है, वह क्या रूपांतरण करेगा? तुम्हें पता है, मनोवैज्ञानिक जितने पागल होते हैं उतने ज्यादा पागल दुनिया के किसी दूसरे व्यवसाय के लोग नहीं होते? अनुपात दुगना है। किसी भी दूसरे व्यवसाय में इतने लोग पागल नहीं होते जितने मनोवैज्ञानिक पागल होते हैं। और यही अनुपात आत्महत्या का है। जितने मनोवैज्ञानिक आत्महत्या करते हैं, उतने दूसरे व्यवसाय के लोग आत्महत्या नहीं करते। दुगनी आत्महत्या करते हैं।
एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक एडलर एक विश्वविद्यालय में बोल रहा था। उसका सिद्धांत तुम जानते हो, हीनता-ग्रंथि उसका सिद्धांत था। उसने ही खोजा था। वह कहता था, प्रत्येक व्यक्ति या तो हीनता-ग्रंथि से पीड़ित होता है, या महानता की ग्रंथि से पीड़ित होता है। उसका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की प्रबल आकांक्षा एक ही है कि मैं श्रेष्ठ हो जाऊं, मैं शक्तिशाली हो जाऊं, विल टू पॅावर। जैसे सिग्मंड फ्रायड कहता है, कामवासना मूल आधार है, वैसे ही एडलर जो कि उसका पहले शिष्य था और बाद में अलग हो गया, धोखा दे गया फ्रायड को, उसने सिद्धांत निकाला कि असली जीवन का सिद्धांत शक्ति पाने की आकांक्षा है। तो वह कहता था, हर आदमी इससे पीड़ित है और हर आदमी इसी के अनुसार चल रहा है। वह समझा रहा था विश्वविद्यालय में। वह यह कह रहा था कि जो लोग ठिगने कद के होते हैं, वे राजनीति में प्रवेश कर जाते हैं। क्योंकि राजनीतिज्ञ बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठ कर अपने ठिगने कद को भुलाने की चेष्टा करते हैं। इसके लिए उदाहरण खोजे जा सकते हैं।
एक मजा है दुनिया में कि इतने तरह के आदमी हैं, दुनिया में कि हर सिद्धांत के लिए उदाहरण खोजे जा सकते हैं। नेपोलियन केवल पांच फीट पांच इंच था। और इसलिए एडलर कहता था कि वह दुनिया जीत कर बताना चाहता था कि मैं कोई छोटा नहीं हूं। और नेपोलियन हमेशा परेशान भी था अपनी ऊंचाई की वजह से, ठिगनेपन की वजह से। भारत में तो पांच इंच उतना छोटा नहीं लगता, लेकिन पश्चिम में बहुत छोटा लगता है कि जहां छह फीट, साढ़े छह फीट, सात फीट लोग आसानी से मिल जाते हैं। अब सात फीट आदमी के पास पांच फीट पांच इंच का आदमी खड़ा होगा, तो वह लगता है कि कोई बौना खड़ा है। तो नेपोलियन को यह बात बहुत तकलीफ देती थी। उसकी ही फौज में बड़े-बड़े सिपाही थे।
एक दिन घड़ी वह उसकी बंद हो गई, उसको ठीक करने के लिए दीवाल पर हाथ पहुंचा रहा था तो हाथ नहीं पहुंच रहा था, तो उसके बाडीगार्ड ने, उसके शरीररक्षक ने कहा कि ठहरिए, मैं आपसे ऊंचा हूं, मैं ठीक किए देता हूं। नेपोलियन एकदम आगबबूला हो गया, उसने कहा, अपने शब्द वापस लो, तुम मुझसे ऊंचे नहीं हो, लंबे हो। शब्द बदलो। ऊंचे!? तुम मुझ से ऊंचे किस तरह? लंबे हो। लंबाई बात और है। ऊंचाई...! वह हमेशा पीड़ित था उस बात से।
तुमने अगर तस्वीरें देखी हों पंडित जवाहर लाल नेहरू की, पहली दफा शपथ लेते हुए, तो तुमने एक बात देखी होगी। माउंट बैटन तो लंबा आदमी था, श्रीमती माउंट बैटन और भी लंबी मालूम होती है, और नेहरू की तो ऊंचाई पांच फीट पांच इंच ही थी, तो नेहरू एक सीढ़ी पर खड़े हुए हैं, जब शपथ ली उन्होंने। तुम फोटो देखना अगर कभी तुम्हें फोटो फिर मिल जाए। तो वह पहले सीढ़ी पर खड़े हुए हैं और माउंट बैटन सीढ़ी के नीचे खड़ा हुआ था, तब भी वह ऊंचा मालूम पड़ रहा है। वह सब आयोजित है कि वह सीढ़ी पर खड़े होकर शपथ लेंगे, वह नीचे सीढ़ी पर खड़ा होगा। नहीं तो बहुत ही छोटे मालूम पड़ेंगे।
एडलर समझा रहा था लोगों को। एक व्यक्ति खड़ा हुआ और उसने कहा, मैं यह पूछना चाहता हूं, और सब तो ठीक है, क्या आप समझते हैं कि मनोवैज्ञानिक वे ही लोग होते हैं जो मानसिक रूप से रुग्ण होते हैं? आपके सिद्धांत के अनुसार अगर ठिगने लोग राजनीति में जाते हैं, तो पगले जाते होंगे मनोविज्ञान में। बिल्कुल ठीक है। आखिर मनोवैज्ञानिक क्यों मनोवैज्ञानिक होता है? उसका भी कुछ कारण होना चाहिए। और प्रमाण तो ऐसे ही मिलता है, क्योंकि दुगने पागल होते हैं मनोवैज्ञानिक। और जो नहीं होते पागल, उनकी भी तुम पूछो मत, वे भी करीब-करीब पागल ही हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन को अचानक न जाने क्या हो गया था कि उसको प्रत्येक वस्तु एक की बजाय तीन दिखाई देती। जैसे एक रास्ते की बजाय उसे तीन रास्ते दिखाई देते। एक कार की बजाय तीन कारें दिखाई देतीं। वह स्वयं के इलाज के लिए किसी तरह शहर के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक के पास पहुंचा और उसने कहा कि महोदय, बड़ी अजीब समस्या उठ खड़ी हुई है। मुझे प्रत्येक वस्तु एक की बजाय तीन-तीन दिखाई देती हैं। अब आप ही बताइए मैं क्या करूं?
