नव संन्यास क्या?
प्रवचन-छट्ठवां
संन्यास का एक नया अभियान जो भी मैं कह रहा हूं, संन्यास के संबंध में ही कह रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और जिस संन्यास की मैं बात कर रहा हूं, वह वही संन्यास है जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं- करते हुए अकर्ता हो जाना, करते हुए भी ऐसे हो जाना जैसे मैं करनेवाला नहीं हूं। बस संन्यास का यही लक्षण है। गृहस्थ का क्या लक्षण है? गृहस्थ का लक्षण है, हर चीज में कत्र्ता हो जाना। संन्यासी का लक्षण है, हर चीज में अकत्र्ता हो जाना। संन्यास जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में घर का फर्क नहीं है, ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में जगह का फर्क नहीं है, भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में परिस्थिति का फर्क नहीं है, मनः स्थिति का फर्क है। संसार में जो है .....हम सभी संसार में ही होंगे। कोई कहीं हो- जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, गिरि-कंदराओं में बैठे, संसार के बाहर जाने का उपाय नहीं है- परिस्थिति बदलकर नहीं है! संसार से बाहर जाने का उपाय है मनः स्थिति बदलकर, बाई द म्यूटेशन आकृफ द माइंड, मन को ही रूपांतरित करके। मैं जिसे संन्यास कह रहा हूं वह मन को रूपांतरित करने की एक प्रक्रिया है। दो-तीन उसके अंग हैं, उनकी आपसे बात कर दूं। पहला तो, जो जहां है, वहां से हटे नहीं। क्योंकि हटते केवल कमजोर हैं।भागते केवल वे ही हैं जो भयभीत हैं। और जो संसार को ही झेलने में भयभीत है, वह परमात्मा को नहीं झेल सकेगा, यह मैं आपसे कह देता हूं, जो संसार का ही सामना करने में डर रहा है वह परमात्मा का सामना कर पाएगा? नहीं कर पाएगा, यह मैं आपसे कह देता हूं। संसार जैसी कमजोर चीज जिसे डरा देती है, परमात्मा जैसा विराट् जब सामने आएगा तो उसकी आंखें ही झप जाएंगी, वह ऐसा भागेगा कि फिर लौटकर देखेगा भी नहीं। यह क्षुद्र-सा चारों तरफ जो है, यह डरा देता है तो उस विराट् के सामने खड़े होने की क्षमता नहीं होगी। और फिर अगर परमात्मा यही चाहता है कि लोग सब छोड़कर भाग जाएं तो उसे सबको सब में भेजने की जरूरत ही नहीं रह जाती। नहीं, उसकी मर्जी और मंशा कुछ और है। मर्जी और मंशा यही है कि पहले लोग क्षुद्र को, आत्माएं क्षुद्र को सहने में समर्थ हो जाएं, ताकि विराट् को सह सकें। संसार सिर्फ एक प्रशिक्षण है, एक ट्रेनिंग है। इसलिए जो ट्रेनिंग को छोड़कर भागता है उस भगोड़े को, एस्केपिस्ट को मैं संन्यासी नहीं कहता हूं। जीवन जहां है, वहीं है। संन्यासी हो गए, फिर तो भागना ही नहीं। पहले चाहे भाग भी जाते तो मैं माफ कर देता। संन्यासी हो गए फिर तो भागना ही नहीं, फिर तो वहीं जमकर खड़े हो जाना है। क्योंकि फिर अगर संन्यास संसार के सामने भागता हो तो कौन कमजोर है, कौन सबल है?
फिर तो मैं कहता हूं कि अगर संन्यास इतना कमजोर है कि भागना पड़ता है तो फिर संसार ही ठीक है। फिर सबल को ही स्वीकार करना उचित है। तो पहली तो बात मेरे संन्यास की है कि भागना मत! जहां खड़े हैं जिंदगी की सघनता में पैर जमाकर ....लेकिन उसे प्रशिक्षण बना लेना। उस सबसे सीखना, उस सबसे जागना, उस सबको अवसर बना लेना। पत्नी होगी पास, भागना मत! क्योंकि पत्नी से भागकर कोई स्त्री से नहीं भाग सकता। पत्नी से भागना तो बहुत आसान है। पत्नी से तो वैसे ही भागने का मन पैदा हो जाता है, पति से भागने का मन पैदा हो जाता है। जिसके पास हम होते हैं उससे ऊब जाते हैं। नए की तलाश मन करता है। पत्नी से भागना बहुत आसान है। भाग जाएं, फिर भी स्त्री से न भाग पाएंगे। और जब पत्नी-जैसी स्त्री को निकट पाकर स्त्री से मुक्त न हो सके तो फिर कब मुक्त हो सकेंगे? अगर पति जैसे प्रीतिकर मित्र को निकट पाकर पुरुष की कामना से मुक्ति न मिली तो फिर छोड़कर कभी न मिल सकेगी। इस देश ने पति और पत्नी को सिर्फ ‘काम’ का उपकरण नहीं समझा, सेक्स वासना का साधन नहीं समझा है। इस मुल्क की गहरी समझ आज भी कुछ और है, और वह यह है कि पति-पत्नी प्रारंभ करें वासना से और अंत हो जाएं निर्वासना पर। इसमें वे एक-दूसरे के सहयोगी बनें।
स्त्री सहयोगी बने पुरुष की, कि पुरुष स्त्री से मुक्त हो जाए। पुरुष सहयोगी बने पत्नी का, कि पत्नी पुरुष की कामना से मुक्त हो जाए। यह अगर सहयोगी बन जाएं तो बहुत शीघ्र निर्वासना को उपलब्ध हो सकते हैं। लेकिन ये इसमें सहयोगी नहीं बनते। पत्नी डरती है कि कहीं पुरुष निर्वासना को उपलब्ध न हो जाए। वह डरी रहती है। अगर पति मंदिर जाता है तो वह ज्यादा चैंकती है; सिनेमा जाता है, तो विश्राम करती है। पति चोर हो जाए समझ में आता है- प्रार्थना, भजन-कीर्तन करने लगे तो समझ में बिल्कुल नहीं आता है- खतरा है! पति भी डरता है कि पत्नी कहीं निर्वासना में न चली जाए। अजीब है हालत। हम एक-दूसरे का शोषण कर रहे हैं इसलिए इतने भयभीत हैं। हम एक-दूसरे के मित्र नहीं हैं। क्योंकि मित्र तो वही है जो वासना के बाहर ले जाए। क्योंकि वासना दुःख है, और वासना दुष्पूर है। वासना कभी भरेगी नहीं। वासना में हम ही मिट जाएंगे, वासना नहीं मिटेगी। तो मित्र तो वही है, पति तो वही है, पत्नी तो वही है, जो वासना से मुक्त करने में साथी बने। और तब शीघ्रता से यह हो सकता है। इसलिए मैं कहता हूं पत्नी को मत छोड़ो, पति को मत छोड़ो, किसी को मत छोड़ो- इस प्रशिक्षण का उपयोग करो। हां, इसका उपयोग करो परमात्मा तक पहुंचने के लिए, संसार को बनाओ सीढ़ी। संसार को दुश्मन मत बनाओ, बनाओ सीढ़ी। चढ़ो उस पर, उठो उससे। उससे ही उठकर परमात्मा को छुओ। और संसार सीढ़ी बनने के लिए है। इसलिए यह पहली बात! दूसरी बातः संन्यास अब तक सांप्रदायिक रहा है जो कि दुःखद है, जो कि संन्यास को गंदा कर जाता है। संन्यास धर्म है, संप्रदाय नहीं। गृहस्थ संप्रदायों में बंटा हो, समझ में आता है। उसके कारण हैं। जिसकी दृष्टि बहुत सीमित है, वह जो विराट् है उसे पकड़ नहीं पाता है। वह हर चीजों में सीमा बनाता है, हर चीज को खंडों में बांट लेता है तभी पकड़ पाता है। आदमी-आदमी की सीमाएं हैं।
अगर आप बीस आदमी पिकनिक को जाएं तो आप पाएंगे कि पिकनिक पर आप पहुंचे कि चार-पांच ग्रुप में टूट जाएंगे। बीस आदमी इकट्ठे नहीं रहेंगे। तीन-तीन, चार-चार की टुकड़ी हो जाएगी। सीमा है- तीन-तीन, चार-चार में टूट जाएंगे, अपनी-अपनी बातचीत शुरू कर देंगे। दो-चार हिस्से बन जाएंगे। बीस आदमी इकट्ठे नहीं हो पाते हैं, ऐसी आदमी की सीमा है। सारी मनुष्यता एक है, यह साधारण आदमी की सीमा के बाहर है सोचना। सब मंदिर, सब मस्जिद उसी परमात्मा के हैं, यह सोचना मुश्किल है। साधारण की सीमा के लिए कठिन होगा लेकिन संन्यासी असाधारण होने की घोषणा है। तीसरी बातः संन्यास धर्म में प्रवेश है- हिंदू-धर्म में नहीं, मुसलमान- धर्म में नहीं, ईसाई-धर्म में नहीं, जैन-धर्म में नहीं- धर्म में। इसका क्या मतलब हुआ? हिंदू-धर्म के खिलाफ- नहीं! इस्लाम-धर्म के खिलाफ- नहीं! जैन-धर्म के खिलाफ- नहीं! वह जो जैन-धर्म में धर्म है उसके पक्ष में और जो जैन है उसके खिलाफ। और वह जो हिंदू-धर्म में धर्म है उसके पक्ष में, और वह जो हिंदू है उसके खिलाफ। और वह जो इस्लाम-धर्म में धर्म है उसके पक्ष में और वह जो इस्लाम है उसके खिलाफ- सीमाओं के खिलाफ और असीम के पक्ष में! आकार के खिलाफ और निराकार के पक्ष में!
संन्यासी किसी धर्म का नहीं, सिर्फ धर्म का है। वह मस्जिद में ठहरे, मंदिर में ठहरे, कुरान पढ़े, गीता पढ़े, महावीर, बुद्ध, लाओत्से, नानक जिससे उसका प्रेम हो, उससे प्रेम करे। लेकिन जाने कि जिससे वह प्रेम कर रहा है यह दूसरों के खिलाफ घृणा का कारण नहीं, बल्कि यह प्रेम ही उसकी सीढ़ी बनेगी उस अनंत में छलांग लगाने के लिए, जिसमें सब एक हो जाता है। नानक को बनाएं सीढ़ी; बुद्ध, मुहम्मद को बनाना चाहें, बुद्ध-मुहम्मद को बनाएं! कूद जाएं वहीं से, पर कूदना है अनंत में! और इस अंनत का स्मरण रहे तो इस पृथ्वी पर दो घटनाएं घट सकती हैं। संन्यासी जहां है वहीं रहे तो करोड़ों संन्यासी सारी पृथ्वी पर हो सकते हैं। संन्यासी छोड़कर भागे तो ध्यान रखना भविष्य में बीस साल, पच्चीस साल के बाद, इस सदी के पूरे होते-होते संन्यास अपराध होगा, क्रिमिनल एक्ट हो जाएगा। रूस में हो गया, चीन में हो गया, आधी दुनिया में हो गया। आज रूस और चीन में कोई संन्यासी होकर नहीं रह सकता। क्योंकि वे कहते हैं, जो करेगा मेहनत वह खाएगा। जो मेहनत नहीं करेगा वह शोषक है, एक्सप्लायटर है, उसको हटाओ, वह अपराधी है। वहां संन्यास बिखर गया। चीन में बड़ी गहरी परंपरा थी संन्यास की, वह बिखर गयी, टूट गयी, मॉनेस्ट्रीज उखड़ गयीं। तिब्बत गया ....शायद पृथ्वी पर सबसे ज्यादा गहरे संन्यास के प्रयोग तिब्बत ने किए हैं, लेकिन सब मिट्टी हो गया! हिंदुस्तान में भी ज्यादा देर नहीं लगेगी। लेनिन ने कहा था उन्नीस सौ बीस में कि कम्युनिज्म का रास्ता मास्को से पेकिंग और पेकिंग से कलकत्ता होता हुआ लंदन जाएगा। कलकत्ते तक पदचाप सुनायी पड़ने लगे हैं। लेनिन की भविष्यवाणी सही होने का डर है। संन्यास अब तो एक तरह से बच सकता है कि संन्यासी स्व-निर्भर हो- समाज पर, किसी पर निर्भर होकर न जिए। तभी हो सकता है स्व-निर्भर जब वह संसार में हो- भागे न! अन्यथा संन्यासी संसार से भागकर स्व-निर्भर कैसे हो सकता है?
थाइलैंड में चार करोड़ की आबादी है, बीस लाख संन्यासी हैं वहां। मुल्क घबरा गया, लोग परेशान हो गए। बीस लाख लोगों को चार करोड़ की आबादी कैसे खिलाए, कैसे पिलाए, क्या करे! अदालतें विचार करती हैं वहां, कानून बनाने का संसद निर्णय लेती है कि कोई सख्त नियम बनाओ, कानून बनाओ, कि सिर्फ सरकार जब आज्ञा दे किसी आदमी को तभी वह संन्यासी हो सकता है। यदि संन्यास की आज्ञा सरकार से लेनी पड़े तो उसमें भी रिश्वत हो जाएगी। उसमें भी जो रिश्वत लगा सकेगा वह संन्यासी हो जाएगा। यदि संन्यासी होने के लिए रिश्वत देनी पड़ेगी, कि सरकारी लाइसेंस लेना पड़ेगा तो फिर संन्यास की सुगंध, संन्यास की स्वतंत्रता कहां रह जाएगी? इसलिए मैं यह देखता हूं भविष्य को ध्यान में रखकर कि अब संन्यास का एक नया अभियान होना चाहिए जिसमें कि संन्यासी घर में होगा, गृहस्थ होगा, पति होगा, पिता होगा, भाई होगा। शिक्षक, दुकानदार, मजदूर- वह जो है, वही होगा। वह सबका होगा। सब धर्म उसके अपने होंगे, वह सिर्फ धार्मिक होगा। धर्मों के विरोध ने दुनिया को बहुत गंदी कलह से भर दिया। इतना दुःखद हो गया सब कि ऐसा लगने लगा कि धर्मों से शायद फायदा कम हुआ, नुकसान ज्यादा हुआ। जब देखो तब धर्म के नाम पर खून बहता है। और जिस धर्म के नाम पर खून बहता हो अगर बच्चे उस धर्म को इनकार कर दें, और जिन पंडितों की बकवास से खून बहता हो अगर बच्चे उन पंडितों को ही इनकार कर दें और कहें कि बंद करो तुम्हारी किताबें, तुम्हारी कुरान और गीताएं, तुम्हारे शास्त्र- अब नहीं चाहिए, तो कुछ आश्चर्य तो नहीं है, स्वाभाविक है! यह बंद करना पड़ेगा। यह बंद हो सके, इसका एक ही रास्ता है। और वह रास्ता यह है कि संन्यास का फूल इतना ऊंचा उठे सीमाओं से कि सब धर्म उसके अपने हो जाएं और कोई एक धर्म उसका अपना न रहे तो हम इस पृथ्वी को जोड़ सकते हैं।
अब तक धर्मों ने तोड़ा है, उसे कहीं से जोड़ना पड़ेगा। इसलिए मैं कहता हूं कि हिंदू आएं, मुसलमान आएं, जैन आएं, ईसाई आएं। उसे चर्च में प्रार्थना करनी हो वह चर्च में करे- मंदिर में तो मंदिर में, स्थानक में तो स्थानक में, मस्जिद में तो मस्जिद में! उसे जहां जो करना हो, करे! लेकिन वह अपने मन से संप्रदाय का विशेषण अलग कर दे, मुक्त हो जाए, सिर्फ संन्यासी हो जाए, सिर्फ धर्म का हो जाए। यह दूसरी बात है। और तीसरी बातः मेरे संन्यास में सिर्फ एक अनिवार्यता है, एक अनिवार्य शर्त है और वह है ‘ध्यान’। बाकी कोई व्रत, नियम ऊपर से मैं थोपने के लिए राजी नहीं हूं। क्योंकि जो भी व्रत और नियम ऊपर से थोपे जाते हैं वे पाखंड का निर्माण कर देते हैं। सिर्फ ध्यान की विधि, टेक्नीक संन्यासी सीखे, प्रयोग करे, ध्यान में गहरा उतरे। और मेरी अपनी समझ और सारी मनुष्य जाति के अनुभव का सार-निचोड़ यह है कि जो ध्यान में गहरा उतर जाए वह योगाग्नि में ही गहरा उतर रहा है। उसकी वृत्तियां भस्म हो जाती हैं, उसके इंद्रियों के रस खो जाते हैं। वह धीरे-धीरे सहज- जबरदस्ती नहीं, बलात् नहीं, सहज- रूपांतरित होता चला जाता है।
