सत्रहवां--प्रवचन
अपने प्रिय संग होरी खेलौं
सारसूत्र:
सतगुरु घर पर परलि धमारी, होरिया मैं खेलौंगी।।जूथ जूथ सखियां सब निकरीं, परलि ग्यान कै मारी।।
अपने पिय संग होरी खेलौं, लोग देत सब गारी।।
अब खेलौं मन महामगन ह्वै, छूटलि लाज हमारी।।
सत्त सुकृत सौं होरी खेलौं, संतन की बलिहारी।।
कह गुलाल प्रिय होरी खेलौं, हम कुलवंती नारी।
फागुन समय सोहावन हो, नर खेलहु अवसर जाय।।
यह तन बालू मंदिर हो, नर धोखे माया लपटाय।।
ज्यों अंजुली जल घटत है हो, नेकु नहीं ठहराय।।
पांच पचीस बड़े दारुन हो, लूटहि सहर बनाय।।
मनुवां जालिम जार है हो, डांड़ लेत गरुवाय।।
कह गुलाल हम बांधल हो, खात हैं राम-दोहाय।।
को जाने हरि नाम की होरी।
चैरासी में रमि रह पूरन, तीहुर खेल बनो री।।
घूमि घूमि के फिरत दसोदिसि, कारन नाहिं छुटों री।।
नेक प्रीति हियरे नहीं आयो, नहिं सतसंग मिलो री।।
कहै गुलाल अधम ने प्रानी, अवरे अवरि गहो री।।
धर्म के संबंध में सबसे आधारभूत बात समझने की है कि जीवन और परमात्मा में कोई विरोध नहीं है। विरोध तो दूर, जीवन की सीढ़ियों पर चढ़ कर ही कोई परमात्मा के मंदिर तक पहुंचता है। जीवन एक अवसर है परमात्मा को तलाशने का। जीवन एक झलक है, परमात्मा की ही, बहुत दूर से मिली झलक, जैसे सैकड़ों मील दूर से हिमालय के उत्तुंग शिखर कुंआरी बर्प से दबे सुबह के सूरज में दमकते हुए दिखाई पड़ें। फासला लंबा है, यात्रा बड़ी है, चढ़ाई कठिन है; पहुंच पाएं, न पहुंच पाएं, पक्का नहीं; बहुत चलते हैं, बहुत थोड़े से लोग पहुंच पाते हैं, लेकिन हजारों मील से भी जो दिखाई पड़ रहा है, वह सत्य है, भ्रांति नहीं। दूर है, हाथ में नहीं है, सिर्प झलक मात्र है और अभी बदलियां घिर जाएं तो खो जाएं, आकाश खुला है, साफ है, तो दिखाई पड़ता है, ऐसा ही जीवन और परमात्मा का संबंध है। जीवन परमात्मा की झलक है। विचार के बादल घिर जाए, खो जाता है; विचार के बादल छंट जाएं, पुनः दिखाई पड़ने लगता है।
इसलिए जो लोग परमात्मा को पाने के लिए जीवन को छोड़ कर भागते हैं, बुनियादी भूल कर लेते हैं।
जीवन को छोड़ना नहीं है, जीवन को पहचानना है। जितनी गहरी पहचान होगी जीवन की, उतनी ही परमात्मा से निकटता होगी। जीवन उसकी ही छाया है। छाया ही सही, पर उसकी ही छाया है। और उसकी छाया भी क्या कम। उसकी छाया भी मिल जाए तो बहुत! उसकी छाया भी मिल जाए तो सौभाग्य! वह न मिले तो चलेगा। उसकी छाया में भी जी लिए, तो हमारी सामथ्र्य से ज्यादा, हमारी पात्रता से ज्यादा। जीवन उसकी प्रतिध्वनि है। लेकिन जो प्रतिध्वनि को ठीक से पकड़ ले, वह मूल ध्वनि तक पहुंच जाएगा। निश्चय ही पहुंच जाएगा। क्योंकि प्रतिध्वनि में भी मूल ध्वनि का सेतु छिपा है।
जीवन को इस भांति देखो तो मेरी दृष्टि तुम्हारी समझ में आ सकेगी। त्याग की जो धारणा सदियों-सदियों से तुम्हें समझाई गई है, उसके कारण बड़ी भूल हो गई है। त्यागना कुछ भी नहीं है। परमात्मा को पाना है जरूर, खोना कुछ भी नहीं है। परमात्मा इतना विराट है कि यह जीवन भी उसमें समाया हुआ है। तुम जीते-जी उसे पा सकते हो। तुम जैसे हो वैसे ही रह कर उसे पा सकते हो।
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
मौन मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की,
पर नहीं परितृप्त हैं तृष्णा हृदय की,
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
ध्वनि तुम खोजोगे भी कैसे अगर प्रतिध्वनि न सुनी? और अगर स्वर न समझ में आए, तो संगीत को कैसे पकड़ पाओगे? और अगर झील में बनता हुआ चांद का प्रतिबिंब भी समझ में नहीं आता, तो आकाश में ऊगा चांद कैसे देखोगे?
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
जिसने जीवन को समझा, वह परमात्मा को खोजेगा ही, खोजेगा ही। रुक सकता ही नहीं। और जिसने जीवन को ही न समझा उसकी परमात्मा की खोज थोथी है, व्यर्थ है। उसके परमात्मा में कुछ भी नहीं है, उसका परमात्मा केवल एक धारणा है, एक विचार है। उसका परमात्मा तो केवल औरों ने समझा दिया है उसे, उसकी अपनी भीतर की प्यास नहीं है, अपने प्राणों की पुकार नहीं है। उसका परमात्मा उसकी प्रार्थना नहीं है, दूसरों के द्वारा दिया गया संस्कार है। उसका परमात्मा उधार है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा को खोजना है। मैं उनसे पूछता हूं, किस परमात्मा को? तुम्हारे भीतर कोई प्यास उठी है सत्य को जानने की? तुम्हारे प्राणों में कोई आंदोलन जगा है? तुम किसी झंझावात में पड़े हो, कोई आंधी उठी है जो कहती है कि खोजो, कि लगा दो सब दांव पर? या कि हिंदू घर में पैदा हुए, मुसलमान घर में पैदा हुए, ईसाई घर में पैदा हुए और सुन लीं बातें कि परमात्मा है और उसने जगत बनाया और उसे जो पा लगा उसे लाभ ही लाभ है, और जो उसे नहीं पाएगा उसे दुख ही दुख है; जो पा लेगा, उसे स्वर्ग है, जो नहीं पाएगा, उसके लिए नरक है, ऐसे भय और प्रलोभन से, ऐसे उधार संस्कारों से, उनसे सुन कर जिनको खुद भी पता नहीं है तुम खोजने निकले हो? तुम्हारी खोज नपुंसक होगी। तुम्हारी खोज में श्वास ही नहीं होगी। तुम्हारी खोज लाश होगी, उसमें जीवन नहीं होगा। और लाश को चलाओगे भी तो कैसे? थोड़ा बहाने बांध-बूंध कर, धक्का-धुक्कू देकर चला लोगे, गिर-गिर जाओगे। लाशें कहीं चली हैं? इसीलिए तो इतने लोग दुनिया में धार्मिक दिखाई पड़ते हैं लेकिन धर्म कहां है?
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
मौन मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की,
पर नहीं परितृप्त हैं, तृष्णा हृदय की,
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
तुम समर्पण बन भुजाओं में पड़ी हो,
उम्र इन उद्भभ्रांत घड़ियों की बड़ी हो,
पा गया तन, आज मैं मन खोजता हूं;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
है अधर में रस मुझे मदहोश कर दो,
किंतु मेरे प्राण में संतोष भर दो,
मधु मिला है, मैं अमृतकण खोजता हूं;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
जी उठा मैं, और जीना प्रिय बड़ा है,
सामने, पर, ढेर मुरदों का पड़ा है,
पा गया जीवन, संजीवन खोजता हूं;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
यह जीवन परमात्मा की प्रतिध्वनि है। उसकी छाया। इससे कुछ सीखो! आंखें बंद न करो, भागो मत, भयभीत न हो जाओ। इसी छाया के सहारे तुम स्रोत तक पहुंच सकते हो। और कोई उपाय नहीं है। और कोई विधि नहीं है। और सब विडंबनाएं हैं।
जीवन को सम्मान दो, सत्कार करो! जीवन उसकी भेंट है। और तुम पात्र न थे तो भी तुम्हें भेंट मिली है। तुम अपात्र हो, फिर भी वह तुम पर बरसा है..झरत दसहुं दिस मोती..उसके मोती बरसे ही जाते हैं। तुमने नहीं मांगा, वह तुम्हें मिला है। तुम जो नहीं जानते, वह भी तुम्हें मिला है। जिसे पहचानने में तुम्हें सदियां लग जाएंगी, वह भी तुम्हें मिला है। ऐसा खजाना, जो अकूत। और ऐसी गहराई, जो अथाह है। और ऐसा जीवन, जो अज्ञेय है। रहस्यों का रहस्य तुम्हारे हृदय में समाया हुआ है, तुम्हारी श्वासों में रमा है। तुम कहां राम को खोजते हो? किस मंदिर में? किस काबा में, किस कैलाश में? राम तुम्हारे भीतर बैठा है। तुम भी राम की एक छाया हो। तुम अपने को ही पकड़ लो तो राम पकड़ में आ जाए। तुम अपने को ही जान लो तो राम जानने में आ जाए।
भगोड़े मत बनो। जागो!
गुलाल कहते हैं..
सतगुरु घर पर परलि धमारी, होरिया मैं खेलूंगी।।
बड़े प्यारे वचन हैं! कहते हैं, ‘सतगुरु घर पर परलि धमारी’, ...कि सतगुरु हमारे घर पर धूम-धड़ाका करते आ गए हैं। गाजे-बाजे से; नृत्य-संगीत से; जैसे वसंत आए, ऐसे फूलों से लदे आ गए हैं। जैसे संगीत आए, ऐसे स्वरों का नर्तन है। ‘सतगुरु घर पर परलि धमारी’, ...और घर से मतलब है आत्मा का। वही तो हमारा घर है। यह मिट्टी का घर जो तुमने बना लिया है, यह तो घर नहीं। यह तो सराय है। आज ठहरे, कल चले। और यह जो देह है, यह भी सराय है। इस जन्म ठहरे, अगले जन्म चले। इस देह के भीतर जो चैतन्य है तुम्हारा, जो आत्मा है, तुम्हारी, वही असली घर है। जो छिने न, वही घर है। जो छीना जा सके ही न, वही घर है। जो शाश्वत है, जो सदा हमारा है, जिससे हम दूर होना भी चाहें तो न हो सकें, वही घर है। उसी घर की ही तो तलफ है, उसी घर की ही तो प्यास है, उसी ही घर की तो हम खोज में लगे हैं।
गुलाल कहते हैं, कैसा चमत्कार हुआ है! ‘सतगुरु घर पर परलि धमारी।’ सदगुरु बड़े धूम-धड़ाके से मेरे घर में प्रवेश कर गए हैं। सदगुरु तो तुममें भी प्रवेश कर जाएं, लेकिन तुम प्रवेश होने नहीं देते। गुलाल ने हो जाने दिया। तुम द्वार-दरवाजे बंद करके बैठे हो। तुम तो एक सूरज की किरण भीतर प्रविष्ट नहीं होने देते। तुम तो हवा का जरा सा झोंका भीतर नहीं आने देते। तुम तो अपनी गुफा में छिप गए हो। घर तुम्हारा निवास नहीं है, तुमने उसे कब्र बना लिया। तुमने सब तरफ से सब बंद कर दिया है।
किन ईंटों से तुमने अपना घर चुन लिया, दरवाजे चुन लिए, खिड़कियां चुन ली हैं? किन ईंटों से तुमने सब बंद कर दिया है? जरा उन ईंटों को पहचानो। तुम्हारे विचार की ईंटें, तुम्हारे सिद्धांतों की ईंटें, तुम्हारे ज्ञान की ईंटें, तुम्हारे शास्त्रों की ईंटें। तरह-तरह की ईंटें हैं। क्योंकि तरह-तरह की ईंट बनाने वाले कारखाने हैं। हिंदुओं की अपनी ईंटें हैं, अपना रंग-ढंग है, मुसलमानों की अपनी ईंटें हैं, अपना रंग-ढंग है। और बड़े झगड़े हैं उनमें कि किसकी ईंट अच्छी? और मामला यह है कि ईंट कोई अच्छी नहीं, क्योंकि सभी ईंटें दरवाजे रोक लेती हैं। दरवाजे दीवारें हो गए हैं। तुम अंधे नहीं हो सिर्प तुम्हारे दरवाजे दीवारें हो गए हैं। और तुम्हारा हृदय भी परमात्मा के साथ नाचने को उतना ही तत्पर है जैसे आषाढ़ में मेघ घिर जाते हैं और मोर नाचते हैं। और तुम्हारे प्राण की कोयल भी कूकना चाहती है। मगर अवसर मिले तब। तुम अवसर ही नहीं देते। तुमने सब अवसर छीन लिए हैं।
गुलाल ने अपने हृदय को खुला छोड़ा इसलिए अपने नौकर के सामने झुक सके। बुलाकीराम गुलाल का नौकर था, उनका चरवाहा था। पता नहीं था कि यह बुलाकीराम भी कुछ है। ऐसे पता चलता ही नहीं। जब तक तुम खुले न होओ, किसी क्षण में तुम्हारे दरवाजे खुले मिल जाएं तो ही पहचान होती है। बहुत खबरें आती थीं, लोग कहते थे, यह कहां का नौकर लगा रखा है, यह कुछ ढंग का काम नहीं करता। गाय-बैलों को तो छोड़ देता है जंगल में चरने और खुद बैठ जाता है वृक्षों के नीचे आंख बंद करके और डोलता है। अलाल है। कामचोर है। वह था रामचोर और लोग समझते थे कामचोर। वह राम को चुराने में लगा था। वह जो आंखें बंद करके डोलता था, वह राम को चुरा रहा था।
जब बहुत शिकायतें आ गईं तो एक दिन गुलाल ने कहा अब आज जाऊं। गुलाल जमींदार थे। जमींदार की अकड़। पहुंचे सुबह-ही-सुबह। और देखा तो कहा कि लोग ठीक कहते हैं। बुलाकीराम को भेजा था खेत में बुवाई करने, बैल तो हल-बखर लिए एक तरफ खड़े थे और बुलाकीराम एक वृक्ष के नीचे मस्त हो रहे थे, आनंद की वर्षा हो रही थी, लूट चल रही थी। बड़ा क्रोध आया। पीछे से जाकर एक लात मार दी। शायद सामने से आ132या होगा गुलाल तो लात भी न मार सकता। शायद बुलाकीराम का चेहरा देखा होता तो राम का चेहरा दिखाई पड़ जाता। मगर पीछे से आया, पीठ पर एक लात मार दी। यह पीछे से ही तो हम परमात्मा की पीठ पर लात मारे चले जाते हैं। यह पीछे से ही तो हम छुरे भौंके जाते हैं। सामने-आमने हों तो शायद झेंपें भी, थोड़ी लाज भी खाएं, थोड़ा संकोच भी उठे।
बुलाकीराम गिर पड़ा। लेकिन उसी मस्ती में उठा। चरण छुए गुलाल के और बहुत-बहुत अनुगृहीत, बहुत-बहुत धन्यवाद देने लगा। गुलाल ने पहली दफा गौर से देखा उसे। यह आदमी असाधारण है! मैंने लात मारी और यह धन्यवाद दे रहा है! और आंखों से आनंद के आंसू बहे जा रहे हैं। और बुलाकीराम ने कहा कि धन्य हो, मालिक! जो काम मैं वर्षों में मेहनत करके न कर पाया, जरा-से इशारे में कर दिया। जरूर उस बड़े मालिक ने ही भेजा है। वह भी मेरा मालिक, तुम भी मेरे मालिक। मालिक ने ही तुम्हें भेजा होगा। तुम छोटे मालिक, वह बड़ा मालिक, मगर बिना उसके इशारे के तुम नहीं आए हो। और क्या लात मारी कि बुलाकीराम को रास्ते पर लगा दिया! जरा सी भूल हो रही थी; बस, जब भी ध्यान करने बैठता था तो एक खराबी थी मेरी, गरीब आदमी हूं, एक जून रोटी मिल जाए वही बहुत, और देख ही रहे हैं आप कि सारी दुनिया मुझे अलाल कहती है, कामचोर कहती है, और फुरसत भी मुझे नहीं..इस मस्ती से समय बचे तब न, तो कुछ और करूं..जो कुछ आप दे देते हैं, उससे बस बाल-बच्चों को एक समय का भोजन मिल जाता है, तो मन में एक आकांक्षा, एक अभीप्सा है कि कभी संतों को घर निमंत्रण करूं, संन्यासियों को बुलाऊं, साधुओं को बुलाउं, उनको भोग लगाऊं, छत्तीसों प्रकार के भोजन बनाऊं। तो यह कर तो नहीं सकता, यह मेरी हैसियत नहीं, सो रोज जब ध्यान में बैठता हूं तो बस, यही वासना मुझे पकड़ लेती है। बस, ध्यान में मैं मन ही मन में बड़े-बड़े संतों को निमंत्रण देता हूं: आओ! सब आओ!! सबको भोजन का निमंत्रण दे आता हूं। और क्या-क्या भोजन बनाता हूं, मालिक!
बस, ऐसा ही भोज चल रहा था अभी, जब आपने लात मारी। सब परोस चुका था, बस दही परोसने को रह गया था; दही की हंडिया लेकर परोसने जा रहा था कि आपने लात मार दी। दही की हंडिया गिरी, दही छितर-बितर हुआ, हंडिया फूट गई, संत इत्यादि तिरोहित हो गए..क्योंकि थी तो सब कल्पना ही..और एक क्षण में उस कल्पना के तिरोहित होते ही मन निर्विचार हो गया। बस, एक ही विचार अटका रखा था। वह विचार भी आपने लात मार कर तोड़ दिया। कितने आपके चरण छुऊं!
गुलाल की तो समझ के ही बात बाहर हो गई! आंख फाड़-फाड़ कर देखा इस नौकर को! चारों तरफ उसके रोशनी थी। एक मधुर जैसे संगीत बज रहा हो। एक सुगंध उड़ रही थी। गुलाल चरणों पर गिर पड़ा। और उसने कहा, हे सदगुरु, मुझे क्षमा करो! उस दिन बुलाकीराम बुल्लाशाह हो गया। और जब उसका मालिक उसका शिष्य हो गया तो बहुत शिष्य हुए बुल्लाशाह के। मगर वह जिंदगी भर कहता रहा कि कुछ भी हो, गुलाल कुछ भी कहे, लेकिन इसकी बिना लात के कुछ भी नहीं हो सकता था। इसकी लात में परमात्मा ने ही लात मारी। वही इसके बहाने आया।
अब गुलाल कह रहे हैं: ‘सतगुरु घर पर परलि धमारी’, ...हमारे घर पर सतगुरु बड़े धूम-धड़ाके से आ गया। यह बुल्लाशाह की ही याद कर रहे हैं। ...‘होरिया मैं खेलौंगी।’ और अब मैं क्या करूं? होली खेलूं? फाग रचाऊं? भरूं रंग में पिचकारी? फेंकूं रंग? उड़ाऊं गुलाल? और क्या करूं! उत्सव मनाऊं!
जूथ जूथ सखियां सब निकरीं, परलि ग्यान कै मारी।।
और मैं अकेला ही नहीं हूं इसमें। ‘जूथ जूथ सखियां’, ...झुंड के झुंड सखियां आ रही हैं। शिष्य तो सखी ही हो जाता है। शिष्य की जो परम अवस्था है, वह सखी की ही अवस्था है। गुरु व्यक्ति नहीं रह जाता है। व्यक्ति मिट जाता है तभी तो गुरु होता है। गुरु तो केवल प्रतीक रह जाता है परमात्मा का। और परमात्मा ही एक मात्र पुरुष है, बाकी तो सब सखियां हैं। और इतना समर्पण न हो, इतना प्रेम न हो, इतनी प्रीति न हो, तो शिष्यत्व बनता ही नहीं। इसलिए ठीक ही कहते हैं गुलालः ‘जूथ जूथ सखियां सब निकरीं।’ मैं ही अकेला नहीं निकल पड़ा हूं होली खेलने, झुंड के झुंड सखियां आ रही हैं।
बुल्लाशाह के पास बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई दीवानों की, मस्तों की। शमा जलती है तो परवाने आते ही हैं। बुल्लाशाह के पास बहुत उत्सव हुआ, बहुत नृत्य सघन हुआ, बहुत गीत घने हुए, बहुत वर्षा हुई अमृत की।
जूथ जूथ सखियां सब निकरीं, परलि ग्यान कै मारी।।
इन सबको क्या हो गया है? ज्ञान ने इनके जीवन में धूम मचा दी। एक तो किताबी ज्ञान है, वह क्या ख़ाक धूम मचाएगा! धूल भला इकट्ठी हो जाए, धूम तो बिल्कुल न मचेगी। धुआं भला उठ जाए, धूम तो न मचेगी। दर्पण और गंदा भला हो जाए, निर्मल तो नहीं होगा। रट लो कुरान, गीता..कितने तो लोग रटे बैठे हैं! क्या होगा रटने से? तोतों की तरह रटे जाते हो। यह तो तोते भी कर लेते हैं, यह तुम क्या कर रहे हो! आदमी हो तुम, अपनी इतनी बेइज्जती तो न करो। और मेरे देखे, तोतों में भी थोड़ी ज्यादा अक्ल होती है ये तुम्हारे पंडितों की बजाय। ये जो पोंगा-पंडित, ये पोंगा..पंथी चारों तरफ इकट्ठे हैं, इनसे तोतों में भी थोड़ी ज्यादा अक्ल होती है।
एक महिला एक तोता खरीद लाई। बड़ी धार्मिक महिला थी। तोता प्यारा था। लेकिन जिसने बेचा, उसने कहा कि जरा ख्याल से ले जाएं, यह तोता जरा गलत संगसाथ में रहा है। अब आप तो जानती ही हैं सत्संग। जैसे सत्संग होता है, ऐसे ही दुष्टसंग भी होता है। यह दुष्टसंग में रहा है। तो यह कभी-कभी उलटी-सीधी बातें कह देता है। इसका बुरा न मानना। तोता ही है! इसका कोई भाव बुरा नहीं है, भाव इसका है ही नहीं कुछ। शब्द सीख लिए हैं, अंट-शंट बोल देता है, मगर अभिप्राय इसका कुछ भी नहीं है, बिल्कुल कोरा है। तो अगर इतनी तैयारी हो तो ले जाओ। मगर तोता इतना प्यारा था कि उस महिला ने कहा, कोई फिकर न करो, सुधार लेंगे हम।
हर सोमवार को पंडित जी आते थे। जैसे पंडित जी होते हैं। रहे होंगे पोंगापंथी। आकर कुछ पूजा-पत्री करवा जाते थे। कहीं तोता कुछ अंट-संट न बोल दे, पंडितजी को नाराज न कर दे..क्योंकि महिला जब घर लाई तब उसे पता चला कि तोता बोलता तो अंट-संट है। कुछ भी कह देता है! कोई अंदर आए, कहता है..अबे, हरामजादे! अब पंडित जी से कह दे तो गड़बड़ हो जाए। हर किसी से कह देता..उल्लू के पट्ठे! तो जैसे ही पंडित जी घर में आए, वह जल्दी से एक कंबल उढ़ा दे तोते के पिंजरे पर। कंबल ओढ़ने से तोता समझ जाए कि पंडित जी आ गए। सो चुपचाप रहे।
सोमवार को आते थे। सो हर आठवें दिन तोते पर कंबल डाला जाता था। एक बार ऐसा हुआ कि सोमवार को भी आए और मंगल को कुछ काम पड़ गया पंडित जी को, सो वे मंगल को भी आ गए। सो जल्दी से महिला ने कंबल फेंका। तोता भीतर से बोला: अरे, हरामजादे! आज तो मंगलवार ही है! आज ही आ गए पोंगा पंडित! दिन की भी खबर नहीं! उठाया मुंह, चले आए!
इतनी अकल तो तोते में है कि सोमवार के बाद मंगलवार आएगा..एकदम से सोमवार कैसे आ गया फिर से! आठ दिन लगते हैं आने में। लेकिन जिसको तुम पंडित कहते हो, उसको इतनी भी अकल नहीं होती। वह केवल मुर्दा शब्दों को दोहराए चला जाता है। उससे पूछो, ईश्वर है, तो वह कहता है..है। रंच-मात्र अनुभव नहीं, रत्ती भर प्रतीति नहीं, कोई साक्षात्कार नहीं है, कोई पहचान नहीं, कोई मुलाकात नहीं, कहता है..है! जरा झकझोरो उसे और जरा खोज-बीन करो और तुम चकित हो जाओगे कि वह निपट अज्ञानी है, सिर्प यंत्रवत दोहरा रहा है। तुम जो कह रहे हो, इसी को सुन कर दोहराओगे।
एक तोता दूसरे तोते को सिखा देता है। ऐसे लोग दोहराए चले जाते हैं।
मनुष्य-जाति की प्रतिभा इतनी क्यों खो गई है? जहां पंडितों का जितना प्रभाव है, वहां उतनी ही प्रतिभा कम है। अगर भारत आज प्रतिभा में सारी दुनिया में पिछड़ गया है, तो उसका सबसे बड़ा कारण है: भारत में पंडितों का बहुत प्रभाव है। जब तक इन पंडितों से छुटकारा न होगा, भारत की प्रतिभा मुक्त नहीं हो सकती। क्योंकि ये खुद तोते हैं और दूसरों को तोते बनाए हुए हैं। ये राम-राम जपते रहते हैं और दूसरों को राम-राम जपाते रहते हैं। और इनको पता है कि, राम-राम जपने से कुछ नहीं होता। जिंदगी भर इनको जपते हो गई, कुछ भी नहीं हुआ। और हमें यह भी मालूम है कि बाल्मीकि तो मरा-मरा जप कर भी राम को पा गया, और ये राम-राम जपकर भी नहीं पा सके तो बात क्या है, मामला क्या है? बाल्मीकि के जपने में हार्दिकता थी, पांडित्य नहीं था। और इनके जपने में केवल थो थी बुद्धि है, हृदय का कोई भी समागम नहीं है।
ज्ञान पंडितों से नहीं मिलता, ज्ञान शास्त्रों से नहीं मिलता, ज्ञान तो केवल उनसे ही मिल सकता है जो जागे हों, जिनके जीवन की ज्योति जल उठी हो, जिनके प्राण मशाल बन गए हों। उन्हीं के पास तुम अपना बुझा दीया लेकर जाओ तो जल उठे। जिनके खुद के दीये बुझे हैं, उनसे जरा बचना, वे कहीं तुम्हारे जले-जलाए दीये को न बुझा दें। उनसे जरा दूर-दूर रहना। उनके पास दीया तुम जिंदगी भर रखे रहो तो भी न जलेगा। दो बुझे दीये कितनी ही देर पास रहें, कितने ही पास रहें, कुछ भी न होगा। और तुम अपने पंडितों को भलीभांति जानते हो, अपने मौलवियों को भलीभांति जानते हो, अपने पादरियों को भलीभांति जानते हो, इनके जीवन में कुछ भी तो नहीं है। अक्सर तो पाया जाएगा कि तुमसे भी गया-बीता इनका जीवन है। मगर ये शब्दों में कुशल हैं, उद्धरण देने में कुशल हैं।
मैंने सुना है, इंगर सोल नाम का एक बहुत मूल्यवान विचारक हुआ अभी इसी सदी के प्रारंभ में। वह जब भी बोलने खड़ा होता, तो लोग बड़े हैरान थे, वह एक इशारा करता जो किसी की समझ में न आता कि क्या कर रहा है! लोग पूछते तो मुस्कुरा कर रह जाता। जब भी पूछते तभी टाल जाता। इधर-उधर की बातें करता मगर वह इशारे की बात न करता। पश्चिम के बहुत अच्छे बोलने वालों में से एक था। वह जब भी खड़ा होता तो अंगुली से कुछ इशारा करता हवा में और जब बोलना खतम करता तब फिर अंगुली से इशारा करता। मरते वक्त लोगों ने कहा, अब तो बता दो! तुमने और सब रहस्य खोले, मगर यह अंगुली से तुम आकाश में क्या करते हो? शुरू में भी, बाद में भी। उसने कहा, जब अब तुम नहीं मानते तो बताए देता हूं, वह इनवर्टेड कामा.ज बनाता हूं। कि यह अपना कुछ नहीं है, सब उद्धरण है। अब कह सकता हूं, क्योंकि अब तो मौत करीब आ गई है..अब क्या मेरा बिगाड़ लोगे? अब तो जिंदगी चल गई, धंधा चल गया, काम खतम हुआ, अब विदा हो रहा हूं..अब क्या बिगाड़ लोगे? कहे जाता हूं। इसलिए जिंदगी भर मुस्करा कर रह जाता था कि जो भी मैं कह रहा हूं मेरा इसमें कुछ नहीं, सब किताबों का है; सब बासा है, सब उधार है। मगर यह कहूं कैसे? यह कहूं तो धंधा गिर जाए। सो मैंने यह तरकीब निकाली थी।
आदमी ईमानदार रहा होगा। कम से कम इतना तो उसने किया कि हवा में इनवर्टेड कामा बना दे। किसी को दिखाई पड़े चाहे न दिखाई पड़े, समझ में आए कि न समझ में आए, बाद में इनवर्टेड कामा बंद कर दे, खत्म।
तुम्हारे पंडितों में इतनी भी समझ नहीं है। वे तो अक्सर इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि खुद ही बोल रहे हैं। बोलते-बोलते, बोलते-बोलते भूल ही जाते हैं कि कृष्ण का वचन तुम्हारा वचन नहीं हो सकता, जब तक कि तुम कृष्ण की चेतना को उपलब्ध न हो जाओ। और बुद्ध का वचन तुम्हारा वचन नहीं हो सकता, जब तक तुम्हारे भीतर बुद्धत्व फलित न हो जाए। उड़े वही गंध, जगे वही ज्योति, तो ही तुम जो कह रहे हो वह सत्य हो सकता है। और जब भी कभी ऐसा सत्य होता है, तो यह घटना घटती है: जूथ जूथ सखियां सब निकरीं, न मालूम कहां से छिपे हुए लोग चले आते हैं। दूर-दूर से लोग चले आते हैं। नाचते-गाते चले आते हैं। कैसे खबर हो जाती है? जैसे फूल खिलता है तो मधुमक्खियों को खबर हो जाती है..दूर, मीलों दूर; चलीं मधुमक्खियां, मधुछत्ते खाली होने लगते हैं। फूल खिल गए।
वैज्ञानिकों ने बहुत शोध की है मधुमक्खियों पर और वे कहते हैं कि मधुमक्खियों के पास भी भाषा है। ज्यादा शब्द नहीं हैं उनकी भाषा में, चार शब्द हैं। कम से कम चार का वैज्ञानिक पता लगा पाए हैं! वे शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं।
एक मधुमक्खी को पता चल जाता है कहीं, भूली-भटकी पहुंच गई गुलाब के फूल के पास, तो मधुमक्खियां आदमियों जैसी कंजूस नहीं हैं कि कब्जा कर लें गुलाब पर, कि कहे कि मैंने पहले पाया, यह मेरा है, कि दूसरी किसी मधुमक्खी को इस पर न बैठने दूंगी, नहीं, वह गुलाब को छूती भी नहीं, वह पहला काम यह करती है कि भागती है मधुछत्ते की ओर..मीलों दूर होगा मधुछत्ता..और जाकर मधुछत्ते के पास नाचती है। यह नाचना उसका एक प्रतीक है। यह एक शब्द हुआ। खास ढंग से नाचती है। अगर फूल पूरब में खिला है तो एक ढंग से नाचती है, अगर पश्चिम में खिला है तो दूसरे ढंग से, अगर दक्षिण में खिला है तो तीसरे ढंग से, अगर उत्तर में खिला है तो चैथे ढंग से। चारों दिशाओं के नाच हैं उसके। वह नाच कर बता देती है किस दिशा में फूल खिले हैं। और फिर उड़ चलती है। और सारा मधुछत्ता उसके पीछे हो लेता है।
एक व्यक्ति को भी जब सदगुरु का पता चल जाता है, तो वह भी क्या करेगा, और क्या करेगा, नाचेगा! नाचकर खबर देगा कि उत्तर, पश्चिम, पूरब, दक्षिण, कहां?
जूथ जूथ सखियां सब निकरीं, परलि ग्यान कै मारी।।
ज्ञान की धूम मच गई है। सद्गुरु के पास ज्ञान का महोत्सव चल रहा है। यही वास्तविक यज्ञ है। हवन-कुंड बाहर नहीं बनाने होते, प्राणों से बनाने होते हैं। गेहूं और घी जलाने से कुछ भी न होगा। मूढ़तापूर्ण कृत्य कर रहे हो, बरबादी कर रहे हो। करोड़ों का घी और गेहूं हर साल यहां जलाया जाता है। और लाखों मूढ़ इकट्ठे होकर सोचते हैं कि कोई महान कार्य कर रहे हैं! हवन-कुंड भीतर बनाना होता है। और अगर जलाना हो तो कुछ भीतर जलाओ। कूड़ा-करकट भीतर काफी है जलाने को। शास्त्रीय ज्ञान जलाओ, शब्द जलाओ, विचार जलाओ, सिद्धांत जलाओ..सब को जला कर राख कर दो..कि तुम निःशब्द हो जाओ, मौन हो जाओ, कि तुम शून्य हो जाओ। उसी शून्य में पूर्ण का पदार्पण होता है। और उस पूर्ण के आने के पहले सद्गुरु आता है और धूम-धड़ाके से आता है।
सतगुरु घर पर परलि धमारी, होरिया मैं खेलौंगी।।
जूथ जूथ सखियां सब निकरीं, परलि ग्यान कै मारी।।
अपने पिय संग होरी खेलौं, लोग देत सब गारी।।
शिष्य का और गुरु का संबंध तो प्रेम का संबंध है, प्रीति का संबंध है। वह तो प्रेम सगाई है। उससे बड़ी कोई सगाई नहीं। गुरु और शिष्य का संबंध वैसा संबंध नहीं है जैसा साधारणतः विद्यार्थी और शिक्षक का होता है। वह तो दो कौड़ी का संबंध है। उसका कोई मूल्य है! गुरु और शिष्य का संबंध बड़ी और बात है। यह विद्यार्थी और शिक्षक का संबंध नहीं है। गुरु-शिष्य का संबंध हार्दिक है, विद्यार्थी-शिक्षक का संबंध बौद्धिक है। हार्दिक संबंध प्रेम का होता है, तर्क का नहीं होता। यह कोई विवाद नहीं है। गुरु ने कोई तर्क दे-दे कर शिष्य को राजी नहीं कर लिया है कि जो मैं कहता हूं वह सही है। वह तो गुरु को देखा है और शिष्य को सिद्ध हो गया है कि बात सही है। वह तो गुरु के पास बैठा है और सिद्ध हो गया है कि बात सही है। बात कही नहीं गई और सुन ली गई है। शब्द बोले नहीं गए और पहुंच गए हैं। यह तो गंध है एक, यह तो संगीत है एक। और यह प्रेम में ही सुना जा सकता है।
अपने पिय संग होरी खेलौं, ...
और मैं अपने प्यारे संग होरी खेलती हूं..गुलाल कह रहे हैं..और लोग भी अजीब हैं कि लोग गालियां दे रहे हैं। लोग सदा से ऐसे ही रहे हैं। न खुद होली खेलेंगे, न दूसरों को खेलने देंगे। उन्हें बड़ा कष्ट हो जाता है किसी को मस्ती में देखें तो। कोई गीत गाए तो उनको एकदम गालियां सूझती हैं। क्या करें बेचारे, उनके भीतर गालियां ही लगती हैं! उनका कसूर भी नहीं। उन पर नाराज भी न होना। उन्हें क्षमा करना। कोई क्या कर सकता है; बबूल में कांटे लगते हैं। अब तुम बबूल में कोई कमल थोड़े ही लगाओगे! लोगों के प्राण बबूल हो गए हैं, कांटों से छिदे हैं। खुद कांटों से छिदे हैं, खुद पीड़ा में हैं, खुद नरक में जी रहे हैं, तो जब दूसरे को मस्त देखते हैं, मगन देखते हैं, तो उनकी ईष्र्या का अंत नहीं रह जाता, उनके भीतर से गालियां फूट पडती हैं।
यह सदियों की कथा है। इसमें रंचमात्र फर्क नहीं पड़ा है। आज भी नहीं पड़ा। आगे भी पड़ेगा नहीं। क्योंकि अधिक हिस्सा मनुष्य-जाति का दुख में ही जीने के लिए तय कर लिया है। दुख में जीने का कुछ मजा है। कुछ लोग हैं जो दुख में ही सुख पा रहे हैं। उनसे दुख छीन लो तो बड़े दुखी हो जाएंगे। उन्होंने जंजीरों को आभूषण समझ लिया है और कारागृह को घर समझ लिया है। उनकी भ्रांतियां बड़ी अद्भभुत हैं। उन्होंने सपनों को सत्य मान लिया है। इसलिए जब वे किसी व्यक्ति को जागते देखेंगे नींद से, तो उन्हें बेचैनी होगी, बरदाश्त के बाहर होने लगेगा वह आदमी, उसकी मौजूदगी उन्हें जमेगी नहीं। वे गालियां देंगे।
तो जब तुम्हें गालियां पड़ें, तो मुस्कराना। जानना कि यह तो पुराना नियम है। ...रघुकुल रीत सदा चलि आई! ...यह तो चलता ही रहा। यह कोई नया काम नहीं कर रहे बेचारे, यह तो पुराना काम है, सदा से होता रहा, अब भी करेंगे। ये गालियां न दें तो थोड़ा चैंकना कि बात क्या है! किसी ने इनके ऊपर कंबल उढ़ा दिया है या क्या मामला है? गालियां दें, बिल्कुल ठीक, सम्यक, इतिहास से बात मेल खाती है। गालियां न दें, तो थोड़ा चैंकना कि मामला क्या है? अंधे हैं, बहरे हैं, क्या बात है? इनको दिखाई नहीं पड़ रहा?
अपने पिय संग होरी खेलौं, ...
गुलाल कहते हैं, मैं तो किसी का कुछ बिगाड़ नहीं रहा, अपने पिया के संग होली खेल रहा हूं..मगर लोगों को क्या हुआ है! लोग कितने कष्ट उठा कर गालियां देते हैं! कितना श्रम करते हैं गालियां देने में। इतने श्रम से तो अपने ही गीत बना लेते हैं। इतने श्रम से तो उनका जीवन भी उत्सव हो सकता था, उनके जीवन में भी बांसुरी बज सकती थी। लेकिन अजीब हैं लोग। बांसुरी बजाने में उनका रस नहीं है, किसी और की बजे, इससे भी उन्हें विरोध है। हर आदमी चाहता है कि दूसरे लोग मेरे जैसे ही दुखी रहें। दुखी आदमियों को देख कर उसको तृप्ति मिलती है कि ठीक, सब हमारे ही जैसे हैं। सुखी आदमी को देख कर उसे शक पैदा होता है। अब दो बातें खड़ी हो जाती हैं, दुविधा खड़ी हो जाती है..क्या मैं गलत हूं? अगर यह आदमी सही है तो मैं गलत हूं। मगर कोई अपने को गलत नहीं मानना चाहता। अहंकार के विरोध में है यह बात, अपने को गलत मानना। तुमने कई दफा देखा होगा, विवाद में तुम्हें साफ समझ में आ जाता है कि तुम गलती पर हो, मगर फिर भी अपनी बात पर अड़े रहते हो। लोग कहते हैं, टूट जाएंगे मगर झुकेंगे नहीं; मिट जाएंगे, मगर अपनी बात पर डटे रहेंगे। गलत-सही का सवाल कहां है, सवाल ‘मेरी‘ बात का है। तो जब भी तुम देखते हो कोई मस्त है, आनंदित है, तुम्हें पीड़ा होती है; तो कौन सही है? यह आदमी सही है? और तुम्हें एक सुगमता है। क्योंकि भीड़ तुम्हारे जैसी है, उस जैसी नहीं, तो तुम कह सकते हो कि भीड़ गलत नहीं हो सकती। इतने लोग कैसे गलत हो सकते हैं!
जॅार्ज बर्नार्ड शॅा से किसी ने कहा..किसी बात के संबंध में; बर्नार्ड शॅा कुछ कह रहा था..उस आदमी ने कहा कि आप अकेले यह बात कहने वाले हैं, आखिर सारे पृथ्वी के करोड़-करोड़ लोग गलत कैसे हो सकते हैं! और तुम्हें पता है बर्नार्ड शॅा ने क्या कहा? बर्नार्ड शॅा ने कहा: मैं यह पूछता हूं कि करोड़-करोड़ लोग सही कैसे हो सकते हैं! क्योंकि सही तो कभी कोई एकाध होता है। इतने लोग अगर इस बात को मानते हैं तो गलत ही होगी बात, नहीं तो इतने लोग मान ही नहीं सकते। बुद्ध तो कोई कभी होता है, कबीर तो कोई कभी होता है, नानक तो कोई कभी होता है, मोहम्मद, जीसस तो कोई कभी होता है, अधिक भीड़ तो मूढ़ों की है। भीड़ तो भेड़ों की है। उनकी चाल भेड़ों की है। यह बात मत कहना, इतने लोग मानते हैं तो कैसे गलत मानते होंगे! मगर अहंकार हमारा इसमें तृप्ति पाता है, आश्वासन पाता है। इतने लोग मानते हैं और हम भी यही मानते हैं, तो यही ठीक होना चाहिए। फिर इस आदमी को क्या हो गया? यह आदमी पागल है। यह आदमी विक्षिप्त है। या यह आदमी पाखंडी है। या यह ढोंग कर रहा है। आनंदित होने का ढोंग कर रहा है।
तुम्हारा क्या बिगाड़ रहा है? अगर आ नंदित होने का ढोंग भी कर रहा है तो भी तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं रहा है। कम से कम दुखी होने का ढोंग करने से तो बेहतर आनंद करने का ढोंग है। अगर गीत गा रहा है तो किसी का कुछ हर्जा नहीं कर रहा है। अगर नाच रहा है तो किसी का हर्जा नहीं कर रहा है। और अगर अपने प्यारे के संग होली खेलने चला है, गुलाल उड़ा रहा है, तो तुम्हारा क्या बिगाड़ रहा है? हां, धूल उड़ाए तो तुम्हें जंचती है बात!
तुम देखते हो न, होली की भी लोगों ने कैसी दुर्गति कर दी है! गुलाल वगैरह कम उड़ती है आजकल, धूल ज्यादा उड़ती है। रंग-वंग तो कोई फेंकता ही नहीं, कोलतार! गोबर घोलकर एक-दूसरे को पोत रहे हैं। लोगों की बुद्धि तो देखो! वसंत का उत्सव गोबर घोलकर मनाया जा रहा है। नाली की कीचड़ निकाल लाते हैं लोग।
मैं रायपुर में कुछ दिनों तक था। होली करीब आने वाली थी। सामने के सज्जन को मैंने देखा कि वे अपनी नाली में कुछ ईंटें लगा रहे हैं। मैंने कहा: क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा कि रोक रहे हैं, होली आ रही है, तो इकट्ठा कर रहे हैं। इसी में पटकेंगे लोगों को।
एक तो रायपुर जैसी गंदगी किसी और नगर में खोजना मुश्किल। रायपुर तो हद है। लोग बड़े अभेदभाव को मानते हैं। भेदभाव नहीं करते। कहीं भी पाखाना करेंगे, कहीं भी पेशाब करेंगे..कोई भेदभाव करता ही नहीं। कहां संडास है, कहां सड़क है, इसमें कोई भेदभाव नहीं। अद्वैतवाद। वेदांती हैं लोग। मुझे अपने घर से कालेज तक जाना पड़ता था, कोई डेढ़ मील का फासला था, मैं देख कर दंग रह जाता था, लोग कहीं भी बैठे हैं! महा गंदा नगर है रायपुर। और वहां की नाली को रोक रहे हैं वे ईंटें लगा कर। ग167ा तैयार कर रहे हैं, होली आ रही है!
लोगों ने वसंत के उत्सव को, आनंद के उत्सव को भी कीचड़ फेंकने का उत्सव बना दिया। और तुम देखते हो, लोग होली पर गालियां बकते हैं। साल भर इकट्ठी करते हैं गालियां, होली पर दिल खोल कर निकाल लेते हैं। जिन-जिन को देना थी गाली और नहीं दे सकते थे..क्योंकि हर वक्त गाली दो तो झंझट खड़ी हो जाए..दिल खोल कर होली पर गालियां दे लेते हैं। गीत गाने का उत्सव गालियों में गिर गया। रंग उड़ाने का उत्सव नालियों में गिर गया। आदमी कैसा है! यह हर चीज को विकृत कर लेता है। हर चीज को खराब कर लेता है। इसके हाथ में सोना लग जाए, मिट्टी हो जाता है। अब होली तो हमारा सबसे सुंदर उत्सव था। रंगों का उत्सव, मदमस्ती का उत्सव, गीत गाने का उत्सव, नाचने का उत्सव, ढोल पर ताल पड़े, लोगों के पैरों में घूंघर बंधें। नहीं, वह सब खो गया। लोग गालियां बक रहे हैं। गंदी से गंदी गालियां बक रहे हैं। और गंदे से गंदा मलमूत्र एक-दूसरे के ऊपर फेंक रहे हैं। और इसको कहते हैं होली।
अगर रंग भी पोतते हैं तो ऐसी दुष्टता से पोतते हैं कि रंग तो सिर्प बहाना ही होता है, दुष्टता ही असली चीज होती है। तुम उनको रंग भी पोतते देखो तो तुम देख लोगे कि रंग पोतना उनका इरादा नहीं है, इरादा तो यह सताना है तुम्हें। रंग भी ऐसा खरीद कर लाते हैं कि तुम धो-धो कर मर जाओ तो निकल न सके। इस देश में हर चीज का रंग कच्चा, सिर्प होली पर पक्का रंग मिलता है..पता नहीं कहां से मिल जाता है? कोई कपड़े का रंग पक्का नहीं, मगर होली के लिए बचा कर रखते हैं पक्का रंग।
अपने पिय संग होरी खैलौं, लोग देत सब गारी।।
अब खेलौं मन महामगन ह्वै, छूटलि लाज हमारी।।
लेकिन वे कहते हैं कि हमें तो लाज भी नहीं रही; हमने तो लोकलाज भी खो दी। अब लोग गाली दें तो गाली दें, हमें तो बेचैनी भी नहीं होती। किसको हो बेचैनी? जिस मन को बेचैनी होती थी, वह तो डूब गया। हम तो महामगन हो गए। हम तो बचे ही नहीं जिसको चोट लग सकती थी। वह अहंकार ही न रहा जिसको तुम घाव कर सकते थे।
अब खेलौं मन महामगन ह्वै, छूटलि लाज हमारी।।
रंगों की बौछार कर रही संध्या पावस की!
दूर दीखता रंगमहल वह, जिसके .फीरोजे के छज्जे;
सोने की दीवारें जिसकी, महराबी मानिक-दरवज्जे;
जाते-जाते उझक गई रे संध्या पावस की!
रंगों की बौछार कर रही संध्या पावस की!
इंद्रनील के आसमान में दिखते रंग-बिरंगे बादल,
कहीं इंद्रधनु के रंगों से भर जाता है शून्य दिगंचल,
वह धनुषई चीर लहराती संध्या पावस की!
रंगों की बौछार कर रही संध्या पावस की!
कहीं बैंगनी, कहीं जामुनी, कहीं कत्थई, कहीं सुरमई,
लाल-सुनहरे सौ रंगों से आसमान को सांझ भर गई;
इन रंगों में डुबो गई मन संध्या पावस की!
रंगों की बौछार कर रही संध्या पावस की!
मेरे प्राण परिंदों-से ही डूब-डूब जाते रंगों में;
संध्या के सौ रंग सौ तरह भर जाते मेरे अंगों में;
आज गगन-मन में दमकी रे संध्या पावस की!
रंगों की बौछार कर रही संध्या पावस की!
जो डूबा, उसे क्या फिकर? कौन गाली देता है, कौन पत्थर मार जाता है, कौन अपमान करता है, यह सब अर्थहीन हो गया। उसके भीतर वह अहंकार ही न बचा जिसके लिए इन सारी बातों की सार्थकता थी।
शिष्य होने के लिए यह जरूरी शर्त है कि आदमी लोकलाज छोड़ दे। नहीं तो लोकलाज तुम्हें बांधे रखती है भीड़भाड़ से। तुम उससे कभी मुक्त नहीं हो पाते। लोकलाज की व्यवस्था तुम्हें भीड़भाड़ से बांधे रखने की व्यवस्था है। वह इस बात की व्यवस्था है कि कभी भीड़ को छोड़ना मत, नहीं तो भीड़ बदला लेगी, बहुत सताएगी। राज-पथ मत छोड़ना भीड़ का। चाहे राज-पथ कहीं पहुंचे या न पहुंचे, मगर चलना राजपथ पर। जहां सब चलते हों, वहीं चलना। सब ग167े में गिरें तो तुम भी गिरना, मगर रहना सबके साथ। अलग-थलग मत हो जाना, अपनी कोई पगडंडी मत पकड़ लेना। और धर्म पगडंडी है, राजपथ नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन भीड़ का साथ छोड़ देना होता है। भीड़ को छोड़ते ही तो तुम पहली बार परमात्मा के साथ होने की सामथ्र्य प्रगट करते हो। लोगों ने भीड़ को परमात्मा बना लिया है, भीड़ को धर्म बना लिया है। ईसाई चला जाता है हर रविवार को चर्च में; किसलिए? तुम सोचते हो चर्च से कुछ लेना-देना है, कि क्राइस्ट से कुछ लेना-देना है। नहीं, वह जो ईसाइयों की भीड़ है, उसको राजी रखना है। अगर रविवार को चर्च न जाओ तो वह भीड़ नाराज होती है। लोग पूछने लगते हैं, क्यों नहीं आए, क्या बात है? क्या नास्तिक हो गए? क्या जीसस को विस्मरण कर दिया? अब कौन इन झंझटों में पड़े! फिर इन्हीं लोगों से हजार काम हैं। लड़के-बच्चों की शादियां करनी हैं, दुकान भी चलानी है, बाजार भी चलाना है, इन पर हर तरह से निर्भर भी रहना है, सुख-दुख का साथ है, जरूरत पड़ती ही है सभी को एक-दूसरे की, कौन झंझट मोल ले, बेहतर है एक घंटा हो आओ चर्च। सो लोग मंदिर हो आते हैं, मस्जिद हो आते हैं। न मस्जिद से लेना, न मंदिर से कुछ लेना, न चर्च से कुछ प्रयोजन, न सिनागॅाग, न गुरुद्वारे से, भीड़ से डर है कि न गए तो भीड़ अड़चन खड़ी करेगी। और भीड़ अड़चन खड़ी करती है। हुक्का-पानी बंद! जितना छोटा गांव, उतनी ज्यादा उपद्रव करती है। क्योंकि छोटे गांव में हरेक को हरेक का पता होता है।
मेरे देखे दुनिया से छोटे गांव मिट जाएं तो दुनिया में स्वतंत्रता बढ़ेगी। जब तक छोटे गांव हैं दुनिया में, स्वतंत्रता नहीं बढ़ सकती। मैं छोटे गांवों के विरोध में हूं। क्योंकि छोटे गांव का सबसे बड़ा खतरा यह है कि हरेक की नजर हरेक पर लगी रहती है। कहां जा रहे, क्या कर रहे, क्या नहीं कर रहे? कि वहां क्या कर रहे थे? कि उसके पास क्यों बैठे थे? बड़े नगर की कम से कम एक सुविधा है कि सबको सबका पता नहीं रहता कौन क्या कर रहा है, कहां जा रहा है, क्या नहीं कर रहा है। इतनी भीड़भाड़ है कि कहां किसको पता?
जो काम सदियों में नहीं हो सके थे बड़े-बड़े क्रांतिकारियों के द्वारा, वे छोटी-छोटी चीजों से हो गए। जैसे रेलगाड़ी ने कुछ काम कर दिए। अब रेलगाड़ी कोई क्रांतिकारी चीज नहीं है। क्या रेलगाड़ी को क्रांति से लेना-देना! लेकिन रेलगाड़ी में तुम बैठे हो, चैबीस घंटे का सफर, भोजन तो करोगे न! अब बगल में जो सज्जन बैठे हैं, पता नहीं कौन हों? हों बाबू जगजीवनराम, क्या पता! खादी वगैरह पहने बैठे हैं, मगर हैं तो चमार। अब तुम पूछ भी नहीं सकते कि भइया चमार तो नहीं हो? वे नाराज हो जाएंगे एकदम। और भोजन तो करना ही पड़ेगा। तो राम-नाम लेकर, अपने को जरा सिकोड़ कर कि कोई छू-छुआ न जाए...। कुछ खरीदोगे कहीं! क्या पता कौन बेचने वाला है? हिंदू है, कि मुसलमान है...!
हिंदुस्तान-पाकिस्तान के जब बंटवारे के पहले की स्थिति थी तो तनाव था हिंदू-मुसलमानों में, तो स्टेशनों पर हिंदू पानी और मुसलमान पानी मिलता था। अब पानी भी हिंदू और मुसलमान, हद हो गई! पानी कैसे हिंदू और पानी कैसे मुसलमान? लेकिन चिल्लाता था आदमी कि हिंदू पानी ले लो, कि मुसलमान पानी ले लो। अब तो कुछ पता लगाना मुश्किल है कि पानी कौन दे रहा है। पानी तो लेना ही पड़ेगा प्यास लगेगी तो। भोजन भी करना ही पड़ेगा। अब डिब्बे में ऐसी भीड़भाड़ है कि चारों तरफ से लोग छू रहे हैं; पता नहीं कौन अछूत है, मगर छुए जा रहा है। और अगर कोई अछूत है तो वह जरूर छुएगा। एक बात पक्की रखना ख्याल में कि अगर कोई ज्यादा छुए तो समझ जाना कि है अछूत। क्योंकि उसको भी मौका मिल गया, वह भी क्यों छोड़े? वह हुद्दे मारेगा। अछूत जगह-जगह हुद्दे मार रहे हैं।
रेलगाड़ी ने क्रांति कर दी। बड़े नगरों ने बड़ी क्रांति कर दी। लोगों को पता ही नहीं है कि तुम कहां गए। रविवार को सुबह घर से चले गए, लोग समझ रहे हैं चर्च गए, तुम मेटिनी शो देख रहे हो! घर लौटते हो तो लोग भी कहते हैं, वाह, तीन-तीन घंटे चर्च में बिताते हो! घर चले आ रहे हैं बड़ा धार्मिक भाव लिए।
पता नहीं कौन कहां जा रहा है, क्या कर रहा है। बड़े नगरों ने बड़ी स्वतंत्रता दे दी है। छोटे नगर में हुक्का-पानी बंद हो जाता था। छोटे नगर में किसी आदमी ने गड़बड़ की, गांव ने तय कर लिया: हुक्का-पानी बंद। हुक्का-पानी बंद, मतलब उसकी जान मुश्किल में पड़ गई! अब उसको कोई बिठाएगा नहीं अपने घर में, बुलाएगा नहीं अपने घर में, शादी-विवाह में सम्मिलित नहीं करेगा..उसका जीना दूभर हो जाएगा। उसको दुकानदार सामान नहीं देंगे, दर्जी कपड़े नहीं सीएंगे, नाई बाल नहीं बनाएगा..उसकी तुम जान ले लोगे। उसको झुकना पड़ेगा। उसको कहना पड़ेगा कि भइया, माफ करो! जो कुछ दंड हो, वह दंड देने को तैयार हूं। दंड क्या है कि भोजन कराओ। पहले ब्राह्मणों को, फिर पूरे गांव को। कन्याओं को भोजन कराओ। शहर में एक फायदा है, कन्याएं हैं ही कहां! कोई झगड़ा ही नहीं है। और कौन ब्राह्मण है, कुछ पक्का नहीं है। जिसको जो दिल में आए, वह लिख लेगा, शहर में पता ही नहीं चलता। कल तक आदमी वर्मा था, आज शर्मा हो गया। खतम। कोई क्या बिगाड़ लेगा? किसी को पक्का पता ही नहीं कि कौन-कौन है!
मैं विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था तो मुझसे जगह-जगह लोग पूछते थे कि आपने दाढ़ी क्यों बढ़ा ली? स्वाभाविक प्रश्न क्योंकि लोग दाढ़ी नहीं बढ़ाते। बनारस में मैं एक नानक-जयंती पर सिक्खों के समाज में बोलने गया। मैं नीचे उतरा, एक सरदारजी ने पूछा कि सरदार जी, आपने बाल क्यों कटा लिए? यह बात जंची! अब तक लोग पूछते थे दाढ़ी क्यों बढ़ा ली, तुम पूछ रहे हो कि बाल क्यों कटा लिए? हर चीज में आदमी की मुसीबत है। कुछ करने दोगे भइया, कि नहीं करने दोगे?
छोटी जगह तो हर छोटी चीज पर सवाल उठाया जाएगा। जैसे लोग रहते हैं वैसे तुम्हें रहना होगा।
दुनिया में स्वतंत्रता का जो प्रवाह आया है इतना, उसका बड़ा कारण यह है कि छोटे नगर खो गए हैं; बड़े नगर। धीरे-धीरे छोटे नगर विदा हो जाने चाहिए। उससे मनुष्य को गति मिलेगी, स्वतंत्रता मिलेगी, भीड़ से छुटकारा मिलेगा। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि बड़े नगरों में भीड़ ज्यादा है, मगर भीड़ से छुटकारा हो जाता है। फुरसत किसको, कोई किसी को देखता ही नहीं कि कौन कहां भागा जा रहा है! तुम बंबई में देखो न! मोहल्ले वाले भी शायद ही तुम्हें पहचानें कि आप कौन हो। एक ही मकान में रहते हैं, एक ही लिफ्ट में ऊपर आते-जाते हैं, मगर किसको पता कौन कौन है? किसको पड़ी? अपनी ही भागा-दौड़ इतनी है कि कौन किसकी पूछे?
लेकिन पुराने दिनों में धर्म के नाम पर यह सामाजिक जबरदस्ती बहुत जोर से चलती रही। अब भी चलती है। जिस मात्रा में चला सकते हैं, वे अब भी चलाते हैं। उसकी सबसे आसान तरकीब जो थी वह थी कि लोगों को लज्जा से भर दो; कि तुम पापी हो, अधार्मिक हो, नारकीय हो, सड़ोगे नर्को में। तुम गुरुद्वारे क्यों नहीं आए? तुम गिरजा क्यों नहीं आए? तुम मंदिर क्यों नहीं आए? सत्यनारायण की कथा क्यों बंद कर दी? अब तुम हनुमान जी के मंदिर में पूजा करते नहीं दिखाई पड़ते!
शिष्य वही हो सकता है जो इस तरह की सब लाज-शरम छोड़ दे। जो कहे, मैं तो भीतर से जियूंगा। बाहर से बहुत जी लिया, तुम्हारी मान कर बहुत जी लिया, अब तो अपनी ही ज्योति में जीऊंगा..जो छोटी-मोटी अपनी ज्योति है, उसमें ही जीऊंगा। अगर नहीं है ज्योति, तो टटोल-टटोल कर अंधेरे में जीऊंगा, लेकिन अपने से जियूंगा। शायद टटोलते-टटोलते ही दृष्टि मिलनी शुरू हो जाए। दूसरों के पीछे नहीं चलूंगा। नहीं तो लोग एक-दूसरे को पकड़े पीछे चले जा रहे हैं। किसी को पक्का पता नहीं है कि आगे वाला आदमी कहां जा रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन मस्जिद गया हुआ था, नमाज पढ़ने। नमाज पढ़ने बैठा तो उसकी कमीज पीछे पाजामे में अटकी होगी, तो उसके पीछे के आदमी ने देखा कि भद्दी लगती है, तो उसने खींच कर उसकी कमीज पाजामे में अटकी थी, उसको बाहर करके मुक्त कर दिया। मुल्ला ने सोचा कि क्या मामला है? उसने कहा: अब झंझट कौन करे, पूछ-ताछ, लोग यह समझेंगे कि अधार्मिक है, इसको इतना भी मालूम नहीं, सो उसने सामने वाले आदमी की कमीज को एक झटका दे दिया। उस आदमी ने सोचा कि भई, कुछ होगा मामला! इस मस्जिद का कोई नियम हो या कोई बात हो! अपन कहो, पूछो, तो लोग कहेंगे, अरे अज्ञानी! सो उसने भी अपने आगे वाले की...। आगे वाले ने कहा: क्यों बे, क्यों मेरी कमीज खींचता है? उसने कहा: भई मुझे मत पूछो, पीछे वाले से पूछो। मुझे मालूम नहीं। मेरी खींची गई, सो मैंने सोचा कि यहां कुछ नियम होगा खींचने का, सो मैंने आपकी खींच दी।
लोग बिल्कुल नकल से जी रहे हैं।
यहां रोज मुझे अनुभव होता है। लोग मिलने आते हैं, पहला आदमी जो करेगा, तो दूसरा आदमी जो आएगा वह देख रहा है कि पहला आदमी क्या कर रहा है, वह भी वही करेगा। और कुछ पहुंचे हुए पुरुष ऐसे-ऐसे काम कर देते हैं कि क्या करो! अभी एक तीन-चार दिन पहले एक सज्जन आए, उन्होंने पैर में एकदम जोर से अपना सिर रगड़ दिया। अब मैं देख रहा था कि उनके पीछे जो खड़े हैं, वे गौर से देख रहे हैं; यह भी रगड़ेगा! रगड़ा! और जोर से रगड़ा!! भई, जब अगर नियम ही है तो उसका पालन करना पड़ेगा! और फिर चार आदमी कर रहे हों, अपन न करो, बेकार भद्द हो जाए।
मैं बंबई में मृदुला के घर में मेहमान था। एक मित्र बैठे हुए थे और मिनिस्टर और उनके सेक्रेटरी मिलने आने वाले थे। तो मैंने उन मित्र से कहा कि देखो, जैसे ही ये लोग आंए, वैसे ही तुम उठ कर एकदम चरण छूना और सौ रुपये का नोट रख देना। उन्होंने कहा: क्यों? मैंने कहा: तुम देखना, फिर उन लोगों से भी सौ-सौ निकलवा लेंगे। उन मित्र ने कहा कि अच्छा, देखें! वे आए दोनों; जैसे ही वे आए, वे मित्र उठे, जल्दी से उन्होंने सौ का नोट निकाल कर पैरों में रखा, सिर झुकाया। मिनिस्टर भी फौरन झुके, सौ रुपये का नोट...! जब मिनिस्टर रखे तो सेक्रेटरी को तो रखना ही पड़े! उसने जल्दी से सौ रुपये का नोट...! जब वे दोनों चले गए, मैंने मित्र के सौ रुपये वापस कर दिए, मैंने कहा कि तुम अपने रखो वापस। दो सौ पर तो तुम्हारा कोई हक है नहीं। यह तो बेचारे वे नाहक नकल में दे गए।
अब ऐसे वे नेता हैं, मिनिस्टर हैं। क्या ख़ाक नेता होंगे! अभी कोई भी बुद्धू इनको बना दे। लोग ऐसे ही जय-जयकार बोले जाते हैं। तुम जरा अपने पर गौर करना, अपने जीवन-व्यवहार पर गौर करना। तुम जो करते हो, वह देखा-देखी करते हो या उसमें कुछ सोच-विचार है, विवेक है, कोई चैतन्य है? या कि बस और लोग कर रहे हैं! जैसा कर रहे हैं, बस वैसा ही तुम भी शुरू कर देते हो।
जाग कर जिओ! अपना जीवन अपना जीवन है, उसको एक प्रामाणिकता से जीओ। फिर चाहे कितनी ही निंदा हो, फिकर न करना। वे निंदा, वे गालियां, सब फूल बन जाएंगी; मत घबड़ाना!
सत्त सुकृत सौं होरी खेलौं, संतन की बलिहारी।।
गुलाल कहते हैं, न मालूम कितने पिछले जन्मों के सत्कर्म होंगे कि मैं लोकलाज से डरता नहीं। नहीं तो स्वभावतः आदमी डरता है। जरूर पिछले जन्मों का कोई भाग्योदय है। सत्त सुकृत सौं होरी खेलौं, ...तभी तो इस महोत्सव में सम्मिलित हो पाया। बुल्लाशाह का महोत्सव चल रहा है, इसमें मैं सम्मिलित हो पाया। इस मस्ती में डूब पाया। इस रंग को उड़ा रहा हूं। यह गुलाल उड़ा रहा हूं। मेरे सौभाग्य का उदय है और संतों की कृपा है।
कह गुलाल प्रिय होरी खेलैं, हम कुलवंती नारी।।
कहते हैं कि हम होली खेल रहे हैं। लोग समझ रहे हैं हम बिगड़ गए और हमसे पूछो तो हम पहली दफा कुलवंती हुए हैं। हम पहली बार अपने कुल से संयुक्त हुए हैं। हमें अपना घर मिला, अपना वंशाधिकार मिला, अपना जन्म-अधिकार मिला। हम पहली बार अपनी जाति से जुड़े हैं। जब तुम संतों से जुड़ोगे तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम पहली बार जीवित हुए हो, अपनी जाति से जुड़े हो, अपने वालों से मिले हो। अब तक तो सब पराए थे जिनसे तुमने अपने होने का खेल खेला और जो खेल बार-बार टूटा। लाख बार बनाया मगर बार-बार टूटा।
फागुन समय सोहावन हो, नर खेलहु अवसर जाए।।
वे कहते हैं, जब संत मिल जाएं तुम्हें, जब सदगुरु का मिलन हो जाए, तो समझना कि जीवन में फागुन आया। अब चूकना मत। होली खेल ही लेना। ‘नर खेलहु अवसर जाए’, ...खेल लेना, क्योंकि हाथ से अवसर चूका जा रहा है, रोज-रोज चूका जा रहा है। कहीं ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा ही क्या है!
क्षीर कहां मेरे बचपन का
और कहां जग के परनाले,
इनसे मिलकर दूषित होने
से ऐसा था कौन बचा ले;
वह था जिससे चरण तुम्हारा
धो सकता तो मैं न लजाता,
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा ही क्या है!
यौवन का वह सावन जिसमें
जो चाहे जब रस बरसा ले,
पर मेरी स्वर्गिक मदिरा को
सोख गए माटी के प्याले,
अगर कहीं तुम तब आ जाते
जी भर पीते, भीग-नहाते,
रस से पावन, हे मन भावन, बिधना ने विरचा ही क्या है!
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा ही क्या है
अब तो जीवन की संध्या में
है मेरी आंखों में पानी,
झलक रही है जिसमें निशि की
शंका, दिन की विषम कहानी..
कर्दम पर पंकज की कलिका,
मरुथल पर मानस जल-कल-कल! ..
लौट नहीं जो आ सकता है अब उसकी चर्चा ही क्या है!
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा ही क्या है!
मरुथल, कर्दम निकट तुम्हारे
जाते, जाहिर हैं, शरमाए,
लेकिन मानस-पंकज भी तो
सन्मुख हो सूखे, कुम्हलाए;
नीरस-सरस, अपावन-पावन
छू न तुम्हें कुछ भी पाया है,
इतना ही संतोष कि मेरा
स्वर कुछ साथ दिए जाता है,
गीत छोड़कर पास तुम्हारे मानव का पहुंचा ही क्या है!
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा ही क्या है!
ऐसा न हो कि अंत घड़ी स्मरण आए और तब अर्पित करने को भी कुछ न बचे।
अभी जब कि समय है, अभी जब कि फागुन है, अभी जब कि ऊर्जा है, जीवन है, अभी समर्पित हो लो।
फागुन समय सोहावन हो, नर खेलहु अवसर जाए।।
यह तन बालू मंदिर हो, नर धोखे माया लपटाय।।
यह शरीर तो बस रेत का घर है। अब गया, तब गया। इस शरीर के कारण अपने समय को मत गंवाओ।
ज्यों अंजुली जल घटत है, ...
जैसे कोई अंजुलि में जल को भर कर रखे, कितनी देर भर कर रखेगा? हर क्षण घटता जाता है, अंगुलियों से बहता जाता है।
ज्यों अंजुली जल घटत है हो, नेकु नहीं ठहराय।।
जरा भी ठहरता नहीं।
पांच पच्चीस बड़े दारुन हो, लूटहि सहर बनाय।।
कुछ दुष्टता करो, पांच-पच्चीस मिल कर उपद्रव करो, शहर भी बसा लो, साम्राज्य भी बना लो, किस काम आएगा?
मनुवां जालिम जोर है हो, डांड़ लेत गरुवाय।।
अभी तो कर लोगे, लेकिन स्मरण रहे, कांटे बोओगे तो कांटे ही काटने भी पड़ेंगे। दंड भोगना ही पड़ेगा। जहर बांटोगे तो जहर ही लौट कर आएगा। गालियां दोगे तो गालियां ही वापस आ जाएंगी। यह जगत तो वही लौटा देता है जो हम देते हैं। गीत लौटा देता है, अगर गीत दें; गालियां लौटा देता है, अगर गालियां दें।
कह गुलाल हम बांधल हो, खात हैं राम-दोहाय।।
गुलाल कहते हैं, हम तो मिट गए, हम तो उसके गुलाम हो गए, हम तो उसके बंदी हो गए, उसके प्रेम में बंध गए।
कह गुलाल हम बांधल हो, खात हैं राम-दोहाय।।
अब तो अगर खाते भी हैं तो राम की दुहाई है। अपना कुछ भी नहीं है। अब अपना कोई कर्तृत्व नहीं रखा है, कोई कर्ताभाव नहीं रखा है। अहंकार को बिल्कुल ही चले जाने दिया है। अब तो वह जैसा रखे, वैसी उसकी मर्जी। जो करेगा, वही करेंगे; जो करवाएगा, वही करेंगे।
काम जो तुमने कराया, कर गया;
जो कुछ कहाया, कह गया!
यह कथानक था तुम्हारा
और तुमने पात्र भी सब चुन लिए थे,
किंतु उनमें थे बहुत से
जो अलग ही टेक अपनी धुन लिए थे,
और अपने आप को अर्पण
किया मैंने कि जो चाहो बना दो;
काम जो तुमने कराया, कर गया;
जो कुछ कहाया, कह गया!
मैं कैसे कहूं कि जिसके
वास्ते जो भूमिका तुमने बनाई
वह गलत थी; कब किसी की
छिप सकी कुछ भी, कहीं, तुमसे छिपाई;
जब कहा तुमने कि अभिनय में
बड़ा वह जो कि अपनी भूमिका से
स्वर्ग छू ले, बंध गई आशा सभी की,
दंभ सबका बह गया!
काम जो तुमने कराया, कर गया;
जो कुछ कहाया, कह गया!
ऐसे छोड़ दो परमात्मा पर अपने को जैसे बांस की बांसुरी। जो गाए गीत वह, उसे बहने दो। अपने को हटा लो, अपने को मिटा लो, अपने को पोंछ डालो। शिष्यत्व का अर्थ यही है, समर्पण का अर्थ यही है। और मिट्टी के खेल में बहुत न उलझे रहो! रेत के घर बहुत न बनाओ! जिन्होंने बनाया, वे पछताए। क्योंकि ये रेत के घर गिर ही जाएंगे। ये कितनी देर टिके हैं, यही चमत्कार है! हवा का झोंका आएगा और गिर जाएंगे।
..और छाती वज्र करके
सत्य सीखा
आज यह
स्वीकार मैंने कर लिया है,
स्वप्न मेरे
ध्वस्त सारे हो गए हैं!
किंतु इस गतिवान जीवन का
यहीं तो बस नहीं है।
अभी तो चलना बहुत है,
बहुत सहना, देखना है।
अगर मिट्टी से
बने ये स्वप्न होते,
टूट मिट्टी में मिले होते,
हृदय मैं शांत रखता,
मृत्तिका की सर्जना-संजीवनी में
है बहुत विश्वास मुझको।
वह नहीं बेकार होकर बैठती है
एक पल को;
फिर उठेगी।
अगर फूलों से
बने ये स्वप्न होते
और मुर्झा कर
धरा पर बिखर जाते,
कवि-सहज भोलेपन पर
मुसकराता, किंतु
चित्त को शांत रखता,
हर सुमन में बीच है,
हर बीज में है बन सुमन का
क्या हुआ जो आज सूखा,
फिर उगेगा,
फिर खिलेगा।
अगर कंचन के
बने ये स्वप्न होते,
टूटते या विकृत होते,
किसलिए पछताव होता?
स्वर्ण अपने तत्त्व का
इतना धनी है,
वक्त के धक्के,
समय की छेड़खानी से
नहीं कुछ भी कभी उसका बिगड़ता
स्वयं उसको आग में
मैं झौंक देता,
फिर तपाता,
फिर गलाता,
ढालता फिर!
किंतु इसको क्या करूं मैं,
स्वप्न मेरे कांच के थे!
एक स्वर्गिक आंच ने
उनको ढला था,
एक जादू ने संवारा था, रंगा था
कल्पना-किरणावली में
वे जगर209मगर हुए थे।
टूटने के वास्ते थे ही नहीं वे।
किंतु टूटे
तो निगलना ही पड़ेगा।
आंख को यह
क्षुर-सुतीक्ष्ण यथार्थ दारुण!
कुछ नहीं इनका बनेगा।
पांव इन पर धार बढ़ना ही पड़ेगा
धाव-रक्तस्राव सहते।
वज्र छाती में धंसा लो,
पांव में बांधा न जाता।
धैर्य मानव का चलेगा
लड़खड़ाता, लड़खड़ाता, लड़खड़ाता।
..और छाती वज्र करके
सत्य तीखा
आज यह
स्वीकार मैंने कर लिया है,
स्वप्न मेरे
ध्वस्त सारे हो गए हैं!
किंतु इस गतिवान जीवन का
यहीं तो बस नहीं है।
अभी तो चलना बहुत है,
बहुत सहना, देखना है।
स्वप्न तो टूटेंगे। कांच के खिलौने हैं, एक बार टूटे कि सदा के लिए टूटे। लेकिन तुम फिर-फिर नये स्वप्न गढ़ने लगते हो। बजाय इसके कि स्वप्नों से जागो और सत्य को खोजो, तुम फिर नये स्वप्न में उलझ जाते हो।
दो ही तरह के लोग हैं इस पृथ्वी पर। एक तो वे, जो एक स्वप्न टूटता भी नहीं कि नया स्वप्न गढ़ने में लग जाते हैं। और दूसरे वे, जो देखते हैं सत्य को, तीखे सत्य को, कड़वे सत्य को कि सब स्वप्न टूट जाते हैं और फिर नये स्वप्न नहीं गढ़ते, सत्य की तलाश में लग जाते हैं। सत्य का जो अन्वेषण करता है, वही धार्मिक है।
को जाने हरि नाम की होरी।
और वही जान पाएगा परमात्मा से मिलन का आनंद, परमात्मा के साथ रंग-गुलाल उड़ाने का आनंद, उसके साथ नृत्य का आ नंद, वही जान पाएगा। नहीं तो कौन जान सकता है?
को जाने हरि नाम की होरी।
चैरासी में रमि रह पूरन, तीहुर खेल बनो री।।
तुम तो चैरासी में रमे हो। तुम तो ऐसे रमे हो व्यर्थ की चीजों में और जन्मों-जन्मों से रमे हो, बिल्कुल डूब गए हो, तुम्हारा पता ही नहीं चलता कि तुम हो भी। बस, सपने ही सपने हैं। पर्तो और पर्तो सपनों ही सपनों की पर्ते जमी हैं। सपनों ही सपनों के जाल में तुम अटके हो।
चैरासी में रमि रह पूरन, तीहुर खेल बनी री।
और तुम इतने जालों में उलझ गए हो कि तुम्हारी जिंदगी सिर्प एक व्यर्थ का खेल हो गई है। कोई और जिम्मेवार नहीं है, तुम ही जिम्मेवार हो।
घूमि घूमि के फिरत दसोदिसि, कारन नाहिं छुटो री।।
और दसों दिशाओं में घूमते रहे हो। कितना घूमे हो! तुमने ऐसा क्या है जो नहीं किया! क्या तुमने अनकिया छोड़ा है! पाया क्या, उपलब्धि क्या है, निष्पत्ति क्या है? यह भी तुम्हें अब तक समझ में नहीं आया कि इतने उपद्रव, इतनी आपाधापी का मूल कारण क्या है? वह कारण भी पकड़ में नहीं आया। वह कारण इतना सा ही है कि तुम बजाय भीतर देखने के बाहर ही देखे चले जा रहे हो। एक सपने से दूसरा, दूसरे से तीसरा, तीसरे से चैथा।
संत कहते हैं: चैरासी करोड़ सपने हैं। ये योनियां जो हैं, क्या हैं? एक-एक सपना। एक सपना टूट जाता है, तुम दूसरा देखने लगते हो। दूसरा टूट जाता है, तुम तीसरा देखने लगते हो।
तुमने कहानी सुनी होगी। एक चूहा बहुत परेशान था। चूहा ही था बेचारा! बड़ी मुसीबत में पड़ा था। बिल्ली के भय से प्राण निकले जाते थे। सो भगवान की भक्ति करने लगा। लोग भय से ही भक्ति करते हैं। तुम्हारा भगवान क्या है? सिवाय भय के और कुछ भी नहीं। ऐसे ही उस चूहे का भगवान। सब भगवान चूहों के। भयभीत लोगों के। बिल्ली जान लिए लेती थी। जब देखो तब आ जाए। भागो, छिपो, फिर बचाओ अपने को! कुछ काम करना संभव नहीं। बाहर निकलना संभव नहीं बहुत प्रार्थना की, खूब हनुमान-चालीसा पढ़ा, आखिर हनुमानजी प्रसन्न हुए। और हों भी क्यों न, चूहा उनकी सवारी। सवारी का तो ध्यान रखना ही पड़ता है। नहीं तो कहीं पटका दे मारे, कहीं ग167े में गिरा दे! तो उन्होंने पूछा, कि क्या चाहता है तू? उसने कहा, मुझे बिल्ली बना दो। सो उसे बिल्ली बना दिया।
बिल्ली तो बन गया, मगर कुत्ते का उसे पता ही नहीं था। अब कुत्ते उसकी जान खाने लगे। जहां निकले, कुत्ते पीछे लग जाएं। और भी झंझट हो गई। चूहा तो कम-से-कम अपने बिल में छिप जाता था, बिल्ली की जान तो बड़ी मुसीबत में!
फिर हनुमान-चालीसा! करोगे क्या और? बार-बार हनुमान-चालीसा पढ़ना पड़ा बेचारे को। फिर हनुमान ने कहा: भई, अब क्या चाहिए? तू क्यों सिर खाता है? कि मुझे कुत्ता बना दो। सो उसे कुत्ता बना दिया।
कुत्ता क्या बनाया, मुश्किल शुरू हो गई। मालिक उसे शिकार पर ले जाने लगा। वहां भेड़िए और शेर और सिंह...। इससे तो चूहा ही भला था, उसने सोचा। अपने घर तो थे! ये कहां की झंझटों में पड़ गया मैं!
फिर हनुमान-चालीसा!
हनुमान जी ने कहा, तू क्यों मुझे परेशान किए हुए है? अब क्या चाहता है? उसने कहा, मुझे सिंह बना दो। उसे सिंह बना दिया। सिंह बनाते ही नई मुसीबतें शुरू हो गईं। शिकारी बंदूकें लिए पीछे घूम रहे हैं। इससे तो चूहा बेहतर था। बिल्ली अगर एकाध झपट्टा भी मारती थी तो भी कोई ऐसा खतरा नहीं हो जाता था। मगर ये बंदूकें, एक दफा लग गई कि गए! उसने कहा हनुमान जी से कि भइया, एक बार और सुनो! बस आखिरी, अब कभी कुछ न मांगूंगा। हनुमान जी ने कहा: मुझे तूने थका डाला। ऐसे भक्त मिल जाएं तो बस ठीक है! अरे, कई दफा तो मैं तक तेरे डर से सोचने लगता हूं कि कुछ और हो जाऊं। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। फिर पढ़ते रहना हनुमान-चालीसा, हम कुछ के कुछ हो गए, तेरे को पता ही न चले! तू हमारी जान लिए लेता है। तेरे पर एक दफा सवारी क्या की, तू उसका खूब बदला चुका रहा है! उस चूहे ने कहा कि बस एक आखिरी, इसके बाद न तो हनुमान-चालीसा पढ़ना है मुझे, न प्रार्थना करनी है। हनुमान ने कहा, बोल! उसने कहा, मुझे चूहा फिर से बना दो। मैं चूहा ही भला।
वापस आ गए अपनी जगह। घूम-फिर कर, इतना चक्कर लगा कर। वही बिल्ली सताने लगी। और फिर वह सोचने लगा अब क्या करूं, कैसे हनुमान-चालीसा पढूं, कैसे प्रार्थना करूं, अब कैसे बचूं, इस बिल्ली से कैसे बचूं?
ऐसे हमारे चक्कर हैं। एक चीज से बचने के लिए एक काम करते हैं, फिर नई झंझटें खड़ी हो जाती हैं। गरीब आदमी अमीर होना चाहता है। अमीर हो जाता है। फिर अमीरी की झंझटें हैं। फिर वह सोचने लगता है, अब क्या करना? त्याग कर दें। बड़ी झंझटें हैं अमीरी में तो, यह धन में कोई सार नहीं। अरे, यह सब माया-मोह। छोड़-छाड़ जंगल चले जाएं। अपने गुफा में बैठेंगे, मस्त रहेंगे, एकांत में मजा करेंगे; न कोई झंझट, न कोई फिकर, न कोई चोर की चिंता, न इनकम टैक्स वालों का डर, न सरकार का भय कि नोट बंद कर देगी, कि कुछ...क्या-क्या झंझटें हैं दुनिया में! मगर गुफा में बैठोगे, वहां की झंझटें हैं।
गुफा की अपनी झंझटें हैं, वे तो गुफा में बैठोगे तब पता चलेंगी। कि अब बिजली नहीं है! अब रात में बाहर दरवाजे पर सिंह दहाड़ मार रहा है! अब पढ़ो हनुमान-चालीसा! कि हे प्रभु, बिजली दो! कि बिना बिजली के नहीं चलता। कि रात ठंड लग रही है। तब घर की याद आएगी कि अपनी शैय्या थी अच्छी, कंबल थे अच्छे, सब छोड़-छाड़ कर कहां की झंझट में पड़ गए! सुबह से चाय चाहिए। थोड़ी देर पड़े देखोगे कि पत्नी लाती होगी, फिर ख्याल आएगा..यहां कहां की पत्नी! वह तो शास्त्रों के चक्कर में पड़ कर कि स्त्री नरक का द्वार है, घर ही छोड़ आए। नरक का द्वार होगी तब होगी, मगर अभी चाय कौन दे? अब पूंको चूल्हा!
एक दफा मैंने चाय बनाई है, इसलिए मैं जानता हूं। सिर्प एक दफा! जिंदगी में बस एक ही दफा एक ही चीज बनाई है..चाय। वह चूल्हा ही न जले! आंखों से इतना पानी गिरा कि मैंने कहा, इतने में तो भक्ति हो जाती! चाय का तो बनाने का सवाल ही नहीं। जब चूल्हा जला ही नहीं, तो मैंने कहा ठंडी चाय ही पी लेना बेहतर है। तो अपने दिल को समझाया कि ठंडी चाय..आधुनिक! सो दूध में पानी मिला कर और पी कर बैठ रहे रास्ते में कि अब कोई आए तो चाय बने।
वह तो जाओगे गुफा में तब पता चलेगा कि गुफा की तकलीफें क्या हैं? तब घर की बहुत याद आएगी। जहां रहोगे वहीं की मुसीबतें हैं। और इसलिए आदमी एक सपने से दूसरा सपना बदलता रहता है।
बहुत बदल चुके! यह फागुन भी मत खो देना! कितने फागुन ऐसे ही खो दिए!
घूमि घूमि के फिरत दसोदिसि, कारन नाहिं छुटो री।।
नेक प्रीति हियरे नहीं आयो, ...
एक बात समझ में नहीं आई कि सत्य से प्रेम कर लें, सपनों से नाता तोड़ दें।
...नहिं सत्संग मिलो री।।
और चूंकि यह बात ही ख्याल में नहीं आई, इसलिए कभी उनका सत्संग नहीं किया जो जाग गए थे, जिन्होंने जीवन सत्य को पा लिया था। इसलिए कभी उनके पास नहीं बैठे। कभी मौका भी पड़ गया पास बैठने का तो खिसक गए, भाग गए, निकल भागे..डर से कि कहीं कोई ऐसी बात कान में न पड़ जाए कि जिंदगी में कोई अड़चन खड़ी हो जाए।
कहै गुलाल अधम भो प्रानी, अवरे अवरि गहो री।।
क्या-क्या करते रहे और एक करने जैसी चीज थी, वह कभी की नहीं! क्या अंट-संट करते रहे, अवरे अवरि गहो री, क्या-क्या उल्टा-सीधा करते रहे! धन कमाओ, पद, प्रतिष्ठा, यह दौड़, वह दौड़, पूजा-पाठ, मगर कभी सत्संग न किया। न करने का कारण है। सत्य चाहिए, यह भाव ही न जगा। स्वप्न व्यर्थ हैं, यह बोध ही न आया।
सत्संग तो तभी हो सकता है जब सत्य की गहन अभीप्सा पैदा हो, प्यास पैदा हो। सिर्प जिज्ञासा नहीं, मुमुक्षा। ऐसी लग जाए बात कि सत्य को जाने बिना जीना मुश्किल हो जाए, एक पल जीना मुश्किल हो जाए, तो फिर कठिनाई न होगी।
इस पृथ्वी पर ऐसा कभी नहीं होता कि जाग्रत पुरुष मौजूद न हों। हमेशा मौजूद हैं। परमात्मा निराश नहीं होता है, वह कहीं न कहीं दीये जलाए रखता है। कि जिनको भी जलाना हो दीये, उनके लिए कहीं न कहीं अंगार सुलगाए रखता है। इसलिए तुम्हारे भीतर अगर प्यास होगी, तो निश्चित ही सदगुरु प्रकट हो जाएगा। और ऐसे-वैसे प्रकट नहीं होता, ‘सतगुरु घर पर परलि धमारी’, बड़े धूम-धड़ाके से प्रकट हो जाता है। ‘होरिया मैं खेलौंगी।’ मगर तुम्हारी तैयारी होनी चाहिए होली खेलने की।
सत्संग का अर्थ है: गुरु और शिष्य के बीच प्रेम की पिचकारियां चल रही हैं, प्रेम के रंग फेंके जा रहे हैं। गुरु और शिष्य के बीच और सब सौदे टूट गए हैं, क्योंकि प्रेम कोई सौदा नहीं है, कोई व्यवसाय नहीं है, प्रेम में कोई शर्त नहीं है, बेशर्त एक-दूसरे को दे रहे हैं..अपने को दे रहे हैं, बांट रहे अपने को। शिष्य अपने को पूरी तरह गुरु को दे देता है और गुरु तो अपने को पूरा लुटाने को तैयार बैठा है।
कहै गुलाल अधम भो प्रानी, अवरे अवरि गहो री।।
क्या-क्या करता रहा उलटे-सीधे काम, लेकिन एक काम जो करने योग्य था, उससे ही चूकता रहा। इसलिए फागुन चूका, इसलिए होली तेरे जीवन में कभी न आई, इसलिए तू पत्थर ही बना रहा। सत्संग हो जाता तो पाषाण जीवित हो उठता। सत्संग हो जाता तो मोती बरसते। झरत दसहुं दिस मोती!
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