फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-चौथा)
सब प्रश्नों का एक उत्तरः ध्यान भगवान, विश्व भर में आपके संन्यासी और प्रेमी आपके स्वास्थ्य को लेकर बहुत चिंतित हैं। अब आप कैसे हैं। मेरा स्वास्थ्य ठीक है। उन्होंने मुझे नुकसान पहुंचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उन्हें इसमें सफलता न मिल सकी। दो कारण से; पहला कारण तो यह रहा कि जिन लोगों को उन्होंने नियुक्त किया था मुझे तकलीफ देने के लिए, छिपे-छिपे ढंग से ऐसी स्थितियां बनाने के लिए जिनके द्वारा मुझे पीड़ित किया जाए, वे लोग जल्दी ही मेरे प्रेम में पड़ गये। वे मुझसे कहने लगे, इस तरह का काम तो हम नहीं कर सकते। एक जेल में तो खास तौर से ऐसा हुआ, उसे जेल का शेरिफ, उप शेरिफ, डॉक्टर, नर्सें और सारे कैदी व वहां नियुक्त तमाम व्यक्ति- तीन सौ साठ व्यक्ति- वह तो करीब-करीब कम्यून बन गया। छः दिन तक मैं वहां था, और जेल का सारा वातावरण ही बदल गया। वे शेरिफ वृद्ध था, और वह मुझसे कहने लगा, ‘ऐसा पहली बार हुआ है और शायद अंतिम बार ही होगा कि आप जैसा व्यक्ति इस जेल में आया।हमने कभी इतनी शंाति महसूस नहीं की; हमारे यहां के अपराधी भी इतने शांत कभी नहीं हुए। हमारे सारे कर्मचारी इस भंाति आपके प्रेम में पड़ गये हैं कि चाहते ही नहीं कि आप यहां से छूट कर चले जाएं। वे चाहते हैं, आप यहीं रहें। हेड नर्स बोली, ‘कल हम आपको देखना चाहेंगे और फिर हम आपको कितना याद करेंगे।’ व्यक्ति तो व्यक्ति है। बस, यदि तुम में भरपूर प्रेम है, तो तुम उनके हृदय एकदम सहज ही बदल सकते हो। इसलिए एक कारण यह भी था जो वे मुझे नुकसान नहीं पहुंचा सके। दूसरा कारण था, प्रेस की स्वतंत्रता, असीम स्वतंत्रता। सारी विश्व-प्रेस, सिवाय भारत की प्रेस के, मुझ पर केंद्रित थी। प्रत्येक जेल, जहां भी मैं था, हैरान थे, यह हो क्या गया है! चैबीसों घंटे टेलीफोन बज रहे थे, हजारों तार, विश्व के हर कोने से हजारों फूल पहुंच रहे थे! यदि इतने लोग इस आदमी के प्रेम में हैं, जरूर कहीं कोई गलती हो गई होगी। और प्रेस के लोग निरंतर हर जेल के बाहर थे- अपने हैलीकाप्टरों में, अपने कैमरे साथ लिए। फाटकों पर कैमरे टिके थे, वृक्षों में कैमरे लगे थे। उन्होंने बारह दिन में कभी मुझे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ा। और एक जेल से दूसरे जेल तक मुझे जो जाना पड़ा। मुझे कम से कम दरवाजे के बाहर तो आना होता था, उन क्षणों में भी वे मुझसे पूछ लेते, ‘क्या वे आपको बहुत तकलीफ पहुंचा रहे हैं? आपका मात्र एक शब्द और सारा संसार अमेरिका के असली फासिस्ट चेहरे को जान पाएगा। प्रेस से भयभीत होने के कारण वे बहुत कुछ न कर सके। तो, मेरा स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक है।
भगवान, ध्यान के प्रति लोगों का उत्साह बढ़ाने के लिए कौन-सा तरीका सबसे अच्छा है? (प्रश्न का शेष हिस्सा रिकार्ड नहीं हो पाया) तो तुम ‘ध्यान’ के लिए जिन लोगों का उत्साह बढ़ाना चाहते हो, पहले तुम्हें उन में इस बात के प्रति जागरूकता लानी होगी कि वे हताश हैं, कि वे भूल चुके हैं, कि वे विषद से भरे हैं; कि वे याद नहीं कर सकते कि कब वे एकदम अपने हृदय से, गहन भीतर से हंसे थे, कि वे यंत्र मानव बन गए हैं; कि वे तमाम कार्य इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें करना ही है, वरना तो उन्हें करने में कोई रस नहीं है, आनंद नहीं है। वे संयोगवशात जीवन जी रहे हैं। उनका जन्म एक संयोग है, उनका विवाह एक संयोग है, उनके बच्चे संयोगवश हो गए हैं। उनका काम-काज भी सांयोगिक है। उनके जीवन में आंतरिक विकास और सही दिशा की ओर बढ़ती गतिमयता की कोई सुवास नहीं है। इसलिए वे आनंदित नहीं हो सकते। इसलिए तुम्हें पहले तो उन्हें इसके प्रति होश देना होगा कि वे कहां हैं। और प्रत्येक व्यक्ति करीब-करीब एक ही स्थिति में है। और मृत्यु निकट आ रही है। तुम ठीक-ठीक यह भरोसा भी नहीं कर सकते कि कल तुम यहां होगे। और तुम्हारा जीवन बिल्कुल मरुस्थल है, उसने कोई मरूद्यान नहीं पाया, उसे अपनी कोई अर्थवत्ता, अपना कोई ठीक अर्थ नहीं मिला; और मृत्यु कभी भी भविष्य की सारी संभावनाओं को नष्ट कर सकती है।
तो पहले तुम्हें उनके अर्थहीन, सांयोगिक, निराश-हताश जीवन के प्रति उन्हें सचेत करना है। वे इसे जानते हैं, लेकिन वे इस जानने को दबाने की कोशिश करते हैं बहुत तरीकों से। क्योंकि निरंतर इसका बोध बने रहने देना, बहुत पीड़ादायी है। इसलिए इसे भुला देने को वे फिल्में देखते हैं। वे पार्टियों में जाते, वे पिकनिकों का आयोजन करते हैं, वे शराब पी लेते हैं। कुछ भी करते हैं- बस, किसी भंाति अपने जीवन की वास्तविकता, उसका खोखलापन, व्यर्थ बोध भुलाने के लिए। यह सब से ज्यादा महत्वपूर्ण बात है- उन्हें यथार्थ का स्मरण दिलाना। और जब कोई यह सब स्मरण में लेता है, तो उसे ध्यान की ओर ले जाना बहुत सरल हो जाता है, क्योंकि ‘ध्यान’ मनुष्य के सारे प्रश्नों का एकमात्र उत्तर है। यह निराशा हो सकती है, यह विषद हो सकता है, यह उदासी हो सकती है, एक अर्थहीनता हो सकती है, यह संताप हो सकता है- समस्याएं अनेक हो सकती हैं, लेकिन उत्तर एक ही होता है। ध्यान उत्तर है। और ध्यान की सरलतम विधि है- साक्षी होने का ढंग। एक सौ बारह विधियां हैं ध्यान की, लेकिन इन तमाम एक सौ बारह विधियों में साक्षीभाव एक आवश्यक तत्व है। इसलिए मेरे देखे तो साक्षीभाव ही एकमात्र विधि है। वे एक सौ बारह विधियां साक्षीभाव की विभिन्न प्रयुक्तियां हैं। यह सीखना कि साक्षी कैसे हुआ जाए ध्यान का मूलभूत केंद्र, ध्यान की चेतना शक्ति है।
तुम एक वृक्ष को देख रहे होते हो; तुम मौजूद होते हो, वृक्ष मौजूद होता है वहां, लेकिन क्या किसी और बात का तुम्हें पता नहीं चलता? कि तुम ही देख रहे होते हो वृक्ष को, कि तुममें कोई साक्षी मौजूद है, जो तुम्हें देख रहा है वृक्ष को देखते हुए। यह जगत केवल द्रष्टा और दृश्य में ही बंटा हुआ नहीं है। इन दोनों के पार भी कुछ है। और वही ‘पार’ वही अतिक्रमित ही ध्यान है। तो प्रत्येक कृत्य में...और मैं नहीं चाहता कि लोग दृढ़तापूर्वक घंटा आधा घंटा सुबह या शाम बैठे रहें। उस तरह का ‘ध्यान’ सदा काम न आएगा; क्योंकि अगर तुम घंटा भर ध्यान करते हो, तो तेईस घंटे तुम ठीक उसके विपरीत ही कर रहे होते हो। ध्यान फलित नहीं होगा। साक्षीभाव ऐसी विधि है जो चैबीस घंटे तुम में उतरी रह सकती है। भोजन कर रहे होते हो, तो भोजन करने वाले के साथ तादात्म्य मत बना लेना। भोजन वहां है, भोजन करने वाला भी वहां है, और तुम वहां होते हो, साक्षी रहते हुए। चल रहे होते हो, तो शरीर को चलने दो लेकिन तुम केवल ध्यान से देखते रहो। धीरे-धीरे कुशलता, सक्षमता आती है। और ये एक सक्षमता है, और जब तुम छोटी-मोटी बातों को ध्यानपूर्वक देख सको...यह कौआ कांव-कांव कर रहा है, तुम सुन रहे हो। ये दो बातें हुईं- व्यक्ति और विषय। लेकिन क्या तुम उस साक्षी तत्व को नहीं देख सकते जो उन दोनों को ही देख रहा है? कौआ, उसे सुनने वाला और फिर भी कोई एक जो दोनों को साक्षीभाव से देख रहा। यह एक बड़ी सरल-सहज घटना है। ...तब तुम अस्तित्व की अधिक गहरी परतों में उतर सकते हो।
तुम अपने विचारों के साक्षी हो सकते हो, तुम साक्षी हो सकते हो अपनी भावनाओं के, भावदशाओं के। यह कहने की जरूरत नहीं है कि ‘मैं उदास हूं’। वास्तविकता यह है कि तुम साक्षी मात्र हो, उदासी की बदली तुम पर से गुजर रही है। क्रोध है- तुम उसके साक्षी मात्र हो सकते हो। यह कहने की कोई जरूरत नहीं है कि ‘मैं क्रोध में हूं’। तुम तो कभी क्रोध में नहीं होते, तुम्हारे क्रोधित होने का तो कोई उपाय ही नहीं है, तुम सदा साक्षी ही हो। क्रोध आता है और चला जाता है; तुम केवल दर्पण हो। घटनांए घटती हैं, उसमें प्रतिबिंबित होती हैं, आगे बढ़ जाती हैं। और दर्पण खाली और साफ-सुथरा बना रहता है, प्रतिबिंब कोई खरोंच तक नहीं लगाते उस पर। साक्षीभाव है तुम्हारे भीतर के दर्पण को खोज लेना। और एक बार तुम उसे खोज लेते हो, चमत्कार घटने शुरू हो जाते हैं। जब तुम विचारों को केवल देख रहे होते हो, विचार विलीन हो जाते हैं। तब अचानक एक अदभुत मौन उतर आता है, जिसे तुमने पहले कभी नहीं जाना। जब तुम भावदशाओं को साक्षीभाव से देखते हो- क्रोध, उदासी, प्रसन्नता- वे अचानक विदा हो जाती है, और कहीं ज्यादा गहरे मौन की अनुभूति होती है।
और जब साक्षीभाव से देखने को कुछ नहीं होता- तब घटती है क्रंाति। तब साक्षीभाव की ऊर्जा स्वयं की ओर मुड़ जाती है, क्योंकि फिर उसे बाधित करने को कुछ नहीं होता; कोई दृश्य, ऑब्जेक्ट नहीं बचता। अंग्रेजी का शब्द आब्जेक्ट सुंदर है। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि वह, जो तुम्हें रोके रखता है, तुम्हें ऑब्जेक्ट करता है। जब तुम्हारे साक्षीभाव के लिए कोई वस्तु, ऑब्जेक्ट नहीं बचते, तो सहज ही वह पलटकर स्वयं तुम्हारी ओर ही, स्रोत की ओर ही आ पहुंचता है। और यही है वह बिंदु जहां कोई संबोधि को उपलब्ध होता है। ध्यान केवल एक मार्ग है। मंजिल सदा बुद्धत्व है, संबोधि है। और इस परम क्षण को जानना सब कुछ जानना है। फिर कोई दुख नहीं है, हताशा नहीं है, अर्थहीनता नहीं है; फिर जीवन एक संयोगमात्र नहीं है। वह इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड का हिस्सा बन जाता है- एक अनिवार्य हिस्सा। और एक अदभुत आनंद उमड़ने लगता है कि इस संपूर्ण अस्तित्व को तुम्हारी जरूरत है। व्यक्ति की बड़ी से बड़ी जरूरत है कि उसकी आवश्यकता हो। यदि किसी को तुम्हारी जरूरत हो, तो तुम कितना सुख अनुभव करते हो।
किन्तु यदि पूरे अस्तित्व को तुम्हारी जरूरत हो, तब तुम्हारे आनंद का कोई अंत नहीं है। और इस अस्तित्व को एक छोटे-से घस के फलक की भी उतनी ही जरूरत है, जितनी बड़े से बड़े सितारे की। असमानता का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। कोई भी तुम्हारा स्थान नहीं ले सकता। यदि तुम न रहो, तो अस्तित्व भी कुछ कम हो जाएगा- और सदा कुछ कम रहेगा, वह कभी उतना आपूरित नहीं होगा। यह अनुभूति कि यह संपूर्ण विशाल अस्तित्व को तुम्हारी जरूरत है, तुम्हारे सारे दुख-दर्द दूर कर देती है। पहली बार, तुम अपने घर हो। भगवान, जिनके लिए चिकित्सीय कारणों से सक्रिय ध्यान अनुकूल नहीं पड़ता, उनके लिए आप कौन-से-ध्यान का सुझाव देंगे। मैं इसका उत्तर दे चुका हूं। भगवान, कृपया आप संयोजकों (को-ऑडिनेटर्स) की आवश्यकता के कारण बताएंगे? जब भी एक से कहीं अधिक व्यक्ति हों, वहां सदा संभावना होती है झगड़े-झंझट की, संभावना होती है असहमति की, परस्पर दरार पड़ने की। संन्यास एक आंदोलन है। ईसाइयत को संयोजकों की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह कोई आंदोलन नहीं है। वह जीवंत नहीं है। वह मृत है बाकी सभी धर्मों की भंाति। उसकी अपनी जड़ बद्धताएं हैं। या तुम उसका अनुसरण करो या तुम अनुसरण मत करो।
सहमत होने या असहमत होने को तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। तुम जीसस क्राइस्ट के साथ असहमत नहीं हो सकते- या तो तुम विश्वास रखो, या न रखो। लेकिन संन्यास कोई मृत, जड़ सिद्धांत नहीं है। वह एक प्रवाहमयी प्रक्रिया है, एक आंदोलन जिसमें मैं विश्वास आदि कोे समर्थन नहीं देता। मैं बढ़ावा देता हूं विचार-शक्ति को, बुद्धिमत्ता केा। मैं समर्थन देता हूं संदेह को। स्वभावतः संयोजकों ( कोऑडिनेटर्ज) की जरूरत होती है, क्योंकि यदि आश्रम में बारह व्यक्ति हैं या कम्यून में पांच हजार मित्र हैं, तो हर छोटी-बड़ी बात पर असहमति हो सकती है। संयोजकों का कार्य किया जड़ सिद्धांत को जबरदस्ती लागू कर देना नहीं है; बल्कि उसका कार्य है, हर संभव तार्किकता, सार-तत्व को खुले रूप से स्पष्टतया सामने ले आना। प्रत्येक व्यक्ति केा अपने-अपने सुझाव देने के लिए बुलाना चाहिए और फिर अच्छी तरह से छांटकर, एकमत से उसे ही चुनना चाहिए जो सत्य के अत्याधिक निकट हो। संयोजक तो व्यवस्था के लिए होता है ताकि लोग बुद्धि और विवेक से साथ हों, किसी विश्वास से नहीं- बुद्धिमत्ता से। विवेक से दबे हुए न हों बल्कि निजता केा बढ़ाने वाले हों। मैं अपने संन्यासियों को मात्र विश्वास करने वालों के रूप मात्र में नहीं देखना चाहता।
अमेरिका में चर्च का एक कॉर्डिनल जेल में मेरे पास आया। वह शायद हर रविवार उस जेल में आता रहा होगा, और उसने सुना होगा मेरे बारे में। तो वह खास तौर से मेरे पास आया मुझे बाइबिल देने के लिए। मैंने कहा, ‘यह क्या है? ’ वह कहने लगा, यह ईश्वर की वाणी है। मैंने कहा, तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि यह ईश्वर की वाणी है? क्या ईश्वर ने तुम्हें स्वयं बताया है? ’ नहीं, वह बोला, यह तो बाइबिल में ही लिखा हुआ है। मैंने कहा, लेकिन यही कुछ कुरान में भी लिखा हुआ है। यह वेदों में भी लिखा हुआ है। यही गीता में लिखा है। तो कैसे तुम पता करोगे कि ईश्वर के सत्य वचन कौन से हैं? उन सभी का दावा यही है कि ‘यही हैं ईश्वर के वचन। मैंने कहा, मैं इसे रख लेता हूं। तुम इतने प्रेम से लाए हो। लेकिन ख्याल रहे, यह ईश्वर की वाणी नहीं है। और क्या तुमने पुस्तक को ध्यान से पढ़ा है? तुम कार्डिनल हो, तुम जीवन भर, इस का अध्ययन करते रहे होओगे, धर्मविज्ञान के महाविद्यालयों में परीक्षाएं उत्तीर्ण की होंगी। क्या तुमने कभी ध्यान दिया कि बाइबिल में कम से कम पांच सौ पृष्ठ अश्लील हैं? तुम्हारा ईश्वर तो कोई अश्लील साहित्यकार जान पड़ता है।’ वह कहने लगा अश्लील साहित्य? मैंने कहा, तुम कहीं भी खोलो पुस्तक और अश्लील लेखन ही मिलेगा और कुछ नहीं। और ऐसा केवल तुम्हारे साथ नहीं है; यही कुछ हिंदुओं के साथ है, मुसलमानों, यहूदियों, सभी के साथ यही है। उनके तथाकथित पवित्र गं्रथ हैं, लेकिन उन्हें कोई ध्यान से देखता-पढ़ता नहीं। धर्मनिष्ठा के कारण प्रत्येक व्यक्ति उसमें विश्वास किए चला जाता है। कार्डिनल तो थोड़ी उलझन में पड़ गया। वह बोला, मुझे फिर इस बारे में सोचना पड़ेगा।
मैंने कहा, तुम्हें इस पर ध्यान देना ही होगा और तुम्हें विश्वास को साथ लिए ध्यान नहीं देना है, क्योंकि विश्वास अंधापन है। तुम्हें इसे ध्यान से पढ़ना होगा। बुद्धि-तर्क सहित, विवेक पूर्वक। जीसस ने स्वयं के लिए घोषणा कर दी कि वे ईश्वर के एकमात्र पुत्र हैं। अब, यदि तुम्हें रास्ते पर कोई यह दावा करता मिल जाए कि वे ईश्वर का भेजा उसका एकमात्र पुत्र है, तो क्या सोचोगे तुम उस आदमी के बारे में। उसने कहा, मुझे लगेगा यह आदमी पागल है। मैंने कहा, ‘तो तुम जीसस के बारे में अलग ढंग से क्यों सोचते हो? जीसस के जीवन में एक भी रबाई या विद्वान, या कोई भी बौद्धिक, बुद्धिजीवी वर्ग का व्यक्ति- कभी उनका शिष्य नहीं बना। वे बारह व्यक्ति जो उनके धर्म के अग्रदूत बने, वे मछुआरे थे, लकड़हारे थे, किसान थे, मोची थे- अशिक्षित निम्न वर्ग के। ‘जरा गधे पर बैठे व्यक्ति का चित्र अपनी आंखों के सामने लाओ। जीसस गधे पर बैठा करते थे। जूदीया में यह बात प्रचलित थी। और उनके पीछे चलते थे बारह अनपढ़ व्यक्ति और जीसस दावा करते थे कि वे ईश्वर के भेजे, ईश्वर के एकमात्र पुत्र हैं। कार्डिनल ने कहा, बस, अब आगे आप कुछ न कहें। आप मेरा विश्वास नष्ट कर सकते हैं। अब यह विचार कल्पना कि जीसस गधे पर बैठे हैं, उनके पीछे बारह अनपढ़ व्यक्ति चले आ रहे हैं- इससे ही छुटकारा पाने में मुझे वर्षों लग जायेंगे। संयोजक का काम है कि वह लोगों की मदद दे किसी भी समस्या के प्रति ज्यादा बुद्धिमान होने में, कि वे ज्यादा सुसंगत हो पाएं।
दूसरी बात, उन्हें इस बात के प्रति सजग करें कि यह मेरे या तुम्हारे सच्चे होने का प्रश्न नहीं है, प्रश्न यह है कि सच्चाई क्या है? सत्य किसी का नहीं होता और हम सभी उसे खोजने वाले हैं। संयोजक का कार्य बड़ा महत्वपूर्ण होता है। उसे बहुत विनम्र होना चाहिए; केवल तभी वह यह कार्य कर सकता है। उसे किसी भी रूप में सत्तात्मक नहीं होना चाहिए, क्योंकि यदि वह स्वयं ही सत्ताशाली हो जाता है तो वह कैसे लोगों की मदद करेगा विवेकपूर्ण होने में, विकास पाने में। भगवान, हम सत्तात्मक होने से कैसे बच सकते हैं? बहुत सरल है यह। जो लोग सत्ता जमाते हैं, वे हीन भावना से पीड़ित होते हैं। अपनी हीन-भावना छिपाने के लिए वे अपनी उच्चता आरोपित करते हैं। वे यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि वे ‘कुछ हैं, कि उनके शब्द सत्य हैं, कि उनकी बात कोई कानूनी नियम जैसी है। लेकिन भीतर कहीं गहरे में वे हीन-भावना से ग्रस्त व्यक्ति होते हैं। एक कारण यह है कि सारे राजनेता हीन-भावना से पीड़ित होते हैं। जो व्यक्ति किसी हीनभावना से ग्रस्त नहीं होता वह कभी भी राजनीति में नहीं जाएगा। संसार में और भी कई संुदर कार्य हैं करने को- चित्र बनाना, गाना, नृत्य करना, साहित्य रचना, संुदर-सुंदर मूर्तियों का निर्माण करना, खुजराहो की सृष्टि करना। बहुत ज्यादा सर्जनात्मकता चारों और उपलब्ध है, किंतु वह उपलब्ध उसी व्यक्ति को होती है, जो हीन-भावना से पीड़ित नहीं है। इसलिए हमें अपने सभी संन्यासियों को स्पष्ट करना होगा कि इस जगत में कोई भी कहीं नीचे या कुछ कम नहीं है, और कोई भी ज्यादा बड़ा या ज्यादा ऊंचा नहीं है। ऐसी सभी धारणाएं बनावटी हैं, नकली हैं और उन्हीं लोगों की बनायी हुई हैं जिनके अपने न्यस्त स्वार्थ हैं। इसी ढंग की धारणा को उन्होंने कई ढंग से निर्मित किया है- कि पुरुष ज्यादा ऊंचा है, स्त्री कुछ कम है। आखिर कौन सी कसौटी रही है इसकी? पुुरुष की अपेक्षा स्त्री ज्यादा समय तक जीवित रह सकती है- करीब पांच वर्ष ज्यादा। स्त्री, पुुरुष की अपेक्षा कम बीमार पड़ती है। जब सौ लड़के पैदा होते हैं, लड़कियां नब्बे ही पैदा होती हैं, क्योंकि जिस समय तक वे बच्चे विवाह योग्य होंगे, दस लड़के खत्म हो चुके होंगे।
विवाह के समय तक वे सब बराबर की संख्या में नब्बे ही होंगेे। लड़कियों में रोगों के प्रति ज्यादा सहनशक्ति, ज्यादा प्रतिरोधक शक्ति होती है। वे आत्महत्या की बातें ही करती हैं, लेकिन कभी करती नहीं। स्त्रियों की अपेक्षा करीब दुगुनी संख्या में पुरुष आत्महत्या करते हैं, और आखिर किस दृष्टि से पुरुष ज्यादा ऊंचा है? लेकिन एक विचार, एक धारणा गढ़नी पड़ी; क्योंकि इससे पुरुष को मदद मिली स्त्री को गुलाम बनाने में। वह निम्नतर रही है, इतनी निम्न कि चीन जैसे देशों में स्त्री में कोई आत्म-तत्व, कोई अस्मिता ही नहीं है। एक पति अपनी पत्नी को मार सकता है- यह कोई अपराध नहीं होता। यह तो ऐसे है जैसे तुम अपनी कुर्सी तोड़़ देते हो। वह तुम्हारी कुर्सी है, तुमने दाम दिए हैं उसके; तो इसमें अपराध कैसा? और उन्होंने स्त्रियों को यह विश्वास दिला दिया है कि उनमें कोई आत्मा नहीं है; क्योंकि उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित होने की कभी स्वीकृति नहीं दी; उन्हें कभी समाज में खुल कर घूमने फिरने की स्वीकृति नहीं दी। स्वभावतः वे तर्क न कर सकीं। स्त्री के साथ तर्कयुक्त ढंग से बात करना इतना कठिन क्यों होता है? कोई इस पर विशेष ध्यान नहीं देता। यदि तुम स्त्री से वादविवाद करो तो वह चीखने-रोने लगेगी, चीजें पटक देगी; लेकिन वह तार्किक बातचीत न करेगी। और तुम यह तमाम दृश्य देख कर महसूस करोगे कि जो कुछ भी वह कह रही है, उसे मान लेना ही बेहतर है; वरना वह सारा घर सिर पर उठा लेगी, तहस-नहस कर देगी। और पड़ौसी देख रहे हैं, रास्ते पर चलते लोग तुम्हारे मकान के आसपास जमा होने लगे हैं। तो इसलिए यह बेहतर होगा अब तुम सही हो या गलत, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता- यह कह दो कि वह सही है। लेकिन किसने उसे यह अवस्था तक पहुंचा दिया है? क्योंकि तुमने कभी उसे शिक्षा प्रदान नहीं की, उसे तुमने कभी तर्क-संगतता नहीं सिखायी। जितने बुद्धिमान तुम हो, उतना बुद्धिमान होने की कभी उसे इजाजत नहीं दी; क्योंकि तुम सदा भयभीत रहे। और तुम ऐसे भय का एक रूप विश्वविद्यालयों में अनुभव कर सकते हो। स्त्रियां सदा पुरुषों की अपेक्षा। प्रथम श्रेणी भी पुरुषों से ज्यादा उन्हें ही प्राप्त होती हैं। हमने ये उच्चता और निम्नता की धारणाएं किन्हीं न्यस्त स्वार्थों के कारण बनायी हैं। शूद्र निम्न लोग हैं। किसी ने प्रमाणित नहीं किया क्यों?
ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता कि ब्राह्मणों को उच्चतर और शूद्रों को निम्नतर क्यों होना चाहिए, लेकिन तुमने हजारों वर्षों से व्यवस्था बनायी है उन्हें अशिक्षित रहने देने की। तुमने उन्हें ऐसे-ऐसे कार्यों में लगाए रखा है, जिसमें बुद्धिमत्ता की कोई आवश्यकता नहीं होती; और तुमने उन्हें कुछ और कार्य करने ही नहीं दिए। जो आदमी तुम्हारे जूते बनाता है- जूते ही बनाता चला आ रहा है हजारों वर्षों से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी। अब बुद्धिमत्ता की आवश्यकता ही नहीं है। वहां कोई चुनौती नहीं, उसे केवल जूते बनाने हैं। ये शोषण करने के कुशल आयोजन हैं। हमें अपने संन्यासियों को बता देना है कि कोई ऊंचा नहीं है, कोई नीचा नहीं है, और कोई समान भी नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। इस बात को ख्याल में ले लेना है, क्योंकि अगर तुम कहो कि कोई ऊंचा नहीं है और कोई नीचा नहीं है, तो लोग निश्चित ही यह परिणाम निकालेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति समान है- जो कि सत्य नहीं है। समानता की बात मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है। प्रत्येक व्यक्ति एलबर्ट आइन्सटीन नहीं हो सकता है, और प्रत्येक व्यक्ति रवीन्द्रनाथ टैगोर नहीं हो सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वे ज्यादा ऊंचे हैं। क्योंकि यदि रवीन्द्रनाथ...। मेरा कुल मतलब यही है कि प्रत्येक व्यक्ति एक अनूठी अभिव्यक्ति है।
इसलिए ऊंच और नीच की, समानता और असमानता की सारी धारणाएं ही मिटा देनी हैं और इसके स्थान पर रख देनी है बजोड़पन की नयी अवधारणा। और प्रत्येक व्यक्ति बेजोड़ ही है। जरा प्रेमपूर्वक ध्यान से देखो और तुम पाओगे कि प्रत्येक व्यक्ति में अपना कुछ न कुछ ऐसा है, जो किसी और में नहीं है। जब बेजोड़पन की अनुभूति, अवधारणा कम्यून में व्याप्त हो जाएगी, तो कोई व्यक्ति सत्तावाद को जबरदस्ती कभी न लादना चाहेगा। भगवान, कम्यून का भविष्य क्या है? मैं भविष्य की ज्यादा नहीं सोचता, क्योंकि भविष्य जन्मता है वर्तमान से। यदि हम वर्तमान को संभाल सकें, तो हम ने भविष्य की फिक्र ले ली। वह कहीं और से नहीं उत्पन्न होगा, वह विकसित होगा कि इसी क्षण में से। अगर क्षण उत्पन्न होगा, इस क्षण में। यदि यह क्षण सुंदर है, शांत है, आनंदपूर्ण है, तो अगला क्षण अधिक शांत, अधिक आनंदपूर्ण होगा ही। आज विश्व भर में कम्यून हैं, और वे आनंदमग्न हो रहे हैं वर्तमान में। स्वभावतः जो कुछ भी घटेगा भविष्य में, वह कहीं बेहतर ही होगा। मैं इस धारणा को नहीं मानता जो कि भारत में सदियों से चलायी जाती रही है- कि स्वर्ण युग जा चुका है; कि वह सतयुग में ही था, और फिर पतन शुरू हो गया। और अब हम उस पतन की अंतिम अवस्था में हैं। एक कारण यह भी है जो भारतीय मन थोड़ा विषदमय है, और उसके पास विकसित होने की, विशालता पाने की, संपन्न होने की, निर्माण कर्ता होने की अंतःपे्ररणा नहीं है। क्यों, किसलिए कुछ करना? कलियुग में यह संभव नहीं है।
यदि तुम निराश हो, यदि तुम कुंठित हो, यदि तुम दुखी हो, तो यह तो होना ही था। यह बात, सतत पतनशीलता वाली, हिंदुओं की अवधारणा के अनुकूल पड़ती है- और यह है पक्की नासमझी। मेरा भरोसा विकास में है। स्वर्णयुग सदा भविष्य में है। भगवान, आप सदा परिवर्तनीय और जिनके बारे में कोई पूर्वानुमान न पाया जा सके, ऐसे सदगुरु हैं। हम कैसे आपके साथ समकालीन होकर इस यात्रा में आगे बढ़ सकते हैं? इसी ढंग से। गैर-अनुमान वाले और सदा गतिमय, परिवर्तनमय होओ। परिवर्तित होना कभी मत छोड़ो, और न ही कभी गैर-अनुमान वाले होना छोड़ो। और केवल तभी जीवन एक उत्सव बन सकता है। जिस घड़ी तुम अनुमान योग्य हो जाते हो, तुम एक मशीन बन जाते हो। मशीन पूर्वसूचनीय होती है। वह कल भी वही थी, वह आज भी वही है, वह कल भी वही होगी। तुम उसके बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हो; वह गैर-परिवर्तनीय होती है। यह विशिष्ट अधिकार केवल मनुष्य को ही प्राप्त है कि वह हर पल परिवर्तित होता है।
जिस दिन तुम परिवर्तित होना समाप्त कर देते हो, उसी दिन तुम एक सूक्ष्म ढंग से मर चुके होते हो। और दुनिया में बहुत लोग करीब तीस वर्ष की आयु के आसपास मर जाते हैं। फिर भी वे जीए चले जाते हैं- शायद चालीस वर्ष कि पैंतालीस वर्ष और- लेकिन वह मरणोपरांत जीना है। वह सच में जीना नहीं है। तीस वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने जीना छोड़ दिया है। जब तक सांस ही अपने से न रुक जाए, रुकने की कोई जरूरत नहीं है। प्रथम विश्वयुद्ध में ऐसा हुआ कि पहली बार सिपाहियों की मानसिक आयु की जांच की गई, और वे बहुत हैरान हुए- औसत मानसिक आयु केवल तेरह वर्ष ही थी। तेरह वर्ष की अवस्था में ही उसका मानसिक रूप विकसित होना समाप्त हो गया था, शरीर विकसित होता चला गया। मैं चाहूंगा कि तुम्हारी...अगर ऐसा संभव है कि जब शरीर पचास वर्ष का हो सकता है और तुम्हारी मानसिक आयु तेरह वर्ष की हो सकती है, तो फिर यह क्यों नहीं संभव हो सकता कि तुम्हारा शरीर पचास वर्ष का हो और मानसिक आयु दो सौ वर्ष की हो?
यह वही बात होती है। बस तुम्हें जोखिम उठाना पड़ता है- स्थायित्व का, गारंटी का। क्योंकि जहां कहीं भी तुम होते हो, चीजों की गारंटी मिली होती है, सब कुछ आश्वस्त होता है, स्थिर होता है और तुम सोचते हो, क्यों परिवर्तित होने की जोखिम उठाना? नहीं, जोखिम उठाना प्रामाणिक व्यक्ति के मूलभूत आधारों में से एक बड़ा आधार होना चाहिए। जिस क्षण तुम अनुभव करते हो कि चीजें ठहरती जा रही हैं, तो उनका ठहराव विसर्जित कर देना। जीवन भर में यही करता आया हूं। मैंने कभी स्वयं को ठहराव में नहीं जम जाने दिया, न ही मैंने साथ वालों को निर्धारित स्थिरता में रहने दिया है। और मेरे देखे यही ढंग है विकास पाने का। प्रत्येक पल, कुछ नया खिलता है तुम में। एकदम अंतिम पल तक्.. एक जेल गुुरु का स्मरण हो आया है मुझे, जिसने पूछा था अपने शिष्यों से कि, मेरी मृत्यु की घड़ी आ गयी है, लेकिन मैं थोड़ा उलझन में हूं। मैं कुछ ऐसे ढंग से मरना चाहता हूं, जिस ढंग से पहले किसी और की मृत्यु न हुई हो; क्योंकि मैं नकल करने वाला नहीं बनना चाहता। तुम कुछ सुझाव दो। किसी ने कहा, यह अच्छा होगा अगर आप खड़़े रह कर मृत्यु का वरण करें। लेकिन कोई बार कहने लगा, ‘मैंने सुन है कि एक बार एक जेन गुरु खड़े-खड़े ही मृत्यु पा गया। तो वह सुझाव रद्द हो गया। लेटे हुए मरने की बात तो निस्संदेह त्या य ही थी। निन्यानबे प्रतिशत लोग बिस्तर में लेटे हुए ही मरते हैं। वह सबसे ज्यादा खतरनाक जगह है। तुम्हारा पलंग। वहीं तो पिछले हजारों वर्षों से निन्यानबे प्रतिशत लोग मर रहे हैं।
बेहतर यही है कि अपना बिछौना जमीन पर ही बिछा दो। जेन गुरु ने कहा, ‘एक बात मेरी ख्याल में आयी है। अगर एक आदमी खड़े-खड़े मरा था, तो मैं मरूंगा सिर के बल खड़ा होकर। क्या तुम लोगों ने सुना कि कभी कोई अपने सिर के बल खड़ा मृत्यु केा प्राप्त हो गया? एक शिष्य बोला, ‘हमने तो कभी ऐसा सोचा तक भी नहीं। यह तो बड़े मजे की बात है। वह गुरु अपने सिर के बल खड़ा हुआ मृत्यु को प्राप्त हो गया। शिष्य मुश्किल में पड़ गए- अब इस आदमी का करें क्या; क्योंकि यह तो वे जानते थे कि अगर कोई बिस्तर पर लेटे हुए मर जाए तो उसका क्या करना होता है, लेकिन यहां तो यह आदमी सिर के बल खड़ा है। किसी ने सुझाया कि उनकी बड़ी बहन, जो निकट के ही एक जेन मठ में रहती है, उससे पूछा जाये। क्योंकि यह एकदम नयी स्थिति समाने आ पड़ी थी। बहन आयी और बोली, बोजो!’ वह गुरु का बचपन का नाम था- तुम अपनी शरारत छोड़ते हो या नहीं? अब लेट भी जाओ बिस्तर पर। और बोजो हंस पड़ा। वह अभी जीवित था, वरना कैसे कोई मरणोपरांत भी सिर के बल खड़ा रह सकता है? और वह बोली, सहज सामान्य ढंग से मरो। बड़ी बहन की बात ठीक से स्वीकार करते हुए वह सहज-सामान्य ढंग से ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। लेकिन यह अच्छा होता है कि सदा कुछ नया घटित होता रहे, काई नयी प्राप्ति हो और व्यक्ति को खुला रहना चाहिए। मेरे संन्यासियों को विशेष रूप से खुला, ग्रहणशील ही रहना है। इतने खुले कि वे सारा ब्रह्माण्ड भी अपने भीतर संजो सकें। इसकी कहीं कोई सीमा नहीं होनी चाहिए।
भगवान, माला और गैरिक वस्त्रों की विधि हमें एक समग्रता देती है। सामाजिक जड़ताओं से मुक्ति देती है और साहस देती है अकेले हो जाने का। अब, स्वच्छंद संन्यास द्वारा, क्या आप अधिक सूक्ष्म विधियां निर्मित करेंगे इन बातों की उपलब्धि के लिए? निश्चित ही मैं ऐसी सर्जना कर रहा हूं- क्योंकि अब ठीक समय आया है कि तुम्हारा ‘ध्यान’ हर उस व्यक्ति से तुम्हें अलग बना दे, जो ध्यान नहीं करता है। तुम्हारी शंाति, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी करुणा, तुम्हारी मैत्रीपूर्णता इन सबके द्वारा तुम दूसरों से कुछ अलग ही जान पड़ोगे। माला और वस्त्र तो बहुत पदार्थगत चीजें हैं। अब मैं चाहता हूं कुछ आध्यात्मिक व्यक्तित्व निर्मित हो पाएं- और जो पहले से मौजूद भी हैं। ऐसा बहुत बार हुआ है- मित्रों ने मुझे इसकी खबर दी है। वे कुछ काम करने गए और शायद माला तथा वस्त्र ही उनके काम में आड़े आ गए, तो वे सामान्य वस्त्रों में बिना माला पहले फिर गए, लेकिन उन्हें पहचान लिया गया। दुकानदार कहने लगा, फिर भी कुछ अलग बात तो है आपमें। आप कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। और वह बात कहीं अधिक सुंदर होगी कि तुम्हारी पहचान तुम्हारी आध्यात्मिकता द्वारा बने, आत्मतत्व द्वारा बने, तुम्हारा सत्य पहचाना जाए तुम्हारी समग्रता से, तुम्हारे व्यक्तित्व से, तुम्हारी करुणा से, तुम्हारे प्रेमभाव से। लेकिन मैं यह नहीं कह रहा कि जो मित्र गैरिक वस्त्र पहने रखना चाहते हैं, माला पहने रखना चाहते हैं, वे उन्हें हटा दें। नये संन्यासियों में भी जो माला और गैरिक वस्त्र धारण करना चाहते हैं, वे ऐसा चुनाव कर सकते हैं। और मेरा यह मानना है कि पुराने संन्यासियों में से कोई भी ऐसा नहीं करना चाहेगा। ये करीब-करीब उनका हिस्सा ही बन चुके हैं। उनके बिना वे लगभग नग्न ही अनुभव करेंगे। और जो नये लोग आयेंगे चाहे वे दूसरे वस्त्रों में ही क्यों न आए, तो जल्दी ही वे गैरिक वस्त्र और माला धारण कर लेंगे।
क्योंकि वे इतने बाहरी, इतने अजनबी लगेंगे। और कोई व्यक्ति अजनबी नहीं लगना चाहता। प्रत्येक व्यक्ति परिचित की भंाति दिखायी पड़ना चाहता है, आंतरिक वृत में सम्मिलित होना चाहता है। इसलिए मैंने द्वार खोल दिए हैं ताकि वे लोग आ सकें जो बस सीमित घेरे में ही बैठे हुए हैं, जो सहानुभूति से भरे हुए हैं, जो सदा संन्यासी होना चाहते थे, लेकिन मात्र वस्त्रों और माला के कारण वे भयभीत रहे। इसलिए मैं चाहता हूं कि वे बंद घेरे को छोड़ें और प्रवेश करें मंदिर में। और मंदिर में भरपूर मित्र हैं, गैरिक रंग में रंगे हुए। जब वे घेर से निकल जायेंगे तो फिर कुछ ज्यादा देर न लगेगी उनके रंग जाने में भी। गैरिक रंग गायब नहीं हो जाएगा। वह तो ज्यादा से ज्यादा फैलेगा। और जो लोग अचानक अपने वस्त्र नहीं परिवर्तित कर सकते, उनके लिए द्वार खोल देने हैं- उन्हें जितनी देर लगानी है लगाने दो, लेकिन उन्हें बाहर क्यों रोकना? उन्हें ध्यान करने दो- यह बात उन्हें साहस देगी। संन्यास गैरिक ही रहेगा और वह जुड़ा रहेेगा माला से। मैंने यह द्वार केवल उनके लिए खोले हैं जो आधा मन, आधी भावनाएं लिए बाहर खड़े हैं। यह अच्छा नहीं लगता, उन्हें अंदर आने देना है। उनके वस्त्रों का रंग जाना कोई ज्यादा मुश्किल न होगा। भगवान, वैयक्तिता, गुणवत्ता का तथा प्रत्येक व्यक्ति के बेजोड़ होने के समान अवसरों का- इन सभी बातों की प्रतिष्ठा का आप बड़ा महत्व मानते हैं।
अपने कम्यून जीवन में हम इन आधारभूत मूल्यों को कैसे व्यवहार में उतार सकते हैं। यह कठिन नहीं है। यह तो बात है केवल दृष्टि की, देखने के ढंग की। मुझे याद आता है, एक घर में एक चित्र टंगा था और प्रत्येक व्यक्ति हंसा था उस पर, कहने लगा था, आपने क्यों टांगा हुआ है इसे? इसका कुछ अर्थ नहीं। अंततः उसका मालिक तंग आ गया और उसने चित्र उठाया और डाल दिया तलघर में। एक दिन एक व्यक्ति आया और वह कहने लगा, ‘उस चित्र का क्या हुआ जो यहां टंगा था? वह असली पिकासो था।’ इस आदमी ने कहा, ‘असली पिकासो? हे ईश्वर, मैंने उसे तलघर में डाल दिया है। वह जरूर दस लाख डालर का रहा होगा। वह दौड़कर गया, चित्र ले आया, उसे साफ-सुथरा किया और वापिस टांग दिया। अब क्या घटित हुआ? चीजों को देखने का ढंग मात्र। वह चित्र असली पिकासो है या नहीं, बात इसकी नहीं, लेकिन उसकी दृष्टि तुरंत बदल गयी। प्रत्येक संन्यासी को प्रत्येक दूसरे संन्यासी में एक बेजोड़ व्यक्ति देख लेना है, अस्तित्व की उस प्रामाणिक सर्जना को देख लेना है। और यह सत्य है क्योंकि कोई और व्यक्ति तुम्हारे जैसा नहीं है। ऐसे कोई दो व्यक्ति भी अस्तित्व नहीं रखते जो एक समान हों। यहां तक कि जुड़वां भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते हैं। इसलिए यह एक तथ्य ही है कि प्रत्येक व्यक्ति बेजोड़ है और प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक सुनिश्चित निजता है, वैयक्तिक्ता है।
यह कहना कि व्यक्ति को ऐसा होना चाहिए या कि वैसा होना चाहिए- इस तरह के विचारों को तो हमें छोड़ ही देना चाहिए और इसके स्थान पर हमें ऐसा दर्शन प्रतिष्ठित करना चाहिए, कि कोई व्यक्ति जैसा है, वैसा ही संुदर है। होना चाहिए, का तो कोई प्रश्न ही नहीं, क्योंकि हम कौन होते हैं किसी पर कोई ‘चाहिए’ आरोपित करने वाले? यदि अस्तित्व तुम्हें उसी भंाति स्वीकार करने को राजी है जैसे कि तुम हो, तो मैं बीच में आने वाला कौन? बस, दृष्टि का रूपांतर भर- और यह बड़ी सीधी-सरल बात है। इसे एक बार तुम्हारी दृष्टि में आ जाना है कि प्रत्येक व्यक्ति बेजोड़ है, प्रत्येक व्यक्ति वैसा है जैसा कि वह है और उसे वैसा ही होना है जैसा कि वह है। स्वीकृत होने के लिए उसे किसी और जैसा होने की कोई जरूरत भी नहीं है। वह स्वीकृत हो ही चुका है। और इसे ही मैं कहता हूं वैयक्तितका का, निजता का सम्मान करना, व्यक्तियों का सम्मान करना- उसी रूप में जैसे कि वे हैं। संपूर्ण मनुष्य जाति इतनी प्रेममयी और आनंदपूर्ण हो सकती है यदि हम लोगों को उसी भंाति स्वीकृत कर सकें जैसे कि वे हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाते। पत्नी पति को जांचती रहती है, सताती रहती है, हर संभव तरीके से कि उसे कैसा होना चाहिए। पति सता रहा है पत्नी को कि उसे कैसा होना चाहिए। दोनों सता रहे हैं, बच्चों को कि उन्हें कैसा होना चाहिए मैं एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था, और मैंने पूछा एक बच्चे से जो कि मेरे करीब ही बैठा हुआ था, कि जब तुम बड़े हो जाओगे तो क्या बनोगे? वह बोला, यह तो बड़ी कठिन बात है।
मैं तो टुकड़ों में बंट जाऊंगा। मैंने कहा, क्या कहते हो? वह बोला, मेरी मां चाहती है कि मैं डॉक्टर बनूं, मेरे पिता मुझे इंजीनियर बनाना चाहते हैं, मेरे अंकल चाहते कि मैं अभिनेता बनूं और किसी को फुर्सत ही नहीं कि मुझ से पूछ ले कि मैं स्वयं क्या बनना चाहता हूं। मैं तो बस बढ़ई बनना चाहता हूं क्योंकि मुझे लकड़ी बहुत भाती है, और खेलना चाहता हूं लकड़ियों के टुकड़ों से, और बहुत-सी चीजें बनाना चाहता हूं लकड़ी द्वारा। लेकिन मैं यह सब कह नहीं सकता क्योंकि वे सब हंसेंगे कि, तुम मूढ़ हो। हम डॉक्टर बनने की, अभिनेता या कि इंजीनियर बनने की कह रहे हैं- और तुम बढ़ई बनने की कहते हो। लेकिन वह लड़का अगर डॉक्टर बन जाए तो दुखी रहेगा। अगर इंजीनियर बन जाए तो भी दुखी रहेगा। मैंने सुनी है एक बड़े शल्य चिकित्सक की कथा- विश्व प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक, वह रिटायर हो रहा था। वह पचहत्तर वर्ष का था, फिर भी कोई अन्य युवा डॉक्टर उसके मुकाबले का नहीं था- पचहत्तर वर्ष की अवस्था में उसके हाथ लोहे के भंाति मजबूत थे। वह रिटायर हो रहा था, और उसके सभी मित्र वहां मौजूद थे; बड़े नाच-गान, खान-पा, और उत्सव की धूम थी।
लेकिन वह चुपचाप उदास-सा एक कोने में बैठा हुआ था। किसी ने पूछा उससे, ‘यह उदास होने का वक्त है? हर कोई यहां पार्टी का आनंद ले रहा है, आप भी आकर इसका आनंद उठाएं। वह बोला, मेरे लिए यह समय उदास होने का है। मैं कभी भी सर्जन नहीं बनना चाहता था। सर्जन होने से अपनी सारी जिंदगी मैंने बरबाद कर दी। चाहे मैं संसार का सबसे बड़ा सर्जन बन गया, लेकिन इस बात ने मुझे कहीं कोई संतुष्टि नहीं दी। मैं तो नृत्यकार बनना चाहता था और अगर मैं मामूली नाचने वाला भी बन जाता फिर भी वह बात दिल को ज्यादा संतोष देने वाली होती। इसलिए लोगों को वही रहने दो जो वे हैं। जो भी वे बनना चाहते हों उसमें उन्हें मदद दो। कभी कुछ आरोपित मत करो।
और यही होता है मनुष्य-जाति के प्रति असली सम्मान।
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