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रविवार, 2 दिसंबर 2018

संबोधि के क्षण-(प्रवचन-01)

संबोधि के क्षण-अंतरंग वार्ताएं

प्रवचन-पहला

मैं अकेला गाता रहूंगा

मेरे प्रिय आत्मन,
बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मनुष्य को किसी न किसी प्रकार डिसीप्लीन, अनुशासन की जरूरत है।
जरूरत हैं--अनुशासन की जरूरत है। लेकिन वैसे अनुशासन की नहीं, जैसा आज तक रहा है। अनुशासन दो प्रकार का है। एक तो वह, जो बाहर से थोप दिया गया है, और दूसरा वह, जो स्वयं के भीतर से आया है। अब तक हमने यही किया है कि सब डिसीप्लीन, सब अनुशासन ऊपर से थोपने की कोशिश की है। ऊपर से हमने सिखाया है आदमी को किया क्या करना है और क्या नहीं करना है! उस आदमी को दिखाई नहीं पड़ रहा है कि जो करना है वह करने योग्य है, जो नहीं करना है वह नहीं करने योग्य है। हमने सिर्फ ऊपर से नियम बिठा लिए हैं। उन नियमों के दोहरे दुष्परिणाम हुए हैं। एक तो उन नियमों के कारण व्यक्ति का अपना विवेक विकसित नहीं हो सकता है और दूसरा, ऊपर से थोपे गए नियम मनुष्य के भीतर विद्रोह पैदा करते हैं। व्यक्ति, जितना बुद्धिमान होगा, उतना स्वयं के ढंग से जीना चाहेगा। सिर्फ बुद्धिहीन व्यक्ति पर ऊपर से थोपे गए नियम प्रतिक्रिया, रिएक्शन पैदा नहीं करेंगे।

तो, दुनिया जितनी बुद्धिहीन थी, उतनी ऊपर से थोपे गए नियमों के खिलाफ बगावत न थी। जब दुनिया बुद्धिमान होती चली जा रही है, बगावत शुरू हो गयी है। सब तरफ नियम तोड़े जा रहे हैं। मनुष्य बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है।


स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि मैं अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता पूर्ण निर्णय करने की स्वयं व्यवस्था चाहता हूं, अपनी व्यवस्था चाहता हूं। तो अनुशासन की पुरानी सारी परंपरा एकदम आकर गङ्ढे में खड़ी हो गयी है। वह टूटेगी नहीं। उसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, उसे चलाने की कोशिश नहीं ही करें, क्योंकि जितना हम उसे चलाना चाहेंगे, उतनी ही तीव्रता से मनोप्रेरणा उसे तोड़ने को आतुर हो जाएगी। और उसे तोड़ने की आतुरता बिलकुल स्वभाविक, उचित है। गलत भी नहीं है।
 तो अब एक नए अनुशासन के विषय में सोचना जरूरी हो गया है। ऐसे अनुशासन के विषय में सोचना जरूरी हो गया है, जो व्यक्ति के विवेक के विकास से सहज फलित होता है। एक तो यह नियम है कि दरवाजे से निकलना चाहिए, दीवार से नहीं निकलना चाहिए।यह नियम है। जिस व्यक्ति को यह नियम दिया गया है, उसके विवेक में कहीं भी यह समझ में नहीं आया है कि दीवार से निकलना, सिर तोड़ लेना है। और दरवाजे से निकलने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। उसकी समझ में यह बात नहीं आयी है। उसके विवेक में यह बात आ जाए तो हमें कहना नहीं पड़ेगा कि दरवाजे से निकलो। वह दरवाजे से निकलेगा। निकलने की यह जो व्यवस्था है उकसे भीतर से आएगी, बाहर से नहीं। अब तक शुभ क्या है, अशुभ क्या है, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, यह हमने तय कर लिया था, वह हमने सुनिश्चित कर लिया था। उसे मानकर चलना ही सज्जन व्यक्ति का कर्तव्य था। अब यह नहीं हो सकेगा, नहीं हो रहा है, नहीं होना चाहिए।
मैं जो कह रहा हूं, वह यह है कि एक-एक व्यक्ति के भीतर उतना सोचना, उतना विचार, उतना विवेक जगा सकते हैं। उसे यह दिखाई पड़ सके कि क्या करना ठीक है, और क्या करना गलत है। निश्चित ही अगर विवेक जगेगा, तो करीब-करीब हमारा विवेक एक से उत्तर देगा, लेकिन उन उत्तरों का एक सा होना बाहर से निर्धारित नहीं होगा, भीतर से निर्धारित होगा। प्रत्येक व्यक्ति के विवेक को जगाने की कोशिश की जानी चाहिए और विवेक से जो अनुशासन आएगा, वह शुभ है। फिर सबसे बड़ा फायदा यह है कि विवेक से आए हुए, अनुशासन में व्यक्ति को कभी परतंत्रता नहीं मालूम पड़ती है।
दूसरे के द्वार लादा गया सिद्धांत परतंत्रता लाता है। और यह भी ध्यान रहे, परतंत्रता के खिलाफ हमारे मन में विद्रोह पैदा होता है। विद्रोह से नियम तोड़े जाते हैं, और अगर व्यक्ति स्वतंत्र हो, अपने ढंग से जीने की कोशिश से अनुशासन आ जाए, तो कभी विद्रोह पैदा नहीं होगा। इस सारी दुनिया में नए बच्चे जो विद्रोह कर रहे हैं, वह उनकी परतंत्रता के खिलाफ है। उन्हें सब ओर से परतंत्रता मालूम पड़ रही है।
मेरी दृष्टि यह है कि अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत मंहगा काम है अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत खतरनाक बात है। क्योंकि परतंत्रता तोड़ने की आतुरता बढ़ेगी, साथ में अच्छी चीज भी टूटेगी। क्योंकि आपने अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ी है। अच्छी चीज के साथ तो स्वतंत्रता ही हो सकती है; क्योंकि अच्छी चीज के अच्छे होने के भीतर स्वतंत्रता का स्वप्न ही अनिवार्य है, अन्यथा हम उसके विवेक को जगा सकते हैं। शिक्षा बढ़ी है, संस्कृति बढ़ी है, सभ्यता बढ़ी है, ज्ञान बढ़ा है। आदमी के विवेक को अब जगाया जा सकता है। अब उसका ऊपर से थोपना अनिवार्य नहीं रह गया है।
तो, मैं नहीं चाहता हूं कि सब अनुशासन उठ जाए। मैं कहता हूं, ऐसा अनुशासन आए, जो विवेक की छाया बने, जो ऊपर से न थोप दिया गया हो। एक बच्चे से हमने कह दिया है, क्रोध बुरा है। क्रोध नहीं करना। क्रोध उठेगा--क्रोध कितना ही बुरा हो, जीवन की व्यवस्था में सही उसकी जरूरत है। और अगर कोई बच्चा ऐसा पैदा हो जाए जिसमें क्रोध जन्म से ही न हो, तो उस बच्चे को आप कुछ न सिखा सकेंगे, न बड़ा कर सकेंगे, न बुद्धि दे सकेंगे, न उस बच्चे में कोई जान होगी, न कोई रीढ़ होगी। वह बच्चा एक कोने में बैठा-बैठा मर जाएगा। क्रोध एक बल है, जो जरूरी है जीवन के लिए। उस क्रोध के आधार पर बच्चों की जिंदगी में बहुत कुछ आएगा, जो शुभ है।
तो क्रोध एकदम इनकार कर देना खतरनाक है। प्रकृति और परमात्मा क्रोध दे रहा है। उसका कहीं अर्थ है। एक आदमी हो, ऐसा सोचे जिसे जन्म से क्रोध नहीं है, तो आप पाएंगे कि उसमें जीवन ही क्षीण हो गया है। सब तरह से सुस्त, ढीला और असली हो होगा। और उसे किसी के लिए भी गतिमान नहीं किया जा सकता। अगर आप उसको गाली देंगे, तो वह बैठकर सुनेगा। अगर आप उसे धक्का मारेंगे, तो वह धक्का सह लेगा और रह जाएगा। अगर आप उससे कहेंगे कि सब दूसरे आगे निकले जा रहे हैं, तुम आगे नहीं निकल रहे हो, तो वह कहेगा ठीक है। अगर उसके भीतर क्रोध का तत्व नहीं है, तो भीतर गति का तत्व भी नहीं होगा।
 लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि क्रोध शुभ है। मतलब केवल इतना है कि क्रोध एक सीमा तक सार्थक है। फिर वह व्यर्थ होना शुरू हो जाता है। एक सीमा तक क्रोध भी सीढ़ी है, और एक सीमा के बाद खतरनाक है। एक उम्र तक क्रोध का होना जरूरी है। और एक उम्र तक क्रोध सिखाया जाना चाहिए, बजाए रोके जाने के।
लेकिन बच्चों को ऐसा अनुशासन सिखा दें कि क्रोध बुरा है, क्रोध पाप है, क्रोध नहीं करना है, तो बच्चा क्या? वह सिर्फ क्रोध को दबाएगा, सप्रेस करेगा, अपने को रोकने की कोशिश करेगा। और ध्यान रहे, छोटा-छोटा क्रोध निकल जाए, तो खतरनाक नहीं होता। क्रोध इकट्ठा हो जाए तो खतरनाक होता है। रोज अगर क्रोध निकले, तो उसकी मात्रा इतनी कम होगी जिसको कोई हिसाब नहीं। वह ऐसा ही होगा। जैसे रोज घर का कचरा बाहर फेंक देते हैं। कचरा फेंकना बंद कर दें, कचरा पैदा होना जारी रहेगा, तो घर में महीने दो महीने में घूरा लग जाएगा और रहना मुश्किल हो जाएगा। तब कचरा फिर फेंकना पड़ेगा। लेकिन तब वह कचरा बहुत दिखाई पड़ेगा और खतरनाक भी हो सकता है।
क्रोध भी यदि थोड़ा बहुत निकल जाए, तो खतरनाक नहीं है। इकट्ठा कर लें अगर हम क्रोध को, तो वह खतरनाक है।समझा यह जाता है कि लोग हत्याएं करते हैं, आत्म हत्याएं करते हैं, वे ऐसे लोग हैं, जो क्रोध को इकट्ठा कर लेते हैं। जो आदमी रोज-राज क्रोध कर लेता है, वह कभी हत्या नहीं कर पाता। वह उतना क्रोध नहीं जुटा पाता कि किसी की हत्या करने के लिए पागल या उत्तेजित हो जाए। इतने पागलपन के लिए एक ज्यादा मात्रा चाहिए। तो रोज छोटी-छोटी बात में क्रोधित हो जाने वाला आदमी खतरनाक नहीं होता है, कभी बहुत खतरा नहीं कर सकता है। एक आदमी--रोज छोटे-मोटे क्रोध कर लेने वाला आदमी--सरल होगा। इस आदमी की बजाय जो क्रोध दबाता चला जाएगा, वह बहुत जटिल हो जाएगा। उसके भीतर क्रोध की इतनी मात्रा इकट्ठी हो जाने वाली है कि एक दिन विस्फोट हो होगा। वह विस्फोट महंगा पड़ता है। उस विस्फोट का कोई भी परिणाम हो सकता है। पर बच्चे को हम सिखा रहे हैं, एक अनुशासन दे रहे हैं कि क्रोध बुरा है, और हम सोच रहे हैं कि उसे अच्छा (भला) बना रहे हैं। हम उसे अच्छा नहीं बना रहे हैं।
मेरी दृष्टि में, बच्चे को, क्रोध बुरा है, ऐसा ऊपर से नियम देना गलत है। बच्चे को विवेक से बदलने की जरूरत है कि वह जान सके कि क्रोध क्या है? क्रोध  बुरा है, या भला है, यह नहीं--क्रोध क्या है? क्रोध में उस बच्चे के मन में क्या हो जाता है, इसे वह जानने के योग्य हो सके। धीरे-धीरे यह हम समझा सकेंगे और बच्चे बहुत जल्दी समझ सकते हैं।
यूरोप में एक फकीर था गुरजिएफ। उसके आश्रम में जो भी भर्ती होता, उससे वह पहले से कहता कि क्रोध करना सीखो। और क्रोध की ट्रेनिंग देता, प्रशिक्षण देता कि क्रोध करो। इतनी तीव्रता से करो, इतनी गति से करो, इतने जोर से, इतने मन से करे कि तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व क्रोधित हो जाए। तभी तुम जान सकते हो कि क्रोध क्या है?
जब एक आदमी पूरे क्रोध में भरा है, तब गुरजिएफ कहेगा--देखो, वह आदमी को चिल्लाता है कि देखा--और ऐसी सिचुएशन पैदा करेगा कि कोई आदमी, जो नया है, वह बिलकुल पागल हो जाए क्रोध में। तब वह चिल्लाकर कहेगा, देखो, स्टाप एंड सी, और भीतर देखो कि क्रोध क्या है?
इतने, ज्वलंत रूप में जब क्रोध चारों तरफ जल रहा हो, और कण-कण में आग भर दी हो, प्रत्येक दफा चौंककर आदमी भीतर देख ले कि क्रोध क्या है, तो उसे झलक मिलती है। हमें कभी क्रोध की झलक नहीं मिलती। जब हम क्रोध में होते हैं, तब बेहोश होते हैं। जब होश में आते हैं, तब क्रोध चला गया होता है। हमारा कभी मिलना नहीं होता क्रोध से, हमारा कभी अनकाउंटर नहीं होता कि आमन-सामने मिल जाए, देख लें कि क्या है। तो गुरजिएफ कहता था, जिसने क्रोध को नहीं देखा, उसके भीतर क्रोध के संबंध में अनुशासन कभी पैदा नहीं होगा ऊपर से थोपा हुआ नियम बह जाएगा।
और ठीक है यह बात। क्रोध की पूरी स्थिति...और बच्चे जिते अच्छे ढंग से क्रोधित हो सकते हैं, बड़े नहीं हो सकते। और अगर बच्चे का क्रोध आपने देखा है, तो आप पाएंगे कि उस क्रोध में भी एक सौंदर्य है, एक गति है, एक डायमेंशन है। एक बच्चा जब पूरे क्रोध से भरता है--क्योंकि बच्चा पूरे क्रोध से भरता है--वह पैर पटक रहा है, वह चिल्ला रहा है, वह कूद रहा है, उसका कण-कण लाल हो गया है, आंखें जल गयी हैं। उस वक्त बच्चे को जगाने का हमें श्रम करना चाहिए कि तू देख, यह क्रोध क्या है? हम छोड़ ही देते इस कमरे को, द्वार बंद कर देते कि तू देख, कि तेरे भीतर क्या हो रहा है? ताकि क्रोध क्या है, इससे तू परिचित हो जाए। यह जिंदगी भरी साथ रहेगा, इससे बहुत काम भी लेना है।
क्रोध से परिचित करने की जरूरत है। और ऐसे ही जीवन की सारी वृत्तियों से, जिनको हम बुरा कहते हैं--सारी वृत्तियों से परिचित कराने की जरूरत है, इनकी पूर्णता में, पूरी गहराई में; तो हमारे भीतर एक विवेक, एक अवेयरनेस पैदा होती है कि क्रोध क्या है। और यह भी पता चलता है कि क्रोध एक बड़ी शक्ति है, जिसको सदुपयोग भी है और दुरुपयोग भी। और मैं मानता हूं कि विवेक से आदमी धीरे-धीरे क्रोध का सदुपयोग करना सिखेगा, दुरुपयोग बंद करेगा। पहला कदम क्रोध खत्म करने का नहीं होगा, पहला कदम क्रोध के सदुपयोग का होगा। क्रोध के सदुपयोग हैं। जो आदमी क्रोध का सदुपयोग करने में समर्थ हो जाएगा, वह क्रोध करते क्षण में भी अभिनय ही करवाएगा, भीतर वह क्रोध के बाहर खड़ा होगा। नहीं तो फिर प्रयोग नहीं कर सकता है।
हम जिस चीज का भी उपयोग करते हैं, उससे अलग हो जाते हैं। एक आदमी अगर इतना सचेत हो गया है कि क्रोध का भी सदुपयोग करता है, तो वह आदमी कभी क्रोधित नहीं है। सिर्फ बाहर की घटना रह गयी है, जिसका वह उपयोग कर रहा है। और भीतर वह क्रोध से, बिलकुल बाहर है, तभी उपयोग कर सकता है, नहीं तो क्रोध उसका उपयोग कर लेगा। दो चीजें हैं: अगर हम बेहोश हैं, तो क्रोध हमें जैसा चाहेगा वैसा कर डालेगा। और अगर हम होश में हैं, तो क्रोध से हम जो करना चाहेंगे वह कर लेंगे।
तो पहला कदम क्रोध का अंत करने का हनीं होगा।विवेक विकसित होगा तो क्रोध का सदुपयोग शुरू होगा। दूसरा कदम, जब सदुपयोग में पूरा सामर्थ्य व्यक्ति का पैदा हो जाता है, तो अब दुरुपयोग क्रोध का नहीं हो सकता है, अर्थात अब क्रोध उससे दुरुपयोग नहीं करवा सकता है, वह बेहोश नहीं है। उसने होशपूर्वक क्रोध को इंस्ट्रमेंट और साधन बना लिया है। जब यह समझ पैदा हो जाती है, तब उसे दिखाई पड़ता है कि सदुपयोग में भी गहरे नुकसान पहुंच रहे हैं। यह तब तक दिखाई नहीं पड़ता है, जब तक हम सदुपयोग करना न सिख लें। तब दिखाई पड़ता है, सदुपयोग तो हो रहा है, लेकिन दूसरे के लिए हो रहा है। जैसे एक बाप अपने बेटे पर नाराज हो रहा है। कभी नाराजगी बहुत काम की होती है, कभी बहुत सार्थक हो सकती है। कभी बच्चों के मन पर उस नाराजगी के क्षण में कोई ऐसी छाप पड़ सकती है, जो जिंदगी भर के लिए कीमती हो जाए। लेकिन वह उपयोग करनेवाले पर निर्भर है। एक ऐसी छाप भी पड़ सकती है कि जिंदगी भर के लिए बाप दुश्मन हो जाए।
सच तो यह है कि अगर बाप क्रोध करना जानता हो, तो बाप को क्रोध में बेटे को प्रेम का पता चलेगा ही। अगर उपयोग करना जानता है, तो जानेगा कि यह प्रेम का सबूत है। अगर बाप उपयोग करना जानता हो, तो क्रोध में प्रेम ही दिखाई पड़ेगा, और उपयोग करना न जानता हो, तो प्रेम में भी प्रेम दिखाई पड़नेवाला नहीं है। बाप प्रेम करेगा और बेटा समझेगा कि कोई तरकीब है--कुछ करवाने के इरादे में है। और वे बच्चे अभागे हैं, जिनको मां बाप न कभी उन पर ज्वलंत क्रोध नहीं किया। ज्वलंत क्रोध करना बड़ी बात है। ज्वलंत क्रोध का मतलब हैं कि मां बाप पूरी तरह इनकार कर रहे हैं अपने-अपने पूरे व्यक्तित्व को, कि यह गलत है। थोप नहीं रहे हैं उसके ऊपर कि तू भी गलत मान, लेकिन उनके पूरे व्यक्ति को गलत लग रही है वह बात, और वह आशा से भर गए हैं। यह छाप अगर बच्चे पर छूट जाए तो उपयोगी हो सकती है; लेकिन सिर्फ उपयोग करनेवाला ही यह छाप छोड़ सकता है।
एक लड़की को मैं जानता हूं। उसका डायवोर्स हो गया है, पति से अलग हो गयी है। तो मां बाप उसकी बहुत चिंता करने लगे कि वह दुखी न रह जाए। तो कभी उससे नाराज  न होते। नाराजगी का मौका होता तो भी वह टाल जाते; क्योंकि वह बहुत ही दुखी है। उसको कोई दुख नहीं देना है। वह जो कहती, मान लेते हैं--मानने योग्य हो या न हो। वह जो मांग करती, पूरी कर देते, चाहे वह उनके खर्च की सीमा के भीतर हो या न हो। मां बाप इस खयाल में थे कि वह उस लड़की को सुखी कर सकें। उस लड़की ने मुझसे कहा कि मैं इस घर में एक मिनट नहीं रहना चाहती हूं। ऐसा लगता है कि मुझे कोई भी प्रेम नहीं करता है; क्योंकि कोई मुझे न कभी इनकार करता है, न मुझसे की नाराज होता है। ऐसा लगता है कि मैं यहां--मेरा किसी से कोई गहरा संबंध नहीं है। ऐसा लगता है कि सब मेरे साथ अभिनय कर रहे हैं कि वे क्रोध भी करना चाहते हैं, पर नहीं करते। कहीं मुझसे दुख न लग जाए। ऐसा लगता है कि सब मुझ पर दया कर रहे हैं, और दया बहुत अपमानजनक है।
कभी आपने खयाल किया है कि दया बहुत अपमानजनक है? प्रेम का सब्स्टीटयूट नहीं होता। जिसको हम प्रेम करते हैं, वह दया नहीं मानता और जिस दिन आपने दया देना शुरू किया, प्रेम खत्म। वह जानता है कि प्रेम खत्म हो चुका है; क्योंकि दया जिस पर हम करते हैं, वह नीचा हो जाता है, दीन हो जाता है, हीन हो जाता है। प्रेम जिसे हम करते हैं, उसको समान तल पर खड़ा करते हैं। दया हम जिस पर करते हैं, उसको नीचे खड़ा कर देते हैं।
कोई पत्नी दया नहीं चाहती पति से। कोई बेटा अपनी मां से दया नहीं चाहता। प्रेम करता है। प्रेम वक्त पर नाराज भी होता है। असल में प्रेम हीन नाराज हो सकता है। क्योंकि प्रेम को पता है, नाराजगी से कुछ भी टूटनेवाला नहीं है। प्रेम इतना गहरा है कि नाराजगी से कुछ भी टूटनेवाला नहीं है। प्रेम इतना गहरा है कि नाराजगी की गहरी से गहरी चोट भी सिर्फ वृक्ष को हिलाएगी, और कुछ भी नहीं कर पाएंगी। थोड़ी देर बाद हवाएं चली जाएंगी, वृक्ष अपनी जगह खड़ा हो जाएगा। सिर्फ प्रेम ही क्रोध कर सकता है। जिससे हमने प्रेम  नहीं किया है, उससे हम क्रोध भी नहीं कर सकते। इसीलिए अजनबी से हमारा क्रोध नहीं होता। जिससे हम जितने ज्यादा निकट हैं, उससे हमारा क्रोध होता है। जितनी निकटता बढ़ती है, उतनी क्रोध की संभावना बढ़ती है। क्रोध का उपयोग अगर कोई सीख ले, तो क्रोध की तीखी छाया प्रेम की ही होती है।
लेकिन हमें क्रोध का कोई उपयोग मालूम नहीं है। बस, बचपन से सिखा दिया गया है कि क्रोध बुरा है और उसको दबाए चले जाते हैं। फिर  कभी करते हैं, लेकिन वह करना बिलकुल बेहोश होता है। उसका कोई शुभ परिणाम नहीं होता है, सिवाय अशुभ के कुछ नहीं होता। जब अशुभ परिणाम होता है, तो हम पुरानी धारणा को फिर मजबूत कर लेते हैं कि देखो, बच्चों को यह सिखाया था कि क्रोध बुरा है, यह बुरा हो गया। फिर हम दबाने लगते हैं। फिर एक व्हिसियस सर्किल, एक एक दुश्चक्र शुरू हो गया है। फिर हम दबाएंगे, फिर क्रोध फूटेगा। जब फूटेगा, तब नुकसान होगा। जब नुकसान होगा, तब पहले की पुरानी धारणा फिर मजबूत हो जाएगी। फिर इकट्ठा करेंगे, फिर दबाएंगे--पूरी जिंदगी एरंड, क्रोध और एरंड, उसी में हम जाएंगे। और यह बात मैं क्रोध के लिए ही नहीं कह रहा हूं, यह सब वृत्तियों पर लागू है।
जब कोई व्यक्ति क्रोध का सम्यक उपयोग करना सीख जाता है, सम्यक क्रोध करना सीख जाता है, राइट एंगर, तब उसे पहली दफा दिखाई पड़ता है कि ठीक क्रोध से भी दूसरे की भूल लाभ हो जाए, लेकिन मुझे नुकसान ही नुकसान होता है। (कहीं न कहीं मेरे भीतर कुछ-कुछ सुविधा है।) तब वह क्रोध के ऊपर भी उठने का भी करेगा। लेकिन अब इस श्रम में दमन नहीं होगा। समझ होगी, बुद्धि और विवेक होगा। अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि सांप जा रहा है, तो आपको सांप के ऊपर से चलने की इच्छा का दमन थोड़े ही करना पड़ता है। सांप दिख गया कि आप बच जाते हैं बिना दमन किए! सांप जा रहा है, और आप उस रास्ते से गुजरते थे, तो जब आपको सांप दिखता है कि जहर सामने है और आप बगल में हट जाते हैं, तो आपको कोई सप्रेशन थोड़े ही करना पड़ता है कि सांप पर से निकलने की बड़ी इच्छा थी, उसे दबाकर बगल में हट जाए। कोई दमन नहीं करना पड़ता है। सिर्फ अंडरस्टैंडिंग कि सांप है, छलांग लग जाती है, आप बच जाते हैं, सांप निकल जाता है। कभी पीछे यह आकांक्षा नहीं छूट जाती कि सांप के ऊपर से निकलना है।
जब क्रोध भी सांप की तरह दिखाई पड़ने लगता है, अनुभव में आने लगता है, तो दमन नहीं करना पड़ता है। आप बस बचकर निकल जाते हैं। क्रोध एक तरफ हो जाता है, आप दूसरी तरफ हो जाते हैं। और जब क्रोध से आप बहुत बार बचकर निकल जाते हैं और दमन नहीं होता, तब क्रोध इकट्ठा नहीं होता है; क्योंकि क्षमता धीरे-धीरे क्षीण होती चली जाती है। एक क्षण आता है कि आदमी क्रोध के बिलकुल बाहर हो जाता है। यह भी हो सकता है, वैसा आदमी भी कभी क्रोध का उपयोग करे, लेकिन तब वह निपट एक्टिंग होगी, बिलकुल अभिनय होगा। उसमें इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होने वाला है।
 मेरा कहना यह है कि विवेक विकसित करने की बात है एक-एक चीज के संबंध में। लंबी प्रक्रिया है। किसी को बंधे-बंधाए नियम दे देना बहुत सरल है कि झूठ मत बोलो, सत्य बोलना धर्म है। पर नियम देने से कुछ होता है? नियम देने से कुछ भी नहीं होता। पुराना अनुशासन गया, आखिरी सांसें गिन रहा है। और पुराने मस्तिष्क उस अनुशासन को जबरदस्ती रोकने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें डर लग रहा है कि अगर अनुशासन चला गया, तो क्या होगा? क्योंकि उनका अनुभव यह है कि अनुशासन के रहते भी आदमी अच्छा नहीं था, और अगर अनुशासन चला जाए तो मुश्किल हो जाएगी। उनका अनुभव यह है कि अनुशासन था, तो भी आदमी अच्छा नहीं था तो अनुशासन नहीं रहेगा, तो आदमी का क्या होगा? उन्हें पता नहीं है कि आदमी के बुरे होने में उनके अनुशासन का नब्बे प्रतिशत हाथ था। गलत अनुशासन था--अज्ञानपूर्ण था, थोपा हुआ था, जबरदस्ती का था।
एक नया अनुशासन पैदा करना पड़ेगा। और वह अनुशासन ऐसा नहीं होगा कि बंधे हुए नियम दे दें। ऐसा होगा कि उसके विवेक को बढ़ाने के मौके दे, और उसके विवेक को बढ़ने दें, और अपने अनुभव बता दें जीवन के, और हट जाएं रास्ते से बच्चों के। एकदम रास्ते पर खड़े न रहें उनके। सब चीजों में उनको बांध ने की, जंजीरों में कसने की कोशिश न करें। वे जंजीरें तोड़ने को उत्सुक हो गए हैं। अब जंजीरें बर्दाश्त न करेंगे। अगर भगवान भी जंजीर मालूम पड़ेगा तो टूटेगा, बच नहीं सकता। अब तोड़ने की भी जंजीर बचेगी नहीं, क्योंकि जंजीर के खिलाफ मामला खड़ा हो गया है। अब पूरा जाना होगा, जंजीर बचनी नहीं चाहिए।
लेकिन मनुष्य चेतना कि विकास का क्रम है। एक क्रम था जब चेतना इतनी विकसित नहीं थी, नियम थोपे गए थे, सिवाय इसके कोई उपाय नहीं था। अब नियम थोपने की जरूरत नहीं रह गयी है। अब नियम बाधा बन गए हैं। अब हमें समझ, अंडरस्टैंडिंग ही बढ़ाने की दिशा में श्रम करना पड़ेगा। तो मैं कहना चाहता हूं कि समझ, विवेक, एकमात्र अनुशासन है। परी प्रक्रिया बदलनी पड़ेगी: क्योंकि विवेक को जगाने की प्रक्रिया बिलकुल अलग होगी। नियम थोपने की प्रक्रिया बिलकुल अलग थी, बायोलाजिकली अपोजिट है, दोनों बिलकुल विरोधी हैं। खतरे इसमें उठाने पड़ेंगे। खतरे पुरानी प्रक्रिया में भी बहुत उठाए। सबसे बड़ा खतरा यह उठाया कि आदमी जड़ हो गया। जिसने नियम माना, वह जड़ हो गया, जिसने नियम नहीं माना, वह बर्बाद हो गया। वे दोनों विकल्प बुरे थे। अगर किसी ने पुराना अनुशासन मान लिया तो वह बिलकुल ईडियाटिक हो गया, जड़ हो गया। उसकी बुद्धि खो गयी। और जिसने बुद्धि को बचाने की कोशिश की, उसे नियम तोड़ने पड़े। वह बर्बाद हो गया, वह अपराधी हो गया, वह प्राब्लम बन गया, वह समस्या बन गया, वह समस्या बन गया। दोनों विकास बुरे सिद्ध होते हुए। जिसने नियम माना वह खराब हुआ; क्योंकि नियम में उसको जड़ बना दिया। गुलाम बना दिया। और जिसने नियम तोड़ा, वह स्वच्छंद हो गया। नियम से अच्छापन नहीं आया।
यह हमारी आदमियत आज इसी तरह की है। खतरे इसमें हैं, इसमें खतरे बिलकुल दूसरी तरह के होंगे,जो मैं कह रहा हूं। इसमें खतरे वे नहीं हैं जो पिछली परंपरा में थे, इसमें खतरा सिर्फ एक ही है कि थोड़ी देर लगेगी और धैर्य भी रखना पड़ेगा। बस, और कुछ भी नहीं। धैर्य की बहुत कमी है। मां बाप चाहते हैं कि बेटा आज ही बूढ़ा हो जाए। कैसी पागलपन की बातें हैं! बूढ़े का जिंदगी भर का अनुभव बेटे पर आज कैसे थोपा जा सकता है? बेटा बूढ़ा होते-होते बूढ़ा हो जाता है। वक्त लगेगा, समय लगेगा। और जल्दी में नुकसान हो सकता है। जल्दी मग यह हो सकता है कि उसमें विकास की प्रक्रिया ही ठप्प हो जाए, और वह हमेशा के लिए बच्चा हो जाए। या कभी भी क्रोध मेच्योर न हो सके।
 वक्त लगेगा, बच्चे के साथ थोड़ी समझ से काम लेना पड़ेगा, बहुत धैर्य रखना पड़ेगा। आनेवाली पीढ़ियों के साथ अगर धैर्य नहीं रखा गया, तो खतरा दुनिया के सामने है। बहुत धैर्य की जरूरत है। बड़ी शक्ति जब प्रकट होती है तो धैर्य की जरूरत पड़ती है। बड़ी शक्ति प्रकट हो रही है पृथ्वी पर। ऐसी कभी भी प्रकट नहीं हुई। मनुष्य चेतना ऐसी जगह आ गयी है, जहां से छलांग लगेगी, जहां से बिलकुल नए मनुष्य का जन्म होगा। तो ऐसी जगह पर बड़े संकट का, क्राइसिस का मौका भी होता है। मौका खड़ा है। अगर पुराने मन ने जिद्द की कि हम पुराने नियम जारी रखेंगे, तो भी छलांग लगेगी, लेकिन तब सब टूटकर छलांग लगेगी। सब नष्ट हो जाएगा। उसमें अच्छा भी जाएगा, बुरा भी जाएगा। लेकिन अगर पुराने मन ने थोड़ी समझ जाहिर की और नयी संभावना प्रकट हो रही है, नया जो मनुष्य प्रकट हो रहा है उसको समझने की कोशिश की, तो बहुत फर्क पड़ जाएगा।
सोरवान विश्वविद्यालय में, फ्रांस में बहुत उपद्रव चला। अध्यापाकों ने बहुत समझाने की कोशिश की। अध्यापकों ने जो समझाया, उसके उत्तर में लड़कों ने विश्वविद्यालय की सारी दीवारों पर एक वाक्य लिख दिया बड़े-बड़े अक्षरों में, प्रोफेसर, यू आर ओल्ड। आपको हम एक ही उत्तर देना चाहते हैं कि अध्यापाक गण, आप बूढ़े हो गए हैं और जो नया हो रहा है उसको आप नहीं समझ पा रहे हैं। आप समझाने की कोशिश फिजूल कर रहे हैं।
उत्तर बहुत सांकेतिक है, अर्थपूर्ण है। सारी व्यवस्था पुरानी हो गयी है, सब ओल्ड हो गया है, और सब जरा जीर्ण हो गया है, और पांच हजार वर्ष के अनुभव से असफल हो गया, सफल भी नहीं। तो मैं जो कहना चाहता हूं वह यह कि अनुशासन एक तरह का होगा। होना चाहिए, वह भीतर से आए। हम युवकों को, बच्चों को आनेवाली पीढ़ी को, भीतर से तैयार कर सकें कि वे अनुशासन अनुभव करें। बाहर से तैयारी अब नहीं हो सकती।
आप मुझे सुनना चाहते हैं तो चुप बैठे हैं। यह भीतर से आया हुआ अनुशासन है। इसमें कोई  ऊपर से थोपने का सवाल नहीं है। एक बोलने वाला चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि चुप रहे, शांत रहो मेरी बात सुनो कि मैं क्या कह रहा हूं और बात चीज चल रही है और कोई सुनने को राजी नहीं है, और बात चीज होती जा रही है। वह अनुशासन ऊपर से थोपा जा रहा है। ठीक है, अगर आप बात चीज करते चले जा रहे हैं और मुझे नहीं सुनना है, तो आपको समझाने की जरूरत नहीं है, मेरे समझने की जरूरत है कि मैं बंद करूं और विदा हो जाऊं। आपको समझाने का क्या सवाल है? बात खत्म हो गयी है। मुझे जानना चाहिए कि लोग सुनने को राजी नहीं है, मुझे विदा हो जाना चाहिए।
तो वह मुनि, वह समझाने वाला विदा होना नहीं चाहता। वह कह रहा है, चुप रहो, डंडे के बल पर चुप रहो! नर्क चले जाओगे अगर चुप नहीं रहोगे। वह आपको चुप करने की कोशिश करते हैं। खुद चुप हो जाए, नहीं सुनना है लोगों को, विदा हो जाए। लोगों को सुनना होगा, चुप होंगे; नहीं सुनना होगा तो चुप नहीं होंगे। उन्हें सुनना होगा वो पकड़कर ले आएंगे कि हम सुनने को राजी हैं। नहीं सुनेंगे, बात खत्म हो गयी। सुनाना जरूरी भी क्या है? सुनने के लिए ही कोई तैयार न हो, तो सुनाना जरूरी कहां है?
अगर अब तक यही था। यह समझाया जा रहा है कि जब कोई बोलता है, तो चुप रहो, चाहे वह कुछ भी बोल रहा हो। वह अनर्गल बोल रहा हो, तो भी चुप रहो। वह अब नहीं कहेगा, अब नहीं बोल सकता है वह, बोलनेवाले को जानना पड़ेगा कि बोलनेवाली बात होगी, तो ही सुनी जा सकती है। क्योंकि तब एक भीतरी अनुशासन पैदा होता है। जिसे सुनना है, वह अपनी श्वास तक रोक लेता है कि कहीं मैं चूक न जाऊं। यह एक भीतरी अनुशासन है। अब बाहरी अनुशासन नहीं चल सकता है।जीवन की सारी व्यवस्था में नहीं चल सकता है।
बाप बेटे से कह रहा है कि मैं तुम्हारा पिता हूं, इसलिए आदर करो। यह कोई तर्क का नियम थोड़े ही है। तुम पिता होने की जिद्द न करो। आदर आना होगा, आ जाएगा: नहीं आना होगा, नहीं आएगा। और मैं मानता हूं कि सिद्ध कर सके कोई कि मैं पिता हूं, तो आदर आता है। वह एक भीतरी अनुशासन है, उसको कोई रोक नहीं सकता है। यह असंभव है कि पिता के प्रति आदर न हो। लेकिन सिर्फ जन्म दाता पिता नहीं है। प्रोडयूसर, उत्पादक है, पिता नहीं है। और उत्पादक कह रहा है कि मैं पिता हूं। इस तरह अनुशासन नहीं आनेवाला है। क्योंकि लड़के समझ रहे हैं, सिर्फ तुमने पदा कर दिया है, बस बात खत्म हो गयी। और पैदा कर दिया है तो कोई बहुत समझपूर्वक पैदा कर दिया है, ऐसा भी मालूम नहीं होता है। आकस्मिक घटना है। तुमने सोचा भी था? तुमने मुझे निमंत्रण दिया था? ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता। अतिथि हूं आकस्मिक हूं। तुमने झेल लिया है, दूसरी बात है। ठीक है,  साथ हो गया है। पिता होने के लिए कुछ और करना पड़ेगा। पैदा करना काही नहीं है।
और मैं मानता हूं, कभी काफी नहीं था। पिता होना सिद्ध करना पड़ेगा। पिता होना बड़ी डेलीकेट, बड़ी नाजुक बात है। मां होने से ज्यादा नाजुक बात है। क्योंकि मां होना बहुत कुछ प्राकृतिक है। पिता होना बिलकुल ही अप्राकृतिक है। पिता होना बिलकुल सामाजिक घटना है। पिता के बिना काम चल सकता है। पिता कोई अनिवार्य बात नहीं है। पिता मनुष्य की संस्कृति की खोज है। मां तो होती ही, पिता के बिना हो सकती है। पिता का पता लगाना मुश्किल हो सकता है।
यह जानकर आप हैरान होंगे कि अंकल, चाचा पुराना शब्द है, फादर, पिता बाद का शब्द है। तीन चार हजार वर्ष तक पिता का कोई पता नहीं चलता था। स्त्रियां थी और पुरुष थे और किन में किन में संबंध होता था, कुछ पक्का नहीं था। पिता कौन है, यह पता नहीं चल सकता था। सब अंकल थे। जो एक उम्र के थे, वे सब अंकल थे। उनमें कोई पिता होगा। पिता तो बाद में आया है। जब थिर हो गयी बात, और पति पत्नी सुनिश्चित हो गए और एक घर बस गया और पति पत्नी तय हो गए। वह उनके ही बीच संबंध होता है, और किसी के बीच संबंध नहीं होता है, तक पिता आया। पिता नयी घटना है। और डर है कि विदा न हो जाए। इसका पूरा डर है। क्योंकि पिता की संस्था बहुत योग्य सिद्ध नहीं हुई है, इसलिए विदा हो सकती है। रूस में या नए समाजों में चिंता हो रही है इस बात की कि पिता को विदा किया जो; क्योंकि संस्था कोई बहुत योग्य साबित नहीं हुई। खतरा इस बात का है कि पिता को बदला जा सके।एक नया इंतजाम हो सकता है। पिता सिद्ध करना पड़ेगा।
गुरु कह रहे हैं कि सम्मान दो, क्योंकि मैं गुरु हूं। यह बात कहना ही गलत है। जो गुरु यह कहे कि मुझे सम्मान दो, तो जानना चाहिए कि वह गुरु होने के योग्य न रहा। यह कोई कहने की बात है? यह मानना पड़ेगा? उसे गुरु होना सिद्ध करना चाहिए। वह सिद्ध कर दे, और विद्यार्थी पर नहीं छोड़ना चाहिए कि वह शिष्य होना सिद्ध करे। क्योंकि शिष्य अभी-अभी आया है, नया-नया है। उस पर नहीं छोड़ा जा सकता है यह मामला। वह अभी दुनिया शुरू कर रहा है। यह मामला, यह जिम्मेदारी, यह रिस्पासिबिलिटी उसकी है जो सिद्ध करे कि मैं गुरु हूं। तो, मेरा मानना है कि गुरु अगर सिद्ध कर दे कि वह गुरु है, तो शिष्य में एक भीतरी डिसाइपलशिप, जिसे कहना नहीं पड़ता है, एक भीतरी शिष्यत्व पैदा होना शुरू होता है, जिसमें सम्मान है, जिसमें अपमान असंभव है। क्योंकि जिससे हमने कुछ भी पाया है उसका अपमान बिलकुल असंभव है।
लेकिन जिससे कुछ भी न पाया हो, जो सिर्फ तनख्वाह पा रहा हो, और मशीन की तरह आकर कुछ बोल जाता हो, और जिससे हमारा कोई आंतरिक संबंध न हो, कोई भीतरी नाता न बनता हो: उसको हम कुलपति कहते हैं। विश्वविद्यालय के प्रधान को हम कुलपति कहते हैं। कुलपति का मतलब है घर का बड़ा। और उसको तो लड़कों के नाम तक भी पता नहीं हैं कि कौन लड़का पढ़ता है, कौन नहीं पढ़ता है। फैक्ट्री है युनिवर्सिटी कुल। कोई घर तो नहीं है, तो वाइस चांसलर का मैनेजिंग डायरेक्टर या ऐसा ही कोई नाम देना चाहिए। एक फैफ्ट्री है युनिवर्सिटी जहां हम धंधा चला रहे हैं पड़ने का। एक फैक्ट्री है, वहां शिफ्टिंग चल रही है, सुबह, दोपहर, सांझ फैफ्ट्री की शिफ्ट जैसे बदलती है, जैसे काम चल रहा है वहां, नौकरी पेशा लोगों का।
कुलपति पुराना शब्द है, बड़ा अर्थपूर्ण रहा है। घर के बड़े का नाम था, जो कुल के पिता कि तरह था। वह अपने बच्चों के साथ जी रहा था। उनकी चिंता कर रहा था--बीमारी की, स्वास्थ्य की, समझ की उनके ज्ञान की, सब तरह की चिंता करता था। वह उनके लिए फिकर करता था जो रात में बीमार पड़ते थे, उनकी खाट पर आकर रात भर बैठा भी रहता था। वह कुलपति था, तो समझ में आता था। उसके प्रति आदर रहा होगा। वह अनिवार्य है। उसको माना नहीं गया होगा। अब हम उसे कुलपति कहते हैं जो नाम से कुलपति है, लेकिन जिसका कुलपति होने से कुल जमा इतना संबंध है कि यह राजनीतिक तिकड़म में जुट गया है और चुनाव जीत गया है।
तो, कुलपति होना कोई चुनाव से हो सकता है? ऐसा तो कुल पिता के लिए भी हम कर सकते हैं। एक लड़के के लिए चार पिता खड़े हो जाए कि हम चुनाव लड़ते हैं, जो जीत जाए, वह तुम्हारा बाप है। फिर तुम आदर देना उसको बाप का। कैसे संभव होगा यह? कुलपति चुनाव से नहीं आया था। एक कुल था, एक घर था, सीखनेवालों का एक परिवार था। उस परिवार में सर्वाधिक वृद्ध था। सबसे ज्यादा सीखा था, सबसे ज्यादा सिखाया था, सबसे ज्यादा प्रेमपूर्ण था, पिता होने के योग्य था--वह पिता बन गया। यह बिलकुल सहज घटना थी। उसके प्रति आदर था, अब उस कुलपति का आदर आज का कुलपति मांगता है तो सब बेहूदगी की बातें हो जाती हैं। कोई नहीं आदर देगा। पत्थर पड़ेंगे। चुनाव करनेवाले पर पत्थर ही पड़ सकते हैं। और वह मांग करता है कि चूंकि मैं कुलपति हूं, इसलिए मुझे आदर उतना मिलना चाहिए, जितना कुलपति को, गुरु को मिलता था। यह बेहूदी बातें हैं, एब्सर्ड हैं, अब इनकी कोई संगति नहीं है।
आनेवाले भविष्य में हमें समझाना पड़ेगा कि कुलपति सिद्ध करो, गुरु सिद्ध करो। तो गुरु सिद्ध करना साधारण बात नहीं है, बहुत असाधारण घटना है। इतना आंतरिक संबंध बनाना, इतना प्रीतिपूर्ण संबंध बनाना, इतना प्रेम देना कि दूसरा अनुगत हो जाए, दूसरा झुक जाए, झुक जाना पड़े। उसे खयाल भी कभी न आए कि वह झुका, क्योंकि जिसको खयाल आ जाए झुकने का, वह अकड़ जाएगा। क्योंकि कोई झुकना नहीं चाहता। क्यों कोई झुकना चाहे? और जिससे कहा गया कि झुको, उसके मन में शक्ति पैदा हो जाएगी। झुकने के प्रति दुश्मनी पैदा हो जाएगी। अगर झुकेगा तो भी मन में घृणा सोच लेगा। नहीं झुकेगा तो अहंकार और दंभ में उतर जाएगा।
नहीं, यह कहने की बात नहीं है कि कोई झुके। तो जब आदमी इस योग्य होता है कि किसी को झुकने का खयाल आ जाता है, अनजाने कोई झुक जाता है: तब एक और बात है, एक भीतरी अनुशासन की बात है। तो शिष्यत्व ऊपर से नहीं थोपना है। आनेवाले जगत में भीतर से लाना है।
और बहुत से प्रश्न हैं। कुछ मित्रों का खयाल है कि सभी के बहुत से प्रश्न हैं। तो, मैं जो कह रहा हूं, इसे कैसे अधिकतम लोगों तक पहुंचाया जाए? क्या रास्ता है? क्या मार्ग है?
इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा।
पुराने रास्ते भी बातों पर पहुंचा के रहे हैं। वे सब गलत साबित हुए हैं। और अक्सर यह होता है कि नयी बात को भी अगर हम पहुंचाना चाहें, तो पुराने ही रास्तों से पहुंचाना शुरू करते हैं। पुराना रास्ता फिर नयी बात को भी पुराना कर देता है। पुराने रास्ते यह रहे हैं कि संगठन बनाओ, आर्गेनाइज करो। जो एक मत को मानते हैं, वे इकट्ठे हो जाए। वे चारों तरफ एक दीवाल खींच लें, दूसरों से अलग हो जाए भिन्न हो जाए। यह रास्ता पुराने विचार को फैलाने का था। इससे विचार कुछ फैले, लेकिन इससे मनुष्य खंडित होती है। और मनुष्य का खंडित हो जाना किसी भी विचार के फैलने से ज्यादा मंहगा है। कोई फैले या न फैले, यह उतनी बड़ी महत्व की बात नहीं है, लेकिन आदमी खंडों में टूट जाए, यह बहुत खतरनाक है।फिर जो लोग संगठित हो जाते हैं, आर्गेनाइज्ड हो जाते हैं, संप्रदाय बना लेते हैं, समुदाय बना लेते हैं, संस्था बना लेते हैं, वे धीरे-धीरे विचार करना बंद देते हैं, क्योंकि दस आदमियों को अगर इकट्ठा होकर सहमत होना हो, तो विचार करना मुश्किल है।
विचार असहमति लाता है। जितना ही विचार करेंगे, उतना ही दूसरे से राजी होना एकदम आसान नहीं रह जाएगा। सिर्फ बुद्धुओं की भीड़ इकट्ठी की जा सकती है, बुद्धिमानों की भीड़ इकट्ठी करना मुश्किल बात है।
तो जब भी भीड़ इकट्ठी की जाती है, तो भीड़ बुद्धू हो जाती है; क्योंकि इकट्ठे होने में ही सब खत्म हो जाता है। व्यक्ति टूट जाता है फौरन। जैसे ही एक आदमी ने कहा, मैं हिंदू हूं, वह आदमी व्यक्ति की तरह खत्म हो गया। हिंदू होने का जो अर्थ है, वह उसने स्वीकार कर लिया। अब वह व्यक्ति नहीं रहा, हिंदू भीड़ का एक हिस्सा हो गया। जिसने कहा, मैं मुसलमान हूं, उसने कहा, मैं अपने को खोता हूं। तुम्हारी बड़ी भीड़ का जो संकेत है मुसलमानों में, स्वीकार करता हूं और जो मुसलमान होने का अर्थ है वह स्वीकार करता हूं। मुसलमान होने का सब मुझे संदेह नहीं है, अब मुझे विचार नहीं करना है। मैं समझ गया। जो ठीक था, वह मैंने पा लिया। बात खत्म होती है, मैं सम्मिलित होता हूं, मैं स्वीकार कर लेता हूं। जो आदमी मुसलमान बन गया, वह आदमी आदमी नहीं रह गया, सिर्फ एक संस्था का सदस्य हो गया। उसने अपने को खो दिया खत्म कर लिया।
तो, मेरी बात कोई संस्था। कोई संगठन बनाकर नहीं पहुंचानी है। मुश्किल मामला है फिर पहुंचाना बहुत मुश्किल है। संस्था न हो, संगठन न हो, तो बात कैसे पहुंचती है! तो संस्था और संगठन का मैं बिलकुल दुश्मन ही हूं, एकदम दुश्मन हूं। बात पहुंचे या न पहुंचे, इसका मूल्य नहीं है। संस्था नहीं बननी है। संस्था बनी कि उससे स्वार्थ आए। स्वार्थ के पद आए, प्रतिष्ठा आयी, संघर्ष आया, चुनाव आया, पालिटिक्स आयी। कोई संस्था बिना पालिटिक्स के नहीं होती। व्यक्ति हो सकता है बिना राजनीति के।
संगठन बिना राजनीति के कभी नहीं हो सकता।
संगठन में राजनीति होगी ही। राजनीति वह नहीं कि जो राज्य के लोग करते हैं। राजनीति वह है, जो कोई समूह, पद और प्रतिष्ठा के लिए करता है। भीतरी राजनीति होती है। अगर पांच सौ साधु मिलेंगे, तो भीतरी राजनीति शुरू हो जाएगी कौन आचार्य बने। कौन उपाचार्य हो, फिर कब आचार्य मरे और कब वह पद मिले। वह राजनीति उतनी ही है सख्त, जितनी की राष्ट्रपति की होगी, प्रधानमंत्री की होगी। इसमें कोई फर्क नहीं है। यह तो एक छोटा वृत्त है, जिसके भीतर खेल चलेगा। जहां संगठन हुआ, वहां राजनीति होगी। इसलिए मैं कहता हूं, संगठन मात्र राजनीतिक होते हैं। कोई संगठन धार्मिक हो ही नहीं सकता। धार्मिक संगठन भी हुआ तो वह फौरन राजनीतिक हो जाएगा। नाम धर्म का रहेगा, भीतर राजनीति शुरू हो जाएगी। संगठन नहीं बना है कोई भी इसलिए बड़ा दुष्कर काम है। बड़ा कठिन काम है, व्यक्ति की हैसियत से क्या हम कर सकते हैं?
जो बात ठीक लगती है, और वह भी इसलिए नहीं कि मैं कहता हूं, अगर मैं कहता हूं, और आपको ठीक लग जाती है, और आप नहीं सोचते तो आप खतरनाक हैं। आप नुकसान पहुंचाएंगे। क्योंकि तब आप तोते की तरह दोहराएंगे, जो कि सदा से हो रहा है। महावीर ने क्या कहा है, उनके मुनि उनको दोहराए चले जा रहे हैं। उनमें से एक ने भी उसे जानने की फिकर नहीं कि है कि वह क्या है। क्योंकि वे महावीर की आलोचना करने में ही डर गए हैं, असमर्थ हो गये हैं। डर गए हैं कि महावीर की आलोचना तो हो ही हनीं सकती, महावीर तो सर्वज्ञ है जो कह दिया, वह ठीक है। वह इसलिए ठीक नहीं है कि वास्तव में ठीक है, वह इसलिए ठीक है कि महावीर ने कहा है, बुद्ध ने कहा, मुहम्मद ने कहा है या कि कृष्ण ने कहा है। वह ठीक होकर बैठ गया है, अब उसका प्रचार करना है। ऐसा आदमी विचारशील नहीं है। और ऐसा आदमी विचार तो कम पहुंचाता है, अविचार ज्यादा पैदा करता है। वह जिसको भी सिखा-पढ़ा कर राजी कर लेगा, उसने एक आदमी को और अविचार में ढाल दिया! एक आदमी की और बुद्धि नष्ट की।
मैं जो कह रहा हूं, कोई वैसा ही उसे सब तक पहुंचा देना है, यह सवाल नहीं है। कोई जरूरत ही क्या है? एक आदमी को यह ठीक लग रहा है कह रहा है। वह सभी को ठीक लगे, यह अनिवार्य कहां है? इसकी मांग क्यों होनी चाहिए कि वह भी सभी को ठीक लगे? जानकर आप हैरान होंगे कि जिस आदमी को यह फिकर होती है कि जो मुझे ठीक लग रहा है, वह सब को ठीक लगना चाहिए, उस आदमी को भीतरी रूप से शक होता है कि जो ठीक लग रहा है, वह ठीक है या नहीं। वह दूसरों को समझाकर खुद कर्न्विस हो जाना चाहता है कि--नहीं जरूर ठीक है। जब इतने लोगों को ठीक लगने लगता है, तो गलत नहीं हो सकता है। इसलिए आदमी अनुयायी खोजता है।
फिर आदमी को अपने सत्य पर कोई श्रद्धा नहीं है, वह अनुयायी खोजता है। जितने अनुयायी बढ़ते जाते हैं, उतनी उसकी भी आस्था पक्की होती जाती है कि जब इतने लोगों को ठीक लग रहा है, तो बात ठीक होनी चाहिए। उसका करेज, उसका साहस बढ़ता चला जाता है।
क्योंकि मैं तो अकेले आदमी की तरह ही कहना चाहता हूं। जो मुझे ठीक लग रहा है, वह मुझे ठीक ही लग रहा है। उसमें आप मेरे पास आते हैं या नहीं आते हैं, इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। अकेले जंगल में बैठूंगा, तो वह उतना ही ठीक है, मेरे पास करोड़ आदमी इकट्ठे हो जाए, तो भी उतना ही ठीक है। उसमें रत्ती भर फर्क भीड़ से नहीं पड़ने का। इसलिए भीड़ की कोई साइकोलाजिकल डिमांड नहीं है, कोई मनोवैज्ञानिक कभी नहीं है भीतर मेरे मन में, कि उसको भीड़ से पूरा कर लेना है। वैसे यह भीड़ इकट्ठा करने की कोई बात नहीं है। और आप भी भीड़ इकट्ठा करने के प्रयोजन को मत लेना अपने मन में। बात जो ठीक लगती है, उसे दूसरे से निवेदन कर देना। और निवेदन भी इसलिए नहीं कर देना है कि वह कर्न्विस हो जाए, राजी हो जाए। निवेदन इसलिए कर देना है कि यह हमारे माननीय होने का हिस्सा है कि जो मुझे ठीक लगे, वह मेरे साथ न जाए, उसे मैं बांट दूं। हो सकता है, वह किसी के काम आ जाए। हो सकता है किसी के काम न आए। उसे मैं शेयर कर लूं, बस। उसमें दूसरे को भी साझीदार बना लूं। मुझे ठीक लगी है एक बात, उससे मुझे आनंद मिला है। आप भी मेरे पड़ोस से गुजर रहे हैं, मैं आपसे कह दूं कि एक बात से मुझे आनंद मिला है। हो सकता है, आपको मिल जाए। सोचना, बात खत्म हो गयी। इससे ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं है।
क्योंकि जैसे ही हमने बात की और शर्त रखी कि हमारी बात अगर ठीक लगे, तो हमारे संगठन में आओ। हमारी बात ठीक लगे, तो यह करो और यह मत करो। हमें बात से कम संबंध रह गया है। बात के पीछे कुछ और चीजों, पर स्वार्थों से हमारा ज्यादा संबंध हो गया है उनको बिलकुल नहीं लेना है। आज एक ईसाई दूसरे को ईसाई बना रहा है। यह नहीं है कि उसे ईसा से कोई आनंद मिल गया है, जो दूसरे को बांटने के लिए उत्सुक है। प्रयोजन बिलकुल दूसरे हैं। उसे कोई आनंद दिखाई नहीं पड़ रहा है, और वह दूसरे को ईसाई बनाए चला जा रहा है। प्रयोजन बहुत दूसरे हैं अब--भीड़ बढ़ाने के, शक्ति बढ़ाने के संगठन बढ़ने के, राजनीति के, दुनिया का पालिटिक्स के पीछे के हिस्से हैं। नहीं,किसी को अगर ईसा से आनंद मिला हो, तो उसे हम है कि दूसरे से कह दे कि उसे आनंद मिला है। लेकिन ईसाई बनाने की फिकर में क्यों पड़े? ईसाई बनाने से क्या संबंध है? ईसा से कोई आनंद बिना ईसाई बना लिया जा सकता है। ईसाई बनाने का क्या संबंध है?
इसलिए न तो कोई संप्रदाय खड़ा करना है, न कोई मत, न लोगों की भीड़। मेरी बात से अगर आपको आनंद का अनुभव होता हो, और ऐसा लगता है कि उसकी खबर मैं फैला दूं, वह किसी को शायद काम पड़ जाए। बेकार होगी तो काम नहीं पड़ेगी, बात खत्म हो जाएगी, हवा में खो जाएगी। काम पड़ेगी तो चल पड़ेगी लेकिन अनाम--न उसका नाम होगा बात का, न कोई संगठन होगा, न पीछे कोई बंधने का सवाल होगा, न हमारी कोई मांग होगी, न कोई सवाल होगा, न कोई संबंध होगा। कोई अनुयायी इकट्ठे नहीं करने हैं।
कैसे एक-एक बात को पहुंचाना है--तो अपने-अपने तईं सोचना चाहिए मैं क्या कर सकता हूं? अगर मुझे कोई बात आनंदपूर्ण लगी तो मैं क्या कर सकता हूं?
पहला तो काम यह है कि उसे मैं जीना शुरू करूं; क्योंकि जिनकी  सुगंधि उसे पहुंचाएगी। मेरे कहने से वह नहीं पहुंच जाएगी। मेरे जीने की सुगंधि उसे पहुंचाएगी।
अगर आप उसे जीए, तो आपकी पत्नी पूछेगी कि क्या होगा, तुम आदमी दूसरे हो गए हो! तुम्हारा क्रोध कुछ और हो गया, तुम्हारा प्रेम कुछ हो गया। तुम पति कुछ और हो गए, तुम पिता कुछ और हो गए। हो क्या गया है? जब एक व्यक्ति में थोड़े से भी फर्क आते हैं, तो उसके चारों तरफ पूछ शुरू हो जाती है कि हो क्या गया है। और अगर वह फर्क आनंदपूर्ण है, तो दूसरों में भी प्यास जगती है कि क्या हो गया है।
तो निवेदन देना है, किसी पर थोप नहीं देना है। निवेदन कर देना है--यह कर रहा हूं, यह सोच रहा हूं। इससे कुछ हो रहा है। तुम भी सोचो, शायद कुछ हो सके। ठीक लगता हो, तो पहुंचा देना है। हो सकता है कई बातें आप न समझा सकते हो और ठीक लगती हों। क्योंकि समझाना अलग बात है, ठीक लगना बिलकुल अलग बात है। जरूरी नहीं है कि जिसको ठीक लग जाए, वह समझा भी सके और यह भी जरूरी नहीं है कि जो समझा सकता हो, उसको कुछ ठीक लग गया हो। यह भी कोई जरूरी नहीं है। ये दोनों बातें अलग हैं। कभी एक आदमी में भी हो सकती हैं, अक्सर नहीं होती हैं।
बुद्ध से किसी ने पूछा था कि आपके साथ दस हजार भिक्षु हैं, इनमें से कितने लोगों को वह ज्ञान उपलब्ध हो गया है, जो आपको हुआ है? बुद्ध ने कहा, बहुतों को। पर उन्होंने कहा, वे पहचान में नहीं आते। तो बुद्ध ने कहा, फर्क इतना है कि मैं बोलता हूं, इसलिए तुम पहचान लेते हो, वे चुप हैं, इसलिए तुम नहीं पहचानते। मैं भी चुप होता, तुम मुझे भी नहीं पहचानते।
बहुतों को हुआ है। पृथ्वी पर बहुत लोगों ने सत्य जाना है। लेकिन नाम हम गिनाते हैं, उतने ही नहीं हैं, वह तो बहुत कम संख्या है। वह तो सिर्फ उन लोगों की संख्या है, जिन्होंने सत्य जाना है और साथ में टीचर होने की जिनकी संभावना है। साथ में जो शिक्षक भी हो सकते थे, जो कह भी सकते थे, संवादित भी कर सकते थे, समझा सकते थे।
लेकिन जितने हम नाम जानते हैं, उतने सबको हुआ भी नहीं है। कुछ तो उनमें ऐसे ही थे, जो सिर्फ समझा सकते थे। जिनको हुआ कुछ भी नहीं है। तो हमारे बड़े नामों में सब सच भी नहीं है। और हमारे बहुत छोटे नामों में जो खो गए हैं, बहुत सच हैं। उनका कोई पता नहीं चलता है। दुनिया मग सत्य जानने वाले सभी लोगों का पता नहीं चलता है, क्योंकि हमें पता तो बोलने से चलता है, और कोई उपाय नहीं है।
यह जरूरी नहीं है कि आपको हो जाए खयाल, तो आप समझा भी सकें। बहुत बार ऐसा होता है कि गूंगे का गुड़ हो जाता है। लगता है कि कुछ मुझे पता है, लेकिन कैसे कहूं? और जब कही जाती है और दूसरा तर्क उठता है, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है कि कैसे समझाऊं उसको? पीड़ा होती है, लेकिन समझाना बहुत मुश्किल होत है। तो मेरे टेप हैं, ?वह आप सुना दे सकते हैं; मेरी किताबें हैं, वह पहुंचा दे सकते हैं। लेकिन इतना ही ध्यान रखकर कि वह सुना देना है, आग्रह कोई भी नहीं है। सुनाकर चुपचाप वापस लौट आना है। यह भी नहीं पूछना है कि कैसा लगा। यह पूछने में भी आग्रह शुरू होता है। जानने का मन होता है हमारा कि किसी से हम कहें, तो बाद में पूछें कि कैसा लगा? इतना भी आग्रह गलत है। बात खत्म हो गयी है। उसे कुछ लगा होगा, वह कहेगा उसके भीतर से आने दो। नहीं लगा होना, बात समाप्त हो गयी है। यह पूछना क्यों है? हो सकता है यह पूछने में उसे कहना पड़े कि अच्छा लगा।
हम इतने शिष्टाचार से भर गए हैं कि असत्य भी शिष्टाचार बना गया है। और आज अधिक शिष्टाचार असत्य ही है। जब एक आदमी पूछता है, कहिए, कैसे हैं? हम कहते हैं, बहुत अच्छे हैं। उसको तो धोखा होता ही है, सुनकर हमको भी धोखा होता है। शिष्टाचार भर का हिस्सा है। वह भी जानता है कि कौन अच्छा है। वह भी जानता है।अगर शिष्ट हो तो पूछना ही नहीं चाहिए कि कैसे हैं। क्योंकि वैसे आदमी को क्यों हिचक में डालना है, अगर वह ठीक न हो तो कहना मुश्किल पड़ता है।
जापान में छोटे-छोटे बच्चों को हम सिखाते हैं, किसी की तनखाह कभी मत पूछना, अशिष्टता है। क्योंकि हो सकता है, तनखाह बहुत कम हो। और तुमने पूछ लिया कि कितनी तनखाह है, तो तुमने उसे दिक्कत में डाल दिया। चार आदमियों के सामने कहने में उसे संकोच हो कि पचास रुपए महीना--दीनता लगे। और या उसे झूठ बोलना पड़े कि पांच सौ रुपए महीने मिलते हैं। अकारण उसे परेशानी में क्यों डालना? ऐसे प्रश्न क्यों खड़े करना?
हमारा मुल्क तो बहुत अदभुत है। हम तो न केवल यह पूछते हैं कि तनखाह कितनी है, यह भी पूछते हैं कि ऊपर से कुछ मिल जाता है कि नहीं? पूछते ही नहीं हैं, वह आदमी भी कहता है, हां! अजीब है हमारा मुल्क! बुरा है, अशुभ है, अयोग्य है, यह खयाल में नहीं है, बोध में नहीं है।
किसी को टेप सुना दिया, किसी को किताब दे दी। यह भी नहीं पूछना है कि कैसा लगा। बात खत्म हो गयी, आपको काम पूरा हो गया। उसे कुछ लगा होगा, कहेगा। नहीं लगा होगा, नहीं कहेगा। कई बार लग भी सकता है और न कहे। कई बार तो ऐसा होता है कि जब बात कोई बहुत गहरी लग जाती है, तो कहने का मन नहीं होता है। कोई पूछता है, तो भी बुरा लगता है। कहने का भी मन नहीं होता।
तो खबर भर पहुंचा देनी है। टेप सुना दूना है, किताब पहुंचा देनी है। खबर पहुंचा देनी है, बांधना नहीं है किसी को। और एक-एक व्यक्ति को व्यक्ति की हैसियत से खबर पहुंचा देना है। किसी संगठन के सदस्य की हैसियत से नहीं। निश्चित ही दस मित्रों को ठीक लगेगा और दस मित्र बैठकर बात करेंगे, तो वह दस मित्र ही हैं, एक संगठन नहीं। पचास मित्र भी एक संगठन नहीं हैं। और मित्र की मुक्ति है, मित्र की एक स्वतंत्रता है। उसे मेरी सब बातें ठीक नहीं भी लग सकती हैं। एक बात ठीक लग सकती है, उतनी मैत्री भी चल सकती है।
हमारा यह भी आग्रह होता है मानने के लिए कि राजी होंगे, तो पूरे के लिए और राजी नहीं होंगे, तो पूरे के लिए! यह भी बड़ी नासमझी है। यह भी गलत है। एक आदमी मेरी एक बात से नाराज हो जाता है, तो मेरी सारी बातों से नाराज हो जाता है। और या एक आदमी मेरी एक बात से राजी हो जाता है, तो सब से राजी हो सकता है। बुद्धिहीनता है यह। जो मेरी एक बात से राजी नहीं है, उसकी दोस्ती रहनी चाहिए। चलेगा, इसमें हर्ज क्या है? छोड़ो इस बात को, उससे हमारा मेल नहीं बैठ रहा है। जिस बात से राजी है, उससे दोस्ती चल सकती है। एक छोटी सी बात से दोस्ती चल सकती है। आग्रह ही नहीं करना चाहिए कि सब में मेल होगा तभी दोस्ती चलेगी, यह आग्रह बहुत डिक्टोरियल हैं। यह आग्रह बहुत तानाशाही से भरा हुआ है। टोटलरेरियन है यह आग्रह, पूरा होगा तो।
तो, गुरु भी कहता है कि पूरे राजी हो जाओ मुझसे। शिष्य भी कहता है कि पूरे राजी होंगे तभी। मगर पूरे का सवाल क्या है? जिंदगी सब अधूरी है, यहां पूरा कुछ भी नहीं है। पूरा सब मोक्ष में होता है। यहां पूरा होती ही नहीं। पृथ्वी पर सक अपूर्ण है। यहां दोस्ती अधूरी है, प्रेम अधूरा है। यहां प्रेम भी पूरा नहीं, दोस्ती भी पूरी नहीं। यहां कोई चीज पूरी नहीं हो सकती पृथ्वी पर। पृथ्वी के होने में अपूर्णता है। यानी पृथ्वी पर अस्तित्व भी अपूर्णता हो सकता है। पूर्ण जैसे ही कुछ हुआ, पृथ्वी के बाहर गया। इसीलिए पूर्ण को हम मोक्ष भेज देते हैं। फिर उसको वापस नहीं बुलाते, बुलाने का सवाल ही नहीं, बात खत्म हो गयी, बुद्ध गए, महावीर गए, राम गए, कृष्ण गए। वह एकदम खो जात हैं। जैसे ही कोई पूर्ण हुआ, वह छुटकारा पा जाता है, इस जगत से।
इस जगत में होना, अपूर्ण होना है। इसलिए किसी चीज में पूर्ण की जिसने मांग की, वह नासमझी में पड़ जाता है। पति ने अगर पत्नी से कहा पूरा प्रेम मेरी तरफ, तो मुश्किल शुरू हो जाती है। खतरा हो गया, क्योंकि बात ही गलत है असंभव है। और असंभव की चेष्टा में जो थोड़ा बहुत प्रेम हो सकता था, वह मर जाएगा। वह नहीं हो सकेगा। किसी मित्र से कहा कि पूरी मित्रता कि दुश्मनी की शुरुआत हो गयी। यह दुश्मन का ही गैश्चर है, यह मांग है कि पूरी मित्रता चाहिए। यह पूरे का सवाल नहीं है, और मुझे पूरे होने, पूरे राजी होने की बात ही नहीं है जरा भी। जिस काम के लिए आप राजी हों, और ठीक लगे, और आनंद मालूम पड़े, उसको पहुंचा देना दूसरे तक। वह आप तक खत्म न हो जाए, इसकी सुगंध थोड़ी दूसरे तक पहुंचानी चाहिए।
यह जीवन जागृति केंद्र है। यह सब मित्रों का मिलन भर है, कोई संस्था नहीं है। जिस मित्र की मौज है, कभी भी खिसक जाए। फिर मुझसे लोग पूछते हैं कि फलां आदमी नहीं दिखाई पड़ता? यह कोई समस्या थोड़े है कि आदमी दिखाई पड़ना ही चाहिए। यहां मौज तथा आनंद का सवाल है। मौज नहीं है, नहीं दिखाई पड़ रहा है। इसमें क्या लेना-देना है?इसको पूछने कहां जाना है कि अब आप क्यों दिखाई नहीं पड़ते हैं? यह बात ही गलत है। जिसकी मौज थी, वह आता था, जिसकी मौज नहीं है, वह नहीं आता है।
तो कोई आएगा, कोई जाएगा। यह मित्रों का मिलन है, इससे ज्यादा नहीं है। दरवाजे सब खुले हैं, कहीं कोई दीवाल नहीं है। कहीं से भी कोई प्रवेश करे, कहीं से भी कोई विदा हो जाए। उससे जाते वक्त भी न पूछे। हो सकता है, संकोच में रुकना पड़े। उससे पूछें ही मत। चला जाए, तो चले जाने देना। आ जाए, तो आ जाने देना। आ जाए, तब भी मत पूछना कि दो वर्ष कहां थे? यह सारी मांग गलत है। यह सारी मांग संगठन की है। संगठन की मांग ही नहीं होनी चाहिए। मित्रों का मिलन है। दस मित्र आज हैं, कल बारह हैं, परसों पंद्रह हैं, कल दो हैं। यह सब जिंदगी ऐसे ही बदलती है, ऐसे ही चलती है। गंगा कहीं बिलकुल पतली है, कहीं बहुत चौड़ी हो जाती है। कहीं सूख जाती है। कहीं रेत ही रेत दिखाई पड़ती है, कहीं सागर हो जाती है। जिंदगी ऐसे ही चलती है। इसमें आग्रह जरा भी रखने की जरूरत नहीं है।
एक आदमी न आए तो दुख-सुख नहीं, एक आदमी आए तो दुख नहीं, सुख नहीं। जितनी देर सहजता के साथ चल सकें, साथ चलिए। फिर रास्ते अलग हो गए हैं, वह अपने रास्ते चले गया है। हो सकता है, कल फिर रास्ते कट जाए और फिर मिलन हो जाए, तो उससे कुछ नहीं कहना चाहिए कि बीच में कहां थे।
इसको ध्यान में रखें और एक-एक व्यक्ति सोचे। मैं कुछ कहूं कि ऐसा-ऐसा करें, यह खयाल भी नहीं है। सोचें कि क्या करता है। एक-एक आदमी इतनी बड़ी शक्ति है कि इतना कर सकता है, जिसका हिसाब नहीं।
लोग मुझसे कहते हैं, आपके पास संगठन है, क्या होगा? मैंने कहा, यह सवाल ही नहीं है, संगठनों से ही क्या हो सकता है? अकेला चिल्लाता रहूंगा। कुछ और चिल्लानेवाले मिल जाएंगे। वे भी चिल्लाते रहेंगे। लाख दो लाख अकेले-अकेले भी चिल्लाए, तो भी आवाज पैदा हो जाएगी। कोई इकट्ठे चिल्लाने की जरूरत थोड़े है। कोरस की जरूरत नहीं है। कोरस, इकट्ठे गाने की जरूरत नहीं है कि सब इकट्ठा काम करें, और सब इकट्ठा गाए। अकेला भी चलेगा। एक-एक गीत भी चल जाता है। और दुनिया में जो हिम्मतवर लोग थे, जिन्होंने जाना है, उन्होंने अकेले ही गीत गाया है। अकेले ही गा लेना काफी है। फिर प्रीतिकर लगे, आप भी अकेले गा लेंगे। सुगंध पहुंच जानी चाहिए, खबर पहुंच जानी चाहिए। कोई सत्य किसी भी व्यक्ति को दिखाई पड़ गया हो, और कोई आनंद किसी को भी मिल गया हो, तो वह संपत्ति उसके साथ नष्ट नहीं हो जानी चाहिए, इतना ही ध्यान रहे। इतना ही काफी है।
और बहुत से प्रश्न हैं, वह सब तो अब नहीं हो पाएंगे। अभी दुबारा आ रहा हूं, जल्दी, तो तीन-चार दिनों में ज्यादा-ज्यादा प्रश्नों पर भी बात करनी है। बहुत काम के प्रश्न रह गए हैं। दुबारा जब मिलूंगा, तब इन पर बातचीत होगी।
अहमदाबाद,
१९-८-१९६९

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