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गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां

18 दिसंबर, 1985, प्रातः, कुल्लू-मनाली

कम्यून अर्थात आध्यात्मिक विश्वविद्यालय

भगवान, ओरेगान के कम्यून के निर्माण-काल में आपने मौन व्रत लिया हुआ था; फिर कम्यून के निर्माण कार्य में आप सहभागी कैसे हुए? और इस किस्म का कम्यून किसकी जरूरत है- आपकी, आपके शिष्यों की, या बृहत समाज की? 
पहली बात, मैं उसमें किसी भी तरह भागीदार नहीं था। इसे समझाना जरा कठिन होगा कि बिना भाग लिए भी चीजें संभव हैं।  उदाहरण के लिए, सुबह सूरज उगता है, पक्षी गीत गाने लगते हैं- सूरज उसमें सहभागी नहीं है। वह किसी भांति कोई कृत्य नहीं कर रहा है, पक्षियों को गाने के लिए प्रवृत्ति नहीं कर रहा है। फूल खिलते हैं- सूरज सहभागी नहीं है।  तो मैं कहूंगा कि मैं जरा भी सहभागी नहीं था, वह समक्रमिकता थी। मैं वहां उपस्थित था। और मेरे मौन में तो यह उपस्थिति और भी सघन थी। और मेरी उपस्थिति ने कम्यून निर्मित करने में मेरे लोगों की मदद की।  कम्यून के बारे में मैं वर्षों चर्चा करता रहा हूं। उसको मैंने पूरी दृष्टि दी है, लेकिन जब वह निर्मित हो रहा था तब मैं उसमें कोई सक्रिय भाग नहीं लिया। मैं सिर्फ एक उपस्थिति था।  तो मैं सहभागिता शब्द का उपयोग नहीं कर सकता, लेकिन मैं समक्रमिकता शब्द का उपयोग कर सकता हूं।

और शह शब्द कई तरह से अर्थपूर्ण है। वह कई नए द्वार खोलता है, कई नए अर्थ प्रकट करता है। यह हो सकता है कि बिना एक शब्द कहे बिना किसी आंख में झांके; और उसने एक शब्द भी न सुना हो, फिर भी बहुत कुछ संक्रमित हो गया हो। न मैंने कुछ कहा, न उसने कुछ सुना, लेकिन फिर भी कुछ घटा।  प्राचीन भारत में हम इसको सत्संग कहते थे। गुरु केवल उपस्थित होगा, लोग उसके निकट बैठेंगे, और उसके भीतर से झरता हुआ मौन उनके हृदय को रूपांतरित करने लगेगा, उनकी आत्मा की पंखुड़ियों को खोलेगा। हमने इसे जाना है। हमने इसका कई प्रकार से उपयोग किया है।  सत्संग जैसा ही शब्द है, दर्शन। कोई गुरु के दर्शन करने जाता है। अब गुरु को देखने का क्या मतलब है? पश्चिम अब तक इसे समझ नहीं सका कि इसका मूल्य क्या है- गौतम बुद्ध को सिर्फ देखने जाना, जब कि वे कुछ बोलते नहीं, कहते नहीं, करते नहीं; जब तक कि किसी प्रकार का संवाद न हो, उन्हें सिर्फ देखने में क्या सार है? तुम उनका चित्र देख सकते हो, उनकी मूर्ति देख सकते हो।
लेकिन अब वे अपनी भूल को महसूस कर रहे हैं।  चित्र मुर्दा है। मूर्ति जीवित है। गौतम बुद्ध एक जीवंत उपस्थिति हैं, जिसमें असीम ऊर्जा है, अथाह प्रेम है, गहन मौन है। और इस संबंध में पूरब बिल्कुल सही था कि शब्दों से संवाद करने की कोई जरूरत नहीं है। इस आदमी को सिर्फ देखना ही रूपांतरित करने वाला अनुभव बन जाता था- जैसे तुम नहा गए। तुम्हें दिखाई नहीं देता कि इस आदमी से क्या तरंगायित हो रहा है। ये आंखें उसे नहीं देख सकतीं, और तुम इस व्यक्ति का संगीत सुन नहीं सकते क्योंकि यह स्थूल कानों से नहीं सुनाई देता, लेकिन वह होता है। और अगर तुम ग्रहणशील हो खुले हो, उपलब्ध हो, विनम्र हो, कोई प्रतिरोध नहीं करते हो चमत्कार घट सकते हैं।  एक आदमी बुद्ध के पास आया, बहुत बड़ा दार्शनिक और उसने बुद्ध के सामने एक प्रश्न मालिका रखी। सभी प्रश्न अर्थपूर्ण थे, और वह चाहता था कि बुद्ध उनका जवाब दें। वह कई दार्शनिकों के पा गया था और उसने तर्क किया था, लेकिन कोई उसको तृप्त नहीं कर सका।  बुद्ध ने उसके प्रश्नों को सुना, और उनका जवाब देने की बजाय उससे पूछा, तुमने कितने लोगों से ये प्रश्न पूछे? उसने कहा, सैकड़ों। जो भी गुरु हैं, साधु हैं...मैंने पूरे देश में भ्रमण किया है, और कोई मुझे संतुष्ट नहीं कर सका है। मेरे प्रश्न जैसे थे वैसे के वैसे हैं। जहां से मैंने यात्रा शुरू की थी वहीं पर हूं।  बुद्ध ने कहा, फिर मेरी बात सुनो। मैं उनके जवाब दूं तो भी तुम संतुष्ट नहीं होओगे।
इन सैकड़ों लोगों में मेरा भी एक नाम जुड़ जाएगा। लेकिन अगर तुम सचमुच चाहते हो तो तुम्हें एक काम करना होगाः दो साल तक मेरे पास सिर्फ बैठो, और यहां सिर्फ होओ। और दो साल बाद मैं तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों को फिर से पूछने की अनुमति दूंगा।  इससे पहले कि वह आदमी कुछ कहता, एक पुराना शिष्य, महाकाश्यप, जोर से हंस पड़ा। नवागत ने पूछा, वह क्यों हंस रहा है? महाकाश्यप बोला, मैं हंस रहा हूं क्योंकि मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। मैं प्रश्नों से भरा हुआ आया था और उन्होंने मुझसे भी दो साल तक अपने पास चुपचाप बैठने के लिए कहा था। मैं दो साल तक इनके पास चुपचाप बैठा रहा। मेरे सभी प्रश्न विदा हो गए। मेरे सब विचार विलीन हो गए। मैं पूरी तरह से नया आदमी हो गया। और दो साल बीतने पर उन्होंने मुझे उन प्रश्नों के संबंध में पूछा। और मैंने कहा, क्षमा करें, मेरे भीतर कोई प्रश्न नहीं हैं। आपके मौन ने उन प्रश्नों को निष्प्रश्न कर दिया है। मेरे पास कोई उत्तर भी नहीं हैं, लेकिन असीम तृप्ति भीतर छा गई है। मैं इसलिए हंसा क्योंकि अगर तुम उत्तर चाहते हो तो यही समय है, अभी ही उत्तर के लिए आग्रह करो। और यदि तुम समाधान चाहते हो तो दो साल प्रतीक्षा करो।
लेकिन तुम्हें कोई उत्तर नहीं मिलेंगे, प्रश्न खो जाएंगे। और साधारणतः बुद्ध का यही तरीका थाः वे लोगों को चुपचाप बैठे रहने के लिए कहते।  हजारों वर्षों से, पूरब में लोग सदगुरु को या ऋषि को सिर्फ देखने के लिए उनके पास जाते थे। दर्शन का यही अर्थ है।  कोई भी भौतिकवादी पूछेगा, किसी आदमी को देखकर क्या लाभ होगा? लाभ तो अपरिमित होगा। यह दो बातों पर निर्भर होगाः क्या उस आदमी के भीतर से कुछ विकीर्णित होता है? क्या उसका केंद्र बिल्कुल शांत है? क्या उसने पा लिया है? क्या वह घर लौटे आया है? और दूसरी बातः क्या तुम अज्ञात के प्रति, अदृश्य किरणों के प्रति थोड़े से ग्रहणशील हो?  जब कम्यून का निर्माण हो रहा था तब साढ़े तीन साल तक मैं वहां पर मौन था। मैं उस वक्त जान-बूझकर मौन था; क्योंकि लोग जो का कर रहे थे उसमें मैं दखल नहीं देना चाहता था। मैं सक्रिय रूप से सहभागी होना नहीं चाहता था। मैंने उन्हें दृष्टि दी थी, अब उन्हें मैं अपनी ऊर्जा देना चाहता था। उनके पास दृष्टि थी, उन्हें ऊर्जा की जरूरत थी। और वह ऊर्जा देखी नहीं जा सकती है, उसकी नाप-तौल नहीं की जा सकती है।  मैंने सक्रिय रूप से कोई भाग नहीं लिया था, लेकिन मेरे और उनके बीच एक समक्रमिकता थी। वे मेरे मौन में मुझसे जुड़े थे। मेरे मौन में मैं उनका एक अंग हो गया था। वे जो भी कर रहे थे, किसी सूक्ष्म ढंग से वे मेरे हाथ थे, वे मेरी आंखें थीं। और शारीरिक रूप से कहीं भी मौजूद न होकर भी मैं हर कहीं मौजूद था।
दूसरी बात तुमने पूछी है, क्या वह आपकी जरूरत थी?  मेरी कोई जरूरत नहीं है, कोई आवश्यकता नहीं है। जहां तक मेरा सवाल है, मैं परितृप्त हूं। यदि इस क्षण ही मुझे मरना हो तो मैं पूरे संतोष के साथ मरूंगा। क्योंकि अब कुछ भी अधूरा नहीं है। मैं कुछ पूरा करने के लिए एक क्षण की भी मांग नहीं करूंगा।  निश्चित ही, वह मेरे शिष्यों के लिए था- उनके लिए जो मुझे प्रेम करते हैं, जिन्होंने मेरे साथ बड़ी दूर तक यात्रा की है। उन्हें किसी स्थान की जरूरत थी; या कहो, ऊर्जा क्षेत्र की। पांच हजार साधक एक साथ ध्यान कर रहे हैं- उससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है।  विज्ञान में इसके समानांतर सिद्धांत है। वे कहते हैं, एक खास बिंदु पर परिमाणात्मक परिवर्तन, गुणात्मक परिवर्तन में बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए, निन्यानबे डिग्री तक पानी, पानी रहता है एक डिग्री और- सौ डिग्री, और पानी रूपांतरित होता है, वह भाप बन जाता है। एक डिग्री का जुड़ना संख्यात्मक था लेकिन वह रूपांतरण गुणात्मक था।  एक आदमी ध्यान कर सकता है लेकिन पांच लोग एक साथ ध्यान कर रहे हों, तो गुणात्मक रूपांतरण होता है। और अगर पांच हजार लोग एक साथ ध्यान कर रहे हों तो वहां ऊर्जा की सुवास फैल जाती है।
वह एक विशाल प्रवाह की भांति होता है, जिसमें वे लोग जो अकेले पार नहीं हो सकते पांच हजार लोगों के साथ आसानी से पार हो जाएंगे।  वह मेरे संन्यासियों के लिए था, और बृहत्तर समाज में रहने वाले उन लोगों के लिए भी था जो उत्सुक थे। दुनिया में ऐसे लाखों लोग हैं, जो विषाद में हैं, जो पीड़ा में जी रहे हैं; उनके पास जरूरत की हर चीज हैं। लेकिन फिर भी कुछ अधूरापन लगता है। उनकी पीड़ा भूख के कारण नहीं है, गरीबी के कारण नहीं है, उनकी पीड़ा आध्यात्मिक है।  तो मैं चाहता था कि यह कम्यून एक आदर्श निर्मित करे। और हम इसी आदर्श का अनुसरण कर और देशों में कम्यून बनाएं, जो इसी ढंग से काम करेंगे। तो जिसे भी आध्यात्मिक प्यास होगी, वह कम्यून में आ सकता है।  यह ठीक ऐसे ही है जैसे विश्वविद्यालय होते हैं। तुम पूछ सकते हो, वे किसके लिए हैं? सबके लिए लेकिन अगर तुम उनमें उत्सुक नहीं हो तो वे तुम्हारे लिए नहीं हैं। लेकिन अगर तुम उत्सुक हो, तुममें ज्ञान की प्यास है, तो विश्वविद्यालय उपलब्ध है।  ये कम्यून आध्यात्मिक विश्वविद्यालय होंगे। तो जिसे भी अपने जीवन में खालीपन लगता है, और यह महसूस हो रहा है कि सिर्फ भौतिक चीजें उसे भर नहीं सकती; कुछ और कुछ उच्चतर लोकों से अवतरित हो, कुछ श्रेष्ठतर होना जरूरी है। ये कम्यून उसके लिए विश्वविद्यालय बन जाएंगे, जहां वह ध्यान सीख सकता है; और यह सीख सकता है कि मन को संस्कार मुक्त कैसे किया जाए, अपने प्रेम को विशुद्ध कैसे किया जाए। और वह अपने अंतर तक केंद्र को पा सकता है।  तो यह मेरी जरूरत नहीं थी लेकिन मेरे संन्यासियों की जरूरत निश्चित रूप से थी। और निश्चय ही, उन सब के लिए इसके द्वार खुले हैं जो खोजी हैं, तलाश में हैं।
 भगवान, राजीव गांधी ने शिक्षा प्रणाली मेरे सुधार करने के लिए पूरे देश से सुझाव मांगे हैं और इस समस्या पर चिंतन करने के लिए कहा है। इस विषय में क्या आप कुछ सुझाव दे सकते हैं? या इस विषय पर बोलने से पहले शासन को औपचारिक निमंत्रण दे सकते हैं? 
किसी औपचारिक निमंत्रण की कोई जरूरत नहीं है। वस्तुतः मैं इस पर पहले से बोल ही रहा हूं। लेकिन शासन बहरा है। शिक्षा प्रणाली में क्या सुधार हो सकते हैं, इस पर देश की जनता से सुझाव मांगन राजीव गांधी की मूढ़ता है।  जिस देश में अस्सी प्रतिशत लोग गैर-पढ़े-लिखे हों, और जो पढ़े-लिखे हैं वे भी इस ढंग से शिक्षित हुए हों कि वे सिर्फ क्लर्क बन सकते हैं...ये लोग कोई सुझाव नहीं दे सकते। यदि राजीव गांधी सचमुच पूरी प्रणाली में परिवर्तन चाहते हैं, तो उन्हें उन लोगों को निमंत्रित करना चाहिए जो शिक्षा से संबंधित रहे हैं। सभी उपकुलपतियों, डीनों विख्यात प्राध्यापकों का सम्मेलन आयोजित करना चाहिए, और वे इस संबंध में चर्चा करें।  पहली बात, यह शिक्षा प्रणाली अंग्रेज हुकूमत ने निर्मित की थी क्लर्क पैदा करने के लिए। उनका अद्देश्य यह नहीं था कि बुद्धिमान लोग पैदा करें। कोई शासन नहीं चाहता कि लोग बुद्धिमान हों। हर शासन चाहता है कि लोग मंद बुद्धि बने रहें; तब उनका शोषण करना, उन पर शासन करना आसान है, फिर किसी भी तरह की क्रंाति से बचना आसान है, और फिर अति साधारण लोगों के लिए भी नेता बना आसान है।  अंग्रेज सरकार ने बड़ी सुंदरता से यह सब आयोजित कर लिया था। पच्चीस साल तक आदमी एक प्रक्रिया से गुजरता है, उसके जीवन का लगभग एक तिहाई हिस्सा इस तरह व्यतीत होता है कि उसके बाद या तो वह स्टेशन मास्टर बनता है, या हेड क्लर्क या पोस्ट मास्टर। ये ही सरकार की जरूरतें थीं।  यह समझने जैसी बात है कि सब स्वर्ण पदक विजेता, विश्वविद्यालय में प्रथम आने वाले, अपने विषयों में प्रथम श्रेणी में प्रथम क्रमांक पाने वाले दुनिया में अदृश्य हो जाते हैं। फिर उनका कोई पता ही नहीं चलता। उन्हें तो अपनी छाप छोड़नी चाहिए। विश्वविद्यालय में उन्हें स्वर्ण पदक मिलता है, सर्वोच्च पुरस्कार मिलता है, और जीवन में वे बस हेड क्लर्क बन कर रह जाते हैं।  यह पूरी प्रणाली ही गलत है। इसलिए इसमें सुधार करने का कोई सवाल ही नहीं है; सवाल यह है कि उसमें क्रंातिकारी परिवर्तन कैसे लाया जाए। वास्तविक शिक्षा प्रणाली संपूर्ण मानव की फिकर करेगी। यह शिक्षा प्रणाली केवल मस्तिष्क को विकसित करती है; जब कि सम्पूर्ण मानव यानी शरीर, मन, हृदय, आत्मा। जब तक कोई शिक्षा संतुलित ढंग से इन चारों की फिकर नहीं लेती तब तक वह प्रामाणिक मानव को, संपूर्ण मानव को जन्म नहीं दे सकती।  उदाहरण के लिए, एक भी शाकाहारी व्यक्ति को आज तक नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है। यह शाकाहार का सीधा-साफ धिक्कार है। सब नोबेल पुरस्कार मांसाहारी व्यक्तियों को क्यों मिलते हैं? क्योंकि शाकाहारी भोजन में वे प्रोटीन नहीं होते जो बुद्धि को विकसित करते हैं। और जब तक हम प्रोटीन की मात्रा नहीं बढ़ाते तब तक बुद्धि का विकास नहीं होगा। वह बड़ी ही नाजुक घटना है, और उसके लिए बहुत संतुलित भोजन की आवश्यकता है। शरीर की देखभाल करनी जरूरी है।  कोई विश्वविद्यालय विद्यार्थियों के शरीर की फिकर नहीं कर रहा है। यदि वे सोचते हैं कि सिर्फ फूटबाल, वालीबाल, हाकी खेलने से ही तुम शरीर की फिकर कर रहे हो, तो तुम सिर्फ अपनी मूढ़ता सिद्ध कर रहे हो। शरीर बड़ी जटिल घटना है। हरेक विद्यार्थी की ओर ध्यान देना जरूरी है क्योंकि हर व्यक्ति का शरीर अलग है। उसकी जरूरतें अलग हो सकती हैं।  उदाहरण के लिए, कोई मांसाहारी हो सकता है, कोई शाकाहारी हो सकता है। मेरे कम्यून में मैंने शाकाहारी भोजन के साथ अन-उर्वरित अंडों का उपयोग करना शुरू किया थे। मैं खुद शाकाहारी हूं और मैं चाहूंगा कि पूरी दुनिया शाकाहारी हो जाए, लेकिन इसके लिए तुम्हारी बुद्धि का विकास रुक जाने का खतरा मोल लेने को मैं तैयार नहीं हूं। अन-उर्वरित अंडा वह जरूरत निःसंदेह रूप से पूरी करता है- वस्तुतः मांसाहारी भोजन से भी अधिक।
हम ऐसा नियम बना लें कि विश्वविद्यालयों में मांसाहारी भोजन की अनुमति न दें क्योंकि सिर्फ भोजन के लिए किसी की हत्या करना, हिंसा करना इतना कुरूप है, इतना अमानवीय है कि इन लोगों से तुम ऐसे अपेक्षा न कर सकोगे कि जिंदगी में वे प्रेमपूर्ण होंगे, संवेदनशील होंगे, मानवीय होंगे। तो अगर चारों तरफ अपराध हत्याएं, आत्महत्याएं होती हैं, अगर निरंतर कलह होती रहती है- पति पत्नी से लड़ रहा है, पत्नी पति से लड़ रही है। पूरा समाज जैसे एक युद्धभूमि बन गया है, जहां हर व्यक्ति एक दूसरे से लगातार लड़ रहा है।
लगता है शरीर के मूल तत्वों में कुछ बुनियादी भूल हो गई है। इसका एक आधारभूत कारण हैः मांसाहारी भोजन। वह तुम्हें संवेदन विहीन बनाता है, कठोर बनाता है, पाषण हृदय बनाता है; और वह तुम्हारे भीतर क्रोध, हिंसा जैसे भावों को जन्म देता है, जिससे बड़ी सरलता से बचा जा सकता है।  शरीर की देखभाल करने का मतलब है, शरीर को पर्याप्त व्यायाम मिलना चाहिए। विद्यार्थी दिन भर विश्वविद्यालय में बैठे हैं, और रात को उन्हें अपना गृह पाठ करना पड़ता है, और उन्हें सिनेमा देखने भी जाना है। तो वे मूढ़ की तरह बैठे रहते हैं। प्रकृति ने शरीर सिर्फ बैठे रहने के लिए नहीं बनाया है। शरीर की यह जरूरत है कि विद्यार्थी टहलने जाएं दौड़ लगाएं, तैरें, वृक्षों पर चढ़, पहाड़ों पर चढ़े। शरीर की जो प्राकृतिक क्षमता है उसे उपलब्ध करने को अवसर उसे मिलना चाहिए।  मेरा अनुभव यह है कि शरीर जितना स्वस्थ हो, जितना प्राकृतिक हो, उतना ही आदमी हर तरह से बेहतर होता है। लेकिन हमने इसकी अपेक्षा की है। किसी की उसमें उत्सुकता नहीं है। हम शरीर में जीते हैं।
वह एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। इस संबंध में कोई नहीं सोचता। कि हम क्या खा रहे हैं।  अब सबको भोजन मग दही और खाखरा देना और उसे दीर्घयु बनाना इतना आसान है। और निश्चित ही, जब तुम पचीस वर्ष शिक्षा में व्यर्थ गंवा रहे हो, तब तुम्हें उस व्यक्ति की जिंदगी में पचीस साल और जोड़ देने चाहिए। उसे कम से कम सौ साल जीना चाहिए।  वैज्ञानिक कहते हैं, जहां तक शरीर का संबंध है, वह स्वयं का नवीनीकरण करके तीन सौ साल तक जिलाए रख सकता है। तो अगर लोग सत्तर साल की उम्र में मरते हैं, तो कहीं हमारी ही भूल हो रही है, शरीर की कोई गलती नहीं है। हम उसे गलत भोजन दे रहे हैं, या तो बिल्कुल व्यायाम नहीं कर रहे हैं या फिर गलत व्यायाम कर रहे हैं।  तो मेरी पहली चिंता है, शरीर। शरीर के विशेषज्ञों की सलाह लें, भोजन के विशेषज्ञों की सलाह लें। स्वाद निर्णायक तत्व नहीं है। स्वाद तो किसी भी चीज में डाला जा सकता है। कोई भी सुगंध मिलाई जा सकती है। लेकिन मूलभूत बात होनी चाहिएः शरीर विज्ञान।  दूसरी बात्..और लोगों से मत पूछो कि तुम क्या कर सकोगे? इसीलिए मैं राजनीतिकों को चालाक कहता हूं। वे कुछ करना नहीं चाहते। जब तुम कुछ करना नहीं चाहते- तब लोगों से पूछो, तुम शिक्षा प्रणाली में क्या सुधार करना चाहते हो? अब शिक्षा, या शिक्षा प्रणाली, या शरीर, या मन, या हृदय, इनके संबंध में वे क्या जानते हैं?
तो अपने सुझाव लेकर कोई भी सामने नहीं आएगा, और राजनीतिक खुश होगा कि वह तो परिवर्तन लाने को तैयार था लेकिन कोई परिवर्तन चाहता ही नहीं, कि लो संतुष्ट हैं। लेकिन हमें पता है कि यह बात सच है। लोग संतुष्ट नहीं हैं लेकिन वे कोई विशेषज्ञ भी नहीं हैं।  तो मैं चाहूंगी कि राजीव गांधी विशेषज्ञों से पूछे। एक सम्मेलन आयोजित करो। पहले उन लोगों को बुलाओ, जो शरीर के विशेषज्ञ हैं। जो लोग बरसों से योग साधना कर रहे हैं, उनके अनुभव से सीखो। प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक ऐसी योग-कक्षा होनी चाहिए, जो ऐच्छिक न हो। उन लोगों से पूछो, जो जापान में रहते हैं, अकिदो जानते हैं, जो कि शरीर का बिल्कुल ही अन्य तरह का अनुशासन है, या युयुत्सु...उनसे पूछो क्योंकि उन लोगों ने शरीर को वज्र समान बनाने का उपाय खोज लिया है।  पूरे विश्व से लोगों को बुलाओ; क्योंकि हर देश में ऐसी पद्धति है, जो सदियों से चली आ रही है और उसने बहुत प्रज्ञा इकट्ठी कर ली है। अब एक ही देश तक सीमित रहने की कोई जरूरत नहीं है। प्रत्येक क्षेत्र से एकत्रित की गई प्रज्ञा शैक्षणिक क्रंाति की बुनियाद होनी चाहिए।  उन लोगों से पूछो, जो भोजन पर काम कर रहे हैं; जिन्होंने खोज लिया है कि किस प्रकार का भोजन, कैसे शरीर को अधिक स्वस्थ बनाता है। पूछो कि चालीस प्रतिशत नोबेल पुरस्कार यहूदियों को क्यों मिलते हैं? संसार में तो उनका इतना बहुमत नहीं है।
यह बिल्कुल ही अनुपात से बाहर है। दुनिया में चालीस प्रतिशत यहूदी नहीं हैं लेकिन आधे नोबेल पुरस्कार उनको मिल जाते हैं। आश्चर्य है!  यहूदी कहते हैं...और अब यह बात अधिकाधिक स्वीकृत हो रही है, ईसाई भी इसे स्वीकार करने लगे हैं कि इसमें कुछ रहस्य है जिसका अभी अन्वेष्ण होना बाकी है। यहूदियों की यह धारणा है कि उनकी बुद्धि...और इसमें कोई शक नहीं है कि वे बुद्धिमान हैं; हर क्षेत्र में वे लगभग शिखर पर होते हैं। तुम किसी यहूदी को नीचे रख दो, जल्दी ही तुम पाओगे कि वह ऊपर पहुंच गया।  यह पूरी सदी यहूदियों से प्रभावित है। कार्ल माक्र्स यहूदी है, सिगमंड फ्रायड यहूदी है, अलबर्ट आइंस्टीन यहूदी है। बाकी लोग क्या कर रहे हैं? केवल यहूदी योगदान दे रहे हैं। यहूदी परंपरा में कोई अर्थपूर्ण बात रही हो...मुझे इसका अहसास था। लेकिन यह थोड़ी हैरान कर देने वाली बात लगती है कि वे कहते हैं, खतना करने से बुद्धि विकसित होती है। लेकिन यह कैसे होता है और क्यों होता है, इसका कोई सूत्र उनके पास नहीं है।  पैदा होते ही यहूदी बच्चे का खतना कर दिया जाता है। अब चिकित्सा विज्ञान ने इसे स्वास्थ्य की दृष्टि से स्वीकृत किया है। इसमें स्वास्थ्य है और जिसका खतना किया गया हो उसे जननेंद्रिय की बीमारियां होने की संभावना कम होती है। लेकिन यहूदी कहते हैं कि जब बच्चा पैदा होता है तब उस बच्चे का खतना करना, उसकी पतली चमड़ी काट देना उसके बुद्धि के केंद्र पर चोप करता है। अब यह यहूदियों की यह एक प्राचीन परंपरा है। यह संभावना हो सकती है, उसका अन्वेष्ण करना चाहिए।
ऐसा होना चाहिए क्योंकि उनकी बुद्धि यह सिद्ध करती है कि यहूदी में कुछ बात भिन्न है, जो अन्य लोगों में नहीं है। और इसकी संभावना है मैं इस संबंध में सोचता हूं। यह संभव है क्योंकि सेक्स के केंद्र जननेंद्रिय में नहीं होते, वे सिर में होते हैं। और सिर में जो सेक्स के केंद्र होते हैं...सिर में सात सौ केंद्र होते हैं। सेक्स का केंद्र बुद्धि के केंद्र के ठीक करीब होता है; इतने करीब- लगभग छूता हुआ। तो यह संभव है कि छोटे बच्चे को धक्का लग जाए। स्वभावतः जब उसकी चमड़ी काटी जाती है तो उसे धक्का लगता है। और शायद उस धक्के से बुद्धि के केंद्र को ताकत मिलती है।  लेकिन इसका अन्वेष्ण करना चाहिए। यदि यह तथ्य है तो तुम यहूदी हो या नहीं, इसका कोई सवाल नहीं है। हर व्यक्ति का खतना होना चाहिए। जिसका खतना न हुआ हो उसे किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिलना चाहिए।  जिस तरह हम शरीर और मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व पर होने वाले उसके जबरदस्त प्रभाव के संबंध में सोचा-विचार करते हैं, उसी तरह हमें मन के संबंध में सोचना चाहिए। पचीस साल शिक्षा में व्यर्थ गंवाने के बाद तुम बौने क्यों पैदा करते हो? कुछ गड़बड़ है।  और मेरी समझ यह है- क्योंकि मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक रहा हूं- मेरी समझ यह है कि पूरी शिक्षा विश्वास पर आधारित है, और विश्वास जहर है। वह तुम्हारी बुद्धि को विकसित नहीं होने देता। विश्वास को हटाकर उसकी जगत संदेह को रखना चाहिए।
क्योंकि संदेह, संदेहवाद तुम्हारी बुद्धि पर धार रखता है मुझे अनेक विद्यालयों से निष्कासित किया गया क्योंकि मैं किसी बात को तब तक मानने को तैयार नहीं था जब तक बौद्धिक रूप से मैं उससे राजी न हो जाऊं। सिर्फ तुम कहते हो इसलिए...माना कि तुम एक महान प्राध्यापक हो, तुम एक समादृत प्राध्यापक हो, वह सब स्वीकार है, लेकिन तुम जो भी कहते हो उसके लिए तुम्हें श्रेष्ठतम तर्क के आधार देने होंगे। तुम्हें इसकी मांग नहीं करनी चाहिए कि उसे यूं ही मान लिया जाए।  एक महाविद्यालय से मुझे इसलिए निष्कासित किया गया क्योंकि एक प्राध्यापक ने धमकी दी कि यदि इस विद्यार्थी को निष्कासित नहीं किया जाता है, तो मैं त्यागपत्र दे दूंगा। क्योंकि आठ महीने से उसने मुझे कुछ पढ़ाने नहीं दिया है। और इस तरह मैं पाठ्यक्रम कैसे पूरा करूंगा?  प्राचार्य ने मुझे बुलाया और कहा, तुम इतना उपद्रव क्यों पैदा कर रहे हो? मैंने कहा, मैंने कोई उपद्रव पैदा नहीं किया है। मैं उनसे सिर्फ इतना पूछ रहा हूं कि आप जो कह रहे हैं, उसके लिए तर्क दें, अन्यथा वैसा वक्तव्य न दें। और वे कहते हैं कि उनकी चिंता सिर्फ इतनी है कि पाठयक्रम कैसे पूरा हो। और मेरी चिंता यह है कि मेरी बुद्धि कैसे तीक्ष्ण हो। मुझे उनके कोर्स से कुछ लेना-देना नहीं है। मैं उनके कोर्स का क्या करूंगा? और वे जो कहते हैं उसके लिए कोई तर्क नहीं दे पा रहे हैं। और छोटी-छोटी बातें... उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा कि पश्चिम में अरस्तू को तर्क शास्त्र का जनक कहा जाता है। इस तथ्य को सबने मान लिया है।
करीब-करीब सभी विश्वविद्यालयों में, पूरे विश्व में यह बात दोहरायी जाती है कि अरस्तू पश्चिमी तर्क शास्त्र का जनम है। मैंने उनसे पूछा, क्या आपको पता है कि अरस्तू ने लिखा है, कि स्त्रियों के पुरुषों की अपेक्षा कम दांत होते हैं? और क्या आप जानते हैं कि अरस्तू की दो पत्नियां थीं? वह दोनों में से किसी भी एक पत्नी का मुंह खोलकर उसके दांत गिन सकता था। क्योंकि पुरुष के और स्त्री के दांतों की संख्या एक जैसी होती है। और जिस आदमी की दो पत्नियां हों, वह अगर लिखता है कि स्त्री के दांत पुरुष से कम होते हैं, तो मैं उसे तर्क शास्त्री की तरह स्वीकार नहीं कर सकता। और उसे मैं पाश्चात्य तर्क का जनक तो बिल्कुल ही नहीं मान सकता।  वह सिर्फ अंधविश्वासी है। क्योंकि स्त्री को हर बात में छोटा होना चाहिए। तो ग्रीस में यह एक स्वीकृत तथ्य था कि स्त्री के दांत कम होते हैं। न तो किसी स्त्री ने कभी गिनती की, न किसी पुरुष ने गिनती की।  मैंने उनसे पूछा, आपने अरस्तू की जीवनी पढ़ी है, क्या इससे आप हैरान नहीं हुए? वे बोले, नहीं तो! मैंने सिर्फ पढ़ लिया कि उसकी दो पत्नियां थीं, और फिर उसका वक्तव्य...। मैंने कहा, आपने अपनी पत्नी के दांत बिनने का कष्ट नहीं किया?
पत्नी कोई इतनी मुश्किल चीज नहीं है कि न मिले। यह आदमी तार्किक नहीं है।  मैंने प्राचार्य से पूछा, अब आप ही बताएं कौन उपद्रव पैदा कर रहा है? उन्हें स्वीकार करना चाहिए कि यहां आदमी तार्किक नहीं था, अंधविश्वासी था, बात खत्म हुई; फिर वे आगे बढ़ सकते हैं। यदि वे स्वीकार नहीं करते हैं तो मैं हर रोज वहां खड़ा होने वाला हूं- अरस्तू के संबंध में क्या?  और अब नए विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अरस्तू का पूरा तर्क शास्त्र गलत था। उन्हें तर्क की एक नवीन प्रणाली विकसित करनी पड़ी। ठीक उसी तरह, जिस तरह उन्हें यामिति की नयी प्रणाली विकसित करनी पड़ी। सदियों-सदियों से वे सिखाते चले आ रहे हैं, और किसी को फिकर ही नहीं है। और इसका कारण सिर्फ इतना है कि हमारा पूरा ख्याल है, विश्वास करो। प्राध्यापक जानते हैं और हम नहीं जाते हैं, बस। व्यर्थ समय क्यों गंवाएं? वे जानते हैं इसे हम मान लेते हैं।  विश्वविद्यालयों को अधिक बुद्धिमान होना चाहिए। प्राध्यापक का जोर चर्चा करने पर, संदेह करने पर अधिक होना चाहिए। और किताबों में जो भी विश्वास पद्धति है, उसे उन्हें पूरी तरह से नष्ट कर देना चाहिए। उन पुस्तकों को हटा ही देना चाहिए; फिर तुम ज्ञान का एक विस्फोट देखोगे।  लेकिन हम सोचते है कि संदेह करना पाप है। और विश्वास करना आध्यात्मिक है, धार्मिक है। बात इससे ठीक उलटी है। विश्वास करना पाप है, संदेह करना स्वाभाविक है।
और तब तक संदेह करते जाना जब तक कि तुम किसी निस्संदिग्ध सत्य तक न पहुंच जाओ।  तो सभी विश्वविद्यालयों को, संदेह और विश्वास के प्रति उनका जो दृष्टि कोण है, उसे छोड़ना होगा। और यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओ। क्योंकि उन पांच प्रश्नों का उत्तर ऐसा व्यक्ति भी दे सकता है, जो उन प्रश्नों के अलावा और कुछ भी न जानता हो। मैं परीक्षाओं के खिलाफ हूं इसका सीधा सा कारण यह है कि वे विद्यार्थी में बिल्कुल ही गलत दृष्टि कोई पैदा करते हैं। विद्यार्थी की उत्सुकता परीक्षा में उत्तीर्ण होने में अधिक होती है। इसलिए किताब पढ़ने की बजाय वह संक्षिप्त संस्करण की या कुंजी की खोज में होते हैं किसी प्राध्यापक ने परीक्षा में संभावित प्रश्नों के उत्तर तैयार कर दिए हैं। उसमें उस विषय के वे सभी प्रश्न होते हैं, जो पूछे जा सकते हैं। और उसने उत्तर लिख दिए हैं। और विद्यार्थी केवल उन कुंजियों को पढ़ते हैं और उत्तर लिखकर उत्तीर्ण हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कुंठित ही रह जाती है। यह परीक्षा है जो उनमें गलत दृष्टिकोण पैदा करती है। मेरे विचार में, एक विद्यार्थी को हर प्राध्यापक द्वारा अंक मिलने चाहिए। पूरे साल, प्रतिदिन जिस तरह वे उपस्थिति देते हैं, उसी तरह उन्हें अंक देने चाहिए। और वे अंक विद्यार्थी को उसी अनुपात में मिलेंगे, जिस अनुपात में वह अपनी बुद्धिमत्ता प्रकट करेगा। हमारी पुरी प्रणाली स्मृति पर निर्भर करती है बुद्धि पर नहीं- तुम कितना रट सकते हो।  लेकिन स्मृति में कोई गरिमा नहीं है, कम्प्यूटर भी उसे कर सकता है। और शीघ्र ही, अब स्मृति की कोई जरूरत नहीं होगी। तुम अपनी जेब में एक छोटा सा कम्प्यूटर रख सकते हो और तुम्हें जो भी उत्तर चाहिए वह तत्क्षण उपलब्ध हो सकता है। नाहक क्यों समय और जीवन गंवाना और स्मृति के लिए लोगों को सताना? और स्मृति का बुद्धि से कोई संबंध नहीं है। अभी तो हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली स्मृति पर आधारित है।
मैं चाहूंगा कि वह बुद्धि पर आधारित हो। और हर प्राध्यापक प्रतिदिन कुछ अंक दे। ऐसा नहीं कि साल के अंत में...क्योंकि उससे कई उपद्रव पैदा होते हैं।  साल भर विद्यार्थी कोई फिकर नहीं करते, सिर्फ आखिर में एक महीना...। और फिर वे अपने को सता रहे हैं, किताबें खोज रहे हैं और हर तरह की कोशिश कर रहे हैं। प्रतिदिन उन्हें अंक मिलेंगे और एक साल में या नौ महीनों में या दस महीनों में या छह महीनों में वे पूरे अंक इकट्ठे करेंगे। अगर कोई इतना बुद्धिमान है कि छह महीने में ही इतना मूल्यांकन प्राप्त कर ले कि वह अगली कक्षा में जा सके, तो फिर उसी कक्षा मग उसके और छह महीने बरबाद क्यों करना? जैसे ही वह इस मूल्यांकन की सीमा पर कर लेता है, वह अगली कक्षा में प्रवेश कर जाता है।  तो न कोई उत्तीर्ण होता है, न कोई अनुत्तीर्ण होता है; लोग सिर्फ गति करते हैं। किसी को बारह महीनों से ज्यादा लगेंगे, चैदह महीने लगेंगे, और फिर वह असली कक्षा में प्रवेश करेगा। विश्वविद्यालय एक गतिमान घटना होगी। लोग उनकी बुद्धि के अनुसार गति कर रहे हैं।  और कोई नियत अवरोध नहीं हैं क्योंकि नियत अवरोध होने से एक बड़ी विचित्र घटना घटती है, और वह यह कि सबसे बुद्धिमान विद्यार्थी को सबसे मूढ़ विद्यार्थी की रफ्तार से चलना पड़ता है। मूढ़ विद्यार्थी भी बारह महीने पढ़ता है और बुद्धिमान विद्यार्थी भी बारह महीने पढ़ता है।
कक्षा का निम्नतम वर्ग सभी का स्तर निर्धारित करता है। यह उचित नहीं है। यह तो बुद्धि के साथ की गई हिंसा है। मूढ़ व्यक्ति एक कक्षा में दो साल, तीन साल रहना चाहे; यह उस पर निर्भर करता है। लेकिन जो व्यक्त्.ि.क्योंकि यह मेरा अनुभव है कि विश्वविद्यालय जो भी कोर्स एक साल में पढ़ा रहे हैं, वे दो महीनों के योग्य भी नहीं हैं। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें दो महीनों में पढ़कर उत्तीर्ण हो सकता है। और बाकी दस महीने तो महज अपव्यय हैं। और उन दस महीनों में वे सब तरह के उपद्रव करते हैं। वे हड़ताल करेंगे और बलात्कार करेंगे और महाविद्यालयों में आग लगाएंगे और शिक्षकों की पिटाई करेंगे। क्योंकि उनके पास ऊर्जा है, और ऊर्जा के लिए कोई न कोई अभिव्यक्ति चाहिए। और तुम इन लोगों को सिर्फ छोटी-छोटी कोठरियों में बांधकर रखते हो, छोटी-छोटी कक्षाओं में और उनके पास करने के लिए कुछ काम नहीं होता। क्योंकि वे जानते हैं कि अंत में सिर्फ एक महीना या दो महीने...और वे उत्तीर्ण हो जाएंगे।  स्मृति नहीं, बुद्धि। क्योंकि यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है कि जिन लोगों की स्मृति अच्छी होती है, वे बहुत बुद्धिमान लोग नहीं होते। क्योंकि स्मृति यांत्रिक ढंग से काम करती है और बुद्धि गैर-यांत्रिक ढंग से काम करती है। अति बुद्धिमान लोगों की स्मृति अच्छी नहीं होती।  यह एक जाना-माना तथ्य है कि बहुत बुद्धिमान लोग...उदाहरण के लिए, अलबर्ट आइंस्टीन अपने बाथ टब से बाहर निकलना भूल जाएगा। वह छह घंटे बाथ टब में ही बैठा रहेगा, जब तक कि उसकी पत्नी आकर शोरगुल नहीं मचाएगी- दरवाजा खटखटाएगी कि बहुत हो गया। दह घंटे तुम कर क्या रहे हो?
छह घंटे बीत गए वह बोलना, मैं तो सोचता था कि यह मेरा रोज की तरह साधारण स्नान है।  वह संसार का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ था। लेकिन एक दिन वह बस में चढ़ा और उसने कंडक्टर को कुछ पैसे दिए। कंडक्टर ने उसे बाकी पैसे लौटाए। उसने वे पैसे गिने और कंडक्टर से कहा, यह ठीक नहीं है। तुम मुझे धोखा दे रहे हो। कंडक्टर ने दुबारा गिना और वह बोला, यह बिल्कुल ठीक है। मैं तुम्हें धोखा नहीं दे रहा हूं। मालूम है तुम्हें गिनना नहीं आता है। अब यह बात अलबर्ट आइंस्टीन से कही जा रही है! मालूम होता है तुम्हें पैसे गिनना नहीं आता हैं।  उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि वह कंडक्टर सही था। मैं घर गया, मैंने अपनी पत्नी से कहा तो वह बोली, उसने ठीक ही कहा। तुम्हारी गलती थी। लेकिन तुमसे गलती हुई कैसे? उसने कहा, क्योंकि मेरे दिमाग में दूर के सितारों के संबंध में चिंतन चल रहा था। गिनते समय मैं वहां नहीं था।  संभवतः स्मृति एक अलग घटना है और बुद्धि एक अलग घटना है। और ऐसा सदा हुआ है कि जिन लोगों की बहुत अच्छी स्मृति रही है, उनकी बुद्धि कभी भी प्रखर नहीं थी। और अत्यंत बुद्धिमान लोगों की स्मृति बड़ी कमजोर रही है।  दूसरा आदमी, एडीसन...उसे कम से कम एक हजार आविष्कारों का श्रेय मिला है। पहले विश्व युद्ध में, वह एक राशन की दुकान में गया और वह वहां सामने खड़ा है। और टेबल पर बैठा हुआ आदमी चिल्ला रहा है, थामस अल्वा एडीसन कौन है?
और वह इधर-उधर देख रहा है। कतार में खड़ा हुआ आदमी उसे पहचानता है क्योंकि उसने उसके चित्र देखे हुए हैं। उसने पूछा तुम किसे खोज रहे हो? एडीसन बोला, मैं थामस एडीसन को खोज रहा हूं। वह आदमी बेचारा चिल्लाए जा रहा है और कोई जवाब ही नहीं दे रहा है। वह आदमी बोला, जहां तक मैं जानता हूं, आप ही थामस अल्वा एडीसन हैं।  एडीसन बोला, शायद कोई मेरा नाम नहीं लेता। मेरे विद्यार्थी प्रोफेसर कहते हैं, मेरे सहयोगी मुझे प्रोफेसर कहते हैं। मुझे कोई एडीसन कहता ही नहीं है। तो स्वभावतः जब मेरे माता-पिता जीवित थे, या जब मैं विद्यार्थी था, तो मुझे मेरे नाम से पुकारा जाता था। शायद तुम ठीक कह रहे हो। अगर इस कतार में कोई भी थामस एडीसन नहीं है, तो फिर मैं ही होऊंगा। क्योंकि मैं यहां हूं और मुझे कोई और नाम पता नहीं है। तुमने इसे सूचित किया है तो मैं इसे मान लेता हूं।  यह आदमी, जिसने एक हजार आविष्कार किए थे, इसकी स्मृति ऐसी थी कि वह अपना खुद का नाम भूल जाता है, जिसे भूना बहुत कठिन है। दुनिया में तुम और सब कुछ भूल सकते हो लेकिन अपना स्वयं का नाम भूलना तो कल्पनातीत है।  मस्तिष्क को विश्वास से बुद्धि की ओर, संदेह की ओर, संशय की ओर ले जाया जाना चाहिए। परीक्षाओं को हटा दें। विद्यार्थी गतिमान हों। और उनका मूल्यांकन प्रतिदिन प्राध्यापकों द्वारा दिए जाने वाले अंकों से निर्धारित हो। इसलिए उपस्थिति की चिंता मत करो। उपस्थिति की चिंता करने की कोई जरूरत ही नहीं है। प्रति-दिन मूल्यांकन करते जाओ। जो उपस्थित नहीं हैं वे मूल्यांकन पाने से अपने आप वंचित रह जाएंगे। जो उपस्थित हैं उन्हें मूल्यांकन प्राप्त होगा। और उस मूल्यांकन के अंकों की गिनती करो। और यदि कोई उस कक्षा के लिए बहुत बुद्धिमान सिद्ध होता है, तो उसे अगली कक्षा में जाने दो।
इससे कोई उत्तीर्ण नहीं होगा और कोई अनुत्तीर्ण नहीं होगा। यह सिर्फ समय का सवाल होगा- दो महीने पहले या दो महीने बाद।  इससे उस हीनता की ग्रंथि को नष्ट करने में भी सहायता मिलेगी, जो तुम अनुत्तीर्ण विद्यार्थियों में पैदा करते हो। और वह श्रेष्ठता की ग्रंथि भी, जो उन लोगों में पैदा करते हैं, जो प्रथम आते हैं। दोनों खतरनाक हैं, दोनों बीमारियां हैं। किसी के श्रेष्ठ या निकृष्ट होने का सवाल ही नहीं है।  ठीक शरीर की भांति हृदय भी अत्यंत उपेक्षित है। कोई विश्वविद्यालय इस बात की फिकर नहीं करता कि अगर आदमी का हृदय काम नहीं करता हो तो शुष्क, नीरस हो जाएगा। सिर्फ मस्तिष्क्..उन्हें संगीत और नृत्य सिखाना चाहिए, चित्र कला सिखानी चाहिए। और ये विषय ऐच्छिक नहीं होने चाहिए। मनुष्य के संपूर्ण विकास के लिए जो आवश्यक है, वह ऐच्छिक नहीं होना चाहिए। उन्हें कविता पढ़ाती चाहिए; फिर वे विज्ञान के विद्यार्थी हों या वाणि य के, या कला के, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कविता कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे सिर्फ कवि पढ़ते हैं।  दूसरी बात, कविता तुम्हारे हृदय का द्वार खोलने में सहयोगी होती है, वह तुम्हें ऐसे अनुभव देती है जो गणित कभी नहीं दे सकता। संगीत तुम्हें उन ऊंचाइयों पर ले जाता है, जहां भूगोल कभी नहीं जा सकता। तो हृदय की फिकर करनी चाहिए।
और अंततः आत्मा- जो कि बिल्कुल ही विस्मृत है। और आत्मा के लिए एकमात्र बात जो है वह यह कि प्रत्येक विद्यार्थी को एक घंटा ध्यान करना चाहिए। और ध्यान का एक प्राध्यापक होना चाहिए जो विद्यार्थियों को ध्यान करना सिखाए।  और यह इतना लंबा समय है...यदि तुम विश्वविद्यालय में किसी विषय में स्नातकोत्तर उपाधि लेना चाहते हो, और उसमें यदि हर रोज एक घंटा ध्यान करो, तो जब तुम बाहर निकलोगे तब तुम गहन मौन और शंाति से भरे हुए, और सौंदर्य और प्रेम से ओतप्रोत होओगे। मैं इसे नितांत आवश्यक समझाता हूं।  लेकिन मेरा अंतिम सुझाव यह है कि मनुष्य के व्यक्तित्व के हर अंश के लिए राजीव सम्मेलन आयोजित करें। कुल मिलाकर चार सम्मेलन होंगे। और उसमें विशेषज्ञ अपने-अपने सुझाव दें कि क्या किया जाए। जनता कोई सुझाव नहीं दे सकती। अगर तुम ईमानदारी से परिवर्तन लाना चाहते हो, तो विशेषज्ञों से पूछो।  संसार में हजारों ध्यान करने वाले हैं। ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं। इन सब लोगों को निमंत्रित करो। ध्यान की सरलतम विधियां खोजो और सभी विश्वविद्यालयों में उन्हें सिखाना शुरू करो।  और यही रवैया हर बात के संबंध में अपना चाहिए। हम इस आधार पर विश्वविद्यालय का निर्माण कर सकते हैं, और एक महत आध्यात्मिक क्रंाति और नए मनुष्य का जन्म इन विश्वविद्यालय में हो सकता है। अभी तो केवल नौकरी खोजता हुआ आदमी बाहर आता है।
यह पूरी प्रणाली के लिए बहुत बड़ा लांछन है।
18 दिसंबर, 1985, प्रातः, कुल्लू-मनाली

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