कुल पेज दृश्य

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

संत क्यों बोलते हैं परमात्मा यानी क्या ?

भक्त की आकांक्षी हृदय की भाषा ध्यान और प्रेम विरह

प्रश्न-सार:

  1. सत्य कहा नहीं जा सकता है, फिर भी संत क्यों बोलते हैं?
  2. परमात्मा यानी क्या?
  3. भक्त की आधारभूत आकांक्षा क्या है?
  4. आनन्द ब. रहा है--और पीड़ा भी। यह ब.ते प्रेम का चिह्न है--या पागलपन है कोरा?
  5. जैन संस्कारों में पली हूं लेकिन ध्यान में कृष्णमय रास में डूब जाती हूं। ऐसा क्यों होता है?
  6. भक्त की विरह-दशा के संबंध में कुछ कहें।


पहला प्रश्नः सत्य कहा नहीं जा सकता है, फिर भी संत क्यों बोलते है?
इसीलिए, कि उसकी खबर तुम तक पहंुचां दें, जो कहा नही जा सकता है। इसीलिए कि जो कहा जा सकता है, उसी को जीवन मान कर समाप्त मत हो जाना। अनकहा भी है; न कहा जा सके, वह भी है--और वही सार है।
क्षुद्र कहा जा सकता है; विराट कैसे कहा जाए! शब्द इतने छोटे हैं; शब्दोें की छोटी-सी सीमा में कैसे असीम समाए! इशारा किया जा सकता है--अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती।
संत इसीलिए बोलते हैं कि कहीं ऐसान हो कि तुम शब्दोें ही शब्दोें में समाप्त हो जाओ।
शब्द बहुत क्षुद्र हैं। भाषा की बहुत गति नहीं है; असली गति मौन की है। शब्द तो यहीं पड़े रह जायेंगे; कंठ से उठेहै और कान तक पहुँचते हैं। मौन दूर तक जाता है; अनंत तक जाता है।
नहीं तो तुम्हें यह भी कैसे पता चलता कि सत्य नहीं कहा जा सकता है! कहने से इतना तो पता चला। कहने से इतनी तो याद आई कि कुछ और भी है। भाषा के बाहर, शास्त्र के पार कुछ और भी है। कुछ सौंदर्य ऐसा भी है, जो कभी कोई चित्रकार रंगों में उतार नहीं पाया है। और कुछ अनुभव ऐसा भी है कि गूंगे के गंुड़ जैसा है; अनुभव तो हो जाता है, स्वाद तो फैल जाता है प्राणों में, लेकिन उसे कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिलते।
जानते हैं संत; निरंतर स्वयं ही कहते है कि सत्य कहा नहीं जा सकता; और बड़ी जोखिम भी लेते हैं। क्योंकि जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहने की कोशिश में खतरा है। गलत समझे जाने का खतरा है। कुछ का कुछ समझे जाने का खतरा है। अनर्थ की संभावना है--और अनर्थ हुआ है।
लोगों ने शब्द पकड़ लिए हैं। शब्दों के पकड़ने के आधार पर ही तो तुम विभाजन किए बैठे हो। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन, है! ये फर्क क्या हैं? ये शब्दों को पकड़ने के फर्क हैं।
किसी ने मोहम्मद के शब्द पकड़े हैं, तो मुसलमान हो गया है। और किसी ने महावीर के शब्द पकड़े हैं, तो जैन हो गया है। मोहम्मद के और महावीर के मौन में जरा भी भेद नहीं है। भैद है, तो शब्दों में है।
अगर मुसलमान मोहम्मद का मौन देख ले, जैन महावीर का मौन देख ले, फिर कहां विवाद है? मौन में कैसा विवाद? मौन तो सदा एक जैसा होता है। किसी हड्डी-मांस-मज्जा में उतरे, मौन तो सदा एक जैसा होता है।
एक कागज पर कुछ लिखा; दूसरे कागज पर कुछ लिखा। लेकिन दो कोरे कागज तो बस, कोरे होते हैं।
अगर मुसलमानो ने मोहम्मद के शब्द के पार झाँका होता, तो मुसलमान होकर बैठ न जाते। फिर हिंदू से लड़ने जाने की कोई जरूरत न थी। गीता और कुरान में होंगे भेद; मोहम्मद और कृष्ण में नहीं हैं।
गीता और कुरान में भेद होंगे ही, क्योंकि गीता एक भाषा बोलती है, कुरान दूसरी भाषा बोलता है। गीता एक तरह के लोगों से कही गई; कुरान दूसरे तरह के लोगों ने दूसरे तरह के लोगों से कहा। संस्कृति, सभ्यता, भूगोल, इतिहास--इन सब का प्रभाव पड़ता है शब्दों पर।
अब कृष्ण अरबी तो बोल नहीं सकते थे--सो कैसे बोलते! संस्कृत ही बोल सकते थे। मोहम्मद तो संस्कृत बोल नहीं सकते थे; जो बोेल सकते थे, वही बोले। जो बोल सकते थे, उसी भाषा से इशारे किए। फिर जिनसे बोल रहे थे, उनकी ही भाषा का उपयोग करना होगा; नहीं तो बोलने का अर्थ क्या है!
मगर लोगों ने शब्द पकड़ लिए हैं। इसलिए संत खतरा भी मोल लेता है। यह जान कर कि सत्य तो कहा नहीं जा सकता, फिर भी खतरा लेता है। और खतरा बड़ा है--कि लोग शब्द को न पकड़ लें!
लोग इतने अंधे हैं, चांद बताओ, अंगुली पकड़ लेते है! और सोचते हैः अंगुली चांद है! अंगुली की पूजा शुरू होे जाती है। अंगुली के आसपास मंदिर-मसजिद बन जाते हैं। अंगुली के पंडित-पुरोहित हो जाते हैं।
फिर अंगुलियों अंगुलियों में बड़ा विवाद चलने लगता है--कि कौन सी अंगुली संुदर है और कौन सी अंगुली सत्य है! अंगुलियां कहीं सत्य होती हैं! अंगुली के सुंदर और असुंदर से क्या लेना-देना है? कुरूप से कुरूप अंगुली भी चांद को बता सकती है। और संुदर से सुंदर अंगुली भी बता सकती है। जवान और बू.ी अंगुली बता सकती है। काली और गोरी अंगुली भी बता सकती है। छोटी और बड़ी अंगुली भी बता सकती है। अंगुलियों से क्या फर्क पड़ता है? चांद बताया गया--चांद देखी; अंगुली को भूलो, अंगुली को जाने दोे।
मगर खतरा तो है। अंधों से बात करनी हो--प्रकाश के संबंध में खतरा तो है; क्योंकि प्रकाश के संबंध में वे जो शब्द सुनेंगे, कहीं उन्हीं को पकड़ कर बैठ न जायें। कहीं ‘प्रकाश’ शब्द को रख कर घर में, बैठ न जायें और सोचें कि रोशनी होगी।
‘प्रकाश’ शब्द प्रकाश नहीं है और न ‘परमात्मा’ शब्द परमात्मा है।
एक हिंदू से मैं परिचित था। एक दिन मेरे पास आए और कहा कि ‘मैं थक गया हिंदू-धर्म से। मैं तो मुसलमान हो गया।’ मैंने पूछाः ‘फर्क क्या हुआ? मंदिर जाते थे, मसजिद जाने लगे, कोई हर्जा नहीं। गीता
प.ते थे, कुरान प.ने लगे; कोई हर्जा नहीं। मगर अगर तुम जिस ंग से गीता को पकड़े थे, उसी ंग से कुरान को पकड़ा, तो फर्क क्या होगा? ’
उनका नाम था--रामदास; वे मुसलमान हो गए, उनका नाम हो गया--खुदाबख्श। दोनों का मतलब एक है। चाहे रामदास कहो, चाहे खुदाबख्श कहो--इशारा एक है।
लेकिन हम इशारों को जोर से पकड़ लेते हैं और भूल ही जाते हैं कि इशारा किस तरफ है। जैसे कोई मील के पत्थर के पास बैठ जाए। मील के पत्थर पर लिखा है कि दिल्ली इतनी दूर है, और दिल्ली की तरफ तीर बना है और तुम मील के पत्थर को पकड़ कर बैठ गए--कि आ गई दिल्ली। ‘दिल्ली’ लिखा है मील के पत्थर पर और तुम पूजा करने लगे।
वास्तविक धार्मिक व्यक्ति वही है, जो कि शब्द से सदा सावधान रहे।
संत खतरा मोल लेते हैं जान कर; क्योंकि अगर वे चुप रह जायें, तो और भी बड़ा खतरा है। तुम शब्द ही नहीं समझ पाते, तो मौन तो समझोगे कैसे!
ख्याल जो अभी
बना नहीं है
मन जो अभी
मना नहीं है
दुख जो अभी
घना नहीं है
शब्दोें में कहना है
और कहना है अभी
शुरू किए देता हूं
तमाम जोखिमें ली हैं,
एक और
जोखिम लेता हूं।
परमात्मा कभी पूरा का पूरा अनुभव में थोड़े ही आता है। पूरा अनुभव में आ जाए, तो सीमित हो जाए। बस स्वाद मिलता है--स्वाद मिलता चला जाता है। खोज शुरू होती है; प्रवेश होता है; अंत कभी नहीं होता।
तो ऐसा थोड़े ही होता है किसी दिन कि परमात्मा पूरा अनुभव में आ गया--कि अब कह दो। जैसे-जैसे अनुभव में आता है, वैसे-वैसे पता चलता हैः और अनुभव में आने को शेष है। अभी कहो कैसे!
और एक और अनूठी घटना घटती है कि जैसे-जैसे परमात्मा अनुभव में आना शुरू होता है, वैसे-वैसे तुम विदा होने लगते हो; तुम सिंहासन से उतरने लगते हो--खोने लगते हो। जैसे रोशनी आती है, तो अंधेरा खोने लगता है--ऐसे ही परमात्मा आता है, तो तुम खोने लगते हो।
जिस दिन परमात्मा की रोशनी तुम्हें सब तरफ भर पूर भर देती है, उस दिन तुम नहीं रह जाते; कहने वाला नहीं रह जाता। वह कहने वाला मन, वह जो खोजने चला था, वह जिसने यात्रा शुरू की थी, अब है ही नहीं।
ऐसी घड़ी में मौन रह जाना तो बहुत सुगम है। लेकिन अगर तुम मौन रह जाओगे, तो वे जो अभी अंधेरों में टटोलते हैं, उनको तुमसे कोई भी खबर न मिलेगी कि तुम पहुंच गए। उन्हें तुमसे कोई इशारा भी न मिलेगा। उन्हें तुमसे कोई सहारा भी न मिलेगा। और सहारा--पहुंचे हुए आदमी से मिलना ही चाहिए। वह उसकीे करुणा का हिस्सा है; वह पहंुचा, इसका सबूत है, कि सहारा मिलना शुरू हो जाए।
यह कैसे संभव है कि तुमने देख ली हो रोशनी और तुम उनको न बतलाओ जो अभी अंधेरे में टटोल रहे हैं! तुम्हारे ही पास चारों तरफ अंधेर में वे टटोल हैं, खोज रहे हैं।
यह असंभव है कि तुम्हें द्वार मिल जाए, और तुम चिल्लाओ ना! तो जीसस ने अपने शिष्यों से कहा हैः ‘जाओ, मकानों की मुंडेरों पर च. जाओ और चिल्लाओ, क्योंकि लोग बहरे हैं। शायद कोई सुन ले।’ और बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा है कि ‘दूर-दूर जाओ। जहां जहां खोजी कहीं हो, उसे खोजो। जो हमें मिला है उसकी खबर पहंुचां देनी जरूरी है।’ इतना सत्य के प्रति आदर आवश्यक है--कि जब मिलें, तो उसे बाँटो।
इसलिए संत बोलते हैं। उचित भी नही है कि बोलें; जानते हुए--कि सत्य कहा नहीं जा सकता। जानते हुए कि जोखिम है; तुम शब्द को पकड़ लोगे। फिर भी जोखीम लेनी होगी। सौ आदमियों से बोलेंगे, शायद एक समझ पाए। मगर इतना भी क्या कम है! सौ सोयों में एक जाग जाए; सौ मुरदों में एक जिंदा हो जाए! सौ वृक्षो में एक वृक्ष पर फूल खिल जायें, इतना भी क्या कम है! फिर उस एक ‘वृक्ष’ पर से रोशनी उठने लगेगी; फिर उस एक वृक्ष से गंध फैलने लगेगी। वह वृक्ष किसी और को जगाएगा। कोई और दीया उमगेगा। कोई और जीवंतता पैदा होगी। इसको सूफी कहते हैं--सिलसिला। जैसे एक जलते दीये से बुझा
दीया जल जाता है।
इसके पहले कि मेरा दीया विदा हो जाए, मैं चाहूंगा कि तुममें से बहुतों के दीये जल जाएं। और इसके पहले कि तुम विदा होने लगो, बांट जाना रोशनी। तुम्हें तो बुझना होगा; सभी को बुझना होगा। लेकिन रोशनी चल सकती है--एक दीये से दूसरे दीये में; सिलसिला बन सकता है।
यह ‘सिलसिला’ शब्द प्यारा है। हमारे पास भी ठीक वैसा ही शब्द है, लेकिन खराब हो गया--‘परंपरा’। खराब हो गया। उसका मतलब तो कुछ हो गया--जड़, पुराना। उसका मतलब इतना ही होता है कि जो एक से दूसरे को मिला। एक ने दूसरे के कान में फूंका--मंत्र। एक ने अपना प्राण दूसरे प्राण को दिया।
इसके पहले कि जानने वाला विदा हो, कुछ को जगा जाए, कुछ को जला जाए। विदा होने के पहले वे किसी और को जगा देंगे। ऐसा सिलसिला चलता है।
बुद्ध ने जो सिलसिला शुरू किया था, अब भी उसमें दीये जलते हैं। मोहम्मद ने जो सिलसिला शुरू किया था, अब भी उसमें दीये जलते हैं। रोशनी खो नहीं गई। मोहम्मद गए, महावीर गए, कृष्ण गए, कबीर गए, नानक गए--रोशनी नहीं खो गई है।
इस रोशनी को जलाए रखने का प्रतीक ही परसियों ने बना रखा है--अपने पूजा-गृहों में। मगर वह जड़ हो गया। रोशनी को बुझने नहीं देते; पारसी अपनी अगियारी में रोशनी को बुझने नहीं देते। वही रोशनी जलाए रखते है; मगर बाहर की रोशनी की बात ही न थी। पकड़ लिया शब्द को, संकेत को और चूक गए असली बात। भीतर की रोशनी जलाए रखनी है। अगियारी बुझे न--भीतर की। मेरा दीया जला तो मैं तुम्हारे दीये को जला जाऊं। रोशनी बुझे न।
रोशनी बहुत कम है। कभी-कभी कोई जलता है। इसलिए जब भी कोई जल जाए, तो वह सब तरह की चेष्टा करे कि जितने दीये उसके आस-पास जल सकें, उतना अच्छा है। अंधेरा बहुत है। अंधेरा बड़ा हैं।
दीये बहुत थोड़े है; कभी-कभी जलते हैं; उन्हीं दीयों में सारी संभावना है।
आंसुओं की विकल वाणी
कह गई बीती कहानी
अन्यथा हम मौन रहते।
कल्पना को सच सिखाते
भावना को भव दिखाते
छंद को निर्बंध करते
कुछ नहीं लिखते-लिखाते
पर हृदय का विधुर गायक
बन गया बरजोर नायक
धूम्र की लपटें न मानीं
अन्यथा हम मौन रहते।
सयमित करते स्वरों को
गुनगुनाते मधुकरों को
बेरहम बन कतर देते
गीत विहगों के परों को
क्या पता था शब्द निर्मल
कल करेंगे अर्थ का छल
सह न पाए वचनदानी
अन्यथा हम मौन सहते।
कल शब्द का अनर्थ हो जाएगा। कल कुछ का कुछ समझा जाएगा। कल की छोड़ो, आज ही समझा जाएगा कुछ का कुछ; अभी समझा जाएगा--कुछ का कुछ।
क्या पता था शब्द निर्मल
कल करेंगे अर्थ का छल
सह न पाए वचनदानी
अन्यथा हम मौन सहते।
लेकिन फिर भी कहना होगा। अर्थ का अनर्थ होगा; कुछ का कुछ समझा जाएगा; कुछ की कुछ व्याख्या होगी--फिर भी कहना होगा। सौ में से निन्यानबे गलत समझ लेंगे, लेकिन कोई एक ठीक समझेगा। हजार में नौ सौ निन्यानबे गलत समझेंगे; कोई एक ठीक समझेगा। उस एक के लिए कहना होगा।
संत जानते हैं--सत्य कहा नहीं जा सकता। नौ सौ निन्यानबे नहीं ही समझेंगे। लेकिन हर्ज क्या है? इन नौ सौ निन्यानबे से नहीं कहा जाता, तो भी ये न समझते; तो भी ये जैसे अंधे की तरह जीते थे, वैसे ही जीते। अब भी ये अंधे की तरह जीयेंगे। अब हिंदू मुसलमान, ईसाई होकर जीयेंगे। मगर इससे क्या फर्क पड़ता है; कुछ न कुछ होकर ये जीते ही। ये किसी न किसी बहाने टकराते--हिंसा करते, युद्ध करते लड़ते झगड़ते। यह होना था।
लेकिन कोई एक, जो समझ लेगा, जो गह लेगा बात को और चल पड़ेगा--उस एक के लिए सारी जोखिमें लेना उचित है।
फिर संत शब्दोें से ही नहीं कहते हैं--यह भी ख्याल में रखना। शब्द तो केवल ‘एक’ उपाय है--कहनें का। संत और भी बहुत तरह से कहते हैं। लेकिन और बहुत तरह से समझना हो, तो संतो के पास आना पड़ता है।
शब्द तो दूर से भी समझ में आ सकते हैं। शब्द में कोई रिश्ता नहीं बनता। सुन लिया; तुम मुक्त हो। लेकिन और समीपता से संवाद करना हो, तो फिर कुछ रिश्ता बनाना होता है।
शब्द तो तुम्हें विद्यार्थी बनाता है। और तरह जानना हो, और तरह सुनना हो--शब्द से ज्यादा--गहनता में उतरना हो, तो फिर शिष्य होना, जरूरी है--फिर विद्यार्थी होने से नहीं चलता। फिर कुछ दाँव पर लगाना जरूरी है। फिर जिज्ञासु होने से नहीं चलता; फिर मुमुक्षु होना जरूरी है। फिर जल्दी ही पता चलेगाः मुमुक्षु होने से भी नहीं चलता; साधक होना जरूरी है। फिर तुम धीरे-धीरे गहरे में उतरोगे। लेकिन शब्द से यात्रा शुरू हो जाती है।
तुम मेरे पास आए हो; किसी और कारण से नहीं। शब्द ही बुला लाया है। शब्द से ही पहली पाती तुम्हें मिली।
यहां ऐसे लोग हैं, जो न मालूम किस दूर देश से आए हैं। कोई किताब हाथ लग गई; कहीं कोई शब्द हाथ लग गया। उस शब्द से उनके भीतर कुछ कंपा; उस शब्द से कुछ उनके भीतर रस उमगा। फिर यह शब्द कहां से आया है, उसकी खोज करते चले आए हैं; दूर से चले आए हैं।
अब आगे के संबंध भी बनाए जा सकते हैं। अब भाषा के अतिरिक्त प्रेम का नाता भी बनाया जा सकता है। अब वे मेरी आंखो में भी झांक सकते हैं; मेरे स्पर्श को भी अनुभव कर सकते हैं; मेरी सन्निधि को भी पी सकते हैं। अब इस मौजूदगी में और तरह के फूल खिल सकते हैं। लेकिन शब्द ही ले आया है।
शब्द सत्य तक चाहे न लें जाए, लेकिन संत तक तो ले आता है। यह भी क्या कम है! फिर संत तुम्हें सत्य तक ले जाएगा।
आँसू की तरह गरम-गरम
टपके उसके
दोे शब्द
झपके झपके ख्याल
जागे और रूप
मन के आगे
दोे शब्द गीले और गरम
दे गए भरम इतना
कि तब से अब तक
खुश हूं
काश-कुश कुछ नहीं गड़ते
गड़ाए
दोे आंसू की तरह गरम-गरम
शब्द
मौत तक के आड़े आए
जीवंत शब्द हाथ लग जाए ...
खुश हूं
काश-कुश कुछ नहीं गड़ते
गड़ाए
जीवंत शब्द एक बार तुम्हारे भीतर नीड़ बना ले, बसेरा कर ले, तो तुम्हारी जिंदगी का अर्थ बदलना शुरू हो जाता है।
एक शब्द भी मेरा तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाए, तुम्हारे हृदय तक पहुंच जाए, हृदय की धड़कन में समा जाए, तुम फिर वही न रह सकोगे--जो तुम थे। यह शब्द काम शुरू कर देगा। यह शब्द तुम्हें रूपांतरित करने लगेगा; यह शब्द तुम्हें नई दृष्टि देने लगेगा। परिस्थितियां वही होंगी, लेकिन तुम्हारा व्यवहार बदलने लगेगा।
कल कोई गाली देगा और शायद मेरा सुना शब्द बीच में आ जाए। और तुम गाली को ऐसे पी जाओ, जैसे तुमने कभी न पिया था। कल कोई गाली दे और तुम्हारे मन में दंश न हो।
खुश हूं
काश-कुश कुछ नहीं गड़ते
गड़ाए।
एक उमंग भीतर आ जाए, तो जिंदगी बदलनी शुरू हो जाती है। और शब्द मनुष्य का पहला साधन है।
मनुष्य और पशुओं में एक ही भेद है कि मनुष्य के पास शब्द हैं और पशुओं के पास शब्द नहीं। शब्द संवाद का उपाय है। हालांकि यह तुम पर निर्भर है। चाहो तो विवाद कर लो; तो शब्द विवाद बन जाता है। चाहो तो झगड़ा कर लो शब्द से, गाली-गलौच कर लो; और चाहे तो प्रेम कर लो, प्रार्थना कर लो, संबंध बना लो, चाहे संबंध तोड़ लो। यह तुम पर निर्भर है।
तो ऐसे लोग भी हैं, जो मेरा शब्द सुन कर विवाद में पड़ जायेंगे; वे उनकी जानें। अगर उन्हें जीवन के अवसर गंवाने हैं, तो उन्हें पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन वे लोग भी हैं, जो शब्द को सुन कर नाच उठेंगे। जिनके भीतर कोई पड़ी वीणा कभी जो नहीं बजी थी, बजने लगेगी।
फिर आगे की बातें भी हो सकती हैं। फिर एक दिन तुम मौन को भी समझ सकोगे।
निश्चित ही शब्द से सत्य नहीं कहा जा सकता; मौन से ही कहा जा सकता है। लेकिन मौन तो सब समझोगे, जब बहुत करीब आ जाओ। करीब कौन लाएगा?
मौन तो तब समझोगे, जब प्रेम में पड़ जाओ। लेकिन प्रेम कैसे शुरू होगा? प्रेम की घड़ी कैसे पास आए?
तो शब्द भी सहयोगी हैं। सत्य तक नहीं ले जायेंगे--यह सच है। लेकिन नाव तक ले आयेंगे, जो सत्य तक ले जा सकती है।

दूसरा प्रश्नः परमात्मा यानी क्या?
ऐसा प्रश्न स्वाभाविक है, क्योंकि परमात्मा के संबंध में हमने जो धारणाएँ बना रखी हैं, वे बड़ी बचकानी हैं। कोई आकाश में बैठा हुआ चला रहा है सारे जगत् को! ऐसी हमारी व्यक्तिगत--अनेक-अनेक तरह की धारणाएँ हैं कि परमात्मा व्यक्ति है।
परमात्मा व्यक्ति नहीं है; न परमात्मा शक्ति है। परमात्मा तो समय के जोड़ का नाम है। यह जो सारा अस्तित्व है, इस सारे जोड़ का नाम परमात्मा है।
यह सारा अलग-अलग खंड-खंड तो नहीं है--इतना तुम्हें भी समझ में आता है। सब जुड़ा है। हर एक चीज दूसरी चीज से जुड़ी है। अगर जुड़ी न होती, तो हम बिखर गए होते, गिर गए होते। चाँद-तारे जुड़े हैं। सूरज-पृथ्वी जुड़ी है। वृक्ष जमीन से जुड़े है। हम जमीन से जुड़े हैं; हम हवा से जुड़े हैं। हवा से सारे पशु-पक्षी जुड़े हैं। हम सूरज से जुड़े हैं। सूरज से सारे वृक्ष जुड़े हैं।
हम सब जुड़े हैं; हम सब एक साथ हैं। हममें से कोई भी अकेला नहीं हो सकता। अगर जमीन पर एक भी वृक्ष न रह जाए, तो आदमी भी समाप्त हो जायेंगे। क्योंकि वृक्ष पूरे समय--तुम जो श्वास से कार्बन डाय आक्साइड छोड़ते हो, उसको पी जाते हैं। और उसको पीने के बाद शुद्ध कर के आक्सीजन बना कर छोड़ देते हैं। उस आक्सीजन को तुम पीते हो; वह आक्सीजन तुम्हारा जीवन है।
अब यह बड़े मजे की साझेदारी चल रही है! वृक्ष तुम्हारे लिए हवा तैयार कर देते हैं; तुम वृक्षों के लिए हवा तैयार कर देते हो। तुम्हारे बिना वृक्ष भी न जी सकेंगे। अगर सब पशु पक्षी और मनुष्य मर जायें, तो सभी वृक्ष मर जायेंगे; क्योंकि फिर उनके लिए कोई कार्बन डाइआक्साइड बनाने वाला न होगा। वह उनका भोजन है; कार्बन उनका भोजन है। इसलिए तो लकड़ी को जलाते हैं, तो कोयला बन जाता है; कोयला यानी कार्बन। वह उनका भोजन है।
हमारा भोजन है आक्सीजन, उनका भोजन है कार्बन। खूब दोेस्ती चली! इसलिए तो वृक्षों के पास जा कर तुम ताजा अनुभव करते हो, क्योंकि वहांताजी हवा है। जंगल जा कर, पहाड़ जा कर एक तरंग आ जाती है, स्वच्छता आ जाती है। वृक्ष की हरियाली को देख कर ही आंखे तृप्त होने लगती हैं। क्या हो जाता है?
यह कुछ ऊपर की हरियाली की ही बात नहीं है। वृक्ष के पास ताजी हवा है, स्वच्छ हवा है, जो तुम्हारा प्राण है।
हम वृक्ष से जुड़े हैं; वृक्ष जमीन से जुड़ा है। और हमारी भी जड़े दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन हम भी जमीन से जुड़े हैं। जमीन के बिना तुम न हो सकोगे। इतने चांद-तारे हैं, लेकिन जब तक जमीन जैसी स्थिति न हो किसी चांद-तारे पर, तब तक वहां कोई जीवन नहीं हो सकता। ठीक जमीन जैसी स्थिति होनी चाहिए, तो ही जीवन हो सकता है। यह बड़ा जाल है जीवन का।
भोजन तुम करते हो, वह मिट्टी है। चाहे फल, चाहे गेहूं, चाहे शाक-सब्जी--वह सब मिट्टी हैं; वह सब मिट्टी से आ रहा है। और इसलिए एक दिन फिर तुम जब मर जाओगे, तो मिट्टी में गिर जाओगे; मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी।
आज तुमने सुबह नाश्ता किया फलों का। लेकिन तुम्हें पता हैः एक दिन तुम जमीन में गिर जाओगे और वृक्ष तुम्हारा नाश्ता करेंगे! वे तुम्हें चूस लेंगे--तुम्हारा रस।
तुम देखते हो कि हड्डी की खाद बनाते हैं। वृक्ष के लिए भोजन बना जा रहा है। आज तुमने वृक्ष से, सेब तोड़ लिया है, हो सकता है कि तुम्हारे बाप-दादे का लहू उसमें हो--हड्डी उसमें हो और किसी दिन तुम्हारे बच्चों के बच्चे, जब फल तोड़ेंगे, तो तुम्हें उसमें पायेंगे।
यहां सब जुड़ा है; सब संयुक्त है।
परमात्मा--अगर तुम मेरे हिसाब से समझना चाहो तो--संयुक्तता का नाम है। यह जो अंतर्संबंध है, सब चीजों का यह जो जुड़ा होना है, सब का इकट्ठा होना जो है, यह तो समग्रता है, यह जो टोटेलिटी है--इसका नाम परमात्मा है।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है।
कल
आँसू की तरह
टपक कर फल ने
हलका
कर दिया
पेड़ को
बगीचे की मेड़ को
जाने क्या हुआ
दरक गई
और पेड़ पर बैठी चिड़िया की
बाई आंख
फरक गई।
सब जुड़ा है। इधर फल गिरा, और न मालूम क्या हुआ कि मेड़ दरक गई। और फिर न मालूम क्या हुआ कि वृक्ष पर बैठी चिड़िया की आंख फड़क गई!
कल
आंसू की तरह
टपक कर फल ने
हलका
कर दिया
पेड़ को
बगीचे की मेड़ को
जाने क्या हुआ
दरक गई
पेड़ पर बैठी चिड़िया की
बाईं आंख
फरक गई।
इस संयुक्तता का नाम परमात्मा है। जब तुम जीवन की इस संयुक्तता को देखने लगोगे, तो तुम्हारा मंदिर में प्रवेश हो गया। और कोई मंदिर नहीं चाहिए; इस संयुक्तता का बोध चाहिए--कि यहां हम सब जुड़े हैं, संयुक्त हैं। यहां अकेला कोई भी नहीं है; अकेला कोई भी नहीं हो सकता।
लाख लोग उपाय करते हैं अकेले होने का, लेकिन अकेले नहीं हो सकते। अकेले होने का उपाय ही नहीं है।
महावीर जंगल चले जाते हैं, फिर भी भोजन के लिए गांव आना पड़ता है। महावीर जंगल चले जाते हैं, फिर सत्य का उदय होता है, तो समझाने के लिए लोग खोेजने पड़ते हैं। और जंगल में भी अकेले तो नहीं हैं, वृक्ष काम कर रहे हैं; पशु-पक्षी काम कर रहे हैं। झरने पानी ला रहे हैं; सूरज रोशनी डाल रहा है। चाँद चाँदनी ला रहा है।
अकेले कहां हैं? भागोगे कहां?
तुम सोच सकते होः कोई आदमी बिल्कुल अकेला जी सकता है--एक क्षण भी? यहां अकेलापन हो ही नहीं सकता। यहां हमारा होना ही संयुक्तता में है।
इसलिए मैं संन्यासी को नहीं कहता--भागो। भागने से क्या होगा! कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहीं सब मौजूद है। जंगल में रहोगे; रात चांद निकलेगा। और चांद तुम्हें उसी तरह से तरंगित करेगा, जैसे कि बाजार में करता था।
तुमने कभी ख्याल कियाः चांदनी रात तुम्हें कितना आंदोेेलित करती है! उतना ही आंदोलित करती है, जितना सागर के जल को। सागर में कैसी उत्तुंग लहरें उठने लगती हैं--चांदनी रात में! पूरा चांद--और सागर बिल्कुल पागल हो उठता है। नाच उठता है--मस्ती में। तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही होता है।
वैज्ञानिक से पूछो; वैज्ञानिक कहता हैः आदमी के भीतर अस्सी प्रतिशत पानी है। अस्सी प्रतिशत! और उस पानी का ग वही है, जो सागर का है। वैसा ही नमकीन, वैसा ही नमक भरा। इसलिए तो बिना नमक के जीना मुश्किल है। जरा नमक भीतर कम हुआ कि तुम एकदम थके, सुस्त हुए; नमक चाहिए। उतनी ही मात्रा में चाहिए, जितना सागर के जल में हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी पहले सागर में ही पैदा हुआ। हिंदू भी ठीक ही कहते हैं कि पहला अवतार मत्स्य है, मछली का अवतार है, वह पहला अवतरण है जीवन का। वैज्ञानिक भी इससे राजी हैं कि सबसे पहले जीवन मछली के रूप में पैदा हुआ। फिर धीरे-धीरे जीवन सागर से बाहर आया। लेकिन कितने ही हम बाहर आ गए, सागर हमारे भीतर है।
जब मां के पेट में बच्चा होता है, तो मां के पेट मे सागर का जल भरा होता है। उसी जल में तैरता है। तुमने विष्णु को देखा ना--क्षीर-सागर में तैरते हुए, ऐसा बच्चा तैरता है सागर में--मां के पेट में इसलिए जब भी स्त्रियां गर्भवती होती हैं, तो ज्यादा नमक खाने लगती हैं। उनको एकदम नमक की तलप
चैैती है, क्योंकि बच्चे को बहुत नमक की जरूरत है; उसके चारों तरफ पानी चाहिए सागर का। वह फिर सागर में ही पैदा हो रहा है।
वैज्ञानिक कहते हंै कि बच्चा नौ महीनें में, करोड़ों वर्ष में जो विकास हुआ है, वह सभी स्थितियां पूरी करता है--मछली से लेकर मनुष्य तक की। नौ महीने में सारा स्थितियों से गुजरता है। जैसे पूरी मनुष्यता गुजरी हैं; जो हजारों-हजारों, करोड़ोें-करोड़ों वर्ष में हुआ है, वह नौ महीने में बच्चा बड़ी तेजी से पूरी करता है। लेकिन शुरू मछली की तरह होता है बच्चा और ब.ते-ब.ते नौ महीने में मनुष्य का रूप लेता है, तब बाहर आता है।
वह सागर तुम्हारें भीतर है। तुम चकित होओगे जान कर कि दुनिया में जितने लोग पूर्णिमा की रात पागल होते हैं, उतने किसी रात पागल नहीं होते। क्योंकि पूर्णिमा की रात में वैसी ही तरंगें तुममें उठने लगती हैं, जैसी तरंगें सागर में उठती हैं।
इसलिए पागलों का एक नाम दुनिया की सारी भाषाओं में चांद से जुड़ा है। हिंदी में कहते हैं पागल को--चांदमारा। अंग्रेजी में कहते हैं--लूनाटिक। लूनाटिक का मतलब होता है--चांदमारा। लूनार यानी चांद। ऐसे ही दुनिया की सारी भाषाओं में पागल के लिए जो शब्द हैं, वे चांद से जुड़े हैं। कुछ चांद का हाथ है।
अमावस की रात सबसे कम लोग पागल होते हैं। और यह भी तुम जान कर चकित होओगे कि पूर्णिमा की रात जैसे तुम्हारे भीतर प्रेम का भी ज्वार आता है। पूर्णिमा की रात जितनी कविताएँ पैदा होती हैं और किसी रात पैदा नहीं होती। और पूर्णिमा की रात जितने लोग ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, उतने लोग किसी और रात को उपलब्ध नहीं होते।
बुद्ध के जीवन में तो यह कथा है कि बुद्ध पूर्णिमा को ही पैदा हुए; और बुद्ध को पूर्णिमा को ही संबोधि प्राप्त हुई; और बुद्ध पूर्णिमा को ही मरे। ऐसा न भी हुआ हो, क्योंकि इतना तीनों संयोग मिलना जरा कठिन है। हो भी गया हो; न भी हुआ हो। मगर प्रतीक रूप से बात सच है कि जन्म भी बुद्ध का पूर्णिमा को हुआ; ज्ञान भी पूर्णिमा को हुआ; मृत्यु भी पूर्णिमा को हुई। पूर्णिमा के लिए यह इशारा है।
तुम्हें पता भी नहीं चलता; तुम शायद आकाश में चाँद को देखते भी नहीं। तुम्हें कुछ पता भी नहीं। लेकिन यह काम तो जारी है। यह तुम्हारे भीतर सतत काम चल रहा है।
सुबह देखते होः सूरज उगा; पक्षी जाग जाते हैं। रात भर साए रहते हैं। इधर सूरज जगा; उधर पक्षी जगे। रात भर वृक्ष भी सो जाते हंै। इधर सूरज जगा, वृक्ष जगे। रात भर तुम भी सो जाते हो। इधर सूरज उठा कि तुम भी उठे।
कितना दूर है सूरज! दस मिनट लगते हैं--आने में रोशनी को। और रोशनी की चाल बहुत है--एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड। काफी दूर है सूरज; मगर सूरज के साथ हमारा जागना जुड़ा है; हमारा जीवन जुड़ा है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि इसी तरह दूर दूर के चांद-तारों से भी हम जुड़े हैं। यहां सब संयुक्त है। इस संयुक्तता का नाम परमात्मा है।
यह जो विराट हमें जनमाता है और फिर हमें अपने में समा लेता है, यही परमात्मा है। जिससे हम आते है और जिसमें हम चले जाते हैं, वही परमात्मा है।
परमात्मा की याद का इतना ही अर्थ होता है कि तरंग होने को भूलो और सागर होने को याद करो। जैसे कोई तरंग अपने को समझ ले कि मैं सागर से अलग हूं, तो मुश्किल में पड़ेगी। ऐसे ही जिस दिन हम समझ लेते हैं कि मैं अलग हूं, तो मुश्किल में पड़ जाते हैं।
इसलिए सारे धर्म एक बात कहते हैंः अहंकार छोड़ो। अहंकार का अर्थ होता है--अलग होने का भाव। मैं अलग-अलग; मैं विशिष्ट; मैं सबसे भिन्न; मैं सबसे ऊपर; मैं सबसे अनूठा, अद्वितीय, बेजोड़--ऐसे जो भाव हैं, यही अधर्म हैं।
जिस दिन तुम्हें लगता हैंः मैं अलग हो कहां, तो कैसी विशिष्टता, कैसा बेजोड़पन, कैसी अद्वितीयता? कौन खास, कौन गैर-खास? --यहां सब एक से जुड़े हैं; यहां सब एक ही हैंै।
एक ही है; अनेक भ्रांति है--ऐसी प्रतीति का नाम परमात्मा का अनुभव और इसलिए अहंकार सबसे बड़ी बाधा है।
सब कुछ समा जाता है काल के गाल में
द्वापर की अठारह अक्षौहिणी सेना
मिस्त्र की सभ्यता, रोम का साम्राज्य
कल का जन्मा हुआ बच्चा
आज का खिला हुआ फूल
रचता है
सारता संवारता है सृजनपटु हाथों से
ममता भरे मन से
कल्पनाओं को चीजों में
बीजों की बदलता है वृक्षों में
वृक्षों को बीजों में।
यह जो विराट सृजन चल रहा है, यह जो विराट के हाथों में निर्माण चल रहा हैः वृक्षों को बीजों में बदलना और बीजों को वृक्षों में बदलना, मृत्यु को जीवन में बदलना, जीवन को मृत्यु में बदलना; आंख का खुलना और आंख का बंद होना; यह जो विराट उपक्रम चल रहा है--खुलने और बंद होने का; यह जो सृष्टि और प्रलय का रास चल रहा है, इस रास को समस्तता का नाम परमात्मा है।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि परमात्मा की कोई मूर्ति मत बनाना; क्योंकि मूर्ति बड़ी छोटी होगी, समस्तता की खबर न ला सकेगी। इसलिए हर मूर्ति झूठ होगी। और हर मूर्ति तुम्हें परमात्मा के संबंध में भ्रांत धारणा देगी। ज्यादा अच्छा यही होगा; उसको जगह देखना; चारों ओर देखना; कण से लेकर विराट तक उसी को देखना।
इस सारे अस्तित्व को, ब्रह्मांड को उसका मंदिर समझना।
मंदिर-मस्जिद के बाहर आओ; गुरुद्वारे-गिरजे के बाहर आओ। परमात्मा का मंदिर सब तरफ मौजूद है। वृक्षों में उसे देखो; पहाड़ों में देखो। झरनों में, सागरों में उसे देखो। लोगों की आंखों में उसे देखो; पक्षियों की चहचहाहट में उसे सुनो। वृक्षों में खिलते फूलों में उसे पहचानो। तो ही तुम उसे पहचान पाओगे; तो ही तुम समझ पाओगे कि परमात्मा क्या है।
परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है। परमात्मा अअपने निरहंकार की दशा और मैं सब के साथ जुड़ा और एक हूं--और सब संयुक्त है; और यहां कोई शत्रु नहीं है; सभी मित्र हैं; यह परिवार है; अस्तित्व परिवार है--इसकी प्रतीति का नाम परमात्मा है।

तीसरा प्रश्नः भक्त की आधारभूत आकांक्षा क्या है?

बहुत आकांक्षाएं--तो संसार; एक आकांक्षा--तो भक्ति। धन चाहिए, पद भी चाहिए, मान चाहिए, मर्यादा चाहिए, प्रतिष्ठा चाहिए--ऐसी बहुत सी आकांक्षाएं--तो संसार। अनेक आकांक्षाओं में दौड़ता हुआ मनुष्य संसारी है। और जिसने अपनी सारी आकांक्षाओं को एक आकांक्षा में उंडेल दिया--कि मैं उसे जान लूँ, जो सत्य है; उस प्यारे को पहचान लूं, जिससे मैं आया और जिसमें मैं जाऊँगा, जो मेरा शाश्वत स्वरूप है; इस एक आकांक्षा का नाम--भक्ति।
एक ही आकांक्षा है भक्त की--कि रहस्य का परदा उठे; कि ऐसा अज्ञान में न जीऊं, आंख मेरी खुले और जो छिपा है सबके भीतर, वह मुझे दिखाई पड़ जाए। ऐसे ऊपर-ऊपर से पहचान न हो, अंतर से अंतर मिल जाए, हृदय से हृदय मिल जाए। मैं इस जगत की मूलसत्ता को देख लूं; उस सत्ता को देख कर ही मैं अपने को भी देख पाऊंगा, अपने को भी पहचान पाऊंगा। और उसी पहचान से आनंद की शुरुआत होती है।
सुराही आज साकी ने जो महफिल में जरा खम की
न पूछें आप, शामत आ गई तब सागर-ए-जम की
उठा दोे, हां उठा दोे, बीच में पर्दा-सा यह क्या है
निगह चिलमन से टकराती है आकर सारे आलम की
कहाः धोका है, धोका है सबा ने फूल से आ कर
मोहब्बत आरजी है ऐ गुल-ए-तर तुझसे शबनम की
लहू बहने दो, बहने भी दो जख्मों से लहू मेरे
जरूरत कुछ नहीं वल्लाह मेरे जख्मों को मरहम की
यह चिलमन भी है क्या चिलमन, यह पर्दा भी है क्या पर्दा
तुझे तो ढूं लेती है निगाह, पर्दोे में आलम की
मेरे गम का वो बायस हैं, मुझी से पूछते हैं फिर
बता ए ‘अश्क’ तू सूरत बनाई है यह क्या गम की!
आदमी का एक ही दुख है--कि उसे पता नहीं कि कहां से है, क्यों है और कहां जा रहा है!
आदमी का एक ही दुख हैः उसे परमात्मा का कोई अनुभव नहीं।
और जब तक यह परदा न उठे ...।
उठा दोे, हां उठा दोे, बीज में परदा-सा यह क्या है
निगह चिलमन से टकराती है आकार सारे आलम की।
वह जो छोटीसी, झीनी सी आड़ है...। झीनीसी ही आड़ है। कोई बहुत बड़ी चीन की दीवाल नहीं है--आदमी और परमात्मा के बीच; बड़ी झीनी सी दीवाल है; बड़ा झीनी सा परदा है। और मजा है कि वह परदा भी परमात्मा ने नहीं डाला हुआ है। वह परदा भी हमने डाला हुआ है।
अच्छा तो यही होगा कहना कि परदा परमात्मा पर नहीं है; परदा हमारी आंख पर हैं। सूरज तो बाहर खड़ा है, लेकिन तुम दरवाजे बंद किए बैठे हो। दरवाजा खोलो--सूरज भीतर आ जाए। तुम जब तक दरवाजा न खोलोगे, सूरज भीतर आएगा भी नहीं; सूरज दस्तक भी न देगा द्वार पर। सूरज तुम्हारी शांति में बाधा न डालेगा। तुम दरवाजा खोलो--और सूरज भीतर आ जाए।
बस, ऐसी ही बात है। तुम जरा आंख खोलो और परमात्मा भीतर आ जाए। यह जो परदा है, तुम्हारी ही आंख पर है। और यह जा परदा है, वह तुम्हारी ही अस्मिता और अहंकार का है। यह जो परदा है, वह तुम्हारे ही तथाकथित थोथे ज्ञान का है।
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लोगों को कुछ भी पता नहीं--अपना पता नहीं, परमात्मा का पता नहीं--और प्रत्येक ऐसा मान कर चलता है कि उसको पता है। पूछो किसी से ईश्वर है? वह फौरन जवाब देेने को तैयार है। यह तो कहेगा कि ‘हां है।’ या रहेगाः ‘नहीं है।’ मगर जवाब हर हालत में देगा।
शायद ही तुम्हें ऐसा आदमी मिले, जो कहेः ‘मुझे पता नहीं।’ और अगर ऐसा आदमी मिल जाए, तो समझना कि इसी को किसी दिन पता होगा; यही दिन पता कर पाएगा। क्योंकि कम से कम ईमानदार तो है।
ईश्वर का तुम्हें पता नहीं है और कहते होः ‘पता है; मानता हूं कि ईश्वर है।’ पता नहीं है और कहते हो कि ‘मानता हूंः ईश्वर नहीं है, इससे और ज्यादा भ्रांति क्या होगी!
स्पष्ट, इतनी बात तो स्वीकार करो कि मुझे मालूम नहीं है। है या नहीं--कुछ भी मालूम नहीं। तो खोज पैदा होती है।
किताबों में प.ने से ईश्वर नहीं मिलता। किसी की बात मान लेने से ईश्वर नहीं मिलता। विश्वास से काम नहीं चलता; अनुभव चाहिए।
तो भक्त की एक ही आकांक्षा है कि अनुभव हो। ‘उठा दोे...’ यह जो छोटा सा परदा है। यह हटा दोे। भक्त की एक ही प्यास है। रोता है; तड़फता है; पुकारता है। मगर सारी पुकार, सारी प्रार्थना का एक ही सार है--कि अब परदा और नहीं सहा जाता! अब तुम्हें बिना जाने जीया नहीं जाता। अब जीने में--तुम्हारे बिना--कोई अर्थ नहीं मालूम होता; कोई संगति नहीं मालूम होती। और कब तक भटकाओगे? और कब तक चलाओगे--कोल्हू के बैल में? और कब तक ऐसे ही चक्कर काटता रहूंगा--लट्टू की तरह--व्यर्थ? बहुत काट लिया चक्कर; अब मुझे एक बार देख लेने दोे कि मैं कहां से हूं, क्यों हूं और कहां जा रहा हूं! और उस घड़ी के उतरते ही जीवन रूपांतरित हो जाता है। फिर आनंद ही आनंद है, उत्सव ही उत्सव है।
तो भक्त का कहना इतना ही है कि तुम्हें बिना जाने उत्सव नहीं हो सकता। अज्ञान में दुख ही होगा, नर्क ही होना--स्वर्ग नहीं हो सकता। इसलिए सब दांव पर लगा कर मैं तुम्हारी रोशनी चाहता हूं। सब खोने को तैयार हूं; सब अर्पित करने को तैयार हूं; सब समर्पित करने को तैयार हूं; जीवन ले लो, मगर बोध दे दोेे। तुम्हारे चरण मिल जायें, तुम्हारा स्पर्श हो जाए, फिर कोई भी कीमत महंगी नहीं है, फिर सौदा बुरा नहीं है।

चैथा प्रश्नः मजा जीने का अब तो आ रहा है, पर जिगर का दर्द बढ़ता जा रहा है। यह चक्र थमता नहीं है। जैसे-जैसे आनंद बढ़ता है, दर्द भी साथ-साथ बढ़ता है। और दर्द को थामने की भी चाह नहीं होती; उसमें भी मजा आता है। क्या यह बढ़ते प्रेम का चिन्ह है या पागलपन है कोरा?

पूछा हैः ओमप्रकाश सरस्वती ने।
ओमप्रकाश, तुम्हें ऐसी भ्रांति मालूम होती है कि प्रेम का चिन्ह और पागलपन दोे बातें हैं अलग-अलग। नहीं। पागलपन प्रेम का चिह्न है। और प्रेम सदा से पागल है। पागल इस अर्थ में कि बुद्धि का तर्क कहता हैः यह क्या कर रहे हो।
बुद्धि के तर्क में प्रेम नहीं पकड़ आ पाता। बुद्धि के तर्क से प्रेम समझ में नहीं आ पाता, तो बुद्धि कहती हैः पागलपन है।
अब जैसे मुझे सुनते-सुनते अगर एक मस्ती की लहर आ जाए, तो बुद्धि तुम्हारी कहेगीः ‘यह क्या कर रहे हो? तुम जैसा बुद्धिमान आदमी; करने दोे पागलों को, तुम मत करो।’ सुनते-सुनते आंख में आँसू आ जायें, तो तुम जल्दी से पोंछ लोगे।’ कोई पागल करे, करने दोे। बाकी तुम कर रहे हो; कोई देख लेगा, तो क्या होगा? ’
बुद्धि कहती है कि पागलपन है; क्योंकि बुद्धि को बात समझ में नहीं आती। हृदय की भाषा अलग, बुद्धि की भाषा अलग। उनमें संवाद नहीं हो पाता।
हृदय से पूछोगे, तो हृदय कहेगाः यह क्या कर रहे हो--रुपया-पैसा इकट्ठा कर रहे हो! पागल हो गए हो? सब पड़ा रह जाएगा। जो हृदय के लिए पागलपन है वह बुद्धि के लिए समझदारी है। जो बुद्धि के लिए समझदारी है, वह हृदय के लिए पागलपन है। जो हृदय के लिए समझदारी है, वह बुद्धि के लिए पागलपन है। और ये दोेनों तत्त्व तुम्हारे भीतर हैं।
और ध्यान रखनाः बुद्धि तुम्हारे भीतर बहुत है। क्योंकि हृदय को तो बढ़ने का कोई मौका नहीं मिला। हृदय को सदा दबाया गया।
तुम्हें पहले से, बचपन से समझाया गया है कि हृदय के चक्कर में मत पड़ना; यह खतरे में ले जाता है।
यह संसार बुद्धि की शिक्षा देता है, हृदय को अवरुद्ध करता है। यहां हृदय के लिए कोई स्कूल नहीं, कोई कॉलेज नहीं, कोई विश्वविद्यालय नहीं है--जहां हृदय को उकसाया जाता हो; जहां हृदय को जगाया जाता हो; जहां हृदय को उमंगो को सहलाया जाता हो, साथ दिया जाता हो।
यहां स्कूल हैं गणित के; यहां स्कूल हैं व्यवसाय के; यहां स्कूल हैं शोषण के। यहां स्कूल हैं--कि कैसे लूटो; यहां स्कूल है--कि अपने को कैसे लुटने से बचाओ और दूसरे को कैसे लूटने में कुशल हो जाओ।
हृदय की भाषा तो खतरनाक है। हृदय तो लुटाने को उत्सुक होता है; लूटने को उत्सुक नहीं होता।
नानक के पिता ने नानक से कहा कि ‘अब तू बड़ा हो गया; अब यह बहुत हो गई यह बकवास--यह राम-राम की धुन, यह इकतारा बजाना, यह रात रात चिल्लाना--प्यारे-प्यारे की रटन--बहुत हो गई, अब कुछ काम-धाम में लग। ये रुपये ले जा; पासे के गांव से जा कर कम्बल खरीद ला। सरदी के दिन आ रहे हैं; बिक्री कर। कम्बल बिकेंगे; मेला भरने को है। लाभ होना चाहिए--इस पर ध्यान रखना।’
नानक गए। दोे-चार दिन बाद खाली हाथ लौट आए। और बड़े प्रसन्न आए; बड़े नाचते घर आए। और बाप ने पूछा कि ‘कम्बल वगैरह कहां हैं? ’ तो उन्होनें कहाः ‘लाभ कमा लिया। तुमने कहा था--लाभ होना चाहिए। रास्ते में फकीर मिल गए--नंगे फकीर; जंगल में बैठे थे। सब कम्बल बांट दिए।’
‘इससे बड़ा लाभ और क्या होगा,’ नानक ने कहा। ‘मस्त लोग थे; बड़े प्यारे लोग थे। दोे दिन उनके साथ रहने में आनंद ही आनंद आ गया। और नंगे थे, और सरदी करीब आ रही है। परमात्मा की तुम पर कृपा होगी; मुझ पर कृपा होगी; इस घर पर परमात्मा की कृपा बरसेगी। परमात्मा के प्यारों को कम्बल दे आया हूं। और तुम क्या चाहते हो लाभ! लाभ कहा था ना; लाभ कमा लाया।’
बाप ने सिर ठोंक लिया। उसने कहाः ‘यह लाभ हुआ? यह तो हानि हो गई।’
नानक को नौकरी लगा दिया। कहा कि धंधा तो इससे होगा नहीं। धन्धे में खतरा है। नौकरी लगा
दी। नौकरी में ऐसा काम मिला उनको...। गांव के जो बड़े सुबेदार थे, उनके यहां नौकरी लगा दी। वहाँ सिपाहियों को जो अनाज बांटा जाता था रोज, उसको तौलने का काम था। उसमें कुछ खास जरूरत भी न थी। तौलते रहते। मगर उस तौलने में ही घटना घट गई। उस तौलने में ही सिक्ख धर्म का जन्म हुआ।
एक दिन तौलते थे। ऐसे तौलते तो रहते थे दिन भर; भीतर तो राम की ही याद चलती रहती; भीतर तो उसका ही गुण-गान चलता रहता, भीतर तो उसकी ही धुन बजती रहती; ऊपर तौलते रहते। यह काम भी अच्छा मिल गया था। इसमें कुछ ज्यादा खटपट भी न थी। बुद्धि का कोई उपाय भी न था। भीतर हृदय गूँजता रहता; बाहर तौलते रहते।
मगर उस दिन गड़बड़ हो गई। हृदय बुद्धि में आ गया। हृदय इतने जोर से छा गया कि बुद्धि दब गई। तौलते थे; दस पसेरी, ग्यारह पसेरी, बारह पसेरी और तेरह पर आए; तो पंजाबी में तेरह तो ‘तेरा’ ही कहा जाता है। तो ‘तेेरा’ की याद आ गई। ‘तेरा’ यानी परमात्मा का।
फिर रुक गए। फिर तौलते ही गए और चैदह पर आगे न बढे। अब ‘तेरा’ आ गया; उसके आगे और क्या हो सकता है! आखिरी पड़ाव आ गया। तौलते ही गए। सांझ हो गई और तेरा--और तेरा!
खबर पहुंची सुबेदार तक कि वह आदमी पागल हो गया। वह चैदह पर ब.ता ही नहीं। वह तौले ही जा रहा है और ‘तेरा’ ही ‘तेरा’ कहे जा रहा है! सुबेदार भी आया। देखः मस्त हो रहे हैं। कहा कि ‘पागल हो गए हो? ’
इस जगत् में मस्ती पागलपन समझी जाती है।
‘इतनी मस्ती क्या! ये आंसू किसलिए बह रहे हैं? और तेरा पर संख्या खतम नहीं हो जाती। यह क्या तेरा-तेरा लगा रखा है? ’
नानक खड़े हो गए। उन्होंने कहाः ‘फिर तुम सम्हालो। आखिरी पड़ाव आ गया। अब इसके आगे और कहीं जाने कोे नहीं है। इसके आगे कोई गिनती नहीं है। अब न मैं पीछे लौट सकता; न आगे जा सकता। अब तो ‘तेरे’ पर हो गया; अब तो ‘तेरे-में’ हो गया। अब तो ‘उसी का’ हो गया। अब मैं चला।’
परिवार परेशान हुआ। रिश्तेदार प्रियजन परेशान हुए--कि यह लड़का पागल हो गया। लेकिन इसी पागल लड़के से एक अपूर्व धर्म का जन्म हुआ। एक अपूर्व धारा बहीं।
इस दुनिया में पागलों से ही आकाश की गंगा नीचे उतरी है। इस दुनिया में पागल ही कुछ खबर लाए हैं--परलोक की।
तो तुम यह मत पूछो कि ‘क्या यह ब.ते प्रेेम का चिन्ह है या पागलपन है कोरा? ’ यह दोेनों है एक साथ।
और पागलपन कोरा नहीं होता--ख्याल रखना। ‘कोरा’ तो बुद्धि है। ‘कोरी’--बिल्कुल, निपट--व्यर्थ, असार--राख ही राख है।
पागलपन--और कोरा? ‘पागलपन’ तो बहुत भरा हुआ होता है। बहुत फूल खिलते हैं पागलपन में।
तुम धन्यभागी हो, अगर प्रेम में पागल हो जाओ। इससे बड़ा धन्यभाग नहीं है।
बुद्धि की बुद्धिमत्ता किसी काम नहीं आती; अन्तक व्यर्थ हो जाती है। अंततः तो हृदय का पागलपन ही काम आता है।
तो तुमसे मैं यह नहीं कह रहा हूं कि संसार छोड़ दोे; और तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम भी तेरा पर अटक जाओ। चैदह, पंद्रह--चलने दोे। वह बाहर ठीक है; वह औपचारिकता ठीक है। संसार का काम है; उसे संसार की तरह चलने दोे। लेकिन तुम्हारे भीतर ‘पागलपन’ की धारा बहे। जितने दिन गंवाए बिना इसके--व्यर्थ गए। अब गीले होओ; अब गुनगुनाओ। अब नाचो।
अब यह मस्ती ब.ने दोे। और हालांकि दुनिया इससे राजी न होगी, तो दुनिया को बताने की भी कोई जरूरत नहीं है। थोड़ी घड़ियां एकान्त की खोज लो, द्वार दरवाजे बन्द करके अपने पागलपन में डूब जाओ।
प्रार्थना का कोई प्रदर्शन करना आवश्यक भी नहीं है। अगर कभी कोई तुम्हारे जैसे ही ‘मनचले’ मिल जायें, तो उनके साथ बैठ कर सत्संग कर लेना लेकिन बुद्धिमानों को बताने की कोई जरूरत ही नहीं। वे समझेंगे भी नहीं; वे उलटा ही समझेंगे।
प्रार्थना को एकांत में, अकेले में मौन में होने दो। हां, कभी तुम्हारे जैसे ही पागलों का समूह मिल जाए, तो फिर वहां डरना मत, फिर वहां रोकना मत; फिर वहां बहने देना।
जहां चार दीवाने मिल कर बैठ जाते है, वहां परमात्मा की बड़ी कृपा बरसती है।
नहीं तो प्रार्थना अकेले-अकेले चलने दोे। रात के एकांत में द्वार-दरवाजा बंद करके रो लेना। उन आंसुओं से तुम्हारी आंखे बड़ी शुद्ध होंगी। निर्मल होंगी। उन्ही निर्मल आंखों से परमात्मा देखा जा सकता है।
जिन आंखों में बुद्धि की धूल बहुत जमी है, उन आंखो का दर्पण नष्ट हो गया; उन आंखों से कुछ नहीं दिखाई पड़ता; वे पथरा गई हैं।
यह प्रेम का चिह्न भी है--और पागलपन भी। और तुम सौभाग्यशाली हो।

पांचवां प्रश्नः मैं जैन संस्कारों में पली हूं। मेरा मार्ग प्रेमी का है--ऐसा मुझे कभी नहीं लगा। लेकिन ध्यान में उतरने पर मैं अकसर कृष्णमय रास में डूब जाती हूं। ऐसा क्यों होता है?

पूछा हैः इंदिरा ने।
ऐसी अड़चन है। क्योंकि हम जिन घरों में संयोग से पैदा होते हैं, जरूरी नहीं है कि उन घरों के संस्कार हमारे काम के हों। कभी-कभी ऐसा हो जाता हैः जैन घर में कोई पैदा होता है, लेकिन उसकी भीतर मनोदशा महावीर से ज्यादा मीरा के करीब होती है; तब अड़चन हो जाती है। संस्कार तो महावीर के पड़ते है और भीतर उसका खुद का अन्तर्भाव मीरा के करीब होता है। उसे पता भी नहीं चलेगा। क्योंकि जैन हैं, तो कोई कृष्ण के मंदिर में तो जाएगा भी नहीं। जैन शास्त्र कहते हैं कि भूल कर भी मत जाना हिंदू मंदिर में। अगर पागल हाथी भी रास्ते में मिल जाए और हिन्दू मंदिर में छिप कर शरण मिलती हो, बचना हो जाता हो, तो भी मत जाना। पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है; मगर हिंदू मंदिर में शरण मत लेना।
ऐसा ही हिंदू भी कहते हैं। कोई फर्क नहीं है इसमें। हिंदू शास्त्र भी यही कहते है कि जैन मंदिर में शरण मत लेना--पागल हाथी के नीचे दब कर मर जाना।
तो जाने का तो उपाय नहीं है। तो संस्कारों में दबा हुआ प्राण--पता ही नहीं चलेगा तुम्हें कि तुम्हारा व्यक्तित्व किस तरफ रुझान से भरा था।
और इससे उलटी बात भी होती है। कोई हिंदू घर में पैदा हुआ है और हो सकता है कि महावीर से उसके प्राणों का संबंध जुड़ जाए। लेकिन महावीर से कोई संबंध न जुड़ेगा। महावीर का उसे पता ही न चलेगा। वह जाता रहेगा कृष्ण के मंदिर में और कृष्ण से उसका कोई संबंध जुड़ नहीं सकता।
तुम्हारी अंतर्दशा निर्णायक होनी चाहिए--संस्कार नहीं। संस्कारों का क्या मूल्य है? मगर संस्कार ही निर्णायक होते हैं।
इसलिए अक्सर यहां आ कर तुम्हें कई दफा हैरानियां होंगी।
इंदिरा को ऐसा ही होता होगा। यहां तो सब एक साथ हैं। यहां कभी महावीर की धारा बहती है, तो लोग महावीर में नहाते हैं। कभी मीरा की धारा बहती है, तो लोग मीरा में नहाते हैं।
यहां कोई एक संस्कार की व्यवस्था नहीं है। यहां तो सारे धर्मों को एक साथ उपलब्ध किया जा रहा है। तो जो जिसको रुच जाए; तो जिससे मगन हो जाए, उस पर ही चल पड़े।
तो इंदिरा कहती ठीक है कि ‘मैं जैन संस्कारों में पली हूं। मेरा मार्ग प्रेमी का है--ऐसा मुझे कभी नहीं लगा।’ लगता कैसे? क्योंकि जैन संस्कार में प्रेम का कोई उपाय नहीं है; प्रेम तो पाप है। प्रेम से तो बचना है। प्रेम को तो छोड़ना है।
जैन मार्ग तो विशुद्ध ज्ञान-मार्ग है। ध्यान की प्रक्रिया है--प्रार्थना की नहीं। जैन संस्कार में तो परमात्मा शब्द ही अर्थ नहीं रखता। जैन संस्कार में तो अपने भीतर जाना है और अकेले हो जाना है; इतने अकेले कि वहाँ कोई दूसरे की धारणा भी न हो--परमात्मा की धारणा भी नहीं।
यह ध्यान का शुद्ध मार्ग है। कुछ लोग ध्यान के मार्ग से पहुंचेंगे, उनके लिए तो यह बड़ा अदभुत है। मगर जोे ध्यान के मार्ग से नहीं पहुंच सकते, जिनका हृदय मरुस्थल जैसा सूखा नहीं है, उनको अड़चन हो जाएगी; विशेष कर स्त्रियों को अड़चन हो जाएगी।
पुरुष को शायद यह बात जँच भी जाए, क्योंकि पुरुष के जीवन में प्रेम उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है--जितना ध्यान, जितना ज्ञान। लेकिन स्त्री के जीवन का तो सारा धन ही प्रेम है। ज्ञान में स्त्री को क्या रस है? जानने में स्त्री को उत्सुकता ही नहीं है। उसकी उत्सुकता दूसरे ंग की है। स्त्री का हृदय ज्यादा सक्रिय है, बजाय बुद्धि के। तो स्त्रियों को तो अकसर यह नुकसान हो जाएगा। स्त्री के लिए तो मीरा और राधा ज्यादा करीब हैं।
स्त्री सोच नहीं सकती कि अकेले होने में आनंद हो सकता है। इसे समझने की कोशिश करना।
स्त्री का सारा आनंद उसके लिए है, जिससे उसका प्रेम है। स्त्री भोजन बनाती है; अगर उसका प्रेम है किसी से, तो भोजन बनाना उसकी पूजा हो जाती है। वह जिसके लिए भोजन बना रही है, अगर उससे प्रेम है, तो भोजन बनाना अर्चना है; यह उसका मंदिर है। उसका चैका उसका मंदिर हो जाता है।
उसका प्रेमी आ रहा है, तो वह घर साफ कर रही है, बुहार रही है। उसका प्रेमी आ रहा है, तो वह आतुर हो कर आनंद से भरी है; उसका हृदय धड़क रहा है।
अकबर के जीवन में उल्लेख है कि अकबर एक बार जंगल में शिकार खेेलने गया था। लौटकर आ रहा था; सांझ हो गई, तो सांझ की नमाज प.ने के लिए गांव के बाहर बैठ गया। राजस्थान का कोई गांव।
नमाज प.ने का कपड़ा बिछा दिया। उस पर घुटने टेक कर नमाज प.ने लगा। और जब वह नमाज में आधा था, तब एक औरत--एक मस्त राजस्थानी औरत भागती हुई वहां से निकली--उसके कपड़े पर पैर रखती, उसको धक्का मारती--कि वह गिर भी पड़ा। वह चली ही गई भागती। रही होगी रजपूत!
नमाज में था अकबर, तो एकदम से कुछ कह भी नहीं सका। बीच नमाज में बोले भी क्या! मगर आग बबूला हो गया--कि यह तो हद हो गई--यह तो बदतमीजी को हद हो गई। इसको यह भी होश नहीं है कि कोई नमाज प. रहा है! और कोई साधारण नहीं--खुद सम्राट नमाज प. रहा है।
जल्दी उसने नमाज पूरी की और तैयारी कर रहा था कि उस स्त्री को पकड़, तब तक वह स्त्री लौटती थी। तो उसने उसे रोका और कहा कि ‘बदतमीज औरत, तुझे इतना भी पता नहीं कि कौन नमाज प. रहा है? एक तो कोई भी नमाज प. रहा हो, प्रभु का स्मरण करता हो कोई आदमी, उसके पास से इस तरह निकाला जाता है? ’
उस स्त्री ने कहाः ‘मुझे कुछ याद नहीं। कहां की बातें कर रहे है आप? कहां थे आप? मैं अपने प्रेमी से मिलने जाती थी। मेरा प्रेमी वर्षों के बाद आ रहा था, तो मैं राह पर ही उसको पकड़ लेना चाहती थी। तो मैं गांव के बाहर भागी जा रही थी। मुझे कुछ होश नहीं है; क्षमा करें। अग आपके नमाज में मेरे कारण बाधा पड़ गई हो, तो मुझे क्षमा करें; यद्यपि मेरा कोई कसूर नहीं, क्योंकि मुझे पता ही नहीं। मैं उसके प्रेम में दीवानी हूं।’
और उस स्त्री ने कहा, ‘लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में उठता है, मैं पूछूं-- अगर नाराज न हों।’
अकबर ने पूछाः ‘क्या? ’
उसने कहा कि मैं अपने साधारण से प्रेमी से मिलने जा रही थी और मुझे आपका पता नहीं चला, और आप परमात्मा से मिलने जा रहे थे; नमाज प. रहे थे, और आपको मेरे धक्के का पता चल गया? यह कैसी नमाज? यह कैसी प्रार्थना? आपका धक्का भी मुझे लगा होगा, जब मेरा धक्का आपको लगा। लेकिन मुझे आपके धक्के का कोई पता नहीं चला। मैं होश में ही न थी। मेरा प्रेमी आ रहा है। ऐसा न हो कि वह आ जाए और उसका स्वागत गांव के बाहर न कर सकूं। और वर्षों के बाद आ रहा है। और तुम परमात्मा से मिलने चले थे और फिर भी तुम्हें इससे बड़ी अड़चन हो गई! और तुम परमात्मा की प्रार्थना में थे। लेकिन तुम्हारी आंखों से आग निकल रही है? तुम क्षमा भी न कर सके? तुम करुणा भी न कर सके? ’
अकबर ने कहा है कि ‘मेरा सिर झुक गया। मैं उस स्त्री को जवाब न दे सका। मेरी प्रार्थना दो कौड़ी की हो गई। वह ठीक कह रही थी। उसकी बात सच थी। वह मेरे हृदय में काँटे की तरह चुभी रह गई कि अभी मेरा परमात्मा का प्रेम कुछ प्रेम नहीं। अभी एक स्त्री का प्रेम भी उसके साधारण प्रेमी से होता है, उसके मुकाबले भी मेरा प्रेम कुछ भी नहीं है।’
महावीर कहते हैं कि जो परम अवस्था है चैतन्य की, वह कैवल्य है--अकेले हो जाना--एकदम अकेले हो जाना। स्त्री को यह बात जमेगी ही नहीं। अगर बिल्कुल अकेली हो जाएगी स्त्री, तो यह तो नरक की अवस्था होगी। प्रेमी तो होना ही चाहिए। स्त्री चाहेगी कि प्रेमी से एक हो जाए, मिल जाए, लीन हो जाए--प्रेमी में। यह तो चाहेगी। लेकिन अकेली हो जाए...? यह चाह पुरुष की है।
तो यह अड़चन हो जाती है। जैन घर में संस्कार तो पुरुष के होते है, इसलिए दिगंबर जैन तो कहते हैें कि स्त्री-पर्याय से मोक्ष ही नहीं हो सकता। स्त्री--और कैसे मोक्ष जाएगी? उसका तो ‘पर’ से लगाव इतना है कि वह मोक्ष जा ही नहीं सकती। उसे तो एक दफा पुरुष की तरह पैदा होना पड़ेगा और फिर मोक्ष जा सकती है। सब मोक्ष पुरुष-पर्याय से होता है।
इस बात में अर्थ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि स्त्री मोक्ष नहीं जा सकती। लेकिन इसमें एक अर्थ है कि महावीर के मार्ग से स्त्री मोक्ष नहीं जा सकती। इक्का-दुक्का कोई कभी चला गया हो, उसका हिसाब मत करो। मगर महावीर के मार्ग से स्त्री मोक्ष नहीं जा सकती। क्योंकि स्त्री के हृदय के अनुकूल ही मार्ग नहीं है।
स्त्री को कृष्ण चाहिए। स्त्री सजाना चाहती है--अपने प्यारे को। कृष्ण जमते हैं--पीतांबर में, मोर-मुकुट बांधे, बांसुरी ओंठ पर रखे--कृष्ण प्यारे लगते है।
महावीर नग्न खड़े हैं; कहां मोरमुकुट रखो? उनके हाथ में बांसुरी दोे--जंचेगी नहीं। ऐसा लगेगा कि किसी का चुरा लाए--कि क्या किया! यह बांसुरी कहां से आ गई? इसमें भरोसा ही न आएगा--कि ये बांसुरी का क्या कर रहे है।
गीत से महावीर का क्या लेना-देना? संगीत से महावीर का क्या लेना-देना? उनके पैर में घुंगरू बांध दोेगे, तो तमाशा मालूम होगा! नहीं; बात बेमेल हो जाएगी। महावीर का ध्यान से लेना-देना है। वे एकांत में खड़े हैं--सब छोड़ कर। शून्य में डूबे हैं। शून्य में अब संगीत भी बाधा है। शून्य में अब बांसुरी भी व्यर्थ है। अब सब व्यर्थ है। वह परिपूर्ण अनासक्ति है।
कृष्ण का मार्ग पूर्ण आसक्ति का मार्ग है। और मजा यह है कि दोेनों से पहंुचा जा सकता है। इसलिए असली सवाल यह नहीं--कि कौन ठीक। दोेनों से पहंुचा जा सकता है। असली सवाल यह है कि तुम्हें कौन ठीक।
इसकी फिक्र ही मत करना कि कौन ठीक है। यह बात व्यर्थ है। यह प्रश्न ही संगत नहीं है। तुम सदा यही पूछना कि मुझसे किस बात का तालमेल बैठता है। तुमसे जिसका तालमेल बैठ जाए, वह तुम्हारे लिए ठीक। बस।
मुझसे अगर कोई एक बात तुम्हें सीखनी है, तो इसे सदा याद रखना कि तुम्हारा जिसमे तालमेल बैठ जाए, वह तुम्हारे लिए ठीक। फिर तुम संसार की फिकर छोड़ो। सब उसी मार्ग से मोक्ष जा सकेेंगे कि नहीं, तुम इसकी चिंता में ही मत पड़ो। सभी एक मार्ग से नहीं जा सकते।
इतने भिन्न-भिन्न लोग है; इतनी भिन्न-भिन्न चित्त की दशाएं है। और अच्छा ही है कि भिन्न-भिन्न मार्ग हों। दुनिया ज्यादा समृद्ध होती है--भिन्न-भिन्न मार्गों से।
कोई नाचता हुआ जीना चाहे, तो ऐसी बाधा नहीं होनी चाहिए कि नाचते हुए आदमी को हम मोक्ष में प्रवेश ही न करने देंगे। कि ये कहां चले आ रहे हो--मोरमुकुट बांधे, बांसुरी लिए हुए! या इससे उलटी जिद्द कर लोे कि जब तक मोरमुकुट न बांधोगे, हाथ में बांसुरी न लोगे, तब तक मोक्ष में प्रवेश न करने देंगे! तो महावीर को देख कर ही लोग दरवाजा बंद कर लेंगे कि ये सज्जन कहां चले आ रहे हैं--नंग-धड़ंग! पहले बांसुरी लाओ!
नहीं; ऐसे आग्रह मत करो! मोक्ष की कोई शर्त नहीं है। और अगर कोई शर्त है तो सिर्फ एक है कि तुम्हारी जो भावदशा है, वह पूरी खुल जाए। तुम्हारी भावदशा पूरी खुल जाए, वही मोक्ष है। जब चमेली का फूल खिलता है, तो चमेली की गंध उठेगी। और जब गुलाब का फूल खिलता है, तो गुलाब की गंध उठेगी। और जब कमल का फूल खिलता है, तो कमल की गंध उठेगी। गंधें भिन्न-भिन्न होंगी, लेकिन तीनों फूल खिल गए; खिलना एक ही जैसा है। खिलने में मजा है; फिर गंध क्या उठती है...। गंध तो तुम्हारी होगी।
कृष्ण की बांसुरी बजी और महावीर में नग्नता की निर्दोेषता आई। बुद्ध में कुछ और हुआ--क्राइस्ट में कुछ और; मोहम्मद में कुछ और। और तुममंे भी कुछ और होगा।
संस्कार से सावधान। संस्कार खतरनाक होता है। संस्कार का मतलब है कि दूसरों ने कुछ सिखा दिया। उन्होंने कभी इस बात की फिकर ही न की कि तुम्हारे भीतर कौन सी बात का पौधा आरोपित हो सकता है। इसकी फिक्र ही न की।
तुम्हारे मां-बाप हिंदू थे, तो उन्होंने हिंदू-धर्म सिखा दिया; अगर ईसाई थे, तो ईसाई धर्म सिखा
दिया। और उनका भी क्या कसूर है! उनको भी इसी तरह सिखा दिया गया है। न उन्हें पता है कि वे क्या कर रहे हैं ...। और इसी तरह तुम अपने बच्चों को मत सिखा जाना।
मेरी दृष्टि में, दुनिया बहुत बेहतर हो जाए, अगर हम अपने बच्चों को अपना धर्म जबरदस्ती न दें! सब धर्म के द्वार खुले कर देने चाहिए। बच्चों को सभी उपाय उपलब्ध होने चाहिए--कि कभी वे रविवार को गिरजे में जा कर सम्मिलित हो जाऐं; देखें--क्या हो रहा है वहाँ। कभी मसजिद में जा कर देखें। वे रंग अलग-अलग हैं; वे ंग अलग-अलग हैं।
मसजिद की अपनी शान है--गिरजे की अपनी। कभी गुरुद्वार में जाएं...।
अगर मां-बाप अपने बच्चे को प्रेम करते हैं, तो उन्हें सब तरफ भेंजेंगे--कि जाओ; सब तरफ खोजो; सब द्वार-दरवाजे खटखटाओ। फिर जहां तुम्हें मौज आ जाए, जहां तुम्हारा तालमेल बैठ जाए, जहां तुम्हें लगे कि हां, इस स्थल ने तुम्हारे हृदय को छू लिया; फिर वही तुम्हारा मार्ग है।
धर्म दिया नहीं जा सकता संस्कार से। धर्म प्रत्येक को अपना खोजना चाहिए। तो दुनिया बहुत धार्मिक हो जाए।
अभी बहुत से लोग हैं, जो धर्म खोजते हैं, और नहीं खोज पाते, क्योंकि वे खोेजते अपने ही संस्कार से हैं और वे संस्कार अगर उनसे मेल नहीं खाता, तो वे उदास हो जाते हैं। वे सोचते हैं यह अपने लिए नहीं है।
जैन प्रक्रिया विजय की प्रक्रिया है। वह पुरुष का भाव है। प्रेम की प्रक्रिया--रास की प्रक्रिया, समर्पण की प्रक्रिया है। वह हारने की कला है। बड़े फर्क हैं उनमें।
हार कर मेरा मन पछताता है
क्योंकि हारा हुआ आदमी
तुम्हें पसंद नहीं आता है
लेकिन लड़ाई में मैंने कोताही कब की?
कोई दिन याद है
जब मैं गफलत में सोया हूं?
यानी तीर-धनुष सिरहाने रख कर
कहीं छांह में सोया हूं?
हार आदमी की किस्मत में लिखी है
जीत केवल संयोग की बात है।
ये किसी की पंक्तियां कल मैं प.ता था।
‘हार कर मेरा मन पछताता है...।’ पुरुष का मन बहुत पछताता है हार कर। ‘क्योंकि हारा हुआ आदमी तुम्हें पसंद नहीं आता है।’ और पुरुष यह सोचता हैः परमात्मा को हारा हुआ आदमी पसंद नहीं आता है। जीता आदमी चाहिए।
‘जिन’ शब्द का अर्थ होता हैः जीतना; जिन का अर्थ होता है --जीत, विजय।
‘क्योंकि हारा हुआ आदमी तुम्हें पसंद नहीं आता है।’
यह किसने कहा तुमसे? --कि परमात्मा को हारा हुआ आदमी पसंद नहीं आता है। मगर पुरुष को ऐसा लगता है--कि हारे तो फिर क्या! हारा हुआ आदमी तो पुरुष को खुद को पसंद नहीं आता, तो वह यह सोच ही नहीं सकता कि परमात्मा को कैसे पसंद आएगा।
‘लेकिन लड़ाई में मैंने कोताही कब की है!’ और पुरुष लड़ता ही रहता है। ‘कोई दिन याद है, जब मैं गफलत में खोया हूं? ’ पुरुष लड़ता ही रहता है! लड़ता ही रहता है। जूझता ही रहता है! धारा के विपरीत संघर्ष करता रहता है। संकल्प पुरुष का लक्षण है।
‘हार आदमी की किस्मत में लिखी हैं...।’ और अगर हार जाता है, तो सोचता हैः किस्मत में लिखी थी। ‘हार आदमी की किस्मत में लिखी है; जीत केवल संयोग की बात है।’ फिर अपने को समझा लेता है कि जीत संयोग की बात हैं। नहीं हो पाई। किसकी हो पाती है? हार किस्मत में लिखी है। लेकिन कोई मुझे यह दोेष नहीं दे सकता कि मैं कभी गफलत में सोया; कि मैंने कभी तीर-धनुष रख कर कभी...।
‘लेेकिन लड़ाई में मैंने कोताही कब की? ’ लड़ता तो रहा। अगर हार गया, तो संयोग की बात है। लेकिन कोई यह नहीं कह सकता मुझसे--कि लड़ा नहीं।
जैन-धर्म पुरुष का धर्म है। उसका जन्म क्षत्रियों से हुआ। जैनों के चैबीसों तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय का अर्थ होता है--योद्धा, लड़ाके। यहां भी लड़ते थे, वहां भी लड़ कर ही पहंुचते हैं।
भक्त का मार्ग स्त्री का मार्ग है। जीत कर नहीं...। प्रेम में तुमने देखा? --प्रेम में वही जीतता है, जो हारता है। वहाँ गणित ही उलटा है। वहां जो हार जाता है, वही जीतता है। वहाँ जो जीतने की कोशिश करता है, वही हार जाता है।
तो भक्त तो समर्पण करता है। वह कहता हैः मेरी--और जीत? यह बात ही फिजूल है। जीत तेरी हो। तेरी जीत में हमारी खुशी है। हम हार जायें पूरे-पूरे--ऐसी कृपा कर। हम लड़े ही न तुझसे--ऐसी कृपा कर। यह लड़ने का भाव ही चला जाए, क्योंकि यह लड़ने का भाव तो अहंकार है, अस्मिता है। हमें तेरे चरणों की धूल हो जाने दे।
‘मैं जैन संस्कारों में पली हूं’ पूछा है; ‘मेरा मन प्रेमी का है--ऐसा मुझे कभीं नहीं लगा।’ नहीं लगा इसलिए कि संस्कार की दीवार बनी रही होगी, मौका नहीं मिला होगा।
अब इंदिरा यहां आ गई है। ‘यहां ध्यान में उतरने पर मैं अकसर कृष्णमय रास में डूब जाती हूं।’
ध्यान से ही पता चलता है कि तुम्हारी असली भावदशा क्या है, तुम्हारे व्यक्तित्व का ंग क्या है। तो जो ध्यान में प्रगट हो, उसी का अनुसरण करना।
तो कृष्णमय लीला, कृष्ण का रास बड़ा प्यारा है। तुम्हें जिद्द आम गिनने की है कि आम खाने की? तुम्हें कृष्ण से लेना-देना, कि महावीर सें? तुम्हें पहुंचना है परमदशा में। अगर कृष्ण का रास तुम्हें ले जाए, तो उससे चल चलो। अगर महावीर का संघर्ष तुम्हें ले जाए, तो उससे चल चलो। जिद्द इसकी मत करो कि ‘इस’ रास्ते से ही जायेंगे। जिद्द एक ही रखो--कि जाना है, कोई भी रास्ता हो। बैलगाड़ी से हो, तो ठीक; रेलगाड़ी से हो, तो ठीक; और हवाई जहाज से हो, तो ठीक। और पैदल ही चलना पड़े, तो पैदल ठीक। जाना है।
तुम्हें जो रास आ जाए; तुम्हें जिसमें मौज आ जाए; जिसमें तुम्हारी मस्ती हो, जिसमें तुम
आनंदपूर्वक जा सको; जिसमें तुम्हें अपने साथ जबरदस्ती न करनी पड़े; जिसमें तुम्हें अपनी अंतरात्मा का
दमन न करना पड़े--बस, वही तुम्हारे लिए मार्ग है।
तो अब इंदिरा को फिकर छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि ध्यान में जो प्रगट हो रहा है, वह तुम्हारे संस्कारों से गहरी आवाज है। ध्यान का मतलब ही यह होता है हटा कर रख दिए संस्कार, विचार, ऊपर-ऊपर की बातें, जो सिखा दी गई हैं--हटा कर रख दीं, ताकि हृदय का मौलिक स्वर पकट हो जाए।
तो ठीक हैः तुम्हारे लिए कृष्ण ही महावीर हैं।
हारो--ताकि जीत सको।
अब पूछना ही क्या मेरे माजी ब हाल का
अफसाना बन चुका हूं अरुजो-जबाल का
नाजुक मुआमला था मगर ये खबर न थी
दिल टूट जाएगा मेरे दस्ते सवाल का
मुझको अब तक यकीं नहीं आता
लोग कहते हैं मर गया हूं मैं
यह अदम है, हयात है, क्या है?
किससे पूछूंः किधर गया हूं मैं
दौैर ये है कि दौैरे-मय भी नहीं
और--ऐसी तो और शै भी नहीं
मयकदे बंद हैं तो मसजिद तक
हम से होगी ये राह तय भी नहीं
समझना। ‘दौर ये है कि दौरे-मय भी नहीं।’ ऐसी घड़ी आ गई है कि अब शराब का दौर नहीं चल रहा है, मस्ती का दौैर नहीं चल रहा है, मदहोशी का दौैर नहीं चल रहा है। ‘दौैर यह है कि दौैरे-मय भी नहीं। और ऐसी तो और शै भी नहीं।’ और दूसरी कोई बात जंचती भी नहीं।
‘मयकदे बंद हैं...मधुशालाएं बंद है।’ मयकदे बंद है, तो मस्जिद तक हमसे होगी ये राह तय भी नहीं।’ और अगर मधुशालाएं बंद हैं, तो हम मसजिद तक न पहुंच पाएंगे।
कुछ लोग हैं, जो मधुशाला से ही मसजिद पहुंचते हैं। मधुशाला का अर्थः वह जो प्रेम का मार्ग है, वह जो भक्ति का मार्ग है, जो मस्ती का और पागलपन का मार्ग है। अगर मधुशालाएं बंद हों, तो अनेक लोग तो कभी मसजिद तक नहीं पहुंच पाएंगे।
कुछ हैं, जो मधुशाला के कारण नहीं पहुंच पाते हैं। और कुछ हैं, जो मधुशाला के बिना नहीं पहुंच पाएंगे। और कोई ऐसा नियम नहीं है, जो सभी मनुष्यों के लिए एक जैसा लागू होता हो।
अगर दोे मोटे नियम बांटने हों, तो प्रेम और ध्यान के बांटे जा सकते हैं।
शांत हो कर समझने की कोशिश करोः तुम्हारे चित्त में जिस बात से उमंग भर जाती हो, हृदय खिलने लगता हो--भजन से, कीर्तन से, नृत्य से--तो मधुशाला तुम्हारा मार्ग है।
तो फिर फिकर न करो संस्कारों की। और अगर ये सब बातें तुम्हें जंचती ही न हों...। मगर एक बात करना ख्याल। करक देख लेना। क्योंकि इंदिरा को भी पता नहीं था, जब तक करके नहीं देखा था।
यहां मेरे पास लोग आ जाते हैं; वे कहते हैंः ‘और तो सब ठीक। आपकी बात हमें ठीक लगती है। मगर यह नाच, यह कीर्तन, यह ध्यान--यह हमें ठीक नहीं लगता।’
तो मैं उसने कहता हूंः ‘हो भी सकता है, तुम्हीं ठीक हो। मगर करके देख लेना। किसको पता--ये केवल संस्कार बोल रहे हों तुम्हारे भीतर से--कि हमें यह ठीक नहीं लगता।’
तुम एक दफा करके देख लेना। करके भी ठीक न लगे, तो ठीक। फिर तुम्हारे लिए मार्ग--शांत और मौन ध्यान का है। फिर नृत्य का तुमसे मेल नहीं बैठता।
लेकिन मेरे अनुभव में ऐसा आया है कि बहुमत नृत्य से जाएगा, अल्पमत ध्यान से जाएगा। इसलिए जैनों की संख्या ब. सकी, यह कोई अकारण बात नहीं है। नहीं ब. सकती थी।
बौद्ध भी हिंदुस्तान से विदा हो गए। होना ही पड़ा। क्योंकि शुद्ध ध्यान का मार्ग था। चीन और जापान में फल गए, क्योंकि वहां जाकर उन्होंने अपना पूरा ंग बदल लिया। वहां उन्होंने जा कर प्रेम को सम्मिलित कर लिया। भारत से जो अनुभव हुआ था, उससे उन्होंने सीख ले ली। एक बात उन्होंने समझ ली कि आदमी की बहुमत संख्या प्रेम से जाएगी।
तो भारत में बुद्ध का जो शुद्ध धर्म था, वह तो नष्ट हो गया। चीन और जापान में जो धर्म है, वह शुद्ध नहीं है। वह मिश्रित है। बुद्ध उससे नाराज होंगे। बुद्ध अगर लौटे, तो वे कहेंगेः ‘यह मेरा धर्म नहीं है।’ क्योंकि जो बुद्ध ने इनकार किया था, वहीं जा कर चीन में बौद्ध भिक्षुओं को स्वीकार कर लेना पड़ा।
बुद्ध ने कहा थाः ‘कोई भगवान नहीं है। जब भगवान ही नहीं है, तो भजन कैसा, प्रार्थना किसकी? लेकिन बौद्ध भिक्षुओं को अनुभव हुआ कि इसकी वजह से तो भारत से धर्म उखड़ गया।
और तुम्हें पता होना चाहिए कि बुद्ध ने वर्षों तक स्त्रियों को दीक्षा नहीं दी थी। नहीं देना
चाहते थे। उनको बात साफ थी कि यह मेरा मार्ग प्रेम का नहीं है। स्त्रियां आएंगी, तो उपद्रव आएगा। बहुत मजबूरी में ही उन्हें देना ही पड़ा, क्योंकि बहुत दबाब पड़ा। हजारो स्त्रियां जगह-जगह आने लगीं। और उन्होंने प्रार्थना करनी शुरू की कि हमें स्वीकार करें। और स्त्रियां रोए--और प्रार्थना करें--और चरणों में गिरें। उन्होंने कहाः हमें स्वीकार करें। आखिर हमारा क्या कसूर है?
तो बुद्धयह भी नहीं कह सकते थे कि तुम्हारा कोई कसूर है। यह तो उनको भी समझ में आता था कि स्त्री होने में किसी का कसूर नहीं है। ‘तो फिर हमें स्वीकार क्यों नहीं करते? ’
वहाँ भी उनकी अड़चन थी। क्योंकि उनका मार्ग ध्यान का है। और स्त्री आई, तो वह कहीं न कहीं से बांसुरी ले आएगी; घूंघर ले आएगी; कुछ उपद्रव शुरू कर देगी। फिर हाथ के बाहर हो जाएगी बात।
साधारण पुरुष ही स्त्रियों से डरते हैं--ऐसा नहीं; बुद्ध-पुरुष भी भयभीत होते हैं!
जब बहुत आग्रह किया, तो मजबूरी में उन्होंने स्त्रियों को दीक्षा दी। लेकिन जिस दिन दीक्षा दी, उन्होंने जो वचन कहे, वे समझने जैसे हैं।
बुद्ध ने जब पहली दीक्षा दी स्त्रियों को, तो उन्होंने कहा कि ‘तुम नहीं मानते हो...।’ क्योंकि भिक्षु भी आग्रह करने लगे। और भिक्षुओं ने भी कहा कि यह आपके नाम पर धब्बा रह जाएगा कि आपने स्त्रियों के साथ ज्यादती की। उनके परम शिष्य आनंद ने भी जब कहा कि इससे हमें बेचैनी होती है कि स्त्रियां इतना तड़फती हैं! सिर्फ स्त्री देह में होने के कारण आप भेद करते हैं? आत्मा तो सब एक है--आप खुद ही कहते हैं!
तो बुद्ध ने कहा--कि ठीक। उन्होंने दीक्षा दी। और दीक्षा देनी पड़ी इसलिए भी कि उनकी मां तो बचपन में ही मर गई थी। जिस दिन बुद्ध पैदा हुए, उसके सात दिन बाद मर गई; तो उसकी मां की बहन ने उन्हें पाला था। वह उनकी मां थी असली में, क्योंकि सात दिन में मां तो मर गई। बुद्ध ने उसी को मां की तरह जाना था। जब उसने दीक्षा के लिए प्रार्थना की, तो बुद्ध इनकार न कर सके। अपनी मां को कैसे इनकार करे!
तो उन्होंने कहा कि ‘ठीक है। मैं दीक्षा देता हूं। दीक्षा तो देता हूं, लेकिन याद रखनाः अगर स्त्रियों को दीक्षा न दी होती, तो मेरा भारत धर्म भारत में कम से कम पांच हजार साल चलता। अब अगर पांच सौ साल भी चल जाए, तो बहुत।’
और यह बात सच साबित हुई। पांच सौ साल भी नहीं चल सका। उखड़ गए। जब चीन में गए बौद्ध भिक्षु--तिब्बत में गए, और सीलोन गए, और बर्मा गए--भारत के बाहर बौद्ध धर्म को पहुंचाया, तो उन्होंने बदल डाला सारा।
बुद्ध ने भगवान के लिए कोई जगह न रखी थी, परमात्मा के लिए कोई जगह न रखी थी; भिक्षुओं ने बुद्ध को ही परमात्मा की जगह रख दिया और बुद्ध की प्रार्थना का उपाय खोल दिया और कहा कि बुद्ध की कृपा से सब हो जाएगा। तो टिका।
बहुमत जगत का भावुक है। अल्पमत ही है जगत का, जो भावशून्य है। इसलिए तुम्हें पता नहीं चलेगा, जब तक तुम प्रयोग न करोगे। प्रयोग करके ही अनुभव होगा। इसलिए कोई मुझसे आकर यह न कहे कि हमें जंचता नहीं। एक दफा अनुभव करके देखो। फिर न जंचे, तो बात ठीक है। लेकिन एक दफा निष्पक्ष अनुभव करके देखो, तो ही तुम्हें पक्का होगा। फिर न जँचे, तो यहां हमारे पास प्रयोग हैं--विपश्यना के, मौन ध्यान के झा-झेन के--जिसके द्वारा तुम यात्रा शुरू कर सकते हो।
अब तक दुनिया में दोेेे ही तरह के धर्म रहे हैं--ध्यान के और प्रेम के। और वे दोेेेनों अलग-अलग रहे हैं। इसलिए उनमें बड़ा विवाद रहा। क्योंकि वे बड़े विपरीत हैं। उनकी भाषा ही उलटी है।
ध्यान का मार्ग विजय का, संघर्ष का, संकल्प का। प्रेम का मार्ग हार का, पराजय का समर्पण का। उनमें मेल कैसे हो।
इसलिए दुनिया में कभी किसी ने इसकी फिकर नहीं की दोेनों के बीच मेल भी बिठाया जा सके।
मेरा प्रयास यही है कि दोेनो में कोई झगड़े की जरूरत नहीं है। एक ही मंदिर में दोेनों तरह के लोग हो सकते हैं। उनको भी रास्ता हो, जो नाच कर जाना चाहते हैं। उनको भी रास्ता हो; जो मौन हो कर जाना चाहते हैं।
अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल परमात्मा का रास्ता खोजना चाहिए।

आखिरी प्रश्नः भक्त की विरह-पशा के संबंध में कुछ और कहें।

भक्त की विरह-दशा अनूठा काव्य है। भक्त की विरह-दशा इस जगत में सबसे मीठी और प्यारी अनुभूति है। इस जगत में उससे ऊंची कोई दशा नहीं है।
विरह का अर्थ होता है कि प्रभु से बिना मिले अब एक क्षण भी जीने का मन न रहा। जीवन हो तो उसके साथ, अन्यथा जीवन व्यर्थ है। जीवन हो तो उसके हाथ, अन्यथा जीवन व्यर्थ है। अब जीवन में कोई भी रस है और रंग है, तो सिर्फ एक ही आशा से है कि तुझसे कभी मिलन होने वाला है।
भक्त के लिए यह संसार सिर्फ प्रतीक्षालय हो जाता है। इस संसार में उसे कोई अर्थ नहीं रह जाता। अर्थ तो उसका ‘ऊपर’ है, आकाश में छिपा है। लेकिन यहां वह प्रतीक्षा कर रहा है कि कब तेरा मेघ घना हो औैैैर बरसे। वह अपने पात्र को लिए बैठा है।
जब तक उसका मेघ न बरसेगा; तब तक अपने पात्र से अपने आंसू ही भर रहा है। विरह की दशा का इतना ही अर्थ है।
मगर इस दशा में बड़े ंग और बड़े रंग होते हैं। इस दशा में बड़े भाव उठते हैं, अलग-अलग तरंगे उठती हैं, अलग-अलग घटनाएँ घटती है।
वो बादल सर पे छाए हैं कि सर से हट नहीं सकते
मिला है दर्द वो दिल को कि दिल से जा नहीं सकता
भक्त जानता है कि यह दर्द आखिरी है। यह दर्द ऐसा है कि इसका कोई इलाज नहीं। यह दर्द ऐसा है कि इसके लिए कोई औषधि नहीं।
कहते हैंः मजनू जब लैला के प्रेम में बिल्कुल पागल हो गया, तो चिकित्सक बुलाए गए। और जब चिकित्सकों ने उसकी नाड़ी हाथ में ली, तो वह खिलखिला कर हंसने लगा। पूछाः ‘क्या है? किसलिए हंसते हो? ’ तो उसने कहाः ‘यह ऐसा दर्द है, जिसकी कोई दवा नहीं। और यह दर्द ऐसा है कि इसे मैं छोड़ना भी नहीं चाहता। यह मेरा प्राण है; यही मेरा सहारा है। यह दर्द अभिशाप नहीं है, यह दर्द वरदान है।’
पर कई बार भक्त रुठ भी जाता है। कितना पुकारता है और कोई उत्तर नहीं आता! आकाश चुप का चुप; कहीं से कोई खबर नहीं आती कि उसकी प्रार्थना पहुंचती भी है या नहीं पहुंचती!
रामकृष्ण अकसर ऐसा करते थे कि दोे-चार दिन के लिए बंद ही कर देते थे दरवाजा भगवान् का। थे मंदिर के पुजारी और बंद कर देते; ताला मार देते। लोग पूछते भी कि ‘आप यह क्या करते हो--कभी-कभी पूजा इत्यादि बंद हो जाती है? ’ तो उन्होंने कहाः ‘एक सीमा है आखिर बरदाश्त की भी। अगर इसी तरह करेगा, तो हम भी बदला लेंगे। यह नाराजगी में कर देते है।’
उस नाराजगी में प्रार्थना ही है; इस नाराजगी में प्यार ही है।
प्रेमी रुठ जाते हैं। आखिर सीमा होती है। रामकृष्ण कहतेः ‘ज्यादती की भी सीमा होती है। मैं रोज-रोज चिल्लाता, रोज-रोज चिल्लाता। सुनते ही नहीं। अब कर दिया ताला बंद। अब रहो बंद। अब न भोग लगेगा, न प्रार्थना होगी; न घंटी बजेगी, न दिया जलेगा। अब तड़फोगे। अब सोचोगे मन ही मन में कि रामकृष्ण आओ। तब आऊंगा।’
अपने गमखाने में बैठा हूं इस अंदाज से आज
जैसे मुझको तिरे आने की जरूरत न रही
ऐसा अकड़ कर भी कभी भक्त बैठ जाता है। मगर वह अकड़ भी प्रेम की ही है। जैसे प्रेमी चाहता है कि मनाए कोेई; जैसे प्रेमी चाहता है कि मैं रुठूूँ, तो प्रेयसी मनाए। प्रेयसी चाहती है कि मैं रुठूँ, तो प्रेमी मनाए।
तो भक्त का मार्ग तो प्रेम का मार्ग है। और भगवान् मनाता है।
रामकृष्ण की पूजा से शायद परमात्मा उतना प्रसन्न न हुआ हो, जितना तब होता होगा, जब वे ताला मार देते होंगे। क्योंकि कितनी गहन आस्था है! परमात्मा के होने पर कितनी गहन श्रद्धा है! ताला मारने की हिम्मत उसे तो नहीं हो सकती, जिसके भीतर संदेह छिपा हो। वह तो करेगा। वह कहेगाः कही नाराज हो जाए! वह तो सोचेगा कि कुछ गड़बड़ हो जाए। वह तो औपचारिक है। उसकी औपचारिकता में इतनी हिम्मत नहीं हो सकती कि ताला मार दे।
रामकृष्ण तो भोग भगवान् को लगाते थे, तो पहले खुद चख लेते थे। शिकायत हो गई थी उनकी। लोग इकट्ठे हो गए कि ‘यह बात तो ठीक नहीं है; यह तो कभी सुना नहीं; किसी शास्त्र में उल्लेख नहीं है। पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर खुद को! तुम पहले खुद को लगा देते हो!’
रामकृष्ण ने कहाः ‘तो फिर मैं पूजा नहीं करूंगा। क्योंकि मुझे पक्का याद है कि मेरी मां भोजन बनाती थी, तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। क्योंकि वह कहती थी--अगर स्वादिष्ट ही न हो, तो बेटा, तुझे कैसे दूं! तो मैं तो बिना चखे नहीं भोग लगा सकता।’
लोग कहतेः ‘यह जूठा है? ’ वे कहतेः ‘जूठा हो या कि न हो, लेकिन पहले मैं चख लूंगा। पहले हो तो मेरे परमात्मा के योग्य। कभी कभी ठीक नहीं होता, तो फिर मैं नहीं लगाता।’
यह बड़ी अनौपचारिक है, आंतरिक है, समीपता की है, प्रेम की है।
सादगी देख, कि बोसे की हवस रखता हूं
जिन लबों से कि मयस्सर नहीं दुशनाम मुझे
जिन ओंठों से मुझे कभी गाली भी नहीं मिलती, उनसे मैं चुंबन की आकांक्षा रखता हूं। मेरी सादगी देख।
भक्त बड़ा भोला है। उसके भोलेपन का ही परिणाम है कि एक दिन परमात्मा उसके प्राणों में उतरता है। उसकी सादगी ही उसे बुला लाती है; उसकी साधना नहीं--उसकी सादगी, उसकी सरलता। उसकी तपश्चर्या कुछ भी नहीं है; उसका निर्दोष भाव, उसका बच्चों जैसा भाव...। जैसे छोटा बच्चा अपनी मां की साड़ी को पकड़े घूमता रहता है--ऐसा भक्त परमात्मा का सहारा पकड़े रहता है।
दफ्न कर सकता हूं सीने में तुम्हारे राज को
और तुम चाहो तो अफसाना बना सकता हूं मैं
और भक्त कहता है कि तुम्हारा जो रहस्य मेरे ऊपर खुल रहा है; ‘दफन कर सकता हूं सीने में तुम्हारे राज को।’ इसको मैं अपने भीतर छिपा कर रख सकता हूं--किसी की कानोंकान खबर न हो, पता न चले। ‘ओैर तुम चाहो तो अफसाना बना सकता हूं मैं।’ लेकिन सब तुम्हारी मरजी। अगर तुम्हारी आकांक्षा हो, तो मैं गीत गुनगुनाऊं; दुनिया को खबर कर दूं कि मेरे भीतर क्या हुआ है। रोऊं जाकर बाजार में, और गाऊं जाकर बाजार में। ‘और तुम चाहो तो अफसाना बना सकता हूं मैं।’
लेकिन तुम्हारी चाह ही सर्वोपरि है। मेरी चाह कुछ भी नहीं; तुम जैसा चाहो। तुम चाहो तो ऐसा हो गुमनाम, चुपचाप मर जाऊंगा बिना कुछ कहे? किसी को खबर भी न होगी कि तुम मेरे हृदय में उतरे थे। और तुम अगर चाहो तो सारी दुनिया में खबर कर दूं कि परमात्मा से मेेरा मिलन हो गया है। मगर तुम्हारी चाह...।
कैद पीने में नहीं पी कर बहक ना जुर्म है
मैंने सकझा ही नहीं दस्तूर-ए-मैखाना अभी
भक्त को दो दशाएं हैं। एक तो ऐसे भक्त हैं, जो पी तो लेते हैं परमात्मा की शराब, लेकिन कभी तुम उन्हें बहकते न देखोगे। सम्हले रहते हैं; तुम्हें पता ही नहीं चलेगा--उनकी बहक का। और एक ऐसे हैं कि पीने के बाद बहक जाते हैं। उनसे बड़े गीत उठते हैं, उनसे बड़ा संगीत उठता है। मीरा बहकों में से है! चैतन्य भी बहके हुओं में से हैं। पी गए--और फिर बहक गए।
कुछ हैं, जो पीकर चुप रह जाएंगे। घटना इतनी बड़ी है कि अवाक् हो जाएंगे, मौन हो जाएंगे। सन्नाटा हो जाएगा। कुछ हैं कि घटना इतनी बड़ी है कि उनके आंगन में आकाश उतरा है--कि मस्त हो जाएंगे, नाचेंगे, गुनगुनाएंगे।
कभी नकल में मत पड़ना। कभी दूसरे का देख कर अनुकरण मत करना। अपने भीतर का हृदय का भाव समझना और तुम्हारे भीतर जैसा हो, वैसा ही होने देना। जरा सा भी नकल की--कि चूक जाओगे। जरा-सा किसी और का अनुकरण किया--कि भूल हो जाएगी, पाखंड हो जाएगा।
दूसरे के आंसू बह रहे हैं, इसलिए तुम मत रोने लगना। तुुम्हारे जब आंसू बहें, तभी रोना। दूसरा पायल हो रहा है--तुम मत होने लगना। क्योंकि ऐसा होता है। आदमी बड़ा नकलची है; वह हर चीज में नकल कर लेता है। वह विरह की भी नकल कर लेता है; वह मिलन की भी नकल कर लेता है! नकल से लेकिन कोई संबंध नहीं है। परमात्मा से जोड़ उसी का है, जो असल है, प्रामाणिक है।
तुम्हारा विरह तुम्हारा हो। तुम्हारा आनंद तुम्हारा हो। तुम्हारे आँसू तुम्हारे हों। तुम्हारी छाप, तुम्हारा हस्ताक्षर होना चाहिए। तुम दूसरे का अनुकरण मत करना।
यहां रोज ऐसा हो जाता है। कोई नाच रहा है, उसे देख कर कोई, जिसको नाच उठता ही नहीं, वह भी सोचता है कि शायद नाचने से कुछ होता होगा। वह भी नाचने लगता है। नाचने से कुछ नहीं होता; कुछ हो; तो नाच होता है। लेकिन कुछ हो तो...।
देखता है--कोई रो रहा है, तो वह सोचता है कि शायद इसको कुछ हो रहा होगा। चलो, हम कोशिश करें। चेष्टा से आंसू ले आएं। आंसुओं से कुछ नहीं होता; कुछ हो, तो आंसू होते हैं।
या मुझको हाथों-हाथ लो मानिंद-ए-जाम-ए-मै
या थोड़ी दूर साथ चलो, मैं नशे में हूं
भक्त विरह की अवस्था में कहता है: हे परमात्मा, मेरा हाथ सम्हाल ले, क्योंकि मैं नशे की हालत में हूं।
या मुझको हाथों-हाथ लो मानिंद-ए-जाम-ए-मै
या थोड़ी दूर साथ चलो, मैं नशे में हूं
विरह के बहुत रंग हैं, बहुत रूप हैं। जितने विरही हैं, उतने रंग हैं, उतने रूप हैं। तुम्हारा विरह-तुम्हारा होगा। इसलिए तुम किसी भी विरह की भावदशा को आरोपित मत करना।
बहने दो। उठने दो। उठे--तो रोकना मत।
हम दो तरह की भूलें करते हैं। कुछ लोग चेष्टा करके करने लगते हैं। और कुछ लोग होता है, तो होने नहीं देते; उसे रोकते हैं। दोनों ही हालत में चूक हो जाती है।
जो हात है, उसे होने दो। कुछ भी गंवान पड़े--गंवाओ। जो होता है, उसे होने दो। दुनिया कुछ भी कहे, कहने की बहूत फिक्र मत करो। दुनिया से क्या लेना-देना है? दुनिया के मंतव्य का क्या मूल्य है?
लोग अच्छा कहेंगे, बुरा कहेंगे; होशियार कहेंगे, कि ना-समझ कहेंगे, नादान कहेंगे, कि दाना कहेंगे--इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। लोगों के कहने का मूल्य ही कुछ नहीं है। तुम तो अपनी सुनो, अपनी गुनो। तुम तो अपने बीच और परमात्मा के बीच किसी और को न आने दो। तो तुम जल्दी हो पाओगे कि तुम ब.ने लगे--ठीक मार्ग पर।
अपने हृदय से ही सुन-सुन कर चलोगे, तो धीमी ही आवाज है हृदय की, मगर बड़ी सच है। हृदय से कभी गलत इशारा नहीं उठता। क्योंकि हृदय से जो इशारे उठते हैं, वे परमात्मा के द्वारा ही उठाए गए होते हैं।
बुद्धि में संसार छाया है; हृदय में परमात्मा छाया है। बुद्धि में संस्कार, समाज, भीड़-भाड़, लोग, परिवार शिक्षा--इन सबका असर है। हृदय इनके बाहर है। हृदय अब भी परमात्मा के हाथ में है।
तुम अपने हृदय की सुनो, अपने हृदय की गुनो और तुम जल्दी पाओगेः जीवन में फूल खिलने की घड़ी करीब आने लगी। तुम जल्दी पाओगेः रोशनी जलने का क्षण करीब आने लगा।
संसार राख ही राख है--सच। लेकिन इस राख के बीच अगर तुम प्रार्थना से भर जाओ, तो फूल खिलते हैं। इस कीचड़ में भी कमल खिलते हैं।

आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें