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मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-07)

नव संन्यास क्या?

प्रवचन-सातवां

सावधिक संन्यास की धारणा मेरे मन में इधर बहुत दिन से एक बात निरंतर ख्याल में आती है और वह यह है कि सारी दुनिया से आनेवाले दिनों में संन्यासी के समाप्त हो जाने की संभावना है। संन्यासी आनेवाले पचास वर्ष के बाद पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा, वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था की नीचे की ईंटें तो खिसका दी गयी हैं और अब उसका मकान भी गिर जाएगा। लेकिन संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनिया से विलीन हो जाएगा उस दिन दुनिया का बहुत अहित हो जाएगा।  मेरे देखे पुराना संन्यास तो चला जाना चाहिए पर संन्यास बच जाना चाहिए और इसके लिए सावधिक संन्यास का, पीरियाडिकल रिनन्सिएशन का मेरे मन में ख्याल है। ऐसा कोई आदमी नहीं होना चाहिए जो वर्ष में एक महीने के लिए संन्यासी न हो। जीवन में तो कोई भी ऐसा आदमी नहीं होना चाहिए जो दो-चार बार संन्यासी न हो गया हो। स्थायी संन्यास खतरनाक सिद्ध हुआ है। कोई आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाए, उसके दो खतरे हैं।  एक खतरा तो यह है कि वह आदमी जीवन से दूर हट जाता है, और परमात्मा के प्रेम की, और आनंद की जो भी उपलब्धियां हैं वे जीवन के घनीभूत अनुभव में हैं, जीवन के बाहर नहीं।

दूसरी बात यह होती है कि जो आदमी जीवन से हट जाता है उसकी जो शांति, उसका जो आनंद है वह जीवन में बिखरने से बच जाता है, जीवन उसका साझीदार नहीं हो पाता। तीसरी बात यह है कि लोगों को यह ख्याल पैदा हो जाता है कि गृहस्थ अलग है और संन्यासी अलग है। तो गलत काम करने पर हमें यह ख्याल रहता है कि हम तो गृहस्थ हैं, यह तो करना हमारी मजबूरी है, संन्यासी हो जाएंगे तो हम नहीं करेंगे। तो धर्म और जीवन के बीच का एक फासला पैदा हो जाता है।  मेरी दृष्टि में संन्यास जीवन का अंग होना चाहिए। संन्यास जीवन को समझने और पहचानने की विधि होनी चाहिए। ऐसे आदमी का जीवन अधूरा और उसकी शिक्षा अधूरी माननी चाहिए- जो आदमी वर्ष में थोड़े दिनों के लिए संन्यासी न हो जाता हो! अगर बारह महीने में, एक-दो महीने कोई व्यक्ति परिपूर्ण संन्यासी का जीवन जीता हो तो उसके जीवन में आनंद के इतने द्वार खुल जाएंगे, जिसकी उसे कल्पना भी नहीं हो सकती। इस दो महीने में वह संन्यासी रहेगा। फिर वह पूरी तरह ही संन्यासी रहेगा दो महीने। इन दो महीनों में उसका इस दुनिया से कोई भी संबंध नहीं है। संन्यासी का भी जितना संबंध होता है दुनिया से उतना भी उसका दो महीने में संबंध नहीं है।  और यह जानकर आपको हैरानी होगी कि जो आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाता है वह गृहस्थियों के ऊपर निर्भर हो जाता है। इसलिए वह दिखता तो है संसार से दूर, लेकिन संसार के पास ही उसे रहना पड़ता है। लेकिन जो आदमी बारह महीनों में सिर्फ दो महीने के लिए संन्यासी होगा वह किसी के ऊपर निर्भर नहीं होगा। वह अपने ही दस महीने के गृहस्थ जीवन पर निर्भर होगा, वह संसार के ऊपर आश्रित नहीं होगा।
इसलिए किसी से भयभीत भी नहीं होगा, वह किसी से संबंधित भी नहीं होगा।  अगर एक आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी होगा तो वह किसी का आश्रित होगा ही। वह बच भी नहीं सकता और अंतिम परिणाम यह होता है कि संन्यासी दिखाई तो पड़ते हैं कि हमारे नेता हैं लेकिन वे अनुयायी के भी अनुयायी हो जाते हैं। वे उनके भी पीछे चलते हैं।  संन्यासी को आज्ञा देते हैं गृहस्थ कि तुम ऐसा करो और वैसा मत करो। गृहस्थ उनका मालिक हो जाता है क्योंकि वह उनको रोटी देता है।  संन्यासी गुलाम हो गया है। संन्यासी की गुलामी टूट सकती है एक ही रास्ते से कि वह कभी-कभी संन्यासी हो। वर्ष में ग्यारह महीने वह गृहस्थ हो और एक महीने संन्यासी, तो वह किसी के ऊपर निर्भर नहीं होेगा। वह अपनी ग्यारह महीने की कमाई पर निर्भर होगा। फिर उसे किसी से लेना-देना नहीं है। वह इस एक महीने की पूरी फ्रीडम, पूरी स्वतंत्रता का उपयोग कर सकता है, बिना किसी के आश्रय के। वह इस एक महीने में अपने को परिपूर्ण संन्यासी अनुभव करेगा जो कभी कोई संन्यासी नहीं कर पाता। तब वह पूरी मुक्ति से जी सकेगा।  इस एक महीने वह जिस विधि से जिएगा और जिस आनंद को, जिस शांति को अनुभव करेगा, जिस स्वतंत्रता में वह प्रवेश करेगा, उसी को लेकर वापस लौटेगा गृहस्थ जीवन में। और जिंदगी के घनेपन में प्रयोग करेगा जो उसने एकांत में सीखा था। और परखेगा कि क्या भीड़ में उसका उपयोग कर सकता है?
क्योंकि एकांत में शिक्षा होती है और भीड़ में परीक्षा होती है।  जो भीड़ से बच जाता है वह परीक्षा से बच जाता है। उसकी शिक्षा अधूरी है। जो तुमने अकेले में जाना है अगर उसका भीड़ में उपयोग नहीं कर सकते तो जानना कि वह गलत है। वह बहुत मूल्य का नहीं है। वहां कसौटी है, क्योंकि वहां विरोध है, वहां परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं। जहां सब कुछ प्रतिकूल है वहां भी मैं शांत रह सकता हूं या नहीं? वहां भी मैंने जो एक महीने संन्यास साधा था, आनंद पाया था- क्या मैं घर के भीतर, दुकान पर बैठकर भी संन्यास को साध सकता हूं या नहीं? इसका ही बाकी ग्यारह महीने निरीक्षण करना है! वर्ष भर बाद उसे फिर महीनेभर के लिए लौट आना है ताकि आनेवाले वर्ष भर की परीक्षा के लिए वह तैयार हो सके। नयी सीढ़ियां पार कर सके।  अगर एक आदमी बीस साल की उम्र के बाद सत्तर साल तक जिए और पचास वर्ष में पचास महीने के लिए वह संन्यासी हो सके तो इस जगत में ऐसा कोई सत्य नहीं है जिनसे वह अपरिचित रह जाए, ऐसी कोई अनुभूति नहीं है जिससे वह अनजाना रह जाए। और यह जो संन्यास होगा वह पीरियाडिकल- एक अवधि-भर के लिए लिया गया संन्यास होगा। यह उसे जीवन से नहीं तोड़ेगा।  अन्यथा हमारा जो संन्यासी है वह जीवन-विरोधी हो गया है। पत्नी और बच्चे उससे भयभीत हैं, मां-बाप उससे भयभीत हैं, क्योंकि वह जीवन को उजाड़कर चला जाता है।
यह जो कभी-कभी संन्यासी होना है, इसमें भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है। बल्कि जब वह लौटेगा तब उसकी पत्नी पाएगी कि वह और भी प्यारा पति होकर लौटा है। उसकी मां पाएगी कि वह ज्यादा श्रद्धा, ज्यादा प्रेम, ज्यादा आदर भरा हुआ बेटा होकर लौटा है। और इस एक महीने के बाद ग्यारह महीने घर में जिएगा तो जो सुगंध उसने पायी है वह सब तरफ बिखरेगी उससे और प्रेम-पूर्ण दुनिया बनेगी।  अब तक के संन्यासी ने दुनिया को उजाड़ा है, बिगाड़ा है- उसने बनाया नहीं है। जीवन को निर्मित करने में, सृजन करने में वह सहयोगी और मित्र नहीं रहा है। मेरे मन में एक अवधि के लिए लिया संन्यास अनिवार्य है, वह मेरे ख्याल में है।
अब तक जैसे संन्यासी हुए हैं वे दुनिया से समाप्त हो जाएं तो कोई डर नहीं है, संन्यास बचा रहना चाहिए। और इस भांति जो संन्यास व्यापक रूप से डिफ्यूज हो जाएगा बड़े पैमाने पर- क्योंकि हर आदमी को हक हो जाएगा फिर संन्यासी होने का- अभी हर आदमी को हक नहीं हो सकता। क्योंकि अभी हर आदमी संन्यासी हो जाए तो जीवन एक मरघट बन जाए, मृत्यु बन जाए। सावधिक संन्यास में हर आदमी को सुविधा हो जाएगी, संन्यासी होने की। अभी तक हर आदमी को संन्यासी होने का हक पुराने संन्यास में नही हो सकता था क्योंकि अगर आदमी संन्यासी हो जाए तो जीवन एक मरघट बन जाएगा, मृत्यु बन जाएगा।  जो काम हर आदमी न कर सकता हो, उस काम में निश्चित ही कोई भूल है। जो काम हर आदमी का अधिकार न बन सकता हो, उसमें जरूर कोई भूल है।  अगर सारे लोग आजीवन संन्यासी हो जाएं तो जीवन आज उजड़ जाए, इसी क्षण। आजीवन संन्यास भ्रांत है, गलत है। तो जो संन्यासी है उसको भी वापस लौट आना पड़ेगा जीवन में। और संन्यास बच सके दुनिया में इसके लिए बड़ा प्रयोग करना जरूरी है।

पूरब की श्रेष्ठतम देनः संन्यास मनुष्य है एक बीज - अनंत संभावनाओं से भरा हुआ। बहुत फूल खिल सकते हैं मनुष्य में, अलग-अलग प्रकार के। बुद्धि विकसित हो मनुष्य की तो विज्ञान का फूल खिल सकता है और हृदय विकसित हो तो काव्य का और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए तो संन्यास का।  संन्यास है, समग्र मनुष्य का विकास। और पूरब की प्रतिभा ने पूरी मनुष्यता को जो सबसे बड़ा दान दिया- वह है संन्यास।  संन्यास का अर्थ है, जीवन को एक काम की भांति नहीं वरन एक खेल की भांति जीना। जीवन नाटक से ज्यादा न रह जाए, बन जाए एक अभिनय। जीवन में कुछ भी इतना महत्वपूर्ण न रह जाए कि चिंता को जन्म दे सके। दुःख हो या सुख, पीड़ा हो या संताप, जन्म हो या मृत्यु, संन्यास का अर्थ है इतनी समता में जीना- हर स्थिति में- ताकि भीतर कोई चोट न पहुंचे। अंतरतम में कोई झंकार भी पैदा न हो। अंतरतम ऐसा अछूता रह जाए जीवन की सारी यात्रा में, जैसे कमल के पत्ते पानी में रहकर भी पानी से अछूते रह जाते हैं। ऐसे अस्पर्शित, ऐसे असंग, ऐसे जीवन से गुजरते हुए भी जीवन से बाहर रहने की कला का नाम संन्यास है।
यह कला विकृत भी हुई। जो भी इस जगत् में विकसित होता है, उसकी संभावना विकृत होने की भी होती है। संन्यास विकृत हुआ, संसार के विरुद्ध खड़े हो जाने के कारण- संसार की निंदा, संसार की शत्रुता के कारण। संन्यास खिल सकता है वापस, फिर मनुष्य के लिए आनंद का मार्ग बन सकता है, संसार के साथ संयुक्त होकर, संसार को स्वीकृत करके। संसार का विरोध करनेवाला, संसार की निंदा और संसार को शत्रुता के भाव से देखनेवाला संन्यास अब आगे संभव नहीं होगा। अब उसका कोई भविष्य नहीं है। है भी रुग्ण वैसी दृष्टि।  यदि परमात्मा है तो यह संसार उसकी ही अभिव्यक्ति है। इसे छोड़कर, इसे त्यागकर परमात्मा को पाने की बात ही ना-समझी है। इस संसार में रहकर ही इस संसार से अछूते रह जाने की जो सामथ्र्य विकसित होती है, वही इस संसार का पाठ है, वही इस संसार की सिखावन है। और तब संसार एक शत्रु नहीं वरन एक विद्यालय हो जाता है और तब कुछ भी त्याग करके- सचेष्ट रूप से त्याग करके, छोड़कर भागने की पलायन-वृत्ति को प्रोत्साहन नहीं मिलता वरन जीवन को उसकी समग्रता में, स्वीकार में, आनंदपूर्वक, प्रभु का अनुग्रह मानकर जीने की दृष्टि विकसित होती है।
भविष्य के लिए मैं ऐसे ही संन्यास की संभावना देखता हूं, जो परमात्मा और संसार के बीच विरोध नहीं मानता, कोई खाई नहीं मानता वरन संसार को परमात्मा का प्रकट रूप मानता है। परमात्मा को संसार का अप्रकट छिपा हुआ प्राण मानता है। संन्यास को ऐसा देखेंगे तो वह जीवन को दीन-हीन करने की बात नहीं, जीवन को और समृद्धि और संपदा से भर देने की बात है।  वास्तव में जब भी कोई व्यक्ति जीवन को बहुत जोर से पकड़ लेता है तब ही जीवन कुरूप हो जाता है। इस जगत् में जो भी हम जोर से पकड़ेंगे, वही कुरूप हो जाएगा। और जिसे भी हम मुक्त रख सकते हैं, स्वतंत्र रख सकते हैं, मुट्ठी बांधे बिना रख सकते हैं, वही इस जगत् में सौंदर्य को, श्रेंष्ठता को, शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है।  जीवन के सब रहस्य ऐसे हैं, जैसे कोई मुट्ठी में हवा को बांधना चाहे। जितने जोर से बांधी जाती है मुट्ठी, हवा मुट्ठी के उतने ही बाहर हो जाती है। खुली मुट्ठी रखने की सामथ्र्य हो तो मुट्ठी हवा से भरी रहती है और बंधी मुट्ठी ही हवा से खाली हो जाती है। उल्टी दिखाई पड़नेवाली, उलट-बांसी-सी यह बात कि मुट्ठी खुली हो तो हवा भरी रहती है और बंद की गई हो, बंद करने की आकांक्षा हो तो मुट्ठी खाली हो जाती है, जीवन के समस्त रहस्यों पर यह बात लागू होती है।  कोई अगर प्रेम को पकड़ेगा, बांधेगा तो प्रेम नष्ट हो जाएगा।
कोई अगर आनंद को पकड़ेगा, बांधेगा तो आनंद नष्ट हो जाएगा और अगर कोई जीवन को भी पकड़ना चाहे, बांधना चाहे तो जीवन भी नष्ट हो जाता है।  संन्यास का अर्थ हैः खुली हुई मुट्ठी वाला जीवन, जहां हम कुछ भी बांधना नहीं चाहते, जहां जीवन एक प्रवाह है और सतत नए की स्वीकृति और कल जो दिखाएगा उसके लिए भी परमात्मा को धन्यवाद का भाव।   बीते हुए कल को भूल जाना है, क्योंकि बीता हुआ कल अब स्मृति के अतिरिक्त और कहीं नहीं है। जो हाथ में है, उसे भी छोड़ने की तैयारी रखनी है, क्योंकि इस जीवन में सब कुछ क्षणभंगुर है। जो अभी हाथ में है, क्षणभर बाद हाथ के बाहर हो जाएगा। जो सांस अभी भीतर है, क्षणभर बाद बाहर होगी। ऐसा प्रवाह है जीवन। इसमें जिसने भी रोकने की कोशिश की, वही गृहस्थ है और जिसने जीवन के प्रवाह में बहने की सामथ्र्य साध ली, जो प्रवाह के साथ बहने लगा- सरलता से, सहजता से, असुरक्षा में, अनजान में, अज्ञान में- वही संन्यासी है।  संन्यास के तीन बुनियादी सूत्र ख्याल में ले लेने जैसे हैं। पहला- जीवन एक प्रवाह है। उसमें रुक नहीं जाना, ठहर नहीं जाना, वहां कहीं घर नहीं बना लेना है। एक यात्रा है जीवन। पड़ाव हैं बहुत, लेकिन मंजिल कहीं भी नहीं। मंजिल जीवन के पार परमात्मा में है।  दूसरा सूत्र- जीवन जो भी दे उसके साथ पूर्ण संतुष्टि और पूर्ण अनुग्रह, क्योंकि जहां असंतुष्ट हुए हम तो जीवन जो देता है, उसे भी छीन लेता है और जहां संतुष्ट हुए हम कि जीवन जो नहीं देता, उसके भी द्वार खुल जाते हैं।  और तीसरा सूत्र- जीवन में सुरक्षा का मोह न रखना।
सुरक्षा संभव नहीं है। तथ्य ही असंभावना का है। असुरक्षा ही जीवन है। सच तो यह है कि सिर्फ मृत्यु ही सुरक्षित हो सकती है। जीवन तो असुरक्षित होगा ही। इसलिए जितना जीवंत व्यक्तित्व होगा, उतना असुरक्षित होगा और जितना मरा हुआ व्यक्तित्व होगा, उतना सुरक्षित होगा।  सुना है मैंने, एक सूफी फकीर मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मरते वक्त वसीयत की थी कि मेरी कब्र पर दरवाजा बना देना और उस दरवाजे पर कीमती से कीमती, वजनी से वजनी, मजबूत से मजबूत ताला लगा देना, लेकिन एक बात ध्यान रखना, दरवाजा ही बनाना, मेरी कब्र की चारों तरफ दीवार मत बनाना। आज भी नसरुद्दीन की कब्र पर दरवाजा खड़ा है, बिना दीवारों के, ताले लगे हैं- जोर से, मजबूत। चाबी समुद्र में फेंक दी गई, ताकि कोई खोज न ले। नसरुद्दीन की मरते वक्त यह आखिरी मजाक थी- संन्यासी की मजाक, संसारियों के प्रति।  हम भी जीवन में कितने ही ताले डालें, सिर्फ ताले ही रह जाते हैं। चारों तरफ जीवन असुरक्षित है सदा, कहीं कोई दीवार नहीं है।  जो इस तथ्य को स्वीकार करके जीना शुरू कर देता है- कि जीवन में कोई सुरक्षा नहीं है, असुरक्षा के लिए राजी हूं, मेरी पूर्ण सहमति है, वही संन्यासी है और जो असुरक्षित होने को तैयार हो गया- निराधार होने को- उसे परमात्मा का आधार उपलब्ध हो जाता है। 
संन्यास का निर्णय और ध्यान में छलांग क्या संन्यास ध्यान की गति बढ़ाने में सहायक होता है?  संन्यास का अर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा- ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है- इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह मुक्ति की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु-मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।  तो जो व्यक्ति ध्यान को जीवन के और कामों में एक काम की तरह करता है। चैबीस घंटों में बहुत कुछ करता है, घंटेभर ध्यान भी कर लेता है- निश्चित ही उस व्यक्ति के बजाय जो व्यक्ति अपने चैबीस घंटे के जीवन को ध्यान को समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक- ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी- जो ध्यान को अपने चैबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर गया है।  निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा। और ध्यान संन्यास के लिए गति देता है। ये संयुक्त घटनाएं हैं। और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए ‘क्रिस्टलाइजेशन’, समग्रीकरण बन जाता है।
कभी बैठे-बैठे इतना ही सोचें कि चोरी करनी है तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं- तत्काल! चोरी करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए जो मददरूप है.....वह मन आपको देना शुरू कर देता है- सुझाव कि क्या करें, क्या न करें, कैसे कानून से बचें, क्या होगा, क्या नहीं होगा! एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरू कर देता है। मन आपका गुलाम है। आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा शुरू कर देता है कि अब जब चोरी करनी ही है तो कब करें, किस प्रकार करें कि फंस न जाएं, मन इसका इंतजाम जुटा देता है।  जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि मन संन्यास के लिए भी सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेनेवाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है- ‘इनडिसीसिवनेस इज माइंड’। निर्णय की क्षमता, डिसीसिवनेस, ही मन से मुक्ति हो जाती है। वह जो निर्णय है, संकल्प है, बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछेे चलेगा। लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से हम बहुत पीड़ित और परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है, संन्यास के बाद तो होगा ही- निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।  और ध्यान रहे, आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार, या दो करोड़ या अरब तारे हैं तो आप बिल्कुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक उंगली खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता। सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है।  संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि उसमें दूसरा सम्मिलित है, इनवाल्व्ड है।
आप अकेले नहीं हैं। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर बड़ी कठिनाई होती है मन को।  जितनी बड़ी भीड़ हो हम उतना जल्दी निर्णय ले लेते हैं। अगर दस हजार आदमी एक मस्जिद को जलाने जा रहे हैं तो हम बिल्कुल मजे से उसमें चले जाते हैं। यदि दस हजार आदमी मंदिर में आग लगा रहे हैं तो हम बराबर सम्मिलित हो जाते हैं। दस हजार लोग हैं, रिस्पांसिबिलिटी, जिम्मेवारी फैली हुई है, आप अकेले जिम्मेवार नहीं हैं- दस हजार आदमी साथ हैं। अगर कल बात हुई तो आप कहेंगे कि इतनी बड़ी भीड़ थी, मेरा होना, न होना, बराबर था। नहीं भी होता मैं तो भी मंदिर जलनेवाला ही था। मैं तो खड़ा था, चला गया। जिम्मेवारी मालूम नहीं पड़ती।  लेकिन संन्यास ऐसी घटना है जिसमें सिर्फ तुम ही जिम्मेवार हो, और कोई नहीं, ओनली यू आर रिस्पांसिबल, नो वन ऐल्स। इसलिए निर्णय करने में बड़ी मुश्किल होती है। अकेले ही हैं, किसी दूसरे पर जिम्मेवारी डाली नहीं जा सकती। किसी से आप यह नहीं कह सकते कि भीड़ की वजह से, तुम्हारी वजह से मैं लेता हूं।
इसलिए निर्णय को हम टालते चले जाते हैं। अकेला आदमी जिस दिन निर्णय लेने में समर्थ हो जाता है उसी दिन आत्मा की शक्ति जागनी शुरू होती है, भीड़ के साथ चलने से कभी कोई आत्मा की शक्ति नहीं जगती।  दूसरी मजे की बात है कि लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत तो मेरा मन तैयार है संन्यास लेने के लिए, दस प्रतिशत नहीं है, तो जब पूरा हो जाएगा मेरा सौ प्रतिशत मन तब मैं संन्यास ले लूंगा। लेकिन इस आदमी ने कभी विवाह करते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! चोरी करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! क्रोध करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! गाली देते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! सिर्फ संन्यास के समय यह कहता है कि सौ प्रतिशत मन तैयार होगा तब! यह अपने को धोखा दे रहा है। यह भली-भांति जानता है कि सौ प्रतिशत मन कभी तैयार नहीं होगा इसलिए बचाव की सुविधा बनाता है। अगर यही धारणा है कि सौ प्रतिशत तैयार होगा तभी कुछ करेंगे, तो ध्यान रखना, आपका सब करना आपको बंद करना पड़ेगा। सौ प्रतिशत मन आपका कभी किसी चीज में तैयार नहीं होता है।
लेकिन बाकी सब काम आदमी जारी रखता है।  और यह भी मजे की बात है कि जब आप तय करते हैं कि नब्बे प्रतिशत मन तो कहता है, दस प्रतिशत अभी नहीं कहता है; तो आप को पता नहीं है कि आप संन्यास नहीं ले रहे हैं तो आप दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को इनकार करते हैं। असल में न लेने में ऐसा लगता है कि जैसे कोई बात ही नहीं हुई। संन्यास न लेना भी निर्णय है। दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को छोड़ देते हैं तो आपकी जिंदगी बहुत दुविधा में भरी जिंदगी हो जाएगी। अगर निर्णय लेना है तो इक्यावन प्रतिशत भी हो तो निर्णय ले लेना चाहिए, उनचास प्रतिशत को छोड़ देना चाहिए। लेकिन हम ऐसे हैं कि अगर हमें एक प्रतिशत भी गलत कोई बात मन कहता है तो निन्यानबे को छोड़कर एक प्रतिशत वाला काम कर लेते हैं और निन्यानबे प्रतिशत भी कोई ठीक बात मन कहता हो तो एक प्रतिशत वाली बात पर निर्णय लेते हैं।  ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद आदमी आनंद चाहता ही नहीं। कहता जरूर है कि आनंद चाहते हैं, शांति चाहते हैं, लेकिन शायद आदमी आनंद चाहता ही नहीं। क्योंकि बातें वह आनंद के चाहने की करता है, लेकिन जो कुछ भी वह करता है उससे दुःख ही मिलता है, उस सबसे दुःख ही मिलता है। उपाय सब दुःख के करता है, बातें आनंद की करता है। और कभी गौर से नहीं देखता है कि मेरा दुःख, मैं जो कर रहा हूं, उन्हीं उपायों पर निर्भर है।
संन्यास आनंद का निर्णय है। अब मैं आनंद चाहता हूं- इतना ही नहीं, आनंद को पाने के लिए कुछ करूंगा भी। संन्यास इस बात का निर्णय है कि अब मैं सिर्फ आनंद की चाह ही नहीं करूंगा, उस चाह को पूरा करने के लिए जीवन दांव पर भी लगाऊंगा। संन्यास इस बात की भी अपने प्रत्यक्ष, अपने सामने घोषणा है कि अब मैं दुःख से बचने की कोशिश ही नहीं करूंगा, दुःख जिन-जिन चीजों से पैदा होता है उनको छोड़ने का सामथ्र्य और साहस भी जुटाऊंगा।  यह निर्णय लेते ही आपकी जिंदगी नए केंद्र पर रूपांतरित होती है और स्वभावतः ध्यान फैलना शुरू हो जाता है। क्योंकि ध्यान तो सिर्फ एक विधि है। जिसने भी धर्म की ओर जाना शुरू किया, उसे ध्यान की विधि के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह जाता लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि दौड़ते हैं हम धन की तरफ और ध्यान की विधि का उपाय करना चाहते हैं। बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि धन को पाने के लिए ध्यान बाधा बन सकता है, सहयोगी नहीं। क्योंकि धन के पाने के लिए जो-जो भी करना पड़ता है, ध्यान जैसे गहरा होगा, उस सबमें अड़चनें पड़ने लगेंगी, मुश्किल पड़ने लगेगा।  मुझसे कोई पूछता है कि क्या हम ध्यान कर सकते हैं और रिश्वत भी ले सकते हैं? मैं उनसे कहता हूं कि मजे से रिश्वत लो और ध्यान किए जाओ। क्योंकि जैसे ही ध्यान का बीज थोड़ा-सा भी टूटेगा, रिश्वत लेना मुश्किल हो जाएगा, कठिन होता जाएगा और एक घड़ी आएगी कि पांच रुपए लेते वक्त अमूल्य ध्यान को छोड़ने की क्षमता न रह जाएगी, मुश्किल हो जाएगा।
संन्यास इस बात की घोषणा है जगत् के प्रति, और अपने प्रति भी, कि मैं अब परमात्मा की तरफ जाने का सचेतन निर्णय लेता हूं। निश्चित ही उस निर्णय को लेने के बाद उस यात्रा में जाने के लिए जो साधन है उसको करना आसान हो जाता है। इधर मैंने देखा है सैकड़ों व्यक्तियों को कि संन्यास लेते ही उनमें रूपांतरण हो जाता है। जब कुछ करेंगे तब की तो बात अलग, निर्णय लेते ही बहुत कुछ बदल जाता है। लेकिन यह लेना भी बहुत कुछ करना है। एक निर्णय पर पहुंचना, एक दांव लगाना, एक साहस जुटाना, एक छलांग की तैयारी भी छलांग है। आधी छलांग तो तैयारी में ही लग जाती है।  तो निश्चित ही ध्यान की गहराई बढ़ेगी संन्यास से। संन्यास की गहराई बढ़ती है ध्यान से।
वे अन्योन्याश्रित हैं।    
नव संन्यास क्या? प्रवचन

समाप्त 


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