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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-12)

बारहवां प्रवचन

मैं तो यहां एक प्रेम का मंदिर बना रहा हूं

प्रश्न-सार

01-ओशो, आपके पास आकर मुझे जो आनंद मिला, वह मुझे आज से पहले कभी न मिला था। परंतु मैं इतनी कृतघ्न हूं कि बार-बार आपको छोड़ कर चले जाने का कुविचार मन में उठता है। फिर भी न जाने ऐसी कैसी अनदेखी डोर है जो मुझे बांधे हुए है। क्या मैं माफी के काबिल हूं?
02-ओशो, धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है, उससे हानि किसकी हुई है?


पहला प्रश्नः ओशो, आपके पास आकर मुझे जो आनंद मिला, वह मुझे आज से पहले कभी न मिला था। परंतु मैं इतनी कृतघ्न हूं कि बार-बार आपको छोड़ कर चले जाने का कुविचार मन में उठता है। फिर भी न जाने ऐसी कैसी अनदेखी डोर है जो मुझे बांधे हुए है। क्या मैं माफी के काबिल हूं?

 रेखा! आनंद को झेलना आसान नहीं है। दुख को झेलना बहुत आसान है। दुख को झेलना इसलिए आसान है कि दुख के हम आदी हैं..सदियों-सदियों से, जन्मों-जन्मों से। दुख हमारा परिचित है, संगी-साथी है। दुख के साथ हमारी सगाई हुई है, बार-बार हुई है। आनंद अपरिचित है। अपरिचित से भय लगता है। पुलक भी उठती है, भय भी उठता है। और जितना बड़ा आनंद हो उतना ही भयाक्रांत करता है। सबसे बड़ा भय तो यह है कि पता नहीं कहां ले जाए!


दुख के रास्ते तो जाने-माने हैं। जाने-माने हैं, इसलिए हम निश्चिंत भाव से दुख में जीते हैं। आनंद के रास्ते अनजाने हैं। आनंद ले जाता है अज्ञात में। अज्ञात में ही नहीं, अंततः अज्ञेय में। सो प्राण कंपते हैं। जैसे कोई छोटी सी नौका को लेकर महासागर में उतरे और प्राण कंपें, ऐसे ही प्राण कंपते हैं। नौका है छोटी, सागर है विराट; दूसरा किनारा कहीं दिखाई पड़ता नहीं और यह किनारा छूटा जाता है...! माना कि यह किनारा दुख से भरा है, मगर फिर भी किनारा तो किनारा है। दुख ही सही, कंकड़-पत्थर ही सही, राख ही राख सही, मगर किनारा फिर भी किनारा है। और हीरे-मोती सही सागर में, मगर जीवन को खतरा है। डूबने की तैयारी किसकी है!
दुख कभी डुबाता नहीं। कितना ही दुख हो, तुम दुख से अलग ही बने रहते हो, दुख से भिन्न ही बने रहते हो। दुख और तुम्हारे बीच फासला बना ही रहता है, बना ही रहता है। क्यों? क्योंकि दुख विजातीय है। और आनंद तुम्हारा स्वभाव है। दुख पर-भाव है, दुर्घटना है; इसलिए कभी तुम उसके साथ एकरूप नहीं हो सकते। उतनी दूरी तुम्हें निशिं्चत रखती है। दुख तुम्हें डुबा नहीं पाता। टूट पड़े पहाड़ की तरह, तो भी तुम अछूते रहते हो। रोओगे, परेशान होओगे, मगर दुख तुम्हें मिटाएगा नहीं। और आनंद तुम्हें मिटा डालेगा। तुमने जैसा अपने को जाना है, तुमने जो अहंकार अपने को माना है, तुमने जो तादात्म्य देह और मन के साथ किया है..सब तोड़ देगा। तुम्हारी सब धारणाएं छिन्न-भिन्न हो जाएंगी। तुम वही नहीं रह सकते जो आनंद को जानने के पहले थे। सो प्राण कंपते हैं।
यह बिल्कुल स्वाभाविक है। रेखा, इसमें माफी मांगने की बात ही नहीं।
अगर आनंद के साथ-साथ भागने का भाव पैदा न हो, तो आनंद झूठा है। आनंद के साथ-साथ भागने का भाव पैदा हो, तो आनंद सच्चा है। तुझे अड़चन हो रही है, क्योंकि यह बात तर्कानुकूल नहीं मालूम होती। जब आनंद मिल रहा है, तो तर्क कहता है: फिर भागने की बात क्यों? अरे, आनंद की ही तो हम जीवन भर तलाश करते थे और आज जब मिल रहा है, तो यहां से दूर जाने का बार-बार विचार क्यों उठता है? तो तू इसको कुविचार कह रही है। तू इसकी निंदा कर रही है। तेरी बात भी मेरी समझ में आती है। तू एक दुविधा में पड़ी है। क्योंकि साधारणतः हम सोचते हैं...मगर साधारणतः हम जो सोचते हैं उसका मूल्य ही क्या है? वह अक्सर ही गलत होता है। वह शायद ही सही होता है। वह सही हो नहीं सकता। क्योंकि जो हमारी साधारण सोच-विचार की धारा है, उसका ध्यान से जन्म नहीं होता; वह तो केवल उथली है, ऊपर-ऊपर है, तर्क की है, बौद्धिक है, आत्मिक नहीं है; आत्मिक तो दूर, हार्दिक भी नहीं है। तो तर्क कहता है कि यह बात समझ में नहीं आती, यह तो पहेली हो गई। तर्क कहता है जहां आनंद हो, वहां से तो हटना ही नहीं चाहिए। तो या तो आनंद नहीं है, इसलिए भागने का मन हो रहा है। मगर आनंद तुझे प्रतीत हो रहा है, उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता! तो फिर सवाल उठता है, कोई अदृश्य डोर तुझे बांधे हुए भी लगती है, तो फिर यह विचार क्यों उठता है बार-बार? कहां से उठता है? तो तू चाहती है कि कोई सुलझाव मिल जाए इस दुविधा में। तू शायद सोचती होगी मैं कहूंगा कि तेरे पिछले जन्मों के पापकर्मो के कारण यह कुविचार उठता है। उसे सांत्वना मिल सकेगी। उससे दुविधा कुछ समय के लिए हल हो जाएगी। मगर वह उत्तर झूठ है
सच्चा उत्तर तो यही है कि आ नंद मिलेगा, तो भागने का भाव छाया की तरह उसके पीछे आता है। और जितना बड़ा होगा आनंद, उतने ही भागने की गहन होगी प्रवृत्ति। हालांकि भाग भी न सकोगी। तब और मुश्किल पर मुश्किल होती चली जाती है। भागना असंभव है। भाग भी जाओ तो लौट आना पड़ेगा। क्योंकि आनंद का स्वाद लगा, अब इस जीवन में कहीं भी रस न आएगा। सब जगह विरसता मालूम होगी। यह गीत तुम्हारे कान में पड़ गया, अब कोई गीत तुम्हें लुभाएगा नहीं। ये मोती तुम पर बरसे झरत दसहुं दिस मोती...अब कंकड़-पत्थरों में कैसे अपने को उलझाओगे? जब तक नहीं जाना था तब तक एक बात थी, तब तक कंकड़-पत्थर ही मोती थे, तो उनको इकट्ठा करते आसानी थी। अब मोती पहचाने, मोतियों की झलक मिली, अब कंकड़-पत्थरों में मन उलझाया नहीं जा सकता। जीवन का एक आधारभूत नियम है कि ज्ञान की किसी भी सीढ़ी पर चढ़ जाओ, उससे वापस नहीं उतरा जा सकता।
हमारी भाषा में एक शब्द है: योगभ्रष्ट। वह शब्द गलत है। योग हो तो भ्रष्ट होना असंभव है। और अगर भ्रष्ट होना हो जाए, तो जो था, वह योग नहीं था।
योग का अर्थ होता है: मिलन, सम्मिलन। परमात्मा के आलिंगन में जो पड़ गया हो, परमात्मा का स्वाद जिसने चख लिया हो, उसका पतन हो जाए, वह भ्रष्ट हो जाए, वह गिर जाए, यह असंभव! यह हो ही नहीं सकता। यह कभी हुआ ही नहीं। हां, योग के नाम से कुछ और कर रहा होगा, कुछ का कुछ कर रहा होगा..योग के नाम से प्राणायाम कर रहा होगा, व्यायाम कर रहा होगा; कुछ उल्टा-सीधा कर रहा होगा; तो भ्रष्ट हो सकता है। लेकिन अगर योग हुआ हो..योग अर्थात मिलन..अगर परमात्मा के साथ जरा सा भी संयोग हुआ हो...संयोग में भी वही शब्द है: योग...अगर जरा सी भी एक क्षण को भी हमारी परिधि और उसकी परिधि एक-दूसरे में लीन हो गई हो; एक क्षण को ही सही, हम उसमें खो गए हों और वह हम में खो गया हो, तो फिर गिरने का कोई उपाय नहीं। तब गिरना असंभव है। लेकिन तुम्हारा योग भी योग कहां! योग के नाम से कूड़ा-करकट चल रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन की नई-नई शादी हुई। लेकिन शादी के दूसरे दिन ही उसकी बीबी गुलाबो कहने लगीः ‘मैं अपनी मां के यहां जा रही हूं। ‘ शादी के दूसरे दिन यह होता ही है। पहले दिन ही क्यों नहीं होता, यह आश्चर्य की बात है! इतनी देर भी क्यों लगती है, यह भी सूझ-बूझ के परे है! इस जगत में मिलना क्या है, झगड़ना ही है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक तो पति-पत्नी को अब मित्र नहीं मानते; शत्रु भी नहीं कह सकते, इसलिए एक नया शब्द उन्होंने गढ़ा है: इंटिमेट एनिमी, अंतरंग शत्रु। अब अंतरंग शत्रु का क्या मतलब होता है? ऐसे देखने में बड़े अंतरंग, बड़े अपने..और चैबीस घंटे एक-दूसरे की गर्दन काट रहे हैं।
बहुत नसरुद्दीन ने समझाया: ‘शोभा नहीं देता यह। अभी कल ही शादी हुई और आज तू चली। अरे, चार दिन बाद चली जाना!’ लेकिन गुलाबो न मानी सो न मानी। उसने कहा: ‘मैं तो जा रही हूं। हां, एक बात ख्याल रखना कि पांच बजकर पांच मिनट पर रेडियो से खाना बनाने की तरकीबें नस्र होती हैं, सो तुम लिख लेना। जब मैं वापस आऊंगी तो खाना बना दूंगी। ‘
सो मुल्ला कागज-पेंसिल लेकर रेडियो के सामने बैठ गया। रेडियो उसका अपना तो था नहीं, दहेज में मिला था। और दहेज में जैसी चीजें मिलती हैं सो तुम जानते ही हो! इसलिए एक-एक साथ दो-दो स्टेशन बोल रहे थे। एक जगह से खाना बनाने की तरकीबें और दूसरी जगह से वर्जिश के तरीके आ रहे थे। उसने पूरी लिस्ट बनाई। जब गुलाबो वापस आई तो उसने मुल्ला से लिस्ट पूछी। मुल्ला ने लिस्ट पढ़ कर सुनाई।
लिखा था..
एक प्याला लीजिए, फिर सीना फुलाइए। उसमें दो अंडे फोड़कर डालिए, फिर पेट अंदर कर लीजिए। इसके बाद स्टोव जलाइए, फिर सिर के बल खड़े हो जाइए। स्टोव में और हवा भरिए, आंच को बढ़ाइए, फिर डंड-बैठक लगाइए। आंच को और तेज करिए, अब उल्टे लेट जाइए। उसके बाद पतेली में थोड़ा-सा नमक, काली मिर्च और असली घी डालने के बाद सीधे खड़े हो जाइए। सीधे खड़े होने से कुंडलिनी जाग्रत होती है। अब यही अमल बार-बार करिए। अब अंडा करीबन तैयार हो चुका है। अब उछलिए-कूदिए। अंडा खाने से बहुत लजीज लगेगा। योग-शास्त्र का निचोड़ यही है।
योग से कोई भ्रष्ट होता है! मगर ऐसा योग हो...! पहले तो पहुंचना ही मुश्किल है। इसलिए प्रक्रियाएं साधना, कि इधर सीना फुलाओ, इधर स्टोव में हवा भरो! मगर जितनी उलटी-सीधी बातें हों उतनी लोगों को रुचती हैं। जितनी असंभव मालूम पड़ें उतनी अहंकार को तृप्तिदाई होती हैं।
मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूं: परमात्मा में बहुत कम लोग उत्सुक हैं, क्योंकि परमात्मा को पाना सरलतम घटना है..तुम्हारा स्वभाव है! ..सिर के बल खड़े होने को बहुत लोग उत्सुक हैं, क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। उलटा-सीधा करने में अहंकार को तृप्ति मिलती है कि देखो, मैं कर सकता हूं, कोई और तो करके दिखाए!
क्या-क्या नहीं योग के नाम पर होता रहा है!
पाल ब्रंटन ने भारत के योगियों की खोज की। उसने ऐसे-ऐसे उल्लेख लिखे हैं..अभी इस सदी में ही; वर्षो तक मेहनत की उसने; गांव-गांव, पहाड़ी-पहाड़ी, गुफा-गुफा खोज में लगा रहा..उसने लिखा है, एक जगह उसे एक योगी मिला, जो अपनी दोनों आंखों को निकाल कर लटका लेता था, और फिर वापिस उनको लगा लेता था। उसकी बड़ी ख्याति थी!
आंखों को निकालकर लटकाया जा सकता है। कठिन प्रक्रिया है, घातक भी, मूर्खतापूर्ण भी..क्योंकि इससे कुछ हल नहीं होगा। आंखें निकाल कर भी लटकाओगे तो कोई अंतर्दृष्टि नहीं खुल जाएगी। सिर्प ये आंखें और खराब हो जाएंगी। लेकिन उसकी ख्याति थी। ख्याति यही थी कि यह काम कोई दूसरा नहीं कर सकता। उसने ऐसे लोगों को खोजा जो जहर पी लेते थे, जो सांप से अपनी जीभ पर कटा लेते थे..ऐसे सांपों से जिनका काटा हुआ बचता ही नहीं; इधर काटा कि उधर मरा। मगर उनकी बड़ी ख्याति थी।
मगर सांप को कटाने से और ईश्वर के पाने का क्या संबंधछहै? या कि तुम सोचते हो कोई संबंध है! सांप को कटाने से इतना ही सिद्ध होता है कि तुमने जहर पीने का लंबा अयास कर लिया। इसके अयास की प्रक्रिया होती है। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लोग जहर पीना शुरू करते हैं, जितनी मात्रा में पचाया जा सके। फिर रोज-रोज मात्रा बढ़ाए जाते हैं, बढ़ाए जाते हैं, बढ़ाए जाते हैं। फिर ऐसे सांपों से कटवाना शुरू करते हैं कि जिनका काटा हुआ मरता नहीं, बेहोश होता है सिर्प। फिर धीरे-धीरे और खतरनाक सांप। धीरे-धीरे उनका पूरा शरीर विषाक्त हो जाता है इतना विषाक्त हो जाना है कि सांप काटे तो सांप मर जाए।
तुमने विष-कन्याओं की कहानियां सुनी होंगी कि पुराने जमाने में राजा-महाराजा विष-कन्याएं रखते थे। उन्हें बचपन से ही जहर पिला कर बड़ा किया जाता था। यह ऐतिहासिक तथ्य है। वे इतनी जहरीली हो जाती थीं..सुंदर लड़कियां, उनके रक्त में इतना जहर मिल जाता था कि रक्त बचता ही नहीं था, जहर ही जहर जैसे उनके रक्त में घूमता था। उनका सौंदर्य ऐसा होता था कि कोई भी उनसे मोहित हो जाए। वे जिसको चूम लें, वह आदमी चुंबन से ही मर जाता था। इन विष-कन्याओं को भेज देते थे अपने दुश्मन राजाओं के पास। स्वभावतः उनको देख कर कोई भी आकर्षित हो जाए..और राजाओं का तो धंधा ही कुछ और नहीं था, स्त्रियों को बढ़ाए जाओ, हरम को बड़ा किए जाओ। तो जो सुंदर स्त्री दिखाई पड़ जाए, वह हरम में आजाए। मगर यह स्त्री जीवन का अंत कर देती थी। इससे एक दफे चुंबन कर लिया कि मारे गए। फिर बचना संभव नहीं।
तो यह हो सकता है लंबे अयास के बाद सांप भी तुम्हें काटे, भयंकर सांप भी तुम्हें काटे, तो भी तुम्हें जहर न चढ़े। लेकिन इससे परमात्मोपलब्धि का क्या संबंध है! यह तो सब मदारीगिरी है।
इस तरह के काम करने वाले लोग भ्रष्ट हो सकते हैं। मगर पहली बात जान लेना कि वे योगी थे ही नहीं। इसलिए योगभ्रष्ट शब्द बिल्कुल गलत है। हां, कोई बुद्ध कभी भ्रष्ट नहीं हुआ है, कोई जिन कभी भ्रष्ट नहीं हुआ है। हो नहीं सकता। परमात्मा को पा लेने के बाद गिरने का उपाय नहीं है। तुम चाहो तो भी उपाय नहीं है।
रेखा! जो तुझे घट रहा है, वह बिल्कुल स्वाभाविक है। माफी तो मांग ही मत! अगर आधा हिस्सा, जिसके लिए तू चिंतित है, जिसको तू कुविचार कह रही है, न घट रहा होता तो माफी मांगने की बात थी। वह घट रहा है तो बिल्कुल नियम के अनुकूल घट रहा है। वह सबूत है कि आनंद उपलब्ध हो रहा है। और मैं तुझे जानता हूं; तूने जीवन में सिवाय दुख के जाना क्या है? लेकिन चूंकि जीवन भर का अयास है दुख का, तो दुख छोड़ा नहीं जाता। लौट-लौट कर मन होता है अपने पुराने घर में समा जाने का। और दुख में कई मजे थे।
एक मजा तो यह था कि सबकी सहानुभूति मिले, सांत्वना मिले। लोग सहानुभूति के दीवाने हैं। क्योंकि प्रेम तो मिलता नहीं इस दुनिया में। प्रेम है असली सिक्का। लोग चाहते तो हैं प्रेम, मगर प्रेम तो मिलता नहीं, तो ठीक है, चलो झूठा सिक्का सही। सहानुभूति झूठा सिक्का है। सहानुभूति कोई सदगुण नहीं है। सहानुभूति नकली बात है, मिथ्या है। लेकिन जब प्रेम न मिले तो लोग सहानुभूति की आकांक्षा करने लगते हैं।
पति अगर पत्नी को प्रेम न करता हो तो पत्नी बीमार रहने लगेगी। क्योंकि जब वह बीमार रहती है तो पति आकर बैठता है, सिर पर हाथ रखता है..बे-मन से ही सही, झल्लाया है भीतर, कि थका-मांदा दप132तर से लौटा हूं, सोचा था कि चल कर बैठ कर टेलीविजन देखूंगा, कि रेडियो सुनूंगा, कि अखबार पढूंगा, कि आराम से बिस्तर पर लेटूंगा, मगर वह भी भाग्य में नहीं है। इधर पत्नी पहले से ही बिस्तर पर लेटी हुई है। पत्नी स्वस्थ हो तो कोई चिंता की जरूरत नहीं, लेकिन पत्नी अगर बीमार हो तो पति को कम से कम थोड़ी आदमियत तो दिखानी पड़ती है। तो सिर पर हाथ रखेगा, कुशल समाचार पूछेगा, ...और पत्नी की कुल आकांक्षा थी प्रेम की!
अगर दुनिया में प्रेम हो तो मेरे निरीक्षण से सत्तर प्रतिशत बीमारियां समाप्त हो जाएं। कम से कम सत्तर प्रतिशत बीमारियां समाप्त हो जाएं। लेकिन समाज प्रेम के खिलाफ है, राज्य प्रेम के खिलाफ है...प्रेम तो पाप है। हम तो प्रेम को जड़ से काट देते हैं। हम चाहते नहीं कि एक युवक और युवती मे प्रेम हो। हम चाहते हैं विवाह हो। विवाह का मतलब दूसरे निर्णय लें। मां-बाप निर्णय लें। समझदार लोग निर्णय लें। जैसे कि उम्र बढ़ जाने से कोई समझ आजाती है! काश, समझ इतनी सस्ती होती! जैसे कि बूढ़े होने से कोई समझ आजाती है! काश, बुढ़ापा और समझदारी पर्यायवाची होते तो दुनिया में बुद्ध ही बुद्ध हो जाते..बूढ़े होते-होते सभी बुद्ध हो जाते!
बूढ़े उतने ही बुद्धू रहते हैं जितने पहले थे। थोड़े ज्यादा ही हो जाते हैं। क्योंकि उम्र का अनुभव, बुद्धूपन का लंबा विस्तार और सघन हो जाता है। ये दूसरे निर्णय करेंगे। और स्वभावतः निर्णय का मतलब है कि प्रेम को जगह नहीं रहेगी। और हर चीज को जगह रहेगी। ये सोचेंगे कि धन-दौलत कितनी मिलेगी, दहेज कितना मिलेगा, परिवार की प्रतिष्ठा कैसी है, घर कुलीन है कि नहीं, घर का इतिहास कैसा है..हजार बातें सोचेंगे सिर्प एक बात नहीं सोचेंगे कि युवक और युवती में प्रेम भी है या नहीं! वह तो बात ही सोचने की नहीं है! और सब बातें विचार करने की। ऐसे सदियों-सदियों से हम विवाह कर रहे हैं, प्रेम को जड़ से काट देते हैं। फिर पत्नी भी आकांक्षा से भरी है प्रेम की, वह भी चाहती है प्रेम मिले, प्रेम मिलता नहीं..सहानुभूति मिल सकती है ज्यादा-से-ज्यादा। सहानुभूति भी तभी मिल सकती है जब वह बीमार हो, रुग्ण हो, परेशान हो। और पति भी सहानुभूति से ही अपने को तृप्त कर सकता है। तो जहां सहानुभूति मिल जाती है, उन्हीं को वह मित्र समझ लेता है। जो उसके दुख में दो आंसू गिराते हैं, उन्हीं को मित्र समझ लेता है। तुम किसको मित्र कहते हो? जो तुमसे सहानुभूति प्रकट करता है, जो तुम्हें सांत्वना देता है।
रेखा, तू भूल ही गई है कि प्रेम क्या है! सभी को भुला दिया गया है। और जब दुख छूटने लगता है तो सहानुभूति छूटने लगती है। यहां तो रोज मेरे पास शिकायतें आती हैं कि आपके संन्यासी सहानुभूतिपूर्ण क्यों नहीं हैं? वे किसी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाते। तुम अगर कीचड़ में भी पड़े हो तो वे चुपचाप तुम्हारे पास से गुजर जाते हैं। कि तुम्हारी मौज, अगर कीचड़ में तुम्हें मजा आ रहा है तो यह सज्जनोचित नहीं है कि इसमें बाधा डाली जाए। तुम ग167े में पड़े हो और वे हाथ भी नहीं बढ़ाते निकालने को। क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं, तुम ग167े में जान कर पड़े हो। तुम पड़े ही इसलिए हो कि कोई हाथ बढ़ाए। और जब तक लोग हाथ बढ़ाते रहेंगे तब तक तुम ग167ों में गिरते रहोगे। जब लोग हाथ बढ़ाना बंद कर देंगे, तभी तुम ग167ों में गिरना बंद करोगे।
तो लोगों को लगता है कि मेरे संन्यासी जैसे हृदयहीन हैं, संवेदनशून्य हैं, कठोर हैं, किसी के प्रति सहानुभूति नहीं दिखलाते। तुम अगर रो भी रहे हो, संन्यासी तुम्हारे पास से निकलते जाएंगे। कोई यह भी नहीं पूछेगा कि आप क्यों रो रहे हैं? आपकी मर्जी! दिल खोलकर रोइए! कोई रोकेगा नहीं। रोकना उचित भी नहीं है। आंसू बह जाने दो। आंसू बह जाएंगे तो हलके हो जाओगे। मगर अगर तुम आंसू इसलिए गिरा रहे थे कि कोई तुम्हारे कंधे पर हाथ रखे, कोई तुम्हारे सिर पर हाथ रखे, कोई पुचकारे, तो यह मेरे संन्यासी नहीं कर सकते! क्योंकि उसका अर्थ हुआ कि वह तुम्हारे दुखी जीवन में सहयोगी हो रहे हैं और तुम्हें दुखी रखने का उपाय कर रहे हैं। प्रेम तो दे सकते हैं वे, लेकिन सहानुभूति नहीं।
मगर प्रेम पाने का ढंग और होता है, सहानुभूति पाने का ढंग और होता है।
सहानुभूति पाने का ढंग होता है: रुग्ण होना और प्रेम पाने का ढंग होता है स्वस्थ होना। प्रेम पाने का ढंग होता है: नाचो, गाओ, उल्लसित होओ; तो तुम्हें प्रेम मिलेगा। और सहानुभूति पानी है तो दुखी होओ, रोओ, अपंग हो जाओ, कुरूप हो जाओ, लंगड़े हो जाओ, लूले हो जाओ। तुम देखते हो रास्तों पर भिखमंगे बैठे हुए हैं! उनमें सभी लंगड़े नहीं है; न सभी लूले हैं, न सभी अंधे हैं।
एक दिन एक आदमी ने एक पुल के पास बैठे हुए अंधे भिखारी को अठन्नी दी। उस अंधे ने अठन्नी को देखा और कहा कि नकली है। उस आदमी ने कहा, हद हो गई! मैं चला-चला कर हैरान हो गया, कहीं नहीं चली जब तो तुझे दी। मगर यह सोच कर दी कि तू अंधा है। तू कैसे समझा कि नकली है? उसने कहा कि मैं अंधा नहीं हूं। यहां जो भिखारी रोज बैठता है, वह अंधा है। वह आज सिनेमा देखने गया है। मैं तो गूंगा हूं, जो पुल के उस तरफ रोज बैठता है। आज यह जगह खाली थी, इसलिए यहां बैठ गया हूं।
ऐसे गूंगे हैं जो बोल रहे हैं! ऐसे अंधे हैं सिनेमा देखने गए हैं!
पैरों पर पट्टियां बांधे हुए हैं, पैरों से दुर्गंध उठ आई है, पैरों को सड़ाया हुआ दिखला रहे हैं..क्योंकि तुम्हारी सहानुभूति पानी है। अगर कोई स्वस्थ आदमी आकर खड़ा हो जाता और कहता कि दो पैसे दे दो, तो तुम फौरन नाराज हो जाते, कि भले-चंगे हो, क्या जरूरत तुम्हें दो पैसे की? कुछ काम करो! स्वास्थ्य का कोई सम्मान नहीं है तुम्हारे मन में। तुम प्रेम से दे ही नहीं सकते। तुम्हें तो मजबूर किया जाए..यही आदमी लंगड़ा होकर आए, अंधा होकर आए, तो तुम बेचैनी में पड़ जाते हो कि अब न दो तो जरा अच्छा नहीं लगता, अपराध-भाव पैदा होता है कि अरे, अंधे को लौटा दिया! बेचारा अंधा! चलो, दो पैसे दे ही दो, छुटकारा करो! तुम दो पैसे इसको नहीं दे रहे हो, अपने अपराध-भाव से बचने के लिए दे रहे हो।
वह जो पति आकर पत्नी के सिर पर हाथ रखे है, अपराध-भाव से बचने के लिए रखे हुए है।
रेखा, दुख में हमारे बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं। इसलिए दुख छूटते-छूटते ही छूटता है। समझपूर्वक, जागरूकता रखी, तो ही छूट पाएगा। और अब संभव है जागरूकता, क्योंकि आनंद की तुझे पहली झलक मिलनी शुरू हुई है।
मैं तो यहां एक प्रेम का मंदिर बना रहा हूं। यहां सहानुभूति की गुंजाइश नहीं है। यहां लूले-लंगड़े, अंधे भिखमंगों को पैदा करने का उपाय नहीं किया जा रहा है। और पृथ्वी लूले-लंगड़े-अंधों से भरी हुई है।
मैं ऐसे घरों में ठहरा हूं...वर्षो तक मैं यात्रा कर रहा था तो सब तरह के घरों में ठहरा। शास्त्रों में जो नहीं मिला, वह घरों में ठहरने से मिला। ...पत्नी मुझसे बैठी भली-चंगी बात कर रही है; एकदम प्रसन्न, सब ठीक; और पति ने घंटी बजाई, बस वह लेट गई बिस्तर पर। मैंने पूछा: क्या हो गया तुझे? मेरे सिर में दर्द हो रहा है।
पति का आगमन और सिर में दर्द, एकदम! और मैं यह भी नहीं कहता हूं कि वह झूठ कह रही है। यह भी मैं नहीं कहूंगा। मैं यह नहीं कह सकता कि वह कल्पना कर रही है। इतने बार किया है यह दर्द कि अब यह कल्पना नहीं रहा है, अब यह वास्तविक हो गया है। एक घंटी बजी कि यह दर्द पैदा हुआ! ऐसा नहीं है कि यह दर्द नहीं हो रहा है अब, यह हो ही रहा है! निरंतर अयास का यह परिणाम है।
पावलफ ने, रूस के एक बड़े मनोवैज्ञानिक ने इसके लिए सिद्धांत ही खोजा..कंडीशंड रिप132लेक्स। वह अपने कुत्ते को रोटी देता है। रोटी दिखाता है तो कुत्ते के मुंह से लार टपकती है। साथ में घंटी बजाता है। अब घंटी बजाने से कुत्ते के मुंह से लार नहीं टपकती; घंटी से और लार टपकने का क्या संबंध! घंटी की आवाज में कोई स्वाद होता है! लेकिन रोटी देता है और घंटी बजाता है, तो घंटी और रोटी दोनों धीरे-धीरे जुड़ जाते हैं, संयुक्त हो जाते हैं। उनका एक साहचर्य हो जाता है, ऐसोसिएशन हो जाता है। फिर पंद्रह दिन बाद सिर्प घंटी बजाता है और कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती है। अब कुत्ता घंटी बजने से तत्क्षण रोटी की सोचता है। अब घंटी उसके लिए रोटी का पर्यायवाची हो गई।
हमारी जिंदगी करीब-करीब ऐसे ही साहचर्यो से भरी है। वह जो पति की घंटी बजी न, स्त्री को सिरदर्द हुआ। पावलफ को इतनी खोजने की जरूरत नहीं थी। उसने बेचारे ने कोई तीस साल के बाद खोजा। यह मैं दो-चार घरों में ठहर कर समझ गया। उसने कुत्ते पाल रखे थे। कोई पांच सौ कुत्ते पाल रखे थे। वह कुत्तों पर प्रयोग करता रहा। जिंदगी कुत्तों में ही बिताई उसने। इसके लिए इत्ती कोई जरूरत नहीं थी, यह तो जरा आदमी को गौर से देखो और तुम पाओगे वह आदमी में ही मिल जाएगा सिद्धांत।
तुम भी जानते हो कि नींबू का कोई नाम ले दे तो तुम्हारे मुंह में पानी आजाता है..इसके लिए कोई पावलफ को खोजने की जरूरत है! अब नींबू शब्द में कोई स्वाद तो नहीं है, मगर साहचर्य है। नींबू शब्द कहा नहीं कि बस, लार बहनी शुरू हई! मगर यह बहेगी सिर्प उनको जो नींबू शब्द का अर्थ समझते हैं। अब यहां इटालियन बैठे हैं, 179ोंच बैठे हैं, जर्मन बैठे हैं, उनको कुछ नहीं होगा। हालांकि यही शब्द नींबू वे भी सुन रहे हैं। मगर कोई लार इत्यादि नहीं बह रही है। क्योंकि यह साहचर्य उनको नहीं हुआ।
तो निश्चित ही उन स्त्रियों को सिरदर्द हो जाता था। पति को देखकर और स्त्री को सिरदर्द न हो तो समझो कि पतिभक्त नहीं है, पतिव्रता नहीं है। इसका मन कहीं और लगा है। पति को देखकर सिरदर्द होने लगे तो समझो कि पतिव्रता है; अभी भी पति से कुछ संबंध है। अरे, सात फेरे पड़े हैं और सिरदर्द भी न हो तो सब मंतर-तंतर जो पढ़े गए, बेकार गए!
एक बूढ़े ने विवाह किया बुढ़ापे में। किया भी एक बुढ़िया से। और तो कोई उससे राजी भी नहीं था करने को। भारत में तो यह हो नहीं सकता। यहां तो जवान तक झिझकते हैं विवाह करने से। चारों तरफ विवाह की जो दशा देखते हैं उससे घबड़ाहट होती है। यह अमरीका की कहानी होगी। यहां तो हालत बड़ी खराब है। ...
मैं विश्वविद्यालय से आया तो मुझसे पूछा गया कि विवाह? मेरे पिता के एक मित्र थे, वकील थे, उन्होंने पूछताछ की मुझसे। वकील थे तो उन्होंने कहा: मैं समझाऊंगा-बुझाऊंगा। मैंने उनसे कहा: विवाह! तो इस पर हम दोनों विवाद कर लें। अगर मैं जीत जाऊं तो विवाह फिर तुम्हें अपना छोड़ना पड़े, तलाक लेना पड़े पत्नी से। तुम जीत जाओ, मैं विवाह करने को राजी हूं। उन्होंने यह नहीं सोचा था। वह तो सिर्प मुझे समझाने आए थे। मैंने कहा कि एकतरफा नहीं हो सकता सौदा। और यह विवाद एकांत में नहीं होगा। पूरे गांव को खबर की जाएगी, एक न्यायाधीश को बिठाया जाएगा, अगर तुमने सिद्ध कर दिया कि विवाह अनिवार्य है, शुभ है, उपादेय है, तो मैं विवाह करूंगा। और अगर मैंने सिद्ध कर दिया कि उपादेय नहीं है, अशुभ है, घातक है, तो तुम्हें तलाक लेना पड़ेगा। उस दिन से वे जो नदारद हुए तो दिखाई ही न पड़े! मैं उनके घर जाऊं तो उनकी पत्नी कहे कि वे बाहर गए हुए हैं!
जब कई दफा मैं गया तो उनकी पत्नी ने कहा: क्यों उनके पीछे पड़े हुए हो? क्योंकि उन्होंने बताया पत्नी को कि यह आदमी तो खतरनाक है। मैंने तो सिर्प समझाने के लिए कि भई, युवक है अभी, समझा दो, अब यह मेरे पीछे पड़ गया है। यह कहता है कि विवाद करवाएंगे। और समझ लो कि मैं जीत गया..जिसकी संभावना कम है, क्योंकि यह आदमी तेज है। और सच तो यह है कि मैं विवाह के पक्ष में कहूंगा क्या? मुहल्ला भर हंसेगा। क्योंकि मेरे-तेरे बीच जो हो रहा है, जितना मैं अनुभव करता हूं, कौन जानता है कि विवाह में क्या-क्या झेलना पड़ी। और यह सब उठाएगा मामले! इसको एक-एक बात पता है। यह बचपन से हमारे घर में आता-जाता रहा है। यह हो सकता है तुझ तक को ले जाए विवाद में घसीट कर। तो नाहक की भद्द होगी, फजीहत होगी! और मैं झूठ भी नहीं बोलना चाहता। सच तो यही है कि अगर मैं भी बच सकता..लेकिन अब तो बहुत दूर निकल आया, अब बचने का उपाय नहीं। मैं इसको किस मुंह से कहूं कि तू विवाह कर! ...
तो भारत में तो युवा भी विवाह करने में धबड़ाए होते हैं। कहानी अमरीका की रही होगी।
एक अस्सी साल के बूढ़े ने एक पचहत्तर साल की बुढ़िया से विवाह कर लिया। अब विवाह किया तो हनीमून के लिए जाना पड़ा। एक चीज में से दूसरी चीज निकलती है। डब्बे के भीतर डब्बा! अब हनीमून अस्सी साल की उम्र में! न आंखों से सूझे, न पैरों से चला जाए, अस्थि-पंजर बचे मात्र, हनीमून के लिए गए! जाना पड़ा। क्योंकि पत्नी एकदम पीछे पड़ी है कि विवाह किया तो हनीमून को तो जाना ही पड़ेगा। चलो, हनीमून सही! अब हनीमून में क्या करोगे? तो बूढ़े ने बुढ़िया का हाथ हाथ में लिया..अब और क्या करे? ..थोड़ी देर हाथ को दबाता रहा..ज्यादा दबा भी नहीं सकता था..फिर दोनों सो गए। फिर दूसरे दिन थोड़ा कम दबाया, क्योंकि पहले दिन बहुत थक गया। और तीसरे दिन जब हाथ दबाने को उसने पत्नी का हाथ पकड़ा तो पत्नी ने कहा: आज तो मेरे सिर में दर्द है; और वह करवट लेकर सो गई।
सिर में दर्द, सहानुभूति पाने के उपाय, बीमारियां..बच्चे सीख जाते हैं यह कला। और बुढ़ापे तक यह कला पीछे चलती है। लोग इसीलिए तो अपना दुख का रोना रोते हैं। दुख का रोना ही क्यों रोते हैं? इसलिए कि कोई सहानुभूति दे।
रेखा, क्यों सहानुभूति से राजी होना? प्रेम मिल सकता है। प्रेम बरस रहा है। सिर्प हम सहानुभूति के योग्य ही रह गए हैं, तो हम प्रेम से वंचित हैं। और आ नंद जब मिलेगा, तो अहंकार गलेगा। उससे भय पैदा होता है, भयंकर उत्पात भीतर पैदा होता है, क्योंकि अहंकार ही हमारा सब कुछ है। ‘मैं कुछ हूं!’ और आनंद मिला कि उसने मिटाया यह ‘मैं‘’ का भाव। ‘मैं’ को तो गला ही डालेगा, राख कर देगा, दग्ध कर देगा। यह ‘मैं‘ का बीज ही तो महापाप है। यह ‘मैं’ का बीज ही तो तुम्हें जन्मों-जन्मों तक ले जाता है। आनंद आएगा तो उसकी बाढ़ में यह ‘मैं’ बह जाएगा..यह कूड़ा-करकट है। और इस ‘मैं’ के बहने में घबड़ाहट लगती है।
फिर तुझे और भी डर लगते होंगे। तेरे पति भी यहां हैं, तू उन पर निगरानी रखती है, वे तुझ पर निगरानी रखते हैं। पति-पत्नी का काम ही क्या है? पारस्परिक निगरानी! एक-दूसरे की जांच-पड़ताल! कहां थे, क्या किया, क्यों गए वहां, क्या बोले? और पत्नियां इसमें इतनी कुशल हो जाती हैं कि मैं इस बात की भविष्यवाणी करता हूं कि आने वाले दिनों में पुलिस इंस्पेक्टर और जासूसी विभाग के अधिकारी स्त्रियां ही होंगी। पुरुषों को इतनी अकल नहीं है। स्त्रियों को तो, ऐसा हिसाब लगाती हैं वे कि जरा सा इशारा उनको पकड़ में आजाए! जैसे कोट पर एक बाल मिल गया, बस पर्याप्त है। वे खोज लेंगी औरत किसका यह बाल है। ये बड़े-बड़े जासूस भी इतना काम नहीं कर सकते। इसी पति से निकलवा लेंगी। इसकी ऐसी जान खाएंगी कि इसको उगलना ही पड़ेगा। जब तक यह उगल न देगा तब तक वे इसकी जान खाती ही रहेंगी। सिर्प आत्मरक्षा के लिहाज से यह कहेगा कि अच्छी बात! और नहीं उगलेगा तो भी वे इसकी जांच-पड़ताल करके पता लगा लेंगी। इससे बचा नहीं जा सकता। और पति भी नजर लगाए बैठे हैं कि जब दप132तर जाते हैं तो पत्नी किससे बात करती है, क्या बात करती है? मोहल्ले में किसी के साथ राग-रंग तो नहीं चल रहा है? किसी से दोस्ती तो नहीं बन रही है?
पति भयभीत है, क्योंकि उन्होंने पत्नी पर कब्जा कर रखा है। पत्नी भयभीत है, क्योंकि पति पर कब्जा कर रखा है।
यहां मेरे आश्रम में आते ही जो सबसे बड़ा उपद्रव खड़ा होता है, वह होता है पति-पत्नी के लिए। क्योंकि यहां एक मुक्त वातावरण है। यहां स्त्री-पुरुषों के बीच दीवालें नहीं हैं। ...पुराने ढब के संन्यासी कभी-कभी मुझे आकर कहते हैं कि कम से कम इतना तो करो कि बीच में एक रस्सी! स्त्रियां इधर बैठें, पुरुष इधर बैठें!
एक जैन मुनि सुनने आना चाहते थे तो उन्होंने पहली खबर यह भिजवाई कि इतना ख्याल रखना कि मुझे किसी स्त्री के पास न बैठना पड़े! क्या इतना भय है स्त्री से? ! क्या इतनी घबड़ाहट है? ! मगर हम आदी हो गए हैं इस तरह की रेखाओं के, बांटने के। यहां कोई बंटाव नहीं है, यहां किसी को फिक्र नहीं है। यहां एक मुक्त आकाश है। और जो पति-पत्नी हमेशा बंधे रहे और एक-दूसरे को बांधे रहे, जब वे यहां आते, तो उनको बड़ी मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि इस मुक्त आकाश में और पक्षी उड़ रहे हैं, और उसमें पति भी पंख मारना चाहता है, पत्नी भी पंख मारना चाहती है। जब सभी उड़ रहे हैं, तो पंख फड़फड़ाते हैं लोग!
अब रेखा के पति हैं वेदांत, वे पंख फड़फड़ाते हैं। हालांकि अमरीका में थे, मगर अमरीका में नहीं रेखा ने उन्हें पंख फड़फड़ाने दिया। यह आश्रम अमरीका से बहुत आगे जा चुका है! सो डर लगता है, सुरक्षा को भी डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि यह पति नदारद ही हो जाएं। भय लगता है। रोज यहां जोड़े टूट जाते हैं। क्योंकि मैं किसी को जबरदस्ती साथ नहीं रखना चाहता। प्रेम जोड़े तो काफी। अगर प्रेम ही न जोड़ता हो तो फिर और जोड़ना सब व्यर्थ है। यहां आकर कई जोड़े टूट जाते हैं। जो जोड़ा यहां आकर न टूटे, समझना वही जोड़ा था। बाकी काहे का जोड़ा था! ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा!’...जोड़ा वगैरह कुछ नहीं...‘भानुमती ने कुनबा जोड़ा!’...बंधे थे किसी तरह।
स्वभावतः स्त्रियों को ज्यादा भय पकड़ता है पुरुषों की बजाय। उसका कारण है कि स्त्रियों को हमने अपंग कर दिया है सदियों-सदियों में। उनकी आर्थिक स्वतंत्रता छीन ली है। वे पतियों पर पूरी तरह निर्भर हो गई हैं। घबड़ाहट उनको ज्यादा आनी स्वाभाविक है। बच्चे हैं, आर्थिक रूप से सब कुछ पति पर निर्भर है और यह पति कल चल पड़े, यह किसी और का हाथ गह ले, तो फिर मेरा क्या हो? तो पत्नी चिंतित होती है। भय लगता है उसे।
मगर रेखा, कोई भी की जरूरत नहीं है! कम्यून के जीवन का अर्थ ही यही है कि तेरी जिम्मेवारी, तेरे बच्चों की जिम्मेवारी, सबकी जिम्मेवारी अब कम्यून की है। एक बार इस संघ का हिस्सा बन गई, अब फिक्र छोड़, कोई सुरक्षा की चिंता न कर! और जबरदस्ती बांध कर रखने से कुछ हल है? और मैं नहीं मानता कि वेदांत बहुत दूर जा सकते हैं! थोड़ा उड़ लेने दे। थोड़े यहीं चक्कर मारेंगे, जैसे कबूतर चक्कर मारते हैं और फिर आकर अपने घर बैठ जाते हैं। और थोड़े चक्कर मारने के बाद पहली दफा उनको समझ में आना शुरू होगा कि सभी स्त्रियां एक जैसी हैं। लेकिन स्त्रियां यह समझने नहीं देतीं, यह मौका ही नहीं देतीं। सभी पुरुष एक जैसे हैं। ऊपर के भेद हैं। जैसे इस गाड़ी का बानेट इस ढंग का और उस गाड़ी का बानेट उस ढंग का, बस इस तरह के भेद हैं। और कोई ज्यादा भेद नहीं है..बानेट के भेद हैं।
किसी की नाक जरा लंबी है, किसी की जरा छोटी है। अब नाक क्या है? एक बानेट। छोटी नाक से भी श्वास चलती है मजे से, लंबी नाक से भी सांस चलती है मजे से, चपटी नाक से भी चलती है। सवाल सांस चलने का है। हां, श्वास न चले तो कुछ चिंता की बात है। श्वास चलती रहे तो फिर ठीक है! नाक लंबी हो कि छोटी हो, क्या फर्क पड़ता है? कि किसी के बाल काले हैं और किसी के सफेद हैं और किसी के और रंग के हैं; किसी की आंखें हरी हैं, और किसी की नीली हैं और किसी की काली हैं; ये सब ऊपर-ऊपर के भेद हैं; इनमें कुछ सार नहीं है। लेकिन अगर लोग एक-दूसरे का अनुभव कर सकें तो इन व्यर्थ की बातों से जल्दी ही ऊपर उठ जाते हैं..और तभी जीवन में पहली दफा सार्थक संबंध शुरू होते हैं। मगर हम व्यर्थ से ही मुक्त नहीं होने देते तो सार्थक संबंध कैसे शुरू हों?
पत्नी घेरा डाले है, पति घेरा डाले है। उस घेरे के कारण यह आशा बनी रहती है कि पता नहीं दूसरे जगह क्या-क्या हो रहा है? पता नहीं दूसरी स्त्रियों में कैसा सौंदर्य है? पता नहीं दूसरे पुरुषों में कैसा आनंद है? यह भ्रांति बनी रहती है। यह भ्रांति टूट जाए, सरलता से टूट जाए। मैं एक ऐसी दुनिया चाहता हूं जहां यह भ्रांति टूट जानी चाहिए। जहां यह बात समझ में आजानी चाहिए कि ऊपर के भेदों में कुछ फर्क नहीं है, असली सवाल आंतरिक है। और आंतरिकता बड़ी और बात है।
अब रेखा प्रेम करती है वेदांत को। वेदांत भी प्रेम करते हैं रेखा को। दोनों में मैंने झांककर देखा और पाया कि दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम है, लगाव है। मगर जीवन में कभी स्वतंत्रता नहीं मिली, तो जीवन में कुछ उत्सुकताएं बाकी रह गई हैं। उनसे निपट ही लेने दो! उन उत्सुकताओं से पार हो जाने दो।
घबड़ाओ मत, भयभीत न होओ! संघ का यही अर्थ होता है, संघ के सदस्य होने का यही अर्थ होता है कि अब जिम्मेवारी संघ की है। तुम्हारे बच्चे संघ के हैं, तुम संघ की हो। अब कोई असुरक्षा नहीं है। अब व्यक्तिगत भाषा में सोचना बंद करो! संघम् शरणम् गच्छामि। अब तो संघ के शरण में अपने को समर्पित करो। तो यह भय चला जाएगा। यह भागने की बात भी चली जाएगी।
और भागना भी चाहो तो भाग न सकोगी। जीवन भर तुमने दर्द ही तो पाया है, भागकर जाओगी कहां? उस अतीत के जीवन में सिवाय दर्द के और कुछ भी नहीं है। हां, अपने को हम ढांके रखते हैं, छिपाए रखते हैं..यही सज्जनोचित मालूम होता है। क्या फायदा कि अपने दुख को रोएं? लेकिन मेरे सामने कुछ भी छिपेगा नहीं। मेरी आंखें आर-पार देखती हैं। मैं तुम्हारे भीतर सिर्प दुख ही दुख देखता हूं। अतीत तो व्यर्थ गया है, लौट कर जाने की शरण कहां है वहां, आगे बढ़ो! कोई नहीं चाहता कि अपने दर्द में किसी को साझीदार बनाए, क्योंकि दीनता मालूम होती है, हीनता मालूम होती है। इसलिए हम ऊपर से मुस्कराते रहते हैं। ऊपर से एक वेश बनाए रखते हैं।
लेकिन दर्द के अपने ढंग हैं कहने के। तुम कितना ही हंसो, तुम्हारी हंसी में भी आंसू हो सकते हैं। क्योंकि आंसुओं में भी कभी हंसी होती है। ऐसे भी आंसू हैं जो आनंद के होते हैं और ऐसी मुस्कराहटें हैं जो सिर्प दुख को छिपाती हैं..और ठीक से छिपा भी नहीं पातीं। तुम्हारी भाव-भंगिमा कह जाती है; तुम्हारा उठना-बैठना कह जाता है।
अब रेखा को जब भी मैं देखता हूं तो मुझे पीड़ा होती है। पीड़ा इस बात की कि उसने दुख ही जाना है। मगर यह उसकी ही पीड़ा नहीं है, सारी मनुष्यता की पीड़ा है।
मैंने कभी न चाहा जग को दुख का साझीदार बनाऊं
पर अनजाने ही गीतों में मन का दर्द उभर आता है!

नयनों का हर मोती मेरा पर सुख के पल सदा बिराने,
अनुभव-सागर में डूबा तो सत्य लगा मुझको अपनाने;
विरहाकुल हो जब भी भटका कण-कण में तुमको ही देखा,
पर यदि पास हुए तुम मेरे परिचित भी सब लगे अजाने।

मैंने कभी न चाहा तुमको पलकों में ही सीमित कर लूं,
पर अनजाने ही अंतर में कोई रूप निखर आता है।

मन का दर्द उभर आता है!!

कुछ कहते हैं इन गीतों में कोई शाश्वत सार नहीं है,
दुख का ही सरगम है इनमें सुख की मधु मनुहार नहीं है;
कण-कण में पीड़ा मुसकाती, अंबर की पलकें भीगी हैं,
धरती रोए पर मैं गाऊं मुझको यह स्वीकार नहीं है;

मैंने कभी न चाहा जग को इन गीतों से विह्व कर दूं,
पर अनजाने विकल स्वरों में दर्द स्वयं मुझको गाता है!

मन का दर्द उभर आता है!!

यदि कुरूपता साथ न होती सुंदरता का मान न होता,
पतझर में यदि धरती हंसती मधुऋतु का सम्मान न होता;
करुणा-ममता यहां न होती यदि आंसू का हार न होता;
मनुज अधूरा ही रह जाता यदि अभाव का ज्ञान न होता;
मैंने कभी न चाहा पथ को कांटों से ही दुर्गम कर दूं,
पर अनजाने ही फूलों में कोई शूल संवर आता है!

मन का दर्द उभर आता है!!
मैं जब भी देखता हूं किसी संन्यासी के भीतर, किसी व्यक्ति के जो दीक्षा लेने को तत्पर होकर आया है, तो दर्द ही दर्द, पीड़ा ही पीड़ा, कांटे ही कांटे। एक फूल नहीं खिला तुम्हारे अतीत में। भाग कर जाने की जगह कहां है! और अब जब कि मधुमास आने के करीब है; और अब जब कि वसंत द्वार पर दस्तक दे रहा है; रेखा, भागोगी भी कैसे? भाग कैसे सकोगी? और मैंने जो पुकार दी है, वह कहीं भी सुनाई पड़ती रहेगी। कितने ही दूर जाओ, भाग जाओ वापिस सनफ्रांसिस्को, तो भी कुछ नहीं होगा। मेरी आवाज वहां भी कानों में आती ही रहेगी। इसलिए ये भागने इत्यादि की बातों में व्यर्थ समय मत गंवाओ, व्यर्थ ऊर्जा मत लगाओ। यही ऊर्जा जागने में लगाओ..भागने में क्या है! पिछली जिंदगी तो जी लिए एक ढंग से, कुछ पाना होता तो पा लिया होता, कुछ पाया नहीं, हाथ खाली हैं। अब मैं कहता हूं कि मोतियों से भर जाती है झोली, मोती बरस रहे हैं; मुझ पागल की बात मानो; होशियारों की बात मान कर पिछला जीवन गंवाया, अब किसी पागल की बात मानकर भी देख लो; कौन जाने होशियार जहां हार गए वहां पागल जीत जाए!
अपने इस मन को बहुत ज्यादा सम्मान मत दो। अपने इस मन से थोड़ा अलगाव करो, थोड़ी पृथकता बनाओ, थोड़ी दूरी साधो। वही ध्यान है। और वही संन्यास का सार है। साक्षी बनो!
मुझसे तू रूठ नहीं
मुझसे मत बन!
ओ मेरे मन!!

क्षितिजों तक मत जा रे..

ऐ नासमझ समझ,

बिन समझे-बूझे यूं..
व्यर्थ मत उलझ;
रे हठी तुनक मिजाज,
शोर मत मचा,
कुछ तुक की बातें कर,
पागल मत बन!
ओ मेरे मन!!

मिल-जुल कर बैठ तनिक,
रार मत बढ़ा,
चढ़ती दोपहरी को..
और मत चढ़ा;
अपने को देख-भाल,
दुनिया को छोड़;
इतना कुछ पढ़-लिख कर,
पागल मत बन!
ओ मेरे मन!!

विष-बुझी घटाओं को..
पलकों में भर,
नन्हे से जी को यूं..
हल्का मत कर;
जस-अपजस भूल यार,
साथ-साथ चल;
इत्ता सा प्यार करें,
इत्ती अनबन!
ओ मेरे मन!!
थोड़े मन को देखने की कला सीखो! हम मन के साथ एक ही हो जाते हैं। हम मन के साथ तादात्म्य किए हुए हैं। मन जो कहता है, लगता है हम कह रहे हैं। मन जो करता है, लगता है हम कर रहे हैं। नहीं, हजार बार नहीं। तुम मन से पृथक् हो। तुम चैतन्य हो। तुम शुद्ध साक्षी हो। तुम मन के द्रष्टा हो। उठने दो मन में ऊहापोह..भागने के, जाने के, कल्पनाओं के अनेक जाल, उठने दो; दूर खड़े होकर देखते रहो; जैसे कोई नदी के तट पर बैठ कर नदी में उठती लहरों को देखता हो, ऐसे मन के तट पर बैठ जाओ, मन की लहरों को देखते रहो और एक अद्भभुत चमत्कार घटता है! देखते-देखते, देखते-देखते ये सारी लहरें शांत हो जाती हैं। देखते-देखते यह पूरे मन की धार तिरोहित हो जाती है। देखते-देखते एक दिन सन्नाटा और शून्य उतर आता है। और जहां शून्य है, वहां पूर्ण है। जहां शून्य है, वहां परमात्मा के आने के लिए हमने तैयारी कर ली, हम पात्र हो गए। क्योंकि सूनी प्याली में ही, खाली प्याली में ही उसका अमृत भर सकता है। हम भरे हैं अपने ही कूड़ा-करकट से।
खाली करो रेखा, अपने मन को कूड़ा-करकट से खाली करो और साक्षी बनो!! अगर भागना ही हो तो भीतर की तरफ भागो! अब बाहर की तरफ भागने से कुछ भी न होगा।
एक झेन फकीर की कहानी है। उसे मित्रों ने निमंत्रण दिया था। सात मंजिले एक मकान पर भोजन का आयोजन था; कोई तीस-पैंतीस उसके भक्त इकट्ठे हुए थे। भोजन चल रहा था, तभी भूकंप आगया। लकड़ी का मकान..जापान में लकड़ी के मकान होते हैं..सारा मकान कंपने लगा। अब गिरा तब गिरा। लोग भागे। गृहपति भी भागा। लेकिन संकरा जीना और भीड़ बहुत हो गई जीने पर; तो गृहपति ने पीछे लौटकर देखा कि जिस संन्यासी को बुलाया है, उसका क्या हुआ? देख कर वह चकित हो गया, अवाक रह गया। उस संन्यासी ने तो अपनी ही कुर्सी पर पालथी मार ली है, आंखें बंद कर ली हैं। वह इतना शांत बैठा है जैसे बुद्ध की प्रतिमा हो। उसका वह दिव्य रूप, उसका वह झरता हुआ प्रसाद..गृहपति को ऐसा बांध लिया, ऐसा सम्मोहित कर लिया कि मन की सारी इच्छा को त्यागकर भागने की, रुक गया वह भी। फिर उसे यह भी लगा जब अतिथि रुका है और आतिथेय भाग जाए, यह उचित नहीं। मेहमान को छोड़ कर मेजबान भाग जाए, यह उचित नहीं। बैठ गया। ..कंप रहा है!
कोई आधा मिनट ही भूकंप के कंपन आए। भूकंप चला गया। झेन पकीर ने आंखें खोलीं और बात जहां टूट गई थी भूकंप के आने से वहीं से शुरू कर दी। लेकिन गृहपति ने कहा, क्षमा करें, अब मुझे कुछ याद नहीं कि पहले हम कौन-सी बातें कर रहे थे। यह इतना बड़ा भूकंप आ गया है; मकान गिर गये हैं, लोग दब गए हैं; यह मकान भी कैसे बच गया है, यह आश्चर्य है; सारे लोग भाग गए हैं, पूरी टेबल खाली है; मैं भी कैसे रुक गया हूं, मुझे भरोसा नहीं आता; आपकी थिरता ने, आपकी शांति ने कैसा जादू किया है! एक बात पूछनी है, अब पुरानी बातें जाने दें, एक बात पूछनी है कि यह भूकंप हुआ, आप भागे नहीं!
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, भागा तो मैं भी। तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ भागा। और मैं तुमसे कहता हूं: बाहर भागना व्यर्थ है! क्योंकि छठवीं मंजिल पर भी भूकंप है, पांचवीं मंजिल पर भी भूकंप है, चैथी मंजिल पर भी भूकंप है, तीसरी मंजिल पर भी भूकंप है, दूसरी पर भी, पहली पर भी। और भूकंप तुम जहां जा रहे हो वहां सब जगह है। भागकर भी कहां जाओगे? ! मैं वहां भाग गया जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंचता। मैं अपने भीतर पहुंच गया। मैं उस भीतर के केंद्र पर बैठ गया जाकर जहां कोई कंपन कभी नहीं पहुंचा है, न पहुंच सकता है।
रेखा, उस भीतर की यात्रा पर चलो! भागना ही हो, तो भीतर की तरफ भागो। क्योंकि भीतर की तरफ भागने में परमात्मा से मिलने की संभावना है। अमृत, आनंद, सब कुछ तुम्हारा हो सकता है!

दूसरा प्रश्नः ओशो, धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है, उससे हानि किसकी हुई है?

रूपकिशोर! किसकी हानि होगी? तुम्हारी। मनुष्यों की। धर्म के नाम पर बहुत पाखंड हुआ है। और तुम सबको पाखंडी कर गया। तुम्हें पता भी नहीं चलता कि तुम पाखंडी हो, इतना पाखंडी कर गया। होश भी खो दिया है तुमने। होश भी होता और पाखंड होता, तो शायद छूटना आसान होता। होश भी नहीं है अब। अब तो पाखंड तुम्हारी सहज जीवनशैली हो गई है। सच तो जैसे तुमसे निकलता ही नहीं। झूठ तुमसे सहज प्रवाहित होता है।
झूठ बोलने में लोग एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। कौन कितना झूठ बोल लेता है और किस कुशलता से कि कोई पकड़ न पाए, कि कोई पहचान न पाए, वह बड़ा नेता हो जाता है। उसका नाम इतिहास में लिखा जाएगा। राजनीति झूठ बोलने की कला है। इस तरह का झूठ बोलो कि सच जैसा लगे। इस तरह का मुखौटा ओढ़ो कि लोगों को लगे यही तुम्हारा असली चेहरा है। खादी की टोपी लगाओ, खादी के कपड़े पहनो..और भीतर लाख कालिख रहे, रहने दो, कोई फिकर नहीं, बाहर सफेदी पोत लो!
जीसस ने कहा है कि तुम ऐसे हो जैसे कब्रें, जो सफेद चूने से पोत दी गई हैं। जीसस ने भी गजब किया! महात्मा गांधी के पहले महात्मा गांधी के शिष्यों का जीसस को पता कैसे चला! ये सफेद कपड़े, यह दिल्ली में जगमग होते सफेद कपड़ों की नुमाइशें, ये सफेद कब्रें हैं। जीसस कहते हैं: चूना पोती हुई हैं। भीतर सिर्प मुर्दे हो तुम। थोथे, सड़ रहे। लाश है वहां; क्योंकि तुमने जीवन को जीने का कभी कोई उपक्रम नहीं किया, कोई अभियान नहीं किया, कोई चुनौती स्वीकार नहीं की। तुमने अपने को जगाने की कोई चेष्टा भी नहीं की। तुम गहरी नींद में पड़े हो।
पाखंड धर्मो के नाम पर चला है। और कारण सीधा है। और कारण ऐसा तर्कयुक्त मालूम पड़ता है कि तुम्हें ख्याल में भी नहीं आता।
धर्म सिखाते हैं चरित्र और चरित्र का अंतिम परिणाम पाखंड है। बात एकदम बेबूझ लगेगी। क्योंकि तुम तो सोचते हो, चरित्र? चरित्र ही तो असली चीज है। चरित्र बिल्कुल असली चीज नहीं है। चैतन्य असली चीज है। चरित्र होता है बाहर, चैतन्य होता है भीतर। तुम्हारे चैतन्य से जिओ तो तुम जो करो, वही ठीक है। लेकिन धर्म तुम्हें सिखाते हैं: चैतन्य वगैरह की फिकर छोड़ो। चैतन्य तो यह तो कुछ अवतारी पुरुषों की बात है। यह तो कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई मोहम्मद, पैगंबर, अवतार, तीर्थंकर, ईश्वरपुत्र, इन कुछ थोड़े से लोगों को छोड़ दो, यह तुम्हारे बस की बात नहीं, यह तुम्हारे बलबूते की बात नहीं। तुम तो हड्डी-मांस-मज्जा के आदमी हो। तुम तो चरित्र। चरित्र का मतलब यह कि दूसरों ने जो कहा है, उस ढंग से जिओ। खुद के बोध से नहीं। दूसरों ने जो बताया है। लेकिन यहीं मुश्किल खड़ी हो जाती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति इतना भिन्न है, इतना अनूठा है कि किसी दूसरे की मान कर जिएगा तो झूठा हो ही जाएगा। होना ही पड़ेगा।
अब समझ लो कि तुम महावीर की मान कर नग्न खड़े हो जाओ, और ठंड लगे, और जी तड़पे कि कंबल मिल जाए! फिर तरकीबें निकालोगे। तुम्हें मालूम है दिगंबर जैन मुनि ने क्या तरकीबें निकाली हुई हैं? उसको बंद कमरे में सुलाते हैं रात, खिड़की, द्वार-दरवाजा सब बंद कर देते हैं..वह खुद नहीं करता बंद, क्योंकि वह शास्त्र में लिखा नहीं है; वह तो फिर सर्दी से बचाव का उपाय हो गया। लेकिन दूसरे कर दें। दूसरे कर दें तो तुम क्या करो! शास्त्र में यह नहीं लिखा है कि दूसरों को न करने देना। बात खत्म हो गई। सो दूसरे सब खिड़की-दरवाजे बंद कर देते हैं, बिल्कुल बीच के कमरे में ठहरा देते हैं जहां कि किसी तरह हवा न पहुंचे। और जमीन पर पुआल बिछा देते हैं, जो गर्मी देती है।
शास्त्रों में लिखा है: कंबल न बिछाना। मगर पुआल न बिछाना, यह कहीं लिखा नहीं है। और जब मुनि महाराज लेट जाते हैं, तो ऊपर से भी पुआल डाल देते हैं। अब शास्त्रों में यह भी नहीं लिखा है कि कोई ऊपर से पुआल डाले तो उसको रोकना। सो नीचे पुआल, ऊपर पुआल। और पुआल इतनी गरम होती है जितनी कि रुई भी नहीं होती। और चारों तरफ से दरवाजे बंद!
अब यह व्यर्थ का उपद्रव हुआ। महावीर के जीवन में कहीं उल्लेख नहीं है कि पुआल बिछाई। महावीर और ढंग के आदमी रहे होंगे। ढंग-ढंग के आदमी हैं। तरह-तरह के आदमी हैं। महावीर को ठंड रास आती होगी। सबको अलग-अलग चीजें रास आती हैं। मुझे ठंड रास आती है। मेरे संन्यासी मुझे पत्र लिखते हैं कि आप गर्मी में भी यही कपड़े पहने रहते हैं, सर्दी में भी यही कपड़े पहने रहते हैं। कम से कम सर्दी में तो कुछ सर्दी का बचाव किया करें। और मेरी हालत उलटी है। मेरे लिए दिक्कत खड़ी होती है गर्मी में। तब मुझे सवाल उठता है कि कैसे बचाव करूं? सर्दी तो मुझे जमती है। मेरे संन्यासी लिखते हैं कि हम आपके अंगूठे को देखते हैं कि बिल्कुल नीला पड़ा जा रहा है। मगर जब तक मेरा अंगूठा नीला न पड़े, मुझे मजा आता नहीं। अब करना तो क्या करना!
अब मेरा कमरा तो बिल्कुल ऐसा रहता है जैसा कि बर्पघर। विवेक को उसमें आना-जाना पड़ता है, उसके प्राण निकलते हैं। वह एकदम चाय देकर और भागती है। अभी वह इंग्लैंड से वापस लौटी, कहने लगी कि मैं तो सोचती थी इंग्लैंड ठंडा है, मगर यह कमरा ज्यादा है। इससे तो इंग्लैंड बेहतर है।
मुझे सर्दी रास आती है! मुझे भी हैरानी होती है। क्योंकि अगर बहुत गर्मी हो, तो मुझे सर्दी हो जाती है। और अगर खूब सर्दी हो, तो मुझे सर्दी नहीं होती।
महावीर को रास आती रही होगी। अब तुम महावीर की मान कर चलोगे तो पाखंड खड़ा होगा। तुम महावीर को महावीर पर छोड़ो। तुम अपनी सुध लो। बुद्ध को इतनी सर्दी रास नहीं आती होगी जितनी महावीर को आती थी, तो वे एक चादर ओढ़े रखते थे। लेकिन एक चादर की वजह से जैनियों की दृष्टि में वे नीचे गिर गए। तो जैनी कहते हैं कि महात्मा हैं, लेकिन भगवान नहीं। भगवान तो तब हों जब चादर भी छोड़े। चादर ने डुबाया बेचारों को! चादर भी गजब की है! एक चादर के पीछे मोक्ष गया हाथ से!
तुम जब भी किसी दूसरे की मान कर चलोगे, अड़चन में पड़ोगे। क्योंकि दूसरा जो कहेगा, वह अपने अनुभव से कहेगा। उसका अनुभव उसका ही अनुभव है और कभी किसी दूसरे का अनुभव नहीं हो सकता। चरित्र का अर्थ होता है: दूसरे जैसा कहें वैसा करो। जहां बिठाएं वहां बैठो, जहां उठाएं वहां उठो। तुम पाखंडी हो जाओगे। पाखंड का मतलब क्या होता है? तुम ऐसी कोई चीज कर रहे हो जो तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है। तुम अपने स्वभाव को झुठला रहे हो। तुम अपनी प्रामाणिकता खो रहे हो।
चैतन्य पर मेरा जोर है। मैं कहता हूं: अपनी चेतना से जिओ। इसलिए मैं अपने संन्यासियों को कोई चरित्र नहीं दे रहा हूं। उनसे कहता ही नहीं कि ऐसा करो या वैसा करो; यह पहनों, वह पहनों; यह खाओ, वह पिओ; कब सोओ, कब जागो; कुछ उनसे इन सब बातों के संबंध में कह ही नहीं रहा हूं। क्योंकि मैंने ही अपने अनुभव से यह पाया कि मैंने करीब-करीब सब तरह के उपाय करके देखे...जैसे कि मैं उठा करता था तीन बजे। जब विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था, तो तीन बजे उठता था। ऋषि मुनियों को तीन बजे उठना ही चाहिए! मगर मुझे कभी रास नहीं आया। मुझे दिन भर नींद आती। एक बात साफ हो गई कि अगर ऋषि-मुनि होने का यही ढंग है, तीन बजे उठना, तो अपने को ऋषि-मुनि नहीं होना है। क्योंकि दिन-भर नींद आए!
मगर लोग तरकीब निकाल लेते हैं।
महात्मा गांधी को भी दिन भर नींद आती थी..आएगी ही; वही तीन बजे का उपद्रव! तो वे कई दफा दिन में सो लेते दस-दस, पंद्रह-पंद्रह मिनट। मगर लोग तो अद्भभुत अंधे हैं, वे इसकी खूब तारीफ करते कि वाह! कैसे शांत व्यक्ति हैं कि जब देखो तब सो जाते हैं! कुछ मामला नहीं है। अरे, तीन बजे उठो तो तुम भी सो जाओगे, जब देखो तब! इसमें कुछ कला नहीं है। जरा तीन बजे उठो तो, बस दिन भर आंखें झपकती रहेंगी! क्योंकि असली नींद का समय ही दो बजे से और छह बजे के बीच में है। उसी समय वे दो घंटे घटते हैं जो गहरी से गहरी नींद के हैं। किसी को दो बजे से लेकर चार बजे के बीच में घटते हैं। जिसको दो से चार के बीच घटते हैं, वह चार बजे उठ आए, दिन भर ताजा रहेगा। लेकिन किसी को चार से छह के बीच घटते हैं, वह अगर चार और छह के बीच में उठ आए, तो दिन भर उदास रहेगा; उसकी शक्ल मातमी रहेगी; रोता-रोता मालूम पड़ेगा।
वह मुझे जमा नहीं।
ऋषि-मुनियों को जल्दी सो जाना चाहिए। विनोबा भावे आठ बजे शाम को सो जाते हैं। विश्वविद्यालय में मैं था तो मैंने भी सब तरह से सोकर देखा। आठ बजे सो जाऊं। सो तो जाऊं आठ बजे, मगर नींद आए बारह बजे। अब कोई सोने ही से नींद आती है। और चार घंटे कवायद जो करनी पड़े, बदलो करवट, मैंने कहा यह भी पागलपन है, नींद तो आती नहीं आठ बजे! और बारह बजे तक जब तुम करवट बदल लोगे, और बारह बजे तक जब परेशान हो लोगे, तो बारह बजे तक परेशान होने के बाद बारह बजे भी नींद आनी मुश्किल हो जाती है। इतना उपद्रव झेल चुके, अब कैसे नींद आए!
सब समय पर मैंने सोकर देखा और मैंने पाया कि मुझे तो ठीक बारह बजे जमता है। शायद पिछले जन्म का सरदार हूं या क्या! ठीक बारह बजे, जहां दोनों कांटे मिलते हों, उसको मैं कहता हूं: योग-स्थल, अद्वैत, वह वेदांत की पराकाष्ठा है, जहां दो कांटे मिल कर एक हो जाते हैं, बस मुझे ठीक उस वक्त जो नींद आती है, वह और किसी वक्त नहीं आती।
अब मैं किसकी मानूं? महावीर की मानूं, बुद्ध की मानूं, ऋषि-मुनियों की मानूं..या अपनी मानूं? उनकी मान कर मैंने सब तरह से उपाय करके देखे हैं, वे सब व्यर्थ हैं। उनके लिए ठीक रहे होंगे। मेरे लिए ठीक नहीं हैं। अब मैं तुमसे कहूं कि तुम भी बारह बजे सोओ, क्योंकि मैं बारह बजे सोता हूं; अगर बारह बजे नहीं सोए तो तुम ऋषि-मुनि नहीं हो, अब तुम मुश्किल में पड़ जाओगे! अगर तुम्हें नौ बजे नींद आती है तो बारह बजे तक घूमो-फिरो, घर के चक्कर लगाओ! और अगर तुम्हें नौ बजे नींद आती है, बारह बजे तक तुम जागने की कोशिश करो, तो फिर बारह बजे भी नींद नहीं आएगी।
नहीं, तुम अपने चैतन्य से जिओ। भोजन के संबंध में, नींद के संबंध में, जीवन के सारे अंगों के संबंध में। मेरा काम है कि तुम्हारे भीतर चैतन्य कैसे आविर्भूत हो, इसकी प्रक्रिया तुम्हें दूं। तुम्हें ध्यान दूं, बस। फिर ध्यान से आचरण अपने-आप आएगा। आना चाहिए।
तो धर्मो ने पाखंड फैलाया, क्योंकि चरित्र पर जोर दिया। और धर्मो ने हिंसा फैलाई यद्यपि बातें अहिंसा की कीं, घृणा फैलाई। बातें प्रेम की कीं, युद्ध फैलाए। लेकिन युद्ध भी शांति की रक्षा के लिए। इस्लाम खतरे में है! इस्लाम शब्द का अर्थ होता है: शांति। तो शांति की रक्षा के लिए युद्ध करो। खूब मजे की बात हो गई! युद्ध के लिए भी युद्ध और शांति के लिए भी युद्ध! तब युद्ध से बचना कैसे होगा?
धर्म के नाम पर हत्याएं हुईं। क्योंकि धर्मो ने तुम्हें सिर्प सिद्धांत दिए थोथे; प्रेम का अनुभव नहीं दिया, प्रेम का सिद्धांत दिया। प्रेम की परिभाषा देने की कोशिश की, लेकिन प्रेम के अनुभव से रोका। क्योंकि प्रेम का अनुभव खतरनाक है। जो भी व्यक्ति प्रेम के अनुभव में उतरता है, वह चर्चो से मुक्त हो जाएगा, संप्रदायों से मुक्त हो जाएगा। उसका तो परमात्मा से सीधा नाता हो गया, वह पंडित-पुरोहित को बीच में क्यों लेगा? उसके लिए पोप की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम तो सीधा ही जोड़ देता है। ‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई‘। फिर वहां कोई बीच में रहता ही नहीं। और पंडित और पुरोहित जीता है बीच में रहने से। उसका काम यह नहीं है कि तुम्हें परमात्मा से मिलाए, उसका काम यह है कि तुम्हें परमात्मा से न मिलने दे। तुम जब तक नहीं मिले हो, तभी तक उसकी जरूरत है। जिस दिन तुम मिले, उसी दिन उसकी जरूरत खत्म हुई। वह तो एजेंट है, दलाल है।
और धर्मो ने तुम्हें बांटा, खंडों में बांटा..हिंदू, मुसलमान, ईसाई। बजाए इसके कि उन्होंने पृथ्वी को एक बनाया होता, अखंड बनाया होता, इसको खंडित किया। और जितने खंड हो गए पृथ्वी के, उतनी दुश्मनी बढ़ी। स्वभावतः। हर खंड चाहता है मालिक हो जाए। हर खंड फैलकर पूरी पृथ्वी पर छा जाना चाहता है। ईसाइयत चाहती है पूरी पृथ्वी ईसाई हो जाए। हिंदू चाहते हैं पूरी पृथ्वी हिंदू हो जाए। मुसलमान चाहते हैं पूरी पृथ्वी मुसलमान हो जाए। अब यह हो कैसे? यह तो असंभव मालूम होता है। अगर तुम हिंदू हो तो तुम मुसलमान नहीं हो; अगर तुम मुसलमान हो तो ईसाई नहीं हो।
मैं एक नई दृष्टि दे रहा हूं कि तुम धार्मिक हो जाओ, ध्यानस्थ हो जाओ। हिंदू-मुसलमान, ईसाई, इन व्यर्थ के विशेषणों को जाने दो। और तुम पूछते हो कि धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ, उससे हानि किसकी हुई? हानि तुम्हारी। और तो किसकी होगी।
धान कटे कि गेहूं कटे
कोदो कटे कि ज्वार
हमें लगे भइया
हम ही कटे
हाथ कटे हर बार

पानी गिरे कि पसीना गिरे
मोती गिरे कि नगीना गिरे
दुख में माटी
गोद खिलाए
बांह गिरे कि सीना गिरे,
नीम कटे कि बबूल कटे
बेर कटे कि उजार
हमें लगे भइया
हम ही कटे
हाथ कटे हर बार

दादी लगाए कि बाबा लगाए
अम्मा लगाए कि अब्बा लगाए
भूख का पेड़
प्यास की खेती
काशी लगाए कि काबा लगाए,
दीन कटे कि धरम कटे
नेक कटे कि गंवार
हमें लगे भइया
हम ही कटे
हाथ कटे हर बार,

रिश्ते बोए कि चेहरे बोए
ऊसर बोए कि गहरे बोए
सयों के अधनंगे
शहर में
गाली बोए कि ककहरे बोए,
बस्ती कटे कि नारे कटे
आखर कटे कि अंधियार
हमें लगे भइया
हम ही कटे
हाथ कटे हर बार,
देश लिखे कि ठेस लिखे
पोथी लिखे कि परिवेश लिखे
पिसती हुई
चक्की में जवानी
शेष लिखे कि अशेष लिखे,
मोड़ कटे कि सड़क कटे
लोक कटे कि कतार
हमें लगे भइया
हम ही कटे
हाथ कटे हर बार,
तुम्हारे अतिरिक्त और कौन कटेगा? आदमी ही कटता है। चाहे मुसलमान कटे, चाहे हिंदू कटे, चाहे ईसाई कटे, चाहे कम्युनिस्ट कटे, चाहे कैथोलिक कटे..आदमी ही कटता है। और कब यह समझ आएगी? लेकिन अगर जापान कट रहा हो, तो हम सोचते हैं: हमें क्या करना! चीनी कट रहा हो, हमें क्या लेना-देना! ईरानी कट रहा हो, उनका आंतरिक मसला है, हमें क्या करना! तो तुम जब कटोगे, तुम्हारा आंतरिक मसला है, उन्हें क्या करना! हमेशा आदमी कट रहा है। हर हाल में आदमी कट रहा है। आदमी ही लूटा जा रहा है।
लेकिन हमें समझाया गया है कि हम आदमी पीछे हैं, पहले हिंदू, पहले मुसलमान, पहले ईसाई। और ये बड़ी-बड़ी बीमारियां काम नहीं आयीं, काफी नहीं पड़ी, तो छोटी-छोटी बीमारियां: हिंदुओं में भी सनातनी हो कि आर्यसमाजी? जैसे कैंसर काफी नहीं है, तो कौन सा कैंसर? हड्डी का कि खून का? तो फिर कैंसर में और छोटे-छोटे कैंसर हैं।
तीन सौ धर्म हैं पृथ्वी पर और तीन हजार संप्रदाय और समझ लो कि तीन लाख पंथ। काटते जाओ!! और आज मुसीबत और भी घनी हो गई है। इसलिए घनी हो गई है कि पहले तो लोग अपने-अपने शास्त्रों से परिचित थे, अपने-अपने छोटे-छोटे कुएं में जीते थे, वही सागर था, अब दूसरे शास्त्रों से भी परिचित हुए हैं, तो बड़ी दुविधा पैदा हो गई है, कि सत्य कौन है? बाइबिल सत्य है कि कुरान सत्य है कि वेद सत्य है? अब मनुष्य की दुविधा का अंत नहीं है। और जब तय ही न हो पाए कि सत्य कौन है, तो हम किसका आचरण करें? तो जब तक तय नहीं होता तब तक दुराचरण करो। तब तक करेंगे भी...कुछ तो करना ही होगा! अभी तय तो हो जाए पहले कि ठीक क्या है! जब तक तय नहीं होता तब तक गैर-ठीक ही करो! और यह तय कभी होने वाला नहीं। इस विवाद से कोई हल कभी होने वाला नहीं है। इस विवाद में प्रश्न तो प्रश्न उत्तर और खतरनाक हैं। प्रश्न तो ठीक ही हैं, कभी-कभी प्रश्नों से ज्यादा खतरनाक उत्तर होते हैं। धर्म के जगत में वही हुआ है।
मैंने सुना है एक बार बीरबल ने दरबार में यह बात कही कि कभी-कभी प्रश्न से भी ज्यादा खतरनाक उत्तर होता है। अकबर ने कहा, यह बात जंचती नहीं। बीरबल ने कहा, कभी समय मिलेगा तो जंचा दूंगा।
कोई पांच-सात दिन पीछे की बात है। अकबर आईने के सामने खड़ा होकर अपने बाल संवार रहा है कि बीरबल पीछे से आया और एक लात मारी। अकबर तो गिरते-गिरते बचा, आईना फूटते-फूटते बचा। अकबर ने लौट कर देखा और कहा: हरामजादे, यह कोई ढंग है? और माना कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि तू सम्राट को लात मारे!
बीरबल ने कहा: हुजूर, क्षमा करें! मैं तो समझा कि बेगम साहिबा हैं।
सम्राट ने कहा: क्या मतलब? तो तू बेगम को लात मार रहा था? तेरा गला कटवा दूंगा!
बीरबल ने कहा: वह जो आपको करना हो करना, मैं तो सिर्प उदाहरण दे रहा हूं कि कभी-कभी प्रश्न से उत्तर और भी ज्यादा खतरनाक होता है।
प्रश्न तो सीधे-सादे हैं, लेकिन उत्तर बहुत हैं, उत्तरों की भीड़ लगी है। उत्तर बहुत खतरनाक हैं। और कोई न कोई उत्तर तुम्हें पकड़ लेगा। और तब दुविधा खड़ी होगी, क्योंकि और भी उत्तर कतार लगाए खड़े हैं, जो कहते हैं: हमारी भी सुनो!
पाठशाला के सभी बच्चे गुरुजी को कुछ न कुछ भेंट दिया करते थे। सिर्प एक लड़का फजलू, जो कभी कुछ न लाता था। जब एक दिन वह कटोरे भर खीर लेकर आया तो सभी चकित रह गए। गुरुजी ने आश्चर्य से पूछा: क्यों रे फजलू, आज क्या बात है?
फजलू बोला: मेरे पिता जी ने कंजूसी छोड़ कर दानी होने का व्रत लिया, इसलिए आज मेरे घर में खुशी मनाई जा रही है। उसी खुशी में खीर-लड्ड208-पेड़े-रसगुल्ले बने थे। पिता जी बोले कि एक कटोरा खीर अपने गुरुजी को दे आओ।
गुरुजी ने अचरज से भ रकर पूछा: तो तुम्हारे दानी पिता ने अकेली खीर ही क्यों भेजी? रसगुल्ले वगैरह क्यों नहीं भेजे?
सीधे-सादे फजलू ने कहा: जी, दरअसल बात यह थी कि खीर में एक छिपकली गिर गई थी। पिता जी बोले गाय-बकरी के देने की बजाए अपने गुरुजी को ही दे आओ। ब्राह्मण-दान ही असली सच्चा दान है। यह सुन कर गुस्से में झल्लाते हुए गुरुजी ने खीर ऐसी फेंकी कि सारे फर्श पर फैल गई और कटोरे के टुकड़े-टुकड़े हो गए। फजलू जोर-जोर से रोने लगा। गुरुजी ने कहा: क्यों रोता है बे, नसरुद्दीन के बच्चे? चोर की चोरी, ऊपर से सीनाजोरी!
मेरी अम्मा मुझे मारेगी, फजलू ने बताया, आपने कटोर जो तोड़ दिया न! अब मेरी मां छोटे भैया को पेशाब काहे में कराएगी?

आज इतना ही।

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