पांचवां प्रवचन
प्रेम के क्षण
आदमी और आदमी के बीच दूरी भी डिस्टेंस है, और दूरी भी बहुत दूर नहीं है। भाई आप एक फीट दूर हों तो कहते हैं कि पास है, हजार फीट दूर हैं तो कहते हैं दूर है, बस एक फीट और हजार फीट का ही फर्क है। लेकिन आदमी आदमी के बीच फासला इतना ज्यादा है कि उसको दूर भी नहीं कहा जा सकता। पास तो कहा ही नहीं जा सकता, दूर भी नहीं कहा जा सकता। और मजा ऐसा है कि कोई उपाय भी नहीं है कि दूरी खत्म की जा सके। और कभी दो आदमियों के बीच की दूरी खत्म नहीं हुई है कभी और न कभी होगी।
यानि पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में कभी भी दो आदमियों के बीच फासला कम नहीं हुआ है। तो तुम जो कहते हो न कि लेक ऑफ अंडरस्टैंडिंग, ऐसा नहीं है, जो बड़े अंडरस्टैंडिंग वाले लोग हैं, उनके बीच भी फासला है। फासले का संबंध तुम्हारी समझ से नहीं है, वह जो आदमी का अस्तित्व एक्झिसटेंस वह ऐसा है तो उसमें दूरी अनिवार्य है। और इसका कुल मतलब इतना है जो खयाल में नहीं पड़ता, वह यह है कि, चूंकि एक-एक आदमी एक-एक मिस्टरी है, इसलिए दो मिस्टरीज के बीच कभी भी कोई निकटता नहीं हो सकती। दो रहस्य के बीच अनंत फासला रहेगा। वैरायटीज।
प्रश्नः फॉर एग्जांपल?
एक आदमी जो दिखता है ऊपर से वह थोड़े ही है, वह भीतर बड़ा रहस्य, बड़ी मिस्टरी है। और मिस्टरी वह ऐसी है कि वह खुद कभी नहीं जान पाता कि जो आप उसको कहें। न जानने का कारण यह है कि रहस्य इतना बड़ा है, वह खुद अपने को नहीं जान पाता, तो दूसरा उसको जान कैसे पाए? और रहस्य का मतलब ही यह हैः नॉट दैट व्हीच इ.ज नॉट नोइंग, बट दैट व्हीच कैन नॉट बी नोइंग, व्हीच केन नेवर बी नोन। नॉट दि अननोन, बट दि अननोएबल।
रहस्य का, मिस्टरी का जो मतलब है, इसका मतलब ही यह है कि नहीं जाना जा सकता। अज्ञेय है जो, अज्ञात नहीं। अज्ञात तो कभी जाना जा सकता है। अज्ञात को तो हम आज नहीं कल जान लेंगे। तो मनुष्य जो है वह अननोएबल है। और इसलिए दो मनुष्यों के बीच फासला अनंत होगा। अनंत। दूरी नहीं कहें उसे, क्योंकि दूरी तो नापी जा सकती है। अमाप होगा, इंमैजरेबल होगा। और यह कभी कम नहीं होगा। और इस में बड़े मजेदार मामले। इसलिए एक-एक आदमी एक-एक आयरलैंड है, जो दूसरे आयरलैंड से कभी नहीं मिलता। पास से बहता हुआ निकल जाता है, छूता हुआ निकल जाता है, फिर भी मिलन कभी नहीं होता। द्वीप, जिसके चारों तरफ जल है, द्वीप अकेला खड़ा है, बिल्कुल अकेला है, लोनली।
एक-दूसरे से कभी मिलना होगा ही नहीं और यह कभी हुआ भी नहीं और कभी होगा भी नहीं। कितना ही तुम जानो किसी को, एक पत्नी के पास तुम पचास वर्ष रहो, फिर भी तुम नहीं जानते उसे कि वह कल सुबह उठ कर क्या कर देगी, कुछ पता नहीं? क्या कह देगी, कुछ पता नहीं? बेटे को बाप नहीं जानता, बाप को बेटा नहीं जानता। मित्र को मित्र नहीं जानता। कुछ पक्का ही नहीं है, क्योंकि वह मिस्टरी इतनी बड़ी है कि उससे कुछ भी निकल सकता है। उसका कोई हिसाब नहीं, और दूरी अनंत है। और संभावना कोई नहीं उसे कम करने की। और इसलिए जो लोग उसे कम करने की कोशिश करते हैं वे लोग मुसीबत में पड़ जाते हैं। उसे जीओ, उसे कम करो ही मत। अगर एक स्त्री से मुझे प्रेम हो गया और दूरी कम करने की कोशिश की--विवाह वगैरह सब दूरी कम करने की कोशिश है--और मैंने उसे समझने की कोशिश की और सारा उपद्रव किया कि मुश्किल खड़ी हो जाएगी। मैं जानूंगा कि वह मिस्टरी है, और जीऊं, बस।
तुम मेरे पास रुके हो, मैंने जानने-पहचानने की कोशिश की कि तुम कौन हो और क्या हो और कैसे हो, और ऐसा होना चाहिए, वैसा नहीं होना चाहिए, तो हमारे बीच का फासला बहुत है। न, तुम जैसे हो हो मैं नहीं जानता और फिर भी तुम्हारे साथ जीने को राजी हूं, मित्रता का इतना ही मतलब है, टु लिव विद दि अननोन। फ्रेंडशिप का इतना ही मलतब है। अनजान, अपरिचित आदमी, जिससे कभी परिचय नहीं होने वाला, हो भी नहीं सकता। एक्वेंटेंस हो सकता है, इसका नाम क्या है, फलां, ढिंका; बाकी यह कौन है, कोई पता नहीं है। फिर भी हम राजी हैं। फिर भी हम राजी हैं।
यहां का मतलब क्या है अननोन के साथ...
हम उसे नोन बनाना चाहते हैं।
दोस्ती का मतलब?
दोस्ती का मतलबः अनजान के साथ, अनजान की हैसियत से रहने की तैयारी है। हम नहीं पूछते कि कौन हो, क्या हो, यह भी नहीं जानते कि रात तुम सब सामान भर कर उठा कर ले जाओगे। मगर फिर भी हम राजी हैं। और चूंकि हम अनजान के साथ रहने को राजी हैं इसलिए शिकायत का कोई सवाल नहीं है। शिकायत उठती ही इसलिए है कि हम इस भ्रांति में पड़ते हैं कि हमने जान लिया। हम कहते हैं कि हमने कभी आशा न की थी कि यह रात समान लेकर घर से भाग जाएगा। मैं तो उनको जानता था, इतना अच्छा आदमी, रात कैसे सामान ले गया? जो शिकायत हो रही है न, वह जानने के भ्रम से पैदा हो रही है। अगर मैं यह जानता था तो गलत जानता था। जान सकते ही नहीं हम किसी को। इसलिए इतना ही हम कहेंगे कि एक आदमी रहता था यहां, रात कभी हमने उसे जाना नहीं, आज रात वह सामान उठा कर ले गया, और अब भी हम यह नहीं जानते कि वह क्यों ले गया है? और अब भी हम यह नहीं जानते कि वह वापस ले आएगा, नहीं आएगा। और अब भी हम नहीं जानते कि हमारे हित में ले गया है या अपने हित में ले गया है। हम कुछ भी नहीं जानते। वह ले गया है सामान। और इसलिए शिकायत भी नहीं है कोई और क्रोध भी नहीं है कोई।
आदमी आदमी के बीच की दूरी को कम करने की बहुत कोशिश की गई और सब असफल होती है और दुख लाती है। बाप समझता है अपने बेटे को कि मैं इसको समझता हूं, भूल यहीं हो गई है। अब वह झंझट में पड़ेगा। क्योंकि सिर्फ अननोन निकलेगा, जो कि उसने कभी नहीं जाना। और तब वह कहेगा कि तेरे लिए पैदा, अगर तू पैदा ही न होता तो अच्छा। और मां सोचती है इस बेटे को मैं जानती हूं। और उसे पता नहीं कि कल यह बेटा किसी और स्त्री को प्रेम करेगा और मां को लात भी मार देगा। और तब वह कहेगी कि मेरा जाया कैसा है, यह मेरे पेट से कैसे पैदा हुआ, मैं इसे जानती थी, यह बदल कैसे गया? इसको किसने बदला? यह किसी ने किसी को नहीं बदला है, सिर्फ अननोन को जो नोन मान लिया था, वही तुम्हारी भूल थी।
और दो आदमी कभी पास नहीं हो सकते, क्योंकि पास सिर्फ पदार्थ हो सकता है। क्योंकि पदार्थ में कोई मिस्ट्री नहीं है। जहां मिस्ट्री है वहां पास होना हो ही नहीं सकता। कोई उपाय ही नहीं। इसे जो जान लेता है, जो इसे जान लेता है कि पास होने का कोई उपाय ही नहीं, वह बड़े गहरे अर्थों में पास आ जाता है। इसको मान ही लेता है कि पास होने का कोई उपाय भी नहीं है, स्वीकार ही कर लेता है कि तुम अनजाने हो, और अनजाने ही तुम रहोगे। न मेरी कोई अपेक्षा है, न मेरा कोई बंधन है, न मेरा कोई हिसाब है। वह अंडरस्टैंडिंग का प्रॉब्लम नहीं है, समझ की बात नहीं है, समझ-नासमझी का कोई फर्क नहीं है। बल्कि अक्सर तो यह होता है कि समझदार थोड़े ज्यादा दूर हो जाते हैं, नासमझ थोड़े कम। क्योंकि समझदारी भी फासला बढ़ाती है, बढ़ाती है। इसलिए बच्चे थोड़े ज्यादा करीब होते हैं और बूढ़े और फासले पर होते हैं। क्योंकि बच्चे नासमझ हैं...
बिल्कुल कामचलाऊ, कुछ भी मतलब का नहीं, कुछ भी काम चल जाता है। वह सब कामचलाऊ है बिल्कुल।
प्रश्नः जिसको आप अंडरस्टैंडिंग कह रहे हैं?
हां, वह कामचलाऊ है।
प्रश्नः वह एडजेस्टमेंट है।
वह कोई अंडरस्टैंडिंग है ही नहीं।
हां, हां, वैरी, वैरी, लेकिन वैरी वैरी जो है न वह आनंद नहीं होता।
मैं समझ गया, मैं समझ गया। ठीक है। ठीक है।
अच्छा है मुझे आज सबक मिला, इससे काफी अंडरस्टैंडिंग मिली।
हां, अनजान के साथ रहोगे।
हां, अनजान के साथ रहने की हिम्मत जुटानी चाहिए। अनजान के साथ रहने की हिम्मत जुटानी चाहिए।
प्रश्नः यह भी आपने अच्छा कहा कि जो इतना जान लेते हैं हम, एक-दूसरे को जान ही नहीं सकते हैं, बस वे वहां तक नजदीक आ जाते हैं।
बस उतना...
प्रश्नः काफी नजदीक आ जाते हैं।
और जानने का ही खयाल छोड़ दें। कभी यह भी खयाल में आ जाता है कि जाना कुछ भी नहीं जा सकता। जीया ही जा सकता है, जानने का कोई उपाय भी नहीं है।
अभी मैं समझा इस सेंटेंस का मतलब, सेंट पॉल का है न, बाइबिल का, लाइफ इन टू लीव... मैंने कहा, लाइफ समझने के लिए क्यों नहीं है? (प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
हां, हां, बिल्कुल ही जी जा सकती है, समझने की भूल में जो पड़ा वह जीना भी चूक जाता है। इसलिए पंडित, ज्ञानी, फलां, ढिंका ये चूक जाते हैं। बल्कि जिसको हम पापी कहते हैं, कई दफा वह भी जी लेता है। और जिसको हम पंडित कहते हैं, वह चूक जाता है।
वी नेवर नो दि इटर्नल बट एक्सटर्नल लाइफ... (प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
वह भी कहां आप जानते हैं, वे भी नहीं जानते हैं, हम क्या जानते हैं? हमारे जानने के साधन इतने लिमिटिड कहना चाहिए, बल्कि ऐसे परवर्टेड हैं कि कुछ भी नहीं कहा जा सकता, हम जिसको जानना कहते हैं वह जानना कम है और थोपना ज्यादा है।
एक फकीर हुआ, बायजीद। जिस गांव में वह रहता है उस गांव का राजा उसे बहुत मानता है, बड़ा आदर देता है। लेकिन वह बायजीद कहता है कि तुम मुझे नाहक आदर वगैरह मत दो, क्योंकि जो लोग भी आदर देते हैं वे फिर किसी दिन अनादर भी देते हैं। तो तू मुझे बचा! और वह इसलिए भी कहता है, वह राजा निरंतर कहीं किसी और फकीर के पास पहले उसके पास जाता था, वह ऐसा बेईमान निकल गया, वह फलां आदमी, फलां औरत के साथ देखा गया, वह फलां आदमी यह खा रहा था, वह पी रहा था। तो बायजीद कहता है कि देख, तू मुझे भी आदर मत दे। क्योंकि आज नहीं कल तू मेरे संबंध में भी यही बातें कहेगा। लेकिन वह राजा कहता कि नहीं आपकी बात ही और है। आपका तो कोई सवाल ही नहीं है।
एक दिन राजा शिकार के लिए गया हुआ है, उसने देखा कि बायजीद झील के उस तरफ बैठा हुआ है, एक औरत के साथ। और वह औरत सुराही में से कुछ उसको डाल रही है। उस राजा ने कहा कि जिसको मैं इतना आदर देता हूं वह भी आखिर यह निकला! सोचा कि जरा घोड़ा बढ़ा कर नमस्कार तो कर ही दूं। ताकि फकीर को पता चल जाए कि मुझे पता पता चल गया है। वह घोड़ा बढ़ा कर आया, पास आकर उसने कहा कि नमस्कार! तो फकीर ने उससे कहा कि तू इतनी दूर से लौट मत जाना और पास आ। पर उसने कहा कि अब कोई आने की जरूरत नहीं, बात ही खत्म हो गई है। उसने कहा कि नहीं, इतनी जल्दी खत्म मत कर, खत्म करने से पहले और थोड़ा पास आ जा। तो राजा आया। उसने कहाः क्या समझ रहे हैं? क्या हो गया है? उसने कहा कि यह क्या हो रहा है? यह औरत, यह जंगल, यह अकेला, अकेला... उसने उसका बुर्का उघाड़ दिया, तो वह तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया राजा, वह उसकी मां थी। और उसने वह सुराही उंडेल दी, उसमें सिवाय पानी के और कुछ भी न था। फिर उस बायजीद ने कहा कि अब तुम जाओ, लेकिन बात अब खत्म हो गई। अब मेरे पास कभी मत आना। लेकिन राजा ने कहा कि मुझे माफ कर दो, उस फकीर ने कहा कि अब तक जितने लोग समझते हैं कि हमने दूसरे को बाहर से देख कर पहचान लिया, सब पहचान ऐसी है। बाहर से देख कर पहचान, सब पहचान ऐसी ही हैं--ये औरत, जंगल, शराब, बाहर की पहचान हैं, पहचान नहीं पाता। और पहचानने की जरूरत क्या है? हम हैं कौन?
मैं यह पूछता हूं कि मैं हूं कौन कि आपको पहचानूं? और मुझे हक किसने दिया कि मैं पहचानूं? किसने मुझे ठेका दिया? कौन सी जरूरत आ पड़ी कि मैं आपको पहचानूं? आप आप हैं और काफी हैं--और आप जैसे हैं, हैं। और आपको परमात्मा रहने का हक दे रहा है, मैं काहे के लिए बाधा बनूं। परमात्मा आपको रहने का पूरा हक दे रहा है--श्वास दे रहा है, पानी दे रहा है, सूरज दे रहा है और बिल्कुल फिकर नहीं कर रहा है कि एक पापी जिंदा है। और मैं नाहक परेशान हो रहा हूं कि यह पापी जो है, या एक आदमी जो है, फलां है, ढिंका है। तुम तुम हो, कोई कोई है; वह अपनी तरह से जी रहा है। हमें हक कहां है, हम सजा दे रहे हैं!
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )... उसको अधिकार उसने दिया है तो तुम उसके अधिकार को रोकने वाले तुम कौन होते हो?
कुछ कारण है उसमें, क्यों हम दूसरे के बाबत ऐसा करते हैं? क्योंकि हम खुद नहीं जी पा रहे हैं। जो अपने जीने में तल्लीन है वह तुम्हारे जीवन में बाधा देने न आएगा। फुर्सत कहां है? पहले मैं खुद प्रेम करूं कि तुम्हारे प्रेम का पता लगाऊं? मेरा तो मानना यह है कि जो आचरण की बात है, तुम किसी को प्रेम करते हो या नहीं करते हो यह पता लगाऊं कि मैं प्रेम करूं? असल में मैं प्रेम से चूक गया, तब फिर मैं दूसरों के प्रेम का पता लगाता हूं। परवर्शन मैं चूक गया हूं, कहीं जिंदगी से, और जहां-जहां मुझे जिंदगी दिखाई पड़ती है, वहीं मैं रोष से भर जाता हूं। वहीं मैं क्रोध जाहिर करता हूं, वहीं मैं निंदा कर रहा हूं। अब मेरा एक ही रस रह गया है, मैं तो चूक गया हूं, और फिर दूसरे जो नहीं चूक गए हैं, उनको मैं गालियां दूं, निंदा करूं, वह मेरा कार्य है।
कोई कारण ही नहीं है कि हम किसी का पता लगाएं कि कौन आदमी कैसा है?
इससे कोई मतलब नहीं है। हमारा जीना अगर सच में ही आनंदपूर्ण हो, तो हम बाधा देने नहीं जाते। और जानने की भी क्या जरूरत है? कोई भी जरूरत नहीं है। इसलिए जानने वाले जो हैं वे और दूरी पैदा करते हैं।
प्रश्नः आचार्य जी, यह जो कहा जाता है कि आज-कल के नौजवान और हिप्पी वगैरह जो हैं, वे लोग जो हसीस वगैरह लेते हैं, जिनको अपन यह चरस-गांजाए कहते हैं, तो कुछ ज्यादा क्वांटिटी में लेने से कहते हैं कि उन लोगों को कुछ मेडिटेशन जैसा लगता है? संभावना है?
संभावना है। असल बात यह है कि हमने मनुष्य का जो व्यक्तित्व है; वह साइकोसोमेटिक है, एक छोर से वह शरीर है, और दूसरे छोर से वह आत्मा है। और दोनों छोर से उसका व्यक्तित्व प्रभावित किया जा सकता है। आत्मा के छोर से भी प्रभावित किया जा सकता है, शरीर के छोर से भी प्रभावित किया जा सकता है। अचानक तुम्हें एक ट्रैंक्वेलाइजर दे दिया है और तुम्हें रात गहरी नींद आ गई, तो शरीर के छोर से तुम्हें नींद आ गई है। तुम शांत आदमी हो, प्रसन्न आदमी हो, मौज से जीए हो दिन भर, तो नींद आ गई। यह आत्मा के छोर से नींद आई है। और विज्ञान की पकड़ में आत्मा तो आती नहीं, शरीर का छोर आता है। तो विज्ञान तो जब भी कुछ सोचेगा तो शरीर के छोर से सोचेगा। जैसे कि मेडिटेशन में एक आदमी गया, तो विज्ञान क्या करे? विज्ञान उसकी खोपड़ी पर यंत्र लगा कर देखेगा कि उसके भीतर इस समय वायब्रेशंस कैसे हैं? रिदम कैसी है? क्या हो रहा है इसकी खोपड़ी में? तो वह यह सब रिदम देखेगा। वह कहता है कि यह तो एक केमिकल डालने से भी रिदम पैदा हो जाती है, और होती है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। वह कहता है, एल.एसड़ी. की एक गोली देने से एक आदमी में यही रिदम पैदा हो जाती है, जो इस मेडिटेशन में हो रही है। और फिर ये आदमी कहता है कि वैसा ही आनंद मिला है हमें जैसा मेडिटेशन में मिला था। और इसमें कोई कठिनाई नहीं है। कठिनाई है तो वह केवल इतनी है कि पिल से आया हुआ मेडिटेशन पिल के साथ ही चला जाएगा क्योंकि वह रसायन है।
और दूसरा खतरा यह है कि गोली से आया हुआ जो शांति और ध्यान है, वह गोली के हट जाने पर न केवल चला जाएगा, बल्कि डिप्रेशन लाएगा। क्योंकि तुमने एक अनुभव किया और अब तुम जो जानोगे सब फीका होगा। समझे ना। बात तो सच है वह और मैं भी मानता हूं कि आज नहीं कल सब केमिकल ड्रग्स का उपयोग किया जाएगा, किया जाना चाहिए। पहले मेडिटेशन उससे करवानी चाहिए, क्योंकि वह बहुत आसान है, पहली दफा तुम्हें झलक तो मिल जाएगी।
जैसे अंधा आदमी है, आंख का इलाज हो, आपरेशन हो, बरसों लगेंगे, अगर कोई तरकीब हमारे पास हो कि अंधे आदमी को भी हम गोली देकर एक सेकेंड के लिए आंख खुलवा सकें, तो अंधे आदमी की जिंदगी बदल देगा। फिर वह आंख के इलाज से एकदम तैयार हो जाएगा। चाहे वर्षों लगें, कोई फिकर नहीं। समझे न? तो केमिकल ड्रग्स हैं, उसके द्वारा एक सेकेंड के लिए, दो सेकेंड के लिए, घंटे भर के लिए, दो घंटे के लिए अगर तुम्हें ध्यान की झलक मिल जाती है, तो यह बिल्कुल प्राथमिक उपयोग इसका किया जा सकता है। लेकिन इसका स्थायी उपयोग किसी मतलब का नहीं। कि एक अंधा आदमी रोज चौबीस घंटे एक दफा गोली खाकर एक सेकेंड के लिए आंख खोल कर देख ले और फिर अंधा हो जाए। इसका कोई मतलब नहीं है। बल्कि वह ड्रग आडिक्ट हो जाएगा, अब उसे चौबीस घंटे गोली चाहिए तभी वह थोड़ी देर को देख पाए नहीं तो फिर बंद हो गई, फिर बंद हो गई। तो यह तो अंधे होने से भी ज्यादा मुसीबत हो जाएगी। अंधा था तो कम से कम अपनी लकड़ी लेकर तो चल लेता था। अब यह एक और झंझट की बात हुई खड़ी। उसकी आंख भी थोड़ी खुल जाती है। अब नई पीड़ा शुरू हुई, पहले अंधेपन में वह राजी था। अब उसको अंधापन एकदम अंधकार लगता है। दुख ही दुख।
तो मेरी अपनी समझ यह है कि कैमिकल ड्रग का उपयोग हो सकता है, होना चाहिए। सभी वैज्ञानिक चीजों का उपयोग किया जाना चाहिए, लेकिन ठीक उपयोग की बात है। तो उसका फायदा तो होगा ही, समस्त युनिवर्सिटीज में उपयोग कर रहे हैं, उसका फायदा होगा। पहले किया भी गया है उसका उपयोग, और उसका फायदा होगा। चूंकि पश्चिम में तो बहुत साइंटिफिक ढंग से काम हो रहा है, तो वे जो ड्रग्स हैं, वे बड़े काम के सिद्ध हो जाएंगे। जिन लोगों को खयाल है कि हमें मेडिटेशन से कोई मतलब ही नहीं है, उनको भी उनके द्वारा पहला काम तो हो ही सकता है। कल वे आकर्षित हो सकते हैं।
तो उसका मेरी तो अपनी समझ यह है कि आज नहीं कल समस्त युनिवर्सिटीज में सब कॉले.जज में, सब स्कूल्स में उसका उपयोग किया जाना चाहिए। पहली, पहली झलक के लिए, पहली झलक तो एक लेबोरेटरी होनी चाहिए हर युनिवर्सिटी में जो एल. एस. डी. लेबोरेटरी हो, वहां हर विद्यार्थी को एक दफा तो मौका मिलना ही चाहिए कि वह उसका प्रयोग करके जाने कि मन की यह संभावना भी है। बस इस संभावना को खोलने के लिए फिर उसको मेथड्स बताए जाने चाहिए। तो फिर उसका लगाव, उसका लगन बहुत और होगा।
अभी एक आदमी ध्यान के लिए बैठता है, वह पूछता है पता नहीं क्या होगा? क्या नहीं होगा, लोग कहते हैं ऐसा होता है, और होता है कि नहीं होता है, विश्वास करें, न करें? उसे कुछ भी पता नहीं है। बिल्कुल अंधेरे में टटोलता है। इसका फायदा उठाया जा सकता है, इसका बहुत दिन से उठाया जा रहा है। जिसको ऋग्वेद में सोमरस कहा है, वह इसी तरह की चीज है। हिंदुस्तान में जो फकीर, साधु, चरस, गांजा, अफीम, भांग सबका उपयोग करते रहे हैं। लेकिन अब जो चीजें बनी हैं, बहुत ही प्यूरीफाई, इनका नुकसान ही नहीं है कोई। कोई नुकसान नहीं है। एल. एस. डी. है, या मॉरिजुआना है, या साइकोसाइडोन है और कुछ चीजें। लेकिन बहुत ही अदभुत है। और अभी तो प्योरिफिकेशन हो रहा है, लेकिन चूंकि सब सरकारें खिलाफ हो जाती हैं, नये आविष्कार के लिए इसलिए मुश्किल हो जाती हैं। अब जिस आदमी ने सबसे ज्यादा मेहनत की तिमोतिलिरियेन में, उसको अड़तीस साल की सजा दे दी। अड़तीस साल की सजा दे दी उसको। जिस आदमी ने सबसे... क्योंकि उसके चर्च का पादरी उसके खिलाफ है, क्योंकि अगर इसके द्वारा ध्यान हो सकता है, तो पादरी का क्या होगा? गुरु का क्या होगा? योगी का क्या होगा? अच्छा और वह जो नैतिकतावादी हैं वे खिलाफ हैं, क्योंकि वह कहता है कि ऐसे अगर भगवान का और यह सब एक गोली से होने लगा, तो फिर धर्म चल चुका आगे। राजनैतिक नेता खिलाफ हैं। क्योंकि उन सबको प्रयोग के बाद व्यक्ति इतना रिलैक्स हो जाता है, तो वियतनाम में लड़ने नहीं भेज सकते। तुम लड़कों से नहीं कह सकते कि कश्मीर किसका है? लड़के कहेंगे, कश्मीर कश्मीर का है। हम काहे के लिए मरें? कश्मीरियों को जहां रहना हो, रहें। इससे राजनीतिज्ञ डरता है, इतना रिलैक्स माइंड खतरनाक है।
जिन-जिन लोगों ने इसका प्रयोग किया है, वे कई अर्थों में उनके खिलाफ हो जाएंगे, वे कहेंगे, हमें नहीं है जरूरत तुम्हारी डिग्री की, तुम्हारी एम. एससी. की, पीएच. डी. की, हम तो एक मजदूर का काम कर लेंगे, अपना कमा लेंगे मजा कर लेंगे। हम बड़े आनंद में हैं। हम तुम्हारी झंझट में नहीं पड़ते हैं कि सर्टिफिकेट लाओ... । तो यह सारी तकलीफ है, इस तकलीफ की वजह से उन सब पर रुकावट है। मगर रुकावट कितनी देर चलेगी? रुक नहीं सकती है, उससे काम चल सकता।
... यूजिंग दिस पर्टिकुलर वैरी रेगुलरली एटलीस्ट थ्राइस ए वीक एण्ड... गुड क्वांटिटी एण्ड हिज रिएक्शन इ.ज दिस आई डू समथिंग लाइक मेडिटेशन वर्टिकल... बिकम्स आलमोस्ट लाइक ए स्टोन एटलीस्ट फोर अनादर फोर्टीन आर फिफ्टीन मिनट्स एण्ड आइ लव इट लव टू बी... आई डोंट नो वॉय?
नो, नो, वह तो ठीक है, वह तो अच्छा लगेगा, अच्छा तो लगेगा ही। क्योंकि बिल्कुल नया डायमेंशन है, सेंसेशन। असल में दस घंटे अगर तुम बिल्कुल पत्थर की तरह ही पड़े रह जाओ, तो उसके लिए टीस तो बहुत गहरी हैं। हलन-चलन बिल्कुल नहीं है, बिल्कुल ही पत्थर की तरह रह गए हो। लेकिन धीरे-धीरे जब इसको बार-बार रिपीट करोगे, और ये रूटीन हो जाएगी, और इसका नया सेंसेशन चला जाएगा, तब फिर मुश्किल शुरू हो जाएगी, तब फिर तुम कहोगे कि भई, यह तो रूट्ीन हो गई। जैसे एक सुंदर स्त्री से शादी कर ली और पहले दिन दीवाने की तरह तुम रात भर जागते रहे, बात करते रहे, महीने भर सोए नहीं, और वह आज महीने के बाद स्त्री तुम्हें उठा रही है। तुम कह रहे हो हमें नींद आ रही है तो सेंसेशन गया। समझे न? छह महीने बाद इसका चला जाएगा। असल में जिस चीज को हम सेंसेशन की तरह लेंगे वह चीज टिकने वाली नहीं है। सेंसेशन रिपीटेटिव होगा, वही अनुभव बार-बार होगा, पहली दफा तो बड़ा अदभुत लगेगा, दूसरी दफा कम, तीसरे पर कम छह महीने बाद तुम कहोगे कि या तो इसकी मात्रा बढ़ाओ, वह भी फिर रूट्ीन हो जाएगी तो तुम कहोगे कि और कोई तगड़ा ड्रग लाओ, वह भी रूट्ीन हो जाएगा। यही फर्क है कि मेडिटेशन का जो अनुभव है, वह कभी रूटीन नहीं हो पाता, वह रोज नया है। और क्योंकि वह कैमिकल इनड्यज्ड नहीं, स्पांटेनियस है, इसलिए रोज नया है। समझ रहे हो ना?
जैसे कि सूरज निकला, यद्यपि रोज निकलता है, लेकिन फिर भी नया है। तुम एक सा सूरज कभी रोज न पाओगे। लेकिन तुम्हारा बिजली का बल्ब है, तुम रोज उसको जलाते हो, वह रोज वहीं का वहीं है। सूरज भी वही रोज निकल रहा है, लेकिन चूंकि स्पांटेनियस है, इनड्यूज्ड नहीं है। कभी बादल लाल है, कभी पीला है, कभी नीला है, कभी नहीं है। कभी सूरज सुर्ख है, कभी नहीं है। कभी सूरज बड़ा शांत मालूम हो रहा है, कभी बिल्कुल पागल हो गया है। वह स्पांटेनियस है, उसका कल का कोई भरोसा नहीं कि कल क्या होगा। और जरूरी नहीं कल निकले भी, न भी निकले कल। यह भी कोई जरूरी नहीं है। मगर तुम्हारा बल्ब जो है वह रोज तुम जला लेते हो, वह इनड्यूज्ड है, और बंधा हुआ है। तो अनुभव भी दो तरह के हैं, एक जो सहजस्फूर्त है, और एक जो इनड्यूज्ड है। इनड्यूज्ड अनुभव जो है वह आज नहीं कल बासा हो जाएगा और तब तुम तड़पोगे बुरी तरह से। क्योंकि यह जिंदगी अब अच्छी न लगेगी और वह भी अब अच्छी न लगेगी। अब तुम कहोगे और कुछ चाहिए।
यह जो पश्चिम में जो हिप्पीज और इन सबका आकर्षण एकदम महेश योगी फलां-ढिंका के प्रति होता है, वह उसी के बाद होता है। जब वह उससे ऊब गए, अब वे कहते हैं, क्या करें? अब सब उस योगी के पास जाए, वे उस मंदिर में चले जाएं, शायद वह कोई तरकीब बता देगा, और छह महीने बाद वे इससे भी ऊ ब जाते हैं, अगर नहीं कोई मेडिटेशन की स्थिति बनती तो।
तो मेडिटेशन जो है वह स्पांटेनियस है, वह रोज नया है। तो कुछ पक्का भरोसा नहीं कि वह कैसी हो। इसलिए वह कभी बासी नहीं है। इतना ही बुनियादी फर्क है, बुनियादी फर्क है। और एक अननोन जर्नी है रोज मेडिटेशन में, वह नॉन-जर्नी हो जाती है। तुम जानते हो कि एक गोली लेंगे और यह ऐसा होगा, ऐसा होगा तुम सब जानते हो। यह सब देख चुके हो, फिर दुबारा देखने गए हो। और तुम्हें मालूम होगा यह सब गड़बड़ चल रही है, तो कोई हर्जा नहीं है। अभी थोड़े दिन बैंडबाजा बजेगा और शादी होगी। इमसें ज्यादा चिंता का जरूरत नहीं, सो सकते हो। एक दफा देख लिए हो। इसलिए वह जो टेंशन था वह चला गया।
प्रश्नः कांशसनेस का अवेयरनेस होता है क्या, मेडिटेशन के अंदर?
हां, हां, बिल्कुल अवेयरनेस होगा।
न, न, कुछ तो याद रह जाएगा कुछ मिट जाएगा। उसके कई कारण हैं। उसके कई कारण हैं। कुछ तो याद रह जाएगा कुछ नहीं रह जाएगा।
प्रश्नः याद नहीं रहेगा, तब तो इसका मतलब यह है कि कांशसनेस उसकी अवेयरनेस नहीं?
न, न, ऐसा नहीं है जरूरी, असल में मेमोरी की फंक्शनिंग अगर बंद हो गई हो, तो बराबर कांशस रहेगा लेकिन याद नहीं रहेगा। तो सबकी मेमोरी की फंक्शने की अलग स्थिति है। जैसे एक आदमी सुबह उठ कर कहता है कि मुझे कभी सपने आते ही नहीं। ऐसा आदमी मुश्किल है। सपने सबको आते हैं, सिर्फ उसकी मेमोरी फंक्शनिंग नहीं करती। इसलिए वह सुबह याद नहीं कर पाता, वह कहता है, मुझे आते ही नहीं, मैं कैसे मान सकता हूं? सबको आना ही चाहिए सपना, आता ही है। और थोड़ा-बहुत ही नहीं होता, पूरी रात ही आता है। तो अब तो उसके चूंकि उसके बाहर से जांचने के उपाय हो गए, तब यह डिटेक्ट हुआ कि कुछ लोग जो बोल रहे हैं, झूठ नहीं बोल रहे, ये बिल्कुल ठीक बोल रहे हैं कि हमको आते ही नहीं। उसका कुल कारण इतना ही है कि मेमोरी फंक्शन नहीं करती नींद में, तो रिकार्ड नहीं होता वह। मैं यहां बोल रहा हूं अगर इसका यही सबूत है, और यह बंद है, तो फिर सबूत नहीं है कि मैं बोला। मगर मैं बोल सकता हूं, इसके फंग्शन के बिना भी। मेमोरी के बिना भी घटना घट सकती है। और ऐसे भी आपकी मेमोरी के बिना बहुत घटनाएं घट रही हैं, जो आपको खयाल में नहीं आ जाती। वह आपको खयाल में नहीं आती। तो किसी की मेमोरी फंक्शन करती है, किसी की नहीं, किसी की बहुत कम करती है, किसी की बहुत क्विक्ली करती है। ए.ज...
मेमोरी फंक्शन अलग-अलग है, वह इस वजह से होता है। कोई इतना डीप चला गया कि वहां तक मेमोरी फंक्शन नहीं कर सकती। और बड़ा मजा है, हो सकता है जो डीप गया है वह कहे मुझे कुछ पता नहीं। और जो डीप नहीं गया, वह कहे मुझे मालूम है। क्योंकि जहां तक वह गया, वहां तक मेमोरी पकड़ पाई। ये लेकिन मैं और बोल रहा हूं, इसके इतना पास हूं तो यह पकड़ रहा है, मैं और दूर चला गया, और दूर चला गया, और दूर चला गया फिर इसने नहीं पकड़ा। तो मेमोरी का जो यंत्र है, अगर उससे गहराई बहुत ज्यादा चली गई, तो वह नहीं पकड़ पाती है।
प्रश्नः मेमोरी को फंक्शन करने के लिए... ?
कोई जरूरत नहीं है न। उससे कोई मतलब नहीं है। उसका प्रयोजन भी नहीं है। वह तो तुम जैसे-जैसे गहरे जाओगे, जैसे-जैसे गहरे जाओगे, तुम्हारा सारा व्यक्तित्व रूपांतरित होता जाएगा, वहीं खबर लाएगा।
प्रश्नः अगर कोई आदमी यह दावा करे कि मुझे कभी स्वप्न आता नहीं है, तो अभी आपने समझाया मान गया कि उसकी मेमोरी नहीं है, स्वप्न आता है फिर भी याद नहीं रहता। फिर भी वह कहता है मुझे सपना नहीं आता, लेकिन जिस दिन मैंने सपना देख लिया, दैट पर्टीकुलर फील्ड हैज गॉट टू कम टू, एण्ड इट रियली कम्स टू, हाउ विल यू पुट दिस?
असल में सपने जो हैं बहुत बड़ा मामला है। सपने बहुत तरह के होते हैं। कोई सपने में अगर तीन हिस्से कर दें, एक सपना तो वह है, जो तुम्हारी रिप्रेस्ड डिजायर से पैदा होता है, जो तुमने करना चाहा था, और नहीं कर सके। उससे होता है। अधिक संख्या इसी तरह के सपनों की है।
दूसरा सपना तुम्हारा इस तरह का होता है, जो तुम्हारे करने, चाहने से उतना संबंधित नहीं है, लेकिन तुम्हारे कुछ अनलिव्ड मूवमेंटस रह गए हैं, जो तुम पूरा जी नहीं पाए। जैसे तुम खाना खाने बैठे और बीच में ही बुला लिए गए, एक अनुभव हो रहा था, वह टूट गया; तुम सड़क पर जा रहे थे, एक सुंदर स्त्री तुमने देखी, लेकिन तभी पुलिसवाला दिखाई पड़ गया, और तुमने मुंह मोड़ लिया। अनलिव्ड रह गया मूवमेंट। सुंदर स्त्री की एक हलकी सी तस्वीर रह गई जो मन पूरा का पूरा सेच्युलेट नहीं कर पाया, ये सपने में लौटाएगा। तो वह उसको भर नहीं पाया अपने में। वह पूरी नहीं हो पाई बात। अटकी रह गई, जी नहीं पाया उसे पूरा। वह अटकी रह गई, वह लौट आएगी। और इस तरह की जो अनलिव्ड हैं, सप्रेस्ड हैं, इनका ज्यादा हिस्सा होता है।
लेकिन और भी सपने के तल हैं, ऐसा सपना हो सकता है कि तुम्हारी चेतना अगर बहुत शांत है रात, तो भविष्य की कोई झलक पकड़ सकती है। कोई ऐसी झलक पकड़ सकती है, जो कि बहुत महत्वपूर्ण है। और तुम्हारी चेतना उसे पकड़ ले। ऐसे ही जैसे कि हम यहां बैठे हैं, मैं उधर देख रहा हूं, तो मुझे पता नहीं चल रहा है, लेकिन मेरी नींद में मुझे मील भर तक का रास्ता दिखाई पड़ जाएगा, और मुझे दिखाई पड़ रहा है कि एक बैलगाड़ी आ रही है।
मन की मेरी क्षमता है कि अगर वह बहुत शांत हो, तो भविष्य की झलक पकड़ सकता है, बिल्कुल पकड़ सकता है। और अगर वह ठीक-ठीक याद रह जाए, वही सवाल ज्यादा बड़ा है। क्योंकि सपने के साथ कई प्रॉब्लम हैं। एक तो बड़ा प्रॉब्लम यह है कि सपने को तुम जिस सिरीज में देखते हो, याद तुम्हें उलटी सिरीज में करना पड़ता है। बहुत बड़ा प्रॉब्लम है। सपने को तुम जब देखते हो, तो जैसे फिल्म तुम देखते हो पहले से पीछे की तरफ, लेकिन याददाश्त तुम्हारी जो है न, जब तुम सुबह उठते हो, तो जो आखिरी सीन है फिल्म का वह पहला सीन होता है, तुम्हारे लिए। और तुम जब याद करते हो तो बैकवर्डस, सब कन्फ्यूज हो जाता है, जैसे कोई किताब उलटी पढ़ ली हो। सपना कंफ्यूज इसलिए हो जाता है, सपने तो कई को आते हैं जिसमें भविष्य पकड़ जाता है, लेकिन कनफ्यूज हो जाता है क्योंकि उलटा याद करना पड़ता है।
और दूसरी सपनों के साथ कठिनाई जो है, वह बहुत जल्दी इवोप्रेट होता है। तुम जब सोकर उठे, तो पांच मिनट के भीतर तुम्हें जो बिल्कुल साफ था, पंद्रह मिनट के बाद अधूरा साफ रह जाएगा। घंटे भर के बाद तुम्हें कुछ भी साफ नहीं रह जाएगा। इतनी जल्दी इवोप्रेट होता है, उसकी जो मैमोरी की जो ट्रेस है, वह बहुत फीकी है। अब जैसे ही तुम जागे तो दुनिया का जो काम है, उसका प्रेशर इतना क्रिएट होता है कि वह सब लोप हो जाता है।
तीसरी कठिनाई यह है कि सपना एकदम सिंबल है। लैंग्वेज नहीं है सपना। सपना जो है पिक्चोरीयल है, लिंग्विस्टिक नहीं है। हमें यह जान कर हैरानी होगी कि सपने में लेंग्वेज नहीं होती, पिक्चर्स होती हैं। समझे ना? पिक्चर्स होने की वजह से और हम सोचते हैं लैंग्वेज में जाग कर, तो मीडियम बदल जाता है, पूरा का पूरा। जैसे समझें कि एक आदमी दिन में उठ कर सोचता है कि मैं राष्ट्रपति कैसे हो जाऊं, फलां कैसे हो जाऊं, सबके ऊपर कैसे चढ़ जाऊं? सबके ऊपर कैसे हो जाऊं? यह शब्दों में सोच रहा है। सपने में शब्द नहीं होते। वह चील हो जाएगा और सबके ऊपर उड़ जाएगा। मगर अब यह सिंबालिक हो गया है मामला, वह चील बन गया है और सबके ऊपर उड़ रहा है, सब बिल्ली वगैराह नीचे रह गई हैं, वह ऊपर उड़ रहा है। तो जितने लोग एंबीशीयस होंगे, सब उड़ने का सपना देखेंगे। जैसे मेयर हुए, ये सब उड़ने का सपना देखेंगे। उड़ना उनका खास सपना होगा। सब पोलिटिशियंस का। ऊपर, ऊपर, ऊपर, ऊपर पूरा इतना, सोचने में तो बन ही गया है। सुबह उनको पकड़ में नहीं आता कि चील बन कर उड़ गया, इसका क्या मतलब? और सिंबालिक होने से बड़ी कठिनाई है। हमें कुछ खयाल ही नहीं होता कि हम जो देख रहे हैं, उसका क्या मतलब होगा?
एक आदमी सीढ़ियों पर चढ़ा जा रहा है, कमरों में घुसा जा रहा है, एक आदमी पानी में बहा जा रहा है। एक आदमी वृक्ष पर चढ़ रहा है। क्या मतलब है इन सबका, ये सब सिंब्ल्स हैं। जोकि लाखों सपनों में भी खोज-बीन करने से भी फिक्स्ड नहीं हो पाते। क्योंकि एक-एक आदमी की प्राइवेट लैंग्वेज है। लैंग्वेज जो है वह तुम्हारी कॉमन है, लेकिन सपना जो है वह बिल्कुल प्राइवेट है। प्राइवेट इतना है कि एक ही सपने को दो आदमी एक साथ नहीं देख सकते। इसलिए प्राइवेट है। उसको ऐसा रख कर बीच में हम सब देख लें कि ये रहा सपना, तो वह कलेक्टिव हो जाता है, तो सिंबल हम इकट्ठा बना लेते हैं, तुमने अपना बनाया, मैंने अपना बनाया, इसने अपना बनाया, यह बड़ी कठिनाई है। और इसलिए तुम्हें याद करने में, इंटरप्रीट करने में बड़ा मुश्किल होता है। इससे पक्का नहीं हो पाता।
और एक तरह के वे सपने हैं जो तुम्हारे पिछले जन्मों से संबंधित हैं, तो वह और मुश्किल मामला है। प्रीवियस बर्थ से बहुत से सपने संबंधित हैं। इसमें है बहुत उलझाव, मैंने अभी कहा, एकाध दफा सपने पर ही पूरी सीरीज रख लेंगे, ताकी पूरी बात हो सके। असल में कोई भी मामला छोटा नहीं है। ऐसी तकलीफ है।
प्रश्नः फिर भी आज रात मैंने सपने में देख लिया कि कल चौथी रेस में सात नंबर का घोड़ा जीता है, कल रेस होगी तो वे चौथी रेस में सात नंबर का ही घोड़ा जीत गया। तो इन हाउ दिस ड्रीम एण्ड दैट रिजल्ट इ.ज कनेक्टेड...
बहुत कारण हो सकते हैं, कभी तो यह सिर्फ संयोगिक हो सकता है। कभी तो यह बिल्कुल को-इंसिडेंस हो सकता है, कभी तुम्हारा कोई संबंध नहीं है रेसकोर्स से, लेकिन तुम्हारे आस-पास, तुम्हारे निकट संबंधियों में, तुम्हारे मित्रों में, परिचितों में किसी इंटीमेट का कोई संबंध तुमसे है। जिसका रेसकोर्स से संबंध है। और वह पूरे वक्त सोच रहा है, सोच रहा है, सोच रहा है, तो उसका ख्वाब तुम तक प्रोजेक्ट हो सकता है। इंटिमेसी के रास्ते हैं अंदर, तो वह थोट प्रोजेक्ट हो सकता है। तुम पकड़ लो, वह न पकड़ पाए। और उसका कारण है कि वह क्यों न पकड़ पाया? क्योंकि वह तो टेंस है, तुम टेंस नहीं, तुम तो रिलैक्स हो। लेकिन तुम कनेक्टेड हो उस आदमी से। तुम पकड़ ले सकते हो। वह संभव हो सकता है। मन के तो बहुत उलझाव हैं, और मन की बड़ी स्टेज भी हैं और साइंस भी थोड़ा-थोड़ा बनता है। थोड़ा साइंस भी है।
आई वा.ज वेरी डीपली इंप्रेस्ड। आई वा.ज वेरी नॉट ट्राइंग टू बी वेरी फ्रैंक। आई सम हाऊ थॉट यू आर नॉट आई मीन यू आर... बट आई विश टू डेज आई... वैरी मच... आई थॉट यू सैड समथिंग समटाइम पीपुल स्पीक बिका.ज ऑफ सो मैनी रीजंस ईगो हो जाता है... हो जाता है। आई वाज नॉट इंट्रेस्टेड इन हियरिंग यू बट एक्चुअली व्हेन आई केम टू दिस एंड स्टिल नॉट इंट्रेस्टड इन हियरिंग यू आर टू बी विथ यू एण्ड दिस...
ठीक है, कहीं भी चलिए, कहीं भी चलिए, बाकी अपने आप पीछे से आ जाएगा। ... मैं जितना भी दे पाया उसने अच्छी मेहनत नहीं की।
हां, यह अपनी ओम मंडली थी कराची में, उसमें दादा लेखराज करके था, ही यूज टू आलसो। उसका तो ऐसा था कि उसने औरतों की एक जमात पैदा की उसने ऐसा बनाया था कि सिंधी जो जाते थे बाहर गांव, दे वर वैरी वाचिंग आउट, दे निगलेक्टेड द विमैन, सो ही एक्सपीरिएंस्ड देट हिज ऑन... वाज लाइक देट... । उसने आश्रम बना दिया आश्रम में उसने साधना भी की। सेम डे ही वा.ज ड्रींक एण्ड योर्स आस्किंग कम टू रिपीट कंटीन्युअसली। आप एक घंटा सुन सकते हो कंटीन्युअसली, मैं किधर से आया? मैं कौन हूं? मैं किधर जाने वाला हूं एंड... नथिंग दे वर वैरी सीरियस... दे वर आर्डीनरी विमेन, मिडिल ऐज्ड विमैन आलसो दे टुक...
शक्ति बहुत छिपी हैं एक दफा जग जाए। आप ना बने तो आ जाए।
प्रश्नः कब होने वाला है नारगोल में?
दो मई से पांच मई तक।
कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे,
तड़फता हुआ जब कोई छोड़ दे,
तब तुम मेरे पास आना प्रिये,
मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए।।
कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे,
तड़फता हुआ जब कोई छोड़ दे,
तब तुम मेरे पास आना प्रिये,
मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए।।
अभी तुमको मेरी जरूरत नहीं
बहुत चाहने वाले मिल जाएंगे,
अभी रूप का एक सागर हो तुम
कमल जितने चाहोगी खिल जाएंगे,
दर्पण तुम्हें जब डराने लगे,
अभी तुमको मेरी जरूरत नहीं
बहुत चाहने वाले मिल जाएंगे,
अभी रूप का एक सागर हो तुम
कमल जितने चाहोगी खिल जाएंगे,
दर्पण तुम्हें जब डराने लगे,
जवानी भी दामन छुड़ाने लगे
तब तुम मेरे पास आना प्रिये,
मेरा सर झुका है, झुका ही रहेगा तुम्हारे लिए।।
कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे
कोई शर्त होती नहीं प्यार में
मगर प्यार शर्तों पे तुमने किया,
कोई शर्त होती नहीं प्यार में
मगर प्यार शर्तों पे तुमने किया,
नजर में सितारे जो चमके जरा
बुझाने लगीं आरती का दिया,
कोई शर्त होती नहीं प्यार में
मगर प्यार शर्तों पे तुमने किया,
नजर में सितारे जो चमके जरा
बुझाने लगी आरती का दिया,
जब अपनी नजर में ही गिरने लगो
जब अपने अंधेरों में घिरने लगो
तब तुम मेरे पास आना प्रिये,
यह दीपक जला है, जला ही रहेगा तुम्हारे लिए।।
प्रेम के क्षण में सभी को ऐसा लगता है कि अनंत तक प्रतीक्षा की जा सकती है।
हो सकता है उस काल के, उस खंड के... इसलिए इतिहास लिख सका है। हमारी काल की अनुभूति भी लंबी है, यह हो सकता है कि हमने काल को इसलिए लंबाई पर देखा। जैसे समझो, कुछ कीड़े हैं जो वर्षा में ही पैदा होते हैं और वर्षा में ही मर जाते हैं, उन्होंने न सर्दी देखी, न गर्मी देखी। अगर तीनों कालों को देखने वाला कोई कीड़ा, पक्षी उनसे कहे कि तुम घबड़ाओ मत, वर्षा फिर आएगी, तो वे कीड़े कहेंगे कि वर्षा तो फिर कभी आती देखी नहीं। सुना नहीं, मां-बाप ने कभी कहा नहीं। हमारे पुराण में लिखा नहीं कि वर्षा फिर कभी आती है। आएगी तो कभी नहीं। आती है और गई तो गई, फिर कभी नहीं आती।
क्योंकि वे कीड़े वर्षा में ही पैदा होते हैं, वर्षा में ही मर जाते हैं। उन्हें काल के दो और खंड हैं, और उन्हें यह खयाल में भी नहीं होता कि वर्षा एक घूमता हुआ कालखंड है, जो फिर लौट आएगा। उसके साथ सब कीड़े भी लौट आएंगे। और उसके साथ सब कीड़े भी विदा हो जाएंगे। पर कीड़ा जो वर्षा में ही जिया है, इसलिए बहुत कठिन है यह बात। अगर वह तीनों काल में जीया होता तो उसके लिए यह बड़ा मुश्किल हो जाता मानना कि यह वर्षा फिर नहीं आएगी; क्योंकि उसने हजार बार उसे आते हुए देखा है। यह भी मैं नहीं कहता हूं अभी, यानी मेरी इसी तरह की धारणा, पूरब ने इतनी बड़ी घटनाएं देखीं, और वह ऐसे समय से गुजरा और फिर-फिर उसे लगा कि फिर लौटना हो गया। तो उसने एक बड़ी विस्तीर्ण तरह की धारणा बना ली। और अगर विस्तीर्ण बनाएंगे तो वर्तुल हो जाएगी। अगर बहुत विस्तीर्ण बनाएंगे तो वर्तुल हो जाने वाला है। सीधा नहीं रह सकता। अगर छोटा सा बनाएंगे तो स्ट्रेट लाइन छोटी ही हो सकती है।
यह समझ लें, जब स्ट्रेट लाइन की बात... ने की, तो उसको खयाल नहीं था, सीधी लाइन क्यों नहीं हो सकती, दो बिंदुओं को जोड़ने वाली निकटतम सीधी लाइनें थीं। दो बिंदु जोड़े तो सीधी लाइन हो जाती है। निकटतम मार्ग से जोड़ दो तो सीधी लाइन हो जाती है। फिर अभी पचास वर्ष पहले जब नॉन... विचारक पैदा हुए, तो उन्होंने कहा कोई सीधी लाइन है ही नहीं। क्योंकि सब सीधी लाइनें गोल पृथ्वी पर खींच रहे हैं। और वे सब किसी बड़े गोल खंड के टुकड़े हैं, इसलिए सीधी लाइन बिल्कुल झूठी चीज है। बड़े वर्तुल के खंड हैं। और इतना बड़ा है वर्तुल इसलिए दिखाई नहीं देता। और पृथ्वी का वर्तुल तो बहुत बड़ा नहीं, दुनिया का वर्तुल और बड़ा हो सकता है। हमारी कल्पना, महा कल्पना की जो धारणा है वह और भी बड़ा वर्तुल है। होता क्या है, हमारी धारणाओं के ऊपर...
आज से कोई हजार साल पहले तारे वगैरह जो हैं हमारे वे बिल्कुल जैसे घर की चांदनी थे। सूरज बहुत आगे था, चांद और आगे था। तारे बहुत ही पास थे, क्योंकि छोटे थे। जो छोटा था वह पास था; जो बड़ा था वह दूर था। जो और बड़ा था वह और दूर था। तो अगर हम हजार साल पीछे लौटें, तो जिन लोगों ने दुनिया का नक्शा खींचा था, उसमें पृथ्वी सेंटर थी, चांद-तारे सारे उसका चक्कर लगा रहे थे। एक छोटा सा घर था। और स्पेस पर बन भी रहे थे छोटे-छोटे, और आकाश सब तरफ से घेरे हुए था। आकाश सब तरफ से बंद किए हुए था।
आकाश कुछ था जो एनक्लोज्ड कर रहा था। आकाश की जो धारणा थी, वह जो चारों तरफ से हमें ढाकें हुए है। ढक्कन की तरह। आकाश ऐसा है, जैसे उलटा बर्तन पृथ्वी पर ढंका हो, ऐसा आकाश था। और दिखता भी चारों तरफ जमीन पर छूता हुआ उलटे बर्तन की तरह। ऐसी छोटी सी धारणा थी। फिर तो जैसी ही हमारी समझदारी की बात बढ़ी तो सारी धारणा बदल गई। थोड़ी रहस्यपूर्ण धारणाएं, कि तब आकाश का अर्थ इतना नहीं है, जो घेरता है। तब आकाश का अर्थ हो गया है कि वह जो है, जिसमें सब समा जाते हैं। और फिर वह है और है ही। और फैलता ही चला जाता है। आकाश की एक अंतहीन भी धारणा हमारे खयाल में आई। समय की अंतहीन धारणा अभी भी पश्चिम की समझ में नहीं आई है। अभी भी समय के मामले में पश्चिम लक्ष्यों का टुकड़ा लेकर घूम रहा है।
प्रश्नः इसका कारण क्या यह भी हो सकता है कि समय को साक्षीभाव से पश्चिम नहीं देख सका है?
साक्षीभाव से तो पश्चिम किसी चीज को नहीं देख सका। और साक्षीभाव से देखे जाने पर न समय बचता है, न आकाश बचता है। यानी समय और आकाश को साक्षीभाव से देखा भी नहीं जा सकता। हम समय को तो देखे नहीं साक्षीभाव से टाइम स्पेस से और साक्षीभाव से देखे जाने पर वह बचता ही नहीं है। और जिन्होंने साक्षीभाव से देखा है उन्हें वह माया हो गया है, न हो गया है, उसे वे इनकार करते हैं। क्योंकि साक्षीभाव से देखने पर साक्षी ही बचता है। और सब खो जाता है। और साक्षीभाव से मत देखें तो साक्षी भर नहीं बचता और सब हो जाता है। तो वह तो, अगर हम ठीक से समझें तो बीकमिंग और बीइंग के बीच वही सेतु है, साक्षीभाव। अगर साक्षीभाव पर जोर दिया तो बींइग बचेगा और बीकमिंग खो जाएगा। एकदम निषेध हो जाएगा बीकमिंग का। और अगर साक्षीभाव छूटा तो बीकमिंग बचेगी और बींइग का कोई पता नहीं चलेगा कि वह है भी या नहीं। वह गया। और दोनों में से एक ही एक बचता है, दोनों एक-साथ बचते नहीं, एक ही हैं।
बात ही बहुत अदभुत है साक्षी की। वह साक्षी कौन है हमारा जो कांशियसनेस का सेंटर है, वह बदल जाता है। जब तक मैं अपने को नहीं जानता हूं, तब तक आप मेरी चेतना के केंद्र हैं। क्योंकि मैं तो हूं ही नहीं, मुझे अपने बाबत कुछ पता नहीं है। तो आप मेरे केंद्र बनते हैं, आप, आप, आप कोई मेरा केंद्र बने, तो मैं जी पाता हूं, नहीं तो मैं जीऊंगा कैसे? दी अदर है, वह महत्वपूर्ण है क्योंकि मैं तो हूं नहीं। तो मुझे कोई काम मिले तो जी सकता हूं, विचार मिले तो जी सकता हूं, सपना देखूं तो जी सकता हूं, मित्र हों, दुश्मन हों तो जी सकता हूं। तू चाहिए मुझे हर हालत में। अगर तू नहीं है तो मैं गया, क्योंकि मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, मैं तो हूं ही नहीं। हम कहते हैं बहुत मैं निरंतर दिन-रात, लेकिन सत्य हमारे लिए तू है। और जो हम इतना जोर से मैं-मैं बार-बार कहते हैं उसका भी कारण यही है कि तू सत्य मालूम पड़ता है। और मन करता है कि मैं सत्य होऊं। मन करता है कि मैं सत्य होऊं। तो हम इसलिए तू को निरंतर इनकार करते हैं, और मैं की घोषणा करते रहते हैं। लेकिन तू के बिना हम एक मिनट जी सकते नहीं। अगर कोई प्रेमी, जिसको मैं प्रेम कर सकूं नहीं है, तो मेरा प्रेम गया। क्योंकि वह सब तू पर निर्भर है। और क्रोध भी मैं नहीं कर सकता हूं अगर तू न हो। तो जीने का उपाय नहीं छूटता अगर तू न हो। तो हमारी चेतना जो है वह तू पर खंडित होकर बंट जाती है, फैल जाती है। थोड़ी-सी चेतना मेरे इस मित्र पर भी है मेरी, जो मेरा मित्र बन कर मेरे लिए एक तू बना है, और थोड़ी उस दुश्मन पर भी है जो दुश्मन बन कर मेरा तू बन गया है। और इस तरह मेरी चेतना खंडित, बंटी हुई है। और मैं तो हूं नहीं। इन्हीं सबका जोड़ मैं हूं, इन्हीं सबने जो कहा है, इन्हीं सबने जो बताया है, इन्हीं सबने जो माना है, इन्हीं सब इफेक्ट्स को जोड़ कर मेरी एक तस्वीर है जो मैं हूं। इसको मैं ईगो कहता हूं। तू के आधार पर बनी हुई जो मेरी, धारणा है मेरे बाबत, वह ईगो है। तो यह ईगो जो है वह तू की आंखों में झांका गया एक लक्षण है। वह सभी मैंने इकट्ठा कर लिया है, बुरा-भला जैसा भी है, वह हजार तरह का है, क्योंकि हजार आंखों से इकट्ठा किया है। उसमें अच्छा भी हूं, उसमें बुरा भी हूं; उसमें बड़ा भी हूं, छोटा भी हूं; क्रोधी भी हूं, प्रेमी भी हूं, सब हूं उसमें मैं। और वह इकट्ठा करके मैं उसे पकड़े रहूं क्योंकि वही मेरे लिए है। और जैसे ही मैं साक्षी बनूं तो एकदम से ट्रांसफार्मेशन होता है चेतना के केंद्र का, क्योंकि मैं जब साक्षी बनता हूं तो मैं केंद्र बन जाता हूं, और तू परिधि पर होता है। और जैसे-जैसे मैं उभरने लगता है वैसे-वैसे तू विदा होने लगता है। क्योंकि जैसे-जैसे तू उभरता था मैं विदा होता था। वह ऐसे ही है जैसे कि हम पानी को भाप बनाएं, तो जैसे-जैसे पानी भाप बनने लगा तो पानी विदा होने लगा। और भाप को पानी बनाया तो पानी भाप बनने लगा, तो भाप विदा होने लगी। चेतना उस छोर से चलती है तो तू बन जाता है, और मैं मिट जाता हूं। और चेतना इधर लौट आती है, तो उधर खाली छूट जाता है और मैं बन जाता हूं।
तो जिन्होंने भी साक्षी का प्रयोग किया, उन्होंने कहा मैं ही हूं, अहं ब्रह्मास्मि। तू है ही नहीं। तू बिल्कुल झूठ। और फिर तू के हित ने उसको सबको निषेध कर दिया है। इस निषेध को मैं माया कहता हूं। यह जो निषेध है जो साक्षी की तरफ से किया गया है जो यह कह रहा है कि और कुछ भी नहीं है, बस मैं ही हूं। ब्रह्म ही हूं। और ब्रह्म का भी उसमें तू का अर्थ नहीं होता, ब्रह्म का भी मैं का अर्थ होता है, अहं ब्रह्मास्मि। वह यह नहीं कह रहा है कि तुम ब्रह्म हो, तुम तो हो ही नहीं। तुम्हारा तो होना ही नहीं है। मैं हूं और मैं ब्रह्म हूं। यह जो पूरा जगत माया हो जाता है एक दिन, और अगर जगत माया हो जाता है तो उसमें से यथार्थ छिन जाता है। सच बात तो यह है यह बड़े मजे की बात है। जिस चीज पर हम चेतना को केंद्रित करते हैं, वहीं यथार्थ पैदा होता है। मेरी दृष्टि में यथार्थ जो है, वह कनसनट्रेटेड अटेंशन है। जिस चीज को भी हम पूरी एकाग्रता से ध्यान दे देते हैं, वह हो जाती है। ये हाथ है, ये हाथ जो है हम देख रहे हैं, और हम अपना ध्यान खींच लेते हैं, तो अयथार्थ हो जाते हैं। तो इसका होना जो है वह एकदम फीका, फीका, फीका, फीका, फीका, धुंधला और कभी नहीं होता।
तो जब मैं आपको गौर से देखता हूं तो मैं आपको यथार्थ कर रहा हूं। यानी यथार्थ का मेरा मतलब ही यह है कि जब कोई ध्यान से आपको देख रहा है, और इसीलिए हमारे मन में ध्यान से देखे जाने की बड़ी आकांक्षा है। और कोई कारण नहीं कोई हमें ध्यान से देखे और जितनी आंखें हमें ध्यान से देखें उतने ही रियल मालूम पड़ते हैं कि मैं भी हूं। कोई देखे और कोई की आंख रुक जाए मुझ पर। तो ही मुझे लगता है कि मैं हूं, नहीं तो गया। नेता की, गुरु की जो दौड़ है, वह यही दौड़ है कि भीड़ उसको देखे, उस देखने में उसको यथार्थ मिल जाए। और जिस चीज को हम देखते हैं, वही यथार्थ हो जाती है। ऐसा मजा है कि अगर इस टेबल को भी। अभी एक व्यक्ति है अमरीका में जो किसी भी चीज को सोचे, उसके सोचने की फोटोग्राफ लिए जा सके। यह पहला मौका है। अभी मैंने उसका सारा साहित्य देखा, तो वह दंग करने वाला है। यानी कि वह आदमी कार के संबंध में सोचता है तो उसकी आंख पर कार का चित्र उभर आता है पूरा, आंख में भी कार दिखाई पड़ती है और कैमरे के सामने आप प्लेट रखें तो कैमरा भी कार पकड़ता है। और वह आदमी सिर्फ सोच रहा है। और ऐसी चीजें नहीं है, जो उसने नहीं देखी हैं वह भी। जैसे ताजमहल है, और वह सोच रहा है, और सोचता रहेगा फिर आंख खोलेगा, और कैमरे में ताजमहल आ जाएगा। अब यह गहरा अटेंशन का प्रयोग है।
यहां काशी में एक व्यक्ति थे सूर्य विज्ञान वाले। वे किसी भी चीज को, जैसे चिड़िया चल रही है, तो उसको देखेंगे और आंख बंद कर लेंगे, चिड़िया फौरन गिर जाएगी और मर जाएगी। अगर वे उसको गौर से देखेंगे और वह चिड़िया फड़फड़ाएगी और मर जाएगी। तो यह सारा का सारा खेल ध्यान का है। हम जिस चीज पर ध्यान देते हैं वह होना शुरू हो जाती है, उसे आकार मिलने लगता है। यानि सच यह है कि हम एक-दूसरे को निर्मित कर रहे हैं पूरे वक्त। जैसा अभी हम ध्यान दे रहे हैं, वैसा ही निर्मित हुए चले जा रहा है। यथार्थ मनुष्य के ध्यान की बाइ-प्रॉडक्ट है। जैसा ध्यान होगा वैसा जगत बन जाता है, वैसी चीजें बन जाती हैं, वैसा सब होता है। तो फिर लेकिन... ध्यान जब चीजों पर होता है, बाहर होता है, दि अदर पर होता है, तू पर होता है। तो भीतर उसकी धारणा जाती नहीं, बाहर जाने लगती है, बाहर जाने लगती है। और जब बाहर जाने लगती है तो भीतर शून्य हो जाता है। क्योंकि वहां भी ध्यान होगा, तो वहां भी यथार्थ आ सकता है, नहीं तो वहां भी नहीं आएगा। ध्यान जहां जाएगा, वहीं यथार्थ आ जाएगा। यथार्थ का मतलब ही है, गया हुआ ध्यान। दिया गया ध्यान। तो वह वहां शून्य हो जाता है। इसलिए पदार्थवादी जो है, वह यह कह रहा है कि आत्मा नहीं है, कहां है आत्मा? वह शून्य हो गई आत्मा, क्योंकि पदार्थ पर ध्यान दे रहा है, पदार्थ है। और इसलिए मेरा मानना है कि पदार्थवादी में और आध्यात्मवादी में बुनियादी भेद नहीं है, प्रक्रिया एक ही है। और आध्यात्मवादी कह रहा है, जिसको हम सिविलाइजेशन कह रहे हैं, वह जो नैचुरल है, जो प्रकृति है, उसको हम संस्कार करने की कोशिश कर रहे हैं, तो उसको हम संस्कृति कह रहे हैं। वह जो प्रकृति है, सहज जो है, उसको संस्कार देने की कोशिश कर रहे हैं। उस संस्कार देने की चेष्टा में नुकसान हो ही रहा है। ये भी उसके संस्कार का ही हिस्सा है। यानी यह जो मैं कह रहा था न, वह जो पुरुष दाढ़ी-मूंछ साफ कर रहा है, वह भी संस्कार का ही हिस्सा है। वह जो पुरुष भी ऑटोलाइट हो रहा है, विनम्र हो रहा है, झुक रहा है, जो कुछ भी उसे मान रहे हैं, इसका सवाल नहीं है, वह सारा का सारा वह जो सहज प्राकृतिक है उसकी अस्वीकृति का परिणाम है। और अस्वीकृति इतनी गहरी है हमारी कि अगर आज आदमी एक ठीक प्राकृतिक आदमी हो, तो आपको परवर्ट मालूम पड़ेगा। ठीक प्राकृतिक आदमी परवर्ट मालूम पड़ेगा आज। क्योंकि हम इतने परवर्ट हुए हैं, और हमने इस-इस तरह के ढोंग-धतूरे रचे हैं, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, आज अगर ठीक एक आदमी है तो वह अभी एक... ।
मेरे एक मित्र मेरे पास कभी आते थे। तो वह वहां के कई आदिवासी हिस्सों में रहे, करीब दो वर्ष तक वहां रहे। तो एक कबीले में थे, तो उस कबीले में उन्होंने कहा कि बड़ी अजीब बात है, अभी भी यानी वह जो श्वेत-युग के पहले युग था जब कोई भी पुरुष किसी स्त्री से निवेदन करता तो स्त्री मना भी कर सकती है। लेकिन अगर स्त्री किसी पुरुष से निवेदन कर दे, तब तो मना करने का कोई सवाल ही नहीं है। और कोई भी सड़क चलते निवेदन कर सकता था उससे प्रेम का कि हम चाहते हैं। वह उस कबीले में आज भी वह हालत है कि कोई भी स्त्री को कोई पुरुष पसंद पड़ जाए तो वह उसके पास आकर कह सकती है, वह बिल्कुल ही सहज है। तो वे मुझसे बोले कि मैं ऐसा वहां, जब पहली दफा गया, तो मैं ऐसा घबड़ाया, इतना डरा और उस डर और घबड़ाने में मुझे पता चला कि क्या मैं पुरुष ही नहीं रहा, एक स्त्री प्रेम निवेदन कर रही है, तो क्या मैं बिल्कुल पुरुष ही नहीं रह गया हूं। क्या हुआ मेरा यह, यह मैं कैसी सभ्यता में हूं। सभ्यता अनिवार्य रूप से क्योंकि प्रकृति को भी सुधार करने की चेष्टा में लगी है, इसलिए विकृत होगी, प्रकृति सुधरती नहीं, सिर्फ विकृत होती है।
प्रश्नः इसका मतलब यह है कि जैसे एक अवयव काम नहीं करता तो दूसरा कोई अवयव प्रांगण हो जाता है, उस तरह जब अगर पुरुष, वह मेरा भाई हो, बाप हो, जो कोई भी हो, या दोस्त हो, मुझे प्रोटेक्शन नहीं दे सकता, तो मुझे अपना प्रोटेक्शन करना पड़ता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि मैं अकेली रहती हूं, कभी कोई एक हॉकर आ जाता है, बदतमीजी करता है, घर में आने की कोशिश करता है, देखता है कि कोई है नहीं। अगर पड़ोसी से किसी को बुला कर लाओ, वहां से किसी मर्द को कि यह आदमी को कुछ कहें, ... अरे भाई क्यों यह करते हो, यह अच्छी बात नहीं है, जाओ तुम अभी, करेज नहीं है उसमें यह कहने का। यह तुम क्या कर रहे हो, चलो यहां से निकलो। तो मुझे करना पड़ता है वह काम जो मैं चाहती हूं कि पुरुष करे।
नहीं, आप पुरुष से करवाना चाहती हैं, आप किसी दूसरे पुरुष से करवाना चाहती हैं। अब यह सारा मामला बड़ा सोचने जैसा है। कि एक पुरुष आपको आकर कुछ गलत कह रहा है, कुछ गलत व्यवहार कर रहा है, आप फौरन दूसरे पुरुष का प्रोटेक्शन मांगती हैं। और यही वजह है कि पुरुष आपसे गलत व्यवहार करता चला जा रहा है। क्योंकि गलत व्यवहार करने वाला भी है, और प्रोटेक्शन जब मांगना है, तो उसी से मांगना है। और अगर यह दूसरा आपको प्रोटेक्शन देता है और अगर यह थोड़ा भी पुरुष है, तो प्रोटेक्शन दे कर यह आपसे वही करेगा जो वह गलत करने वाला आकर कर रहा है। मेरा मतलब नहीं समझीं आप, यानी मेरा कहना यह है न... हां-हां, वह उठाने ही वाला है, उठाने ही वाला है। वह जरा प्राकृतिक आदमी है, यह आदमी सभ्य आदमी है। वह बिना किसी संबंध के सीधे ही फायदा उठाना चाह रहा था, और यह जो आदमी है, यह ज्यादा होशियार है, कैल्कुलेटिव है, यह कहता है कि ठीक है, इसको बचाओ, लेकिन पुरुष से ही प्रोटेक्शन मांगना है, तो फिर पुरुष को निमंत्रण देना है। और जिसको हम कह रहे हैं न कि यह बदतमीजी का व्यवहार कर रहा है, यह पुरुष बदतमीजी का व्यवहार कर रहा है। अब यह इतना ज्यादा कांप्लिकेटिड मामला है। हां-हां... नहीं-नहीं, बिल्कुल ही ठीक है, बिल्कुल ठीक, लेकिन आप देख लेना मजा क्या है, जो आपको पसंद है अगर आप उसको ही प्रवोक करें, तब तो ठीक है, लेकिन जो आपको पसंद नहीं है, उसको आप प्रवोक कर रही हैं, समझ लें कि आप जिसको प्रेम करती हैं, उसके सामने आप चुस्त कपड़े पहन कर और सुंदर सजधज कर खड़ी हैं, तो प्रवोकेशन का काम तो आप कर रही हैं। और वह आपकी छेड़खानी करे आपको पसंद है, क्योकि वह आपको पसंद है, लेकिन यही सजावट में आप बाहर खड़ी हैं, हॉकर के सामने, प्रवोकेशन का काम आप तो जारी किए हुए हैं, और वह आदमी छेड़खानी करे तो आपको नापसंद होगा। यानी मेरा कहना यह है कि जब छेड़खानी कर रहा है तो छेड़खानी करवाने वाला भी निमंत्रण के लिए पूरे इंतजाम किए हुए है। अच्छा, स्त्री का निमंत्रण दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि वह निगेटिव और रिसेप्टिव है, और पैसिव है। और पुरुष का दिखाई पड़ता है क्योंकि वह पाजिटिव है और एग्रेसिव है। एक स्त्री चली जा रही है, सड़क पर मटकती हुई, तो कोई नहीं कहता कि यह गुंडागिरी कर रही है, और एक आदमी उसको धक्का दे दे, तो अब वह गुंडा हो गया। मैं जो कह रहा हूं वह किसी पर्टिकुलर में नहीं कह रहा हूं, हां, यह जो पॉलेरिटी है न, यह पूरे वक्त एक साथ काम कर रही है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )... क्योंकि स्त्री स्त्री नहीं हो सकती जब तक, वह कोई भी स्त्री हो उसमें कुछ न कुछ आकर्षण तो हमेशा रहता है।
नहीं, यह सवाल नहीं है, यह सवाल नहीं है, हमारे माइंड की तकलीफ क्या है, हमारे माइंड की तकलीफ क्या है, कि जो चीज मुझे पसंद नहीं है वह मैं निमंत्रण अगर कर रहा हूं, तो मैं कंट्राडिक्शन में पड़ने वाला हूं। कंट्राडिक्शन कहां खड़ा हो रहा है? कंट्राडिक्शन वहां खड़ा हो रहा है, हालतें उलटी हो गई हैं, आज हालतें यह हैं कि पति के सामने तो पत्नी बिल्कुल साधारण बनी बैठी रहती है, भूत-प्रेत बनी बैठी रहती है बल्कि। और बाहर निकलती है, तो दूसरे गैर पतियों के सामने सज-धज कर निकलती है। बिल्कुल वही बात है, वहीं मैं कह रहा हूं, और इसका परिणाम क्या होता है? कि वह प्रवोकेशन का काम तो करती है, और प्रवोकेशन से जो होगा है, उसको वह नापसंद करती है। यह दोहरी बात है। उसको प्रवोकेशन बंद करना चाहिए, अगर छेड़-खानी बंद करनी है। तो प्रवोकेशन बंद होना चाहिए। मगर प्रवोकेशन वह पूरा कर रही है। और छेड़खानी पर नाराज हो रही है।
यह कल ही मैं बात कर रहा था। कल विजय आनंद आया तो उससे बात कर रहा था। हम कई बार मन से कुछ कहते हैं और शरीर से कुछ कहते हैं, इन दोनों में कंट्राडिक्शन होता है। यानी मैं मन से कह रहा हूं कि पास आओ या शरीर से मैं कह रहा हूं पास आओ, और जब तुम पास आते हो तो मैं घबड़ा कर कहता हूं कि पास क्यों आए? और मेरा पूरा शरीर सब तरफ से कह रहा है कि पास आओ। हमारा जो व्यक्तित्व है, पुरुष का, स्त्री का सबका, वह व्यक्तित्व बड़ा अजीब है। तो उससे हम दोहरे काम कर रहे हैं कि अगर वह काम पूरा हो तो भी दुखी होंगे, और न पूरा हो तो भी दुखी होंगे।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
हां, उनको उठाना पड़ेगा। वही मैं कह रहा हूं कि वह जो प्रकृति है उसे अगर हम स्वीकार कर सकें और ये शब्द होने की जो निरर्थक चेष्टा हमको पकड़े हुए है, ये विदा हो सके, तो तत्काल स्त्री वापस लौट आए, पुरुष वापस लौट आए। और स्त्री और पुरुष अगर ऑथेंटिकली वापस लौट आएं, तो उनके जीवन में रस भी हो सकता है, आनंद भी हो सकता है। कांप्लिकेशन भी हो सकते हैं। कांप्लिकेशन तो जिंदगी में है ही, लेकिन कम संभावना रह जाती है। क्योंकि, क्यों रह जाती है? आज क्या है, कांप्लिकेशन ही कांप्लिकेशन है, आज न रस है, क्योंकि रस का उपाय नहीं रहा। रस वहीं होता है जहां इमिजिएट कांटेक्ट है, वह है ही नहीं कांटेक्ट इमिजिएट। अगर मुझे एक स्त्री पसंद पड़ती है तो मैं उसे जाकर नहीं कह सकता कि तुम मुझे पसंद पड़ रही हो। अगर वह स्त्री मुझे पसंद पड़ जाती है, तो मुझे नहीं आकर कह सकती है कि आप मुझे पसंद पड़े हो। मैं दो क्षण आपकी गोदी में सिर रख लूं? यह असंभव है। और तब ये दीवालें खड़ी हो जाएंगी, जो हर स्त्री से मुझे खड़ी करनी पड़ेंगी। हर स्त्री को मुझसे करनी पड़ेगी। बीस-पच्चीस, तीस सालों तक मैं दीवालें खड़ी करूंगा। फिर अचानक एक स्त्री मेरी जिंदगी में आएगी, जिसको मैं आज्ञा दूंगा कि ठीक तू मेरी पत्नी है, लेकिन दीवारें तीस साल पुरानी हो गईं। जो स्त्री और पुरुष के बीच खड़ी की गई थीं।
प्रश्नः अगर हम दीवालें खड़ी नहीं करेंगे तो घर भी नहीं बना सकेंगे न, अगर समाज चलाना है, समाज की रचना करनी है, तो कुछ न कुछ नियम... ?
यह बड़े मजे की बात है, बड़े मजे की बात है कि हम दोनों बातें करते हैं, हमें समाज चलाना है। और समाज रुग्ण है, और उसी रुग्ण समाज को चलाना है, और समाज बीमार है और सबको पागल किए दे रहा है, और उसी समाज को चलाना है। तो यह तो बड़ी अजीब बात है। यह हमें समझना पड़ेगा कि समाज अगर रुग्ण है और बीमार है, तो हमें समझना पड़ेगा कि यह रुग्ण और बीमार क्यों है? आदमी को इतना पागल क्यों किया हुआ है? इसको हमें वापस लौटाना पड़ेगा। और इतने मिनिमम नियम, नियम तो होंगे ही, क्योंकि हम जहां दो आदमी होंगे, नियम होंगे। इतने मिनिमम नियम होने चाहिए जो किसी भी तरह मनुष्य की प्रकृति पर बाधा न बन जाते हों। बल्कि उस प्रकृति को ही मार्ग देने के लिए सहयोग बनते हों।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )साइंस जैसे डवलप होता रहेगा तो सलोव्ली-सलोव्ली यह हालत होगी तो नियम बहुत कम हो जाएंगे, थोड़े से हो जाएंगे और आदमी उस स्टेज पर आएगा जिस स्टेज पर आप कह रहे हो उसे आना चाहिए।
कर्म ही प्रेम समग्रभाव से, उठना-बैठना ही प्रेम समग्रभाव से, ऐसे समग्रभाव से भविष्य सुंदर होगा, तो जिस गहराई तक पर्टीसिपेशन है, जिस गहराई तक हम डूब रहे हों, जिस गहरे तल तक, उतने ही गहरे तक हमें पता चलेगा। अगर हम पूरे ही डूब गए हैं, तो ही हमें पता चलेगा पूरे का। जो डूब गए तो धन्यभागी हैं।
पुराने कवि का एक प्रश्न है, जो पार निकल गए वे अभागे हैं, जो डूब गए वे धन्यभागी हैं।
यानी पार जाए तो पार है, डूब जाए तो पार। कबीर का है।
यह कबीर का है। एक और किसी का है जिसका मुझे स्मरण आता है, जो डूब गए धन्यभागी हैं। जीसस ने कहा है कि जिन्होंने अपने को बचाआ वह मिट जाएगा। तुम अगर मिटा सके, तो फिर तुम्हें कोई नहीं मिटा सकेगा।
लाओत्सु का एक वचन है, एक दिन अपने शिष्य से वह कह रहा था, तो शिष्य ने कुछ पूछा कि आप कभी जिंदगी में हारे हैं? तो लाओत्सु कह रहा है कि मुझे कभी कोई नहीं हरा सका। तो उसने पूछा, इसका सीक्रेट, इसका राज? तो लाओत्सु ने कहा क्योंकि मैं हारा ही हुआ हूं। मुझे कभी कोई नहीं हरा सका, क्योंकि मैं हारा ही हुआ हूं। उसकी जीत मेरी ही जीत है। तो उससे मैंने कहा, मेरी छाती पर बैठ जा। वह समझा कि जीत गए हम उसके दुश्मन थे ही नहीं, हम लड़े ही नहीं थे कभी तो हम हारते कैसे? हमने उसे जिताया था और हम नहीं हारे। इतने समग्रभाव से। लाओत्सु का शिष्य उससे पूछता है, कभी आप कहीं अपमानित हुए, कहीं बाहर निकाले गए? लाओत्सु कहता है, कभी नहीं, क्योंकि हम सदा उस जगह गए, जिसके पीछे और कोई जगह ही नहीं है। और बड़े-बड़ों को हमने निकाले जाते देखा। बड़े-बड़ों को हमने निकाले जाते देखा, हमारी तरफ किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। और हम उस जगह बैठते थे जहां जूते उतारे जाते हैं, वहां हम बैठ गए थे। हमें कोई भगाता भी नहीं था, और हम बड़े मजे में थे। हम बड़े-बड़ों को हारते देख रहे थे, अपमानित होते देख रहे थे। और हम हंस रहे थे। जो मान सोचेगा वह अपमानित होगा। और हमने मान सोचा नहीं, और हमने अपमान को ही मान समझ लिया...
एक जंगल से गुजर रहा है, लाओत्सु। जंगल में बड़े पैमाने पर वृक्ष काटे जा रहे हैं, बड़े कारीगर लगे हैं। एक वृक्ष है, जो बिना कटा बचा है, किसी राजा का राजमहल बन रहा है। और फिर उस वृक्ष के नीचे रुके, जिसके नीचे एक हजार बैलगाड़ी आ जाएं, इतना बड़ा है। तो लाओत्सु ने कहाः जाओ, वृक्ष से पूछो, राज क्या है, बचे कैसे? जब कि सब कटा जा रहा है। जंगल उजड़ा जा रहा है, तुम बचे कैसे? राज क्या है? शिष्यों से कहाः जाओ जरा वृक्ष से पूछो। यह वृक्ष बड़ा ज्ञानी मालूम पड़ता है। शिष्य गए चक्कर लगा कर आए कि वृक्ष तो कुछ बोलता नहीं। तो लाओत्सु ने कहाः यह भी उसके ज्ञान का एक हिस्सा होगा, क्योंकि बोले कि फंसे। तो यह भी ज्ञान का हिस्सा होगा, बड़ा होशियार वृक्ष है, फिर भी तुम जाओ उन लोगों से पूछो जो वृक्षों को काट रहे हैं, दूसरे वृक्षों को, इस वृक्ष को क्यों छोड़ दिया? शायद उससे कुछ पता चल जाए। क्योंकि कटने की घटना में दो चीजें हैं, एक तो वृक्ष होशियार है, काटने वाले कैसे छोड़ गए हैं? क्योंकि काटने वाले तो कुछ न कुछ करते। वे शिष्य गए और जो कारीगर काट रहे हैं दूसरे वृक्षों की लकड़ियां चीरी जा रही हैं, उनसे पूछा, उस वृक्ष को नहीं काटते? क्योंकि यह वृक्ष बिल्कुल लाओत्सु जैसा है। क्या मतलब? ये वृक्ष इतना टेढ़ा-मेढ़ा है, कि इसकी कोई लकड़ी सीधी नहीं है। तो शिष्य पूछते हैं कि इसको काट कर जला तो सकते थे? उन्होंने कहा यह बिल्कुल बेकार है, इसका तो कोई उसका इंधन भी नहीं बना सकता। तो अपने गुरु से कहना कि वृक्ष बिल्कुल लाओत्सु जैसा है। तो लाओत्सु को पता चला कि कारीगर कहते हैं कि वृक्ष बिल्कुल लाओत्सु जैसा है, और हमने समझ भी लिया है। वह इतना बेकार है, वह ऐसी आखरी जगह खड़ा हो गया है जहां से कोई जरूरत ही नहीं पड़ती उसकी, लेकिन जैसे आखिरी जगह खड़ा होकर कितना फल-फूल रहा है, उसकी शाखाएं कैसी दूर-दूर तक चली गई है। कितने लोग उसके नीचे विश्राम लेते है। अगर उसने जरा भी कोशिश की अच्छा बनने की वह कट गया होता। जिसने अच्छे बनने की कोशिश की वे कट गए। लाओत्सु ने कहा कि ठीक कहा उन कारीगरों ने, लेकिन तुम कह देना कि जब... लाओत्सु भी कहता था कि तुम ठीक कहते हो। हम भी उसी वृक्ष की तरह हैं। एकदम बड़े हो गए, कोई काटने नहीं आता, क्योंकि हम उस जगह खड़े हैं और इतना हमसे धुआं निकलता है और लकड़ी कोई सीधी नहीं हम बिल्कुल बेकार हैं, हम किसी क ाम के नहीं हैं।
अगर हम बहुत गौर से देखें, जितना गहरा प्रतिदर्शन होगा उतनी ईगोलेसनेस हो जाएगी। क्योकि ईगो ही तो प्रतिदर्शन नहीं होने देगी। आपको मैं नहीं दे पाता हूं क्योंकि मैं हूं, तब आपके आस-पास घूम सकता हूं, क्योंकि प्रवेश नहीं होता, प्रवेश करो, आप भी टूटें आप भी मैं, मैं भी मैं हूं। ये दो चाहे तो प्रतिदर्शन नहीं होगा और दूसरे के लिए तो मैं कुछ कर नहीं सकता हूं, क्योंकि मेरा मैं अगर विदा हो, और जितने गहरे में चारों तरफ मैं फैल जाऊं, यानी ऐसा न लगे कि आपकी आंख केवल आप की ही हैं, और ऐसा भी लगे कि मेरी भी हैं। ऐसा न लगे कि आपका हाथ आपका ही है, मेरा ही है और सभी हाथ मेरे ही हैं। इतना गहरा प्रतिदर्शने हो जाए।
लाओत्सु एक गांव से गुजरा, और एक आदमी ने आकर लकड़ी से उसे चोट कर दी, और वह गिर पड़ा। आदमी भाग गया, उसके शिष्य कह रहे हैं कि क्या करना है? जाएं हम उसे पकड़ें? उसने कहा कि नहीं, ऐसा मत करना। क्योंकि जब उसने मुझे मारा है, तो मैं बिल्कुल झुक गया, कहना क्या था? मैंने बिल्कुल जगह दे दी, हम दोनों इस कृत्य में सहभागी हैं। वह मारने वाला, मैं पिटने वाला, वह रेसिस्टेंस नहीं था, इसी... कहानी से जूडो निकला। जूडो का नियम यह है कि जो कोई घूंसा आपको मारे, तो तुम उसका घूंसा पी जाओ। पूरे शरीर को ऐसा छोड़ दो कि घूंसा पी जाए थोड़ा-थोड़ा। तुम घूंसे के साथ एक हो जाओ।
जूडो के विचारक हैं वे कहते हैं कि एक बैलगाड़ी जा रही है और उसमें एक आदमी होश में बैठा है और एक आदमी शराब पी रहा है। और बैलगाड़ी उलट गई। तो शराब जिसने पी है उसको चोट नहीं लगेगी, वह जो होश में बैठा है उसको चोट लग जाएगी। क्योंकि शराब पीने वाला उलटने में ही राजी हो जाएगा। वह चोट को रेसिस्ट नहीं करता। बैलगाड़ी उलट गई, तो वह भी उलट गया। उसने कहीं इसका विरोध ही नहीं किया। क्योंकि विरोध का अर्थ ही होता है कि बचाया! कि मर न जाऊं, चोट न खा जाऊं, वह जूडो साइंस यह कहती है कि गाड़ी उलटने से हड्डी नहीं टूटती है, वहजब गाड़ी उलटी तब तुम हड्डी कड़ी कर लेते हो कि बचो तो वह कड़ी हड्डी टूट जाती है। वह जो रेसिस्टेंस है चोट देता है। वह... इसलिए बच्चा गिरता है तो बच्चे के साथ... और उठा कुछ नहीं टूटता फिर हम गिरे कि गए, क्योंकि बच्चा भी शराबी की हालत में है। अभी गिरा कि गिरने के साथ एक हो गया। ... गहरे से गहरा मतलब है कि यह जो हो जैसा हो हम उसके लिए राजी।
जीसस गहरे से गहरे इस मामले में गए हैं। जीसस कहते हैं कि तेरा कोट छीने तू उसे अपनी कमीज भी दे देना, पता नहीं उसे कमीज की जरूरत हो, संकोच में छीने न। ... यह जो जीसस का एक वचन इतना अद्भुत है दुनिया के किसी आदमी ने नहीं कहा, वचन हैः रिसिस्ट नॉट इविल; इतनी हिम्मत--बुराई से भी मत लड़ो, बुराई से भी मत लड़ो... ऐसा नहीं कि भलाई से तो... करेंगे बुराई से नहीं करेंगे। सुख से... करेंगे दुख से नहीं करेंगे, मित्र से करेंगे दुश्मन से नहीं करेंगे, जिंदगी से करेंगे मौत से नहीं करेंगे... ऐसा चुनाव हो तो मुश्किल में पड़ गए हम, चुनाव हुआ कि फिर हम बच गए आखिर वह जोड़ नहीं पाया। चुनाव ही न हो, च्वाइसलेसनेस।
एक झेन फकीर है, वह अपने घर के बाहर बैठा हुआ था, कोई उससे आकर पूछता है, क्या कर रहे हो, तो वह कहता है, धूप ने बुलाया है सो बाहर आ गया हूं। वह यह नहीं कहता, मुझे सर्दी लग रही थी इसलिए बाहर आ गया, वह कहता है, धूप ने बुलाया था इसलिए बाहर आ गया। घर के बाहर बैठा रहा, धूप लेता रहा, फिर थोड़ी देर बाद उठा और भीतर जाने लगा, पूछा, कहां जा रहे हो, घर की छाया बुला रही है। यह आदमी बिल्कुल पर्टिसिपेट कर रहा है। यह जैसे है ही नहीं, धूप बुलाती है तो धूप में चला जाता है, छाया बुलाती है तो छाया में चला जाता है। जिंदगी ने बुलाया तो जिंदगी में अगर मौत बुलाएगी तो वहां चले जाएंगे। यहां आना भी सुखद था, वहां जाना भी सुखद! इस स्थिति को ही मैं मुक्ति कहता हूं। पर्टिसिपेशन जहां टोटल वहां फ्रीडम पूरी। वहां अब कोई बंधन नहीं क्योंकि बंधन में ही पार्टिसिपेट कर सकते हैं। अब आप मुझे बंधन में डाल नहीं सकते, क्योंकि... अब कोई उपाय नहीं है मुझे बांधने का। और ऐसी जो जीवन-मुक्ति है वो पूरे जीवन को स्वीकार करती है।
उसमें कोई निषेध नहीं है, उसमें निषेध कहीं नहीं है, न पदार्थ का है, न परमात्मा का है, न शरीर का है, न आत्मा का है; न इंद्रियों का है, न भोग का है, निषेध है ही नहीं। और जिसके चित्त में निषेध नहीं है, उसको मैं आस्तिक कहता हूं। क्योंकि आस्तिक से मेरा जो मतलब है, वह उससे है जिसके मन में कोई निषेध नहीं है।
हालांकि लोग उसको अगर भ्रामक दृष्टि से लेगें कि किसी भी चीज में निषेध नहीं लेकिन हर काम किया नहीं जाता है।
वह यही समझते हैं कि इसमें तो फिर चोरी हो जाएगी, बेईमानी हो जाएगी हत्या हो जाएगी। और मजा यह है कि अगर यह खयाल रहे कि वह सब कुछ शब्द जैसा है। वह जो टोटेलिटी ऑफ थिंग्स है... तो यह आदमी चोरी करेगा फिर, चोरी करेगा किसकी।
हम तर्क दृष्टि से निसर्ग को देखते हैं तो यह कोताही आ जाती है। लेकिन है नहीं।
संभव ही नहीं है। यानी मेरा कहना है कि जो सर्व-भाव से, सर्व-स्वीकृति का जो भाव है, उसमें जो बच जाए वही पुण्य है। और उसमें कुछ है जो बचता ही नहीं। उसे छोड़ें तो कहां बचता है? और उनको कहीं छोड़ने, निषेध करने नहीं जाना पड़ता, वह होता ही नहीं है। वहीं कहीं और है ही नहीं। हमारी लेकिन भूल यह है कि अंधेरे में रहने वाले लोगों को, जो सदा के अंधेरे में रहे हों, कोई जाकर अगर कहे कि तुम दीया जला लो, तो वे कहेंगे दीया तो जलाएंगे नहीं, अंधेरे को फिर कैसे मिटाएं? वे पूछेंगे कि दीया तो जला लें, जलाया ही नहीं, जला लें तो फिर सवाल ही नहीं उठता। लेकिन वे सोचते हैं कि अंधेरे को कैसे निकालूं? सवाल तो अंधेरा निकालने का है। अब उनको समझाना मुश्किल है कि दीया जला कि फिर अंधेरा होता नहीं। फिर निकालने का सवाल ही नहीं है। या ऐसा भी कह सकते हैं कि दीया जल गया, तो अंधेरा भी दीया ही हो जाता है... बात कहां है जो तुम निकालोगे, जाओगे कहां निकालने।
उसे डर लगता है जैसे चोरी कर रहा है, बेईमानी कर रहा है, झूठ बोल रहा है। उसे लगता है, कहता है, सब स्वीकार कर लूं, झूठ भी बोलूं, चोरी भी करूं, पाप भी करूं----
पहली दफा उपनिषदों का अनुवाद हुआ जर्मनी में। और दूसरे लोगों ने जिन्होंने पहले अनुवाद की हवा पहुंचाई, उनके सामने जो सबसे बड़ा सवाल उठा वह यह कि ये धर्मग्रंथ कैसे हैं? क्योंकि इनमें नहीं लिखा है कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, टेन कमांडमेंट्स हैं कहां? ये धर्म ग्रंथ हैं कैसे? इसमें कहीं लिखा ही नहीं है कि तुम क्या मत करो?
और जब उनसे पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि हमें उपयोग करना ठीक नहीं मालूम पड़ता। तो मांटगोमरी ने रिपोर्ट दी है अमरीकी सीनेट को कि यह तो भारी खतरनाक बीमारी है, अगर यह सैनिकों में फैल गई, और उसने कहा कि हम तय करेंगे कि क्या ठीक है, क्या गलत है। तब तो मुश्किल हो जाएगा। लेकिन मैं मानता हूं कि सब युवकों में फैला देनी चाहिए यह बात ताकि दुनिया का कोई नालायक युद्ध न करवा सके। लेकिन उनको खयाल में नहीं आता। पाकिस्तान का लड़का सोचता है कि पाकिस्तान की सरकार जो कहती है वह ठीक है, हिंदुस्तान का लड़का सोचता है कि हिंदुस्तान की सरकार जो कहती है वह ठीक है। और लड़ो, ठीक हम पर थोपा जाता है ऊपर से। तो रामचंद्र जी जैसा विचारशील आदमी भी ठीक, गैर-ठीक का विवेक नहीं करता, किताब में क्या लिखा है, वही, कहानी है कि एक आदमी... उसका लड़का मर गया है एक औरत का, जवान लड़का है। वह आई है रोती हुई राम के पास, मेरा जवान लड़का मर गया है, तुम्हारे राज में कोई गड़बड़ होनी चाहिए। मेरा जवान लड़का क्यों मरा? वह ब्राह्मणी है, तो वे वशिष्ठ से पूछते हैं, वशिष्ठ कहते हैं शास्त्रों में लिखा है कि अगर कोई शूद्र वेद वचन का पाठ कर ले, तो ऐसी दुर्घटनाएं घटनी शुरु हो जाती हैं कि जवान बच्चे मर सकते हैं। तो आप पता लगाइए आपके राज्य में कोई शूद्र वेदपाठ कर रहा है? और रामचंद्र जी जैसा बुद्धिमान आदमी पता लगवाता है और एक शूद्र मिल जाता है, जो वेद पढ़ता था, सुनता था, तो उसके कानों में सीसा पिघलवा कर उसको मरवा डाला जाता है। क्योंकि शास्त्र कहते हैं। जिनको हम कहें मर्यादा, जो सोचने-समझने वाले लोग हैं, वे भी इन मामलों में सोचते-वोचते नहीं।
तो तीसरा काम यह है कि बच्चों का विवेक जगाएं, उनकी अवेयरनेस जगाएं। उनको कहें कि तुम सोचो, तुम मानो मत। और डिसिप्लीन से बच्चों को बचाएं। अनुशासन से बच्चों को बचाएं, विवेक दें, अनुशासन नहीं। जो अनुशासन आए वह विवेक के पीछे आए, तो दुनिया में युद्ध और शांतियां संभव हैं। और व्यक्ति ही शांत हो सके। अनुशासन की अब जरूरत नहीं है। अब उनको कहें तुम्हारा विवेक हो, तुम्हें ठीक लगे, तब अनुशासन है, तुम्हें ठीक न लगे तो तुम तोड़ने की हिम्मत रखना। क्योंकि गलत आदमी तुम्हारे अनुशासन का फायदा उठाते रहे हैं, सदा से, वे आज भी उठाएंगे, कल भी उठाएंगे। दुनिया को कभी भी युद्ध में झोंका जा सकता है, क्योंकि लड़के डिसिप्लीन में हैं। लेकिन खतरे आने शुरु हो गए हैं। तो यह पुरानी संस्कृति की इन मूल धारणाओं पर सोचो। और नये ढंग से बच्चों को समझाओ उनको खड़ा करो। और गांधी स्वाध्याय मंडल से यह नहीं होगा। क्योंकि गांधी से पुराना आदमी खोजना मुश्किल है। गांधी पुरानी सारी संस्कृति और पुरानी सारी परंपराओं के सार निचोड़ है। इसलिए गांधी से नहीं, गांधी से शांति नहीं आने वाली दुनिया में। हालांकि गांधी को हम शांति का मसीहा कहते हैं। लेकिन गांधी से शांति नहीं आने वाली। गांधी जो बातें सिखा रहे हैं, वे ही अशांति का कारण हैं।
कोई ऐसा है भी यहां पर जो उनसे उत्कृष्ट हो जिसने शांति का उपदेश दिया हो?
शांति का उपदेश देने वाले बहुत महापुरुष हो गए हैं, मगर उनके उपदेश से कुछ नहीं होता। उनका उपदेश ही गलत है, इसलिए कुछ नहीं होता।
नहीं-नहीं कोई गांधी से श्रेष्ठ, जिस आदमी ने जिंदगी निकाल दी और जो आदमी किसी भय से कांपा नहीं; और उसने देश को स्वतंत्र करवा दिया।
श्रेष्ठ-व्रेष्ठ का सवाल ही नहीं, कोई तराजू थोड़े ही है। यह सवाल नहीं है। गांधी से ज्यादा भयभीत आदमी, गांधी से भयभीत आदमी खोजना मुश्किल है। थोड़ा समझ लेंगे, क्योंकि मैं जो कह रहा हूं, वह कहीं लिखा हुआ नहीं है, इसलिए जल्दी नहीं कर लेंगे। गांधी से ज्यादा वायलेंट और हिसंक आदमी खोजना मुश्किल है। इसको थोड़ा समझाना पड़ेगा।
आपको निर्णय करना होगा गांधी से दृढ़ और धीर आदमी दुनिया में निर्भय आदमी... तुलना करेंगे इस बात का आप प्रमाण दीजिए।
हां-हां, प्रमाण, तो मैं बात करूंगा, तो मैं बात कर लेता हूं।
मजा यह है कि आदमी के व्यक्तित्व को समझने की हमारी समझ इतनी अधूरी है, कि हमें खयाल में नहीं आता कि आदमी अक्सर उलटा व्यक्तित्व विकसित करता है, यह हमें खयाल में नहीं आता अक्सर। भयभीत आदमी निर्भीक होने का व्यक्तित्व विकसित करता है। उसके कारण हैं, गांधी से भयभीत आदमी नहीं है। गांधी हिंदुस्तान आए पहली दफा और अदालत में गए, रात भर गांधी ने भाषण तैयार किया कि अदालत में क्या बोलना है, रात भर। मॉय लॉर्ड! और वापस पूरा याद करते हैं। और दूसरे दिन सुबह अदालत में गए हैं, हाथ-पैर कंप रहे हैं। और रात भर की तैयारी और पढ़ाई-लिखाई सब बेकार हो गई, जब अदालत में खड़े हुए और दस-पंद्रह आदमी दिखाई पड़े, तो उन्होंने कहा, माई लॉर्ड! और हाथ-पैर कंप गए और कुर्सी पर गिर गए। फिर दुबारा अदालत में नहीं गए। यही आदमी इतना करोड़ों लोगों को प्रभावित कर लेता है, यही आदमी करोड़ों लोगों में निर्भय बोल रहा है। यही आदमी किसी ताकत से नहीं डरता है। बड़ी से बड़ी ताकत से नहीं डरता है। अगर इसका मनोविश्लेषण हो, इस आदमी का तो आप पायेंगे कि इस आदमी के पास फीयर कांपलेक्स है भीतर। उस कांपलेक्स को मिटाने के लिए यह नॉन-फीयर की पर्सनेलिटी विकसित कर रहा है। पर्सनेलिटी इसके एसेंशियल मांइड से बिल्कुल उलटी है।
गांधी ब्रह्मचर्य की निंरतर बात करते हैं, गांधी से ज्यादा सेक्सुअल आदमी बहुत कम होते हैं। जिस दिन गांधी के पिता मरे गांधी उनका पैर दबा रहे हैं, ग्यारह बजे रात को, और डाक्टरों ने कहा है कि पिता का बचना मुश्किल है, आज ही रात शायद बचें। लेकिन गांधी का मन लगा है पत्नी के पास, और पत्नी गर्भवती है, तीन-चार दिन बाद उसको बच्चा होने वाला है, लेकिन उस रात भी गांधी पत्नी को छोड़ नहीं सकते। उस रात भी भोग चाहिए। कोशिश में हैं कि कैसे मौका मिल जाए? किसी दूसरे ने कहा कि मैं दबाए देता हूं, तुम थक गए होंगे, तो वे फौरन भागे। जाकर पत्नी सो गई थी, तो उसको जगा लिया। उसके साथ बिस्तर पर सो गए। बिस्तर पर सोए हैं पत्नी के साथ, दरवाजे पर दस्तक पड़ी, किसी ने आकर खबर दी कि पिता चल बसे। तो गांधी ने लिखा है कि उस दिन मुझे यह चोट पहुंची और मैं मानता हूं कि वही चोट जिंदगी भर ब्रह्मचर्य की साधना बन गई। वही चोट। एक भय हो गया और एक एसोसिएशन हो गया, बाप का मरना। और तीन दिन बाद बच्चा पैदा हुआ, वह भी मर गया। और लोगों ने कहा कि इतने बढ़े हुए गर्भ की अवस्था में संभोग करना बच्चे की हत्या करना साबित हुआ। वह भी मन पर बैठ गया।
देखेंगे ब्रह्मचर्य, किताब तो ब्रह्मचर्य की बात करेगी और गांधी को भी शक है इस बात पर, इसलिए मरने के पहले लोहाखाली में जवान लड़की को बिस्तर पर लेकर सोकर भी देखा, आखिरी वक्त में, भारी उपद्रव हुआ। और इसको मैं कहता हूं बेईमानी की सीमा है। कि गांधी की इतनी पूजा-पत्री चलती है, बात चलती है लेकिन उस हिस्से को छिपाने की कोशिश चलती है। तुम हैरान होंगे डॉक्टर कि गांधी के इस एक्सपेरिमेंट को गांधी के पत्रों ने भी नहीं छापा, हरिजन ने भी नहीं छापा। और हरिजन ने भी इनकार कर दिया कि हम नहीं छाप सकते। गांधी को आखिरी तक यह खयाल है कि कहीं मेरे मन में रह तो नहीं गई है स्त्री, मरते दम तक, तो इसकी परीक्षा कर लूं। औरत को सुला कर जांच कर लूं कि मेरे मन में खयाल तो नहीं उठता है। तो ब्रह्मचर्य हमें दिखाई पड़ता है, उसकी चर्चा चलती है लेकिन भीतर की कामुकता हमें दिखाई नहीं पड़ती, उसकी चर्चा नहीं चलती।
गांधी अति वायलेंट हैं। वायलेंस के बड़े अजीब मजे हैं, वायलेंस बड़ी भीतरी चीज है, बड़ी हिंसा, बड़ी गहरी चीज है। हिंसा का एक ही मतलब है, कोअर्सन। हिंसा का एक ही मतलब है, दूसरे को दबाना। दबाने के रास्ते कुछ भी हो सकते हैं, नॉन-वायलेंट भी हो सकते हैं। अगर मैं आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाऊं, कहूं मेरी बात मान लो, नहीं तो मार डालूंगा, तो आप कहोगे यह आदमी हिसंक है। और मैं अपनी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाऊं कि मेरी बात मानते हो नहीं तो मरता हूं। तो आप कहोगे यह आदमी बड़ा आध्यात्मिक है। यह भी वायलेंस है। एक दूसरे की तरफ डायरेक्टेड हैं, एक अपनी तरफ डायरेक्टेड है, अंबेदकर ने लिखा है, कि गांधी ने मरने की धमकी देकर सिर्फ मुझे डराया, मुझे बदला नहीं, मेरा हृदय जरा परिवर्तन नहीं हुआ। लेकिन गांधी ने धमकी दे दी कि हम मर जायेंगे अनशन करके। और मैं कहता हूं कि मैं सही था, और गांधी गलत थे, और तब भी वह कहता ही रहा कि मैं सही हूं और गांधी गलत हैं। और मेरा कोई हृदय परिवर्तन नहीं हो रहा है, सिर्फ जबरदस्ती की जा रही है। सारा मुल्क दबाव डाल रहा है। और उसका मन भी दबाव डाल रहा है कि गांधी हिंदुस्तान की आजादी के लिए कीमती है। मैं हरिजनों का मामला लेकर उनकी हत्या करूं, यह हिंदुस्तान की आजादी को कहीं लंबा फासला न हो जाए। तो हम ही त्याग कर दें। लेकिन त्याग किया उसने, गांधी ने अनशन छोड़ा, लेकिन उसने कहा, मेरा हृदय परिवर्तन नहीं हुआ, गांधी जी इस भूल में न पड़ जाएं। गांधी जी की जिंदगी में जितने उन्होंने उपवास किए, एक में भी किसी का हृदय परिवर्तन नहीं हुआ, लेकिन उपवास और अनशन और गांधी का मरने की धमकी, हिंसा है। मेरा अपना मानना यह है कि हिंसा, वायलेंट ढंगों से नहीं, नॉन-वायलेंट ढंगों से भी हो सकती है। अहिंसक मैं उसको कहता हूं जो इतनी भी चेष्टा नहीं करता कि मैं आपको अपने ही रास्ते पर चलाऊं, अपनी ही समझाऊं जो मैं कहता हूं वही ठीक है, जो इतनी भी चेष्टा नहीं करता। जो निवेदन कर देता है कि यह बात रही, ठीक लगे, लगे, नहीं तो कोई बात नहीं।
आपके प्रश्न के अनुसार तो बुद्ध और महावीर अहिंसा के उपदेष्टा थे, सारे के सारे हिंसक थे महाहिंसक...
अभी दूसरों को मत लाइए। उनका विश्लेषण अलग करना पड़ेगा।
कैसे करना पड़ेगा अलग?
यह बात आप समझे।
उन्होंने अहिंसा का उपदेश दिया क्यों?
वह बिल्कुल...
अगर समझो महाहिंसक जो होता है वह हिंसा का उपदेश देता है।
मैं अभी गांधी, मैं गांधी जी की बात कर रहा हूं और दलील दे रहा हूं।
हां, तो गांधी जी की बात करिए, देखिए तब तो मैं सबसे ज्यादा निर्भय हूं, जो कभी सिपाही से भी डरता हूं, कभी जेल नहीं गया, कभी कोई दुख नहीं सहा, और जो आदमी सारी उम्र दुख सहन करता रहा, और जेल से नहीं डरा और सूली से नहीं डरा और फांसी से नहीं डरा, वह भीरु था?
दोनों भीरु हो सकते हैं।
प्रश्नः दोनों कैसे भीरु हो सकते हैं, वह कैसे भीरु है जो कहता है मैं फांसी पर चढ़ने को तैयार हूं?
इसे थोड़ा समझें, इसे थोड़ा समझें। मनोविज्ञान की कुछ समझ नही है आपको थोड़ी भी।
नहीं, मैंने मनोविज्ञान आई डिवोटेड थर्टी ईयर स्कूल... साइकोलॉजी।
तीन सौ साल करें तो भी नहीं है।
तो फिर कैसे आता है... आपको साइकोलॉजी ज्ञात है, मुझे ज्ञात नहीं।
न, न, इसका कारण क्या है। कारण इसका यह है कि हमारी जो मान्यताएं हैं इस मुल्क में वे सभी गैर-मुल्क की हैं।
देखो, विषयान्तर्गत बात... धीरता की तरफ से निर्भयता की... अश्लील दृष्टांत कहते हैं।
मैं उसी की बात कर रहा हूं, मैं उसी की, मैं उसी की, वह अश्लील है इसलिए कि दिमाग काम नहीं...
जो गांधी की आप बातें नब्बे साल का आदमी...
उसे सुने तो, उसे सुने तो, समझे तो अगर अश्लील कह देते हैं...
अस्सी साल के आदमी के अंदर यह बात हो कैसे सकती है?
चालीस, इसमें कोई सवाल नहीं है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
कैसे कठिनाई नहीं है?
आपको निर्णय करना होगा गांधी से दृढ़ और गांधी से धीर आदमी दुनिया में निर्भय आदमी... तुलना करेंगे इस बात आप प्रमाण दीजिए।
हां, हां, प्रमाण, तो मैं बात करूंगा, तो मैं बात कर लेता हूं।
आपने कहा, आठ सौ साल आदमी के भीतर हो सकते हैं।
नहीं हो सकते यह बात।
आदमी की उम्र से सेक्स को कोई संबंध ही नहीं, बल्कि सच यह है आदमी जितना कमजोर होता जाता है उतना सेक्सुअल होता जाता है। उसके समझने की कोशिश करें। मेरी बात मान लें, यह सवाल ही नहीं है।
तो फिर बीमार सेक्सुअल होना चाहिए।
बीमार बहुत सेक्सुअल होता है, स्वस्थ आदमी कम सेक्सुअल होता है। मेरी बातें थोड़ी समझें, मेरी बातें मानने की जरूरत कुछ भी नहीं हैं। बीमार आदमी जितना अस्वस्थ आदमी है उतना रुग्ण आदमी...
इसका क्या उत्तर है आपके पास जो अहिंसा का उपदेशक है महावीर स्वामी हैं।
महावीर को अलग लेंगे।
क्यों, कैसे अलग लेंगे?
इसलिए अलग लूंगा कि मुझे उनका...
अलग कैसे लेगें... आप उसका उत्तर ठीक दीजिए आपका... नहीं आप गलत हैं बुद्ध उपदेशक है अहिंसा का।
बुद्ध-वुद्ध से मुझे कोई मतलब नहीं, मैं महात्मा गांधी की बात कर रहा हूं। अभी, समझे न? बुद्ध चुल्हे में जाए, मुझे कुछ लेना-देना नहीं। मैं तो यही कह रहा हूं न, मैं यह कह रहा हूं हिंसा का मेरा अर्थ है दूसरे को जबरदस्ती दबाने की कोशिश। मेरी बात समझ रहे हैं? कोअर्सन। दूसरे को दबाने की कोशिश हिंसा है।
आपको कभी दबाया था उन्होंने?
नहीं, नहीं, यह उनका सवाल नहीं है दूसरे का, मेरे को दबाने को थोड़े ही कह रहा हूं। मुझे दबाने की थोड़े ही कह रहा हूं।
तो और आदमी... दबाया था उन्होंने।
जिंदगी, जिंदगी भर गांधी----
उसने करोड़ों अछूतों को और बेचारों को निर्भय कर दिया।
आप जो मानते हैं उसे मानते रहें, उससे कोई झंझट नहीं है। उससे कोई झंझट नहीं है। जो मैं कह रहा हूं उसे सुन लें, सोचें गलत हो फेंक दें, खत्म हो गई बात। झंझट नहीं है। कोअर्सन आदमी को दबाने की प्रवृत्ति बड़े रास्ते लेती है।
प्रश्नः देखो, आप तो फ्रायड के शिष्य हैं...
फ्रायड से क्या लेना मुझे।
अगर फ्रायड ने कह दिया है कि हां जो आदमी किसी चीज को दबाता है उसके अंदर बहुत प्रवृत्तियां होती हैं, और कोअर्सन करना होता है, उसकी निशानी होती है कि उसके अंदर वह चीज है। सब जगह थोड़ी होती है, तब तो बुद्ध और महावीर और...
सौ में से निन्यानबे के बाबत फ्रायड सही है। उसमें से सौ में से निन्यानबे के बाबत।
हां, वह मैंने कह दिया कि आप फ्रायड के शिष्य हैं।
मैं किसी का शिष्य नहीं हूं, क्योंकि फ्रायड अपने बाबत भी इसी मामले को लेकर भूला हुआ है।
तो इसीलिए फ्रायड ने सारी फिलासफी का विकास किया है?
गांधी महात्मा हैं या नहीं यह अपनी-अपनी मौज है मानने की, गांधी महापुरुष हैं या नहीं, यह भी अपनी-अपनी मौज है मानने की। इसका कोई ठेका नहीं है, कोई किसी पर थोप नहीं सकता कि कौन महात्मा है, कौन नहीं है। फिर मैं जो कहता हूं, वह सही है या गलत है, इसे सोचें इसमें जल्दी क्या है? गलत हो सकता है, इसमें क्या झगड़े की बात है। जब गांधी को मैं गलत कह सकता हूं, तो मुझे आप गलत क्यों नहीं कह सकते, इसमें कौन सी झगड़े की बात है? इसके कोई झगड़ा नहीं है। कहना सिर्फ इतना है कि जो मैं कर रहा हूं उसे थोड़ा निष्पक्ष मन से सोचने की कोशिश करें। सोचने की भर कोशिश करें।
आपकी बात को ही हम सोचें जो इतना महापुरुष था उसने... जिसकी दुनिया महापुरुष मानती है, उसकी बात को सोचें ही न हम?
उसको भी सोचो न, मैं कहां मना कर रहा हूं।
उसकी कहीं सर्कल को तो आप रांग कहते हैं?
आपको मैं कहा मना कर रहा हूं।
विचारधारा ही रांग थी, गलत थी, आप ऐसा कैसे...
उसको मैं कहा, मैं कहां मना कर रहा हूं कि उसको मत सोचें...
आपकी बात स्वतः प्रमाण हैं।
यह तो कह कहां रहा हूं।
वेद तो जो है न और शास्त्र हैं और महावीर का कहा हुआ जितना जैन-शास्त्र... शास्त्र हैं सारे गलत हैं, रामचंद्र जी भी गलत थे।
अगली बार इस पर बात करेंगे। और गलत है इतना मैं कहे जाता हूं, इतना आप सोचना।
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