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बुधवार, 5 दिसंबर 2018

जीवन गीत-(प्रवचन-04)

जीवन गीत-ओशो

प्रवचन-चौथा
ध्यान का द्वार:सरलता

बीते दो दिनों में कुछ थोड़ी सी बातें मैंने तुमसे कही हैं।
कैसे हम अपने जीवन को निरंतर सत्य के सौंदर्य के निकट ले जा सकें कैसे हमारा जीवन एक सार्थकता बन जाए, कैसे अंत मृत्यु को हम विजय कर सकें और परमात्मा का दर्शन हो सके बस इस संबंध में थोड़े से विचार कहे।
आज किस भांति हमारा मन संपूर्णतया दर्पण की भांति निर्मल बन सकता है, उसके थोड़े से सूत्र और तुमसे कहूंगा।
एक छोटी सी कहानी से मैं शुरू करूं।

एक बहुत बड़े सम्राट के द्वार पर दो चित्रकारों ने आकर निवेदन किया। उन दोनों ही चित्रकारों ने यह दावा किया कि उनसे बड़ा दूसरा चित्रकार पृथ्वी पर नहीं है। दोनों का ही यही दावा था। उस सम्राट के दरबार में चित्रकार का पद खाली हुआ थाऔर वह राज्य के उस बड़े से बड़े पद पर किसी श्रेष्ठ चित्रकार को नियुक्त करना चाहता था। उसे निर्णय करना था कि उन दोनों में किसका दावा ठीक है। उसने उन दोनों को कहा कि तुम अपनी- अपनी कलाकृतियां बना कर दिखाओ। जिसकी कृति श्रेष्ठ होगी, वही राजपद पर नियुक्त हो जाएगा।


एक चित्रकार ने बहुत सा सामान मांगा, तूलिकाएं मांगी, रंग मांगा और छह महीने का समय मांगा। उसने आज्ञा चाही कि छह महीने का मुझे समय मिले, छह महीने में चित्र बनाकर तैयार करूंगा। दूसरे चित्रकार ने कहा कि मुझे भी उसी चित्रकार की दीवाल के सामने दीवाल मिल जाए और सामान मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, सिर्फ मुझे एक बड़ा पर्दा चाहिए।
पहला चित्रकार एक दीवाल पर पेंट करने में चित्र बनाने में लग गया। दूसरे चित्रकार ने अपनी दीवाल पर पर्दा डाल लिया। वह उसके भीतर क्या करता था किसी कोभी पता नहीं था। कभी भी किसी ने कोई सामान उसे भीतर ले जाते नहीं देखा। खाली हाथ जाता था खाली हाथ लौट आता था। लोग हैरान थे कि वह भीतर क्या बना रहा है? दिन भर भीतर रहता था। लेकिन क्या बना रहा था? न उसके पास रंग थे, न तुलिकाएं थीं, नकोई और सामान था।
छह महीने पूरे हुए। पहले चित्रकार का चित्र बन कर तैयार हो गया। राजा देखनेआया। उसने अपनी दीवाल के ऊपर से पर्दा हटाया। चित्र बहुत अदभुत बना था। ऐसा चित्र राजा ने कभी देखा नहीं था। वह देख कर बिलकुल सम्मोहित हो गया देख कर बिलकुल अवाक रह गया।
फिर उसने दूसरे चित्रकार को कहा कि तुम भी अपना पर्दा हटाओ। दूसरे चित्र कारने भी पर्दा हटाया। सारे लोग और भी देख कर आश्चर्य से भर गए। वही चित्र जो पहली दीवाल पर बना था उससे भी ज्यादा सुंदर दूसरी दीवाल पर बना था। वह सब हैरान हो गए! लेकिन निकट जाकर उन्होंने देखा : दूसरे चित्रकार ने दीवाल पर चित्र नहीं बनाया था; उसने तो दीवाल को घिस-घिस कर छह महीने में दर्पण की तरह चमकदार बनाया था। वह दर्पण की तरह चमकदार हो गई थी दीवाल और पहला चित्र उसमें प्रतिबिंबित हो रहा था, रिफ्लेक्ट हो रहा था। और यह प्रतिबिंबित चित्र और भी अदभुत था। इसमें गहराई आ गईथी डेप्थ आ गई थी। वह चित्र भीतर दूर मालूम हो रहा था। पहला चित्र दीवाल के ऊपरमालूम होता था, दूसरा चित्र दीवाल के भीतर मालूम होता था।
दूसरा चित्रकार नियुक्त कर दिया गया।
जीवन में जो भी व्यक्ति अपने मन को दर्पण की भांति निर्मल बना लेता है स्वच्छऔर साफ उसके मन में परमात्मा की छवि परमात्मा का रूप प्रतिबिंबित होने लगता है। जो अपने मन को अत्यंत निर्मल बना लेता है अत्यंत शांत बना लेता है स्वच्छ बना लताहै, इस प्रकृति में ही, इस प्रकृति के ही प्रतिबिंबों में उसे परमात्मा के अपूर्व आनंद का बोधशुरू हो जाता है। वह एक वृक्ष के पास खड़ा होगा वृक्ष में भी उसे परमात्मा के दर्शन शुरूहो जाएंगे। वह एक पक्षी का गीत सुनेगा तो पक्षी के गीत में भी उसे परमात्मा की वाणी सुनाई पड़ेगी। वह एक फूल को खिलते देखेगा तो उस फूल के खिलने में भी परमात्मा की सुवास की सुगंध उसे मिलेगी। उसे चारों तरफ एक अपूर्व शक्ति का बोध होना शुरू होजाता है। लेकिन यह होगा तभी जब मन हमारा इतना निर्मल और स्वच्छ हो कि उसमें प्रतिबिंब बन सके उसमें रिफ्लेक्शन बन सके।
तुमने देखा होगा झील पर कभी जाकर अगर झील पर बहुत लहरें उठती हों, आकाश में चांद हो तो फिर झील पर कोई चांद का प्रतिबिंब नहीं बनता। और अगर झील बिलकुल शांत हो उसमें कोई लहर न उठती हो दर्पण की तरह चुप और मौन हो तो फिर चांद उसमें दिखाई पड़ता है। और जो चांद झील में दिखाई पड़ता है वह उससे भी सुंदरहोता है जो ऊपर आकाश में होता है।
प्रकृति चारों तरफ फैली हुई है लेकिन हमारा मन दर्पण की भांति नहीं है। इसलिए उसके भीतर उस प्रकृति की कोई छवि नहीं उतरती कोई चित्र नहीं बनते। और तब हम वंचित हो जाते हैं उसे जानने से जो हमारे चारों तरफ मौजूद है।

लोग पूछते हैं तुमने भी प्रश्न पूछे : ईश्वर है यानहीं?

यह वैसे ही है जैसे कोई मछली पूछे कि सागर कहां है? समुद्र कहां है? तो उस मछली को हम क्या कहेंगे? उससे कहेंगे : तुम्हारे चारों तरफ जो है वह सागर ही हैसमुद्र ही है।
जब हम पूछते हैं : ईश्वर है या नहीं है? उसका मतलब क्या हुआ? उसका मतलब यह हुआ कि हमारे पास ईश्वर को देखने वाला दर्पण नहीं है। अन्यथा ईश्वर तो चारों तरफ मौजूद है। लेकिन हमारे भीतर दर्पण मौजूद नहीं है, इसलिए कठिनाई है।
कैसे हमारा मन दर्पण बन जाए? थोड़ी सी बातें इस संबंध में मैंने तुमसे की हैं,आज और दो-तीन सूत्रों पर तुमने बात करूं।
अगर इन सूत्रों पर थोड़ा प्रयोग करो, श्रम करो, तो कोई कठिनाई नहीं है कि तुम भी एक निर्मल चित्त को उपलब्ध हो जाओ, एक शांत मन को उपलब्ध हो जाओ। और फिर उस शांत मन में उन सारी चीजों के प्रतिबिंब बनें जो परमात्मा की ओर इशारा करती हैं।
पहला सूत्र है : सरलता।
मनुष्य की सभ्यता जितनी विकसित हुई है, मनुष्य उतना ही जटिल, कठोर और कठिन होता गया है। सिम्प्लिसिटी सरलता जैसी कोई भी चीज उसके भीतर नहीं रह गई है। उसका मन अत्यंत कठोर और धीरे- धीरे पत्थर की भांति पाषाण की भांति सख्त होता गया है। और जितना हृदय पत्थर की भांति कठोर हो जाएगा, उतनी ही कठिन है बात।उतना ही जीवन में कुछ जानना कठिन है, मुश्किल है।
सरल मन चाहिए। कैसे होगा सरल मन? सरल मन की जो पहली ईंट है जो पहला आधार है जो पहली बुनियाद है वह कहां से रखनी होगी?
आमतौर से तो जीवन में हम जैसे-जैसे उम्र बड़ी होती है कठोर ही होते चले जाते हैं। और यही तो वजह है तुमने सुना होगा क्यों को भी यह कहते हुए कि बचपन के दिन बहुत सुखद थे। बचपन बहुत आनंद से भरा था। बचपन बहुत आनंदपूर्ण था। तुम्हें भी लगता होगा अभी यूं तो तुम्हारी उम्र ज्यादा नहीं लेकिन तुम्हें भी लगता होगा- जो दिन बीत गए बचपन के वे बहुत आनंद पूर्ण थे, और अब धीरे- धीरे उतना आनंद नहीं है।क्यों? यह तुमने सुना तो होगा लेकिन विचार नहीं किया होगा कि बचपन के दिन इतने आनंद पूर्ण क्यों होते हैं?
बचपन के दिन इसलिए आनंदपूर्ण हैं कि बचपन के दिन सरलता के दिन हैं। हृदय होता है सरल इसलिए चारों तरफ आनंद का अनुभव होता है। फिर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है हृदय होने लगता है कठिन और कठोर फिर आनंद क्षीण होने लगता है। दुनिया तोवही है क्यों के लिए भी वही है बच्चों के लिए भी वही है लेकिन बच्चों के लिए चारों तरफ आनंद की वर्षा मालूम होती है। मौज ही मौज मालूम होती है। सौंदर्य ही सौंदर्य मालूम होता है। छोटी-छोटी चीज में अदभुत दर्शन होते हैं। छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर कोभी बच्चा बीन लेता है और हीरे-जवाहरातों की तरह आनंदित होता है। क्या कारण है?
कारण है : भीतर हृदय सरल है। जहां हृदय सरल है वहां कंकड़-पत्थर भी हीरे-मोती हो जाते हैं। और जहां हृदय कठोर है वहां हीरे-मोती भी ढेर लगे रहें तो भी कंकड़-पत्थरों से ज्यादा नहीं होते। जहां हृदय सरल है वहां छोटे से फूल में अपूर्व सौंदर्य के दर्शन होते हैं। जहां हृदय कठिन है वहां फूलों का ढेर भी लगा रहे तो उनका कोई दर्शन नहीं होता। जहां हृदय सरल है छोटे से झरने के किनारे भी बैठ कर अदभुत सौंदर्य का बोधहोता है। और जहां हृदय कठिन है वहां कोई कश्मीर जाए या स्विटजरलैंड जाए, या और सौंदर्य के स्थानों पर जाए वहां भी उसे कोई सौंदर्य का बोध नहीं होता है। वहां भी उसे कोई आनंद की अनुभूति नहीं होती है।
लेकिन बूढ़े लोग यह तो कहते हैं कि बचपन के दिन सुखद थे लेकिन यह विचार नहीं करते कि क्यों सुखद थे? अगर इस बात पर विचार करें तो पता चलेगा हृदय सरलथा इसलिए जीवन में सुख था। तो अगर बुढ़ापे में भी हृदय सरल हो तो जीवन में बचपन से भी ज्यादा सुख होगा। होना भी यही चाहिए। यह तो बड़ी उलटी बात है कि बचपन के दिन सुखद हों और फिर सुख धीरे- धीरे कम होता जाए यह तो उलटी बात हुई। जीवन मेंसुख का विकास होना चाहिए। जितना सुख बचपन में था बुढ़ापे में उससे हजार गुनाज्यादा होना चाहिए। क्योंकि इतना जीवन का अनुभव इतना विकास इतनी समझ का बढ़जाना, सुख का भी बढ़ना होना चाहिए।
लेकिन होती बात उलटी है,बढ़ा आदमी दुखी होता है और बच्चा सुखी होता है।इसका अर्थ है कि जीवन की गति हमारी कुछ गलत है हम जीवन को ठीक से व्यवस्था नहीं देते। अन्यथा वृद्ध व्यक्ति को जितना आनंद होगा उतना बच्चे को क्या हो सकता है!यह तो पतन हुआ। बचपन में सुख हुआ और बुढ़ापे में दुख हुआ यह तो पतन हुआ, हमारा जीवन नीचे गिरता गया। बजाय बढ़ने के जीवन नीचे गिरा। बजाय ऊंचा होने के हम पीछे गए। यह तो उलटी बात है। अगर ठीक-ठीक मनुष्य का विकास हो तो बुढ़ापे के अंतिम दिन सर्वाधिक आनंद के दिन होंगे। होने चाहिए। और अगर न हों तो जानना चाहिए, हम गलत ढंग से जीए। हमारा जीवन गलत ढंग का हुआ।
अगर किसी स्कूल में ऐसा हो कि पहली कक्षा में जो विद्यार्थी आए वह तो ज्यादा समझदार और जब वह कॉलेज छोड़ कर निकले तो कम समझदार हो जाए तो उस कॉलेज को हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे यह तो पागलखाना है। होना तो यह चाहिए कि पहली कक्षा में जो विद्यार्थी आए बच्चे आए उनकी समझ तो बहुत कम थी। जब वे कॉलेज को छोड़े स्कूल को छोड़े तो उनकी समझ और बढ़ जानी चाहिए।
जीवन में जो बच्चे आते हैं वे तो ज्यादा सुखी मालूम होते हैं और जो बूढ़े जीवन कोछोड़ते हैं वे ज्यादा दुखी हो जाते हैं। तो यह तो बहुत उलटी बात हो गई। इस उलटी बात मेंहमारे हाथ में कुछ गलती होगी कोई कसूर होगा। सबसे बड़ा कसूर है : सरलता को हम खो देते हैं कमाते नहीं। सरलता कमानी चाहिए। सरलता बढ़नी चाहिए। गहरी होनी चाहिए। विस्तीर्ण होनी चाहिए। जितना हृदय सरल होता चला जाएगा उतना ही ज्यादा जीवन में - इसी जीवन में - सुख की संभावना बढ़ जाएगी।
कैसे चित्त सरल होगा? मन कैसे सरल होगा? और कैसे कठिन हो जाता है? इनदो बातों पर विचार करना जरूरी है।
उन लोगों का मन सर्वाधिक कठिन हो जाता है जिनके भीतर अहंकार का भाव जितना ज्यादा होता है। जितना उन्हें लगता है कि मैं कुछ हूं जिन्हें समबडी होने का भ्रमपैदा हो जाता है कि मैं कुछ खास है मैं कुछ हूं; अहंकार जिनमें ईगो जिनमें बहुत तीव्रहो जाती है जिनमें दंभ बहुत गहरा हो जाता है, उनका हृदय कठोर होता चला जाता है। जिसके भीतर अहंकार का भाव जितना कम होता है उसका हृदय उतना ही सरल होताहै। बच्चे में कोई अहंकार नहीं होता, इसलिए वह सरल है।
क्राइस्ट से किसी ने एक बार पूछा वे एक बाजार में खड़े थे कुछ लोग उन्हें घेरकर खड़े हुए थे और उनसे कुछ बातें पूछ रहे थे तभी किसी ने उनसे पूछा कि परमात्मा केराज्य में कौन लोग प्रवेश कर सकेंगे?
क्राइस्ट ने एक छोटे से बच्चे को उठाया और कहा : जिनके हृदय इस बच्चे कीभांति होंगे वे ही केवल परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। जिनके हृदय बच्चों की भांति होंगे!
लेकिन हम तो सभी बच्चों के हृदय खो देते हैं धीरे- धीरे। खो देते हैं क्योंकि हमारेभीतर एक अहंकार पैदा होना शुरू हो जाता है कि मैं कुछ हूं। लगने लगता है कि मैं कुछ हूं। अगर हम धन वाले घर में पैदा हुए हैं तो लगता है कि मैं धनी हूं। अगर हम बहुत पदवाले घर में पैदा हुए हैं तो लगता है कि मैं कुछ हूं विशिष्ट, और लोगों से भिन्न। अगरएक व्यक्ति अच्छे कपड़े पहनता है, तो सोचता है, मैं कुछ हूं। अगर एक व्यक्ति ज्यादाशिक्षा पा लेता है और कुछ उपाधियां उपलब्ध कर लेता है, तो सोचता है, मैं कुछ हूं।
यह 'मैं कुछ' होने का भाव जितना तीव्र होता जाता है, उतना ही हृदय कठोर होता चला जाता है। जब कि आश्चर्य जनक बात यह है कि मनुष्य की शक्ति क्या है? मनुष्य की सामर्थ्य क्या है? कुछ होने का बोध कितना गलत है इसे अगर विचार करो तो दिखाई पड़ेगा। जैसे तुम्हें यह भी पता नहीं होगा कि तुम क्यों पैदा हुईं? तुम्हें यह भी पता नहीं होगा कि तुम क्यों मर जाओगी? तुम्हें यह भी पता नहीं होगा कि तुम्हारी जो श्वास बाहर गई है, अगर वह भीतर नहीं आई तो तुम्हारा क्या वश है उसके ऊपर?
श्वास पर भी हमारा कोई वश नहीं है, कोई शक्ति नहीं है कोई ताकत नहीं है, फिर भी हम सोचते हैं, मैं कुछ हूं! क्या हमारी सामर्थ्य है? कितनी हमारी शक्ति है? मनुष्य काबल कितना है? अगर हम जीवन को देखें तो ज्ञात होगा हमारा कोई भी तो बल नहीं है।बहुत छोटी सी सीमित सामर्थ्य है। उसी सामर्थ्य में हमारे भीतर दंभ और अहंकार पैदा हो जाता है। समझेंगे तो ज्ञात होगा हम तो ना-कुछ हैं। जैसे हवा में उड़ते हुए पत्ते होते हैं, वैसी हमारी स्थिति है। पैदा हुए हमें ज्ञात नहीं क्यों? पैदा होने में तुमसे किसी से पूछा नहीं गयाकि पैदा होना है या नहीं? तुमसे कोई तुम्हारा कोई चुनाव, तुम्हारी कोई इच्छा काम नहीं की। मरते वक्त भी कोई पूछेगा नहीं। जीवन की किया में भी तुम्हारा कोई वश नहीं है।जिस दिन श्वास आनी बंद हो जाएगी तुम चाहो तो भी श्वास आ नहीं सकती। अगरमनुष्य के हाथ में यह होता कि वह जब तक चाहे श्वास ले सकता तब तो कोई आदमी मरता ही नहीं। और कितना छोटा सा जीवन है! और उस जीवन में हमारे हाथ में क्या है?
एक छोटी सी घटना कहूं उससे मेरी बात तुम्हें समझ में आए।
हमारे हाथ में करीब-करीब कुछ भी नहीं है। लेकिन फिर भी हमको यह वहम पैदा होता है कि मैं कुछ हूं। और उससे हम कठोर हो जाते हैं। बड़े से बड़ा धनी आदमी, जिसके पास कितनी ही संपत्ति हो जब मृत्यु उसके द्वार खड़ी हो जाती है उसे पता चलताहै मेरी कोई ताकत नहीं। बड़े से बड़ा सम्राट, जिसके पास बहुत शक्ति हो, जिसने दुनियामें न मालूम कितने लोगों की हत्या की होजब मौत उसके द्वार खड़ी हो जाती है तो पाताहै, मैं कुछ भी नहीं हूं। अब तक किसी मनुष्य को भी इस वहम को कायम रखने का कोईकारण नहीं मिला है कि उसकी कोई शक्ति है कि वह कुछ है।
एक घटना मैं तुम्हें कहने को हूं।
एक बहुत बड़े राजमहल के निकट कुछ थोड़े से बच्चे खेल रहे थे। एक बच्चे नेएक पत्थर की ढेरी में से एक पत्थर उठाया और राजमहल की खिड़की की तरफ फेंका।वह पत्थर अपने पत्थर की ढेरी से ऊपर उठा। बच्चे ने फेंका तो पत्थर ऊपर उठा। उसपत्थर ने नीचे जो पत्थर पड़े थे, उनसे कहा : मित्रो मैं आकाश की सैर को जा रहा हूं।
बात ठीक ही थी गलत कुछ भी न था। जा ही रहा था नीचे के पत्थर पड़े देख रहे थे उनके वश के बाहर था कि वे भी जाएं इसलिए इस पत्थर की विशिष्टता को अस्वीकार करने का कोई कारण भी न था स्वीकार करना ही पड़ा। वह पत्थर ऊपर उठता गया। वह जाकर कांच की खिड़की से टकराया महल की काच चकना चूर होकर टूटगया। उस पत्थर ने जोर से कहा कि मैंने कितनी बार कहा : मेरे रास्ते में कोई न आए, नहींतो चकनाचूर होकर टूट जाएगा!
यह भी बात ठीक ही थी। कांच टूट ही गया था टुकड़े-टुकड़े हो गया था। पत्थर का यह गुरूर भी ठीक ही था कि मैंने कहा है कि मेरे रास्ते में जो आएगा वह टूट जाएगा।फिर पत्थर भीतर गिरा। वहां ईरानी कालीन बिछा हुआ था उस पर गिरा। उस पत्थर ने मनमें कहा : बहुत थक गया, एक शत्रु का भी सफाया किया अब थोड़ी देर विश्राम कर लूं।उसने विश्राम भी किया। लेकिन तभी महल के नौकर को खबर पड़ी कांच केफूटने की आवाज पहुंची, वह भागा हुआ आया उसने उस पत्थर को उठा कर वापसखिड़की से नीचे फेंका। जब वह पत्थर वापस लौटने लगा तो उसने कहा : मित्रों की मुझेबहुत याद आती है, अब मुझे वापस चलना चाहिए।
वह नीचे गया जब वह ढेरी के ऊपर वापस गिरा अपने पत्थरों की ढेरी पर तोउसने पत्थरों से कहा : मित्रो, बड़ी अदभुत यात्रा रही बड़ी अच्छी जर्नी रही।
जहां मैं ही अकेला रह जाऊं जहां कोई भी कल्पना मेरे साथ जुड़ी हुई न हो- जहांकोई भी नाम, कोई भी पद, कुछ भी मेरे साथ जुड़ा हुआ न हो उस निपट व्यक्तित्व कोउस खाली पवित्रतम शुद्धतम व्यक्तित्व को जान कर ही व्यक्ति जीवन में आनंद को अमृत को उपलब्ध हो सकता है। उसे हम जान लें उसकी कोई मृत्यु नहीं है उसका फिर कोई अंत नहीं है, उसकी कोई समाप्ति नहीं है। उसे हम जान लें उसके जानने के बाद कोई दुख नहीं है, कोई पीड़ा नहीं है, कोई अपमान नहीं है। उसे हम जान लें फिर जीवन में कोई विषमता नहीं है। समता है फिर जीवन में शांति है। फिर जीवन में कुछ अदभुत है जिसे शब्दों में कहना कठिन है। लेकिन उसे जानने के लिए सरल होना जरूरी है। और सरल होने के लिए जो-जो झूठ हमने ओढ़ रखे हैं, उन सबको विदा कर देना जरूरी है। जो-जो अभिनय हमने ओढ़ रखे हैं वे सब समाप्त कर देने जरूरी हैं। झूठा व्यक्तित्व टूट जाए तोही सत्य का अनुभव हो सकता है। और अगर यह बचपन से ही स्मरण हो, और यह बहुत छोटी उम्र से खयाल में हो तो फिर हम झूठे व्यक्तित्व को ओढ़ने से भी बच सकते हैं।
तुम खुद खयाल करोगी कितनी बातें हम झूठी ओढ़े रखते हैं- कितनी बातें! हमजैसे होते हैं वैसा हम कभी बताते नहीं। हम जैसे नहीं होते हैं वैसा हम बताने की कोशिश करते हैं। हम जितने सुंदर नहीं हैं, उतने सुंदर दिखने की कोशिश करते हैं। हम जितने सच्चे नहीं हैं उतने सच्चे दिखने की कोशिश करते हैं। हम जितने ईमानदार नहीं हैं, उतने ईमानदार दिखने की कोशिश करते हैं। हम जितने प्रेमपूर्ण नहीं हैं, उतने प्रेम पूर्ण दिखने की कोशिश करते हैं। तब क्या होगा? तब इस कोशिश में झूठ धीरे- धीरे हमारे चारों तरफ लिपटता चला जाएगा। और जो हम नहीं हैं, वही हमें ज्ञात होने लगेगा कि हम हैं। निरंतर के प्रयास से झूठ को ओढ़ने से ऐसा लगने लगेगा कि हम हैं। और तब भ्रांति हो जाएगी।और तब भीतर पहुंचना कठिन हो जाएगा।
अगर इस उम्र से ही यह बोध रहे कि मैं जो हूं उससे भिन्न न मुझे दिखाई पड़ना चाहिए, न मुझे कोशिश करनी चाहिए। जो भी सीधा-सच्चा मेरा व्यक्तित्व है, वही जगत जाने, वही दुनिया जाने वही उचित है। और मैं तो कम से कम जा! ही कि मैं कौन हूंक्या हूं। और अगर धीरे- धीरे इसका साहस बढ़ता चला जाए तो तुम्हारे ऊपर झूठे व्यक्तित्वों का फाल्स पर्सनैलिटीज का तुम्हारे ऊपर प्रभाव नहीं होगा। तुम्हारा कोईव्यक्तित्व झूठा खड़ा नहीं होगा। धीरे- धीरे तुम्हारे जीवन में सरलता घनी होती जाएगी। औरजैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी वैसे-वैसे सरलता बढ़ेगी। और एक क्षण आएगा जीवन में जब तुम्हारा हृदय इतना निर्मल होगा इतना सरल और सीधा होगा, उसमें कोई कठोरता उसमें कोई कृत्रिमता उसमें कोई झूठ न होने से वह इतना निर्दोष होगा, जैसे पानी का झरना होताहै जिसमें कोई कचरा नहीं है जिसमें कोई मूल नहीं है जिसमें कोई गंदगी नहीं है, जिसमें कोई मिट्टी नहीं है। उस झरने के निर्दोष जल में नीचे के कंकड़-पत्थर सब दिखाई पड़ते हैं, नीचे की रेत भी दिखाई पड़ती है। ठीक वैसे ही जब मन इतना झरने की भांति सरल होताहै सीधा होता है स्पष्ट होता है साफ होता है, तो उस मन के भीतर जो आत्मा छिपी है उसकी अनुभूति शुरू होती है। और आत्मा की अनुभूति हो तो परमात्मा की खबर मिलनी शुरू हो जाती है। जो अपने ही भीतर के सत्य को नहीं जानता वह सारे जगत में छिपे हुए सत्य को कैसे जान सकेगा? पहला द्वार खुद के भीतर जाकर स्वयं को जानने का है। औरखुद के भीतर वही जा सकता है जिसने अपने जीवन में झूठ और असत्य न ओढ़े हों।
लेकिन सारे लोग ओढ़े हुए हैं। जो आदमी साधु नहीं है वह साधु बना हुआ है।जो आदमी सेवक नहीं है वह सेवक बना हुआ है। जिस आदमी के जीवन में कोई प्रेम नहीं है वह प्रेम की बातें कर रहा है। जिसके जीवन में कोई सौंदर्य नहीं है वह सौंदर्य केगीत गा रहा है। तो फिर तो जीवन विकृत हो जाएगा दूर हो जाएगा सत्य से। और जितनायह दूर होता जाएगा उतनी कठिनाई होती जाएगी। और हम सब धोखा देने को अतिउत्सुक हैं। दूसरों को नहीं अपने को भी धोखा देने को उत्सुक हैं। दूसरों को धोखा देनाउतना खतरनाक नहीं है जितना अपने को धोखा दे लेना।
मैंने सुना है लंदन में कोई सौ वर्ष पहले शेक्सपियर का एक नाटक चल रहा था।वहां का जो सबसे बड़ा धर्म-पुरोहित था धर्मगुरु था जो सबसे बड़ा बिशप था लंदन का, वह भी देखना चाहता था उस नाटक को। लेकिन संन्यासी साधु धर्मगुरु नाटक देखनेनहीं जाते। और अगर तुम्हें वे मिल जाएं सिनेमागृह में तो तुमको भी हैरानी होगी और वे तो परेशान हो ही जाएंगे। नाटक देखने वे नहीं जाते क्योंकि जीवन में जहां भी सुख है औररस है, वे उस सबके विरोधी हैं। तो उस धर्मगुरु के मन में इच्छा तो बहुत थी कि नाटक देखूं। रोज-रोज लोग प्रशंसा करते थे बहुत अच्छा नाटक है। लेकिन कैसे जाए? तो उसनेएक पत्र उस नाटक के मैनेजर को लिखा। और उस पत्र में लिखा कि क्या तुम्हारे नाटकगृह में, तुम्हारे सिनेमा हॉल में पीछे की तरफ से कोई दरवाजा नहीं है कि मैं वहां से आकर
नाटक देख सकूं? ताकि लोग मुझे न देख सकें और मैं नाटक देख लूं।
उस मैनेजर ने पत्र का उत्तर दिया कि मेरे नाटचगृह में पीछे से दरवाजा है, और अनेक बार अनेक लोग पीछे के दरवाजे से भी देखने आते हैं। ऐसे अनेक लोग आते हैं देखने, जो चाहते हैं कि वे तो नाटक देखें लेकिन लोग उन्हें न देख पाएं। लेकिन जहां तक आपका संबंध है मैं यह निवेदन कर देना चाहता हूं : ऐसा दरवाजा तो है जो पीछे है लेकिन ऐसा कोई भी दरवाजा हमारे इस भवन में नहीं है जिसको परमात्मा न देखता हो। उसने लिखा : ऐसा कोई भी दरवाजा हमारे भवन में नहीं है जिसको परमात्मा न देखता हो। मनुष्यों की आंख से छिपाना तो संभव हो जाएगा लेकिन परमात्मा की आंख से और खुद की आंख से छिपाना कैसे संभव होगा?
हम खुद की आंख से बहुत सी बातें अगर छिपाते चले जाएं तो फिर खुद को नहींजान सकते है। खुद की आंख से कोई बात नहीं छिपानी चाहिए। साहस के साथ हम जैसा हैं - जैसे भी बुरे और भले- स्वयं को वैसा ही जानना चाहिए। जब तुम अपनी सीधी-सीधी सच्चाई से परिचित होओगी जब तुम अपने सीधे-सीधे व्यक्तित्व को जानोगी तोतुम्हारे जीवन में एक क्रांति हो जाएगी।
क्यों? क्योंकि अगर कोई व्यक्ति बहुत स्पष्ट रूप से स्वयं को देखे तो उसमें जोभी गलतियां हैं उनका टिकना असंभव है। वे गलतियां इसीलिए टिकती हैं कि हम उन्हें छिपा लेते हैं। कोई आदमी गलत नहीं हो सकता अगर वह अपने को सीधा और स्पष्टदेखने का साहस जुटा ले। अगर तुम्हें स्पष्ट दिखाई पड़े कि तुम्हारे भीतर झूठ है और तुम अच्छी- अच्छी बातों से उसे न छिपाओ तो झूठ के साथ बहुत दिन जीना असंभव है।
वैसे ही जैसे तुम्हें दिखाई पड़े कि तुम्हारे पैर में फोड़ा है और तुम बिना इलाज केजीना चाहो। या तुम्हें जैसे दिखाई पड़ जाए तुम्हें पता चल जाए कि तुम्हारे फेफड़े खराब होगए हैं क्षयरोग हो गया है टी. बी. हो गया है कैंसर हो गया है, और तुम बिना इलाज केजी जाओ। अगर तुम्हें पता ही न चले तो दूसरी बात है। लेकिन अगर तुम्हें ज्ञात हो जाएकि तुम्हारे भीतर कोई गहरी बीमारी है तो तुम उस बीमारी के इलाज में निश्चित ही उत्सुकहो जाओगे। अगर तुम्हें पता चल जाए कि तुम्हारे भीतर झूठ है, तो उस झूठ के साथ जीना
कठिन है। क्योंकि झूठ बड़े से बड़े फोड़ों से भी ज्यादा पीड़ादायी है। और झूठ बड़ी से बड़ी बीमारियों से भी बड़ी बीमारी है।
एक बार तुम्हें स्पष्ट रूप से अपने पूरे व्यक्तित्व का बोध होना चाहिए कि मेरे भीतर क्या है और क्या नहीं है। और इसे कोई दूसरा तुम्हें नहीं बता सकता। यदि तुम खुद ही निरीक्षण करोगी तो दिखाई पड़ेगा।
लेकिन निरीक्षण तभी सफल होगा जब तुम अपने को धोखा देने के लिए निरंतर श्रम न करो। अगर तुम निरंतर अपने को धोखा देने में लगी रहो, तो बहुत कठिनाई है।
एक फकीर हुआ गुरजिएफ। एक गांव से निकलता था। कुछ लोगों ने उसे गालियां दीं अपमान भरे शब्द कहे अभद्र बातें कहीं। उसने उनकी सारी बातें सुनीं और उनसे कहा कि मैं कल आकर उत्तर दूंगा।
वे लोग बहुत हैरान हुए। क्योंकि कोई गालियों का उत्तर कल नहीं देता! अगर मैंतुम्हें गाली दूं तो तुम अभी कुछ करोगी। अगर कोई तुम्हारा अपमान करे तो तुम उसी वक्त कुछ करोगी। ऐसा तो कोई भी नहीं कहेगा शांति से कि हम कल आएंगे और उत्तर देंगे।
गुरजिएफ ने कहा : मैं कल आऊंगा और उत्तर दूंगा।
उन लोगों ने कहा : यह तो बड़ी अजीब बात है हमने कभी सुनी भी नहीं आजतक! कुछ तो कहो हमने इतना अपमान किया!
उसने कहा : पहले मैं सो! जाकर कि तुमने जो अपमान किया, कहीं वह ठीक हीतो नहीं है? हो सकता है तुमने जो बुराइयां मुझमें बताईं, वे मुझमें हों। और अगर वे मुझ में हैं तब मैं तुम्हें कल धन्यवाद दूंगा आकर कि तुमने अच्छा मेरे ऊपर उपकार किया मेरेऊपर कृपा की। और अगर वे मुझमें नहीं हें तो मैं निवेदन कर जाऊंगा कि तुम और सोचना वे बुराइयां मैंने अपने में नहीं पाईं। झगड़े का इसमें कोई कारण नहीं है। एक स्थिति में मैं तुम्हें धन्यवाद दे दूंगा कि तुमने मुझ पर कृपा की। और जो काम मुझे खुदकरना चाहिए था वह तुमने कर दिया। तुम मेरे मित्र हो। दूसरी स्थिति में मैं कह जाऊंगाकि मैंने खोजा मेरे भीतर वे बुराइयां नहीं दिखीं जो तुमने बताईं तो तुम और विचार करना।और इसमें तो कोई इसमें कोई झगड़े का कारण नहीं है।
वह दूसरे दिन आया और उसने कहा कि तुमने जो बातें कहीं वे मेरे भीतर हैं। इसलिए मैं धन्यवाद देता हूं। और भी तुम्हें कोई बुराई कभी मुझमें दिखाई पड़े, तो संकोच मत करना मुझे रोकना और बता देना।
ऐसा व्यक्ति होना चाहिए। ऐसा हमारा चिंतन होना चाहिए। ऐसी हमारी दृष्टि होनी चाहिए। और ऐसा आदमी बहुत दिन तक बुराइयों में नहीं रह सकता, उसका जीवन तो बदल जाएगा। और इतनी सरलता होनी चाहिए। तो ऐसा सरल मनुष्य परमात्मा से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकता। इतनी सरलता होनी चाहिए। इतनी हुमिलिटी होनी चाहिए। इतनीविनम्रता होनी चाहिए मन की इतना मुक्तपन होना चाहिए कि हम अपनी बुराइयां देख सकेंअपने ठीक-ठीक व्यक्तित्व को देख सकें और झूठे व्यक्तित्व से बचने का साहस कर सकें।
नहीं तो सारे लोग करीब-करीब अभिनेता हो जाते हैं। जो उनके भीतर नहीं होता, उसको ओढ़ते हैं; जो नहीं होता उसको दिखलाते हैं। और तब फिर चित्त कठिन और जटिल होता चला जाता है।
छोटी उम्र से अगर यह बोध तुम्हारे मन में आ जाए कि मुझे अपने भीतर कम से कम अपनी सच्चाई को जानने की सतत चेष्टा में संलग्न रहना चाहिए। जो भी मेरे भीतर है उसे देखने का मुझमें साहस होना चाहिए। उसे डाकू न उसे ओढूं न उसे छिपाके न।किससे छिपाएंगे हम? दूसरों से छिपा लेंगे लेकिन खुद से कैसे छिपाएंगे और जिस बातको हम छिपाते चले जाएंगे वह जिंदा रहेगी वह मिटेगी नहीं। उसे उघाड़ें और देखें और पहचानें। और जब उसकी पीड़ा अनुभव होगी तो उसकी बदलाहट का विचार उसको परिवर्तन करने का खयाल उसे स्वस्थ करने की वृत्ति भी पैदा होती है। और सबसे बड़ीबात है इस सारी प्रक्रिया में चित्त सरल होता चला जाता है। इस सारी प्रक्रिया में चित्त में एक तरह की अदभुत शांति और सरलता आने लगती है। क्योंकि कुछ छिपाने को नहींहोता तो आदमी जटिल नहीं होता है। और जो व्यक्ति इतना सजग हो कि उसे अहंकार काभाव न पैदा हो कि मैं कुछ हूं खास। जब उसे ऐसा दिखाई पड़ने लगे- जैसे घास-पात है जैसे वृक्ष हैं पशु हैं पक्षी हैं; जैसे और सारी दुनिया है वैसा मैं हूं। इस सारे विराट जीवनका एक छोटा सा टुकड़ा, एक अत्यंत छोटा सा अणु; मेरा होना कोई बहुत मूल्य नहींरखता, मेरे होने का कोई बहुत अर्थ नहीं है मैं बिलकुल ना-कुछ हूं।
अगर यह खयाल भीतर निरंतर बैठता चला जाए तो एक दिन तुम पाओगी, तुम्हारा मन दर्पण की भांति निर्दोष हो गया। एक दिन तुम पाओगी तुम्हारे हृदय में एकऐसी शांति आई है, जो अपूर्व है। एक दिन तुम पाओगी एक ऐसा सन्नाटा आया है, जिसको तुमने कभी नहीं जाना था। एक ऐसा अज्ञात आनंद तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होजाएगा जिसकी तुम्हें अभी कोई भी खबर नहीं है। और उस दिन तुम्हारे जीवन में नये अंकुरण होंगे तुम्हारा जीवन धीरे- धीरे परमात्मा के जीवन में विकसित होने लगेगा।
एक छोटी सी कहानी और मैं चर्चा को पूरा करूंगा। फिर तुम्हें कुछ प्रश्न होंगे इससंबंध में तो वह रात्रि मैं बात करूंगा।
लाओत्से नाम का एक बहुत अदभुत फकीर चीन में हुआ। वह इतना विनम्र औरसरल व्यक्ति था, इतना अदभुत व्यक्ति था, ऐसे उसकी एक-एक अंतर्दृष्टि बहुमूल्य है, उसके एक-एक शब्द में इतना अमृत है उसके एक-एक शब्द में इतना सत्य है जिसका कोई हिसाब नहीं लेकिन आदमी वह बहुत सीधा और सरल था। खुद सम्राट के कानों तक उसकी खबर पहुंची। और सम्राट ने कहा कि मैंने सुना है यह लाओत्से नाम का जोव्यक्ति है बहुत अति असाधारण है बहुत एक्सट्रा आर्डिनरी है; सामान्यजन नहीं है बहुतअसामान्य है बहुत असाधारण है।
तो उसके वजीरों ने कहा : यह बात तो सच है उससे ज्यादा असाधारण व्यक्ति इस समय पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।
सम्राट उसे देखने गया। सम्राट देखने गया तो उसने सोचा था कोई बहुत महिमाशाली, कोई बहुत प्रकाश को युक्त कोई बहुत अदभुत व्यक्तित्व का कोई बहुत प्रभावशाली व्यक्ति होगा। लेकिन जब वह द्वार पर पहुंचा, तो उस झोपड़े के बाहर ही छोटीसी बगिया थी और लाओत्से उस बगिया में अपनी कुदाली लेकर मिट्टी खोद रहा था।सम्राट ने उससे पूछा : बागवान लाओत्से कहां है? क्योंकि यह तो कोई खयाल ही नहींकर सकता था कि यही लाओत्से होगा। फटे से कपड़े पहने हुए बाहर मिट्टी खोद रहा हो, इसकी तो कल्पना नहीं हो सकती थी सीधा-साधा किसान जैसा मालूम होता था।
लाओत्से ने कहा : भीतर चलें बैठें, मैं अभी लाओत्से को बुला कर आ जाता हूं।सम्राट भीतर जाकर बैठा और प्रतीक्षा करने लगा। वह जो लाओत्से था जो बगीचेमें मिट्टी खोद रहा था वह पीछे के रास्ते से गया, झोपड़े में से अंदर आया, आकर नमस्कार किया और कहा : मैं ही लाओत्से हूं।
राजा बहुत हैरान हुआ। उसने कहा : तुम तो वही बागवान मालूम होते हो जोबाहर थे?
उसने कहा : मैं ही लाओत्से हूं। कसूर माफ करें क्षमा करें कि मैं छोटा सा कामकर रहा था। लेकिन आप कैसे आए?
उस राजा ने कहा : मैंने तो सुना है कि तुम बहुत असाधारण व्यक्ति हो। तुम तो एकदम साधारण मालूम होते हो।
लाओत्से बोला : मैं बिलकुल ही साधारण हूं। आपको किसी ने गलत खबर दे दी।राजा वापस लौट गया। अपने मंत्रियों से उसने जाकर कहा कि तुम कैसे नासमझ हो एक साधारणजन के पास मुझे भेज दिया।
उन सारे लोगों ने कहा : उस आदमी की यही असाधारणता है कि वह एकदम साधारण है। मंत्रियों ने कहा : उस आदमी की यही खूबी है कि वह एकदम साधारण है।साधारण से साधारण आदमी भी यह स्वीकार करने को राजी नहीं होता कि वह साधारणहै। उस आदमी की यही खूबी है, यही विशिष्टता है कि उसने कुछ भी असाधारण होने कीइच्छा नहीं की वह एकदम साधारण हो गया है।
राजा दुबारा गया। और उसने लाओत्से से पूछा कि तुम्हें यह साधारण होने का खयाल कैसे पैदा हुआ? तुम साधारण कैसे बने?
उसने कहा : अगर मैं कोशिश करके साधारण बनता, तो फिर साधारण बन ही नहींसकता था। क्योंकि कोशिश करने में तो आदमी असाधारण बन जाता है। नहीं, मुझे तोदिखाई पड़ा, और मैं एकदम साधारण था?मैंने अनुभव कर लिया बना नहीं। मैंने जाना किमैं साधारण हूं। मैं बना नहीं हूं साधारण। क्योंकि बनने की कोशिश में तो आदमी असाधारणबन जाता है। मैं बना नहीं मैंने तो जाना जीवन को पहचाना। मैंने पाया मुझे न मृत्यु कापता है न जन्म का पता है। मैंने पाया यह श्वास क्यों चलती है यह मुझे पता नहीं; यहखून क्यों बहता है यह मुझे पता नहीं। मुझे भूख क्यों लगती है, मुझे प्यास क्यों लगती है, यह मुझे पता नहीं। मैंने पाया मैं तो बिलकुल अज्ञानी हूं। फिर मैंने पाया, मैं तो बिलकुल अशक्त हूं मेरी कोई शक्ति नहीं। फिर मैंने पाया मैं तो कुछ विशिष्ट नहीं हूं। जैसी दो आंखेंदूसरों को हैं वैसी दो आंखें मेरे पास हैं; जैसे दो हाथ दूसरों के पास हैं वैसे दो हाथ मेरेपास हैं। मैं तो एक अति सामान्य व्यक्ति हूं यह मैंने देखा पहचाना। मैं साधारण बना नहींहूं मैंने तो देखा और समझा और पाया, तो मैंने पाया कि मैं साधारण हूं।
लेकिन यह घटना ऐसे घटी कि मैं एक जंगल गया था लाओत्से ने कहा : औरवहां मैंने लोगों को लकड़ियां काटते देखा। बड़े-बड़े दरख्त काटे जा रहे थे ऊंचे-ऊंचेदरख्त काटे जा रहे थे। सारा जंगल कट रहा था। बढ़ई लगे हुए थे और जंगल कट रहाथा। लेकिन बीच जंगल में एक बहुत बड़ा दरख्त था इतना बड़ा दरख्त था कि उसकी छाया इतने दूर तक फैल गई थी वह इतना पुराना और प्राचीन मालूम होता था कि उसकेनीचे एक हजार बैलगाड़ियां विश्राम कर सकती थीं इतनी उसकी छाया थी। तो मैंने अपने मित्रों से कहा कि जाओ और पूछो इस दरख्त को कोई क्यों नहीं काटता है? यह दरख्त
इतना बड़ा कैसे हो गया? जहां पूरा जंगल कट रहा है वहां एक इतना बड़ा दरख्त कैस?जहां सब दरख्त डूंठ रह गए हैं जहां नये दरख्त काटे जा रहे हैं रोज वहां यह इतना बड़ादरख्त कैसे बच रहा? इसको क्यों लोगों ने छोड़ दिया?
तो मेरे मित्र और मैं वहां गया और मैंने वृद्ध बढ़इयों से पूछा जो लकड़ियां काटतेथे कि यह इतना दरख्त बड़ा कैसे हो गया?
उन्होंने कहा : यह दरख्त बड़ा अजीब है। यह दरख्त बिलकुल साधारण है। इसकेपत्ते कोई जानवर नहीं खाते। इसकी लकड़ियों को जलाया नहीं जा सकता वे धुंआ करतीहैं। इसकी लकड़ियां बिलकुल एड़ी-टेढ़ी है इनको काट कर फर्नीचर नहीं बनाया जासकता, द्वार-दरवाजे नहीं बनाए जा सकते। दरख्त बिलकुल बेकार है बिलकुल साधारणहै। इसलिए इसको कोई काटता नहीं। लेकिन जो दरख्त सीधा है और ऊंचा गया है उसेकाटा जाता है उसके खंभे बनाए जाते हैं।
लाओत्से हटा और वापस लौट आया। और उसने कहा : उस दिन से मैं समझगया कि अगर सच में तुम्हें जीवन में बड़ा होना है तो उस दरख्त की भांति हो जाओ जोबिलकुल साधारण है जिसके पत्ते भी अर्थ के नहीं जिसकी लकड़ी भी अर्थ की नहीं। तोउस दिन से मैं वैसा ही दरख्त हो गया बेकार। मैंने फिर सारी महत्वाकांक्षा छोड़ दी – बड़ाहोने की ऊंचा होने की। असाधारण होने की सारी दौड़ छोड़ दी। क्योंकि मैंने पाया कि जोऊपर होना चाहेगा वह काटा जाएगा। मैंने पाया कि जो बड़ा होना चाहेगा वह काट कर छोटा कर दिया जाएगा। मैंने पाया कि प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धा में महत्वाकांक्षा में सिवाय मृत्यु के और कुछ भी नहीं है। और तब मैं अति साधारण जैसा मैं था ना-कुछ, चुपचापवैसा ही बैठ रहा। और जिस दिन मैंने सारी दौड़ छोड़ दी उसी दिन मैंने पाया कि मेरे भीतर कोई अदभुत चीज का जन्म हो गया है। उसी दिन मैंने पाया कि मेरे भीतर परमात्मा के अनुभव की शुरुआत हो गई है।
जो व्यक्ति साधारण से साधारण और सरल से सरल होने को राजी हो जाता है सत्य खुद उसके द्वार आ जाता है। और जो व्यक्ति असाधारण होने की विशिष्ट होने कीबड़ा होने की, महत्वाकांक्षा होने की, अहंकार को तृप्त करने की दौड़ में पड़ जाता है, उसके जीवन में असत्य घना से घना होता जाता है और सत्य से उसके संबंध सदा के लिएक्षीण होते जाते हैं। अंतत:, अंतत: उसके पास झूठ का एक ढेर रह जाता है और सत्य की कोई भी किरण नहीं। लेकिन जो सरल हो जाता है, सीधा, साधारण, सामान्य, उसके जीवन में झूठ की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती, उसके जीवन में सत्य की किरण का जन्महोता है और सारा अंधकार समाप्त हो जाता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं सरलता के लिए, इन पर विचार करना, इन परसोचना, अपने जीवन में निरीक्षण करना और देखना कि क्या तुम्हारे जीवन में सरलता बढ़ रही है या जटिलता बढ़ रही है? अगर जटिलता बढ़ रही हो, तो समझना कि तुमने गलत मार्ग चुना है- और जीवन के अंत में तुम्हें विफलता मिलेगी, दुख मिलेगा, पीड़ा, चिंता के अतिरिक्त तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं आएगा। और अगर तुमने सरलता का मार्ग जीवन में चुना, और स्मरण पूर्वक रोज सरल से सरल होती गईं, तो तुम पाओगी कि बचपन में जो आनंद था, उससे बहुत बड़ा आनंद निरंतर बढ़ता जाएगा। और बुढ़ापा तुम्हारा एक अदभुतगौरव-कलश की भांति होगा, जिसमें आनंद की पूरी छाया, जिसमें आनंद की पूरीअनुभूति, जिसमें एक तरिक सौंदर्य, सत्य का एक बल, और जिसमें आंतरिक रूप से
का अनुभव, अमृत उसका अनुभव जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती है, उपलब्ध होता है।
इन पर तुम विचार करना, इन पर तुम सोचना और अपने जीवन से तौलना कितुम्हारे जीवन की दिशा क्या है?
स्मरण रहे, जो व्यक्ति भी परमात्मा की दिशा के प्रतिकूल जाता है, वह अपने ही हाथों अपने को नष्ट कर लेता है। और जो व्यक्ति परमात्मा की दिशा में चरण उठाता है, वह धीरे- धीरे विकसित होता है, उसके भीतर अनुभूतियों घनी होती हैं, उसके जीवन मेंअर्थ आता है, उसके जीवन में बहुत तरिक संपदा आती है, और अंतत: उसे कृतार्थता और धन्यता का अनुभव होता है।

इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से तुम सुनती रही हो, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
जो तुम्हारे प्रश्न हों, वह मैं रात उत्तर दे सकूंगा।

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