जीवन गीत-(विविध) ओशो
जीवन की भूमि
पहला प्रवचन
मनुष्य का जीवन जन्म से उपलब्ध नहीं होता है। जन्म के बाद तो अवसर मिलता है कि हम जीवन का निर्माण करें। लेकिन जो लोग जन्म को ही काफी समझ लेते हैं उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है। इस संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने कल तुमसे कहीं। यह भी स्मरण दिला देना उपयोगी है और उसके बाद ही आज की चर्चा मैं प्रारंभ करूंगा कि जन्म के बाद जिस जीवन को हम वास्तविक जीवन मान लेते हैं वह धीरे- धीरे मरते जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। उसे जीवन कहना भी कठिन है। जो जानते हैं वे उसे धीमी मृत्यु ही कहेंगे। जन्म के बाद तुम्हें स्मरण होना चाहिए कि हम रोज-रोज धीरे- धीरे मरते जाते हैं। मृत्यु अचानक नहीं आती है। वह एक लंबा विकास है। जन्म के बाद अगर कोई व्यक्ति सत्तर वर्ष जीता है, तो सत्तरवें वर्ष पर अचानक मृत्यु नहीं आ जाती है।मृत्यु रोज-रोज बढ़ती जाती है। और सत्तरवें वर्ष पर पूरी हो जाती है। रोज हम मर रहे हैं। यहां एक घंटा बैठ कर हम जो चर्चा करेंगे उसमें हम सबकी एक घंटे की उम्र कम हो जाएगी। एक दिन जिसको हम जी लेते हैं, वह हमारी उम्र से समाप्त हो जाता है। तो लंबे क्रम को हम समझ नहीं पाते कि यह मरने का कम है। लेकिन वस्तुत: यह मरने का ही कम है।
अगर इसी को हमने जीवन समझ लिया तो हम भूल में पड़ जाएंगे। यह जीवन नहीं है। यह सत्तर वर्ष की धीमी- धीमी मृत्यु है।
फिर जीवन क्या है और? अगर यह जीवन नहीं है तो फिर जीवन क्या है और? जीवन कुछ और अलग बात है। स्वयं के भीतर किसी ऐसे तत्व के दर्शन हो जाए जिसकी मृत्यु नहीं होती है तो ही समझना चाहिए कि हमने जीवन को जाना जीया पहचाना। हम जीवित हुए।
ऐसे सामान्यतया हम जीवित नहीं हैं।
बुद्ध के समय में लाखों लोग उनके निकट जाकर सत्य की खोज के लिए भिक्षु हो
गए थे। एक आ भिक्षु एक दिन सुबह-सुबह बुद्ध के पास गया। बुद्ध ने उससे पूछा :
तुम्हारी उस क्या है?
उस भिक्षु ने कहा : केवल पांच वर्ष।
आस-पास के भिक्षु भी हैरान हुए! वह तो कोई क्या था पैंसठ वर्ष का था। बुद्ध भी हैरान और चकित हुए! उन्होंने पूछा : कुछ भूल हुई या तो तुम्हारे कहने में या मेरे सुनने में। कितनी उम्र है तुम्हारी?
उसने फिर कहा : केवल पांच वर्ष।
बुद्ध ने कहा : मैं समझा नहीं। तुम किस भांति उम्र की गणना करते हो?
उस वृद्ध ने कहा : इधर पांच वर्ष से ही मैंने जीवन को जाना। उसके पहले जो जीवन था आज मैं समझता हूं वह जीवन ही नहीं था।
खाना-पीना, सो लेना काम कर लेना पर्याप्त नहीं है जीवित होने के लिए। जीवन तो एक बहुत गहरी अनुभूति का नाम है। किसी अमृत किसी ऐसे तत्व को जान लेना जिसकी मृत्यु न हो तब तक जीवन नहीं है।
तो जिसे हम समझते हैं इसे जीवन नहीं कहा जा सकता। यह तो जीवन की प्रतीक्षा है। धीमे- धीमे एक दिन मृत्यु आएगी और समाप्त कर देगी।
इससे कौन सा फर्क पड़ता है कि एक आदमी आज मर जाएगा दूसरा आदमी कल मर जाएगा तीसरा आदमी तीसरे दिन मर जाएगा। हम सब यहां बैठे हें अगर हम सबको पता हो जाए कि कब किसको मर जाना है तो यहां पता चलेगा कोई दो दिन को कोई चार दिन को कोई वर्ष को कोई चार वर्ष को कोई दस वर्ष को लेकिन यह सब मरने को तैयारी मात्र है। क्या हम तृप्त होना चाहते हैं या हमारी इच्छा या हमारे भीतर यह प्यास जगती है कि हम किसी ऐसी बात को भी जानें जिसका कोई अंत नहीं हो?
जो व्यक्ति ऐसे किसी सत्य की खोज में नहीं लगता है वह व्यक्ति करीब-करीब अवसर को व्यर्थ खो देता है। उसके हाथ से समय व्यर्थ हो जाता है। और जो समय चला जाता है वह लौटता नहीं है। क्या करें उसे वापस लाने का कोई उपाय नहीं है। उस संबंध में थोड़ी सी बातें यहां करेंगे समझने की कोशिश करेंगे कि क्या हो सकता है।
और यह छोटी-छोटी उम्र के हम सब हैं- छोटे बच्चे हैं छोटी बच्चियां हैं अगर इनके जीवन में अभी से कोई खयाल आ जाए खोज का, तो शायद मृत्यु से पहले जीवन को भी जाना जा सके। और यह भी खयाल रहे कि जो उस जीवन को नहीं जान सकेगा जिसकी मृत्यु नहीं होती है उसे जीवन में आनंद शांति नहीं उपलब्ध हो सकती है।
जो मैंने कहा- यह जो हमारी धीमी- धीमी मृत्यु है इस मृत्यु में कैसी शांति हो सकती है? अगर तुम्हें मैं बता दूं कि सुबह तुम्हारी किसी की भी मृत्यु हो जाएगी फिर रात उसे शांति हो सकती है? सुख हो सकता है? फिर रात उसे आनंद हो सकता है? फिर उसे भोजन अच्छा लगेगा? फिर उसे कपड़े अच्छे लगेंगे?
एक फकीर हुआ, एक व्यक्ति निरंतर उसके पास आता था। एक दिन आकर उस व्यक्ति ने उस फकीर को पूछा : आपका जीवन इतना पवित्र हे आपके जीवन में इतनी सात्विकता है आपके जीवन में इतनी शांति है लेकिन मेरे मन में यह प्रश्न उठता है कि कहीं यह सब ऊपर ही ऊपर तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि भीतर मन में विकार भी चलते हों भीतर मन में वासनएं भी चलती हों भीतर पाप भी चलता हो अपवित्रता भी चलती हो भीतर बुराइयां भी हों भीतर अंधकार भी हो अशांति भी हो चिंता भी हो और ऊपर से आपने सब व्यवस्था कर रखी हो ऐसा तो नहीं है?
उस साधु ने कहा : इसका उत्तर मैं दूं इसके पहले एक बात तुम्हें बता दूं। कहीं उत्तर देने में मैं भूल गया और वह बात बताई न गई, तो कठिनाई होगी। कल भी मैं भूल गया था परसों भी मैं भूल गया था बात बहुत जरूरी है। और अगर दो-चार दिन भूल गया तो बताने का कोई काम भी न रह जाएगा।
उस आदमी ने पूछा : कौन सी बात?
उस साधु ने कहा : कल तुम्हारा हाथ देखते समय मेरी दृष्टि तुम्हारी रेखा पर गई तो मैंने देखा तुम्हारी उम्र समाप्त हो गई है। सात दिन बाद, ठीक रविवार के दिन सूरज डूबने के पहले ही तुम मर जाओगे। यह तुम्हें बता दूं कहीं फिर न भूल जाऊं कल भी मैं भूल गया था। अब तुम्हें क्या पूछना है, पूछो?
अगर तुममें से कोई उस व्यक्ति की जगह होता तो क्या होता। वह व्यक्ति घबड़ा गया। वह युवा था अभी। मुश्किल से उसकी तीस वर्ष उम्र थी। उसके हाथ-पैर कांपने लगे वह खड़ा हो गया।
उस फकीर ने कहा : बैठो! और तुमने जो पूछा था उसका उत्तर लेते जाओ।
लेकिन उसने कहा : मैं फिर आऊंगा। अभी तो मैं जाता हूं र मुझे अभी कुछ भी नहीं पूछना।
फकीर ने कहा : कम से कम अपना प्रश्न तो दोहरा दो?
उस युवक ने कहा : मैं प्रश्न भी भूल गया मुझे घर जाने दें।
मृत्यु सात दिन बाद हो तो कोई प्रश्न याद रह सकते हैं? वह उतरा सीढ़ियों से। जब आया था, तो पैरों में बल था। शान से बढ़ रहा था। अब जब उतरा तो बड़ा हो गया था। हाथ-पैर कांप रहे थे, सीढ़ियों का सहारा लेकर नीचे उतर रहा था। घर नहीं पहुंच पाया, रास्ते में बीच में गिर पड़ा और बेहोश हो गया। खाट से लग गया। सात दिन न नींद थी न शांति थी। मित्र-प्रियजन इकट्ठे होने लगे। मरने की खबर गांव भर में फैल गई। उसने अपने मित्रों को अपने घर के लोगों को कहा : फलां-फलां लोगों को गांव से बुला लाओ। जिनसे मेरी शत्रुता थी उनसे मैं क्षमा मांग लूं और जिनसे मेरे झगड़े थे उनसे क्षमा मांग लूं और जिन पर मैंने कभी क्रोध किया था जिनका कभी अपमान किया था और
जिनको कभी गाली दी थी उनसे क्षमा मांग लूं क्योंकि मरने के पहले उचित है कि अपने पीछे कोई शत्रु न छोड़ जाऊं। उसने गांव भर के लोगों से क्षमा मांग ली।
सातवां दिन आ गया। खाना-पीना उसका बंद हो गया। न उसे कुछ ठीक लगता था। वह तो मरने की प्रतीक्षा कर रहा था। सूरज डूबने के कोई घंटे भर पहले वह फकीर उसके घर आया। सारे घर के लोग रोने लगे। सारे प्रियजन इकट्ठे थे मृत्यु की आखिरी घड़ी थी। वह आदमी सात दिन में सूख कर हड्डी हो गया उसकी आंखें गडुाएं में धंस गई थीं। वह बिस्तर पर पड़ा था वह हाथ-पैर हिलाने में भी अशक्त हो गया था।
उस फकीर ने जाकर उससे कहा : मित्र आंख खोलो। एक प्रश्न मुझे तुमसे पूछना है। मरने के पहले मुझे इस प्रश्न का उत्तर दे दोगे तो बडी कृपा होगी। उसने बहुत मुश्किल से आंख खोली। उस फकीर ने पूछा : मैं तुमसे यह पूछने आया हूं इन सात दिनों में तुम्हारे मन में कोई पाप उठा? कोई बुराई उठी? सात दिनों में तुम्हारे मन के भीतर कोई अपवित्रता आई?
उस आदमी ने कहा : आप कैसा मजाक करते हैं मरते हुए आदमी से? मौत मेरे इतने करीब थी कि मेरे और मौत के बीच में किसी चीज को उठने के लिए जगह भी न थी। न कोई पाप उठा, न कोई बुराई उठी। मुझे खयाल ही नहीं आया। मौत का ही खयाल था और तो सब भूल गया।
उस फकीर ने तुम्हें पता नहीं क्या कहा होगा। उस फकीर ने कहा : तुम उठ जाओ। तुम्हारी मृत्यु अभी आई नहीं। मैंने तो केवल तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। वह जो तुमने मुझसे पूछा था कि भीतर तुम्हारे पाप उठता है या बुराई उठती है विकार उठता है वासनाएं उठती हैं? - उसका उत्तर दिया है। तुम उठ जाओ तुम्हारी मौत अभी आई नहीं है अभी तुम्हें और जीना है। लेकिन स्मरण रखो जो व्यक्ति यह जान लेता है कि मुझे मर जाना है उसके जीवन में क्रांतिकारी अंतर हो जाते हैं; उसकी दृष्टि में उसके सोचने में अंतर हो जाते हैं; उसके विचार करने में उसके व्यवहार करने में अंतर हो जाते हैं। जो व्यक्ति इस बात को भूले रहता है कि हम इस जमीन पर मरने के लिए हैं उसके जीवन में पवित्रता फलित नहीं होती उसके जीवन में धर्म नहीं होता। उसके जीवन में जिसको हम कहें ईश्वर का मार्ग वह नहीं होता है।
यह मैंने तुमसे इसलिए कहा है कि इस जीवन को जीवन मत समझना यह तो मरने के लिए प्रतीक्षा है। जैसे कोई क्यू में खड़ा हो किसी बस में बैठने के लिए। कोई आगे है कोई पीछे है कोई बिलकुल पीछे है लेकिन सारे लोग क्यू में खड़े हैं बस थोड़ी देर में आएगी धीरे- धीरे लोगों को ले जाएगी। ठीक वैसे ही हम सारे लोग एक क्यू में खड़े हुए हैं मृत्यु के लिए। जो आगे हैं वे आगे चले जाएंगे फिर एक-एक आदमी उस क्यू में से मृत्यु लेता चला जाएगा। हम सब प्रतीक्षारत हैं। और मृत्यु से कोई फर्क नहीं पड़ता वह सात दिन बाद आए या सत्तर वर्ष बाद आए वह आनी है!
तो क्या हम कोई रास्ता खोज सकते हैं कि मृत्यु से बच जाएं? क्या कोई रास्ता हो सकता है? क्या कोई मार्ग हो सकता है कि मृत्यु के भय से हम मुक्त हो जाएं?
धर्म इसी बात की खोज है। धर्म का संबंध ईसाई मुसलमान, हिंदू जैन इससे नहीं है। धर्म का संबंध इस बात से है कि हम अपने भीतर मरने वाले तत्व को तो जानते हैं- हमारा शरीर है यह मर जाएगा। लेकिन क्या शरीर ही सब-कुछ है? या हमारे भीतर आत्मा जैसी कोई चीज भी है जो कि नहीं मरेगी? इसे कौन बताएगा, जब तक कि हम खुद अपने भीतर खोजने नहीं जाएंगे।
तो मैंने तुमसे कहा इस उम्र में ही सच्चे और वास्तविक जीवन को पाने की आकांक्षा तुममें पैदा हो जाए तो तुम्हारे जीवन में बुनियादी फर्क हो जाएंगे।
जो आदमी अपने मकान के सामने की भूमि में बगीचा लगाना चाहता हो फूल पैदा करना चाहता हो, उसकी जमीन फिर वह खराब नहीं पड़े रहने देता। फिर उसके पत्थर अलग कर देता है व्यर्थ पौधों के बीज पड़े हों उनको अलग कर देता है, मिट्टी बदलता है, खाद डालता है भूमि तैयार करता है ताकि बीज बोए जा सकें, फूल आ सकें। लेकिन जिस आदमी को घर के सामने कोई बगीचा नहीं लगाना है और फूल नहीं लगाने हैं तो वह न तो पत्थरों को अलग करता है न घास-पात उखाड़ता है न जमीन को साफ करता है। उसके सामने की भूमि गंदी होती रहती है उसमें कुछ भी उगता रहता है। जो अपने भीतर परमात्मा को खोजना चाहता है वह अपने पूरे जीवन की भूमि को साफ करने लगता है जमीन तैयार करता है, ताकि उसमें परमात्मा के बीज बोए जा सकें।
लेकिन जिसको इसका खयाल ही पैदा नहीं होता उसके जीवन की भूमि व्यर्थ ही पड़ी रहती है और कुछ भी उगता है। और यह खयाल रहे कि जो भी श्रेष्ठ है वह केवल बोए जाने से उगता है और जो भी अश्रेष्ठ है, वह बिना बोए ही उग आता है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है पाने योग्य है उसे निर्मित करना होता है और जो भी व्यर्थ है। वह बिना निर्मित किए आ जाता है। खयाल रहे ऊपर चढ़ना हो तो श्रम करना होता है और नीचे उतरना हो तो कोई भी श्रम नहीं करना पड़ता है।
तो जीवन में जितने ऊपर जाना हो उतना ही जीवन के साथ श्रम करना जरूरी है। लेकिन यह श्रम तभी होगा जब हमें सबसे पहले यह आकांक्षा यह प्यास, यह अभीप्सा पैदा हो जाए कि मुझे जीवन में कुछ होना है कुछ पाना है, कुछ खोजना है। ऐसे ही जीवन से जो मिल गया है, तृप्त नहीं हो जाता है। अतृप्ति डिसकंटेंट, भीतर एक गहरी अतृप्ति न हो, तो किसी आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता। वह साधारणत: जी लेता है और समाप्त हो जाता है।
तो आज की सुबह मैं तुमसे कहना चाहता हूं : तुम्हारे जीवन में एक गहरी आकांक्षा गहरी अतृप्ति होनी चाहिए। एक बहुत गहरा असंतोष होना चाहिए। इतना गहरा कि चाहे तुम्हें कितना ही धन मिल जाए तो भी तृप्ति न हो; इतना गहरा असंतोष कि चाहे तुम्हें कितना ही बड़ा मकान मिल जाए तो भी तृप्ति न हो; इतना गहरा असंतोष कि चाहे तुम
कितने ही बड़े पदों पर पहुंच जाओ तो भी तृप्ति न हो। तुम्हारे भीतर एक ऐसी आग जलनी चाहिए असंतोष की कि जब तक मैं अमृत को, परमात्मा को सत्य को न पा लूं तब तक मैं खाली बैठने को राजी नहीं हूं। तब तक मेरा श्रम जारी रहेगा। मेरा संकल्प जारी रहेगा। मेरी चेष्टा जारी रहेगी। मेरी खोज जारी रहेगी।
ऐसी अथक खोज के परिणाम में ही व्यक्ति आनंद को पाता है। जो सुप्त बिना कुछ किए केवल जीते चले जाते हैं- उठ आते हैं सो जाते हैं और खा लेते हैं उनके जीवन में कोई बहुत बड़ी बातें घटित नहीं होतीं उनके जीवन में कोई बहुत सौंदर्य उपलब्ध नहीं होता उनके जीवन से कोई संगीत नहीं निकलता है। वे खुद भी दुख में जीते हैं और दूसरों को भी दुख में घसीटते हैं। उनके भीतर का दीया बुझा होता है उनके खुद के भीतर भी अंधकार होता है और उनके जीवन से दूसरों तक भी अंधकार पहुंचता है।
अतृप्ति कैसे पैदा होगी? कैसे तुम्हारी भीतर खोज पैदा होगी? कोई दूसरा तुम्हें जबर्दस्ती कहीं नहीं ले जा सकता। तुम्हारे भीतर जिस बात की खोज होगी तुम उसी दिशा में जा सकोगी। कोई भी जा सकता है वहीं जहां उसके भीतर खुद प्यास पैदा हो जाए।
अगर तुम्हारे भीतर प्यास होगी तो तुम सरोवर को खोजोगी। और अगर तुम्हारे भीतर प्यास नहीं होगी, तो तुम एक सरोवर के किनारे भी खड़ी हो जाओ तालाब के किनारे भी खड़ी हो जाओ तो भी पानी व्यर्थ होगा।
तो सबसे बुनियादी बात है कि तुम्हारे भीतर प्यास पैदा हो जाए खोज की।
खोज की प्यास कैसे पैदा हो?
अगर तुम आंख खोल कर जीवन को देखना शुरू करो तो तुम्हारे भीतर एक प्यास पैदा होनी शुरू होगी। लेकिन कोई व्यक्ति आंख खोल कर जीवन को देखता नहीं है। हम करीब-करीब आंख बंद किए जीते हैं आंख खोल कर देखते नहीं।
एक छोटी सी कहानी कहूं उससे तुम्हें समझ में आ सके कि आंख खोल कर देखने से क्या अर्थ है?
ठीक तुम्हारी ही उम्र होगी एक युवक बहुत हजारों साल पहले की बात है अपने गुरुकुल से जिस आश्रम में उसने शिक्षा पाई वहां से घर वापस लौटने को हुआ। उसकी शिक्षा पूरी हो गई उसके गुरु ने उसे विदा दी। और भी बहुत से विद्यार्थी निष्णात हो गए थे शिक्षित हो गए थे वे भी वापस लौट रहे थे उनकी भी शिक्षा पूरी हो गई थी। और सारे विद्यार्थी तो बहुत बड़े-बड़े घरों के बच्चे थे। उन्होंने अपने गुरु के चरणों में बहुत सी भेंटें चढाई-बहुत सी अशर्फियां चढ़ाई और बहुमूल्य वस्त्र चढ़ाए। लेकिन जिस युवक की मैं बात कर रहा हूं वह बहुत दरिद्र था। न केवल वह दरिद्र था बल्कि उसके पिता का भी कोई पता नहीं था। न केवल उसके पिता का पता नहीं था बल्कि उसकी मां इतनी
अस्वस्थ और बीमार थी कि वह गुरुकुल भेजते समय ' बच्चे को भी भेज दिया था और गुरु को कहा था कि भोजन और वस्त्र की व्यवस्था आप ही कर देना।
जिस दिन बच्चा स्कूल आया था उस गुरु ने उससे पूछा था : तेरे पिता कौन हैं? तेरा गोत्र क्या है?
तो उसने कहा : क्षमा करें मेरे पिता का कोई भी पता नहीं और मैंने अपनी मां को पूछा था कि मैं गुरु को जाकर क्या कहूं वह पूछेंगे कि गोत्र क्या है? तो मेरी मां ने कहा कि जब वह युवा थी तो वह वेश्या थी। बहुत से पुरुषों से उनका संबंध था। उसे कुछ भी पता नहीं कि पिता कौन है मेरा। उसने यही सीधा-सीधा मुझे आपसे कहने को कह दिया है।
गुरु ने उस बच्चे को गले से लगा लिया और कहा : जो अपने जीवन में इतनी सच्चाई का उपयोग कर सकता है और जो मां अपने जीवन में इतनी सच्ची बात कहने का साहस कर सकती है तो मैं मान लेता हूं कि तू निश्चित ही ब्राह्मण है। क्योंकि इतना सच्चा होना ही तो ब्राह्मण का लक्षण है - इतना सीधा और सच्चा होना। और उसने कहा : मेरे पास कुछ भी नहीं है देने को। मैं खुद आया हूं भोजन भी आपसे लूंगा कपड़े भी आपसे लूंगा और शिक्षा भी आपसे लूंगा। इस भांति गुरु के आश्रय में पढ़ा बड़ा हुआ और वापस लौटने का दिन आ गया।
जब सभी विद्यार्थी भेंट करने लगे तो उसे बहुत पीड़ा हुई। उसने गुरु के पैर पकड़ लिए और रोने लगा और उसने कहा : सिवाय आंसुओं के मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है। लेकिन मेरे मन में बहुत पीड़ा है कि मैं आपको कुछ भी भेंट नहीं कर रहा हूं। एक बात का मुझे विश्वास दिला दें कि अगर किसी दिन मेरे पास कुछ इकट्ठा हुआ और मैं आपको भेंट करने आया तो इनकार मत कर देना। इस आश्वासन को लेकर उसने गुरुकुल को छोड़ा।
वह रात को एक देश की राजधानी में जाकर अपने मित्र के घर ठहरा। उसने अपने दुख की बात कही मेरे पास एक स्वर्णमुद्रा होती एक सोने की अशर्फी होती तो भी काफी था मैं गुरु के पैरों में चढ़ा सकता। मैं खाली हाथ बिना कुछ चढ़ाए कोरे आंसू चढ़ा कर हूं तो मेरे दिल में बड़ी पीड़ा लौटा है।
उसके मित्र ने कहा : तुम चिंता मत करो। इस देश का जो राजा है, पहला याचक सुबह कोई भी भिक्षु जो पहले पहुंच जाता हैं और जो भी मांग लेता है राजा उसे वही दे देता है। कल तुम सुबह थोड़े जल्दी उठ कर चले जाना और एक स्वर्ण-मुद्रा मांग लेना। वह तुम्हें मिल जाएगी और गुरु को चढ़ा देना।
उस युवक ने कहा : यह तो ठीक है। वह तीन बजे रात में ही उठ कर राजा के द्वार पर पहुंच गया। ताकि कोई और भिक्षु न पहुंच जाए। रास्ते में उसने सोचा जब राजा सभी कुछ देता है जो कुछ मांगा जाए तो मैं पागल हूं अगर मैं एक मुद्रा मांगू क्यों न पांच मांग लूं? पहुंचते-पहुंचते महल के करीब उसने सोचा, मैं पागल हूं जो पांच मांगू क्यों न पचास मांग लूं? जब राजा देगा ही जो भी मांगा जाए; सीढ़ियों पर खडे खड़े उसे खयाल आया क्यों न पांच सौ मांग लूं!
मन उसका बढ़ता चला गया। जैसे-जैसे द्वार खुलने का समय करीब आने लगा, वह इस निर्णय पर पहुंचा, जब मांगना ही है और राजा इनकार करता ही नहीं और जब मैं पहला ही भिक्षु आकर अभी खड़ा हूं और तो कोई आया भी नहीं तो क्यों न पांच लाख मांग लूं पांच करोड़ मांग लूं ऐसी संख्या उसके मन में बढ़ती चली गई।
होते कोई भी होता उसकी जगह तो यही होता संख्या बढ़ती चली तुम भी - जाती। जब मौका ही मिल गया है मैं पहला ही हूं तो फिर कुछ भी मांग लूं।
पांच बजे सुबह राजा बाहर आया। युवक से उसने कहा : कैसे आए हो?
उसने कहा : मैं कुछ भिक्षा मांगने आया हूं। क्या आप वचन देते हैं कि मैं जो मांगूगा वही आप देंगे?
राजा ने कहा : जरूर। वर्षों से मेरा यह वचन रहा है। और तुम पहले याचक हो आज तक के नहीं आज तक कोई आया नहीं। मेरे राज्य में लोग इतने समृद्ध हैं कि कोई कभी मांगने आया नहीं। तुम पहले ही याचक हो आज के ही नहीं मेरी पूरी जिंदगी के पहले याचक हो तो तुम जो भी मांगोगे मैं दूंगा।
तब तो उसे और कठिनाई हो गई। उसने सोचा कि पांच करोड़ कि पचास करोड़ उसके भीतर मन में संख्या बढ़ने लगी। क्या बोलूं?
राजा ने कहा कि तुम शायद निश्चय करके नहीं आए हो। अभी तुम निश्चय कर लो मैं थोड़ा बगिया में चक्कर लगा आऊं। राजा बगिया में चक्कर लगाने लगा।
उस युवक ने सोचा कि कितना ही मांग लूं फिर भी राजा के पास बहुत पीछे शेष रह जाएगा। मुझे बाद में पछतावा भी होगा कि मैंने और ज्यादा क्यों न मांगा। तो क्या यह उचित न होगा कि मैं राजा से कहूं कि जो भी आपके पास है सारा राज्य सारी संपत्ति सभी मुझे दे दें और अब आप भीतर न जाएं अब आप बाहर ही चले जाएं। सब मुझे दे दें और जो वस्त्र आप पहने हुए हैं उनको लिए हुए बाहर हो जाएं भवन के। सारा राज्य सारी संपत्ति मुझे दे दें। तब यह ठीक होगा, क्योंकि मैंने कितना ही मांगा फिर पता नहीं राजा के पास और कितना पीछे शेष रह जाए। तो जीवन में एक दुख रह जाएगा।
तुम भी यही सोचते, कोई भी यही सोचता। मांगने का ही मौका है और राजा वचनबद्ध है कि जो भी मांगेगा दिया जाएगा तो सभी मांग लें।
राजा लौट कर आया तो उस युवक ने कहा : मैंने निर्णय कर लिया आपके पास जो भी है, राज्य धन-संपत्ति सब पूरा का पूरा मुझे दे दें और आप भवन के बाहर हो जाएं। अब आप भीतर न जाएं।
सोचा था उसने, राजा घबड़ा जाएगा। कल्पना भी नहीं कर सकेगा कि कोई वचन का ऐसा दुरुपयोग करेगा। लेकिन राजा घबड़ाया नहीं, बल्कि प्रसन्न हुआ। उसने आकाश की तरफ हाथ उठा कर जोड़े और कहा : परमात्मा, जिस आदमी की मुझे प्रतीक्षा थी वह आ गया! कितने वर्षों से मैं परेशान था कि कोई यह सारा बोझ मेरे सिर से ले लो। आज एक युवक आ गया है और वह बोझ लेने को तैयार है। इसलिए परमात्मा मैं तेरा भी धन्यवाद करता हूं। और उस युवक को गले लगा लिया और कहा कि तू भीतर जा मैं बाहर जाता हूं।
युवक तो यह देख कर घबड़ा गया। भीतर जाओ मैं बाहर जाता हूं। युवक ने कहा कि नहीं! मेरी उम्र कम है बुद्धि अभी मेरी परिपक्व नहीं है अनुभव मेरा कोई भी नहीं इसलिए कृपा करें एक मौका और दें। आप एक चक्कर बगिया का और लगा आएं तब तक मैं सोच लूं।
राजा बगिया का एक चक्कर लगाने और गया तब तक युवक वहां से भाग गया। और पहरेदारों से कहता गया कि राजा को कहना कि मुझे क्षमा करें क्योंकि राजा जिस चीज को छोड़ कर प्रसन्न हो रहा है मैं अंधा होऊंगा जो उसी चीज को स्वीकार करके प्रसन्न होऊं
इसको मैं रख खोल कर देखना कहता हूं। यह छोटी सी कहानी अगर तुम्हारी समझ में आए, तो तुम्हें समझ में आएगा कि आंख खोल कर देखना क्या है? उस युवक ने कहा है कि मैं अंधा होऊंगा कि राजा जिस चीज को छोड़ कर प्रसन्न हो रहा है उसे लेकर मैं प्रसन्न हो जाऊं? तो राजा ने तीस- चालीस वर्ष के अनुभव के बाद जिस संपत्ति को व्यर्थ जाना है और जिससे उसे कोई शांति और कोई आनंद उपलब्ध नहीं हुआ और जिसे छोड़ने के खयाल से ही वह प्रफुल्लित हो गया तो मैं भी अपने तीस-चालीस वर्ष को व्यर्थ करने को राजी नहीं हो सकता। राजा का अनुभव और मेरा अनुभव हो गया। जो लोग आंख खोल कर देखते हैं उन्हें सारे जगत का अनुभव खुद का अनुभव हो जाता है।
अगर तुम रख खोल कर देखो, तो तुम्हारे मन में जो-जो आकांक्षाएं प्रबल हो रही होंगी, तुम पाओगे कि उन्हीं आकांक्षाओं को जिन लोगों ने तृप्त कर लिया है क्या वे लोग शांत हैं, क्या वे लोग सुखी हैं? तो तुम्हारे जीवन में तुम्हारी आकांक्षाओं में अंतर पड़ेगा। आंख खोल कर देखना जरूरी है।
अगर तुम सोचते हो कि मैं मुल्क का प्रधानमंत्री हो जाऊं तो तुम्हें देखना चाहिए कि जो मुल्क के प्रधानमंत्री हैं क्या वे सुखी और आनंदित हैं? अगर तुम सोचते हो कि एक बहुत बड़ा महल हमारे पास हो जिसमें हम रहें तो तुम्हें आंख खोल कर देखना चाहिए कि महलों में जो लोग रह रहे हैं क्या वे सुखी और आनंदित हैं? अगर तुम सोचते हो कि बहुत धन हमारे पास हो, तो तुम्हें विचार करना चाहिए, आंख खोल कर देखना चाहिए कि जिनके पास धन है उनके जीवन में सुख है? अगर नहीं है तो तुम्हें अपनी आकांक्षाओं की व्यर्थता का दर्शन होगा। तुम्हें खयाल आएगा कि मेरी आकांक्षाएं भ्रांत हैं। और मुझे उन्हीं गड्ढ़े में गिरा देंगी जिन गड्ढ़े में दूसरे लोग गिरे हैं।
तो क्या मैं उनके ही जीवन की भांति अपने जीवन को व्यर्थ करूं या कोई नई दिशा खोजें, कोई नया मार्ग खोजूं क्या मैं जीवन के पिटे-पिटाए रास्ते पर चलूं या नई पगडंडी बनाऊं? क्या मेरे से पीछे के लोग और मेरे आस-पास के लोग जीवन में जिन कष्टों और चिंताओं में उलझे हैं, उन्हीं में मुझे उलझना है या कि मैं कोई नये जीवन को पाने की चेष्टा में संलग्न होऊं तो तुम्हारे विचार पैदा होगा। अगर आंख खोल कर तुम जीवन को देखो, तो विचार पैदा होगा। और अगर आंख बंद करके जीवन में चलो तो तुम्हारे भीतर विचार पैदा नहीं होगा। और जिसके भीतर विचार पैदा नहीं होगा उसके भीतर कुछ भी पैदा नही होता है।
विचार तो पहली बात है। सोच-विचार तो पहली बात है। चिंतन तो पहली बात है। मन के भीतर कुल जीवन के प्रति ठीक-ठीक दृष्टि का पैदा हो जाना पहली बात है। पर बहुत कम लोग आंख खोल कर चलते हैं। तुम्हें अपने पड़ोस में तुम्हारे अपने मित्र के पास जैसे वस्त्र दिखाई पड़ते हैं तुम सोचते हो ऐसे ही वस्त्र मेरे पास हों। लेकिन तुम यह भी देखो उन वस्त्रों के होने से कौन सी खुशी, कौन सा आनंद तुम्हारे मित्र को उपलब्ध है? और हो सकता है यह जो तुम्हारा मित्र है वह खुद दूसरों के वस्त्रों को देख कर लालायित हो रहा हो वैसे वस्त्र चाहता हो। और यही है। यही स्थिति है। हर व्यक्ति दूसरे के अनुकूल, दूसरे के पास क्या है इसे देख कर प्रभावित हो रहा है। और सोच रहा है
वैसा मेरे पास हो। सारी दुनिया में यही है।
तुम्हें दुनिया में एक भी आदमी ऐसा नहीं मिलेगा जो जहां है वहीं संतुष्ट और आनंदित है। तब तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह दौड़ अंतहीन है, और इस दौड़ में कोई भी सुख को नहीं पाता है। हां, दुख बदलते जाते हैं।
कभी तुमने मरघट पर लोगों को किसी मरे हुए आदमी को ले जाते देखा होगा। तो रास्ते में उसकी अरथी को रखे हुए लोग कंधे बदलते रहते हैं। एक कंधे पर से डंडा दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। तो थोड़ी देर को राहत मिलती है। दूसरा कंधा नया होता है तो थोड़ी देर नहीं दुखता। फिर थोड़ी देर बाद दुखने लगता है। ऐसे ही जिंदगी में लोग दुखों को बदलते हैं एक कंधे से दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। एक दुख को हटाते हैं दूसरे दुख को रख लेते है। थोड़ी देर परिवर्तन मालूम होता है फिर दुख कायम हो जाता है। और जिंदगी बहुत छोटी है अगर हम मनुष्य-जाति के दूसरे अनुभवों से फायदा लेना चाहते हैं।
और अपने आस-पास जो मनुष्यों का समाज है वहां देखना चाहिए खोज करनी चाहिए। कहीं मैं भी उन्हीं इच्छाओं से प्रेरित तो नहीं हो रहा हूं जिन इच्छाओं से प्रेरित होकर लोगों ने जीवन को खो दिया है? अगर तुम्हें यह दिखाई पड़ने लगे तो तुम्हारे सामने बहुत सी बातें स्पष्ट हो जाएंगी। किताबें पढ़ने से नहीं स्पष्ट होंगी भाषण सुनने से नहीं स्पष्ट होंगी, उपदेश सुनने से नहीं स्पष्ट होंगी लेकिन अगर रख खोल कर बचपन से ही तुम जीवन को देखने लगो तो जीवन बहुत स्पष्ट साफ किताब की भांति खुल जाएगा। तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा बड़े पदों पर होने से कोई शांति नहीं होती है। बहुत धन के होने से कोई शांति नहीं होती है। बहुत अच्छे भवनों के होने से कोई शांति नहीं होती है। शांति होती है भीतर मनुष्य की भावनाओं की पवित्रता में; मनुष्य के हृदय में प्रेम के जन्म में; मनुष्य
के भीतर प्रकाश के अनुभव में; मनुष्य के भीतर किसी देह के ऊपर तत्व के दर्शन में शांति अनुभव होती है।
सिकंदर का नाम तुमने सुना होगा। सिकंदर हिंदुस्तान आया जीतने के लिए। तो रास्ते में एक फकीर हुआ, डायोजनीज उससे उसकी मुलाकात हुई। डायोजनीज बहुत अजीब फकीर था। उसके पास वस्त्र ही नहीं थे बिलकुल नग्न ही एक छोटे से टीन के पोंगरे में निवास करता था। जैसे कचरा-घर का एक टीन का पोंगरा होता है ऐसा कहीं से उस मिल गया था, दोनों तरफ से खुला हुआ। वह उसी में सो जाता था वही उसका घर था। और जब तबीयत होती उसको ढकेल कर कहीं भी ले जाता था और कहीं भी घर खड़ा हो जाता था। वह बिलकुल नग्न रहता था। उस समय का यूनान का सबसे बड़ा फकीर था।
सिकंदर वहां से निकला जब वह हिंदुस्तान के विजय के लिए आया। उसने सोचा कि डायोजनीज से मिलता चलूं। तो वह गया। उसने आकर डायोजनीज को कहा : क्या' तुम्हें पता है कि मैं कौन हूं? शायद तुमने सुना हो मैं हूं महान सिकंदर।
डायोजनीज हंसने लगा। वह लेटा था सर्दी के दिन थे वह बाहर धूप ले रहा था। वह हंसने लगा और उसने कहा : जो आदमी खुद को ही महान समझता है वह महान कैसे हो सकता है। सिकंदर ने कहा : मैं हूं महान सिकंदर। डायोजनीज ने कहा : जो आदमी खुद को ही महान समझता है वह कैसे महान हो सकता है!
सिकंदर ने कहा : मैं तुम्हारी बात सुन कर खुश हुआ क्योंकि वर्षों से मैंने सीधी और सच्ची बात नहीं सुनी। मैं चापलूसों से घिरा रहता हूं मेरे आस-पास तो खुशामद। लोग हैं, वे मेरी प्रशंसा करते रहते हैं। तुम पहली दफा मुझे एक हैसियत के आदमी मालूम पड़े जिसने एक सीधी और साफ बात कही, जो उसे ठीक लगती थी कही। मैं तुमसे खुश हुआ। मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं? मेरे पास बड़ी शक्ति है और बहुत धन है। तुम जो चाहोगे वह मैं कर दूंगा कहो तो तुम्हारे लिए एक मकान बनाऊं। यह क्या टीन के पोंगरे में पड़े हुए हो। कहो तो मैं तुम्हारे लिए कीमती वस्त्र लाऊं, यह क्या नग्न लेटे हुए हो। कहो तो मैं तुम्हारे लिए कुछ सेवक नियुक्त कर दूं जो तुम्हारी सेवा करे अब तुम बूढ़े हो गए और तुमको सहारे की जरूरत है।
डायोजनीज ने कहा : मित्र अगर तुम कुछ करना चाहते हो तो एक छोटी सी कृपा करो। मैं धूप ले रहा था, तुम खड़े हो गए, मेरी धूप छिन गई। तुम जरा रास्ता छोड़ कर खड़े हो जाओ। वह धूप ले रहा था सुबह लेट कर, तो उसने सिकंदर से कहा कि रास्ता छोड़ कर खड़े हो जाओ। मेरी धूप छीन ली। बस इतनी ही कृपा करो और इतनी ही कृपा औरों पर भी करना। तुम बड़े खतरनाक मालूम होते हो। तुम्हारे पास बड़ी ताकत है तुम्हारे पास बहुत सैनिक हैं बंदूकें हैं तोपें हैं। तुम किसी की भी जीवन की धूप छीन सकते हो। बस इतनी ही कृपा करना, किसी की धूप मत छीनना किसी के जीवन के बीच में आड़े मत आना। तुम रास्ता छोड़ कर खड़े हो जाओ।
सिकंदर तो बहुत हैरान हुआ। उसको कोई कह सके कि रास्ता छोड़ कर खड़े हो गया वह तो उन लोगों में से था जो कि अगर पहाड़ों को कहता कि पहाड़ रास्ता छोड़ दो। और अगर पहाड़ रास्ते न छोड़ते, तो पहाड़ों को उखड़वा कर फिंकवा देता। वह तो पूरे मूल्यों से कहता कि रास्ता छोड़ दो, तो मुल्क को रास्ता छोड़ना पड़ता। वह तो उन ताकतवर लोगों में से था। लेकिन एक गरीब फकीर नंगा खड़ा हुआ, उसने कहा कि हटो धूप मत छीनो मेरी दूर खड़े हो जाओ। सिकंदर ने कहा कि मैं खुश हुआ। मैं बहुत प्रसन्न हुआ।
डायोजनीज ने कहा कि मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं। तुम कहा जा रहे हो? इतनी फौजें लेकर कहां जा रहे हो?
उसने कहा कि हिंदुस्तान जीतना है।
डायोजनीज ने पूछा : फिर क्या करोगे?
कहा : फिर मैं पूरा एशिया जीतूंगा।
और डायोजनीज ने पूछा : फिर क्या करोगे?
उसने कहा : मैं पूरी दुनिया जीतूंगा।
डायोजनीज ने कहा : फिर क्या करोगे?
सिकंदर ने कहा : तब मैं आराम और शांति से जीऊंगा।
तो डायोजनीज खूब हंसने लगा। उसने कहा : तुम बिलकुल पागल हो। अगर तुम्हें शांति और आनंद से ही जीना है तो इतनी दौड़- धूप करने की कोई जरूरत नहीं है। आओ हमारे पास लेट जाओ। हमारे इस पोंगरे में दो आदमियों के लिए काफी जगह है। मैं तो शांति से जी ही रहा हूं और शांति से जीने के लिए इतने उपद्रव में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। अगर शांति से ही जीना है अंत में, तो आ जाओ मेरे पास देखो मैं लेटा हूं और कितने आनंद में हूं। छोड़ो यह दौड़ और तुम भी आनंद में हो जाओ। और यह भी हो सकता है कि तुम शांति से जीने के खयाल में इतना युद्ध करो इतनी जीतें हासिल करो- यह भी हो सकता है कि तुम खत्म हो जाओ शांति के दिन ही न आ पाएं।
और यही हुआ सिकंदर हिंदुस्तान से लौट कर जिंदा वापस नहीं पहुंचा वह रास्ते में मर गया। जीत एक तरफ पड़ी रह गई और वह आदमी समाप्त हो गया।
जिंदगी में अगर स्पष्ट न हो यह बात कि मैं किसलिए दौड़ रहा हूं क्या पाना चाहता हूं तो आदमी बहुत सी व्यर्थ बातों को खोजने में व्यर्थ बातों को इकट्ठा करने में व्यर्थ बातों की विजय करने में व्यर्थ के संघर्ष व्यर्थ की लडाइयां व्यर्थ की दौड़ों में अपने को समाप्त कर लेता है। और जीवन में जो पाने योग्य था उसको ही पाने से वंचित रह जाता है।
तो यह बहुत स्पष्ट हो जाना चाहिए जीवन की यात्रा में प्रारंभिक दौरों पर, प्रारंभिक चरणों में ही यह बोध साफ हो जाना चाहिए कि मैं क्या पाना चाहता हूं तो उसके आधार पर फिर जीवन को गति योजना विधि और मार्ग दिया जा सकता है। तो सबसे पहले तुम्हारे मनों में यह स्पष्ट कल्पना स्पष्ट बोध जग जाना चाहिए कि मुझे क्या पाना है? मुझे क्या होना है? मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है?
अगर तुम्हें दिखाई पड़े वे ही लक्ष्य हमारे जीवन के लक्ष्य हैं जो और लोगों के हैं तो तुम खोजना विचार करना, वृद्धजनों से, पड़ोसियों से जाकर पूछना हैं कि तुम्हारे पास इतनी संपत्ति है तुम्हें शांति मिली है तुम्हें आनंद मिला है? तुमने जीवन के अर्थ को पाया है? तुम्हारे पास इतना बड़ा भवन है, तुम प्रसन्न हो? तुम्हारा हृदय गीत से भरा है? तुम्हारे प्राणों में कोई नृत्य है? तुम्हारे प्राण पुलकित हैं? तुम धन्य हुए हो जीवन पाकर? यह पूछो लोगों से। छोटे-छोटे बच्चों को पूछना चाहिए। इसके पहले कि तुम निर्णय करो कि मुझे क्या होना है और क्या पाना है?
अगर तुम्हारे मन में उठता हो कि तुम्हें किसी राज्य का मंत्री होना है तो मंत्री बहुत हैं उनसे पूछो कि तुम्हें शांति मिली है मंत्री होकर? तुम्हें आनंद मिला है? तो फिर हम भी मंत्री होने की चेष्टा में संलग्न हो जाएं तो फिर भी कोशिश करें कि राजनीतिज्ञ हो जाएं और हम भी कोशिश करें कि हम भी चुनाव लड़े राजनीतिज्ञ बनें। पूछो छोट-छोटे बच्चे अगर पूरे मुल्क में अपने बुजुर्गों से पूछने लगें तो दो बातें होंगी। एक तो छोटे-छोटे बच्चों को स्पष्ट होगा कि जिन बातों का बड़ा प्रभाव मालूम होता हे उन बातों के पीछे कुछ भी नहीं है। जिन बातों में बड़ी इज्जत मालूम होती है वह पीछे बिलकुल थोथी और खाली हैं वहां कुछ भी नहीं है। ऊपर से सारा स्वांग है।
राष्ट्रपतियों से पूछो कि आपको क्या मिल गया है? अखबारों में फोटो छप जाने से कुछ नहीं होता और बड़े-बड़े अक्षरों में अखबारों में नाम छप जाने से कुछ नहीं होता। प्राणों के प्राण में क्या उपलब्ध हुआ है यह पूछो। और अगर छोटे-छोटे बच्चे अपने बुजुर्गों से यह पूछेंगे तो दो बातें होंगी। बच्चों को पता चलेगा कि बुजुर्गों की दौड़ व्यर्थ गई और बुजुर्गों को यह पता चलेगा कि बच्चे जब पूछ रहे हैं तो कम से कम सीधी और सच्ची बातें तो उनसे कहें। और हो सकता है कि तुम्हारे पूछने से उनको भी खयाल आए कि सच में हमारा जीवन व्यर्थ गया। हमने क्या पाया है! अगर कुछ लोगों ने गले में फूल की दीं तो मिलता लोग लेकर निकल तो मालाएं डाल कुछ है? या कुछ जुलूस गए कुछ मिलता है? अखबार वालों ने फोटो छापी तो कुछ मिलता है?
नहीं, इन सारी बातों से कुछ भी नहीं मिलता। दुनिया के बहुत बड़े-बड़े लोग-संपत्तिशाली, बहुत बलशाली बहुत दुख में जीते हैं और बहुत दुख में मरते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि दुनिया के जो दरिद्र हैं भिखमंगे हैं वे बहुत आनंद में हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह मैं नही कर रहा हूं कि जिनके पास खाने-पीने को नहीं है वस्त्र नहीं है ' वे आनंद में हैं। यह भी नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं बाहर की चीजों के होने या न होने से व्यक्ति के आतरिक जीवन के आनंद का कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है। उसके जीवन में कुछ और होना चाहिए। अगर जीवन में कुछ और हो : अगर उसके जीवन में प्रेम हो, प्रकाश हो परमात्मा की धुनी हो तो यह भी हो सकता है कि वह सड़क पर भिखारी होकर आनंदित हो जाए। और यह भी हो सकता है कि एक बहुत बड़ा सम्राट होकर भी आनंदित हो जाए। लेकिन अगर उसके भीतर यह ध्वनि न हो तो यह कुछ भी पाकर आनंदित नहीं हो सकता है।
परमात्मा के स्वर जिस हृदय की वीणा पर नहीं बजते, परमात्मा के स्वर जब हृदय की वीणा पर नहीं गुंजित होते वह हृदय- जो कुछ पाने योग्य है उससे वंचित रह जाता है। जो भी जीवन में पाने योग्य है वह उसे नहीं मिल पाता। और जो भी नहीं पाने योग्य है उसी कचरे को इकट्ठा करने में उसका समय व्यतीत होता जाता है। और एक दिन वह फिर पाता है कि मौत सामने आ गई और जो भी मैंने इकट्ठा किया था वह सब छीनने को खड़ी है। उस दिन उसे बहुत घबड़ाहट होती है उस दिन बहुत चिंता होती है, बहुत पीड़ा होती है। उस दिन उसे लगता है मेरे जीवन भर का श्रम विफल हुआ। यह तो सब मैंने इकट्ठा किया था, हाथ से जाता है। अब मैं क्या करूं और क्या न करूं!
मृत्यु के समय, और जैसा पहले मैंने कहा, मृत्यु अनिवार्य है, निश्चित है होने को है। कोई भी न उससे कभी बचा है और न बचेगा। मृत्यु के क्षण में जिस व्यक्ति ने परमात्मा की शोध की हो वह पाता है कि मृत्यु उस परमात्मा के अनुभव को छीनने में असमर्थ है। और सब छिन जाता है वही अनुभव केवल साथ रह जाता है।
नानक का तो तुमने नाम सुना होगा। नानक लाहौर के पास एक गांव में गए। एक आदमी उनके पास आया और उस आदमी ने उनसे कहा कि मेरे पास बहुत संपत्ति है, मैं यह सारी संपत्ति आपके चरणों में लगा देना चाहता हूं। आप कोई भी आज्ञा दें तो मैं इस सारी संपत्ति को उसमें दान कर दूं। नानक ने उस आदमी की तरफ देखा और कहा कि मुझे तो हजारों लोगों को देखने का मौका मिला है तुमसे ज्यादा दरिद्र आदमी मैंने कभी देखा नहीं तुम्हारे पास संपत्ति कैसे होगी।
वह आदमी बहुत घबड़ाया। उसने कहा कि शायद मेरे सीधे-सादे वस्त्रों को देख कर आपको भ्रम हो गया है। मेरे पास बहुत धन है। और आप आज्ञा दें तो मैं दिखाऊं कि मेरे पास धन की कितनी शक्ति है। कोई भी काम करने को कहें मैं करके दिखलाऊं। आप पहले से यह विचार मत बनाएं कि मेरे पास कुछ नहीं है।
नानक ने कहा कि नहीं मानते तो एक छोटा सा काम करो। जब तुम उसे पूरा कर लोगे तो मैं बड़ा काम बताऊंगा। और उन्होंने क्या काम बताया? उन्होंने अपने कपड़े के भीतर से कपड़ा सीने की एक छोटी सी सुई निकाली और उस आदमी को दी और कहा : इसे ले जाओ और जब हम दोनों मर जाएं तो इसे तुम मुझे वापस कर देना!
यह तो बड़ी गड़बड़ बात हुई। वह धनपति तो बहुत घबड़ाया। यहां तो और भी लोग बैठे थे उनके सामने कुछ कहना ठीक नहीं था।
वह घर आया। उसने अपने मित्रों को बुलाया। और उनसे कहा कि सारी संपत्ति जो अरबों-खरबों की थी यह सारी की सारी संपत्ति लगाने को तैयार हूं। कोई तरीका निकालो। वह छोटी सी सुई है इसे मैं मरने के बाद अपने साथ ले जाना चाहता हूं।
उन सारे मित्रों ने कहा : यह असंभव है। यह कभी नहीं हुआ यह हो ही नहीं सकता है। सुई माना कि बहुत छोटी है लेकिन मौत का दरवाजा शायद और भी छोटा है उसमें से सुई भी नहीं जा सकती। उसमें से कुछ भी नहीं जा सकता। माना कि सुई बहुत छोटी है।
उस धनपति ने कहा : मैं इस भांति मुट्ठी बाबू! कि चली जाए, कोई रास्ता नहीं?
उसके मित्रों ने कहा : मुट्ठी तुम कैसी भी बांधों; मुट्ठी और मुट्ठी में जो होगा वह दोनों इस तरफ रह जाएंगे। मौत में शरीर का कुछ भी नहीं जाएगा कोई हिस्सा। तो कैसे सुई को ले जा सकते हो? जाओ इसको वापस कर दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम मर जाओ और उधार ऊपर से भी वह यह सुई बाद में नानक मांगे मरने के बाद। तुम तो कष्ट में पड़ जाओगे कहां से सुई दोगे? तुम अभी जाओ।
वह रात के बारह बजे ही वापस लौटा। नानक के पैरों पर गिर पड़ा और कहा कि अपनी सुई वापस ले लें। मैं सच में दरिद्र हूं। मेरी संपत्ति यह नहीं कर सकती कि सुई को उस पार ले जा सके।
तौ नानक ने कहा : जब तुम्हारी संपत्ति सुई को न ले जा सकेगी मौत के पार तो खुद को तो ले ही नहीं जा सकेगी। और कुछ भी है तुम्हारे पास जो मौत के क्षण में तुम्हारा साथी होगा?
उस धनपति ने कहा : और कुछ भी नहीं है।
नानक ने एक बहुत ही अदभुत बात कही, वह स्मरण रखना। उन्होंने कहा : यह के तुम जानते हो, संपत्ति किसे कहते हैं? संपत्ति उसे कहते हैं जो विपत्ति में काम आए। और मृत्यु से बड़ी कोई विपत्ति नहीं है और उस विपत्ति में ही जो संपत्ति काम न आए उसे संपत्ति कौन कहेगा, कोई पागल ही कहेगा। इसलिए मैंने कहा था कि तुम्हारे पास कोई संपत्ति नहीं है। मृत्यु में कौन सी संपत्ति काम आती है कौन सी संपदा? एक ही संपदा काम आती है : अगर जीवन में परमात्मा का थोड़ा सा अनुभव हुआ हो, तो वही संपदा मृत्यु में साथी होश है, संगी होती है। बाकी सारी संपदा व्यर्थ ही जाती है।
जो मृत्यु में साथ दे उसे ही जीवन समझना। और जो मृत्यु में भी साथ दे उसे ही मित्र, उसे ही साथी। और जो मृत्यु में भी साथ दे, उसे संपत्ति और संपदा समझना। ऐसी संपदा की खोज करने को जो तत्पर हो जाता है, उस व्यक्ति के जीवन में धर्म का आगमन होता है। उस व्यक्ति के जीवन में आलोक का और सत्य का आगमन होता है।
इस संबंध में, कैसे हम संपदा की खोज करें- रात, कल सुबह, परसों संध्या भी बात करूंगा। तुम्हें इस संबंध में जो भी प्रश्न पूछने हों, बहुत तुम खुले मन से रात्रि को मैं पूछ सकती हो। और ऐसा जरूरी नहीं है कि तुम वे ही प्रश्न पूछोएजो बहुत बड़े-बड़े हैं, क्योंकि वे अक्सर झूठ ही होते हैं। तुम्हारे जीवन से उनका कोई संबंध नहीं होता है। तुम्हारे जीवन में जिन बातों की तुम्हें अड़चन हो, जिन बातों की तुम्हें रुकावट हो, वह तुम सब बिलकुल सरलता से- और अच्छा होगा कि तुम लिख कर पूछो। क्योंकि यह संकोच लगता तुम्हें कि मेरा प्रश्न कहीं गड़बड़ न हो, ताकि बाकी बच्चियां कहीं हंसें न, इसलिए तुम लिख कर पूछो, और उन सारे प्रश्नों की चर्चा करो।
अभी सुबह जो मैंने तुमसे कहा, इस बारे में सोचना, इसमें तुम्हें कुछ पूछने जैसा लगे, पूछना। तीन दिन में मैं आशा करता हूं कि तुम बहुत सी बातें करोगी, और परमात्मा करे कि तुम्हारे भीतर विचार का कोई अंगारा पैदा हो जाए, तुम सोचने लगो। सोचने लगो, तो तुम्हारी जिंदगी किसी न किसी दिन बहुत अदभुत आनंद को, बहुत सुवास को, बहुत अच्छे फूलों को उपलब्ध हो सकेगी।
मेरी बातों को इतनी शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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