कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-02)

दूसरा--प्रवचन

तुम वही हो

प्रश्न-सार

01॰ ओशो! अब तक की यात्रा कठिन रही, लेकिन आपके इशारे से और सहारे से उससे गुजर चुका। लेकिन आगे की यात्रा सिर्प कठिन ही नहीं बल्कि असंभव लगती है। क्या मैं समय के पूर्व असंभव की अपेक्षा कर रहा हूं? क्या प्रतीक्षा साधना से भी कठिन साधना है? ओशो, यह कैसी बेचैनी है? !

02॰ ओशो,
जीवन से जो दुख मैंने पाया न होता
शरण में तुम्हारी मैं आया न होता।
दीया बन गयीं मेरी नाकामियां ही
जिन्हें पाकर कुछ भी तो पाया न होता।

दामन में मेरे न ये फूल खिलते
जो कांटों से दामन छिलाया न होता।

उठा दिल के तारों में संगीत मेरे
जिन्हें मैंने ऐसे तो गाया न होता।
इशारे तुम्हारे कुछ समझने लगा हूं
बुद्धि से जिनको समझ पाया न होता।

कैसे मगर मैं तुम्हें भूल जाऊं
बिना तेरे प्रेम पाया न होता।
जा रहा हूं आ महफिल से तेरी
तुम्हीं खबर रखना भगवान मेरी
क्योंकि
मैं पंख फड़फड़ाता, नहीं उड़ हूं पाता
धारणाओं से अपनी न अभी छूट पाता
उन्हीं में अटका मैं गिर-गिर सा जाता
शरण में तुम्हारी ही विश्राम मैं पाता
03॰ ओशो, मैं विवाह करना चाहता हूं। आप क्या कहते हैं? क्या विवाह में कोई उपादेयता भी है?

पहला प्रश्नः ओशो! अब तक की यात्रा कठिन रही, लेकिन आपके इशारे से और सहारे से उससे गुजर चुका। जो कभी सोचा भी न था, उसे पाकर धन्यभागी हूं! जो भी अनुभव में आया, उसे अब तक दूसरों को भी समझाता रहा। लेकिन आगे की यात्रा सिर्प कठिन ही नहीं, बल्कि बिल्कुल असंभव लगती है। आप तो कहते हैं, तुम मंजिल पर हो; यह यात्रा का ख्याल ही छोड़ दो। बात कुछ समझ में आती सी लगती है, फिर भी समाधान टिकता नहीं।
ओशो, यह शिकायत क्यों उठती है? क्या मैं समय के पूर्व असंभव की अपेक्षा कर रहा हूं? क्या प्रतीक्षा साधना से भी कठिन साधना है?
ओशो, यह कैसी बेचैनी है?

अजित सरस्वती! सत्य तो यही है कि सब यात्राएं झूठी हैं..अंतर्यात्रा भी। सत्य तो यही है कि तुम जो हो, वह पर्याप्त है, वह पूर्णता है। तुम जहां हो, उससे कहीं अन्यथा नहीं होना है। जैसे हो, वैसे ही होने में निर्वाण है। लेकिन इस सत्य को अंगीकार करना निश्चित ही कठिन। कठिन ही नहीं, जैसा तुम कहते हो, असंभव ही है। क्योंकि हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा यात्राओं के लिए है। हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा का आधार है: आकांक्षा, अभीप्सा, कुछ पाने की दौड़। फिर पाने की दौड़ धन की हो या ध्यान की..भेद नहीं पड़ता। फिर पाने की दौड़ पद की हो या परमात्मा की..भेद नहीं पड़ता। हमारे मन को अड़चन नहीं आती। मन कहता है: कोई फिक्र नहीं, पद नहीं पाना है, परमात्मा तो पाना है!
पाने की भाषा कायम रखो और मन राजी है। पाने की भाषा मन को जंचती है; क्योंकि मन पाने की भाषा के सहारे ही जीता है। मन यानी भविष्य। पाने की आकांक्षा तो भविष्य में ही पूरी हो सकती है, अभी और यहीं तो नहीं। अभी और यही, तो मन के लिए कोई अवकाश ही नहीं बचता; मन को गति करने के लिए स्थान नहीं बचता। मन को चाहिए थोड़ी जगह; आपाधापी करे, भागे-दौड़े, तो मन राजी है। लौकिक लक्ष्य हो तो, अलौकिक लक्ष्य हो तो..मन राजी है, तुम कुछ पाने के लिए दौड़ते रहो। मन इस तक के लिए राजी है कि तुम अ-मन की साधना करो। मन से मुक्त होने की साधना करो, मन इसके लिए भी राजी है। मन कहता है: कुछ करो; कुछ किए चलो! क्योंकि मन जानता है, तुम कुछ भी करोगे तो मन बचेगा।
करने में मन का बचाव है, सुरक्षा है। करने में मन का पोषण है।
इसलिए मैं भी तुम जब शुरू-शुरू मेरे पास आते हो, तो अनिवार्यरूपेण मुझे तुम्हारी भाषा बोलनी पड़ती है। तुमसे मैं कहता हूं: पाना है परमात्मा, पाना है आनंद, पाना है मोक्ष, निर्वाण। मगर सच पूछो तो वह केवल तुम्हें टिकाए रखने का उपाय है। वह ऐसा है जैसे कांटे पर आटा लगा देते हैं, मछली को पकड़ रखने को। मछली कांटा तो न लीलेगी, आटे को लील जाएगी; आटे के साथ कांटा भी भीतर पहुंच जाएगा। और कांटा भीतर पहुंच गया तो मछली फंसी।
तुम्हारे मन को जरूरत है आटे की। तो सच्चिदानंद की बात करनी होती है; परम निर्वाण की बात करनी होती है; उस अलौकिक महासुख की, जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है; उस सत्य की जो बहुत दूर है..चांद-तारों की भांति..और तुम्हारा मन राजी हो जाता है। तुम्हारा मन कहता है: चलेंगे, इस यात्रा को करेंगे। तुम्हारा मन इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है। वस्तुतः धन पाने वाला, पद पाने वाला इतना ज्यादा मन को राजी नहीं कर पाता। क्योंकि मन चारों तरफ तो देखता है: बहुतों को पद मिल गया है, क्या खाक मिला! और बहुतों ने धन पा लिया है, पाया क्या है? आखिर मन अंधा तो नहीं है? चारों तरफ लोगों के जीवन को देखता तो है! इसलिए जब तुम कहते हो धन पाना है, तो मन को वैसी चुनौती नहीं मिलती। क्योंकि चारों तरफ जिनके पास धन है, उनको देख कर ही मन स्वयं ही अधमरी हालत में हो जाता है। पाकर भी क्या करेंगे?
लेकिन जब तुम कहते हो: ध्यान पाना है, तो मन खड़ा हो जाता है; मन में बल आ जाता है; मन में फिर एक ज्योति जगमगा उठती है; मन फिर एक अभियान से भर जाता है। मन कहता है, हां, अब कुछ करने जैसी बात मिली। कोई साधारण बात भी नहीं। मैं कोई साधारण आदमी थोड़े ही हूं..असाधारण हूं! मैं कोई सांसारिक थोड़े ही हूं..धार्मिक हूं। ये सांसारिक लोग तो क्षुद्र चीजों में उलझे हुए हैं; ये क्षुद्र चीजें तो मृत्यु इनसे छीन लेगी; मैं तो पाऊंगा विराट को; मैं तो पाऊंगा शाश्वत को, सनातन को, जिसे मृत्यु भी न छीन पाएगी।
गौर से देखना, यह लोभ का बड़ा रूप है..बड़ा सूक्ष्म। तुम्हारे साधु-संन्यासी तुम्हें समझाते हैं कि क्या उलझे हो क्षुद्र में! अरे, शाश्वत को खोजो! जिसको न चोर चुरा सकते, न डाकू लूट सकते, न मृत्यु छीन सकती। आग जिसे जलाती नहीं...नैनं दहति पावकः; शस्त्र जिसे छेद नहीं सकते...नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि..कुछ ऐसा खोजो। और तुम सोचते हो कि बड़े अध्यात्म की बात हो रही है! और मन तत्पर हो जाता है। मन इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है।
जितना ऊंचा शिखर हो, मन को उतना ही आकर्षक लगता है। जितना दूर का हो, उतना आकर्षक लगता है। क्योंकि काश, पहुंच पाऊं तो मैं अद्वितीय हो जाऊंगा। क्या मजा है धन पा लेने में, मजा है तो बुद्ध होने में! क्या मजा है पद पा लेने में, मजा है तो जिन होने में! क्या मजा है कि चार लोगों ने तुम्हें जाना और फिर मौत आई और सब यूं मिट गया जैसे पानी पर खींची लकीरें मिट जाती हैं, मजा है तो कृष्ण होने में, क्राइस्ट होने में! सदियों-सदियों तक गूंजते रहते नाम! युगों-युगों तक पूजा चढ़ेगी, नैवेद्य चढ़ेगा, फूल चरणों पर गिरेंगे।
जरा गौर से देखना। मन बड़ा चालबाज है! मन कहता है, यह बात करने जैसी है। इसलिए आध्यात्मिक यात्रा की बात मन को जंच जाती है। मैं भी तुमसे आध्यात्मिक यात्रा की बात करता हूं। मगर मेरे हिसाब में वह सिर्प आटा है।
अजित सरस्वती, एक बार तुम फंस गए, फिर असली बात कहनी ही होगी। और असली बात कठिनाई में डालेगी। असली बात बड़े द्वंद्व से भर देगी। आज नहीं कल, जब मैं देखूंगा अब तुम उस जगह आ गए जहां असली बात कही जा सकती है, फिर भी तुम लौट न सकोगे; तुम उस बिंदु पर आ गए जहां से लौटना असंभव है; तब तो मैं तुमसे कहूंगा ही..कोई यात्रा नहीं है। परमात्मा गंतव्य नहीं है, तुम्हारा अस्तित्व है। परमात्मा को पाना नहीं है, तुमने कभी खोया ही नहीं। परमात्मा को पाने के लिए कोई उपाय, विधियां, साधनाएं नहीं करनी हैं। उपाय, विधियां, साधनाएं तो उसे पाने को करनी होती हैं, जो हमारा स्वभाव न हो; जो हमसे विजातीय हो।
हां, धन को पाने के लिए विधि चाहिए, उपाय चाहिए, तरकीबें चाहिएं, मार्ग चाहिए। लेकिन परमात्मा तो तुम्हारी अंतर-अवस्था है, तुम्हारी आंतरित्ता है। तुम कभी परमात्मा से भिन्न न रहे हो, न हो, न हो सकते हो। सिर्प सो गए हो। परमात्मा इतना तुम्हें मिला हुआ है कि भूल गए हो। जब कोई चीज बहुत मिल जाती है तो भूल जाती है। तुम परमात्मा में ही जीए हो, इसलिए भूल गए हो। परमात्मा इतना निकट है, निकट से भी निकटतर, परमात्मा तुम्हारे प्राणों का प्राण है, इसलिए विस्मरण हो गया है। परमात्मा को इसलिए नहीं भूल गए हो कि परमात्मा बहुत दूर है, परमात्मा को इसलिए भूल गए हो क्योंकि परमात्मा दूर नहीं है। दूर के तारे तो दिखाई पड़ते रहते हैं। असल में पास जो है, वह भूल जाता है। पास जो है, वह दिखाई ही नहीं पड़ता। अगर दर्पण में अपनी तस्वीर देखनी हो, तो दर्पण के बहुत पास मत चले जाना। दर्पण से बिल्कुल मुंह लगा कर मत खड़े हो जाना, नहीं तो कुछ भी न दिखाई पड़ेगा। जरा दूरी चाहिए, थोड़ा परिप्रेक्ष्य चाहिए, फासला चाहिए, तो ही देख सकोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा था अदालत में। उससे पूछा गया कि यह हत्या हुई, उस समय तुम कितनी दूर थे? उसने कहा: सत्रह फीट साढ़े नौ इंच। मजिस्टेट भी चैंका, पूरी अदालत भी चैंकी। मजिस्टेट ने कहा: ऐसा मालूम होता है कि तुम्हें पहले से ही पता था कि हत्या होने वाली है। क्या नाप कर खड़े हुए थे? जिंदगी हो गई मुझे अदालत चलाते, ऐसा कोई उत्तर देने वाला नहीं मिला कि साढ़े नौ इंच! इंच-इंच का हिसाब रखे हो? और अंधेरी रात थी और वहां कोई ज्योति भी नहीं थी, कोई लालटेन भी नहीं थी, अंधेरी रात में तुम्हें साफ-साफ दिखाई पड़ गया? इतना साफ कि तुम इंच-इंच का हिसाब रखे हो! तुम्हें कितनी दूर तक अंधेरे में दिखाई पड़ता है? नसरुद्दीन ने कहा: अब आप यह न पूछें! ऐसे तो मुझे रात के अंधेरे में तारे भी दिखाई पड़ते हैं! दूरी की तो आप पूछें ही मत! अमावस की रात में भी मुझे तारे दिखाई पड़ते हैं। तो यह तो कोई ज्यादा दूर की बात न थी।
तारे दिखाई पड़ सकते हैं। तारे बहुत दूर हैं। दूर हैं, इसलिए दिखाई पड़ सकते हैं। जो बहुत पास है, उसे हम भूल जाते हैं। यह मन का साधारण नियम है: जो तुम्हें मिल जाता है, तुम उसका विस्मरण कर देते हो। जो दूसरे के पास होता है, वह दिखाई पड़ता है; खुद के पास जो होता है, वह नहीं दिखाई पड़ता।
तुमने अपनी पत्नी को कब से नहीं देखा? वर्षो हो गए होंगे। शायद तुमने भर आंख उसे देखा ही न होगा वर्षो से! घर में ही है, पास ही है। हां, पड़ोसी जब देखते हैं तो टकटकी लगा कर देखते हैं! पति और पत्नी को टकटकी लगा कर देखे तो पागल समझो!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अपने डाक्टर के पास गई और बोली कि मेरे पति की आंखें मालूम होता है कमजोर हो गई हैं। जरूरत है चश्मे की। वे मानते नहीं, उन्हें मैं भेजना चाहती हूं, बार-बार समझाती हूं, आते नहीं, जिद्दी हैं। आप ही एक दिन आ जाएं घर, जांच-पड़ताल कर के चश्मा जमा दें। डाक्टर ने कहा कि जब वे नहीं आते, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। तुझे कैसे पता चला? तो उसने कहा, अब आप से क्या छिपाना, वे मुझी को टकटकी लगा कर देखते हैं! इससे साफ है कि आंखें कमजोर हो गई हैं। नहीं तो अपनी पत्नी को कोई टकटकी लगा कर देखता है। एक दिन तो मैं निकल रही थी तो मुझे देख कर सीटी बजाने लगे। तब तो मुझे पक्का हो गया कि अब इनको दिखाई नहीं पड़ता। नहीं तो ऐसी कोई भूल करे!
जो अपना है, जो अपने पास है, वह तो याद ही तब आता है जब छूट जाता है। तुम जब किसी की मृत्यु पर रोते हो तो इसलिए थोड़े ही रोते हो कि मृत्यु हो गई। अगर ठीक विश्लेषण करोगे, अगर ध्यान दोगे इस बात पर, तो तुम कुछ और ही राज पाओगे। जब तुम किसी की मृत्यु पर रोते हो तो इसलिए रोते हो कि अरे, इतने दिन साथ थे, न प्रेम किया, न कभी बैठ के दो घड़ी आनंद में बिताए, और अब कभी मिलना न होगा। जब पास थे, तो दूर-दूर बने रहे और अब सदा के लिए दूर हो गए, अब पास होने का कोई उपाय न रहा। इस बात का पश्चात्ताप रुलाता है। इस बात की पीड़ा सालती है कि अब क्या करें? अब कैसे करें? अब चाहेंगे भी तो अब हाथ के बाहर बात हो गई। अब जो व्यक्ति गया सो गया। अब तो यह सपनों में भी मिलेगा, इसका भी कुछ पक्का नहीं! अब कभी किसी रास्ते पर, जीवन के किसी मोड़ पर इससे मुलाकात होगी, इसकी कोई आशा नहीं बांधी जा सकती। और कितने दिन साथ थे! और कलह की, और विवाद किया; कभी संवाद न हुआ, कभी दो घड़ी आनंद से न बैठे, कभी दो घड़ी संगीतबद्ध न हुए, कभी एक-दूसरे को भर आंख न देखा, कभी एक-दूसरे की आंख में न झांका, कभी एक-दूसरे के अंतस्तल में न टटोला। ऊपर-ऊपर का नाता रहा। जब साथ थे तो साथ नहीं थे, अब साथ टूट गया, अब पीड़ा सताती है; और अब साथ होने का कोई उपाय न रहा।
परमात्मा हमारे इतने पास है, इतने पास, सदा से, कि यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि हम उसे भूल जाएं। बस, हम भूल गए हैं। हमें सिर्प पुनस्र्मरण दिलाना है। ख्याल रखना, मैं कह रहा हूं: पुनः-स्मरण! हमें सिर्प झकझोरा जाना है।
लेकिन, अजित सरस्वती, तुम्हारी कठिनाई भी मैं समझता हूं। तुम कहते हो: अब तक की यात्रा तो सरल थी। मैं भी जानता हूं। यात्रा तो मन के लिए सरल है ही। कठिन से कठिन यात्रा भी सरल है। अड़चन तो तब आती है जब मैं कहता हूं: अब यात्रा नहीं, अब रुको! अब ठहरो! मन दौड़ने में कुशल है। मन तो ऐसा समझो जैसे साइकिल चलाते रहो तो खड़ी रहती है। चलाना बंद किया, पैडल मारने बंद किए कि गिरी। मन तो ऐसा है; भगाते रहो तो जीता है। रोका कि गिरा। पैडल मारते ही रहो; नई-नई आकांक्षाओं के, नई-नई वासनाओं के; इस जगत से चुक जाओ तो परलोक के, मगर पैडल चलाते रहो। कहीं भी जाओ मगर जाते रहो। पूरब तो पूरब, पश्चिम तो पश्चिम। रुकना मत! मन कहता है: रुकना मत; तुम रुके कि मैं मरा! रुकने में मेरी मौत है। और जहां मन की मौत है, वहीं परमात्मा का अनुभव है।
इसलिए पहले तुम्हें फुसलाता हूं। जैसे छोटे बच्चों को हम खिलौने दे देते हैं। ऐसे तुमसे कहता हूं: साधना करो, ध्यान करो, प्रार्थना करो; मिलेगा परमात्मा, आनंद की वर्षा होगी; मोती ही मोती बरसेंगे..झरत दसहुं दिस मोती..प्रलोभन में तुम आ जाते हो। यही बुद्धों की सदा से प्रक्रिया रही। और कोई उपाय नहीं है तुम्हारा हाथ पकड़ लेने का। सत्य तो तुमने तभी कहा जा सकता है जब यह बात साफ हो जाए कि अब तुम लौट नहीं सकते। पिछले सेतु टूट गए, लौटने का उपाय नहीं, तब सत्य कहा जा सकता है; और तब सत्य फांसी जैसा लगता है। आगे जाने को कुछ है नहीं, पीछे लौटने का उपाय नहीं; अब तो ठहरना ही होगा। ठहरे कि मन गिरा, रुके कि मन गिरा, मन गिरा कि सब कुछ हुआ। इधर गिरा कि उधर तुम्हारे भीतर जो छिपा पड़ा था, वह प्रगट हुआ।
तुम परमात्मा हो। अमृतस्य पुत्रः। वेद कहते: तुम अमृत के पुत्र हो। कहीं जाना नहीं, कुछ करना नहीं। लगेगा असंभव सा। प्रश्न उठेगा: फिर करें क्या? और मैं यही कह रहा हूं: करना कुछ भी नहीं है। इस जगत में न करने से कठिन और कोई बात नहीं है। आमतौर से तो ऐसा लगता है, न करना सरलतम होना चाहिए। जब कुछ करना ही नहीं, तो इसमें कठिनाई क्या? मगर नहीं, बात उलटी है। करने में कठिनाई नहीं है; कठिन से कठिन काम आदमी कर लेता है। चांद पर जाना हो, जाने को राजी है। मगर कहो कि दो क्षण शांत बैठ जाओ, हिलो-डुलो मत, मन को मत कंपाओ, भीतर कंपन न चलने दो, विचार को छोड़ दो, और वह कहता है: यह नहीं हो सकेगा! चांद पर चले जाओ, वह कहेगा: ठीक। जान खतरे में डालने को राजी है। गौरीशंकर चढ़ना है, चढ़ेंगे। मगर भीतर जाना है, यह मत कहो। क्योंकि भीतर जाने का जो बुनियादी उसूल है, वह आत्महत्या जैसा लगता है मन को। है ही आत्महत्या। वह मन का विसर्जन है। भीतर जाना यात्रा नहीं है, सब यात्राओं का छूट जाना है। बस, सब यात्राएं छूटीं कि तुम भीतर पहुंचे। अंतर्यात्रा और-और यात्राओं में एक यात्रा नहीं है, अंतर्यात्रा केवल कहने की बात है। सब यात्राओं से मुक्ति अंतर्यात्रा है। जब कहीं जाने को नहीं बचता, तब तुम ठहर गए, थिर हो गए। उस थिरता में...कबीर कहते हैं: ‘ज्यों का त्यों ठहराया’, तुम जैसे हो वैसे के वैसे ही ठहर गए; बस, सारा राज खुल गया; मंदिर के द्वार खुल गए। ‘ज्यों का त्यों ठहराया।’
असंभव भी लगेगा, बात भी समझ में आएगी; क्योंकि अब तुम उस जगह तो आ गए हो जहां बात समझ में आनी ही चाहिए। न आ सकती समझ में तो मैं तुमसे कहता नहीं। तुमसे कह रहा हूं तो इसलिए कि समझ में आएगी। मगर समझ में आ जाना और समझ में टिक जाना दो बातें हैं। आते-आते छिटक जाती है। आई-आई और गई। क्षण-भर को लगता है सब साफ हुआ, जैसे बिजली कौंध गई, और फिर घुप्प अंधेरा हो जाता है। बुद्धि की समझ में बात आ जाती है कि परमात्मा हमारा स्वभाव है, हां, ठीक, जाना कहां, पाना कहां, हम उसी में हैं, वह हमारा जीवन है, यह बात तो समझ में आ जाती है, लेकिन फिर मन है, सदियों-सदियों पुराना, जन्मों-जन्मों पुराना...यह तुम ख्याल रखना, हर जीवन में शरीर तो बदल जाता है, मन नहीं बदलता। तुम्हारा एक शरीर जब गिरता है, तब तुम यह मत सोचना कि उस शरीर के भीतर बसा हुआ मन भी गिर जाता है। मन तो उड़ान भरता है, दूसरे शरीर में प्रवेश हो जाता है। मन तुम्हारे पास अति प्राचीन है। शरीर तो बड़ा नया है। किसी के पास पचास साल पुराना, किसी के पास आठ साल पुराना, सत्तर साल पुराना, बस, इससे ज्यादा पुराना तो नहीं है! शरीर तो बड़ा नया है, मन बहुत प्राचीन है, अति प्राचीन है। तुम्हारे मन ने सारा इतिहास देखा है। करोड़ों-करोड़ों वर्ष की यात्रा है। उस यात्रा के लिए प्रतीक शब्द भारतीय संतों ने खोजा है: चैरासी कोटियों में तुम्हारा मन भटका है, भरमा है। शरीर तो बदलता रहा है, मन हमेशा वही का वही। उस पर और-और नई परतें अनुभव की, ज्ञान की, धारणाओं की, लोभ की, भय की, वासनाओं की जमती गयीं, जमती गयीं। मन एक हिमालय जैसा पहाड़ हो गया है।
एक झलक मिलती है तुम्हें कि बात ठीक। लेकिन यह जो पुराना मन है, यह उस झलक को टिकने नहीं देता। यह कहता है, बात ठीक कैसे हो सकती है? मेरा क्या होगा? मैं कहां जाऊं? और यह बात ठीक नहीं हो सकती; क्योंकि अगर तुम परमात्मा ही हो तो फिर धर्म का कोई प्रयोजन नहीं; फिर साधना का कोई अर्थ नहीं। अगर तुम परमात्मा ही हो तो फिर कौन है संत और कौन असंत; कौन पापी, कौन पुण्यात्मा; फिर कौन रावण और कौन राम? फिर मन हजार उपद्रव खड़े करता है। फिर तुम शराबी में और सत्संगी में क्या फर्क करोगे? अगर सभी परमात्मा हैं! और मन के इन प्रश्नों के उत्तर देना मुश्किल होने लगेगा। और सचाई यही है कि संत में और असंत में कोई फर्क नहीं है। फर्क ऊपर-ऊपर है, फर्क मन का है, भीतर एक ही विराजमान है। राम और रावण में कोई फर्क नहीं है।
कभी तुमने रामलीला के मंच के पीछे जाकर देखा? वहां तुम्हें असलियत पता चलेगी। पर्दा उठता है, राम और रावण धनुष-बाण एक-दूसरे पर साधे खड़े हैं, युद्ध के लिए तत्पर, एक-दूसरे की हत्या के लिए बिल्कुल आतुर। फिर पर्दा गिरता है। फिर जरा पीछे जाकर देखा करें! जब पर्दा गिर जाता है तो पीछे क्या हो रहा है? राम और रावण बैठे चाय पी रहे हैं..साथ-साथ! गपशप कर रहे हैं। सीता मइया दोनों के बीच बैठी गपशप कर रही हैं। न राम से कुछ लेना-देना है, न रावण से कुछ झगड़ा है। हनुमान ने भी पूंछ-वूंछ निकाल कर टांग दी है, मुखौटा उतार दिया है; अपनी असलियत में आ गए हैं।
 यह जगत एक बड़ी नाट्य-मंच है। यहां सब बाहर-बाहर पर्दे उठते हैं, बड़े भेद हैं; पर्दे गिर जाते हैं, कोई भेद नहीं है। अभिनय है। जीवन अभिनय से ज्यादा नहीं है। मन अभिनेता है। और मन के प्रति जाग जाना, साक्षी हो जाना अभिनय के पीछे झांक लेना है, मंच के पीछे जाकर देख लेना है। वहीं असलियत खुलती है।
तुम वही हो जो तुम्हें होना है; और तुम सदा से वही हो। समझ में बात आएगी, क्योंकि खींच लाया हूं समझ को वहां तक। लेकिन बहुत बार छूटती लगेगी, क्योंकि सदियों-सदियों पुराना मन अपनी दांव-पेंच जारी रखेगा; अपनी दुलत्तियां चलाता रहेगा; आदत से बाज नहीं आ सकता। आदतें बड़ी मुश्किल से मरती हैं। मरते-मरते भी आखिरी उपाय अपने बचाने का करती हैं, चिल्लाती हैं: बचाओ, बचाओ!
आदतों का भी अपना जीवन है। और यह मन की आदतें करीब-करीब तुम्हारे भीतर ऐसा कब्जा करके बैठ गई हैं। इनको आज बाहर निकालोगे एकदम, तो ये निकल नहीं जाएंगी। कोई किराएदार ऐसे नहीं निकलते! और दो-चार साल किराएदार रह जाएं तो नहीं निकलते, और ये तो सदियों-सदियों से रह रही हैं आदतें! ये तो मालिक को ही निकाल बाहर करने की कोशिश करेंगी। ये तो कहेंगी कि तुम्हारा मन नहीं लगता तो रास्ता लगो! जाओ, जरा हवाखोरी कर आओ!
इन आदतों ने कब्जा कर लिया है पूरा का पूरा! इसलिए ये आदतें आती हुई समझ को छिटका-छिटका देंगी, हटा-हटा देंगी। मगर अब ये आदतें भी जीत नहीं सकतीं। कुछ दिन कशमकश चलेगी, अजित! कुछ दिन ऊहापोह चलेगा! यह द्वंद्व, खींचा-तानी..तुम्हारी आदतों और मेरे बीच। तुम तो देखो अब! देखना यह है कि तुम्हारी आदतें जीतती हैं या मैं जीतता हूं? इतना तुमसे कह सकता हूं कि ये आदतें जीत नहीं सकतीं..समय कितना ही ले लें, देर कितनी ही लग जाए, मगर ये जीत नहीं सकतीं। क्योंकि पीछे लौटने के सेतु टूट गए हैं। उतना आश्वासन तुम्हें देता हूं कि पीछे लौटने का अब कोई उपाय नहीं रहा है। मेरे पास जो आया, मेरे पास जो बैठा, मुझमें जो थोड़ा डूबा, उसको अब कहीं जाने का कोई उपाय नहीं रहा है। बचना हो मुझसे तो मेरे पास आना ही नहीं चाहिए। आ भी जाओ तो बिल्कुल बहरे की तरह बैठना चाहिए। सुनना ही मत, कुछ भी मैं कहूं! मैं कुछ भी कहूं, तुम अपने भीतर दूसरी बातें चलाते रहना। और जो यहां से भागो तो फिर दुबारा मत आना!
अजित, वह समय तो गया! तुम तो डूब गए..आकंठ डूब गए। अब कोई भय नहीं है। थोड़े दिन तक ये आदतें पंख मारेंगी, फड़फड़ाएंगी, चेष्टा करेंगी। इन बेचारी आदतों को क्या पता कि तुम कितने डूब गए हो! इनको अभी भी आशा है कि शायद तुम्हें फिर पुराने ढंग पकड़ाए जा सकें। अब वे ढंग पकड़ाए नहीं जा सकते।
तुम पूछते हो: ‘क्या मैं समय के पूर्व असंभव की अपेक्षा कर रहा हूं? ’
नहीं, समय आ गया! और यह असंभव की अपेक्षा नहीं है। यह तो स्वाभाविक की अपेक्षा है, यहां कहां असंभव! यह अपेक्षा ही नहीं है, यह तो स्वाभाविक का स्वीकार है। ‘अनलहक।’ इस उदघोष को अब उठने दो। ‘अहं-ब्रह्मास्मि।’ यह रोएं-रोएं से गूंजने दो।
और तुम पूछते हो: ‘क्या प्रतीक्षा साधना से भी कठिन साधना है? ’
प्रतीक्षा किस बात की! प्रतीक्षा में तो फिर यात्रा शुरू हो गई कि कोई आएगा, कि आने वाला आएगा! कोई आने को नहीं है। कोई गया ही नहीं कभी। जो जहां है, वहीं है। ज्यों का त्यों ठहराया। प्रतीक्षा किसकी करनी है! किसी की कोई प्रतीक्षा नहीं करनी है।
यह अस्तित्व पूर्ण है। उपनिषद प्यारी उदघोषणा करते हैं इस अस्तित्व की पूर्णता की। कहते हैं: इस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रहता है। इस पूर्ण में हम पूर्ण को भी जोड़ दें, तो भी पूर्ण उतना का ही उतना रहता है। पूर्ण में कुछ भेद ही नहीं पड़ता। पूर्ण और शून्य की यही खूबियां है। शून्य से कुछ भी निकाल लो, शून्य शून्य ही रहता है। शून्य में कुछ भी जोड़ दो, शून्य शून्य ही रहता है। और इसलिए पूर्ण और शून्य एक ही सत्य के दो नाम हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वेदांत ने पूर्ण शब्द को चुना, बुद्ध ने शून्य शब्द को चुना। यह सिर्प चुनाव की बात है। यह अपनी मर्जी, अपनी मौज। जिसको जो रुचिकर लगे। लेकिन ये एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
तुम वही हो। सतत इस स्मरण को अब संभालो! यही असली ध्यान है। समाधान मेरे उत्तर से नहीं मिलेगा। समाधान तो समाधि से मिलेगा। समाधि फलित हो सकती है।
समय के पूर्व तुम नहीं अपेक्षा कर रहे हो। समय तो सदा से आया हुआ है। इसी क्षण घटना घट सकती है। अभी, यहीं। इसको पल भर भी टालने की जरूरत नहीं है। कल की तो बात ही मत लाना। क्योंकि जो कल की बात लाया बीच में, उसने सदा के लिए टाल दिया। कल यानी कभी नहीं। कल का अर्थ होता है: कभी नहीं।
इसलिए जिन्होंने जाना उन्होंने कहा:
काल करै सो आज कर, आज करै सौ अब्ब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब्ब।।
मगर ज्ञानियों की बातें जब अज्ञानियों के हाथ में पहुंचती हैं तो बातें बिगड़ जाती हैं।
चंदूलाल ने जाकर अपने मनोवैज्ञानिक से पूछा कि मैं क्या करूं? कोई काम ही नहीं करता। कोई वक्त पर आता नहीं। आकर लोग टांग पसार कर बैठ जाते हैं। अखबार पढ़ते हैं, चाय पीते हैं, सिगरेट पीते हैं, गपशप उड़ाते हैं। छोटे-छोटे टरंजिस्टर रेडियो छिपा रखे हैं टेबल के भीतर, उनको सुनते हैं। चपरासी को भी सम्हाल कर रखा हुआ है कि जैसे ही मैं दफ्तर में आता हूं, वह घंटी बजा देता है। सो सब सजग हो जाते हैं, फाइलें खुल जाती हैं। मैं गया कि फाइलें बंद! काम कुछ होता ही नहीं, क्या करना है! दुकान डूबी जाती है, दिवाला करीब आ रहा है। मनोवैज्ञानिक ने कहा कि यह तख्ती हरेक की टेबल पर लगा दो।
‘काल करै सो आज चकर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब्ब।।’
इस तख्ती का परिणाम होगा। इसको रोज-रोज देखेंगे, बार-बार देखेंगे, कुछ तो अकल आएगी!
चंदूलाल को भी बात जंची। सुंदर तख्तियां बनवा कर सब की टेबल पर लगवा दीं; जगह-जगह दीवालों पर लगवा दीं; जहां भी जाएं, वहां लगवा दी..बाथरूम में, यहां-वहां, सब जगह, जहां भी जाओ वहीं वही तख्ती! तीन-चार दिन बाद रास्ते पर मनोवैज्ञानिक मिला, पूछा: चंदूलाल क्या हाल है?
चंदूलाल ने कहा: मत पूछो! हाल तो पूछो ही मत!! इससे ज्यादा बुरा हाल कभी भी नहीं था। तुम्हारी तख्ती...! जी होता है कि तुम्हारी गर्दन मरोड़ दूं। मेरा भी जी हो रहा है कि..‘काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब; पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब्ब।’ और उसने तो झपट के जो गर्दन पकड़ी मनोवैज्ञानिक की...मनोवैज्ञानिक ने कहा: भई, ठहरो तो तुम, बात क्या है, बात तो समझने दो! तख्ती में यह बात आती ही नहीं, गर्दन दबाना किसी की! तख्ती में तो नहीं आती, उसने कहा, लेकिन हालत जो हुई वह यह हुई कि मेरा मुनीम तिजोड़ी ले कर भाग गया। और नोट लिख गया कि ‘काल करै सो आज कर!’ और लिख गया है कि महानुभाव, बहुत दिन से सोचता था कि ले भागूं; मगर सोचता था, चलेंगे, करेंगे। मगर आपकी तख्ती ने इशारा दे दिया कि बच्चू, निकलना हो तो निकल ही जाओ! ‘पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब्ब!’ और मेरा हेड क्लर्क मेरी टाइपिस्ट लड़की को ले भागा। और जाते वक्त लिख गया दीवाल पर कि कर लो अपना सूत्र याद! भगाना तो बहुत दिन से चाहता था, मगर यही सोच कर कि क्या जल्दी पड़ी है, कभी भी कर लेंगे। और बात यहीं तक होती तो ठीक थी, वह जो मेरा चपरासी है, वह एकदम भीतर घुस आया और लगा जूते मारने! मैंने पूछा, भई, यह तू क्या करता है? उसने कहा, तख्ती क्यों लगाई? मारना तो सदा से चाहता था, कि इस चंदूलाल के बच्चे को ठिकाने लगा दूं...कौन चपरासी अपने मालिक को नहीं मारना चाहता...मगर मैं यही सोच कर कि देखेंगे, कभी देखेंगे, मौका कोई आएगा, अवसर कोई लगेगा, कोई अंधेरे-उजाले में कभी मिल जाएगा, वख्त-बेवख्त, तो ठिकाने लगा देंगे। मगर जब से तख्ती पढ़ी, तब से यह बात समझ में आई कि ‘पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब्ब!’ अरे, आए, ऐसा समय आए न आए, जो करना है कर गुजरो!
बर्बाद कर दी मेरी दुकान!
ज्ञानी कुछ कहते हैं, अज्ञानियों तक पहुंचते-पहुंचते उसके अर्थ बिल्कुल बदल जाते हैं। क्योंकि बीच में मन खड़ा है। वह अनर्थ करने में बड़ा कुशल है। मैं जब तुम से कह रहा हूं: कुछ भी नहीं करना है, तो यह मत समझ लेना कि चदरिया तान कर और सो जाना है। जब मैं कहता हूं: कुछ भी नहीं करना है, तो यह मत सोच लेना कि तुम जो कर रहे हो सो फिर ठीक ही कर रहे हो..कुछ और तो करना नहीं है। जब मैं कहता हूं: कुछ भी नहीं करना है, यह जगत तो अभिनय है, तो यह मत सोच लेना कि चोरी कर रहे हो तो तुम क्या करो! कि बेईमानी कर रहे हो तो तुम क्या करो! अरे, परमात्मा जो करवा रहा है सो कर रहे हैं! जो अभिनय उसने दिया। अब बीच में कोई अभिनय को तो बदल नहीं सकते। एक दफा पात्र को दे दिया अभिनय कि तुम यह चोरी का काम करना नाटक में, तो वह चोरी का काम ही करेगा; अब बीच में थोड़े ही बदल सकता है!
तुम्हारा मन बहुत बेईमान है। मन मात्र बेईमान है। जरा मन से सावधान रहना। मन इस तरह की तरकीबें निकाल लेता है। इस मन के कारण ही इस देश की बड़ी दुर्दशा हुई। इस देश ने बड़े गहरे सूत्र दिए हैं। लेकिन उन सूत्रों का बड़ा दुष्परिणाम हुआ। हमारे हाथ में आते-आते हीरे-जवाहरात कूड़ा-कचरा हो जाते हैं। हमारे हाथ ऐसे चमत्कारी हैं! हमारे हाथ में सोना रख दो, मिट्टी हो जाता है। मलूक ने कहा: ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम; दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।’ और जितने आलसी हैं, सब ने यह सूत्र याद कर रखा है। वे कहते हैं, मलूकदास जी कह गए हैं कि ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।’ तो जब मलूकदास कह गए तो ठीक ही कह गए। क्यों करें काम? क्यों करें चाकरी? जब सबके दाता राम हैं, तो हमारी भी फिकर लेंगे। सो पूरा देश काहिल हो गया, सुस्त हो गया। कोई काम नहीं करना चाहता। काम की बात ही मत छेड़ो!
परिणाम सामने है। गहन दरिद्रता, गुलामी, भुखमरी, बीमारी। मगर हम उढ़ा देते हैं, अच्छे-अच्छे शब्दों के भीतर सारी बीमारियों को ढांक देते हैं।
मैं जब तुम से कह रहा हूं कि तुम परमात्मा हो, तो इसका अर्थ अनर्थ न कर लेना। मैं तो कह रहा हूं वही, जैसा है, मगर तुम इससे कुछ और मत समझ लेना। और यह जो मैं कह रहा हूं, अजित सरस्वती से कह रहा हूं, यह भी ख्याल रखना। क्योंकि यहां बहुत तरह के लोग हैं। कोई बिल्कुल नये-नये आए हैं। वे सोचेंगे, अरे! अगर ऐसा है तो फिर क्यों ध्यान करें! अजित सरस्वती कोई दस साल के श्रम के बाद यह पूछ रहे हैं। और अथक श्रम किया है! इसलिए पूछने के हकदार हैं। और यह उत्तर मैं उन्हीं को दे रहा हूं। इसीलिए उत्तर देते वक्त मैं नाम लेता हूं प्रश्नकर्ता का ताकि तुमको स्मरण रहे कि उत्तर किसको दिया जा रहा है। नहीं तो तुम नये-नये आए होओगे, तुम सोचोगे: यह तो बहुत ही अच्छा हुआ; न करना है ध्यान, न प्रार्थना, न पूजा, न अर्चना, न आराधना; यह तो बड़ी मजे की बात कह दी! यही तो हम कर ही रहे थे। न पूजा, न ध्यान, न अर्चना। यही तो अपनी जिंदगी है। तो अपनी जिंदगी तो साधक की ही जिंदगी थी समझो! अगर यही परम सत्य है, तो खूब रही! हम परम सत्य ही जी रहे थे।
इस प्रश्न को पूछने की भी योग्यता चाहिए। और जो उत्तर मैं दे रहा हूं, उसको समझने के लिए तो बहुत योग्यता चाहिए, बहुत पात्रता चाहिए। ध्यान निखार गया हो तुम्हें, ध्यान उस जगह ले आया हो जहां यह सवाल वस्तुतः तुम्हारे प्राणों में उठे, तभी इस उत्तर का तुम्हारे लिए कोई अर्थ है। बहुत तो यहां पहली बार ही आए हैं, जिन्होंने न ध्यान किया है, न सुना है, न समझा है। वे यह ख्याल लेकर जाएंगे कि वहां जाने से क्या सार! वे तो कहते हैं कुछ करना ही नहीं है; और हम इलाज के लिए गए थे, और चिकित्सक कहता है इलाज की कोई जरूरत ही नहीं, तो चलो किसी दूसरे चिकित्सक को खोजें; ऐसे चिकित्सक के पास क्या फायदा!
तो यहां बहुत तल के लोग हैं। तरह-तरह के लोग हैं। इसलिए ख्याल रखना, कौन सा उत्तर किसके लिए दिया जा रहा है। जिन्होंने पांच-सात वर्ष ध्यान किया हो, और जिनके लिए अब यह स्पष्ट हो गया हो कि पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं, और उनके सामने यह सवाल खड़ा हो रहा हो कि यात्रा तो है नहीं तो अब आगे कैसे जाएं? पीछे जाना नहीं, आगे जाना नहीं, फिर कहां जाएं? कहीं नहीं जाना। पीछे और आगे के मध्य में जो बिंदु है, वर्तमान का जो क्षण है, उसमें ही थिर हो जाना है। ‘ज्यों का त्यों ठहराया। ‘ वहीं से यथार्थ का अयुदय है, वहीं से परमात्मा का अनुभव है। प्रतीक्षा नहीं करनी है। कोई आने वाला नहीं! जिसे आना था, वह तुम्हारे भीतर आकर बैठा हुआ है। वही तो तुम्हारी श्वास है। वही तो तुम्हारे हृदय की धड़कन है। वही तो तुम्हारे रक्त का प्रवाह है। वही तो तुम्हारा जीवन है। तत्त्वमसि। तुम वही हो।

