नौवां -प्रवचन
अंखियां प्रभु-दरसन नित लूटी
सारसूत्र:
जौपे कोई प्रेम को गाहक होई।त्याग करै जो मन की कामना, सीस-दान दै सोई।।
और अमल की दर जो छोड़ै, आपु अपन गति जोई।
हरदम हाजिर प्रेम-पियाला, पुलिक-पुलिक रस लेई।।
जीव पीव महं पीव जीव महं, बानी बोलत सोई।
सोई सभन महं हम सबहन महं, बूझत बिरला कोई।।
वाकी गती कहा कोई जानै, जो जिय सांचा होई।
कह गुलाल वे नाम समाने, मत भूले नर लोई।।
अंखियां प्रभु-दरसन नित लूटी।
हौं तुव चरनकमल में जूटी।।
निर्गुन नाम निरंतर निरखौं, अनंत कला तुव रूपी।
बिमल बिमल बानी धुन गावौं, कह बरनौं अनुरूपी।।
बिगस्यो कमल फुल्यौ काया बन, झरत दसहुं दिस मोती।
कह गुलाल प्रभु के चरनन सों, डोरि लागि भर जोती।।
क्षण भंगुर जीवन के..
चार सुमन जीवन के!
चार सुमन जीवन के!!
आंगन में सूर्य घोल,
चंदा से बोल-बोल;
मोल लिए नटखट ने..
स्वर के व्यंजन अमोल;
चुटकी में बीत गए..
महंगे क्षण बचपन के!
चार सुमन जीवन के!!
अर्पित हो मन्मथ में,
तरुणाई के रथ में;
गलबांही डाल चले..
प्रीति-प्यार जन-पथ में;
झूम-झूम चूम लिए..
मादक प्रण यौवन के!
चार सुमन जीवन के!!
अंजुरी भर बीते पल,
नयनों में गंगाजल;
लपटों की बाहों में..
पिघल गए स्वप्न-महल;
माटी में घुले-मिले,
मेघ-सुअन कंचन के!
चार सुमन जीवन के!!
क्षण भंगुर जीवन के..
चार सुमन जीवन के!
जीवन बहुत छोटा है। और जैसे हम उसे जीते हैं, उससे तो और भी छोटा होता जाता है। हम कमाते कम, गंवाते ज्यादा हैं। हमारा जीवन जीवन कहा जा सके, ऐसा भी नहीं। जीवन तो दूर, हमारा ठीक से जन्म भी नहीं हो पाता। जिन्हें स्वयं का होना केवल देह, मन, इनसे ही बंधा मालूम होता है, उन्होंने अभी जाना ही नहीं कि वे क्या हैं और वे क्या हो सकते हैं! जीवन का वास्तविक जन्म तो चैतन्य के अनुभव से शुरू होता है। आत्मानुभव के बिना कोई जन्म नहीं है। आत्मा को न पहचाना, न जाना, तो सोए-सोए सब गंवाया।
और जो हम गंवा रहे हैं, उसका भी हमें पता कैसे चले? वह तो पता तब चलेगा जब तुम कुछ कमाओगे। झरत दसहुं दिस मोती, यह तो कब पता चलेगा, जब तुम्हारी आंखें खुलेंगी। अभी तो तुम्हें लग रहा है, जो है बस यही है; जितना दिखाई पड़ता है, बस इतना ही है; जितना सुनाई पड़ता है, बस इतना ही है। नहीं-नहीं, बहुत कुछ है जो दिखाई नहीं पड़ता। जो दिखाई पड़ता है, वह तो ना-कुछ है, जो नहीं दिखाई पड़ता, वही सब कुछ है। जो सुनाई पड़ता है, वह तो शोरगुल है, जो नहीं सुनाई पड़ता, वह निःशब्द, वह मौन, वह शून्य, वह ध्यान, वह समाधि, वही सब कुछ है। हाथ जिसे छू नही पाते, कान जिसे सुन नहीं पाते, आंख जिसे देख नहीं पाती, जिस दिन उसका अनुभव होगा, उस दिन रोओगे भी बहुत, हंसोगे भी बहुत। पहले अनुभव पर व्यक्ति रोता भी है और हंसता भी है।
झेन फकीर रिंझाई को जब पहली दफा ज्ञान हुआ तो वह खूब रोया और खूब हंसा। उसके संगी-साथियों ने पूछा कि पागल तो नहीं हो गए हो? क्योंकि इस दुनिया में केवल पागल ही एक साथ यह दो काम कर सकते हैं..हंसने और रोने का। होशियार-समझदार आदमी या तो रोता है या हंसता है। निर्णय होता है उसका। हंसने योग्य हो बात तो हंसता है, रोने योग्य हो बात तो रोता है। सिर्प पागल ही ऐसी दुविधा में हो सकता है। क्या तुम पागल हो गए, रिंझाई?
रिंझाई ने कहा: पागल था, आज पहली दफे पागलपन से मुक्त हुआ हूं। और हंस रहा हूं, रो रहा हूं, साथ-साथ, लेकिन कारण दोनों के अलग-अलग हैं। हंस रहा हूं यह जान कर कि कितना अपूर्व अवसर उपलब्ध था और हम चूके जा रहे थे। कितना अनंत आनंद उपलब्ध था और हमें इसकी खबर ही न थी। आज बरस पड़ा है मेघ, आज हृदय भर गया है अमृत रस से, इसलिए हंस रहा हूं। और रो रहा हूं इसलिए कि कितने दिन व्यर्थ गंवाए, कितने जन्म व्यर्थ गंवाए! यह अमृत तब भी बरस रहा था; बस मेरी याली उलटी रखी थी। यह सौंदर्य तब भी तुझे घेरे हुए था, मगर मैं अंधा था; या आंख बंद किए था। यह अदृश्य मुझे तब भी घेरे हुए था, मगर मैं दृश्य में ऐसा उलझा कि सुध ही न रही कि अस्तित्व दृश्य पर समाप्त नहीं है।
इस बात की सुधि आ जाने का नाम संन्यास है कि जगत दृश्य पर समाप्त नहीं है; कि जगत इंद्रियों पर समाप्त नहीं है, अतींद्रिय है। इंद्रियों पर तो केवल जो दिखाई पड़ रहा है वह जगत की परिधि है, उसका वास्तविक केंद्र नहीं। जैसे कोई सागर की लहरों को ही सागर समझ कर और वापस लौट आए। सागर है मीलों गहरा, लहरें हैं उथली। लहरों में क्या रखा है! सागर न हो तो लहरें नहीं होंगी। हां, सागर बिना लहरों के भी हो सकता है। लहरें तो क्षणभंगुर हैं; अभी हैं, अभी गईं; मगर हम क्षणभंगुर से उलझ गए हैं। इससे सुलझना है।
गुलाल जिन मोतियों की बातें कर रहे हैं, वे बरस रहे हैं। प्रतिपल बरस रहे हैं, तुम चाहे जागो, चाहे सोओ; तुम चाहे होश में आओ, चाहे बेहोश रहो; तुम चाहे खोए रहो हजार-हजार मूच्र्छाओं में, या बन जाओ साक्षी, मोती तो बरस ही रहे हैं। जिनने भी जाना है, वे सब गवाह हैं। लेकिन तुम्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तुम सुन भी लेते हो बुद्धों को, जाग्रत पुरुषों को, इनकार भी नहीं कर सकते उन्हें, क्योंकि उनका अस्तित्व प्रमाण देता है, उनका आनंद पर्याप्त प्रमाण है, मगर तुम भी क्या करो, तुम्हारे अस्तित्व में तो कोई प्रमाण मिलते नहीं; तुम्हारे जीवन में तो कंकड़-पत्थर ही बरसते मालूम होते हैं। रंगीन कंकड़-पत्थर बीनते रहते हो और सोचते हो, कर ली कमाई। चढ़ जाते हो थोड़ी सी सीढ़ियां पदों की, प्रतिष्ठाओं की और समझ लेते हो, पा लिया सब कुछ पाने योग्य। गंवा दिया! यही समय सार्थक हो सकता था अगर सम्यक दिशा में गति होती।
रवि की बुझती किरणों से क्या मेरा भी है नाता?
मैं नहीं जानती दिनकर किस नभ में रात बिताता।
ये कान नहीं सुन पाते ‘अवसान’ तान क्या गाता!
किस कारण शशि अंबर में मुसकाता सा है आता?
तारों के हार बना कर रजनी श्रृंगार सजाती।
कर मुक्त केश अंबर में किसको उलझाने आती?
है मुझे अपरिचित-सा ही इस जग का ‘कल-रव’ सारा,
जैसे हो और कहीं पर मेरा ‘नंदन-वन’ प्यारा।
है जिसकी मधुर हंसी से जग-मग स्वर्गच्गा-धारा,
मेरी ‘आंखों का तारा‘ है सचराचर से न्यारा।
अब याद नहीं है मुझको अपना ही ‘कूल-किनारा।’
किस ‘महासिंधु‘ में जाकर ‘लय’ होगी ‘जीवन-धारा’
मानो इस ‘अंधियारे‘ में मैं अपनी ‘रात’ बिता कर,
फिर ‘उड़‘ जाऊंगी ‘ऊपर‘ अंबर में पर फैला कर।
दो ‘गीतों‘ में जीवन का मैं सारा ‘मूल्य’ चुका कर
फिर ‘महागान‘ में जाकर ‘मिल’ जाऊंगी इठला कर।
इस जग के कोलाहल से है मेरी तान निराली।
जग के वैभव से खाली मेरे जीवन की प्याली।
पत्थर के इन टुकड़ों पर क्यों दुनिया आपा खोती?
सब परख लिए हैं मैंने इस जग के मानिक मोती।
मैं रहती उन्मन मन से सब जग से अलग अकेली।
दुनिया को मैं, मुझको वह लगती है गूढ़ पहेली।
क्यों पागल प्यास बनी है मेरे प्राणों को प्याली?
किस कारण मुझ पर देते ‘पल्लव-दल’ पल-पल ताली?
यह ‘कली‘ हिचकती मन में, कैसे जग में मुसकावे?
कैसे लोभी ‘अधरों‘ को प्रेमामृत पान करावे?
जग की जगमग को कैसे देखूं, आंखें सकुचाती।
जग के प्रमत्त उत्सव में मैं भाग न लेने पाती।
हम यहां परदेस में हैं। यह जो मूच्र्छा का लोक है हमारा, यह जो अचेतन जीवन व्यवस्था है हमारी, यह परदेस है। यह हमारा स्वभाव नहीं है। यह हमारा विभाव है। यह हमारी मूल प्रकृति नहीं है। इसलिए तो हम इतने पीड़ित हैं। कुछ भी मिल जाए, तृप्ति नहीं। धन के अंबार लग जाएं, तृप्ति नहीं। पद हो, तृति नहीं प्रतिष्ठा मिले, तृप्ति नहीं। तृप्ति मिल सकती नहीं। तृप्ति तो तभी मिलेगी जब हमारे स्वभाव के अनुकूल कुछ घटे। यह सब प्रतिकूल है। स्वभाव के अनुकूल जो घटता है, उसी क्षण जीवन में क्रांति; जीवन में सूर्योदय हो जाता है।
गुलाल के ये वचन तुम्हें तुम्हारे असली घर की याद दिलाएंगे। गुलाल के इन वचनों में आवाहन है, चुनौती है। जिनमें साहस हो, वे चुनौती को स्वीकार करें। चलें इस अनंत यात्रा पर, इस अंतर्यात्रा पर।
जौपे कोई प्रेम को गाहक होई।
पर वे कहते हैं कि पहले ही साफ कर दूं, जो प्रेम के मार्ग पर चलने को राजी हो, वही सुने, वही गुने। जो प्रेम का सौदा करने को तैयार हो, ...यह सौदा जरा महंगा सौदा है। इसमें अपने को पूरा-पूरा दांव पर लगाना होता है। आंशिक रूप से दांव पर लगाने से नहीं चलता। ऐसे तो कितने लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं, आराधनाएं कर रहे हैं; मंदिर हैं, मस्जिद हैं, गिरजे हैं, गुरुद्वारे हैं, सब भरे हैं, लेकिन यह सारी प्रार्थनाएं ऐसा लगता है व्यर्थ ही चली जाती हैं। ये सारी पूजाएं यहीं शोरगुल पैदा करके समाप्त हो जाती हैं। इन प्रार्थनाओं में पंख नहीं हैं। इन पूजाओं के दीप झूठे हैं। इन पूजाओं के दीप वे नहीं हैं जो संतों ने कहा है बिन बाती बिन तेल। ये अर्चनाएं औपचारिक हैं। बस ऊपर-ऊपर हैं। तुम्हारे प्राणों की पुकार नहीं मालूम होती। कर लेते हो, करना चाहिए, इसलिए; सिखाया गया है, इसलिए; बचपन से आरोपित किया गया है, इसलिए। यह एक तरह का सम्मोहन है। तुम चले मंदिर, चले मस्जिद; तुम नहीं जा रहे हो, तुम्हें सम्मोहित किया गया है।
सम्मोहन का शास्त्र सीधा-साफ है। सम्मोहन का शास्त्र इतना सा ही है कि एक ही बात को बार-बार दोहराते रहो, इतना दोहराओ, इतना दोहराओ कि वह व्यक्ति के चेतन से उतरते-उतरते उसके अचेतन में जाकर बैठ जाए। बस। एक बार अचेतन में बैठ गई कि सक्रिय हो जाती है। फिर वह व्यक्ति उस काम को ऐसे करेगा जैसे स्वयं ही कर रहा है। यद्यपि स्वयं नहीं कर रहा है, वह केवल सम्मोहित है।
तुमने कभी सम्मोहन का कोई प्रदर्शन देखा? सम्मोहन के प्रदर्शन में सम्मोहन करने वाला व्यक्ति जिसको सम्मोहित कर लेता है, उससे फिर जैसे काम करवाना चाहता है वैसे काम करवा लेता है। और तुम यह जान कर चकित होओगे कि सम्मोहित करने वाले व्यक्ति की कोई शक्ति नहीं होती। इस भ्रांति में मत रहना जैसा लोग सोचते हैं कि सम्मोहन करने वाले की आंखों में कोई जादू है, कि हाथों में कुछ जादू है। जादू से इसका कुछ लेना-देना नहीं। यह तुम कर सकते हो। यह कोई भी कर सकता है। सौ में से तैंतीस प्रतिशत व्यक्ति सम्मोहित होने के लिए बिल्कुल तैयार बैठे हैं..एक-तिहाई आदमी सम्मोहित होने को तैयार हैं। वे राजी हैं, कुछ भी, कैसा भी झूठ बार-बार दोहराए जाओ, वे उसे सच मान लेंगे। वे बड़े संवेदनशील हैं। तुम दस आदमियों पर प्रयोग करके देखो, तीन पर तुम सफल हो जाओगे।
छोटे-मोटे प्रयोग करो। किसी आदमी को कह दो कि तू अपने हाथ की अंगुलियां एक-दूसरे में फंसा कर बैठ जा। और उसके सामने तुम दोहराते रहो दो-तीन मिनट तक कि अब तू हाथ खोल नहीं सकेगा; लाख कोशिश कर, तू खोल नहीं सकेगा; तू सारी ताकत लगा दे तो भी खोल नहीं सकेगा; अब कोई सामथ्र्य तेरे हाथ को नहीं खोलने देगी। और तीन मिनट बाद उस व्यक्ति से कहना कि खोल, लगा ताकत; तुम भी हैरान होओगे, वह भी हैरान होगा, सारी ताकत लगा देता है लेकिन हाथ नहीं खुलते। जितनी ताकत लगाता है उतनी ही मुश्किल हो जाती है, हाथ नहीं खुलते। घबड़ा जाएगा। लगेगा कि तुम्हारे पास कोई शक्ति है, कोई सिद्धि है। न कोई सिद्धि है, न कोई शक्ति है। तुमने इतना दोहराया कि बात अचेतन तक उतर गई। अब तुम्हें उससे कहना पड़ेगा, फिर दोहराना पड़ेगा कि हां तू हाथ खोल सकता है, मैं तुझे आज्ञा देता हूं। और हाथ खुल जाएंगे।
और यह हाथ के संबंध में ही बात नहीं है, अगर इसमें तुम गहरे प्रयोग करो, तो तुम चकित होओगे। इस तरह की घटनाएं सम्मोहन के द्वारा प्रमाणित हो चुकी हैं जो कि विज्ञान के नियमों के विपरीत जाती मालूम पड़ती हैं। जैसे सम्मोहित व्यक्ति के हाथ में जलता हुआ अंगारा रख दो और कहो कि यह साधारण कंकड़ है, ठंढा, उसके हाथ में फफोला नहीं पड़ेगा। उसके अचेतन ने बात इतनी मान ली, इतनी मान ली कि उसका शरीर भी उसके मन के पीछे हो लिया। शरीर तो मन का गुलाम है। और तुम ठंढा कंकड़ उसके हाथ पर रख दो और कहो कि यह अंगार है जलता हुआ और हाथ पर फफोला आ जाएगा।
तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, जैन हो, बौद्ध हो, तुमने कभी सोचा; क्यों? सम्मोहन के कारण। मां-बाप ने दोहराया, पंडित-पुरोहितों ने दोहराया..इधर बच्चा पैदा हुआ नहीं कि उसे सम्मोहित करने के उपाय शुरू हो जाते हैं। इसको लोग कहते हैं: धार्मिक शिक्षा। यह धार्मिक शिक्षा नहीं है, यह बच्चे की स्वतंत्रता को नष्ट करने की बड़ी गहरी तरकीब है, जालसाजी है, शडयंत्र है। जिस दिन यह शड्यंत्र बंद होगा, उस दिन इस दुनिया में सच्चे मनुष्यों का उदय होगा। नहीं तो झूठे आदमी रहेंगे। हिंदू रहेंगे, मुसलमान रहेंगे..ये सब झूठे आदमी हैं। झूठे इन अर्थो में कि इनसे जो कहा गया है, वह इन्होंने मान लिया है। जो इन्होंने माना है, वह जाना नहीं है। इसलिए इनकी प्रार्थना झूठी है। इनकी स्वयं की बुद्धिमत्ता से उसका आविर्भाव नहीं होता। स्वयं की बुद्धिमत्ता से उठे प्रार्थना, तो अहोभाग्य। तब तुम्हारी छोटी-मोटी प्रार्थना भी तुम्हारे जीवन को सुगंध से भर देगी। लेकिन स्वयं की बुद्धिमत्ता से तभी उठ सकती है, जब तुममें साहस हो। यह सम्मोहन तुम्हें कायर बना देता है। तुम्हारा साहस छीन लेता है। अज्ञात में कदम उठाने की तुम्हारी हिम्मत ही समाप्त हो जाती है। ठीक कहते हैं गुलाल..
जौपे कोई प्रेम को गाहक होई।
त्याग करै जो मन की कामना, सीस-दान दै सोई।।
प्रेम का रास्ता ऐसा है कि वहां अगर कोई अपना सीस चढ़ाने को राजी हो, तो ही चल सकता है। वहां पहले कदम पर ही सीस मांग लिया जाता है।
दो मार्ग हैं परमात्मा को पाने के: एक संकल्प, एक समर्पण। संकल्प के रास्ते पर अंतिम क्षण में सीस मांगा जाता है और समर्पण के रास्ते पर प्रथम क्षण में ही सीस मांगा जाता है। इसलिए संकल्प का रास्ता सुगम है, कठिन दिखाई पड़ते हुए भी, क्योंकि आखिरी घड़ी में तुमसे जीवन दान मांगा जाएगा। जब तक तुम तैयार हो चुके होओगे, निखर चुके होओगे। लेकिन प्रेम-पंथ? ‘प्रेम-पंथ ऐसा कठिन!’ उसकी कठिनाई क्या है?ऐसे तो बड़ा प्यारा है, प्रेम-पंथ है, प्रीतिकर है, मन को भाता है, रसभीगा है, आनंद में डूबा है, फूल ही फूल हैं प्रेम के पथ पर, लेकिन इतना कठिन क्यों? कठिन इसलिए कि पहली ही शर्त उसकी यह है कि जो सीस को उतार कर रख दे। और न केवल उतार कर रख दे, निश्चिंतता से उतार कर रख दे और सो भी जाए। इतनी निश्चिंतता से उतार कर रख दे कि चिंता ही न पकड़े, दे दे सब कुछ उसकी मर्जी पर, कह दे परमात्मा को: जो तुझे करना हो, कर, मैं हटा जाता हूं। सीस काटने का अर्थ है: मैं हटा जाता हूं; मैं बीच में न आऊंगा, मैं बाधा न दूंगा।
सीस काटने का कोई ऐसा अर्थ नहीं है कि तलवार उठा कर तुम अपनी गर्दन काट लेना। ये प्रतीक हैं। तलवार उठा कर गर्दन काट लेना इतना कठिन काम नहीं है। बहुत से लोग आत्महत्या करते ही हैं। अगर आत्महत्या करने से मोक्ष मिलता होता तो दुनिया में और सरल और क्या बात थी! पी लेते जहर, कूद जाते पहाड़ से, कोई उपाय कर लेते, ...अब तो बड़े सुगम उपाय हैं। बिजली की कुर्सियां हैं, जिन पर बैठे, बटन दबा दिया, मामला खत्म हो गया। एक क्षण भी नहीं लगता, कोई पीड़ा भी नहीं। मगर परमात्मा तुमसे आत्महत्या थोड़े ही चाहता है। परमात्मा चाहता है: आत्मिक जीवन, आत्महत्या नहीं। और अभी तो तुम ऐसी नींद में हो कि आत्मिक जीवन तो दूर, आत्महत्या भी करो तो शायद वह भी न कर पाओ।
मैं एक घर में नया-नया मेहमान हुआ। पतली दीवालें, आधुनिक दीवालें, पड़ोस में जो थे उनकी आवाज मुझे सुनाई पड़ती थी। पहला ही दिन था और पति-पत्नी में झगड़ा होने लगा। पति प्रोफेसर थे विश्वविद्यालय में। मैं भी उस विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होकर नया-नया पहुंचा था। मैं थोड़ा चिंतित हुआ, बात बिगड़ने लगी..न भी सुनना चाहूं तो कोई उपाय न था। वह सुनाई पड़ ही रहा था। इतने जोर-जोर से बात चल रही थी। आखिर पति ने कहा कि मैं आत्महत्या ही कर लूंगा, बहुत हो चुका, मैं यह चला! तब तो मुझे और भी चिंता पकड़ी। मैं बाहर आया, लेकिन पति तो एकदम भन्नाए हुए निकल ही गए घर से। मैंने उनकी पत्नी को कहा कि यद्यपि मैं अपरिचित हूं, न आपके पति को जानता, न आपको जानता, लेकिन यह मामला ऐसा है कि इसमें परिचय को बाधा नहीं बनना चाहिए; परिचित बाद में हो लेंगे, अभी मैं किसी काम आ सकूं तो बोलें। पत्नी ने कहा, आप बिल्कुल निशिं्चत रहें, यह कोई नया नहीं, यह तो उनकी आदत है। अभी आ जाएंगे दस-पंद्रह मिनट में, घबड़ाएं न आप। उसने कहा तो भी मुझे चिंता लगी कि यह बेचारा आदमी, गया, इतना भनभनाया है कि कहीं कुछ कर ही न गुजरे! मैंने कहा कि कहो तो मैं जाऊं, उनको बुला कर लाऊं। कहा कि नहीं, बुला कर लाने से देर लगेगी; वे और अकड़ेंगे। वे अपने आप आते हैं, आप घबड़ाएं तो मत, आप जरा बैठें। आप नये-नये हैं, मैं तो उनके साथ पंद्रह साल से रह रही हूं, यह तो आए दिन की घटना है। ऐसा तो वे कई दफा कर चुके हैं। और ठीक पंद्रह मिनट के भीतर वे आ गए। जब मैंने उनको आते देखा..बिल्कुल शांत चले आ रहे थे..तो मैंने पूछा: अरे, आप लौट आए? उन्होंने कहा: लौटूं नहीं तो क्या करूं? देखते नहीं कि बूंदाबांदी होने लगी, स्टेशन तीन मील दूर है और ट्रेन का कोई भरोसा आजकल! कितनी लेट हो जाए, क्या हो जाए! अब रात भर खराब करनी है क्या?
मरने गए थे, बूंदाबांदी से लौट आए।
फिर तो उनके बाबत मुझे बाद में बहुत कहानियां पता चलीं। कि एक बार वे मरने गए, तो टिफिन लेकर साथ गए। और जब टिफिन रख कर पटरी पर लेटे, तो पास में ही एक चरवाहा अपनी गाएं चरा रहा था, उसे भी बड़ी हैरानी हुई। एक तो पटरी पर वे ऐसी लेटे जिस पर गाड़ियां निकलती ही नहीं थीं। कभी पहले निकलती रही होंगी, अब वह पटरी बंद हो गई थी, पर गाड़ियां निकलती नहीं थीं..वह तो पटरी देख कर ही साफ था, वह जंग खाई हुई थी पटरी। जिस पर गाड़ियां निकलती हैं, वह तो चमकती है चांदी की तरह। वही देख कर तो वे लेटे थे उस पर कि जंग खाई हुई है, कोई डर नहीं है। और टिफिन भी बगल में रखे हुए हैं तो चरवाहे ने कहा कि आप क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा: मैं आत्महत्या कर रहा हूं। तो पहले तो उसने कहा कि इस पटरी पर कोई गाड़ी मैंने तो निकलते नहीं देखी, दस साल से तो मैं यहां गाय-भैंसें चराता हूं। तो उन्होंने कहा, तुझे बीच में बोलने की क्या जरूरत है? हम मरेंगे जहां हमें मरना है! अब हमें यहीं मरना है, तो हम यहीं मरेंगे। हम तो तुझसे पूछ नहीं रहे, हम किसी से सलाह नहीं ले रहे। और उसने पूछा कि एक बात और पूछनी है कि यह टिफिन आप किसलिए लाए हैं? उन्होंने कहा कि क्या भरोसा, ट्रेन कितनी लेट आए, तो क्या भूखे मरना है!
तब तो फिर उनके संबंध में बहुत कहानियां पता चलीं। कि यह तो उनका रोज का ही काम था। यह तो पूरा विश्वविद्यालय जानता था कि मरने में वे बड़े कुशल हैं। इतने कुशल कि अभी तक वे मरे ही नहीं।
आत्महत्या तो लोग करते हैं, दस में से नौ लोग इस ढंग से करते हैं कि कहीं हो ही न जाए। कोई गोली ले लेता है नींद की, मगर लेता इतनी है कि सुबह तक जिंदा रह जाए, अस्पताल पहुंच जाए फिर इसके बाद देख जाएगा। सौ में से निन्न्यानबे लोग इस तरह से मरने का उपाय करते हैं कि कहीं मर ही न जाएं। मरना भी उनकी एक राजनीति है। वह भी उनका दबाव डालने का ढंग है। एक तरह का सत्याग्रह समझो। जैसे कोई अनशन करता है। वह भी क्या है? वह यह कह रहा है कि फिर मर जाएंगे। अनशन वाला कहता है कि हम मरेंगे। दो-तीन महीने लगेंगे मरते-मरते, दो-तीन महीने सताएंगे, तुम्हारी छाती पर दाल दलेंगे कि हम मर रहे हैं, कि देखो हम मर रहे हैं और शोरगुल मचाएंगे अखबार में और उपद्रव मचेगा, आखिर तुमको सोचना ही पड़ेगा। ऐसा ही लोग उपाय करते आत्महत्या का।
परमात्मा तुम्हारी आत्महत्या में उत्सुक नहीं है। तुम्हें जीवन ही क्यों देता? इसलिए सीस चढ़ाने से तुम कुछ ऐसा मत समझ लेना कि सीस ही चढ़ाना होता है। क्योंकि कुछ पागलों ने ऐसा ही समझ लिया है। ये प्रतीक हैं।
मैंने एक आदमी को देखा...काशी में मैं था, उन्हें मिलने लाया गया, उनकी बड़ी पूजा और उनका बड़ा आदर! मैंने पूछा: कारण? तो उन्होंने कहा कि उन्होंने अपनी जबान काट कर परमात्मा को चढ़ा दी। मैंने कहा, यह उन्होंने क्यों किया? तो उन्होंने किसी शास्त्र में पढ़ा था कि जब तक अपनी जबान तुम परमात्मा को न दोगे, तब तक कुछ भी न होगा। अब हो गया न पागलपन! जबान देने का मतलब यह था कि तुम न बोलो, उसे बोलने दो। जबान देने का मतलब यह था कि वाणी को त्याग दो, मौन हो जाओ। फिर मौन से अगर कुछ निकले, तो वह तुम्हारा नहीं है। तुम बांसुरी बन जाओ। बांस की पोली पोंगरी। छोड़ दो परमात्मा के ओंठों पर, गाना चाहे गीत, कोई गाए, न गाना चाहे, न गाए, तुम मौन हो रहो, मुनि हो रहो। फिर उसे स्वर पूंकने दो। वह जरूर पूंकता है। नहीं तो भगवद्गीता कैसे पैदा हो? कृष्ण ने जबान काट दी होती तो भगवद्गीता नहीं पैदा होती। और मोहम्मद ने जबान काट दी होती तो कुरान नहीं होता। और बुद्ध और महावीर ने जबानें काट दी होतीं तो यह दुनिया इतनी दरिद्र होती जिसका हिसाब नहीं था।
मैंने कहा, इनको तुम महात्मा कहते हो! यह आदमी पागल है। इसने प्रतीक को प्रतीक है इतना भी नहीं समझा, जबान काट दी। जबान वस्तुतः काट दी। और जबान काटने से कोई मौन हो सकता है? विचार तो खोपड़ी के भीतर चल रहे हैं, जबान का क्या कसूर है! जबान में थोड़े ही विचार होते हैं। जीभ थोड़े ही विचारों को पालती-पोसती है। जीभ तो केवल उपकरण है।
आंखें फोड़ने वाले संतों की कथाएं हैं। संत न रहे होंगे, विक्षिप्त रहे होंगे। आंखें फोड़ दीं ताकि रूप आकर्षित न करे। तो क्या तुम सोचते हो आंख बंद कर लेने से रूप आकर्षित नहीं करेगा? और ज्यादा आकर्षित करेगा। आंखें खुली रखोगे तो थोड़े न बहुत दिनों में पहचान ही जाओगे कि रूप में कुछ है नहीं, सब सजा-बजा ताजिया है। रंग-बिरंगे कागज। बस ताजिए ही हैं। कभी भी सिर हिलने लगेगा। इसमें ज्यादा देने नहीं लगने वाली। लेकिन अगर आंख बंद कर ली तो यह तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा कि यह ताजिया है। तुम्हारी भ्रांतियां, मोह, आकर्षण बने ही रहेंगे। इसलिए जो भगोड़े संन्यासी हैं, जिनको तुमने सदियों से पूजा है, उनके चित्त से वासना का अंत नहीं होता। हो नहीं सकता। इस जगत को गौर से देखो, आंख को खोल कर देखो, तुम आंख फोड़ने चले हो! अरे, आंख को जरा खोलो! अधमुंदी आंख से भी मत देखो, पूरी आंख खोल कर देखो। इस जगत में रखा क्या है जिससे इतना डरे हो! अगर डरते हो, तो सिर्प एक ही खबर देते हो कि तुम्हारे भीतर भय है। तो भय किस बात का सबूत है? कि कहीं जगत फांस ही न ले! अभी तुम्हें जगत में रस दिखाई पड़ता है।
तो न तो सिर काटना है, न जबान काटनी है, न संसार से भाग जाना है। यह तो प्रतीक है। सिर प्रतीक है अहंकार का। वाणी प्रतीक है, जबान प्रतीक है विचार की। आंखें, जिनसे तुम परिचित हो, ये बाहर देखने की प्रतीक हैं। देखना है भीतर। बाहर की आंख को भीतर की तरफ मोड़ना है, अंतर्मुखी करना है, फोड़ना नहीं है। जो कान बाहर सुनते हैं, वे भीतर का नाद सुनें। और जो आंखें बाहर का सौंदर्य देखती हैं, वे भीतर का सौंदर्य देखें।
और सीस तो सिर्फ अहंकार का प्रतीक है। इसलिए तो जब हम किसी के सामने विनम्र होते हैं, तो सिर झुकाते हैं। और जब किसी पर क्रोध आ जाता है तो उठा कर जूता उसके सिर पर लगा देते हैं। हालांकि जूता सिर पर लगाने से क्या होगा? लेकिन प्रतीक है कि हमने उसके अहंकार को नीचा करने का उपाय किया। सिर अहंकार का प्रतीक है, विचार का प्रतीक है, विक्षिप्तता का प्रतीक है, विवाद का प्रतीक है, संदेह का प्रतीक है। सिर इन सारे रोगों का घर है। इसको चढ़ा दो परमात्मा को..तो ही समझना कि तुम्हारे भीतर प्रेम जगा है। ‘जौपे कोई प्रेम को गाहक होई।’ तभी जानना कि तुम गाहक हो, खरीदार हो। पूछने-पाछने तो बहुत लोग आते हैं। दुकानों पर यों ही दाम पूछते फिरते तो बहुत लोग होते हैं। कुछ लोगों को तो धंधा ही यह होता है कि इन्हें और कुछ काम नहीं होता, शाम को निकल पड़े। उनसे पूछो, कहां जा रहे हैं? शापिंग को जा रहे हैं! शापिंग वगैरह कभी दिखती नहीं कि क्या करते हैं वे, मगर पूछताछ करते रहते हैं।
मैं एक सज्जन को जानता हूं, जो ऐसी ही चीजें पूछेंगे दुकानों पर जाकर, जो बाजार में नहीं हैं। अपना समय खराब करेंगे, दुकानदारों का समय खराब करेंगे, चीजें उलटेंगे-पलटेंगे और खरीदनी उन्हें ऐसी चीज है जो है नहीं बाजार में। जिसका उन्हें बिल्कुल पक्का है कि जो मिलने ही वाली नहीं है। और अगर कभी भूल-चूक से चीज मिल भी जाए, तो उसमें इतने दोष निकालेंगे कि खरीदने का कभी सवाल ही न उठे। उन जैसा मैंने खरीदार नहीं देखा! और रोज खरीदने निकलते हैं। जैसे और कोई काम ही नहीं है। है भी क्या काम लोगों को! समय है और समय को काटना है।
हैरानी की बात है, समय इतना बहुमूल्य है कि लौटता नहीं और उसको तुम काटते हो! एक क्षण वापस नहीं पाया जा सकता और उसको तुम गंवाते हो! और एक-एक क्षण मोती बन जाए!
जौपे कोई प्रेम को गाहक होई।
तो वे कहते हैं कि पहले ही मैं सावधान कर दूं कि अगर तुम प्रेम के गाहक हो, तो इतना ख्याल रखना, सीस चढ़ा कर निशिं्चत सोने की हिम्मत होनी चाहिए। आत्महत्या से अर्थ नहीं है, अहंकार-विसर्जन से अर्थ है। और तुम नींद में इतने हो, तुम्हारी आत्महत्या क्या, तुम कुछ उलटा-सीधा कर लोगे।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन आत्महत्या करने गया। सब आयोजन करके गया ताकि भूल-चूक न हो जाए। गया नदी के तट पर चढ़ गया एक पहाड़ी पर कि पहाड़ी से कूदेगा। तो पहले तो कूदने में ही मर जाएगा..इतनी ऊंची पहाड़ी! अगर कूदने में नहीं मरा तो नदी इतनी गहरी कि डूब कर मर जाएगा। मगर कौन जाने, सब उपाय कर लेने ठीक हैं..होशियार आदमी..कोई विधि खाली नहीं छोड़ी। तो साथ में मिट्टी का तेल भी ले गया कि ऊपर से डाल कर और आग लगा लूंगा; रस्सी भी ले गया कि एक झाड़ से, किनारे पर ऊगे झाड़ से रस्सी बांध कर गर्दन अटका लूंगा; और साथ में आखिरी उपाय की तरह एक पिस्तौल भी ले गया। और जब घंटे भर बाद लोगों ने उसे घर वापस आते देखा, तो लोगों ने कहा: हद हो गई, क्या हुआ? तो उसने बताया कि मैं चढ़ गया पहाड़ी पर, गले में फंदा अटका लिया, तेल डाल दिया, गोली मारी सिर में मगर गोली सिर में न लगी, रस्सी में लगी, सो रस्सी कट गई। और उसके पहले कि मैं जलता पानी में गिर पड़ा, सो आग बुझ गई। और वह तो यह कहो कि मुझे तैरना आता था, नहीं तो आज मारे गए थे! आज लौटना मुश्किल था! सो तैर कर घर आ गए हैं। वह सब किए उपाय व्यर्थ हो गए। सोए हुए आदमी के उपायों का क्या अर्थ हो सकता है! लेकिन जो व्यक्ति सब दांव पर लगाने को राजी हो जाए, दांव पर लगाने से ही जागरण की शुरुआत हो जाती है।
शीशमहल सपनों का टूटा,
जब से तुमने आंखें फेरीं!
अविरल आंसू की धारा से..
धूमिल नयन-मुकुर की गरिमा,
किसे हृदय का हार पिन्हाऊं,
मुझसे अविदित मेरी प्रतिमा;
किसकी अगवानी में लोचन,
अपलक ठगे-ठगे से आकुल;
रंगमहल भावों का रूठा,
जब से तुमने आंखें फेरीं!
अंधकार के तिमिर-वनों में..
एक परग भी चलना दूभर,
बहुत कठिन है पंथ पिया का,
मिलना तो उससे भी ऊपर;
लक्षागृह-से मोह-जगत में..
पांडु-सुतों सा वंदी-जीवन;
रूपमहल का वैभव रूठा,
जब से तुमने आंखें फेरीं!
परमात्मा की आंख हमसे फिरी हुई है, ऐसा हमें लगता है। ऐसा लगना स्वाभाविक है। लेकिन बात ठीक उलटी है। हमारी आंख उससे फिरी हुई है। हम उसकी तरफ पीठ किए हुए खड़े हैं। और उसकी तरफ मुंह करके खड़े होने में हम भयभीत हैं, हम डरते हैं। क्योंकि उसकी तरफ मुंह करके खड़े होना मिटने की तैयारी है। उतने विराट को लेने के लिए मिटना ही होगा। बूंद अगर सागर से मिलना चाहे और चाहे कि मैं अपने को बचा भी लूं, ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं। बूंद को मिटने की तैयारी रखनी ही होगी तो ही सागर हो सकती है। और हम बूंदें हैं और परमात्मा सागर है। और हम बचे हैं, हम डरे हैं, हम भयभीत हैं। हम बातें परमात्मा की करते हैं, लेकिन हम भागे हुए हैं कि कहीं मिलन हो ही न जाए। क्योंकि अगर परमात्मा का आमना-सामना हो गया, तो एक बात निश्चित है कि हम खो जाएंगे। दूसरी बात भी निश्चित है कि हम परमात्मा हो जाएंगे। लेकिन दूसरी बात तो बाद में होगी; उसका क्या भरोसा; हो, न हो! पहली बात घबड़ा देती है। पहली बात ही हमें चैंका देती है। पहली बात में ही हम भाग खड़े होते हैं।
त्याग करै जो मन की कामना, ...
गुलाल कहते हैं कि संसार छोड़ने की कोई जरूरत नहीं, मन की कामना छूटनी चाहिए। मन की कामना ही संसार है। वही मैं कल तुमसे कह रहा था; संसार संसार नहीं है, मन संसार है। संसार में तो कुछ भी बुराई नहीं है, इसमें तो जगह-जगह परमात्मा के हस्ताक्षर हैं, इसमें तो जगह-जगह उसके चरण-चिह्न हैं, यह संसार तो पवित्र है, यह संसार तो परमात्मा की अभिव्यक्ति है..कहो उसका गीत, कहो उसका नृत्य, अगर यह वीणा है तो यह वीणावादक है, यह संसार अगर चित्र है तो वह चितेरा है, अगर यह संसार सृष्टि है तो वह स्रष्टा है..यह संसार तो बुरा नहीं और लोग संसार से भागते हैं। और देखते ही नहीं यह बात कि अगर कहीं कोई बुराई है, अगर कहीं कोई भूलचूक होती है, तो वह हमारे मन में है। संसार से भाग जाते हैं, मन से नहीं भागते। क्योंकि मन से भागना कठिन मामला है।
मन से भागने का एक ही उपाय है: मन से जागना। हिमालय चले जाओ तो भी मन तो साथ रहेगा। काबा जाओ कि काशी, मन तो साथ रहेगा। गृहस्थ रहो कि संन्यासी, मन तो साथ रहेगा। मन से जागना, ध्यान का कोई और अर्थ नहीं होता, मन से जागना, मन के साक्षी हो जाना, मन को दूर खड़े होकर देखने की कला कि मैं मन नहीं हूं, जिस दिन यह बात प्रगाढ़ रूप से तुम्हारे भीतर स्थापित हो जाती है कि मैं मन नहीं हूं, संसार से मुक्ति हो गई। क्योंकि मन का फैलाव ही संसार था। और मन क्या है? मांग है..और, और...। कितना ही दो, मांग जारी रहती है: और, और...।
त्याग करै जो मन की कामना, सीस-दान दै सोई।।
और अमल की दर जो छोड़ै, आपु अपन गति होई।
‘और अमल की दर जो छोड़ै’, बड़ा क्रांतिकारी वचन है। गुलाल कह रहे हैं: और सब चरित्र की बकवास छोड़ो, और सब आचरण की व्यर्थ बकवास छोड़ो, और सब आचरण झूठा, और सब चरित्र झूठा; और अमल की दर जो छोड़ै, वे दरवाजे छोड़ो, आपु अपन गति होई, एक ही काम कर लो, अपने भीतर गति कर लो, बस। लेकिन हम ऐसे बाहर हो गए हैं, अपने से ऐसे बाहर हो गए हैं कि बाहर ही हमारा धन है, बाहर ही हमारा धर्म भी है; बाहर ही हमारा पद है और बाहर ही हमारा परमात्मा भी है। अगर हम परमात्मा का भी विचार करते हैं तो आकाश की तरफ देखते हैं कि जैसे वहां दूर कहीं ऊपर बादलों के बैठा है; अगर हम परमात्मा की भी बात करते हैं तो हमें तत्क्षण मंदिरों में बैठी हुई प्रतिमाओं का स्मरण आता है। कृष्ण याद आते हैं, राम याद आते हैं, बुद्ध याद आते हैं, महावीर याद आते हैं। परमात्मा की बात भी जब हम करते हैं तो हमें कोई बाहर का याद आता है। हमारा बाहर होना भयंकर बीमारी की तरह हमारे पीछे लगा है। ऐसी जड़ जमाई है हमारे बाहर होने ने कि हम जो भी सोचते हैं, बाहर; हमारा चरित्र भी बाहर। अगर हम चरित्र का निर्माण भी करते हैं तो सिर्प इसलिए कि उससे प्रतिष्ठा मिलती है।
मैं जिस स्कूल में पढ़ता था, उस स्कूल की कक्षा में, ...उस स्कूल के जो पिं्रसिपल थे, उनको बड़ा शौक था अच्छे-अच्छे वचन लिखवाने का, तो उन्होंने छांट-छांट कर अच्छे वचन लिखवाए हुए थे। और मैं भी उनके वचनों को ले-ले कर पहुंच जाता था कि इसमें गलती है। आखिर एक दिन उन्होंने अपना सिर पीट लिया और उन्होंने कहा कि फिर तुम्हीं ले आओ, क्या लिखवाना है? मैंने कहा: खाली दीवाल बेहतर। कुछ भी आप लिखोगे...उन्होंने मेरी कक्षा की दीवाल पर लिखवा छोड़ा था कि चरित्रवान का सभी जगह समादर होता है। मैंने उनसे कहा कि वह आदमी चरित्रवान ही नहीं जो समादर के लिए चरित्रवान बने। यह सूत्र ही गलत है। इसको साफ करो। आदर की आकांक्षा अहंकार की आकांक्षा है। लेकिन यही हम सिखाते हैं बच्चों को कि तुम्हारा समादर होगा, सम्मान होगा, प्रतिष्ठा होगी..इस लोक में नहीं, पर लोग में भी..चरित्रवान बनो! झूठ मत बोलना। उससे अप्रतिष्ठा होती है। और कोई पाप नहीं है! तो होशियार लोग जो हैं वे इस तरह से झूठ बोलते हैं कि झूठ भी बोल लेते हैं, अप्रतिष्ठा भी नहीं होती; फिर क्या हर्जा है! होशियार लोग जो हैं, वे अपने जीवन में दो दरवाजे रख्ते हैं। एक बाहर का दरवाजा है, बैठकखाना, जहां वे लोगों का स्वागत करते हैं..वहां की सजावट और..और एक भीतर का दरवाजा है, जहां वे जीते हैं; वह बिल्कुल और है, वह उनकी निजी दुनिया है। जितना कुशल आदमी होता है उतना ही पाखंडी हो जाता है। क्योंकि तुम सम्मान देते हो जिन-जिन बातों को, उन-उन बातों को वह अपने ऊपर रंग लेता है, पोत लेता है, मुखौटे ओढ़ लेता है। तुम जो कहते हो, वैसा ही हो जाता है। तुम कहते हो, परमात्मा का यह लक्षण, तो वही करने लगता है बेचारा। और भीतर की दुनिया उसकी अपनी है।
एक आदमी मरा। देवदूत उसे लेकर परलोक पहुंचे। उसे बिठाया गया स्वागत-कक्ष में। वह बड़ा चिंतित है कि मैं जहां लाया गया हूं, वह स्वर्ग है या नरक? कुछ समझ में नहीं आता। चारों तरफ देखता है लेकिन कुछ पक्का नहीं हो पाता। और पूछने में थोड़ा डरता भी है कि कहीं नरक ही न हो, कहीं नरक ही न निकले। अभी जब तक बात तय नहीं है तब तक कम से कम इतनी सुविधा तो है कि सोच सकते हैं कि शायद स्वर्ग ही हो। कहीं यह साफ ही कोई कह दे कि नरक है! तो लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं, वह किसी से कुछ पूछता नहीं, देख रहा है कि स्थिति क्या है? तभी उसने देखा कि एक महात्मा जिन्हें वह जानता था कि इस लोक में बड़े प्रसिद्ध थे, वे प्रविष्ट हुए, तब तो वह निशिं्चत हो गया, उसकी बांछें खिल गईं, उसने कहा, हो न हो पक्का स्वर्ग है! इतना बड़ा महात्मा आ रहा है! महात्मा को ले जाया गया बगल के एक विशेष कक्ष में बिठाया गया।
वह खुश हो ही रहा था कि तभी सब खुशी ताश के महल की तरह गिर गई, क्योंकि उसी नगर की एक महा वेश्या, वह भी आई। तब तो वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, हो न हो यह नरक है। इस वेश्या को स्वर्ग मिले, यह तो हो ही नहीं सकता। मगर महात्मा और वेश्या, अब करूं क्या? और दुविधा बढ़ गई। जैसे ही वेश्या अंदर घुसी, महात्मा ने एकदम हमला कर दिया वेश्या पर। तब तो वह और चैंका। और महात्मा ने आव देखा न ताव, वे तो एकदम वेश्या के साथ प्रेम करने में लग गए। वेश्या चीख रही, चिल्ला रही, महात्मा सुनें ही नहीं। महात्मा ही थे, वे कहीं बाहर की चीजें सुनें इत्यादि, वे सब कान वगैरह तो बंद ही कर चुके थे बहुत पहले! कनफटा योगी रहे होंगे। अब उसने कहा पता लगा लेना ठीक है कि यह मामला क्या है? यह हो क्या रहा है? यह मैं देख क्या रहा हूं?
जाकर द्वारपाल से पूछा कि एक सवाल है कि यह स्वर्ग है या नरक? द्वारपाल ने कहा, खुद ही देख लो और पहचान लो! उसने कहा कि इसीलिए तो पूछ रहा हूं। अब तक तो थोड़ा संदेह था, अब तो मैं बहुत ही दुविधा में पड़ गया हूं। यह महात्मा देखो, तुम्हें आवाज नहीं सुनाई पड़ रही है, वह वेश्या गरीब चिल्ला रही है और वह मुस्तंड महात्मा...जिंदगी भर और तो उन्होंने कोई काम किया ही नहीं था। दंड-बैठक लगाई थी, मुस्तंड तो वे थे ही...वह उस गरीब वेश्या को किस बुरी तरह सता रहा है, व्यभिचार हो रहा है आंख के सामने, मुझसे नहीं देखा जाता। वह तो महात्मा की वजह से मैं चुप हूं, नहीं तो दो हाथ मैं ही लगा देता इस महात्मा को! मगर महात्मा बड़ा है और बड़ा प्रसिद्ध था, और सदा उसके चरण छुए हैं, तो जरा संकोच होता है। तो उस द्वारपाल ने कहा कि अब तुम सच्ची बात ही जानना चाहते हो तो यह कि महात्मा के लिए यह स्वर्ग है और वेश्या के लिए यह नरक है। महात्मा अपने पुण्यों का फल पा रहा है, वेश्या अपने पापों का फल पा रही है।
यही समझाया गया है सदियों से तुम्हें कि अगर इस जगत में त्याग किया तो परलोक में भोगोगे; वहां अप्सराएं तुम्हारी राह देख रही हैं, एकदम पलक-पांवड़े बिछाए बैठी हैं; शराब के झरने बह रहे हैं; ...यहां दारूबंदी चल रही है, वहां शराब के झरने अब भी बह रहे हैं! दिल खोल कर पीओ! पीना ही क्या है, डुबकी मारो, तैरो! कोई कुल्हड़ों का सवाल है, मटकियां भरो, जो दिल में आए करो, झरने बह रहे हैं! सब तरह के सुखों की वहां सुविधा है। झाड़ों पर फूल नहीं लगते, हीरे-जवाहरातों के फूल लगते हैं। पत्ते क्या हैं? माणिक-मोती हैं। कंकड़-पत्थर तो वहां होते ही नहीं।
ये किन लोगों ने कल्पनाएं की हैं स्वर्ग की? और किनने तुम्हें कहा है कि अगर चरित्र हुआ तो ये चीजें मिलेंगी? ये तुम्हारे लोभ को प्रलोभन हैं। यह तुम्हारे लोभ को उकसाना है। इस लोभ के आधार पर जो चरित्र बनेगा, उसका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं।
या फिर नरक का भय है कि वहां सड़ाए जाओगे। बुरी तरह सड़ाए जाओगे। आग में जलाए जाओगे। कड़ाहे जल रहे हैं, सतत जलते रहते हैं कड़ाहे पर कड़ाहे और लोग उसमें चुड़ाए जाते हैं; ...इधर तेल की कमी हो रही है, उधर तेल की कोई कमी नहीं है। सदियों से चल रहा है, कड़ाहे चढ़े हुए हैं और पापी सताए जा रहे हैं। और कीड़े-मकोड़े तुम्हारे शरीर में दौड़ेंगे। और प्यास तुम्हें लगेगी लेकिन पानी तुम पी न सकोगे, क्योंकि तुम्हारे ओंठ सिए हुए होंगे। क्या-क्या गजब के सोचने वाले लोग! जरा इन दुष्टों की कल्पना तो देखो! और ये शास्त्र रचते हैं! इनसे तो हिटलर इत्यादि को सलाह लेनी चाहिए कि क्या, किस तरह सताएं लोगों को। कीड़े-मकोड़े शरीर में दौड़ेंगे, छेद पर छेद कर देंगे, छिन्न-भिन्न कर डालेंगे तुमको, लेकिन मरोगे नहीं, यह ख्याल रखना। मरने नहीं देते हैं नरक में किसी को, क्योंकि मर गए तो मजा ही चला गया। सताओ जितना सताना है, मरने भर मत देना।
तो या तो यह नरक का भय है।
मैंने सुना है, एक राजनेता मरे। राजनेता थे, तो जैसे ही नरक में पहुंचे तो पहले तो बहुत नाराज हुए, एकदम गुस्से में आ गए, आगबबूला हो गए..लेकिन शैतान ने कहा, आगबबूला न हों, यहां नेतागिरी नहीं चलेगी, यह कोई दिल्ली नहीं है! और माना कि आप खादी पहने हुए हैं, मगर यहां खादी का क्या मूल्य? माना कि आप गांधी टोपी लगाए हुए हैं, उसे लगाए रहो, यह नरक है और यहां मेरी चलती है! मगर आप नेता थे और बड़े नेता थे, और जमीन पर जब तक रहे, हमारे बड़े काम आए, एक तरह से हमारे एजेंट ही थे वहां, तुम्हारे जरिए हमने कई लोगों को फांसा; आज जो कई लोग नरक में पड़े हैं, तुम्हारे बिना नहीं पड़ सकते थे; तो तुमने हमारी बड़ी सेवा की जाने-अनजाने, इसलिए तुम्हें थोड़ी सी हम सुविधा देंगे। यहां नरक के तीन खंड हैं, तुम कोई भी चुन सकते हो; यह सुविधा हर किसी को नहीं मिलती। नेता थोड़े प्रसन्न हुए कि चलो, कुछ विशेषता तो अपने लिए दी जा रही है। तो उन्होंने कहा, मैं तीनों देखना चाहूंगा, फिर चुनूंगा।
पहले में गए तो देखा बड़ी हालत खराब है। लोग नंगे खड़े हैं और कोड़े मारे जा रहे हैं, लहू झर रहा है और पिटाई चल ही रही है..सतत। पूछा शैतान से कि यह पिटाई बंद कब होगी? उसने कहा, यह कभी बंद नहीं होने वाली। छुट्टी वगैरह? कोई यहां छुट्टी वगैरह नहीं। छुट्टी की तो बात छोड़ो, उसने कहा कि चाय-काफी पीने का भी समय नहीं मिलता। यह चलती ही रहती है। सोने का मौका मिलता है? उसने कहा, यहां कहां सोना वगैरह! सो लिए वहां बहुत दिल्ली में! यहां तो चैबीस घंटे। तो उन्होंने कहा, यह तो बड़ा कठिन मामला है। दूसरा नरक दिखाओ दूसरा खंड दिखाया।
वहां वही कड़ाहे चढ़े हुए थे। उन्होंने कहा, इसके बाबत तो मुझे पता था और पहले ही पढ़ा है पुराणों में, लोग जलाए जा रहे हैं..बिल्कुल जैसे आदमी न हों पकौड़े हों, उलटाए-पलटाए जा रहे हैं और भयंकर दुर्गंध उठ रही है...अब आदमियों को तुम कड़ाहों में जलाओगे! ...कि नेता ने एकदम अपनी श्वास बंद कर ली और कहा कि यहां तो मैं खड़ा नहीं रह सकता एक मिनट। अब तीसरा दिखाओ।
तीसरे में गए। हालत तो वहां भी बड़ी बदतर थी मगर फिर भी बेहतर थी, उन दो की तुलना में बेहतर थी। लोग गले-गले मल-मूत्र में खड़े थे! पर नेता ने कहा कि चलो, यह ठीक है। स्व-मूत्र तो मैं पहले ही से पान करता रहा था, सो मलमूत्र में पचास प्रतिशत अपना जाना-पहचाना, पचास प्रतिशत की कमी रह गई थी सो वह यहां अनुभव हो जाएगा। कोई हर्जा नहीं! और न केवल लोग गले-गले मल-मूत्र में खड़े हैं, कोई काफी पी रहा है, कोई चाय पी रहा है..कोई कोकाकोला! उन्होंने कहा कि कम से कम कुछ थोड़ा यहां सुख भी मालूम पड़ता है। हालांकि बदबू भी है, दुख भी है, मगर पहले से यह हालत अच्छी है, मैं यही चुन लेता हूं।
नेता जैसे ही अंदर प्रविष्ट हुए, गले-गले मल-मूत्र में खड़े हुए, तभी जोर से घंटी बजी और एक शैतान का शिष्य प्रकट हुआ और उसने कहा कि बस, चाय-पानी का समय खतम, अब सब लोग शीर्षासन करो। तब उनको असलियत पता चली कि अब मारे गए!
नरक के भय लोगों ने बिठा रखे हैं। तो कुछ लोग चरित्र का निर्माण करते हैं भय के कारण, कुछ लोग लोभ के कारण। भय और लोभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अक्सर तो दोनों का ही उपयोग किया गया है..इधर भय, इधर लोभ। इधर लोभ मारता है, उधर भय मारता और दोनों के बीच में तुम किसी तरह अपने चरित्र को सम्हाल लेते हो। यह चरित्र किसी भी मूल्य का नहीं है, दो कौड़ी भी मूल्य का नहीं है! इससे सामाजिक प्रतिष्ठा मिल जाए, सम्मान मिल जाए, मगर इससे धर्म का कोई अनुभव नहीं होगा, इससे परमात्मा की कोई प्रतीति नहीं होगी।
इसलिए यह बहुत अदभुत क्रांतिकारी वचन है..
और अमल की दर जो छोड़ै, ...
...और सब चरित्र, और अमल का दरवाजा छोड़ो सिर्प एक ही अमल, एक ही चरित्र, एक ही आचरण करने योग्य है..
...आपु अपन गति जोई।
बस, अपने भीतर उतरो, अपने भीतर चलो..अंतर्यात्रा में। अपने भीतर डूबो, डूबते जाओ, वहां तक जहां तक केंद्र न मिल जाए। स्वयं का केंद्र जब तक न मिल जाए तब तक अंतर्यात्रा जारी रहे।
घोर तम छाया चारों ओर
घटाएं घिर आईं घन घोर
वेग मारुत का है प्रतिकूल
हिले जाते हैं पर्वतमूल;
गरजता सागर बारंबार,
कौन पहुंचा देगा उस पार?
तरंगें उठीं पर्वताकार
भयंकर करतीं हाहाकार;
अरे उनके फेनिल उच्छ्वास
तरी का करते हैं उपहास,
हाथ से गई छूट पतवार,
कौन पहुंचा देगा उस पार?
ग्रास करने तरणी, स्वच्छंद
घूमते फिरते जलचर-वृंद;
देख कर काला सिंधु अनंत
हो गया हा साहस का अंत!
तरंगें हैं उत्ताल अपार,
कौन पहुंचा देगा उस पार?
बुझ गया वह नक्षत्र-प्रकाश
चमकती जिस में मेरी आश;
रैन बोली सज कृष्ण दुकूल
विसर्जन करो मनोरथ फूल;
न लाए कोई कर्णाधार,
कौन पहुंचा देगा उस पार?
सुना था मैंने इसके पार,
बसा है सोने का संसार,
जहां के हंसते विहग ललाम
मृत्यु-छाया का सुन कर नाम!
धरा का है अनंतशंृगार,
कौन पहुंचा देगा उस पार?
जहां के निर्झर नीरव गान
सुना करते अमरत्व प्रदान;
सुनाता नभ अनंत झंकार
बजा देता है सारे तार;
भरा जिसमें असीम सा प्यार!
कौन पहुंचा देगा उस पार?
पुष्प में है अनंत मुस्कान
त्याग का है मारुत में मान;
सभी में है स्वर्गीय विकास
वही कोमल कमनीय प्रकाश;
दूर कितना है वह संसार!
कौन पहुंचा देगा उस पार?
सुनाई किसने पल में आन
कान में मधुमय मोहक तान?
‘तरी को ले जाओ मंझधार,
डूब कर हो जाओगे पार;
विसर्जन ही है कर्णाधार,
वही पहुंचा देगा उस पार!’
डूबो अपने में। सबसे बड़ी गहराई वहां है। प्रशांत महासागर की भी गहराई इतनी गहराई नहीं। हालांकि पांच मील गहरा है प्रशांत महासागर, मगर तुम्हारी गहराई के सामने कुछ भी नहीं। चेतना की गहराई अनंत है। और चेतना की ऊंचाई भी अनंत है। गौरीशंकर भी इतना ऊंचा नहीं जितनी चेतना की ऊंचाई है। चेतना ऊंचे से ऊंचा तत्व है..और गहरे से गहरा भी।
सुनाई किसने पल में आन
कान में मधुमय मोहक तान?
‘तरी को ले जाओ मंझधार,
डूब कर हो जाओगे पार;
विसर्जन ही है कर्णाधार,
वही पहुंचा देगा उस पार!’
विसर्जन की कला सीखो। डूबने की कला सीखो। और कहीं और किसी चीज में नहीं डूबना है, अपने में डूबना है।
हरदम हाजिर प्रेम-पियाला, ...
..डूब सको तो यह अनुभव में आए..
हरदम हाजिर प्रेम-पियाला, पुलिक पुलिक रस लेई।।
जीव पीव महं पीव जीव महं, बानी बोलत सोई।
डूब सको मझधार में, अपने ही प्राणों में, अपनी ही चेतना में सारे अहंकार को विसर्जन करके एक हो जाओ, एकाकार हो जाओ, तो..
हरदम हाजिर प्रेम-पियाला, पुलिक पुलिक रस लेई।।
‘जीव पीव महं’...तब तुम जानोगे कि वह परमात्मा, वह प्यारा तुम्हारे भीतर है; ‘पीव जीव महं’...और तुम उस परमात्मा में हो। जिसने स्वयं को जाना, उसने यह भी जाना कि मेरे और परमात्मा के बीच कोई फासला नहीं, कोई भेद नहीं। भेद की रेखा भी नहीं। ‘बानी बोलत सोई’, ...उस दिन फिर तुम जो बोलोगे, वह परमात्मा की वाणी है, तुम्हारी नहीं। वही बोलता है फिर। ऐसे वेद जन्मे, उपनिषद जन्मे, कुरान, गीता, बाइबिल जन्मे। ऐसे जन्मे, जब कोई भीतर अपने डूब गया। इसलिए तो हमने वेद को अपौरुषेय कहा है। अपौरुषेय का अर्थ है: ये किन्हीं पुरुषों के द्वारा नहीं रचे गए; ये व्यक्तियों ने नहीं रचे, व्यक्ति जब मिट गए, तब अवतरित हुए। इसलिए तो कुरान को इलहाम कहा जाता है। इलहाम का अर्थ है: यह मोहम्मद की कृति नहीं है, यह मोहम्मद पर अवतरित हुआ; उतरा, इलहाम। इसलिए तो जीसस बार-बार कहते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, वह वही है जो परमात्मा कहे। मुझमें और मेरे पिता में, मुझमें और परमात्मा में कोई भी भेद नहीं है। मैं और वह एक हूं। उपनिषद कहते हैं: तत्वमसि, तुम वही हो।
‘सोई सभन महं’, ...और जो भीतर पाओगे, वही सब में पाओगे; ‘हम सबहन महं’, ...अपने को सब में फैला हुआ जिस दिन देखोगे उस दिन तुम्हारे आनंद का पारावार न रह जाएगा। सबको अपने में समाया पाओगे और सब में अपने को समाया पाओगे। ‘बूझत बिरला कोई’, ...बहुत कम धन्यभागी लोग हैं जो इस रहस्य को बूझ पाए हैं। सुनते तो तुम हो, पढ़ते भी तुम हो, मगर तुम्हारा पांडित्य तुम्हारा ज्ञान नहीं है, बासा और उधार है।
एक महापंडित पागलखाना देखने गया था। महापंडित आया पागलखाने में तो उसे घुमाया सुपरिन्टेंडेंट ने। महापंडित ने पूछा सुपरिन्टेंडेंट को कि जब कोई पागल ठीक हो जाता है तो तुम्हें कैसे पता चलता है कि वह ठीक हो गया? तो उसने कहा कि इसकी एक छोटी सी तरकीब है। यह सामने आप टब देखते हैं? हम नल खोल देते हैं और पागल को कहते हैं कि टब को खाली करो। तो वह बाल्टी से उलीच कर टब को खाली करने लगता है। बस, इससे पता चल जाता है कि पागल है या नहीं है? महापंडित ने कहा, मैंने कुछ समझा नहीं। इससे कैसे पता चलेगा कि पागल है या नहीं?
सुपरिन्टेंडेंट ने कहा कि अगर वह नल की टोंटी पहले बंद कर देता है और फिर पानी खाली करता है, तो हम समझ जाते हैं कि पागल नहीं है अब। नल को जारी रहने देता है और पानी खाली करने में लग जाता है, तो हम समझ लेते हैं कि अभी पागल है।
महापंडित ने कहा: यह तो हद हो गई। मैं तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था, यह नल की टोंटी बंद करने की। यह तो मेरे ख्याल में ही बात न आई थी।
फिर महापंडित आया है तो उसका प्रवचन करवा दिया पागलों के बीच। और पागलों ने ऐसी तालियां बजाईं और ऐसे प्रसन्न हुए, ऐसे पुलक-पुलक होकर नाचे कि महापंडित ने कहा कि मैं तो सोचता था कि पागल क्या समझेंगे! सामने ही बैठे जो पागल बहुत ही तालियां बजा रहे थे, बहुत ही मस्त हुए जा रहे थे, उनसे पूछा कि भाइयो, मैंने बड़ी-बड़ी सभाओं में व्याख्यान दिए, इतने आनंदित श्रोता मैंने कहीं नहीं पाए, आखिर तुम्हें कौन सी बात इतनी रुच रही है? उन्होंने कहा, हमें इस बात का आनंद आ रहा है कि अरे वाह रे वाह, तुम जैसे पागल बाहर और हम जैसे समझदार भीतर, खूब मजा चल रहा है दुनिया में! परमात्मा के खेल तो देखो, तुम महापंडित और हम पागल!
जिनको तुम महापंडित कहते हो, वे इस जीवन की सबसे बड़ी बुनियादी भूल के शिकार हैं। वह बुनियादी भूल है कि सत्य उधार मिल सकता है। कि शास्त्र से, शब्दों से, कि दूसरों से सत्य उधार मिल सकता है। इससे बड़ी और कोई भूल नहीं हो सकती। सत्य का अनुभव करना होता है स्वयं में। न तो शास्त्र दे सकता, न कोई और। सत्य को तो स्वानुभाव से ही पाया जाता है। क्योंकि वह तो तुम्हारे अंतर्तम में मौजूद है। उसे कहां तुम गीता में खोज रहे हो, कुरान में खोज रहे हो! हां, यह बात जरूर सच है कि जिस दिन अपने भीतर पा लोगे, उस दिन कुरान और गीता में भी दिखाई पड़ेगा। मगर उसी दिन दिखाई पड़ेगा। उसके पहले तो तुम कोरे शब्दों को याद कर लोगे, तोते की तरह। तोते भी शायद थोड़े ज्यादा समझदार होते हैं। इतने समझदार भी तुम्हारे पंडित नहीं होते। मैं पंडितों को जानता हूं। मैं ऐसे पंडितों को जानता हूं जिन्होंने ध्यान पर बड़ी सुंदर किताबें लिखी हैं और फिर मुझसे पूछने आए कि ध्यान कैसे करें? मैंने उनसे पूछा कि आपने इतनी सुंदर किताब लिखी..भेजी थी, तो मैंने किताब आपकी देखी। शक तो मुझे तब भी हुआ था। लेकिन आपने चमत्कार किया। लिख कैसे सके? उन्होंने कहा: अरे, किताब लिखने में क्या रखा है! दस किताबें ध्यान पर पढ़ लीं और एक ग्यारहवीं तैयार कर दी। ध्यान कभी किया? नहीं, ध्यान तो कभी नहीं किया। पुस्तकों से फुरसत मिलती तो ध्यान करते! बड़े अजीब लोग हैं मगर ऐसे ही लोगों से दुनिया भरी हुई है।
एक महिला लेखिका हालैंड से यहां आई। उसने मेरे खिलाफ एक किताब लिखी और किताब मुझे भेजी और साथ में पत्र लिखा कि एक बात की क्षमा मांगना चाहती हूं, आई तो मैं जरूर पूना और तीन सप्ताह वहां रही भी, क्योंकि मुझे किताब लिखनी थी, इस किताब को लिखने के लिए मुझे पैसा मिलने वाला था, लेकिन किताब लिखने में मैं इतनी उलझी रही कि ब्लू-डायमंड होटल के कमरे को छोड़ कर आश्रम आ ही नहीं सकी। अब यह मजा देखे हो! मेरे खिलाफ किताब लिखी है, वह आश्रम आई ही नहीं! फुरसत ही नहीं मिली आश्रम आने की, किताब लिखने में इतनी उलझी रही। किताब कैसे लिखी इसने? सारी किताब ऊलजलूल है। होने ही वाली है। मगर उसकी हजारों प्रतियां बिक रही हैं। और उस किताब को पढ़कर दूसरे किताब लिखेंगे। अब यह सिलसिला जारी रहेगा।
लोगों ने ऐसे-ऐसे लेख लिखे हैं कि उनके लेख जब मेरे पास आते हैं तो चित्त आनंदित हो जाता है!
एक सज्जन ने लिखा है कि जब मैं आश्रम के द्वार पर पहुंचा, सुबह पांच बजे, ब्रह्ममुहूर्त में, तो एक नग्न स्त्री ने दरवाजा खोला। पहले तो मैं थोड़ा चैंका, लेकिन जब आया ही था आश्रम देखने इतनी दूर से, परदेस से, तो भीतर प्रवेश हुआ थोड़ा डरता-डरता और वह स्त्री मुझे एक वृक्ष के पास ले गई, उसने एक फल तोड़ा जो कि सेब जैसा मालूम होता था और मुझसे कहा कि इसे खाएं, इसे खाने से आदमी सदा जवान रहता है।
...मैंने तत्क्षण ‘लक्ष्मी’ को बुलाया कि यह वृक्ष कहां है? !अजनबियों को फल बांटे जा रहे हैं! अपने कई संन्यासी वृद्ध हुए जा रहे हैं! पहले उनको मिलना चाहिए!
अब यह चलेगी बात। अब इसे दूसरे लेख उद्धरण करेंगे।
मगर यह तो कुछ भी नहीं! पंजाब से एक पत्रिका आई है। पंजाबियों का तो मुकाबला ही नहीं! कोई सरदार जी ने अपनी पूरी बुद्धि लगा दी..जितनी भी होगी..लिखा है कि आश्रम छह वर्गमील...छह एकड़ जमीन पर आश्रम है...छह वर्गमील आश्रम का विस्तार है। कल्पना की भी कोई सीमा होती है। इन छह वर्गमीलों में बड़ी-बड़ी झीलें हैं, जिनमें हजारों संन्यासी-संन्यासियां नग्न स्नान करते हैं। जलप्रपात हैं कृत्रिम; ...मैं कभी आश्रम में गया नहीं, तो मैंने कहा हो न हो, सरदार जी कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे, ...अंडरग्राउंड एअरकंडीशंड भवन हैं, जिसमें दस हजार संन्यासी रोज सुबह प्रवचन सुनते हैं; ...तुम जरा गौर से देख लेना, सब अंडरग्राऊंड बैठे हुए हो! ...और उससे भी बड़ी बात कि वहां बैठने का नियम ही यह है कि सबको नग्न बैठना पड़ता है। ...ऐसे यह बात सच है, कपड़ों के भीतर सभी नग्न हैं। कपड़े क्या खाक नग्नता को मिटाएंगे! नग्नता तो स्वाभाविक है, ऊपर से कपड़ा ओढ़ लिया है, इससे क्या होता है? तो तुम सब नग्न यहां बैठे हुए हो! अंडरग्राउंड! दुनिया को इसका पता भी नहीं चल रहा है। ...और लिखा है कि जब तक मैं रहता हूं मौजूद तब तक तो ठीक और जब मैं चला जाता हूं, तो फिर रासलीला होती है। फिर संन्यासिनियां और संन्यासी प्रेम-क्रीड़ा में संलग्न होते हैं, जो घंटों चलती है। ...अंधे को बड़ी दूर की सूझी! सरदारजी ने दिखता है ठीक बारह बजे लेख लिखा होगा!
मगर ये बातें चल पड़ती हैं। और चल पड़ती हैं तो फिर इनको रोकने का कोई उपाय नहीं। फिर एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे, फिर ये बढ़ती जाती हैं, फिर ये इकट्ठी होती जाती हैं।
दुनिया की सारी भाषाओं में इतना कुछ लिखा जा रहा है इस आश्रम के बाबत कि यहां तो किसी को फुरसत भी नहीं है कि उस सबको देखे। पचास व्यक्ति तो सिर्प प्रेस-आफिस में यहां सिर्प इकट्ठा करने को बैठे हैं कि वह जो-जो लिखा जाता है, उसको इकट्ठा करना, उसका ट्रांसलेशन करना..क्योंकि दुनिया की अलग-अलग भाषाओं में लिखा जाता है, क्या लिखा जा रहा है? पहले तो मैं थोड़ा देखता भी था फिर मैंने ‘लक्ष्मी’ से कहा कि यह सब कचरा यहां लाने की जरूरत नहीं है। मगर यह कचरा निर्णायक होगा। पंडित इसी कचरे पर जीते हैं।
ध्यान पर दस किताबें पढ़ ली हैं और ग्यारहवीं उन्होंने लिख दी। उनकी ग्यारहवीं किताब पढ़ कर कोई बारहवीं लिखेगा। और ध्यान का कोई अनुभव नहीं है। जिन्होंने प्रेम नहीं जाना, वे प्रेम पर शास्त्र लिखते हैं, जिन्होंने ध्यान नहीं जाना, वे ध्यान पर शास्त्र लिखते हैं। इतना सस्ता नहीं है मामला। अनुभव करना होगा। और अनुभव का एक ही उपाय है: अपने भीतर उतरो। यह बहिर्यात्रा है: शास्त्र भी बहिर्यात्रा है।
वाकी गती कहा कोई जानै, जो जिय सांचा होई।
कितना प्यारा वचन है! उस परमात्मा की गति वही जान पाता है, जो अपने भीतर जीवन में सच्चा होता है। जो जिय सांचा होई। जो जीता है सत्य को, जो सत्य रूप हो जाता है, वही केवल उसकी गति को जान पाता है। नहीं, और कोई दूसरा उसकी गति को नहीं जान पाता।
कह गुलाल वे नाम समाने...
और गुलाल कहते हैं कि वे नाम समा गए; जिन्होंने उसको जाना, वे उसी में समा गए। वे अलग न रहे, भिन्न न रहे, अभिन्न हो गए।
...मत भूले नर लोई।।
और बाकी आदमियों की तुम पूछो, तो वे तो मत-मतांतर में भूले हुए हैं। कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई। इतने से भी बस नहीं चलता, तो छोटे-मोटे संप्रदाय, फिर उप-संप्रदाय! इतने उपद्रव मचा रखे हैं लोगों ने कि जिसका हिसाब नहीं है। तीन सौ तो धर्म हैं पृथ्वी पर और कम से कम तीन हजार संप्रदाय और कम से कम तीस हजार उप संप्रदाय होंगे इनके। और उप-संप्रदायों में भी छोटे-छोटे अपने-अपने घेरे बना रखे हैं लोगों ने। सत्य एक, तो इतना उपद्रव क्यों? लेकिन वह सत्य तो तुम्हारे भीतर है, वहां तुम जाते नहीं, बाहर तो मत-मतांतर ही हो सकते हैं। बाहर तो शब्दों की मार-पीट है, तर्कजाल है। खूब तर्क चलते हैं बाहर, खूब विवाद चलते हैं बाहर..और ऐसी-ऐसी मूढ़तापूर्ण बातों पर विवाद चलते हैं सदियों तक कि जब पीछे तुम लौट कर देखोगे तो तुम्हें हैरानी होगी!
मध्य-युग में यूरोप में तीन सौ सालों तक एक विवाद चला, जिसमें यूरोप के सारे बड़े धर्मशास्त्री सम्मिलित रहे। बड़े पादरी, बड़े पुरोहित, बड़े पोप। और विवाद क्या था कि सुई की नोक पर कितने देवदूत खड़े हो सकते हैं? अब किसको लेना-देना! और फिकर पड़ी हो तो सुई को पड़े, इनको क्या चिंता हो रही है? या देवदूतों को चिंता हो। मगर सवाल यह था कि देवदूतों में कितना वजन होता है, कि नहीं होता? हलके होते हैं, इतने हलके-फुलके होते हैं कि उनका कोई वजन ही नहीं होता। इतने सूक्ष्म होते हैं कि एक सुई की नोक पर खड़े हो सकते हैं। मगर कितने? फिर सवाल उठेगा कि आखिर कितने? अब इसकी कोई सीमा होगी, कितने खड़े हो सकते हैं?
सदियों से यह विवाद चल रहा है कि परमात्मा ने सृष्टि कब बनाई? यूरोप के एक धर्मशास्त्री ने तो बिल्कुल तारीख, दिन, सब तय कर दिया। एक जनवरी, ...निश्चित ही, कि एक जनवरी से साल शुरू होती है, अब कोई परमात्मा बीच साल में थोड़े ही दुनिया शुरू करेगा! और बीच साल में दुनिया शुरू करेगा तो जो महीने बीत गए, उनमें क्या किया? वे खाली ही चले गए! तो एक जनवरी बात जंचती है। और सोमवार का दिन। बिल्कुल ठीक है। ऐसे भी शुभ। और जीसस से चार हजार चार वर्ष पहले। यह उसने कैसे निकाला? इसके संबंध में बड़े प्रश्न उठे कि जनवरी भी ठीक, सोमवार भी ठीक, जंचती है बात, मगर चार हजार चार वर्ष पहले ठीक, यह तुम्हें कैसे पता चला? इसको वह कहता है, यह उसने अंतर्चक्षु से देखा! अब अंतर्चक्षु के बाबत तो कोई झगड़ा ही नहीं हो सकता! जैसे अब सरदारजी ने देखा कि अंतर्चक्षु से यह आश्रम छह वर्गमील में फैला हुआ है। झील, जलप्रपात, अंडरग्राउंड दस-दस हजार लोग नग्न बैठे हुए ध्यान कर रहे हैं, दस-दस हजार लोग रासलीला में सम्मिलित हो रहे हैं। यह जरूर अंतर्चक्षु से देखा होगा नहीं तो यह कैसे दिखाई पड़ेगा? अंतर्चक्षु से तो कोई झगड़ा ही नहीं कर सकता। अब अंतर्चक्षु तो निजी बात है। अब तुम्हारे अंतर्चक्षु से नहीं दिखाई पड़ता, मतलब तुम्हारे अंतर्चक्षु खराब हैं। इलाज करवाओ। अगर ठीक होंगे तो तुमको भी दिखाई पड़ेगा।
एक सम्राट् के दरबार में एक चालबाज आदमी आया और उसने कहा कि मालिक, और सब तो ठीक है, आपके पास धन है, जितना चाहिए उससे ज्यादा, आपका राज्य इतना बड़ा कि जिसमें सूर्य का अस्त नहीं होता, लेकिन एक चीज की कमी अखरती है मेरे दिल को, जब कि मैं वह कमी पूरी कर सकता हूं। सम्राट् ने कहा, वह क्या? ..उसको लोभ जगा, लार टपकी..वह क्या चीज की? बोलो, तुम बोलो, जो भी तुम्हारा पुरस्कार होगा, मैं दूंगा। उसने कहा कि आपके पास देवताओं के वस्त्र चाहिए। आदमी के वस्त्र आप पहनें, यह शोभा नहीं देता! आप तो पृथ्वी पर देवता हैं, दिव्य हैं। है भी राजा, सदियों से कहा जाता रहा कि वह भगवान का प्रतिनिधि। उसने कहा: यह बात तो ठीक है, मगर देवताओं के वस्त्र कहां मिलेंगे? उसने कहा: वह मैं ला दूंगा! खर्च काफी होगा! क्योंकि जाना देवताओं तक, फिर वहां भी रिश्वत चलने लगी है। रिश्वत देना, पहरेदारों से लेकर और आखिर तक, बड़ी झंझट का काम है! मगर निकाल लाऊंगा..इतना वचन देता हूं। राजा को शक हुआ कि यह कोई धोखा तो नहीं देगा। उस आदमी ने कहा: आप इसकी फिकर ही छोड़ दें। आप एक महल मुझे दे दें, चारों तरफ पहरा लगवा दें; जितना धन मैं मांगूं, वह मुझे मिलते जाना चाहिए, महीना भर लगेगा। महीने भर में मैं लेकर मंजूषा देव-वस्त्रों की हाजिर हो जाऊंगा।
पहरा लगा दिया गया। अब कोई डर भी नहीं था। उसने करोड़ पर करोड़ मांगे, राजा भी थकने लगा; महीने भर में उसने थका डाला कि रोज ही मांग आए कि आज दो करोड़ भेजो, आज पांच करोड़ भेजो; उसने अरबों-खरबों रुपये खाली कर दिए खजाने से महीने भर के भीतर। राजा भी जिद्दी था, उसने कहा कि जाएगा कहां, रुपए भी लेकर कहां जाएगा? महल चारों तरफ से घिरा हुआ है और वह महल के भीतर है, या तो कपड़े लाएगा, नहीं तो सारे रुपए भी वसूल कर लेंगे और सजा अलग।
लेकिन ठीक तीस दिन बीतने पर वह आदमी आ गया, एक बड़ी सुंदर मंजूषा में कपड़े लिए हुए। दरबार में आकर उसने मंजूषा रखी और उसने कहा कि बड़ी मुश्किल तो आई मगर निकाल लाया। ये वस्त्र आ गए। ये वस्त्र आपके पहनने योग्य हैं! लेकिन इसके पहले कि मैं पेटी खोलूं, एक शर्त आपको बता दूं जो कि देवताओं ने मुझसे कही। ये वस्त्र अदृश्य हैं, जैसे कि देवता अदृश्य होते हैं। फिर भी मैंने कहा कि अदृश्य हैं, वह तो ठीक, मगर पृथ्वी पर अदृश्य वस्त्रों को कौन समझ पाएगा? कुछ विशेष हमें छूट दो! करोड़ों रुपये इसी में लग गए, लेकिन विशेष छूट भी ले आया। अब विशेष छूट यह है कि ये वस्त्र उन लोगों को दिखाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुए हों। राजा ने कहा: फिर कोई बात नहीं। दरबारियों ने कहा, फिर कोई बात नहीं। सब अपने बाप से पैदा हुए हैं, इसमें क्या अड़चन है।
उसने पेटी खोली, राजा ने देखा पेटी खाली है। छाती पर सांप लोट गए। यह तो हद दर्जे की शरारत हुई जा रही है! मगर अब यह बोलना कि मुझे दिखाई नहीं पड़ते वस्त्र, अब स्वर्गीय पिता को भी बदनाम करना और अपनी इज्जत सदा के लिए मिट्टी में मिला देना, अब तो किसी तरह इसको सह लो, जो हुआ हुआ! उसने उसकी पगड़ी ली, राजा की पगड़ी, कीमती पगड़ी, हीरे-जवाहरात जड़ी, वह तो पेटी में डाली और खाली हाथ पेटी से बाहर निकाला और खाली हाथ राजा के सिर पर रखा और कहा कि देखते हैं पगड़ी, इसको कहते पगड़ी! और तालियां पिट गईं। दरबारियों ने कहा: वाह! एक से एक बढ़ कर कहने लगे कि वाह! क्योंकि कौन दरबारी कहे कि हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है! जो कहे, उसको यह झंझट हो जाए। इस बात से बचने के लिए प्रत्येक दरबारी जोर-जोर से, एक-दूसरे से ज्यादा जोर से प्रशंसा करने लगा। राजा ने कहा कि सबको दिखाई पड़ रहा है और मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है, हो न हो गड़बड़ मेरे ही साथ है। इस आदमी ने धोखा नहीं दिया। और बाकी दरबारियों ने भी सोचा कि सबको दिखाई पड़ रहा है, सिर्प मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है, तो अब जो हो गया सो हो गया, अपनी बात छिपा कर रखो, चुपचाप रहो, अब बोलने में कोई सार नहीं, सबको तो दिखाई पड़ रहा है, सदा के लिए बदनामी हो जाएगी।
और वह आदमी भी चालबाज पक्का था। उसने धीरे-धीरे सब कपड़े उतार लिए। अब अंडरवियर भी उतारा जाने लगा तो राजा थोड़ा झिझका कि अब क्या करना? यहां तक तो सह गया! लेकिन अब न करना, मतलब सब बात भद्द हो जाएगी। और लोग इतनी ताली पीट रहे हैं और इस तरह गुहार मचा रहे हैं, हर चीज पर वाह-वाह हो रही है कि राजा ने कड़ी हिम्मत की, आंख बंद कर लीं कि अब जो हो रहा है होने दो, कि भैया, निकाल ले, तू अंडरवियर भी निकाल ले। उसने अंडरवियर भी निकाल लिए। अब राजा बिल्कुल नंग-धड़ंग खड़ा है, और लोग उसके वस्त्रों की प्रशंसा कर रहे हैं। और वह आदमी भी पक्का चालबाज था, उसने कहा, महाराज, ये वस्त्र पहली दफा पृथ्वी पर आए हैं, सारा नगर देखने को उत्सुक है, राजमहल के बाहर सड़कों पर लाखों लोग इकट्ठे हैं, अब आपका जुलूस निकलेगा..शोभायात्रा! राजा ने कहा: मारे गए! पृथ्वी फट जाए, उसमें हम समा जाएं, अब क्या करें, क्या न करें! यह रुपए लेता दुष्ट, वह भी ठीक था; रुपए भी गए, अपने बाप से भी हाथ धोया और अब यह भद्द करवाने पर पूरी उतारू है! मगर अब मना करना ठीक नहीं। बैठे रथ पर, नंग-धड़ंग, लेकिन डुंडी पीटता जाए एक आदमी आगे-आगे कि ये वस्त्र केवल उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे जो अपने बाप से पैदा हुए हों। सबको दिखाई पड़ने लगे। राजा आश्वस्त हुआ। उसने कहा, जो हो, मगर लोगों को दिखाई पड़ रहे हैं।
सिर्फ एक आदमी अपने छोटे बच्चे को कंधे पर बिठा कर ले आया था दिखाने, उस बच्चे ने कहा कि दद्दू, राजा नंगा है! दद्दू ने कहा कि चुप रह, बे नालायक! जब तू बड़ा हो जाएगा, तब तुझे ये वस्त्र दिखाई पड़ेंगे। ये छोटे-छोटे बच्चों को नहीं दिखाई पड़ते। इसके लिए अनुभव चाहिए। और अगर अब दुबारा बोला, तो ऐसा चपत लगाऊंगा कि जिंदगी भर याद रहेगी! लड़का थोड़ी देर चुप रहा लेकिन उसने कहा, दद्दू, तुम कुछ भी कहो, है तो राजा बिल्कुल नंगा! सो दद्दू अपने बेटे को लेकर भागे घर की तरफ। उसने कहा कि यह हमारी भी बदनामी करवा देगा, पत्नी की बदनामी करवा देगा। हालांकि कह रहा है सच, मगर इसकी सच कौन माने!
अक्सर बच्चे सच कह देते हैं। सत्य के लिए बच्चों-जैसा निर्दोष भाव चाहिए भी। बड़े तो कुटिल हो जाते हैं, कपटी हो जाते हैं। उम्र लोगों को ज्ञान नहीं देती, चालबाजी देती है। उम्र से लोग प्रौढ़ नहीं होते, सिर्फ बूढ़े होते हैं। होशियार हो जाते हैं, चतुर हो जाते हैं, मगर सारी चतुराई और होशियारी कूटनीति बन जाती है, राजनीति बन जाती है। और तुम इसी तरह के जालों में पड़े हुए हो, जहां कुछ भी नहीं है, उन सिद्धांतों में उलझे हुए हो, मगर चूंकि बापदादे मानते रहे, सदी-सदी से मानते रहे, परंपरा से मानते रहे, तो तुम कैसे न मानो! तुम भी माने चले जा रहे हो। तुम्हारे बच्चों को भी तुम मनवाए जाओगे।
मुझे बचपन से मंदिर ले जाया जाता था। मेरे हृदय में कभी यह भाव नहीं उठता था कि सिर झुकाऊं; क्योंकि वहां मुझे कुछ दिखाई ही न पड़े कि सिर झुकाने का है क्या? मैं जिस परिवार में पैदा हुआ, वहां तो मूर्ति भी नहीं होती मंदिर में, शास्त्र ही होते हैं सिर्प। जैसे कि सिक्ख शास्त्र की पूजा करते हैं, ऐसे जैनों मुझे में एक तारण-पंथ है..जिसमें मैं पैदा हुआ..वह भी, नानक के समय में ही तारण हुए; वही काल, वही भाव-दशा, तो उनकी वाणी ही पूजी जाती है, कोई मूर्ति नहीं। मैं कभी यह समझ ही नहीं पाया कि तुम लाख किताब को मखमल में बांध कर रख दो, जरी चढ़ा दो, हीरे लगा दो, मगर किताब को सिर झुकाने का क्या मतलब है? लेकिन मेरे बड़े बुजुर्ग कहें, बड़े होओगे तब समझ लोगे। अब भी मैं नहीं समझ पाया। अब कब समझूंगा? राजा नंगा है, अभी भी नंगा है! और जिनने मुझसे कहा था कि समझ, बड़ा हो जाएगा तो समझ में आ जाएगा, वे झूठ कह रहे थे; कोई उसका कसूर नहीं था।
यही हम किए जाते हैं अपने बच्चों के साथ।
बच्चों को देख कर हंसी आती है तुम्हारे गणेश जी को, मगर तुम कहते हो, नहीं, इनको देख कर हंसना नहीं। अब बच्चे कहते हैं कि यह भी कोई आदमी है! अरे, ये आदमी भी नहीं, भगवान होना तो दूर। यह कोई ढंग है आदमी होने का! और शरम भी नहीं आती, चूहे पर सवार हैं। छोटी ही सवारी चाहिए तो रिक्शा पकड़ लेते। न सही इम्पाला, चलो गधा, घोड़ा, कुछ, ..चूहा! और शरीर तो देखो इनका! बच्चों को हंसी आती है।
मेरे एक शिक्षक थे, बड़ी उनकी तोंद थी और बड़ी पग्गड़ बांधते थे वे। संस्कृत के शिक्षक थे और बड़ा टीका, तिलक और..पुराने ढब के आदमी थे..अंगरखा, और उनको देख कर ही कोई कितना ही उदास हो, चित्त प्रसन्न हो जाता था। हम सब उन्हें भोलेनाथ कहते थे। सीधे आदमी थे, मगर भोलेनाथ कहने से चिढ़ते थे। वे जैसे ही आते, बोर्ड पर लिख दिया जाता..‘जय भोलेनाथ।’ बस, वह आते ही से फिर जो, पढ़ाई-लिखाई एक तरफ, वे ऐसे गुस्से में बोलते और गुस्से में फिर ऐसे संस्कृत के श्लोक उद्धृत करते और शास्त्रों का उल्लेख देते, कि पुराने जमाने में कैसे शिष्य और गुरु होते थे, और आज का यह कलियुग कि तुम अपने गुरु की हंसी-मजाक उड़ा रहे हो। अरे, मैं कोई नौटंकी का पात्र थोड़े ही हूं!
फिर वे मरे। अब मरना तो सभी को पड़ता है। वे मरे तो सारा मोहल्ला इकट्ठा हुआ, मैं भी गया, सारे बच्चे भी गए और बड़ी हैरानी तो यह हुई कि पता नहीं कैसे यह घटना घटी कि उनकी पत्नी एकदम भीतर से आई, उनकी लाश रखी थी, एकदम उनकी छाती पर गिर पड़ी और बोलीः हाय भोलेनाथ! तो मैंने लाख रोका, हंसी न रुकी। अब कोई मरे और हंसो! तो मुझे कान पकड़ कर वहां से उठा दिया गया और कहा कि तुम बदतमीज हो। मैंने कहा: बदतमीज है उनकी पत्नी। अरे, जिंदगी में हम कहते रहे, वह ठीक, मगर मरे पर मजाक करना! पर लोगों को तो पता नहीं था, उन्होंने कहा कि तुम कहीं सभा-सोसाइटी में ले जाने लायक हो ही नहीं! अब कभी भी कोई मरे, तुम जाना ही मत वहां। यह कोई हंसने की बात थी!
हालांकि और क्या हंसने की बात हो सकती है? हंसी की ही बात थी। संयोग अदभुत था। वे मरे पड़े हैं, अब वे कुछ कह भी नहीं सकते, जिंदा होते तो उठ कर बैठ जाते, हमेशा डंडा अपने हाथ में रखते थे, डंडा उठा लेते, अब बेचारे मर गए, अब वे कुछ कह भी नहीं सकते और उनकी पत्नी कह रही है: ‘हाय भोलेनाथ!’ और यही तो हम कहते थे उनसे; और इसके लिए कितनी उन्होंने डंड-बैठकें लगवाईं, कितना खड़ा रखा बाहर, और यह मरते वक्त भी विदाई उनकी ‘हाय भोलेनाथ’ से हो रही है!
बचपन का एक अपना जगत है, जहां कुटिलता नहीं होती, जहां चीजें सीधी-साफ दिखाई पड़ती हैं। वैसा ही पुनः हो जाने का नाम संन्यास है। फिर से बच्चे की आंख चाहिए। निर्दोष, चतुर-चालाकी से मुक्त, आश्चर्यविमुग्ध, अवाक। लेकिन तुम खोए हो शब्दों में, शास्त्रों में, चालाकियों में, पांडित्यों में, न मालूम किस-किस तरह के मत-मतांतरों में; व्यर्थ की बातों में, जिनका कोई मूल्य नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। उन पर तलवारें उठ जाती हैं, गर्दनें कट जाती हैं। धर्म के नाम पर कितना खून बहा है, इतना किसी और चीज के नाम पर नहीं बहा। अधर्म के नाम पर तो निश्चित ही नहीं बहा। अगर खून के हिसाब से नापो तो अधर्म धार्मिक मालूम होता है; अधार्मिक और नास्तिक धार्मिक मालूम होते हैं, आस्तिक नहीं। यह कैसी विडंबना है! ठीक कहते हैं गुलाल..
कह गुलाल वे नाम समाने, ...
जिन्होंने जाना, जो सरल हुए, जिन्होंने अपने भीतर डुबकी मारी, जिन्होंने आश्चर्य-विमुग्ध, विस्मय भाव से अपनी चेतना में गोता मारा, वे तो समा गए उसी में। फिर क्या हिंदू, क्या मुसलमान, क्या जैन, क्या बौद्ध! फिर उनका कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं, कोई दर्शन नहीं। फिर तो उनका अनुभव ही सब कुछ है। और अनुभव एक है। और अनुभव में जो जी रहा है, वह अलग-अलग नहीं है।
जीव पीव महं पीव जीव महं, बानी बोलत सोई।
सोई सभन महं हम सबहन महं, बूझत बिरला कोई।।
अंखियां प्रभु-दरसन नित लूटी।
और काश तुम खो सको, तो प्रतिपल लूटो! आनंद बरस पड़ा रहा है, अमृत बरस रहा है। अंखियां प्रभु दरसन नित लूटी। अपने भीतर जाओ, परमात्मा वहां विराजमान है, काबा में नहीं, काशी में नहीं।
हौं तुव चरनकमल में जूटी।
बस, उसके चरनकमलों में जुट जाओ, झुक जाओ, समर्पित हो रहो!
निर्गुन नाम निरंतर निरखौं, ...
और फिर तो वह प्रतिपल दिखाई पड़ता है। ‘...अनंत कला तुव रूपी।’...और सब तरफ उसकी ही कलाएं प्रकट होती हैं। सब तरफ उसकी अभिव्यक्ति है। पक्षियों की गूंज में वह है। तब पक्षियों की गूंज वेद की ऋचाओं जैसी हो जाती है। और हवाएं जो वृक्षों से गुजरती हैं, उपनिषद का उच्चार करती हैं। और नदियों की कलकल भगवद्गीता हो जाती है।
बिमल बिमल बानी धुन गावौं, ...
और गुलाल कहते हैं, तबसे बस उसका ही गुण गाता हूं, उसकी बिमल-बिमल वाणी को गुनगुनाता हूं। ‘...कह बरनौं अनुरूपी।।’ यद्यपि बहुत गाता हूं, फिर भी उसे कह नहीं पाता; उसका यथार्थ रूप प्रकट नहीं कर पाता।
बिगस्यो कमल फुल्यौ काया बन, ...
इतना ही कह सकता हूं, गुलाल कहते हैं कि कमल विकसित हो गया है चेतना का; बिगस्यो कमल फुल्यौ काया बन, इतना ही नहीं कि चेतना का कमल खिल गया, मेरी काया भी उस चेतना के कमल के साथ फूल बन गई है..फुल्यौ काया बन। ‘...झरत दसहुं दिस मोती।’ और मेरे चारों तरफ मोतियों की वर्षा हो रही है।
मैं भी तुमसे कहता हूं कि मोतियों की वर्षा हो रही है; अभी हो रही है, इसी वक्त हो रही है, सदा हो रही है, सदा होती है, सदा होती रहेगी, क्योंकि परमात्मा प्रतिपल हवा के लहर-लहर में, कण-कण में विराजमान है, मोती न बरसेंगे तो और क्या होगा?
बिगस्यो कमल फुल्यौ काया बन, झरत दसहुं दिस मोती।
कह गुलाल प्रभु के चरनन सों, डोरि लागि भर जोती।।
बस, इतना कर लो कि उसके चरणों से तुम्हारी डोरी बांध लो; बस, वहां समर्पित हो जाओ; सिर काट दो; अपने अहंकार को मिटा दो और झुक जाओ।
यह जीवन बहुमूल्य है। लेकिन तुम्हें मुफ्त मिला है, इससे यह मत समझ लेना कि व्यर्थ है। तुम्हें भेंट की तरह मिला है, इससे भूल मत जाना। तुमने कमाया नहीं है, तुम इसके पात्र नहीं हो, यह उसकी अनुकंपा है, इसलिए विस्मरण मत कर बैठना। स्मरण करो, बार-बार स्मरण करो उसकी अनुकंपा का और अनुग्रह से भरो, झुको, ताकि किसी दिन यह अपूर्व अनुभव तुम्हारा भी अनुभव बन सके..
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें