बीसवां--प्रवचन
विधायक अकेलापन ध्यान है
प्रश्न-सार:
01-ओशो,कल हमें जाना है। इतना कृपा करके बता दें कि क्या अपने प्रियतम के विरह में निकले आंसू ही उसका ध्यान हैं अथवा ध्यान कुछ और है? यदि ध्यान कुछ और है तो वह कौन सा ध्यान है?
02-ओशो,
संन्यास के बाद तो जैसे सभी कुछ बदल गया है। मैं बदल गई, दुनिया बदल गई। पक्षियों के स्वर संगीत में बदल गए हैं। फव्वारे में उठती-गिरती बूंदें नृत्य करती दिखाई देती हैं। सूफी ध्यान में बैठती हूं तो लगता है जैसे सभी कुछ मुझे प्रसन्न करने के लिए हो रहा है। अंदर एक अपूर्व आनंद का अनुभव होता है। लगता है बाह्य संगीत भी मेरे अंदर से ही निकल रहा है। जैसे देवी बनी मैं सब कुछ देख रही हूं। यह भी पागलपन की कोई नई दिशा है अथवा प्रकाश की ओर अग्रसर नन्हें कदम? प्रकाश डालें!
03-ओशो,
उस दिन आपने चूहे को हनुमानजी का वाहन बताया। लेकिन जहां तक मैं जानता हूं वहां तक शास्त्रों में चूहा हनुमानजी का नहीं, गणेशजी का वाहन है। कृपया प्रकाश डालें।
04-ओशो,
मैं अकेला रहने में असमर्थ हूं। बहुत चाहता हूं पर सफलता नहीं मिलती। किसी-न-किसी संबंध में बंध जाता हूं और दुखी होता हूं। इस उपद्रव से कभी छुटकारा होगा या नहीं?
पहला प्रश्नः ओशो, कल हमें जाना है। इतना कृपा करके बता दें कि क्या अपने प्रियतम के विरह में निकले आंसू ही उसका ध्यान हैं अथवा ध्यान कुछ और है? यदि ध्यान कुछ और है तो वह कौन सा ध्यान है?
योग राधा! प्रेम में बहे आंसू शुभ हैं, लेकिन ध्यान नहीं। ध्यान के मार्ग को प्रशस्त करते हैं, ध्यान के द्वार को खोलते हैं, ध्यान के दर्पण को साफ करते हैं, लेकिन स्वयं आंसू ध्यान नहीं हैं। आंसू बाहर की आंखों को ही साफ नहीं करते, भीतर की आंखों को भी साफ करते हैं। बाहर की आंखों को साफ करने के लिए ही आंसुओं का इंतजाम है।
आंसू की ग्रंथि इसीलिए है ताकि आंख आद्र्र रहे, धूल-धंवास न जमे, आंख गीली रहे, सूखी न हो जाए। आंख शरीर का सबसे कोमल अंग है। वह सूख जाए तो नष्ट हो जाए। साधारण आंसुओं का उपयोग यही है कि वे आंखों को साफ करते हैं।
लेकिन, प्रेम में बहे आंसू साधारण आंसू नहीं हैं। और परम प्रियतम की आकांक्षा में बहे आंसू तो बहुत असाधारण हैं; बड़े सौभाग्य के लक्षण हैं। वसंत जैसे आने को है। वृक्षों पर उसकी पहली-पहली झलक आने लगी। कहीं-कहीं इकहरे-दुकहरे फूल खिल उठे। ऐसे परमात्मा के प्रेम में बहे आंसू भी प्रतीक हैं, संकेत हैं। आता ही होगा उसका रथ। आंसू कहते हैं कि रथ के पहियों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ने लगी। मगर आंसू ही रथ के पहिए नहीं हैं। और इकहरे-दुकहरे खिल गए फूल मधुमास नहीं हैं। इकहरे-दुकहरे फूल खिल कर मुर्झा भी जा सकते हैं, वसंत ना भी आए! इकहरे-दुकहरे फूलों का भरोसा नहीं। कभी तो किन्हीं और कारणों से खिल जाते हैं, असमय खिल जाते हैं, बिना ऋतु के खिल जाते हैं।
जैसे अभी-अभी सूर्य का पूर्ण ग्रहण पड़ने के करीब है। तो उस दिन कई तरह के उपद्रव हो जाएंगे। जो फूल रात को खिलते हैं, वे दिन को खिल जाएंगे। फूल धोखा खा जाएंगे। सूर्यग्रहण पूर्ण होगा, अंधेरा एकदम से उतर आएगा, बेचारे फूल और करें क्या? जैसे रजनीगंधा रात खिलती है, सुगंध बिखेरती है, धोखे में आजाएगी, दिन में ही खिल जाएगी। इतना ही नहीं, गंध बिखेर देगी। उसकी गंध बिखेरने की ग्रंथियां भी तत्काल सक्रिय हो जाएंगी। जो पक्षी सांझ होने पर अपने नीड़ों को लौटते हैं, वे जैसे ही सूर्यग्रहण होगा, भागेंगे अपनी नीड़ों की तरफ बड़ी विडंबना में पड़ जाएंगे, इतनी जल्दी कैसे सांझ आ गई। कभी नहीं आती मगर आ गई है तो भागेंगे नीड़ों की तरप132 बड़ी उद्भभ्रांत सी दशा हो जाएगी।
वैज्ञानिक दलों के दल छिप कर जंगलों में बैठेंगे..अध्ययन करने के लिए। जंगली जानवरों पर क्या असर होगा, पौधों पर क्या असर होगा, पक्षियों पर क्या असर होगा? असर सब पर होगा। मगर थोड़ी देर! फिर सूरज प्रगट हो जाएगा। और तब और अचंभा होगा और मुश्किल होगी! रजनीगंधा फिर बंद होगी, फिर उसे अपनी सुगंध को सिकोड़ लेना होगा। चूक हो गई, भूल हो गई, दुर्घटना हो गई! पक्षी फिर नीड़ों के बाहर निकल आएंगे। थोड़े डरे, थोड़े भयभीत, थोड़े घबड़ाए। जो फूल रात में खिलते हैं, फिर बंद हो जाएंगे।
कभी-कभी आंतरिक जीवन में भी ऐसी दुर्घटनाएं घटती हैं। जब कि भ्रांति से तुम्हें लगता है परमात्मा के प्रेम में आंसू बह रहे हैं। और हो सकता है कारण कुछ और हो। अगर कारण कुछ और हो और परमात्मा का प्रेम सिर्प एक बहाना हो..और आदमी बहाने ईजाद करने में बहुत कुशल है..जैसे पति सता रहा हो बच्चे परेशान कर रहे हों जिंदगी दूभर हुई जा रही हो, जिंदगी दुःख ही दुःख मालूम पड़ती हो, तो आदमी बैठ कर कृष्ण कन्हैया के सामने रोने लगता है, कि हे प्रभु! अब तो उठा लो! अब देर न लगाओ! अब मुक्त करो इस जाल से! और रोता है! और शायद सोचे कि ये आंसू प्रभु-प्रेम के आंसू हैं। ये आंसू प्रभु-प्रेम के आंसू नहीं हैं। ये आंसू हैं तो जीवन के दुख के, लेकिन यह भी अहंकार स्वीकार नहीं करना चाहता कि मैं हार गया, असफल हुआ; जीवन को सुंदर न बना पाया, जीवन को सुरभि न दे पाया; मेरा जीवन जीवन नहीं था, एक व्यर्थता थी, एक संताप था; यह भी हम मानने को राजी नहीं होना चाहते। हमारा अहंकार इसे स्वीकार नहीं करता। वह नये तर्क खोज लेता है। वह तर्को पर तर्क खोजता चला जाता है। वह रोता दुख के कारण, लेकिन कहता है रो रहा हूं प्रीति के कारण। अगर ऐसा होगा तो इन आंसुओं का कोई भी मूल्य नहीं।
लेकिन राधा को मैं जानता हूं, धोखे में नहीं है, आंसू प्रभु के प्रेम के ही उठने शुरू हुए हैं। जीवन उसका भरा-पूरा है; जो चाहिए, सब है; कोई दुःख नहीं है। पति जैसे मुश्किल से मिलें वैसे उसे मिले हैं। इतने सौम्य, इतने सरल, इतने सहज! इसलिए ये आंसू दुःख के तो नहीं हैं, जीवन से विराग के भी नहीं हैं, परमात्मा से राग के ही हैं, इतना आश्वासन मैं देता हूं। इतनी सील-मोहर मैं लगाता हूं। लेकिन ये आंसू ही ध्यान नहीं हैं। ये भीतर की आंखों को साफ कर जाएंगे, जन्मों-जन्मों की जमी धूल को धो जाएंगे, इनसे एक स्नान होगा। यही असली गंगा-स्नान है। बाहर की गंगा कैसे भीतर को धोएगी? भीतर की गंगा ही धो सकती है।
इन आंसुओं का समादर करना! इन्हें रोकना मत! इस संबंध में स्त्री-जाति पुरुषों से ज्यादा सौभाग्यशाली है। क्योंकि स्त्रियों को यह मूढ़ता नहीं सिखाई है कि रोओ मत। पुरुषों को तो यह मूढ़ता बहुत सिखाई गई है। छोटे-छोटे बच्चों को हम कहने लगते हैं कि तू मर्द बच्चा है, रो मत! यह लड़कियों जैसे काम मत कर! जैसे रोने का लड़कियों से कुछ लेना-देना हो! रोने पर जितना अधिकार स्त्रियों का है उतना ही अधिकार पुरुषों का है। रोना तो एक अद्भभुत कीमिया है। इससे जो गुजरा नहीं, वह किन्हीं अनुभवों से वंचित ही रह जाएगा। जीवन की कुछ गहराइयां उसे कभी पता ही न चलेंगी। जीवन का कुछ संगीत उसे कभी सुनाई ही न पड़ेगा। जीवन के कुछ गीत उसके भीतर उठेंगे ही नहीं। आंसू ही जिसने न जाने, वह जीवन में करुणा भी नहीं जान पाएगा, प्रेम भी नहीं जान पाएगा, सहानुभूति भी नहीं जान पाएगा, दया भी नहीं जान पाएगा। आंसू ही जिसने नहीं जाने, उसकी जिंदगी में एक तरह का रूखापन होगा, उसकी जिंदगी मरुस्थल होगी, उसमें मरुद्यान भी नहीं होंगे। इस मरुस्थल जैसे जीवन में आंसू छोटे-छोटे मरुद्यान हैं..हरे-भरे, जहां पानी के झरने बहते हैं।
लेकिन हम सदियों-सदियों से पुरुषों को सख्त बनाते रहे हैं..चट्टान की तरह। हमारी चेष्टा रही है, सारी दुनिया में, सारी जातियों में, सारे राष्टरें में, कि पुरुष को सख्त चट्टान की तरह बनाओ। क्योंकि पुरुष का हमने एक ही उपयोग किया है..सैनिक की तरह। उसे लड़ाना है। उसे मारना है..उसे मारना है! वह ऐसे रोने लगेगा, बंदूक हाथ में लेकर गोली चलाने के पहले रोएगा कि मार रहा हूं बेचारे को, इसकी पत्नी होगी, इसके बच्चे होंगे, इसके बच्चे अनाथ हो जाएंगे, इसके बच्चे भीख मांगेंगे; इसकी भी पत्नी होगी जैसे मेरी पत्नी है, जैसे मेरी पत्नी घर राह देखती है और पातियां लिखती है, इसकी पत्नी भी राह देखती होगी; अब पातियां नहीं पहुंचेंगी, अब यह घर कभी नहीं पहुंचेगा; इसकी भी बूढ़ी मां होगी, जिसकी आंखें इसको देखने को तरसती होंगी; इसका भी बूढ़ा बाप होगा, जिसकी यह जीवन की आखिरी लकड़ी है और सहारा है, इसको मैं मार रहा हूं! अगर वह रोने लगे, तो गोली न चले, तो तलवार न उठे।
आदमी को हमें फौलाद बनाना था। हमें आदमी को युद्ध की सामग्री बनाना था। हमें आदमी को तोपों में झोंकना था गोली की तरह। हमने आदमी को आदमी नहीं रहने दिया। स्त्रियां इस अर्थ में सौभाग्यशाली हैं। बहुत उनके दुर्भाग्य हैं, उन्होंने बहुत दुर्भाग्य सहा है, लेकिन इस एक संबंध में वे पुरुषों की तरह वंचित नहीं हुईं। उनकी रोने की क्षमता कायम है।
कैसा मजा है! अगर कोई स्त्री पुरुषों जैसा काम करे तो हम उसका सम्मान करते हैं। पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी।
मैं एक कवयित्री को जानता था, सुभद्रा कुमारी चैहान, उनकी बड़ी प्रसिद्ध कविता है: ‘खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’ मैंने कहा: मर्दानी क्यों? मर्द को इतना मूल्य क्यों? क्यों नहीं लिखतीं..‘खूब लड़ी जनानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’ जो कि सच्ची बात है। लेकिन अगर इस तरह कविता बनाओ तो किसी को जंचेगी ही नहीं। ‘खूब लड़ी जनानी वह तो! ‘ नहीं, मर्दानी होनी चाहिए!
स्त्री अगर पुरुष जैसा व्यवहार करे तो सम्मानित होती है। और पुरुष अगर स्त्री जैसा व्यवहार करे तो अपमानित हो जाता है।
हमारे मूल्य दोहरे हैं। हमारे मूल्य ईमानदार नहीं हैं। अगर लड़की पुरुषों की तरह व्यवहार करे तो हम कहते हैं: बहादुर है! जोन आफ आर्क, झांसी की रानी, इनको हम सम्मान देते हैं। और अगर पुरुष कोमल हो, कमनीय हो, फूल की पंखुड़ियों जैसा हो, तो हम अपमान करते हैं।
नीत्शे ने गालियां दी हैं बुद्ध को और जीसस को। 179ोडिक नीत्शे का दर्शनशास्त्र अडोल्फ हिटलर की आधारशिला था। उसी के आधार पर दूसरा महायुद्ध हुआ। 179ोडिक नीत्शे ने गालियां दी हैं दो व्यक्तियों को, बुद्ध को और जीसस को। जीसस को ज्यादा, क्योंकि जीसस से वह ज्यादा परिचित। कारण? कि दोनों स्त्रैण थे। जनाने! उसने बहुत नाराजगी जाहिर की है। कि इन्होंने सारी दुनिया को जनाना कर दिया! यह क्या बात हुई कि तुम्हारे गाल पर कोई चांटा मारे तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर देना! यह तो लोगों को जनाना बनाना है। यह क्या बात हुई! इस तरह तो पुरुष की जो सर्वाधिक बहुमूल्य संपदा है, वह नष्ट हो जाएगी।
जीसस कहते हैं: जो अंतिम हैं, वे धन्य हैं। और पुरुष का तो सारा काम ही यह है कि उसे प्रथम हो कर दिखलाना है! और जीसस कहते हैं अन्य है, वे जो दीन-हीन हैं। और पुरुष का तो काम ही यह है कि प्रथम हो, राजसिंहासन पर हो। जीवन दांव पर लगाए मगर प्रथम हो कर दिखाए।
मैं कल जिस युवती की बात कर रहा था, वह पच्चीस वर्ष पहले मेरे साथ विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। मेरे जो प्रोफेसर थे, डा. एस. के. सक्सेना, ...अब तो स्वर्गवासी हो गए। स्वर्गवासी तो सिर्प औपचारिक रूप से कहता हूं, मुझे कुछ पक्का नहीं। अगर स्वर्गवासी हो गए हों तो परमात्मा की आत्मा को शांति मिले! क्योंकि वे वहां भी उपद्रव करेंगे। आदमी ऐसे भले थे, मगर थोड़े उपद्रवी थे।
मैं इस लड़की को भूल ही गया होता, पच्चीस साल बाद कोई कारण नहीं था उसे याद रखने का, अगर याद वह रह गई है तो डा. सक्सेना की वजह से। क्योंकि उनके विषय में हम दो ही विद्यार्थी थे..मैं था और यह लड़की थी। यह लड़की है पंजाबी। थोड़ी मर्दानी! थोड़ी मुछाड़िया है। छोटी-छोटी मूछें उसको थीं। यही, इसकी वजह से मैं भूला नहीं। और जिस दिन वह नहीं आती, उस दिन डा0 सक्सेना चूकते नहीं थे, वह मुझसे पूछते: कहां हैं, मुछाड़िया बाई कहां है? जब आती तब तो वे कुछ नहीं कहते। तो मैंने कहा कि मैं आपको एक तरकीब बताता हूं। आप मजा लेते हैं मुछाड़िया कहने में, मगर उसके सामने नहीं कह पाते..ज्यादातर तो वह मौजूद रहती है; जब नहीं रहती, तभी आप यह रस ले पाते हैं..मैं आपको ऐसी तरकीब बताता हूं, उसके सामने भी आप कहें! मैं समझूंगा, आप समझेंगे, वह समझ नहीं पाएगी। उन्होंने कहा, क्या तरकीब है? मैंने कहा: आपको मालूम है कि राजस्थान में जैनों का एक मंदिर है: मुछाला महावीर। वह एक ही मंदिर है सारे हिंदुस्तान में, जहां महावीर की प्रतिमा को मूछें हैं; इसलिए मुछाला महावीर! और यह है भी महावीर बिल्कुल! थी तगड़ी, मजबूत, पंजाबी बाई! और मूछें कुछ ऐसे ही तो नहीं ऊग जातीं, हर किसी को थोड़े ही ऊग आती हैं, उसके लिए मजबूती चाहिए। तो मैंने कहा, आप मुछाला महावीर इसका नाम रख लो। तो आप कहोगे, मैं समझूंगा, मैं कहूंगा, आप समझोगे। और इसको तो पता भी नहीं चलेगा कि मुछाला महावीर से इसका कोई संबंध है! सो उस दिन से यह संकेत रहा हम दोनों के बीच। जब दिल होता, हम दोनों उनकी चर्चा छेड़ देते..और मुछाला बाई बैठी सुनती रहतीं। उसको क्या पता कि किसके बाबत मुछाला महावीर!
मैंने तब कभी सोचा भी नहीं था, यह तो मजाक में ही बात हो गई थी ‘मुछाला महावीर‘, कि मुछाला महावीर मेरे कार्य का प्रथम स्थल बनेगा। मेरा पहला ध्यान शिविर मुछाला महावीर में हुआ! मैंने कहा: वाह रे मुछाला महावीर!! जब पहली दफा मैं मुछाला महावीर गया और मुछाला महावीर को देखा तो मुझे मुछाला बाई की याद आई।
लेकिन मैंने डा. सक्सेना को कहा कि इसको आप मुछाला महावीर कहते हैं, मुछाड़िया बाई कहते हैं..स्त्री को मूछें हों तो हमको अड़चन है! और पुरुष मूछें सफाचट कराए रहे, हमें कोई अड़चन नहीं! ये दोहरे मूल्य हुए। वे खुद मूछें सफाचट रखते थे। मुझे तो कोई डर था नहीं! तो मैंने कहा: इसका आपको जवाब देना चाहिए कि आप मूछें सफाचट क्यों किए हुए हैं? अगर स्त्री मूछों वाली भद्दी लगती है, बेहूदी लगती है, तो मूछें सफा करवा के आप कैसा सोच रहे हैं, कि सुंदर लग रहे हैं! कैसे लग सकते हैं? अगर मूछें स्त्री को अप्राकृतिक मालूम होती हैं, तो पुरुष की उड़ गई मूछें भी अप्राकृतिक हैं।
उस दिन से उन्होंने बंद कर दिया कहना। फिर वे मुछाला महावीर की बात ही बंद कर दिए। मैं कभी-कभी बात भी छेड़ता, वे कहते, छोड़ो भी! भाड़ में जाए, मुझे क्या लेना-देना! तुम उसकी बात छिड़वा-छिड़वा कर मेरी मूछें बढ़वा दोगे! मैं तुम्हारा शड़यंत्र समझ गया। तुम मेरे पीछे पड़े हो! तुम्हें देखता हूं तो मुझे डर लगता है, कहीं वही बात न छेड़ो! और मैं नहीं बढ़ा सकता मूछें, मैं तुमसे कहे देता हूं। तो मैंने कहा, ये दोहरे मूल्य हैं, यह आपको समझ लेना चाहिए। आप नीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं और दोहरे मूल्य!
लेकिन दोहरे मूल्य जारी हैं; जारी रहे।
पुरुष रोए तो हम कहते हैं, यह बात बुरी, यह बात भली नहीं! दुःख में भी रोए तो हम नहीं रोने देते। क्योंकि हम कहते हैं पुरुष को मजबूत होना चाहिए। ऐसा मजबूत कि कोई चीज उसे डिगा न सके।
स्त्री रोए तो हम कहते हैं, रोएगी नहीं तो और क्या करेगी! अबला है! रोने दो! कम पागल होती हैं, सिर्प इसी कारण कि वे रो सकती हैं। और पुरुष ज्यादा पागल होते हैं सिर्प इसी कारण कि वे रो नहीं सकते। उन्होंने रोने की क्षमता खो दी है और रोने की क्षमता मनुष्य को स्वस्थ रखती है। नहीं तो तुम्हारे भीतर दुःख के घाव दबे रह जाएंगे; बह न पाएंगे। मवाद जैसे भीतर रह जाए और बाहर न बहे। तो नासूर बनेगी। केंसर भी बन सकता है। कितनी मवाद लोग भीतर लिए हैं! जब मेरे पास लोग आते हैं और धीरे-धीरे ध्यान में उतरना शुरू होते हैं और जब पुरुषों को भी आंसू बहने शुरू होते हैं तो उनको बहुत हैरानी होती है। वे कहते हैं, यह क्या हुआ? हमें जिंदगी भर कभी आंसू नहीं आए! पिता चल बसे, आंसू नहीं आए; मां चल बसी, हम नहीं रोए; पत्नी चल बसी, हम नहीं रोए; जीवन पर बड़े-बड़े दुःख के पहाड़ टूट पड़े, हम नहीं रोए; और यहां बिना कारण आंसू बह रहे हैं। बात क्या है?
तुम अप्राकृतिक कृत्य कर रहे थे। रोओ! जी भर के रोओ!
दुःख में रोओगे तो दुःख हलका होता है; यह नियम। और आनंद में रोओगे तो आनंद गहन होता है; यह नियम। इस नियम को ख्याल में ले लेना। दुःख हल्का करता है रोना और आनंद को गहन करता है। विपरीत! आनंद और दुःख हैं भी विपरीत। इसलिए आंसुओं का विपरीत परिणाम होता है।
राधा! जो आंसू तेरे बह रहे हैं, शुभ हैं। आह्लादित हो! संकोच न लेना! मगर यह भी तुझे कह दूं कि इसको ही ध्यान मत समझ लेना। इससे ध्यान का रास्ता तय हो रहा है; इससे ध्यान के मंदिर की पहली ईंटें रखी जा रही हैं; मगर मंदिर की ईंटें भी उठ जाएं, मंदिर की दीवालें भी बन जाएं, मंदिर का भवन भी बन जाए, तो भी मंदिर में प्रतिमा लानी होगी। मंदिर ही प्रतिमा नहीं है। और प्रतिमा आएगी तो ध्यान आएगा।
तो तू पूछती है कि फिर ध्यान क्या है अगर ध्यान कुछ और है? ध्यान है: साक्षी-भाव। आंसुओं को बहने दो और आंसुओं के प्रति साक्षीभाव रखो; देखो! आंसुओं के साथ तादात्म्य मत करो। जागरूकता से देखो कि आंसू बह रहे हैं। जैसे किसी और के बह रहे हैं; जैसे कोई और रो रहा है, तुम दूर केवल द्रपटा मात्र। उस द्रष्टा-भाव में ध्यान का जन्म होता है। द्रष्टा-भाव ही ध्यान है। प्रत्येक कृत्य का द्रष्टा-भाव हो जाना है। फिर चाहे वे आंसू हों, चाहे गीत हों, चाहे नाच हो, चाहे जीवन का सामान्य काम हो: रोटी-रोजी, चलना, उठना-बैठना, सब चीजों के प्रति साक्षीभाव रहे। देखते रहो, अपना तादात्म्य तोड़ते चलो। मेरे आंसू हैं, ऐसा मत सोचो, राधा! मुझे भूख लगी है, ऐसा मत सोचो। तुम्हें कभी भूख नहीं लगी। आत्मा को कैसे भूख लगेगी! शरीर को भूख लगती है। आत्मा तो केवल देखती है कि भूख लगी है। आत्मा तो केवल प्रतिफलन करती है, दर्पण है।
दर्पण में कुछ नहीं होता।
जब दर्पण पर बदलियां आती हैं तो तुम सोचते हो दर्पण के भीतर बदलियां पहुंच जाती हैं? जब तुम दर्पण के सामने खड़े हो तो तुम सोचते हो कि तुम्हारा चेहरा दर्पण के भीतर चला गया? तुम हटे कि चेहरा गया! दर्पण के भीतर कुछ नहीं होता, दर्पण तो दर्पण है..सदा कोरा, सदा शून्य। ऐसा ही तुम्हारा चैतन्य है..सदा कोरा, सदा शून्य। उस चैतन्य का अनुभव ध्यान है। और उसकी प्रक्रिया है साक्षीभाव।
प्रत्येक कृत्य के साक्षीभाव बनते चलो! साक्षीभाव को जगाते चलो! देखो, कर्ता न रहो!
गुलाल का स्मरण करो, कल ही गुलाल ने कहा कि सिद्ध-पुरुष की दो चीजें छूट जाती हैं..कर्म और धर्म। कर्म है संसार को पाने की व्यवस्था, संसार को पाने का साधन और धर्म है मोक्ष को पाने का साधन, परलोक को पाने का साधन। लेकिन जब तक पाने की आकांक्षा है, तब तक आदमी वासनाग्रस्त है। फिर चाहे इस लोक की आकांक्षा हो, चाहे परलोक की। इसलिए गुलाल ने ठीक कहा, खूब गहरी बात कही, कि कर्म और धर्म दोनों से छूट जाता है। ऐसे तो लोग हुए हैं जिन्होंने कहा है..कर्म से छूट जाता है। कृष्ण ने कहा है कि द्रष्टाभाव में कर्म से छुटकारा हो जाता है। लेकिन गुलाल ने एक और ऊंची छलांग ली, कहा: धर्म से भी छुटकारा हो जाता है।
क्योंकि धर्म भी है क्या? वह भी सूक्ष्म कर्म है।
कोई धन पाना चाहता है तो कर्म करता है, और कोई मोक्ष पाना चाहता है तो धर्म करता है। दोनों कृत्य हैं। एक आंतरिक कृत्य है, एक बाह्य कृत्य है। जब बाहर से छूटना है तो अंतर से भी छूट जाना है, क्योंकि द्वंद्व से ही छूट जाना है, बाहर-भीतर दोनों जाने चाहिए। संसार-मोक्ष दोनों जाने चाहिए। तब क्या शेष रह जाता है? सिर्प एक दर्पण की तरह सारे अस्तित्व को प्रतिबिंबित करती हुई चेतना शेष रह जाती है। वह चेतना ही ध्यान है। उसकी ही पराकाष्ठा समाधि।
आंसू शुभ हैं, ये ध्यान के रास्ते को धो डालेंगे, ये ध्यान के रास्ते को निर्मित कर देंगे। मगर रास्ता ही मंजिल नहीं है। रास्ते पर चलना होगा, मंजिल तक पहुंचना होगा। ध्यान..आंसुओं के प्रति साक्षीभाव को जगाओ और तब तुम्हें फर्क पड़ना साफ हो जाएगा। आंसू प्रीतिकर हैं, लेकिन गंतव्य नहीं। कोई लक्ष्य थोड़े ही हैं आंसू! कि रोने में ही बहुत कुशल हो गए तो ध्यानी हो गए। कि रोने में बस सबको मात दे दी, कि ऐसे रोए कि कोई न रो सके तुम्हारे मुकाबले। इससे ध्यान नहीं हो जाएगा।
लेकिन यह भी मैं पुनः दोहरा दूं: आंसू जो आरहे हैं, बुरे नहीं हैं; अशुभ नहीं हैं, उनको रोकना मत। वे अपने से विलीन हो जाएंगे। जब उनका काम पूरा हो जाएगा, विलीन हो जाएंगे। जब बीज का काम पूरा हो जाता है, बीज समाप्त हो जाता है, पौधा पैदा हो जाता है। जब फूल का काम पूरा हो जाता है, फूल गिर जाता है, फल लग जाता है। इन आंसुओं का अपना काम है, उसे पूरा हो जाने दो। रोकना मत, नहीं तो कुछ पूरा नहीं हो पाएगा। तुम सिर्प देखो। मस्त-भाव से देखो, आनंद-भाव से देखो। शुभ घड़ी आई तुम्हारे द्वार। इसलिए खूब स्वागत से देखो! मगर आंसुओं को पकड़ कर मत बैठ जाना। इस कोशिश में मत लग जाना कि अब रोज-रोज रोना ही है, चाहे आएं चाहे न आएं। नहीं तो आदमी झूठे आंसू भी ला सकता है। आदमी के झूठ की कोई सीमा नहीं है।
तुम भी जानते हो कि झूठे आंसू लाए जा सकते हैं। किसी के घर कोई मर गया, तुम गए और तुम रोने लगते हो। और तुम्हें जरा भी दुःख नहीं है, और अभी सड़क के बाहर तुम बिल्कुल नहीं रो रहे थे। लेकिन यहां आए, चार लोगों को रोते देखा, लाज-संकोच पकड़ा, मृत्यु का भय भी पकड़ा कि ऐसे ही एक दिन अपने को भी मरना पड़ेगा; सबको रोते देखा, यहां न रोओ तो जरा अच्छा भी नहीं लगता, सो तुम भी रोने लगे। आंसू गिरने लगेंगे झर-झर।
आदमी इतने गहरे झूठ पैदा कर सकता है कि हम कल्पना भी नहीें कर सकते! आदमी मुंह से ही झूठ बोले, ऐसा नहीं, शरीर से भी झूठ बोल सकता है। शरीर तक उसके झूठे में सम्मिलित हो सकता है। तो अगर तुमने यह समझ लिया कि आंसू बहुत ध्यान की बात हो गई, तो फिर नहीं आएं किसी दिन तो लाना पड़ेंगे! क्योंकि ध्यान तो करना ही है! चेष्टा करके लाना पड़ेंगे।
तो न तो रोकना, क्योंकि रोकने से काम रुक जाएगा, न लाने की चेष्टा करना, क्योंकि लाने से जो आएंगे वे झूठ होंगे। जब तक आएं सहज भाव से, आने देना, जिस दिन विदा हो जाएं, समझना उनका काम पूरा हो गया, धन्यवाद देकर उन्हें भूल जाना, विस्मृत कर देना। तब तक साक्षीभाव साधो।
और साक्षीभाव की एक खूबी है, हम इसे किसी भी कृत्य के साथ साध सकते हैं। इसके लिए कोई मंदिर में, मस्जिद में, गुफा में बैठने की जरूरत नहीं है। दुकान पर साध सकते हो। चलते-चलते साध सकते हो, बैठे-बैठे साध सकते हो। कुछ काम और न हो तो श्वास चलती है, इस पर साध सकते हो। बुद्ध ने इसी को ‘विपस्सना’ कहा। श्वास को देखना। भीतर गई श्वास, बाहर आई श्वास; इस पर ही साक्षीभाव को टिका लो। जहां साक्षीभाव टिका, वहीं ध्यान के झरने फूट पड़ते हैं।
दूसरा प्रश्नः ओशो, संन्यास के बाद तो जैसे सभी कुछ बदल गया है। मैं बदल गई, दुनिया बदल गई। पक्षियों के स्वर संगीत में बदल गए हैं। फव्वारे में उठती-गिरती बूंदें नृत्य करती दिखाई देती हैं। सूफी ध्यान में बैठती हूं तो लगता है जैसे सभी कुछ मुझे प्रसन्न करने के लिए हो रहा है। अंदर एक अपूर्व आनंद का अनुभव होता है। लगता है बाह्य संगीत भी मेरे अंदर से ही निकल रहा है। जैसे देवी बनी मैं सब कुछ देख रही हूं। यह भी पागलपन की कोई नई दिशा है अथवा प्रकाश की ओर अग्रसर नन्हें कदम? प्रकाश डालें!
आशा सत्यार्थी! संन्यास घटे तो सब कुछ बदलेगा ही। संन्यास कोई वस्त्रों का बदल लेना ही तो नहीं है। संन्यास तो आंतरिक रूपांतरण है। यह तो जीवन को देखने की नई विधा, नई विधि है। यह तो जीवन को जीने का नया आयाम है।
पुराना संन्यास जीवन-विरोधी था। इसलिए उससे संसार को कोई लाभ नहीं हो पाया। उससे संसार को हानि हुई। निश्चित हानि हुई। न-मालूम कितने घर उजड़े। न-मालूम कितने परिवार विनष्ट हुए। न-मालूम कितनी स्त्रियां पतियों के रहते विधवा हो गईं। न-मालूम कितने बच्चे पिताओं के रहते अनाथ हो गए। पितृहीन हो गए। जरूर लाखों बच्चों ने भीख मांगी होगी। और न-मालूम कितनी स्त्रियां वेश्याएं हो गई होंगी। इस सब का जुम्मा पुराने संन्यास पर है। पुराने संन्यास के सिर पर बहुत बड़े पापों का बंडल है।
और मजा यह, इतने पाप के बदले में पुराने संन्यास ने पाया क्या? सूखे-साखे लोग, जीवनरस से हीन, मुर्दा! लेकिन हम मुर्दो को पूजते हैं। हमें मुर्दो को पूजने में बहुत मजा आता है। हम मुर्दो के पूजक हैं सदियों से। आदमी मर जाता है तो सभी उसकी प्रशंसा करते हैं। मरे की फिर क्या निंदा करना, क्या आलोचना करना..लोग कहते हैं! जिंदा था तो सभी निंदा करते थे..यह भी बड़ा मजा है! जिंदा था तो कोई प्रशंसा करने वाला न मिला..शायद लोग सोचते हैं जिंदा की प्रशंसा क्या करना! जैसे सोचते हैं, मुर्दे की क्या आलोचना करना! अरे, मुर्दे की करो भी तो कोई हर्जा नहीं, मुर्दा रहा ही नहीं; चलेगा। अब मुर्दे को कोई दुःख भी नहीं पहुंचने वाला है तुम्हारी आलोचना से। जिंदा की मत करो! जिंदा को गालियां देते हैं, मुर्दा का सम्मान करते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन गांव में कई जगह खबर सुनी, जो मिला वही चंदूलाल की तारीफ कर रहा था..भाई, बड़े अद्भभुत व्यक्ति! थोड़ा शंकित होने लगा, घबड़ाने लगा। आखिर पूछ ही बैठा किसी से कि भाई, मामला क्या है, क्या चंदूलाल चल बसे? इतने लोग प्रशंसा कर रहे हैं, इसका सिर्प एक ही मतलब हो सकता है कि चंदूलाल अब दुनिया में नहीं रहे। क्योंकि जिंदा आदमी की तो कोई प्रशंसा कर ही नहीं सकता मुर्दे की प्रशंसा करनी ही चाहिए। हम बूढों को आदर देते हैं सदियों से क्योंकि बूढ़ा मौत के करीब पहुंच गया। बस, एक कदम और। इसने काफी मौत पा ही ली है, थोड़ी-बहुत जिंदगी बची है, तो इसको हम आदर देते हैं।
मृत्यु के आदर से ही वृद्ध का आदर पैदा हुआ है। और जैसे ही कोई मर जाता है, एकदम स्वर्गीय हो जाता है। फिर नरक कौन जाता है? नरक तो खाली पड़ा होगा! क्योंकि जो भी मरे, वही स्वर्गीय! तो नारकीय कौन है?
नहीं, हम कहते नहीं यह।
मैंने सुना, एक गांव में एक आदमी मरा, राजनेता था। उस गांव का नियम था कि जब कोई मर जाए तो उस आदमी की प्रशंसा में दो शब्द कहे जाएं। लोगों ने बहुत माथापच्ची की कि कोई दो शब्द खोजे, मगर थे ही नहीं दो शब्द उसकी प्रशंसा में कहने योग्य। वह आदमी ऐसा दृष्ट था। उसने एक-एक को सताया था। उसने एक-एक की जान दूभर कर रखी थी। उसने लोगों को ऐसा परेशान किया था कि लोग प्रसन्न हो रहे थे, दिल ही दिल में खुश हो रहे थे, फूल खिल रहे थे लोगों की आत्माओं में कि चल बसा तो झंझट मिटी। मगर लाश रखी है, चिता पर चढ़ेगी तब जब कोई प्रवचन दे, भाषण दे और मर गए आदमी के संबंध में दो सम्मान के शब्द बोले, वह परंपरा थी गांव की। आखिर लोग एक-दूसरे की तरफ देख रहे हैं; कौन बोले, क्या बोले! फिर गांव के लोगों ने गांव के पंडित से कहा कि भैया, तुम्हीं कुछ बोलो, शास्त्रों में कुछ खोजो! तुम तो शास्त्र के ज्ञाता हो, शब्दों के धनी हो, अरे दो शब्द बोलो, अब किसी तरह खत्म करो, अब हम यहां कब तक बैठे रहें! इसने जिंदा रह कर भी सताया, अब मर कर भी सता रहा है। यह तो मर गया, अब हम बैठे हैं नाहक इस मरघट में। घर जाएं अपने, दूसरे काम में लगें। जिंदगी भर इसने परेशान किया है और आखिरी वख्त तक यह रस चखा रहा है अपना। कुछ बोल दो, कुछ भी बोल दो! हम आंख बंद करके, कान बंद करके मान लेंगे, सुन लेंगे, ताली बजा देंगे..झंझट खत्म करो! तुम झूठ बोलो कि सच बोलो, इसकी फिक्र नहीं।
लेकिन पंडित को भी उसने इतना सताया था कि उसके भी सब शास्त्रज्ञान वगैरह काम नहीं आरहा था; वह खोज रहा था, बहुत भीतर, मगर कुछ..., आखिर खड़ा हुआ, पंडित था, कुछ रास्ता निकाला। उसने कहा कि भाइयो, यह जो सज्जन मर गए हैं, इनके पांच भाई अभी और जिंदा हैं, उन पांच के मुकाबले ये देवता थे।
क्या तरकीब निकाली! कि वे पांच इनसे भी पहुंचे हुए हैं, इतने निश्चिंत न हो जाओ, ये पांच पीछे छोड़ गए हैं, अभी वे ठिकाने लगाएंगे तुम्हें। उनके मुकाबले यह देवता थे।
तब उनकी चिता पर लाश चढ़ाई जा सकी।
क्यों मुर्दो का सम्मान पैदा हुआ? वैज्ञानिक कहते हैं कि मुर्दो का सम्मान भय से पैदा हुआ। जब शुरू-शुरू में मुर्दो का सम्मान पैदा हुआ होगा, कोई दस हजार साल पहले, तो इस डर से पैदा हुआ कि भइय्या, अब मर गया यह आदमी, इसका सम्मान करो, नहीं तो कहीं सताए न! भूत-प्रेत हो जाए! तो इसका सम्मान करो, दान करो, गंगाजी में इनकी अस्थियां चढ़ा आओ। अब जो हुआ सो हुआ, इनसे किसी तरह छुटकारा करो। गया जाना है तो गया हो आओ। और हर साल पितृपक्ष में इनको कुछ भेंट कर दो..रिश्वत! प्रेतात्माएं तो आतीं नहीं, कौवे खाते हैं। मगर कुछ भी हो, इनको कुछ रिश्वत दे दो ताकि ये शांत रहें। हमें भूल जाएं तो बड़ी कृपा! हम पर कृपा करें, अब इस तरफ न आएं, इस तरफ ध्यान न दें!
इस भय से कि आदमी मर कर भूत-प्रेत होगा और फिर सताएगा, इसलिए उसे कुछ रिश्वत दे दो। इससे मुर्दो की प्रशंसा शुरू हुई। वह मुर्दो की प्रशंसा फिर हमारी सब चीजों पर फैल गई। हर चीज पर फैल गई। फिर जितना मरा हुआ आदमी हो..जिंदा रहते हुए भी..उसको हम सम्मान देने लगे। जैसे कोई आदमी स्वस्थ हो, ठीक से भोजन करे, ठीक से कपड़ा पहने, ठीक से रहे, तो हमारा सम्मान का पात्र नहीं होता। भूखा मरे, उपवास करे, नंगा खड़ा हो जाए, हड्डी-हड्डी हो जाए, सूख जाए, पीला पड़ जाए, अधमरा रहे, बस किसी तरह सांसें चलती रहें, हमारा सम्मान मिलने लगता है।
हमारे सम्मान बड़े अद्भभुत हैं। हम दुष्ट प्रकृति के हैं। हमारा सम्मान भी हमारी दुष्टता बताता है। जितना कोई आदमी अपने को सताए उतना हम उसे सम्मान देते हैं। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि हम अपने को सताने वालों को प्रोत्साहन देते हैं, पुरस्कार देते हैं। हम दुखवादियों को पुरस्कार देते हैं और हम दुखवादियों को बढ़ाते हैं।
पुराना संन्यास दुःखवादी था। वह जीवन-विरोधी था, प्रेम-विरोधी था, परिवार-विरोधी था, संसार-विरोधी था। वह कहता था, जीओ मत। उसकी एक ही मूलभित्ति थीः कम-से-कम जीओ, न्यूनतम जीओ। बस जीना है, इसलिए किसी तरह जीते रहो। ऐसे धर्म हुए, जैसे जैन-धर्म, जिन्होंने आत्महत्या की आज्ञा दी है। जैन-धर्म धर्मो की पराकाष्ठा है। और धर्मो ने भी आत्मघात की व्यवस्था जुटाई है..धीमे-धीमे, शनै:-शनै:, ऐसे रोज-रोज करते रहो धीरे-धीरे, मर ही जाओगे, लेकिन जैन-धर्म ने तो आत्मघात की आज्ञा दी है। ‘संथारे‘ की आज्ञा दी है। आज उपवास कर लो..आमरण..दो महीने लगते हैं, कभी तीन महीने लगते हैं मरने में। क्योंकि तीन महीने तक आदमी बिना भोजन के जी सकता है। वे तीन महीने महा कष्ट के हैं। क्योंकि तुम सता रहे अपने शरीर को। तुम इंच-इंच मार रहे अपने शरीर को। इससे तो आसान है कूद जाओ किसी पहाड़ से, पी लो जहर, एक घड़ी में बात हो जाएगी, एक क्षण में बात हो जाएगी, मार लो गोली! लेकिन, कोई सम्मान नहीं देगा। गोली मार लो, इसमें क्या सम्मान? तीन महीने सड़ो, इंच-इंच मरो, तिल-तिल मरो, तो सम्मान है। क्योंकि इतना दुःख तुमने दिया। सूली पर लटके रहो तीन महीने तक, तो तुम सम्मान के योग्य हो।
इसको जैन कहते हैं, ‘संथारा‘।
मगर जैनों की पूरी व्यवस्था ही यह है कि आदमी को सुखाओ, गलाओ; उसके शरीर के साथ जितनी तुम दुष्टता कर सको, करो। यह बड़े मजे की बात है। एक तरफ कहते हैं: ‘अहिंसा परमो धर्मः’, कि अहिंसा परम धर्म है, किसी को सताना मत..मगर इसमें तुम सम्मिलित नहीं हो। किसी को सताना मत, इसमें बाकी सब सम्मिलित हैं सिर्प तुमको छोड़ कर। अपने को तो जी भर के सताना। असल में जब तुम किसी को नहीं सताओगे, तो तुम्हारे सताने की जो सारी ऊर्जा है, सताने की जो सारी इच्छा है, वह अपने पर ही लौट आएगी। फिर किसको सताओगे! मारो खुद को, सताओ खुद को, हैरान करो, खुद को। इसमें कैसे गीत उठेंगे? इसमें कैसे आनंद की झलक उठेगी? इसमें जीवन का कोई झरना नहीं फूट सकता।
पुराना संन्यास मरण का पक्षपाती था।
मैं जिस संन्यास की बात कर रहा हूं, वह जीवन का गीत है, जीवन का संगीत है। इसलिए आशा, जो तुझे हुआ है, जो हो रहा है, शुभ है। तू कहती है, संन्यास के बाद तो जैसे सभी कुछ बदल गया है। बदल ही जाना चाहिए! संन्यास लेने का अर्थ यह है कि हमने जीवन के पक्ष में निर्णय लिया। हमने कहा कि हम जी भर जाएंगे, हमने कहा कि हम पल-पल जीएंगे और पूर्णता से जाएंगे। हमने कहा कि हम जीवन को परमात्मा का पर्यायवाची मानते हैं। हमने कहा कि जीवन मोक्ष है; कि जीवन निर्वाण है।
संन्यास का अर्थ क्या है?
मेरे देखे, मेरे लेखे संन्यास का अर्थ है इस बात की घोषणा कि मैं जीवन-विरोध छोड़ता हूं, मैं जीवन की निंदा छोड़ता हूं। मैं अब जीवन में ही तलाशूंगा। वृक्षों की हरियाली में परमात्मा की हरियाली देखूंगा; और वृक्षों के रंगों में परमात्मा का रंग। और इंद्रधनुष जब आकाश में होगा तो देखूंगा कि परमात्मा कैसे पृथ्वी और आकाश को जोड़ रहा है। कैसे परमात्मा पृथ्वी और आकाश के बीच सेतु बन रहा है। पक्षियों के गीत में मैं गीता सुनूंगा, और झरनों के कल-कल नाद में मेरा कुरान होगा। हवाएं जब वृक्षों के बीच में गुनगुनाती निकलेंगी तो मेरे लिए वही उपनिषद है, वेद है।
मैं संन्यास की जो धारणा तुम्हें दे रहा हूं, वह अहोभाव की, आनंद की, महोत्सव की है। गुलाल ने कहा न कि परमात्मा के संग होली खेल रहा हूं। चला रहा हूं पिचकारियां। परमात्मा के साथ फाग खेलना, गुलाल उड़ाना..यही संन्यास है।
पुराना संन्यास गैरिक वस्त्र चुना था संन्यास के लिए, उनके कारण अलग थे। मैंने भी गैरिक वस्त्र चुने हैं, मेरे कारण अलग हैं। पुराने संन्यास ने गैरिक वस्त्र चुने थे इसलिए कि गैरिक वस्त्र अग्नि का रंग है; चिता का रंग। पुराने संन्यास की दीक्षा ही ऐसे दी जाती थी। झूठ-मूठ एक चिता बनाई जाती थी, और जैसे हम मुर्दे को चिता पर चढ़ाते हैं, उसका सिर घोंट देते थे; उसको स्नान करवा कर, नये कपड़े पहना कर चिता पर लिटा देते थे; फिर चिता में आग लगाते थे। यह सब खेल था; एक क्रियाकांड। और दीक्षा देने वाला मंत्र पढ़ता था और कहता था कि तुम मर गए; तुम अब तक जैसे थे वैसे मर गए; वह समाप्त हो गया। तुम चिता पर चढ़ गए। अब न तुम्हारा कोई परिवार है, न तुम्हारी कोई पत्नी, न कोई पिता, न कोई मां, न कोई भाई, न कोई बंधु। फिर इसके पहले कि आग जोर से पकड़ जाए और आदमी जल ही जाए, उसको उठा लेते थे। उसको नया नाम दे देते थे। इसका अब कोई वर्ण नहीं, अब इसका कोई आश्रम नहीं, अब इसका कोई नाम नहीं पुराना। इसलिए पुराने ढब का संन्यासी यह नहीं बताता उसकी उम्र कितनी है, यह नहीं बताता उसका पुराना नाम क्या है, उसका पुराना पता क्या है? उसके मां-बाप का क्या नाम है? वह कहता है, वह सब तो बात गई। वह अपने इतिहास को पोंछ डालता है। उसे गैरिक वस्त्र दिए जाते थे..चिता का रंग, अग्नि का रंग।
मैं भी गैरिक वस्त्र दे रहा हूं। लेकिन चिता का रंग नहीं है यह। अग्नि का रंग जरूर है। और अग्नि मेरे लिए जरूरी रूप से चिता का प्रतीक नहीं है। अग्नि जीवन का प्रतीक है। तुम्हारे भीतर अग्नि जल रही है तभी तक तुम जीवित हो। विज्ञान भी इससे राजी है। जैसे दीया जलता है। तो दीया किस तरह जलता है? आक्सीजन के कारण ही जलता है। और आक्सीजन के कारण ही तुम भी जल रहे हो, तुम भी जी रहे हो। आक्सीजन को हटा लो, दीया बुझ जाएगा। जरा एक दीए पर ढांक देना कांच का बर्तन और देखना कितनी देर टिकता है! बस, थोड़ी देर टिकेगा। जैसे ही इस कांच के भीतर की हवा में से आक्सीजन समाप्त हो जाएगी, दीया बुझ जाएगा। जरा तुम्हारी नाक को बंद कर लो, जोर से पकड़ लेना, थोड़ी ही देर में बुझने लगोगे। आक्सीजन पहुंचनी बंद हो गई।
मरते हुए आदमी को हम आक्सीजन पर लगा देते हैं। आक्सीजन पर लगा दो तो उसे काफी देर तक जिलाए रखा जा सकता है। मर भी रहा हो तो भी जिलाए रखा जा सकता है। क्योंकि आक्सीजन भीतर अग्नि को जलाए रखती है। हमारा जीवन भी अग्नि है, सारा जीवन अग्नि है। अगर सूरज बुझ जाए तो वृक्ष अभी, इसी वख्त समाप्त हो जाएंगे, पक्षी मर जाएंगे, लोग मर जाएंगे। कोई भी नहीं बचेगा। पृथ्वी एकदम उजाड़ हो जाएगी। सूरज की आग हमें जिंदा किए हुए है।
तो आग चिता की ही नहीं होती, आग तो जीवन की भी है। मैं जीवन की आग के कारण गैरिक वस्त्र चुना हूं। और गैरिक वस्त्र और भी बहुत चीजों के प्रतीक हैं। ये प्रतीक हैं फलों के। यह वासंती रंग है, वसंत का रंग है। वसंत में जब कि फल ही फूल खिल जाते हैं। इतने फूल खिल जाते हैं कि गिनती न कर सको। यह गैरिक रंग तुम्हारे रक्त का रंग है। रक्त तुम्हारी जीवनधारा है। रक्त तुम्हारा रस है। जैसे वृक्ष बिना पानी के न जी सकेंगे, तुम बिना रत्त के न जी सकोगे। ये गैरिक वस्त्र सूर्य के प्रतीक हैं। क्योंकि सूर्य हमारे जीवन का स्रोत है। और ये गैरिक वस्त्र क्रांति के प्रतीक हैं। क्योंकि क्रांति नया जन्म है। और बच्चा जब जन्मता है तो स्वभावतः रक्त गिरता है मां से। बच्चा भी रक्त में ही लिपटा हुआ ही पैदा होता है। चिता से इनका कोई संबंध नहीं है मेरे हिसाब में। फूलों से संबंध है, जीवन से संबंध है, क्रांति से संबंध है, वसंत से संबंध है। मेरे लिए ये महोत्सव के प्रतीक हैं।
लेकिन कपड़े ही बदलने से कुछ न होगा, यह सारी भाव-दशा बदलनी है।
और आशा, मैं देख रहा हूं कि वह भाव-दशा तेरी बदली है। ...कल तुमने देखा होगा, ये युवती अचानक खड़ी हो गई थी, वह आशा सत्यार्थी ही थी। रोक न सकी अपने को, इतने भाव में आगई थी। पास आना चाहती थी, और पास आना चाहती थी। फिर दिन भर रोई कि मैंने विघ्न डाला; कि मेरे कारण व्याघात हुआ। दिन भर रोई कि मैं नहीं चाहती थी कि उठूं, मैंने सब तरह अपने को रोका था कि न उठूं, मगर न रुक सकी! कोई चीज उठा ली। कोई और जैसे उठा लिया। जैसे अपने बस में न थी। जैसे एक मादकता, एक मस्ती, एक खुमार!
आशा, रोने की कोई जरूरत नहीं। कभी-कभी थोड़ी बहुत विघ्न-बाधा, चलती है। कभी-कभी! ऐसा रोज-रोज न करने लगना। और जैसा आशा ने किया ऐसे और लोग न करने लगना। नहीं तो उसको तो हुआ था, लोग ऐसे हैं कि करने लगें! आशा तो रोक न सकी, इसलिए हुआ। वह कर भी क्या सकती थी? अवश थी। फिर पछताई भी बहुत, रोई भी बहुत, कियह उचित नहीं था कि सत्संग में बाधा डालूं!
मगर उचित-अनुचित के पार भी कुछ चीजें हैं। तेरा उठना उचित-अनुचित के पार था। मैंने देख लिया था कि तू उठी नहीं है, तेरा इसमें कुछ वश नहीं है, तेरा संकल्प नहीं है, तेरी इच्छा नहीं है। तेरे चेहरे पर दोनों भाव मौजूद थे..तू अपने को रोक रही थी। मगर आई कोई आंधी और उड़ा ले गई सूखे पत्ते की तरह तुझे। तू करती भी तो क्या करती? तू करीब आना चाहती थी। करीब आने का नाम ही तो सत्संग है। करीब आने को ही तो उपनिषद कहते हैं। गुरु के पास बैठने को ही तो उपनिषद कहते हैं। जरा भी दूरी खलती है।
अब मजबूरी है कि कुछ को तो दूर बैठना पड़ेगा। सभी आगे नहीं बैठ सकते। इसलिए तुझे थोड़ी दूर बैठना पड़ा था। और जो पहरेदार हैं, उनकी भी मजबूरी है। उनको एक व्यवस्था बनाए रखनी है। तो उन्होंने तुझे रोका भी। क्योंकि अगर वे प्रत्येक को उठने दें, तो सत्संग असंभव हो जाए, बात करनी मुश्किल हो जाए। लोग रोने लगें, लोग चीखने लगें, लोग चिल्लाने लगें। और इनमें नब्बे प्रतिशत ऐसे हों जो बन के करें, जो बनावटी हों।
जो तुझे हो रहा है, मंगलदायी है।
तू कहती है: ‘मैं बदल गई, दुनिया बदल गई है। पक्षियों के स्वर संगीत में बदल गए हैं। फव्वारे में उठती-गिरती बूंदें नृत्य करती दिखती हैं। सूफी ध्यान में बैठती हूं तो लगता है जैसे सभी कुछ मुझे प्रसन्न करने के लिए हो रहा है।’
हो ही रहा है। यह सारा अस्तित्व तुझे प्रसन्न करने को है, आनंदित करने को है। ये सब फूल तुम्हारे लिए खिले हैं। ये तारे तुम्हारे लिए नाच रहे हैं। यह आकाश जगमग है तुम्हारे लिए। यह रोज शाम दिवाली जो मनाई जाती है, यह किसके लिए? यह जो संगीत है झरनों का, यह जो नाद है सागरों का, यह सब तुम्हारे लिए, सब तुम्हारे लिए।
तुझे डर लगता है कि कहीं यह भी पागलपन की कोई नई दिशा तो नहीं है? अथवा मैं प्रकाश की और अग्रसर हो रही हूं? नन्हें कदम प्रकाश की तरफ उठा रही हूं? यह दोनों है। यह पागलपन का एक नया आयाम भी है और प्रकाश की ओर नन्हें-नन्हें कदम भी। यह दीवानापन है! यह मस्ती है!
परवाना होना ही तो संन्यस्त होना है। फिर परमात्मा बन गया ज्योतिशिखा और हम उड़ चले परवानों की तरह; मरने को, मिटने को, ताकि उसके साथ एक हो सकें। इतनी भी दूरी न रह जाए, इतना भी फासला न रह जाए कि मैं हूं। मेरे होने का भी अंतराल खलने लगे। मेरे होने का भी भेद अखरने लगे। तो पागलपन तो है ही! मगर ऐसा पागलपन जो बुद्धिमानी से बहुत ऊपर है और बुद्धिमानी से बहुत मूल्यवान है। इसलिए नन्हें-नन्हें कदम भी हैं ये। ये परमात्मा की तरफ ही कदम उठ रहे हैं। कल तू जो उठ कर खड़ी हो गई थी, चल पड़ी थी, वह मेरी तरफ नहीं, परमात्मा की तरफ ही चल पड़ी थी। मैं तो सिर्प बहाना था।
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूं,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूं,
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर,
मैं सांसों के दो तार लिए फिरता हूं।
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूं,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूं;
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूं।
मैं निज उर के उदगार लिए फिरता हूं,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूं,
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता,
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूं।
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूं,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूं;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं मन-मौजों पर मस्त बहा करता हूं।
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूं,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूं,
जो मुझको बाहर हंसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूं!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसीने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहां पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूं, सीखा ज्ञान भुलाना!
मैं और, और, जग और, कहां का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूं,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूं,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूं!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूं एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूं,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूं;
जिसको सुन कर जग झूमे, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं!
मेरा संन्यासी पागल तो है ही, परवाना तो है ही? ! लेकिन इसी पागलपन से उसके गीत उठेंगे, गान उठेंगे। यही पागलपन उसकी वीणा पर, हृदय की वीणा पर संगीत बन कर नाचेगा। यही पागलपन उसके पैरों में घुंघरू बांधेगा। यह पागलपन तुम्हारी तथाकथित समझदारी से बहुत ऊपर है।
तुम्हारी तथाकथित समझदारी क्या है? चार कौड़ियां इकट्ठी कर लो, बड़े समझदार! किसी पद पर चढ़ जाओ, बड़े समझदार! मगर सब पड़ा रह जाएगा..पद भी, धन भी।
दुनिया तुम्हें पागल कहेगी। जब तुम्हारे पास कुछ भी न होगा जिसको दुनिया मूल्य देती है और फिर भी मस्ती होगी, और तुम्हारी आंखों में खुमार होगा और लगेगा कि तुम पीए ही पीए हो, कुछ ऐसी शराब पी गए हो कि जो उतरती ही नहीं, तो लोग पागल कहेंगे। कहने देना। स्वाभाविक है उनको भी तुम्हारी बात पागल जैसी लगे। उनकी भीड़ भी है; उनकी बात में बल भी मालूम होगा। मगर कौन चिंता करता है! जिसने एक बूंद भी चख ली भीतर की, सारी दुनिया में उसे किसी की चिंता नहीं रह जाती। सारी दुनिया एक तरफ हो, तो भी परमात्मा का परवाना एक तरफ खड़ा होकर अकेला भी मस्त होता है। अकेला भी पर्याप्त होता है।
आशा, बहुत कुछ होने को है अभी। ये नन्हें-नन्हें कदम ही हैं। अभी और पागलपन आएगा। मगर पागलपन ही तो अंततः परमहंस बनाता है। दुनिया में दो तरह के पागल हैं। एक वे, जो सामान्य बुद्धि से नीचे गिर जाते हैं। वे रुग्ण हैं। और एक वे, जो सामान्य बुद्धि के ऊपर उठ जाते हैं। वे ही परमहंस हैं, वे ही तो बुद्ध हैं, वे ही तो पैगंबर हैं। मैं जो भी यहां प्रयास कर रहा हूं, वह यही है कि कैसे तुम्हारी सामान्य बुद्धि के पार तुम्हें उठाया जा सके। कैसे तुम अतिक्रमण कर सको इस मन का।
मन रोग है; इससे मुक्त हो जाना परम आनंद है। संसार से मुक्त नहीं होना है, मन से मुक्त होना है। संसार का त्याग नहीं करना है, मन का त्याग करना है। और जहां मन न बचा, वहां मैं-भाव गया। मैं तो मन में ही जीता है। और जिसके भीतर न मन है, न मैं-भाव है, उसके बीच और परमात्मा के बीच कौन-सी दीवाल रही? सब दीवालें गिर गईं। उसी मिलन की तलाश है। जन्मों-जन्मों से हम उसी को खोज रहे हैं। और जब तक मिल न जाए वह क्षण तब तक यह खोज जारी रखना! जारी रखनी ही पड़ेगी, क्योंकि तब तक तृप्ति होनी असंभव है।
तीसरा प्रश्नः ओशो, उस दिन आपने चूहे को हनुमान जी का वाहन बताया। लेकिन जहां तक मैं जानता हूं वहां तक शास्त्रों में चूहा हनुमान जी का नहीं, गणेश जी का वाहन है! कृपया प्रकाश डालें।
नगेंद्र! उस दिन तो जो भी मैंने बताया, उस सब का कसूर गुलाल पर है। होली के हुल्लड़ में जो न हो जाए थोड़ा। गुलाल ने ऐसी गुलाल उड़ाई, ऐसी भंग पिलाई कि कुछ का कुछ हो गया। और होली का हुड़दंग! हनुमान जी चढ़ गए होंगे चूहे पर। कौन फिकर करता है होली के हुड़दंग में कि कौन किसका वाहन है! एकाध दिन तो छुट्टी रखो। और हनुमान जी ही हैं! चूहे पर गणेश जी को बैठे देखते-देखते उनको भी लगा होगा कि चलो एक दिन बैठ जाएं। और चूहे को भी जंचा होगा, क्योंकि वजन भी थोड़ा हनुमान जी का कम ही होगा गणेश जी से! अब हाथी ऊपर बैठा हो चूहे के और बंदर बैठ जाए! तो चूहे ने भी सोचा होगा, भला ही हुआ, अच्छा ही हुआ!
मगर उस दिन की बातों का तुम कुछ ख्याल मत करना। उस दिन कई सच्ची बातें निकल गईं।
और शास्त्रों की क्या फिकर करते हो? शास्त्र तो अपने हाथ की बात है। लिख लेना अपने शास्त्र में कि समय बदला, कलियुग आया और लोगों ने वाहन बदल लिए! अरे, लोग हर साल अपना वाहन बदल लेते हैं। तो तुम अभी तक चूहे पर ही चढ़े हुए हो? और मैं कोई शास्त्रों का ज्ञाता नहीं, सो मुझे पता नहीं कि कौन किसका वाहन है। तुमने पूछा तो मैंने चूहे से पूछा..शास्त्र में क्या जाना, चूहे से पूछो न! हनुमान जी मिलते नहीं कहां छिपे हैं। गणेश जी का पता नहीं चलता। मगर चूहा तो उपलब्ध है। अतिरेक से उपलब्ध है। भारत में चूहे की कोई कमी है! मैंने चूहे से ही पूछा कि भइया, तू बता! चूहे ने कहा, मैं किसी का वाहन नहीं हूं। कभी-कभी मैं हनुमान जी पर भी चढ़ता हूं, कभी-कभी गणेश जी पर भी चढ़ता हूं। मैं और वाहन!
और बात जंची। क्योंकि मैंने कई दफा गणेशजी पर चूहे को चढ़े देखा है। असली चूहे को। नकली चूहे पर तुम गणेशजी को चढ़ा दो, रबर के चूहे पर, एक बात है, लेकिन असली चूहा गणेश जी पर चढ़ जाता है। अरे, गणेश जी को छोड़ो, गणेश जी के पिताजी शंकर जी पर चढ़ जाता है। किसी की फिकर ही नहीं करता है। चूहे तो चूहे है यह कोई नियम, इत्यादि, शास्त्र वगैरह मानते हैं क्या? जैसी मौज होती है वैसा करते हैं।
शास्त्रों में कुछ भी लिखा हो, क्योंकि शास्त्र आदमियों ने लिखे हैं। सो जो चाहो लिख लो, अपने शास्त्र। मगर जरा पूछ तो लिया करें बिचारे चूहों इत्यादि से! और यह जमाना अब समाजवाद का है, सर्वहारा का है। बहुत बैठ चुके गणेशजी और हनुमान जी वाहनों पर। अब चूहे बैठेंगे। अब चूहे मानने को राजी नहीं। चूहे भी दल बना रहे हैं..दलित-पांथर। कब तक दलोगे? बहुत दल चुके! और शर्म भी न आई? गणेश जी को चूहे पर बिठाया!
मगर यह बात एक अर्थ में सच्ची है। यही होता रहा। गरीब की छाती पर बड़ी-बड़ी तोंदों वाले लोग सवार रहे। सो प्रतीक समझ में आता है। चूहों की छाती पर गणेश चढ़े हैं! मगर अब चूहे ज्यादा दिन गणेश वगैरह को चढ़े नहीं रहने देंगे। कई मुल्कों में उतार दिए गए। यहां भी उतरेंगे। उतरना ही पड़ेगा। रूस जैसे समाजवादी देश में तो व्यक्तिगत वाहन ही खत्म हो गए। तुम कहां की शास्त्रों की बातें कर रहे हो, व्यक्तिगत वाहन खत्म! सार्वजनिक वाहन शुरू हो गए। अब यह पुरानी राजशाही न चलेगी कि गणेशजी का अपना वाहन और शंकर जी का अपना वाहन! सार्वजनिक वाहन होगा। बस में बैठें दोनों। अब कहां व्यक्तिगत वाहन! मगर तुम्हें अड़चन आई होगी। शास्त्र के ज्ञाता को बड़ी अड़चनें आती हैं। मेरे साथ तो बहुत अड़चनें आती हैं।
मगर शास्त्र का यहां क्या लेना-देना? यह रिंदों की जमात है। यहां तो पियक्कड़ बैठे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन कह रहा था कि जब मैं ज्यादा पी जाता हूं तो मुझे सांप-बिच्छू, हाथी-घोड़े, मगरमच्छ, ऐसी-ऐसी चीजें दिखाई पड़ती हैं। शराबघर के मालिक ने कहा कि कभी किसी मनोवैज्ञानिक को देखा? कभी किसी मनोवैज्ञानिक से मिले? उसने कहा कि नहीं भाई, कितनी ही पीओ, मगर बस यही हाथी-घोड़े इत्यादि दिखाई पड़ते हैं, मनोवैज्ञानिक दिखाई पड़ता ही नहीं!
पीने वाले लोगों की अपनी दुनिया है। वहां के अपने दृश्य हैं। और परमात्मा तो पियक्कड़ों के लिए है। शास्त्रीय ज्ञान वहां काम न पड़ेगा।
तुम क्यों चिंता में पड़े? नगेंद्र, इस तरह की व्यर्थ चिंताओं में तुम्हें क्या लेना? न तुम चूहा, न तुम गणेश जी, न तुम हनुमान जी, तुम क्यों चिंतित हो? लेकिन लोगों को न-मालूम कैसी-कैसी चिंताएं पकड़ लेती हैं कि कहीं शास्त्र के विपरीत कोई बात न हो जाए। मुझे शास्त्र से कुछ लेना-देना नहीं है। ये सब कपोल-कल्पित कहानियां हैं। और कहानियों को भी रुक क्यों जाना चाहिए? समय के साथ बढ़ते रहना चाहिए, बदलते रहना चाहिए। गतिमान रहना चाहिए, प्रवाहमान रहना चाहिए। ये प्यारी कहानियां हैं अगर चलती रहें, बढ़ती रहें। अगर रुक जाएं, अवरुद्ध हो जाएं तो गंदे नाले हो जाते हैं। इनसे फिर दुर्गंध उठने लगती है।
जिन्होंने इन कहानियों को रचा होगा, बड़ी कल्पना थी, बड़ा काव्य था! इनका धर्म इत्यादि से कोई संबंध नहीं। चूहे को गणेशजी का वाहन माना, इससे चूहे का कोई संबंध नहीं है। लेकिन किसी खास कारण से माना। गणेशजी बहुत तार्किक हैं, और चूहा जो है, कुतर-कुतर करता रहता है। और तर्क जो है, कुतर-कुतर करता रहता है। तो तर्क का प्रतीक है चूहा। गणेश जी तर्क पर सवार हैं। इस बात को बताने के लिए चूहे पर सवार बताया। नहीं तो चूहे की तो जान कब की निकल जाए! कहां गणेश जी को बिठाओगे चूहे पर? वह तो सिर्प तर्क का प्रतीक है। वह काटना ही जानता है। चूहा जोड़ना नहीं जानता। कटवाना हो जितना, कटवा लो, जोड़ने की कहो कि चूहे को छठी का दूध याद आजाएगा। जोड़ नहीं सकता।
शेख फरीद एक मस्त फकीर हुआ। सम्राट् अकबर उससे मिलने गया था। किसी ने सम्राट् अकबर को एक कैंची, सोने की, बड़ी कलात्मक, हीरे-जवाहरातों से मढ़ी भेंट की थी। जाते वक्त सोचा कि इसको ले चलूं, फरीद को भेंट कर आऊं। बहुमूल्य थी, अनूठी थी, बेजोड़ थी। ले गया, फरीद को चढ़ाई। फरीद ने कैंची देखी और कहा कि आए, लाए कुछ भेंट, धन्यवाद, मगर कैंची मेरे काम की नहीं है। तुम तो मुझे सुई-धागा भेज देना, कैंची तुम ले जाओ।
अकबर ने पूछा, सुई-धागा! मैं कुछ समझा नहीं। फरीद ने कहा कि बात यह है..काटना हमारा काम नहीं है, जोड़ना हमारा काम है। सुई-धागे से जोड़ेंगे, कैंची से तो काटना होता है। कैंची तुम्हारे काम की। काटना तुम्हारा धंधा, राजनीति! इसकी काटो, उसकी काटो। काटते ही रहो। और तुम दूसरों की काट रहे हो और दूसरे तुम्हारी काट रहे हैं। एक-दूसरे की काटने में लगे रहो। कैंची तुम्हारे काम की, भइय्या! मुझे सुई-धागा भेज देना। क्योंकि मेरा धंधा जोड़ने का है।
गणेश जी के संबंध में तुम्हें जानना चाहिए जैसी आजकल धारणा है, वैसी गणेश के संबंध में सद्भधारणा नहीं थी। धारणाएं भी कैसे-कैसे रूप ले लेती हैं और कैसे-कैसे अद्भभुत रूपांतरण हो जाते हैं। गणेश जी की धारणा शुरू-शुरू में यह थी कि वे उपद्रवी हैं। और कहीं भी जाकर हुड़दंग मचाना, उपद्रव करना, यह उनका काम है। विघ्नकारी हैं। वेदों में उनका स्मरण विघ्नकारी की तरह किया गया है। और चूंकि वह विघ्नकारी हैं, इसलिए किसी भी काम को प्रारंभ करने के पहले उनका स्मरण करना ठीक है ताकि वहां आकर गड़बड़ न करें। इस तरह धीरे-धीरे वे मंगल के प्रतीक हो गए। क्योंकि हमेशा शुरू उनसे करो! श्री गणेशाय नमः। वह इसीलिए कि भइय्या, तुम भर न आना। कि तुम कृपा करना। अब यह काम शुरू कर रहे हैं, आप न आजाना।
मैं बचपन से ही उपद्रवी था। तो उससे मुझे एक फायदा रहा कि जिस कक्षा में भी होता, उसका कैप्टन बना दिया जाता..फौरन। क्योंकि उसके सिवाय शिक्षक को कोई रास्ता न सूझता। और जब मैं ही कैप्टन हो जाऊं तो फिर उपद्रव कैसे करूं! फिर तो मुझे दूसरे उपद्रव करने वालों को रास्ते पर लगाना पड़े। जब मैं कई कक्षाओं में कैप्टन रह चुका तो हेड मास्टर ने मुझसे पूछा कि मामला क्या है? तुम हमेशा ही जिस कक्षा में जाते हो, वहीं कैप्टन? मैंने कहा, मामला यह है कि अगर मुझे कैप्टन न बनाया जाए तो मैं इतना उपद्रव करूं कि वह शिक्षक के वश के बाहर है। यह रिश्वत है।
यही हालत गणेश जी की है। वह थे उपद्रवी, फिर उनके लिए रिश्वत देने का एक उपाय खोजा गया कि इनको पहले ही स्मरण कर लो। हालांकि उनसे भी बड़े-बड़े देवता थे, मगर तुम खुद ही सोचो! बड़े-बड़े देवता पड़े थे, महादेव उनके पिता ही हैं। देव भी नहीं, महादेव! उनकी भी पहले कोई स्तुति नहीं करता। न राम की, न कृष्ण की। बड़े-बड़े अवतार, पूर्ण अवतार कृष्ण और कहां गणेश जी! हैसियत क्या है गणेश जी की? मगर उपद्रव! अब समझ लो कि बैठे-ठाले हाथी घुस जाए और उपद्रव करने लगे यहां! तो प्रार्थना करनी पड़े। इसलिए गणेश का रूप बदला। धीरे-धीेरे लोग भूल ही गए।
इस भवन को जब लिया, जिस महाराजा का यह भवन था, वह मुझे भवन में प्रवेश करवाने के लिए लाए। दरवाजे पर ही भवन के गणेशजी की मूर्ति लगी है..अभी भी लगी है। मैंने उनसे पूछा, यह मूर्ति किसलिए? तो उन्होंने कहा, गणेश जी शुभ के सूचक हैं। मैंने कहा, तुमको पता नहीं है। शुभ के सूचक नहीं हैं, इनको दरवाजे पर इसलिए लगाना पड़ता है कि देखो, हम तुम्हें मानने वाले हैं, हमको बचाना! और कहीं जाओ, पास-पड़ोस में जहां उपद्रव करना है करो। उन्होंने कहा, यह आप क्या करते हैं! हमने तो कभी ऐसा सोचा भी नहीं था। हम तो यही मान कर चलते थे कि गणेश जो हैं, वह शुभ के सूचक हैं। इसलिए एक कार्य के पहले उनका स्मरण करना चाहिए।
वह शुभ के सूचक नहीं हैं, वह उपद्रव के सूचक हैं।
मगर प्यारी कहानियां हैं। और इन कहानियों में जाओ तुम, शास्त्रीय ज्ञान की तरह नहीं, काव्य की तरह। जैसे कोई काव्य में प्रवेश करे, जैसे कोई साहित्य में प्रवेश करे। तो तुम्हें बड़े हीरे मिलेंगे। मगर अगर शास्त्र की तरह गए और धार्मिक की तरह गए और इनको मान कर गए कि ये कोई सत्य सिद्धांत हैं, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। ये उतने ही सत्य सिद्धांत हैं जितने उपन्यास, कहानियां। इनमें उनमें कुछ भेद नहीं।
एक मेरे मित्र हैं। शास्त्रों के ज्ञाता हैं; शास्त्र पढ़ते रहते हैं, निरंतर पढ़ते रहते हैं। उनको किसी ने बताया कि कृष्णमूर्ति जासूसी उपन्यास पढ़ते हैं। उनको बहुत धक्का लगा। कृष्णमूर्ति और जासूसी उपन्यास पढ़ें! वे मेरे पास आए भागे। उन्होंने कहा, कृष्णमूर्ति तो कहां हैं, पता नहीं, मगर आप यहां हैं, आप से मैं यह पूछना चाहता हूं, कृष्णमूर्ति जासूसी उपन्यास पढ़ते हैं? परम ज्ञानी को यह करना शोभा देता है?
मैंने कहा, तुम क्या समझते हो..तुम क्या पढ़ते हो? तुम पुराने ढंग के जासूसी उपन्यास पढ़ रहे हो, जिनको तुम पुराण कहते हो। वह जरा नये ढंग के पढ़ते हैं। वह आधुनिक हैं, बस और कुछ फर्क नहीं है। इससे धर्म-अधर्म का क्या संबंध है? और आधुनिक उपन्यास में तो थोड़ी वैज्ञानिकता भी होती है, जासूसी उपन्यास में भी थोड़ी वैज्ञानिकता होती है, लेकिन पुराने उपन्यास तो बिल्कुल अवैज्ञानिक हैं। मगर हैं वे पुराने उपन्यास। उपन्यास की तरह पढ़ो तो ठीक। तब फिर कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। तब हम प्रतीकों को समझने की कोशिश करते हैं और उनका आनंद लेते हैं। फिर न तुम हिंदू की तरह पढ़ते हो, न मुसलमान की तरह, न ईसाई की तरह। फिर ये कहानियां तुम्हें प्रीतिकर लगेंगी। फिर हनुमान और गणेश और ये सारे प्रतीक अर्थवान हो उठेंगे, इनके भीतर से काव्य के झरने फूटेंगे, इनके भीतर से तुम्हें अर्थ अनुभव में आएंगे।
मगर जड़ की तरह न पकड़ लेना, नगेंद्र! मगर इसी तरह तुमने पकड़ा होगा। तुमको बहुत चोट लगी होगी कि यह मैंने क्या किया, कि हनुमान जी का वाहन बता दिया! मगर मेरी बातों का, उस दिन की बातों का कोई ख्याल न लेना। सारा कसूर गुलाल का है। कहीं गुलाल मिलें, उनसे निपट लेना। उन्होंने फाग खेली, खूब होली मचाई। और मैं तो जब किसी पर बोलता हूं तो उसके साथ एकात्म हो जाता हूं। सो मैं भी भूल गया कि अभी होली नहीं है। किसी को भी बुरा लगा हो तो माफ करना! ख्याल रखना होली है, बुरा न मानो!
चैथा प्रश्नः ओशो, मैं अकेला रहने में असमर्थ हूं। बहुत चाहता हूं पर सफलता नहीं मिलती। किसी न किसी संबंध में बंध जाता हूं और दुःखी होता हूं। इस उपद्रव से कभी छुटकारा होगा या नहीं?
राजकुमार! अकेला रहने में समर्थ होना चैतन्य की अंतिम अवस्था है। समाधि की अवस्था है। तुम्हारे चाहने से ही तुम अकेले नहीं रह सकोगे! साधना करनी होगी। तुम चाहो कि ताजमहल बना लूं, तुम्हारे चाहने से ही नहीं बन जाएगा। ताजमहल बनाना बड़ी कला की बात है। तुम चाहो कि तुम्हारी बगिया में बड़े-बड़े फूल खिलें, कमल खिलें, मगर तुम्हें बागवानी सीखनी होगी। यह चाहने से ही नहीं हो जाएगा। यह कोई कल्पना की ही बात नहीं है। और ताजमहल तो कुछ भी नहीं, कमल के फूल तो कुछ भी नहीं, वह जो भीतर कमल का फूल है, वह जो भीतर ताजमहल है, वह जो समाधि की अंतिम अवस्था है, उसके लिए गहन साधना से गुजरना होगा।
चाहता तो कौन नहीं है कि अकेला रहे। लेकिन सभी की यह दुविधा है। अकेले रहो तो अकेलापन खलता है और किसी के साथ रहो तो उसके साथ रहने में झंझट होती है। न साथ रह सकते, न अकेले रह सकते..यही तो मुसीबत है; प्रत्येक की, कोई तुम्हारी ही नहीं, सभी की। किसी भी पति से पूछो, किसी पत्नी से पूछो। पति दुखी है, क्योंकि पत्नी मायके गई है। और पति दुखी है, क्योंकि पत्नी मायके से लौट आई है। इसको कहते हैं सांप-छछूंदर की जैसी गति हो जाना। न इधर के न उधर के। न यह कर पाते न वह कर पाते। जो करते हैं, उसी में मुसीबत होती है। अगर अकेले रहते हैं तो अकेलापन अखरता है, काटता है, अब क्या करें! खाली-खाली सब, उदासी पकड़ती है। पत्नी को लिवा लाए मायके से, क्योंकि उसकी याद आने लगी अकेले में, और वह आई कि उपद्रव शुरू हुए! कि झगड़ा-झांसा। कि हर चीज में दखलंदाजी। कि मन करने लगता है कि इससे तो अकेले ही अच्छे!
विवाहित लोग समझते हैं कि धन्यभागी हैं वे जो अविवाहित हैं; और अविवाहित समझते हैं कि वाह, मजा लूट रहे हैं वे जो विवाहित हैं! मगर दोनों को दूसरों का पता नहीं है एक-दूसरे का। दोनों दुःखी हैं। जो लोग संसार में रह रहे हैं वह समझ रहे हैं कि धन्य हैं वे लोग जो लोग हिमालय में चले गए हैं, गुफाओं में रह रहे हैं। जरा उनसे तो पूछो! वे बैठे-बैठे यही सोचा करते हैं कि हम कोई बुद्धूपन तो नहीं कर रहे हैं। संसार में लोग मजा ले रहे हैं। मजा ले रहे होंगे। छोटी-छोटी बात उनको वहां दिक्कत देगी। क्योंकि वहां उनके पास कुछ भी नहीं है, कोई भी नहीं है। अकेलापन काटेगा, घबड़ाएगा। अकेलेपन में वे शून्य होने लगेंगे, मौत-जैसी मालूम पड़ेगी, अंधेरा-अंधेरा दिखाई पड़ेगा। यहां व्यस्त तो रहते हैं, उलझे तो रहते हैं, काम में तो लगे रहते हैं। फुरसत किसे है अपने भीतर देखने की? फुरसत किसे है सोचने की? जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाने का समय कहां, अवसर कहां, अवकाश कहां? भागे-भागे, किसी तरह गिर पड़ते हैं बिस्तर पर। सुबह उठे, फिर भागे।
मगर एक दिन अकेले रह जाओ, पड़े हो बिस्तर पर, अब क्या करना। उठ आओ, कुछ नहीं सूझता। छुट्टी के दिन मालूम है लोग क्या-क्या नहीं करते हैं? कुछ भी करने लगते हैं। ठीक घड़ी, उसको खोल कर बैठ जाते हैं, ठीक कर रहे हैं, और ठीक कर रहे हैं। बिगाड़ कर रख देंगे। ठीक चलती कार को खोल कर बैठ जाएंगे। छुट्टी के दिन करें क्या? कुछ न कुछ खटर-पटर करेंगे।
मैं वर्षो तक यात्रा करता था; तो मुझे टेन में अक्सर यह हालत हो जाती थी कि डिब्बे में मैं हूं और एक दूसरा आदमी है और कोई भी नहीं। तो मैं दूसरे आदमी को देखता रहता बैठे-बैठे...और क्या करना! साक्षीभाव!! वह बातचीत भी करना चाहता तो मैं हां-हूं करके टाल जाता। बस, उतना ही उत्तर दे देता जितना जरूरी होता। बात आगे न बढ़ती। थोड़ी देर में वह समझ जाता कि यह आदमी बातचीत करने वाला है नहीं। यह करेगा नहीं बातचीत। और तब देखने लायक दशा होती। तो वह आदमी अपना सूटकेस खोलेगा..कोई काम नहीं है..सूटकेस खोलेगा, इधर-उधर उल्टाएगा, सामान जमाएगा, फिर बंद कर देगा। खिड़की खोलेगा, खिड़की बंद करेगा। अखबार उठा कर पढ़ने लगेगा। वही अखबार वह कई दफा पढ़ चुका है सुबह से। फिर रख देगा। फिर घंटी बजाएगा, नौकर को बुलाएगा कि चाय ले आओ। खटर-पटर, कुछ न कुछ वह करेगा।
कभी-कभी ऐसा होता कि चैबीस घंटे साथ। आखिर में उसको यह भी समझ में आजाता है कि यह दूसरा आदमी चुपचाप देख रहा है। तो और उसे घबड़ाहट होती।
एक सज्जन तो मुझसे बोले कि आप न होते तो अच्छा था। आप पता नहीं क्या सोच रहे होंगे? मगर मैं भी क्या करूं? मैं बैठ नहीं सकता, कुछ न कुछ करूंगा। लंबी यात्रा थी, जयपुर तक मेरे साथ थे। छत्तीस घंटे की यात्रा थी। तो उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा परेशानी आपसे हो रही है। तो मैंने कहा, भइय्या, मैं आंख बंद करके लेटा जाता हूं, और क्या करूं? मैं आंख बंद करके लेट रहा। उससे उन्हें और परेशानी हुई कि मेरी वजह से इनको नाहक आंख बंद करके लेटा रहना पड़ रहा है। आखिर मुझे हिलाया, मैंने कहा, भाई, मुझे गड़बड़ न करो! तुम अपना सूटकेस खोलो, अखबार पढ़ो, तुम्हें जो करना है करो; खिड़की खोलो। और मुझे जब देखना होता है तो मैं थोड़ा सा आंख खोल कर देख लेता हूं, मेरी फिक्र न करो! और तुम कोई पश्चात्ताप न करो, तुम्हारे कारण मैं कोई दुःख में नहीं हूं। मैं पूरे आनंद में पड़ा हूं, मैं तुम्हारा आनंद ले रहा हूं।
उस आदमी ने डिब्बा ही बदल लिया। वह पड़ोस के डिब्बे में चला गया। उसने कहा कि यहां रहना ठीक नहीं। मैंने भी यूं ही छोड़ नहीं दिया। उन्हीं के पीछे गया। मैंने कहा कि जाना कहां है? अरे, जब संग-साथ है तो रहेगा छत्तीस घंटे।
वह बोलने लगे कि आप भी आदमी कैसे हो? मैंने डिब्बा इसीलिए बदला कि आपको तकलीफ हो रही है। मैंने कहा, मुझे तकलीफ नहीं हो रही है, मुझे बड़ा आनंद आरहा है। तमाशा मुफ्त में मिल रहा है देखने को। नहीं तो पैसा देना पड़ता। कि बंबई कि नंगी धोबिन देखो! उसके भी दो पैसे लगते हैं। और तुम क्या-क्या खेल कर रहे हो!
अकेले में तो तकलीफ होगी, राजकुमार! क्योंकि अकेला होना एक कला है, एक साधना है। सीखनी पड़ेगी। आहिस्ता-आहिस्ता आएगी। ध्यान से शुरू करो। जल्दी शिखरों पर पहुंच जाने की चेष्टा न करो। कदम-कदम चढ़ो। साक्षी-भाव साधो। थोड़ी देर शांत बैठो, मौन बैठो, अपने को ही देखो, अपने ही मन को देखो। और एक ही दिन में यह हो जाने वाला नहीं है। वर्षो लग जाएंगे। लगते-लगते यह बात लगेगी; जगते-जगते यह बात जगेगी। जिस दिन यह बात जग जाएगी उस दिन तुम अकेले रहने में परिपूर्ण आनंदित हो जाओगे। तब अकेलेपन का अर्थ ही बदल जाता है। तब अकेलेपन में दूसरे की कमी नहीं खलती, तब अकेलेपन में अपने होने का आनंद आने लगता है। अभी तुम्हारा अकेलापन नकारात्मक है, तब विधायक होगा।
नकारात्मक अकेलेपन का अर्थ होता है: दूसरे की मौजूदगी अखर रही है कि नहीं है, खाली जगह मालूम हो रही है। कोई होता तो बात करते, चीत करते। कोई नहीं है, यह बात कांटे की तरह चुभ रही है। यह नकारात्मक अकेलापन है। विधायक अकेलापन है: अपने होने का आनंद। कि कोई भी नहीं है, सारा आकाश अपने लिए मिला है।
कोई जगह नहीं घेर रहा है, सारा आकाश अपने को फैलने के लिए मिला है। डोलो, मस्त होओ, आनंदित होओ। किसी की मौजूदगी की कोई बाधा नहीं रही है। दूसरे की मौजूदगी थोड़ी बाधा तो डालती ही है। तुम्हारी स्वतंत्रता में दूसरे की मौजूदगी थोड़ी-सी तो अड़चन डालती ही है। तुमने देखा होगा, बाथरूम में तुम स्नान करते हो, आईने के सामने खड़े होकर कभी-कभी मुंह भी बिचका लेते हो, क्योंकि तुम्हें पता है कोई नहीं देख रहा। उतनी स्वतंत्रता तुम्हें अनुभव होती है बाथरूम में। लेकिन अगर तुम्हें पता चल जाए कि तुम्हारी पत्नी झांक रही है चाबी के छेद में से, ...। क्योंकि पत्नियां भी बड़ी गजब की हैं! वे कहां-कहां से झांकें, कुछ कहा नहीं जा सकता! वह ताली का छेद भी दिखता है उन्हीं के लिए बनाया गया है। ...वह उसमें से देख रही है, तुम तत्काल सम्हल जाओगे। तुम हाईकोर्ट के जज और हनुमानजी जैसा मुंह बना रहे थे! कोई देखेगा तो क्या कहेगा! सम्हल गए।
अगर व्यक्ति को देखना हो उसकी असलियत में कि उसकी उम्र कितनी है, तो उसके बाथरूम में देखना चाहिए। तो उसकी उम्र का पता लगेगा..मानसिक उम्र का। एक आदमी ने मनोवैज्ञानिक को जाकर कहा कि अब बहुत हो गया, अब मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। कुछ आपको करना ही पड़ेगा। मेरी पत्नी बस बाथरूम में बैठ जाती है और रबर की बतकों को टब में तैराती है। आपको रुकावट डालनी ही पड़ेगी, अब कुछ उपाय करना पड़ेगा!
मनोवैज्ञानिक ने कहा, इसमें कोई खतरा तो नहीं है, और तो कोई नुकसान नहीं करती किसी का?
नहीं, और तो कोई नुकसान नहीं करती। बतकें तैराती है। तैराती ही रहती है घंटों, रबर की बतकें, बाथरूम में!
मनोवैज्ञानिक ने कहा, यह तो बिल्कुल निर्दोेष है मामला। तैराने दो, तुम्हारा क्या बिगड़ता है!
नसरुद्दीन ने कहा, मेरा क्या बिगड़ता है! अरे, मुझे तैराने का वक्त ही नहीं मिलता! जब देखा तब वही तैरा रही है। हम भी तैराना चाहते हैं।
यहां तुमको जो बूढ़े भी दिखाई पड़ते हैं, वे भी बूढ़े नहीं हैं। ऊपर से बूढ़े होंगे, भीतर से बिल्कुल बचकाने हैं। और बच्चे हमेशा दूसरों पर निर्भर रहते हैं। बच्चा तो परनिर्भर होता है। इसलिए तुम्हारे अकेलेपन में घबड़ाहट होती है, कि अब कोई दूसरा नहीं है, क्या होगा? कोई भी साथ हो। यहां तक भी कि अगर अंधेरी गली में से तुम गुजर रहे हो तो खुद ही सीटी बजाने लगते हो। खुद की ही सीटी सुन कर थोड़ी हिम्मत बढ़ती है। अब जानते हो खुद ही सीटी बजा रहे हैं, इससे क्या होने वाला है, मगर खुद भी सीटी बजा कर ऐसा लगता है कि ठीक, अकेले नहीं हैं! सीटी सुन रहे हैं अपनी ही, तो भी कम से कम ऐसा लगता है कि कुछ हो रहा है, बिल्कुल अकेले नहीं हैं, घबड़ाने की कोई बात नहीं है। सीटी बजाने से छाती थोड़ी फूलती है, थोड़ी हिम्मत आती है। बिना सीटी बजाए जरा गुजरने की कोशिश करो और तुम घबड़ा जाओगे। कुछ फर्क नहीं पड़ रहा है, सीटी बजाने से कोई तुम्हार सुरक्षा नहीं हो रही है, लेकिन एक भ्रांति पैदा होती है; भूल जाते हो कि अकेला हूं।
अभी तुम अकेले से भुलाने की कोशिश में लगे हो। तुम्हारी पत्नी भी भुलाना है, सीटी बजाना है। तुम्हारा पति भी सीटी बजाना है, तुम्हारे बच्चे भी। पति-पत्नी साथ रहते-रहते जब ऊब गए हैं, तो बच्चे चाहिए। वह और नई सीटी बजाना सीख रहे हैं। कहते हैं, हो गई, यह सीटी बहुत बज चुकी। अब कब तक पीं-पीं-पीं-पीं-पीं करते रहें! कोई नई सीटी लाओ। तो बच्चे पैदा कर लो।
तो फिर बच्चे उलझाव खड़ा कर देते हैं। वह इतना उपद्रव मचाते हैं कि उनमें उलझे रहो; फिर सुविधा ही नहीं रह जाती; कहां का एकांत, कहां का अकेलापन, बात ही भूल गई। फिर इनसे बचने के लिए होटल में बैठे रहो देर तक। कि घर जाते डर लगता है कि वहां सब तैयार होंगे वे लोग। तो क्लब ज्वाइन कर लो। कि रोटरी क्लब में सम्मिलित हो जाओ। रोटेरियन बन जाओ। और कुल, रोटेरियन बनो कि लायन बनो, कुछ फर्क नहीं, मामला इतना ही है कि पत्नी से कैसे बचना, कि बच्चों से कैसे बचना! और ये सीटियां तुम्हीं ने बजाई हैं। कोई तुमसे कह नहीं रहा था कि बजाओ। मगर अब बजा लिया, फंस गए। अब इनको बंद कैसे करें? ये सीटियां ऐसी नहीं हैं कि बजा लीं और बंद कर दीं। एक दफा तुमने बजाई तो फिर ये बजती चली जाती हैं। ये सदियों तक बजेंगी। सीटियों में से सीटियां निकलती आएंगी। इनकी एक श्रृंखला है। तुम तो चले जाओगे! उल्लू मर गए औलाद छोड़ गए! तुम्हारी औलाद गजब करेगी। दुनिया को कभी चैन से न रहने देगी।
तुम्हारी व्यस्ताएं क्या हैं? सिर्प भुलाए रखना है अपने को किसी तरह। मगर अभी तुम चाहो कि एकदम से अकेला रह जाऊं, तो न रह पाओगे। अकेलापन काटेगा, घबड़ाएगा। आदत बन गई है संग-साथ की। चाहे दुष्ट-संग ही क्यों न हो, मगर फिर भी संग-साथ तो है। कोई न हो साथ, इससे दुष्ट भी साथ हो तो चलता है। कम-से-कम अकेले तो नहीं हैं!
तो पहली दफे जब तुम अकेले रहोगे तो नकारात्मक होगा अकेलापन, दूसरे की याद खलेगी। और दूसरे में अच्छे-अच्छे गुण दिखाई पड़ेंगे जो कभी भी नहीं थे। पास रहो तो दिखाई ही नहीं पड़ते। दूर जाओ तभी दिखाई पड़ते हैं। बुराइयां सब भूल जाएंगी, अच्छाइयां याद आएंगी। कि अहह, कैसे-कैसे सुख दूसरे ने दिए थे। पास आते ही से सुख भूल जाएंगे और दुख याद आएंगे; कि ये बाई फिर चली आरही है! कि भैया फिर आ रहा है! यह देगा दुख!
एक विधायक अकेलापन है। वही ध्यान है। विधायक अकेलेपन की कला है। उस कला का नाम ही योग है।
धीरे-धीरे बैठो, चैबीस घंटे में एक घंटा बचा लो, एकदम से चैबीस घंटे अकेले होने की जरूरत नहीं, चैबीस घंटे में एक घंटा बचा लो, एक घंटे के लिए अकेले बैठ जाओ। टेलीफोन बंद कर दो, दरवाजा बंद कर दो, पत्नी से हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर लो कि एक घंटा मुझे दे दो..तेईस घंटे तेरे! बच्चों से हाथ जोड़ कर क्षमा मांग लो कि एक घंटा मुझे छोड़ दो, तेईस घंटा जो भी तुम्हें करना हो, जैसी घूंघर मूतनी हो, मूतना, मगर एक घंटा मुझे छोड़ दो! सबसे हाथ-पैर जोड़ कर एक घंटा बैठना शुरू करो। बैठे रहो, सिर्प शांत हो कर, अपनी श्वास को ही देखो, भीतर चलते विचारों को देखो; यह अकेलापन अखर रहा है, इसको भी देखो। धीरे-धीरे यह एक घंटे में विधायकता आ जाएगी। आहिस्ता-आहिस्ता तुम आनंदित होने लगोगे। तुम तेईस घंटे इसकी प्रतीक्षा करोगे कि कब वह घड़ी आए कि फिर एक घंटा शांति से बैठ जाएं।
फिर एक घंटे को दो घंटे कर लेना। फिर तीन घंटे कर लेना। फिर जितनी तुम्हारे पास सुविधा हो। और फिर धीरे-धीरे अलग से समय बांटने की कोई जरूरत नहीं। बाजार में भी रहना तो साक्षीभाव रखना। क्योंकि बाजार में भी हो तो तुम अकेले ही, भीड़ में भी हो तो तुम अकेले ही। यहां भी इतनी भीड़ है, मगर हर एक व्यक्ति अकेला बैठा हुआ है। कोई किसी एक-दूसरे के ऊपर थोड़े ही बैठा हुआ है। हरेक व्यक्ति अकेला है। पत्नी भी अकेली है, पति भी अकेला है, सब अकेले हैं। अकेले ही हम आते हैं, अकेले ही हम रहते हैं, अकेले ही हम जाते हैं, मगर बीच में हम भ्रांति खड़ी कर लेते हैं संग-साथ की।
धीरे-धीरे, राजकुमार, विधायक अकेलेपन को सीखो! आ जाएगा। अनेकों को आया है, कोई कारण नहीं तुम्हें क्यों न आए। यहां मेरे पास अनेकों को आरहा है। यहां रुको, कुछ देर यहां की मस्ती में डूबो, तल्लीन होओ। जिस दिन तुम्हारे जीवन में यह क्षण आजाए, जब तुम अकेले रह सको परम आनंदित, जानना अब तुम्हारा असली जन्म हुआ। तुम द्विज बने। तुम ब्राह्मण हुए। क्योंकि अब तुम्हारा ब्रह्म से संबंध हो सकता है। अकेला जो हो जाए, वही केवल ब्रह्म से संबंधित हो सकता है। एकांत में ही आता है, वह परमात्मा। जब तुम बिल्कुल शून्य होते हो, तभी वह आता है और तुम्हें भर देता है, सदा के लिए भर देता है।
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