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सोमवार, 3 दिसंबर 2018

संबोधि के क्षण-(प्रवचन-08)

संबोधि के क्षण-ओशे

प्रवचन-आठवां -मेरा विकल्प

प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--चित्रकला में चित्रकार, चित्र बनाने वाला अलग होता है, और जैसे-जैसे चित्र बनता जाता है, वैसे-वैसे चित्र अलग होता जाता है। जब तब नहीं बना, तब तक बनानेवाला चित्र एक है। जब तक चित्र नहीं बना, तब तक चित्रकार ही है, और वही चित्र भी है। फिर उसने बनाया, तो चित्र अलग हो गया और चित्रकार अलग हो गया।
तो एक ऐसा सृजन है कि जहां सृष्टा से अलग हो जाता है। लेकिन दूसरा उदाहरण लें--नृत्यकार है, वह नाचता है। लेकिन नृत्य अलग नहीं होता है। लेकिन नृत्य और नृत्यकार एक ही रह जाते हैं। जब नहीं नाच रहा था, तब भी एक थे। अब जब नाच रहा है, तब भी एक हैं और नाच बंद हो जाएगा, तो नृत्यकार ही मिलेगा, नृत्य कहीं खोजने से मिलनेवाले नहीं है। यानी वहां क्रिएटर और क्रिएशन एक ही है। ये दो उदाहरण इसलिए लेता हूं कि जब तक आमतौर से परमात्मा को इस तरह सोचा गया है कि जैसे वह बनाकर अलग हो जाता है। वह गलत दृष्टि है। परमात्मा क्रिएटर नहीं है, सृष्टा नहीं है; क्योंकि सृष्टा हमेशा सृष्टि से अलग हो जाता है।

परमात्मा है क्रिएटिविटी, परमात्मा है सृजन की शक्ति।

जैसे, नृत्य और नृत्यकार, कि वह अलग हो जाता। यानी सृष्टि और सृष्टा एक ही है। जो हमें दिखाई पड़ने लगता है, वह सृष्टि है। जो प्रकट हो जाता है, वह सृष्टि है, और जो अप्रकट रह जाता है और दिखाई नहीं पड़ता है, वह सृष्टा है। जैसे नृत्यकार अभी नहीं नाच रहा है, तो अभी प्रकट नहीं हुआ है नृत्य। कहीं सोया पड़ा है। नाचेगा तो प्रकट हो जाएगा।
परमात्मा और प्रकृति या सृष्टा और सृष्टि दो चीजें नहीं हैं। इन्हें एक बार दो मान लिया, तो सवाल उठेगा। इन्हें अगर एक ही मान लिया, तो ऐसा नहीं है कि कोई है तय करनेवाला और हम उसे निभानेवाले हैं।नहीं, वह जो तय करनेवाला है, वह हम ही हैं। तय करनेवाला और हम दो नहीं हैं। वह हमीं हैं। और वह हमारे कृत्य से ही तय करता है। उसके पास तय करने का और कोई उपाय नहीं है। यानी हम ही हैं वह। तो जब हम कुछ कर रहे हैं, तब हम एक अर्थ में परिपूर्ण स्वतंत्र हैं कि हम वही हैं, और दूसरे अर्थ में हम बिलकुल बंधे हैं। वह इस अर्थ में कि हम वह पूरे नहीं हैं, वह पूरा हमसे बहुत बड़ा है। हम सिर्फ उसके एक हिस्से हैं।
सागर की एक लहर है। एक अर्थ में वह स्वतंत्र है। हिलती है, डुलती है, इस अर्थ में स्वतंत्र है कि वह भी सागर का हिस्सा है, लेकिन इस अर्थ में परतंत्र हैं कि वह सिर्फ एक लहर है और सागर बहुत बड़ा है। और भी लहरें हैं, और ऐसा भी सागर है, जहां लहरें नहीं भी हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हम जो कर रहे हैं अगर हम अपने को अलग मान लें तो यह सवाल उठता है कि हम करनेवाले हैं या नहीं हैं और अगर हम वही हैं, करनेवाले ही हम हैं, तो यह सवाल ही नहीं उठता कि हम बंधे हैं या स्वतंत्र है। और जो भी हो रहा है, वह हमारे द्वारा ही हो रहा है। वह हमारे बिना हो भी नहीं सकता। सारी कठिनाई इसलिए पैदा हुई है कि कहीं भूलकर हमने अपने को अलग मान रखा है, एक-एक लहर अपने को अलग मान रही है। इसलिए लहर पूछती है कि मैं स्वतंत्र हूं कि परतंत्र हूं? लेकिन पूछने में उसने यह मान ही लिया है कि मैं अलग हूं। और अलग है तो यह प्रश्न सार्थक है कि स्वतंत्र है या परतंत्र! और अगर अलग है ही नहीं, तो स्वतंत्र किससे होना है? परतंत्र किससे होना है?
मेरी दृष्टि में हम न स्वतंत्र हैं, और न परतंत्र हैं, क्योंकि हमारे अलावा कुछ है ही नहीं। इसी अर्थ में हम परतंत्र हो सकते हैं कि सिर्फ एक हिस्से हैं, एक लहर हैं, पूरा सागर नहीं हैं। अगर हमें पता चल जाए कि यह लहर सागर के सिवाय कुछ भी नहीं है तो इस अर्थ में हम स्वतंत्र हो जाते हैं। मेरा मतलब यह है कि अहंकार जितना गहरा है, उतने ही हम परतंत्र है। अहंकार जितना विसर्जित है, उतने हम स्वतंत्र हैं। अहंकार के अतिरिक्त हमारी और कोई परतंत्रता नहीं है। हम हैं, यही हमारी परतंत्रता है। अगर हम नहीं हैं, तो परतंत्रता का कोई उपाय नहीं है। स्वतंत्रता ही शेष रहेगी। अहंकार अकेली परतंत्रता है, और अहंकार का मिट जाना स्वतंत्रता है। परमात्मा अगर है तो ऐसा ही है, जहां अहंकार नहीं है। और हम अगर हैं, तो ऐसे ही हैं जहां अहंकार है। इसलिए हम परमात्मा से भिन्न होने के खयाल में हैं।
मैं एक कहानी कहता रहा हूं निरंतर। एक रूसी कवि ने एक कविता लिखी है। एक अंगूर की बेल है, जो राजमहल पर चढ़ी हुई है। और अंगूर की बेल ने भी सुना है राजमहल में विवाद होते बहुत बार। राजा संन्यासियों से पूछता है कि हम स्वतंत्र हैं कि परतंत्र! बहुत विवाद सुने हैं उसने। और एक दिन उसने चर्चा सुनी कि कोई आदमी कह रहा है कि सब स्वतंत्र है, क्योंकि परमात्मा है ही नहीं। परमात्मा ही नहीं है, तो परतंत्र कौन करेगा? दो रास्ते हैं स्वतंत्रता के, या तो परमात्मा न हो तो हम स्वतंत्र हैं, या हम न हों तो स्वतंत्र हैं, क्योंकि परमात्मा ही रह जाता है। दो हों तो परतंत्रता रहेगी; क्योंकि दूसरा जो है, वह किसी न किसी तरह की सीमा बांधेगा, और परतंत्र करेगा। अगर एक ही है, तो ही स्वतंत्रता हो सकती है। नास्तिक एक तरह से स्वतंत्र होने की कोशिश करता है, ईश्वर को खत्म करके। आस्तिक एक तरह से स्वतंत्र होने की कोशिश करता है, अपने को खत्म करके। किंतु अगर एक रह जाए, तो परतंत्रता का कोई उपाय नहीं है।
तो उस दिन उसने सुना है कि परमात्मा है ही हनीं इसलिए सब स्वतंत्र हैं। तो उस दिन उस बेल ने परमात्मा से चिल्लाकर कहा कि तू चूंकि है ही नहीं, और हम स्वतंत्र हैं, इसलिए आज से मैं बढ़ने से इनकार करती हूं। बहुत हो गया, बढ़ते-बढ़ते परेशान हो गयी, थक गयी। कितने पत्ते निकाले, कितने अंगूर निकाले। हर वर्ष वही-वही काम। बहुत थक गयी, अब बंद करती हूं। उसने कहा, अब मैं स्वतंत्र हूं तो अब बंद करती हूं यह बढ़ना। उसने यह कहा जरूर, लेकिन दूसरे दिन सुबह देखा कि बढ़ना तो हो गया है। पत्ते नए निकल आए हैं, बेल लंबी हो गयी है। उसने बहुत चिल्ला-चिल्लाकर कहा कि मैं स्वतंत्र हूं, अब मुझे नहीं बढ़ना है, लेकिन वह रोज बढ़ती चली गयी।
बेल किससे स्वतंत्र होना चाह रही है? बढ़ना बेल का ही हिस्सा है। इसलिए स्वतंत्र होने का कोई उपाय नहीं है। हम सिर्फ उससे स्वतंत्र हो सकते है, जो हमसे अलग और भिन्न है। हम उससे स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं, जो हमीं हैं? अब बेल का बढ़ना जो है, उसकी जो ग्रंथि है, वह तो उसका स्वभाव है, और वह कहे कि अब मैं बढ़ना बंद करती हूं, अब मैं स्वतंत्र हो गयी, अब मैं नहीं बढ़ती! लेकिन उसे बढ़ना पड़ता है। इसलिए में वह समझ नहीं पा रही है। बेल का होना, उसके बीइंग का ही बढ़ना है। ये दोनों दो चीजें नहीं हैं बल स्वतंत्र हो जाए। बेल तो बढ़ेगी ही, बेल तो फलेगी ही। यह फैलना और बढ़ना एक अर्थ में परतंत्रता है; और अगर बेल बढ़ने और फलने से अपने को अलग समझ ले। अगर बेल ऐसा समझती हो कि बढ़ना, पत्ते लगना, फलना, ये अलग चीजें है, मैं अलग हूं--ऐसी कहीं बेल है, जो न बढ़ती हो, न पत्ते लगते हो, न फल आते हों? ऐसी बेल ही नहीं है। असल में बेल एक नाम है इसी सब ग्रोथ का, बढ़ने का, फलने का, फूलने का, फल लगने का। इन सब का इकट्ठा नाम बेल है। और बेल को भ्रम हो जाए कि मैं अलग हूं, और वह कहे कि मैं नहीं बढूंगी, तो कोई उपाय नहीं है। तब वह परतंत्र अनुभव करेगी। तब वह बेल कहने लगी, मैं बड़ी परतंत्र हूं, बढ़ना नहीं चाहती हूं और बढ़ रही हूं, और मैं फूलना नहीं चाहती और फूल रही हूं।
लोगों को भी अगर यह खयाल हो जाए कि हम अलग हैं, तो सवाल उठना शुरू हो जाता है कि हम परतंत्र हैं या स्वतंत्र हैं? और अगर यह खयाल बैठ जाए कि मैं अलग हूं, तो सवाल ही कहां है परतंत्रता-स्वतंत्रता का? यानी परतंत्रता-स्वतंत्रता का सवाल ही अहंकार केंद्रित है। और जब तक अहंकार है, तब तक वह सवाल मिट नहीं सकता है, चाहे कोई उपाय करो। कोई कहे कि बिलकुल स्वतंत्र हो, तो भी यह बात हल नहीं होती; क्योंकि आपके मां-बाप ने जो आपको अणु दे दिया है, आप उससे कैसे स्वतंत्र है? और वह अणु पहले से चला आ रहा है। उस अणु में लिखा था कि इतनी उम्र में आपके बाल सफेद हो जाएंगे। उस अणु में यह भी लिखा था कि आपका रंग क्या होगा। और उस अणु में यह भी लिखा था कि मस्तिष्क कैसा होगा। उस अणु में चमड़े का रंग भी था और लंबाई भी भी शरीर की, और उस अणु में गहरे में यह भी तय था कि यह अणु कितनी देर तक चल पाएगा, और बिखर कर टूट जाएगा। और मृत्यु आ जाएगी। उस अणु में यह सब किसी बहुत गहरे कोड में लिखा था। तो स्वतंत्र कैसे हैं?
स्वतंत्रता हल नहीं करती। और अगर कोई कहे कि बिलकुल परतंत्र हैं, तो बात झूठी है। बात इसलिए झूठी है कि अगर हर परतंत्र हैं बिलकुल, तो मैं यही बैठ जाता हूं और तब जो मैं कर रहा हूं, वह खत्म हो जाएगा। मैं बैठता हूं, वह सब खत्म हो जाता है, फिर वह नहीं चलता। मैं चलाता हूं, तो वह चलता है।
मोहम्मद का एक शिष्य था हजरत अली। वह एक गांव से गुजर रहा है। मोहम्मद साथ हैं। हजरत अली ने मोहम्मद से पूछा कि मैं बड़ा परेशान हूं कि आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र है। मोहम्मद ने कहा, तू एक पैर ऊपर उठा ले, जो भी तेरी मरजी हो। तो उसने बायां पैर उठा लिया। मोहम्मद ने कहा, अब तू दूसरा पैर भी ऊपर उठा ले। उसने कहा, अब बहुत मुश्किल है। मोहम्मद ने कहा, लेकिन पहले मुश्किल नहीं था, दायां भी उठा सकता था। अब मुश्किल हो गया है क्योंकि बांया तूने उठा लिया है। मुश्किल इसलिए हो गया है कि बाएं को उठाए हुए हो। बाएं को नीचे रख दो तो अभी दायां ऊपर उठ जाएगा। अली ने कहा, मैं समझा नहीं। मोहम्मद ने कहा, मैं यह कह रहा हूं कि आदमी आधा परतंत्र है, और आधा स्वतंत्र है। एक पैर उठा लेता है, और दूसरा तब बंध जाता है। क्योंकि जब भी हम एक चीज चुनते हैं तब और चुनाव खत्म हो जाता हैं।
अगर मैं आपको घृणा करता हूं, तो प्रेम करना मुश्किल हो जाता है। मैंने चुनाव कर लिए हैं। बायां पैर उठा लिया है, अब दायां नहीं उठता है। प्रेम करता हूं तो घृणा करना मुश्किल हो जाता है। तो मेरी स्वतंत्रता, प्रतिपल मेरी परतंत्रता भी निर्मित करती है। क्योंकि मैं जो चुन लेता हूं, वह बंद हो जाता है, जो मैं छोड़ देता हूं, वह छूट जाती है। तो मोहम्मद उससे कह रहे हैं कि तू आधा स्वतंत्र है और आधा परतंत्र है।
लेकिन, मेरा मानना यह है कि ये दो उपाय हैं--एक रास्ता यह है कि आदमी कहे कि बिलकुल परतंत्र है, जैसा भाग्य वादी कहते हैं। और एक रास्ता है, जिसे पुरुषार्थवादी कहते हैं कि आदमी बिलकुल स्वतंत्र है। वह दोनों गलत सिद्ध हुए हैं। एक रास्ता मोहम्मद का है। मोहम्मद कह रहे हैं कि आदमी आधा परतंत्र है और आधा स्वतंत्र है। यह तीसरा रास्ता है। मैं इसको भी गलत मानता हूं। क्योंकि मेरा मानना है। कि स्वतंत्रता और परतंत्रता आधी आधी जुड़ी ही होती। असल में स्वतंत्र-परतंत्रता में जोड़ ही नहीं हो सकता। इनमें कोई ताल-मेल ही नहीं है। स्वतंत्रता का परतंत्रता से कैसे ताल-मेल होगा? यह कोई बायां और दायां पैर नहीं है। दाया और बांया पैर बिलकुल एक जैसी चीजें हैं। स्वतंत्रता-परतंत्रता बिलकुल उल्टी चीजें हैं। कोई मेल नहीं हो सकता।
तो आदमी आधा परतंत्र और आधा स्वतंत्र है। यह असंभव है। मैं यह कहता हूं कि चौथा विकल्प है और वह मेरा विकल्प है कि न आदमी स्वतंत्र है, न परतंत्र है। क्योंकि आदमी के अलावा कोई है ही नहीं कि जिससे वह परतंत्र होगा, या जिससे वह स्वतंत्र हो जाए। वही है। परतंत्र होने के लिए भी कोई चाहिए, और स्वतंत्र होने के लिए भी कोई चाहिए। किसी से हम स्वतंत्र होंगे और अगर कोई भी नहीं है, एक ही ऊर्जा काम कर रही है, तो कैसी परतंत्रता और कैसी स्वतंत्रता?
तो चार विकल्प हैं। उनमें तीन को मैं गलत मानता हूं। न तो आदमी परतंत्र है, न आदमी स्वतंत्र है, न आदमी दोनों है। आदमी दोनों नहीं है। क्योंकि आदमी जैसी कोई चीज ही नहीं है, जो कि हो सके। वह ईगो नहीं है, वहां कोई अहंकार ही नहीं है, वहां कोई वस्तुतः कुछ नहीं है। बुद्ध नहीं छू पाता। बुद्ध आत्मा को इनकार कर देंगे। इतना परमात्मवादी आदमी नहीं हुआ है दुनिया में, जो आत्मा को भी इनकार कर दे। क्योंकि वह यह कहते हैं कि अगर आत्मा है, तो परमात्मा कैसे हो सकेगा? अगर तुम हो, तो गड़बड़ हो जाएगी। बुनियादी बात यह है कि तुम नहीं हो। तुम हो ही नहीं।
प्रश्न--आपने कहा, एक पैसेज है, स्वतंत्र हैं, दूसरा स्वतंत्र नहीं हैं। तीसरा उदाहरण आपने दिया कि बोथ आर फिफ्टी-फिफ्टी। आपने चौथा विकल्प सजेस्ट किया कि न स्वतंत्र हो, न परतंत्र हो, न फिफ्टी-फिफ्टी हो, कुछ नहीं हो...
हां, इसका मतलब साफ तुम्हें हो जाएगा। इसको अगर ठीक से समझोगे, तो इसका मतलब बहुत साफ हो जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि अगर मैं अकेला ही हूं, तो न स्वतंत्र होने का उपाय है, न परतंत्र होने का उपाय है; क्योंकि मुझसे दूसरा चाहिए। समझे न? मुझसे दूसरा चाहिए।
और चूंकि एक ही ऊर्जा है जगत में, एक ही जीवन है। वृक्ष में भी वही है, आप में भी, मुझ में भी और उनमें भी एक ही जीवन है। न वह परतंत्र हो सकता है, न वह स्वतंत्र हो सकता है; क्योंकि कोई उससे अलावा नहीं है। तो यह जहां स्वतंत्र भी नहीं है, परतंत्रता भी नहीं है, उसका गहरा मतलब यह हुआ कि यहां अहंकार ही हनीं है अलग-अलग, यहां एक ही परमात्मा है परमात्मा को तुम स्वतंत्र नहीं कह सकते हो,क्योंकि उसके परतंत्र होने का उपाय ही नहीं है।
जो परतंत्र हो सके, उसको हम स्वतंत्र भी कह सकते हैं। और तुम परमात्मा को परतंत्र नहीं कह सकते; क्योंकि उसे कोई परतंत्र करनेवाला नहीं है, वह अकेला ही है, एकदम अकेला है। अकेला ही है। और हम सब उस अकेले के हिस्से हैं। यानी हमसे भिन्न कुछ है ही नहीं। अगर इस भांति दिखाई पड़ जाए, तो स्वतंत्रता-परतंत्रता का प्राब्लम गिर जाता है। उत्तर नहीं देना है। हूं मैं। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि वह प्रश्न ही गलत है। प्रश्न है ही नहीं कहीं। वह अहंकार से पैदा हुआ है। अहंकार सबसे बड़ा झूठ है। इसलिए अगर अहंकार को मान लेते हो, तो तुम कोई सवाल हल कर नहीं पाओगे; क्योंकि तुमने पहले झूठ मान ही ली।
मैं अभी अमृतसर में था। एक वेदांती थे स्वामी हिमगिरी। वे मुझसे कुछ नाखुश रहे होंगे। मेरी बातों से बहुत से लोग नाखुश हो जाते हैं। जो नहीं समझ पाता है, वह नाखुश हो जाता है। तो वे सीधे मेरे विवाद में पड़ गए। मैं बोला उन्होंने खड़े होकर कहा कि मैं शस्त्रार्थ करूंगा विवाद करूंगा। तो मैंने कहा, कैसे वेदांती हो? विवाद किससे करोगे? कहते हो, अद्वैत है। विवाद किससे करोगे? कहते हो कि एक ही है तो विवाद किससे करोगे? मुझे मानते हो अलग? तो फिर विवाद हो जाए लेकिन तब तुम पहले ही हार गए। तब तुम अद्वैत को सिद्ध न कर पाओगे। तुम अद्वैत को अब सिद्ध न कर पाओगे, क्योंकि विवाद किससे? अगर तुम कहते हो कि आप गलत कहते हैं, तो भी तुम यह कहते हो कि परमात्मा गलत भी बोलता है। और क्या मतलब हुआ? इसका मतलब यह है कि परमात्मा गलत भी बोलता है कभी। तो परमात्मा के गलत और सही होने का निर्णय कौन करेगा? परमात्मा गलत बोलता है, वह ठीक है। कि परमात्मा सही बोलता है, वह ठीक है? परमात्मा ही दोनों बोलता है। तो मैंने कहा, अद्वैतवादी हो, तो विवाद का उपाय नहीं है। अगर द्वैतवादी हो, तो विवाद हो सकता है, लेकिन तब तुम हार से शुरू करते हो! फिर अद्वैत की बात मत करना। वह प्रश्न नहीं उठता, फिर प्रश्न क्या है? प्रश्न कहां है। फिर उन्होंने दूसरे दिन एक कहानी कही। यह बहुत पुरानी कहानी है।
दस आदमियों ने नदी पार की। पार जाकर गिनती की है, तो अपने को छोड़ता गया है हर आदमी और नौ का गिनता गया है। और तब वे रोने लगे हैं कि एक आदमी खो गया है। कोई पास से गुजरा है। उससे गिनती करवा दी है वे दस हैं। तो मैंने उनसे कहा कि यह कहानी शुरू से ही गलत है। शुरू से गलत इसलिए है कि नदी के उस पार वह दस की गिनती करके चले थे। अगर दस की गिनती उन्होंने ही की थी, तो बड़े पागल आदमी थे कि इस पार गिनती ठीक रही है, और उस पार गए तो भूल गए। यह पता कैसे था कि वे दस थे। गिनती नदी के इस पार की होगी। और जब गिनना जानते थे, तो हद की बात है! नदी बड़ी अदभुत थी कि उसमें से गुजर गए--आदमी अपने को गिनना भूल गया और बाकी को गिन लिया।
तो मैंने कहा, इस कहानी से कुछ चलेगा नहीं, क्योंकि इसमें पहले यह बताना पड़ेगा, कि दस की गिनती हुई कैसे? किसने की थी वह गिनती? और अक्सर ऐसा होता है कि सवाल के पहले ही गलती हो जाती है। और फिर हम पीछे हल करने बैठते हैं। और तब सब मुश्किल हो जाती है। कहीं न कहीं कोई भूल हो गयी है। कहीं कुछ हाइपोथेटिकल भूल है जो शुरू में खड़ी हो गयी है, इसलिए फिर कभी हल नहीं हो पाती है! यह जो हम पूछते हैं कि आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र? इसमें हमने आदमी को मान लिया, वही भूल हो गयी है। और आदमी है नहीं। और सवाल आदमी के मानने से शुरू हुआ है, और आदमी है नहीं। ऐसा कोई नहीं है एनटाइटी में, अलग-अलग फिर सवाल गिर जाता है। मैं सवाल का उत्तर नहीं दे रहा। मैं यह कहता हूं, सवाल गलत है।
प्रश्न--कोई हक नहीं है न किसी को बुरा या भला कहने का?
ओशो--हक ही नहीं, क्योंकि कोई है ही नहीं वहां? वहां कोई है नहीं।
बंबई
१४-९-६९
समाप्त 


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