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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-01)

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(कबीरदास)

पहला-- प्रवचन

करो सत्संग गुरुदेव से

संत कबीर की वाणी पर ओशो जी द्वारा बोले गये दस अमृत प्रवचनों का संकलन जो दिनांक १ जून, १९७५, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसू्त्र :

गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै।
गुरुदेव बिन जीव की भला नाहिं।।
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासै नहिं।
समझि विचार लै मन माहि।।
रहा बारीक गुरुदेव तें पाइये।
जनम अनेक की अटक खोलै।।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै।
जीव और सीव तब एक तोलै।।
करो सतसंग गुरुदेव से चरन गहि।
जासु के दरस तें भर्म भागै।।
सील औ सांच संतोष आवै दया।
काल की चोट फिर नाहिं लागै।।
काल के जाल में सकल जीव बांधिया।
बिन ज्ञान गुरुदेव घट अंधियारा।।
कहै कबीर बिन जन जनम आवै नहीं।
पारस परस पद होय न्यारा।।


अंधेरा नया नहीं, अति प्राचीन है। और ऐसा भी नहीं है कि प्रकाश तुमने खोजा न हो। वह खोज भी उतनी ही पुरानी है, जितना अंधेरा। क्योंकि यह असंभव ही है कि कोई अंधेरे में हो और प्रकाश की आकांक्षा न जगे। जैसे कोई भूखा हो और भोजन की आकांक्षा पैदा न हो। नहीं, यह संभव नहीं है।
भूख है तो भोजन की आकांक्षा जगेगी।
प्यास है तो सरोवर की तलाश शुरू होगी।
अंधेरा है तो आलोक की यात्रा पर आदमी निकलता है।
अंधेरा भी पुराना है, आलोक की आकांक्षा भी पुरानी है; लेकिन आलोक मिला नहीं। उसकी एक किरण के भी दर्शन नहीं हुए। भटके तुम बहुत, खोजा भी तुमने बहुत, लेकिन परिणाम कुछ हाथ नहीं आया। बीज तो तुमने बोये, लेकिन फसल तुम नहीं काट पाये।
क्योंकि अंधेरे में चलनेवाले आदमी को प्रकाश का कोई भी तो पता नहीं। उसने प्रकाश कभी जाना नहीं। वह उसे खोजेगा जैसे? वह किस दिशा में यात्रा करेगा?
और अगर अपने से ही पूछता रहा मार्ग, तो भटकेगा ही। उसकी भटकन वर्तुलाकार हो जायेगी। चलेगा बहुत, पहुंचेगा कहीं भी नहीं।
किसी से पूछना पड़ेगा। अपने से थोड़ा ऊपर उठना पड़ेगा। किसी से पूछना पड़ेगा, जिसने प्रकाश जाना हो, जिसने जीया हो उस अनुभव को; जिसके जीवन में वह अमृत-धार बही हो।
गुरु का इतना ही अर्थ है। जो तुम खोज रहे हो, वह उसे मिल गया। जिसे तुम चाहते हो, वह उसकी संपदा हो गई। जो तुम होओगे, वह हो चुका है।
तुममें और गुरु में इतना सा ही फासला है।   बीज हो, वह वृक्ष है। तुम संभावना हो, वह समाप्ति है। तुम प्रारंभ हो, वह अंत है। जरा सा ही फासला है। शायद एक कदम का फासला है।
लेकिन अपने से बाहर उठे बिना मार्ग न मिलेगा। तुम ही खोजोगे, तुम्हारी खोज तुम्हारे अंधकार की ही खोज होगी। तुम ही सोचोगे, तुम्हारा सोचना तुम्हारे अनुभव के पार न जायेगा।
और बहुत-बहुत बार एक ही उलझन में उलझे रहने से अनेक परिणाम होते हैं। या तो उलझन दिखाई ही पड़ना बंद हो जाती है, तुम आदी हो जाते हो। बहुत लोग आदी हो गये हैं अंधकार के। उन्होंने खोज ही बंद कर दी।
या तुम्हारे जो ढंग, अनेक बार प्रयोग तुमने किए हैं, वे इतने थिर हो जाते हैं, कि तुम उनका अंधा अनुकरण किए चले जाते हो। यांत्रिक ढंग से दोहराये चले जाते हो। फिर तुम यह भी नहीं सोचते कि कोई निष्कर्ष हाथ आता है या नहीं आता है?
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के आश्रम में प्रविष्ट होने के लिये चार स्त्रियां पहुंचीं। उनकी बड़ी जिद थी, बड़ा आग्रह था। ऐसे सूफी उन्हें टालता रहा, लेकिन एक सीमा आई कि टालना भी असंभव हो गया। सूफी को दया आने लगी, क्योंकि वे द्वार पर बैठी ही रहीं--भूखी और प्यासी; और उनकी प्रार्थना जारी रही कि उन्हें प्रवेश चाहिए।
उनकी खोज प्रामाणिक मालूम हुई तो सूफी झुका। और उसने उन चारों की परीक्षा ली। उसने पहली स्त्री को बुलाया और उससे पूछा, "एक सवाल है। तुम्हारे जवाब पर निर्भर करेगा कि तुम आश्रम में प्रवेश पा सकोगी या नहीं। इसलिए बहुत सोच कर जवाब देना।'
सवाल सीधा-साफ था। उसने कहा कि एक नाव डूब गई है; उसमें तुम भी थीं और पचास थे। पचास पुरुष और तुम एक निर्जन द्वीप पर लग गये हो। तुम उन पचास पुरुषों से अपनी रक्षा कैसे करोगी? यह समस्या है।
एक स्त्री और पचास पुरुष और निर्जन एकांत! वह स्त्री कुंआरी थी। अभी उसका विवाह भी न हुआ था। अभी उसने पुरुष को जाना भी न था। वह घबड़ा गई। और उसने कहा, कि अगर ऐसा होगा तो मैं किनारे लगूंगी ही नहीं; मैं तैरती रहूंगी। मैं और समुद्र्र में गहरे चली जाऊंगी। मैं मर जाऊंगी, लेकिन इस द्वीप पर कदम न रखूंगी।
फकीर हंसा, उसने उस स्त्री को विदा दे दी और कहा, कि मर जाना समस्या का समाधान नहीं है। नहीं तो आत्मघात सभी समस्याओं का समाधान हो जाता।
यह पहला वर्ग है, जो आत्मघात को समस्या को समाधान मानता है। तुम चकित होओगे, कि तुममें से अधिक लोग इसी वर्ग में हैं। हर बार जीवन में वही समस्याएं हैं, वही उलझने हैं, और हर बार तुम्हारा जो हल है, वह यह है कि किसी तरह जी लेना और मर जाना। फिर तुम पैदा हो जाते हो।
इस संसार में मरने से तो कुछ हल होता ही नहीं। फिर तुम पैदा हो जाते हो, फिर वही उलझन, फिर वही रूप, फिर वही झंझट, फिर वही संसार; यह पुनरुक्ति चलती रहती है। यह चाक घूमता रहता है। तुम्हारे मरने से कुछ हल न होगा। तुम्हारे बदलने से हल हो सकता है। मरने से हल नहीं हो सकता। मर कर भी तुम, तुम ही रहोगे। फिर तुम लौट आओगे।
और अगर एक बार आत्मघात समस्या का समाधान मालूम हो गया तो तुम हर बार यही करोगे। तुम्हारे मन में भी अनेक बार किसी समस्या को जूझते समय जब उलझन दिखाई पड़ती है और रास्ता नहीं मिलता, तो मन होता है, मर ही जाओ। आत्महत्या ही कर लो। यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का निचोड़ है। पर इससे कुछ हल नहीं होता। समस्या अपनी जगह खड़ी रहती है।
दूसरी स्त्री बुलाई गई। वह दूसरी स्त्री विवाहित थी, उसका पति था। यही सवाल उससे भी पूछा गया, कि पचास व्यक्ति हैं, तू है; नाव डूब गई है सागर में, पचास व्यक्ति और तू एक निर्जन द्वीप लग गये हैं। तू अपनी रक्षा कैसे करेगी?
उस स्त्री ने कहा, इसमें बड़ी कठिनाई क्या है? उन पचास में जो सबसे शक्तिशाली पुरुष होगा, मैं उससे विवाह कर लूंगी। वह एक, बाकी उनचास से मेरी रक्षा करेगा।
यह उसका बंधा हुआ अनुभव है। लेकिन उसे पता नहीं, कि परिस्थिति बिलकुल भिन्न है। उसके देश में यह होता रहा होगा, कि उसने विवाह कर लिया और एक व्यक्ति ने बाकी से रक्षा की। लेकिन एक व्यक्ति बाकी से रक्षा नहीं कर सकता। एक व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली हो, पचास से ज्यादा शक्तिशाली थोड़े ही होगा। रक्षा असल में एक पति थोड़े ही करता है स्त्री की! जो पचास की पत्नियां हैं, वह उन पचास को सीमा के बाहर नहीं जाने देतीं।
इसलिए वह जो उसका अनुभव है, इस नई परिस्थिति में काम न आयेगा। वह एक आदमी मार डाला जायेगा, वह कितना ही शक्तिशाली हो। उसका कोई अर्थ नहीं है। पचास के सामने वह कैसे टिकेगा?
पुराना अनुभव हम नई परिस्थिति में भी खींच लेते हैं। हम पुराने अनुभव के आधार पर ही चलते जाते हैं, बिना यह देखे कि परिस्थिति बदल गई है और यह उत्तर कारगर न होगा।
फकीर ने उस स्त्री को विदा कर दिया और उससे कहा, कि तुझे अभी बहुत सीखना पड़ेगा, इसके पहले कि तू स्वीकृत हो सके। तूने एक बात नहीं सीखी है अभी, कि परिस्थिति के बदलने पर समस्या ऊपर से चाहे पुरानी दिखाई पड़े, भीतर से नई हो जाती है। और नया समाधान चाहिये।
लेकिन अनुभव की एक खराबी है, कि जितने अनुभवी लोग होते हैं, उनके पास नया समाधान कभी नहीं होता। छोटे बच्चे से तो नया समाधान मिल भी जाये, बूढ़े से नया समाधान नहीं मिल सकता। उसका अनुभव मजबूत हो चुका होता है। वह अपने अनुभव को ही दोहराये चला जाता है। वह कहता है, मैं जानता हूं, जीया हूं, बहुत अनुभव किये हैं; यह उसका सारा निचोड़ है। उसका मस्तिष्क पुराना, जरा-जीर्ण हो जाता है, बासा हो जाता है।
यह स्त्री बासी हो चुकी थी। इसके उत्तर खंडहर हो चुके थे। इसको यह बोध भी न रहा था, कि हर पल जीवन नई समस्या खड़ी करता है। और हर पल चेतना को नया समाधान खोजना पड़ता है। इसलिए बंधे हुए समाधान, लकीरें, और लकीरों पर चलनेवाले फकीर काम के नहीं हैं। रूढ़िबद्ध उत्तर काम नहीं देंगे। यहां तो सजगता चाहिये। सजगता ही उत्तर हो सकती है। वह स्त्री भी अस्वीकार दी गई।
तुममें से बहुतों के उत्तर बंधे हुए हैं। कोई हिंदू घर में पैदा हुआ है, कोई मुसलमान घर में पैदा हुआ है, कोई जैन घर में पैदा हुआ है। तुम्हारे पास बंधे हुए उत्तर हैं। जैन का एक उत्तर है, मुसलमान का एक उत्तर है, हिंदू का एक। तुम उन बंधे उत्तरों को खोजे जा रहे हो!
महावीर को विदा हुए पच्चीस सौ साल हो गये। पच्चीस सौ सालों में सारी समस्याएं बदल गई, संसार बदल गया, आदमी के होने का ढंग बदल गया, आदमी की चेतना बदल गई। तुम पुराना उत्तर पीटे चले जा रहे हो! तुम यह भूल ही गये हो, कि अब वह समस्या ही नहीं है, जिसके लिये तुम्हारे पास समाधान है। समस्या समाधान में कोई तालमेल नहीं रहा।
वेद बड़े प्राचीन हैं। हिंदू अघाते नहीं यह घोषणा करते, कि हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है। लेकिन जितनी पुरानी किताब उतनी ही व्यर्थ! पुरानी किताब का मतलब ही यह है, कि अब वह दुनिया ही नहीं रही, जब किताब लिखी गई थी। अब वे प्रश्न नहीं रहे, अब वे उलझनें नहीं रहीं। जिंदगी रोज नये ढांचे लेती है, नये रूप, नये रंग!
गंगा रोज नये किनारे को छूती है, पुराने किनारे छूट गए। और तुम पुराने नक्शे लिये घूम रहे हो। तुम्हारा गंगा से मिलन नहीं होता। क्योंकि गंगा नई होती जा रही है, तुम्हारे पास पुराने नक्शे हैं। गंगा ने जिन जमीनों पर बहना छोड़ दिया, तुम वहां के नक्शे लिये हो। और गंगा जहां बह रही है अभी, इस क्षण, वहां तुम्हारे नक्शे की वजह से तुम नहीं पहुंच पाते। कभी-कभी बिना नक्शे का आदमी भी पहुंच जाये, पर पुराने नक्शों को लेकर चलने वाला कभी नहीं पहुंच सकता। उसके लिये तो भारी अड़चन है।
वह दूसरी स्त्री विदा कर दी गई। तीसरी स्त्री बुलाई गई, वह एक वेश्या थी। और जब फकीर ने उसे समस्या बताई कि समस्या यह है, कि पचास आदमी हैं, तुम हो, नाव डूब गई, एकांत निर्जन द्वीप होगा, तुम अकेली स्त्री होओगी। समस्या कठिन है; तुम क्या करोगी?
वह वेश्या हंसने लगी। उसने कहा, मेरी समझ में आता है कि नाव है, पचास आदमी हैं, एक स्त्री मैं हूं। फिर नाव डूब गई है, पचास आदमी और मैं किनारे लग गये, निर्जन द्वीप है, समझ में आता; लेकिन समस्या क्या है? वेश्या के लिये समस्या हो ही नहीं सकती! इसमें समस्या कहां है, यह मेरी समझ में नहीं आता। और जब समस्या ही न हो, तो समाधान का सवाल ही नहीं उठता।
बहुत से लोग हैं तीसरे वर्ग में, जो कहते हैं समस्या कहां है? परमात्मा है कहां, जिसको तुम खोज रहे हो? ध्यान होता कहां है, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो? प्रार्थना, पूजा बकवास है। मोक्ष, निर्वाण सपने हैं। समस्या है कहां? तुम क्यों व्यर्थ पालथी मार कर बैठे हो? क्यों लगा रखा है यह सिद्धासन? किसके लिए आंख बंद किये बैठे हो? कोई आनेवाला नहीं है। कहां जा रहे हो मंदिर-मस्जिदों में? वहां कोई भी नहीं है। सब पुरोहितों का जाल है। शास्त्रों को पढ़ रहे हो? सब कुशल लोगों की उक्तियां हैं। चालाकों का खेल है। मत पड़ो उलझन में; समस्या कोई है ही नहीं। इसलिए समाधान की चिंता मत करो। किस गुरु के पास जा रहे हो, किसलिए जा रहे हो? प्रश्न ही नहीं है, पूछना क्या है?
तीसरे वर्ग के लोग भी हैं। वे इतने दिन तक समस्या में रह लिए हैं, कि समस्या दिखाई पड़नी ही बंद हो गई। जब तुम बहुत किसी चीज के आदी हो जाते हो, तो तुम्हारी आंखें धुंधली हो जाती हैं। फिर वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। अगर तुम्हारे घर के सामने ही कोई वृक्ष लगा हो, तो वह तुम्हें दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। तुम उसे रोज देखते हो, वह दिखाई पड़ना बंद हो जाता है।
कभी तुमने सोचा एकांत में बैठ कर, कि तुम्हारी पत्नी का चेहरा कैसा है? आंख बंद करके सोचो, पत्नी का चेहरा अपनी आंख में न ला सकोगे। तुमने उसे इतना देखा है, कि तुमने देखना ही बंद कर दिया। उसका चेहरा भी उभरता नहीं, साफ नहीं होता, रूपरेखा कैसी है! तुमने कई सालों से उसे देखा ही नहीं है। वर्षों पहले तुम उसे घर ले आये थे, तब शायद एकाध बार देखा होगा शुरू में; फिर तुमने देखा ही नहीं है। तुम भूल ही गये हो। सड़क से निकलने वाली नई अपरिचित स्त्री का चेहरा शायद तुम्हें याद भी रह जाये, लेकिन पत्नी का भूल जाता है, पति का भूल जाता है, मित्र का भूल जाता है!
जिस चीज के साथ तुम धीरे-धीरे रम जाते हो, उसकी चोट पड़नी बंद हो जाती है। जीवन बहुतों के लिये समस्या ही नहीं है। वे चकित होते हैं दूसरों को जीवन का समाधान खोजते हुए देखकर। वे हैरान होते हैं। उनकी नजरों में ये खोजनेवाले पागल हैं, दीवाने हैं। इनके दिमाग में कुछ खराबी हो गई हे; अन्यथा दुनिया सब ठीक है।
"समस्या कहां है?' वेश्या ने पूछा।
वेश्या भी विदा कर दी गई। क्योंकि जिसके लिए समस्या ही नहीं है, उसे समाधान की यात्रा पर कैसे भेजा जा सकता है?
चौथी स्त्री के सामने भी वही सवाल फकीर ने रखा। उस स्त्री ने सवाल सुना, आंखें बंद कीं, आंखें खोलीं और कहा, "मुझे कुछ पता नहीं। मैं निपट अज्ञानी हूं।'
वह चौथी स्त्री स्वीकार कर ली गई।
ज्ञान के मार्ग पर वही सकता है, जो अज्ञान को स्वीकार ले।
स्वाभाविक है यह बात। क्योंकि अगर तुम्हारे पास उत्तर है ही, तो फिर किसी उत्तर की कोई जरूरत न रही। उत्तर है ही, इसका अर्थ है तुम स्वयं ही अपने गुरु हो; किसी गुरु का कोई सवाल न रहा। गुरु की खोज वही कर पाता है, जिसके पास कोई उत्तर नहीं है।
समस्या है! विराट समस्या है। समाधान का कोई ओर-छोर नहीं मिलता।
जीवन एक पहेली है। सुलझाने की कोई कुंजी हाथ नहीं। जितना ही जीवन को देखते हैं, उतनी ही उलझन बढ़ती है, रहस्य बढ़ता है। कल तक जिन बातों को जानते थे कि जानते हैं, वे भी अनजानी हो जाती हैं। उनके भी धागे हाथ से छूट जाते हैं।
जैसे-जैसे समझ बढ़ती है, वैसे-वैसे अज्ञान की स्पष्ट प्रतीति होती है। और जिसको अज्ञान का अहसास होता है, वही केवल गुरु के द्वार पर दस्तक देने में समर्थ है। और जो परम-अज्ञान को अनुभव करता है, वही केवल गुरु के चरणों में झुक पाता है।
ज्ञानी तो झुकेगा कैसे? जो जानता ही है, उसे जनाने का उपाय न रहा। जो सोचता है कि मैं जागा ही हुआ हूं, उसको जगाने की क्या संभावना है? और मजा यह है कि तुम अपनी गहरी नींद में भी सपना देख सकते हो, कि तुम जागे हुए हो। जागे हुए होने के भी सपने आते हैं। जब आदमी नींद में देखता है कि मैं जाग गया, तब ऐसे आदमी को जगाना बड़ा मुश्किल है।
अज्ञान में भी ज्ञान के सपने आते हैं। न मालूम कितने अज्ञानी हैं, जो अपने को पंडित समझते हैं! पंडित है ही उस अज्ञानी का नाम, जिसने अपने को ज्ञानी समझ लिया है। जिसने अपने अज्ञान को ढांक लिया है शास्त्रों से लिए गए उधार शब्दों में।
इसलिए ध्यान रखाना, वास्तविक अज्ञान का बोध तो व्यक्ति को गुरु के चरणों में ले जाता है और ज्ञान का अहंकार शास्त्रों में। तब आदमी शास्त्र खोजता है, गुरु नहीं। क्योंकि शास्त्रों में समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र तो निर्जीव हैं। उन्हें तुम चाहो जैसा उनका अर्थ कर लो।
गुरु को तो तुम न बदल सकोगे। शास्त्र को तुम बदल सकते हो। गुरु तुम्हें बदलेगा। और गुरु की बदलाहट का पहला सूत्र तो यही है, कि पहले वह तुम्हें जगाएगा और बताएगा, कि तुम गहरी नींद में सोए हुए हो। वह पहले तुम्हें इस होश से भरेगा कि तुम अज्ञानी हो, निपट अज्ञानी हो। वह पहले तुम्हारी आंखें अंधकार के प्रति खोलेगा। क्योंकि अंधकार के बाद ही प्रकाश की संभावना है। गिरा हुआ ही उठ सकता है। और जो सोचता है, मैं उठा ही हुआ हूं, शिखर पर विराजमान हूं, उसको उठाने के सब उपाय व्यर्थ हो जाते हैं। कोई ज्ञानी उसको उठाने की झंझट में पड़ता भी नहीं।
अब हम कबीर के इन वचनों को समझने की कोशिश करें। इस कहानी के संदर्भ में बहुत सी बातें साफ हो जायेंगी।
"गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै।'
सूत्र है इस सारी वचनावली का--"कल्पना'।
अज्ञानी कल्पना में जीता है। कल्पना का अर्थ है कि झूठा जगत, जो उसने अपने मन से बना लिया है; जो है नहीं, पर जो उसने आरोपित कर लिया है। एक काल्पनिक जगत में जीता है अज्ञानी। जहां मित्र नहीं हैं, वहां सोच लेता है, मित्र हैं। जहां अपना नहीं है कोई, वहां सोच लेता है अपने हैं। जहां जीवन प्रतिपल मृत्यु के कगार पर खड़ा है, वहां सोच लेता है, कि सदा जीना है! जहां धन धोखा है, वहां उसी को सब कुछ मान कर जी लेता है। जहां देह आज है और कल नहीं होगी, उस देह के साथ ऐसा रससिक्त हो जाता है, कि जैसे यही मैं हूं! जहां विचार हवा की तरंगों से ज्यादा नहीं हैं, उन्हीं विचारों में इतना लीन हो जाता है, जैसे कि शाश्वत, नित्य हैं! जहां अहंकार एक झूठी मान्यता है, उस झूठी मान्यता पर सब निछावर कर देता है; मरने-मारने को राजी, उतारू हो जाता है।
कल्पना अज्ञान का सूत्र है, सत्य ज्ञान का।
सत्य का अर्थ है, जो है, उसे वैसा ही देख लेना; और कल्पना का अर्थ है, जो है उसे वैसा देखना, जैसा तुम चाहते हो। सत्य को देखने के लिए बड़ा साहस चाहिए क्योंकि जरूरी नहीं है कि सत्य तुम्हारी आकांक्षा से राजी हो। जरूरी नहीं है, कि सत्य तुम्हारी आकांक्षा के अनुकूल हो। जरूरी नहीं है, कि सत्य तुम्हारे सपनों की पूर्ति करे। उलटा ही ज्यादा जरूरी है, कि सत्य तुम्हारे सपनों को तोड़ दे।
कहावत है कि डूबता तिनके का सहारा ले लेता है। लेकिन उसे तिनके में नाव दिखाई पड़ती है। और अगर तुम उससे कहो, कि उससे कहो, कि यह तिनका है, इसको पकड़कर तुम बचोगे न, तो वह तुम पर नाराज हो जाएगा। क्योंकि तुम जो कह रहे हो, उसका मतलब यह हुआ कि तुम उसकी मौत की घोषणा कर रहे हो। वह तिनके को नाव मानकर आंख बंद किए बह रहा है। सोचता है, बच जाऊंगा। बड़ी आशा जगाए हुए है।
यूनान में एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। तुमने भी सुनी होगी। एक पुरानी कथा है, कि देवता नाराज हो गए एक व्यक्ति पर। उसका नाम था प्रोमोथियस। वे उस पर नाराज हो गए, क्योंकि उसने देवताओं के जगत से अग्नि चुरा ली और आदमियों के जगत में पहुंचा दी।
और अग्नि के साथ आदमी बड़ा शक्तिशाली हो गया। उसका भय कम हो गया, उसका भोजन पकने लगा, उसके घर में गर्मी आ गई, जंगली जानवरों से रक्षा होने लगी। और जितना आदमी मजबूत हो गया, उतनी उसने देवताओं की फिक्र करना बंद कर दी। प्रार्थना, पूजा क्षीण हो गयी।
प्रोमोथियस पहला वैज्ञानिक रहा होगा, जो अग्नि को पैदा किया। देवता बहुत नाराज हो गए, क्योंकि उनकी पूजा-पत्री में बड़ा भग्न हो गया। सारी व्यवस्था टूट गयी। आदमी डरे न, कंपे न। उसके पास अपनी आग हो गई बचाने के लिए।
तुम सोच भी नहीं सकते कि आदमी आग के बिना कैसा रहा होगा। बड़ा भयभीत! रात सो नहीं सकता था क्योंकि जंगली जानवर! रात भयंकर अंधकार था। सिवाय भय के और कुछ भी नहीं। रात में ही बच्चे जंगली जानवर ले जाते, आदमियों को ले जाते, पत्नियों को ले जाते; सुबह पता चलता। रात बड़ी भयंकर थी।
उसका भय अभी भी आदमी के मन में मौजूद रह गया है। करोड़ों साल बीत गए, लेकिन भय अभी रात में सरकने लगता है फिर से। तुम्हारे अचेतन मन में तुम अब भी वही आदमी हो, जिसके पास अग्नि न थी।
फिर अग्नि ने बड़ी सुरक्षा दी। अग्नि सबसे बड़ी खोज है। अभी तक भी अग्नि से बड़ी खोज नहीं हो पाई। एटम बम भी उतनी बड़ी खोज नहीं है।
प्रोमोथियस पर देवता नाराज हुए। उन्होंने उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया, जमीन पर भेज दिया। फिर उसे कष्ट देने के लिए, उसे पीड़ा में डालने के लिए उन्होंने एक स्त्री रची। पिंडोरा उस स्त्री का नाम है। उसको उन्होंने बड़ा सुंदर रचा। सौंदर्य के देवता ने उसको सौंदर्य दिया, बुद्धि के देवता ने उसे प्रतिभा दी, नृत्य के देवता ने उसको पदों में नृत्य भरा, संगीत के देवता ने उसके कंठ को संगीत से सजाया; ऐसे सारे देवताओं ने मिलकर पिंडोरा बनाई। पिंडोरा जैसी कोई सुंदर स्त्री नहीं हो सकती; क्योंकि सारे देवताओं की सारी सृजनशक्ति उस पर लग गई।
वह प्रोमोथियस को भ्रष्ट करने के लिए उन्होंने पृथ्वी पर भेजी। और उसके साथ चलते वक्त उन्होंने एक पेटी दे दी--एक संदूकची, जो बड़ी प्रसिद्ध है: "पिंडोरा की मंजूषा' और कहा, कि इसे खोलना मत। कभी भूलकर मत खोलना।
देवता चाहते थे, कि वह खोले। इसलिए उन्होंने कहा कि इसको खोलना मत, भूलकर मत खोलना। इसको खोलना ही नहीं है, चाहे कुछ भी हो जाये! स्वभावतः देवता कुशल हैं, चालाक हैं, जिस चीज को खुलवाना हो, उसके लिए यह जिज्ञासा भर देनी, कि खोलना मत, उचित है। अगर वे कुछ न कहते तो शायद पिंडोरा भूल भी जाती उस संदूकची को। लेकिन उस दिन से उसको दिन रात एक ही लगा रहता मन में, कि उस संदूक में क्या है?
बड़ी सुंदर संदूक थी, हीरे-ज़वाहरातों से जड़ी थी। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। आधी रात में उठकर उसने संदूक खोलकर देख ली।
संदूक खोलते ही वह घबड़ा गई। उसमें से भयंकर मनुष्य जाति के दुश्मन निकले--क्रोध, लोभ, मोह, काम, भय,र् ईष्या, जलन! एकदम पिंडोरा की संदूकची खुल गई और उसमें से निकले ये सारे भूत-प्रेत और सारी पृथ्वी पर फैल गए। घबड़ाहट में उसने संदूकची बंद कर दी, लेकिन तब तक देर हो चूकी थी। सब निकल चुके थे, संदूकची में जो-जो थे, सिर्फ एक तत्व रह गया; उस तत्व का नाम है: आशा। बाकी सब निकल गए, संदूक बंद हो गई। सिर्फ आशा, होप भीतर रह गई।
कहानी का अर्थ है, कि लोभ, काम, क्रोध सब तुम्हें बाहर से सताते हैं। आशा तुम्हें भीतर से सताती है।
आशा यानी कल्पना! सपना! इंद्रधनुष! जैसा है नहीं, उसकी कामना। उसका भरोसा, जैसा कभी नहीं होगा। तुम भी अपने यथार्थ क्षणों में जानते हो, ऐसा कभी नहीं होगा, लेकिन सपना तुम्हें पकड़ता है तो तुम भी मानने लगते हो, कि ऐसा ही होगा। वह पिंडोरा की संदूकची में आशा भीतर बंद है--कल्पना, आशा का जाल।
कबीर कहते हैं,
"गुरुदेव बिना जीव की कल्पना ना मिटै।
बिना उस आदमी से मिले, जिसकी कल्पना मिट गई हो, और जिसने सत्य को जाना हो, जिसने सत्य को रंगने-पोतने की व्यवस्था छोड़ दी हो, जिसने सत्य को वैसा ही जाना हो जैसा है, जिसने यथार्थ में अपनी आंखों से कुछ भी उड़ेलना बंद कर दिया हो, जिसने अपने मन के जाल को बाहर फैलाने से रोक लिया हो, जिसने मन ही तोड़ दिया हो, जो अ-मन हो चुका हो। जब तक वह तुम्हें न मिले जाये, कौन तुम्हें तुम्हारी कल्पना से जगाए?
कल्पना: माया। कल्पना--नींद में आंख बंद आदमी का सपना। कितना ही सुंदर हो, लेकिन झूठा।
और हमारी तकलीफ यह है, कि हम झूठ को भी मान लेते हैं, सुंदर होना चाहिए। और सत्य कठोर है। ऐसा नहीं, कि वह सुंदर नहीं है, लेकिन उसके सौंदर्य में एक कठोरता है--होगी ही। वह तुम्हें मालूम पड़ती है कठोरता, क्योंकि तुम सपनों के सौंदर्य में धीरे-धीरे इतने आदी हो गए हो, कि यथार्थ की सख्ती और यथार्थ का यथार्थ तुम्हारे सपनों को तोड़ता मालूम पड़ता है। तुम सपनों के साथ-साथ धीरे-धीरे बहुत कमजोर हो गए हो। इसलिए सत्य को झेल नहीं पाते।
तुम सत्य को भी झेलना चाहो, तो उसके ऊपर झूठ की थोड़ी सी पर्त चाहिए। तुम सत्य को सीधा-सीधा साक्षात नहीं कर पाते। तुम घबड़ाते हो, कि कहीं तुम मिट न जाओ, कहीं तुम टूट न जाओ। तुम कमजोर हो गए हो कल्पना के साथ। कल्पना ने तुम्हें शक्ति तो नहीं दी, तुम्हारी सारी शक्ति छीन ली है।
गुरु का अर्थ है, जो तुम्हें धीरे-धीरे, कदम-कदम, हाथ पकड़ कर ले चले सत्य की तरफ। जो धीरे-धीरे तुम्हारी कल्पना से तुम्हें छुड़ाए।
एक बहुत बड़ा झेन साधक हुआ, लिंची। वह अपने गुरु के पास था। और जब आया था तो गुरु ने उससे निर्वाण की और मोक्ष की और बुद्धत्व की बड़ी मीठी बातें की थीं। और एक सपना पैदा कर दिया था। और लिंची कठोर साधना में लग गया--बुद्धत्व पाना है।
कुछ वर्षों की निरंतर साधना, गुरु के सहवास, सत्संग का परिणाम यह हुआ ध्यान लगने लगा। बुद्धत्व करीब मालूम होने लगा। एक दिन ऐसी घड़ी आ गई, कि लिंची को लगा, कि बस अब एक छलांग और-और मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाऊंगा।
वह गया अपने गुरु के पास, चरण छूकर उसने गुरु से कहा, "बस एक छलांग और! जरा-सा धक्का चाहिए, मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाऊंगा।
गुरु ने कहा, "कैसा बुद्धत्व! कैसा मोक्ष! कैसा निर्वाण! सब बकवास है।
लिंची तो घबड़ा गया। उसने कहा, "क्या आप कहते हैं? मैं तो इसी आशा में सारी साधना में लगा हूं।
उसके गुरु ने कहां, "बच्चों को हम मिठाई देते हैं, ताकि वे स्कूल चले जायें। कोई मिठाई देने के लिए मिठाई नहीं देते, स्कूल भेजने के लिए मिठाई देते हैं। फिर जैसे-जैसे बच्चे को स्कूल में रस आने लगेगा, मिठाई कम होने लगती है। फिर एक दिन मिठाई बंद कर देनी होती है। बुद्धत्व? जब तक पाने की कोई भी आकांक्षा है, तब तक कल्पना काम कर रही है। आज उसे भी छोड़। अब कुछ पाना नहीं है। अब जो है, उसे जानना है।'
लिंची ने लिखा है, मेरा रोआं-रोआं कंप गया। संसार छोड़ना था, बुद्धत्व को छोड़ना! और उसके गुरु ने जो वचन कहा, वह चीन और जापान में बड़ी महत्वपूर्ण उक्ति हो गया है। और झेन साधक उस पर ध्यान करते हैं।
लिंची के गुरु ने कहा: इफ यू मीट द बुद्धा ऑन द वे, इमिजियेटली किल हिम।
अगर बुद्ध तुम्हें कहीं मार्ग पर मिल जायें तो तत्क्षण उनको कत्ल कर देना। एक क्षण रुकना मत।
क्योंकि कहीं ऐसा न हो, कि बुद्धत्व का मोह तुम्हें पकड़ ले। फिर संसार खड़ा हो जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कि तुम सपना धन के संबंध में देखते हो या धर्म के संबंध में। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम सपना इस जगत में एक सुंदर मकान बनाने का देखते हो, या उस जगत में, स्वर्ग में एक सुंदर मकान पाने का; कोई फर्क नहीं पड़ता। सपना, सपना है।
और सब सपने छूट जाने चाहिए। जब सब सपने गिर जाते हैं, जैसे सांप सरक जाता है अपनी पुरानी केंचुली के बाहर और पीछे लौटकर भी नहीं देखता, ऐसे जिस दिन तुम अपने कल्पना के बाहर निकल आते हो उसी दिन सत्य का साक्षात है। उसी दिन मुक्ति है।
वह मुक्ति तुम्हारी आकांक्षाओं की मुक्ति नहीं है। वह मुक्ति तुम्हारे सपनों में सोची गई मुक्ति भी नहीं है। वह निर्माण तुमने जैसा सोचा था, वैसा बिलकुल नहीं है; वह बिलकुल अन्यथा है। लेकिन उसके संबंध में आज तुम कुछ सोच भी नहीं सकते। उसे तो तुम जानोगे, तभी जानोगे। उसका तो तुम अनुभव करोगे, तभी करोगे। वह रस ही ऐसा है। उसका तुम स्वाद लोगे, तभी लोगे।
कबीर कहते हैं,
"गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै।'
अगर तुम अकेले अपने ही सहारे चलोगे तो ज्यादा से ज्यादा यह कर सकते हो कि संसार की कल्पनाएं छोड़ कर तुम मोक्ष की कल्पनाएं करने लगोगे। ज्यादा से ज्यादा इतना हो सकता है; और यह कुछ भी नहीं है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है।
तुम यहां पत्नी को छोड़ोगे तो तुम स्वर्ग में किसी अप्सरा को पाने की कल्पना करने लगोगे। तुम यहां शराब छोड़ोगे तो तुम्हारे स्वर्ग में शराब के चश्मे बहने लगेंगे। तुम यहां तप करोगे, घर की छाया छोड़ोगे, तो तुम्हारा स्वर्ग वातानुकूलित, एअर-कण्डीशण्ड होगा।
होना ही चाहिए। सभी तपस्वी उसी स्वर्ग की कामना कर रहे हैं, जो बिलकुल वातानुकूलित है, शीतल है। शास्त्रों को एअर-कण्डीशनिंग शब्द का पता नहीं था, इसलिए वे कहते हैं, शीतल है, मंद-मंद बयार बहती है, सुबह जैसी शीतलता दिन भर बनी रहती है। उस वक्त तक वातानुकूलित शब्द उन्हें अंदाज में नहीं था, अब है। अब उसे सुधार कर देना चाहिए।
लेकिन तुम ध्यान रखना, ये सारी कल्पनाएं अलग-अलग जातियों की स्वभावतः अलग-अलग होंगी, क्योंकि अलग-अलग जातियों का अनुभव अलग-अलग है।
तिब्बत के शास्त्रों में नहीं लिखा है कि स्वर्ग ठंडा और शीतल है। तिब्बती ठंड और शीत से इस बुरी तरह परेशान हैं। उनका नर्क ठंडा है। वहां बर्फ जमी रहती है, वह कभी नहीं पिघलती। उनके स्वर्ग में तो सूरज सदा निकला रहता है--ऊष्ण, तप्त! कभी बादल नहीं घिरते और कभी बर्फ नहीं जमती।
हिंदू और तिब्बती बहुत दूर नहीं हैं। लेकिन हिंदुओं के स्वर्ग में शीतल मंद बयार बहती है! तिब्बतियों के स्वर्ग में सूरज सदा निकलता रहता है और उत्तप्त बना रहता है! हिंदुओं के नर्क में लपटें जलती हैं और लोग कड़ाहों में डाले जाते हैं--उबलते हुए तेल में। तिब्बतियों के नर्क में लोग ठंडे बर्फ में फेंक दिए जाते हैं, जो वहीं सड़ते हैं।
अब यह जरा सोचने जैसा है, कि क्या सब जातियों के लिए अलग-अलग स्वर्ग और नर्क हैं? क्या तिब्बतियों के लिए कोई विशेष इंतजाम है, हिंदुओं के लिए कोई विशेष?
नहीं! लेकिन हर जाति की कल्पना अपने अनुभव से निकलती है। जैसी जाति होगी, उसकी कल्पना उसके अनुभव से निकलेगी। मुसलमानों का स्वर्ग और ढंग का होगा, हिंदुओं का स्वर्ग और ढंग का, ईसाइयों का स्वर्ग और ढंग का। नर्क भी भिन्न भिन्न होंगे।
क्योंकि हमारी कल्पनाएं हमारे जीवन के अनुभव के विपरीत होती हैं। जो-जो जीवन में हम चूक गए हैं, वह हम स्वर्ग में रख लेते हैं। जो-जो मिल गया है, उसकी हम फिक्र छोड़ देते हैं।
ध्यान रखना, बिना गुरु के तुम्हारी कल्पना न मिटेगी। कल्पना का रूप भर बदल सकता है, ढंग भर बदल सकता है, कल्पना जीवित रहेगी।
कल्पना तो उसी के सहवास में मिट सकती है, जिसके भीतर सत्य का अभ्युदय हुआ हो।
"गुरुदेव बिन जीव का भला नाहिं।।
गुरुदेव बिना जीव का तिमिर नासै नाहिं।'
वह अंधकार नहीं मिटता।
"समझि विचार लै मन माहि।।'
कबीर कहते हैं, ठीक से इस बात को विचार कर ले। इसके पहले, कि तू उस अनंत की यात्रा पर निकले, इसका ठीक से विचार कर ले; कि अनंत की यात्रा पर अगर तू अकेला ही गया तो वह यात्रा तेरे मन से बाहर की न होगी। कोई चाहिए, जो मन के बाहर गया हो, जो तेरा हाथ पकड़ ले और यात्रा पर ले जाए।
जैसे छोटे बच्चे को कोई प्रौढ़ चाहिए, जो हाथ का सहारा दे दे, भरोसा दे दे, श्रद्धा को जन्मा दे और बच्चा उठे और चलने लगे। कोई हाथ चाहिए, कोई सहारा चाहिए।
"समझि विचार लै मन माहि।।
राह बारीक गुरुदेव तें पाइये।'
बहुत बारीक है राह। बड़ी सूक्ष्म और नाजुक। जीसस का वचन है: "स्ट्रेट इज द वे, बट नैरो।' सीधा है मार्ग, पर बड़ा संकीर्ण।
राह बारीक! राह इतनी बारीक है, कि तुम अपने विचार से उसे देख ही न पाओगे, क्योंकि तुम्हारा विचार इतना बारीक नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लो।
तुम्हारा विचार बहुत स्थूल है। विचार मात्र स्थूल होते हैं। सिर्फ ध्यान बारीक होता है। तुम कभी सोचो, तुम कितने ही सूक्ष्म विचार करो, विचार में सूक्ष्मता होती ही नहीं। विचार तो मोटी चीज है, स्थल चीज है। कितना ही बारीक विचार तुम करो, विचार का स्वभाव ही बारीक होना नहीं है।
जब सब विचार खो जाते हैं, सिर्फ निर्विचार दशा रह जाती है, तभी तुम्हारे जीवन में पहली दफा बारीक का बोध होता है।
इसे तुम ऐसा समझो कि बाजार में तुम बैठे हो, बड़ा शोरगुल है बाजार का, कहीं कोई एक पक्षी गीत गा रहा है, क्या तुम्हें सुनाई पड़ेगा? असंभव! बाजार में तो बाजार का शोरगुल, उपद्रव इतना है कि किसी कोयल की धीमी सी आवाज कहां सुनाई पड़ेगी? उसका "कुहू, कुहू,' खो जाएगा उपद्रव में।
फिर तुम एकांत में बैठे हो एक पहाड़ के, बाजार का शोरगुल नहीं है, "कुहू, कुहू' सुनाई पड़ती है। लेकिन वहां भी तुम एक बात ध्यान करना, अगर तुम्हारे भीतर बहुत विचार चल रहे हों, तो उतनी देर को सुनाई पड़ना बंद हो जाएगा। कभी-कभी विचार का क्षण न होगा, तो आवाज सुनाई पड़ेगी। कभी-कभी विचार भीतर शुरू हो जाएंगे, आवाज सुनाई पड़नी बंद हो जायेगी। क्योंकि फिर भीतर बाजार खड़ा हो गया। विचार यानी भीतर का बाजार।
फिर तुम हिमालय पर बैठे रहो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर भीतर विचार का कोलाहल है, तो वह जीवन का सूक्ष्म संगीत बज रहा है, वह तुम्हें सुनाई न पड़ेगा। वह बहुत बारीक है। वह कोयल की आवाज से भी बारीक है। उससे बारीक कुछ भी नहीं, क्योंकि वह अनाहत नाद है। उसी को हम ओंकार कहते हैं। "ओम् तत् सत्' उसी का नाम है।
लेकिन वह इतना बारीक है, इतना बारीक है, कि तुम्हारे विचार जब तक बिलकुल ही न खो जायें, जब तक शून्य न हो जायें भीतर, तब तक तुम्हें उसकी प्रतीति और अनुभूति न होगी।
कबीर कहते हैं,
"राह बारीक गुरुदेव तें पाइये।'
और वह बारीक इतनी है, कि तुम्हें उसका कोई अनुभव नहीं। तुम उस राह पर जाओगे कैसे?
बहुत लोग परमात्मा के संबंध में भी सोचते रहते हैं। अब परमात्मा का सोचने से कुछ लेना-देना नहीं। जब तक सोच है, तब तक परमात्मा नहीं। वे बैठकर सोचते रहते हैं!
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, वर्षों से हम ध्यान कर रहे हैं। मैं पूछता हूं, ध्यान में तुम करते क्या हो? वे कहते हैं, बैठकर परमात्मा का चिंतन-मनन करते हैं। अब परमात्मा का चिंतन-मनन क्या होगा?
यह तो ऐसे ही हुआ कि कोयल तो गीत गा रही है आम के वृक्ष में छिपी, और तुम उसी के नीचे बैठकर कोयल के गीत के संबंध में सोच रहे हो। और तुमने कभी कोयल का गीत सुना नहीं, तुम सोचोगे कैसे? जो जाना ही नहीं है, उसका विचार कैसे करोगे? और जिसने जान लिया है, वह कहीं विचार करता है? जब कोयल ही गा रही हो, तो तुम्हारे विचार करने की, उधार होने की क्या जरूरत है? सीधा कोयल का गीत बरस रहा है, तुम खुले हो जाओ, बरसने दो इस गीत को। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है, तुम सोच क्या रहे हो? किसके संबंध में सोच रहे हो? तुम सोच रहे हो, वह परमात्मा नहीं हो सकता। वह तुमने जो, परमात्मा के संबंध में जो तुमने शास्त्रों में पढ़ा है, तुम वही सोच रहे हो। परमात्मा शब्द परमात्मा नहीं है।
परमात्मा शब्द ही नहीं है, वह एक अनुभव है। तुम जब असोच में होते हो, सब सोच बंद हो गया होता, तब तत्क्षण उसके द्वार खुल जाते हैं।
"राह बारीक गुरुदेव तें पाइये।'
और क्या मिल सकता है गुरु के पास? विचार नहीं, सिर्फ ध्यान। और ध्यान का अर्थ है, एक ऐसी चित्त की दशा, जब तुम जागे हुए पूरे हो और विचार के बादल तुम्हारे भीतर के आकाश में बिलकुल नहीं। सूरज पूरी तरह निकला है होश का, और बदलियां बिलकुल छट गई हैं--नीला आकाश! तुम्हारे होश को छोड़ने के लिए, रोकने के लिए कोई भी अवरोध नहीं है। अबाध बहती है होश की धारा। आकाश पूरा खाली है।
इस सोच-शून्य अवस्था का नाम ही वह बारीक दशा है, जिसे ध्यान कहो। प्रारंभ जब होता है तो ध्यान, जब यह अवस्था पूर्ण हो जाती है तो समाधि।
"राह बारीक गुरुदेव तें पाइये।'
कौन तुम्हारे विचार को धीरे-धीरे तुमसे छीनेगा?
गुरु का अर्थ समझ लेना। हमारे पास दो शब्द हैं, दुनिया के किसी भाषा में वैसा नहीं है। क्योंकि दुनिया की किसी जाति का वैसा गहन अनुभव नहीं है। हमारे पास एक शब्द तो है, शिक्षक; और एक शब्द है, गुरु।
शिक्षक का अर्थ है: जो तुम्हें सिखाए, शिक्षा दे। गुरु का अर्थ है? जो तुमसे छीन ले, तुमने जो सीखा है। जो तुम्हें मिटाए, जो तुम्हें खाली करे। तो गुरु सिखाता नहीं, अनसिखाता है। गुरु तुम्हें कुछ देता नहीं, लेता है। गुरु तुम्हें खाली करता है, शिक्षक तुम्हें भरता है।
धर्म के जगत में भी तुम शिक्षकों से बचना, क्योंकि वे तुम्हें भरेंगे। वे गुरु नहीं हैं। और बड़ी कठिनाई हो जाती है, क्योंकि तुम ही अपने को भरने को आतुर होते हो, इसलिए तुम अक्सर उनके चरणों में चले जाते हो जो तुम्हें भरें। वे अपना ज्ञान तुममें उंडेल देंगे। तुम जानकर हो जाओगे। शायद धीरे-धीरे तुम भी पंडित हो जाओगे। शायद धीरे-धीरे ऐसा मौका आ जाएगा कि तुम भी शिक्षक हो जाओगे और दूसरों को सिखाने लगोगे।
लेकिन गुरु बड़ी अनूठी घटना है। गुरु का मतलब है, जो तुम्हें खाली करे, जो तुम्हें मिटाए, जो तुम्हारी स्लेट पर लिखे हुए को पोंछ दे, जो तुम्हें फिर से कोरा कागज करे।
ऐसी महाराष्ट्र में कथा है। निवृत्तिनाथ एक बड़े अदभुत फकीर हुए। उन्होंने एक पत्र लिखा एक दूसरे संत को। खाली कागज भेज दिया। गुरु लिखे भी तो क्या लिखे? खालीपन ही लिख सकता है। संत को खाली कागज मिला। कहते हैं, संत ने खाली कागज पढ़ा; गौर से पढ़ा। लिखा हुआ हो तो गौर की बहुत जरूरत भी नहीं, लिखोगे क्या? लिखे हुए में पढ़ने-योग्य भी क्या होता है? लेकिन अनलिखा था। बड़ी बारीक बात लिखी थी। शब्द में नहीं आती, वह लिखा था। "अक्षर' ही लिखा था--जो कभी क्षय नहीं होता। अक्षर है। हाथ से बनाए हुए अक्षर बनते हैं, मिटते हैं, इनको क्या लिखाना! असली अक्षर लिखा था, शाश्वत लिखा;इसीलिए तो दिखाई नहीं पड़ता था। जैसे परमात्मा छिपा है, ऐसा पत्र भी छिपा था--कोरा कागज था।
गौर से पढ़ा, बार-बार पढ़ा, क्योंकि कुछ चूक न जाए, कुछ छूट न जाए। पास बैठे लोग जरा चिंतित हुए। कि वह एक आदमी तो पागल मालूम होता ही है, जिसने लिखा है, कोरा कागज भेजा है; और यह आदमी उससे भी ज्यादा पागल मालूम पड़ता है, जो पढ़ रहा है। और एक बार नहीं पढ़ रहा है, बार-बार पढ़ रहा है। और सब तरफ से पढ़ रहा है। क्योंकि लिखे कागज को तुम एक ही तरफ से पढ़ सकते हो, कोरे कागज को तुम सब तरफ से पढ़ सकते हो।
कई तरह से पढ़ा, आगे से पढ़ा, पीछे से पढ़ा, सीधा करके पढ़ा, उलटा करके पढ़ा। मग्न हो गया पढ़कर। फिर उसकी बहन बैठी थी, वह भी एक संतत्व को उपलब्ध महिमा थी। फिर उसने अपनी बहन को कहा, कि तुम पढ़ो। उसकी बहन ने भी पढ़ा। और बहन ने कहा, कि निवृत्तिनाथ पा लिया। मिल गया उसे। क्योंकि कोरापन तो वही दे सकता है, जिसको मिल गया हो।
गुरु तुम्हें कोरापन देगा। इसलिए बहुत बार तुम गुरु के पास जाने से डरोगे, क्योंकि तुम्हारे भीतर जो भरा है, उसे तुम संपत्ति समझ रहे हो। वह कूड़ा करकट है। वह कचराघर में डाल देने जैसा है--तुम्हारे सब विचार। लेकिन उनको तुमने बड़ी संपत्ति की तरह संजोया है! तुम कहते हो, मैं हिंदू, मैं मुसलमान, मैं जैन! मैं शास्त्र का ज्ञाता! गीता मुझे कंठस्थ! कि मैं चतुर्वेदी--चारों वेद का जानने वाला; कि त्रिवेदी--तीन वेद का जाननेवाला! जानकारी तुम्हारी संपत्ति मालूम होती है।
गुरु के पास जाते तुम डरोगे। पंडित कंपता है गुरु के पास जाते। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, कभी-कभी पापी भी पहुंच जाते हैं गुरु के पास, पंडित नहीं पहुंच पाता है। पापी को बहुत डर भी नहीं है। गुरु छीन ही लेगा, पाप ही तो पास में है, कुछ और है भी नहीं! पंडित बहुत डरता है, उसके पास संपत्ति है। कहीं छीन न ली जाए!
और ध्यान रखना, जब तक तुम्हारा भरा हुआ मन खाली न किया जाए, जब तक तुम्हारा पात्र खाली करके मांजा न जाए, तब तक उसमें परमात्मा के अमृत को तुम न ले पाओगे, न झेल पाओगे। तुम्हारा पात्र खाली किया जाना जरूरी है, आग से निकाला जाना जरूरी है, ताकि शुद्ध हो जाए।
"राह बारीक गुरुदेव तें पाइये'--
शिक्षक नहीं दे सकेंगे वह बारीक राह। वे तुम्हें ज्ञान दे सकेंगे, ध्यान न दे सकेंगे।
गुरु वही है, जो ध्यान दे।
ज्ञान तो विश्वविद्यालयों में मिल जाता है। उसके लिए आश्रमों की जरूरत नहीं। उनके लिए गुरुकुलों की जरूरत नहीं है। ज्ञान तो सस्ता है; मिल जाता है कहीं भी। बाजार-बाजार में उपलब्ध है।
ध्यान कठिन है। और कठिनाई यह है, कि ज्ञान तो तुम जैसे हो, वैसे को ही मिल जाता है। ध्यान तो तभी मिलता है, जब तुम मिटने को परिपूर्ण रूप से तैयार होते हो। ध्यान पहले तुम्हें मिटाता है, मरता है। इसलिए पुराने शास्त्रों में एक अदभुत वचन है। वह वचन है: "आचार्यो मृत्युः', आचार्य मृत्यु है। गुरु मृत्यु है। उसके पास जाकर तुम मरोगे। मरना ही पड़ेगा। उसके पास जाकर मिटोगे, मिटाना ही पड़ेगा। क्योंकि मिट कर ही तुम हो सकोगे। तुम्हारा असली स्वरूप तभी प्रगट होगा, जब तुम्हारा कल्पना का स्वरूप गिर जाए और मिट जाए।
"जनम अनेक की अटक खोलै।'
"राह बारीक गुरुदेव तें पाइये।
जनम अनेक की अटक खोलै।।।'
कितने जन्मों से तुम अटके हो!
तुम्हारी "अटक'--यह शब्द बड़ा प्यारा है। यह अटक ऐसी है, जैसे कभी-कभी ग्रामोफोन में सुई अटक जाती है। फिर वह वही का वही दुहराती रहती है, जैसे जप कर रही हो! जहां अटक गई, उसी का जप जारी रहता है। अटक शब्द बड़ा प्यारा है।
तुम एक ही जगह अटके हो। बार-बार वहीं अटक जाते हो, वहीं आ जाते हो। फिर मर जाते हो, फिर पैदा हो जाते हो, फिर वहीं आ जाते हो। सुई अटकी है ग्रामोफोन की। और इतनी बार अटक चुकी है, कि अब वहां गट्ठा हो गया है। अब वहां से आगे सुई जा नहीं सकती, अब तक कि कोई उठाकर ही सुई को आगे न रख दे।
"जनम अनेक की अटक खोलै।'
कोई चाहिए जो तुम्हें उठाकर तुम्हारी अटक के बाहर ले जाए। तुम अपने से न जा सकोगे। थोड़ा सोचो, कि ग्रामोफोन की सुई अपने से कैसे अटक के बाहर जा सकेगी? हां, कोई भूकंप हो जाए, और उपद्रव हो जाए और सब हिल-डुल जाए और शायद सुई झटक जाए। तो कभी-कभी ऐसा भी हुआ है, करोड़ में एकाध आदमी संयोगवशात अटक के बाहर हो गया है। लेकिन संयोग को नियम नहीं बनाया जा सकता। और संयोग अपवाद है। उसके आधार पर चलकर कोई जीवन में क्रांति नहीं ला सकता। जीवन में क्रांति तो नियम से होगी।
"कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै।
जीव और सीव तब एक तोलै।।'
जब पूर्ण गुरु मिलता है तो जीव में और शिव में, आत्मा में और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता। अब यह बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है।
"कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै।
जीव और सीव तब एक तोलै।।'
यह गुरु की लक्षणा है, कि गुरु पूर्ण है या नहीं। पूर्ण गुरु की यह लक्षणा है, यह क्राइटेरियन है, यह निकष, कसौटी है कि वह तुममें और परमात्मा में जरा फर्क न पाएगा। वह तुम्हें और परमात्मा को एक सा ही तौलेगा।
शिक्षक तुम्हारी निंदा करेगा और परमात्मा की प्रशंसा। वह तुम्हारे और परमात्मा के बीच फासला बताएगा, कि कितनी दूरी है। तुम पापी, तुम नारकीय! वह तुम्हारी निंदा करेगा और परमात्मा की स्तुति करेगा। वह शिक्षक है।
पूर्ण गुरु वही है, जो तुम्हारी सारी निंदा के जाल को तोड़ दे, जो तुम्हारी सारी आत्मग्लानि को तोड़ दे, जो तुम्हारे भीतर गहरे अपराध के भाव को तोड़ दे, जो तुम्हें तुम्हारे पाप की कल्पना के ऊपर उठाए और तुमसे कहे--"तत्वमसि श्वेतकेतु'। तुम वही हो। वही परमात्मा तुम हो। रत्ती भर भी फर्क नहीं है। जो तुम्हें तुम्हारे परमात्मा होने की तरफ जगाए।
इसलिए गुरु के पास तुम निंदा न पाओगे, स्वीकार पाओगे। इसलिए गुरु की आंख में तुम जरा भी तुम्हें अपराधी सिद्ध करता हुआ कोई भाव न पाओगे। गुरु की आंख में तुम तुम्हारे भीतर छिपे परमात्मा की स्तुति ही पाओगे।
पर तुम भी अपनी निंदा पसंद करते हो! यह बड़े मजे की बात है। साधारणतः हम सोचते हैं कि लोग निंदा क्यों पसंद करेंगे? कोई निंदा पसंद नहीं करता। लेकिन तुम निंदा पसंद करते हो। कारण हैं उसके; क्योंकि तुम खुद ही मानते हो, कि तुम परमात्मा हो नहीं सकते। तुम्हें खुद भी भरोसा नहीं है। तुम सोचते हो चोर हो तुम, बेईमान हो तुम, धोखेबाज हो तुम, कैसे तुम परमात्मा हो सकते हो? इसलिए जब कोई तुम्हारी निंदा करता है, तब तुम सिर हिलाते हो। तुम भी हां भरते हो। तुम भी कहते हो, बात ठीक है।
तुम्हारे इस अनुभव के कारण तुम्हारी निंदा करने वालों का एक जाल पलता है। वे जितनी तुम्हारी निंदा करते हैं, उतने ही वे तुम्हें प्यारे मालूम पड़ते हैं। लगता है, कि यह आदमी बिलकुल ठीक कह रहा है, क्योंकि यही तुम्हारा अनुभव भी है।
इसलिए तुम देखोगे, संन्यासी समझाते रहते हैं लोगों को। गालियां देते रहते हैं चोरी को, झूठ को, क्रोध को, लोभ को। और सब चोर, लोभी, क्रोधी बैठे हुए बड़े प्रसंन होते रहते हैं। ताली भी बजाते हैं, सिर भी हिलाते हैं।
क्या कारण होगा? तुम्हारे अनुभव से मेल खाता है। गुरु की बात तुम्हारे अनुभव से मेल न खायेगी। वह उसके अनुभव से मेल खाती है, तुम्हारे अनुभव से नहीं। गुरु कहता है: "तुम परमात्मा हो।' तुम सुन लेते हो, सोचते हो, शायद! पता नहीं। मगर भरोसा नहीं आता। क्योंकि तुम अपने को भलीभांति जानते हो। और तुमने जैसा अपने को जाना है अपनी नींद में, वह तुम्हारा सच्चा स्वरूप नहीं है।
तुम्हारी हालत ऐसी है, जैसे किसी ने सपने में जाना हो कि वह हत्यारा है; और हम उसे जगा कर कहें कि तू हत्यारा नहीं है; और वह कहे कि मैं कैसे मानूं? अभी-अभी तो हत्या की, हाथ अभी-अभी तो सुर्ख खून से भरे थे। अभी तो किसी का गला दबाया, मैं कैसे मानूं?
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि सभी गुरु यही कहते रहे हैं कि तुमने जो भी किया है बुरा और भला; सब सपना है। तुम उसके बाहर हो। जागते ही तुम उससे मुक्त हो जाओगे।
"कहे कबीर गुरुदेव पूरन मिलै।
जीव और सीव तब एक तोलै।।
करो सत्संग गुरुदेव से चरण गहि।
जासु के दरस तें भर्म भागै।।
"करो सत्संग गुरुदेव से चरण गहि'--
सत्संग शब्द समझने जैसा है। यह भी भारत का अपना शब्द है। सत्संग का अर्थ होता है, गुरु के साथ होना--सिर्फ साथ होना, गुरु के पास होना। एक समीपता, आत्मीयता! बस, इतना काफी है।
जैसे वैज्ञानिक कहते हैं, कैटलिटिक एजेंट होता है, जिसकी मौजूदगी में घटनाएं घट जाती हैं बिना उसके सहयोग के। गुरु कुछ करता नहीं। अगर तुम उसकी मौजूदगी में मौजूद हो जाओ, अगर तुम उसके आभा-मंडल में स्नान कर जाओ, अगर तुम उसके पास आ जाओ, और उसकी तरंगों में लीन हो जाओ, वह जिस जगत में बह रहा है, अगर क्षण भर को तुम अपनी नौका उसके जगत में छोड़ दो और उसके साथ बह जाओ; अगर तुम थोड़ी देर उसके तीर्थ में स्नान कर लो, तो सब हो जाता है।
लेकिन गुरु के पास होना बड़ी कला है। बड़ा धैर्य चाहिए, बड़ा संतोष चाहिए। जल्दबाजी काम न आएगी। मांग से तुम गुरु से दूर हो जाओगे। बिना मांगे उसके पास रहो। तुम यह भी मत कहो, कि कब घटेगी घटना? तुम सिर्फ प्रतीक्षा करो और प्रेम करो और प्रार्थना करो।
सत्संग का अर्थ है: मांगो मत, सिर्फ मौजूद रहो।
जब भी तुम पूरे होओगे, जब भी घड़ी पकेगी, जब भी मौसम आएगा--और हर चीज का मौसम है; और हर बात की घड़ी है; और हर चीज के पकने का समय है--जब भी पकोगे, गुरु की नजर तुम पर पड़ेगी।
वह सदा मौजूद है, तुम भर मौजूद हो जाओ। जब तुम्हारी दोनों की मौजूदगियां मिल जाएंगी; जैसे एक बुझा हुआ दीया जले हुए दीये के करीब--और करीब, और करीब आता जाए और एक क्षण में लपट छलांग ले ले; जलता हुआ दीया झपटे और बुझे हुए दीये में ज्योति पकड़ जाए।
मजा यह है कि जलते हुए दीये का कुछ खोता नहीं, उसकी ज्योति में कोई कमी नहीं आती। हजार दीये जल जाएं उससे, तो भी उसकी ज्योति "उसकी ज्योति' बनी रहती है। कोई फर्क नहीं पड़ता। बुझे हुए दीयों को बहुत मिल जाता है और जले हुए दीये का कुछ भी नहीं खोता।
सत्संग की कला जले हुए दीये के करीब सरकने की कला है।
मांगो मत। क्योंकि मांगने का कोई सवाल नहीं है। करीब होने का एक क्षण है, एक खास दूरी है, एक खास समीपता है, तब छलांग अपने से लग जाती है।
क्या करते हो, जब तुम बुझे दीये को जलाते हो जले के पास लाकर? दोनों को पास लाते हो। फीट भर दूर रखोगे, कितना ही शोरगुल मचाओ, लपट नहीं उठेगी। पास लाओ, पास लाओ--एक खास क्षण है, जब तुम्हारे बिना कहे छलांग लग जाती है।
"करो सत्संग गुरुदेव से चरण गहि।'
और सत्संग का एक ही उपाय है, कि तुम समर्पित हो जाओ। तुम छोड़े दो। तुम उसी पर छोड़ दो अपना भविष्य भी, अपने होने की संभावना भी। तुम अपने को पकड़े मत रहो, क्योंकि तुम्हारी पकड़ गुरु को मौका न देगी कि तुम्हारे भीतर जा सके। तुम बंद रहोगे।
"करो सत्संग गुरुदेव से चरण गहि।
जासु के दरस तें भर्म भागै।।
उसके दर्शन से ही भ्रम भाग जाता है, बस तुम पास आओ। तुम गुरु को ठीक से देख लो।
क्या होता है दर्शन से?
गुरु को ठीक से देखने में ही पता चलता है, कि तुमने अपने को भी देख लिया। गुरु तो एक दर्पण बन जाता है। उसमें तुम अपनी ही छाया देख लेते हो।
गुरु तो स्वयं मिट चुका है, इसलिए गुरु है। अगर "है' तो उसके तुम कितने ही पास आओ, तुम अपने को न देख पाओगे। तुम गुरु को ही देख पाओगे। गुरु तो वही है, जो मिट चुका है, शून्य हो गया। वह तो एक ऐसी झील है, जिसकी सब तरंग खो गई। अब वह दर्पण है। तुम जैसे-जैसे करीब आओगे, तुम्हें गुरु नहीं मिलेगा, तुम ही मिलोगे। तुम्हें अपनी ही झलक दिखाई पड़ेगी। तुम एक दिन पाओगे, कि गुरु दर्पण हो गया। उसने तुम्हें तुम्हीं को बता दिया।
"जासु के दरस तें भर्म भागै।
सील और सांच संतोष आवै दया।
काल की चोट फिर नाहिं लागै।'
जिसको अपना आत्मबोध हो जाता है गुरु के पास, फिर शील, आचरण, सत्य, संतोष, दया सब अपने से चले आते हैं।
 जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ, तब तक तुम्हें शील लाना पड़ता है, चेष्टा करनी पड़ती है। सम्हालो आचरण को, साधो अहिंसा को; करुणा, दया, दान--प्रयत्न होते हैं। प्रयत्न के कारण ही बहुत गहरे नहीं होते, ऊपर-ऊपर होते हैं।
अपनी छवि जिस दिन तुमने देख ली गुरु के दर्पण में, उस दिन...
"सील और सांच संतोष आवै दया।
"काल की चोट फिर नाहिं लागै।।'
और मृत्यु उसी दिन मिट जाती है, जिस दिन तुमने गुरु के दर्पण में अपने को देख लिया। उसी दिन गुरु की जरूरत भी मिट जाती है। वह तो बहाना था अपने को देख लेने का। अब अपने को देख चुके, अब दर्पण की कोई जरूरत न रही।
जिसने अपने को देख लिया, उसका आचरण रूपांतरित हो जाता है। उससे असत्य ऐसे ही गिर जाता है, जैसे सुबह सूरज के उगने पर ओस कण विलीन हो जाते है। उससे हिंसा ऐसे ही खो जाती है, जैसे दीये के जलने पर अंधेरा खो जाता है।
दो मार्ग हैं। एक है आचरण का मार्ग; उसको मैं नीति कहता हूं। साधो सत्य को, अहिंसा को, दया को, करुणा को। और एक है धर्म का मार्ग। साधो केवल समाधि को और शेष सब अपने से चला आता है।
जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है, कि पहले तुम परमात्मा को खोज लो, शेष सब अपने से चला आता है।
नीति और धर्म में बड़ा भेद है। नीति तो ऐसे है, जैसे अंधा आदमी लकड़ी टटोल-टटोल कर रास्ता खोजता है। धर्म ऐसे है, जैसे आंखवाला आदमी लकड़ी को फेंक कर मस्ती से चलता है। चाहे तुम नाच कर भी निकले दरवाजे से, तो कोई हर्ज नहीं।
"काल की चोट फिर नाहिं लागै।
और जिसने अपने को देखा, उसने यह भी देख लिया कि मृत्यु नहीं है। जिसने अपने को नहीं देखा, उसी को लगता है, मृत्यु है। तुम्हारा जो भीतर स्वरूप है, है वह अमृत है।
"काल की चोट फिर नाहिं लागै।
काल के जाल में सकल जीव बांधिया।।
बिन ज्ञान गुरुदेव घट अंधियारा।
कहै कबीर बिन जन जनम आवै नहीं।।
पारस परस पद होय न्यारा।।'
जैसे ही दिखाई पड़ती है, कि मैं कौन हूं; तब परमात्मा में, आत्मा में कोई फर्क नहीं रहा। मृत्यु खो गई। अमृत उपलब्ध हुआ। तब गाने लगता है तुम्हारा प्राण--"पायो री, राम रतन धन पायो।'
कबीर कहते हैं "चहुं दिशि दमके दामिनी।' अब चारों तरफ प्रकाश चमकता है।
दयाबाई, सहजोबाई या दादू, सभी के पदों में एक पद तुम्हें बार-बार मिलेगा; वह है, "सब तरफ रोशनी चमकती है, आकाश में बादल घिरे हैं, अमृत बरसता है--अमीरस बरसे। सहजोबाई ने कहा है, "बिन घन परत फुहार।' कहीं मेघ भी नहीं दिखाई पड़ते और अमृत की फुहार पड़ रही है।
तुम हो जब तक अहंकार, तब तक मृत्यु है। तुम जिस दिन हो जाओगे स्वरूप, उसी दिन मृत्यु खो जाती है। मृत्यु तुम्हारी नहीं है, तुम्हारे भ्रांतियों की है, तुम्हारे भ्रमों की है।
"कहै कबीर बिन जन जनम आवै नहीं।'
और फिर लौटता नहीं कोई। फिर वापस इस संसार में नहीं आता कोई। फिर अमृत के लोक का वासी हो जाता है।
"पारस परस पद होय न्यारा।'
जिसने छू लिया उस अमृत-ज्ञान के पारस को, उसका पद ही न्यारा हो जाता है। फिर वह संसार की भीड़ में नहीं उतरता। फिर इस संसार में उसे सीखने को कुछ भी न बचा। सीख लिया! जो जानने योग्य था, जान लिया। जो पाने योग्य था, पा लिया।
इस संसार में तो उन्हीं को वापस आना पड़ता है, जिनका अनुभव आधा रह गया, कच्चा रह गया। यह संसार तो विद्यापीठ है। यहां विद्यार्थी जो अनुत्तीर्ण हो जाते हैं, वे ही वापस लौट आते हैं। जो उत्तीर्ण हो जाते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। उन उत्तीर्ण पुरुषों को ही हमने बुद्ध, सिद्ध, जिन कहा है।
लेकिन तुम अपने ही सहारे अपने अंधेरे के बाहर न आ सकोगे। खोजो कोई हाथ, जो तुम्हें खींच ले अंधकार से बाहर। खोजो कोई व्यक्ति, जो तुम्हारी निंदा न करे। खोजो कोई, जो तुम्हें अपराध से न भरे। खोजो कोई, जो तुम्हारे परमात्मा का बोध तुम्हें दे। जो तुम्हारे भीतर की परम सत्ता--जो सदा अकलुषित है, सदा कुंआरी है, जो सदा ताजी और पवित्र है, जिसके अपवित्र होने को कोई उपाय नहीं, उसकी तुम्हें स्मृति जगाए। जो तुम्हें तुम्हारे ही स्मरण से भर दे।
खोजो गुरु। और गुरु के पास कुछ बहुत करने को नहीं है। गुरु के पास सिर्फ तुम मौजूद हो जाओ--खुले, उन्मुक्त! द्वार-दरवाजे बंद मत रखो। उसकी रोशनी तुम्हारे भीतर के बुझे दीये को जला सकती है।
"गुरुदेव बिन जीव कल्पना ना मिटै।
गुरुदेव बिन जीव का भला नाहिं।।
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासै नहिं।
समझि विचार लै मन माहि।।
राह बारीक गुरुदेव तें पाइये।
जनम अनेक की अटक खोलै।।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै।
जीव और सीव तब एक तोलै।।
करो सत्संग गुरुदेव से चरन गहि।
जासु के दरस तें भर्म भागै।।
सील औ सांच संतोष आवै दया।
काल की चोट फिर नाहिं लागै।।
काल के जाल में सकल जीव बांधिया।
बिन ज्ञान गुरुदेव घट अंधियारा।।
कहै कबीर बिन जन जनम आवै नहीं।
पारस परस पद होय न्यारा।।'

आज इतना ही।



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