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रविवार, 2 दिसंबर 2018

सहज मिले अविनाशी-(प्रवचन-07)

सहज मिले अविनाशी-ओशो 

सातवां प्रवचन

विधायक खोज


एक तो यहां एक स्टडी सर्किल निर्मित किया है, तो महीने में सात दिन उस पर बोलता रहता हूं। वह थोड़े से चुने हुए लोगों का ग्रुप है ताकि बहुत गहराई में कुछ बात हो सके। तो उसमें कुछ विशेष किताबों पर बोल रहा हूं। जैसे विज्ञान भैरव पर शुरू करूंगा अगले महीने। विज्ञान भैरव तंत्र का एक ग्रुप है। और मैं मानता हूं कि दुनिया में उससे श्रेष्ठ कोई किताब न कभी लिखी गई और न लिखनी संभव है। तंत्र पर, तंत्र पर, बहुत अदभुत है। बहुत ही अदभुत है, गीता-वीता सब बचकानी हैं। तंत्र में तो बहुत किताबें हैं, जिनके मुकाबले सारी चीजें बचकानी हैं। तो विज्ञान भैरव में कुल एक सौ बारह सूत्र हैं, तो उसमें कोई लगेंगे छह महीने। अगले महीने से शुरू करूंगा, सात दिन, फिर छह महीने उस पर लगूंगा।

प्रश्नः टैक्स्ट उसका संस्कृत में है?


टैक्स्ट उसका अंग्रेजी में भी है, संस्कृत में भी है। है तंत्र का, बहुत अदभुत है। एक-एक सूत्र पर एक-एक गीता हो सके, ऐसा है।



प्रश्नः और प्रचार क्यों नहीं हुआ उसका अभी तक?

सारी तकलीफें ये हैं कि जितनी गहरी चीजें हैं, उतना प्रचार मुश्किल है। और अगर किन्हीं टीचर्स ने जिद की कि वे जनता के तल पर बात नहीं करेंगे, तो खो जाती है बात। फिर नहीं बच सकती। और फिर जितने भी सूत्र-ग्रंथ हैं, वे प्रचलित नहीं हो पाते। और पुराने जितने भी कीमती ग्रंथ हैं, वे सब सूत्र-ग्रंथ हैं। सूत्र है एक, जिसकी गहन व्याख्या हो सकती है। लेकिन सूत्र तो कंडेंस हैं, वे तो फार्मूला हैं। अपने आप में वे मीनिंगलेस हैं। वे वैसे ही हैं जैसे रिलेटिविटी का फार्मूला है। तो वह आप किसी को पकड़ा दें, तो किसी मतलब का नहीं। जब तक कि कोई उसको पूरा डिकोड न करने को राजी हो। और कोई डिकोड न कर सके। तो जितने सूत्र-ग्रंथ हैं, सबकी तकलीफ यह है कि उनको डिकोड करने की प्रक्रियाएं खोती चली गईं।
और तंत्र के साथ तो बहुत अनाचार हुआ है, तंत्र के साथ तो ऐसा हुआ कि वह ऐसी भ्रांति फैल गई कि वह अनैतिक है। और भ्रांति के लिए कारण भी मिल गए कि वह... तो तांत्रिकों ने भी अपने गं्रथ छिपा लिए; क्योंकि उनको जला देने का डर पैदा हो गया। खुद अकेले भोज ने कोई एक लाख तांत्रिकों की हत्या की और सारे ग्रंथ जला दिए और यह प्रक्रिया सैंकड़ों साल तक चली। तो उन ग्रंथों को सिकोड़ लेने का भी मन हो गया, छिपा लेने का भी मन हो गया। और उनको जनता में चर्चा करने की बात भी नही रही। और कोई तांत्रिक है... और एक बहुत अदभुत पूरा का पूरा वर्ग, एक लाख संन्यासियों की हत्या की। पर वे लिनहेय तांत्रिक कहलाते थे। जिन लोगों ने हत्या की... और वह पेयर, पति और पत्नी होता है। और एक ही कपड़ा दोनों नीले रंग का, एक ही कपड़ा पहनते, दोनों नग्न होते अंदर उस कपड़े के। एक ही कपड़ा गले में बांधते थे। तो उनके पेयर्स जाहिर पेयर्स थे, वे जगह-जगह पकड़ कर मारे जाते थे।
तो तंत्र के ग्रंथ भी सिकोड़ लिए गए, छिपा लिए गए। और कोई तांत्रिक है, यह बताना भी खतरे से खाली नहीं रहा। तो तंत्र को तो बहुत नुकसान पहुंचा। और मेरा मानना यह है कि फ्रायड और जुंग एकदम बच्चे हैं। अगर तंत्र के ग्रंथ सारे के सारे डिकोड हो जाएं, तो इन्होंने फिर अ ब स से शुरू किया है जो कि एकदम चरम स्थिति तक पहुंच गई बात थी। इधर मेरा खयाल है उस पर और धीरे-धीरे तंत्र पर कुछ लोगों को काम करवा रहा हूं। और जल्दी ही तंत्र के अलग कैंप लेना शुरू करूंगा, जहां कि सिर्फ तंत्र पर ही पूरी बात और प्रयोग भी करवाए जा सकें।
एक तो स्टडी गु्रप चलाते हैं, यहां जहां कि उन किताबों की मैं बात करूंगा, जिन पर कि सामान्य रूप से आम लोगों के बीच बात नहीं की जा सकती। तो उनमें खास करके तंत्र के ग्रंथ के लिए। फिर इस तरह के गं्रथ हिंदुस्तान के बाहर भी गए, जिन पर चर्चा करीब-करीब बंद हो चुकी है। जिन पर कोई चर्चा नहीं होती है। जैसे कि ताओ की चालीस किताबें हैं, बहुत अदभुत हैं, जो उन सबको वापस चर्चा में लाना जरूरी है। यह स्टडी ग्रुप तो बहुत छोटा सा सर्किल है सौ लोगों का, और मुश्किल से एंट्रेंस रखी है उसकी, ताकि जो भी बात करनी है वह की जा सके। वह कोई अड़चन सुनने वाले से अड़चन न हो। यह हर सात दिन चलेगा हर महीने। यहां ध्यान की क्लास चलाते हैं, दो क्लासें चलाते हैं सुबह-शाम। एक हीलिंग सेंटर चलाते हैं। हीलिंग की मेरी अपनी प्रोसेस है, उसके बड़े अदभुत परिणाम हैं। एक वह, उसको व्यापक करना है। और उसको व्यापक साल भर में कर लूंगा। और इकट्ठी मॉस हीलिंग का प्रयोग करने की तैयारी में हूं। अभी तो संन्यासियों तक ही। मॉस स्प्रिचुअली। तो अभी तो सिर्फ संन्यासियों को तैयार कर रहा हूं। तो वह तो सिर्फ एक्सपेरिमेंटल है वहां, मरीजों को, ताकि वे संन्यासी तैयार हो जाएं हील करके, उनको भरोसा आ जाए कि हीलिंग होती है। फिर मॉस हीलिंग का खयाल है। दस हजार मरीज इकट्ठे हील किए जा सकते हैं। तो इकट्ठा एक सेक्शन मरीजों का है। तीसरा एक नव-संन्यास का एक प्रयोग शुरू किया है। अभी कोई सवा दो सौ संन्यासी उसमें दीक्षित किए हैं। ... लेकिन ये सवा दो सौ संन्यासी तो स्थायी हैं। जो थोड़े समय के हैं, उनकी सूचना नहीं दे रहे हैं। बाकी जो थोड़े समय के लिए होता है वह बहुत जल्दी स्थायी हो जाता है। वापस लौटना मुश्किल हो जाता है। वह तो सिर्फ प्रलोभन है थोड़े समय का कि हिम्मत उसकी बढ़ जाए। अभी इसमें ढाई सौ संन्यासी हैं, इस पर ज्यादा जोर दे रहा हूं। इसमें सब धर्मों के संन्यासी हैं, इसलिए यह पहला प्रयोग है पृथ्वी पर अपने किस्म का, उसमें हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी, यहूदी, क्रिश्चियन ये आठ धर्मों के लोग इसमें दीक्षित किए हैं। मुसलमान तीन संन्यासी इसमें हैं। और... बाहर से भी संन्यासी आना शुरू हुए हैं। पांच अमरीकन हैं संन्यासी। एक इंग्लिश लड़की है, एक फ्रेंच, एक इटालियन, एक जापानी है। तो कोशिश यह है कि सब जातियों के, सब धर्मों के, सब देशों के और इन संन्यासियों को कोई से इफेक्ट नहीं होगा, ये सिर्फ संन्यासी होंगे। और धर्म ही इनका... इसलिए सब धर्मों में विचरण कर सकेंगे सहज भाव से।
न तो हम उनको आग्रह करते हैं कि वे क्रिश्चियन न हो जाएं, न आग्रह करते हैं कि वे किसी और वर्ग में सम्मिलित हो जाएं। उनको क्रिश्चियन साधना पद्धति जारी रखनी है, तो वे जारी रखें, लेकिन अब से उनका संबंध धर्म से होगा। और जहां भी धर्म का जो भी सूत्र मिलेगा, वह उसे अंगीकार करने की तैयारी में होगा। तो इस संन्यास को तीव्रता से फैलाने का। और ये दो साल में दस हजार कम से कम संन्यासी होंगे। फिर इन संन्यासियों के द्वारा मॉस हीलिंग, ध्यान और इन सबका प्रयोग करने का है। तीन संन्यासी हीलिंग में लगते हैं, अभी तो जो प्रयोग शुरू किया है। एक मरीज पर तीन संन्यासी, तीन दिन। वे सिर्फ पैसेज का काम करते हैं, वे तीनों मरीज पर हाथ रख कर बैठ जाते हैं, और थोड़ी ही देर में उन पर गति होनी शुरू हो जाती है। वे सब पैसेज बन सकें, इसकी व्यवस्था और मैथड उनको सिखाया जा रहा है वे सिर्फ परमात्मा के लिए एक व्हीकल हो जाएं। और सत्य उनसे उतरे और मरीज में प्रवेश कर जाए। बहुत परिणाम आए हैं, अभी भी परिणाम कोई सेंविंटी परसेंट हैं। और जल्द ही हंड्रेड परसेंट तक पहुंचा देंगे। वे पहुंच जाएंगे, फिर इसको मॉस हीलिंग की शक्ल देंगे। कि पांच सौ संन्यासी इकट्ठे दस हजार मरीजों को घेर कर खड़े हो जाएंगे और उन पर डिवाइन फोर्स उतरेगी, और उसका परिणाम होगा। तो इसको तो व्यापक गति देने का... है।
इसलिए यात्रा बंद करके इस सबको पूरा कर सकूं। नहीं तो मैं घूमता रहता हूं, फिर कोई काम व्यवस्थित नहीं हो पाता। ध्यान के बहुत परिणाम आने शुरू हुए हैं। अभी जो ध्यान का प्रयोग हुआ, दिल्ली से भी तीन-चार लोग थे, इतना गहरा हुआ कि जिसकी कल्पना भी करनी मुश्किल। बिना आप देखे कल्पना भी न कर सकें? सात दिन तीन बैठक रोज चलती है। चौथे दिन के बाद आप भरोसा नहीं कर सकेंगे कि यह आदमी वही है। और सातवें दिन तो विश्वास के बाहर हो जाएगा कि इतना प्रफुल्लित, इतना आनंदित और इतना नाचता हुआ आदमी हो सकता है। चार सौ लोग थे, तो करीब-करीब साढ़े तीन सौ लोग नाचने की हालत में आ गए। इतने आनंदित कि जिसका भरोसा ही नहीं होता। और ध्यान से लौट आएं हैं वे, और अभी पीछा नहीं छोड़ा है उस आनंद ने। वह जाहिर है। तो हर दो महीने में एक कैंप लेने का ख्याल है। यह जो प्रयोग है, यह बिल्कुल ही नया है। और बहुत सी बातें इसमें सयुंक्त की गई हैं। और तीन बैठकें हैं--सुबह, दोपहर, शाम। उस पर ताकत लगा रहा हूं। इधर यह गीता पर शुरू किया है, गीता पर प्रवचन के रूप में। यह कोई दस हजार पेज की कमेंट्री होगी पूरी किताब की। तो वैसी कमेंट्री कभी हुई नहीं है।

प्रश्नः टेन थाउजंड पेजेस?

न, न, यह तो सब शुरुआत है।

प्रश्नः कई भागों में यह छपेगी?

कई भागों में, कम से कम दो-दो सौ, डेढ़-डेढ़ सौ पेज का एक भाग होगा। और टेन थाउजंड। अभी तो ऐसा छापेंगे, फिर इकट्ठा हजार-हजार पेज के दस कर देंगे। तो गीता पर कोई कमेंट्री मेरे हिसाब से अब तक ठीक नहीं हो पाई है।

एकदम साधारण है, एकदम साधारण है, चाहे तिलक की हो, चाहे अरविंद की हो, और चाहे विनोबा, चाहे गांधी की, बहुत साधारण है। एकदम साधारण है। और जो बड़ी जरूरत है वह यह है कि गीता जैसी कोई भी किताब फिर से रीओनिटेशन होना चाहिए उसका। कि जितना ज्ञान इस बीच विकसित हो गया हो, फिर री-एब्जार्व किया जा सके। नहीं तो कमेंट्री बेकार है। तो शंकर के बाद कोई ऐसी कमेंट्री नहीं हुई जिसने उस दिन का सारा ज्ञान एब्जार्व कर लिया हो। और गीता ऐसी किताब है जिसमें अपने समय के सारे ज्ञान को एब्जार्व करके लिखी गई है। गीता की खूबी यही है कि कृष्ण के समय तक जो भी जाना गया था, वह सब इकट्ठा कर लिया गया था। गीता एक सार-अंश थी, सब जानकारी की।
तो मेरा मानना है कि गीता पर वही कमेंट्री ठीक है जो पुनः-पुनः जो भी इस बीच जान लिया गया हो उसको फिर रि-एब्जार्व कर लिया। और गीता की क्षमता है। कि उसकी कमेंट्री में सब री-एब्जार्व हो सकता है। सब री-एब्जार्व, यह उसकी क्षमता है। यही उसकी खूबी है। यह किसी दूसरी किताब की खूबी नहीं है। अगर बाइबिल पर कमेंट्री की जाए, तो वह सबको एब्जार्व नहीं कर सकती। उसके लिए लिमिटेशंस हैं। कुरान की कमेंट्री में सब एब्जार्व नहीं हो सकता, बहुत लिमिटेशंस हैं।
अब जैसे विज्ञान भैरव है, इसके भी लिमिटेशंस हैं। यह किताब गीता से गहरी है, लेकिन व्यापक नहीं है। गहरी बहुत है, पर व्यापकता कम है। बहुत नेरो पॉइंट है उसका। और गीता की व्यापकता अदभुत है।
तो यह मेरी समझ है कि उसमें हर सौ-पचास वर्ष के बाद उस पर एक कमेंट्री की जरूरत है, जो फिर री-एब्जार्व कर ले। और इसलिए गीता एक, जिसको कहना चाहिए कि इटर्नल एनसाइक्लोपीडिया है। और इसको इसी अर्थ में मैं कमेंट्री कर रहा हूं कि उसमें अब तक जो भी जाना गया है वह री-एब्जार्व हो सके। और जितने लोगों ने इसकी कमेंट्री की है उनको खुद भी पता नहीं जो जाना गया, यह तकलीफ है। जैसे विनोबा हैं, इनकी जानकारी न के बराबर है। या गांधी जी हैं, जिनकी जानकारी तो बिल्कुल क ख ग की भी नहीं है। यानी जिनकी जानकारी ही दस-बीस किताबों तक सीमित है। तो गीता के साथ हत्या हो जाती है। यानी गीता जितना कहती है गांधी की कमेंट्री उससे भी कम कर देती है। उसको करने वाली है। क्योंकि गांधी की खुद की जानकारी न के बराबर है। तो यह तो मैं उसको एनसाइक्लोपीडिया ही हो जाएगा।
तो आधुनिक सारा मनोविज्ञान उसमें समाहित करने का है। और मजा यह है कि उसकी पॉसिबिलिटी अनंत है। यानी ऐसा नहीं है कि उसमें कुछ भी ऐसा कभी भी खोजा जाए जो समाहित नहीं हो सकता। वह संभव है। यही उसकी खूबी है। उसको कभी भी व्यापक किया जा सकता है। कभी भी व्यापक किया जा सकता है। और इस पर कोई डेढ़ साल लग जाएंगे।
फिर सारे उपनिषदों पर फिर से कमेंट्री की जाएगी। कभी ईशावास्य पर। यह पढ़ने जैसी होगी। कोई पांच सौ पेज की होगी। एक-एक उपनिषद को एक-एक कैंप में लेता जाऊंगा। ध्यान साथ चलेगा और उपनिषद भी... हो जाएगी। कुछ किताबें ऐसी हैं जो भारत में फिर से वापस लाने की जरूरत है, जिनसे हमारे संबंध छूट गए हैं। जो बहुत से बौद्ध ग्रंथ हैं, जिनसे हमारे संबंध ही छूट गए, जिनके संस्कृत रूप भी नष्ट हो गए, जिनको वापस चायनीज या तिब्बत से लाना चाहिए। और जो बड़े कीमती हैं। जिनका कोई सब्स्टीट्यूट नहीं है हमारे पास। तो उन पर भी इस स्टडी सर्किल में काम करना है। और चूंकि मैं लिखता नहीं हूं, इसलिए इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि मैं बोल डालूं, तो वह, तो वह इकट्ठा हो जाए। जैसे बहुत सी तिब्बतन किताबें हैं जो मूलतः संस्कृत या पाली से अनुवादित हुई हैं, लेकिन अब उनके संस्कृत और पाली रूप नहीं हैं। अब उनको तिब्बत से वापस लाना चाहिए। और बड़ी कीमती हैं, क्योंकि कुछ उनमें है जो हमारे पास सब्स्टीट्यूट भी नहीं है। जैसे बुद्ध ने कुछ काम ही अलग किया, वह बिल्कुल अलग डायमेन्शन है। जिसमें हिंदू विचार और जैन विचार की कोई गति नहीं है। तो उस दिशा में, और मेरी अपनी समझ यह है कि अगर बुद्ध वापस हिंदुस्तान को नहीं उपलब्ध हो जाते, तो भविष्य में पश्चिम के लिए हिंदुस्तान की कोई अपील नहीं होगी। पश्चिम में जो आने वाला प्रभाव होने वाला है वह बुद्ध का होने वाला है। वह व्यापक प्रभाव बनने वाला है। क्योंकि पश्चिम में अब जो मनोविज्ञान की खोज चल रही है उसके लिए सिवाय बुद्ध के और कहीं आधार खोजना फिलहाल मुश्किल है।
पश्चिम कहता है कि अभी मन के उसने तीन हिस्से मानने स्वीकार किए हैं। बुद्ध ने... एक सौ साठ मन के लेयर्स हैं, उसमें तीन ये लेयर पहले लेयर हैं। ये तीन लेयर पहले लेयर हैं। इसलिए जुंग को यह मुश्किल पड़ गई थी। क्योंकि जब मनोविज्ञान पश्चिम का कह रहा था कि सिर्फ एक ही हिस्सा है माइंड का, कांशस माइंड, और बुद्ध के अनकांशस को कोई मानने को तैयार नहीं है। फिर जब उसकी खोज हुई तो मानना पड़ा कि वह दूसरा लेयर है। फिर बुद्ध के कलेक्टिव अनकांशस को कोई मानने को तैयार नहीं था। फिर जुंग को लगा कि वह भी है। और अब, अब इसमें विवाद करना कठिन होता चला जाता है कि वह जो चौथे और पांचवें और एक सौ साठ जो लेयर्स हैं, वह इस आदमी ने झूठ कहे हों? क्योंकि इसके तीन लेयर्स तो बिल्कुल सही निकले। और जब तक जिसको हमने नहीं जाना था उसको हम इनकार कर रहे थे और जानते से ही मान लेना पड़ा। और जब खोज हुई तो पाया कि बुद्ध ने उसके पूरे लक्षण कहे हैं, कोई लक्षण छोड़ा नहीं है। तो अब तो हालत ऐसी है कि जो लक्षण बुद्ध ने कहा है अगर नहीं मिल रहा है तो मिलेगा, यानी हमारी खोज-बीन में कमी होगी।
तो बुद्ध का पूरा का पूरा जो चित्त-विज्ञान है उस पर हमारे पास कोई ग्रंथ नहीं रह गया है। वे सब तिब्बतन या चाइनीज या जापानी हैं। तो उस तरह के सीकर्स को भी मैं इकट्ठा कर रहा हूं। और एक आश्रम बंबई के आस-पास खड़ा करने का मन है, जहां इस तरह का सारा काम मैं ले सकूं। क्योंकि वह मेरे अकेले से नहीं हो सकेगा। सुझाव मैं दे सकता हूं, खयाल मैं दे सकता हूं। उसके लिए लोग इकट्ठे करने पड़ेंगे जो उस काम में लग जाएं। तो लोग मिलने शुरू हो रहे हैं जो कि शीघ्र उस काम में लग जाएं। वहां यह सारा का सारा जिसको कहना चाहिए कि री-कलेक्शन वर्क है कि बुद्ध को पुनः उनकी पूरी क्षमता के साथ वापस लेकर आएं।
जैसे बड़े मजे की बात है कि बुद्ध ने ध्यान की जो प्रक्रिया विकसित की उसका हिंदुस्तान में कोई प्रभाव नहीं हुआ, कोई नहीं। यद्यपि ध्यान की जितनी प्रक्रियाएं विकसित की गईं हैं उनमें बुद्ध की सरलतम और अधिकतम परिणाम लाने वाली हैं। लेकिन उसका परिणाम ही नहीं हुआ। हिंदुस्तान ने उसको कहीं से भी नहीं आत्मसात किया। वे अपरूटेड हो गईं।
और आज झेन के द्वारा सारे पश्चिम में उसका प्रभाव पड़ रहा है। यानी आज स्थिति यह है... न, ब्राह्मणों ने उसको खड़ा ही नहीं होने दिया, क्योंकि कठिनाई ब्राह्मण के साथ थी। कठिनाई ब्राह्मण के साथ थी। ब्राह्मणके पास अपनी कुछ प्रक्रियाएं थीं, क्योंकि बुद्ध की प्रक्रिया अगर स्वीकार होती तो वे नष्ट हो जातीं। एक काम्पिटेटिव सिस्टम खड़ी हो गई। तो बिना इस बात को समझे कि जो काम्पिटेटिव है वह कांप्लिमेंट्री हो सकती है। यह बात नहीं समझी जा सकी। और एकदम से जब कोई नया विचार पैदा होता है तो समझना मुश्किल होता है कि वह कांप्लिमेंट्री ही हो सकता है। अकेले बुद्ध को आत्मसात करने में ब्राह्मण का चित्त छोटा पड़ गया। डर ऐसा पैदा हो गया है कि बुद्ध ब्राह्मण को पी जाएंगे। जब तक ऐसा डर पैदा नहीं हुआ तब तक वह आत्मसात करता रहा, इसमें बहुत अड़चने नहीं हैं। महावीर से उसने संघर्ष ही नहीं लिया, न लेने का कुल कारण इतना था कि महावीर की प्रक्रिया इतनी गूढ़ थी कि उसके कभी भी लोकप्रिय हो जाने की संभावना न थी। वह हमेशा सीमित लोगों की थी, उससे कोई काम्पिटीशन नहीं पैदा होता था। वह कभी भी व्यापक हो जाएगी, इसकी आशा ही नहीं थी। और अभी भी आशा नहीं है कि वह कभी व्यापक हो सकती है। नहीं रोज महावीर की प्रक्रिया क्षीण होती गई। ठीक महावीर का जो दिगंबर मुनि है, एक मर जाता है, तो उसको सब्स्टीट्यूट करना मुश्किल पड़ रहा है। इस समय कुल बीस दिगंबर मुनि हैं कुल पूरे हिंदुस्तान में। और एक मरता है और उन्नीस रह जाते हैं तो फिर बीसवां खोजना मुश्किल हो जाता है। तो वे तो किसी भी दिन लोप हो सकते हैं। इसमें बहुत मुश्किल नहीं है मामला, क्योंकि मामला इतना गूढ़ है।
इसलिए महावीर पर भी मैं इधर काम करता हूं कि वह जो इतनी गूढ़ है, वह कैसे सरल स्टेप्स उसमें जोड़े जा सकते हैं। क्योंकि कई बार कुछ चीजें सिर्फ इसलिए गूढ़ मालूम होती हैं कि बीच का अगर एक स्टेप नहीं है, तो भारी गूढ़ हो जाती है। जैसे एक सीढ़ी है, उसके तीन स्टेप्स पहले के नहीं हैं, बाकी सब स्टेप्स हैं, वह बेकार हो गई। वह बहुत कठिन हो गई, क्योंकि वे तीन स्टेप्स से कोई जोड़ नहीं बनता। जहां हम खड़े हैं और सीढ़ी जहां है उसके बीच में गैप पड़ जाता है। बस तीन स्टेप्स जोड़ दिए जाएं, तो वह सरल हो जाए। तो महावीर की साधना में कौन से स्टेप्स जोड़े जा सकें कि वह खो न जाए, क्योंकि वह एक अलग डायमेंशन है, बहुत भिन्न। जो न बुद्ध से मिल सकता है, न कृष्ण से मिल सकता है, न किसी से मिल सकता है।
और मेरी दृष्टि यह है कि सब कांप्लिमेंटिव सिस्टम्स हैं। इनको काम्पिटेटिव समझ कर भारी भूल हो गई। और उससे इंडियन वि.जडम को भारी नुकसान पहुंचा था। किसी एक से बांधने की चेष्टा हो गई। जब कि वह भारी व्यापक हो सकती थी, भारी व्यापक। लेकिन कांप्लिमेंटिव का खयाल बहुत नया है, वह था नहीं कभी। और अभी साइंस से पैदा हुआ है। जैसे इक्विलिड की ज्यामिट्री। तो जब पहली दफा नॉन-इक्विलिड ज्यामिट्री पैदा हुई, जिसने ठीक इक्विलिड से उलटे सिद्धांत स्थापित किए, जो इक्विलिड के फॉलोवर्स को दुश्मन मालूम पड़े वे। स्वभावतः, क्योंकि इक्विलिड की सारी सिस्टम को वे इनकार करते हैं। अगर इक्विलिड कहता है कि दो समानांतर रेखाएं कहीं नहीं मिलतीं, तो नॉन-इक्विलिड ज्यामिट्री कहती है कि ऐसी कोई रेखाएं ही नहीं होतीं जो कहीं न मिल जाएं। वह कहीं कितने दूर होगो, यह बात दूसरी है। सब समानांतर रेखाएं मिल जाएंगी। या तो यह ठीक है या कोई समानांतर रेखा नहीं होती, यह ठीक है?
 अगर इक्विलिड कहता है कि पॉइंट हम उसे कहते हैं जिसमें कोई लंबाई-चौड़ाई नहीं है, तो नॉन-इक्विलिड ज्यामिट्री कहती है कि ऐसा कोई पॉइंट होता नहीं जिसमें कोई लंबाई-चौड़ाई न हो। तो या तो कहो कि सब पॉइंट लंबाई-चौड़ाई वाले होते हैं, या कहो कि पॉइंट जैसी कोई चीज होती नहीं है। लेकिन यह डेफिनेशन की लंबाई-चौड़ाई नहीं होती, ऐसा पॉइंट की डेफिनेशन नहीं बरदाश्त की जाएगी।
तो इक्विलिड के खिलाफ जब पहली दफा नॉन-इक्विलिड में ख्याल आया तो भारी दुश्मनी पैदा हो गई। लेकिन धीरे-धीरे खयाल में आया कि कुछ चीजें हैं जो इक्विलिड एक्सप्लेन करता है, और कुछ चीजें हैं जो कि नॉन-इक्विलिड ज्यामिट्री एक्सप्लेन करती हैं। और अगर हमें टोटल का एक्सप्लेनेशन चाहिए, तो यह कांप्लिमेंटल है, यह दुश्मनी नहीं है। और अब कोई दुश्मनी नहीं है दोनों की ज्यामिट्री में। अब कोई दुश्मनी नहीं है। ज्यामिट्री रिच हुई दोनों से। यानी कुछ चीजें जो इक्विलिड समझा ही नहीं पाता था, दिक्कत में पड़ जाता था, वह नॉन-इक्विलिड ने समझा दी। अभी विज्ञान में एक नया खयाल आया है, वह कांप्लिमेंट्री सिस्टम का। मैं मानता हूं, इसको धर्म में भी एप्लाई करना है। कोई काम्पिटेटिव सिस्टम्स है नहीं। असल में जो भी सिस्टम काम्पिटेटिव मालूम पड़ती है, वह हमारी नासमझी है। सब काम्पिटेटिव सिस्टम कांप्लिमेंट्री हैं।

प्रश्नः--बहुत ... इस्लाम जो है, यदि ध्यान में लेकर इसको शरीक करना, इसको बहुत पाप समझते हैं?

हां, वे पाप समझेंगे।

प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं... ये लोग उत्तम परिपूर्ण हैं। इस परिपूर्णता से किसी का सहयोग या... ?

यह सभी का याल है। यह इस्लाम का नहीं खयाल है, जैन भी राजी नहीं हो सकता ना, क्योंकि तीर्थंकर सर्वज्ञ हैं। मोहम्मद से भी ज्यादा सर्वज्ञ है तीर्थंकर। क्योंकि मोहम्मद तो मैसेंजर है। और अगर भूल-चूक हो जाए तो मैसेंजर जिम्मेवार हो सकता है। भूल-चूक हो सकती है। क्योंकि बीच में एक मैसेंजर है। लेकिन तीर्थंकर तो डायरेक्ट सर्वज्ञ हैं, वह किसी की मैसेजिंग नहीं दे रहा है यह उसका ही ज्ञान है। और वह ऑल नोइंग है, इसलिए कोई उपाय नहीं है जोड़ने का। इसलिए कोई उपाय नहीं है। इसलिए जैन का माइंड तो मुसलमान से भी ज्यादा मुसलमान है।

प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। ... वह मुस्लिम कहते हैं उनका करेक्टर पुश्तैनी करेक्टरों जैसा था... और उसको काफिर समझते हैं। ----

काफिर है ही वह, इन सभी यानी सभी सिस्टम्स के साथ वह काफिर है। जो कि, जो कि कहे कि कुछ भी जोड़ा जा सकता है। लेकिन यह जो कांप्लिमेंट्री का खयाल है, इसमें एक और खयाल है, जो मेथेमेटिक्स में नई दृष्टि पैदा हुई। पहले हमारा खयाल था कि परफेक्शन एक चीज है। और अगर आप परफेक्ट हैं तो मैं परफेक्ट नहीं हो सकता। लेकिन परफेक्शन के भी इनफाइनाइट डायमेन्शंस हैं। मैनी परफेक्शनस पासिबल हैं। जैसे कि जब हम कहते हैं कि एक संगीतज्ञ पूर्ण है। लेकिन इसका किसी गणितज्ञ की पूर्णता से कोई विरोध नहीं। डायमेन्शन अलग है। यानी गणितज्ञ अगर एक पूर्ण हो जाए, तो उसकी पूर्णता के दावे से इस संगीतज्ञ की पूर्णता के दावे में कहीं कोई कलह पैदा नहीं होती। ये पूर्णताएं ही भिन्न आयाम में हैं।
तो मेरी यह भी दृष्टि है कि यह महावीर का दावा भी सच हो सकता है, और मोहम्मद का दावा भी सच हो सकता है कि वे जो कह रहे हैं, वह आखिरी शब्द है। और उसमें कुछ शरीक करने की जरूरत नहीं है। लेकिन वह डायमेन्शनल है। यानी जिस डायमेन्शन में वे कह रहे हैं उस डायमेन्शन में वह पूरा है, लेकिन और डायमेन्शंस हैं जिनके बाबत वे कुछ भी नहीं कह रहे हैं, जिनसे कोई लेना-देना नहीं है। जिनका मोहम्मद से कोई संबंध ही नहीं है। तो जब मैं कहता हूं कि कांप्लिमेंट्री है तो मैं शरीक नहीं कर रहा हूं, शरीक करने का मतलब यह होता है कि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कुरान में कुछ जोड़ दो, मैं यह कह रहा हूं कि बहुत कुछ है जिसका कुरान से कोई लेना-देना ही नहीं है। उस डाइमेन्शन में भी नहीं पड़ता वह, वह अलग ही डायमेन्शन है, और वह डायमेन्शन कांप्लिमेंट्री है।
अगर मनुष्य के टोटल एक्झिस्टेंस को समझना हो, और अगर मनुष्य के सब आयाम समझने हों, तो वह कांप्लिमेंट्री है। तो कांप्लिमेंट्री में हम शरीक नहीं करते, हम सिर्फ काम्पिटिशन काटते हैं। यानी मेरा कहना यह है कि वह द्वंद्व में नहीं हैं आपसे, ठीक जो विपरीत कह रहा है वह भी द्वंद्व में नहीं है। अगर वह समझता है द्वंद्व में है, तो वह भी गलती में है। और आप समझते हैं तो आप भी गलती में हैं। वह अलग ही आयाम की बात कर रहा है, जिस आयाम को आपने स्पर्श ही नहीं किया।
अब जैसे महावीर और बुद्ध बहुत ज्यादा घनी शत्रुता में पड़ गए। दोनों समसामयिक थे इसलिए। और इसलिए जैनों में और बौद्धों में जितना विरोध है, उतना न हिंदू-बौद्ध में है, न हिंदू-जैन में है। जितनी गहरी शत्रुता जैन और बौद्धों में है, उतनी इनमें किसी में भी नहीं है। उसका कारण है कि दोनों साथ थे और दोनों बिल्कुल ही अलग डाइमेन्शन की बात करते हैं; जहां महावीर कहते हैं कि संकल्प के बिना कुछ भी नहीं हो सकता, विल ही सब कुछ है, और इसीलिए महावीर उनको नाम दिया गया है--संकल्प ही सब कुछ है। वहां बुद्ध कहते हैं, संकल्प से कुछ भी न हो सकेगा, क्योंकि संकल्प सिवाय ईगो के और कुछ भी निर्माण करता नहीं; जितना संकल्प करोगे उतना अहंकार मजबूत होता चला जाएगा। और महावीर कहते हैं कि बिना संकल्प के कोई उपलब्धि नहीं होती। क्योंकि संघर्ष है भारी; एक-एक राग, एक-एक द्वेष, एक-एक क्लेश से लड़ना है। और लड़े बिना एक चीज भी कटने वाली नहीं है। संकल्प से ही आत्मा तक पहुंचा जा सकता है।
 बुद्ध कहते हैं, संकल्प से सिर्फ ईगो तक पहुंचा जा सकता है। इसलिए बुद्ध ने तो वहां तक हिम्मत की कि उन्होंने कहा कि आत्मा भी जो लोग बोलते हैं, वह भी अहंकार का ही रूप है। इसलिए अनात्म पर जोर दिया कि आत्मा है ही नहीं। क्योंकि जब तक तुम हो तब तक मुक्ति असंभव है; क्योंकि तुम्ही बंधन हो। तो बुद्ध का सारा जोर इस पर है कि सवाल यह नहीं है कि बंधन तोड़ना है, सवाल यह है कि तुम्हें तोड़ना है। सारा का सारा डाइमेन्शन भिन्न है। महावीर के सारे बंधन तोड़ने हैं ताकि फ्रीडम आ जाए, मुक्ति आ जाए। और बुद्ध के लिए आपको ही तोड़ देना है, ताकि कोई बंधने को ही न बचे। और जब कोई बंधने को नहीं बचेगा, तभी मुक्ति है। अगर बच गया कोई, तो मोक्ष भी बंधन बन जाएगा। तो यह सीधा संघर्ष हो गया।
तो मेरा मानना है कि फिर भी डाइमेन्शन अलग हैं। बुद्ध की चोट ही एक अलग डाइमेन्शन से है। उनकी सारी चोट ‘मैं’ पर है। और अगर मैं पूरी तरह टूट जाए, तो मैं से बंधे हुए सारे रोक टूट जाते हैं। महावीर की सारी चोट रोक पर है। और अगर सारे रोक टूट जाएं, तो मैं को खड़े होने को कोई जगह नहीं रह जाती। यानी मेरा मानना है कि यह, यह पोलेरेटिक है ‘मैं’ की और ‘रोकों’ की। अगर आप एक छोर से हमला करते हैं, दूसरा छोर खो जाएगा। इसलिए दोनों के दावे पूरी... एब्सोल्यूटली सही हैं। और दोनों के दावे कांप्लिमेंट्री हैं, विरोधी नहीं हैं।
तो इस पर एक बड़ा काम करने का मेरा खयाल है। सारे आयामों से सारी दुनिया के धर्म कांप्लिमेंट्री हैं, और सारे सिस्टम कांप्लिमेंट्री हैं। और जीवन इतना अनंत है कि अभी और सिस्टम्स की गुंजाइश है। कोई ऐसी बात नहीं है कि सिस्टम चुक गए, अभी और सिस्टम्स हो सकते हैं, अनंत हो सकते हैं। और धर्म की ठीक स्थापना उसी दिन हो सकेगी जिस दिन हम इस कांप्लिमेंट्रीनेस को स्थापित कर लें।
तो इसमें फर्क है, जैसे गांधी जी का आग्रह है वह कंप्रोमाइज का है। वह दोनों के बीच जो एक के तत्व हैं, उनको खोजने का है। मेरा नहीं है। मेरा कहना है कि वह खोजा ही नहीं जा सकता। मैं दोनों को अलग मानते हुए कांप्लिमेंट्री मानता हूं। इन ए ग्रेटर होल। उनमें कहीं जोड़-तोड़ करने की कोई जरूरत नहीं। कुरान अपने में काफी सही है, उसमें गीता से कहीं मिलाने की कोई जरूरत नहीं है। तो गीता के बाद कुरान पर कमेंट्री करने को हूं।

प्रश्नः अभी सुंदरलाल ने एक किताब लिखी थी?

मगर वह गांधी जी वाली गोली है। यहां है, वही वहां है। वह बचकानी आदत है। वह है नहीं सच, इसलिए उसमें बेईमानी करनी पड़ती है। और उसमें बहुत खींचना-खांचना पड़ता है, और बहुत चीजें छोड़नी पड़ती हैं। तो आखिर में जो परिणाम निकलता है, वह बहुत अजीब निकलता है। वह परिणाम यह निकलता है कि अगर गीता को प्रेम करने वाला कुरान में समता खोजेगा, तो जो-जो गीता में है वह-वह कुरान से चुन लेगा, बाकी छोड़ देगा। असली कुरान छूट जाएगा। वह सिर्फ गीता के रिजोनेंसिज पकड़ेगा बस। अगर कुरान को प्रेम करने वाला गीता को खोजेगा, तो बिल्कुल वह खोज लेगा जो कुरान में है, तो गीता सिर्फ एक और इविडेंस होगी, इससे ज्यादा नहीं। पकड़ उसकी कुरान पर जारी रहेगी। गांधी की जिंदगी भर पकड़ गीता पर जारी रही। कुरान को माता नहीं कह सकते, पिता नहीं कह सकते। गीता को माता कहते थे। पकड़ गीता पर है। तो गीता में जो-जो है वह भी कुरान में मिल जाए तो सुखद है, वह खोजा जा सकता है। मगर बहुत तोड़ और बेईमानी है। तो मैं तो इन सुंदरलाल और इन सबको बेईमान मानता हूं। ये बहुत बेईमानी करते हैं। और इतनी बेईमानी से सत्य नहीं खोजे जा सकते।

प्रश्नः थोड़ी सदभावना से?

न, सदभावना भी बेईमानी हो सकती है। सदभावना बेईमान हो सकती है अगर सदभावना हो बहुत सतही है। हमारी कुल कोशिश इतनी है कि हिंदू-मुसलमान एक हो जाएं, भाई-चारा हो जाए। तो यह सदभावना तो बहुत सतही है। न, बेईमान कहूंगा, क्योंकि इस सदभावना के लिए जो किया जा रहा है वह डिसऑनेस्ट है। इस सदभावना के लिए जो किया जा रहा है वह डिसऑनेस्ट है। यानी जैसे कि आप बीमार हैं और मरने के करीब हैं, डाक्टर कह रहा है कि नहीं आप जिंदा रहेंगे। यह मैं मानता हूं कि यह उसकी सदभावना है, लेकिन जो वह बोल रहा है वह झूठ है। सदभावना की वजह से जो वह बोल रहा है उसको मैं सच नहीं कह सकता। तो यह सदभावना तो पक्की है, लेकिन पीछे बेईमानी है। और मेरा मानना है कि बेईमानी से सदभावना फलित होगी नहीं। कई बार तो ईमानदारी चाहे कितनी ही कठोर मालूम पड़े, अंततः सदभावना लाती है। और बेईमान सदभावना अंत में परिणाम बुरे लाती है। कुछ परिणाम लाती है, क्योंकि गहरे में सब गलत हो जाता है।
मेरा मानना है कि कुरान अपने में पूरा सही है, उसमें कुछ भी इंच भर छोड़ने की जरूरत नहीं है। गीता अपने में पूरी सही है, उसमें कुछ भी इंच भर छोड़ने की जरूरत नहीं है। इनका सही होना इनट्रेंजिक है, एक इनर सिस्टम है, जो अपने में पूरी सही है। एक बैलगाड़ी अपने में पूरी सही है, इसमें कार का कोई भी हिस्सा जोड़ा तो खतरा ही होने वाला है। और कार अपने में बिल्कुल पूरी सही है, बैलगाड़ी का कोई भी हिस्सा जोड़ा तो झंझट खड़ी होने वाली है। और कितनी ही सदभावना वाले जोड़-तोड़ कर रहे हों, वे गड्ढे में गिराएंगे। और गिराया उन्होंने हमें गड्ढे में। हिंदुस्तान को गड्ढे में गिराने में गांधी जी से ज्यादा जिम्मेवार कोई आदमी नहीं है। क्योंकि सदभावना सतही थी और पीछे जो जोड़-तोड़ किया वह सब गलत था। उसमें कोई गहराई नहीं थी, उसमें न कोई अंतर्दृष्टि थी।
तो मैं किसी तरह के भी समझौते, समन्वय या सिंथेसिस नहीं, कोई सिंथेसिस संभव नहीं है। कांप्लिमेंट्री में इसका कंसेप्शन ही अलग है। वह यह नहीं है कि हम आपमें और दोनों में सही को जोड़ते हैं और ताल-मेल बैठाते हैं। न, मैं यह कहता हूं कि सत्य इतना बड़ा है कि उसमें विरोधी सत्य समाहित हो सकते हैं।

प्रश्नः यह तो तभी संभव हो सकता है जब दोनों पार्टी या दोनों दल इस बात पर सहमत हों कि कांप्लिमेंट्री है, अगर एक...  मान लीजिए न हो तो दूसरा... ।

इसको किसी को सहमत करने की जरूरत नहीं है। मेरी समझ जो है, वह यह है कि कांप्लिमेंट्री का कंसेप्शन प्रचारित करने की जरूरत है। किसी को सहमत करने की जरूरत नहीं है। किसी को सहमत करने जाने की जरूरत ही नहीं है। मेरा मानना है कि अगर कांप्लिमेंट्री में इसमे कुछ भी डेप्थ है, तो उससे सहमत होना पड़ेगा। मैं आपके सहमत होने का भरोसा नहीं करता। मैं किसी सत्य के सत्य होने पर भरोसा करता हूं। मैं आपके सहमत होने पर भरोसा करूं, तो मेरे सारे इफर्ट पोलिटिकल हो जाते हैं, वही हुआ गांधी के साथ। इसकी फिकर ज्यादा है कि आप सहमत हो जाएं। इसकी फिकर कम है कि सत्य क्या है? मैं इसकी फिकर ही नहीं करता कि आप सहमत हो जाएं। मेरी फिकर यह है कि सत्य क्या है? और मैं बहुत हैरान हुआ, कि अगर इसकी बहुत फिकर हो कि सत्य क्या है, तो आपकी अप्रोच नॉन-पोलिटिकल हो जाती है, क्योंकि आपका सहमत करने का मामला ही पॉलिटिक्स है। आपकी मैं फिकर ही नहीं करता कि आप सहमत हों। मैं तो इसकी फिकर में हूं कि कांप्लिमेंट्री का जो ट्रूथ है, वह अगर सच है, तो मैं उसको सिद्ध करने की फिकर में लगता हूं। और मेरी समझ यह है, कि अगर वह सच है तो आप उसके करीब आना शुरू होंगे, आपको आना पड़ेगा।
तो अभी जैसे यहूदी लड़की, रवि की लड़की है, तो यहूदी तो बहुत ऑर्थाडॉक्स होते हैं--मोहमडन कुछ भी नहीं, जैन कुछ नहीं--यहूदी तो एकदम ऑर्थाडाक्स ही हैं। उसकी सारी सिचुएशन ऐसी रही कि वह ऑर्थाडाक्स होगा। वह लड़की यहां पंद्रह दिन थी। वह एक यहूदी परफेक्ट इजेकियल पर काम कर रही थी। तो उससे पंद्रह दिन मैं इजेकियल के बाबत ही सारी बात कर रहा था। तो वह बहुत मुश्किल में पड़ी। वह मुझसे यह कहने लगी कि मैं इजेकियल पर तो काम कर रही हूं वर्षों से, और जितने भी यहूदी जानकार हैं उन सबके पास जाकर रही हूं, और जो आप कह रहे हैं यह इजेकियल में किसी ने भी नहीं कहा। आप किस वजह से यह कह रहे हैं? अब कैसे आपको यह पता चल रहा है कि इजेकियल... है और आप जब कहते हैं तो मुझे ठीक लग रहा है कि यह है। तब मैंने उससे बात करनी शुरू की कांप्लिमेंट्रीज की। मैंने उससे कहा कि मेरे लिए सत्य एक बहुत इतनी बड़ी घटना है, और सत्य मैं कहता ही उसको हूंः व्हीच इ.ज कैपेबल टु एब्जार्ब इट्स कंट्राडिक्ट्री, नहीं तो सत्य नहीं है, मत है। सत्य और मत में मैं फर्क यह करता हूं। मत वह है जो अपने विरोधी से दुश्मन की तरह खड़ा हो जाए। सत्य वह है जो अपने विरोधी को भी पी जाने की क्षमता रखता हो। जो अपने विरोधी को भी जगह दे देने की क्षमता रखता हो। सत्य है ही इतना आकाश जैसा कि उसमें मैं भी जी सकता हूं, मेरा दुश्मन भी। और इससे आकाश को कोई तकलीफ नहीं होती। इससे कोई तकलीफ नहीं होती, सूरज को कोई तकलीफ नहीं होती, वह मेरे दुश्मन को भी किरण दे आता है और मुझको भी। और एक भी बार नहीं सोचता कि इसमें से एक किरण बेकार जा सकती है क्योंकि एक-दूसरे की हत्या कर सकता है। यह इररिलेवेंट है। सत्य के लिए विरोधी को समाहित करने की क्षमता ही सत्य है।
तो मैंने कहा कि मैं इजेकियल को ज्यादा नहीं जानता, लेकिन वृहत्तर सत्य को मैं जानता हूं। और उस वृहत्तर सत्य में इजेकियल की क्या जगह बन सकती है उस हिसाब से मैं बात कर रहा हूं। इजेकियल किस डाइमेन्शन की बात कर रहा है, वह उस वृहत्तर सत्य का एक डाइमेन्शन है। उस वृहत्तर से मेरा संबंध है। इसलिए मैं इजेकियल के लिए ये बातें कह रहा हूं।
अभी जब गीता पर यहां प्रवचन चला, तो यहां मुसलमानों का एक डेलिगेशन मेरे पास आया कि आप कुरान पर बोलें। क्योंकि जब आप गीता में ऐसे सत्यों की बात कर रहे हैं, तो हमें लगता है कि कुरान में भी बहुत कुछ होगा जो हम नहीं जानते। तो मैंने कहाः तुम अरेंज करो। गीता खत्म होते से ही कुरान पर साल भर बोलूंगा। ... नहीं करें तो अच्छा है। करें तो अच्छा है। करें तो अच्छा है। करना बहुत मुश्किल पड़ेगा। मुश्किल इसलिए पड़ेगा कि मैं कुरान के संबंध में किसी मत से नहीं बोलने वाला हूं। जब मैं कुरान के संबंध में बोल रहा हूं, तो कुरान के ही संबंध में बोल रहा हूं, मैं मुसलमान हूं। यह मेरी जो, मेरी जो अप्रोच है वह भिन्न है। मैंने कुरान के संबंध में बोला, अब मैं मुसलमान हूं। और बिना मुसलमान हुए कुरान के संबंध में बोलना मुश्किल है। बिल्कुल मुश्किल है। उतनी सिम्पैथी न हो तो आप जो बोलेंगे वह सब गलत होने वाला है, वह सब गलत होने वाला है। और अगर मेरा कोई भी मत है, तो उपद्रव पैदा कर सकता है। अगर मेरा कोई मत नहीं है, तो कोई उपद्रव का कारण नहीं है।

प्रश्नः कुरान तो अपने में ही इतना कंट्राडिक्ट्री है।

नहीं-नहीं, कोई चीज कंट्राडिक्ट्री नहीं है। हमारे देखने की समझ, हमारी समझ उतनी गहरे नहीं उतर पाती जहां दो कंट्राडिक्ट्रीस एक हो जाती हैं, बस, इसलिए हमको कंट्राडिक्ट्री... बहुत पसंद है। हम आए... हमारी सारी तकलीफ यह है कि हम एक पत्ते को पकड़ते हैं। फिर वृक्ष के दूसरे पत्ते को पकड़ते हैं, दोनों बिल्कुल अलग हैं। और हम कभी वृक्ष को नहीं पकड़ पाते हैं। जहां कि दोनों पत्ते एक हो जाते हैं। और जहां-जहां कंट्राडिक्शन है, वहीं-वहीं गहराई होगी, अन्यथा गहराई नहीं हो सकती। कंसिटेंसीज सिर्फ सुपरफिशियल होती हैं, इसलिए जिस शास्त्र में कंट्राडिक्शन नहीं, वह दो कौड़ी का है। उसमें बहुत गहराई हो नहीं सकती। कंट्राडिक्शन होता ही गहराई की वजह से है। लेकिन हम जब पढ़ने बैठते हैं, तो हमें तो ऊ पर से दो चीजें दिखाई पड़ती हैं, हम उनके नीचे नहीं उतर पाते, जहां वे दोनों एक हो जाती हैं।

प्रश्नः वह कैसे समझ आए कि यह कंट्राडिक्शन किस चीज को... ?

उसे समझने की जरूरत नहीं है, तुम्हारी समझ को गहरा करने की जरूरत है। उसे समझने की जरूरत नहीं है स्पेशली। अपनी ही समझ को कैसे बढ़ाया जा सकता है--... हां, तुम्हारी समझ को गहरा करने की जरूरत है। उसके लिए मेथड्स हैं, न, समझने का प्रॉब्लम ही नहीं है। तुम्हारी समझ को गहरा किया जा सकता है। उसे समझने के लिए नहीं, वह समझने की बात ही नहीं है। तुम्हारी समझ गहरी हो जाए, तो तुम समझ लोगी। और तुम्हारी समझ को गहरा करने की मैथाडालॉजी अलग है, न वह कुरान पढ़ने से गहरी होगी, न गीता पढ़ने से गहरी होगी। उसी को ही मैं ध्यान कह रहा हूं। तुम्हारी समझ को गहरा करने की मेथाडालॉजी बिल्कुल अलग है। उसको मैं ध्यान कह रहा हूं। और उसका समझ से कोई लेना-देना नहीं है सीधा। बड़ी कठिनाई जो है, वह यह है, कि जैसे कि स्वास्थ्य की किताब पढ़ने से स्वास्थ्य का कोई लेना-देना नहीं है, तुम स्वस्थ्य नहीं हो जाओगे, और स्वास्थ्य की परिभाषा भी समझनी मुश्किल है, जब तक कि स्वस्थ्य होने का भीतर से अनुभव न हो जाए। वह वैल बींइग जो भीतर से पैदा होती है, वह खयाल में न आ जाए। और स्वस्थ होने की प्रक्रियाएं हैं। समझ को उथला... । किस कारण से समझ उथली है? कौन-कौन से बेरियर उसको रोक कर उथला बनाए हुए हैं, उनको तोड़ने के मेथड्स हैं। उनका न कुरान से कोई लेना है, न गीता से कोई लेना है। और बड़े मजे की बात यह है कि अगर वह समझ गहरी हो जाए, तो कुरान में भी गहराई दिखाई पड़ने लगेगी, गीता में भी गहराई दिखाई पड़ने लगेगी। क्योंकि सवाल तुम्हारी गहराई में देखने का है। और एक बार तुम्हें गहरा देखने की क्षमता आ जाए, तो तुम कहीं भी गहराई देख सकोगी। वह तुम्हारी कितनी गहरी आंख जाती है, उस पर निर्भर है। और बड़े मजे की बात यह है कि कुरान के कंट्राडिक्शन उतने गहरे नहीं हैं जितने गीता के हैं, क्योंकि गीता ज्यादा गहरी किताब है। इसलिए जो कुरान नहीं समझ सकता, वह गीता तो कभी नहीं समझ पाएगा। क्योंकि कुरान का जो लेयर है कंट्राडिक्शन का वह उतना गहरा नहीं है।

प्रश्नः मैं गीता के लिए कितना कुछ नहीं कह सकूंगी जितना की... बल्कि अभी दरअसल मैंने कुरान ज्यादा पढ़ ली है। गीता के लिए तो मैं आपको उतना नहीं कह सकती...

कुरान में कंट्राडिक्शन दिखाई पड़ेंगे, कुरान में कंट्राडिक्शन दिखाई पड़ेंगे, सभी धर्मग्रंथों में दिखाई पड़ेंगे। ऐसा कोई धर्म ग्रंथ नहीं है।

प्रश्नः अभी भी मेथाडालॉजी में बहुत कंट्राडिक्शन हैं।

कंट्राडिक्शन जरूरी हैं।

प्रश्नः जिस चीज को प्रीच करते हैं, एक पहले पेज पर उसे दूसरी कहानी में ठीक उसी को काटते... ?

 उतनी देर भी नहीं लगानी पड़ती। ठीक दूसरे वाक्य में, कभी तो उसी वाक्य के आधे हिस्से में उसको काटना पड़ता है, उसको काटना पड़ता है। बिल्कुल अनिवार्य हो जाता है उसे काटना। वह जो मैं कह रहा हूं कि सत्य जो है वह अपनी कंट्राडिक्ट्री को अपने भीतर लिए होता है, जिसको भी सत्य बोलना है, उसको कंट्राडिक्शंस में बोलना पड़ेगा। नहीं तो नहीं बोल सकता। अब जैसे कि उपनिषद ईशावास्य पर बोल रहा था एक सूत्र है--‘वह दूर से भी दूर और निकट से भी निकट है।’ आधे ही वाक्य में, उसी का आधा हिस्सा, तत्काल, यानि ऋषि इतनी जल्दी में है कि कहीं तुम पकड़ न लो पहले ही से। इसलिए एक पेज तक भी रुकना मुश्किल है। जरूरी नहीं है कि तुम पूरा पेज पढ़ो। तो ठीक उसी वाक्य के आधे हिस्से में, गलत करना पड़ेगा उसको जो आगे कहा। और वजह है करने की। बहुत गहरी वजह है। क्योंकि जब हम कहते हैं, दूर से भी दूर, तब हम आधी बात ही कह रहे हैं। और आधी बात यही है कि निकट से भी निकट। और दोनों बात एक साथ सच हैं। इन दोनों में से कोई भी एक कही गई होती, तो हम कहते कि कंसिस्टेंस बात है। दोनों एक साथ कहीं गईं तो कंट्राडिक्ट्री हैं। लेकिन जिस आदमी ने कहीं हैं, उसकी भी तकलीफ है। उसको दोनों बातें सच मालूम पड़ रही हैं। जहां तक उसका खुद का संबंध है, निकट से निकट, और जहां तक आपका संबंध है, जिससे वह कह रहा है दूर से दूर। जहां तक असलियत का संबंध है, निकट से निकट। और जहां तक यात्रा का संबंध है दूर से दूर।
करीब-करीब मामला ऐसा ही है, जैसे किसी पहाड़ पर चढ़ रहे हों। और बिल्कुल पास दिखाई पड़ती हो कोई चीज। और सच में ही पास है। अगर उड़ सकते। लेकिन बहुत दूर है, क्योंकि पूरे पहाड़ का गोल चक्कर काटना पड़ता है। तब जो इशारा कर रहा है, वह आधी बात कहेगा, अगर वह कहे कि बिल्कुल निकट। उसे दोनों बात कहनी चाहिए, बिल्कुल निकट भी कहना चाहिए क्योंकि सच में ही निकट है, यह दूसरी बात कि हम नहीं उड़ सकते इसमें उसके निकट होने का कोई कसूर नहीं है। दूर से भी दूर है, क्योंकि हमें यात्रा करनी पड़ेगी। ये दोनों बातें एक साथ ही कहनी पड़ेंगी मंगला। और दोनों एक साथ ही सच हैं। और जो एक को सच मानेगा वह गलती में पड़ेगा, और इन दोनों के हजार कारण हैं। यह तो कारण है ही कि वह पास है, और यह भी कारण है कि मार्ग दूर है। यह भी कारण है कि तुमसे कोई कहे कि वह पास है, ताकि तुम चल सको, और यह भी तुमसे कहे कि दूर है, ताकि तुम जल्दी निराश न हो जाओ। सिर्फ इतना कहे कि बहुत दूर है तो रुक भी सकते हो, बैठ भी सकते हो। आशा भी छोड़ सकते हो। तुम्हारी आशा को जगाने के लिए कहना जरूरी है कि बिल्कुल पास है। लेकिन अगर कहे कि बिल्कुल पास है, दो कदम चल कर तुम निराश भी हो सकते हो। इसलिए बिल्कुल कहना जरूरी है कि दूर भी है। यात्रा लंबी होगी। हालांकि जब तुम पहुंचोगी तब तुम पाओगी कि तुम्हारी जगह जहां तुम खड़ी थीं और जहां तुम आई हो, वहां फासला ना के बराबर है। इतना भी नहीं, जितना पहाड़ पर होता है। इतना भी नहीं। अंततः तो जहां हम पहुंचते हैं, हम आखिर में हंसते हैं और पाते हैं कि हम वहीं पहुंचे, जहां हम सदा से थे।
अब यह बड़ी कठिनाई है। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और बुद्ध से किसी ने पूछा कि आपने क्या पा लिया? बुद्ध ने कहा कि अब तुम यह मत पूछो, क्योंकि मैं कहूं तो या तो झूठ कहूं और या कुछ ऐसा कहूं जिससे तुम मुश्किल में पड़ो। फिर भी कहा कि नहीं, हमें कहें। तो उन्होंने कहा कि मैंने कुछ भी नहीं पाया, क्योंकि जो मुझे मिला ही हुआ था, वही पा लिया। अब यह बड़ी मुश्किल की बात है। जो मिला ही हुआ था उसको कहना कि पा लिया है, झूठ है। क्योंकि जो मिला ही हुआ था, उसको पाने का क्या अर्थ है? लेकिन फिर भी कहना पड़ेगा कि जो मिला ही हुआ था, उसी को पा लिया है। क्योंकि एक दिन तो था कि मुझे पता भी न था कि वह मेरे पास है, मेरा मुझे मिला हुआ है।
तो धर्म को तो विरोध की भाषा में बोलना ही पड़ेगा। तो मैं तो इसको कहता हूं कि जहां तुम विरोध पाओ, वहीं समझना कि कोई गहरा सत्य कहा गया है। और जहां तुम कोई विरोध न पाओ, फेंक देना उस किताब को कचरे में, क्योंकि उसमें कुछ गहरा है नहीं। नहीं तो विरोध होता ही। यानि जो किताब बिल्कुल कंसिस्टेंट या जो आदमी बिल्कुल कंसिस्टेंट मालूम पड़े, दो कौड़ी का समझना। क्योंकि गहराई पर विरोध अनिवार्य है।
तेतूलियन एक ईसाई फकीर हुआ। जब वह अगस्तीन के पास गया और अगस्तीन की उसने पहली दफा बात सुनी, तो जिन साथियों के साथ गया था बाहर आकर उन साथियों ने कहाः वी कैन नॉट बिलीव, ही इ.ज कंट्राडिक्ट्री। तेतूलियन ने कहाः दैट इ.ज दि रीजन टु बिलीव। आई हैव फॉलन इन लव विद ही, बिकाज ही इ.ज कंट्राडिक्ट्री। तेतूलियन ने कहा कि यही तो वजह हो गई उसके प्रेम में गिर जाने की, कि वह आदमी कंट्राडिक्ट्री नहीं है, उसके पास कुछ है। और तेतूलियन ने एक व्याख्या की हैः आई बिलीव इन गॉड, बिकाज इट इ.ज दि एप्सर्ट, इट इ.ज टोटली एप्सर्ट। ईश्वर में भरोसे से ज्यादा एप्सर्ट कोई बात नहीं हो सकती। क्योंकि ईश्वर के लिए न तो कोई प्रमाण मिलता, न कोई आधार मिलता। न कोई कहने वाला मिलता कि मैंने जान लिया है, क्योंकि जानने वाले कहते हैं कि हम कभी यह न कहेंगे कि भ्रम है। तो ईश्वर को विश्वास करने से ज्यादा एप्सर्ट क्या हो सकता है? लेकिन तेतूलियन कहता हैः बिकाज इट इ.ज एप्सर्ड, देयरफॉर आई बिलीव।
कोई सात सौ साल बाद थिलगॉड ने तेतूलियन पर एक वक्तव्य दिया था। और उसने कहा कि मैंने ईश्वर के संबंध में सारे आस्थावान लोगों के वक्तव्य पढ़े लेकिन तेतूलियन का मुकाबला नहीं है। वह कहता है कि एब्सर्ड है, इसलिए विश्वास करते हैं। और एब्सोल्यिटी वहीं खड़ी हो जाती है, जहां कंट्राडिक्शन है। और कंट्राडिक्शन अगर एब्सोल्यूट है, तब एब्सर्ड हो जाती है, बात बिल्कुल। और एब्सोल्यूट कंट्राडिक्शंस। लेकिन तुम्हारी समझ उस गहराई पर जाए, जहां कंट्राडिक्शंस मिलते हैं। जहां दोनों बात एक साथ सच होती हैं। और यह कुरान से नहीं जाएगी, गीता से कहीं से भी नहीं जाएगी, यह तुम्हारी समझ को ही सीधा, ले जाना पड़ेगा। और उसके रास्ते हैं। और उन रास्तों का न मुसलमान से कोई लेना-देना है, न हिंदू से कोई लेना-देना है, वे रास्ते बिल्कुल साइंटिफिक हैं। इसलिए भी मेरी समझ है कि वह बात गहरे में पहुंच जाती है। अगर रास्ता बिल्कुल साइंटिफिक है, उसका किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं, और बिल्कुल हाइपोथैटिकल और एक्सपेरिमेंटल है, तो समझ गहरी हो जाती है। और समझ गहरी होती है, कि तुम कहीं भी गहराई खोज पाओगे। कहीं भी गहराई खोज पाओगे, और ऐसा नहीं कि कुरान में कंट्राडिक्शन है, छोटे से फूल के पास कंट्राडिक्शन उतनी ही मौजूदगी में खड़ा हुआ है, वहीं कांटा खिला हुआ है, वहीं फूल खिला हुआ है। और कांटे और फूल के गहरे अस्तित्व में कोई कंट्राडिक्शन है? और वह मैनी डायमेन्ैशनल है। हां, मैनी डायमेन्शंस हैं और कंट्राडिक्ट्री हैं। और सब कंट्राडिक्शंस कांप्लिमेंट्री हैं। पर इसके लिए कोई लॉजिकल हिसाब नहीं बैठाया जा सकता, इसलिए डीपर अंडरस्टेंडिंग है। रास्ता... है और डीपर अंडरस्टेंडिंग मेथडालॉजी की बात है। कहीं से तोड़ना पड़े, और बेरियर्स टूटते हैं।
आप आएं न तब कुछ कहा जा सकता है।

 इतना पर्याप्त है आज के लिए।

प्रश्नः हमारे प्राचीन शास्त्रों में दिल और दिमाग, या मन और बुद्धि, इनका दर्शन में... मेडिकल साइंस मानता है कि ब्रेन और माइंड दो अलग नहीं है। मैं मेरी चिकित्सा के व्यवसाय में, यह मैं वर्षों से देखता हूं, रोगियों को जब मैं ठीक करता हूं-- तो मन एक अलग चीज है और दिमाग एक अलग चीज है। आपने अपने प्रवचन में बार-बार कई जगह पर बताया कि यह बात दिमाग से पैदा हुई, दिल को ऐसा हुआ। दिल और दिमाग ये दो भिन्न शब्द हैं? आपके चिंतन में हमारी जो शेयरींग है दिल और दिमाग अलग चीज है वह... ब्रेन और माइंड दोनों को पृथक नहीं मानते एक मानते हैं।

नहीं, ऐसा है मामला कि दिल और दिमाग दो चीजें हैं और मस्तिष्क और मन, ब्रेन और माइंड वे भी दो चीजें हैं। जब हम दिमाग कहते हैं, तो यह दोनों का इकट्ठा सूचक है। मन और मस्तिष्क का, ब्रेन और माइंड का इकट्ठा शब्द है दिमाग। ब्रेन जो है वह सिर्फ, तो कहना चाहिए मैकेनिकल स्ट्रक्चर है। जैसे बल्ब है, यह बल्ब और बिजली दो चीजें हैं? बल्ब तो सिर्फ स्ट्रक्चर है जिससे बिजली प्रकट होती है। हां, बल्ब के बिना प्रकट नहीं होगी, यह भी पक्का है, लेकिन बिजली के बिना भी नहीं प्रकट होगा बल्ब यहां से कोई...  यह भी पक्का है। तो वह जो फोर्स है, जो एनर्जी है, वह तो है माइंड, और जिससे वह प्रकट होती है, जो स्ट्रक्चर है उससे प्रकट होना तो वह है ब्रेन। तो माइंड और ब्रेन दो चीजें हैं। इन दोनों को इकट्ठा दिमाग कह सकते हैं। बुद्धि और मन को और हृदय बिल्कुल तीसरी चीज है। हृदय के लिए कोई जगह नहीं है आधुनिक विज्ञान में। मन की जगह तो रोज-रोज बनती जा रही है। नहीं थी तीस साल पहले तक। तीस साल पहले तक का जो भी प्रभाव था वह यह था कि ब्रेन पर्याप्त था और ठीक था। ठीक इसलिए नहीं कि यह सच है, ठीक इसलिए कि जब तक एक्सपेरीमेंटली कुछ सिद्ध न हो मानना भी नहीं चाहिए।
मैं मानता हूं कि अनुपयुक्त थी यह बात, क्योंकि साइंस जितनी खोज-बीन करती थी उसमें ब्रेन ही पकड़ में आता था, माइंड जैसी कोई चीज पकड़ में नहीं आती थी। अगर एक अजनबी आदमी को हम इस कमरे में ले आएं और एक बल्ब को उसे बता दें, और उसने कभी बिजली को न जानता रहा हो, उसकी समझ में बिजली कभी पकड़ में नहीं आ सकती, उसकी पकड़ में बल्ब आएगा? और अगर वह बल्ब को... खींच लेगा, तो बिजली तो विदा हो जाएगी, बल्ब हाथ में रह जाएगा। अगर वह बल्ब को लकड़ी मार कर फोड़ देगा, तो बिजली भी विदा हो जाएगी और बल्ब भी फूट जाएगा। तो सब तरह के प्रयोग करके वह यह कहेगा कि बल्ब ही है, क्योंकि बल्ब फूट जाता है तो प्रकाश भी नहीं रह जाता। और बल्ब अलग कर लेता हूं तब भी प्रकाश नहीं रह जाता। दोनों से उसको इनपीरियाडिकली यह सिद्ध होगा कि बल्ब ही सब कुछ है।
 लेकिन यह बहुत प्राथमिक खोज हुई। तो आज से तीस साल पहले तक उन्नीस सौ तीस तक से साइंस का यही खयाल था कि ब्रेन ही सब कुछ है। लेकिन इधर तीस साल में जो सांइटिस्ट रिसर्च हुई है उसने हजार तरह से प्रमाण दिए कि ब्रेन से अतिरिक्त भी कुछ है और ब्रेन के पीछे भी कोई काम कर रहा है, ब्रेन जो है वह सिर्फ ढांचा है, एनर्जी कोई और काम कर रही है। और यह स्वभावतः बहुत बाद में पता चलने वाला था, क्योंकि एनर्जी को पकड़ना उतना आसान मामला नहीं है, जितना मैटर को पकड़ लेना आसान है। इसलिए साइंस आज से बीस साल, तीस साल पहले तक मैटर को ही कह रही थी कि मैटर ही सब कुछ है। जब एटम का विस्फोट किया तब उसे पता चला कि मैटर तो कुछ भी नहीं है, असली चीज तो एनर्जी है। लेकिन इतने गहरे जाने पर, मैं मानता हूं कि साइंस की एप्रोच उचित है, जो इंपीरियाडिकली सिद्ध न हो उसको मानना नहीं चाहिए। उसको इनकार भी करने की कोई जरूरत नहीं है, जितना सिद्ध हो उसको ही मानना चाहिए।
अब तो बहुत साफ है कि माइंड की वर्किंग बहुत भिन्न है और ब्रेन की वर्किंग बहुत भिन्न है। और यह भी साफ है कि ब्रेन के बिना वर्किंग के भी माइंड वर्क कर रहा है।
अब जैसे कि मैडम क्यूरी है, अब यह दिन भर मेहनत कर रही है। दिन भर मेहनत करके हिसाब लगा रही है और हिसाब नहीं पकड़ में आ रहा। उसका ब्रेन तो पूरा इनवाल्वड है, वह पूरी ताकत लगा रहा है। फिर यह रात सो गई और नींद में उठ कर इसने सवाल कर लिया गणित का और फिर सो गई। और सुबह उठी और उसने कहा, बड़ी हैरानी हुई, ये उत्तर मेरे हैं? सपने में मुझे खयाल जरूर था कि मैं कुछ लिख रही हूं। ये तो उत्तर हैं मैं जो खोज रही थी।
मैडम क्यूरी जिस उत्तर को खोज रही थी, वह सुबह फिर भी मुश्किल में पड़ गई। उत्तर तो सामने हैं लेकिन प्रोसेस क्या है? तो ब्रेन तो उसके पास जागने में भी था, ब्रेन तो उसके पास सुबह जाग कर फिर है, लेकिन कोई और चीज बीच में वर्क की है जो अब नहीं है और शाम को नहीं है। माइंड वर्क कर गया।
असल में कई बार ऐसा होता है जब आपको भी पता चलता है कि माइंड की वर्किंग आपके ब्रेन की वर्किंग से अलग है, आपसे थोड़ी अलग है।
एक आदमी का नाम आप याद कर रहे हैं, वह नहीं आ रहा याद, नहीं आ रहा याद, फिर आप थक गए, परेशान हो गए, और आप कहते हैं, जीभ पर रखा हुआ है। बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं। आप कहते हैं, जीभ पर रखा हुआ है, तो आ क्यों नहीं रहा? आ नहीं रहा और जीभ पर रखा हुआ है। आपको पक्का मालूम है कि मालूम है। और यह भी मालूम है कि बिल्कुल रखा है, अभी, अभी निकल आएगा। फिर भी कह रहे हैं कि नहीं आ रहा। तो ब्रेन तो पूरा काम कर रहा है, लेकिन माइंड साथ नहीं दे रहा है। आप फिर छोड़ दिए जाकर सिगरेट पीने लगे, ताश खेलने लगे, बगीचे में काम करने लगे, और अचानक वह बब्बलअप हो गया, अब वह आ गया, कि यह नाम था। अब यह कहां से आ गया?
असल में ब्रेन आपका इतना टेंस हो गया था सोचते वक्त, कि शायद उतने नेरो ब्रेन में वह पकड़ में नहीं आ रहा था, फोकस छोटा हो गया था ब्रेन का, उतनी एनर्जी उसको नहीं पहुच पा रही थी... अब आप रिलैक्स हो गए... आराम से मिल गई। ब्रेन का फोकस बड़ा हो गया। अब आप कुछ खोज नहीं रहे। नेरोनेस चली गई, वह बब्बलप हो गया, वह निकल कर बाहर आ गया। वह तब भी आना चाह रहा था, इसलिए आप कह रहे थे जीभ पर रखा है। वह तो पूरी कोशिश कर रहा था माइंड से ब्रेन में आने की। जीभ पर रखे होने का मतलब यह है कि माइंड पूरा अहसास कर रहा है कि मुझे मालूम है, लेकिन ब्रेन प्रकट नहीं कर पा रहा। बल्ब जल नहीं रहा और पक्का लग रहा है कि एनर्जी पूरी दौड़ रही है कि इलेक्ट्रिसिटी मौजूद है लेकिन बल्ब पकड़ नहीं पा रहा।
तो ढेर दफा आपको जो पता लगेगा कि माइंड की और ब्रेन की वर्किंग में फर्क है। और एक मजे की बात है जो अभी खयाल में आनी शुरू हुई, वह खयाल में यह आनी शुरू हुई कि अगर आपके ब्रेन का कोई एक हिस्सा तोड़ दिया जाए, जैसे हमारे ब्रेन के सब हिस्से अलग-अलग काम करते हैं--कोई हिस्सा सुनता है, अगर इसको तोड़ दिया जाए, तो आप सुनना बंद कर देंगे। कोई हिस्सा देखता है, अगर वे नर्वज काट दी जाएं, तो आप देखना बंद कर देंगे। कोई आदमी गिर जाए एक्सीडेंट खाकर, तो कहीं चोट खाया, तो वह हिस्सा अगर मर जाए ब्रेन का तो उतना काम बंद हो जाएगा, लेकिन बड़े मजे की बात है कि अगर वह कभी हिस्सा बंद हो जाए और आप बहुत संकल्पपूर्वक चेष्टा करें फिर उसको काम को करने की, आपके ब्रेन का दूसरा हिस्सा वह फंक्शन ले लेगा, जो सबसे बड़े मजे की बात है। जैसे कि मैं दाएं हाथ से लिखता हूं, मेरा दायां हाथ कट जाए, बाएं हाथ से मैंने कभी नहीं लिखा, लिखता था तो नहीं लिखा जाता था, लेकिन अब अगर मैं कोशिश करूं तो मैं बाएं हाथ से लिख सकूंगा। अच्छा मजे की बात यह है कि दाएं हाथ के ब्रेन की नब्ज अलग है और बाएं हाथ के ब्रेन की नब्ज अलग है। दाएं हाथ की नब्ज तो ट्रेंड थी तो वह काम कर रही थी ब्रेन पर। लेकिन माइंड ट्रेंड है वह दोनों के लिए बराबर है, इसलिए जो दाएं हाथ से काम ले रहा था वह अब बाएं से लेने लगेगा, थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन वर्किंग बदल देगा।
इसलिए माइंड की अलग स्थिति रोज-रोज साफ होती जा रही है। और बहुत सी तरकीबों से साफ हुई है वह। क्योंकि अभी मैं जैसे आपसे बोल कर कुछ कह रहा हूं, तो मेरे ब्रेन का मुझे उपयोग करना पड़ रहा है। आपको भी सुनने के लिए ब्रेन का उपयोग करना पड़ रहा है। इस बात की संभावना है कि मैं चुप बैठ जाऊं और आप भी चुप बैठ जाएं, और मैं आपसे कुछ बिना बोले बोल दूं, न तो मेरा ब्रेन काम करे, न आपका ब्रेन काम करे और ट्रांसफर हो जाए। तो टेलीपैथी ने जितना प्रयोग किया है उससे साफ हो गया कि ब्रेन के बिना भी माइंड ट्रांसफर संभव है। इसलिए माइंड के अलग होने की स्थिति बहुत साफ हो गई है। और पुरानी स्थिति वही थी, लेकिन होता क्या, जैसे धर्म में डाग्मेटिक्स होते हैं ऐसे साइंड में भी डाग्मेटिक्स होते हैं। असल में डाग्मेटिज्म मन की एक बीमारी है, जो सब तरह के लोगों में होती है। तो सांइटिस्ट भी नये को स्वीकार करने में उतनी मुसीबत करता है जितनी मुसीबत धार्मिक करता है, यानी कोई फर्क नही है बहुत।
अक्सर दिक्कत यह हो जाती है, पचास साल लग जाते हैं उसको स्वीकृत होने में। युनिवर्सिटी कोर्स तक आने में पचास साल की यात्रा करनी पड़ती है किसी भी खोज को। और जब तक वह युनिवर्सिटी में जाए जब तक युनिवर्सिटी के डाक्टर को राजी। प्रोफेसर मोस्ट ऑर्थाडाक्स होता है दुनिया में, इनसे ज्यादा कोई आर्थोडाक्स कोई नहीं हो सकता। एक तो उनकी शिक्षा तीस-चालीस साल पहले हुई होती है, तीस-चालीस साल में अगर दुनिया बदल गई होती है, वे अपने रूम में बैठ रहते जहां वे पढ़े थे, वे करीब-करीब वही पढ़ाते रहते, उनको नया बड़ा मुश्किल पड़ जाता है। उनको तो नए का कुछ पता नहीं होता। पुरानी दुनिया में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि पुरानी दुनिया में जीसस के मरने के सा.ढ़े अठारह सौ साल में जितना ज्ञान विकसित हुआ उतना पिछले डेढ़ सौ वर्षों में हुआ। और जितना डेढ़ सौ वर्षों में हुआ उतना पिछले पंद्रह वर्षों में हुआ। और जितना पंद्रह वर्षों में हुआ उतना पिछले पांच वर्षों में हुआ। तो जितना ज्ञान अठ्ठारह सौ वर्षों में विकसित होता था उतना अब पांच वर्ष में होता है।
अभी मैं देख रहा था कि अगर साइंस जितनी जोर से डिस्कवरीज कर रही है और रिसर्च कर रही है, अलग सौ साल गति इतनी ही रही तो साइंटिफिक रिसर्च से जो कागजात पैदा होंगे उनका जमीन से वजन ज्यादा हो जाएगा। अब तो इतनी मुश्किल हो जाएगी, कि रखने का उपाय नहीं है। टोटल जमीन से वजन ज्यादा हो जाएगा, सौ साल अगर इस हालत में गति चली तो। इसलिए चला नहीं सकते अब हम गति को। या फिर हमें यबर रखनी पड़ेगी... माइक्रो बुक्स आ गई हैं, अब आप इतनी बड़ी किताब रखेंगे तो कहां रखेंगे पचास साल बाद? इतनी बड़ी किताब इस दुनिया में रखेंगे, आदमी रहेगा या किताबें रहेंगी?
एक छोटी किताब जिसमें करीब-करीब बाइबिल के हैसीयत की सात सौ किताबें एक नाखून के बराबर हिस्से में आ जाएगी--माइक्रो--उसको फिल्म पर देखना पड़ेगा। अब किताब पढ़ी नहीं जाएगी, देखी जाएगी भविष्य में।

प्रश्नः प्रॉब्लम होता होगा न लाइब्रेरी में।

हां, बहुत प्रॉब्लम हो गया, बहुत प्रॉब्लम हो गया। अब दिक्कत नहीं है। अब साइंस तो करीब-करीब स्वीकार कर रही है। इसलिए साइंस अब बहुत सुंदर भविष्य आ रहा है। और रिलिजियन जिन बातों को कभी सिद्ध नहीं कर पाता था, सिर्फ कहता था, साइंस उनको सिद्ध नहीं कर पा रही है। क्योंकि रिलिजियन कह ही सकता था, वह उसकी कमजोरी है। उसकी खूबी यह थी कि वह वे बातें कह सकता था जो सिद्ध नहीं हो पाई थीं। ... यह उसकी उंचाई थी और बड़ा काम है उसका कि मैं वे बातें कह सकूं जो सौ साल बाद सिद्ध हो। हालांकि आज मेरी कोई मानेगा नहीं, तो मुझे आज तो पागल बनना ही पड़ेगा, लेकिन सौ साल पहले कि इनसाइट की कीमत कोई... इनसाइट के आधार पर सौ साल में फिर रिसर्च होगी, काम होगा।
तो रिलिजियन ने वे सब बातें कह दीं जो साइंस भविष्य में सिद्ध करेगी। यह मेरा मानना है कि रिलिजियन जो है वह प्रोफेसी और साइंस जो है वे एक्सपेरीमेंट है। इसलिए प्रोफेसी को सिद्ध नहीं किया जा सकता, प्रोफेसी सिर्फ इनसाइट है। कह सकते हैं कि ऐसा हो सकता है, कह नहीं सकते कि ऐसा होता है। इसलिए साइंटिस्ट को अपने वक्तव्य में बहुत जोर दे सकता है। रिलिजियस आदमी को हम्बल होना चाहिए। मगर होता उलटा है। रिलीजियस आदमी बहुत एब्सोल्यूट होता है कि बिल्कुल ऐसा है। और सांइटिस्ट आदमी हमेशा अनएक्सपेक्टड होता है, वह कहता है--ऐसा हो सकता है, ऐसा नहीं भी हो सकता। होना चाहिए उलटा, रिलिजियस आदमी को कभी भी नहीं बोलना चाहिए, परहेप्स के बिना बोलना ही नहीं चाहिए, कहना चाहिए कि शायद। लेकिन वह सिर्फ प्रोफेस कर रहा है। उसको कुछ दिखाई पड़ा है, जिसको अभी प्रमाण नहीं दिया जा सकता। प्रमाण कल दुनिया खोजेगी, वक्त लगेगा, लेकिन वह खोजना जरूर है... । साइंस भी अब ऐसा काम कर रही है। इसलिए प्योर साइंस अलग डवलप हो रही है। प्योर साइंस का काम प्रोफेसी का हो गया।
आइंस्टीन ने कुछ ऐसी बातें कही हैं जिनको सिद्ध होने में शायद हजार वर्ष लगेंगे। अभी सिद्ध नहीं हो सकती। लेकिन आइंस्टीन भरोसे का आदमी है। उसकी और बातें सिद्ध हो गई हैं इसलिए उसकी इन बातों का भी खयाल रखना पड़ेगा, बिल्कुल हिट हो गई हैं। उसकी प्रोफेसी तो ऐसी है जो रिलिजियस आदमी ने भी नहीं की। उसकी एक प्रोफेसी बहुत गजब की है। वह सिद्ध हो जाएगी। शायद डेढ़ सौ वर्ष लग जाएंगे। वह उसकी प्रोफेसी यह है कि अगर हम आदमी को सूर्य की किरण की गति के यान में बैठा सकें, तो एजस बीत जाएंगी, उसकी उम्र नहीं बढ़ेगी। अगर एक आदमी जमीन से सूरज की किरणों की गति से एक हवाई जहाज में चले, अगर वह तीस साल का है और सौ साल बाद लौटे तो तीस साल का ही होगा। और जमीन पर सब लोग मर चुके होंगे। और वह जवान का जवान उसी उम्र में वापस लौटेगा। उतनी स्पीड पर एज में वृद्धि नहीं होगी।
अब अभी इसको सिद्ध करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि पहले तो इतनी स्पीड मुश्किल। क्योंकि कोई भी मैटर उतनी स्पीड पर टिकता नहीं, लाइट हो जाता है। मगर कभी यह हो जाएगा, क्योंकि उसका जितना भी कहना है उस कहने में भारी संभावना है।
... हां क्या?


प्रश्नः एक कुत्ते की फिल्म बनाई उन लोगों ने... सूर्य की गति से ही चलते रहे। उसके बाद आते है तब... यहां बंदरों का राज्य।

बंदरों का राज्य नहीं है वह। एक आंइस्टीन मजाक किया करता था... इस बाबत कल्याझ जी के काम का होगा। आइंस्टीन कहा करता था कि तीसरा महायुद्ध हो गया, भूल हो जाए, आग ही आग, सब जल गया सब नष्ट हो गया। एक बंदर एक गुफा से निकलता है और अपनी बंदरिया से कहता है, क्या हम फिर से शुरू करें? डार्विन के हिसाब से वह कहता है। कहां... मे बिगिन... अगेन। वही सब उपद्रव जो आदमी का हुआ। क्या हम फिर से शुरू करें? बच्चे पैदा करें? इधर तो सब खत्म हो गया जो किया था हमारे बापदादों ने, वह तो सब खत्म हो गया। तो बंदर का ही बंदर नहीं बचने देंगे आदमी की संख्या को। क्योंकि बेटे बाप से बदला लेते हैं। बंदरों को भी खत्म कर डालेंगे साथ में--ऐसा डर था उनका।


समाप्त 

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