मनोवैज्ञानिक ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बोला कि क्या आप पांचों को यही रोग है?
मनोवैज्ञानिक क्या ख़ाक रूपांतरण करेंगे! अपना ही तो कर लें, फिर औरों का!
सिग्मंड फ्रायड इतना डरता था मौत से कि मौत शब्द भी अपने सामने सुनना पसंद नहीं करता था। दो बार तो ऐसा हुआ कि कोई ने मौत शब्द छेड़ दिया, बातचीत में आ गया, तो वह इतना घबड़ा गया कि बेहोश हो कर गिर पड़ा। दो बार जिंदगी में। अब जो मौत शब्द से धबरा कर बेहोश हो जाय, इस बिचारे से क्या आशा करोगे कि लोगों का जीवन रूपांतरण करेगा?
जीवन रूपांतरण बुद्धों के द्वारा होता है।
दूसरा मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग बहुत बार जाना चाहता था इजिप्त। इजिप्त में कब्रों के भीतर दबी हुई ममी.ज..मरे हुए लोग मसाले में ढांक कर इस तरह रखे गए हैं कि हजारों साल से भी उनकी लाशें सड़ी नहीं हैं..उनको देखने जाना चाहता था। लेकिन लाश देख कर ही उसे डर लगता था। मगर फिर भी जाने की कोशिश करता था कि देख ले एक दफा जाकर। उसने कई दफा टिकट बुक करवाई। मगर टिकट तो बुक करवा ले, जिस दिन हवाई जहाज पकड़ना है, उसके दो दिन पहले, एक दिन पहले बीमार हो जाए। यह इतनी बार हुआ कि उसको भी समझ में आ गया कि मामला कुछ गड़बड़ है। और जैसे ही टिकट कैंसिल हो कि बिल्कुल ठीक। जिंदगी भर कोशिश करके भी वह जा नहीं पाया इजिप्त।
ये मनोवैज्ञानिक जो लाश न देख सकें, ये अपनी मृत्यु की कल्पना कैसे करेंगे? ये अपने को मरा हुआ कैसे देखेंगे? ये सुकरात की तरह तो नहीं मर सकते। ये बुद्ध की तरह तो नहीं मर सकते। ये महावीर की तरह तो नहीं मर सकते। ये जी भी कैसे सकते हैं उनकी तरह अगर मर नहीं सकते तो।
मनोवैज्ञानिकों को जितनी ज्यादा विक्षिप्तताएं घेर लेती हैं, उतनी शायद किसी और को नहीं घेरतीं। और स्वाभाविक भी है एक लिहाज से। क्योंकि पगलों से ही घिरे रहते हैं। चैबीस घंटे उन्हीं से मिलना-जुलना, उन्हीं का सत्संग। सत्संग का असर तो होगा ही। वह तो शास्त्र कह ही गए हैं पहले ही से कि सत्संग का बड़ा असर होता है! अब पागलों के पास ही रहेंगे तो पागल न हो जाएंगे तो और क्या होगा?
एक मनोवैज्ञानिक दूसरे मनोवैज्ञानिक से कह रहा था कि अब कुछ करना ही होगा। पिछले एक महीने से मैं परेशान हूं। मेरी पत्नी अपने-आप को फ्रि.ज समझने लगी है। और पिछले एक महीने से उसने मुझे परेशान कर रखा है।
दूसरा मनोवैज्ञानिक बोला, लेकिन इसमें परेशान होने की क्या बात है? आखिर नुकसान क्या है? समझने दो उसे अपने-आप को फ्रि.ज। तुम्हारा क्या बिगड़ता है!
पहला मनोवैज्ञानिक बहुत झुंझला गया और बोला, क्या बिगड़ता है? आप भी अजीब आदमी हैं! अरे, वह रात भर मुंह खोल कर सोती है।
दूसरा मनोवैज्ञानिक बोला, तो सोने दो, भाई। मुंह खोल कर सोती है तो और भी अच्छा है। नाक से भी सांस लेगी, मुंह से भी सांस लेगी, दोहरी सांस लेगी, लाभ ही लाभ है, इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है?
पहला मनोवैज्ञानिक बोला कि आप समझे नहीं, जनाब? अरे, परेशान न होऊं तो क्या करूं? रात भर फ्रि.ज का बल्ब जलता रहे, तो मैं सोऊं कैसे? और फ्रि.ज भी बाजू ही, बगल में लेटा हो बिस्तर पर!
विक्षिप्तताएं मनोवैज्ञानिकों को सहजता से घेर लेती हैं; क्योंकि उनका मनोविज्ञान उन्हें मन से ऊपर उठने की कोई कला नहीं सिखाता। अभी मनोविज्ञान के पास ध्यान जैसी कोई कला नहीं है। अभी मनोविज्ञान तो केवल बौद्धिक विचार है, विश्लेषण है। अभी तो बस सोच-विचार है। और सोच-विचार से क्या कोई क्रांति हो सकती है! क्रांति तो होती है निर्विचार से। क्रांति तो होती है निराकार के अनुभव से।
नरेश, तुम पूछते हो: ‘मनुष्य के रूपांतरण के लिए क्या मनोविज्ञान पर्याप्त नहीं है? ’
बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं है। और तुम पूछते हो, मनोविज्ञान के जन्म के पश्चात धर्म की क्या आवश्यकता है? धर्म की आवश्यकता सदा रहेगी। मनोविज्ञान कभी उसकी पूर्ति नहीें कर सकता। क्योंकि धर्म बात ही और है। विज्ञान शरीर पर ठहर जाता है, मनोविज्ञान मन पर ठहर जाता है..और धर्म आत्मा पर। उन तीनों के आयाम अलग हैं। मनोविज्ञान आत्मा को मानता ही नहीं। जैसे विज्ञान मन को भी नहीं मानता, सिर्प मस्तिष्क को मानता है। मस्तिष्क शरीर का हिस्सा है। विज्ञान की दृष्टि में, भौतिकशास्त्री की दृष्टि में तुम केवल शरीर हो। तुम्हारी खोपड़ी में और गोभी में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है। बस, साग-भाजी हो। और साग-भाजी खाओगे तो साग-भाजी होओगे! और इस देश में तो और भी समझो, बिल्कुल सच बात है, सभी शाकाहारी!
मनोविज्ञान थोड़ा भौतिकशास्त्र से ऊपर उठता है, टटोलता है थोड़ा, कि मनुष्य मन भी है। मगर मन कोई शाश्वत तत्त्व नहीं है मनोविज्ञान के लिए। शरीर के साथ ही पैदा होता है, मर जाता है। शरीर की ‘बाय प्राडक्ट‘ है। जैसा चार्वाक कहता है कि तुम पान खाते हो, ओंठ लाल हो जाते हैं। अब पान में होता ही क्या है? पान का पत्ता अलग से खाओ, ओंठ लाल नहीं होते। चूना अलग से खाओ, ओंठ क्या ख़ाक लाल होंगे! लाल होंगे, तो और सफेद हो जाएंगे। कत्था अलग से खाओ, ओंठ लाल-वाल नहीं होने वाले, सिर्प मुंह कड़वा हो जाएगा। सुपारी डाल लो, और तरह-तरह के मसाले चबाओ, अलग-अलग, मुंह लाल होने वाला नहीं। लेकिन सबको मिला कर पान बनता है। पान का बीड़ा और तब ओंठ लाल हो जाते हैं। यह लाली कहां से आती है? यह बाई-प्रॅाडक्ट है। यह इन सबके मिलने से पैदा होती है।
ऐसा मनोविज्ञान मानता है कि यह शरीर में जो सारे तत्त्व मिले हैं, उनसे मन पैदा हुआ है। मन एक बाई-प्रॅाडक्ट है। शरीर मिट जाएगा, मन मिट जाएगा।
मनोविज्ञान कैसे धर्म की पूर्ति कर सकता है? धर्म कहता है, तुम न तो शरीर हो, न तुम मन हो; तुम वह हो जो शरीर को भी देखता है और मन को भी देखता है। तुम वह द्रष्टा हो। तुम वह दर्शन हो। तुम वह साक्षीभाव हो। वह शरीर के पहले था और शरीर के बाद भी होगा। न उसका कोई जन्म है, न उसकी कोई मृत्यु है। उस शाश्वत को जान लेने से जीवन में क्रांति होती है। उस शाश्वत को जानने से जीवन में सच्चिदानंद की वर्षा होती है।

आज इतना ही।

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