नव संन्यास क्या?
सात प्रवचन
आमुख
एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्ष से प्रचलित है, जिससे हम सब भलीभांति परिचित हैं। उसका अभिप्राय कुल इतना है कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। वह संन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है- अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती थी। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए, उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त था। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की ही पूजा थी। वह संन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता? लेकिन जो लोग संसार से भागने की अथवा संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बंधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा, वे ऐसे संन्यासी की पूजा और सेवा करते रहे और संन्यास के नाम पर परनिर्भरता का यह कार्य चलता रहाः संन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसारी पर निर्भररहा और तथाकथित त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा संन्यास आनंद न बन सका, मस्ती न बना सका। दीन-हीनता में कहीं कोई फ्रुल्लता होती है?
परजीवी कभी प्रमुदित हो सकते हैं? धीरे-धीरे संन्यास पूर्णतः सड़ गया। संन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गए जो भगवान श्रीकृष्ण के समय कभी गूंजे होंगे- संन्यास के मौलिक रूप में। अथवा राजा जनक के समय संन्यास ने जो गहराई छुई थी, वह संसार में कमल की भांति खिलकर जीनेवाला संन्यास नदारद हो गया। वर्तमान समय में ओशो ने सम्यक संन्यास को पुनरुज्जीवित किया है। ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। संन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना आज ओशो के संत्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-संन्यास है। इस अनूठी प्रवचनमाला के माध्यम से संन्यास के अभिनव आयाम में आपको निमंत्रण है।
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