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रविवार, 2 दिसंबर 2018

सहज मिले अविनाशी-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

जीवन में तीव्रता


(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

इस्लाम और क्रिश्चएनिटी दोनों जो नहीं मानते हैं, नहीं मानने का भी कारण है, ऐसा नहीं कि नहीं जानते, इस्लाम भी जानता है कि रि-इनकार्नेशन है, क्रिश्चएनिटी भी जानती है। लेकिन मानते नहीं हैं। और न मानने का कारण समझ लें, तो फिर मानने का ही खयाल रह जाता है। जिन-जिन कौमों ने यह मान लिया कि फिर से जन्म होगा, पुनर्जन्म होगा, री-इनकारनेशन होगा; उन-उन कौमों की जीवन की गति क्षीण हो गई। जीवन का रस भी चला गया, जीवन में तेजी भी कम हो गई। अगर यह भरोसा हो जाए कि मुझे कभी मरना ही नहीं है, तो मेरे जीने की इंटेंसिटी फौरन कम हो जाएगी। वह जो तीव्रता होनी चाहिए जीवन की वह... तत्काल क्षीण हो जाएगी। अगर ऐसा कुछ हो कि मैं मर ही न सकूंगा, तो जीने का सारा मजा चला जाता है।

अगर यह पक्का हो जाए कि मर-मर कर भी मैं पैदा होता रहूंगा और मरने का कोई उपाय नहीं है, तो जिंदगी इतनी फिजूल मालूम होने लगेगी जिसका कोई हिसाब नहीं है। जीवन का सारा अर्थ मृत्यु की संभावना में छिपा है। क्योंकि मुझे मरना है, इसलिए मुझे जीना पड़ता है। क्योंकि हम मरेंगे इसलिए जीने का एक आनंद है और एक रस है। क्योंकि वहां मौत खड़ी है, इसलिए जीवन को खोया नहीं जा सकता।


यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया की सारी प्रगति री-इनकारनेशन मानने वाले मुल्कों में नहीं हुई। उन मुल्कों में हुई है, जहां उन्हें खयाल है कि एक ही जिंदगी है और कल खत्म हो जाने वाली है, और कल का भी पक्का भरोसा नहीं है। आज भी खत्म हो सकती है और आखिरी। इसलिए एक-एक क्षण, मूमेंटम हैं, और एक-एक क्षण को लौटाया नहीं जा सकता। इसलिए खोया कि खोया, इसे जी ही लेना, इसे पूरा निचोड़ लेना है।
जिन दिमागों में यह खयाल बैठ गया कि जिंदगी एक है, और उसके दोहरने का कोई उपाय नहीं है, वे जी भर कर जी लेते हैं, जीना ही पड़ेगा। क्योंकि अगर मैं फिर पक्का पता नहीं कि इसके बाद दुबारा मैं कभी आपसे बात न कर सकूंगा, तो बात कर लूं, तो फिर जी भरकर कर लूं। इससे परिणाम हुए, इस आस्था से यह परिणाम हुआ कि पश्चिम में एक तीव्रता जीवन की, भोगने की, रस की, कुछ भी छूट न जाए, एक क्षण भी हाथ से, इसकी दौड़ पैदा हुई। इससे सारा विज्ञान निकल सका। इससे सारी हिस्ट्री निकली, इससे पहली कांशसनेस आई, इसलिए पश्चिम हिस्ट्री लिख सका, भारत कोई हिस्ट्री नहीं लिख सका। क्योंकि हमारा खयाल यह है कि जो हुआ है, वह होता रहेगा। उसे लिखने की भी क्या जरूरत है? अगर कल सांझ भी तुम्हें यहां आना है, परसो सांझ भी आना है, तो फिर उसका रिकॉर्ड रखने की क्या जरूरत है? कि तुम एक दफा और आए हो, हजार दफा आए हैं। तो भारत में इतिहास बिल्कुल पैदा नहीं हुआ।

प्रश्नः इसी शरीर में तो नहीं आते न----(ध्वनी मुद्रण स्पष्ट नहीं है)

तो इससे कुछ फायदे हुए, इस खयाल से कि जिंदगी एक है, दुबारा नहीं लौटने वाली। कुछ इसके नुकसान हुए। बड़ा नुकसान तो यह हुआ कि जो क्षुद्रतम है, वह बहुत महत्वपूर्ण हो गया। जो अति साधारण है वह भी असाधारण मालूम होने लगा; क्योंकि अतिसाधारण तो अभी मिल सकता, असाधारण के लिए ठहरना होगा। जो बहुत बड़ा है उसकी कल तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, जो बहुत क्षुद्र है अभी खरीदा जा सकता है, इसी वक्त खरीदा जा सकता है। अगर कल का कोई भरोसा नहीं है, तो जिंदगी बहुत क्षुद्र हो जाएगी। बहुत सतह पर जीने लगेगी। इनटेंसिटी तो आएगी लेकिन, सतह पर ही आएगी, डैप्थ नहीं आ सकेगी। और तब सब जीवन उथला हो गया। कुछ फायदे हुए हैं उनको, कुछ नुकसान हो गया। ऐसे कुछ नुकसान हमें हुए, कुछ फायदे हुए। नुकसान तो यह हुआ कि जिंदगी एक ड्रीम जैसी मालूम पड़ने लगी, उसमें रियलिटी न रही। बार-बार वहीं दौड़ जाना है।
बहुत बार पहले आप जन्में हैं, बहुत बार जन्मेंगे, ऐसा ही दौड़ता रहेगा, यही कथा है, यही रिपीटेशन है। अगर कोई चीज बार-बार दोहरती जाए-दोहरती चली जाए, तो एक बोरडम पैदा करती है, एक ऊब पैदा करती है। और धीरे-धीरे उसको वह अपने वश में मालूम होने लगती है, क्योंकि उसकी रियलिटी का कोई मतलब नहीं रह जाता। रियलिटी तभी है जब वह अनरिपिटेबल हो, जो दोहराया न जा सके। अगर मैंने किसी को प्रेम किया है, और वह बार-बार दोहराया जा सकता हो, तो वह प्रेम बिल्कुल ही फीका हो जाएगा। उसका अनरिपिटेबल होना, तो ये अनरिपिटेबल है, दुबारा इसे पुकारा भी नहीं जा सकता, उसी गहराई से। ये बार-बार दोहरता चला जाए, बार-बार दोहरता चला जाए, तो बहुत फीका और टेंस हो जाता है।
जिन मुल्कों को यह खयाल है कि बार-बार आत्मा जन्म ले लेगी, री-इनकारनेट होगी, होती रहेगी, होती रहेगी, होती रहेगी, उनको जिंदगी स्वप्नवत और माया और इलुजरी मालूम होने लगी। स्ट्रीट खत्म हो जाएगी, क्योंकि कहीं पहुंचना नहीं है, कहीं पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है। जो आज किया जा सकता है, वह कल भी किया जा सकता है, वह परसों भी किया जा सकता है, और कभी भी नहीं किया तब भी काफी समय शेष रहेगा। वह किया जा सकेगा। उसमें कोई जल्दी नहीं है। इसलिए टाइम सेंस पैदा नहीं होगा। इसलिए भारत जैसे मुल्कों में समय का कोई बोध नहीं रहा। इसलिए कोई त्वरा भी नहीं है। अगर मैं आपसे कहता हूं कि सांझ मिलने आऊं गा, तो फिर ऐसा नहीं है कि आऊंगा ही। इसकी कोई जल्दी नहीं है। यह टाला जा सकता है। यह कोई... जो अभी भरनी ही है, यह फिर भरी जा सकती है। अनंत जन्म पड़े हैं जिसमें हम इसको पूरा कर सकें।
यह तो नुकसान हुआ लेकिन एक फायदा भी हुआ। और फायदा यह हुआ कि जिन कामों के लिए बहुत धीरज की जरूरत है, बहुत धीरज की जरूरत है, जैसे कि अगर अजंता बनाना है, ऐलोरा बनाना है, जिनमें कई पीढ़ियां काम करेंगी; ताजमहल बनाना है, इसमें भी कई पीढ़ियां काम करेंगी। कोई ऐसी चीज बनानी है जिसमें जन्मों-जन्म की मेहनत लगेगी, वह हमारी करने की क्षमता बढ़ गई। हम प्रतीक्षा कर सकते हैं, हम धैर्य रख सकते हैं। ये इनकी, इनकी क्षमता नहीं रही।
ये दोनों धारणाओं के फायदे और नुकसान हुए हैं। और ये दोनों धारणाएं ये हैं, असली बात दोनों में नहीं है। ये दोनों कंसेप्ट हैं। ये जिंदगी को देखने के दो ढंग नहीं, बल्कि अपने फायदे और नुकसान हैं। और मेरे हिसाब में दोनों ही चुनने योग्य नहीं है। दोनों अधूरे हैं, सच्चाई बिल्कुल और है, और तीसरी है। और उस सच्चाई पर हमने ये दो सिद्धांत बैठाए हुए हैं। ... दो सिद्धांत हो सकते थे।
सच्चाई तीसरी है, सच्चाई यह है कि जो तो तुम हो, तुम तो मर ही जाओगे। तुम तो मर ही जाओगे। तुम में से तो कुछ भी बचने वाला नहीं है। लेकिन फिर भी तुम नहीं मर जाओगे, कुछ बचेगा, जिसका तुम्हें पता ही नहीं है। जो तुममें है। मेरी अपनी समझ है वह यह है कि व्यक्ति की भांति जो मैं आज हूं, वह तो कभी नहीं बचूंगा। मरने के बाद नहीं बचूंगा, कल भी नहीं बचूंगा। मरना तो बहुत दूर है। जो मैं आज हूं वह मैं कल भी नहीं बचूंगा। जैसे गंगा का बहुत पानी बह गया होगा, ऐसे कल मैं भी बह गया होऊंगा। सिर्फ शक्ल पुरानी रह जाएगी, ढांचा पुराना रह जाएगा, गंगा के पास कल भी हम जाकर खड़े हुए थे, आज भी जाकर खड़े होंगे तो लगता है वही गंगा बह रही है। कहां है वह पानी? कहां है वह किनारा? कहां है वह पक्षी? न वह पक्षी हैं उस किनारे पर, न वृक्ष वह रहे, न मालूम कितने पत्ते छड़ गए, न मालूम कितने नये पत्ते आ गए, न वह पानी है, न वह रेत है, सब बह गया, सब बदल गया। लेकिन किनारे पर जाकर भ्रम पैदा होता है कि कल जिस गंगा के किनारे आए थे, वहीं फिर आ गए हैं।
एक दिया हम सांझ को जलाते हैं और सुबह कहते हैं उसी को बुझा रहे हैं। कैसे बुझाओगे उसको? वह दिया तो रात भर बुझता रहा है। रात भर जलता रहा है। रात भर उसमें लौ उठती रही। सांझ जिसे जलाया था, उसे हम सुबह नहीं बुझा सकते। इसलिए जलाया नहीं था कि बुझ गया। जिसे हम सुबह बुझाते हैं, वह इसी श्रृंखला में हैं, वही नहीं है--उसी सीरीज का हिस्सा है लेकिन वही नहीं है, वह इनडिविजुअल... के सांझ हमने शुरू की थी, वह तो कभी की धुआं हो गई। वह उस सांझ के साथ ही विदा हो गई, जिस सांझ हमने उसको जलाया था। लेकिन हम भी वह नहीं, जिसने सांझ को दिया जलाया था। रात भर में हमारी भी ज्योति बदलती रही है। तो न तो दिया सुबह है, न बनाने वाला, न जलाने वाला, न वह सांझ जब जलाया गया था, सब बदल गया है। तो है जिंदगी कहां, सब मर जाएंगे?
इस मामले में क्रिश्चएनिटी और इस्लाम बिल्कुल सच कहते हैं, उन्होंने इसी पहलू को जोर से पकड़ा है, इसी पहलू को जोर से पकड़ा है, इसलिए... है कि तुम मर ही जाओगे, तुम्हारा दूसरा जन्म नहीं है। और यह सच है। इसमें जरा भी झूठ नहीं है। ये उस वक्त मरेंगे ये तो दूर हैं, मैं कह रहा हूं, हर मोमेंट हम मर रहे हैं। हमारा किसी मोमेंट में रि-इनकार्नेशन नहीं है। वह आदमी मर जाता है। और पूरे वक्त मरता रहता है। जिसको हम जिदंगी कहते हैं, वह सतत मरने की प्रक्रिया का नाम है। हम चौबीस घंटे मर रहे हैं, और हो रहे हैं, मर रहे हैं और हो रहे हैं, हम लिख रहे हैं और बन रहे हैं।
जिसें हम जिंदगी कहते हैं कि फिक्स्ड एंटायटी नहीं है प्रोसेस है, रिवर लाइफ है, जीवन नदी की तरह बहने का नाम है। इस बात को बौद्धों ने बहुत ठीक तरह से पकड़ लिया है इस सत्य को। इसलिए बुद्ध यह कहते हैं कि यह भी मत कहो कि कोई है, वे कहते हैं, सब चीजें हो रही हैं। होने की हालत में तो कोई भी चीज नहीं है। जैसे मैं कहूं कल्याण जी हैं, तो बुद्ध कहेंगे कल्याण जी हो रहे हैं, हैं की स्थिति में तो कभी भी नहीं हैं, एक क्षण भी। ऐसा कोई भी क्षण नहीं जब हम कह सके कि कोई चीज है। क्योंकि है का मतलब होगा ठहरी, स्टेटिक। इसलिए जिन मुल्कों में बुद्ध धर्म का प्रभाव बहुत गहरा है, और भाषायें बुद्ध धर्म के बाद बनीं, उन मुल्कों की भाषा में उस समय की ट्रांसलेशन नहीं है, कोई अनुवाद नहीं है।
जब पहली दफा बाइबिल का अनुवाद बर्मी भाषा में हुआ, तो बड़ी मुश्किल हो गई। क्योंकि गॉड इ.ज को ट्रांसलेट करना है तो उसका मतलब था गॉड इ.ज बीकमिंग। जो कि कोई ईश्वरवादी नहीं मान सकता। क्योंकि कम से कम ईश्वर तो है, कहें, उसमें तो बीकमिंग नहीं हो सकती। वह तो अगर हो रहा है तो इसका मतलब अपूर्ण है। ... हो रहा है। तो बाइबिल का अनुवाद बहुत दिनों तक रोकना पड़ा था, क्योंकि बर्मीज में तो लिखते से ही उसका मतलब यह हो रहा था कि ईश्वर हो रहा है। है का जो अर्थ है, वह हो रहा है। है के लिए कोई समानार्थी शब्द नहीं है।
तो एक तो जिंदगी का यह पहलू है कि प्रतिपल होता जा रहा है, उसी को हम अपनी इंडिविजुअलिटी या पर्सनेलिटी कहते हैं। उसको ही, जो प्रतिपल बदल रहा है। उसको ही हम अपना व्यक्तित्व कहते हैं, ये तो मर ही जाएगा। तो जिसे तुम जानते हो कि तुम हो, उसका तो कोई रिइंकार्नेशन नहीं है। यहां तो क्रिश्चएनिटी, और इस्लाम बिल्कुल ठीक इसी पहलू को ठीक से कह रहे हैं। लेकिन यह आधा हिस्सा है। यह पूरा हिस्सा नहीं है।
हमारे भीतर कुछ ऐसा भी है, जो कभी भी नहीं बदलता है। लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं है। वह हमारी पर्सनेलिटी का हिस्सा ही नहीं कहना चाहिए। करीब-करीब ऐसा मामला है, कि कोई भी चीज अगर बदल रही हो, तो उसके केंद्र पर कोई चीज होनी चाहिए जो न बदलती हो, अन्यथा बदलाहट भी नहीं है। जैसे बैलगाड़ी का चाक चल रहा है, जब चाक चल रहा है तो कील खड़ी रह जाती है, अगर वह कील भी चलने लगे तो चाक नहीं चल सकेगा। सारी मूवमेंट के भीतर एक अनमूवेबल चाहिए नहीं तो मूवमेंट नहीं हो सकती। मूवमेंट होगा किसके ऊपर? मूवमेंट होगा किसमें? मूवमेंट होगा कैसे?
 अगर आप दौड़ रहे हैं तो आपके भीतर कोई खड़ा हुआ चाहिए। अन्यथा आप दौड़ न सकेंगे। अगर आपके भीतर समथिंग स्टैंडिंग नहीं है, तो आप दौड़ नहीं सकते। क्योंकि दौड़ेगा कौन? दौड़ेंगे कैसे? तो हर दौड़ के बीच में कोई खड़ा हुआ चाहिए, और हर परिवर्तन के बीच में कोई अपरिवर्तित चाहिए। इसको अगर ठीक से समझें, तो हर मृत्यु में कुछ जीवित चाहिए, नहीं तो मरेगा कौन? मृत्यु अकेली घटित नहीं हो सकती। मृत्यु तो शून्य नहीं हो सकती, मृत्यु के होने के लिए भी कोई जीवंत चाहिए। मृत्यु घटेगी तो इसका मतलब है, भीतर कोई जीवित रहना ही चाहिए, नहीं तो मृत्यु घटेगी किस पर? मृत्यु होगी कहां? जैसे दौड़ने के बीच कोई खड़ा हुआ होगा, परिवर्तन के बीच कुछ अपरिवर्तित होगा, चलते हुए चाक के बीच कोई कील ठहरी हुई होगी।
कभी तेज बवंडर उठता है, आंधी उठती है, तो बहुत मजेदार घटना है। इतने जोर का बवंडर उठता है कि सारी धूल उड़ जाती है, लेकिन बीच में एक सेंटर मिल जाएगा, बवंडर चला जाए तब आप इसको खोजिए, जहां कि रेत का कण भी नहीं हिला है। सारा बवंडर चारों तरफ घूम गया है। असल में वही उसकी कील है, उसके बिना वह बवंडर नहीं हो सकता। इसी कील पर वह घूम पाता है। वह हवा का बवंडर भी बिना कील के नहीं घूम सकता, उसको भी कील चाहिए।
तो दूसरा हिस्सा है हमारे भीतर जो कील है, और एक हिस्सा है जो चाक है। बड़े मजे की बात है कल्याण जी कि भारत में जो शब्द हम उपयोग करते हैं जगत के लिए--संसार, संसार का मतलब हैः दि व्हील। संसार शब्द का मतलब है वह जो घूम रहा है। इस शब्द का ही मतलब चाक है। यह जो आपके ध्वज पर जो चक्र बनाया गया है, मैं नहीं समझता कि आपको खयाल में है, वह बौद्धों का चक्र भी संसार का प्रतीक था। वह जो घूम रहा है। तो संसार का प्रतीक है व्हील। वह कभी नहीं ठहरा हुआ है, वह घूमता ही रहता है। लेकिन इस सब घूमने के बीच कुछ ठहरा हुआ है, जो कभी नहीं घूमता, क्योंकि उस अनघूमे के बिना यह घूमना नहीं हो सकेगा।
यह जिंदगी जो है, सब चीजों की पोलेरिटी है। यहां एक पुरुष के होने के लिए एक स्त्री होनी जरूरी हैं। यहां अंधेरा होने के लिए प्रकाश होना जरूरी है। यहां जन्म होने के लिए मृत्यु होना जरूरी है। जिंदगी ठीक पोलेरिटी है, यहां दो बिना कुछ भी नहीं हो सकता। अंधेरा नहीं हो सकता, बिना प्रकाश के। प्रकाश नहीं हो सकता, बिना अंधेरे के। जन्म नहीं हो सकता बिना मृत्यु के, मृत्यु नहीं हो सकती बिना जन्म के। एक बिगड़ी पोलेरिटी है मूवमेंट की और नॉन-मूविंग की। तो इस मुल्क में हमने उस नॉन-मूविंग पर... की जिस पर क्रिश्चएनिटी और इस्लाम ने कोई जोर नहीं दिया। हमने जोर दिया इस बात पर कि कुछ है, जो नहीं मरेगा। इसलिए री-इनकारनेशन शब्द ठीक नहीं है। यह पुनर्जन्म शब्द ठीक नहीं है, क्योंकि जो मरता ही नहीं, उसका पुनर्जन्म कैसे हो सकता है? पुनर्जन्म के लिए उसका मरना भी जरूरी है। तो इसलिए वह जिसको हम पुनर्जन्म कहते हैं, वह हमारी भ्रांति है, कुछ हमारे भीतर इटर्नल है। जिस टूल पर सब तरह के व्हील घूम जाते हैं, सब तरह के परिवर्तन आते हैं और चले जाते हैं, और फिर भी जो शेष रह जाता है। इसको हमें यह कहना कि इसका पुनर्जन्म हुआ, रि-इनकार्नेशन हुआ तो ‘रि’ शब्द ठीक नहीं हैं। क्योंकि वह खबर देता है, कोई चीज मिटी और बनी। लेकिन वह मिटता ही नहीं। इसलिए वह इटर्नल है। इसलिए उसको इटर्नल लाइफ, इसको रि-इनकार्नेशन कहना मैं पसंद नहीं करता।
तो हमारे भीतर कुछ है जो इटर्नल है। और कुछ है जो मूवमेंटल है। शरीर है मूवमेंट। शरीर ही हमारी पूरी पर्सनेलिटी है। शरीर ही पर्सनल। शरीर तो है ही, हमारा मन भी। असल में हम अपने को जो समझते हैं, वह टोटल। मेरा नाम, मेरा पद, मेरा धन, मेरा शरीर, मेरा मन, मेरा सोच-विचार, मेरे सिद्धांत, मेरा धर्म, मेरी आइडियोलॉजी, सब या जिसको भी मैं कहता हूं ‘मैं’ उससे पूरी टोटल, इस टोटेलिटी के बाहर कुछ छूट जाता है, जिसको मैंने कभी मैं कहा ही नहीं। जिसको मैंने कभी जाना ही नहीं। वह बचता है। बचता कहना ठीक नहीं क्योंकि वह सदा बचा ही हुआ है। वह कभी मिटता नहीं, बदलता नहीं। उससे हमारी कोई पहचान नहीं है।
यह मनुष्य का दोहरा व्यक्तित्व है। इस दोहरे व्यक्तित्व में एक पर जोर दिया इस तरफ के लोगों ने, दूसरे पर जोर दिया दूसरे हिस्से के लोगों ने। वे दोनों जोर अधूरे हैं इन पार्ट्स पर हैं, सपलिमेंटरी। इसलिए दोनों ने कुछ फायदे पहुंचाए, दोनों ने कुछ नुकसान किए हैं। मैं टोटल पर जब देखता हूं, तो मुझे लगता है ये दोनों ही सही हैं, एक साथ इनमें मैं विरोध नहीं देखता। इसलिए मेरी बड़ी मुसीबत है। मैं विरोध नहीं देखता। मैं हिंदू और इस्लाम की बुनियादी धारणा में कोई विरोध नहीं देखता। इतना ही देखता हूं कि इनफेसिस में फर्क है। और अगर हमें यह पूरा दिखाई पड़ जाए, तो तुम यह कह सकोगे कि तुम्हारे भीतर एक है जो मरेगा, मर ही रहा है, मरेगा कहना ठीक नहीं है, मर ही रहा है। और एक है जो नहीं मरेगा, नहीं मरेगा कहना ठीक नहीं, जो जी ही रहा है। एक है हमारे भीतर जो सादा जीवंत है और एक है हमारे भीतर जो सदा मर रहा है। और ये दोनों अनिवार्य हैं इस जीवन में। एक एंफेसिस से फर्क पड़ जाएगा, तो स्वभावतः जब कोई मरे, तब ये सब खयाल मन में उठने शुरू हो जाते हैं। और बड़ी तरकीबें मेरे खयाल में हैं उसमें।
एक तो जब भी कोई मरता है तो बहुत गहरे तल पर हमें अपने मरने का डर पैदा हो जाता है। शायद ही हम किसी के मरने से दुखी होते हों! असल में मरना किसी का हमें बहुत गहरे उदास कर जाता है, वह हमारे मरने की खबर ले आता है। बहुत गहरे में, बहुत गहरे में हमें उदासी जो पकड़ती है, वह किसी के मरने की नहीं है। इसलिए जो हमारे जितने निकट है, उतनी ज्यादा उदासी पकड़ती है, क्योंकि जो हमारे जितना निकट है, उतना ज्यादा गहरे में हमारे मरने की खबर लाती है। अगर कोई बहुत आत्मीय है तो एक अर्थों में वह हमारा हिस्सा ही होगा। जब वह मरता है तो हमारा एक हिस्सा ही मरता है। तो बहुत ज्यादा चोट लगती है। जितने फासले पर कोई मरता है, उतनी कम चोट लाता है। बहुत फासले पर कोई मरता है तो एक घटना भर होती है कि कोई मर गया है। हम कह कर निपट जाते हैं कि मरते ही रहते हैं।
तो जितनी हमारी परिधि के पास की घटना घटेगी, उतना ही हमें अपने मरने की खबर हो जाती है। वह उदासी बहुत गहरे में सदा अपने मरने की है। और इस उदासी से बचने के लिए हम सोचना शुरू कर देते हैं कि यह रि-इनकार्नेशन होता है कि नहीं होता। यह हम अपना भरोसा वापस कायम करना चाहते हैं कि नहीं, मरेंगे नहीं। हम इस तरह के सिद्धांतों की खोज करते हैं जो हमें विश्वास दिलाते हैं, आश्वस्त कर दें कि नहीं, तुम नहीं मरोगे। और मरता तो सिर्फ शरीर है, आत्मा तो नहीं मरती है।
ये सारी की सारी बातचीत हम अपने मृत्यु के भय को भुलाने के लिए करना शुरू कर देते हैं। और यह बड़े मजे की बात है कि हमारा मुल्क जो है ये आत्मा को अमर मानता है, लेकिन हमसे ज्यादा मरने से डरने वाली कौम नहीं है दुनिया में। यह जरा सोचने जैसा मामला है। ये बड़ा अजीब सा मामला है। हमको तो डरना ही नहीं चाहिए मौत से। हमको तो डरना ही नहीं चाहिए, इस मुल्क में जो भी हैं उनको। हमको तो मौत आकर कर ही नहीं सकती कुछ क्योंकि हम मरते ही नहीं। लेकिन हम मौत से जितने डरते हैं, उतना दुनिया में कोई नहीं डरता। और बड़े मजे कि बात है कि जो लोग कहते हैं कि एक दफा मरने के बाद फिर पैदा ही नहीं होना, वो लोग मौत के मामले में ज्यादा निर्भय हैं। जिनको दुबारा लौटने का कोई पक्का नहीं है, वे अपनी जिंदगी को दांव पर लगा पाते हैं, हमको अपने लौटने का बिल्कुल सुनिश्चित है, हम दांव पर बिल्कुल नहीं लगा पाते। इस में जरूर कहीं कोई मजे की बात है। होना तो उलटा चाहिए था, होना तो यह चाहिए था कि पश्चिम डर गया होता, इस्लाम डर गया होता, सिख तो डर गए होते मरने से, वे बिल्कुल नहीं डरे। हिंदु डरे हुए हैं, जैन डरे हुए हैं। बौद्ध डरे है, इनके डरने का कोई हिसाब नहीं है। कारण क्या है? तो मुझे ऐसा लगता है कि वह जो हमारे मरने का डर है, उसी को छिपाने के लिए हम सिद्धांतों को पक ड़ते हैं। ये सिद्धांत हमारा अनुभव नहीं है। वह किसी बुद्ध का अनुभव होगा। किसी कृष्ण का अनुभव होगा, उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यह हमारा अनुभव नहीं है। यह हमारा अनुभव नहीं है कि हम नहीं मरेंगे। यह हमारी सुनी हुई बात है, और हमने पकड़ी है, मरने के डर को बचाने के लिए। यह हमारा सेफ्टी मेजर है, जिससे हम तरकीब निकाल रहे हैं कि हम पक्के आश्वस्त हो जाएं कि नहीं, मरना नहीं है, मरेंगे नहीं, शरीर ही मरेगा, आश्वासन मिल जाए।
वो क्योंकि मृत्यु के भय को हमने भीतर छिपाया है सिद्धांत के, सिद्धांत से कुछ फर्क नहीं पड़ता है बहुत। वह मृत्यु का भय अपनी जगह खड़ा है। क्योंकि एक दफा पश्चिम में मान लिया गया कि एक ही बार मरना है। एक बड़ी हिम्मत पैदा हुई इस बात से, इस बात से बड़ी हिम्मत पैदा हुई, कमजोरी नहीं आई इस बात से। जब मरना ही एक बार है, वह कल या परसों या कभी भी हो एक बार मरना है। और जब मरना ही है, तो फिर मरने से डरना क्या।
अब एक सुनिश्चित तथ्य है और उसके बाद कहीं लौटना नहीं है। और वह कल भी आ सकता है, वह परसों भी आ सकता है। और क्योंकि आगे कोई गति ही नहीं है, इसलिए उसका भय लेकर क्या फायदा? यह बहुत मजे का मामला है कि युद्ध के मैदान पर सिपाही जाता है, तो जब तक युद्ध के मैदान पर नहीं पहुंचता, तब तक डरा रहता है। जैसे-जैसे युद्ध के मैदान तक पहुंचता है, तो बस। मौत इतनी साफ हो जाती है कि दिखाई पड़ने लगती है, फिर उसे स्वीकार करने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह जाता। साफ है कि मरना है। अब इसमें सोच-विचार का मौका नहीं रह जाता, जब तक मरने से बचने का उपाय है, तब तक डर है। जब एक दफा साफ मौत सामने खड़ी हो जाए तो वह वहीं बैठ कर ताश भी खेलता रहता है और पास में बम भी गिरते रहते हैं। वहीं बैठ कर वह खाना भी खाता है और उसके मित्र की लाश भी पड़ी रहती है। फिर उसे मौत नहीं छूती। एक दफा तय हो जाए। वह तो सब तय है, फिर आप करिएगा क्या? करने का कोई उपाय नहीं रह गया।
तो जिन मुल्कों ने यह तय करके मान रखा है कि एक ही जिंदगी है, वह मौत से भयभीत नहीं होते। सारी दुनिया को वे जीत सकें उसके पीछे राज यह था कि धीरे-धीरे... हम गुरु हैं, दुनिया में फैल नहीं सके, जगह-जगह, क्योंकि उन्हें सदा यह था कि बच सकते हैं, बच ही सकते हैं, बच ही सकते हैं, बचते जाएंगे। फिर क्यों व्यर्थ ही झंझट में पड़ना। एक बचाव और एक फीयर और एक धर्म; और ये दोनों ही सिद्धांतों के, दोनों के ही खतरे और दोनों से हानियां हैं। जो आदमी मौत से नहीं डरेगा, वह मारने से भी नहीं डरेगा, यह भी खयाल रखना। तो दोनों ईसाईयों और मुसलमानों ने जितनी हत्याएं की, दुनिया में किसी ने नहीं की। अपने ही मरने से नहीं डरना, तो कल्याण जी को मारने में कौन सी दिक्कत है। इसमें अड़चन क्या है? इसमें कोई कठिनाई नहीं। इसे सरलता से किया जा सकता है। हम अगर मरने से डरें तो हम मारने से भी डर गए। हम चींटी पर भी पांव फूंक कर रखने लगेंगे, कहीं यह मर न जाए। तो इसके परिणाम होने वाले हैं।
उन दोनों को मैं मानता हूं, उन दोनों के हानियां और लाभ हैं। मगर दोनों अधूरे सिद्धांत हैं, पूरे नहीं हैं। और जब हम उनको उठाते हैं, तब हम उनको वस्तुतः हमारे भीतर कोई एक्झिस्टेंशियल इंक्वायरी नहीं उठती है, एक्सीडेंटल इंक्वायरी उठती है। जैसे मरघट पर लोग जाते हैं तो बात कर लेते हैं, कब्रिस्तान जाते हैं तो बात कर लेते हैं, वह कब्रिस्तान तो सिर्फ कब्रों को भूलने के लिए बात कर रहे हैं, और मरघट पर बात कर रहे हैं, आत्मा और परमात्मा के होने की। अब जो आदमी मर गया है, वह याद में न रहे, घर आते-आते उसको भूल जाएं। उससे छुटकारा हो जाए।
अभी मैं कल दिल्ली था तो एक मित्र आया, उसकी पत्नी मर गई थी। तो मुझसे बोले कि बहुत दुख में हूं, साल भर से बहुत परेशान हूं। आप मुझे बताइए आत्मा अमर तो है? मैंने कहा, अब आपकी पत्नी को सुख-दुख से छूटने के लिए आत्मा को भी अमर होना पड़ेगा। अगर आपको अपनी पत्नी के मरने के दुख से छूटना है, तो उसकी आत्मा को अमर होना पड़ेगा क्या। वह बोले कि मेरा मन कहता है फिर भी अगर आत्मा अमर है, तो पत्नी का जो दुख है, उसमें कुछ शांति मिल जाए। अगर आत्मा अमर है तो थोड़ी राहत मिले। कि चल भई मर ही नहीं गई, कहीं होगी।
नहीं, मरने के बाद कोई पत्नी से नहीं डरता है, सिर्फ जिंदा पत्नी से, जिंदा पत्नी से डर जरूर होता है। मरने के बाद तो कोई पत्नी से नहीं डरता। और मरने के बाद पत्नी बड़ी प्रिय हो जाती है। जिंदा रहती है, तब नहीं होती। बड़े मजे की बात है। एकदम शक्ल बदल जाती है, मौत एकदम पहलू बदल देती है। अगर कोई आदमी अच्छा लगने लगे मर कर, और जिंदा हो जाए तो फिर वह बुरा लगने लगेगा, पक्की बात है। इसलिए मरे हुए आदमी जिंदा होने की हिम्मत नहीं करते दोबारा। एक दफा आप अच्छे मान के साथ दुबारा लौटने... ।
यह जो हमें खयाल उठता है, इसकी थोड़ी खोज करनी चाहिए, हम क्यों पूछते हैं कि आत्मा अमर है? दो ही कारण हैं, एक कारण तो यह हो सकता है कि कहीं न कहीं मरने का भय है हमें। दूसरा कारण उससे भी खतरनाक है। और वह यह है कि हम जिंदगी को ठीक से जी नहीं पाते हैं। इसलिए हम पता लगाना चाहते हैं कि जिंदगी आगे भी है कि नहीं? ये जिंदगी तो हाथ से जा रही है। इस जिंदगी को तो नहीं जी पा रहे हैं। क्योंकि अभी तक तो जो भी चाहा वह हो नहीं रहा, न प्रेम कर पाते हैं, न झगड़ पाते हैं, न जी पाते हैं; कुछ भी नहीं हो पा रहा है। सब सूना-सूना है, लूट-मार और उपद्रव है। इसलिए पक्का कर लेना चाहते हैं कि रि-इनकार्नेशन और पुनर्जन्म है, फिर से जीने, और ढंग से जाने का।
इधर मेरा मानना यह है कि चाहे मृत्यु के भय से सवाल उठे, इस संबंध में, वह सिर्फ इसलिए नहीं है कि मृत्यु का चिंतन जीते जी करना, खतरनाक है। वह आपकी जिंदगी की, जिंदगी की त्वरा को मारेगा। जिंदगी की जड़ें काटेगा। जब वसंत में फूल होते हैं तब फिकर में नहीं होते कि पतझड़ होगा? इसलिए शायद फूल वसंत को पूरा भोग पाते हैं। कोई जानवर मौत के बाबत सचेत न होने की वजह से, पूरी तरह जी पाता है। जहां है, जैसा है पूरी तरह जी पाता है। आदमी आगे के सवाल उठा लेता है, जो अभी नहीं हुए। और वो अभी पूछे भी नहीं जा सकते। क्योंकि मरे बिना कोई कैसे जान सकता है कि क्या होगा? जो मर गए हैं, वो लौट कर कैसे आएंगे? जो जिंदा हैं वे पूछते रहते हैं। मरे बिना जानने का कोई पक्का उपाय नहीं कि क्या होगा? इसलिए जो सवाल मर कर हम जान ही लेंगे, उसको जिंदा रह कर हम उठाएं ही क्यों? क्यों? क्योंकि मामला और है हम ये मृत्यु के बाबत सवाल नहीं पूछ रहे हैं, असल में सवाल जिंदगी के बाबत पूछते हैं कि जिंदगी फिर होगी कि नहीं होगी? यह जिंदगी फिर जिंदगी जैसी नहीं मालूम होती। लेकिन अगर मुझे फिर से भी जिदंगी मिले तो, करीब-करीब मैं ऐसे ही शुरू करूंगा जैसे, मैंने यह की थी, नहीं आऊंगा। तो मैं यही शुरू करने वाला हूं।
एक बहुत अदभुत घटना घटी, एक आदमी ने जिंदगी में आठ तलाक लिए। और हर तलाक के बाद उसने सोचा कि दूसरे ढंग की पत्नी खोज ले, लेकिन जिसको भी वह खोजकर लाया, छह महीने के भीतर उसने पाया कि पुराना हुआ, फिर पुरानी कहानी फिर दोहरने लगी। वहीं का वहीं है। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। अब की बार तो मैंने बहुत दूसरी तरह की स्त्री खोजी, लेकिन वह एक बात भूल गया कि खोजने वाला मगर अबकी बार भी वही था। फिर दूसरी स्त्री खोजेगा कैसे? आपका ढंग और होगा, आपका ढंग और होगा, लेकिन खोजने वाला क्योंकि मैं था, गहरे में, फिर दुबारा, मैं फिर वही स्त्री खोजूंगा, जो मैंने पहली दफा खोजी थी। तो वक्त लगेगा, पहली दफा भी छह-सात महीने लग गए थे, लड़ाई-झगड़े, कहा-सुनी हुई, फिर छह-सात महीने लग जाएंगे। आठ बार निरंतर, उस आदमी ने अपनी डायरी में लिखा है कि अब मैं घबरा गया हूं, अब मुझे डर है कि अगर मुझे दुबारा भी जन्म मिले जैसा हिंदु कहते हैं तो मैं शायद पत्नी बदलता रहूं। क्योंकि मैं, मेरा जो टाइप है, तो जब हम पूछते हैं, अगर जिंदगी से डरकर हम पूछ रहे हैं, कि अगला जन्म, तो बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि जीना आपको ही है। और जैसा आप आज जी रहे हैं, करीब-करीब कल वैसा ही जियेंगे। अगर जीना ही है तो आज बदलने की जरूरत है।
तो मेरा मानना यह है कि मरने के पहले ठीक से जी लेता है, पूरी तरह जी लेता है, जीवन को कोई छोड़ नहीं देता, जीने के पूरे रस को जान लेता है, अर्थ को जान लेता है। वह मरने में उसको भी पहचान लेता है, जो नहीं मरता है। क्योंकि तब वह तो मरने की प्रक्रिया को भी पूरी तरह जीता है, मरना भी एक घटना है, उसे भी जीना पड़ता है। और हम क्योंकि जिंदगी को नहीं जी पाए तो मरने को कैसे जीएंगे, वह तो बहुत मुश्किल पड़ जाएगा। जिंदगी ही नहीं जी पाए, तो मरना कैसे जीएंगे? वह तो बहुत मुश्किल पड़ने वाला है।
सुकरात को जिस दिन जहर दिया, वह आदमी इतना आतुर था, इतना उत्सुक था, कि बाहर जहर घोटने वाला जहर घोट रहा है, सुकरात बाहर जा-जा कर पूछ रहा है, कितनी देर? बड़ी देर लगा दी! उस जहर घोटने वाले ने कहा मैं देर लगा रहा हूं, नासमझ आदमी! नहीं तो मैं कभी का घोट देता। तू और थोड़ी देर जिंदगी में रह ले। तू इतना भला आदमी है कि मेरे हाथ भी कंपते हैं, तुझे क्या जल्दी पड़ी है। सुकरात ने कहा, जिंदगी तो मैंने बहुत जी, फिर मैं मौत को भी जीकर देखना चाहता हूं, फिर अंधेरा भी हुआ जाता है, सूरज उतरने के पहले मैं रोशनी में मरना चाहता हूं, मैं सब देखता हुआ मरना चाहता हूं क्या-क्या हो रहा है, मेरे चारों तरफ क्या हो रहा है? मेरे ऊपर क्या हो रहा है, मेरे भीतर क्या हो रहा है? तू जरा जल्दी कर, सूरज डूबने के करीब है। और ये जो आदमी है... फिर उसको जहर दे दिया गया, उसके चारों तरफ उसके मित्र रोने लगे, तो वह उनसे कहता है कि तुम क्यों रो रहे हो? तुम्हें एक मौका मिला है, एक आदमी को मरते हुए देखने का। क्योंकि आमतौर से आदमी बिना खबर किए मर जाते हैं, मैं खबर से मर रहा हूं। देखो तुम यह मौका मत चूको। तुम रोने में गवां दोगे। और कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम अपने मरने के लिए रो रहे हो? क्योंकि मुझे तुम कल भूल जाओगे। क्योंकि मेरी ही जिंदगी में मेरे कितने मित्र मर गए, और मरते वक्त मैंने सोचा था, उनके बिना न जी सकूंगा; फिर मैं मजे से जिया हूं।
तो मैं यह आशा नहीं रखता कि तुम मुझे याद रखो, ऐसे तुम मेरे लिए रो रहे हो, यह भी मैं नहीं सोचता हूं, मैं मर ही रहा हूं, तुम मुझे देख लो। वे रोने ही लगे, संभावना यह हुई कि रोने में वह तथ्य को देखने से बच गये। एक पर्दा डाल रहे हैं आंख पर कि यह आदमी मरते हुए न दिखाई दे। फिर सुकरात कहता है कि घुटने तक मेरे पैर मर गये हैं। लेकिन मैं पूरा का पूरा जिंदा हूं। मेरे भीतर ऐसा जरा भी नहीं लग रहा है कि मैं तो थोड़ा बहुत मर गया। यानी मेरी जो जिंदगी की फीलिंग है, जो अहसास है वह पूरा है अभी भी। हालांकि मेरे घुटने तक पैर मुझे मालूम नहीं पड़ रहे हैं। और मैं दबाता हूं तो मुझे उनका पता नहीं चलता, वे मर गए हैं। लेकिन मैं पूरा का पूरा हूं भीतर, इससे बड़ी संभावनाएं बनती हैं। सुकरात कहता है इससे बड़ी संभावनाएं बनती हैं। फिर उसकी कमर तक पैर समाप्त हो गया है, वह कहता है मेरा आधा शरीर मर गया है, लेकिन मैं अभी भी पूरा हूं। मेरे जो बोलने की सीमा है उसमें कहीं कोई कमी नहीं आई है। मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं आधा मर गया। तो मैं तुमसे कहता हूं शायद जब मैं पूरा मर जाऊं तब भी मुझे पता रहे कि मैं पूरा जिंदा हूं। क्योंकि आधा नहीं मरा, तो आधा भी कैसे मरूंगा? नीचे का आधा शरीर मर गया और मैं पूरा जिंदा हूं, तो ऊपर के आधे शरीर के मरने से मैं कैसे मर जाऊंगा? लेकिन हो सकता है तब मैं तुमसे न कह सकूं। फिर वह कहता है जब मेरे हाथ भी ढीले पड़ गए, वह कहता है अब मेरी जबान शायद आखिरी शब्द बोलेगी, क्योंकि लड़खड़ा रही है, लेकिन आखिरी शब्द मैं तुमसे यह कहता हूं कि मैं अभी उतना ही जिंदा हूं, जितना मैं कभी था। उसमें कहीं कोई भी फर्क नहीं पड़ गया है। और जो मर गया है, वह मुझे मुझसे बिल्कुल अलग मालूम पड़ रहा है। और मैं जिंदा हूं। आखिरी शब्द कि मरते हुए कि मैं जिदां हूं, इसे अगर हमने एक संयोगिक जिज्ञासा, एक्सीडेंटल इंक्वायरी बनाई तो इसका बहुत अर्थ नहीं होगा। लेकिन अगर यह एक्झिस्टेंशियल इंक्वायरी बन जाए, फिर तो बड़ा अर्थ है। यह हमारा अस्तित्व का सवाल है ऐसे तो।
 तो मैं न तो यह कहूंगा कि तुम न मरोगे, क्योंकि यह कहकर बड़ी भूल हो गई, हिंदुस्तान ने भूल कर ली। इससे जिंदगी बड़ी बेरौनक हो गई। और नहीं मरने का पक्का होने से हम करीब-करीब मरे हुए जीने लगे। ये मैं नहीं कहूंगा। मैं यह भी नहीं कहूंगा कि तुम मर ही जाओगे और कुछ न बचेगा, क्योंकि इससे पश्चिम में जिंदगी बड़ी छिछली और उथली हो गई। वह सतह पर रह गई, उसकी सारी गहराइयां खो गईं। मैं तुमसे यह कहूंगा कि तुम तो मरोगे, पक्का, पूरा। लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ और भी है, जिसका तुम्हें पता नहीं है, वह बचेगा। और तुम जैसे बहुत रूप लेगा। और तुम जैसा हर रूप पूछेगा कि मैं मरूंगा कि नहीं मारूंगा? लेकिन वह सब रूप मरेंगे। तुम जो पूछ रहे हो, वह तो मरेगा ही। इसके तो बचने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि तुमसे पहले भी तुम्हारी जगह और लोग रह गए हैं, और मर गए हैं।
एक सूफी फकीर हुआ, इब्राहीम। मैं निरंतर उसे... मुझे बहुत प्यारा आदमी है। सूफी इब्राहीम हुआ। वह तो सम्राट था, और एक छोटी सी घटना घटी जिससे वह फकीर हुआ। रात वह सोया है अपने बिस्तर पर, कुछ चिंता में हैं और सो नहीं पा रहा, जिनके पास अच्छे बिस्तर होते हैं, उनको अच्छी नींद तो मुश्किल हो जाती है। परेशान थाकरवट बदल रहा था। और बड़े मजे की बात है आदमी दो में से एक ही अफॅर्ड कर पाता है, या तो अच्छा बिस्तर या अच्छी नींद। दोनों चीजें एक साथ बहुत कम सौभाग्यशालियों को मिलती हैं। वह करवट बदल रहा है, उसको अचानक आधी रात हो गई, ऊ पर कोई उसे लगा कि छत पर कोई चलता है। वह घबड़ाया, उसने चिल्ला कर पूछा कि कौन है ऊ पर? उसने कहा कोई नहीं, तुम फिकर मत करो, आराम से सोओ, मेरा जरा ऊंट खो गया है, उसे मैं खोजता हूं। इब्राहीम ने कहा कि बड़ा पागल आदमी मालूम पड़ता है, मकानों के छप्परों पर ऊंट खोते हैं! उस आदमी ने कहाः इब्राहीम मैं न सोचता था, तू इतना बुद्धिमान है! मैंने नहीं सोचा था कि तू इतना बुद्धिमान है जो ऐसी समझ की बात कह सकेगा कि मकानों के छप्परों पर कहीं ऊंट खोते हैं? वह तो चला गया, इब्राहीम ने आदमी दौड़ाए, उसे पकड़ लाओ, उसको तो बड़ी बेचैनी हो गई थी, उसने कहा कि मैं नहीं समझता था तू इतना बुद्धिमान है।
दूसरी सुबह उसने अपने दरबार में लोगों से कहा, मुझे इसका अर्थ बताओ, उसने मुझे कहा, मैं नहीं सोचता था तू इतना बुद्धिमान है, यह मामला क्या है? इसका अर्थ क्या है? दरबारियों ने कहाः बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो आदमी रात छप्पर पर ऊंट खोजे और इस तरह की बात कहे, हमने न तो कभी छप्परों पर ऊंट खोजे, न हमने इस तरह की बात कभी कही, न हमने इस तरह की कभी बात सुनी कि कोई छप्पर पर ऊंट खोजेगा। वही आदमी बता सके तो बता सके, हम न बता सकेंगे कि इसका मतलब क्या है? रहे आप, आप सदा से बुद्धिमान हैं, उसने कहा, यह मैं नहीं सुनना चाहता। मैं यह नहीं सुनना चाहता कि मैं सदा से बुद्धिमान हूं। उस आदमी ने कहा कि मैं तो न सोचता था, तू इतना बुद्धिमान है। सोचा भी नहीं था।
तभी दरवाजे पर बहुत शोरगुल मच गया और पहरेदार किसी को रोक रहा था, और वह फकीर भीतर घुस रहा था। वह फकीर पहरेदार से कह रहा है, मुझे भीतर जाने दो, इस सराय में मैं थोड़े दिन रुकना चाहता हूं। इस धर्मशाला में। और वह सिपाही कह रहा है, यह धर्मशाला नहीं है, सराय नहीं है, राजा का महल है। उसने कहाः वह राजा कौन है? मैं उससे ही बात कर लूं। क्योंकि मैंने राजाओं में बुद्धि नहीं देखी, तो उनके पहरेदारों में बुद्धि कहां से होगी? यह उसने इतने जोर से कहा कि मैंने राजाओं में बुद्धि नहीं देखी, तो उनके पहरेदारों में बुद्धि कहां से होगी? इब्राहीम ने कहाः दौड़ो, मालूम होता है, वही आदमी है। फिर वही बुद्धि की बात, उसे ले आओ भीतर। वह आदमी भीतर आया, वह एक फकीर आदमी है, उसने आकर कहा कि मैं इस सराय में थोड़ी देर ठहर जाना चाहता हूं, वह कौन आदमी है, जिसको राजा होने का भ्रम है? मैं उससे पूछूं क्योंकि बहुत आदमी बैठे हैं। वह कौन आदमी है, जिसको राजा होने का भ्रम है? जरा उसको पूछ लूं, मैं इस धर्मशाला में रुक जाना चाहता हूं। इब्राहीम ने कहा कि अजीब पागल आदमी है, मैं सिंहासन पर बैठा हूं, मुझे देख नहीं रहा, मैं इस मकान का मालिक हूं, यह धर्मशाला नहीं है, यह कोई सराय नहीं है, यह मेरा निजी निवास है। उसने कहाः छोड़ो यह बातचीत, मैं पहले भी आया था, तब इस तख्त पर दूसरा आदमी बैठा था, वह भी यही कहता था। उससे पहले भी मैं आया था, तब एक तीसरा आदमी बैठा था, और उसने भी मुझसे यही कहा था। मैं किसका भरोसा करूं? यह मकान धर्मशाला है, क्योंकि इसके तीन मालिक तो बदलते मैं देख चुका हूं।
राजा ने कहाः नहीं, वह कोई ठहरा हुआ मुसाफिर नहीं था, मेरे पिता थे, उनके पिता थे। उसने कहाः तुम कितनी देर इसमें ठहरोगे, जब चौथी बार मैं आऊंगा, कोई दूसरा कहेगा, मैं इसका मालिक हूं। धर्मशाला का मतलब ही यही होता है। उसने कहाः जिसमें लोग ठहरते हैं और चले जाते हैं। तो मैं ठहर सकता हूं इस धर्मशाला में? इब्राहीम ने उससे कहा कि तुम ठहरो और मैं जाता हूं। उस आदमी ने कहा कि मैंने न सोचा था कि तुममें इतनी बुद्धि होगी। इब्राहीम चला गया छोड़ कर। इब्राहीम चला गया छोड़ कर।
यह जो, यह जो हमारा व्यक्तित्व है, सराय से ज्यादा नहीं है, धर्मशाला से ज्यादा नहीं है। बहुत बार हम बहुत तरह की सरायों और बहुत तरह की धर्मशालाओं में रहे हैं। और हर धर्मशाला और हर सराय हमारी मालिक होती हैं। लगता है कि वह मैं हूं। यह मैं हूं। ...  वह जो है भीतर उससे तो कोई लेना-देना नहीं है। उसके आस-पास लेबिल लगाए हुए हैं, और वही हमारा व्यक्तित्व है। तो अंग्रेजी का शब्द पर्सनेलिटी बहुत अच्छा है। हिंदी में ऐसा शब्द नहीं है। पर्सनेलिटी का मतलब ड्रामे में, जो ड्रामे में जो लोग मुखौटा लगाते थे, उसे परसोना कहते थे। वो जो ड्रामे में मुखौटा लगाते थे, मास्क उस मास्क को परसोना कहते थे। और मास्क से जो निर्मित होती थी, वह पर्सनेलिटी थी। वह असली आदमी नहीं था, वह सिर्फ पर्सनेलिटी थी, जिसको अपने ऊ पर से ओढ़ा था। फिर उसको उतार कर घर चला जाता था।
आज मैं एक अमरीकन, अभिनेता का एक नॉवेल पढ़ रहा था, उसने लिखा था कि हमारी सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि बहुत तरह के अभिनय कर-कर के मैं यह भूल गया हूं कि मैं कौन हूं? तो जब मैं अभिनय करता हूं, तब तो जरा ठीक भी लगता है, मैं कुछ होता हूं। लेकिन जब मैं घर जाने लगता हूं, तो सवाल उठता है कि अब मैं कौन हूं? यह जरूर बदल जाता है। मैं यह मानता हूं कि अभिनेता को संन्यास का जल्दी ख्याल आ सकता है। नही! और न आए तो अभिनेता चूक गया।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

पर्सनेलिटी का खयाल बड़ा अदभुत है। ये जो नाटक में ही हम मुखौटे लगाते हों, ऐसा नहीं है, जिंदगी में भी मुखौटे लगाते हैं। सिर्फ अभिनेता ही अभिनय करता है, ऐसा नहीं है, हम सभी अभिनय करते हैं। अभिनेता को पता होता है कि वह कर रहा है, हमें पता नहीं होता कि हम कर रहे हैं। हमें पता होता है कि ये ही होना है, ये ही हो रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि हम कोई एक ही अभिनय... हम दिन में पच्चीस बार बदल जाती हैं। असल में हर घड़ी हमको शक्ल बदलनी होती है। क्योंकि हर घड़ी परिस्थिति बदल जाते हैं। हर घड़ी लोग बदल जाते हैं।
गुरजिएफ के बाबत यह खयाल था लोगों को कि वह परसोना बदलने में कुशलतम आदमी था। वह प्रसिद्ध था यूनान में अधिक। यूनानी था। वह अगर ऐसा बैठा है, मेरी तरह आपके बीच में, तो जब वह कल्याण जी की तरफ देखेगा तो उसका चेहरा दूसरा होगा, और इधर मीडिया की तरफ देखेगा तो चेहरा दूसरा होगा। और वो दोनों आदमी मिलने आए हैं, दोनों लौट जाएंगे, एक आदमी कहेगा कितना प्यारा आदमी है, दूसरा कहेगा कितना दुष्ट आदमी है। और वह हंसेगा, जब वे दोनों चले जाएंगे वह दरवाजे के बाहर खड़े होकर बात करेंगे और तब वह हंसेगा। और उनको बुलाएगा कि कल फिर आना क्योंकि मुझे और तस्वीरें दिखानी हैं।
मेरी और शक्लें भी हैं, अगर हम कांशस हो जाएं इन शक्लों के प्रति, हम सब की शक्लें हैं। अगर मन में होश हो यह कि तस्वीरें बदलती रहती हैं, तब हमारी जिंदगी में पहली दफा एक्झिटेंशियल इंक्वायरी शुरू होगी कि फिर मैं कौन हूं? यह जो तसवीर है सुबह उठते ही लगा लेता हूं... चलते दूसरी लगा लेता हूं, मित्र से मिलकर तीसरी लगा लेता हूं, दुश्मन से मिलता हूं चौथी लगा लेता हूं, और क्योंकि बाहर से लगानी नहीं पड़ती, भीतर से उभर आती हैं, इसलिए कुछ पता भी नहीं पड़ता, और लगाने के लिए कोई दिक्कत भी नहीं होती है। जैसे हमारी आंख की पुतली पूरे वक्त बदलती रहती है, और एडजस्ट होती रहती है, ऐसे ही हमारी शक्लें बदलती रहती हैं और एडजस्ट होती रहती हैं। बाहर प्रकाश में जाते हैं तो पुतली छोटी हो जाती है, अब अंधेरे में आते हैं तो पुतली बड़ी हो जाती है। ऐसे हमारा चेहरा पूरे वक्त बदल रहा है।
यह अगर हम होश में आ जाएं तो, यह सवाल बहुत जरूरी हो जाएगा कि मैं कौन हूं? और वह जो सवाल है, अगर गहरे में पूछा जा सके, और खोजा जा सके, तो उसका पता चल सकेगा, जो नहीं मरता है। ये सब शक्लें मरेंगी। और उनका सपना है वह भी मरेगा। जिसको आज तुम विदा कर आयी हो, जो सब सपनों का जोड़ था, वे बहुत से परसोना थे, जो इनके घर में एक आदमी के रुका था उसकी। और वह जो परसोना पकड़ता था, वह विदा हो गया, परसोना पड़ा रह गया, उसका ढांचा पड़ा रह गया है। उस ढांचे को हमें कब्र में दफनाना पड़ता है, मरघट पर जलाना पड़ता, उसको और कुछ कर भी नहीं सकते। लेकिन हम भी देख कर दुखी होते हैं कि वह मर गया। क्योंकि हम भी अपनी पर्सनेलिटी से ज्यादा अपने को नहीं जानते। उससे डीप, उससे गहरी हमारी कोई पकड़ नहीं है। हमारे चेहरे के अलावा भी हमारा कोई रूप है।
जापान में झेन फकीरों का एक संघ है, और वह यह है कि जब कोई फकीर या कोई साधक पूछने आएगा गुरु को कि मैं क्या करूं? तो वह कहेगा कि तू अपना ओरिजिनल फेस खोज। बाकी बात फिर बाद में होंगी, पहले तू अपनी असली शक्ल खोज। तू वह शक्ल ला, जो तेरी है। अब वह आदमी परेशान हो जाएगा, वह महीनों खोज-खोज कर आएगा, और वह कहेगा कि यह हूं मैं, यह भी तू मुझे दिखा रहा है। तो वह शक्ल ला जो तूने किसी को नहीं दिखाई। जो शायद तूने भी नहीं देखी है। वह ओरिजिनल फेस ला। या वह कहेगा कि तू वह शक्ल ला जो जन्म के पहले तेरे पास थी। और मरने के बाद भी तेरे पास होगी। यही वाक्य हैं हमारे पास में कि जन्मेगा कौन, मरेगा कौन, जीएगा कौन, ये चेहरे कौन बदलेगा?
कभी-कभी किसी-किसी क्षण में इंटरवल होता है, जब हम कोई चेहरे नहीं होते, कभी-कभी। कभी ऐसा इंटरवेल होता है कि जो चेहरा हमने बदला है, दूसरा लगाने में जरा देर हो रही है, कुछ वक्त लग गया, कोई कारण आ गया, दूसरा चेहरा नहीं मिल रहा है; उस वक्त, उस वक्त आदमी की जो झलक होती है, वह उसके ओरिजिनल फेस की थोड़ी सी झलक होती है। और अक्सर जिनको हम प्रेम का क्षण कहते हैं, ऐसे क्षण में वह झलक दिखाई पड़ती है। जिसको मोमेंट ऑफ लव कहते हैं।
असल में जिससे हम प्रेम करते हैं उसे हम कोई चेहरा नहीं दिखाना चाहते। और अगर हम फिर भी चेहरा दिखा रहे हैं, तो फिर हमें जानना चाहिए कि यह हमारा प्रेम नहीं है। क्योंकि जिससे हमारी मैत्री हो, उसके साथ हम चेहरे का संबंध नहीं रखना चाहते। और अगर उससे भी चेहरे का संबंध है, तो हमारी कोई मैत्री नहीं है। गहरे प्रेम के क्षण में, हमारा ओरिजिनल फेस रिव्यू होता है। इसलिए प्रेम से ज्यादा आध्यात्मिक इस जगत में कोई क्षण नहीं है। क्योंकि हमारी जो चाह है प्रेम के लिए, असल में ओरिजिनल फेस की चाह है। कोई तो एक आदमी है जिसके पास मैं वही हो सकूं जो मैं हूं। शक्ल बदलते-बदलते थक जाते हैं, यह परेशानी हो जाती है। कोई तो एक आदमी हो जिसके पास मैं वही हो सकूं जो मैं हूं, जिसके पास मुझे कुछ भी बदलने की, दिखाने की जरूरत न हो असल में प्रेम का मेरे लिए मतलब इतना ही है कि ऐसे दो व्यक्तियों का साथ जिनको कुछ बदलने की जरूरत नहीं पड़ती, जो जैसे हैं, वैसे हैं। दूसरे की मौजूदगी जहां कि किसी तरह की बाधा नहीं डालते। दूसरे की मौजूदगी नहीं के बराबर है। इसलिए मुझे कोई चेहरा ग्रहण नहीं करना पड़ता। या मैं दूसरे से बिल्कुल निर्भीक हूं, इसलिए मुझे कोई चेहरा नहीं ग्रहण करना पड़ता। मुझे कोई भय नहीं है उससे, वह क्या समझेगा, क्या नहीं समझेगा यह सवाल नहीं है। प्रेम के कभी-कभी क्षण में, लेकिन प्रेम के क्षण ही कितने लोगों की जिंदगी में होते हैं, मुश्किल से कभी, शायद ही कभी। प्रेम के भी हमारे चेहरे हें, इसलिए और मुश्किल हो गया है। जो-जो मेकअप है हमारा प्रेम का, इससे और मुश्किल हो गई है।
मेरा अपना खयाल यह है कि जितना मेकअप हम प्रेम के क्षण में करते हैं, उतना किसी क्षण में नहीं करते, क्योंकि ओरिजिनिल फेस के दिख जाने का डर है। सबसे ज्यादा भय वहां है, कोई मेरा असली चेहरा न देख ले। क्योंकि प्रेम के क्षण में मैं अनावृत हो जाऊं गा, कोई वस्त्र नहीं होगा मेरे ऊपर। कोई चेहरा नहीं है, इसलिए कोई असली चेहरा न देख ले। प्रेम किसी की गिरफ्त, पकड़ में न आ जाए, इसलिए प्रेम का क्षण क्योंकि सबसे ज्यादा इनसिक्योर मोमेंट है, इसलिए हमने प्रेम के जितने चेहरे विकसित किए हैं, उतने किसी चीज के चेहरे विकसित नहीं किए हैं। उस मोमेंट को भरने के लिए हमने बड़ी तैयारी की है। अगर किसी का आपके चित्त में प्रेम का क्षण है, और प्रेम की घटना घट रही हो या घटी है, तो उस क्षण में अगर प्रेम में भी हैं तो भी शायद आप बोलना न चाहे, लेकिन अगर चेहरा सम्हालना है तो आपको बोलना पड़ा। आपको कुछ बोल ही जाना पड़ा। क्योंकि मौन में चेहरा जल्दी उभर जाता है। शब्द चेहरे को बनाने में बड़े सहयोगी हैं। इसलिए जब भी दूसरा आदमी मिलता है तो हम ज्यादा देर मौन नहीं रहते उसके साथ। या कोई आदमी बहुत जिद करे कि आधा घंटा चुप ही बैठो, तो बहुत बेचैनी होती है। एकदम परेशानी हो जाती है।
गुरजियफ उससे मैंने बात की। उससे मिलना जरा मुश्किल बात थी। बड़ी मुश्किल से लोग उसको मिल पाते थे। बड़ा काम था मिलने का, वह बड़ी मुश्किल से मिलने देते थे। क्योंकि वह कहता कि तुम जो सरलता से मिलो तो मिलना नहीं हो पाता। बड़ी तकलीफ में आ जाता। उसका सबसे बड़ा शिष्य ऑसपेंस्की जब उससे पहली दफा मिलने गया, तो तीन महीने तक उसको भटकना पड़ा उससे मिलने के लिए। आज का वचन, कल का वचन, चलता गया, चलता गया... आखिर वह घड़ी आई कि तीसरे महीने के बाद लेकिन वह आदमी जिद बांधे रहा कि मैं मिलूंगा।
जो आदमी उसको ले गया मिलाने के लिए, वहां कोई पच्चीस आदमी उसके कमरे में बैठे थे, गुरजिएफ बीच में बैठा हुआ था, और बीस पच्चीस लोग बैठे थे। आस्पेंस्की जाकर बैठ गया, वह आदमी भी बैठ गया, पांच मिनट बीत गए, दस मिनट बीत गए, कोई नहीं बोला। न वह गुरजिएफ कुछ बोला, न वे लोग कुछ बोले, न किसी ने उनकी तरफ देखा, न उस गुरजिएफ ने उनकी तरफ देखा। आस्पेंस्की ने लिखा है कि मेरी जिंदगी में सबसे क ठिन क्षण, उस वक्त गुजरा, मैंने सोचा अब क्या होगा? यहां से निकला कैसे जाए? यह हो क्या रहा है? वहां जैसे कोई था ही नहीं। जब मिनट बीत गए, और उसने जो आदमी उसको लेकर आया था उसे इशारा किया, लेकिन देखा कि वह आदमी तो है ही नहीं। वह इस आशा में था कि कोई कुछ भी बोल दे, कोई कुछ तो बोल दे, उसने लिखा है कि, कोई तो एक शब्द बोल दे। तब गुरजियफ ने कहा कि आस्पेंस्की चुप रहने में इतनी तकलीफ क्या है? कोई चेहरा दिखाना है। और इसका भी चेहरा उतार दो, क्योंकि आपको इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा। जब तक साइलेंट फिल्म थी तब तक एक्टरों को बड़ी मुसीबत थी। जब से बोलना आया है, ऐसे ही ... ।
असल में एक्टिंग मर गई है, जब से साइलेंट फिल्म बनी। बातचीत में सारी शक्ल बनाई हैं। अगर बातचीत, शोरगुल करना चाहूं तो मैं, यह खयाल पैदा कर लिया कि हमारा प्रेम... । अगर दो आदमियों को किश्तों में प्रेम बताना पड़े, तब पता चलता है, बड़ी मुश्किल हो गई कि चेहरे को संभालने में नाइंटी परसेंट को अवोयड करना है, उससे जो तुम्हारा असली गेस्चर है, पकड़ में आ रहा है। हम चौबीस-चौबीस घंटे बात करते रहते हैं, पूरी-पूरी रात तक। रात भी बड़बड़ाते रहते हैं, सपने में भी कुछ चलता है पूरे वक्त। यह जो जिस प्रेम की मैं बात कह रहा हूं, प्रेम का एक क्षण है जहां हम चुप होना चाहते हैं। लेकिन आम तौर से प्रेमी कितने ब्ठे देखे जा सकते हैं, जैसे प्रेम प्रदर्शित किया। दूसरे क्षण प्रेम है, जैसे कोई आदमी बराबर वाले से वाहन में बकवास करता है, वह आदमी भगवान से बातें करने लगता है। वहां भी वह चुप नहीं बैठता। फिर अगर आप चुप रह जायें तो आपको बहुत मुश्किल हो जाएगी, आपके चेहरे संभलने में। वो सब वल्गर चेहरे हैं। यह जो अगर... सारा प्रयास वह यही है कि आपको साइलेंस में कैसे ठहराया जाए थोड़ी देर, ताकि ओरिजिनल फेस का पता चल जाए, और एक बार उसका पता चल जाए जो मैं साइलेंट में हूं, जो मैं अनरिलेटिव हूं, किसी के संबंध में नहीं हूं, किसी के संबंध में मेरा चेहरा आ जाएगा, किसी का मैं बेटा हूं, किसी का भाई हूं, किसी का पति हूं, किसी की पत्नी हूं, किसी का मित्र हूं, किसी का दुश्मन हूं; कोई चेहरा आ जाएगा। केवल साइलेंस के मोमेंट में मैं किसी का कोई नहीं हूं, मैं ही हूं। अनरिलेटिव, अकेला, तब क्या होगा, कौन किससे हारा है, तब एक फेसलेस फेस कहना चाहूंगा, उसका एक दफा पता चल जाए, तो फिर तुम दबारा यह न पूछोगे कि कोई मर रहा है या नहीं मर रहा है, कोई फिर से जन्मता है या नहीं जन्मता; उसकी एक झलक भर काफी है। फिर तुम मरघट से हंसते हुए लौट सकते हो, और शादी में रोती हुई जा सकती हो। फिर सवाल नहीं है। जब तक हमें अपने मौलिक चेहरे का पता न चल जाए तब तक सब सवाल हैं, और सवाल स्वाभाविक हैं, क्योंकि हमको बहुत गहरे में पता ही नहीं है कि सब गिर जाएगा, इसको बचाया ही नहीं जा सकता, कितनी ही मेहनत करें। और हमारी सब मेहनत इसको दुर्बल बनाती जाती है, और गिरने के लिए बोझल बनाती जाती है, और हमारी सब मेहनत और नये चेहरे थोपती चली जाती है। आखिर में पता चलता है कि वह आदमी खो गया है।
मेरी दृष्टि में इसलाम की व्याख्याएं, हिन्दू की व्याख्या, क्रिश्चियन की व्याख्या अधूरी व्याख्याएं हैं। पूरी व्याख्या अगर होगी तो आदमी मुसलमान नहीं हो सकता, हिंदू नहीं हो सकता, ईसाई भी नहीं हो सकता; फिर वह आदमी रह जाएगा। फिर उनकी कोई व्याख्या नहीं कह सकता, क्योंकि वह पाएगा कि जिंदगी इतनी कांप्लेक्स है कि सब व्याख्याओं को अपने में समा लेती है। और जो इस समय बिल्कुल विरोधी मालूम पड़ती हैं धारणाएं, वो भी कहीं आकर मिल जाती हैं, एक हो जाती हैं। बिल्कुल उलटी बातें भी। और ऐसे आदमी को मैं मानता हूं कि वह आदमी कुछ जान पाया। जो जिंदगी की सारी व्याख्याओं के बीच में जो सारभूत है, जो एंसेशियल है, उसको पकड़ ले, व्याख्या को न पकड़ कर रह जाए। नहीं तो उपद्रव होते हैं, और उनके परिणाम होते हैं। अच्छे भी होंगे बुरे भी होंगे। लेकिन अगर टोटल हमारे ध्यान रह जाए तो फिर कोई परिणाम नहीं होता, न अच्छा होता, न बुरा होता। फिर जिंदगी... सहजता बन जाती है। फिर हम नहीं पूछते कि हम मरने के बाद बचेंगे या नहीं बचेंगे। यह सवाल ही असंगत होगा। यानि जिसे हम पहले से जाने यह सवाल ही असंगत होगा। फिर हम कल के बाबत पूछते ही नहीं, न बीते कल के बाबत पूछते हैं, न आने वाले कल के बाबत पूछते हैं। फिर हम आज जीते हैं। और हम दोनों को जानते हैं जो एक है वह बीत रहा है और खत्म हो रहा है और एक है जो नहीं बीतता, और नहीं खत्म होता। और दोनों हम एक साथ हैं।
अब तक जिंदगी में बड़ी सरलता है, फिर बड़ी कठिनाई है। अगर हमको यही दिखाई पड़ता रहे कि बदल रहा है पूरे वक्त और मर जाएगा, तो एक पागलपन पैदा हो जाता है, इसी की दौड़ हो जाती है। या हमको अगर अकेला वही दिखाई पड़ने लगे, जो नहीं बदलता है तो आदमी फिर संसार से भागने लगता है, एस्केपिस्ट हो जाता है, वह कहता है बदलने वाले में क्या रखा है, भागो। लेकिन भागकर कहां जाओगे? जहां भाग कर जाओगे वहां भी सब बदल रहा है। वह भागने वाला ही बदल रहा है भागते वक्त, भागोगे कहां? जा कहां सकते हैं हम भाग कर? न कोई भाग सकता है, न कोई बच सकता है, न कोई देख सकता है, और पूरी टोटेलिटी में अगर जिंदगी दिखाई पड़ जाए, तो कल का सवाल नहीं है, मौत का सवाल है। कभी कोई मरा नहीं है। ऐसे सब रोज ही मरते हैं। कभी कोई मरेगा नहीं, ऐसे सभी को रोज मरना पड़ेगा। असल में मृत्यु को जीवन के विपरीत समझ कर मत सोचो, मृत्यु भी जिंदगी के बीच घटने वाली एक व्यवस्था है। उसको एंटीफेसिस की तरह मत लो, कि वह जिंदगी से उलटी कोई चीज है। वह ऐसे ही है जैसे एक मेरा दायां पैर है और एक बायां पैर है। बायां भी मेरा और दायां भी मेरा। और मजा यह है कि जब बायां मेरा उठता है तो बेचारे दाएं को खड़े होकर उसके उठने में सहायता करनी पड़ती है। जब मेरा दायां उठता है तो बायें को उसे सहायता देनी पड़ती है। चलना जो है वह मेरे दोनों पैरों का काम है, वह एक पैर का काम नहीं है।
ऐसे ही मौत भी मेरी है और जिदंगी भी मेरी है। और मैं दोनों का पैरों की तरह उपयोग कर रहा हूं। जिस दिन यह तीसरा खयाल में आ जाएगा, उस दिन ये दोनों पैर अलग नहीं मालूम पड़ेंगे, एक ही होंगे। तब मैं यह न पूछूंगा कि जब दायां खत्म हो जाता है तब बायां बचता है कि नहीं। जब दायां रहता है तो बाएं का क्या है? तब हम जानते हैं कि बाएं और दाएं एक बड़ी टोटेलिटी के दो हिस्से हैं। और वो बड़ी टोटेलिटी में दोनों मौजूद हैं। और दोनों कहीं नहीं जाते। वो सब एक हैं। और ऐसा दिखाई पड़ जाए, तो जिंदगी का मजा ही और है। क्योंकि तब हम जो क्षुद्रतम है उसमें भी खोज पाते हैं। और जो विराटतम है उसमें भी खोज पाते हैं। जो आज मिलेगा उससे भी मिल पाते हैं और जो कल मिलेगा उसके लिए धैर्य भी रख पाते हैं। प्रतीक्षा भी कर पाते हैं। अब हम भागेंगे भी नहीं और घबरायेंगे भी नहीं। तब हमारे दौड़ने में भी एक धैर्य है और शांति है।
एक कोरियन कहानी है। एक सांझ सूरज ढलने के करीब है और दो बौद्ध भिक्षु एक नाव से किनारे पर उतरते हैं। उतरते से ही उन्होंने जल्दी से मांझी से पूछा है कि हम गांव तक पहुंच तो जाएंगे न? पहाड़ी रास्ता है, सूरज ढल रहा है और सुना है हमने कि सूरज ढलने पर गांव का दरवाजा बंद होता है। हम सूरज ढलने के पहले गांव पहुंच जाएंगे न? उस मांझी ने नांव को बांधते हुए कहा कि अगर धीरे गए तो पहुंच भी सकते हो। अगर धीरे गए तो। तो उन्होंने कहाः पागल तो नहीं हो गए हो? उस मांझी ने अपनी नांव बांधते हुए कहा कि मैंने बहुत जल्दी जाने वालों को नहीं पहुंचते देखा है। उन्होंने कहाः इससे बात करना बिल्कुल बेकार है, समय कम है भागो। इतनी तेजी से वे पहले न दौड़े होते, जितनी तेजी से वे अब दौड़े। उन्होंने कहाः यह है पागल, और यह कह रहा है कि धीरे गए तो पहुंच जाओगे, तो फिर हो गया। क्योंकि धीरे कभी कोई पहुंचा है, जब कि जल्दी हो और सूरज ढल रहा हो। वे भागे हैं तेजी से। अभी थोड़ा समय हुआ। तेजी से भागने वाला दौड़ सकता है, पहुंच नहीं सकता, गिर सकता है दौड़ने में। यह हमें खयाल नहीं रहता कि कभी-कभी दौड़ आगे निकल जाती है और दौड़ने वाला पीछे रह जाता है, तब गिरने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जाता है। दौड़ आगे हो जाती है, मैं पीछे रह जाता हूं। तब गिरूंगा। और जब मोमेंटम पूरा पकड़ता है, तो दौड़ आगे हो जाती है, आप पीछे रह जाते हैं। वे गिर गए। वह मांझी अपनी नांव बांध कर गीत गाता हुआ चला आ रहा है। वह आकर उन दोनों के पास खड़ा हो गया और कहा क्या खयाल है? एक के पैर टूट गए हैं। दूसरा उसको कपड़े-वपड़े बांध कर उसको कंधे पर उठाने की कोशिश कर रहा है। और मांझी कहता है क्या खयाल है? आदमी मैं पागल था कि तुम पागल हो? इतनी तो चोट लग गई, वह परेशान है, सूरज ढलने के करीब हो गया, अब पहुंचने की कोई संभावना नहीं है। कुछ बालते नहीं उस मांझी से। फिर उनसे पूछता है, तो क्या इतने दौड़े की बहरे हो गए? वे उसकी तरफ देखते हैं, लेकिन वे गुस्से में हैं। उसने कहाः क्या इतने दौड़े कि अंधे हो गए? वे दोनों नाराज उसको पकड़ लेते हैं कि तू आदमी कैसा है? हमारे पीछे क्यों पड़ा हुआ है। मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ा हूं। मैं तो किसी के पीछे नहीं पड़ सकता, क्योंकि दौड़ने में मेरा भरोसा नहीं है। किसी के पीछे पड़ना है तो दौड़ने में भरोसा चाहिए। मैं तो धीरे चलता हूं। मैंने धीरे चलते हुए लोगों को पहुंच जाते देखा है।
 इस जिंदगी में भी करीब-करीब ऐसा है। और ऐसा भी है कि दौड़ भी धीरज हो सकती है। और ऐसा भी है कि धीरे चलने वाला भी दौड़ में हो। तब जरा डेलिकेट और कठिन हो जाते हैं मामले। यह जरूरी नहीं है कि जो धीरे जा रहा है, वह धीरे ही जा रहा हो। वह भीतर पूरी तरह दौड़ा हुआ होगा। और ऐसा नहीं है कि जो तेजी से जा रहा है, वह तेजी से जा रहा हो; वह भीतर बिल्कुल ही धीमा हो सकता है। यह जो मेरा खयाल है कि अगर हमें दोनों जिदंगी की पर्तें दिखाई पड़ जाएं, तो यह जो बदलने वाली और न बदलने वाली, और वह मरने वाली, और वह जो नहीं मरने वाली है, वो आप दोनों एक साथ पाते हैं। ... टोटल मूवमेंट, पूरी गति और पूरा... पूरी दौड़, पूरी... सारी दुनिया का चक्कर और कभी अपना घर न छोड़ा, ऐसी हालत में दुनिया है। अगर ये दोनों बातें खयाल में आएं, तो फिर यह फर्क दिखाई नहीं पड़ेगा। असल में वह फासला है, वह फर्क नहीं है। वह एक-एक चीज ही एक-एक चीज है। अधूरी है। सभी धर्म अधूरे हैं। सिर्फ धार्मिक आदमी पूरा होता है। धर्म कभी पूरा नहीं होता। धर्म हमेशा अधूरा होता है। क्योंकि मैं पूरा हो सकता हूं, लेकिन जो मैं कहूंगा वह अधूरा होगा। मोहम्मद पूरे हो सकते हैं, इस्लाम पूरा नहीं हो सकता। कृष्ण पूरे हो सकते हैं, हिंदू धर्म पूरा नहीं हो सकता। स्टेटमेंट कभी भी पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि वह इतना बड़ा है, जो जाना जाता है। और जो कहा जाता है, वह उतना ही छोटा होता है।
रवींद्रनाथ के मरने के दो-तीन दिन पहले एक बूढ़ा उनका मित्र उनके पास गया और उसने कहा कि तुम तो खुश होंगे, क्योंकि तुमने जिंदगी में पा लिया है, जो भी जिंदगी दे सकती है। रवींद्रनाथ ने उसे आंख खोलकर बड़े गौर से देखा, तुम यह कह रहे हो, अभी पाने की शुरुआत ही कहां हुई है। अब तो जाने का वक्त आ गया है। उस आदमी ने कहाः कैसी बातें करते हो? तुमने छह हजार गीत लिखे हैं, इतने गीत दुनिया में किसी कवि ने नहीं लिखे। तुम महाकवि हो। स्टेली जिसको महाकवि कहते हैं, उसने भी दो हजार गीत लिखे हैं। तुम्हारे छह हजार हैं, तुम्हारा कोई मुकाबला ही नहीं है। और जितने भी गीत लिखे हैं, तुमने सब संगीत में बांधे जा सकते हैं। तुमने तो सब पा लिया। तुम्हें नोबल प्राइज मिल गई, सब पुरस्कार जीत लिए, सब... रवींद्रनाथ की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहा कि मत करो ये बातें, मतलब की बातें मत करो, क्योंकि मैं तो आंख बंद करके रोज-रोज प्रभु से यही प्रार्थना कर रहा हूं कि अभी तो साज ही बैठा पाया था, अभी गीत गाया कहां है? और जाने का वक्त आ गया। अभी तो हाथ में तंबूरा ठीक किया, अभी गाता हूं कि तुम कहते हो उठो, महफिल खत्म हो गई।
रवींद्रनाथ का यह कहना कि अभी सिर्फ साज बैठा पाया था, बड़ी पीड़ा का है। इतना समर्थ है उनका वक्तव्य लेकिन वह आदमी कहता है कि सिर्फ साज बैठाया है। यानि कहना ही नहीं आता, अधूरे वक्तव्य की तो बात ही दूसरी है। और अक्सर ऐसा होता है। हम जो, जितना भी कुछ कह पाते हैं, रवींद्रनाथ ने किसी एक पत्र में किसी को लिखा है, कि जो मैं गाना चाहता था, वह अब तक गा नहीं पाया। तो एक मित्र ने पूछा है कि फिर इतना आपने गाया ये क्या था? उन्होंने कहा कि जो मैं गाना चाहता था, उसको गाने की कोशिश में वह सब हो गया। बाकी अभी वह अनगाया है। वह अभी नहीं गाया जा सका है। कोशिश में ही था... गीत बने। लेकिन वह जो अनगाया था, अनगाया है। वह जो अजन्मा था, अभी भी अजन्मा है। अभी उसका जन्म नहीं हुआ है। तो इसलिए कोई धर्म, कोई धर्मशास्त्र पूरा नहीं हो पाता, वह खंड बन कर ही रह जाता है। धार्मिक आदमी पूरा हो सकता है। उसमें कठिनाई नहीं है। असल में धार्मिक आदमी अगर पूरा न हो तो धार्मिक ही नहीं होगा। यह तो शायद अनिवार्य है। यह अंग्रेजी का शब्द होल और होली बहुत बढ़िया है। दोनों का एक ही मतलब है, एक ही से बने हुए है, एक ही से बने हुए हैं। असल में जो होल है वही होली है। वह जो पूरा है, वही धार्मिक है। पर धर्म नहीं हो पाते, धर्म में तो तकलीफ है। कोई धर्म नहीं हो पाता, सब धर्म व्याख्याएं हैं। किसी एक पहलू पर, जिसकी जरूरत होगी। मोहम्मद जिन लोगों के बीच में थे, उन लोगों को अगर वो कहते कि बहुत जन्म हैं, अनंत जन्म हैं, तो मोहम्मद की बात का कोई परिणाम ही नहीं होना था। जिन लोगों के बीच में वो थे। रेगिस्तान में, जहां क्षण-क्षण जीना मुश्किल, जहां एक जलती... पर बैठ गए हैं, वहां बहुत दूर के लिए धीरज नहीं रखा जा सकता। वहां अभी चलना है, इसी वक्त।
हम जिस सरोवर के किनारे बैठे हैं, कह सकते हैं कल पी लेंगे, लेकिन जो रेगिस्तान में खड़ा है, आग बरसती है, वह कैसे कह सकता है कल पी लेगा, उसे पीना है तो अभी। कल का कोई पक्का नहीं है। डेजर्ट, आग और तरह की इनफेसिस करवा दी मोहम्मद ने बनाई। हिंदुस्तान, यहां की सब धीमे से चलने वाली-ऋतुएं कोई... जल्दी नहीं किसी चीज में, सब चीजें वक्त पर घूम जाती हैं, वर्षा आती है, गर्मी आती है, सर्दी आती है, सब वक्त पर घूम जाती हैं। सब चीजें एक सर्किल में घूमती हुई मालूम पड़ती हैं, पतझड़ आता है। रेगिस्तान में कुछ घूमता नहीं मालूम पड़ता। स्थिर-स्थिर सब चीजें खड़ी मालूम पड़ती हैं। कुछ नहीं घूम रहा। वही सूरज है, वही रेगिस्तान है, वही आग की लपटें हैं। ऊंट खड़ा हुआ है। तो रेगिस्तानियों के मस्तिष्क में घूमने का खयाल नहीं होता, सर्कुलर चीजें नहीं पकड़ते। ठहरी हुए चीजें, पर्टीकुलर मोमेंट पकड़ता है। ये ही मुमेंट सब कुछ है। और धैर्य नहीं रखा जाता बहुत देर तक और रखा भी नहीं जा सकता। इसलिए मोहम्मद को जो भाषा बोलनी पड़ी, वह यह थी यहीं सब कुछ है अभी और यहीं। इस जन्म के बाद कोई जन्म नहीं। आज के बाद कोई कल नहीं है। जो करना है वह अभी।
हिंदुस्तान में अगर कोई कहे कि जो करना है, वह अभी करो, वह बहुत दूर की आवाज मालूम पड़ती है। जब हिंदुस्तान के धर्म पैदा हुए, तब से सब चीजें, इस मुल्क में इतनी शिथिलता है, और इतनी... जैसे बारात चलती है, इस चाल से चलता हुआ इस मुल्क का सारा इंतजाम है। युद्ध में चलते हुए सैनिकों जैसा नहीं है इस मुल्क का इंसान, इसका सारा चारों तरफ का माहौल। हुआ सैनिक नहीं पैदा हुआ इस मुल्क में। इसका तार चारों तरफ फैला हुआ है। यहां सिर्फ इस तरह की धारणाएं पैदी हुई कि कल करेंगे। हमारा टाइम का जो कंसेप्ट है, वह सर्कुलर है। पश्चिम का जो टाइम का कंसेप्ट है वह लाइन में है, एक लाइन में सीधा चला जा रहा है। जो कभी नहीं घूमकर फिर लौटती। बस सीधी चली जाती है। हमारा सब लौट कर वहीं आ जाता है। इस वजह से हमारी जो धारणाएं हैं उनमें। अब हम देखते हैं कि हर बार वृक्ष में पत्ते आ जाते हैं, फिर झड़ जाते हैं। फिर आ जाते हैं। हजार बार बरखा लौट आती है, फिर गर्मी आ जाती है, सब वहीं घूमता रहता है। हमने कहा कि कृष्ण फिर लौटेंगे, राम फिर लौटेंगे, महावीर फिर लौटेंगे, और हम भी फिर-फिर लौटते रहेंगे, सब चीजें लौटती रहेंगी, ऐसा नहीं है कि कोई चीज गई तो गई। फिर नहीं आएगी। इसलिए वह दूसरा पहलू जो था, शाश्वत, इटर्नल का। वह हमें ज्यादा महत्वपूर्ण दिखाई पड़ा। जहां चीजें पल-पल बदल रही हैं, लौटने का कोई भरोसा नहीं है। अभी जहां रेगिस्तान में जमीन दिखाई पड़ रही थी, थोड़ी देर बाद पहाड़ी दिखाई पड़ने लगती है। हमारी पहाड़ी इटर्नल है। अब उसको हमसे पहले हमारे पिता ने भी पूजा था उस पहाड़ को, हम भी उसे पूजते हैं। सब चीजें ठहरी हुई हैं इधर। रेगिस्तान में कुछ भरोसा नहीं है कि अभी जहां गड्ढा है, वहां थोड़ी देर में रेत भर जाएगी। या जहां जमीन है, वहां रेत का पहाड़ हो जाएगा। और कोई चीज वापस नहीं लौटेगी। जो अभी टीला दिखाई दे रहा है रेत का, अनंतकाल में दुबारा ऐसा ही बनेगा, इसका कोई उपाय नहीं है। इसलिए सारे के सारे कंसेप्ट्स के एंफेसिस बदल जाते हैं। और कुछ मामला नहीं है। लेकिन टोटल दोनो में नहीं है, क्योंकि अभी तक हम ज्योग्राफी से ऊ पर उठ कर धर्म की बात नहीं कर पाए, अभी तक। ज्योग्राफी जोर से पकड़ लेती है। इससे बड़े झगड़े होते हैं, और सब झगड़े ज्योग्राफिकल हैं। हिंदु, मुसलमान नहीं लड़ रहा, अरब और हिन्दुस्तान लड़ता रहता है, अभी भी लड़ रहा है... ।
मेरे एक मित्र हैं, संस्कृत के प्रोफेसर हैं, वे तिब्बत गए। तो बिना नहाए, ब्राह्मण आदमी बिना नहाए, बिना पूजा किए खाना नहीं खाते थे। तिब्बत में रोज-रोज नहाए तो मरे, पूजा तो हो नहीं सकती और मर गए। बड़ी मुश्किल में पड़े, दो चार दिन बड़ी तकलीफ उठाई। नहाना नहीं है। अब वह ज्योग्राफीज की लड़ाई है, रिलीजन का मामला नहीं। इधर मैं अभी बुद्धगया गया। तो एक तिब्बती लामा मुझसे मिलने आए। इतनी बार... तबीयत घबड़ा जाए वे तिब्बत में नहीं नहाते होंगे, यहां भी नहीं नहाते। क्योंकि उनकी किताब में लिखा है वर्ष में एक बार नहाना बिल्कुल जरूरी है। यह किताब जिसमें लिखा है कि वर्ष में एक बार नहाना बिल्कुल जरूरी है। अब मर गया वह हिंदुस्तान में आकर, तो वह उसे धर्म समझ रहे हैं। यह सारी स्थिति ज्याग्राफी की है। अब जो पंडित यहां है वह मरेगा वहां जाकर। वह नहाएगा क्योंकि उसकी किताब में लिखा है कि बिना नहाए पूजा मत करना। बिना पूजा किए खाना मत खाना। खाना जरूर खाएगा। वह पूजा करनी पड़ेगी, पूजा करने के लिए नहाना पड़ेगा, वे मर गए ना, चक्कर में हो गए। यह सब ज्योग्राफी का ही मामला है। इसमें कोई धर्म का झगड़ा नहीं है। अकल थोड़ी हो, तो तिब्बत में तिब्बती हो जाओ। हिंदुस्तान में आकर हिंदुस्तानी हो जाओ। अरब जाओ, तो अरबी हो जाओ। ज्योग्राफी के झगड़े हैं। मगर वो इतना जोर से पकड़ते हैं, लेकिन हमारा दिमाग तो नहीं बदलता। हमारा दिमाग बदलता ही नहीं है, हम उसे पकड़ते ही चले जाते हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, और ज्योग्राफी टूट गई होती कभी की। कहां रह रहे हैं हम, अब उससे कोई संबंध नहीं रह गया है लेकिन... । और इसलिए हम अजनबी हो जाते हैं, जहां जाते हैं वहां तकलीफमय हो जाते हैं। अजनबी हो जाते हैं, व्यर्थ के लिए... ।
सारे झगड़े मेरे खयाल के एंफेसिस के झगड़े हैं, और एंफेसिस ज्योग्राफिकल है। और इसका हिस्टोरिकल सारा का सारा इलजाम फर्क लाता है। इस पर निर्भर करती है। और हम सोच नहीं सकते, हमारे मुल्क में कोई आदमी तलवार पर लिख ले, मोहम्मद की तलवार पर लिखा हुआ था कि शांति मेरा धर्म है। हम इस मुल्क में सोच ही नहीं सकते कि तलवार पर भी कोई आदमी लिखे कि शांति। इस्लाम शब्द का मतलब होता है शांति। और तलवार! हम नहीं सोच सकते। हम फूल के साथ सोच सकते हैं, शांति। बुद्ध के नीचे फूल लगा देंगे कमल का। कहां से लायेंगे मौहम्मद कमल का फूल? अगर मोहम्मद सोचना भी चाहें कि फूल से शांति जोड़ें, फूल कहां से लायेंगे कमल का?
रेगिस्तान में जिदंगी जो है, वह संघर्ष है। पल-पल संघर्ष है। तलवार वहां प्रतीक है जिंदगी का। तलवार पर लिखा जा सकता है कि शांति। हम नहीं सोच सकते कि तलवार पर शांति लिखने की... । हम कहेंगे शांति लिखने के लिए तलवार किसलिए उठा रहे हो? फूल ले आओ एक कमल का। और शांति का प्रतीक हो जाएगा, तलवार मत लाओ, तलवार की कोई जरूरत नहीं है।
ये जो, सारे की जो, अब जैसे मोहम्मद के वक्त मजेदार घटना घटी। उसकी जिंदगी बहुत कठिन थी, और कठोर थी, और मुसीबत की थी और लड़ाई की थी और लड़े बिना जी नहीं सकते थे। तो मोहम्मद के वक्त में, चार गुनी औरतें हो गई थीं उस वक्त अरब में। पुरुष एक और चार औरतें। पुरुष तो लड़ा, मर गया औरतों का क्या होगा? तो मोहम्मद को यह इंतजाम करना पड़ा कि जो आदमी चार शादी करता है, बहुत धार्मिक आदमी है। अब वह बुद्धु यहां भी चार शादी कर रहा है हिंदुस्तान में। मोहम्मद ने खुद नौ शादियां रचाईं। मोहम्मद ने खुद नौ शादियां की, हिम्मतवर आदमी था। जो सिद्ध करना था, वह करके भी दिखाया। मोहम्मद की शादियां बहुत अदभुत हैं। यानि मैं मानता हूं कि एक आदमी जीवन में ब्रह्मचारी रह जाए, यह उतना कठिन नहीं हैं, जितना इसलिए नौ शादियां करके दिखाए, जो उसको अर्थ दे रहा है। पहली जो शादी की मोहम्मद ने, वह अपने से बहुत बड़ी औरत से की। उनकी उम्र बाईस साल थी और पत्नी की उम्र चालीस साल थी। अट्ठारह साल बड़ी थी। बाईस साल के मोहम्मद थे। और उन्होंने कहा कि एक स्त्री भी गैर- शादीशुदा न रह जाए। यह तो भारी, नहीं तो अनाचार और उपद्रव फैलता। मगर वह अभी भी चल रहा है। अब कोई अर्थ नहीं है उसका। ज्योग्राफिकल और हिस्टोरिकल पर्टिकुलर मूवमेंट की बात थी, लेकिन मुसलमान कहता है कि हम चार शादी करेंगे। हम हिदूं तो बनेंगे नहीं। तब यह मामला गड़बड़ हो जाता है। तब यह फिर दिमाग की नासमझियों का विस्तार हो जाता है, नासमझियों का विस्तार है।
और ऐसा ही सब तरफ वही है, सब तरफ वही है। मदन मोहन मालवीय पहली बार एक कांफ्रेंस में गए, तो गंगा के पानी का सहारा लेना पड़ा उन्हें पीने के लिए। ... में कोई खराब पानी नहीं है। मगर हमारी बुद्धि, अगर गंगा का पानी जाएगा पूरे वक्त उनके पीने के लिए। और सिर पर वो एक अपनी पगड़ी जो पहने रहते थे, उसमें शंकर जी की पिंडी छिपाए रखते थे। क्योंकि अंग्रेज छू ले तो अपवित्र न हो जाए, शंकर जी रखा है... हाथ न मिलाते किसी से। क्योंकि हाथ मिलाया तो अपवित्र हो जाएंगे।
असल में जिन मुल्कों में बहुत गर्मी है, उन मुल्कों में हाथ मिलाना, वो पसंद नहीं करते, क्योंकि उसमें पसीना होता है, सब ज ज्योग्राफिकल मामला है। आप पसीने से भरे हुए हाथ मिलाएं, तो मुझे भी पसीना। ठंडे मुल्क हाथ मिला सकते हैं, उनमें पसीना नहीं होता। सब ज्योग्राफिकल मामला है। ठंडे लोग हाथ मिला सकते हैं, उसमें कोई तकलीफ नहीं है। मिलाना ही चाहिए। हाथ ठंडा होता है और उसमें कोई बदबू नहीं होती, कोई पसीना नहीं होता। हमारे हाथ पसीने से भरे होते हैं, पसीना हाथ पर हो तो छूट भी... और कोई बहुत ही प्रेम करता हो, तो माफ कर दो बात अलग है। नहीं तो बेचैनी होती है कि कब छोड़े। इसलिए दूर होने का रोल है, हमारा जो हाथ जोड़ना है, वह जरा फासले का है। जरा दूर से। सारी की सारी जो व्यवस्थाएं हैं, वह सबकी सब एक विशेष स्थिति की व्यवस्थाएं हैं, स्थितियां बदल जाती हैं, व्यवस्थाएं नहीं बदलती हैं। उनको हम पकड़े ही चले जाते हैं। मर जाएंगे, लेकिन उनको नहीं छोड़ेंगे। और इसीलिए वो हमको सुख नहीं दे पातीं, वो हमको उलटा दुख देती हैं। उलटा दुख देती हैं। तो कोई धर्म कभी पूरा नहीं होगा।
ये धर्मग्रंथ कुछ संदिग्ध मालूम होते हैं, लेकिन धर्मग्रंथ तो होने चाहिए न साफ कि क्या मत करो, पराई स्त्री को मत देखो, दूसरे का धन तुम्हारा नहीं है, मोह मत करो, धोखा मत दो, दगा मत करो, ये सब जिसमें लिखा ही नहीं, वह धर्मग्रंथ कैसा? लेकिन उन्हें पता ही नहीं जिसने यह ग्रंथ लिखा है। वह सिर्फ नीतिग्रंथ रह गया है, धर्मग्रंथ नहीं। धर्मग्रंथ में लिखने की जरूरत नहीं है।
अभी मैं एक अमृतसर में एक वेदांत सम्मेलन में गया था। एक बड़े संन्यासी हैं, वो अपने प्रवचन के बाद नारे लगवाए देते थे--धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, उन्होंने जैसे बोला तो मैंने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। ये कहते हैं धर्म की जय हो, फिर अधर्म बचेगा, नाश करने के लिए? धर्म की जय हुई बात खतम हो गई, आगे की बात शुरू कर दो। यानी यह ऐसे ही है जैसे दीया जले कि अंधेरा हटाएंगे। बड़ी मुसीबत आएगी कि वह दीये से पूछने जाएगा कि अंधेरा हटेगा। वह कहेगा कि मैंने तो अंधेरा देखा ही नहीं कभी। अब किसी को पता नहीं है कि यह जो नारा दिया जा रहा है, कि धर्म की जय में सब हो गई बात। वह अधर्म के नाश में भी सब बात पूरी हो गई। ये कोई दो चीजें नहीं हो सकतीं, ये किसी एक ही चीज के दो हिस्से हैं। डर लगता है, वही डर है जो हमें धर्म से... । नीति बड़ी साफ, बड़ी बात है। बड़ी साधारण बात है, धर्म का उससे क्या लेना-देना।

प्रश्नः असल में ईश्यावास्योपनिषद का जो वाक्य है पहला... इस इदमं को मध्य-युग में बिल्कुल ही हम लोगों ने दृष्टि से बाहर कर दिया है और इसमें पार्टिसिपेशन नहीं होता।

नहीं हो सकता, बड़ी खाई है। इसके कारण हमारी कला ने कुछ --क्षति उठाई है। क्योंकि जब... या कला का छोटा... बनेगा तो उसकी कला भी फिर छोटी बनेगी। कर्त्ता जब बिल्कुल... पर्याप्त हो जाएगा तो वह भी पर्याप्त हो जाएगी। और मुख्य समस्या आज की मेरी दृष्टि में... यानि मेरी अपनी समस्या यही है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति की समस्या है। अनुभूति पूरी हो तो फिर... मेरी जीवन की समस्या यही साहित्य की...

प्रश्नः बचा नहीं पाए फिर भी?

नहीं बचा पाए, बौद्ध भिक्षु तब... हिंदुस्तान की सीमाओं से भाग खड़े हुए।

प्रश्नः इसी वजह से?

हां, सीमांत पर फोर्सेज खड़ी करनी जरूरी थीं लेकिन नहीं हुईं। जैनियों के मुनियों को नहीं है श्रेय इस बात का वो नहीं... बौद्ध भिक्षु एकदम भागे सीमाओं की तरफ, और चीन में, बर्मा, और लंका, और जापान और अफगानिस्तान, बौद्ध भिक्षु एकदम भागे खयाल में आ गई बात। एक टीस... पैदा हो गई है शुभ की, और अशुभ की शक्तियां दौड़ पड़ रही हैं। सीमांत पर जाकर गढ़ बनाना जरूरी है। यानी जैसे हमें मिलिटरी सीमाओं पर खड़ी करनी पड़ती है, वैसा ही... अपने गढ़ बनाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन दुश्मन घुस चुका है।

प्रश्नः तो आचार्य जी! इसका उलटा भी तो हो सकता है, जब अशुभ की इतनी शक्तियां हों तो शुभ ही उसमें जाकर हारेगा... ?

बिल्कुल हो सकता है, बिल्कुल, इसलिए मैं उत्सुक नहीं हूं बहुत अमरीका या यूरोप में, मेरी उत्सुकता ज्यादा नहीं है, मेरी उत्सुकता ज्यादा नहीं है, क्योंकि इतने फैलाव पर काम नहीं हो सकता। कनसनट्रेट का काम बहुत... और फिर यूरोप, अमरीका के पास करंट चीजें हैं, उनके पास साइंटिफिक हिस्ट्री है, इस अर्थ में वे लोग हिस्ट्रीलेस हैं। ये बड़े मजे की बात है कि इसीलिए हमने दूसरी हिस्ट्री नहीं लिखी। हमें इसकी हिकर नहीं थी कि राम कब पैदा होते हैं, कृष्ण कब पैदा होते हैं? हम किसी और हिस्ट्री में जी रहे हैं। हमारा जो जानने वाला था, वह इतिहास के किन्हीं और हिसाबों के रखे रहा। इसकी हमने बहुत फिक्र नहीं कि राम कब पैदा होते हैं, कब मरते हैं, बुद्ध कब पैदा होते हैं, मरते हैं कि नहीं मरते। हमने इतिहास लिखा ही नहीं है। क्योंकि हम कहीं और इतिहास का टंकण कर रहे थे, किसी और आयाम में, पश्चिम के पास दूसरा कोई डाइमेन्शन नहीं था, तो उन्होंने हिसाब लिख दिया कि आदमी कब पैदा हुआ, कब मरा? बहुत इस पर काम की जरूरत है। बहुत।

प्रश्नः अब जैसे यह चीन मुल्क है, रक्षा करता... है ये परमात्मा, इस नाम की चीज नहीं है बिल्कुल, ... ये टॉप पर आए हैं, तो इस परमात्मा को विध्वंश कर दूं, परमात्मा कोई चीज नहीं है, ये भी उस... शक्ति की जो पीक है।

हां, बिल्कुल ई.जी है, संभावना बहुत है।

प्रश्नः संभावना वहां है या और है?

संभावना वहां भी है और बाहर भी। वहां भी है। लेकिन इविल फोर्सेस के पास बहुत टेक्नोलॉजी उपस्थित हो गई है। जो कि पहले कभी नहीं थी। और जो गुड फोर्सेज थे, उनके पास अब भी गैर साइंटिफिक माइंड है। उनकी सारी तकलीफ यह है। यानि जो इविल है वह तो पूरा साइंटिफिक है। और जो गुड है वो अभी अनसाइंटिफिक। और वह गुड जिद किए जा रहा है कि हम अनसाइंटिफिक ही रहेंगे। हम भजन-कीर्तन करेंगे। और जो मैं जिसको ध्यान करवाना कह रहा हूं, यह साइंटिफिक मेथड है। भजन-कीर्तन से जो वर्षों में न हो सके, वह पांच दिन में भी हो सकता है। और वे पांच दिन में चौबीस घंटे मुझे दे दें, क्योंकि पचास साल का हो तो उसे पांच घंटे बहुत हैं, लेकिन वह... गुड जो है, ट्रेडिशनल है, और इविल जो है वह बहुत इंवेंटिव है, और साइंटिफिक है। वह सब इंतजाम कर लेती है। उसके मुकाबले जीतना मुश्किल हो जाता है। यानि जो-जो काम भौतिक तल पर आज किए जा रहे हैं, वो सब काम आध्यात्मिक तल पर कभी कर लिए गए हैं। जैसे चांद पर जाना है, आध्यात्मिक तल पर कभी की हो गई बात। लेकिन जिन फोर्सेज ने किए थे, उन फोर्सेज के पास कोई टेक्नीक नहीं किसी को बताने की। वे अगर कहें भी कि चांद पर चले गए... पहले तो वे बेवकूफ प्रतीत... होते हैं कहां गए, क्या हुआ? उनके पास कोई टैक्नीक नहीं थी बताने की। और इविल के पास सीधा टेक्नीक है, क्योंकि वह मैटीरियलिस्ट है। वह मेटर पर टेक्नीक का काम कर रहा है तो वहां भी संभावना है, लेकिन बहुत मुश्किल मामला है। बहुत मुश्किल मामला है। संभावना है, लेकिन ये बहुत मुश्किल मामला है। क्योंकि जाल बहुत सख्त है, अच्छाई को पैदा होने के लिए।
हिंदुस्तान अब भी सौभाग्यशाली है। कितना ही कुछ हो गया, लेकिन वह कम से कम धारणाएं... लूज तो... जो है अभी, वह है, उसका उपयोग करने की बात है। और मजा यह है कि उन धाराओं को जो, जिनको कहना चाहिए कि ठेकेदार हैं वे दुश्मन हैं आज। जो-जो उन धाराओं के ठेकेदार हैं यानि अगर महावीर की धारा को आज... लूज किया जा सकता है, लेकिन जैन मुनि... । क्योंकि जो महावीर में उत्सुक हैं, जैन मुनि से उलझे हुए हैं। और जो जैन मुनि से नहीं उलझे, वे महावीर में उत्सुक नहीं। अब जैसे मैं अगर महावीर की धारा पर कुछ काम करवाऊं तो जैन मेरे पास आएगा नहीं, क्योंकि वे अजैनी मुनि के चक्कर में है, वह जैन मुनि कह रहा है, तुम कहां जा रहे हो? और आज जैन को महावीर में कोई उत्सुक्ता नहीं, उसका कोई संबंध नहीं। वह इसलिए महावीर में उत्सुक नहीं है। अगर मैं कृष्ण की बात करूं तो हिंदू शंकराचार्य से पूछेगा कि ये क्या कह रहे हैं? यह सारा मामला है। अगर आज मैं क्राइस्ट की कुछ बात कहूं, तो क्रिश्चियन पहले अपने पादरी की सुनेंगे, मेरी थोड़े ही सुनेंगे। और जो क्रिश्चियन नहीं है, उसको मतलब नहीं है क्राइस्ट से। ऐसी सारी प्रॉब्लम है। लेकिन सब तोड़ा जा सकता है, थोड़ी मेहनत करने के बाद। और मेरे लिए मेहनत से क्या हर्जा है?

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