कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन

पिय संग जुरलि सनेह सुभगी

सारसूत्र:

लागलि नेह हमारी पिया मोर।।
चुनि चुनि कलियां सेज बिछावौं, करौं मैं मंगलाचार।
एकौ घरी पिया नहिं अइलै, होइला मोहिं धिरकार।।
आठौ जाम रैनदिन जोहौं, नेक न हृदय बिसार।
तीन लोक कै साहब अपने, फरलहिं मोर लिलार।।
सत्तसरूप सदा ही निरखौं, संतन प्रान-अधार।
कहै गुलाल पावौं भरिपूरन, मौजै मौज हमार।।


पिय संग जुरलि सनेह सुभागी।
पुरुब प्रीति सतगुरु किरपा किय, रटत नाम बैरागी।।
आठ पहर चित लगै रहतु है, दिहल दान तन त्यागी।
पुलकि पुलकि प्रभु सों भयो मेला, प्रेम जगो हिए भागी।।

गगन मंडल में रास रचो है, सेत सिंघासन राजी।
कह गुलाल घर में घर पायो, थकित भयो मन पाजी।।


सोइ दिन लेखे जा दिन संत मिलाहिं।
संत के चरनकमल की महिमा, मोरे बूते बरनि न जाहिं।।
जल तरंग जल ही तें उपजैं, फिर जल मांहि समाहिं।

हरि में साध साध में हरि हैं, साध से अंतर नाहिं।।
ब्रह्मा बिस्नु महेस साध संग, पाछे लागे जाहिं।
दास गुलाल साध की संगति, नीच परमपद पाहिं।।
आंगन भर धूप में..
मुट्ठी भर छांव की..
क्या बिसात?
हो न-हो!

अंतर को पीर कसे,
अधरों पर हास हंसे;
उलझन के झुरमुट में..
किरनों के हिरन फंसे;
शहरों की भीड़ में..
नन्हे-से गांव की..
क्या बिसात?
हो न हो!
ढहते प्रण हाथ गहे,
तट ने आघात सहे;
भावी के सुख सपने..
लहरों के साथ बहे;
तूफानी ज्वार में..
कागदिया नाव की..
क्या बिसात?
हो न हो!
भेद भरे राज खुले,
सुख-दुख जब मिले-जुले;
बावरिया दृष्टि धुली..
आंसू के तुहिन घुले;
कालजयी राह पर..
क्षणजीवी पांव की..
क्या बिसात?
हो न हो!
मनुष्य असंभव को संभव बनाने की चेष्टा में जो संभव हो सकता है उससे भी वंचित रह जाता है। मनुष्य ऐसी आकांक्षा करता है जो पूरी हो ही नहीं सकती। जो स्वभाव के अनुकूल नहीं है। कागज की नाव से सागर तिरना चाहता है। क्षणभंगुर में शाश्वत को पाना चाहता है। मिट्टी में अमृत को तलाशना है। और बाहर खोजता है उसे, जो भीतर विराजमान है। जब तक खोजेगा बाहर तब तक चूकेगा। जब तक मिट्टी पर भरोसा रखेगा तब तक अमृत से वंचित रहेगा।
धार्मिक जीवन की शुरुआत ही इस तथ्य से होती है कि हम असंभव को असंभव और संभव को संभव की तरह पहचान लें। क्या हो सकता है और क्या नहीं हो सकता है, इसे ठीक-ठीक जान लेने से जीवन में रूपांतरण शुरू होता है; दिशा बदलती है, आयाम बदलता है। फिर तुम रेत से तेल निचोड़ने की चेष्टा नहीं करते हो। तुम जानते हो कि रेत में तेल होता ही नहीं। लेकिन साधारणतः हालत बड़ी उलटी है। सभी रेत से तेल निचोड़ने में लगे हैं; सो तुम भी लग जाते हो..देखादेखी। अनुकरण से जीते हो। न विचार से, न विवेक से। आंखें खोलते ही नहीं। भीड़ जो कर रही है, बस भेड़ की तरह उसको किए जाते हो। न भीड़ कहीं पहुंचती है, न तुम कहीं पहुंचते हो।
इस जीवन में दो यात्राएं संभव हैं। एक बहिर्यात्रा है, जो निष्फल है। जिससे गंतव्य कभी आया नहीं, कभी आएगा नहीं। और एक अंतर्यात्रा है, जो पहले ही कदम में भी सफल है। बहिर्यात्रा अंतिम कदम में भी असफल है, अंतर्यात्रा पहले कदम में सफल है। राज क्या है? राज छोटा है; बात छोटी है। लेकिन समझो तो जीवन में क्रांति हो जाती है। अंतर्यात्रा पहले ही कदम में सफल हो जाती है। क्योंकि तुम जिसे खोजते हो, वह वहां मौजूद ही है। उसे खोजना भी नहीें है, उसे पाना भी नहीं है, पाया ही हुआ है, सिर्प पर्दा उठाना है। पर्दा उठाने में कितनी देर लगेगी! धूल-धवांस जम गई है, पोंछ देनी है, धो देनी है और दर्पण शुद्ध हो जाएगा। और तुम्हारे भीतर का दर्पण शुद्ध हो, तो जीवन का सत्य उसमें प्रतिफलित होने लगता है। उस जीवन के सत्य को चाहो परमात्मा कहो, चाहे निर्वाण कहो, कैवल्य कहो, मोक्ष कहो..तुम्हारी जो मर्जी।
सब शब्द छोटे हैं; कोई शब्द उसे प्रगट नहीं कर पाता। लेकिन सब शब्द उसके लिए संकेत बन सकते हैं। उसमें ये सब गुण हैं। उसमें परम स्वतंत्रता है, इसलिए तुम मोक्ष कह सकते हो। वह परम मुक्ति है, सारे बंधन गिर गए। उसमें कोई दूसरा नहीं बचता, दुई नहीं बचती, इसलिए कैवल्य कह सकते हो। क्योंकि केवल चेतना रह जाती है, मात्र चेतना रह जाती है, चैतन्य का सागर रह जाता है। कोई पराया नहीं, कोई भिन्न नहीं, कोई अन्य नहीं, सब अभिन्न हो जाता है। तुम चाहो तो उसे ईश्वर कहो; क्योंकि उसे जानते ही तुम्हारे जीवन में ऐश्वर्य की वर्षा हो जाती है। ईश्वर ऐश्वर्य शब्द से बना है। झरत दसहुं दिस मोती, जैसा गुलाल कहते हैं, मोती ही मोती झर पड़ते हैं। इतने मोती कि बटोरो तो कैसे बटोरो, संहालो तो कहां संहालो, रखो तो किन तिजोड़ियों में रखो? सारा जगत ही स्वर्ण हो जाता है।
चाहो तो उसे निर्वाण कहो, जैसा बुद्ध ने कहा।
निर्वाण का अर्थ होता है: दीये का बुझ जाना। बुद्ध ने उस परम अवस्था को निर्वाण इसलिए कहा कि तुम्हारा अहंकार ऐसे बुझ जाता है जैसे कोई पूंक मार कर दीया बुझा दे। फिर खोजे से नहीं मिलती ज्योति। फिर लाख तलाशते फिरो, जो दीया बुझ गया उसकी ज्योति तुम कहीं भी नहीं पा सकोगे। तुम्हारा अहंकार बुझ जाता है दीये की ज्योति की भांति। ध्यान की सारी प्रक्रियाएं फूंक मारने के उपाय हैं। बस फूंक मारी कि जादू हो जाता है। इधर दीया बुझा अहंकार का, इधर तुम शून्य हुए, मिटे कि उधर परमात्मा उतरा। तुम मिटो तो ही परमात्मा उतर सकता है।
इसलिए भीतर पहले कदम पर ही मंजिल आ जाती है। और बाहर जन्मों-जन्मों तक यात्रा करो तो भी मंजिल नहीं आती।
बाहर तो तुम असंभव को संभव बनाने की कोशिश कर रहे हो। तुम्हारे लिए नियम बदलेंगे नहीं, प्रकृति बदलेगी नहीं, स्वभाव बदलेगा नहीं! स्वभाव किसी के लिए अपवाद नहीं करता है।
तूफानी ज्वार में..
कागदिया नाव की..
क्या बिसात?
हो न हो!
कालजयी राह पर..
क्षणजीवी पांव की..
क्या बिसात?
हो न हो!
आंगन भर धूप में..
मुट्ठी भर छांव की..
क्या बिसात?
हो न हो!
हमारी सामथ्र्य क्या है? मुट्ठी भर। और आंगन भर ही धूप नहीं है, आकाश भर धूप है। मुट्ठी भर छांव, हो, न हो।
और जो नावें हमने बनाई हैं, सब कागज की। हमारा धन कागज, हमारा पद कागज, हमारी प्रतिष्ठा कागज। इन्हीं कागज के प्रमाणपत्रों को जुटाते रहोगे? इन्हीं को जोड़-तोड़ कर नाव बनाते रहोगे? किनारा भी न छूटेगा और डूबोगे, किनारे पर ही डूबोगे, मझधार तक भी नहीं पहुंच पाओगे। मझधार में डूबते तो भी कुछ बात थी कि चलो, न आया दूसरा किनारा, मझधार तो आई! कम से कम इतना तो तैरे! मगर कागज की नाव में चलोगे, किनारे से कदम भर भी न हट पाओगे कि डूब जाओगे। लेकिन तुम्हारी सब नावें कागज की हैं। दूसरे तुम्हारे संबंध में क्या कहते हैं..ये सब कागजी बातें हैं! कोई अच्छा कहता है, कोई बुरा कहता; कोई सम्मान करता है, कोई अपमान करता। करने दो! न उनके अच्छे कहने से तुम अच्छे होते हो, न बुरे कहने से बुरे होते हो। न उनके सम्मान करने से तुम्हारा सम्मान है, न उनके अपमान करने से तुम्हारा अपमान है। तुम तो तुम हो, जैसे हो वैसे हो। दुनिया क्या कहती है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
और जो कह रहे हैं, उन्हें होश कितना है? उनकी बातों का मूल्य भी क्या हो सकता है! सोए हुए लोग सम्मान कर रहे हैं, अपमान कर रहे हैं..नींद में बड़बड़ा रहे हैं..और उनकी नींद की बड़बड़ाहट, तुम उसे बड़ा मूल्य दे रहे हो! नींद में बड़बड़ा कर तुमने समझ लिया कि उन्होंने तुम्हें भारतरत्न बना दिया। वे नींद में बड़बड़ा रहे थे। न उन्हें पता है क्या कह रहे हैं, क्यों कह रहे हैं, न तुम्हें पता है; तुम भी सोए हो। वे नींद में बड़बड़ा रहे हैं, तुम नींद में सुन रहे हो।
नोबल प्राइजें बांटी जाती हैं। पुरस्कार, सम्मान। सब कागदिया नावें। मगर बड़ा शोरगुल मचता है। और चार दिन का सारा खेल। ये चार दिन की चांदनी और फिर गहरी अंधेरी रात। मौत आती है और सब लील जाती है। कब्र आती है और सब मिटा जाती है; चरण-चिह्न भी नहीं छूट जाते।
जहां सब मिटा जा रहा है, वहां तुम्हारे किए-धरे का भी कोई अर्थ नहीं है। करने योग्य अगर कुछ है तो वह केवल एक बात है: स्वभाव के नियम को पहचान लो; स्वभाव के नियम के साथ संग जोड़ लो; स्वभाव के साथ डोलो, नाचो, गाओ। स्वभाव के साथ एकरस हो जाने का नाम संन्यास है। स्वभाव के अनुकूल बहने का नाम संन्यास है। स्वभाव के प्रतिकूल जो जाता है, वह संसारी है; स्वभाव के अनुकूल जो जाता है, वह संन्यासी। संसारी उलटी धार चढ़ने की कोशिश करता है। नदी जा रही सागर की तरफ, वह चढ़ने की कोशिश करता है कि पहाड़ की तरफ पहुंच जाए नदी में तैर कर। संन्यासी देख लेता नदी कहां जा रही है, नदी से टकराता नहीं, छोड़ देता है शिथिलगात। इस अपने को नदी के प्रवाह में सहज भाव से छोड़ देने का नामः श्रद्धा; सत्संग। और छोड़ते ही नाव की भी जरूरत नहीं पड़ती। नदी स्वयं तुम्हें ले चलती है।
तुमने एक मजा देखा? जिंदा आदमी डूब जाता है, मुर्दा आदमी तैरने लगता है। मुर्दे को कोई नदी नहीं डूबा सकती। तुम मुर्दे को डुबाओ भी तो निकल-निकल कर बाहर आ जाता है। मुर्दा भी गजब का है! जिंदा डूब जाता है। जिंदे को तैरना आना चाहिए, तब भी बामुश्किल बच पाए! और यह सागर है विस्तीर्ण; इसमें कितना तैरोगे? थक ही जाओगे!
कालजयी राह पर..
क्षणजीवी पांव की..
क्या बिसात?
हो न हो!
लेकिन मुर्दे को कोई नदी नहीं डुबा पाती, कोई सागर नहीं डुबा पाता। मुर्दे का राज क्या है, रहस्य क्या है? राज इतना है कि मुर्दा है नहीं; इसलिए स्वभाव के प्रतिकूल नहीं जा सकता। स्वभाव के अनुकूल ही जाता है..कोई और उपाय नहीं है। होता तो कुछ हाथ-पैर मारता; है ही नहीं। सब भांति नदी के साथ राजी है। इसलिए नदी स्वयं उसे उठा लेती है।
जिसने समर्पण किया स्वभाव में, स्वभाव स्वयं उसे उठा लेता है। जिसने छोड़ा अपने को परमात्मा के चरणों में, उसको फिर कोई सागर नहीं डुबा सकता। वह डूबेगा भी तो उबर जाएगा। उसे मंझधार में भी किनारा मिल जाएगा। उसे डुबाने का उपाय ही नहीं है।
इसलिए संन्यास की प्राचीनतम परिभाषा है: ऐसे जीना जैसे तुम हो ही नहीें, जैसे तुम मर ही गए। मुर्दा होकर जीना संन्यास की परिभाषा है। जीवन अभिनय रह जाए। ठीक है, जो करना है, कर रहे हैं, मगर न कोई लगाव है, न कोई आसक्ति है। हो तो ठीक, न हो तो ठीक। सफलता और विफलता एक से मालूम पड़ने लगें; यश और अपयश में इंच भर भेद न रह जाए; लोगों की गालियां और लोगों के गीत एक से अनुभव में आने लगें; फिर तुम्हें इस संसार में कोई दुख नहीं, कोई पीड़ा नहीं। फिर यह संसार मिट गया। फिर इस संसार में तुम्हें चारों तरफ परमात्मा ही आंदोलित होता हुआ मालूम पड़ेगा।
करने योग्य बस एक ही बात है: स्वभाव के साथ सगाई। उसे तुम जो भी नाम देना चाहो, तुम्हारी मर्जी। भक्तों ने उसे नाम-स्मरण कहा है, प्रार्थना कहा है, पूजा कहा है, अर्चना कहा है, उपासना कहा है। लेकिन लोगों ने सब भ्रष्ट कर दिया। उन्होंने पूजा दो कौड़ी की कर दी; उन्होंने अर्चना औपचारिक कर दी; उनकी प्रार्थना पाखंड हो गई। वे कुछ और ही करने लगे पूजा और प्रार्थना के नाम पर। पूजा और प्रार्थना के लिए न तो मंदिर जाने की जरूरत है, न मस्जिद, न गिरजा, न गुरुद्वारा। पूजा और प्रार्थना के लिए तो स्वयं के भीतर जाने की जरूरत है।
आज मेरी गति, तुम्हारी आरती बन जाय!
आरती घूमे कि खिंचता जाय
रंजित क्षितिज-घेरा,
धूम-सा जल कर भटकता
उड़ चले सारा अंधेरा।
हो शिखा स्थिर, प्राण के
प्रण की अचल निष्कंप रेखा,
हृदय की ज्वाला, हंसी में
दीप्ति की हो चित्र-लेखा।
श्वास ही मेरी, विनय की भारती बन जाए!
आज मेरी गति, तुम्हारी आरती बन जाय!
वह हंसी मंदिर बने
मुस्कान क्षण हों द्वार मेरे,
तुम मिलो या मैं मिलूं
ये मिलन पूजा-हार मेरे।
आज बंधन ही बनेंगे
मुक्ति के अधिकार मेरे,
क्यों न मुझमें अवतरित
होकर रहो स्वरकार! मेरे!
प्राण-वंशी प्रेम की ही चिर व्रती बन जाय!
आज मेरी गति, तुम्हारी आरती बन जाय!
तुम्हारा उठना-बैठना, तुम्हारा बोलना-चलना-सोना, तुम्हारी गति ही आरती बननी चाहिए। तुम्हारे जीवन की शैली ही प्रार्थनापूर्ण हो जानी चाहिए। प्रार्थना कोई अलग-थलग चीज न हो, कि उठे सुबह और घड़ी-आधा घड़ी कर ली और निपट गए, कि झंझट मिटी, और फिर तेईस घंटे भूल-भाल गए। घड़ी में जिसको बनाया, तेईस घंटे में पोंछ डाला। स्वभावतः तेईस घंटे जीतेंगे, एक घंटा नहीं जीत सकता। एक घंटा मकान बनाओगे और तेईस घंटे गिराओगे, मकान कभी बनेगा?
प्रार्थना तो तुम्हारी श्वास-श्वास में समा जाए। उठो तो प्रार्थना में; बैठो तो प्रार्थना में, बोलो तो प्रार्थना में, चुप रहो तो प्रार्थना में। बाजार, तो प्रार्थना; घर, तो प्रार्थना। प्रार्थना ऐसे हो जैसे श्वास का चलना; जैसे तुम्हारे शरीर में रक्त का प्रवाह है; जैसे तुम्हारी आंखों का झपकना; ऐसी स्वाभाविक हो जाए! ऐसी स्वाभाविक हो जाती है। ऐसी स्वाभाविक होनी ही चाहिए। ऐसी स्वाभाविक हो, हम इस तरह ही निर्मित हुए हैं। आश्चर्य यह है कि कैसे अस्वाभाविक हो गया है सब! क्यों हम परमात्मा से टूट गए हैं, यह आश्चर्य की बात है। जो जुड़ जाते हैं, उसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। वह तो होना ही था। वह तो हमारी नियति है।
फूल खिल जाए, यह तो स्वाभाविक है। कोई कली खिले ही न, वसंतों पर वसंत आएं और कली खिले ही न, तो कुछ चमत्कार हो रहा है। और फूल खिल जाए, इसमें क्या चमत्कार है? बीज टूटे और वृक्ष बन जाए..इसमें क्या चमत्कार है? लेकिन वर्षा पर वर्षा हो और बीज बीज ही बना रहे, तो चमत्कार है। प्रकृति के प्रतिकूल कुछ हो तो चमत्कार है। अनुकूल हो तो क्या चमत्कार है! परमात्मा को पा लेना चमत्कार नहीं है..सबसे सहज घटना है; जीवन की सहजतम। इसलिए गुलाल ने कहा है..सहज नाम, सहज गति, सहज साधना।
गुलाल के सूत्र..
लागलि नेह हमारी पिया मोर।।
गुलाल कहते हैं: मेरा प्रेम लग गया, उससे ही जिससे लगना चाहिए। जो अपना है, उससे ही लग गया। लगता तो हम सबका प्रेम है, लेकिन उससे लग जाता है जो अपना नहीं है। पराए से लग जाता है। फिर कलह है; फिर उपद्रव है। भिन्न से लग जाता है। हमारा प्रेम भी स्वाभाविक नहीं है; हमारा प्रेम भी कृत्रिम है। और जब प्रेम भी कृत्रिम हो जाए, तो फिर क्या बचेगा हमारे जीवन में जो स्वाभाविक हो? प्रेम तक कृत्रिम हो जाए तो और सब तो कृत्रिम हो ही जाएगा।
तुम कहते हो हम पत्नी को प्रेम करते हैं, बच्चों को प्रेम करते हैं, मां-बाप को प्रेम करते हैं, भाई-बहन को, मित्रों को प्रेम करते हैं। सच में तुमने कभी सोचा कि प्रेम का अर्थ क्या होता है? कभी तुमने विचारा कि तुम प्रेम के लिए क्या चुकाने को राजी होओगे? प्रेम के लिए प्राण दे सकोगे? नहीं दे सकोगे। आनाकानी करने लगोगे। बचाव के उपाय खोजने लगोगे।
ऐसा ही हुआ न वाल्या भील के जीवन में, जो फिर पीछे वाल्मीकि बना। लुटेरा था; हत्यारा था। जंगल से निकलते नारद को पकड़ लिया। नारद को पकड़ा कि मुश्किल में पड़ा। कुछ ऐसे लोग हैं कि जिन्हें तुम पकड़ो भी तो तुम्हीं पकड़े जाओगे, वे नहीं पकड़े जाते। सोचा तो वाल्या ने यही था कि मैंने नारद को बंदी बनाया। उसे पता भी नहीं था कि नारद जैसे व्यक्तियों को बंदी बनाया नहीं जा सकता। जिन्होंने भीतर के स्वातंष्य को पा लिया हो, उन्हें बाहर से बंदी बनाने का कोई उपाय नहीं है।
समझ में भी आ गई उसे बात, थोड़ा बेचैन भी हुआ, हतप्रभ भी हुआ। उसने दो तरह के लोग देखे थे अब तक। एक तो वे जिन्हें वह लूटता था तो वे लड़ने, मरने-मारने को तैयार हो जाते थे। उन्हें वह भलीभांति पहचानता था, उनसे निपटना भी जानता था! और एक वे, जिन्हें वह लूटता था तो वे छोड़-छाड़ कर जो भी लुट रहा हो, भाग खड़े होते थे। उन्हें भी वह भलीभांति जानता था; उनसे निपटने की कोई जरूरत भी नहीं होती थी। मगर यह नारद कुछ तीसरे ही तरह के व्यक्ति मालूम पड़े। न तो लड़े, न भागे। वह जो वीणा बज रही थी, बजती ही रही, जो गीत उठ रहा था, उठता ही रहा। वाल्या ने उन्हें पकड़ लिया तो भी वे अपनी वीणा बजाते ही रहे। वही स्वर। जरा भी स्वर कंपा नहीं। वही भावदशा। वही मस्ती। वही उन्मत्त आनंद। वाल्या थोड़ा झिझका भी। या तो आदमी पागल है या सिद्धपुरुष है। ...पागलों और सिद्धपुरुषों में थोड़ी सी समानता होती है। पागल इतने बेहोश होते हैं, उनकी समझ में नहीं आता क्या हो रहा है। और सिद्धपुरुष इतने होशपूर्ण होते हैं, उनकी समझ में सब आता है, इसलिए कोई चीज उन्हें प्रभावित नहीं करती।
वाल्या ने पूछा कि तुम आदमी कैसे हो? देखते हो मेरे हाथ में यह तलवार? गर्दन काट दूंगा। और तुम हो कि गीत ही गाए जा रहे हो! अरे, मैं लुटेरा हूं, हत्यारा हूं! नारद ने कहा: तेरी जो मर्जी हो, वह तू कर! मुझे जो करना है, वह मैं कर रहा हूं। तुझे मैंने रोका? तुझे गर्दन काटना हो, गर्दन काट। लेकिन काटने के पहले एक सवाल का जवाब दे दे। क्योंकि पता नहीं कोई तुझसे वह सवाल पूछे, न पूछे। सवाल मेरा यह है कि यह गर्दन तू किसलिए काटता है, यह लूटना तू किसलिए करता है? स्वभावतः वाल्या ने कहा..जो तुम कहते, जो कोई भी कहता..कि बच्चों के लिए, पत्नी के लिए, बूढ़े बाप के लिए, मां के लिए। और तो मैं कोई कला जानता नहीं, बस बलशाली मेरे पास देह है, तो लूट लेता हूं। यही मेरा घर-गृहस्थी चलाने का ढंग है..यह मेरा व्यवसाय समझो। नारद ने कहा: ठीक है, मजे से कर अपना व्यवसाय! एक सवाल और है कि इस व्यवसाय के कारण जो तुझ दुख भोगने पड़ेंगे, उसमें तेरी मां, तेरे पिता, तेरे बच्चे, तेरी पत्नी भागीदार होंगे या नहीं?
वाल्या ने कहा कि मैं सीधा-सादा आदमी हूं, ऐसे कठिन-कठिन प्रश्न मैंने कभी सोचे नहीं, मैंने कभी पूछा भी नहीं अपने मां-बाप को, अपनी पत्नी को, मगर बात आपकी ठीक है, मैं पूछ कर आता हूं। लेकिन देखो, धोखा मत देना, भाग मत जाना! नारद ने कहा: तू मुझे बांध दे वृक्ष से ताकि तू निश्ंिचत जा सके।
नारद को बांध कर वृक्ष से वाल्या गया। सबसे पूछा। पत्नी से पूछा कि मैं ये जो पाप के कृत्य कर रहा हूं, हत्या, लूटना, जब नर्क में सडूंगा तो तू मेरे साथ भागीदार होगी? उसने कहा कि मुझे क्या लेना-देना; तुम क्या करते हो, इससे मुझे क्या लेना-देना! तुम विवाह करके मुझे ले आए, सो तुम्हारा कर्तव्य है कि मेरे लिए दो रोटी जुटाओ। मुझे दो रोटी से मतलब है, तुम पुण्य से कमाओ कि पाप से कमाओ, वह तुम जानो। विवाह करके लाए हो, दो रोटी खिलाओगे कि नहीं? शरीर पर कपड़ा तो चाहिए ही, छप्पर तो चाहिए ही, उससे ज्यादा मैंने तुमसे मांगा नहीं। मैंने तुमसे कभी पूछा भी नहीं कि तुम क्या करते हो। तुम जो करते हो, वह तुम जानो। और उसका फल भी भोगना पड़े, तो तुम्हीं को भोगना पड़ेगा। मेरा इसमें कोई हाथ नहीं है।
वाल्या तो बहुत चैंका!
बच्चों से पूछा, बच्चों ने कहा कि हमसे तो आपने पूछा भी नहीं जन्म देने के पहले; जन्म दे दिया, अब हमको उलझाते हो! अब जन्म दिया है तो भोजन तो देना ही होगा। तुम कैसे देते हो, हमको पता क्या, हम तो छोटे बच्चे हैं! तुम कहां से लाते हो, यह भी हमने कभी पूछा नहीं।
मां-बाप से पूछा। उन्होंने कहा, हम बूढ़े हो गए, तू जवान है, अपने बूढ़े मां-बाप को रोटी-रोजी तो देगा कि नहीं? तू जान, तेरा काम जाने। अच्छे काम कर कि बुरे काम कर। हम तो कहते नहीं कि तू बरे काम कर। हमारी न सहमति है, न असहमति है। हम तो बिल्कुल निष्पक्ष हैं। लेकिन बूढ़े मां-बाप की सेवा करना तेरा कर्तव्य है। सो जैसे तुझसे बन सके, तू कर। हम से जब पूछा जाएगा, हम तो कह देंगे: हम निष्पक्ष हैं।
वाल्या लौटा, दूसरा ही आदमी होकर लौटा। नारद के बंधन छोड़ दिए और कहा कि मुझे दीक्षा दो! मुझे भी वह राज बताओ कि तुम जैसा आदमी हो जाऊं; कि सुख हो कि दुख, कि मौत भी द्वार पर खड़ी हो तो भी मेरे गीत में कंपन न आए, मेरे हृदय में घबड़ाहट न हो। और तुमने ठीक समय पर आकर मुझे चैंका दिया। वे कोई भी मुझे प्रेम नहीं करते, क्योंकि कोई भी मेरे दुख में भागीदार होने को राजी नहीं है। सब सुख के साथी हैं। दुख में कोई साथ देने को राजी नहीं है!
ऐसे वाल्या रूपांतरित हुआ। ऐसे वाल्या वाल्मीकि हो गया।
सभी वाल्या हैं।
तरह-तरह का लूटना चल रहा है दुनिया में। कोई सीधे-सीधे लूटता है, कोई जरा इरछा-तिरछा लूटता है। कोई कुशलता से लूटता है, कोई बड़ी चालबाजियों से लूटता है। सब तरह का लूटना चल रहा है। लेकिन इसको तुम प्रेम मत समझना; यह प्रेम नहीं है। मोह होगा, आसक्ति होगी, वासना होगी, मगर प्रेम नहीं। प्रेम तो बड़ी पवित्र दशा है। प्रेम तो प्रार्थना है, प्रेम तो सुगंध है आत्मा की। प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है। उससे नीचे तल पर प्रेम नहीं हो सकता। उससे नीचे तल पर नीचे तल की बात होगी। तुम किसी स्त्री के शरीर में उत्सुक हो और उसको प्रेम कहने लगते हो, कि बस प्रेम हो गया।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। उस स्त्री ने विवाह के पहले पूछा कि मुल्ला, एक बात पूछनी है; तुम सदा-सदा मुझे ऐसा ही प्रेम करोगे? मुल्ला ने छाती ठोक कर कहा कि सदा-सदा! अरे, इस जन्म तो क्या अगले जन्म में भी!
प्रेम में तो लोग कुछ भी कह जाते हैं। प्रेम में और झगड़े में लोग क्या कहते हैं, उस पर ज्यादा ध्यान मत देना। झगड़े में क्या कहते हैं, उसको भी ज्यादा गौर मत करना, और प्रेम में क्या कहते हैं, उसको भी ज्यादा गौर मत करना।
 मुल्ला ने कहा कि जन्म-जन्म प्रेम करूंगा। तेरे अतिरिक्त मुझे कोई स्त्री दिखाई ही नहीं पड़ती। तू अप्रतिम है। तू चैदहवीं का चांद है। तेरे जैसा कौन! बहुत सौंदर्य देखे मगर तेरा रूप, तेरा रंग, तेरा निखार, यह तो परमात्मा ने जैसे विशेष ढंग से गढ़ा है। स्त्रियां ज्यादा पार्थिव होती हैं, इतनी ज्यादा रोमांटिक नहीं होतीं। जमीन पर उनके पैर पड़ते हैं, इतनी आकाश में नहीं उड़तीं। उस स्त्री ने कहा: यह सब तो ठीक है, मैं तुमसे यह पूछती हूं..अगले जन्म की नहीं पूछती..मैं यह पूछती हूं, जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी और यह देह जीर्ण-जर्जर हो जाएगी और हड्डियां निकल आएंगी और चेहरे से यह रूप खो जाएगा और आंखें धंधुली हो जाएंगी, तब भी तुम मुझे प्रेम करोगे? मुल्ला ने कहा: हां-हां! लेकिन अब हां-हां में वह बल नहीं था। कुछ थोथा-सा मालूम पड़ा। स्त्री ने कहा: तुम सोच कर कहो, तब भी तुम प्रेम करोगे? मुल्ला ने कहा: हां, जरूर प्रेम करूंगा, एक ही बात पूछनी है, तू अपनी मां जैसी तो नहीं दिखाई पड़ने लगेगी?
यहां बड़ी-बड़ी बातें भी पानी की लहर की तरह हैं। यहां बड़े-बड़े वक्तव्य भी कोई अर्थ नहीं रखते हैं। कहने की बातें हैं, सो लोग कहते हैं! और जब कहना ही है तो क्या कंजूसी करनी! और जब लोग कहने पर ही उतर आते हैं तो अतिशयोक्ति करने लगते हैं। और अतिशयोक्ति हमें जंचती भी बहुत है। कोई भी नहीं पूछता कि इसमें सच्चाई कितनी है? इसमें सत्य कितना है?
वासना से भरी हुई आंखें सत्य को न देखना चाहती हैं, न देख सकती हैं। वासना से भरी आंखें तो जो बिल्कुल क्षणभंगुर है, उससे अटकी हैं। देह का रूप, देह का सौंदर्य तो क्षणभंगुर है। अभी है, अभी न हो जाए। आज है, कल का कोई भरोसा नहीं। इसे तुम प्रेम कहते हो! प्रेम तो शाश्वत से ही हो सकता है। क्योंकि प्रेम शाश्वतता का ही नाम है। प्रेम समय के भीतर नहीं होता, समयातीत है। जिसे तुम प्रेम कहते हो, वह काम है। वह राम नहीं है। और जब तक राम न हो तब तक प्रेम नहीं है।
ठीक कहते हैं गुलाल..
लागलि नेह हमारी पिया मोर।।
कहते हैं: हमारा तो प्रेम उस असली पिया से लग गया है, जो अपना है, जो सदा अपना है। जिसको तुम चाहो तो भी पराया नहीं हो सकता। यहां तो सब पराए हैं, तुम लाख चाहो तो भी अपने नहीं हो पाते। हम उपाय तो सब करते हैं। हम क्या कमी छोड़ते हैं! लेकिन सब उपाय हमारे आज नहीं कल व्यर्थ हो जाते हैं। आज नहीं कल हमें पता चलता है, जिसे अपना माना वह अपना नहीं, वह कभी भी अपना नहीं था। माना था तुमने। किसी वासना के प्रवाह ने मनवा दिया था। उसने भी माना था; किसी वासना के प्रवाह ने, किसी लोभ ने, किसी हानि ने उसे भी स्वीकार करवा दिया था। लेकिन यहां के सारे संबंध लोभ के हैं, मोह के हैं, भय के हैं। छोटे बच्चे तुमसे प्रेम करते हैं, सिर्प भय के कारण। क्योंकि उनका जीवन तुम पर निर्भर है। वे बच ही नहीं सकते, अगर तुम उन्हें न बचाओ, वे मर ही जाएंगे। एक क्षण नहीं जी सकते तुम्हारे बिना। तो तुमसे भयभीत रहते हैं।
भय के कारण बच्चे मां-बाप को प्रेम करना शुरू करते हैं। फिर भूल ही जाते हैं कि बुनियाद में भय है। और इसीलिए हर बच्चा अपने मां-बाप से एक-न-एक दिन बदला लेता है। जब बदला लेता है तब तुम परेशान होते हो। क्योंकि भय का तो बदला लिया ही जाएगा। एक वक्त आएगा कि बच्चे शक्तिशाली हो जाएंगे और मां-बाप कमजोर हो जाएंगे। एक वक्त था कि मां-बाप शक्तिशाली थे और बच्चे कमजोर थे। जब बच्चे कमजोर थे, तब तुमने उन्हें झुका लिया। जब बच्चे शक्तिशाली हो जाएंगे, तब वे मां-बाप को झुकाने लगते हैं।
यह तो राजनीति है..भय की राजनीति। स्त्रियों को डरवाया है तुमने, कितना डरवाया है! कितना भयभीत किया है उनको! उनकी सारी स्वतंत्रता छीन ली है। उनकी जड़ ही काट दी है स्वतंत्रता की। उनसे उनकी सारी आर्थिक स्वावलंबन की क्षमता छीन ली है। उनको बिल्कुल अपने ऊपर निर्भर कर लिया है। रोटी दो तो तुम दो, कपड़ा दो तो तुम दो, मकान दो तो तुम दो..चाभी तुम्हारे हाथ में है धन की। स्त्रियों से तुमने धन की व्यवस्था छीन ली, उनको शिक्षा देना बंद कर दिया, उनको शास्त्र पढ़ाना बंद कर दिया। और तब स्वभावतः तुम मालिक बन बैठे। और तुमने स्त्रियों को समझाया है कि पति परमात्मा है। और मजबूरी में उनको मानना भी पड़ा। पर वह ऊपर ही ऊपर है मानना। जब स्त्रियां चिट्ठी लिखती हैं तो लिखती हैं नीचे: आपकी दासी। मगर भलीभांति वे जानती हैं कि दास कौन है और दासी कौन है। और चैबीस घंटे सिद्ध करती रहती हैं कि दास कौन है और दासी कौन है। बड़े-बड़े बहादुर जो घर के बाहर बड़े बहादुर हैं, घर में आते ही एकदम से चूहे हो जाते हैं; एकदम पूंछ दबा लेते हैं। क्योंकि जब स्त्रियों को तुमने इतना सताया है, तो उसकी प्रतिक्रिया होगी। स्वभावतः।
भय से प्रेम नहीं उपजता। भय से तुम किसी को मनवा सकते हो कि मैं तुमसे बड़ा हूं, लेकिन तुम दूसरे के भीतर प्रतिशोध की अग्नि जला रहे हो। और स्त्रियों ने उस प्रतिशोध के अपने उपाय खोज लिए हैं, वे अपने ढंग से तुमको सताती हैं। खाने पर बैठोगे तो सताएंगी। भोजन ही न करने देंगी..ऐसी बकवास लगाएंगी! रात सोने जाओगे तो सोने नहीं देंगी..ऐसी बकवास लगाएंगी! लोग पत्नियों से बचने के लिए कहां-कहां नहीं जाते! कोई रोटरी क्लब में है, कोई लायंस क्लब में भर्ती हो गया है।
एक दल उत्तर ध्रुव की यात्रा के लिए गया। बड़ी कठिन यात्रा थी। उस दल में दो लोगों में बड़ी मैत्री हो गई, घनिष्ठता हो गई। एक ने दूसरे से पूछा कि इतनी भयंकर यात्रा पर, जिसमें जीवन को खतरा है आने का तेरा कारण क्या है? उसने कहा, चुनौती, अभियान। मुझे हमेशा असंभव बातें पुकारती हैं। फिर उसने पूछा, और तुम्हारे आने का कारण क्या है? उसने कहा, इतना बड़ा कोई कारण नहीं, जब लौट कर घर चलेंगे, तब तुम मेरी पत्नी को देख लेना। मेरी पत्नी को देखकर ही तुम समझ जाओगे कि अगर चांद-तारों पर भी जाना पड़े तो मैं जाने को राजी हूं। पत्नी से छुटकारा! मर भी जाऊं तो मैं मुस्कराता हुआ मरूंगा कि चलो छूटा पिंड!
और इसका जिम्मा किस पर है?
इसका जिम्मा पुरुषों पर ही है। पुरुष स्त्रियों को दबा रहा है, स्त्रियां पुरुष को दबा रही हैं। बच्चे मां-बाप को दबा रहे हैं, मां-बाप बच्चों को दबा रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी तुम्हारी नसें पकड़ना जान जाते हैं। कब दबाना? छोटे-छोटे बच्चे राजनीतिज्ञ हो जाते हैं। ऐसे चुपचाप रहेंगे, घर में मेहमान आ जाएंगे तो एकदम उछल-कूद मचाने लगेंगे, शोरगुल मचाने लगेंगे, क्योंकि वे जानते हैं यह मौका है, अभी डरवा देंगे तुमको, अभी तुम मार-पीट नहीं कर सकते बच्चों की..नहीं तो पड़ोसी क्या कहेंगे, मेहमान क्या कहेंगे! अभी तुम पांच रूपए का नोट पकड़ाओगे कि बेटा जा, सिनेमा देख आ! भाड़ में जा, कहीं भी जा, मगर यहां से हट! इसको तुम पांच पैसे देने को राजी नहीं थे, इसको तुम पांच रूपए का नोट पकड़ा रहे हो कि यह जितनी देर घर के बाहर रहे उतना अच्छा है। क्योंकि जब तक मेहमान टल जाएं। बच्चे को टाल रहे हो, फिर मेहमानों को टालने में लगोगे। क्योंकि मेहमानों से भी कोई प्रेम थोड़े ही है, सब शिष्टाचार निभाया जा रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन का मित्र चंदूलाल बहुत दिन आकर मुल्ला के घर रह गया। जाए ही नहीं! मुल्ला ने बहुत उपाय किए; भई, तेरी पत्नी राह देखती होगी, तेरे बच्चे दुखी होते होंगे। लेकिन चंदूलाल कहे कि मैं तो निर्मोही व्यक्ति हूं। मोह इत्यादि से तो मैं पार जा चुका हूं। अरे, कौन बच्चा, कौन पत्नी! ऊंची ज्ञान की बातें करें! कोई रास्ता न देख कर मुल्ला ने झूठा तार दिलवाया पत्नी की तरफ से कि शीघ्र घर आओ, बच्चा सख्त बीमार है, बिल्कुल मरणासन्न है, तो मजबूरी में चंदूलाल को जाना पड़ा। जब सुबह कार में डरइवर उसे छोड़ने स्टेशन जा रहा था तो चंदूलाल ने डरइवर से कहा कि जरा तेजी से ले चल, कहीं टेन चूक न जाए। डरइवर ने कहा, आप बिल्कुल बेफिकर रहो, क्योंकि चलते वक्त नसरुद्दीन ने मुझसे कहा है कि अगर ट्रेन चूकी, बच्चू, तो नौकरी खतम! आप बिल्कुल बेफिक्र रहो, हमें भी अपनी जान बचानी है, टेन पकड़ा कर रहेंगे। अगर इस स्टेशन पर नहीं तो अगली स्टेशन पर मगर टेन को पकड़ा कर रहेंगे!
इस जीवन के थोथे नाते-रिश्तों को, जिनके भीतर क्या-क्या छिपा हुआ है, प्रेम कहते हो! प्रेम शब्द को अपमानित करते हो। मत खींचो प्रेम जैसे पवित्र शब्द को कीचड़ में। संतों ने उसे मुक्त किया है कीचड़ से।
लागलि नेह हमारी पिया मोर।।
उस प्यारे से प्रेम लगाओ। गुलाल कहते हैं, उस प्यारे से ही प्रेम लग गया हमारा जो हमारा ही है। और उससे ही प्रेम लग सकता है; क्योंकि न उसे कुछ लेना है, न कुछ देना है। उससे न तो कोई शरीर का संबंध है, न मन का कोई संबंध है। उससे तो संबंध बनाना हो तो शरीर और मन दोनों के पार होना जरूरी है। उससे तो सिर्प आत्मिक नाता होता है। वह शुद्धतम उड़ान है। ऊंची से ऊंची उड़ान है आकाश की। उस उड़ान ने ही हमें बुद्ध दिए, महावीर दिए, कृष्ण दिए, क्राइस्ट दिए। उस उड़ान ने ही इस पृथ्वी को इसका सौभाग्य दिया है। यह पृथ्वी कभी-कभी दुल्हन बनी है। जब कोई बुद्ध इस पृथ्वी पर चला, तो यह पृथ्वी भी दुल्हन बनी है। हमारे कारण तो यह पृथ्वी विधवा है। यह बुद्धों के कारण कभी-कभी सजी है। कभी-कभी इस पर भी अलौकिक का अवतरण हुआ है!
चुनि चुनि कलियां सेज बिछावौं, करौं मैं मंगलाचार।
वे कहते हैं कि कलियों को चुन-चुन कर मैं उस परम प्यारे के लिए सेज तैयार करता हूं। कौन सी कलियां? ये सब प्रतीक हैं। हमारे पास कलियां ही हैं अभी, फूल तो नहीं। फूल तो उसके आगमन पर होंगे..हमारी कलियां उसके आगमन पर खिलेंगी, उसके स्वागत में खिलेंगी, उसके मिलन में खिलेंगी; उसके आलिंगन में हमारी कलियां फूल बनेंगी; तब तक तो कलियां ही हैं। ठीक कहते हैं वे। यह नहीं कहा कि फूलों से सेज सजाता हूं।
जब तुम इन संतों के वचनों को समझने चलो, तो छोटी-छोटी बारीकियों पर ध्यान देना।
चुनि-चुनि कलियां सेज बिछावौं, ...
अभी तो मेरे पास सिर्प कलियां हैं। उन्हीं को चुन-चुन कर सेज बना रहा हूं। तुम आओ तो सब फूल खिल जाएंगे; तुम आओ तो फूल ही फूल खिल जाएंगे; तुम आए कि बहार आई; तुम आए कि वसंत आया; तुम आए कि मधुमास! और तब मंगलाचार होगा। तब मेरे हृदय में मंगलगीत उठेंगे। तब मेरे प्राण मंगलघट बनेंगे।
जिस जिंदगी में तुम जी रहे हो, वहां तो इन अनुभवों से कोई तालमेल बैठता नहीं।
दुनिया के इस मोह-जलधि में..
किसके लिए उठूं-उभरूं अब?

बिखर गई धीरज की पूंजी,
सुख-सपने नीलाम हो गए,
शीशा बिका, किंतु रत्न के..
मनसूबे नाकाम हो गए;
ऊपर की इस चमक-दमक में,
किसके लिए दहूं-निखरूं अब?
हाट-बाट की भीड़ छंट गई,
मिला न मेरा कोई गाहक,
मैं अनचाहा खड़ा रह गया,
व्यर्थ गई सब मेहनत नाहक;
बीत गई सज-धज की वेला,
किसके लिए बनूं-संवरूं अब?
प्रात गया दोपहरी के संग,
आगे दिखती रीती संध्या,
कातर प्रेत खड़े आंसू के,
ज्योति हो गई जैसे वंध्या;
चला-चली की इस वेला में,
किसके लिए रहूं-ठहरूं अब?
तुम्हारा जीवन तो एक रिक्तता है। और हमेशा चला-चली की बेला है। न यहां कुछ रुकने को है, न कुछ ठहरने को है। कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर लिए हैं।
गुलाल कहते हैं: हीरा जनम गंवायो। जो जीवन हीरा बन सकता था, वह तो गंवा दिया; और क्या खरीद लाए हो? मौत पूछेगीः क्या खरीद लाए बाजार से? जिंदगी की हाट में गए थे, जिंदगी के मेले में गए थे, क्या खरीद लाए? मौत के सामने सिर झुका कर खड़ा होना होगा। बड़ी लज्जा आएगी। कुछ जवाब देते न बनेगा। खरीद आने की बात ही कहां, जो साथ लेकर आए थे जन्म से, वह भी लुटा आए। वह भी बाजार में लुट गया। वहां लुटेरे खूब बैठे हैं। वहां तरह-तरह के लुटेरे हैं। हीरा तो दे आए हैं, कंकड़-पत्थर ले आए हैं, यह हमारे जिंदगी का सौदा है। तो शायद अगर यही अनुभव हो तो संतों की वाणी समझ में न आएगी। लेकिन इस अनुभव को भी अगर तुम साक्षी-भाव से देखो: क्या कमाया है...घबड़ाना मत; ऐसे प्रश्न हम पूछते नहीं अपने से; क्योंकि इन प्रश्नों से ही मन में पीड़ा होती है, डर लगता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक टेन में सफर कर रहा था। टिकट चेकर आया। टिकट न मिले! सब बक्से खोल डाले, बिस्तर खोल डाला, सब चीजें नीचे-ऊपर कर दीं, पाजामा के खीसे में देखे, कोट के खीसे में देखे, कमीज के खीसे में देखे..टिकट चेकर भी बेचारा दया खा गया! उसने कहा कि जरूर तुम पर टिकट होगी। इतनी मेहनत कर रहे हो, होगी टिकट, मैं मानता हूं। अब ज्यादा मेहनत न करो। सारा डिब्बा तुमने चीजों से भर दिया! सम्हालो अपनी चीजें!
मुल्ला ने कहा: टिकट खोजने के लिए कौन मेहनत कर रहा है! मुझे यह भी तो पता लगाना है कि मैं जा कहां रहा हूं? टिकट जाए भाड़ में, बड़ा सवाल यह है कि मैं जा कहां रहा हूं?
पास ही बैठा एक यात्री भी यह सब देख रहा था। उसने कहा कि और सब तो मैं देख रहा हूं, लेकिन कोट का एक खीसा, ऊपर का खीसा, उसमें तुमने नहीं देखा।
मुल्ला ने कहा: उसकी बात ही मत छेड़ो! उसमें देखूंगा भी नहीं। चाहे कुछ हो जाए! जान रहे कि जाए, उस खीसे में नहीं देखूंगा।
टिकट चेकर भी बोला कि यह हैरानी की बात है। जब तुमने सब उधेड़बुन कर डाली; तुमने अपने बक्से नहीं, औरों के बक्से तक खोल दिए; खुद का बिस्तर खोला, दूसरे के बिस्तर खोल दिए..और इस खीसे में क्यों नहीं देखोगे?
नसरुद्दीन ने कहा कि बस उसी में आशा अटकी है कि शायद वहां हो। वहां नहीं देख सकता। वहां देखा तो वह आशा भी गई। अभी एक आशा है कि अगर नहीं मिली, तो इस खीसे में होगी। इसमें हाथ नहीं डाल सकता।
तुम जिंदगी में कुछ सवालों को टाल कर रखते हो। वहां तुम हाथ भी नहीं डालते। डरते हो कि कहीं वहां भी खालीपन न निकले। कहीं ऐसा न हो कि टिकट वहां भी न मिले। यही भरोसा भी काफी है कि शायद वहां होगी। एकाध जगह तो छोड़ रखो; भरोसा कायम रहे।
जीवन के तुम असली सवाल नहीं उठाते। असली सवालों से बचने के लिए तुम न मालूम कितने व्यर्थ सवाल उठाते रहते हो। किसने सृष्टि बनाई? जैसे तुम्हें इससे कुछ लेना-देना है। अब किसी ने भी बनाई हो, अब जो भूल हो गई हो गई, अब तुम क्षमा भी करो! मगर किसने सष्टि बनाई? जैसे तुम्हारे लिए यह कोई सार्थक प्रश्न है! जैसे तुम्हें पता चल जाएगा तो फिर तुम कुछ करोगे! कोई मुकदमा चलाओगे या क्या करोगे? स्वर्ग है या नहीं, नरक है या नहीं? यहां जमीन पर हो अभी, जमीन की पूछो कुछ, इतने दूर न जाओ। मगर इतने दूर जाने का कारण है; पास न आना पड़े। दूर-दूर भटकते हो और भ्रांति रखते हो कि बड़ी तात्विक चर्चा कर रहे हो। यह तात्विक चर्चा नहीं है, यह थोथी चर्चा है।
धर्मशास्त्रों के नाम से जो चर्चा चलती है, एकदम थोथी है। तात्विक चर्चा का तो अर्थ होता है: वास्तविक, यथार्थ; जिससे तुम्हारे जीवन में कोई रूपांतरण हो, जो तुम्हारे जीवन की असलियत से संबंधित हो।
चुनि चुनि कलियां सेज बिछावौं, करौं मैं मंगलाचार।
वे कहते हैं, अभी तो मेरे पास कलियां हैं। प्रेम नहीं है, प्रेम का फूल नहीं है, बस प्रेम की संभावना मात्र है, उसी को बिछा रहा हूं। प्रार्थना नहीं है, सिर्प प्रार्थना का अधकच्चा रूप है। उसी को बिछा रहा हूं। अभी पूजा जानता कहां! अभी अर्चना पहचानी कहां! सब कलियां हैं, खिलेंगी तो सुगंध उड़ेगी, अभी तो सुगंध का भी कुछ पता नहीं, अभी तो कलियां बंद हैं। और कलियां खिलें तो कैसे खिलें, सूरज ही नहीं आया। अतिथि ही नहीं आया तो अभी कलियां खिलें कैसे? तो प्रतीक्षा कर रहा हूं, पुकार कर रहा हूं।
जागरण की ज्योति भर दो, नींद के संसार में तुम।
जब कि जीवन-रेख सी यह
सांस ही मुझ में खिंची हो
और मेरे हृदय के प्रिय विरह
से करुणा सिंची हो।
अश्रु बन कर ही मिलो प्रिय,
प्रेम के अभिसार में तुम।
जागरण की ज्योति भर दो, नींद के संसार में तुम।
ज्ञात होता है कि यह दुख
दृग-रहित है, पथ न पाते।
भूल कर ये हाय, मेरे पास
ही फिर लौट आते।
दृष्टि उनको या कि साहस
दो मुझे उपहार में तुम
जागरण की ज्योति भर दो, नींद के संसार में तुम।
ये बधिर दिन-मास जैसे
एक गति-क्रम जानते हैं।
नव उषा में राग, निशि में
एक ही तम जानते हैं।
राग में हो लीन, गूंजो
बीन की झनकार में तुम।
जागरण की ज्योति भर दो, नींद के संसार में तुम।
अभी तो मैं सोया हूं, तुम चाहो तो जागरण की ज्योति भर सकते हो। अभी तो मैं खोया हूं, तुम चाहो तो हाथ पकड़ कर राह पर ला सकते हो। भक्ति का यह मूल सूत्र है। परमात्मा की मर्जी पर अपने को छोड़ देना। जो कराए, करना; जहां चलाए, चलना। भक्ति संकल्प नहीं है, समर्पण है। अपनी तरफ से मैं बाधा नहीं दूंगा, बस इतनी तैयारी भक्त को दिखानी पड़ती है।
‘चुनि चुनि कलियां सेज बिछावौं’, ...अपनी तरफ से सेज बिछा दी है, अब तुम जब आओ! मंगलाचार की तैयारी कर ली है, अब जब तुम आओ! द्वार खुले छोड़ दिए हैं, ऊगे तुम्हारा सूरज, चले तुम्हारी हवा, तो मेरी तरफ से कोई बांधा नहीं है।
एकौ घरी पिया नहीं अइलै, ...
लेकिन बहुत पीड़ा सालती है..द्वार खुला रखा है, सेज बिछा रखी है, कान अटके हैं पथ पर कि पगध्वनि सुनाई पड़े, मगर कहीं कुछ चूक हो रही है।
एकौ घरी पिया नहीं अइलै, होइला मोहिं धिरकार।।
एक भी घड़ी के लिए, एक क्षण के लिए भी प्यारे का आगमन नहीं हो रहा है। पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती। मगर बड़ी प्रीतिकर बात गुलाल ने कही है। इससे उस प्यारे से शिकायत नहीं की है कि क्या तुम मुझसे नाराज हो? क्या तुम इतने कठोर हो? क्या तुम्हारे पास पाषाण-हृदय है? क्या तुम्हें मेरी पुकार नहीं सुनाई पड़ती? क्या बहरे हो? कोई शिकायत नहीं की। उल्टी बातः ‘होइला मोहिं धिरकार‘। मैं अपने को ही धिक्कार दे रहा हूं कि जरूर मुझसे कहीं कोई कमी है; जरूर कहीं कोई चूक हो रही है। सेज शायद बनी नहीं उसके योग्य; शायद मंगलाचरण उसके योग्य सजा नहीं; शायद वंदनवार जैसे होने थे वैसे नहीं हैं; मैं अपात्र हूं।
इस भेद को ख्याल में कर लेना।
साधारणतः अगर तुम्हारे मन में शिकायत उठे तो समझ लेना यह भक्ति नहीं है। अगर तुम्हारे मन में यह ख्याल उठे कि मैं कितनी प्रार्थना कर रहा, कितनी पूजा कर रहा, कितना पुकार रहा, सुनते क्यों नहीं? कितना पुण्य कर रहा, कितना दान कर रहा, मंदिर बनाए, मस्जिद बनाए, सुनते क्यों नहीं? हो तुम या नहीं हो तुम? अगर तुम्हारे मन में इस तरह की शिकायत उठे, तो समझना कि यह भक्ति नहीं है। और शिकायत अहंकार से आती है। और जहां अहंकार है, वहां तो परमात्मा के आने का कोई उपाय नहीं है। शिकायत नहीं, शिकायत से उल्टी बातः जरूर मेरी ही कोई कमी है। दोष देना तो अपने को; दोषी ठहराना तो अपने को।
आठौ जाम रैनदिन जोहौं, ...
आठों याम, दिन-रात रास्ता देखता हूं।
...नेक न हृदय बिसार।
एक क्षण को भी तुम्हें भूलता नहीं। पुकारता हूं, राह देखता हूं, अपने को धिक्कारता हूं कि रह गई कोई कमी, कि अभी और कुछ पूरा होना चाहिए। फिर-फिर सेज को सजाता हूं, फिर-फिर दौड़ा द्वार पर जाता हूं। अगर ऐसा हो तो वह परम घड़ी एक दिन आनी निश्चित है। जिस दिन भी तुम्हारी पात्रता पूरी होती है, परमात्मा उसी क्षण उपस्थित हो जाता है। एक क्षण की भी देर नहीं होती।
तुमने कहावत सुनी है कि देर है अंधेर नहीं। वह कहावत गलत है। न देर है, न अंधेर है। क्योंकि अगर देर है तो अंधेर तो हो ही गया। देर का मतलब यह है कि तुम पात्र थे और वह नहीं आया। अंधेर और किसको कहते हैं? किसी अंधे ने यह कहावत बनाई होगी कि देर है अंधेर नहीं। तो अंधेर किसको कहते हैं और फिर! पात्र को आया नहीं और अपात्र को आ गया, यही तो अंधेर है।
नहीं, न देर है न अंधेर है। जैसे ही तुम पात्र हुए, तत्क्षण, युगपत उसका आगमन हो जाता है। आगमन कहना भी कहने की ही बात है, वह तो आया ही हुआ है। तुम पात्र हुए कि दिखाई पड़ जाता है, पहचान हो जाती है, बस, वह तो तुम्हारे भीतर बैठा ही हुआ है..सदा-सदा से। तुम पात्र हुए कि आंख खुल जाती है।
तिन लोक कै साहब अपने, फरलहिं मोर लिलार।।
गुलाल कहते हैं: और मैं ऐसे ही अपने को धिक्कार करता रहा और एक दिन वह चमत्कार की घड़ी आ गई, वह धन्यभाग की घड़ी आ गई। ‘तीन लोक कै साहब अपने’, वह जो तीनों लोकों का मालिक है, वह आ गया।
तीन लोक कै साहब अपने, फरलहिं मोर लिलार।।
मेरे भाग्य का उदय हुआ, फल लगे!
सत्तसरूप सदा ही निरखौं, ...
अब तो उसका ही रूप सदा दिखाई पड़ रहा है। जहां देखता हूं, वही दिखाई पड़ता है। जो देखता हूं, वही दिखाई पड़ता है।
...संतन प्रान-अधार।
और अब मैं जानता हूं, क्योंकि अब मेरी पहचान उससे हो गई है, कि जहां-जहां संत हैं, वहां-वहां वह घना होकर प्रकट हो रहा है। संतों के प्राणों का वही आधार है। जैसे कि सूरज की किरणें प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में बिखर जाती हैं, इंद्रधनुष बन जाता है, ऐसे ही परमात्मा संतों से गुजर कर सात रंगों में, सात रागों में, सरगम में प्रकट होता है। संत उसकी अभिव्यक्ति हैं। संत उसकी बांसुरी हैं। संत उसके गीत हैं। संत उसका मुंह हैं, उसकी जबान हैं। वह संतों से बोलता है। उसके पास अपने और कोई हाथ नहीं, संतों के हाथ उसके हाथ हैं। और उसके पास अपनी कोई आंखें नहीं, संतों की आंखें उसकी अपनी आंखें हैं।
सत्तसरूप सदा ही निरखौं, संतन प्रान-अधार।
अब तो सब जगह वही दिखाई पड़ता है, लेकिन संतों के भीतर खूब घना होकर दिखाई पड़ता है। उनके प्राणों का प्राण होकर दिखाई पड़ता है। जैसे और जगह तो दीया दीया जला है, लेकिन संतों के जीवन में दीपावली है। दीये ही दीये जले हैं, पंक्तिबद्ध दीये जले हैं।
कहै गुलाल पावौं भरिपूरन, मौजै मौज हमार।।
गुलाल कहते हैं: और हमने तो खूब भरपूर पाया। सब तरफ पाया, बाढ़ की तरह पाया। ‘कहै गुलाल पावौं भरिपूरन’, ...खूब पाया, इतना पाया जितना कभी सोचा भी नहीं था कि पाएंगे। कभी मांगा भी नहीं था, इतना मिला, बिन मांगे मिला। हमारी झोली छोटी पड़ गई, हमारे हृदय का पात्र छोटा पड़ गया, वह ऊपर से बहा जा रहा है। ...‘मौजै मौज हमार।’ अब तो हमारे जीवन में आनंद ही आनंद है, मस्ती ही मस्ती है, मौज ही मौज है।
आज मेरी प्रार्थना रिमझिम बनी बरसात की।
प्रिय-मिलन के अधखुले स्वर
बूंद बन कर झर रहे हैं,
जल भरे इन बादलों को
देख दृग क्यों भर रहे हैं?
सिसकती-सी भावनाओं में बसी है चातकी।
आज मेरी प्रार्थना रिमझिम बनी बरसात की।

बादलों की श्याम रेखा
भाग्य-रेखा बन न जाए,
फूल तक इन कंटकों में
आ गए, पर तुम न आए,
जो प्रतीक्षा प्रात की थी बन गई वह रात की।
आज मेरी प्रार्थना रिमझिम बनी बरसात की।

इस दिशा से उस दिशा तक
इंद्रधनुषी प्रिय संदेसे,

वायु-लहरों बीच मैंने
कुछ कहे या कुछ कहे से,
सांस से ही जान लेना जो कि मैंने बात की।
आज मेरी प्रार्थना रिमझिम बनी बरसात की।
पहले तो भक्त रोता है..आंखों से बरसात लग जाती..विरह में, और फिर भक्त रोता है अलमस्ती में, आनंद में। भक्त के जीवन में दो बार आंसुओं के क्षण आते हैं। एक तो विरह के क्षण में, जब वह पुकारता है, तो उसकी आंखें बरसात हो जाती हैं, और एक आनंद के क्षण में, जब वह पा लेता है। उनके दोनों आंसू भिन्न-भिन्न हैं। पहले आंसू में पीड़ा है, पुकार है, दूसरे आंसू में धन्यवाद है, अनुग्रह है।
...पिय संग जुरलि सनेह सुभागी।
गुलाल कहते हैं: सुहाग रच गया। सौभाग्य रच गया। मेरी मांग भर गई। मैं दुलहन बनी। मेरी सगाई हो गई।
पिय संग जुरलि सनेह सुभागी।
जुड़ गई पिया के संग!
पुरुब प्रीति सतगुरु किरपा किय, रटत नाम बैरागी।।
यह कैसे हुआ। तो कहते हैं। तीन बातों से हुआ। ‘पुरुब प्रीति;’ सबसे पहले तो सतगुरु से प्रेम लगाया। ‘पुरुब प्रीति सतगुरु’; पहले तो सत्संग में जुड़ा, जहां मस्त इकट्ठे होते थे, जहां हरिनाम की चर्चा होती थी, जहां प्रभु-प्रेम की वर्षा होती थी। समझ में आती भी थी, नहीं भी आती थी। कुछ-कुछ डूबता भी था, नहीं भी डूबता था। कुछ बूंदाबांदी अपने पर भी हो जाती थी।
तुमने कभी ख्याल किया..अभी वैज्ञानिकों ने इस पर कुछ खोज की है..अगर शराबियों के एक झुंड में तुम बैठ जाओ, तो बिना पीए नशा चढ़ने लगता है। अब तो इसके वैज्ञानिक आधार हैं। दस शराबी हों और तुम उनके बीच बैठो, तो तुम भी मस्ती में आने लगोगे। उड़ी-उड़ी बातें करने लगोगे। दस शराबी एक वातावरण पैदा करते हैं, एक तरंग पैदा करते हैं। उस तरंग में तुम डूब जाओगे। यह तो तुम्हारे जीवन का अनुभव है कि अगर पांच-सात दुखी आदमी बैठे हों और तुम भी उनके पास जाकर बैठ जाओ, हंसते आए थे, हंसी एकदम खो जाती है। उनका दुख तुम्हें छू लेता है, पकड़ लेता है। तुम दुखी थे और दो-चार मस्त आदमियों से मिलना हो गया, जहां हंसी के फव्वारे छूट रहे थे, तुम भूल ही गए अपना दुख, तुम भी हंसने लगे। बाद में शायद थोड़ा सा अपराध भी अनुभव करोगे कि यह क्या हुआ! मैं तो दुख में था, हंसना था भी नहीं और हंसने लगा। उन चार आदमियों की हंसी ने तुमको भी आंदोलित कर दिया। हम सब जुड़े हैं। हम सब एक-दूसरे से तरंगित होते हैं।
सत्संग का अर्थ है: जहां लोग परमात्मा की मस्ती में डूबे हैं; जहां कोई परमात्मा की मस्ती में पूरा डूब गया है और उसके आस-पास डूबने के लिए तैयार लोग इकट्ठे हो गए हैं। वहां अगर तुम बैठो, उठो, तो ज्यादा देर बचोगे नहीं, रंग छूने लगेगा। जैसे कोई बगीचे से गुजर जाए तो भी कपड़ों मे फूलों की गंध आ जाती है, वैसे ही।
गुलाल कहते हैं: पहले तो सतगुरु से प्रेम हुआ। पहले तो सत्संग हुआ। फिर दूसरी घटना कि सतगुरु ने कृपा की। जब भक्त प्रेम करता है, तो स्वभावतः सतगुरु से कृपा उस तक पहुंचती है। सतगुरु तो कृपा कर ही रहा है। अन्यथा कोई उपाय नहीं है। जो उसे मिला है, वह उससे बहता है। तुम जरा अपने पात्र को उसके पास कर लेते हो, तुम्हारा पात्र भी भर जाता है। जैसे नदी बही जा रही हो, तुम झुक गए, तुमने अंजुली बना ली हाथ की, तो तुम्हारे अंजुली में पानी भर गया। अब तुम चाहो तो अपनी प्यास बुझा लो। हां, नदी छलांग मार कर तुम्हारे कंठ में नहीं जाएगी, अंजुली तुम्हें बनानी पड़ेगी। सतगुरु से प्रेम का अर्थ है: तुम ने अंजुली बना ली और तुम झुके। फिर नदी तुम्हारी अंजुली में भर जाएगी। फिर तुम्हारे कंठ तक भी तुम उस जल को ले जा सकते हो। दूसरी घटना घटीः सतगुरु ने कृपा की।
और तीसरी घटना घटीः ‘रटत नाम बैरागी।’
सतगुरु से प्रेम शिष्य की तरफ से है, गुरु की कृपा सतगुरु की तरफ से है, और जहां इन दोनों का मिलना होता है, वहीं नाम का जन्म होता है, प्रभु-स्मरण पैदा होता है। और उसी प्रभु-स्मरण से विराग हुआ। व्यर्थ की बातों से विराग हुआ। सार्थक से राग हुआ। सत्य से राग हुआ, असत्य से विराग हुआ। सार से राग हुआ, असार से विराग हुआ।
और अब ऐसा हुआ है..
आठ पहर चित लगै रहतु है, ...
अब तो आठों पहर चित में लगे हैं। पहले ऐसे मुश्किल थीः चित चकमक लागत नहीं। लगाते-लगाते भी चकमक लगती नहीं थी, चूक-चूक जाते थे; अब अपने-आप ही लगा हुआ है, सहज हो गया है।
आठ पहर चित लगै रहतु है, दिहल दान तन त्यागी।
और अब तो जो भी अपने पास था, सब दे दिया। अब कुछ बचाया नहीं। कुछ भी जिसने बचाया, वह चूक जाएगा। परमात्मा को बेशर्त दान देना होता है। शर्त रखी अगर तो तुमने चूकने का उपाय पहले ही कर लिया। उसके साथ शर्तबंदी नहीं हो सकती। उसके साथ सौदा नहीं हो सकता। प्रेम में सौदा कहां? देना है, पूरा देना है। गुलाल कहते हैं: सब दे दिया और सब पा लिया। दिया, वह तो कुछ भी नहीं था, पाया, वह सब कुछ है। दिया क्या? तन दिया, जो कि मौत ले ही जाती। धन दिया, जिसका कोई भरोसा ही नहीं था; कभी भी छिन जाता; चोर लूट लेते, डाकू लूट लेते, सरकार बदल जाती, नोट बदल जाते, बैंक का दीवाला निकल जाता..कुछ भी हो सकता था! जिसका कोई भरोसा ही नहीं था, यह सब दे दिया। और जो पाया, वह शाश्वत है। उसे अब कोई छीन नहीं सकता। शस्त्र उसे छेद नहीं सकते, आग उसे जला नहीं सकती, मौत उसे नष्ट नहीं कर सकती। अमृत पाया है। दिया तो कुछ भी नहीं और पाया सब कुछ।
पुलकि पुलकि प्रभु सों भयो मेला, ...
और यह जब हुआ कि सब दिया, बेशर्त दिया, तो पुलकि पुलकि प्रभु सों भयो मेला। तब तो नाच-नाच कर, फुदक-फुदक कर प्रभु से मिलन हुआ है। अब तो नाचे बिना नहीं चलता। मीरा कहती है: पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे।
पुलकि पुलकि प्रभु सों भयो मेला, प्रेम जगो हिए भागी।।
और अब जाना कि प्रेम क्या है। अब हिए में प्रेम का जागरण हुआ है। अब कलियां फूली बनीं, सुगंध उड़ी। अब तक तो प्रेम शब्द सुना ही सुना था, भाषाकोश में था, जीवन में नहीं था; अब जाना; प्रेम जगो हिए भागी।
गगन मंडल में रास रचो है, ...
और अब तो अंतर-आकाश में रास रचा है। परमात्मा नाच रहा है, उसके साथ हम नाच रहे हैं। जैसे परमात्मा कृष्ण होकर बांसुरी बजा रहा है और हम गोपी होकर नाच रहे हैं।
गगन मंडल में रास रचो है, सेत सिंहासन राजी।
शुद्ध निर्विकल्प समाधि की अवस्था आ गई। वह आखिरी पड़ाव है। उसके ऊपर कुछ भी नहीं। जहां सहस्त्रदल कमल खुल जाता है; जहां तुम्हारी जीवन चेतना अपनी परिपूर्णता को उपलब्ध होती है; सेत सिंहासन राजी; वही सिंहासन है, उसको ही पाने के लिए हम अनंत-अनंत जन्मों से यात्रा कर रहे हैं। और छोटे-मोटे सिंहासनों में उलझ जाते हैं। खोज हमारी असली सिंहासन की है। इसीलिए शायद छोटे-छोटे सिंहासन में उलझ जाते हैं। लगता है कि शायद आ गया सिंहासन। खोज हमारी असली धन की है। इसीलिए छोटे-मोटे धन में उलझ जाते हैं। खोज हमारी परमपद की है। इसीलिए छोटे-मोटे पद में उलझ जाते हैं। ये उलझाव भी एक ही खबर देते हैं कि हमारी दिशा गलत है अन्यथा हमारी खोज तो सही है। हम पद ही खोज रहे हैं, जो छीना न जा सके; हम धन ही खोज रहे हैं, जो नष्ट न हो; और हम ऐसा सिंहासन चाहते हैं जिससे फिर उतरना न पड़े।
यहां के सिंहासन तो तुम देखते ही हो! जब तक बैठे नहीं तब तक दुख, बैठ गए, महा दुख। क्योंकि जैसे ही तुम बैठे कि लोग खींचातानी शुरू करते हैं। कोई बैठने थोड़े ही देता है! क्योंकि दूसरों को भी वहीं बैठना है। बच्चे ही बच्चे थोड़े ही हैं, बूढ़े भी बच्चे हैं। अगर बच्चा एक कुर्सी पर बैठा है तो सब बच्चों को उसी कुर्सी पर बैठना है।
मुल्ला नसरुद्दीन घर की तरफ चला आ रहा था और दोनों बच्चे बड़ा शोरगुल मचा रहे थे..उसका हाथ खींच रहे, उसका कोट खींच रहे। किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन, मामला क्या है? नसरुद्दीन ने कहा: वही मामला है जो सारी दुनिया में है। मेरे पास तीन केले हैं और दो बेटे हैं और प्रत्येक दो केले चाहता है। कोई डेढ़ लेने को राजी नहीं। जो दुनिया की समस्या है, वही मेरी समस्या है। और तीन मैंने इस आशा में लिए थे कि एक मैं ले लूंगा, एक-एक ये लोग ले लेंगे। मेरा तो हिसाब ही नहीं है कोई। मेरी तो गिनती ही नहीं कर रहे वे लोग। उन्हें तो दो-दो चाहिए। अब यह कैसे समस्या हल हो?
एक राष्टपति का पद और सत्तर करोड़ लोगों का देश..और सबको राष्टपति होना है। राष्टपति होना सबका जन्मसिद्ध अधिकार है! अब बड़ी मुसीबत हो गई। तो जब तक नहीं पहुंचे तब तक दुख है और जब पहुंच गए, तब महादुःख। क्योंकि फिर ऐसी खींचातानी मचेगी! कोई टांग खींच रहा है, कोई सिर खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है..जिसको जो हाथ में मिल जाएगा वही ले भागेगा। तुम्हारे अस्थि-पंजर ढीले हो जाएंगे। और फिर देर नहीं लगेगी कि चारों खाने चित पड़े हो।
न हो तो तुम मोरारजी देसाई से पूछो! चारों खाने चित पड़े हैं। कोई जीवनजल पिलाने वाला भी नहीं मिलता। कोई पूछता ही नहीं। अभी पूना आए थे, किसी को खबर ही नहीं हुई कि पूना आए। जो गुप्त पुलिस का एक बड़ा अफसर है, जिसको वे यहां भेजते रहते थे पता लगवाने के लिए क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा, वह यहां आते-आते रंग में रंग गया। वह संन्यास तक लेने की सोचने लगा। मैंने कहा: तू संन्यास-वंन्यास मत ले। तू यहां आता रह, इतना ही काफी है। तो वह उनको मिलने गया था। तो उससे उन्होंने पूछा..वही पहली बात, जो वे पहले भी पूछते थे..कि आश्रम में क्या चल रहा है? तो वह मुझे आकर कह रहा था कि मैंने कहा कि अब कोई ये प्रधानमंत्री थोड़े ही हैं कि इनसे डरूं। पहले तो इनके मन की बातें कह देता था। अब क्या डरना! अब तो दो कौड़ी के हैं, अब क्या घबड़ाना इनसे! तो मैंने कहा कि आश्रम क्या खूब फल-फूल रहा है। पहले तो बहुत चैंके और कहने लगे कि पहले तो तुम ऐसा नहीं कहते थे! तो कहा, पहले आप प्रधानमंत्री थे। जो आप सुनना चाहते थे, वह कहता था। अब सत्य कहे दे रहा हूं। और यह भी कहे दे रहा हूं कि मुझे भी संन्यास लेना है। अरे, अब क्या डरना! और देखना हो तो आ जाओ आश्रम में, मैं ले चलता हूं।
तो मुझसे आकर कहने लगा कि फिर उन्होंने मुझसे बात ही नहीं की, मुंह फेर लिया, इधर-उधर देखने लगे, दूसरों से बातें करने लगे। मैंने कहा, और कुछ जानना है आश्रम के संबंध में कि नहीं? कहा कि जा भाई, तू जा और कुछ नहीें जानना। पहले आधा-आधा घंटा बुला कर पता लगाते थे। एक-एक छोटी- छोटी बात का। और बेचारा कहता था कि मुझे बताना पड़ता था, जो झूठी बातें थीं वे कहनी पड़ती थीं, कि बड़ा खतरा हो रहा है, भारतीय संस्कृति को बड़ा नुकसान हो रहा है। और इस आदमी को तो देश से बिल्कुल बाहर ही कर देना चाहिए।
लेकिन अब चारों खाने चित पड़े है, अब कौन फिक्र करता है। किसी को लेना-देना नहीं है।
पद पर नहीं पहुंचे तब तक दुख है, पद पर पहुंच गए, तब दुख है, पद से उतरे तो फिर और दुख। दुख ही दुख है। लेकिन खोज में सच्चाई है एक, अभिप्राय भीतर यही है कि ऐसा पद पा लें जिससे कभी गिरना न पड़े। ऐसा अडिग, अचल, ऐसा थिर कोई स्थान मिल जाए। उस थिर स्थान को ही हम समाधि कहते हैं। समाधि को ही हमने सिंहासन कहा है।
कह गुलाल घर में घर पायो, थकित भयो मन पाजी।।
गुलाल कहते हैं: बड़े आश्चर्य की बात यह है कि घर में ही घर पाया। कहां-कहां भटकते रहे इस पाजी मन की बातें मान कर! इस पाजी मन ने खुद भी थका और मुझको भी खूब थकाया। कहां-कहां दौड़या, कहां-कहां भरमाया! और जिसको हम तलाश रहे थे, वह मिला घर में।
कह गुलाल घर में घर पायो, थकित भयो मन पाजी।।
अब तो हमारा छुटकारा हो गया है इस पाजी मन से। अब हम कहीं और खोजने जाते नहीं..जाएं भी क्यों? अब उसे घर में पा लिया है, उसे अपने भीतर पा लिया है। वह तुम्हारे भीतर है जिसे तुम खोज रहे हो; वह खोजने वाले में ही छिपा है।
सोइ दिन लेखे जा दिन संत मिलाहिं।
बड़ी प्रीतिकर बात कही! कि उन दिनों की ही गिनती करना कि तुम जीए, जो दिन संतों के साथ बीत जाएं। जो घड़ियां संतों के साथ बीत जाएं, उनको ही गिनना जिंदगी..और बाकी तो सब व्यर्थ है, कचरा है।
ऐसी ही एक सुबह बुद्ध को मिलने उन दिनों का एक बड़ा सम्राट् बिम्बिसार आया। जब बिम्बिसार बुद्ध के पास बैठा था, तभी एक वृद्ध भिक्षु भी बुद्ध के पास आया, चरणों में झुक कर उसने नमस्कार किया और बुद्ध से आज्ञा मांगी कि मैं पर्यटन को जा रहा हूं, कोई संदेश हो, मेरे लिए कोई सूचनाएं हों तो दे दे; शायद लौटते-लौटते छह महीने, आठ महीने लग जाएंगे। बुद्ध ने कहा: भिक्षु तेरी उम्र कितनी है? होगी उस भिक्षु की उम्र कोई सत्तर-पचहत्तर वर्ष; इससे कम तो जरा भी नहीं। लेकिन उस भिक्षु ने कहा: मेरी उम्र, आप जानते ही हैं, चार वर्ष। बिम्बिसार तो बहुत चैंका। उसने सुना कि चार वर्ष! बीच में बोलना तो चाहिए नहीं, क्योंकि बुद्ध और भिक्षु की बात हो रही है, मुझे क्या लेना-देना, कितने ही वर्ष का हो! मगर पचहत्तर साल का बूढ़ा अगर साठ भी कहता तो भी चल जाता कि चलो होगा भाई साठ का हो सकता है। लेकिन पचहत्तर वर्ष का बूढ़ा कहे चार वर्ष! न रहा गया बिम्बिसार से। सुसंस्कृत आदमी था, कहा, क्षमा करें, मुझे बीच में बोलना नहीं चाहिए, मुझे कुछ लेना-देना नहीं, चार का हो या चार सौ का, मुझे क्या करना, मगर यह चित में जिज्ञासा आ गई है और अगर मैं नहीं पूछूंगा तो यह मुझे सताएगी जिज्ञासा घर भी लौटकर; मैं करवटें बदलूंगा रात कि मामला क्या है? और बुद्ध ने भी चुपचाप सुन लिया और कुछ बोले नहीं। या तो मैंने गलत सुना है। क्या मैं पूछ सकता हूं फिर से कि इसकी उम्र कितनी है? उस वृद्ध ने कहा कि मेरी उम्र चार वर्ष है।
बुद्ध हंसने लगे और बुद्ध ने कहा कि तुम्हें पता नहीं कि हमारे भिक्षु किस तरह उम्र गिनते हैं। जबसे वह संन्यस्त हुआ है तब से उम्र गिनता है। उसके पहले की उम्र क्या गिननी! वह तो सपनों में गई, नींद में गई, उसकी क्या गिनती! इसलिए चैंको मत! जब से संन्यस्त हुआ, तब से गिनती।
गुलाल ठीक कहते हैं..
सोइ दिन लेखे जा दिन संत मिलाहिं।
जिस दिन सद्गुरु मिल जाए उस दिन से ही गिनती करना कि जन्म हुआ। वही असली जन्म है। उस दिन तुम द्विज बनते हो। उस दिन से तुम ब्राह्मण हुए। सभी जन्मते हैं शूद्र की भांति, ख्याल रखना, कोई चार वर्ण की तरह पैदा नहीं होते दुनिया में लोग, सब एक ही वर्ण की तरह पैदा होते हैं: शूद्र। और जब सदगुरु मिल जाता है तो तुम्हारा नया जन्म होता है। तब शूद्र मिट जाता है, तुम ब्राह्मण होते हो। ब्राह्मण वह, जो ब्रह्म की खोज पर चल पड़ा। जिसने ब्रह्म की तरफ मुंह मोड़ लिया। जिसने संसार की तरफ, संसार की व्यर्थ दौड़-धाप की तरफ पीठ कर ली।
संत के चरण कमल की महिमा, मोरे बूते बरनि न जाहिं।।
गुलाल कहते हैं: मैं सीधा-सादा गांव का आदमी हूं, मेरी सामथ्र्य नहीं कि मैं संत के चरणों में जो घटता है उसकी महिमा का वर्णन कर सकूं। इतना ही कह सकता हूं..
जल तरंग जल ही तें उपजैं, फिर जल मांहि समाहिं।
संत के चरणों में जाकर ही यह मुझे अनुभव हुआ..
जल तरंग जल ही तें उपजैं, फिर जल मांहि समाहिं।
जैसे जल की लहर जल में उठती, फिर जल में ही लीन हो जाती है, ऐसे ही..हरि में साध साध में हरि हैं, ऐसे ही परमात्मा हरि में समाया हुआ है, हरि हरिभक्त में समाया हुआ है। साधु में परमात्मा समाया हुआ है, परमात्मा में साधु समाया हुआ है। जैसे जल में तरंग और तरंग में जल।
हरि में साध साध में हरि हैं, साध से अंतर नाहिं।।
परमात्मा और साधु में जरा भी अंतर नहीं। जिस दिन तुम्हें कोई ऐसा व्यत्ति मिल जाए, जिसमें तुम परमात्मा को देख सको, उस दिन समझना कि सत्संग शुरू हुआ; उस दिन समझना कि तुम्हारे जीवन में अब कुछ मूल्यवान घटा, कोई किरण उतरी, सुबह अब करीब है।
ब्रह्मा बिस्नु महेस साध संग, पाछे लागे जाहिं।
कहते हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इनकी कोई गिनती नहीं है सद्गुरु के मुकाबले। क्यों? क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी माया-मोह-संसार में उलझे हैं। तुमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश की अगर पुराणों में कथाएं पढ़ी हैं तो तुम समझ लोगे कि तुमसे भी ज्यादा हालत खराब है। वह तो कोई शास्त्र पढ़ता नहीं, नहीं तो तुम बहुत चैंकोगे कि ये कैसे ब्रह्मा, कैसे विष्णु, कैसे महेश! इनमें भारी ईष्र्या चलती, कलह चलती, झगड़ा-झांसा चलता, सब तरह की राजनीति चलती, सब तरह के उपद्रव, सब तरह की चालबाजियां और सब तरह के विकार।
जिनको तुम देवता कहते हो, जरा उनकी कथाएं तो अपने पुराणों में उठा कर पढ़ो! तुम बड़े हैरान होओगे। इनको सज्जन कहना तक मुश्किल है। कोई देवता किसी ऋषि-मुनि की पत्नी पर ही मोहित हो गए! बिचारे ऋषि-मुनि सुबह-सुबह ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने गए, तभी वे ऋषि-मुनि का वेश बना कर पत्नी को धोखा दे गए। जब यह मैंने पढ़ा तभी मैंने इसे समझा कि क्यों ऋषि-मुनियों को बेचारों को ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने भिजवाते हैं। खूब तरकीब निकाली! नहीं तो देवतागण उनकी स्त्रियों के साथ खेल कैसे करें? नहीं तो ऋषि-मुनि बैठे हैं चैबीस घंटे माला लिए वहीं, हरिनाम जप रहे हैं। तो वे झंझट का कारण होंगे। तो उनको भिजवा दो स्नान करने; वे गए गंगा! तुम्हारे देवता तुम्हारी ही कल्पनाएं हैं। तुम्हारे ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी तुम्हारी ही कल्पनाएं हैं। ऐसी-ऐसी बेहूदी कथाएं उनके साथ जुड़ी हैं कि सोचकर बड़ी हैरानी हो।
तुम देखते हो जगह-जगह शंकर की पिंडी रखी रहती है। वह जननेंद्रिय का प्रतीक है। स्त्री-पुरुष की जननेंद्रिय का प्रतीक है वह शंकर जी की जो पिंडी है, जिस पर तुम फूल चढ़ा आते हो। वह तो तुम ख्याल नहीं करते किस चीज पर फूल चढ़ा रहे हो, नहीं तो लाज-शरम से मर जाओ! चुल्लू भर पानी में डूब मरो! तो शंकरजी समझ कर चढ़ा आए, घर आ गए! हर शंकरजी के मंदिर पर लिखा होना चाहिए: केवल वयस्कों के लिए। छोटे-छोटे बच्चों तक को ले जाते हो!
वह पिंडी कैसे पैदा हुई, तुम्हें पता है? पुराण जो कथा कहते हैं, वह बड़ी हैरानी की है। कि ब्रह्मा और विष्णु किसी संबंध में विचार-मशविरे के लिए शंकर जी को मिलने गए। शंकर जी ने अपने बेटे गणेश जी को बाहर बिठा रखा था पहरे पर। मगर गणेशजी सो गए होंगे। पहरेदार अक्सर सोते हैं। और फिर ऐसी भारी सूंड इत्यादि और तोंद, वे घर्राटे ले रहे होंगे। तो उनको बिना जगाए..उनको क्यों कष्ट देना..ब्रह्मा और विष्णु अंदर प्रवेश कर गए। वहां शंकरजी पार्वती के साथ संभोग कर रहे थे। वे ऐसे संभोग में लीन थे उन्हें पता ही नहीं चला कि दो सज्जन आकर खड़े हैं। और सज्जन भी गजब के कि खड़े ही रहे! सज्जन कम से कम खांसते-खंखारते हैं, इन्होंने खांसा खखारा भी नहीं। ये कुछ थोड़ा इशारा देते कि भई, हम आ गए! बिना ही खांसे-खखारे खड़े रहे, छह घंटे तक। ग.जब के सज्जन रहे होंगे! और शंकर जी हैं कि वे अपने कार्य में संलग्न रहे। वे भी ग.जब के लीन थे! इतना गुस्सा आया ब्रह्मा-विष्णु को कि दोनों ने उनको श्राप दे दिया। यह अभिशाप दे दिया कि सदियों-सदियों तक तुम्हारा स्मरण जननेंद्रिय के रूप में किया जाएगा। उसकी वजह से वह पिंडी है शंकर जी की।
तुम्हारे देवी-देवता पुराने ढंग के औपन्यासिक चरित्र समझो। पुराने ढंग के उपन्यास हैं तुम्हारे पुराण। सदगुरुओं से इनका क्या लेना-देना! सद्गुरुओं की महिमा हमने बहुत ऊपरी रखी है। जब बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए, तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों उनके चरणों में चरणस्पर्श करने आए। आना ही चाहिए। क्योंकि वे तो ठीक तुम्हारे ही जैसे लोग हैं। वही वासनाएं, वही कामनाएं, वही इच्छाएं। उनमें और तुममें बहुत अंतर नहीं है। तो ठीक कहते हैं गुलाल..
ब्रह्मा विष्णु महेस साध संग, पाछे लोगे जाहिं।
पीछे-पीछे फिरते हैं साधुओं के। क्योंकि साधु में तो स्वयं हरि समाया हुआ है।
दास गुलाल साध की संगति, नीच परमपद पाहिं।।
वह जो मैंने कहा कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, वह साध की संगति में पड़ जाएं, तो उनके भीतर ब्राह्मण का जन्म हो जाता है।
और स्मरण रहे कि जब तक ब्राह्मण न हो जाओ, तब तक जाने रखना कि अभी असली जीवन शुरू नहीं हुआ। और यह भी ख्याल रखना कि ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। पैदा तो सभी शूद्र होते हैं। ब्राह्मण का जन्म तो साधु की संगति में होता है। वह तो सदगुरु से प्रेम उपजता है। सदगुरु के प्रति शिष्य का प्रेम और सदगुरु की कृपा, उन दोनों के बीच वह अभूतपूर्व घटना घटती है कि शूद्र ब्राह्मण हो जाता है; कि कली खिल जाती है, फूल बन जाती है; कि परम सिंहासन, जो फिर कभी छुड़ाए भी छुड़ाया नहीं जा सकता, वह उपलब्ध हो जाता है। फिर अमृत की वर्षा है..झरत दसहुं दिस मोती!

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें