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गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रचचन

मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूं

सारसुत्र: 

करु मन सहज नाम ब्यौपार, छोड़ि सकल ब्यौहार।।
निसुबासर दिन रैन ढहतु है, नेक न धरत करार।
धंधा धोख रहत लपटानो, भ्रमत फिरत संसार।।
माता पिता सुत बंधू नारी, कुल कुटुंब परिवार।
माया-फांसि बांधि मत डूबहु, छिन में होहु संघार।।
हरि की भक्ति करी नहिं कबहीं, संत बचन आगार।

करि हंकार मद गर्व भुलानो, जन्म गयो जरि छार।।
अनुभव घर कै सुधियो न जानत, कासों कहूं गंवार।
कहै गुलाल सबै नर गाफिल, कौन उतारै पार।।


नामरस अमरा है भाई, कोउ साध-संगति तें पाई।।
बिन घोटे बिन छाने पीवै, कौड़ी दाम न लाई।
रंग रंगीले चढ़त रसीले, कबहीं उतरि न जाई।।
छके-छकाए पगे-पगाए, झूमि-झूमि रस लाई।
बिमल बिमल बानी गुन बोलै, अनुभव अमल चढ़ाई।।
जहं जहं जावै थिर नहिं आवै, खोलि अमल लै धाई।
जल पत्थल पूजन करि भानत, फोकट गाढ़ बनाई।।
गुरु परताप कृपा तें पावै, घट भरि प्याल फिराई।
कहै गुलाल मगन हवै बैठे, मंगिहै हमरी बलाई।।
फिर से चली निठुर पुरवाई,
फिर बूंदों ने आग लगाई।
मरुथल में भटकूं एकाकी,
गंध न पाऊं मैं बरखा की;
कभी भूल कर कंठ लगा लूं,
ऐसी कोई छांह न बाकी;
ऊपर अंगारों का अंबार,
पग करते लपटों से संगर;
जाऊं किधर कहां सिर टेकूं,
किस चैखट से करूं सगाई!
नजर न आता कोई अपना,
अभिशापित हारा हर सपना;
क्यों कोई आंचल झुलसाऊं,
जब जीवन भर केवल तपना;
तुमने मुझको धीर बंधाया,
बड़े जतन से मन समझाया;
इससे ज्यादा करते भी क्या
मुझको ही यति रास न आई!
हर व्यवधान बढ़ा जाता है,
नूतन सत्य पढ़ा जाता है;
पर पल दो पल का रुकना तो..
और थकान चढ़ा जाता है;
इससे शूलों में पलने दो,
बिना सहारे ही चलने दो;
मुझको अभी दूर तक जाना,
करने मंजिल की पहुनाई!
फिर से चली निठुर पुरवाई,
फिर बूंदों ने आग लगाई!
जीवन हमारा एक मरुस्थल है। एक लंबी अर्थहीन यात्रा है। एक बोझ, जिसे हम जन्म से मृत्यु तक ढोते हैं। बूंद भी नहीं बरसती आनंद की। कैसे समझें गुलाल को, जो कहते हैं..झरत दसहुं दिस मोती! यहां तो कंकड़-पत्थर भी गिरते मालूम नहीं होते, मोतियों की वर्षा तो बहुत दूर! अमृत का तो अनुभव कहां! जहर ही पीआ है, जहर ही हो गए हैं। इसलिए सुन लेते हैं संतों के वचन, मगर प्राणों में कोई वीणा बजती नहीं। वचनों से हमारे जीवन का कोई तालमेल नहीं बैठता। वे करते हैं फूलों की बातें, हम कांटों में उलझे हैं। वे करते हैं सेजों की बातें, हम सूली पर लटके हैं। मीरा ने कहा है: शूली ऊपर सेज पिया की; सुन लेते हैं, होगी, पर हमें तो शूली के अतिरिक्त और कोई सेज दिखाई पड़ती नहीं।
बुद्धों के वचन हमारे जीवन-अनुभव से कोई संबंध नहीं बना पाते। हमारे और उनके बीच एक खाई रह जाती है, जिस पर सेतु बंधा दिखाई नहीं पड़ता। बुद्धपुरुषों ने लाख उपाय किए हैं कि सेतु बने। लेकिन जब तक हम भी उपाय न करें, सेतु बन नहीं सकता। एक किनारे से सेतु नहीं बनता है, स्मरण रखना, दो किनारे चाहिए। हमारा किनारा जब तक सेतु बनाने में संलग्न न हो जाए तब तक उस किनारे से बनाए गए सब सेतु गिर जाते हैं, हम तक पहुंच नहीं पाते।
दुनिया से सदगुरु नहीं खो गए हैं, लेकिन शिष्यत्व खो गया है। धर्म नहीं खो गया है, लेकिन धर्म की अभीप्सा खो गई है। सत्य नहीं खो गया है, लेकिन सत्य को खोजने की आकांक्षा बुझी-बुझी सी, धुआं-धुआं। दीप्त अंगार नहीं है। लोग सत्य के संबंध में भी ऐसे प्रश्न पूछते हैं जैसे और सब चीजों के संबंध में पूछते हैं। जैसे सत्य भी और सब चीजों की फेहरिश्त में एक नाम है।
सत्य जीवन की फेहरिश्त में एक नाम नहीं है, एक नाम मात्र नहीं है, सत्य तो हमारे जीवन का आधार है, हमारे प्राणों का प्राण है। लेकिन हम अपने भीतर जाते भी नहीं। बाहर से फुरसत मिलती नहीं।
मेरे पास लोग आते हैं, अगर मैं उनसे कहता हूं: ध्यान करो, वे कहते हैं: कब करें? समय कहां है? और यही लोग होटलों में बैठे हैं, गपशप करते हैं। यही लोग सिनेमागृहों में भरे हुए हैं; कतारें लगी हैं, ‘क्यू‘ लगे हैं। यही लोग, फुटबाल का मैच हो तो हजारों की संख्या में इकट्ठे होते हैं। यही घोड़ों की दौड़ देखने जाते हैं। कोई घोड़ा आदमियों की दौड़ देखने नहीं आता! किस घोड़े को पड़ी है! घोड़ों की छोड़ो, गधे भी नहीं आते। और तब इनसे पूछो, तो ये कहते हैं: समय काट रहे हैं। यही लोग ध्यान की कहो तो कहते: समय कहां है? ताश खेलेंगे, शतरंज बिछाएंगे, चैपड़.. और पूछो, क्या कर रहो हो? तो कहते हैं: समय काट रहे हैं। समय तुम्हें काट रहा है, पागलो! और तुम सोच रहे हो तुम समय को काट रहे हो! समय प्रतिपल तुम्हें गिराता जा रहा है। प्रतिपल तुम्हारी मौत को करीब लाता जा रहा है। जल्दी ही यह जीवन का स्वर्ण अवसर हाथ से छिटक जाएगा। फिर बहुत पछताओगे। या फिर एक क्षण भी इसमें से वापिस नहीं पाया जा सकता। और यह सारा समय बचाया जा सकता था, इसमें से कुछ भी न खोता..अगर तुमने यह अपनी अंतर्खोज में लगाया होता; अगर यह तुमने अपने प्राणों के साथ संबंध जोड़ने में लगाया होता; अगर तुमने पूछा होता कि मैं कौन हूं; अगर तुम भीतर गए होते, थोड़ा खोदा होता, तो तुम्हें वे जलस्रोत मिल जाते, जो सदा-सदा के लिए तृप्त कर जाते हैं। तुम्हें वे अमृत के झरने मिल जाते, जिन्हें पीकर फिर कोई मरता नहीं है।
दिवस उनींदे उन्मन बीते!
रात जागरण के प्रण जीते!!
क्यों आगमन गमन बन जाता,
क्यों संहार सृजन बन जाता;
नाश और निर्माण एक क्यों,
क्यों अभिशाप शमन बन जाता;
मरण जन्म या जन्म मरण है,
कहीं न कोई निराकरण है,
ज्ञान-गुमान शेष हो जाते,
आदि-अंत को सीते-सीते!
पल में धूप बनी क्यों छाया,
माया रूप, रूप-रत माया;
जल में उपल, उपल में जल है,
जीव-जीव में जगत समाया;
सरि में लहर, लहर में धारा,
धार-धार में जीवन सारा;
बूंद-बूंद में भरने वाले,
भरे-पुरे सागर क्यों रीते?
कुशल-क्षेम ही कहते-सुनते,
चले गए सब क्यों सिर धुनते;
ब्रह्म सत्य तो जग मिथ्या क्यों,
रवि-कर क्यों स्वप्नाम्बर बुनते;
तम में किरण, किरणतम कारा,
जीत-जीत क्यों जीवन हारा;
हीरा जनम गवाया यों ही,
रोते-गाते, खाते -पीते!
क्षुद्र में गंवा देते हैं...हीरा जनम गंवाया यों ही। लेकिन हमें तो पता ही नहीं कि जीवन कोई हीरा है। हमें तो जीवन ऐसा लगता है: दो कौड़ी का भी नहीं। मुप132त जो मिला है! परमात्मा की भेंट है, इसलिए हमें कीमत का कोई पता नहीं। काश, तुम्हें कीमत चुकानी पड़े और जीवन पाना पड़े, तो तुम इतनी आसानी से न गंवाओ। इतनी व्यर्थता में न उलझाओ।
मैंने सुना है, एक फकीर एक नदी के किनारे बैठा था और एक आदमी नदी से कूदकर आत्महत्या करने का उपाय कर रहा था। उस फकीर ने पूछा कि भाई, ऐसी क्या मुसीबत आ गई? क्यों मरे जाते हो? उस आदमी ने कहा, मेरा दीवाला निकल गया; मरूं न तो क्या करूं? फकीर ने कहा, मेरी तरफ देखो, मेरे पास कुछ भी नहीं है। तुम्हारे पास कम से कम कुछ तो था कि दीवाला निकला। मेरा तो दीवाला भी नहीं निकल सकता। फिर भी मस्त हूं! और धन्यवाद दो परमात्मा को। उस आदमी ने कहा, किस बात का धन्यवाद? दीवाला निकलने का? उस फकीर ने कहा: दीवाला निकलने का धन्यवाद नहीं, इस बात का धन्यवाद दो कि तुम्हारा दीवाला निकल रहा है, कम से कम तुम उन लोगों में से तो नहीं हो जो तुम्हारे कर्जदार हैं, इसका धन्यवाद दो।
फकीर की बात कुछ बेबूझ भी लगी, कुछ जंची भी, वह आदमी पास बैठ गया। कुछ बात आगे बढ़ी। फकीर ने कहा: इसके पहले कि तुम आत्महत्या करो..तुम तो मरने जा ही रहे हो, थोड़े मेरे काम आ जाओ! उस आदमी ने कहा, क्या काम? मुझे तो मरना ही है। फकीर ने कहा, ऐसा करो, मेरे साथ चलो। सम्राट् के पास ले गया। सम्राट से उसने कुछ कान में बातचीत की और वह सम्राट् ने कहा, ठीक है, दो लाख रुपये दूंगा। उस आदमी ने इतना ही सुना सिर्प कि दो लाख दूंगा। वह आदमी बोला, किस बात का सौदा हो रहा है? उस फकीर ने कहा: तुम्हारी आंखें बेच रहा हूं। सम्राट दो लाख देने को तैयार है दो आंखों के। उस आदमी ने कहा: तुमने मुझे मूरख समझा है? दो लाख में अपनी आंखें बेचूंगा? सम्राट ने कहा: तो तीन लाख ले लेना; चार लाख ले लेना; पांच लाख ले लेना। तू बोल, मुंहमांगे दाम देने को तैयार हूं। उस आदमी ने कहा, बेचना किसको है, जी! वह भूल ही गया कि आत्महत्या करने जा रहा था।
उस फकीर ने कहा: और अभी तू नदी में कूद कर मर रहा था, आंख भी चली जाती, सब चला जाता। यह सम्राट हर चीज लेने को तैयार है..आंख भी लेने को तैयार है, तेरी किडनी भी ले लेगा, और सब चीजें लेने को तैयार है। सम्हाल कर रखवा लेगा, वक्त पर काम पड़ेंगी। और तू तो मर ही रहा है, तुझे बेचने में हर्ज क्या है?
पहली बार उस आदमी को ख्याल आया कि मैं पांच लाख रुपये में अपनी आंखें बेचने को राजी नहीं हूं और नदी में कूद कर मरने को राजी था।
हमें होश नहीं है कि जो हमारे पास है, वह कितना मूल्यवान है। जिन्हें इस बात का होश आ जाता है, वे ही लोग धार्मिक हैं। उनके जीवन में अनुग्रह का भाव पैदा होता है कि परमात्मा ने कितना दिया है। उनके जीवन से प्रार्थना उठती है, धन्यवाद उठता है। हमारे जीवन से तो केवल शिकायतें और शिकायतें। जो मिला है, उसकी तो हम बात ही नहीं करते। जो नहीं मिला है, उसका रोना रोते हैं। और चाहिए। ‘और’ की ऐसी दौड़ है, कितना ही मिल जाए, वह और मरता नहीं, वह पि132र-पि132र खड़ा हो जाता है। कितना ही धन हो, और धन चाहिए; कितना ही पद हो, और पद चाहिए; कितनी ही प्रतिष्ठा हो, और प्रतिष्ठा चाहिए। मन ‘और’ में जीता है। यह सत्य अगर तुम्हें समझ में आ जाए कि मन का पूरा-का-पूरा जाल ‘और‘ का जाल है, तो तुम प्रार्थना का सूत्र समझ लोगे। क्योंकि प्रार्थना है ‘और’ के जाल से छूट जाना।
एक आदमी ने बहुत दिन तक परमात्मा की पूजा की। फिर परमात्मा का आविर्भाव हुआ। उस आदमी ने कहा कि मुझे कुछ वरदान दे दें। ऐसा वरदान दे दें कि जब भी मैं जो मांगू, मुझे मिल जाए। पास ही शंख रखा था पूजागृह में, परमात्मा ने उठा कर वह शंख दे दिया और कहा कि यह सम्हाल, जो मांगेगा, तत्क्षण मिल जाएगा। इधर परमात्मा तिरोहित हुए, उधर उस आदमी ने तत्क्षण कहा: एक लाख रुपया! एक लाख रुपया मिल गया। घूरे के भाग्य फिरे! उसने महल पर महल बनाए। बहुत धन की वर्षा हुई। मगर बेचैनी जैसी थी वैसी-की-वैसी रही। दुख जहां का तहां रहा। सच पूछो तो और ज्यादा हो गया। आशाएं सब पूरी होने लगीं, लेकिन निराशा में कोई कमी न आई। हताशा अपनी जगह खड़ी रही। अब जो मांगता, मिलता। मगर क्या जो मांगो वह मिल जाए, उससे हल होता है? मन कहता है: और मांग! एक महल से क्या होगा? दो मांग! दो से क्या होगा? लाख मांगे, मिल गए, ठीक है! रोज उसे जो मांगता मिलता, लेकिन परमात्मा को उसने धन्यवाद नहीं दिया।
एक रात एक संन्यासी उसके घर में मेहमान हुआ। संन्यासी ने यह देखा कि उसके पास शंख है, वह जो मांगता है, मिल जाता है। संन्यासी ने कहा कि यह शंख कुछ भी नहीं, मेरे पास महा शंख है। उस आदमी ने पूछा: महाशंख की क्या खूबी है? कहा: तुम जितना मांगो, उससे दुगना देता है। यह तुम्हारा तो उतना ही देता है; लाख मांगो, लाख देता है; मेरा लाख मांगो, दो लाख देता है। लोभ बढ़ा। उस गृहस्थ ने कहा कि आप तो संन्यासी हैं, त्यागी हैं, व्रती हैं, आपको क्या करना! आप मेरा शंख ले लो, मुझ गरीब को महाशंख दे दो! उस जैसा अब कोई अमीर नहीं था, लेकिन वह कहता है: मुझ गरीब को! महाशंख दे दो!! संन्यासी ने महाशंख दे दिया।
महाशंख बिल्कुल जैसा संन्यासी ने कहा था वैसा ही था। उसे कहो, लाख रुपया दो। वह कहे, लाख क्या करोगे, अरे, दो लाख ले लो! उससे कहो, अच्छा दो लाख दे दो, भइया! वह कहे, दो क्या करोगे, चार लाख ले लो! बस, वह बातें ही करे! लेने-देने का कोई सवाल ही नहीं। लेकिन तब तक संन्यासी जा चुका था। संन्यासी के कमरे में जाकर देखा, संन्यासी तो शंख लेकर नदारद हो गया था। यह महाशंख पकड़ा गया। ...महाशंख एक तरह का राजनेता रहा होगा। तुम जितना कहो, उससे दुगना ले लो। लेना-देना कुछ भी नहीं है! लेन-देन की बात ही मत उठाओ! बस, वह दुगना करता ही चला जाए।
तुम्हारा मन शंख भी है और महाशंख भी। तुम जो मांगते हो, वह मिल जाए, तो ‘और’ की दौड़ नहीं मिटती। तुम जो मांगते हो, उससे दुगुना भी मिल जाए, तो भी दौड़ नहीं मिटती। दौड़ मिटती ही नहीं। दौड़ बढ़ती ही चली जाती है। लोग दौड़ते-दौड़ते अपनी कब्रों में गिर जाते हैं। मंजिल आती कहां, कब्र आती! जीवन के लिए धन्यवाद नहीं उठता लेकिन। शिकायतें उठती हैं कि इतना क्यों नहीं दिया! यह भी तो हो सकता था, यह क्यों नहीं हुआ? तुम्हें अगर परमात्मा मिल जाए, तो तुम झपट कर उसकी गर्दन पकड़ लोगे कि अब कहां जाते हो, रुको! क्यों मुझे सताया? जो मैंने मांगा, मुझे क्यों न मिला? औरों को सब मिला, मुझे कुछ भी न मिला।
यह मन बड़ा ईष्र्यालु है। और शायद इसीलिए तो परमात्मा तुम्हें मिलता नहीं, तुम लाख खोजो! ऐसा छिपा है कि तुम खोजते ही रहो, मिलता ही नहीं; क्योंकि जानता है, तुम्हें भलीभांति जानता है..उसके ही बनाए हुए हो, तुम्हें नहीं जानेगा तो किसको जानेगा..तुम्हें भलीभांति जानता है कि मिल जाओगे तो तुम उपद्रव खड़ा करोगे। तुम हजार तरह की शिकायतें करोगे। तुम्हारे जीवन की व्यवस्था शिकायत है। और जब कि इतना मिला है कि काश, तुम उसे देख सको! और तुम्हारी बिना किसी पात्रता के मिला है। बिना किसी योग्यता के। तुमने अर्जित नहीं किया है। काश, तुम उसे देख सको तो आभार उठे..आनंद का, अनुग्रह का; तुम्हारे भीतर संगीत गूंजे; वही प्रार्थना है, वही व्यक्ति को धर्म में डुबा देती है। वही प्रार्थना व्यक्ति के जीवन में अमृत-रस घोल देती है।
गुलाल कहते हैं..
करु मन सहज नाम ब्यौपार, छोड़ि सकल ब्यौहार।।
धर्म को ब्यौहार न समझो। हमने वही समझ रखा है। मंदिर हो आते हैं, एक औपचारिकता है, एक सामाजिक व्यवहार है। और लोग जाते हैं तो हम भी हो आते हैं। बाप-दादे जाते रहे तो तुम भी जा रहे हो। और तुम जाते हो तो तुम्हारे बच्चे भी जाएंगे। लेकिन सब औपचारिक है, ऊपर-ऊपर है। तुम्हारे प्राणों का र्कोई संबंध नहीं है। मंदिर में जाकर सिर भी पटक आते हो, राम-नाम भी जप लेते हो; मस्जिद में बैठ कर कुरान की आयतें भी दोहरा लेते हो, मगर बस तोतों की भांति, मुर्दो की भांति। ओंठ हिलते हैं, हृदय नहीं हिलता। शब्द निकलते हैं, लेकिन तुम्हारे निःशब्द प्राणों में कोई नाद नहीं गूंजता। देह मंदिर में चली जाती है, तुम तो बाजार में ही रहे आते हो। देह प्रार्थना भी कर लेती है, पूजा भी कर लेती है, अर्चना भी कर लेती है, फूल भी चढ़ा देती है, आरती भी उतार लेती है..और तुम वहां होते ही नहीं। तुम हजारों जगह होते हो! तुम न मालूम कौन-कौन से व्यवसाय में उलझे होते हो! न मालूम किन योजनाओं में, भविष्य की किन कल्पनाओं में, अतीत की किन स्मृतियों में तुम भटके होते हो! ऐसे व्यावहारिक धर्म से तो अधार्मिक होना बेहतर है। कम से कम सच्चाई तो होगी!
मैं निरंतर कहता हूं: झूठे आस्तिक होने से सच्चा नास्तिक होना बेहतर है। कम से कम सच्चाई तो होगी! और जहां सच्चाई है, वहां नास्तिकता ज्यादा दिन नहीं टिक सकती। जहां सच्चाई है, वहां नास्तिकता मरेगी, मर कर रहेगी। और जहां झूठ है, वहां आस्तिकता कहां आ सकती है! थोथी रहेगी। बस, ऊपर-ऊपर पोती हुई होगी। जैसे मुर्दे को सुंदर कपड़े पहना दिए। इससे कुछ प्राण आ जाएंगे, कि सांस चलने लगेगी, कि हृदय धड़केगा?
झूठी आस्तिकता मनुष्य को डुबा रही है।
सच्ची नास्तिकता हो तो मनुष्य को एक न एक दिन आस्तिक होना ही पड़ेगा। क्योंकि जिसके प्राणों में ‘नहीं‘ कहने की सामथ्र्य है, ईश्वर को भी ‘नहीं’ कहने की सामथ्र्य है, जो कहता है कि जब तक जान न लूंगा तब तक ‘हां’ नहीं भरूंगा, जिसका ऐसा प्रबल प्रामाणिक आग्रह है, उसके लिए परमात्मा के द्वार निश्चित खुलते हैं। लेकिन तुम्हारी ‘हां’ नपुंसक है। तुम्हारी ‘हां’ में कोई बल नहीं है। तुमने ‘हां’ तो यूं ही कह दी कि कौन झंझट करे! कि चलो, सब कहते हैं तो होगा! तुम्हारे ‘हां’ में कोई प्रेम नहीं है, कोई प्रार्थना नहीं है। तुम्हारी ‘हां’ एक सामाजिक शिष्टाचार है। तुम्हारी ‘हां’ ऐसी ही है जैसे कोई पूछता है सुबह-सुबहः कहिए, कैसे हैं? और तुम कहते हो..सब सुंदर है; सब परमात्मा की कृपा है! सब अच्छा है! तुम्हारा चेहरा कुछ और ही कह रहा है। तुम्हारी आंखें कुछ और ही कह रही हैं। मातमी चेहरा लिए हो, रोती आंखें लिए हो, तुम्हारा व्यक्तित्व कुछ और ही कह रहा है। लेकिन शिष्टाचार है कि कहना चाहिए कि सब ठीक है।
कुछ भी ठीक नहीं है। ठीक ही होता तो फिर कहना क्या था! सभी लोग कह रहे हैं कि सभी कुछ ठीक है; तो यह जिंदगी में स्वर्ग उतर आता। लेकिन सब झूठ बोल रहे हैं। और ऐसा भी नहीं कि झूठ बहुत जान कर बोल रहे हैं। एक औपचारिकता सीख ली है। जो कहना चाहिए, वही कह रहे हैं। एक शिष्टाचार है, उसको निभा रहे हैं, उसका पालन कर रहे हैं। न दूसरा तुम्हें देखता है, न तुम दूसरे को देखते हो। न वह देखता है तुम्हारी दुर्दशा, न तुम देखते हो उसकी दुर्दशा। न उसकी आकांक्षा है जानने की कि तुम्हारी दुर्दशा क्या है, न तुम्हारी आकांक्षा है कि कोई दुख का रोना ले बैठे। यह तो बचने के उपाय हैं कि सब ठीक है; सब चंगा! यह तो भागने के उपाय हैं, कि भइया, तुम अपनी रस्ता जाओ, मैं अपनी रस्ता जाऊं, सब ठीक है; ताकि बात रुके, ताकि यहीं पूर्ण विराम आ जाए। आगे बात न बढ़ जाए।
ऐसी ही औपचारिकता तुमने धर्म को भी बना लिया है। रास्ते पर कोई मिल जाता है तो कहते हो: जय रामजी। कभी ख़्याल भी नहीं आता, राम का स्मरण भी नहीं होता उस जयराम जी में, शब्द ही होता है। इतना प्यारा संबोधन कि राम की जय हो, दुनिया की बहुत कम भाषाओं में है। साधारण से संबोधन हैं। जैसे अंग्रेजी में कहते हैं: शुभ प्रभात! साधारण संबोधन हुआ। लेकिन इस देश में हम सदियों से कहते हैं: राम की जय हो! मगर कहते ही हैं। हमें ख्याल भी नहीं है कि राम की जय का क्या अर्थ है? और राम की जय कैसे हो सकती है? राम की जय तो तभी होगी जब तुम मिटो। तुम्हारा अहंकार गले तो राम की जय हो। लेकिन औपचारिकता निभा रहे हैं। कुछ करने का थोड़े ही सवाल है, कुछ हम करने की आकांक्षा थोड़े ही व्यक्त किए हैं, कह दिया है, शब्द कंठस्थ हो गए हैं, होश में होने की भी जरूरत नहीं है, यंत्रवत, ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह हमसे निकल जाते हैं, हाथ जुड़ जाते हैं।
दुनिया में कहीं भी हाथ जोड़ कर नमस्कार करने का ढंग नहीं है। कहीं हाथ हिलाते हैं, कहीं हाथ मिलाते हैं, लेकिन हाथ जोड़ कर...हाथ जोड़ना तो प्रतीक है, गहरा प्रतीक है। हाथ जोड़ने का अर्थ है: दो को एक करना, द्वंद्व को निद्र्वंद्व करना, द्वैत से अद्वैत की तरफ इशारा है हाथ जोड़ने में। सारा वेदांत उसमें छिपा हुआ है। जब हम हाथ जोड़ कर कहते हैं जय रामजी की, तो हम यह कह रहे हैं कि जब दो एक हो जाएंगे तो राम की विजय होगी; न मैं बचेगा, न तू बचेगी। और जब हम दूसरे व्यक्ति को देख कर हाथ जोड़ रहे हैं तो हम यह कह रहे हैं कि वह राम तुम्हारे भीतर भी विराजमान है। तुम कोई भी होओ, बुरे कि भले, ईमानदार कि बेईमान, चोर कि साधु, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, राम तुम्हारे भीतर है। और जिस दिन दो जुड़ कर एक हो जाएंगे, तुम्हारे भीतर भी वह प्रज्वलित प्रकाश प्रकट होगा, वह अभिनव सौंदर्य प्रकट होगा, वह शाश्वत सुगंध तुम्हारे भीतर भी उठेगी।
मगर कितनी बार तुमने जय रामजी की है, कभी सोचा, क्यों हाथ जोड़े, किसको हाथ जोडे, क्यों राम का स्मरण किया? क्यों राम की जय की बात की? और राम की जय कैसे होगी जब तक तुम नहीं हारोगे? तुम्हारी हार में उसकी विजय है। और तुम तो जीतने में लगे हो। तुम्हारी हर जीत तुम्हें उससे दूर किए जाती है। हाथ तो तुम दो एक कर लेते हो, मगर जिंदगी भर तुम एक नहीं हो पाते। तुम जिसको देख कर नमस्कार किए हो, नमन किए हो, सिर झुकाया है..सच में झुकाया है? एक क्षण को भी अगर यह सच्चाई हो, औपचारिकता न हो, तो मंदिर जाने की जरूरत है! चारों तरफ चलते-फिरते मंदिर हैं। हर प्राण मंदिर है। जहां भी श्वास चल रही है, वहीं परमात्मा जी रहा है। हर आंख के भीतर विराजमान है। आंख के झरोखों से दिखाई नहीं पड़ता, तुम्हें क्या खाक मंदिर की झांकियों में दिखाई पड़ेगा! जीवंत अनुभव में नहीं आता, मुर्दा मूर्तियों को, पत्थर की मूर्तियों को पूजते हो! वहां पूजा तुम्हारी सच्ची हो सकेगी?
ठीक कहते हैं गुलाल..
करु मन सहज नाम ब्यौपार, ...
कहते हैं, अगर करना ही हो, तो सहज नाम का व्यापार करो।
...छोड़ि सकल ब्यौहार।।
छोड़ दो सब व्यावहारिकता। धर्म में और व्यावहारिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन यह व्यापार है। व्यापार का अर्थ होता है: कुछ देना पड़ेगा, तब कुछ मिलेगा। अपने को दोगे, तो उसे पाओगे। अपने को गंवाओगे, तो उसे पाओगे। कुछ दांव पर लगाना पड़ेगा। और यह व्यापार अनूठा व्यापार है। करीब-करीब जुआरीपन है। क्योंकि जिसे लगा रहे हो, वह तो ठोस है, हाथ में है और जिसके लिए लगा रहे हो, अदृश्य है; है भी या नहीं, इसका तब तक कोई निर्णय नहीं हो सकता जब तक तुम दांव पर न लगाओ। और दांव पर लगाने का ढंग क्या है? सहज नाम।
एक तो असहज साधना पद्धति होती है। कोई सिर के बल खड़ा है और सोच रहा है कि योग साध रहा है। अगर परमात्मा को सिर के बल ही खड़ा करना था, तो सिर के बल ही खड़ा किया होता, तुम्हें पैर के बल किसलिए खड़ा किया होता! तुम्हारे महात्मा परमात्मा से भी ज्यादा समझदार मालूम पड़ते हैं। चलते-फिरते, भले-चंगे आदमी को सिर के बल खड़ा कर देते हैं! और यह मूरख सोचता है कि सिर के बल खड़े होने से कुछ हल हो जाएगा! अरे, वैसे ही तुम उलटी खोपड़ी हो; वैसे ही तुम्हारी जिंदगी उल्टी खड़ी है; कुछ का कुछ तो तुम्हें वैसे ही दिखाई पड़ रहा है और सिर के बल खड़े होकर क्या तुम दुनिया को ठीक-ठीक देखने की कोशिश कर रहे हो!
 मैंने सुना है, जब पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे, एक गधा सुबह-सुबह उनसे मिलने पहुंच गया। ...गधों की कुछ न पूछो! और दिल्ली में गधों की कमी क्या? आदमी खोजना मुश्किल है। गधे तो तुम एक खोजो हजार मिलते हैं। खोजो या न खोजो, मिलते ही हैं। जगह-जगह भरे हैं...और यह गधा कोई साधारण गधा नहीं था। यह गधों का नेता था। ...दिल्ली में कोई साधारण गधे थोड़े ही रहते, गधों के नेता! ...यह सारे गधों का प्रतिनिधि था। और यह गया था पंडित नेहरू से कहने कि अब कुछ करना होगा। हमारी संख्या अठारह करोड़ है और हमारी बहुत सी मांगें हैं, या तो पूरी करो, या हम अपने लिए अलग देश चाहते हैं। अब हमें नहीं रहना है आदमियों के साथ। धमकी देने गया था। पहरेदार झपकी खा रहा था, ...जैसे कि पहरेदार झपकी खाते हैं; उनका काम ही यही है। ...आदमी होता तो रोकता भी, गधा था तो उसने भी फिकर नहीं की; कि गधा क्या बिगाड़ेगा? घूमने दो! गधा वहां टहल रहा था दरवाजे के सामने, जब पहरेदार झपकी खा गया, गधा भीतर घुस गया। ...गधे भी राजनीति में पड़ जाएं तो बड़े होशियार हो जाते हैं। आदमी राजनीति में पड़ जाएं तो गधे हो जाते हैं, गधे पड़ जाएं तो आदमी हो जाते हैं। राजनीति का चक्कर ही बड़ा अजीब है!
पंडित नेहरू सुबह-सुबह ब्रह्ममुहूर्त में शीर्षासन कर रहे थे। उन्होंने इस गधे को आते देखा, भूल गए एक दम से कि शीर्षासन कर रहे हैं। रोज की आदतवश कर रहे थे..औपचारिकता। नियम, तो पूरा कर रहे थे। एकदम हैरान हो गए और बोले गधे से कि बहुत गधे मैंने देखे, मगर तू उलटा क्यों चल रहा है? गधे ने कहा, पंडितजी, उलटे आप खड़े हैं। मैं उलटा नहीं चल रहा हूं। तब और भी बहुत चैंके, क्योंकि गधा बोला, हकबका गए। एक क्षण को किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। बड़े-बड़े नेताओं से मिले, बड़े-बड़े पंडितों से, महात्माओं से मिले, मगर इस गधे ने एक क्षण को उनकी सांसें रुकवा दीं। गधे ने कहा, आप बहुत हैरान न हों; इसमें कुछ आश्चर्य की बात क्या है? क्या आपने बोलते हुए गधे पहले नहीं देखे? पंडित नेहरू को कुछ होश आया। उन्होंने कहा कि बात तो सच कह रहे हो। बहुत से गधे मैंने देखे हैं जो बोलते हैं। इसलिए चैंकने की कोई बात तो नहीं। तुम यहां आए कैसे? उसने कहा, मैं आपसे मिलने आया हूं। आप नाराज न हों, आपका गुस्सा मुझे मालूम है; माना कि मैं एक गधा हूं, लकिन अखबार पढ़ते-पढ़ते बोलना-लिखना सीख गया हूं। इतने गुस्सा आप न दिखाई पड़ें। आपकी आंखों से एकदम चिंगारियां निकल रही हैं। क्या आप गधे से मिलने में अपना अपमान समझते हैं?
नेहरू ने कहा कि गधे से मिलने में अपमान? अरे, गधों के सिवाय मिलने यहां आता ही कौन है! मगर सुबह-सुबह जब मैं शीर्षासन कर रहा हूं, साधना कर रहा हूं, तभी तुम्हें आना था! उस गधे ने कहा कि पंडित जी, अगर परमात्मा को यही पसंद था, तो उसने सभी को सिर के बल खड़ा किया होता। पैर के बल खड़ा किया है। वही सहज है। वही उचित है। हम गधों को ही देखिए, कोई शीर्षासन नहीं करता। हम तो सहज जीवन में विश्वास करते हैं। आदमी अजीब-अजीब बातें निकाल लेते हैं! शरीर को इरछा-तिरछा करेंगे। मयूर आसन। तो मयूर ही क्यों नहीं तुम पैदा हुए? कितने आसन निकाल रखे हैं! उलटे-सीधे, इरछे-तिरछे; शरीर को तोड़ेंगे-मरोड़ेंगे; तुम साधना कर रहे हो कि सर्कस?
गुलाल सहज के पक्षपाती हैं। वे कहते हैं: व्यर्थ अपने को इरछी-तिरछी बातों में मत उलझाना। परमात्मा की साधना सहज ही हो सकती है। परमात्मा यानी स्वभाव परमात्मा यानी इस अस्तित्व की सहजता। तुम जितने सहज हो जाओ, जितने सरल हो जाओ, उतने ही उसके निकट हो जाओगे। जितने निर्दोष हो जाओ, जितने बच्चे जैसे भोले-भाले हो जाओ, उसके निकट हो जाओगे। संतत्व की पराकाष्ठा वही है; जब तुम परिपूर्ण सहज हो जाते हो।
करु मन सहज नाम ब्यौपार।। ...
सहज शब्द का अर्थ होता है: जो अपने से जन्मता है। सहज। ज का अर्थ होता है: जन्मना। जो अपने से जन्मता है। तुम्हारे भीतर कुछ चीजें हैं जो अपने से चल रही हैं। जैसे श्वास। तुम चला नहीं रहे, अपने से चल रही है। तुम सोए रहते हो तब भी चलती रहती है। तुम काम में लगे रहते हो तब भी चलती रहती है..कोई याद थोड़े ही रखनी पड़ती है। अगर याद रखनी पड़े, तो जिंदा रहना मुश्किल है। जरा भूले, जरा किसी काम में ज्यादा उलझ गए, सांस लेना भूल गए, खात्मा हो गया। रात सो गए, खात्मा हो गया। बेहोश भी तुम पड़े रहो तो भी श्वास चलती रहती है। श्वास तुम्हारे भीतर सहजता की प्रतीक है।
बुद्ध ने तो श्वास को ही समस्त योग का आधार माना और विपस्सना एकमात्र ध्यान की विधि दी, कि अपनी श्वास के साक्षी हो जाओ, बस काफी है। सिर्प श्वास भीतर आई, बाहर गई, इसको देखते रहो..कुछ मत करो..जब सुविधा हो तब श्वास का भीतर आना और बाहर जाना देखते रहो। श्वास जब भीतर आती है, तब होश रखो कि भीतर आ रही है। आते-आते भीतर एक गहराई पर आकर श्वास क्षण भर को ठहर जाती है..बस, क्षण भर को..उसी जगह से द्वार है अंतरात्मा में; जहां श्वास ठहरती है, ठिठकती है। फिर श्वास बाहर की तरफ जाती है। फिर श्वास के साथ बाहर जाओ। फिर बाहर जाकर भी एक जगह है जहां जाकर श्वास क्षण भर को ठिठक जाती हे, वहां भी द्वार है, वहां द्वार है परमात्मा का।
अगर बाहर के द्वार से प्रवेश करोगे, तो परमात्मा के द्वारा अपने में प्रवेश हो जाएगा। और अगर भीतर से प्रवेश करोगे, तो अपने द्वारा परमात्मा में प्रवेश हो जाएगा। दोनों द्वारों में से कोई भी एक चुन लो।
ज्ञानी भीतर का द्वार चुनता है, भक्त बाहर का द्वार चुनता है। मगर वे दोनों द्वार एक ही परमात्मा के द्वार हैं।
श्वास सहजतम प्रक्रिया है...और ध्यान रखना, प्राणायाम के लिए नहीं कह रहा हूं। कि गहरी श्वास लो, कि एक नाक बंद करके और एक नाक से श्वास लो, फिर इतने समय तक श्वास को भीतर रोको, फिर इतने समय तक बाहर रोको..वह तो असहज हो गया, वह तो कृत्रिम हो गया। नहीं, श्वास जैसे चल रही है अपने-आप, प्राकृतिक, बस उसको देखते रहो।
बुद्धों की यह प्रक्रिया अनूठी है।
गुलाल इसी को सहज नाम कहते हैं। इसको नाम क्यों कहते हैं? क्योंकि अगर तुम इस श्वास को सुनते रहे, देखते रहे, भीतर आना, बाहर जाना, भीतर आना, बाहर जाना और धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर का द्वार तुम्हें अनुभव में आ जाए या बाहर का द्वार अनुभव में आ जाए, तो तुम चकित हो जाओगे: तुम मंदिर के द्वार पर ही बैठे थे। कहीं जाना न था। काबा तुम्हारे भीतर था, काशी तुम्हारे भीतर थी, गिरनार तुम्हारे भीतर था, तुम कहां भागे फिरते थे? और जैसे-जैसे श्वास के साथ तुम्हारा तालमेल बैठेगा, तारतम्य बैठेगा, वैसे-वैसे तुम्हें एक नाद सुनाई पड़ेगा, जिसको संतों ने अनाहत कहा है, अनहद कहा है, उस नाद का नाम ही ‘नाम’ है। वह नाद अगर हम भाषा में उतारने की कोशिश करें, तो करीब-करीब ओंकार जैसा है। करीब-करीब। ठीक ओंकार ही नहीं। ओंकार उसकी निकटतम ध्वनि है। ओम् उसकी निकटतम ध्वनि है
इसलिए ओम् को सारे धर्मो ने स्वीकार किया है।
भारत में तीन धर्म पैदा हुएः जैन, बौद्ध, हिंदू। उनका सब मामलों में विरोध है, किसी चीज में उनका मतैक्य नहीं है, लेकिन ओम् के संबंध में वे तीनों सहमत हैं। और यहूदी, ईसाई और मुसलमान, तीन धर्म भारत के बाहर पैदा हुए। वे तीन भी ओम् के संबंध में सहमत हैं। हालांकि उन्होंने ओम् को अलग-अलग नाम दिए हैं। थोड़े-से भेद। वे भेद स्वाभाविक हैं। क्योंकि ओम् कोई शब्द नहीं है, ध्वनि है। और ध्वनि का तुम कैसा रूपांतर करोगे भाषा में, यह तुम पर निर्भर है। मुसलमान कहते: अमीन। वह ओम् का ही रूप है। ईसाई और यहूदी कहते: आमेन। वह ओम् का ही रूप है। यह भीतर जब श्वास पर तुम्हारा साक्षीभाव टिक जाता है, तब तुम्हें यह ध्वनि सुनाई पड़नी शुरू होती है। तुम्हें कहना नहीं है ओम्, ओम्, तुम कहोगे तो औपचारिक हो गया..यह तुम्हें सुनाई पड़े। तुम तो केवल श्रोता और द्रष्टा रहोगे। यह तुम्हारे भीतर अपने से उपजता हुआ दिखाई पड़े, सहज हो तो ही समझना कि सार्थक है।
करु मन सहज नाम ब्यौपार, छोड़ि सकल ब्यौहार।।
निसुबासर दिन रैन ढहतु है, नेक न धरत करार।
स्मरण रखो कि यहां तो प्रतिदिन जीवन कम हो रहा है। एक दिन गया, एक रात गई, एक दिन कम हुआ, एक रात कम हुई। इस बहते हुए समय के प्रवाह में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। यहां अपना घर मत बनाना। यहां घर बनाओगे तो रोओगे, तड़पोगे, पछताओगे।
निसुबासर दिन रैन ढहतु है, ष्ठ
सब ढहा जा रहा है, गिरा जा रहा है। इस गिरते हुए भवन में तुम अपने को ज्यादा आसक्त न रखो। शाश्वत की खोज कर लो। इस भवन में शाश्वत की भी धुन आ रही है..वही ओंकार की ध्वनि है, वही सहज नाम है..अगर तुम उसको पकड़ लो, उस पतले से धागे को पकड़ लो, उस छोटी सी किरण को पकड़ लो, तो उसी के साथ उड़ते हुए सूरज तक पहुंच जाओगे।
मेरे इस जीवन-मरु में क्यों रूप-सुधा बरसाई,
दो क्षण के प्रभात में ऐसी जीवन-निधि क्यों आई?
मेरे स्वर परिमित हैं जैसे प्रातः नभ के तारे,
किंतु मिलन के भाव न भर सकते हैं सागर सारे।
जीवन का यह बाण चुभा है मुझ में कैसा विषमय,
क्या निकाल सकते हैं अंतिम क्षण के हाथ तुम्हारे?
तन के लघु घट में अतृप्ति सागर की लहर उठाई,
मेरे इस जीवन-मरु में क्यों रूप-सुधा बरसाई?
प्रिय यह रात बहुत छोटी थी, कैसे मैं मिल पाऊं?
मेरा स्वर नश्वर है, कैसे गीत तुम्हारे गाऊं?
सांसों के टुकड़े कर डाले, वे भी नियमित गति में,
कैसे इनमें चिर मिलाप का जीवन आज सजाऊं?
एक सुमन के जीवन ने क्यों यह वसंत श्री पाई?
मेरे इस जीवन-मरु में क्यों रूप-सुधा बरसाई?
जीवन तो मरुस्थल है, मगर इसमें रूप की सुधा बरस सकती है। जीवन तो कंकड़-पत्थर है, लेकिन इसमें मोती झर सकते हैं..झरत दसहुं दिस मोती! जीवन तो परिवर्तन है, लेकिन इसमें शाश्वत से मेल हो सकता है, सेतु बन सकता है। जीवन तो मृत्यु है, लेकिन इस जीवन का ही अमृत का द्वार बनाया जा सकता है।
धंधा धोख रहत लपटानो, भ्रमत फिरत संसार।।
लेकिन हो कैसे? यह हो कैसे? तुम तो धंधे में, धोखे में उलझे हो।
धंधा धोख रहत लपटानो, भ्रमत फिरत संसार।।
तुम तो सारे जगत में खोजते फिरते हो, एक अपने को छोड़ कर। तुमने कसम खा रखी है एक अपने में नहीं झांकेंगे और सब जगह खोजेंगे। सब खदानें खोजेंगे, एक अपने भीतर की खदान को छोड़ रखा है।
माता पिता सुत बंधू नारी, कुल कुटुंब परिवार।
माया-फांसि बांधि मत डूबहु, छिन में होहु संघार।।
खूब बसा रहे हो परिवर्तन के इस जगत में! नाते, रिश्ते; कैसे-कैसे वायदे, कैसे-कैसे आश्वासन! लेकिन गुलाल कहते हैं: अगर समझो तो तुम जो भी बना रहे हो, वह फांसी बना रहे हो।
माया-फांसि बांधि मत डूबहु, ...
डूबोगे। अपने ही बनाए इस जाल में फंसोगे, उलझोगे, डूबोगे।
...छिन में होहु संघार।।
एक क्षण में मिट जाएगा सब कुछ। इसके पहले कि सब कुछ मिट जाए, कुछ कर लो। इसके पहले कि सब समाप्त होने लगे, इसके पहले कि आखिरी घड़ी आ जाए, समयातीत से कुछ पहचान कर लो।
हरि की भक्ति करी नहिं कबहीं, संत बचन आगार।
भाग रहे हो, दौड़ रहे हो..धन-पद-मद..लेकिन कभी परमात्मा को स्मरण नहीं करते। जो स्मरण योग्य है, उसे विस्मरण किया है। जो स्मरण योग्य नहीं है, सतत उसका स्मरण कर रहे हो। कभी अपने विचारों को तो देखना..क्या-क्या सोचते हो? कैसी-कैसी व्यर्थ की बातें सोचते हो? कैसी ऊलजुलूल, संगत-असंगत; कैसे सपनों में खोए रहते हो; खुद भी देखोगे तो हंसोगे कि मैं भी कैसा मूढ़! लेकिन फिर-फिर उसी जाल में पड़ जाओगे। फिर-फिर मन लिपटा लेगा।
हरि की भक्ति करी नहिं कबहीं, संत बचन आगार।
न तो कभी हरि की भक्ति की, न तो कभी राम को स्मरण किया, न कभी संतों के वचन में घर खोजा। धन में खोजा, पद में खोजा, प्रतिष्ठा में खोजा! मगर संतों के सत्संग में कभी घर न खोजा, जहां कि घर मिल सकता था। ऐसा घर जो कभी न गिरे।
करि हंकार मद गर्व भुलानो, ...
कितना अहंकार किया है! कैसे मदमस्त हो रहे हो अहंकार में! पानी का बबूला है, अभी फूट जाएगा। कैसे भूले हुए हो इसमें? रोज तुम्हारे आस-पास लोगों को टूटते देखते हो, मगर तुम्हें याद ही नहीं आती कि यही गति तुम्हारी भी होनी है। रोज कोई मरता है, रोज कोई अरथी उठती है, लेकिन यह कभी तुम्हें ख्याल ही नहीं आता कि यह तुम्हारी अर्थी है। देर-अबेर, बस बात समय की है। आज यह उठी, कल तुम्हारी उठ जाएगी। मौत के दरवाजे पर क्यू लगा है, रोज लोग हटते जा रहे हैं, क्यू छोटा होता जा रहा है, तुम करीब सरकते आ रहे हो। तुम्हें भी टिकट जल्दी ही मिल जाएगी। मगर अजीब बेहोशी है! अदभुत बेहोशी है!
करि हंकार मद गर्व भुलानो, जन्म गयो जरि छार।।
तुम्हारे अहंकार में ही तुम्हारा जीवन छार-छार हुआ जा रहा है।
अनुभव घर कै सुधियो न जानत, ...
कब लाओगे सुधि? कब करोगे स्मरण? और मालिक तुम्हारे भीतर बसा है!
...कासों कहूं गंवार।
गुलाल कहते हैं: मैं किसको गंवार कहूं, गंवार ही गंवार हैं यहां। गंवारों की भीड़ है। बेहोश लोगों की भीड़ है। अब किसको गंवार कहो? जहां सभी गंवार हों, वहां किसी को भी गंवार कहने का कोई अर्थ नहीं है। यहां तो हालत ऐसी है कि जैसे अंधों की बस्ती में आंख वाला आदमी ही मुश्किल में पड़ जाए। जैसे बहरों की बस्ती में कान वाला आदमी ही मुश्किल में पड़ जाए। जैसे पागलखाने में तुम्हें कोई भर्ती कर दे और तुम मुश्किल में पड़ जाओ।
इसलिए बुद्धों को जितनी अड़चन झेलनी पड़ी, उतनी अड़चन और किसी को भी नहीं। और कुल कारण इतना है कि बुद्धुओं की भीड़ में बुद्ध जो भी कहते हैं, जैसा भी जीते हैं, वह विकृत हो जाता है। हमारी भाषा और उनकी भाषा अलग हो जाती है। वे बोलते हैं किसी पर्वत-शिखर से और हम सुनते हैं किसी अंधेरी घाटी में। वे बोलते हैं जागरण से, हम सुनते हैं नींद में। हम तक पहुंचते-पहुंचते बात बदल जाती है, कुछ का कुछ हो जाता है।
खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कहानी है।
एक जादूगर आया और उसने गांव के कुएं में एक पुड़िया फेंक दी और कहा कि जो भी इसका पानी पीएगा, वह पागल हो जाएगा। गांव में दो ही कुएं थे। एक गांव का कुआं और एक राजा का कुआं। मजबूरी थी..गांव में खबर तो उड़ गई, लेकिन पानी न पीए कैसे चलेगा! सांझ होते-होते सारा गांव पागल हो गया। राजा बड़ा खुश था कि मेरे बड़े धन्यभाग कि मैंने महल में अलग कुआं बनवा रखा है। अगर मैं भी गांव के कुएं पर निर्भर होता तो आज मुसीबत हो जाती। राजा ठीक था, रानी ठीक थी, वजीर ठीक था; बस ये तीन बचे। लेकिन जब पूरा गांव पागल हो जाए...तो गांव में एक खबर उठी सांझ होते-होते कि लगता है राजा का दिमाग खराब हो गया है। और लोग चले; भीड़ लग गई महल के चारों तरफ। इसमें राजा के सिपाही भी थे, सेनापति भी थे, पहरेदार भी थे..सभी पागल हो गए थे। राजा बहुत घबड़ाया। उसके शरीर रक्षक भी पागल हो गए थे। अब तो कोई बचाने वाला भी नहीं था। उसने अपने वजीर से कहा, अब क्या करना? यह तो फांसी लग गई। कुआं एक ही होता तो ठीक था। वजीर ने कहा, घबड़ाएं मत, मैं इनको उलझा कर रखता हूं बातचीत में, आप पीछे के दरवाजे से भाग कर जाएं और जल्दी से पानी पीकर लौटें। राजा-रानी भागे।
वजीर लोगों को समझाने लगा कि भाइया, सुनो, समझो। मगर लोग कौन सुनने वाले थे! लोग चिल्ला रहे थे कि पागल राजा कहां है? उसको निकालो। हम राजा को बदलेंगे; अब पागल राजा नहीं चलेगा; किसी होश वाले को बिठाएंगे। तब तक राजा और रानी वापस लौट आए। गए थे पीछे के दरवाजे से, लौटे नहीं पीछे के दरवाजे से। आए नाचते-कूदते नंग-धड़ंग सामने के दरवाजे से। लोगों ने देखा, उन्होंने कहा, अहा, यह रहा राजा हमारा! धन्य हमारे भाग्य, लगता है होश इसके ठीक हो गए! तुमने भी पानी पीआ? उसने कहा, पीकर चले आ रहे हैं। बड़ा आनंद है। आनंद ही आनंद है। और वह तो नाचने लगा। और लोग भी नाचने लगे। उस रात उस गांव में बड़ा उत्सव हुआ कि हमारे राजा की बुद्धि ठीक हो गई। भगवान की कृपा है!
ठीक कहते हैं गुलाल..‘कासों कहूं गंवार।’ गंवार कहने में भी संकोच होता है। किससे कहूं? ‘कहै गुलाल सबै नर गाफिल’, ...सभी बेहाश हैं, ...‘कौन उतारै पार।’ यहां सभी बेहोश हैं, कौन उतारेगा पार इस भीड़ को, इन पागलों को, इन गाफिलों को? ये खुद तो उतर नहीं सकते। इनके हाथ में तो नाव देना खतरे से खाली नहीं है। ये तो डुबाकर रहेंगे नाव। और कौन उतारे इन्हें पार? इन्हें तो कोई होश नहीं, और इतना भी इन्हें होश नहीं कि जिसे होश आ जाए, उसकी सुन लें। इतना भी इन्हें होश नहीं कि कोई होश में आ गया, उसे पहचान लें। इसलिए थोड़े-से ही लोग बुद्धों का लाभ उठा पाए।
जीसस के कितने थोड़े से शिष्य थे। बारह। और जब जीसस को सूली लगी तो एक लाख आदमी पत्थर फेंकने को, गालियां बकने को, सड़े केले और टमाटर फेंकने को इकट्ठे हो गए थे। सुनने को कोई नहीं आता था। समझने को बारह आदमी केवल राजी हुए थे। लेकिन सूली देखने को एक लाख आदमी इकट्ठे हो गए! यह जमात है पागलों की।
मंसूर को गांव-गांव भगाया गया। गांवों में टिकने नहीं दिया गया। क्योंकि वह जो बात कहता था, वह होश की परम बात थी। ‘अनलहक।’ उसने घोषणा कर दी थीः अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। और तुम भी ब्रह्म हो। मुसलमानों के बरदाश्त के बाहर!
तरह-तरह के अंधे हैं। हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, ये अंधों की अलग-अलग जमातें है। जमातें ही अंधों की हैं। जमातें ही अंधों की हो सकती हैं। होशवालों की कोई जमात थोड़े ही होती है। होश वाले का कोई संप्रदाय थोड़े ही होता है, कोई धर्म थोड़े ही होता है। होश वाले का कोई देश थोड़े ही होता है, कोई जाति थोड़े ही होती है, कोई वर्ण थोड़े ही होता है। उसका तो होश ही वर्ण है, होश ही जाति है, होश ही धर्म है।
गांव-गांव से मंसूर को भगाया गया, कोई टिकने न देता था। कोई छप्पर में नहीं रुकने देता था; कोई भोजन नहीं देता था। लेकिन जब सूली लगी तो लाखों लोग देखने इकट्ठे हुए। अजीब लोग हैं! जो उसे सुनने कभी न आए..अमृत बरसा रहा था..लेकिन उसे जब मारा गया, उसके हाथ-पैर काटे गए, तब उसे देखने आए। उस पर पत्थर फेंकने आए। दूर-दूर से आए, सैकड़ों मील की यात्रा करके आए।
ठीक ही कहते हैं गुलालः ‘अनुभव घर कै सुधियौ न जानत’, ...तुम्हारे भीतर बैठा है, जिसकी सुधि आ जाए तो तुम्हें जीवन का अनुभव हो जाए, ...‘कासों कहूं गंवार।’
कहै गुलाल सबै नर गाफिल, कौन उतारै पार।।
बड़ी मुश्किल है। सब बेहोश हैं। कभी कोई अगर होश से भी भर जाता है, तो बेहोश या तो उसे मार डालते हैं, या उसकी पूजा करने लगते हैं। ये दोनों ढंग बचने के हैं। अगर थोड़े उजड्ड हुए तो मार डालते हैं। अगर थोड़े संस्कारी हुए तो पूजा करने लगते हैं। पूजा करने का मतलब है कि महाराज, यह लो पूजा और हमें क्षमा करो! अपनी बातें अपने तक रखो! हम सदियों तक पूजेंगे, फूल चढ़ाएंगे, मंदिर बनाएंगे, मगर हमें सताओ मत! हमसे करने को मत कहो! हम पूजा कर सकते हैं, हम आचरण नहीं कर सकते।
बुद्ध को नहीं सुना, बुद्ध की मूर्तियां बनाईं। इतनी मूर्तियां बनाईं कि..उर्दू में जो शब्द है मूर्ति के लिए, वह है: बुत..बुत बुद्ध का ही अपभ्रंश है। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध और मूर्ति पर्यायवाची हो गए। दुनिया में जितनी बुद्ध की मूर्तियां हैं, किसी की नहीं। और बुद्ध ने कहा था: मेरी मूर्तियां मत बनाना। कुछ करना हो तो अभी कर लो; जब मैं जा चुका, फिर मूर्तियां बनाने से भी क्या होगा? पत्थरों को मत पूजते रहना। लेकिन पत्थरों के साथ हमारा मेल बैठता है। हम भी पत्थर हैं, हमारी दोस्ती बन जाती है। और पत्थर की मूर्तियां हमारे वश में होती हैं। जब चाहो तब पट बंद करो; जब चाहो तब झूले पर लिटा दो; जब चाहो तब झूला झूला दो; जब चाहो तब भोग लगा दो..जो मर्जी हो सो करो, मूर्ति तुम्हारे वश में होती है। लेकिन जीवित बुद्ध तुम्हारे वश में नहीं होते। उनके साथ तो अगर मैत्री बनानी हो तो तुम्हें उनके वश में होना पड़ता है। और वही अड़चन है, वही कठिनाई है। समर्पित होए तो ही कोई व्यक्ति शिष्य हो सकता है।
लेकिन मिल सकती है राह, मिल सकता है द्वार। द्वार सदा खुला है। पृथ्वी कभी भी खाली नहीं होती बुद्धपुरुषों से। कहीं-न-कहीं कोई दीया जलता ही रहता है। परमात्मा हताश नहीं है, कहीं न कहीं किसी न किसी प्राण में अवतरित होता ही रहता है।
नामरस अमरा है भाई, कोउ साध-संगति तें पाई।।
वह अमृतरस उपलब्ध है। मगर मिलता है संगति में, किसी साधु की संगति में। जो पहुंच गया, उसके साथ मैत्री बन जाए, तो तुम भी उस पार जा सकते हो। ‘नामरस अमरा है भाई’, ...अमर करने वाला है नामरस। ...‘कोउ साध-संगति तें पाई।’ मगर पाने का ढंग है: साधु की संगति हो।
संगति..सत्संग..धर्म के जगत में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शब्द है। यह राज है, यह रहस्य है धर्म की कीमिया का। सत्संग का अर्थ होता है: जो जाग गया है, उसके पास बैठने-उठने की कला। सत्संग का अर्थ होता है: जो जाग गया है, उसके और अपने बीच मन को न आने देने की कला। सत्संग का अर्थ होता है: जो जाग गया है, उसके निमित्त अपने को मिटा देने की कला; विसर्जन की कला। सदगुरु के चरणों में जब शिष्य अपने को मिटा देता है, तो गंगा सदगुरु में उतरी है, वही गंगा शिष्य में भी उतरनी शुरू हो जाती है।
नामरस अमरा है, भाई, कोउ साध-संगति तें पाई।।
लेकिन पाने का एक ही ढंग है..बस एक..दूसरा कोई ढंग नहीं, दूसरा कोई उपाय नहीं। न शास्त्र से मिलेगा; लाख सिर पटको शास्त्रों में, तुम उस अमृत को न पा सकोगे। क्योंकि शास्त्रों में तो शब्द हैं। शब्दों का अर्थ कौन करेगा? अर्थ तो तुम करोगे। और तुम क्या अर्थ करोगे! तुम्हारी नींद अर्थ करेगी। और नींद के हिसाब से अर्थ किए गए तो अनर्थ होने वाला है।
मुल्ला नसरुद्दीन डट कर शराब पीता है। एक दिन उसके मित्र ने उससे कहा कि तुम कुरान भी रोज पढ़ते हो और शराब भी रोज पीते हो, ये दोनों बातें जमती नहीं। कुरान तो सख्त खिलाफ है शराब के। तो या तो कुरान छोड़ दो या शराब छोड़ दो। यह कैसा द्वंद्व चला रहे हो!
मुल्ला ने कहा: तुम समझे नहीं। कुरान रोज पढ़ता हूं, और शराब भी जो पीता हूं वह कुरान के आदेश से ही पीता हूं। वह आदमी सुन कर दंग हुआ, उसने कहा: कुरान में कहां है आदेश?
मुल्ला ने कुरान खोल कर दिखाई कि यह देखो, कुरान में साफ-साफ लिखा है कि पीओ, डटकर पीओ, मगर याद रखो: नरक में सड़ोगे। मुल्ला ने कहा कि अपनी जितनी सामथ्र्य है, अभी आधा ही वाक्य अपन पूरा कर पाते हैं...पीओ, डट कर पीओ, अभी इतना ही अपना वश है। अभी इतनी अपनी सामथ्र्य नहीं कि पूरा वाक्य उपयोग में ला सकें। तो जितनी बने उतनी तो उपयोग में लाओ। है यह कुरान का ही वचनः पीओ, डट कर पीओ; इसमें अपना कुछ नहीं है। रही आधी बात, अभी अपनी सामथ्र्य नहीं है। जब होगी सामथ्र्य तब आधी पर भी ध्यान देंगे।
नींद में तुम जो अर्थ करोगे, वे अर्थ भी तुम्हारे ही होने वाले हैं। शास्त्रों से तुम्हें छुटकारा नहीं मिल सकता है, मोक्ष नहीं मिल सकता है। क्योंकि शास्त्र का अर्थ तो तुम फौरन विकृत कर लोगे! शास्त्र की तो क्या सामथ्र्य है? क्योंकि शास्त्र मुर्दा है। शास्त्र में कोई जीवन तो है नहीं। फिर क्या उपाय है? एक ही उपाय है कि कहीं कोई तुम्हें जीवित शास्त्र मिल जाए..उसको ही सदगुरु कहते हैं। उपनिषद नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति जहां उपनिषद अभी पैदा हो रहे हों।
शास्त्र तो ऐसे हैं जैसे सूखे हुए गुलाब के फूल। और सदगुरु ऐसा है, अभी झाड़ी पर ऊगा हुआ फूल। अभी ताजा! सदगुरु की मौजूदगी जरूरी है, क्योंकि वह तुम्हें अनर्थ न करने देगा। वह तुम्हें रोकेगा, जहां तुम अनर्थ करने लगोगे। वह तुम्हें बार-बार अर्थ की तरफ खींचेगा। तुम नींद की तरफ ले जाओगे उसके शब्दों को, वह जागरण की तरफ लाएगा। कशमकश होती है गुरु और शिष्य के बीच, रस्साकशी होती है। और निश्चित ही गुरु जीतेगा अगर रस्साकशी शुरू हो गई। गुरु से जीतने का उपाय नहीं है।
गुरु से बचने का उपाय है कि उसके पास ही मत जाना! लेकिन जीतने का उपाय नहीं है। पास गए तो हार निश्चित है। क्योंकि ऐसे नहीं तो वैसे, इधर से नहीं तो उधर से, वह करेगा चोटों पर चोटें, वह तुम्हारे भीतर की चट्टानें तोड़ेगा, तुम्हारे झरने फोड़ेगा, वह तुम्हारे भीतर रसधार बहाएगा। क्योंकि है तो तुम्हारे भीतर छिपी। थोड़ी अड़चनें हैं, वे तोड़ी जा सकती हैं। उसने अपनी तोड़ी हैं। इसलिए उसे पता है वे अड़चनें कहां हैं। उसने अपनी तोड़ी हैं, इसलिए जानता है कैसे वे अड़चनें तोड़ी जा सकती हैं। वह उस पार हो आया है, इसलिए जानता है कैसे तुम्हारी नाव को उस पार ले चले।
नामरस अमरा है भाई, कोउ साध-संगति तें पाई।।
यों तो सारा शहर पड़ा है,
पर रहने की जगह नहीं है!
नाप रहे नभ की सीमाएं,
किंतु राह का पता नहीं है,
मनसूबे तो हिमगिरि जैसे,
पर कण भर भी तथा नहीं है;
कैसे मंजिल पाए कोई,
सीमांतों तक जाए कोई,
राशि-राशि किरणें बिखरीं पर..
दूर-दूर तक सुबह नहीं है!
धुरीहीन सब घूम रहे हैं,
केवल चलते ही रहना है;
काल-सरित की प्रखरधार में..
पराधीन, परवश बहना है;
कैसे पांव टिकाए कोई
उद्धत जलधि झुकाए कोई,
लहरों के अंबार लगे हैं,
पर तिरने को सतह नहीं है!
जीवन के क्षण भंगुर सपने,
सजने के पहले ही टूटे,
जो भी चले सहारा देने..
वे मनमोहक आंचल छूटे;
कैसे मन समझाए कोई,
सांसों को सुलझाए कोई;
यहां मौत के लाख बहाने,
पर जीने की वजह नहीं है!
तुम्हारा जीवन तो ऐसा है, मरने के तो उसमें बहुत कारण हैं, जीने के लिए कोई अर्थ नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। कहीं कोई जीवंत व्यक्ति मिल जाए, तो साहस करना सत्संग का। फिर मत फिकर करना कि वह हिंदू है कि मुसलमान है। क्योंकि जीवित और जाग्रत व्यक्ति न हिंदू होता है न मुसलमान। फिर मत फिकर करना कि वह कुरान पढ़ता है कि गीता। फिर छोटी-छोटी, ओछी-ओछी बातों में मत उलझना। इन ओछी-ओछी बातों के कारण तुम न मालूम कितनी बार चूके हो। अगर महावीर तुम्हें मिल जाएं तो तुम चूक जाओगे, क्योंकि तुम जैन नहीं हो। औरों की तो बात छोड़ दो, अगर महावीर नग्न मिल जाएं तो श्वेतांबर जैन भी चूक जाएगा, क्योंकि सफेद कपड़े नहीं पहने हुए हैं। और समझो कि ठंड के दिन हैं, महावीर कंबल ओढ़े वगैरह मिल जाएं, तो दिगंबर जैन चूक जाएगा कि नंगे नहीं हैं। अगर बुद्ध तुम्हें मिल जाएं, तुम उनकी वाणी सुनोगे? तुम उनके पास बैठोगे? तुम कहोगे हम हिंदू हैं, हम ईसाई हैं, हम मुसलमान हैं। और अगर मोहम्मद मिल जाए, तो तुम कहोगे कि हम जैन हैं, हम बौद्ध हैं। अगर तुम्हें गुलाल मिल जाएं तो तुम कहोगे, हम ब्राह्मण हैं। अगर तुम्हें रैदास मिल जाएं, तो तुम कहोगे, इस शूद्र को हम सुनने जाएंगे!
मैं जबलपुर में था। कुछ चमार तय किए कि रैदास की जयंती मनाएं। वे गए, नगर में जितने पंडित थे, जितने जाने-माने ज्ञानी थे, सबसे प्रार्थना की, सब बहाने कर गए, सब कन्नी काट गए। किसी ने कहा कि मैं तो उस दिन उलझा हुआ हूं। मुझसे आकर उन्होंने कहा कि बड़ी मुश्किल है, कोई बोलने आने को राजी नहीं है; बस, आप आ सकें तो आएं अन्यथा कोई बोलने को आने को राजी नहीं है। मैंने कहा, मैं आऊंगा। वे बड़े खुश हुए। मैं गया भी बोलने। जो लोग मुझे सदा सुनने आते थे और-और सत्संगों में, उनने आशा बांधी थी कि कम से कम वे लोग तो मुझे सुनने आएंगे जो मुझे सदा सुनने आते थे, वे भी कोई सुनने नहीं आए। चमारों की सभा में कौन सुनने जाए! चमारों के साथ बैठे कौन! उन बेचारों ने बड़ी व्यवस्था की थी, मगर बस चमार ही इकट्ठे हुए। कोई पचास-साठ चमार। इंतजाम किया था उन्होंने कोई पांच हजार लोगों के बैठने का। वे मुझसे कहने लगे कि आपको जो सदा सुनते हैं, उनका भी पता नहीं है! मैंने कहा: अब तुम समझो! मुझे प्रेम करते हैं वे, मगर इतना नहीं कि चमारों के साथ बैठ सकें! वह प्रेम भी औपचारिक है।
मुझे समझाने लोग आए, कहने लोग आए बोलने के पहले कि आप वहां मत जाएं। चमारों की सभा में बोलना शोभा देता है!
तो रैदास अगर जिंदा भी हों, तो तुम सुनने न जा सकोगे। रैदास तो खुद ही चमार हैं। तुम गोरा कुम्हार को सुनने जाओगे? तुम जुलाहे कबीर को सुनने जाओगे। तुम्हारे अहंकार को हजार बाधाएं आ जाएंगी। कोई ब्राह्मण है, कोई वैश्य है, कोई क्षत्रिय है..ऊंची-ऊंची जाति के लोग हैं। बुद्धपुरुषों से तुम इस तरह चूकते रहे हो। आज भी वही गति है जो पहले थी। कासों कहूं गंवार! अब भी वही नींद है।
कहै गुलाल सबै नर गाफिल, कौन उतारै पार।।
पार उतारने वाले माझी हमेशा उपलब्ध हैं; मगर नाव में बैठने वाले लोग नहीं मिलते। क्योंकि सबने तय कर रखा है हम किस की नाव में बैठेंगे। जैन कहते हैं, जब महावीर मिलेंगे माझी की तरह तब बैठेंगे। अब महावीर दुबारा तो आएंगे नहीं! बौद्ध कहते हैं, हम तो बुद्ध की ही नाव में बैठेंगे। बुद्ध दुबारा तो आएंगे नहीं! कृष्ण के मानने वाले कहते हैं, हम कृष्ण की नाव में बैठेंगे। कोई दुबारा नहीं आता है और तुम्हारे आग्रह अतीत के हैं। और जब बुद्ध जिंदा थे तब तुम नाव में बैठे नहीं। और कृष्ण जिंदा थे तब तुम नाव में बैठे नहीं।
तुम्हारी तो बात और, अर्जुन ने भी इतनी झंझट मचाई नाव में बैठने में! और मुझे शक है कि वह आखिर तक भी बैठा। क्योंकि महाभारत की कथा यह कहती है कि जब महाप्रयाण हुआ और स्वर्ग की यात्रा शुरू हुई, तो सब गल गए, सिर्प युधिष्ठिर और उनका कुत्ता स्वर्ग के द्वार तक पहुंचे। गल जाने वालों में अर्जुन भी है। अर्जुन भी दिखता है मान नहीं पाया पूरा-पूरा। गीता में हजार प्रतीक हैं इसके कि नहीं मान पा रहा है। संदेह पर संदेह उठाता है। शंकाएं उठाता है। और ऐसा लगता है कि आखिर में जब वह कहता है कि हे कृष्ण, तुमने मेरी सब शंकाओं का निराकरण कर दिया, अब मैं निशिं्चतमना हुआ, तो ऐसा नहीं है कि वह सच में निश्चिंतमना हो गया है। ऐसा लगता है कि थक गया, कि हे भइया, अब चुप होओ! चलो, तुम जो भी कहते हो सो ठीक! देखा कि यह तो मानते ही नहीं। मैं इतनी शंकाएं उठा रहा हूं, यह हर एक का उत्तर निकालते जाते हैं। चुप कर दिया कृष्ण ने ऐसा मालूम होता है..उनके बल ने, उनकी बातों ने..मगर अर्जुन रूपांतरित नहीं हुआ। वहीं का वहीं अटका हुआ है। वही बुद्धिजाल।
उसकी सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि कृष्ण उसके मित्र हैं, कैसे इनको सदगुरु माने? इनके साथ उठा, बैठा, खेला। इनके साथ लड़ा-झगड़ा, कुश्तमकुश्ती भी हुई होगी कभी, यह सब हुआ जिसके साथ उसको कैसे सदगुरु माने? उसको अड़चन है। और अभी तो यह मेरे सारथी हैं, उसको लगता होगा। सारथी होकर मुझको ज्ञान दे रहे हैं! मेरे घोड़ों को नहलाते हैं, खुजलाते हैं, साफ करते हैं और मुझको ज्ञान दे रहे हैं! मैं, जो रथ में बैठा हूं, रथ का मालिक हूं! अड़चन हो रही है उसे। और शायद ज्यादा अब बात आगे न बढ़े, तो उसने कहा होगा कि ठीक है, मेरी सब शंकाओं का समाधान हो गया। अब जो होना है सो ठीक है। बजाय तुम से सिर मारने के युद्ध में उतर जाना बेहतर है।
जो कृष्ण के साथ हुआ, वही बुद्ध के साथ, वही जीसस के साथ, वही मुहम्मद के साथ..सबके साथ वही हुआ है। सत्संग करना जरा महंगा काम है। क्योंकि झुकना पड़ता है। और झुकने में हमें अड़चन आती है। अहंकार को जरा सा भी गलाने में हमारे प्राण कंपते हैं। क्योंकि हमने अहंकार को ही अपना अस्तित्व समझ रखा है। और सत्संग में मांग एक ही है: तोड़ दो अहंकार को; गिरा दो उसे बिल्कुल; उससे सारा तादात्म्य छोड़ लो; उसके साथ अपनी एकता के सारे संबंध छिन्न-भिन्न कर डालो; कहो कि मैं अहंकार नहीं हूं; कहो कि मैं मैं नहीं हूं; कहो कि मैं सिर्प एक शून्य हूं; तब सत्संग घट सकता है।
नाम रस अमरा है, भाई, कोउ साध-संगति तें पाई।।
बिन घोटे बिन छाने पीवै, कौड़ी दाम न लाई।
और कुछ नहीं चुकाना पड़ता..धन से नहीं मिलता, त्याग से नहीं मिलता, ऐसे तो कौड़ी दाम भी नहीं लगाना पड़ता, लेकिन अहंकार छोड़ने से मिलता है। और अहंकार एक झूठ है। तुमने मान लिया, इसलिए है। है कहीं भी नहीं। तुम अलग नहीं हो अस्तित्व से। यह सिर्प तुम्हारी भ्रांति है कि मैं अलग हूं; सिर्प धारणा मात्र है कि मैं अलग हूं। अगर वृक्षों के पत्ते सोच सकें, तो हर पत्ता सोचेगा कि मैं अलग हूं। और अगर सागर की लहरें सोच सकें, तो हर लहर सोचेगी कि मैं सागर से अलग हूं। बस, वही भ्रांति तुम्हारी है। तो तुम गंवा कुछ भी नहीं रहे हो..सिर्फ एक भ्रांति, एक झूठ..ऐसे कौड़ी भी नहीं जा रही है; खो कुछ भी नहीं रहे हो और पा सब कुछ रहे हो।
रंग रंगीले चढ़त रसीले, कबहीं उतरि न जाई।।
और गुलाल कहते हैं कि अगर तुम इतना कर सको, जरा अहंकार को हटा सको, तो क्रांति घट जाए। ‘रंग रंगीले चढ़त रसीले’, ...तुम्हारे जीवन में रंगों की फुहारें छूट जाएं, तुम सतरंगे हो जाओ, तुम इंद्रधनुष हो जाओ; ‘रंग रंगीले चढ़त रसीले’, ...तुम रस से भर जाओ। रस जो कभी चुके नहीं। ...‘कबहीं उतरि न जाई।’ ऐसी रस की बाढ़ आए जो कभी उतरती नहीं। बरसाती बाढ़ नहीं..जो आती, उतर जाती..शाश्वत, सनातन की बाढ़।
छके-छकाए पगे-पगाए, झूमि-झूमि रस लाई।
फिर तुम नाचोगे, झूमोगे, मदमस्त होओगे; रस तुमसे झरेगा, बहेगा। ‘छके-छकाए’, तुम खुद भी छकोगे, औरों को भी छकाओगे। ‘पगे-पगाए’, तुम्हारा रोम-रोम उसी रस में पग जाएगा। तुम्हारी आत्मा ही नहीं उस रस में डूबेगी, तुम्हारी देह तक उस रस में डूब जाएगी, सराबोर हो जाएगी। तुम भीग जाओगे, तुम आद्र्र हो उठोगे; आनंद से रोआं-रोआं नाचेगा, गीत गाएगा, सुबह हो जाएगी, रात कट जाएगी।
बिमल बिमल बानी गुन बोलै, ...और तुम जो बोलोगे, वही सत्य होगा। सत्य तुम्हें बोलना नहीं पड़ेगा, तुम जो बोलोगे, वही सत्य होगा। तुम जो कहोगे, वही गीत बन जाएगा। तुम उठोगे तो नृत्य होगा, तुम बैठोगे तो उत्सव होगा।
बिमल बिमल बानी गुन बोलै, अनुभव अमल चढ़ाई।।
जब एक दफा अनुभव का नशा चढ़ जाता है, तो सारा जीवन परमात्मा का प्रमाण देने लगता है।
जहं जहं जावै थिर नहिं आवै, खोलि अमल लै धाई।
जहां-जहां जाओगे, किसी को भी पाओगे कि थिर नहीं हो पा रहा है, ‘खोलि अमल लै धाई’, अपना नशा उसके सामने कर दोगे, कि ले भाई, तू भी पी! उससे भी कहोगे, जी भर कर जीओ, जी भर कर पीओ! खोल दोगे अपने द्वार उसके लिए। भटकतों के लिए तुम राह बन जाओगे। दूर अंधेरे में भटकतों के लिए एक दीया बन जाओगे।
जल पत्थल पूजन करि भानत, फोकट गाढ़ बनाई।।
तुम लोगों को जगाने लगोगे कि क्या पागलपन कर रहे हो! जल पूज रहे हो? पत्थर पूज रहे हो? तोड़ने लगोगे तुम लोगों की ये धारणाएं। ‘फोकट गाढ़ बनाई।’ यह तुमने मुफ्त में ही मिट्टी की, पत्थर की मूर्तियां बना ली हैं, गढ़-गढ़ कर। परमात्मा तुम नहीं गढ़ सकते। परमात्मा तो वह है जिसने तुम्हें गढ़ा है।
गुरु परताप कृपा तें पावै, ...
लेकिन यह घटना घटती है केवल सदगुरु के संग में।
गुरु परताप कृपा तें पावै, घट भरि प्याल फिराई।
सद्गुरु मिल जाए तो तुम्हें पता चलेगा। सदगुरु तो एक जीवंत मधुशाला है। ‘घट भरि प्याल फिराई।’ वहां तो प्यालों पर प्याले भर कर और फिराए जा रहे हैं! जिसको पीना हो पी ले; जिसकी हिम्मत हो पी ले।
गुरु परताप कृपा तें पावै, घट भरि प्याल फिराई।
गुरु तो साकी है। सूफियों ने गुरु को साकी कहा है। साकी का अर्थ है: जो पिलाए। जो सुराही से शराब ढाले तुम्हारी प्याली में और तुम्हें चखा दे रस; तुम्हें स्वाद लगा दे परमात्मा का।
गुरु परताप कृपा तें पावै, घट भरि प्याल फिराई।
कहै गुलाल मगन हूवै बैठे, मंगिहै हमरी बलाई।।
गुलाल कहते हैं कि हम तो मगन होकर बैठे हैं। मांगना थोड़े ही पड़ता है गुरु के सत्संग में! हमारी बला मांगे! गुरु तो खुद ही पिलाता है। वह तो खुद ही अपनी सुराही लेकर घूमता है। वह खुद ही सुराही है। और उसके स्रोत तो परमात्मा से जुड़े हैं, इसलिए उसकी सुराही कभी चुकती नहीं।
सूफी फकीरों ने इसी शराब की बात की है..और लोग समझे नहीं।
उमर खैयाम इसी शराब की बात कर रहा है..और लोग समझे नहीं। लोगों ने शराबों की दुकानों के नाम रख दिए हैं: ‘उमर खय्याम।’ उमर खय्याम के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। उमर खय्याम एक सूफी संत है। वह वही कह रहा है जो गुलाल कह रहे हैं। वह यही कह रहा है कि परमात्मा शराब है, अलमस्ती है, आनंद का परम अनुभव है, सच्चिदानंद है। और उस सच्चिदानंद को प्रकट करने के लिए शराब से बेहतर कोई प्रतीक नहीं। हां, इतना फर्क है कि साधारण शराब का नशा चढ़ा और उतर जाता है, उसका नशा चढ़ता है तो चढ़ा, फिर चढ़ता ही चला जाता है, और-और ऊंचे, उत्तुंग शिखरों पर चढ़ता चला जाता है, उतरता नहीं।
सदगुरु मिल जाए तो झुकना उसके चरणों में, कहना उससे..
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूं।
जानता हूं इस जगत में
फूल की है आयु कितनी।
और यौवन की उभरती
सांस में है वायु कितनी।
इसलिए आकाश का विस्तार
सारा चाहता हूं।
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूं।
प्रश्न-चिन्हों में उठी हैं
भाग्य-सागर की हिलोरें।
आंसुओं से रहित होंगी
क्या नयन की निमित कोरें?
जो तुम्हें कर दे द्रवित
वह अश्रु-धारा चाहता हूं।
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूं।
जोड़ कर कण-कण कृपण
आकाश ने तारे सजाए।
जो कि उज्जवल हैं सही,
पर क्या किसी के काम आए?
प्राण! मैं तो एक मार्गदर्शक
एक तारा चाहता हूं।
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूं।
यह उठा कैसे प्रभंजन!
जुड़ गईं जैसे दिशाएं!
एक तरणी, एक नाविक
और कितनी आपदाएं!
क्या कहूं, मझधार में ही
मैं किनारा चाहता हूं!
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूं।
बस इतनी प्रार्थना, इतना समर्पण और जीवन में क्रांति की शुरुआत हो जाती है। कट गई अमावस फिर, हुई सहर, हुई सुबह। और जो घटता है, आश्चर्यो का आश्चर्य यह है, कि वह तुम्हारा ही स्वरूप है, जिससे तुम अपरिचित थे और परिचित हो जाते हो। गुरु तुम्हें कुछ देता नहीं, तुम्हें ही तुम्हारे सामने कर देता है। गुरु तो दर्पण बन जाता है, जिसमें तुम अपनी छवि देख लेते हो। और वही छवि परमात्मा की छवि भी है।
समझो गुलाल के इन वचनों को! परमात्मा करे एक दिन तुम भी कह सको: झरत दसहुं दिस मोती!

आज इतना ही।

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