दूसरा प्रश्नः

ओशो,
जीवन से जो दुख मैंने पाया न होता,
शरण में तुम्हारी मैं आया न होता।
दिया बन गयीं मेरी नाकामियां ही,
जिन्हें पाकर कुछ भी तो पाया न होता।
दामन में मेरे न ये फूल खिलते,
जो कांटों से दामन छिलाया न होता।
उठा दिल के तारों में संगीत मेरे,
जिन्हें मैंने ऐसे तो गाया न होता।
इशारे तुम्हारे कुछ समझने लगा हूं
बुद्धि से जिनको समझ पाया न होता।
कैसे मगर मैं तुम्हें भूल जाऊं,
बिना तेरे प्रेम पाया न होता,
जा रहा हूं आज महफिल से तेरी
तुम्हीं खबर रखना भगवान मेरी
क्योंकि
मैं पंख फड़फड़ाता, नहीं उड़ हूं पाता
धारणाओं से अपनी न अभी छूट पाता
उन्हीं में अटका मैं गिर-गिर सा जाता
शरण में तुम्हारी ही विश्राम मैं पाता

॰ कृष्ण चैतन्य! अभिशाप में भी वरदान छिपे हैं। कांटों को ठीक से देखने की कला आ जाए, तो वे फूल हो जाते हैं। आंखें हों, तो अंधेरा रोशन हो जाता है; और मृत्यु में भी परमात्मा का द्वार दिखाई पड़ता है। यह तो हम अंधे हैं। अंधे होने के कारण हमारे लिए द्वार भी दीवाल है और फूल भी कांटे हैं। और जीवन भी मृत्यु से ज्यादा क्या है! इसलिए पहला पाठ सीखो।
तुम कहते हो:
‘जीवन से जो दुख मैंने पाया न होता,
शरण में तुम्हारी मैं आया न होता।’
इसलिए अब दुख को भी धन्यवाद देना सीखो। और जब दुख आए, तो मित्र की तरह ही स्वागत करना। क्योंकि दुख के पीछे ही सुख छिपा है। काश, तुम स्वागत कर सको दुख का, तो तुम दुख को रूपांतरित करने की कीमिया सीख गए, कला सीख गए। तुम कीमियागीर हो गए, तुम जादूगर हो गए। और मैं अपने संन्यासियों को जादूगर बनाना चाहता हूं, उससे कम नहीं। यही असली जादू है। जहां दुख में भी हम सुख का गीत खोज लें; और पीड़ा में भी फूलों को खिलने का राज पा लें। यही असली जादू है कि मृत्यु भी हमारे लिए मृत्यु न रहे। हम नृत्य से, गीत से, संगीत से। समारोह से आलिंगन को तैयार रहें। मृत्यु के आलिंगन को। और तब मृत्यु भी बदल जाती है। तब मृत्यु में भी परमात्मा का ही मुख दिखाई पड़ता है। और जो मृत्यु को भी बदल ले, उसके लिए जीवन तो महा जीवन हो ही जाएगा! जो कांटों को बदल ले, उसके लिए फूलों में पहली बार शाश्वत की गंध आएगी। क्षणभंगुर में भी उसे अनंत के ही इशारे दिखाई पड़ेंगे। क्षणभंगुर में भी उसे समयातीत की झलक, की महक, की भनक सुनाई पड़ेगी।
दिया बन गईं मेरी नाकामियां ही,
जिन्हें पाकर कुछ भी तो पाया न होता।
सीखो! इसको अतीत के संबंध में ही मत समझना। नाकामियां आती ही रहेंगी, दुख आते ही रहेंगे। आगे भी स्मरण रखना, भूल मत जाना। पीछे लौट कर तो कोई भी बुद्धिमान हो जाता है, यह ख्याल रखना। अतीत के संबंध में बुद्धिमान होना बहुत कठिन नहीं होता। इसलिए बूढ़े अक्सर बुद्धिमानी की बातें करने लगते हैं। वह कुछ कठिन बात नहीं है, बिल्कुल सरल बात है। बूढ़े होकर होशियारी की बातें करना कोई बुद्धिमत्ता का लक्षण नहीं है। सभी बूढ़े इस अर्थ में होशियार हो जाते हैं। क्योंकि देख ली जिंदगी, लौट कर अब शांति से देख सकते हैं अतीत के सब उलझाव। मगर अगर कोई इनसे कहे कि फिर से हम तुम्हें जवान बना देते हैं, तो क्या तुम सोचते हो ये वही भूलें नहीं करेंगे जो इन्होंने पहले की थीं? वही की वही भूलें करेंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन मरणशय्या पर पड़ा था। सौ वर्ष का होकर मर रहा था। पत्रकार इकट्ठे हुए थे। लंबी उसने आयु पाई थी। एक पत्रकार ने पूछा: यद्यपि मरण के क्षण में पूछना तो नहीं चाहिए लेकिन फिर आप विदा हो जाएंगे और यह प्रश्न मेरे मन में अटका ही रहेगा; मुझे सताएगा, कांटे की तरह चुभेगा। इसलिए नहीं पूछना चाहिए फिर भी पूछता हूं। अगर आपाको दुबारा जीवन मिले तो क्या आप वही भूलें फिर से करेंगे जो आपने इस जीवन में कीं? नसरुद्दीन ने आंख खोली और उसने कहा: हां, फिर से करूंगा। थोड़ा जल्दी शुरू करूंगा, बस इतना फर्क होगा। इस बार मैंने कई भूलें कीं, मगर जरा देर से कीं।
नसरुद्दीन ठीक कह रहा है। इतने ईमानदार शायद कम बूढ़े होंगे, जो यह कहें। लेकिन अगर बूढ़ा भी अपने मन में सोचे कि अगर मुझे जवानी अभी कोई दे दे, तो मैं क्या करूंगा? वही भूलें करोगे जो तुमने की थीं।
अतीत के संबंध में बुद्धिमान होना आसान है। बुद्धिमानी होनी चाहिए वर्तमान के संबंध में। दूसरे को सलाह देने से सरल काम इस दुनिया में नहीं है।
दुनिया में दो चीजें हैं, ख्याल रखो। एक, दूसरे को सलाह देना सबसे सरल काम और दूसरे की सलाह मानना सबसे कठिन काम इसलिए सलाहें सबसे ज्यादा दी जाती है दुनिया में..मुफ्त देने को लोग तैयार हैं..और कोई नहीं लेता। लाख तुम दो, कोई नहीं लेता। कारण क्या होगा? लोग इतने मुक्त-दूसरा दान करते हैं सलाहों का, फिर भी कोई लेने वाला नहीं मिलता! जिनको देते हैं, वे भी बचते हैं। वे भी कहते हैं कि अपनी सलाह अपने पास रखो, हमें नहीं लेनी! और उसका कारण है। तुम जो सलाह दे रहे हो, वह तो तुम्हारे अतीत से आ रही है और जिसको तुम दे रहे हो, उसको वर्तमान में उसे साधनी है। बस, वहीं फर्क पड़ रहा है। वर्तमान में बुद्धिमान होना बड़ी कठिन बात है। उसके लिए बड़ी प्रखर, बड़ी तेजस्विता चाहिए, ध्यान का निखार चाहिए।
कृष्ण चैतन्य, अब तुम्हें समझ में आ रहा है कि जो नाकामियां तुम्हें मिलीं, असफलताएं तुम्हें मिलीं, वे तुम्हें यहां ले आयीं। तुम आज धन्यवाद दे सकते हो। मगर आज अगर कोई असफलता मिलेगी, तो तुम फिर भूल जाओगे। मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि यही मन का स्वभाव है। वह भूलने में बड़ा ही कुशल है। फिर भूल जाओगे; फिर वही भूल करोगे।
याद रखना इसको, अगर आज कोई असफलता मिले, तो समझे रखना: आती होगी कोई सफलता पीछे। असफलता का ही आवरण है। और आज जीवन पर कोई दुर्दिन टूट पड़े, तो घबड़ाना मत! जल्दी ही बादल छंटेंगे और सूरज निकलेगा।
काश! दुख की घड़ी में तुम स्मरण रख सको; असफलता की घड़ी में भूल न जाओ, बेहोश न हो जाओ, तो तुम्हारे जीवन के लिए एक बड़ी कुंजी मिल गई।
तुम कहते हो:
‘दामन में मेरे न ये फूल खिलते,
जो कांटों से दामन छिलाया न होता।’
अब जब कोई कांटा तुम्हारे दामन में चुभ जाए, तो गाली मत देना; धन्यवाद देना! दे सकोगे धन्यवाद? उस समय स्मरण रख सकोगे इस सत्य को? रख सको स्मरण तो तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो गया; तुम नये होकर जा रहे हो फिर! तुम दरिद्र आए थे और समृद्ध होकर जा रहे हो। भिखारी की तरह आए थे और सम्राट होकर जा रहे हो। इतना ही सा तो फर्क है भिखारी और सम्राट में!
उठा दिल के तारों में संगीत मेरे,
जिन्हें मैंने ऐसे तो गाया न होता।
इस संबंध में कुछ बात ख्याल रख लेनी जरूरी है। जरूर गुरु की सान्निध्य में शिष्य की हृदय-तंत्री पर गीत उठते हैं, संगीत जगता है। ऐसा जैसा कि वह सोच भी नहीं सकता कि वह गा सकता था! लेकिन तुम्हें याद दिला दूं: वह गीत तुम्हारा ही है; वह संगीत तुम्हारा ही है। वह तुम्हारे ही सितार में सोया पड़ा था। गुरु तुम्हें गीत नहीं दे सकता, संगीत नहीं दे सकता; गुरु तुम्हारे हृदय की वीणा को भी अपनी अंगुलियों से नहीं छेड़ सकता: गुरु तो केवल इशारे कर सकता है। तुम्हारी अंगुलियों को ही छेड़ना पड़ेगा संगीत। तुम्हारे ही तार हैं, तुम्हारी ही अंगुलियां हैं, तुम्हारा ही संगीत है। बुद्ध ने कहा है: बुद्ध तो केवल मार्ग दिखाते हैं, चलना तुम्हें है।
लेकिन तुम्हारी बात मैं समझता हूं। जब पहली दफा संगीत जगता है तो ऐसा ही लगता है..
उठा दिल के तारों में संगीत मेरे,
जिन्हें मैंने ऐसे तो गाया न होता।
..कि मैं तो कभी ऐसा नहीें गा सकता था। यह कभी मुझसे तो नहीं हो सकता था। लेकिन मैं तुम्हें याद दिलाऊं, यह जो हो रहा है, तुम्हारा ही है। तुम्हीं गा रहे हो। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है। हां, लेकिन अपरिचित पड़ा था। तुम्हारा ही हीरा तुम्हारे ही भीतर कूड़े-करकट में दबा पड़ा था। मैंने सिर्प इशारा किया है। जो तुमने पाया है, वह तुम्हारा है। क्योंकि वही पाया जा सकता है जो तुम्हारा है। मेरा गीत, तुम यहां से चले जाओगे, यहीं छूट जाएगा। मेरी गंध, तुम यहां से चले जाओगे, यहीं छूट जाएगी।
इसलिए ऐसी गंध तुम्हें नहीं देता, जो छूट जाए। और ऐसा गीत तुम्हें नहीं देता, जो खो जाए। चाहता हूं कि तुम्हें सिर्प अपने सितार को बजाने की कला आ जाए। तुम्हें बोध देता हूं कि तुम जहां भी होओ, अपने सितार को छेड़ सको। वहीं यह गीत उठेगा। और जैसे-जैसे तुम कुशल होते जाओगे, इस गीत में और भी गरिमा, महिमा बढ़ती जाएगी। ये गीत और भी समृद्ध होता जाएगा। इस गीत में और नये-नये आयाम जुड़ते जाएंगे। यह संगीत और सुमधुर होगा; यह संगीत और भी समाधि के करीब पहुंचने लगेगा।
लेकिन शिष्य की तरफ से यह भाव स्वाभाविक है। अनुग्रह का भाव। लेकिन गुरु की तरफ से यह याद दिला देनी भी उतनी ही जरूरी है।
शेष तुम जीवन पथ पर कौन
किसी के जड़ पद चिन्ह समान?
समय की सिकता पर मिट रहे
शक्ति से उदासीन अनजान।

कौन सा टूटा वह सुख स्वप्न
कि जिसकी सुधि बन अश्रुप्रवाह
प्रकृति के भी प्रभात में आज
तुम्हारी रोके बैठी राह?

कौन सी मुरझाई वह आस
शून्य पृष्ठों पर जो सोच्छ्वास
निराशा की बन कर लेखनी
लिख रही जन्म-मरण-इतिहास?

लक्ष्य वह कौन, दूर जो फेंक
तुम्हारे कर्तव्यों का भार
डाल पग में विराग का फंद
तुम्हें ले आया है इस पार?
कूक सी कोकिल की कल मंद
सुनी जब मानव ने वह तान

हृदय में गूंज उठा संगीत
चेतना बिखर बन गई गान।
कुतूहल अंजन आंज विमुग्ध
दृष्टि विस्फारित कर पल एक
देखता ही मानव रह गया
बना आकर्षण प्रणय-विवेक।

नील अंचल परिवेष्टित अरुण
शुभ्र पारद-सा ज्योतित गात
श्याम झिलमिल घन घूंघट डाल
आ रही हो ज्यों उषा प्रभात।

एक लेकर शीतल निश्वास

कहा मानव ने ‘हे छविमान!
कौन हूं, क्या बतलाऊं तुम्हें
स्वयं से हूं मैं चिर अनजान।
तुम अपरिचित आए हो मेरे पास...
एक लेकर शीतल निश्वास
कहा मानव ने ‘हे छविमान!
कौन हूं, क्या बतलाऊं तुम्हें
स्वयं से हूं मैं चिर अनजान।
तुम अपरिचित आते हो। तुम हो तो, लेकिन परिचित नहीं हो। तुम्हें प्रत्यभिज्ञा नहीं कि तुम कौन हो। तुम्हारे हृदय में वीणा पड़ी है, पर तुम्हें विस्मरण हो गया है। बहुत बार ऐसा हो जाता है न! किसी को देखते हो, लगता है जानता हूं, पहचानता हूं; नाम भी आ जाता है जबान पर, कहते हो कि बिल्कुल जबान पर रखा है, जबान की नोक पर रखा है..और फिर भी याद नहीं आता। याद है, इतना भी याद है, फिर भी याद नहीं आता। चेहरा पहचाना लगता है, नाम जाना-माना लगता है, लेकिन कहीं कोई बीच में पत्थर की तरह अटका है जो स्मृति को पहुंचने नहीं देता तुम तक। तुम्हारे बोध और तुम्हारे हृदय के बीच में कोई थोड़ी सी चीज बाधा बन रही है।
सदगुरु का कुल काम इतना है: थोड़े से कंकड़-पत्थर हटा दे, थोड़ी खुदाई कर दे, ताकि तुम जलस्रोत तक पहुंच सको। यह खुदाई कठिन भी है और कभी-कभी शिष्य को दुखद भी लगती है। क्योंकि जिन पत्थरों को उसने हीरे समझ रखा है, सद्गुरू उन्हें उठा कर फेंकने लगता है, पत्थरों की तरह। और वह समझता था हीरे हैं; उन्हें सजा के, संवार के रखा था; बचा कर रखा था, कभी वक्त-बेवक्त काम पड़ेंगे।
पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानक कार्ल गुस्ताव जुंग ने एक नये सिद्धांत का अनुमोदन किया है। अनुमोदन इसलिए कहता हूं, आविष्कार नहीं, क्योंकि वह सिद्धांत कुछ नया नहीं है। सदियों-सदियों से सत्संग में उसी सिद्धांत का उपयोग होता रहा है। लेकिन पश्चिम में नया है। जुंग ने उसे नाम दिया है: लॅा अॅाफ सिन्क्रानिसिटी। विज्ञान कार्य-कारण के सिद्धांत पर खड़ा है। सौ डिग्री तक पानी को गर्म करो, यह कारण; सौ डिग्री पर पानी भाप हो जाता, यह कार्य। अगर कारण मौजूद हो तो कार्य होकर ही रहेगा। इसमें कोई विघ्न-बाधा नहीं पड़ सकती। निरपवाद रूप से। ऐसा नहीं कि पानी कभी अट्ठानबे डिग्री पर गर्म होकर भाप बन जाए और कभी सत्तानबे पर, कभी सौ पर। यह पानी की कोई अपने ही भाव की बात नहीं है। पानी बिल्कुल नियति-आबद्ध है। परवश है। सौ डिग्री पर उसे भाप बनना ही होगा। यह नहीं कह सकता कि आज जरा मेरा मन नहीं। कि आज जरा मुझे फ्लू हो गया है। कि आज मैं छुट्टी पर हूं। कि आज छुट्टी के दिन काम नहीं करूंगा। कि तुम करते रहो कितना ही गरम, मैं भाप होने वाला नहीं।
पानी परवश है।
विज्ञान परतंत्रता के इसी नियम पर खड़ा हुआ है। इसलिए विज्ञान किसी तरह की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करता; वह कहता है, मनुष्य भी ऐसा ही परतंत्र है। इसलिए किसी आत्मा-परमात्मा को भी स्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि आत्मा और परमात्मा स्वतंत्रता की उदघोषणाएं हैं। और विज्ञान का आधार ही परतंत्रता है। विज्ञान मानता है: सब नियति-आबद्ध है। कहीं कोई अपवाद नहीं होता।
यह जो जुंग ने सिन्क्रानिसिटी का नियम आविष्कृत किया, यह मनुष्य की स्वतंत्रता की स्वीकृति है इसमें। यह सत्संग में तो हम सदा से मानते रहे। सत्संग का अर्थ यही होता है: सिनक्रानिसिटी। सत्संग का अर्थ होता है: सदगुरु के भीतर कुछ घटा है। अगर तुम सदगुरु के पास बैठ सको..सत्संग का अर्थ है: पास बैठना। उपनिषद का भी अर्थ है: पास बैठना। उपवास का भी अर्थ है: पास बैठना। उपासना का भी अर्थ है: पास बैठना। इन सब का एक ही अर्थ है..अगर तुम सदगुरु के पास बैठ सको, जिसके भीतर घटना घट गई है, जिसको अनुभव हो गया है कि मैं कौन हूं, तो उसकी मौजूदगी में अगर तुम अपने द्वार-दरवाजे खुले छोड़ दो..जिसको हम श्रद्धा कहते हैं..द्वार-दरवाजे खुले छोड़ना। संदेह का अर्थ है: ताले डाल कर बैठे रहना। संदेह का अर्थ है: डरे-डरे बैठे रहना कि कहीं कुछ छूट न जाए, कोई संपदा लुट न जाए। है कुछ भी पास नहीं मगर कुछ लोग बड़े अजीब होते हैं!
एक बार किसी कारणवश दिल्ली में एक राजनैतिक सम्मेलन में एक लूले, एक लंगड़े, एक अंधे, एक बहरे और एक नंगे की मुलाकात आपस में हो गई। और हो भी क्यों न! ऐसे लोग इकट्ठे दिल्ली के अतिरिक्त और कहां मिल सकते हैं! दिल्ली तो अजब तमाशा है! वहां तो तरह-तरह के लोग। तो कुछ आश्चर्य नहीं कि ये सारे लोग वहां मिल गए हों। दिल्ली तो मेला है। पांचों किसी जंगल के रास्ते से वापस अपने-अपने घरों की ओर लौट रहे थे कि तभी उन से बहरा बोला कि दोस्तो, सुनते हो, दूर यह घोड़ों के टापों की आवाज? लगता है डाकू दलों ने हमें घेर लिया है। ये बजते हुए बिगुल, ये शोरगुल! उसकी बात सुन कर लंगड़े ने कहा, अच्छा हो हम कहीं आस-पास भाग कर छिप जाएं। नहीं तो आज तो मौत निश्चित समझो। इस पर लूले ने शेर की तरह गरजते हुए कहा, अरे कायरो, भागने की बात करते हो! और मैं जो हूं! आज तो दो-दो हाथ करके ही रहूंगा। एक-एक डाकू को आज छठी का दूध न याद दिला दिया तो मेरा नाम गीदड़ सिंह नहीं! इन सबकी बातें सुन-सुनकर नंगा बोला: अरे जाहिलो, लगता है तुम ऐसे ही बकवास करते रहोगे। अरे, कुछ करो भी! क्या मुझे लुटवा देने का इरादा है?
लोग ऐसे अपने को बंद रखते हैं कि कहीं कोई लूट न ले! है कुछ भी नहीं पास, खिड़की, द्वार-दरवाजे पर पहरा लगाकर रखते हैं कि कोई संपदा न लुट जाए।
सत्संग का अर्थ होता है: खिड़की, द्वार-दरवाजे खुले छोड़ दिए कि मेरे पास तो लुटने को कुछ है नहीं। आ सकेगा कुछ तो भीतर आ आएगा..सूरज की रोशनी, ताजी हवाएं, कि वर्षा का एक झोंका, कि पवन की एक लहर..मेरे पास लुटने को तो कुछ है नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर में एक चोर घुसा। वह चोर बड़ा सम्हल के चल रहा है..रात अंधेरी..और टटोल रहा है। मुल्ला एकदम से उठा, जल्दी से लालटेन जलाई और चोर के पीछे खड़ा हो गया। उसको लालटेन बताने लगा। चोर भी बड़ा घबड़ाया! चोर ने भी बहुत चोरी की थी जिंदगी में, मगर ऐसा कभी नहीं देखा था कि घर का मालिक एक लालटेन लेकर और लालटेन बताए! चोर ने कहा, क्या करते हो, जी? थोड़ा डरा भी कि आदमी पागल है, या होश में है? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि क्या करता हूं! अरे, तीस साल हो गए इस घर में मुझे रहते, दिन के भरे उजाले में तो कुछ मिला नहीं, तू रात के अंधेरे में खोज रहा है! अरे भइया, मैं लालटेन जला लाया! अगर मुछ मिल जाए तो आधा-आधा बांट लेंगे। हम तेरे साथ हैं; घबड़ा मत!
है कुछ भी नहीं, मगर लोग बड़े शंकित, बड़े सावधान, बड़े सचेत इस मामले में कि कहीं कोई विचार, कहीं कोई विचार की तरंग भीतर प्रवेश न कर जाए। सत्संग का अर्थ होता है: आतुर, कि कोई तरंग प्रवेश कर जाए। सत्संग का अर्थ होता है: पीने को उत्सुक कि कोई बूंदा-बांदी हो जाए। और इतनी श्रद्धा से खुला हुआ हृदय जब किसी जाग्रतपुरुष के पास बैठता है, तो उसकी जागृति की तरंगें उसको आंदोलित करने लगती हैं। उसके भीतर बजती वीणा उसे याद दिलाने लगती है अपने भीतर अब तक अनबजी वीणा की। उसके भीतर जगा प्रकाश उसे इस होश से भरने लगता है कि अरे, मैं भी तो ऐसा ही हड्डी-मांस-मज्जा का बना हूं। तो मेरे भीतर भी कहीं प्रकाश पड़ा होगा। और एक बार यह याद आनी शुरू हो जाए तो बहुत मुश्किल नहीं। प्रकाश को खोज लेना मुश्किल नहीं है..दिया जल ही रहा है, ‘बिन बाती बिन तेल।’ और एक बार तुम संगीत सुन लो किसी के व्यक्तित्व का, तो तुम्हारे भीतर का संगीत भी तत्क्षण तुम्हें पुकार देने लगता है कि कब से पड़ा हूं, कब से पुकार रहा हूं।
तुमने देखा नहीं, कोई नर्तक नाचता हो तो तुम्हारे पैर भी थाप देने लगते हैं। यह कोई कार्य-कारण का नियम नहीं है, ख्याल रखना। अनिवार्य नहीं है। अगर यहां कोई नर्तक नाचे, तो तुम्हारे सब के पैर थाप देंगे, ऐसा नहीं है; यह कोई वैज्ञानिक नियम नहीं है; यह अनिवार्य नहीं है, जैसे सौ डिग्री पर पानी गरम होता है, कि नाचने वाला नाचा कि सभी के पैर थाप देने लगे; ऐसा कुछ नहीं है। इसमें एक स्वतंत्रता है। तुम अगर राजी हो जाओ, अगर नाचने वाले से तुम्हारा तालमेल बैठ जाए, संगति बैठ जाए तो तुम्हारे पैर थाप देने लगेंगे। कोई संगीतज्ञ गीत गा रहा हो, तो तुम कुर्सी पर ही अपने हाथ से थाप देने लगते हो, ताल देने लगते हो। चाहे न तुम्हें तबला बजाना आता हो, चाहे न तुम्हें ताल-स्वर का कोई ज्ञान हो, मगर कुछ तुम्हारे भीतर होने लगता है। वही सत्संग में घटता है।
सत्संग का अर्थ केवल इतना ही है कि जो सदगुरु के भीतर घट रहा है, तुम उसके लिए अंगीकार करने को राजी हो। अनिवार्यता नहीं है। इसलिए ऐसा भी हो सकता है कोई दूसरा भी तुम्हारे पास ही आकर बैठा हो, वह कहे, भई, हमें तो कुछ भी नहीं हुआ! तो उससे कुछ विवाद मत करना। वह खुला न रहा होगा। वह बंद रहा होगा। उसने श्रद्धा से अपने को तरंगित न किया होगा। उसने खिड़कियां-द्वार-दरवाजे खोले न होंगे। सूरज द्वार पर आकर खड़ा रहा होगा और वह दरवाजा बंद किए भीतर बैठा रहा होगा। संदेह दरवाजे बंद करवा देता है। श्रद्धा दरवाजे खोल देती है।
दरवाजा खोलने के लिए कुछ भरोसा चाहिए। इस बात का भरोसा चाहिए कि लुट नहीं जाऊंगा। श्रद्धा करने के लिए कुछ साहस चाहिए कि चलो लुट भी गए तो कोई हर्ज नहीं, लुटने को है भी क्या! कोई लूट ही ले, तो यह भी सम्मान समझो। कुछ था तो नहीं लूटने को, लेकिन फिर भी किसी ने इस योग्य माना कि लूटने आया। यह कोई कम सम्मान है!
झेन फकीर रिंझाई के घर एक चोर घुसा। घर में कुछ था नहीं। रिंझाई एक कंबल ओढ़े सो रहा था। जल्दी से उठा और कंबल चोर को दिया और कहा, भइया, नाहीं मत करना! तू कंबल ले जा; और देख, ऐसे मत आया कर। हम गरीब आदमी हैं, तूने सम्मान दिया। आज दिल ही दिल में हमने भी सोचा कि वाह! तो हम भी कुछ हैं! तुझे देखकर हमको भी भरोसा आया कि हम बिल्कुल दीन-दरिद्र नहीं हैं। हां, चोर हमारे घर भी आते हैं; कोई सम्राटों के घर ही नहीं जाते।
तूने हमें सम्राट का गौरव दिया। हमारी तरफ से यह छोटी भेंट। और हमारे पास कुछ भी नहीं है। चोर थोड़ा डरा भी। क्योंकि रिंझाई बिल्कुल नंगा था, वह सिर्प कंबल ही लपेटा था, वह कंबल ही उसके पास था..वही उसकी ओढनी, वही उसका बिछौना, वही उसका वस्त्र। दिन में उसको ही ओढ़ कर भीख मांग लाता था; रात उसको ही आधा ओढ़ लेता, आधा बिछा लेता; चोर को भी लगा कि लेना कि नहीं लेना! रिंझाई ने कहा कि देख, अगर मना करेगा, बहुत दुख होगा! कि आया इतनी दूर, और हम ऐसे गरीब, और हम ऐसे गए-बीते कि कुछ भी न दे सके! और आगे के लिए एक बात का वचन दे कि अब दुबारा कभी आना हो, जरा दो-तीन दिन पहले खबर कर देना, मांग-तूंग के कुछ न कुछ इकट्ठा कर लेंगे, आएगा तो खाली हाथ नहीं जाएगा।
यह तुम रिंझाई का भाव देखते हो! रिंखाई कहता है: तूने हमें सम्मान दिया।
 है क्या तुम्हारे पास जो तुम लुट जाओ! या तुम लूटने योग्य समझे जाओ! मगर पहरे लगा रखे हैं। अपनी रिक्तता पर, संदेह के पहरे! सत्संग नहीं हो पाता।
सत्संग अनिवार्य नहीं है। सदगुरु के पास भी तुम चूक सकते हो। बुद्ध और जीसस और कृष्ण के पास से भी यूं ही निकल जा सकते हो कि तुम्हारे भीतर कुछ भी न हो। और तुम लोगों से कहोगे भी कि भई, हमारे भीतर कुछ नहीं हुआ! तो तुम जरूर सम्मोहित हो गए हो। कि तुम किस पागलपन में पड़े हो, हमें तो कुछ भी नहीं हुआ! हम भी गए थे, हम तो यूं ही लौट आए; हमें तो कुछ बात जंची नहीं। तुम होश में हो? तुम बेहोशी में हो! तुम किस चक्कर में पड़े हो?
अगर कोई तुमसे ऐसा कहे तो उस पर नाराज भी मत होना। उसका भी क्या कसूर? उसकी अगर कोई भ्रांति है तो इतनी ही कि उसने अपने को बंद रखा। और सत्संग कोई कार्य-कारण का नियम नहीं है। सत्संग तो सिन्क्रानिसिटी है। इसमें तो अगर तुम खोलो अपने को, तो तुम्हारे भीतर कुछ बजना शुरू हो जाए। लेकिन ख्याल रखना, जो बजता है, वह तुम्हारा ही है। वह सदगुरु तो केवल निमित्त है। जिसको वैज्ञानिक कहते हैं: कैटेलिटिक एजेंट। निमित्त। उसकी मौजूदगी में हुआ, बस इतना। कहीं और भी हो सकता था। ऐसा भी हो सकता था कि तुम जंगल में बैठे होते और दूर-दूर से कोयल की आवाज आती और काश उसको भी तुमने श्रद्धा से सुना होता, तो वहां भी होता। तुमने अगर खिलते फूलों को श्रद्धा से देखा होता, वहां भी होता। तुमने सागर का गर्जन अगर श्रद्धा से सुना होता, तो वहां भी होता।
मगर तुम्हारी बात भी मैं स्वीकार करता हूं, कृष्ण चैतन्य! शिष्य की तरफ से अनुग्रह का भाव स्वाभाविक है।
तुम कहते हो:
‘उठा दिल के तारों में संगीत मेरे,
जिन्हें मैंने ऐसे तो गाया न होता।’
ठीक है तुम्हारा कहना तुम्हारी तरफ से! क्योंकि इतना नया, इतना अनहोना, इतना अपरिचित, कैसे तुम भरोसा करो कि तुम गा सकते थे अपने से! लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: तुम गा सकते थे। इसीलिए गा सके हो। यह हो सकता था, इसीलिए हुआ है। ये फूल तुम में खिला है, क्योंकि तुम्हारे बीज में दबा पड़ा था। अन्यथा लाख माली उपाय करे, माली लाख उपाय करे तो भी तो नीम के बीज में से आम के फल नहीं लगा सकता।
सदगुरु वही कर सकता है जो माली कर रहा है। तुम्हारे बीज को मौका दे सकता, अवसर दे सकता है। ठीक-ठीक तरंग दे सकता है। ठीक-ठीक ऊर्जाक्षेत्र दे सकता है। मगर जो फूल खिलेगा, वह तुम्हारा ही है। कहते हो तुमः
इशारे तुम्हारे कुछ समझाने लगा हूं,
बुद्धि से जिनको समझ पाया न होता।
यह ठीक है बात! बुद्धि से तुम कुछ भी न समझ पाए होते। कुछ बातें हैं जो बुद्धि से समझी जाती हैं..बाहर की बातें..और कुछ बातें हैं जिनमें बुद्धि बाधा है..भीतर की बातें।
तुम समझ पाए थोड़ा-बहुत..शुरुआत हो गई..क्योंकि तुम बुद्धि को हटा कर रख सके, तुम संन्यास में छलांग ले सके। संन्यास में छलांग लेना बुद्धि को हटाना है, एक तरफ रख देना है। संन्यास एक तरह का पागलपन है, क्योंकि एक तरह का प्रेम है। सभी प्रेम पागल होते हैं। संन्यास एक तरह का दीवानापन है। मगर दीवानों ने इस जगत का बड़ा उपकार किया है। काश, दीवाने न होते तो यह जगत बड़ा दरिद्र रह जाता! अगर दीवाने न होते तो इस जगत में जो भी सुंदर है, घटता ही नहीं। अगर परवाने न होते तो इस जगत में प्रकाश की महिमा को गाने वाला ही कोई न होता। शमा जलती रहती और परवाने आते ही नहीं। परवाने ही न होते तो शमा की क्या गरिमा थी, क्या गौरव था? दीवानों का बड़ा उपकार है..बुद्धिमानों पर! क्योंकि बुद्धिमान तो बुद्धू ही बने रहते अगर दीवाने न होते! बुद्धिमान तो बुद्धू ही हैं, सिर्प उनको भ्रांति है बुद्धिमान होने की!
एक और भी बुद्धिमत्ता है, जो बुद्धि से बहुत भिन्न है। वह बुद्धिमत्ता प्रेम की है।
तुम प्रेम में डूबे, तो कुछ-कुछ समझ में आना शुरू हुआ। और-और डूबो और-और समझ में आएगा। इतने डूब जाओ कि बचो ही न, तो सब समझ में आ जाएगा। तुम कहते हो:
कैसे मगर मैं तुम्हें भूल जाऊं,
बिना तेरे प्रेम पाया न होता।
जब तुम्हीं न रहोगे, जब तुम बिल्कुल ही डूब जाओगे प्रेम में, तो स्वभावतः जहां मैं गया वहां तू गया। शिष्य की पूर्णता तो तभी है जब शिष्य मिट जाए। लेकिन जब शिष्य मिट जाता है तो गुरु भी मिट जाता है। कौन बचेगा जो गुरु को गुरु कहे? ‘मैं’ और ‘तू’ साथ-साथ जीते हैं। हां, तुम्हारे भुलाने से तुम न भुला सकोगे! मगर अगर तुम मिट गए, तो तुम भी गए, गुरु भी गया। और जहां न शिष्य है न गुरु है, वहीं परमात्मा है। यह भी द्वैत है आखरी द्वैत। और सब द्वैत घुट जाते। यह अंतिम द्वैत है। यह द्वैत और द्वैतों को छुड़ा देते हैं, फिर अंत में यह द्वैत भी छूट जाता है। जैसे एक कांटे से हम दूसरा कांटा निकाल लेते हैं, फिर दोनों कांटों को फेंक देते हैं। शिष्य और गुरु का द्वैत एक कांटा है, जो तुम्हारे सब कांटों को निकाल लेगा। और अंत में जब सब कांटे निकल गए, इसका क्या करोगे? उन्हीं कांटों के साथ इसे भी फेंक देना है। तुम भी नहीं बचोगे, प्रेम इतना डुबाएगा, प्रेम इतना गलाएगा, उस घड़ी गुरु भी भूल जाएगा। उस घड़ी कौन-कौन है, साफ नहीं रह जाता। कौन शिष्य है, कौन गुरु है, यह भेद नहीं रह जाता। उस अभेद की अवस्था को ही पाना है। उसके पहले समझना कुछ कमी, कुछ न कुछ कमी रह गई है।
और घबड़ाओ मत! तुम कहते हो:
जा रहा हूं आज महफिल से तेरी
इस महफिल से अब कहीं जा नहीं सकते। अब जहां रहोगे, यह महफिल जारी रहेगी। यह महफिल कुछ इस स्थान में आबद्ध नहीं है। जहां भी मुझे प्रेम करने वाले हैं, वहीं यह महफिल है। और जहां दो दीवाने मिल बैठेंगे, वहीं यह महफिल शुरू हो जाएगी, वहीं यह गीत उठेगा, वहीं यह संगीत उठेगा। इसकी चिंता मत करो! कहते हो:

तुम्हीं खबर रखना भगवान मेरी
क्योंकि
मैं पंख फड़फड़ाता, नहीं उड़ हूं पाता
धारणाओं से अपनी न अभी छूट पाता
उन्हीं में अटका मैं गिर-गिर-सा जाता
शरण में तुम्हारी ही मैं विश्राम पाता।
बस शरण-भाव पैदा हो जाए, शेष सब अपने से हो जाएगा। शरणागति! बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि।
किसी सदगुरु की शरण जाओ! सदगुरु के सत्संग की शरण जाओ; संघ। सदगुरु के भीतर जो जलता हुआ दीया है, धर्म, उसकी शरण जाओ। फिर चिंता छोड़ो; फिर सब अपने से हो जाएगा। तुम तो अपने को पूरा का पूरा चढ़ा दो। ‘होनी होय सो होय‘। फिर जो होना है, होगा, होता रहेगा। और जब तुम नहीं हो, तब जो भी होता है, वह शुभ है।

अंतिम प्रश्नः ओशो, मैं विवाह करना चाहता हूं। आप क्या कहते हैं? क्या विवाह में कोई उपादेयता भी है?

चंद्रकांत! विवाह में उपादेयता बड़ी है। सब से बड़ी उपादेयता तो यह है कि अगर पत्नी रही, तो वह तुम्हारी दूसरी स्त्रियों से रक्षा करेगी। नहीं तो रक्षा कौन करेगा? पगला जाओगे! पत्नी रक्षक है। न देखने देगी इधर, न उधर; न झांकने देगी इधर, न उधर। चैबीस घंटा पहरा रखेगी। सोते में भी हिसाब रखेगी कि क्या सपना देख रहे हो। नहीं तो तुम्हारी क्या हैसियत है! इतनी स्त्रियां हैं संसार में, कैसे बचोगे? बुरे पिटोगे। इसलिए तो बुद्धिमान नियम बना गए कि एक पत्नी तो कम से कम होनी ही चाहिए। मगर ख्याल रखना, ज्यादा दवा भी मत ले लेना। थोड़ी दवा तो काम करती है, ज्यादा दवा नुकसान पहुंचा देती है। एक पत्नी की तो उपादेयता है, लेकिन दो में खतरा है। तीन में फांसी लग जाएगी।
एक चोर एक घर में चोरी करने घुसा और पकड़ा गया। रंगे हाथों पकड़ा गया। मजिस्टेट ने कहा: तुम्हें कुछ अपने बचाव में कहना है? उसने कहा: हुजूर, सिर्प एक बात कहनी है, और सब सजा देना, मगर दो स्त्रियों से विवाह करने की सजा मत देना। मजिस्टेट ने कहा कि बहुत मैंने लोगों को सजाएं दीं, ...इस तरह से तू क्यों डरा हुआ है! उसने कहा कि अगर दो स्त्रियां न होतीं, इस आदमी के, तो मैं पहली तो बात फंसता ही नहीं आज! और इसकी जो मैंने गति देखी...! पहले मुझे नरक पर भरोसा ही नहीं था...! इसकी एक पत्नी नीचे रहती है, दूसरी पत्नी ऊपर रहती है, बीच में जीना है। एक पत्नी इसको नीचे खींचती थी और एक पत्नी इसको ऊपर खींचती थी; इसकी ऐसी खींचा-तान हो रही थी कि मैं तमाशा देखने में लग गया; मैं भूल ही गया कि अपन किसलिए आए हैं! और ऐसे ही ऐसे सुबह हो गई। आप और जो सजा हो दे देना, मगर यह दो पत्नियों की सजा मत देना!
तो एक पत्नी की उपादेयता औरों से बचाएगी। मगर यह मत समझ लेना कि एक की जब इतनी उपादेयता है, तो दो की कितनी, तीन की कितनी, चार की कितनी! ऐसा गणित मत बिठाना; जिंदगी गणित से नहीं चलती।
चंदूलाल को उसके पुत्र ने एक पैकेट और एक पत्र भेजा था इंग्लैंड से। पत्र में लिखा था कि इस पैकेट में वे गोलियां हैं, जिन्हें खाने से व्यक्ति की उम्र बीस साल कम हो जाती है।
चंदूलाल की उम्र उन दिनों पैंतालीस और उसकी पत्नी की उम्र चालीस साल थी।
कुछ समय बाद चंदूलाल का बेटा जब विदेश से लौटा तो उसने देखा कि उसकी मां गोद में एक पांच वर्षीय लड़के को लिए बैठी हुई है। उसने बड़े आश्चर्य से पूछा, मम्मी, यह कौन है? तुमने लिखा ही नहीं कि तुम्हें एक लड़का और हो गया है।
मम्मी बोलीः अरे नालायक, चुप रह! ये तेरे पिताजी हैं, और गलती से एक गोली के बजाय दो गोली खा गए हैं।
सो चंद्रकांत, विवाह करना चाहते हो तो भइया करो! बिना ग167े में गिरे, अनुभव किए बिना कोई उपाय भी नहीं है। और विवाह के बिना दुनिया में संन्यास होता ही नहीं..इतना ख्याल रखना! इसकी बड़ी उपादेयता है! विवाह ही है जिसने संन्यास को जन्म दिया। न होती यशोधरा, गौतम बुद्ध का पता न चलता। सारा श्रेय जाता है यशोधरा को। अब तुम्हारा दिल ही हो गया है, तो रोकना उचित भी नहीं। रोकने से तुम रुकोगे भी नहीं। क्योंकि यह मामले किसी की सलाहों से नहीं चलते। शादी के पहले एक दृश्य होता है, जो खूब लुभावना होता है और शादी के बाद दृश्य बिल्कुल बदल जाता है। मगर वह शादी के बाद का दृश्य आता शारी के बाद में ही है! उसका कोई पहले आने का उपाय नहीं है।
शादी से पहले:
जी चाहता है, तुम्हें यों
देखता ही रहूं मैं अपलक
मेरे जीने का सहारा है
बस, तुम्हारी एक झलक
तुम्हारे अधरों की मादक मधुरता
जीवन रस है मेरे लिए
तुम्हारे कपोलों की मृदु लालिमा
ऋतु पावस है मेरे लिए
चंचल चितवन, चपल चक्षु
ज्यों चांदनी हो चकोर के लिए
या कि मस्त अलि, कली का
मादक मधुर पराग निरंतर पिए
खुलेखुले चिकुर
फैले तुम्हारे मुख पर,
जैसे व्योम में हो श्यामल घटा
अवगुंठन की आड़ में
अर्द्ध छिपा अल्हड़ मुखड़ा
जैसे मेघ आड़ में हो चंद्र छटा
तुम्हारे मुख से मुखरित होने वाला
प्रत्येक शब्द मेरे कानों में सुधारस घोलता है

किसी भी तरह तुम्हें पा लूं, प्रिये
मेरा अंतर्मन रहरह कर बस यही बोलता है
यदि कर गहो तुम मेरा
तो अपनी राह बना सकता हूं मैं
संगिनी बन कर साथ चलो..
तो पथ को सुमनों से सजा सकता हूं मैं
शादी के बादः
क्यों मेरी छाती पर बैठी हो तुम,
क्या रसोई में काम नहीं है?
कैसी निष्ठुर पत्नी हो तुम, जिस में
पति के लिए दया का नाम नहीं है?
हरदम मुझसे चिपकी रह कर,
क्यों मेरा सुख चैन हरती हो?
ना मुझे कुछ करने देती हो
दिन भर, ना तुम कुछ करती हो
नैनों में अनचाहा नीर भर कर
तुम अपनी हर हठधर्मिता पूरी कर लेती हो,
मैं जब भी कुछ कहने को होता हूं
हथियार बना
झट इनमें पानी भर लेती हो

तुम्हारे बिखरे चिकुर
समस्याओं के घेरे हैं मेरे लिए
खीज भरा नीरस मुखड़ा
भविष्य का घोर अंधेरा है मेरे लिए
तुम्हारे मुख से मुखरित होने वाला
हर शब्द, शब्द नहीं, शब्दभेदी बाण हैं
ओ क्लेशकर्ता, चैनहर्ता
तेरी दया के धागे में
अटके मेरे सिसकते प्राण हैं
अपने इन बच्चों को ले जाओ यहां से
ये बेसुरे सुर में
लगतार रेंके जा रहे हैं
मेरे कागज, कलम, दवात, किताबें सब
एकदूसरे पर परस्पर फेंके जा रहे हैं
तुम्हारे ताने अब और नहीं पिए जाते मुझ से
हां, दर्द तो और भी पी सकता हूं मैं,

यदि तुम मेरा पीछा छोड़ो तो
अभी कुछ दिन और जी सकता हूं मैं
अभी तुम्हारे मन में भाव उठा, चंद्रकांत, कर गुजरो! अभी चंद्रकांत हो, फिर चंदूलाल हो जाओगे।

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें