27 अक्टूबर 1986 संध्या, सुमिला जुहू बंबई
फिर पत्तों की पाजेब बजी-प्रवचन-दूसरा
मैं केवल एक मित्र हूं आपके अमेरिका के अनुभव के बाद, अब आप शारीरिक और मानसिक रूप से कैसा अनुभव करते हैं? यह सवाल बड़ा जटिल है; हालांकि सरल दिखाई देता है। मनुष्य को तीन तलों पर विभाजित किया जा सकता हैः शारीरिक, मानसिक, आत्मिक। और एक और भी तल है, जिसे युगों-युगों से रहस्यदर्शियों ने कोई नाम नहीं दिया। भारत में उसको कहते हैं, ‘तुरीय’। अंग्रेजी में हम उसको ‘द फोर्थ’ कह सकते हैं। और मैं अपने मार्ग को तुरीय का, ‘द फोर्थ का मार्ग कह सकता हूं। मैं तुरीय हूं। तुम भी तुरीय हो। कोई जानता हो या न जानता हो, लेकिन तुरीय उसकी वास्तविकता है। वह हमारी चेतना है। वह अस्तित्व का परम विकास है। एक बार तुमने तुरीय को जान लिया, तो बाकी तीन तुमसे अलग हो जाते हैं। मैं देखता हूं कि मेरे शरीर को सताया जा रहा है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं सताया जा रहा हूं। मैं अपनी भूख देख सकता हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं भूखा हूं- शरीर भूखा है और मैं देख रहा हूं। ये बारह दिन मेरे लिए अत्यंत अर्थपूर्ण थे। मैं अमेरिका के फासिस्ट शासन के प्रति अनुगृहीत हूं कि उन्होंने मुझे यह अवसर दिया। उन्होंने हर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से मुझे उत्पीड़ित किया, सताया। उन्होंने मुझे चोट पहुंचाने की कोशिश की, लेकिन वे बड़े हैरान हुए। एक जेलर ने मुझसे पूछा, आपका राज क्या है? क्योंकि आपको ऐसे हालतों में रखा गया है, जो कि आपके शरीर के लिए बहुत कष्टप्रद है। आपको ऐसे लोगों के साथ रखा गया है, जो आपको रात भर सोने नहीं देते।सुबह छह बजे से लेकर रात के बारह बजे तक आपको दो-दो टेलीविजन सेटों पर बिठाया जाता है, जो बड़े जोर से चालू रहते हैं। और जब टेलीविजन सेट बंद हो जाएंगे तब कैदी इस कोठरी से उस कोठरी तक बातचीत करने लगेंगे। अब वहां पर बारह कोठरियां हैं। पहली कोठरी का आदमी बारहवीं कोठरी के आदमी से बात कर रहा है। स्वभावतः, उनको जोर से चिल्लाना पड़ता है। बारह दिन तक उन्होंने मुझे एक क्षण सोने नहीं दिया। लेकिन मेरे भीतर कोई तनाव नहीं था। इसीलिए उसने मुझसे पूछा कि क्या राज है? मैंने कहा, राज बड़ा सरल है। मैं जो भी घट रहा होता है, उसे सिर्फ देखता रहता हूं। मैं इस तरह नहीं सोचता कि तुम मेरे साथ यह कर रहे हो। मैं अलग हूं। जैसे तुम किसी और के साथ कर रहे हो और मैं देख रहा हूं। मैं क्यों चिंता लूं? तुम मुझे मार सकते हो लेकिन तुम मुझे विचलित नहीं कर सकते। तुम मुझे जहर दे सकते हो लेकिन मैं उसे वैसे ही पी जाऊंगा जैसे मैं एक गिलास रस पीता हूं। उससे मेरे भीतर कोई गड़बड़ कोई भय पैदा नहीं होगा। क्योंकि मैंने जान लिया है कि मेरी वास्तविकता अमृत है; उसे कोई नहीं मार सकता। इसका कोई राज नहीं है। और अगर तुम राज जानना चाहते हो, तो मेरे कम्यून में आओ और ध्यान सीखो। बारह दिनों में मेरा आठ पाउण्ड वजन कम हुआ। क्योंकि मैं जो भोजन मांगता, वे हमेशा कहते, वह उपलब्ध नहीं है। जो कि सच नहीं था। क्योंकि बाकी कैदियों ने मुझे बताया कि वह उपलब्ध था; उपलब्ध ही नहीं बल्कि हम आपको उपलब्ध करवा दें। मैंने फलों की मां की- फल नहीं हैं। और पंद्रह मिनटों के भीतर बाकी कैदी, सेब और अन्य फल ले आते। और वे कहते कि उन्हें यह सब मिलता है, तो फिर आपको क्यों नहीं मिलता?
शाकाहारी भोजन...उपलब्ध नहीं है। मैंने कहा, मैं कुछ विशेष चीज नहीं मांग रहा हूं- सिर्फ सब्जियों का सलाद, दही या दूध, ब्रेड और योगर्ट...मुश्किल है। हम एक आदमी के लिए व्यवस्था नहीं कर सकते। हमें चार सौ लोगों की देखभाल करनी पड़ती है। तो मैंने तो फिर तुम जिस चीज की भी व्यवस्था कर सको। और फिर मैं देखूंगा कि उसमें से मैं क्या खा सकता हूं। तो बारह दिन तक मैं करीब-करीब भूखा रहा; सिर्फ कभी-कभी पानी पीता रहा। उन कैदियों ने मुझे फलों का रस लाकर दिया। यह चमत्कार था। जेलर कहता है, वह नहीं ला सकता, और कैदी मेरे लिए रस की बोतलें ले आते थे। और इस घटना ने मुझे उन लोगों का बहुत अच्छा अनुभव हुआ, जिनको हम अपराधी कहते हैं। वे उन लोगों से कहीं अधिक मानवीय हैं, जो दुनिया भर की नौकरशाही में होते हैं। मैं टूथपेस्ट मांगूंगा, तो उसे लाने में दो दिन लग जाएंगे; और उस पर भी, यदि टूथपेस्ट आया तो टूथ ब्रश नहीं होगा।
मैं साबुन के लिए कहूंगा, और वह तब आएगा जब मैं दूसरे जेल के लिए रवाना हो रहा होऊंगा। लेकिन जैसे ही उन कैदियों को इसका पता चलता, वे अपने भोजन में से कुछ चीजें ले आते। वे कहते, यह बिल्कुल ताजा है, हमने इसका उपयोग नहीं किया है। आप देख सकते हैं कि यह बंद है। भगवान, आपने इसे स्वीकार किया तो हमें बहुत खुशी होगी। प्रत्येक कारागृह में मैंने देखा कि वहां के कैदी अधिक मानवीय, अधिक प्रेमपूर्ण थे। नौकरशाही के लोगों की अपेक्षा उनकी विकास की संभावना अधिक थी। नौकरशाही तो बिल्कुल कुरुप थी। और ऊपर ओढ़े हुए लोकतंत्र के मुखौटे के कारण, वह और भी कुरूप हो जाती है। अगर तुम ईमानदार हो, और तुम कहते हो कि तुम एक तानाशाही हो, तो मैं उसके बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। लेकिन लोकतांत्रिक होने का दिखावा करना, और फिर इस तरह के ढंग अपनाना... उदाहरण के लिए, उन्होंने मुझे ऐसी कोठरी में रखा, जिसमें हर्पीज जैसे संघतक रोग का मरीज रखा हुआ था। और छह महीने से उसकी कोठरी में किसी भी कैदी को नहीं रखा गया था।
डाक्टर उसकी इजाजत नहीं देते थे। और जब मुझे वह कोठरी दी गयी, तब वह डाक्टर मौजूद था, वह जेलर मौजूद था। अब मैं नहीं कह सकता, कौन अधिक मानवीय है- वह डाक्टर, जेलर या वह व्यक्त स्वयं। वह आदमी क्यूबा का था, इसलिए वह ज्यादा अंग्रेजी नहीं बोल पाता था। लेकिन उसने कागज के एक टुकड़े पर लिखा कि भगवान, वे आपको सता रहे हैं। मैं हर्पीज का प्रमाणित रोगी हूं। और उन्होंने इस आशा में आपको यहां रखा है कि आपको यहां रखा है कि आपको यहां रखने से आपको हर्पीज हो जाएगा। जहां तक संभव हो, मैं सब कुछ साफ-सुथरा रखने की कोशिश करूंगा। लेकिन अच्छा होगा कि आप इन कुत्तों को फिर से बुलाएं और उनसे कहें। मैंने जेलर को दुबारा बुलाया और उसे वह पर्चा दिखाया, और उससे कहा कि डाक्टर यहां मौजूद था; छह महीने से आपने यहां किसी को रखा नहीं है, और मैं कैदी भी नहीं हूं, मेरे ऊपर मुकदमा भी नहीं चला है। तुमने यहां मुझे बिना किसी मुकदमे के व्यर्थ ही कैद कर रखा है। और अब तुम मुझे इस आदमी के साथ रख रहे हो! तुमने क्या समझ रखा है, मैं यहां सदा रहूंगा? कल मैं बाहर जाऊंगा, और मैं इस बात का इंतजाम करूंगा कि पूरे विश्व प्रेस को इसकी जानकारी हो। तत्क्षण, बिना कुछ कहे...और मैंने उस डाक्टर से कहा- उसी डाक्टर से, तुम्हारे भीतर मनुष्य का हृदय नहीं है। यह मरीज तुमसे अधिक मानवीय है। इससे तो अच्छा होता कि उसके बजाय तुम हर्पीज के शिकार हो जाते। एक बहुत बड़े जेल में...मैं वहां आधी रात पहुंचा, और मुझे उन्होंने वहां एक फार्म भरने के लिए कहा, लेकिन मेरा नाम होगा, डेविड वाशिंगटन।
मैंने कहा, मेरा नाम डेविड वाशिंगटन क्यों हो? मेरा अपना नाम है...आर यह अमेरिकन मार्शल कह रहा है। और मैंने उस आदमी से कहा कि तुम इस देश के कानून लागू करने वाले अधिकारी हो। तुम्हारे कोट पर लिखा है ‘विधिशास्त्र’- कानून- न्याय विभाग।’ यह किस तरह का न्याय है? तुम मुझे झूठ बोलने के लिए कह रहे हो! उसने कहा, आप कुछ भी कहें, कोई भी दलील काम नहीं आएगी। या तो आप अपने हस्ताक्षर करें या इस लोहे की कड़ी बेंच पर बैठें। और हमें आपकी पीठ की हालत के बारे में पता है। रात भर इस कड़ी बेंच पर बैठना...नहीं तो हम एक कोठरी का इंतजाम कर देंगे, और फिर आप सो सकते हैं। लेकिन आपको हस्ताक्षर करने होंगे। मैंने कहा, मैं हस्ताक्षर करूंगा। लेकिन फार्म तुम्हें भरना होगा। क्योंकि मुझे तो डेविड वाशिंगटन का स्पेलिंग भी पता नहीं है। तुम फार्म भर दो। वह मेरी चाल समझ नहीं सका। उसका ख्याल यह था कि बाहर तख्ती पर मेरा कोई उल्लेख नहीं होगा। तो यदि वे मुझे मार भी दें, या मुझे कुछ हो जाए, तो यह खोजने का कोई उपाय नहीं होगा कि मैं कहां खो गया, मेरा क्या हुआ। क्योंकि मेरा नाम कारागृह में दर्ज ही नहीं किया गया था।
तो मैंने उसे डेविड वाशिंगटन, और अन्य सब जानकारी लिखने के लिए बाध्य किया। और मैंने हिंदी में अपना ही नाम लिख दिया। उसने मेरे हस्ताक्षर देखे, लेकिन वह समझ नहीं सका कि वह क्या था। और मैंने प्रेस से कहा कि आप जाकर देख सकते हैं। आप पूछ सकते हैं कि डेविड वाशिंगटन कौन था? और इन निशानों का क्या मतलब है। क्योंकि मेरे हस्ताक्षर पूरी दुनिया में विख्यात हैं। और पूछो कि यह कैसे हुआ? और आपने उनके साथ जबरदस्ती क्यों की? एक युवती, जिसकी रिहाई होने वाली थी, इस पूरे वार्तालाप को सुन रही थी। मैंने उस मार्शल से कहा, तुम मुझे ज्यादा देर तक नहीं रख सकोगे। वह युवती बाहर गई...क्योंकि जिस कारागृह में वे मुझे रखने के लिए ले जाते, वहां प्रेस पहुंच जाती, प्रसार माध्यम पहुंच जाता। और समाचार माध्यम ने मेरी अपरिसीम सहायता की। और पहली बार यह बात मेरी समझ में आयी कि किसी भी दूरदर्शन पर किसी भी रेडियो पर सरकारी नियंत्रण नहीं होना चाहिए, वह खतरनाक है। क्योंकि दूरदर्शन रेडियो, अखबार- इन सबने उस फासिस्ट नौकरशाही को बाध्य किया कि मुझे नुकसान न पहुंचाये। सुबह रेडियो पर यह पहली खबर थी कि मुझसे झूठे नाम से दस्तखत करवाये गये हैं। उन्होंने तत्क्षण वह कारागृह बदल दिया, क्योंकि तब वहां रहना खतरनाक था। अब डेविड वाशिंगटन वहां पर है।
अगर वे पूछते कि डेविड वाशिंगटन कहां है, तो वे पैदा नहीं कर सकते थे। और सब ओर यह खबर फैल गई थी कि डेविड वाशिंगटन के पीछे मैं हूं। सुबह तड़के मुझे दूसरी जेल ले जाया गया। यह क्रम बारह दिनों तक जारी रहा...पांच जेलों में। इसके पीछे क्या उद्देश्य था? उद्देश्य बिल्कुल सीधा साफ था। उद्देश्य यह था कि मुझे इस सीमा तक सताएं कि मेरे लोग भी... पांच हजार संन्यासियों से मिलकर एक संुदर कम्यून बनाया है- मानो एक स्वप्नलोक साकार हुआ था। और वे लोग उसे कम्यून से डरते थे। वह कम्यून राजनीतिकों की छाती में शूल जैसा चुभ रहा था। क्योंकि कम्यून में इतनी सारी बातें घट रहीं थीं, जो उनकी कल्पना के बाहर थीं; यह कैसे हो सकता है? न कोई गरीब था, न कोई अमीर था। और वहां कोई तानाशाही नहीं थी। कोई तुम पर जबरदस्ती नहीं कर रहा था कि तुम्हें तुम्हारी संपदा बांटनी है। मैंने एक छोटी सी तरकीब काम में लायी, और वह यह थीः कम्यून के भीतर पैसे का उपयोग न किया जाए। बाहर की दुनिया के साथ हम पैसे का उपयोग कर सकते हैं,, लेकिन कम्यून के भीतर पैसे का उपयोेग नहीं हो।
और इस छोटी-सी नीति से सारी गरीबी और सारी अमीरी खत्म हो गई। अगर पैसे का उपयोग नहीं होता, तो तुम लाखों के मालिक हो या तुम्हारे पास एक डालर भी नहीं है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और हर चीज कम्यून जुटाएगा। तो तुम्हें जिस चीज की भी जरूरत हो- तुम्हें सिर्फ मांगने की जरूरत है। पहली बार उन्होंने देखा कि साम्यवाद किसी तानाशाही के बगैर सफल हो सकता है। और उन्होंने यह भी देखा कि हमने मरुस्थल को मरूद्यान में बदल दिया है हमने पांच हजार लोगों के लिए पूरी तरह से वातानुकूलित मकान बनाए थे। हमने काम करने के लिए बाहर के किसी व्यक्ति को नहीं बुलाया। हमने स्वयं मेहनत की। हमने तालाब बनाये, जल प्रपात बनाये हम उसे एक मनभावन स्वर्ग में बदलना चाहते थे। हम पूरी तरह आत्मनिर्भर थे। हम अपनी आवश्यकतानुसार अनाज, सब्जियां फल दूध के उत्पादन स्वयं पैदा कर रहे थे। और वह जमीन पचास सालों से बंजर पड़ी हुई थी, उसे कोई खरीदने के तैयार नहीं था। तो चारों तरफ यह सवाल उठाया जा रहा था कि अगर ये लोग इस मरूद्यान को बदल सकते हैं, प्रसन्नता से रह सकते हैं, सुविधा में रह सकते हैं, कड़ी मेहनत कर सकते हैं, और फिर भी ध्यान कर सकते हैं...हम दिन की शुरुआत ध्यान से करते थे; उसके बाद काम, फिर पांच हजार लोग एक रेस्तरां में खाना खाते- एक रसोईघर, एक परिवार। तुम अनुमान नहीं कर सकते कि कौन गरीब है, कौन अमीर है।
क्योंकि सभी के पास एक जैसी चीजें हैं। संन्यासियों कि लिए हमारे पास पांच सौ कारें थीं, जिनका कोई भी उपयोग कर सकता था। पांच हवाई जहाज थे। सौ बसें थीं जो निरंतर दौड़ती रहती थीं। तुम्हें कहीं भी जाना हो, हर पांच मिनट बाद बस मिल जाती। वे डर गए और ईष्या से भर गए कि यह कम्यून उनके लिए उपद्रव खड़ा करने वाला है- कि तुम क्या कर रहे हो? अमेरिका में तीन करोड़ लोग गलियों कूचों में रह रहे हैं, जिनके पास रोटी, कपड़ा, मकान कुछ भी नहीं है। उनमें से दो सौ लोग हमारे यहां आये थे। वे हमारे साथ घुलमिल गए थे। और हमने पाया कि वे बड़े प्यारे लोग हैं। चार सालों में वहां कोई अपराध नहीं हुआ, कोई हत्या नहीं, कोई बलात्कार नहीं, कोई आत्महत्या नहीं, न कोई पागल हुआ। वह इतना स्वस्थ और... मैं तुम्हें अभी बताता हूं। कम्यून को विनष्ट करने का एकमात्र उपाय था- या तो वे मुझे खत्म कर डालें, या मुझे इतना सताएं कि मैं वह देश छोड़ दूं, या वे मुझे निर्वासित कर दें, ताकि मेरे लोग व्यथित हो जाएं। और वे व्यथित हुए! उन बारह दिनों में उनमें से कई लोग खाना नहीं खाते थे। इस सबके पीछे यही ख्याल थाः मुझे उत्पीड़ित करते रहना, जिससे कि कम्यून बिखर जाए। क्योंकि यद्यपि में कम्यून का सदस्य नहीं था, या कम्यून का कोई पदाधिकारी भी नहीं था, लेकिन मैं उनकी आत्मा था।
और तुम मुझे पूछ रहे हो, यह ख्याल मैंने क्यों छोड़ दिया? - इसलिए कि वही समस्याएं फिर से पैदा होंगी। क्या इसी कारण से आप पूना नहीं लौट रहे हैं? नहीं, पूना का आश्रम अभी भी कार्यरत हैं लेकिन उन्हीं समस्याओं के साथ। यदि मैं वहां जाऊंगा तो समस्याएं और बढ़ेंगी। अभी तो वे किसी भंाति चला रहे हैं, लेकिन मेरे वहां पहुंचने से वहां तत्क्षण समस्याएं कई गुना बढ़ जाएंगी। तो मैंने तय किया है कि जब तक मुझे कोई सरकार निमंत्रित नहीं करती, सहयोग नहीं देती, जमीन नहीं देती, तब तक मैं कम्यून शुरू करने वाला नहीं हूं। विश्व भर में मेरे कम्यून हैं। तो मैं कहीं भी रहूंगा। और वहीं से मेरे सभी कम्यूनों का मार्गदर्शन करूंगा। लेकिन मेरा किसी भी कम्यून में रहना उस कम्यून के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। पूरे संसार में रामकृष्ण मिशन फल-फूल रहा है, उन्हें किन्हीं समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता, फिर आपके ही कम्यून को, या मिशन को- जो भी उसका रूप हो- इतनी समस्याओं का सामना क्यों करना पड़ रहा है? बात सरल है। रामकृष्ण मिशन किसी धर्म के खिलाफ नहीं है, किसी राजनीति के खिलाफ नहीं है। मेरी स्थिति ठीक इससे उलटी है। मैं सभी संगठित धर्मों के खिलाफ हूं। क्योंकि मेरी दृष्टि में सत्य संगठित नहीं किया जा सकता। और जैसे ही तुम उसे संगठित करते हो, तुम उसकी हत्या कर देते हो। मैं उन सभी अंधविश्वासों के खिलाफ हूं, जो हजारों सालों में इकट्ठे हुए हैं। अब जैसे भारत में, मनुस्मृति पांच हजार साल पुरानी है, लेकिन अभी भी उसकी हिंदू मन पर पकड़ है। रामकृष्ण मिशन उसके खिलाफ एक भी शब्द नहीं कहता- मनु संहिता के खिलाफ। और मैं चाहता हूं कि मनु संहिता जला दी जाए क्योंकि उसके कारण भारत में इतने उपद्रव हो रहे हैं, कि इसकी तुलना और किसी भी किताब से नहीं की जा सकती। उसने वर्ण व्यवस्था पैदा की। उसने भारत के एक चैथाई अंश को अमानवीय हालत में डाल दिया है, लेकिन रामकृष्ण मिशन उसके विषय में कुछ नहीं कहेगा। लेकिन रामकृष्ण मिशन, रामकृष्ण परमहंस देव और स्वामी विवेकानंद्.. जरा एक मिनिट रुकना। इन दो नामों का एक साथ प्रयोग मत करो। क्योंकि मेरे लिए ये दो नाम बिल्कुल भिन्न हैं, ऐसे दो व्यक्तियों के हैं, जिनकी गुणवत्ता बिल्कुल ही भिन्न हैं। पहले रामकृष्ण मिशन।
रामकृष्ण मिशन की स्थापना रामकृष्ण परमहंस ने नहीं की, वह विवेकानंद की उपज है। तो एक बात- वह ज्ञानोपलब्ध मस्तिष्क की उपज नहीं है। विवेकानंद बड़े होशियार राजनीतिक हैं। अगर वे ईसाइयों के बीच बोलते हैं, तो वे क्राइस्ट की प्रशंसा करेंगे। उनमें किसी भी मुद्दे पर उनकी आलोचना करने की हिम्मत नहीं है। मैं वैसा नहीं कर सकता। यदि मैं देखता हूं कि कुछ गलत है, तो मुझे उसे कहना ही पड़ेगा। और कुछ अच्छाई दिखाई दी, तो मैं प्रशंसा करता हूं। लेकिन मैं आलोचना करने का हक भी रखता हूं। अगर वे बौद्धों के बीच बोल रहे हैं, तो वे बुद्ध और बौद्ध शास्त्रों के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे। तो उन्होंने रामकृष्ण मिशन को सब धर्मों के संश्लेषण की तरह शुरू किया। अब, मेरी दृष्टि में, सब धर्मों के संश्लेषण की धारणा ही, सब झूठों के संश्लेषण जैसी मालूम होती है- जो कि एक और भी बड़ा झूठ होगा। इतने धर्मों की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत है धार्मिकता की, एक खास गुणवत्ता की जो न हिन्दू है, न मुसलमान है, न ईसाई है। जब तुम सच्चे होते हो, तब तुम धार्मिक होते हो, जब तुम प्रेम-पूर्ण होते हो, तब तुम धार्मिक होते हो। जब तुम जीवन के प्रति सम्मान से भरे होते हो, तब तुम धार्मिक होते हो। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम हिंदू हो; इसका यह मतलब नहीं है कि तुम बौद्ध हो।
मैं चाहता हूं कि यह पूरा जगत धार्मिक हो जाए- लेकिन ईसाइयत, यहूदी धर्म, इस्लाम और हिंदू धर्म का संश्लेषण नहीं। और वह किस प्रकार का संश्लेषण होगा? तुम सिर्फ कल्पना करोगे, तो पाओगे कि वह बिल्कुल खिचड़ी हो जाएगी। मोहम्मद कहते हैं, चार पत्नियों की इजाजत है। अब तुम उनके साथ संश्लेषण कैसे करोगे, जो कहते हैं कि धार्मिक व्यक्त सिर्फ एक पत्नी रख सकता है? उससे ज्यादा हों तो वह पाप है। तो फिर संश्लेषण होगाः दो पत्नियां। इस बात से न मुसलमान सहमत होंगे, न गैर-मुसलमान सहमत होंगे। स्वयं मोहम्मद ने नौ औरतों से शादी की। स्वभावतः वे कोई साधारण आदमी नहीं है। साधारण आदमी चार औरतों से शादी कर रहे हैं, और असाधारण आदमी- ईश्वर के पैगम्बर को, नौ औरतों से शादी करनी ही पड़ेगी। तुम संश्लेषण कैसे करोगे? जैन सोचते हैं, जब तक कि तुम नग्न नहीं होते, और बिना किसी परिग्रह के नग्न नहीं रहते, तब तक तुम ज्ञान को उपलब्ध नहीं होओगे,। अब जैनों के अनुसार, गौतम बुद्ध भी ज्ञानी नहीं हैं क्योंकि वे कपड़े पहनते हैं। तुम इन लोगों का संश्लेषण किस तरह करोगे? यदि तुम जैनों, बौद्धों और हिंदुओं से पूछो कि जीसस क्राइस्ट की सूली मनुष्यता की मुक्ति के लिए हुई थी; मनुष्यता को बचाने के लिए यह बड़े से बड़ा बलिदान था, जो परमात्मा ने दियाः अपना खुद का बेटा दिया। तो वे तीनों हंसेंगे। वे कहेंगे, यह निपट मूढ़ता है। परमात्मा, को कि सर्वशक्तिमान है, पूरे विश्व को बना सकता है, वह उसे किसी भी क्षण बदल सकता है- किसी बलिदान के बिना, किसी सूली के बिना...इस तरह के किसी भी नाटक के बिना। दूसरी बात, वे जीसस को ज्ञानोपलब्ध नहीं मान सकते क्योंकि उनको सूली पर चढ़ाया जा रहा है। हिंदुओं, जैनों और बौद्धों के अनुसार- जो भी धर्म भारत में पैदा हुए हैं- जो भी ज्ञान का उपलब्ध हुआ है, उसे सूली नहीं दी जा सकती। अस्तित्व इतना निर्दय नहीं है।
निश्चय ही, भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वे सही हैं। मैं केवल इतना ही कह रहा हूं कि तुम इन सब लोगों के बीच समझौता कैसे करोगे? वह एक बाजार होगा- हर मुद्दे पर, हर कोई हर किसी के साथ असहमत हो रहा है। मुसलमान कहते हैं, अल्लाह ने जानवरों को इसलिए पैदा किया कि मनुष्य उनको खा सके। इस पर बहस हो ही नहीं सकती; क्योंकि यह ईश्वर की किताब में लिखा है। और ईश्वर की किताब पर संदेह नहीं उठाया जा सकता। अमेरिका का एक जेलर- एक बहुत सुशिक्षित आदमी- मुझे बाइबिल देने आया। यह देखकर कि मैं दिन भर आंख बंद करके बैठा रहता हूं, कुछ करता नहीं, उसने सोचा होगा कि इस आदमी को परिवर्तित करने का यह अच्छा अवसर है। इसलिए उसने मुझे बाइबल दी। वह बोला ‘यह ईश्वर की किताब है।’ मैंने कहा, ‘अगर यह ईश्वर की किताब है तो निश्चित ही, मैं इसे सम्मानपूर्वक रखूंगा। लेकिन तुम्हें कैसे पता चला? ईश्वर ने तुम्हें कब बताया? ’ उसने कहा, ‘ईश्वर ने मुझे नहीं बताया, वह तो किताब में लिखा है। मैंने कहा, ‘तुम पढ़े लिखे हो, बुद्धिमान हो। मैं भी एक किताब लिख सकता हूं और उसमें लिख सकता हूंः ये ईश्वर के शब्द हैं। क्या तुम उस किताब पर भरोसा करोगे कि वे ईश्वर के शब्द हैं? ’ उसने कहाः ‘नहीं’। ‘लेकिन फिर तुम जीसस के शब्दों में क्यों विश्वास करते हो?
तुम्हारी दृष्टि में, मेरे शब्दों में और जीसस के शब्दों में भेद क्या है? और अगर यह ईश्वर की किताब है, तो कुरान के संबंध में क्या? वही दावा...। गीता के संबंध में क्या? वही दावा...।’ तो रामकृष्ण मिशन एक राजनीतिक आंदोलन है, जो हर किसी से अच्छा व्यवहार करना चाहता है। इसलिए हर कोई अच्छा है, हर कोई भला है, और किन्हीं विवादास्पद मामलों को बीच में मत लाओ। सिर्फ उन्हीं बातों की तुलना करो, जिनकी बिना किसी विवाद के तुलना हो सकती है। इसलिए उनका विरोध नहीं होता। मेरी स्थिति बिल्कुल उल्टी है। मैं नहीं विश्वास करता कि कोई भी संगठित धर्म बचाने योग्य है। वे अति प्राचीन हैं, अत्याधिक सड़े-गले हैं और अत्यंत गंदे हैं। और जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनसे और भी सड़ांध आने लगी है। जगत में एक सर्वथा नवीन धार्मिक चेतना की जरूरत है, जिस पर कोई लेबल नहीं होगा, हिंदू, मुसलमान, ईसाई। और यही मेरा प्रयास है। मेरे लोग न हिंदू हैं, न मुसलमान हैं, न ईसाई हैं, न यहूदी हैं। वे सिर्फ व्यक्त हैं, मनुष्य हैं। स्वभावतः प्रत्येक धर्म मेरे खिलाफ हैं; क्योंकि मेरे उनके यहूदी छीन लिए, मैंने उनके हिंदू छीन लिए, मैंने उनके ईसाई छीन लिए। और प्रत्येक धर्म को मुझसे खतरा है। हैरान कर देनेवाली बात है, वे किसी मुद्दे पर राजी नहीं होते, वे सिर्फ एक बिंदु पर सहमत होते हैं, और वह है- मैं! वे इस बात से सहमत हैं कि मैं गलत हूं। अन्य किसी बात पर वे राजी नहीं होते। और कोई तर्क करने को तैयार नहीं हैं। मैं उन्हें खुले रूप से चुनौती दे रहा हूंः मेरे सामने आओ? और मैं तुम्हें अपने लोगों के बीच नहीं बुला रहा हूं, मैं तुम्हारी सभा में आऊंगा। और एक-एक मुद्दे पर मैं तुम्हारे साथ तर्क करने को तैयार हूं- कैसे तुम झूठे हो, और किस तरह तुम एक थोथी धार्मिकता पैदा कर रहे हो, जो किसी की सहायता नहीं करती। उल्टे वह सिर्फ युद्ध और रक्तपात करवाती है। पांच हजार वर्षों में कितने युद्ध लड़े गए? -
जिहादः धार्मिक युद्ध। और वे सिर्फ एक-दूसरे की हत्या करते रहे हैं, और कुछ नहीं कर रहे हैं। तो मेरी स्थिति रामकृष्ण मिशन से बिल्कुल भिन्न है। और रामकृष्ण और विवेकानंद के संबंध में भी मेरा दृष्टिकोण भिन्न है। रामकृष्ण बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, लेकिन अशिक्षित थे, बोलने में कुशल नहीं थे अति सरल-ग्रामीण थे। वे धर्म का निर्माण नहीं कर सके। उन्हें धर्म का अनुभव तो था, लेकिन वे उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते थे। यह एक मुश्किल है। ऐसे लोग हैं, जो उन बातों को अभिव्यक्त कर सकते हैं, जिनका उन्हें कोई अनुभव नहीं है; और ऐसे भी लोग भी हैं, जिन्हें अनुभव तो हुआ है लेकिन वे उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते। यह जरूरी नहीं है कि तुम सूर्यास्त को देखो, और उसका उसी भंाति चित्र बना सको, जैसे पिकासो बनाता है। और यह संभव है, पिकासो बिना उसे देखे उसे बना सकता है; और तुमने देखा हो लेकिन तुम उसका चित्र न बना सको। ये दो अलग गुण हैं। और इसी से समस्या पैदा होती है। रामकृष्ण जानते थे कि विवेकानंद का अपना कोई अनुभव नहीं है। लेकिन वे उस आंदोलन के नेता बन गए। तो एक अंधा आदमी, जो बोलने में कुशल था, दूसरे अंधों का नेता बन गया। रामकृष्ण उसके बाहर छूट गए; उनका नाम भर उसमें रह गया। न तो उसका अनुभव उसमें है, न उस अनुभव की विधियां।
मैं रामकृष्ण मिशन के अनेक लोगों से मिला हूं, वे रामकृष्ण को जरा भी नहीं समझते। वे उतना ही जानते हैं, जितना विवेकानंद ने कहा है। रामकृष्ण ने कभी एक भी किताब नहीं लिखी, कभी प्रवचन नहीं दिए। वे तो बस बैठे रहते, साधारण ढंग से बातचीत करते रहते। उनके संबंध में आपके क्या विचार हैं? वे महान व्यक्ति थे। रामकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जिन पर गर्व किया जा सकता था, लेकिन विवेकानंद तीसरे दर्जे के व्यक्ति थे। लेकिन विवेकानंद महा-पुरोहित बन गए हैं। और उन्होंने ही पूर आंदोलन निर्मित किया। सब किताबें और सारा साहित्य विवेकानंद और उनके अनुयायियों ने निर्मित किया है। उसे रामकृष्ण मिशन कहने की बजाय विवेकानंद मिशन कहना ठीक होगा। समय की इस लंबी धारा में जो बुद्धपुरुष हुए हैं, उनमें क्या आपको सिर्फ रामकृष्ण परमहंस देव पढ़ने योग्य लगते हैं? नहीं, बहुत-से हैं। गौतम बुद्ध हैं, महावीर हैं, चीन में लाओत्सु, च्वांगत्सु हैं, जापान में बासो है, भारत में नार्गाजुन हैं, भारत में वसुबंधु हैं। बुद्धत्व सिर्फ पूरब में घटा है क्योंकि पूरी पूर्वीय चेतना परम-सत्य खोज रही है। जैसे पूरी पश्चिमी चेतना वुस्तुनिष्ठ सत्य को खोज रही है।
तो विज्ञान ने पश्चिम में शिखर छू लिया है, और धर्म ने पूरब में शिखर छू लिया है। तो ऐसे अनेक लोग हुए हैं- सैकड़ों। तिब्बत में कई लोग हुए हैंः मिलारेपा, मारपा, नरोपा। भारत में- हजारों। उसी समय, आप कह रहे थे कि गौतम बुद्ध ज्ञानोपलब्ध व्यक्ति थे। मेरा मतलब यह है कि कभी-कभी आप बौद्ध धर्म की निंदा करते हैं, जैसे महावीर और इस तरह की बातें...। आप कैसे...? हां, मैं समझा। गौतम बुद्ध ज्ञानोपलब्ध हैं। यह एक व्यक्तिगत अनुभव है, और उसे किसी भंाति संगठित नहीं किया जा सकता। तुम बौद्ध धर्म निर्मित नहीं कर सकते। बौद्ध धर्म यानी बुद्ध के अनुयायी। बुद्ध का अनुसरण कोई नहीं कर सकता। बुद्धपुरुष आकाश में उड़ने वाला पक्षी की तरह होता है; वह अपने पदचिन्ह नहीं छोड़ता। इसलिए तुम उसका अनुसरण नहीं कर सकते। बुद्धपुरुषें के साथ एक ही बात संभव हैः तुम बुद्धपुरुष के साथ बैठ सकते हो, उन्मुख, उपलब्ध मौन। एक विशेष प्रकार की ऊर्जा उस व्यक्ति से निःसृत होती है; वह तुम्हें प्रदीप्त करती है, तुम्हें प्र वलित कर सकती है। यदि वह बोलने में कुशल है, तो शब्दों के द्वारा उसमें थोड़ा सहयोग करेगा। अगर वह कवि है, तो वह अपनी कविता द्वारा...या फिर चित्रों के द्वारा सहायता कर सकता है। लेकिन जैसे ही बुद्धपुरुष मर जाता है, तो जो लोग धर्म निर्मित करते हैं, वे बिल्कुल ही भिन्न कोटि के लोग होते हैं। वे लोग विवेकानंद जैसे होते हैं- विद्वान पंडित, ज्ञानी लोग। बुद्ध के जीवन में वस्तुतः ऐसा घटा। जब तक वे जीवित थे तब तक कुछ भी नहीं लिखा गया। वे बयालीस साल तक, सुबह शाम प्रवचन देते रहे।
उनके सामने ही कई लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। जब उनका निर्वाण हुआ तब उनके सभी शिष्यों की एक परिषद बुलायी गयी। इसलिए कि उन्होंने जो भी कहा है उसे हम शब्दांकित कर लें, ताकि आनेवाली पीढ़ियां उसका लाभ उठा सकें। जो लोग बुद्ध हो गए थे, वे खामोश रहे। उन्होंने कहा, उनकी उपस्थिति में हमने जो अनुभव किया है उसे अभिव्यकत नहीं किया जा सकता; उसे लिखा नहीं जा सकता; हम इस मामले में सहभागी नहीं हो सकते। हमें इसके बाहर छोड़ दो। केवल एक व्यक्ति- आनंद, जो बयालीस सालों तक निरंतर बुद्ध के साथ रहा, उनकी देखभाल करता रहा, उसने उनके प्रवचन सुने, उपदेश सुने, उनकी भेंटवार्ता सुनी; उससे पूछा गया, लेकिन वह रोने लगा। वह बोला, ‘मुझे पता है कि उन्होंने क्या कहा लेकिन मुझे ज्ञान नहीं है, क्योंकि मुझे कोई अनुभव नहीं है। उन्होंने जो कहा है उसे मैं तोते की तरह दोहरा सकता हूं। लेकिन तुम मेरे शब्दों का भरोसा मत करो क्योंकि मैं अज्ञानी हूं। इन बयालीस सालों में, निश्चित ही मैं बहुत कुछ भूल गया हूं; बहुत कुछ मैं अपनी ओर से भी मिलाऊंगा। और मैं नहीं जानता क्या सही है और क्या गलत, क्योंकि मुझे अपना खुद का कोई अनुभव नहीं है।’ लेकिन अंततः आनंद पर भरोसा करना ही पड़ा; क्योंकि वही अकेला व्यक्ति था, जो लिखने को तैयार था। और अब जो बौद्ध शास्त्र हैं, उनका उदगम आनंद है, जो रो-रोकर कह रहा था कि मेरा अनुभव कुछ भी नहीं है। मैं तो बस एक दोहराने वाला यंत्र हूं। तो मैं संगठित धर्मों के खिलाफ हूं; इसलिए, क्योंकि वह लोग को अपने बल पर सत्य की खोज करने से रोकता है। वह उन्हें यह ख्याल देता है कि तुम विश्वास करो, और तुम पहुंच जाओगे; कि यह रहा दर्शन, उसके सहारे जीयो- और तुम सही मार्ग पर हो। लेकिन क्या गारंटी है? मैं तुम्हें एक विधि सिखाता हूं, दर्शन नहीं।
मैं तुम्हें एक खास वैज्ञानिक दृष्टिकोण देता हूं, ताकि तुम अपने केंद्र पर पहुंच सको। अगर तुम पहुंच जाओ, अच्छा है। अगर नहीं पहुंचते तो कोई और विधि आजमाओ। लेकिन मैं तुम्हें विश्वास नहीं देता। तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते क्योंकि मैं तुमसे वफादारी या विश्वास का सवाल नहीं है। यह एक गहरी मित्रता का और प्रेम का सवाल है। यदि मैं तुमसे प्रेम करता हूं, तो मैं तुम्हें वह विधि बताऊंगा, जिससे मुझे रोशनी मिली है- शायद वह तुम्हारे अनुकूल हो जाए। मैं कहूंगा कि महावीर का नाम महान बुद्धपुरुषें में गिना जा सकता है। क्योंकि वे अपना हर वाक्य ‘स्यात’ (शायद) से शुरू करते थे। यह बात विरल है। उनके विद्यार्थियों और शिष्यों ने भी उनसे पूछा कि आप अपना वाक्य हमेशा ‘स्यात’ से क्यों शुरू करते हैं? उन्होंने कहा, जो मुझे घटा है, जरूरी नहीं कि तुम्हें भी घटे। मैं तुम्हें धोखा देना या तुम्हारे साथ छल करन नहीं चाहता। यदि वह तुम्हें नहीं घटता तो तुम स्मरण रखोगे कि मैंने कहा था, ‘स्यात’। यदि वह घटा, तो अच्छा ही है। और अगर नहीं घटा, तो पहले ही तुम्हें धोखे में नहीं रखा गया है।
और सभी धर्म विश्वास में विश्वास करते हैं; और मेरा पूरा दृष्टिकोण हैः विश्वास न करना, श्रद्धा नहीं रखनी, बल्कि खोजना। सच्चे खोजी की आधारशिला विश्वास नहीं होनी चाहिए; संदेह उसकी आधारशिला होनी चाहिए। जैसे संदेह सब वैज्ञानिक अनुसंधान की नींव होती है, वैसे ही संदेह संपूर्ण आंतरिक यात्रा की भी नींव होनी चाहिए। मेरी दृष्टि में, विज्ञान और धर्म दो पंख हैं; लेकिन दोनों का आधार है, संदेह। एक बाहर वस्तुनिष्ठ जगत की ओर ले जाता है, दूसरा भीतर आत्मनिष्ठ जगत में प्रवेश करवाता है। देर-अबेर, इससे बेहतर और अधिक परिष्कृत जगत में, धर्म नहीं होंगे, केवल धर्म होगा- अंतर्मुखी संदेह। और विज्ञान होगा- बहिर्मुखी संदेह। क्या इसलिए आप वादों (इ म) के खिलाफ हैं? मैं सभी वादों (इ म) के नितांत खिलाफ हूं। एक छोटे से वाक्य में बताएंः आपने रामकृष्ण मिशन को राजनीतिक क्यों कहा? मैं उन्हें राजनीतिक कहता हूं, इसका सीधा कारण यह है कि वह धार्मिक नहीं है- एक बात। और यह राजनीति है... मेरे पास भी, हर रोज लोगों की सलाहें आती हैं- शुभाकांक्षी लोग हैं- कि अगर मैं ईसाइयों के सामने बोल रहा हूं, तो जीसस के विरोध में कुछ न बोलूं। लोगों को क्यों नाराज करना? और इसको मैं राजनीतिक षड़यंत्र कहता हूं। मुझे जो बोलने जैसा लगता है वही बोलना चाहिए। मेरी नजर इस पर नहीं होनी चाहिए, कि कौन सुन रहा है, और उसकी क्या राय होगी। तो उसका उद्देश्य क्या है? इन मिशनों का लक्ष्य क्या है?
ये मिशन उसी तर शोषण कर रहे हैं, जिस तरह बाकी धर्म शोषण कर रहे हैं। स्त्रियों के प्रति आपका दृष्टिकोण क्या है? स्त्रियों के प्रति समाज का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? ईश्वर क्या है और ईश्वर को पाने का वास्तविक अर्थ क्या है? पहले तो हम ईश्वर का मामला सुलझा लें। ईश्वर है ही नहीं, इसलिए उसे पाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यदि कोई कहे कि उसने ईश्वर पाया है तो यह जान लो कि जरूर उसके दिमाग में कुछ गड़बड़ है। स्त्री ईश्वर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मामला है। स्त्री हर तरह से पुरुष से समानता रखती है। कई बातों में तो वह उससे थोड़ी श्रेष्ठ भी है। और यह श्रेष्ठता ही बेचारी स्त्री के लिए समस्या बन गई है। उदाहरण के लिए, पुरुष हीनता अनुभव करता है कि वह बच्चों को जन्म नहीं दे सकता। स्त्री वह कर सकती है। उसमें पुरुष का योगदान बिल्कुल नगण्य है। एक सीरिन्ज वह काम कर सकती है। प्रजनन के लिए पुुरुष किसी भी तरह से आवश्यक नहीं है। और यह भाव कि स्त्री जीवन का निर्माण कर सकती है, इसके कारण पुरुष के भीतर गहन हीनता पैदा होती होगी। और जब भी किसी में हीनता का भाव होता है, तो उसकी पूरी चेष्टा यही होगी कि दूसरे को नीचा दिखा दे, ताकि स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर सके। और सदियों-सदियों से यही किया गया है।
स्त्रियों को हर तरह से कनिष्ठ रहने को मजबूर क्यों किया गया है? - कोई शिक्षा नहीं, कोई धार्मिक शिक्षा नहीं, कोई समाज में घूमने फिरने की आजादी नहीं- हर तरह से कुण्ठित, अवरुद्ध कैद। इसका कारण है, पुरुष का भय। लेकिन अगर तुम्हारा आचरण भय से निकलता है, और तुम स्त्री की स्वतंत्रता नष्ट करते हो, तो वह प्रतिक्रिया करने ही वाली है। और स्वभातः वह कर्कशा हो गई है। इसने सब स्त्रियों को कर्कशा बना दिया है। वे सब तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं। वह सताने का उनका ढंग है। तुुमने उनकी स्वतंत्रता छीन ली, अब बदले में वे तुम्हें जितना संभव है उतना उद्विग्न और विषद-ग्रस्त बनती हैं। तो पूरी मनुष्यता व्यर्थ संताप में जी रही है। पहली बातः स्त्री को पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। उन्हें वे सब अवसर मिलने चाहिए, जो पुरुषों को मिलते हैं। और इसे स्वीकार करना चाहिए कि उसके भीतर कुछ श्रेष्ठताएं हैं। उदाहरण के लिए, अगर एक सौ दस लड़के पैदा होते हैं, तो सौ लड़कियां पैदा होती हैं। क्योंकि इसके पहले कि उनकी उम्र विवाह योग्य हो जाए, दस लड़के मर जाते हैं। लेकिन वे सौ लड़कियां बनी रहती हैं। लड़कों में बीमारी के प्रति प्रतिरोध कम होता है। और संतुलन बनाये रखने के लिए प्रकृति ज्यादा लड़के पैदा करती है और कम लड़कियां पैदा करती है।
क्योंकि विवाह के समय तब उनकी संख्या समान हो जाती है। अब इसे स्वीकार करने में कोई नुकसान नहीं है कि यह एक तथ्य है। इसमें अपने को हीन मानने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। स्त्री पुरुष से ज्यादा जीती है- पांच साल ज्यादा। अगर पुुरुष पचहत्तर साल की उम्र में मरता है, तो स्त्री अस्सी साल में मरेगी। अब यह एक साधारण तथ्य है। तुम उसके लिए कुछ नहीं कर सकते। और उसके कारण अपने को हीन मानने की भी कोई जरूरत नहीं है। पुरुष की अपेक्षा स्त्री की पागल होने की संभावना कम है। पुरुषों की पागल होने की संख्या स्त्रियों से दोगुनी है। आत्महत्या करनेवालों में भी पुरुषों की संख्या स्त्रियों से दोगुनी है। तथ्य जैसा हैं वैसे ही हमें स्वीकार करने चाहिए, और उनके कारण खोजने की कोशिश करनी चाहिए। और उनका दमन करने की बजाय उनके संबंध में क्या किया जाए यह खोजने की कोशिश करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, ऐसे कुछ हार्मोन हो सकते हैं, जो स्त्रियों को दीर्घयु बनाते हैं, वे हार्मोन पुरुषों के भीतर डाले जा सकते हैं। ऐसे कुछ हार्मोन हो सकते हैं, जो स्त्रियों को बीमारियों के प्रति अधिक प्रतिरोधक शक्ति देते हैं; उन्हें पुरुषों के भीतर डाला जा सकता है।
ऐसे कुछ हार्मोन हो सकते हैं, जो स्त्रियों को कम पागल बनते हैं...वे बहुत बोलती रहती हैं कि पागल हो जाऊंगी- लेकिन होती नहीं हैं। वे आत्महत्या करने की घोषणा अधिक करती हैं, वस्तुतः करती नहीं। तो वे हार्मोन पुरुष को दिये जा सकते हैं। सच पूछो, तो अपने को निकृष्ट समझने की कोई जरूरत ही नहीं है। पुरुष और स्त्री भिन्न हैं बस। और अगर भेद ऐसे हैं, जिनके संबंध में कुछ किया जा सकता है, तो एक दूसरे को सहायता करना अच्छा होगा। और कुछ ऐसे गुण हैं, जो खास पुरुषों के हैं। उसका शरीर हुष्ट-पुष्ट होता है। उसके पास स्त्री से अधिक पाशविक ताकत होती है। वह स्त्री से अधिक विस्तार से सोच सकता है। स्त्री की उत्सुकता पास-पड़ोस में अधिक होती है- किसकी पत्नी किसके ऊपर डोरे डाल रही है...सुदूर आकाश में चमकते हुए सितारों की बजाए इन बातों में उसकी उत्सुकता अधिक होती है। किसे फिक्र है कि सितारों में क्या घट रहा है! जो घटता है, घटे। यहां किसी की पत्नी भाग रही है! उसके सोच-विचार का दायरा बड़ा संकीर्ण होता है। पुरुष का दायरा विशाल होता है।
वे दोनों एक दूसरे के परिपूरक हो सकते हैं; क्योंकि दोनों की जरूरत है। ऐसा हुआ, एक विख्यात वैज्ञानिक, आर्किमिडीज, जो कि एक ज्योतिर्विद भी था, एक रात- एक निरभ्र रात, सितारों का निरीक्षण करते हुए रास्ते पर चला जा रहा था। चलते-चलते वह एक कुंए में गिर पड़ा। सुनसान रास्ता था, सिर्फ एक छोटी-सी झोंपड़ी...एक बुढ़िया ने उसे बाहर निकाला। आर्किमिडीज उस बुढ़िया से बोला, ‘तुझे पता नहीं है मैं कौन हूं। मैं एक महान ज्योतिर्विद हूं, एक बड़ा वैज्ञानिक हूं। पूरे यूरोप से कितने ही सम्राट मुझसे सीखने-समझने आते हैं। लेकिन जहां तक तेरा संबंध है, तूने मेरी जान बचायी है; तू कल मेरे घर आ सकती है। मैं तेरी कुंडली देखूंगा और तेरे भविष्य के संबंध में बताऊंगा। वह स्त्री हंसी। उसने कहा, ‘रहने दो। तुम एक फीट आगे कुंआ है यह नहीं देख सकते, तुम भविष्य में क्या देखोगे। लेकिन दोनों परिपूरक हैं। ऐसे व्यक्ति की जरूरत है, जो सितारों का निरीक्षण करे- कुएं में गिरने का खतरा हो, तब भी! लेकिन कोई ऐसा भी हो, जो कुएं को ख्याल रखे; अन्यथा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। तो मेरा अपना मानना यह है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के अनुपूरक हैं; और इनका कनिष्ठता या श्रेष्ठता- इस तरह का वर्गीकरण नहीं करना चाहिए। वे एक-दूसरे के अनुपूरक हों। और निश्चित ही पुरुष अकेला है; जैसे स्त्री अकेली है। दोनों मिलकर ही वे एक सावयव संपूर्णता बनते हैं। इसीलिए मेरे मन में प्रेम के प्रति इतना सम्मान है। क्योंकि प्रेम वह कीमिया है, जो स्त्री और पुुरुष को पूर्ण बनाती है। वे अपने वैयक्किता खोते हैं, अपने अहंकार खो देते हैं। और पहली बार पुरुष विलीन हो जाता है, स्त्री विलीन हो जाती है- सिर्फ एक ऊर्जा। और उसी ऊर्जा का सम्मान किया जाना चाहिए। अब तक आपने कई विषयों पर चर्चा की, लेकिन सेक्स के संबंध में एक शब्द भी नहीं कहा। लेकिन सेक्स के संबंध में आपके उदार विचारों के लिए आप विख्यात थे; और कई वर्गों ने आपकी बहुत आलोचना भी की है। उसका सीधा-सा कारण यह है कि सदियों-सदियों से लोग दमित सेक्स जीवन जीते रहे हैं।
उन्हें सभी धार्मिक पुरुषों ने, मसीहाओं ने और पैगंबरों ने कहा था कि सेक्स पाप है। मेरी समझ यह है कि सेक्स तुम्हारी एकमात्र ऊर्जा है; जव जीवन ऊर्जा है। तुम उसके साथ क्या करते हो, यह तुम पर निर्भर करता है। वह पाप भी बन सकता है, और वह तुम्हारी चेतना का परमोच्च शिखर भी बन सकता है। वह सब तुम पर निर्भर करता है- तुम ऊर्जा का उपयोग कैसे करते हो। एक समय था, जब हमें विद्युत का उपयोग करना नहीं आता था। विद्युत सदा उपलब्ध थी, और लोगों को मार डालती थी, लेकिन अब वह तुम्हारी नौकर बन गई। वह वे सब काम कर रही है जो तुम उससे करवाना चाहते हो। सेक्स जीवित विद्युत है। सवाल सिर्फ इतना है कि उसका उपयोग कैसे किया जाए। उसका पहला मूल तत्व हैः उसकी निंदा मत करो। जैसे ही तुम किसी चीज की निंदा करते हो, तुम उसका उपयोग नहीं कर सकते। इसलिए मैं उसके दमन के खिलाफ था। मैं सेक्स की शिक्षा नहीं दे रहा था। मैं सिर्फ यह सिखा रहा था कि जीवन के एक सामान्य और प्राकृतिक तथ्य की भंाति सेक्स स्वीकृत होना चाहिए। जैसे नींद है, भूख है, या बाकी सब बातें हैं...। और दूसरी बात, मैं जिस बात की शिक्षा दे रहा था, उसकी आलोचकों ने बिल्कुल ही उपेक्षा कर दी। मेरी शिक्षा यह थी कि सेक्स को ध्यान से के साथ कैसे जोड़ा जाए। और जैसे ही सेक्स ध्यान के साथ जुड़ता है, उसकी गुणवत्ता बदल जाती है। सेक्स के साथ अगर ध्यान का संयोग न हो, तो वह सिर्फ बच्चे पैदा कर सकता है। ध्यानपूर्ण सेक्स तुम्हें एक नया जन्म दे सकता है, एक नया मनुष्य बना सकता है।
यानी ध्यान करते वक्त संभोेग करना? हां, या इससे उलटा कहो- संभोग करते समय ध्यान करो। क्योंकि छोटी-सी बदलाहट से बहुत बड़ा फर्क पड़ता है। एक आश्रम में दो संन्यासी बातचीत कर रहे थे। रोज सांझ को एक या दो घंटे के लिए उन्हें ध्यान करने के लिए या टहलने के लिए समय दिया जाता था। वे दोनों सोच रहे थे कि धूम्रपान करना ठीक होगा या नहीं। क्योंकि उन पर कोई रोक नहीं लगायी गई थी, फिर भी वे डर रहे थे। इसलिए उन्होंने सोचा कि मठाधीश से पूछ ही लें। दूसरे दिन, उनमें से एक बहुत नाराज था। और जब उसने दूसरे को देखा कि वे सिगरेट पीते हुए चला आ रहा है, तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, ‘क्या हुआ? ’ मैंने मठाधीश से पूछा कि क्या मैं ध्यान करते समय सिगरेट पी सकता हूं? उन्होंने कहा, कभी नहीं। और वे बहुत नाराज थे। और इधर तुम सिगरेट पी रहे हो! क्या तुमने नहीं पूछा? वह बोला, मैंने भी पूछा, लेकिन मैंने उनसे पूछा, मैं सिगरेट पीते समय ध्यान कर सकता हूं? और उन्होंने कहा, यह तो बढ़िया ख्याल है। समय क्यों गंवाते हो? जब तुम सिगरेट पी रहे हो तब तुम ध्यान भी कर सकते हो, तो यह तो बहुत बढ़िया ख्याल है। सिगरेट पीते समय जरूर ध्यान करो। तो मैं नहीं कहूंगा कि जब तुम ध्यान कर रहे हो, तब संभोग करो। नहीं मैं कहूंगा, जब तुम प्रेम कर रहे हो, तब ध्यान करो। और वह सर्वाधिक शांत, मौन और समस्वरित अवस्था है, जहां ध्यान सरलतम होता है।
जब तुम आरगास्म (कामोल्लास) का अनुभव के करीब पहुंचते हो तब तुम्हारे विचार रुक जाते हैं। तुम ऊर्जा ज्यादा होते हो, अधिक प्रवाहमान, सब और स्पंदित- और वही क्षण है सजग होने का। जो भी हो रहा हो- वह स्पंदन, कामोल्लास, का बिंदु करीब आ रहा है...और तुम जानते हो कि एक बिंदु होता है, जिसके बाद तुम लौट नहीं सकते। सिर्फ देखो। और यह सर्वाधिक रहस्यमय और आंतरिक सजगता होगी। और यदि तुम इसको देख सको, तो तुम जीवन में किसी भी चीज को देख सकोगे। क्योंकि वह तुम्हारे सबसे निकट है, और सबसे डुबाने वाला अनुभव है। मैंने सिर्फ एक छोटी-सी किताब लिखी है। उस किताब का नाम हैः संभोग से समाधि की ओर। लेकिन समाधि पर किसी का ध्यान नहीं गया- सिर्फ सेक्स! और जो लोग उसे पढ़ते रहे हैं, वे हैंः भिक्षु, सभी धर्मों की भिक्षुणियां। और मैंने सब तरह के विषयों पर चार सौ किताबें लिखी हैंःऐसे विषय, जो सत्य की खोज करनेवाले साधकों के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। लेकिन नहीं, मुश्किल यह है कि वे पीड़ा में हैं। और वे इसलिए पीड़ा में हैं क्योंक्.ि.। आप कह रहे हैं कि सिर्फ सेक्स अधिकाधिक बच्चे पैदा करता रहेगा। लेकिन फिर ध्यानपूर्ण सेक्स क्या पैदा करेगा? तुम स्वयं को पैदा करोगे- बिल्कुल नये। स्वयं को? स्वयं को। तुम पाओगे कि तुम जैसे हो वहीं पर तुम्हारा अंत नहीं है। तुम्हारी चेतना के, तुम्हारी बुद्धि के उच्चतर तल हैं।
और जैसे-जैसे तुम अपनी चेतना के, अपनी बुद्धि के उच्चतर तल निर्मित करने लगोगे, वैसे-वैसे तुम आश्चर्यचकित होओगे कि तुम्हारा सेक्स में रस खोने लगेगा। क्योंकि अब सेेक्स जीवन से भी बहुत बड़ी चीज पैदा कर रहा है- वह चेतना पैदा कर रहा है। जीवन निम्न तत्व है, चेतना श्रेष्ठतर तत्व है। और एक बार तुम चेतना निर्मित करने में सक्षम हुए, तो ऐसा कोई अवरोध नहीं है कि तुम संभोग नहीं कर सकोगे, लेकिन वह बड़ा फीका लगेगा। उससे तुम्हें कोई आनंद नहीं मिलेगा, वह ऊर्जा का अपव्यय मालूम पड़ेगा। तुम चाहोगे कि उससे तो बेहतर होगा कि तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारे भीतर ऊर्जा के ऊंचे से ऊंचे पिरामिड बनाये- तब तक, जब तक कि तुम अंतिम बिंदु तक न पहुंचो, जिसे मैं बुद्धत्व कहता हूं। जो तो भी चेतना-रहित है, वह पाप है। क्या यही आप कहना चाहते हैं? वस्तुतः पाप शब्द का मौलिक अर्थ है, विस्मरण। और इसे स्मरण रखना अच्छा होगा। चेतना यानी स्मरण, जागरण; और पाप यानी मूच्र्छा विस्मरण। लेकिन मैं पाप शब्द का उपयोग नहीं करूंगा क्योंकि सभी धर्मों ने उसका उपयोग कर उसे प्रदूष्ति किया है। मैं उसे सिर्फ अचेतन अवस्था कहूंगा, विस्मरण कहूंगा, जो कि इस शब्द के मौलिक अर्थ हैं। पुण्य क्या है? चेतना। हर चीज के प्रति अधिक होश। एक बार तुम पूरी तरह से जाग जाओ, तो तुम्हारा पूरा जीवन पुण्य हो जाता है। तुम जो भी करते हो उसमें पवित्रता की सुगंध होती है, दिव्यता की महक होती है।
आपकी यह धारणा- मेरा मतलब है तुलना में- संसार के गरीब वर्ग की बजाए अमीर वर्ग को क्यों प्रीतिकर लगी? और आपके ऊपर ‘अमीरों के गुरु’ - ऐसा लेबल क्यों लगा है? कारण सरल है। भूखे आदमी को मोजार्ट का संगीत प्रीतिकर नहीं लगेगा। अब यह न तो मोजार्ट की गलती है, न भूखे आदमी की गलती है। बात इतनी ही है कि भूखा आदमी मोजार्ट के संगीत की ऊंचाई से बहुत दूर है। भूखा आदमी दोस्तोवस्की, तुर्गनेव या चेखोव को नहीं समझ सकेगा। वह वानगाग या पिकासो के चित्र नहीं समझ सकेगा, क्योंकि उसकी मूलभूत जरूरतें ही पूरी नहीं हुई हैं। गरीब आदमी सिर्फ इस अर्थ में गरीब नहीं है कि उसके पास कपड़े नहीं हैं, भोजन नहीं है। वह इस अर्थ में गरीब है कि में जीवन में जो भी महान है, वह सब, जो सदियों से परिष्कार से उपलब्ध हुआ है, उससे वह वंचित रह जाएगा। जो आदमी तीन दिन तक भूखा रहा हो, उसे पूर्णिमा की रात में चांद नहीं दिखाई पड़ेगा, आकाश में रोटी तैरती हुई दिखाई देगी। तो इसके लिए मैं क्या कर सकता हूं? मेरी परिपूर्ण समझ यह है कि धर्म जीवन का आखिरी विलास है क्योंकि वह परमोच्च चेतना है। भूखा पेट निम्नतम चेतना के तल पर जीता है। तो इस धारणा के अनुसार, आप पूरी तरह से संपूर्ण जगत के पक्ष में नहीं होंगे? मैं हो सकता हूं, क्योंकि मैं उन भूखे लोगों को बदल सकता हूं। हमारे धर्म और हमारे राजनीतिक उन्हें भूखे बने रहने पर मजबूर कर रहे हैं। क्योंकि एक तरह से उन लोगों के गरीब बने रहने में इनके न्यस्त स्वार्थ हैं। उदाहरण के लिए, क्या तुम एक भी ऐसा हिंदु खोज सकते हो, जो अमीर हो, पढ़ा-लिखा हो, और जिसने ईसाई या कैथोलिक धर्म अपनाया हो?
क्यों नहीं? सिर्फ अनाथ, भिखारी, गरीब आदिवासी- ये ही लोग क्यों धर्म-परिवर्तन करते हैं। अब यह पोप के हित में है, मदर टेरेसा के हित में है, पूरी ईसाइयत के हित में है कि गरीब, गरीब बना रहे। इतना ही नहीं बल्कि गरीब और भी गरीब होता चला जाए। गरीब जितने ज्यादा होंगे उतनी कैथोलिक की संख्या बढ़ेेगी। और यही उनका पूरा सपना है। पूरे संसार को ईसाई बनाना। लोगों को गरीब बनाये रखने में राजनीतिकों का भी रस है; क्योंकि गरीब लोगों को खरीदना आसान होता है। पढ़े-लिखे, धनी लोगों, को खरीदा नहीं जा सकता है। और जहां तक मेरा संबंध है, दुनिया में सब गरीबी हटा देना इतना सरल है कि यह बढ़े आश्चर्य की बात है...मामला एकदम साफ है कि यह बात लोगों के ख्याल में क्यों नहीं आती। एक बातः तीस साल तक जनसंख्या में कोई वृद्धि नहीं। और इसके सरल उपाय उपलब्ध हैं। लोगों को सिर्फ इस बात के प्रति जागना है कि अगर तुम मदर टेरेसा और पोप और शंकराचार्य इसकी सुनते रहे- जो लोग संतति निरोध के खिलाफ हैं, तो इस सदी के अंत तक भारत की जनसंख्या एक अरब होगी। आधा देश भूखा रहेगा, और हमारे पास कोई उपाय नहीं रहेगा कि हम क्या करें। और फिर भी तुम मदर टेरे सा का समर्थन करते रहते हो, उसे इनाम देते हो, पुरस्कार देते हो, नोबल पुरस्कार देते हो, और इस तथ्य को नहीं देखते कि ये ही लोग गरीबी के लिए जिम्मेदार हैं। ये सब धार्मिक लोग, जो लोगों को संतति-निरोध के खिलाफ शिक्षा देते हैं, उन्हें तुरंत कैद किया जाना चाहिए। लोगों को संतति-निरोध के खिलाफ शिक्षा देना जुर्म होना चाहिए- सबसे बड़ा जुर्म। अन्यथा पूरा देश मानने वाला है। जो आदमी किसी एक व्यक्ति का खून करता है, उसे तुम मृत्यु दंड देते हो। और तुम्हारे पोप, और तुम्हारी मदर टेरेसा, और तुम्हारे शंकराचार्य सिर्फ इसी देश में, इस सदी का अंत होते-होते आधा अरब लोगों को जान से मार डालनेवाला है। अब पोप आनेवाले हैं, और तुम्हारा शासन उनके शानदार स्वागत की तैयारियां कर रहा है। अगर तुम्हारे शासन में जरा भी हिम्मत है, तो उसे पोप को साफ कह देना चाहिए कि यहां वे संतति निरोध के खिलाफ शिक्षा नहीं दे सकते, गर्भपात के खिलाफ नहीं बोल सकते। वे आध्यात्मिक मसलों पर बोल सकते हैं, वह उनका क्षेत्र है।
लेकिन वे ऐसी कोई शिक्षा नहीं दे सकते, जिससे कि यह देश और गरीब हो जाए। अगर वे वैसा करते हैं, तो तत्क्षण उन्हें देश के बाहर निकाल दिया जाएगा। पूरे समाज का ढांचा बदलने में तीस साल लग जाएंगे। नहीं, तीस साल नहीं। वह तुरंत बदलना शुरु हो जाएगा। क्योंकि मैं कुछ और बातें कहना चाहता हूं। यह कार्यक्रम तो लंबी कालावधि के लिए है। हम जो भी करते हैं, उस पर बढ़ती हुई आबादी पानी फेर देती है। इसलिए पहले ही हम पूरा संतति-निरोध लागू करें। और कुछ दिनों के लिए, जो हर देश इतना सारा पैसा, श्रम, बुद्धिमत्ता, विज्ञान, टेक्नालाजी, सब कुछ युद्ध के काम में ला रहा है, वह पूरी तरह रोक देना चाहिए। सोवियत यूनियन भी बहुत समृद्ध नहीं है। लोग गरीब हैं। धनी होने का सपना साठ साल से सपना ही रह गया है; वह साकार नहीं हुआ है। अमेरिका में भी तीन करोड़ लोग रास्तों पर हैं। और फिर भी वे उनकी पूरी ऊर्जा, उनकी टेक्नालाजी, उनका विज्ञान, और उनके सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क अधिकाधिक आणविक शस्त्र बनाने में लगाते हैं। किसलिए? अभी उनके पास इतने शस्त्र हैं कि मनुष्यता को सात सौ बार मार सकते हैं। अब मुझे इसमें कोई तुम नहीं दिखाई देती- और ज्यादा पैदा करने में क्या सार है? तो अगर युद्ध के सब प्रयास छोड़ दिए जाएं...और उन्हें छोड़ना ही पड़ेगा। यह थोड़ी सी बुद्धिमानी का सवाल है। तो वही ऊर्जा पूरी की पूरी, गरीबों की गरीबी हटाने में लगायी जा सकती है।
हम युद्ध के प्रयासों में इतना पैसा और इतनी ताकत व्यर्थ गंवा रहे हैं कि अगर वह पूरा पैसा वहां से मुक्त किया जाए, तो गरीबी ऐसी विलीन हो जाएगी जैसे सुबह सूरज उगते ही ओस-कण विदा हो जाते हैं। और युद्ध में अब कोई सार नहीं है। युद्ध का सारा अर्थ ही खो गया है। किसी दिन वह अर्थपूर्ण था; जब कोई जीतता और कोई हारता। अब न किसी की हार होगी, न किसी की जीत होगी। पूरी पृथ्वी नष्ट हो जाएगी। इसलिए अब युद्ध अर्थपूर्ण नहीं है; उसका पुराना अर्थ खो गया है। अब संसार के बुद्धिजीवियों को मिलकर इन मूढ़ राजनीतिकों पर दबाव डालना चाहिए कि निर्णय ले लो और सभी युद्ध के प्रयास बंद कर दो; और तुमने जो भी ऊर्जा इकट्ठी कर ली है, उसके संबंध में वैज्ञानिकों को सोचने दो कि रचनात्मक योजनाओं में कैसे उसका उपयोग किया जाए। गरीबी तुरंत हटायी जा सकती है। मैं गरीबों के खिलाफ नहीं हूं, गरीबी के खिलाफ हूं। और एक बार गरीबी नष्ट हो गई, तो फिर तुम देखोगे कि मेरे पास गरीब भी उसी तरह गाएगा जैसे अमीर आता है। उनके भीतर एक-जैसी क्षमता है, आर उनका एक जैसा भविष्य है। और मुझे धनवानों का गुरु कहना निपट मूढ़ता है।
लेकिन यह पीली पत्रकारिता कुछ भी कहती रहती है। पांच सालों से मैंने कुछ भी पढ़ा नहीं है। और खास कर मेरे संबंध में...क्योंकि मैं कुछ पढ़ता नहीं हूं- न कोई किताब, न अखबार, न पत्रिका। मैंने दूरदर्शन भी देखा नहीं है। इन मूख्र्रतापूर्ण सूचनाओं से मैं बिल्कुल ऊब गया हूं। मैं किसी का गुरु नहीं हूं- न गरीब का, न अमीर का। मैं केवल एक मित्र हूं, जो तुम्हारी सहायता करने के लिए उपलब्ध है, यदि तुम्हें उसकी जरूरत हो तो। और वह भी तुम्हारी स्वतंत्रता है। मेरे साथ आना या नहीं आना। जब तुम आते हो तब मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं और जब तुम विदा होते हो, मैं उतने ही प्रेम के साथ तुम्हें विदाई देता हूं। इसमें न कोई वफादारी का सवाल है, न बेवफाई का। यदि आपके कुछ प्रश्न शेष हों, तो फिर आइए।
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