उसके भीतर से ही सब बदल जाता है। उसके बाहर के सब संबंध वैसे ही बने रहते हैं, वह भीतर से बदल जाता है। इसलिए सारी दुनिया उसके लिए बदल जाती है। ध्यान के अतिरिक्त संन्यासी के लिए और कोई अनिवार्यता नहीं है। यह कपड़े आप देखते हैं गैरिक- संन्यासी पहने हुए हैं। यह सुबह जैसा मैंने कहा, गांठ बांधने जैसा इनका उपयोग है। चैबीस घंटे याद रह सकेगा, स्मरण, रिमेंबरिंग रह सकेगा कि मैं संन्यासी हूं। बस, यह स्मरण इनको रह सके इसलिए इन्हें गैरिक वस्त्र दे दिए हैं। गैरिक वस्त्र भी जानकर दिए हैं, वे अग्नि के रंग के वस्त्र हैं। भीतर भी ध्यान की अग्नि जलानी है, उसमें सब जला डालना है। भीतर भी ध्यान का यज्ञ जलाना है, उसमें सब आहुति दे देनी है। उनके गलों में आप मालाएं देख रहे हैं। उन मालाओं में एक सौ आठ गुरिए, वह एक सौ आठ ध्यान की विधियों के प्रतीक हैं। और उन्हें स्मरण रखने के लिए दिया है कि वह भलीभांति जानें कि चाहे अपने हाथ में एक ही गुरिया हो, लेकिन और एक सौ सात मार्गों से भी मनुष्य पहुंचा है, पहुंच सकता है। और एक सौ आठ गुरिए कितने ही अलग हों, उनके भीतर पिरोया हुआ धागा एक ही है। उस एक का स्मरण बना रहे एक सौ आठ विधियों में ताकि कभी उनके मन में यह ख्याल न आए और कोई एकांगीपन न पकड़ जाए कि मेरा ही मार्ग जिसमें मैं हूं, वही रास्ता पहुंचाता है। नहीं, सभी रास्ते पहुंचा देते हैं .....सभी रास्ते पहुंचा देते हैं!
उनकी मालाओं में एक तस्वीर आप देख रहे हैं, शायद आपको भ्रम होगा कि मेरी है। मेरी बिल्कुल नहीं है। क्योंकि मेरी तस्वीर उतारने का कोई उपाय नहीं है। तस्वीर किसी की उतारी नहीं जा सकती, सिर्फ शरीरों की उतारी जा सकती है। मैं उनका गवाह हूं। इसलिए उन्होंने मेरे शरीर की तस्वीर लटका ली है। मैं सिर्फ गवाह हूं, गुरु नहीं हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि गुरु तो सिवाय परमात्मा के और कोई भी नहीं है। मैं सिर्फ विटनेस, साक्षी हूं कि मेरे सामने उन्होंने कसम ली है इस संन्यास की। मैं उनका गवाह-भर हूं। और इसलिए वह मेरे शरीर की रेखाकृति लटकाए हुए हैं, ताकि उनको स्मरण रहे कि उनके संन्यास में वे अकेले नहीं हैं, एक गवाह भी है। और उनके डूबने के साथ उनका गवाह भी डूबेगा। इस इतने स्मरण-भर के लिए तस्वीर है। ध्यान में वे गहरे उतरें, ध्यान के बहुत रास्ते हैं। अभी उनको दो रास्तों पर प्रयोग करवा रहा हूं। दोनों रास्ते ‘सिक्रोनाइज’ कर सकें, इस तरह के हैं। उनमें तालमेल हो सके, इस तरह के हैं। एक ध्यान की प्रक्रिया मैं उनसे करवा रहा हूं जो कि प्रगाढ़तम प्रक्रिया है, बहुत ‘व्हिगरस’ है और इस सदी के योग्य है। इस ध्यान की प्रक्रिया के साथ उनको कीर्तन और भजन के लिए भी कह रहा हूं। क्योंकि, वह ध्यान की प्रक्रिया करने के बाद कीर्तन साधारण कीर्तन?
नहीं है। जो आप कहीं भी देख लेते है। आप जब देखते हैं कीर्तन तो आप सोचते होंगे ठीक है, कोई भी ऐसा साधारण कीर्तन कर रहा है। ऐसा ही कीर्तन यह है, इस भूल में आप मत पड़ना, क्योंकि जिस ध्यान के प्रयोग को वे कर रहे हैं उस प्रयोग के बाद यह कीर्तन कुछ और ही भीतरी रस की धार छोड़ देता है। आप भी ध्यान के उस प्रयोग को करके ऐसा कीर्तन करेंगे तब आपको पता चलेगा कि यह कीर्तन साधारण कीर्तन नहीं है। यह कीर्तन ध्यान की एक प्रक्रिया का आनुषांगिक अंग है। और उस आनुषांगिक अंग में जब वे लीन और डूब जाते हैं तब वे करीब-करीब अपने में नहीं होते, परमात्मा में होते हैं। और वह जो होने का अगर एक क्षण भी मिल जाए चैबीस घंटे में तो काफी है। उससे जो अमृत की एक बूंद मिल जाती है वह चैबीस घंटों को जीवन के रस से भर जाती है। जिन मित्रों को जरा भी ख्याल हो वे हिम्मत करें! और ध्यान रखें ....अभी कल ही कोई मेरे पास आया था, उसने कहा, सत्तर प्रतिशत तो मेरी इच्छा है कि लूं संन्यास, तीस प्रतिशत मन डांवांडोल होता है इसलिए नहीं लेता हूं। तो मैंने कहा- तीस प्रतिशत मन कहता है, मत लो तो तुम नहीं लेते। तीस प्रतिशत की मानते हो और सत्तर प्रतिशत कहता है लो और सत्तर प्रतिशत की नहीं मानते हो? तो तुम्हारे पास बुद्धि है! और कोई सोचना हो, जब ‘हंडरेड परसेंट,’ सौ प्रतिशत मन होगा तब लेंगे तो मौत पहले आ जाएगी।
हंडरेड परसेंट मरने के बाद होता है। इससे पहले कभी मन होता नहीं। सिर्फ मरने के बाद जब आपकी लाश चढ़ाई जाती है चिता पर तब ‘हंडरेड परसेंट’ मन संन्यास का होता है, लेकिन तब कोई उपाय नहीं रहता। जिंदगी में कभी मन सौ प्रतिशत किसी बात पर नहीं होता। लेकिन जब आप क्रोध करते हैं तब आप ‘हंडरेड परसेंट’ मन के लिए रुकते हैं? जब आप चोरी करते हैं तब आप ‘हंडरेड परसेंट’ मन के लिए रुकते हैं? जब बेईमानी करते हैं तब ‘हंडरेड परसेंट’ मन के लिए रुकते हैं? कहते हैं- अभी बेईमानी नहीं करूंगा क्योंकि अभी मन का एक हिस्सा कह रहा है, मत करो, सौ प्रतिशत हो जाने दो! लेकिन जब संन्यास का सवाल उठता है तब सौ प्रतिशत के लिए रुकते हैं। बेईमानी किस के साथ कर रहे हैं? आदमी अपने को धोखा देने में बहुत कुशल है। एक आखिरी बात, फिर सुबह लेंगे, फिर अभी कीर्तन-भजन में संन्यासी डूबेंगे, आपको भी निमंत्रण देता हूं, खड़े ही मत देखें। खड़े होकर, देखकर कुछ पता नहीं चलेगा, लोग नाचते हुए दिखायी पड़ेंगे। डूबें उनके साथ तो ही पता चलेगा कि उनके भीतर क्या हो रहा है! यह रस का एक कण अगर आपको भी मिल जाए तो शायद आपकी जिंदगी में फर्क हो।
संन्यास या शुभ का कोई भी ख्याल जब भी उठ आए तब देर मत करना। क्योंकि अशुभ में हम कभी देर नहीं करते, अशुभ को कोई ‘पोस्टपोन’ नहीं करता। शुभ को हम पोस्टपोन करते हैं। अनेक मित्र खबर ले आते हैं कि कहीं मेरा संप्रदाय तो नहीं बन जाएगा, कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा? कहीं कोई मत, पंथ तो नहीं बन जाएगा? मत-पंथ ऐसे ही बहुत हैं, नए मत, पंथ की कोई जरूरत नहीं है। बीमारियां ऐसे ही काफी हैं और एक बीमारी जोड़ने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए आपसे कहता हूं, यह कोई संप्रदाय नहीं है। संप्रदाय बनता ही किसी के खिलाफ है। ये संन्यासी किसी के खिलाफ नहीं हैं। ये सब धर्मों के भीतर जो सारभूत है, उसके पक्ष में हैं। कल तो एक मुसलमान महिला ने संन्यास लिया, उसके छह दिन पहले एक ईसाई युवक संन्यास लेकर गया है। ये जाएंगे अपने च्र्चों में, अपनी मस्जिदों में, अपने मंदिरों में। इनमें जैन हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं। उनसे कुछ उनका छीनना नहीं है। उनके पास जो है, उसे ही शुद्धतम उनसे कह देना है।
अभी गीता पर बोल रहा हूं, अगले वर्ष कुरान पर बोलूंगा, फिर बाइबिल पर बोलूंगा ताकि जो-जो शुद्ध वहां है, सब पूरी-की-पूरी बात मैं आपको कह दूं। जिसे जहां से लेना हो वहां से ले ले। जिसे जिस कुएं से पीना हो पानी पी ले, क्योंकि पानी एक ही सागर का है। वह कुएं का मोह-भर न करे, इतना-भर न कहे कि मेरे कुएं में ही पानी है और किसी के कुएं में पानी नहीं है। फिर कोई संप्रदाय नहीं बनता, कोई मत नहीं बनता, कोई पंथ नहीं बनता। सोचें और स्फुरणा लगती हो तो संन्यास में कदम रखें, जहां हैं वहीं, कुछ आपसे छीनता नहीं। आपके भीतर के व्यर्थ को ही तोड़ना है, सार्थक को वहीं रहने देना है।
कल की चर्चा पर दो छोटे प्रश्न हैं। एक कि आपने वर्ण व्यवस्था के बारे में जो कहा है, क्या आप ....आज की स्थिति में उचित है इसे लाना? और दूसरा प्रश्न है कि आश्रमों की चर्चा आपने की और उम्र का भी विभाजन किया। संन्यास चैथी अवस्था में आता है। तो आप बहुत छोटी उम्र के लोगों को भी संन्यास की दीक्षा दे रहे हैं, क्या यह उचित है?
मैंने कहा, कि जीवन का एक क्रम है और संन्यास उसमें अंतिम अवस्था है, लेकिन वह क्रम टूट गया। और अभी तो ब्रह्मचर्य भी अंतिम अवस्था नहीं है। ब्रह्मचर्य पहली अवस्था थी उस क्रम में, लेकिन वह क्रम टूट गया। अब तो ब्रह्मचर्य अंतिम अवस्था भी नहीं है। पहले की तो बात ही छोड़ दें। मरते क्षण तक आदमी ब्रह्मचर्य की अवस्था में नहीं पहुंचता। अब तो संन्यास कब्र के आगे ही कहीं कोई अवस्था हो सकती है और जब बूढ़े ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होते हों तो मैं कहता हूं, बच्चों को भी हिम्मत करके संन्यासी होना चाहिए- ‘जस्ट टू बेलैंस’, संतुलन बनाए रखने को। जब बूढ़े भी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होते हों तो बच्चों को भी संन्यासी होने का साहस करना चाहिए तो शायद बूढ़ों को भी शर्म आनी शुरू हो अन्यथा बूढ़ों को शर्म आनेवाली नहीं है- एक तो इसलिए। और दूसरा इसलिए भी कि जीवन का जो क्रम है, उस क्रम में बहुत-सी बातें अंतर्गर्भित, एंप्लाइड हैं।
जैसे महावीर ने अंतिम अवस्था में संन्यास नहीं लिया, बुद्ध ने अंतिम अवस्था में संन्यास नहीं लिया, क्योंकि जिनके जीवन की, पिछले जन्म की यात्रा वहां पहुंच गई है जहां से इस जन्म में शुरू से ही संन्यास हो सकता है, वे पचहत्तर वर्ष तक प्रतीक्षा करें, यह बेमानी है। यही जन्म सब कुछ नहीं है। हम इस जन्म में कोरे कागज, टेब्यूला-रेसा की तरह पैदा नहीं होते हैं जैसा कि रूस और सारे लोग मानते हैं- गलत मानते हैं। हम इस जन्म में कोरे कागज की तरह पैदा नहीं होते हैं। हम सब ‘बिल्ट-इन प्रोग्राम’ लेकर पैदा होते हैं। हमने पिछले जन्म में जो भी किया, जाना, सोचा और समझा है वह सब हमारे साथ जन्मता है। इसलिए जीवन के साधारण क्रम में यह बात सच है कि आदमी चैथी अवस्था में संन्यास को उपलब्ध हो, लेकिन जो लोग पिछले जन्म से संन्यास का गहरा अनुभव लेकर आए हों या जीवन के रस से पूरी तरह ‘डिस-इल्यूजंड’ होकर आए हों, उनके लिए कोई भी कारण नहीं है। लेकिन वे सदा अपवाद होंगे। इसलिए बुद्ध और महावीर ने अपवाद के लिए मार्ग खोजा। कभी-कभी नियम भी बंधन बन जाते हैं, कुछ के लिए हमें अपवाद छोड़ना पड़ता है।
आइंस्टीन को अगर हम गणित उसी ढंग से सिखाएं जिस ढंग से हम सबको सिखाते हैं तो हम आइंस्टीन की शक्ति को जाया करेंगे। अगर हम मोझर्ट को उसी तरह संगीत सिखाएं जिस तरह हम सबको सिखाते हैं तो हम उसकी शक्ति को बहुत जाया करेंगे। मोझर्ट ने तीन साल की उम्र में संगीत में वह स्थिति पा ली जो कोई भी आदमी अभ्यास करके तीस साल में नहीं पा सकता। तो मोझर्ट के लिए हमें अपवाद बनाना पड़ेगा। बीथोवन ने सात साल में संगीत में वह स्थिति पा ली जो कि संगीतज्ञ सत्तर साल की उम्र में भी नहीं पा सकते अभ्यास करके। तो बीथोवन के लिए हमें अलग नियम बनाने पड़ेंगे। इनके लिए हमें नियम वही नहीं देने पड़ेंगे। इसलिए हर नियम के अपवाद तो होते ही हैं और अपवाद से नियम टूटता नहीं, सिर्फ सिद्ध होता है। ‘एक्सेप्शन प्रूव्ज द रूल’- वह जो अपवाद है वह सिद्ध करता है कि अपवाद है। इसलिए शेष सबके लिए नियम प्रतिकूल है। तो ऐसा नहीं है कि भारत में बचपन से संन्यास लेनेवाले लोग नहीं थे, वे थे लेकिन वे अपवाद थे। पर आज तो अपवाद को नियम बनाना पड़ेगा। क्यों बनाना पड़ेगा! वह इसलिए बनाना पड़ेगा क्योंकि आज तो स्थिति इतनी रुग्ण और अस्त-व्यस्त हो गई है कि अगर हम प्रतीक्षा करें कि लोग वृद्धावस्था में संन्यस्त हो जाएंगे तो हमारी प्रतीक्षा व्यर्थ होनेवाली है।
उसके कई कारण हैं। वृद्धावस्था में संन्यास तभी फलित हो सकता है जब तीन आश्रम पहले गुजरे हों अन्यथा फलित नहीं हो सकता। आप कहें कि वृक्ष में फूल आएंगे बसंत में, लेकिन बसंत में फूल तभी आ सकते हैं जब बीज बोए गए हों, जब खाद डाली गयी हो, जब वर्षा में पानी भी पड़ा हो और गर्मी में धूप भी मिली हो। न गर्मी में धूप आई, न वर्षा में पानी गिरा, न बीज बोए गए, न माली ने खाद दिया और बसंत में फूल की प्रतीक्षा कर रहे हैं! चैथे आश्रम में संन्यास फलित होता था, यदि तीन आश्रम नियम-बद्ध रूप से पहले गुजरे हों, अन्यथा फलित नहीं होगा। ब्रह्मचर्य बीता हो पच्चीस वर्ष का, गृहस्थ बीता हो पच्चीस वर्ष का, वानप्रस्थ बीता हो पच्चीस वर्ष का तब अनिवार्यरूपेण, गणित के हल की तरह, चैथे आश्रम का चरण उठता था। आज तो कठिनाई यह है कि तीन चरण का कोई उपाय नहीं रहा। अब दो ही उपाय हैं, एक तो उपाय यह है कि हम संन्यास के सुंदरतम फूल को, जिससे सुंदर फूल जीवन में दूसरे नहीं खिलते हैं- मुरझा जाने दें, उसे खिलने ही न दें और या हम फिर हिम्मत करें और जहां भी ससंभव हो सके, जिस स्थिति में भी संभव हो सके, संन्यास के फूल को खिलाने की कोशिशि करें। इसका यह मतलब नहीं है कि सारे लोग संन्यासी हो सकते हैं।
असल में जिसके भी मन में आकांक्षा पैदा होती है संन्यास की, उसका प्राण उसकी सूचना दे रहा है कि उसके पिछले जन्म में कुछ अर्जित है, जो संन्यास बन सकता है। फिर मैं यह कहता हूं कि बुरे काम को करके सफल हो जाना भी बुरा है, अच्छे काम को करके असफल हो जाना भी बुरा नहीं है। एक आदमी चोरी करके सफल भी हो जाए तो भी बुरा है। एक आदमी संन्यासी होकर असफल भी हो जाए तो बुरा नहीं है। अच्छे की तरह आकांक्षा और प्रयास भी बहुत बड़ी घटना है। और अच्छे के मार्ग पर हार जाना भी जीत है और बुरे के मार्ग पर जीत जाना भी हार है। और आज हारेंगे तो कल जीतेंगे। इस जन्म में हारेंगे तो अगले जन्म में जीतेंगे। लेकिन प्रयास, आकांक्षा, अभीप्सा होनी चाहिए। फिर चैथे चरण में जो संन्यास आता था उसकी व्याख्या बिल्कुल अलग थी और जिसे मैं संन्यास कहता हूं उसकी व्याख्या मजबूरी में अलग करनी पड़ी है- मजबूरी में, स्मरण रखें! चैथे चरण में जो संन्यास आता था वह पूरे जीवन से ऐसे अलग हो जाता था जैसे पका हुआ फल वृक्ष से अलग हो जाता है- जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिर जाता है। न वृक्ष को खबर मिलती है, न सूखे पत्ते को पता चलता कि कब अलग हो गया- बहुत ‘नेचुरल रिनन्सिएशन’, सहज वैराग्य था। उसका कारण है।
अभी भी पचहत्तर साल का बूढ़ा घर से टूट जाता है, अभी भी पचहत्तर साल का बूढ़ा घर में बोझ हो जाता है। कोई कहता नहीं, सब अनुभव करते हैं। बेटे की आंख से पता चलता है। बहू की आंख से पता चलता है, घर के बच्चों से पता चलता है कि अब इस बूढ़े को विदा होना चाहिए। कोई कहता नहीं। शिष्टाचार कहने नहीं देता। लेकिन अशिष्ट आचरण सब कुछ प्रकट कर देता है। टूट जाता है, बूढ़ा टूट ही जाता है, लेकिन बूढ़ा भी हटने को राजी नहीं है। वह भी पैर जमाए रहता है। और जितना हटाने के आंखों में इशारे दिखाई पड़ते हैं वह उतने ही जोर से जमने की कोशिश करता है....बहुत बेहूदा है, ऐब्सर्ड है। असल में वक्त है हर चीज का, जब जुड़ा होना चाहिए, जब टूट जाना चाहिए। वक्त है, जब स्वागत है और वक्त है, जब अलविदा भी है। समय का जिसे बोध नहीं होता वह आदमी ना-समझ है। पचहत्तर साल की उम्र ठीक वक्त है क्योंकि तीसरी पीढ़ी, चैथी पीढ़ी तैयार हो गई जीने को तो आप कट गए जीवन की धारा से। अब जो नए बच्चे घर में आ रहे हैं उनसे आपका कोई भी तो संबंध नहीं है! आप उनके लिए करीब-करीब प्रेत हो चुके हैं, घोस्ट हो चुके हैं, अब आपका होना सिर्फ बाधा है। आपकी मौजूदगी सिर्फ जगह घेरती है। आपकी बातें सिर्फ कठिन मालूम पड़ती हैं। आपका होना ही बोझ हो गया है। उचित है कि हट जाएं, वैज्ञानिक है कि हट जाएं। लेकिन नहीं, आप कहां हटकर जाएं? ख्याल ही भूल गया है हटने का। ख्याल इसलिए भूल गया है कि तीन चरण पूरे नहीं हुए अन्यथा बच्चे हटाते, उसके पहले आप हट जाते। जो पिता बच्चों के हटाने के पहले हट जाता है, वह कभी अपना आदर नहीं खोता।
जो मेहमान विदा करने के पहले विदा हो जाता है, वह सदा स्वागतपूर्ण विदाई पाता है। जो मेहमान डटा ही रहता है जब तक कि घर के लोग पुलिस को न बुला लाएं, तब तक हटेंगे नहीं- तब सब अशोभन हो जाता है, इससे घर के लोगों को भी तकलीफ होती है, अतिथि को भी तकलीफ होती है और अतिथि का भाव भी नष्ट होता है। ठीक समझदार आदमी वह है कि जब लोग रोक रहे थे तभी विदा हो जाए। जब घर के लोग रोते हों तभी विदा हो जाए, जब घर के लोग कहते हों रूकें, अभी मत जाइए, तभी विदा हो जाए। यही ठीक क्षण है। वह अपने पीछे दूसरों के मन में एक मधुर स्मृति छोड़ जाए। वह मधुर स्मृति घर के लोगों के लिए ज्यादा प्रीतिकर होगी, बजाय आपकी कठिन मौजूदगी के। लेकिन वह चैथा चरण था। तीन चरण जिसने पूरे किए हों और जिसने ब्रह्मचर्य का आनंद लिया हो और जिसने गृहस्थ जीवन में काम का सुख भोगा हो और जिसने वानप्रस्थ होने की, वन की तरफ मुख रखने की अभीप्सा और प्रार्थना में क्षण बिताए हों, वह चैथे चरण में अपने आप, चुपचाप चुपचाप विदा हो जाता है। नीत्से ने कहीं लिखा है- ‘राइपननेस इस ऑल’- पक जाना सब कुछ है।
लेकिन अब तो कोई नहीं पकता, पका हुआ आदमी भी लोगों को धोखा देना चाहता है कि मैं अभी कच्चा हूं। मैंने सुना है कि एक स्कूल में शिक्षक बच्चों से पूछ रहा था कि एक व्यक्ति सन् उन्नीस सौ में पैदा हुआ तो उन्नीस सौ पचास में उसकी उम्र कितनी होगी? तो एक बच्चे ने खड़े होकर पूछा कि वह स्त्री है या पुरुष? क्योंकि अगर पुरुष होगा तो पचास साल का हो गया होगा। अगर स्त्री होगी तो कहना मुश्किल है, कितनी साल की हुई हो! तीस की भी हो सकती है, चालीस की भी हो सकती है, पच्चीस की भी हो सकती है! लेकिन जो स्त्री पर लागू होता था अब वह पुरुष पर भी लागू है। अब उसमें कोई फर्क नहीं है। पका हुआ भी कच्चे होने का धोखा देना चाहता है। बूढ़ा आदमी भी नयी जवान लड़कियों से राग-रंग रचाना चाहता है। इसलिए नहीं कि नयी लड़की बहुत प्रीतिकर लगती है, बल्कि इसलिए कि वह अपने को धोखा देना चाहता है कि मैं अभी लड़का ही हूं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बूढ़े लोग कम उम्र की स्त्रियों में इसलिए उत्सुक होते हैं कि वे भुलाना चाहते हैं कि हम बूढ़े हैं। और कम उम्र की स्त्रियां उनमें उत्सुक हो जाएं तो वे भूल जाते हैं कि वे बूढ़े हैं। अगर बट्रेंड रसेल अस्सी वर्ष की उम्र में बीस साल की लड़की से शादी करता है तो उसका असली कारण यह नहीं कि बीस साल की लड़की बहुत आकर्षक है। अस्सी साल के बूढ़े को आकर्षक नहीं रह जानी चाहिए- और साधारण बूढ़े को नहीं, बट्रेंड रसेल के हैसियत के बूढ़े को।
हमारे मुल्क में अगर दो हजार साल पहले बट्रेंड रसेल पैदा हुआ होता तो अस्सी साल की उम्र में वह महर्षि हो जाता, लेकिन इंग्लैंड में वह अस्सी साल की उम्र में बीस साल की लड़की से शादी रचाने का उपाय करता है। वह धोखा दे रहा है अपने को। अभी भी मानने का मन होता है कि मैं बीस साल का हूं। और अगर बीस साल की लड़की उत्सुक हो जाए तो धोखा पूरा हो जाता है- ‘सेल्फ-डिसेप्शन’ पूरा हो जाता है। क्योंकि बीस साल की लड़की उत्सुक ही नहीं हो सकती न, अस्सी साल के बूढ़े में! अस्सी साल का बूढ़ा भी मान लेता है कि अभी दो-चार ही साल बीते हैं बीस साल में। यह जो मनोदशा है ....मनोदशा में मैंने ....संन्यास की नयी ही धारणा का मेरा ख्याल है। अब हमें संन्यास के लिए चैथे चरण की प्रतीक्षा करनी कठिन है। आना चाहिए वह वक्त जब हम प्रतीक्षा कर सकें। लेकिन वह तभी होगा जब आश्रम की व्यवस्था पृथ्वी पर लौटे, उसे लौटाने के लिए आश्रम में लगना जरूरी है। लेकिन जब तक वह नहीं होता तब तक हमें संन्यास की एक नयी धारणा पर- कहना चाहिए ट्रांजिटरी कंसेप्सन, एक संक्रमण की धारणा पर काम करना पड़ेगा। और वह यह कि जो जहां है, वृक्ष से टूटने की तो कोशिश न करें क्योंकि पका फल ही टूटता है। लेकिन कच्चा फल भी वृक्ष पर रहकर भी अनासक्त हो सकता है।
जब पका हुआ फल कच्चे होने का धोखा दे सकता है तो कच्चा फल पका होने का अनुभव क्यों नहीं कर सकता है? इसलिए जो जहां है वही संन्यासी हो जाए। मेरे संन्यास की धारणा जीवन छोड़कर भागनेवाली नहीं है, मेरे संन्यास की धारणा वानप्रस्थ के करीब है। और मैं मानता हूं कि वानप्रस्थी ही नहीं है तो संन्यासी कहां से पैदा होंगे? तो मैं जिसको अभी संन्यासी कह रहा हूं वह ठीक से समझें तो वानप्रस्थी ही है। वानप्रस्थी का मतलब हैः वह घर में है लेकिन रुख उसका मंदिर की तरफ है। दुकान पर है लेकिन ध्यान उसका मंदिर की तरफ है। काम में लगा है लेकिन ध्यान किसी दिन काम से मुक्त हो जाने की तरफ है। राग में है, रंग में है, फिर भी साक्षी की तरफ उसका ध्यान दौड़ रहा है। उसकी सुरति परमात्मा में लगी है।
इसके स्मरण का नाम ही मैं अभी संन्यास कहता हूं। यह संन्यास की बड़ी प्राथमिक धारणा है। लेकिन मैं मानता हूं, जैसी आज समाज की स्थिति है उसमें यह प्राथमिक संन्यास ही फलित हो जाए तो हम अंतिम संन्यास की भी आशा कर सकते हैं। बीज हो जाए तो वृक्ष की आशा कर सकते हैं। इसलिए जो जहां है उसे मैं वहीं संन्यासी होने को कहता हूं। घर में, दुकान पर, बाजार में, जो जहां है उसे वहीं संन्यासी होने को कहता हूं- सब करते हुए, लेकिन सब करते हुए भी संन्यासी होने की जो धारणा है, संकल्प है वह सबसे तोड़ देगा। और साक्षी पैदा होने लगेगा। आज नहीं कल यह वानप्रस्थ-जीवन, संन्यस्त जीवन में रूपांतरित हो जाए ऐसी आकांक्षा और आशा की जा सकती है।
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