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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

जग माहीं न्यारे रहौ

सारसूत्र:

गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।
चरनदास की सीख सुन यही राख मन माहिं।।
अब के चूके चूक है फिर पछतावा होय।
जो तुम जक्त न छोड़िहौ जन्म जायगो खोय।।
जग माहीं न्यारे रहौ लगे रहौ हरिध्यान।
पृथिवी पर देही रहै परमेसुर में प्रान।।
सब सूं रख निरवैरता गहो दीनता ध्यान।
अन्त मुक्ति पद पाइहौ जग में होय न हानि।।
क्या नम्रता दीनता छिमा सील सन्तोष।
इनकूं लै सुमिरन करै निश्चय पावै मोष।।

मिटते सूं मत प्रीत करि रहते सूं करि नेह।
झूठे कूं तजि दीजिए सांचे में करि गेह।।
ब्रह्म-सिंध की लहर है तामे न्हाव संजोय।
कलिमल सब छुटि जाहिंगे पातक रहै न कोय।।
का तपस्या नाम बिन जोग जग्य अरु दान।
चरनदास यों कहत हैं सब ही थोथे जान।।
गई सो गई अब राखिलै एहो मू. अयान।
निकेवल हरि कूं रटो सीख गुरु की मान।।
नदी बड़ी गहरी है पता नहीं क्या होगा
सहमे-सहमे लोग खड़े हैं दोेनोें ओर किनारों पर
कुछ की नजरें नीची-नीची कुछ की चांद-सितारों पर
कुछ तैयार खड़े हैं पर मिटने को किन्हीं इशारों पर
आंधी कही ठहरो है पता नहीं क्या होगा
कुछ अंधियारा कुछ उजियारा अजब तरह का मौसम है
कांप-कांप उठता सन्नाटा डरी-डरी सी शबनम है
मै किसको आवाज लगाऊं रहा न कोई हमदम है
चांदनी भी बहरी है पता नहीं क्या होगा
नदी बड़ी गहरी है पता नहीं क्या होगा

आदमी जहां है वहां तृप्ति नहीं है। आदमी जहां है वहां दुख और विषाद है। और आदमी को जहां तृप्ति की आशा दिखाई पड़ती है वह दूसरा किनारा बहुत दूर धुंध में छाया मिल भी सकेगा निर्णय करना मुश्किल है। है भी यह भी निश्चय करना मुश्किल है।
इस किनारे पर कोई सुख नहीं है। उस किनारे पर आशा है लेकिन कैसे उस किनारे तक कोई पहुंचे माझी खोजना होगा। किसी ऐसे का साथ चाहिए जो उस पार हो जो उस पार हो आया हो जिसने संतुष्टि का स्वाद जाना हो जो मोक्ष की हवा में जीया हो। किसी मुक्त का सत्संग चाहिए। गुरु का इतना ही अर्थ है।
गुरु का अर्थ हैः इस किनारे होकर भी जो इस किनारे का नहीं। इस किनारे होकर भी जो उस किनारे का सबूत है। इस किनारे होकर भी जो वस्तुत उस किनारे ही रहता है। तुम्हारे बीच है तुम्हारे जैसा है फिर भी तुम्हारे बीच नहीं। फिर भी तुम्हारे जैसा नहीं।
गुरु का अर्थ है जहां कुछ अपूर्व घटा है। जहां बीज अब बीज ही नहीं फूल बन गए है। जहां संभावना वास्तविक हुई है जहां मनुष्य की अंतिम मंजिल पूरी हुई है जहां मनुष्य अपनी निष्पत्ति को उपलब्ध हुआ है।
गुरु का अर्थ है तुम्हारा भविष्य। गुरु का अर्थ है तुम जो हो सकते हो वैसा कोई हो गया है। उसका हाथ पकड़े बिना यात्रा संभव नहीं है। उसका हाथ पकड़े बिना भटक जाने की संभावना है पहंुचने की नहीं।
आज के सूत्र महत्वपूर्ण हैं--सभी साधकों सभी खोजियों के लिए।
गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।
चरनदास की सीख सुन यही राख मन माहिं।।
बड़ा अनूठा वचन है और एकदम से समझ में न पड़े ऐसा वचन है। समझ पड़ जाए तो बड़ी संपदा हाथ लग गई।
‘गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।’
उलटा लगता है। साधारणत तो हम सोचेंगे गुरु जैसा करे वैसा करो। लेकिन चरणदास कहते है गुरु जो कहे वैसा करो जो करे वैसा नहीं। क्यों क्योंकि गुरु जो कर रहा है वह तो उसकी आत्मदशा है। गुरु का कृत्य तो उस पार का कृत्य है। गुरु जो कर रहा है जैसा जी रहा है वैसे तो तुम अभी जी न सकोगे। वैसा जीना चाहा तो झंझट में पड़ोगे। या तो पाखंड हो जाएगा प्रारंभ अभिनय होगा क्योंकि जो तुम्हारी अंतर्दशा नहीं है वह तुम्हारा आचरण कैसे बनेगा
गुरु जैसा है वैसा करने की कोशिश मत करना। वैसा तो किसी दिन जब होगा तब होगा।
महावीर नग्न खड़े हैं तुम भी नग्न खड़े हो जाओ। लेकिन तुम्हारी नग्नता में और महावीर की नग्नता में बड़ा भेद होगा जमीन आसमान का भेद होगा। तुम्हारी नग्नता आरोपित नग्नता होगी। तुम्हारी नग्नता एक तरह का नंगापन होगी। महावीर की नग्नता नंगापन नही है। महावीर की नग्नता निर्दोेषता है। तुम चेष्टा करोगे वस्त्रों को गिराने की। महावीर के साथ घटना और ही घटी है। छुपाने को कुछ नहीं रहा। वस्त्र गिरा दिए--ऐसा नहीं छुपाने को कुछ नहीं रहा। जैसे छोटा बच्चा हो ऐसे हो गए हैं। निर्वस्त्रता नहीं है यह मात्र यह निर्दोेषता का जन्म है।
लेकिन तुम अगर चेष्टा करोगे और महावीर जैसे ही बन कर खड़े हो जाओगे तो तुम सिर्फ निर्वस्त्र होओगे। और इस निर्वस्त्रता में धोखा हो जाएगा। तुम्हे लगेगा हो गया महावीर जैसा।
नहीं महावीर जो कहें वैसा करो जो करें वैसा नहीं। क्यांेकि महावीर जो आज कर रहे हैं वह चेष्टा से नहीं है उनकी सहज स्फुरणा से है। तुम करोगे--चेष्टा होगी आरोपण होगा जबरदस्ती होगी।
मगर अकसर ऐसा होता है कि लोग गुरु का अनुकरण करने लगते हैं। गुरु जैसा करता है वैसा करने लगते हैं। गुरु जो कहता है उसे तो सुनते नहीं हैं। उसे ही सुनो उसी को करते-करते एक दिन ऐसी घड़ी आएगी उस सहज क्रांति की घड़ी उस समाधि की घड़ी जब तुमसे गुरु जैसा होने लगेगा लेकिन गुरु जैसा करना मत। होगा एक दिन जरूर। किया--चूक जाओगे। गुरु जो कहे वही करना। क्योंकि गुरु जब कहता है तो तुम्हें ध्यान में रखकर कहता है। और गुरु जब करता है तो अपनी सहजता से करता है। इस भेद को समझना।
गुरु जब कहता है तो तुमसे कहता है तो तुम पर न.जर होती है। तुम कहां हो इस बात पर नजर होती है। तुम्हारे लिए क्या काम का होगा इस बात पर नजर होती है। तुम्हें किससे लाभ मिलेगा इस बात पर नजर होती है। तुम कैसे बदलोेगे तुम जहां खड़े हो वहां से कैसे पहला कदम उठेगा--उस तरफ इशारा होता है।
गुरु जो बोलता है वह तुमसे बोलता है। इसलिए तुम्हारा ख्याल रख कर बोलता है। गुरु जो करता है वह अपने स्वभाव से करता है अपनी स्थिति से करता है अपनी समाधि से करता है। गुरु का कृत्य उसके भीतर से आता है। गुरु के शब्द तुम्हारे प्रति अनुकंपा से आते हैं। इस भेद को खूब समझ लेना।
तो गुरु के शब्द ही तुम्हारे लिए सार्थक है--गुरु का कृत्य नहीं। हां, शब्दोें को मान कर चलते रहे तो एक दिन गुरु के कृत्य भी तुममें घटित होंगे। वह अपूर्व घड़ी भी आएगी वैसा सूरज तुम्हारे भीतर भी उगेगा। वैसे मेघ तुम्हारे भीतर भी घिरेंगे। वैसा मोर तुम्हारे भीतर भी नाचेगा। वैसी वर्षा निश्चित होनी है। लेकिन अगर तुमने पहले से ही गलत कदम उठाया गलत कदम यानी गुरु ने जैसा किया वैसा किया--तो चूक जाओगे।
और आमतौर से आदमी वही करता है। आदमी कहता है कि गुरु जैसा करता है वैसा ही हम करें तो गुरु जैसे हो जायेंगे। कभी न हो पाओगे। तुम्हारा कृत्य ही तुम्हारे मार्ग में बाधा बन जाएगा।
गुरु को समझोे। गुरु के शब्द को खोलोे अपने भीतर।
लोेभ आदमी में बड़ा है। आदमी सोचता है क्यों लम्बी यात्रा करना गुरु मौजूद है गुरु जैसे ही क्यों न हो जायें गुरु उपवास करे तो उपवास करें। गुरु मस्ती में डोले तो डोेलें। गुरु जैसा उठे-बैठे वैसे उठे-बैठें। और क्या चाहिए और साधारणत तर्क कहेगा कि यही तो शुभ है। गुरु का अनुकरण अर्थात गुरु जैसे बन जाओ। लेकिन चरणदास बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं। शायद ही कभी किसी ने इतनी स्पष्टता से और इस भाँति कही है।
‘गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।
कृत्य तुम्हारे लिए नहीं है गुरु का। वक्तव्य तुम्हारे लिए है। अगर तुम न होओ तो कृत्य तो जारी रहेगा वक्तव्य बंद हो जाएगा। गुरु जो करता है वह तो एकान्त में भी करेगा--जब कोई भी न होगा। अगर वह डोल रहा है मस्ती में तो एकांत पर्वत पर गुहा में बैठकर भी डोलेगा। उसका डोलना तुम्हारे प्रसंग में नहीं है तुमसे उसका कोई संदर्भ नहीं है।
गुरु अगर आंख बंद करके बैठता है तो आंख बंद करके बैठेगा कोई हो या न हो। किसी के होने न होने से कोई भेद नहीं पड़ता। गुरु किसी के लिए आंख बंद करके नहीं बैठता है। गुरु अपने लिए आंख बंद करके बैठता है।
तो गुरु का कृत्य तो आत्म-संवाद है। अपने से ही कही गई बात है। लेकिन गुरु का वक्तव्य शिष्य से कही बात है।
एकान्त में गुुरु वक्तव्य नहीं देगा। एकांत में समझाएगा नहीं किसी को।
फिर ध्यान रखना गुरु ने जो तुमसे कहा हो उसे तो बहुत ध्यानपूर्वक पकड़ लेना। जो तुमने ही कहा हो वह तुम्हारे लिए ही हैं। इसलिए गुरु की समीपता चाहिए सान्निध्य चाहिए व्यक्तिगत संपर्क चाहिए। क्योंकि हर आदमी अलग-अलग जगह खड़ा है। सभी एक जगह नहीं हैं। जन्मों-जन्मों की यात्रा में सब ने अलग-अलग तरह की चित्त-दशाएं उपलब्ध कर ली हैं।
कोई पहली सी.ी पर खड़ा है तो गुरु उसे दूसरी सी.ी पर च.ने को कहेगा। लेकिन कोई तीसरी सी.ी पर खड़ा है। अगर उसने भी यह सुन लिया कि दूसरी सी.ी पर चलना है तो वह उतर आएगा जहां खड़ा है वहां से नीचे उतर आएगा। उसे दूसरी पर नहीं चलना है दूसरी तो छूट चुकी। उसे चैथी पर चलना है।
और जो सी.ी के आखिरी पायदान पर पहंुच गया है गुरु उससे कहेगा सी.ी छोेड़ दो। यह अगर उसने सुन ली जो अभी च.ा ही नहीं था अभी सी.ी पर पहला पैर भी नहीं रखा था पहला पायदान भी नहीं पकड़ा था उसने सुन लिया और सोचा कि चलोे सी.ी छोेड़ने की बात गुरु ने कह दी तो चूक जाएगा
किसी से गुरु कहेगा च.ोे और किसी से कहेगा--आखिरी कदम। और अलग-अलग लोेगों से अलग-अलग बात होगी।
गुरु के साथ निजी संबंध है। और गुरु तुमसे जो कहे उसको तो हीरे की तरह सम्हाल लेना वह तुम्हारे लिए है। सत्संग का यही अर्थ हैं।
एक तो वक्तव्य है जो सार्वलौकिक है। जैसे में तुमसे सुबह बोलता यह सार्वलौकिक वक्तव्य है। यह भी सबके लिए है। लेकिन सांझ जब तुम मेरे पास आते--दर्शन में--तब मैं तुमसे ही बोलता। वह वक्तव्य तुम्हारे लिए ही है। वह बिल्कुल निजी है उस पर तुम्हारा पता-ठिकाना है। वह किसी और के लिए नहीं है।
अगर मैंने तुमसे कुछ कहा हो निजीतौर से तो अपनी पत्नी को भी मत कहना कि यह करने जैसा है। क्योंकि पत्नी कहीं और होगी। अपने बेटे को भी मत कहना। और यह भी हो सकता है कि तुम्हें बहुत आनंद आ रहा हो करने में तो भी अपने प्रियजन को मत कहना कि तुम भी ऐसा करो। क्योंकि प्रियजन की दशा और होगी।
जो तुम्हारे लिए आनंदपूर्ण है वह किसी दूसरे के लिए संताप का कारण बन सकता है। औ जोर तुम्हारे लिए शुभ है किसी के लिए अशुभ हो सकता है।
सुबह के वक्तव्य सार्वलौकिक हैं। वे किसी एक के प्रति नहीं कहे गए हैं। सांझ जो भी मैं कहता हूं वह वैयक्तिक है और एक से ही कहा गया है और उसे भूल कर भी दूसरे के साथ मिश्रित मत करना।
मुझे निरंतर मित्रों को कहना पड़ता है क्योंकि सांझ को दस-बीस मित्र होते है एक से जो मैं कह रहा हूं वह दूसरे भी सुन रहे है उन्हे मुझे सावधान करना होता है। सुन भला लो लेकिन करने मत लगाना। जिससे कहा है वही।
अकसर ऐसा हो जाता है कि एक मित्र प्रश्न पूछता है मैं उसे उत्तर देता हूं उसके बाद दूसरा मित्र आता है वह कहता है मुझे उत्तर मिल गया क्योंकि यही मेरा प्रश्न था। यही तुम्हारा प्रश्न हो ही नहीं सकता। यह आदमी अलग इस आदमी की पूरी जीवन-कथा अलग यह अलग ढंग से जीया है अनेक-अनेक जन्मों में यह अलग रास्तों से गुजरा है। यह अलग लोगों से जन्मा है अलग लोगों से से जुड़ा रहा है। इसके अलग संस्कार हैं। इसके भीतर जो प्रश्न उठा है वह तुम्हारा प्रश्न कभी हो ही नहीं सकता है।
हां, मैं जानता हूं कि शायद प्रश्न के शब्द एक जैसे हों रचना एक जैसी हो रूप-रंग एक जैसा हो लेकिन फिर भी एक जैसा हो नहीं सकता है। इसका प्रश्न इसका ही होना निजी होगा वैयक्तिक होगा। इसको दिया गया उत्तर भी निजी और वैयक्तिक है।
तो मुझे कहना पड़ता है कि तुम अपना प्रश्न पूछो। तुम इसकी बात में मत पड़ो। इससे जो मैंने कहा है तुमसे नहीं कहा है। और तुम इसको दिए गए उत्तर को अपना उत्तर मत बना लेना।
लेकिन हमारी भ्रांति होती है। तुम भी पूछने वही आए थे शब्दों में इस आदमी ने भी वही पूछा शब्दोें में। शब्द समान हैं। लेकिन अर्थ समान नहीं हो सकते। अर्थ तो तुम्हारे व्यक्तित्व से पड़ता है।
ऐसा ही समझो कि एक दर्पण के सामने तुम खड़े हुए। फिर उसी दर्पण के सामने दूसरा खड़ा हुआ। दर्पण तो समान है लेकिन दर्पण में बनने वाली तस्वीर बदल गई। जब तुम खड़े हो तो तुम्हारी तस्वीर बनती है। और जब दूसरा खड़ा है तो दूसरे की तस्वीर बनती है।
दर्पण तो समान है शब्द तो समान है इससे यह मत सोच लेना कि अर्थ समान बनते हैं। शब्द तो समान ही होंगे लेकिन अर्थ भिन्न हो जाते है। तुम जब किसी शब्द का उपयोग करते हो तो वह शब्द तुम्हारे अर्थ सेे रंजित हो जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति को गुरु से अपने लिए आदेश लेना चाहिए। उसके सार्वलौकिक वक्तव्य पृष्ठभूमि का काम करेंगे। तुम्हारी समझ को निखारेंगे साफ करेंगे। लेकिन उसके निजी वक्तव्य तुम्हें गतिमान करेंगे तुम्हारी साधना के सोपान बनेंगे।
‘गुरु कहै सो कीजिए। फिर यह भी मत सोचना। यह भी मन में विचार उठते हैं बार-बार कि मुझसे ऐसा कहा लेकिन खुद तो ऐसा करते हैं तो मैं क्या मानूं
तुम चिकित्सक के पास गए और चिकित्सक ने तुमसे कहा कि देखो कुछ दिन के लिए मिठाई न खाना। और दूसरे दिन तुमने चिकित्सक को देखा भोजनालय में बैठे मिठाई खाते। स्वभावत द्वंद्व मन में पैदा होता है कि यह क्या बात हुई मुझे कहा--मिठाई मत खाना और खुद मिठाई खा रहे हैं नहीं तुम ऐसा नहीं सोचते। इतने निर्बुद्धि नहीं हो। तुम सोचते हो मैं बीमार हूं तो मुझे जो कहा है वह मुझे कहा है। चिकित्सक बीमार नहीं है। चिकित्सक मिठाई खाए या न खाए यह उसकी मरजी। और चिकित्सक मिठाई खाता मिल भी जाए तो उसने तुमसे जो कहा है मिठाई न खाना उस वक्तव्य का खंडन नहीं होता। लेकिन अक्सर यह बात अड़चन लाती है।
गुरु ने एक बात तुमसे कही और तुमने गुरु के आचरण में उससे विपरीत बात देखी तो स्वभावत तुम आचरण पर ज्यादा भरोसा करोगे--बजाय वक्तव्य के। तुम सोचोगे वक्तव्य का कोई मुल्य नहीं जब गुरु आचरण ऐसा कर रहा है।
तो हम वक्तव्य की सुनें कि व्यक्ति को देखें चरणदास कहते हैं वक्तव्य सुनना। तुम बहुत दूर हो वहां से जहां गुरु है। गुरु के लिए जो सहज स्वाभाविक है वह तुम्हारे लिए नहीं। गुरु अब रुग्ण नहीं है निरोग हो गया है। गुरु अब स्वस्थ हो गया है। अब उसकी कोई बीमारी कोई चिंता कोई समस्या शेष नहीं रह गई। तुम्हारी सब समस्याएं शेष है सब बीमारियों से घिरे हो और तुम्हें अनेक तरह की औषधियों की जरूरत है तभी तुम समाधि को उपलब्ध हो सकोगे।
गुरु समाधि को उपलब्ध है। अब कोई व्याधि नहीं रही। इसलिए किसी औषधि का कोई प्रयोजन नहीं। लेकिन अकसर भ्रांति हो जाती है।
और हमें सदा ऐसा समझाया गया है। तथाकथित विचारशील लोग जो बहुत विचारशील नहीं हैं ज्यादा से ज्यादा थोड़े तर्कनिष्ठ हैं उन सब ने यही समझया है कि गुरु का वक्तव्य और व्यक्तित्व एक सा होगा। यह बात गलत है। गुरु का वक्तव्य और व्यक्तित्व अगर एक सा होगा तो वह व्यक्ति गुरु हो ही नहीं सकता। वह किसी के काम का नहीं होगा।
गुरु का व्यक्तित्व एक होगा और उसके वक्तव्य तो बहुत तरह के होंगे। क्योंकि जितने लोगों को वक्तव्य देगा उतने तरह के होंगे।
अगर कोई वैद्य अपने व्यक्तित्व और वक्तव्य की समानता रखे तो किसी बीमार के काम नहीं आ सकेगा और न मालूम कितने बीमारों की हत्या की जिम्मेवार हो जाएगा। अगर वह वही कहे जो करता है और वही करे जो कहता है तो फिर कठिनाई हो जाएगी। तुम्हारे किस काम का होगा
इसलिए अकसर ऐसा भी जाता है कि व्यक्ति परमज्ञान को उपलब्ध हो जाता है लेकिन गुरु नहीं बन पाता।
गुरु बनने की शर्त सभी ज्ञानी गुरु नहीं होते हैं। सभी गुरु ज्ञानी होते हैं लेकिन सभी ज्ञानी गुरु नहीं होते।
जैन परम्परा में दोे शब्दोें का उपयोग होता है। केवली--जो केवल-ज्ञान को उपलब्ध हो गया। और तीर्थंकर जो केवल-ज्ञान को उपलब्ध हो गया और साथ ही गुरु भी है।
क्या फर्क है दोेनों में इतना ही फर्क है केवली के आचरण और वक्तव्य में भेद नहीं होता। केवली वही कहता है जैसा जीता है। मगर वह किसी के काम का नहीं है। उसके वक्तव्य किसी के अर्थ के नहीं है। उसके वक्तव्य इतने दूर के हैं कि तुम उनका क्या करोगे क्या बनाओगे खाओगे पीओगे ओोेगे उसके वक्तव्य तुम्हारे किसी काम के नहीं। उसके वक्तव्य बड़े दूर आकाश के हैं। शुद्ध लेकिन इस पृथ्वी पर किसी के भी काम न आयेंगे। काव्य होगा उसके वक्तव्य में लेकिन किसी के जीवन में क्रांति उनसे पैदा नहीं होगी।
तीर्थंकर का अर्थ है ज्ञान को उपलब्ध हुआ व्यक्ति अपने ज्ञान से जीता है लेकिन अनुकम्पा के कारण जो उनके पास आते हैं उन पर ध्यान रखकर उनकी व्याधि की चिंतना करके उनकी व्याधि का निदान करके उनके योग्य पथ्य और औषधि का विवेचन करता है। उनके योग्य वक्तव्य उनको ध्यान में रख कर दिए जाते हैं।
गुरु के लिए चिकित्सक होना पड़ता है। और तुमने देखा जाते हो चिकित्सालय में कितनी औषधियां हैं सभी तुम्हारे लिए नहीं हैं। तुम्हारे लिए कोई एक औषधि होगी और तुम उसे न खोज पाओगे। तुम्हें सारा औषधालय दे दिया जाए--कि खोज लो अपनी औषधि यहीं कहीं होगी इन्ही सब औषधियों में छिपी पड़ी होगी खोज लो खुद। तो बजाय कि तुम बीमारी से मुक्त हो तुम और भी बीमार हो जाओगे। कैसे खोजोगे
गुरु खोजता है औषधि तुम्हारे लिए। गुरु तुम्हारी नब्ज पकड़ता है। गुरु देखता है कहां तुम्हारी समस्या ग्रंथि है। कैसे खुलेगी किस उपाय से खुलेगी उस उपाय की तुमसे बात करता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि उस उपाय का वह खुद भी प्रयोग करेगा।
एक युवक मेरे साथ यात्रा पर गया। उसके पहले वह कभी मेरे साथ कहीं गया नहीं था। आता था शिबिरों में ध्यान करता था सुनता था पर बहुत दिन से मेरे पीछे पड़ा था कि एक बार एक सप्ताह आपके पास रहना है। तोे जब मैं यात्रा पर था मैंने उसे बुला लिया। वह मेरे साथ एक सप्ताह था। वह देखता रहा होगा सब--मैं क्या करता हूं क्या नहीं करता हूं। उसे बड़ी हैरानी हुई। दोेप्तीन दिन तो वह ध्यान करता रहा चैथे दिन उसने ध्यान छोड़ दिया। मैंने पूछाः क्या हुआ आज ध्यान नहीं किया? कहा कि जब आप ही नहीं करते तो मैं क्यों करूं मैं आपको देख रहा हूं चार दिन से आप कभी ध्यान नहीं करते तो मैं क्यों करूं।
उसकी बात में तर्क है। इसीलिए शायद वह मेरे पास भी आकर रहना चाहता था कुछ दिन कि मुझें देख ले। तो यह तो हानि हुई यह तो लाभ न हुआ।
मैंने उससे कहाः मैं ध्यान नहीं करता; क्योंकि ध्यान तो औषधि है। मन की बीमारी है तब तक ध्यान की औैषधि। मन की बीमारी गई फिर औषधि को पीते रहो तो खतरा है। फिर ध्यान भी नुकसान पहंुचाएगा।
मन गया तो ध्यान गया। ध्यान तो उपाय था। जैसे एक कांटा पैर में लगा था दूसरा कांटा उठाया और पहले कांटे को निकाल लिया। फिर दोेनों कांटे फेंक देने पड़ते है। यद्यपि दूसरे कांटे ने बड़ी कृपा की पहले काँटे को निकालने में सहयोगी हुआ। पर उसे धाव में रख थोड़े ही लोगे उसकी पूजा थोड़े ही करोगे
ध्यान तो कांटा है मन का कांटा निकाल जाए विचार का कांटा निकल जाए विचार का उत्पात समाप्त हो जाए फिर कोई ध्यान थोड़े ही करता है। फिर तो ध्यान में ही होता है ध्यान करता नहीं। फिर तो उठता है तो ध्यान बैठता है तो ध्यान। लेकिन यह ध्यान तो दिखाई नहीं पड़ेगा। ध्यान तोे किया जाए तो ही दिखाई पड़ सकता है।
ध्यान जब सहज दशा हो जाती है तब उसको हम समाधि कहते है। जब तक करना पड़े तब तक ध्यान। जब बिना किए बरसने लगे तब समाधि। तब उसका मूल गुण बदल गया। अब करना नहीं पड़ता। अब तो बीमारी नहीं रही करने का कोई सवाल नहीं रहा।
भेद करने के लिए कृत्यरूपी ध्यान में और अवस्था रूपी ध्यान में दोे शब्दोें का प्रयोग होता है ध्यान और समाधि। ध्यान किया जाता है समाधि की नहीं जाती। समाधि तो बस है। जब ध्यान ने मन को निकाल फेंका तब तो शेष रह जाती है दशा वह समाधि है।
मैंने उसने कहाः मैं जो कहता हूं वह करो। मैं जो करता हूं उसकी चिंता तुम मत लो अन्यथा तुम भटकोगे। इसे ध्यान रखना।
गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।
चरनदास की सीख सुन यही राख मन माहिं।।
सदा ध्यान में रखो क्या कह गया है। उसी को करो उतना ही करो। और जो तुम से कहा गया है उसे तो बिल्कुल बहुमूल्य सम्पदा की तरह सुरक्षित रखना।
हर आदमी की अलग दशा है।
‘भूखे भजन न होहिं गुपाला
यह कबीर से पद की टेक
देह की है भूख एक
कामनी की चाह मन्मथ दाह
तन को है तपाते
ओ लुभाते विषयभोग अनेक
चाहते ऐश्वर्य सुख जन
चाहते स्त्री पुत्र औ धन
चाहते चिर प्रणय का अभिषेक
देह की है भूख एक
‘भूखे भजन न होहिं गुपाला
यह कबीर के पद की टेक
देह की है भूख एक
दूसरी रे भूख मन की
चाहता मन आत्म गौरव
चाहता मन कीर्ति सौरभ
ज्ञान मंथन नीति दर्शन
मान पद अधिकार पूजन
मन कला विज्ञान द्वारा
खोलता नित ग्रंथियां जीवन-मरण की
दूसरी यह भूख मन की
तीसरी रे भूख आत्मा की गहन
इंद्रियों की देह से ज्यों है परे मन
मनो जग से परे त्यों आत्मा चिरंतन
जहां मुक्ति विराजती
औ डूब जाता हृदय क्रन्दन
वहां सत् का बास रहता
वहां चित् का लास रहता
वहां चिर उल्लास रहता
यह बताता योग दर्शन
किन्तु ऊपर हो कि भीतर
मनो गोचर या अगोचर
क्या नहीं कोई कहीं ऐसा अमृत धन
जो धरा पर बरस भर दे भव्य जीवन
जाति वर्गों से निखर जन
अमर प्रीति प्रतीति बंध
पुण्य जीवन करें यापन
ओ धरा हो ज्योति पावन

अलग भूखें है अलग तरह की भूखों से भरे हुए लोग हैं। कोई अभी तन की भूख से भरा है। उसके लिए गुरु अलग औषधि देगा। किसी की तन की भूख तो मर गई मर की भूख जगी है। गुरु उसे अलग औषधि देगा। लेकिन कोई सौभाग्यशाली ऐसा भी कभी आता जिसके मन की भूख भी मर गई है उसकी आत्मा की भूख जगी है। गुरु उसे और ही औषधि देता है।
ये औषधियां अलग-अलग होंगी। ये तुम्हें देख कर दी जाती है। गुरु अपने को देख कर दे तब तो एक ही चीज देगा सच्चिदानंद बांटता रहेगा। लेकिन वह तुम्हारे काम का नहीं।
तुम रोटी मांगने आए थे और गुरु सच्चिदानंद दें तो तुम नाराज लौटोगे। तुम कहोगे सच्चिदानंद को खायें पीयें पहरें--क्या करें रोटी चाहिए थी।
तुम मन की चिंता लेकर आए थे। तुम मन के रोगों से भरे थे। मन विक्षिप्त हुआ जाता था और गुरु ने कहा सच्चिदानंद। तुम कहोगे क्या करें सच्चिदानंद को इधर मन जल रहा इधर मन लपटों से भरा इधर हजार कीड़े मन को कुरेदते हैं इधर हजार वासनाएं मन में सरकती है। सच्चिदानंद इस कहने से क्या होगा
गुरु वही दे जो उसके भीतर हुआ है तो वह किसी के काम का न रह जाएगा। या उनके ही काम का रह जाएगा जिनको कोई जरूरत नहीं है। जो उसी दशा में हैं सच्चिदानंद की दशा में हैं। उनको कोई जरूरत नहीं है।
तुम जहां हो वहीं से यात्रा शुरू करनी होगी। तुम अगर बहुत बालबुद्धि से भरे हो तो तुम्हे कुछ खिलौने देने होंगे। तुम उनसे खेलो। यह मत सोचना कि गुरु इन खिलौनों से नहीं खेल रहा है तो हम क्यों खेलें ऐसा सोचा तो चूक होगी बड़ी चूक होगी पीछे बहुत पछताओगे।
अब के चूके चूक है फिर पछतावा होय।
जो तुम जक्त न छोड़िहौ जनम जायगो खोय।।
और चरणदास कहते हैं अब के चूके चूक है गुरु मिल गया और चूके तो अब के चूके बड़ी चूक हो गई। गुरु न मिला और चूकते रहे तो क्षम्य है बात। गुरु नहीं था चूकते न तो क्या करते स्वाभाविक था। माझी न मिला नाव न मिली उस तट को जाननेवाला न मिला और तुम इसी तट पर अटके रहे समझ में आती है बात। करते भी तो क्या करते
ऐसे अज्ञात में ऐसे अनजान में अथाह में उतर जान संभव भी तो नहीं था। दूसरा तट दिखाई भी तो नहीं पड़ता था। होगा भी इसका भी तो भरोसा नहीं था। कोई तो ऐसा नहीं मिला था जिसकी आंख में दूसरे तट के दृश्य तुमने देखे होते। कोई तो ऐसा नहीं मिला था जिसके पास तुमने धुन सुनी होती दूसरे तट की। कोई तो ऐसा नहीं मिला था जिसके हाथ में हाथ रख कर तुमने अनुभव किया होता स्पर्श परलोक का। किसी की आंखों में झांक कर देखा होता स्वर्ग देखा होता आनंद सुना होता संगीत अनाहत का नाद ऐसा कोई भी तो न मिला तो तुम अगर अटके रहे इसी किनारे पर खूंटियां बांध कर अगर तुम जोड़ते रहे रुपया-पैसा पद-प्रतिष्ठा तो क्षमायोग्य हो।
चरणदास कहते हैंः लेकिन अगर गुरु मिल गया और फिर भी तुम इस किनारे पर अटके रहे तो फिर क्षमायोग्य भी बात न रही।
‘अब के चूके चूक है। इतने दिन तक चूकते रहे चलेगा। लेकिन गुरु मिला और फिर चूके फिर नहीं चलेगा। फिर तो निश्चित ही तुम अपराधी हो। फिर तो तुम बहाने ही कर रहे थे इतने दिन से कि गुरु नहीं है इसलिए कैसे जाएं उस पार। कोई नाव का खेवैया नहीं, कोई पतावर को सम्हालने वाला नहीं कैसे जाएं उस पार तो इतने दिन तक तुम जो बाते कर रहे थे--कैसे जाएं उस पार वे सब झूठी मालूम पड़ती है। तुम जाना नहीं चाहते थे। अब खेवैया मिला अब नाव द्वार पर खड़ी है पतवार तैयार है बस तुम्हारे बैठने की देर है कि नाव छुटे लेकिन तुम नाव में बैठते नहीं।
‘अब के चूके चूक है फिर पछतावा होय। और गुरु का मिलन कभी-कभी गुरु का मिलन रोज-रोज की बात नहीं। हो सकता है एक बार मिलना हो गया गुरु से फिर जन्मों-जन्मों तक न हो।
पुरानी बौद्ध कथा है कि संसार ऐसा है जैसे एक राजमहल जिसमें हजार दरवाजे हैं और एक ही दरवाजा खुला है। नौ सौ निन्यानबे दरवाजे बंद हैं। और आदमी ऐसे है इस संसार में जैसे अन्धा उस राजमहल में बंद। वह अंधा टटोलता है। नौ सौ निन्यानबे दरवाजे तो बंद हैं। इसलिए उनसे तो निकलने का उपाय ही नहीं है। वह टटोलता टटोलता लंबी यात्रा के बाद उस दरवाजे के करीब आता है जो खुला है। लेकिन जरा-सी चूक हो गई। एक मक्खी उसके सिर पर आ बैठी तो वह मक्खी को उड़ाता हुआ खुले दरवाजे के सामने से निकल गया फिर टटोलने लगा। अब फिर नौ सौ निन्यानबे दरवाजे फिर न मालूम किस जनम मेें खुले दरवाजे के पास आएगा और क्या पक्का भरोसा है कि पैर में खुजलाहट न उठ आएगी। क्या पक्का भरोसा है कि फिर कोई बाधा व्यवधान खड़ा न हो जाए। और चूक जाना क्षण में हो जाता है।
वह टटोलता हुआ चल रहा है कोई बाधा आ गई हाथ उलझ गए और बिना टटोले निकल गया। दो कदम बिना टटोले निकल गया कि चूक गया। फिर जन्मों-जन्मों तक
यह कथा प्रीतिकर है। ऐसी दशा है। कभी-कभार ऐसा होता है कि तुम किसी बुद्ध पुरुष के करीब आ जातें हो खोजते-खोजते जन्मों-जन्मों में। लेकिन बुद्ध के करीब आ जाना काफी नहीं है उस द्वार से निकलो। सुनो बुद्ध क्या कहते हैं करो--बुद्ध क्या कहते है। कोई बहाना मत खोज लेना।
और बहाने हजार हैं और बहाने सदा उपलब्ध हैं और बहानों में बड़ा तर्क-बल है। छोटी सी बात चुका दे सकती है। ऐसी ही छोटी बात जैसे मक्खी सिर पर बैठ गई। अंधा मक्खी उड़ाने लगा और चल गया दोे कदम खुला दरवाजा चूक गया। आंख तो बंद ही है इसलिए खुला दरवाजा दिखता नहीं। हाथ भी उलझ गए। मक्खी उड़ाने में। अब मक्खी जैसी छोटी सी चीज चुका गई भटका गई। कभी-कभी बहुत छोटी चीजें भटका देती हैं।
ख्याल रखना बहाने हजार हैं भटकने के।
कल एक मित्र ने प्रश्न पूछा है कि संन्यस्त होना चाहता हूं। पूरी श्रद्धा है भावना है। लेकिन थोड़ी अड़चनें है। पूरे गैरिक वस्त्र न पहन सकूँगा। एक वस्त्र पहनँू तो चलेगा
मक्खी से ज्यादा बड़ी बात नहीं है। क्या अड़चन हो सकती है इस संसार में--गैरिक वस्त्र पहनने में हां कुछ अड़चन होगी मुझे समझ में आती है। लेकिन मक्खी से ज्यादा बड़ी बात नहीं है। लोग दोे-चार दिन हंसेंगे। पत्नी शायद कहेगी कि दिमाग खराब हो गया बच्चे कहेंगे कि पिताजी आप से ऐसी आशा न थी मित्र कहेंगे कि आप जैसा बुद्धिमान और समझदार आदमी किस जाल में पड़ गया। लोग थोड़े हंसेंगे फिर क्या है कितनी देर लोग हँसते हैं लोगों को फुर्सत भी कहाँ है कोई तुम्हारे लिए ही सोचते बैठे रहेंगे।
क्या अड़चन होगी शायद पत्नी एकात दिन नाराज रहेगी। शायद एक-दोे दिन चाय ठंडी मिलेगी भोेजन बासा मिलेगा। और क्या होने वाला है
अड़चन क्या है अड़चन मूल्यवान तो हो ही नहीं सकती। हो सकता है एक जगह काम करते हो वहां से नौकरी छूट जाए। बड़ी से बड़ी अड़चन यह होगी। तो दूसरी जगह काम मिल जाएगा। कोई जिंदगी एक ही जगह नौकरी से तो अटकी नहींं।
हो सकता है पदोेेन्नति होने वाली थी रुक जाएगी मालिक नाराज हो जाएगा। एकात साल और पदोेेन्नति रुकी रहेगी। या हो सकता है कि कहीं दूसरी जगह स्थानान्तरण कर दें। इसी तरह की बातें मगर मक्खी से ज्यादा इनका मूल्य नहीं है।
इन बातों के लिए अगर श्रद्धा और भावना को रोका तो दरवाजा खुला है उससे चूक जाओगे।
हिम्मत करनी ही पड़ेगी। इस संसार से मुक्त होेने के लिए थोड़ी अड़चनें उठानी ही पड़ेंगी। तुम चाहो कि सब सुविधा-सुविधा में हो जाए अड़चन हो ही ना पैर कांटा न लगे और यात्रा पूरी हो जाए कंकड़ न चुभे और यात्रा पूरी हो जाए पसीना न बहे और मंजिल आ जाए तो नहीं होगा। कुछ श्रम तो उठाना पड़ेगा कुछ असुविधा झेलनी पड़ेगी।
अब मित्र ने यही पूछा है कि एकात मुख्य वस्त्र और उनके प्रश्न को प. कर मुझे ऐसा लगा कि मुख्य वस्त्र से उनका मतलब है एकात अंदर कुछ पहन लेंगे। तो किसी को दिखे भी न किसी की पकड़ में भी न आए। मगर इतने डरे हुए हो अगर संसार से इतने भयभीत तो क्रांति न हो सकेगी।
जहां श्रद्धा हो भावना हो वहां पूरे जीवन को दांव पर लगाने की हिम्मत होनी चाहिए। यह भी कोई दांव है इतना भी साहस नहीं जुटा पाओगे फिर क्या अर्थ रहा श्रद्धा का और भावना का बड़ी लचर नपुंसक श्रद्धा और भावना हुई। कुछ तो कीमत चुकाओ श्रद्धा-भावना मुक्त पाने की कोशिश तो मत करो कुछ तो कीमत चुकाओ कुछ तो अड़चन उठाओ मगर ऐसी ही छोटी-छोटी बातें हैं।
मेरे पास पत्र आते हैं लोगों के। वे कहते है हमें और सब ठीक। आपकी बातें सब ठीक लगती हैं मगर जब से ये गैरिक संन्यासी आपके पास इकट्ठे हुए हैं तब से हमने आना बंद कर दिया। आपकी बातें अच्छी लगती हैं आपकी बातों में सार है।
अब यह बड़े मजे की बात है। अगर मेरी बातों में सार है तो तुम्हें प्रयोजन--कि कौन मेरे पास गैरिक वस्त्र पहनकर आया है कौन संन्यासी है कौन नहीं तुम आए चले जाओ। लेकिन यह बात बाधा बन गई। यह अड़चन हो गई। मक्खी ने अटका दिया। छोटी सी बात। सोचो तो किसी मूल्य की नहीं।
ध्यान रखना,
अब के चूके चूक है फिर पछतावा होय।
जो तुम जक्त न छोड़ि हौ जन्म जायगो खोय।।
इस जगत को इस संसार को थोड़ा-थोड़ा छोड़ने की तैयारी करो और मैं तुमसे एकदम से छोड़ने को भी नहीं कहता हूं एकदम छोड़ने की जल्दबाजी करने को भी नहीं कहता हूं धीरे-धीरे इस मोह को मुक्त करो। रहो यहीं और धीरे-धीरे अलिप्त हो जाओ।
इस संसार में कठिनाइयां हैं इस संसार में विपदाएं हैं इस संसार में हजार तरह की जंजीरे हैं लेकिन अगर तुम थोड़े अतिप्त होने लगो तो अपूव रूपांतरण शुरू होता है। राह के पत्थर सी.ियां बन जात हैं। आंधियाँ चुनौतियां बन जाती हैं। बीमारियां ही स्वास्थ्य तक पहंुचने के लिए सी.ियां बन जाती हैं।
जीने के अगर चंद सहारे भी मिले हैं
तो जान से जाने के इशारे भी मिले हैं
हरचंद रहे इश्क के गम सख्त हैं लेकिन
इस राह के कुछ गम हमें--यारे भी मिले हैं
कुछ अपनी वफाओं से उम्मीद भी हमको
कुछ उनकी निगाहों के सहारे भी मिले हैं
ऐ राहखे-राहे-जुनूं भूल न जाना
इस राह में जी जान से हारे भी मिल हैं
इल्जागे-गाफुल हमें तस्लीम है लेकिन
बदले हुए अंदाज तुम्हारे भी मिले हैं
क्या कीजिए तदबीर से हारा नहीं जाता
गो राह में तकदीर के मारे भी मिले हैं
तूफां में सभी डूब तो जाते नहीं अख्गर
कुछ लोगों को तूफां में किनारे भी मिले हैं।
सब तुम पर निर्भर है। कुछ लोगों का तूफां में किनारे भी मिले हैं। लोग भी हैं जिन्होंने तुफान को किनारा बना लिया है। और ऐसे अभागे लोग भी हैं जो किनारे पर बैठे-बैठे डूब भी गए हैं जिनके लिए किनारा ही तुफान हो गया है। सब तुम पर निर्भर है।
‘हरचंद रहे इश्क के गम सख्त हैं लेकिन इस प्रेम मार्ग की पीड़ाएं बड़ी कठोर हैं। इस राह के कुछ गम हमें -यारे भी मिले हैं। लेकिन ऐसा मत सोचना कि बस इतना ही है। इस राह के कुछ गम हमें--यारे भी मिले हैं। कुछ ऐसे दुख भी हैं इस राह पर कि जो प्रेम की अनंत संभावनाएं बन जाते हैं। देखने की नजर की बात है दृष्टि की बात है।
दुख में उलझ जाओ तो घाव बन जाता है। दुख में जाग जाओ तो दुख ही परमात्मा की तरफ ले जाने वाला द्वार बन जाता है।
ख्याल किया दुख में परमात्मा का स्मरण आता है। द्वार बहुत करीब होता है। समझ हो तो हर
दुख परमात्मा की याद बन जाए। समझ हो तो हर दुख को तुम बड़ी संपदा में बदल लो। और तब तुम ऐसा भी न कहोगे अंत में कि दुख बुरे थे। क्योंकि उन्ही दुखों के सहारे तुम बड़े और परमात्मा तक पहंुचे।
सूफी फकीर हसन अपनी प्रार्थना में कहा करता था प्रभु ऐसा कोई दिन मत देना जिस दिन मुझे कोई दुख न हो। उसके शिष्यों ने पूछा हसन यह भी कोई प्रार्थना है हम भी प्रार्थना करते हैं। हम कहते हैं भगवान् कभी तो ऐसा दिन दिखा जब कोई दुख न हो। तुम्हारी प्रार्थना बड़ी उलटी है तुम प्रार्थना करते हो कि प्रभु ऐसा कोई दिन मत देना कि जिस दिन दुख न हो
हसन ने कहा कि मुझे दुखों से इतना मिला है दुखों से ही परमात्मा की याददाश्त मिली। यह
दुखों के सहारे ही मैंने उसे खोजना चाहा है। अगर सब सुख होता तो एक बात पक्की थी हसन परमात्मा की तरफ न जाता। दुखों ने मुझे बहुत दिया है। इसलिए याददाश्त दिलाता हूं उसे कि कही भूल-चूक से ऐसा मत करना कि दुख बिल्कुल ही छीन लेे। डरता हूं कि दुख छिन जाए तो कहीं सुख में भटक न जाऊं भूल न जाऊं। सुख की नींद में कही खो न जाऊं सो न जाऊं। दुख जगाए रखता है। और दुख से इतना पाया है
हरचंद रहे इश्क के गम सखत है लेकिन
इस राह के कुछ गम हमें--यारे भी मिले हैं
तूफां में सभी डूब तो जाते सहीं अख्गर
कुछ लोगों को तूफां में किनारे भी मिले हैं।
इस संसार को समझो इस संसार में जागो इस संसार में थोड़े अलिप्त बनो। और भगोड़े नहीं--अलिप्त। भगोड़े हो गए वह भी अलिप्तता से बचने का उपाय है।
चले गए जंगल छोड़ कर सब छोड़-छाड़ कर भाग गए। तो जंगल में तुम्हारे पास कुछ भी न होगा लिप्त होनेे के लिए कोई साधन न होगा। लेकिन इससे पक्का नहीं होता कि तुम्हारी लिप्तता चली गई। साधन खो गए।
एक आदमी के पास भोजन नहीं है इससे यह सिद्ध नहीं होता कि भूख खो गईं। या कि इससे सिद्ध होता है भोजन नहीं है इससे भूख तो नहीं खो गई। भूख खो गई--इसका पता तो तभी चलेगा जब भोजन के ढेर लगे हों तुम्हारे तरफ और तुम अलिप्त मन बैठे हो तुम्हें भोजन का पता ही नहीं कि तुम्हारे चारों तरफ भोजन के ढेर लगे हैं। तभी पता चलेगा कि भूख खो गई।
धन के ढेर लगे हों तुम्हारे चारों तरफ और तुम्हारे मन में धन की कोई चाहत न हो तो अलिप्तता।
भाग गए जंगल तो धन से भाग गए लेकिन अलिप्तता तो नहीं इससे पैदा हो जाएगी। शायद भागने का सारा आधार ही तुम्हारी लिप्तता का भय है।
तुम डरते हो तुम डरते हो कि अगर धन हुआ तो मैं लिप्त निश्चित हो जाऊंगा। अगर स्त्री हुई तो मैं प्रेम में पड़ जाऊंगा। अगर मित्र हुए तो मोह में बंध जाऊंगा। छोड़ के सब भाग गए हो। लेकिन परिस्थिति से भागने से कहीं मनस्थिति बदली है कभी बदली है कभी नहीं बदली है।
तो ख्याल रखना जो तुम जक्त न छोड़ि हौ जनम जायगो खोय। छोड़ने का अर्थ आगे तुम्हें साफ होगा।
पिछले सूत्र में चरणदास ने कहा है रूठे से जग में रहो रूठे से। जग से भागने की बात नहीं कही है। जग में ही जागने की बात कही है।
जिन्दगी एक लंबी दौ.ैड़ है
व्यर्थ और बेसूद।
थककर बैठ जाने पर भी कुछ हाथ नहीं आता
और मंजिल को पा लेने पर भी कुछ नहीं।
इस पर भी निरंतर चलना ठोकर खाना
गिरना फिर उठ कर भागना ही अच्छा लगता है
क्योंकि चलते रहना जिंदगी के अनुकूल है
और रुक जाना प्रतिकूल
‘मौत से पहले मर जाने का जी नहीं होता। लेकिन जो मौत के पहले मर जाए वही संन्यस्त है। जी तो नहीं होता--मौत से पहले मर जाने का। मरने का जी कैसे हो मन तो जिलाए रखना चाहता है कि जीयो दौड़ो भागो। कुछ करो। हालांकि यह भी साफ है कि न कुछ करने से मिलता है न कुछ न करने से मिलता है। अगर कुछ मिलता है तो जीवन के प्रति जागने से मिलता है। लेकिन उस जागने में ही मौत घट जाती है।
अलिप्तता का अर्थ होता हैः संसार में रहो और ऐसे जैसे कि मर गए मृतवत।
‘जो तुम जक्त न छोड़िहौ जनम जायगो खोय और जीवन ऐसे ही खो जाएगा जैसे कोई सरिता मरुस्थल में खो जाए। बचा लो कुछ बचा लो।
जग माहीं न्यारे रहौ लगे रहौ हरिध्यान।
पृथ्वी पर देही रहै परमेसुर में प्रान।।
-यारा वचन है जग माहीं न्यारे रहौ यह अर्थ हुआ। रहो तो जग में ही मगर न्यारे अलग-थलग। घिरे--और फिर भी घिरे नहीं। बीच में--और फिर भी पार। रहो बाजार में शोरगुल में लेकिन सम्हाले रखो भीतर की संपदा सम्हाले रखो भीतर की शांति सम्हाले रखो भीतर का मौन। उठने दो शोरगुल बाहर। बाहर के शोरगुल से कोई व्याघात नहीं होता जब तक तुम भी उस बाहर के शोरगुल को पकड़ने न लगो तब तक कोई व्याघात नहीं होता। अगर तुम निश्ंिचत मना शांत भीतर बैठे रहो बाहर उठने दो शोरगुल चलने दो तूफान और तुम चकित हो जाओगे तुफान में ही पा लिया किनारा। बाजार में ही मिल जाता हिमालय। और बाजार में मिले तो ही मजा है। बाजार में शांति मिले तो तुम्हारी हिमालय मर मिले तो हिमालय की। हिमालय से उतरे कि खो जाएगी।
‘जग माहीं न्यारे रहौ न्यारे शब्द--यारा है। इसके कई अर्थ होते हैं। एक अर्थ तो होता है--अनासक्त अलगाव में अलग-थलग। जैसे जल में कमल के पत्ते होते है ऐसे न्यारे। दूसरा अर्थ होता है। निराले भीड़-भाड़ जैसे नहींं। व्यक्तित्व को जन्माओ आत्मवान बनो। ऐसे भीड़ के साथ अंधे भेड़ की तरह मत चलते रहो। भेड़-चाल छोड़ो। लकीर के फकीर मत रहो न्यारे बनो। थोड़ा अपने जीवन को अपना ढंग दो, अपना रंग दो।
और लोग जैसा कर रहे है ऐसा ही करते रहोगे तो नकली ही रहोगे कभी असली न हो पाओगे। और ध्यान रखना कि तुम अद्वितीय हो। प्रत्येक अद्वितीय है। प्रत्येक को परमात्मा ने न्यारा बनाया है भिन्न बनाया है। दो व्यक्ति एक जैसे नहीं बनाए। कोई किसी की कार्बनकापी नहीं है। आदमी को तो छोड़ दो दो कंकड़ एक जैसे नहीं पाओगे। दो पत्ते एक जैसे नहीं पाओगे।
यहां प्रत्एक चीज का व्यक्तित्व है। और दुनिया में सब से बड़ी जो हानि है वह व्यक्तित्व को गंवा देना है। और भीड़ वही मांगती है। भीड़ कहती है तुम व्यक्ति मत रहना। हम जैसे कपड़े पहनते है ऐसे कपड़े पहनो। हम जिस सिनेमा में जाते हैं उस सिनेमा में जाओ। हम जिस क्लब के मेंबर हैं उनके मेंबर बनो। हम जो खाते हैं वह खाओ। हम जो पीते है वह पीओ। हम जो बतियाते हैं वह बतियाओ। हमारा मंदिर तुम्हारा मंदिर हो हमारी मस्जिद तुम्हारी मस्जिद। तुम अलग-थलग होने की कोशिश मत करना तुम अपनी घोषणा मत करना।
तुम बस चुपचाप नंबर की तरह जीयो आदमी मत बनो। जैसे मिलिटरी में नंबर होते हैं ना एक आदमी मर जाता है वे कहते है ग्यारह नंबर गिर गया। नंबर गिरता है आदमी नहीं मरता वहां। और ग्यारह नंबर मर गया तो कोई अड़चन नहीं आती। किसी भी आदमी को ग्यारह नंबर दे दिया। फिर ग्यारह नंबर ख.ड़ा हो गया। अब यह जरा सोचने जैसा है।
एक आदमी मरता हो तो उसकी जगह को भरने का कोई उपाय नहीं है। नंबर मरता हो तो भरेने में कोई दिक्कत ही नहीं। एक आदमी मरता है तो कैसे उसकी जगह भरोगे क्योंकि उस जैसा कोई आदमी कभी हुआ ही नहीं। न पहले कभी हुआ है न अभी है न आगे कभी होगा। उसकी जगह तो सदा के लिए खाली हो गई सदा-सदा के लिए रिक्त हो गई। वह कितना ही दीन-हीन रहा हो कितना ही साधारण रहा हो कितना ही सामान्य रहा हो चाहे उसमें कोई भी विशिष्ठता न रही हो फिर भी वह विशिष्ट था। परमात्मा ने उसे अलग ही बनया था न्यारा बनाया था। उस जैसा फिर दूसरा नहीं बनाया था।
आदमी मशीन नहीं है। मशीनें एक जैसी बहुत हो सकती हैं। रास्ते पर तुम देख सकते हो एक-सी फियट कार सैैकड़ों हो सकती है हजारों-लाखों हो सकती हैं। लेकिन एक जैसे दो आदमी तुमने कभी देखे दो जुड़वाँ भाई भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। उनमें भी भेद होते हैं उनमें भी व्यक्तित्व की भिन्नताएं होती है। उनमें से एक कवि बन जाएगा दूसरा इंजीनियर बन जाएगा। उनमें से एक संन्यस्त हो जाएगा दूसरा राजनीतिज्ञ हो जाएगा। उनमें भी भिन्नताएं होती हैं। दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते।
मिलिटरी में नंबर रखते हैं नंबर रखने से सुविधा होती है। एक आदमी गया नंबर गिरा नंबर बदल दो। दूसरे आदमी को ग्यारह नंबर दिया वह आदमी उसकी जगह आ गया। सब खेल नंबर का है। और ऐसी ही हालत समाज में है।
समाज तुम्हें नंबर बना कर जिलाना चाहता है। तुम नम्बर बनकर जीयो न्यारे मत बनना। इसलिए तुम जब भी जरा थोड़े भिन्न होओगे तभी तुम पाओगे अड़चन शुरू हुई।
यही तो जिन मित्र ने कल पूछा कि थोड़ी अड़चनें हैं गैरिक वस्त्र में। यही अड़चनें हैं। न्यारे होने की अड़चनें हैं। लोग बरदाश्त नहीं करते किसी आदमी का व्यक्तित्व ग्रहण करना। कोई आदमी अपनी धुन से जीने लगे लोग नाराज होते है। लोक कहते है तो हमारे घेरे के बाहर जाते हो तो अपने को विशिष्ट बतलाते हो तो लोग इसका बदला लेंगे। लोग तुम्हें तकलीफ देंगे। लोग इतनी आसानी से तुम्हें छोड़ नहीं देंगे।
ऐसा ही समझो कि भेड़ों का एक झुंड चल रहा है और एक भेड़ अलग-थलग चलने लगे सारी भेड़े नाराज हो जाएंगी। यह बात ठीक नहीं। यह जमात के अनुकूल नहीं। उस भेड़ को कष्ट देंगी बाकी भेड़ें। भेड़ें कहेंगी वापस लौट आओ भीड़ में। ऐसे अगर हमने लोगों को अलग-अलग चलने दिया तो धीरे-धीरे जमात टूट जाएगी समाज टूट जाएगा।
समाज बरदाश्त नहीं करता व्यक्तियों को। व्यक्तियों को पोंछता है मिटाता है। समाज चाहता है निव्र्यक्ति की तरह तुम रहो व्यक्तिशून्य आंकड़े।
तो न्यारे शब्द का यह भी अर्थ होता है जग माहीं न्यारे रहौ। अपने ढंग से रहो। यह जिन्दगी मिली इस जिंदगी को कुछ अपना ढंग दो। इस जिंदगी में अपना गीत गाओ अपनी वीणा बजाओ। कुछ भी हो कीमत मूल्य कुछ भी चुकाना पड़े।
जो आदमी विद्रोह में जीता है वही आदमी जीता है। जो आदमी बुनियादी रूप से बगावती है वही आदमी है और उसी को मैं धार्मिक कहता हूं।
धार्मिक व्यक्ति साम्प्रदायिक नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति निजी होता है नियम व्यवस्था इन्हें तोड़ कर अपनी जागरूकता और अपनी स्वतंत्रता में जीने की चेष्टा करता है। उसी स्वतंत्रता पर च.ते-च.ते तुम एक दिन परम स्वतंत्रता, मोक्ष को उपलब्ध होओगे। उससे अन्यथा कोई उपाय नहीं।
धीरे-धीरे हिम्मत जुटाओ। धीरे-धीरे जंजीरे तोड़ो। और मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि तुम एकदम सब तोड़ दो क्योंकि वे जंजीरे तुम्हारी इतनी पुरानी आदत हो गई हैं कि उनके बिना तुम जी न सकोगे। मगर धीरे-धीरे तोड़ना तो शुरू करो। एक-एक सींकचा काटते-काटते एक दिन तुम पाओगे द्वार खुल गया है अब तुम बाहर उड़ सकते हो।
और ख्याल रखना आकाश में उड़ता हुआ पक्षी और पिंजड़े में बंद हुए पक्षी में बड़ा फर्क है। पिंजड़े में बैठे पक्षी में और आकाश में उड़ते पक्षी में बड़ा फर्क है। वे दोनों एक ही जैसे नहीं हैं। और यह भी हो सकता है कि पिंजड़े में बैठा पक्षी बड़ी सुविधा में हो। न भोजन की फिक्र वक्त पर मिल जाता है। शायद यह भी सोचता हो कि नौकर-चाकर मेरे लगे हैं। जब देखो ठीक वक्त पर भोजन ले आते हैं स्नान करवा
देते हैं पिंजड़ा साफ कर देते हैं। यह भी हो सकता है कि पिंजड़ा सोने का हो हीरे-जवाहरात जड़ा हो और पक्षी भीतर बैठ कर अकड़ता हो कि ऐसा पिंजड़ा किसके पास।
ऐसे ही तुम्हारे राष्ट्रपति प्रधानमंत्री अकड़ते हैं ऐसा पिंजड़ा किसके पास है। सोने-चांदी का है कोई साधारण पिंजड़ा नहीं है। मगर अब पंख कट जाते हैं। पंख कटने की कीमत पर मिलता है पिंजड़ा।
उड़ता हुआ आकाश का पंछी न सोना-चांदी है न हीरे-जवाहरात हैं। मगर क्या तुम पसंद करोगे सोने का पिंजड़ा चुन लेना--सुविधा सुरक्षा व्यवस्था या कि तुम स्वतंत्रता पसंद करोगे यही भेद है। यही निर्णायक बात है।
संन्यास उसी के जीवन में फलित होता है जो आकाश का खतरा झेलने को तैयार है जो मुक्त हवाओं के साथ खेलना चाहता है जो दूर-दूर आकाश के अनजान कोनों में यात्रा करना चाहता है। जो सूरज की तरफ उड़ान भरना चाहता है वही संन्यासी है।
गृहस्थ यानी पिंजड़े में बंद। गृहस्थ का अर्थ हैः सुविधा सुरक्षा सम्मान प्रतिष्ठा लोग क्या कहेंगे लोग किस बात को ठीक मानते हैं वही करना लोग जैसा कहें वैसा ही करना क्योंकि इन्ही लोगों से
आदर लेना है। अगर इनको नाराज कर दिया तो ये आदर न देंगे।
इन लोगों ने कभी भी आकाश में उड़ते पक्षियों को कोई आदर नहीं दिया। जीसस को सूली दी। बुद्ध को पत्थर मारे। महावीर के कानों में खीले ठोंके। सुकरात को जहर पिलाया। मन्सूर के हाथ-पैर काट डाले।
जब भी कोई आदमी उड़ा आकाश में तभी इन पिंजड़े में बंद लोगों ने बरदाश्त नहीं किया। उससे इन्हें चोट लगती है अड़चन पड़ती है। क्योंकि उससे इन्हें अपनी दशा का ख्याल आता है। तुलना पैदा होती है कि हम पिंजड़े में बंद।
कोई न उड़े आकाश में कोई पक्षी न उड़े आकाश में तो पिंजड़े में बंद पक्षियों को सुविधा होती है। याद ही भूल जाती है आकाश की। आकाश है भी इसकी भी मानने की कोई जरूरत नहीं रहती। पंख होते भी हैं इसका भी कोई सवाल नहीं रहता। पंख एक तरह का आभूषण हो जाता हैं--फड़-फड़ाने के लिए उड़ने के लिए नहीं। पंख एक तरह की सजावट हो जाते हैं। उनका कोई उपयोग नहीं रह जाता। और जब कोई भी नहीं उड़ता तो चुनौती नहीं मिलती।
लोग नाराज क्यों होते हैं जीसस से नाराज इसलिए होते हैं कि हम में पिंजड़ों बंद हैं और तुम आकाश में उड़ने की हिम्मत बतला रहे हो तुम हमारे अहंकार को चोट पहंुचाते हो। तुम हमें चुनौती देते हो हम बरदाश्त न करेंगे। अगर तुम सही हो तो हम सब गलत हैं। और यह बात बड़ी चोट पहुंचाती है। हम तुम्हें समाप्त करेंगे। हम तुम्हें समाप्त करके ही निश्चित हो सकेंगे फिर हम अपने पिंजड़ो में सो जाएंगे। फिर हम पिंजड़ों में शांति की नींद लेंगे। हमारी सुरक्षा फिर अछूती हो जाएगी।
तो न्यारे का अर्थ होता है--निरालेे। न्यारे का अर्थ होता है--संन्यास।
यहाँ सारे लोग गृहस्थ हैं। सब अपने-अपने पिंजड़ों में बंद हैं। सब ने अपनी-अपनी सुरक्षा-सुविधा बना ली है। उस सुरक्षा-सुविधा को पाने के लिए सबने अपनी आत्माएं खो दी हैं। और ध्यान रखना तुम आत्मा खोकर संसार भी पा लो पूरा तो भी कुछ नहीं पाया। और सारा संसार खो जाए और आत्मा पा लो निजता पा लो न्यारापन पा लो तो सब पा लिया।
न्यारेपन को ही लेकर तुम परमात्मा के पास जा सकोगे। नहीं तो किस मुंह से खड़े होओगे उसके सामने। नम्बर की तरह आंकड़े की तरह हिंदू की तरह मुसलमान की तरह ईसाई की तरह या अपनी तरह
अपनी तरह खड़े होओगे तो हो तुम खड़े हो सकोगे। तो ही तुम आंख से आंख मिला कर देख सकोगे परमात्मा को। क्योंकि तुमने जो उसने चाहा था उसे पूरा किया। जो फूल उसने तुम में बनाना चाहा था तुम बन कर आए हो। वही फूल उसके चरणों में अर्पित किया जा सकता है।
‘जग माहीं न्यारे रहौ लगे रहौ हरि-ध्यान। और तरकीब क्या है जगत में न्यारे होने की लगे रहौ हरि-ध्यान--परमात्मा की स्मृति में लगे रहो तुम न्यारे हो जाओगे।
धन की याद करोगे भीड़ के हिस्से हो जाओगे। पद को याद करोगे भीड़ में खो जाओगे। परमात्मा की याद करोगे अलग-थलग हो जाओगे न्यारे हो जाओगे। समझना कारण इसका।
परमात्मा की याददाश्त तो एकांत में की जाती है। तुम्हारे अत्यंत एकांत में ही प्रभु को स्मरण किया जाता है। परमात्मा को संग-साथ में याद करने का कोई उपाय नहीं।
अगर दस लोग भी शांत बैठ कर परमात्मा का स्मरण करें तो भी स्मरण अकेले में ही होता है। जब दसों अपने-अपने भीतर चले जाएंगे जब दसों अकेले हो जाएंगे बाकी नौ की कोई याद न रह जाएगी जब अपना ही होना एकमात्र होना बचेगा तब प्रभु की याद। अगर नौ की याद बनी रहे तो प्रभु की याद नहीं होती।
तो इस जगत में एक ही चीज है तो नितांत वैयक्तिक है वह है प्रभु-स्मरण वह है--प्रभु-प्रेम जहां दूसरे की जरूतर नहीं होती। यही प्रार्थना और प्रेम का फर्क है।
साधारण प्रेम में दूसरे की जरूरत होती है। स्त्री चाहिए पुरुष चाहिए बेटा चाहिए मां चाहिए भाई चाहिए--कोई चाहिए दूसरा चाहिएं। साधारण प्रेम में दूसरे की जरूरत होती है। प्रार्थना में किसी दूसरे की जरूरत नही होती। तुम अकेले काफी हो। अपने में डुबकी मार जाते हो। अपने भीतर सरक जाते हो। अकेले काफी हो। उस अकेले एकांत में हरि-स्मरण।
ईसा-ए-अश्क ने चमकाई है पलकों की सलीब
-यार ने दर्द की अंजील को दोेहराया है
फिर किसी याद का जलता हुआ पागल झोंका
मेरे सुखे हुए होंठों के करीब आया है
आज फिर आंख की बदनाम गुजरगाहों पर
रुक गया है कोई चलते हुए जल्वों का शराब
आंख अब ख्वाब की जुम्बिश भी नहीं सह सकती
अब कोई वजहे-कल्लुफ न कोई रस्मे-हिजाब
दिल कि एक कांच की चूड़ी से भी नाजुक ठहरा
किस तरह इतनी बड़ी चोट को सह सकता है
जो कभी अर्शे मुहब्बत से न नीचे उतरा
किस तरह मौत के तहखाने में रह सकता है
ये अंधेरा ये पिघलता हुआ शब-रंग सुकूत
मेरे एहसास की हर मौज में ल जाने दे
आखिरी सांस की तलवार भी चल जाने दे
मुझको इस हिर्स की बस्ती से निकल जाने दे
वही संगम वही तकदीर का पहला संगम
तुम जहां मुझसे मिले थे मैं वही जाऊंगा
यह जुदाई तो फकत है सांस का इक वक्फा
मेरे महबूब न घबड़ाओ मैं फिर आऊंगा।
हरि-स्मरण का अर्थ क्या है उस स्रोत की खोज जिससे हम आए हैं। उस महबूब की खोज उस यारे की खोज जिससे हम आए और जिसमें वापस जाना है। हरि-स्मरण का अर्थ हैः अपने वास्तविक घर की खोज।
वही संगम वही तकदीर का पहला संगम
तुम जहां मुझसे मिले थे मैं वही जाऊंगा
यह जुदाई तो फकत सांस का इक वक्फा है
मेरे महबूब न घबड़ाओ मैं फिर आऊंगा।
हरि-स्मरण का अर्थ इतना ही है कि मेरे यारे में आता हूं कि म आ रहा हूं कि मेरी तेरी जुदाई तो बस एक छोटी सी श्वास के बीच पड़ गया विराम है। यह कोई वास्तविक जुदाई नहीं है। यह तो सिर्फ एक विस्मरण है। मैं फिर तुझे याद करता हूं। मैं फिर तुझे पुकारता हूं
हरि-स्मरण वस्तुत किसी आकाश में बैठे परमात्मा का स्मरण नहीं है बल्कि तुम्हारे ही भीतर छिपी हुई तुम्हारी आत्मा का स्मरण है। तुम्हारे ही भीतर जो आत्यंतिक आखिरी तुम्हारे केंद्र पर बैठा हुआ दीया है जहां से सब रोशनी फैली है जहां से तुम अभी भी रोशनी लेते हो जीवन लेते हो जहां से तुम अभी भी जीते हो उसी दीये का स्मरण।
और मजा यह है कि वह दीया एक ही है मेरा और तुम्हारा अलग-अलग नहीं है। तुम्हारा और वृक्षों का अलग-अलग नहीं है। तुम्हारा और पहाड़ों और चांद-तारों का अलग-अलग नहीं है। हम परिधि पर ही भिन्न है केंद्र पर हम एक में ही डुबे हैं एक में ही जुड़े हैं। जैसे वृक्ष की शाखायें अलग-अलग पत्ते अलग-अलग लेकिन जड़ में सब एक है ऐसे परमात्मा में हम सब एक हैं।
तो पहले न्यारे बनो भीड़ से क्योंकि भीड़ परमात्मा तक नहीं जाती। पहले तो अलग-थलग बनो और फिर अंतर की यात्रा पर निकलो। प्रभु की खोज में चलो।
प्रभु की खोज काशी और काबा में नहीं होती। प्रभु की खोेज मक्का और मदिना में नहीं होती। मक्का-मदीना काशी-काबा गिरनार--सब भीतर के प्रतीक हैं। जाओ भीतर। एक ही हज है एक ही तीर्थ-यात्रा है--जाओ भीतर। और सब यात्राएं हैं तीर्थ-यात्रा एक ही है--कि जाओ भीतर।
जग माहीं न्यारे रहौ लगे रहौ हरि-ध्यान।
पृथ्वी पर देही रहै परमेसुर में प्रान।।
रहो तो पृथ्वी पर याद परमात्मा की रहे। प्राण परमेश्वर में रहें--रहो पृथ्वी पर। यही मेरे संन्यास का अर्थ है। रहो बाजार में रहो संसार में रहो घर-द्वार में लेकिन एक क्षण को भी उस-यारे की खोज रुके ना एक क्षण को भी प्राण उसे बिसारें ना। एक क्षण को भी भीतर अवरोध न आए। श्वास-श्वास में उसकी याद हो हृदयकी धड़कन-धड़कन में उसकी याद हो जिक्र रहे स्मरण रहे सुरति बनी रहे।
‘सब सूं रख निरबैरता गहो दीनता ध्यान। कहते हैं चरणदास अगर परमात्मा को खोजना हो तो जगत् में बैर मत बनाना। क्योंकि बैर बनाया तो बाहर उलझन खड़ी होती है। उलझन खड़ी होती है तो फिर भीतर जाना कठिन जो जाता है।
‘सब सूं रख निरबैरता गहो दीनता ध्यान। और निरबैरता करनी हो तो अहंकार की घोषणा मत करना--कि मैं कुछ विशिष्ठ हूं कि मैं कुछ खास हूं। मैं की घोषणा मत करना। क्योंकि मैं की घोषणा की तो बैर खड़ा हुआ।
सब बैर अहंकार से पैदा होता है। दो अहंकारों में टक्कर हो जाती है बैर पैदा हो जाता है। अगर बैर न करना हो तो अहंकार की घोषणा ही मत करना। दीन होकर रह जाना--ना-कुछ मैं कुछ भी नहीं--शून्यमात्र--ऐसे शून्यमात्र होकर रह जाओ तो बैर पैदा नहीं होगा। बैर पैदा नहीं होगा तो बाहर उलझन खड़ी नहीं होगी। बाहर उलझन ख.ड़ी नहीं होगी तो तुम्हारी चेतना भीतर जाने को मुक्त होगी परमात्मा की खोज करने में समर्थ होगी।
‘अंत मुक्तिपद पाइहौ जग में होय न हानि। और अगर प्रभु का स्मरण जारी रहे बाहर की व्यर्थ उलझनों में न उलझो अहंकार की यात्राओं पर न निकलो तो एक दिन अंतत वह परम मुक्ति मिलेगी। उड़ोगे पंख फैला कर आकाश में। वह परम आनंद अमृत मिलेगा। और जग में होय न हानि और जग में कुछ भी हानि न होगी। कुछ नुकसान किसी का न होगा। यह सोचना।
मैं चरणदास से ज्यादा राजी हूं--बजाय बुद्ध और महावीर के। क्योंकि उनकी वाणी का परिणाम जगत में बहुत हानि भी हुई। लोगों को लाभ हुआ लेकिन जगत में हानि हुई। कोई पति भाग गया--घर छोड़ कर। तो उसे लाभ हुआ। लेकिन पत्नी बच्चे भिखारी हो गए दर-दर के भिखारी हो गए। जिम्मेवारी से भाग गया आदमी। बच्चे पैदा किए थे पत्नी को विवाह कर लाया था कुछ जिम्मेवारी थी। यह तो धोखा हो गया। यह ईमानदारी न हुई। इसकी कोई जरूरत न थी। यह पत्नी जीते-जी विधवा हो गई बच्चे बाप के रहते अनाथ हो गए।
हजारो-लाखो लोग संन्यस्त हुए हैं अतीत में और हजारो-लाखो घर बरबाद हुए हैं।
चरणदास कहेंगे जग में कुछ हानि करने की जरूरत नहीं है। जग का काम सम्हाले चले जाना। पृथ्वी पर बसे रहना प्राण परमेश्वर में बसा देना।
‘दया नम्रता दीनता छिमा सील संतोष। वे कह रहे हैं ये गुण होने चाहिए संन्यस्त के--दया नम्रता दीनता क्षमा शील संतोष। ये छह जिसने सम्हाल लिए उसके जीवन में व्यर्थ की विपदायें और व्यर्थ की समस्यायें खड़ी नहीं होतीं। उसके जीवन में समस्याओं का सतत आवर्तन नहीं होता।
दया--तो क्रोध से छुटकारा हो जाता है। जब तुम क्रोध नहीं करते तो दूसरे की तरफ से क्रोध नहीं आता। जब तुम दया से भरे होते हो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे प्रति दयापूर्ण हो जाता है। इसे याद रखना।
यह अस्तित्व हमारी प्रतिध्वनि है। हम जैसे हैं वही हमें वापस मिलता है। तुम नाराज तो नाराजगी। तुम क्रुद्ध तो क्रोध। तुम रोष से भरे तो रोष तुम पर लौट आएगा। तुम गालियां दो तो गालियां ही तुम पर बरसेगी। और तुम प्रेम बरसाओ तो प्रेम तुम पर बरसेगा।
दया नम्रता। नम्रता यानी निरहंकार भाव। दीनता। महत्वाकांक्षा से शून्य। न पद न प्रतिष्ठा न धन की कोई दौड़। क्षमा फिर भी किसी से भूल-चूक हो जाए तो उस भूल-चूक को बहुत-बहुत खींचते न रहना। क्षमा करने की क्षमता।
शील। शील उस आचरण का नाम है जो ऊपर से आरोपित नहीं किया जाता वरन ध्यान और प्रभु-स्मरण के कारण धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन में अपने आप प्रकट होना शुरू होता है। शील वास्तविक आचरण का नाम है।
एक तो आचरण होता है पाखंडी का--ऊपर से थोप लिया। क्योंकि उसमें लाभ मालूम होता है।
दिखावा किया। भीतर कुछ रहे बाहर कुछ। और एक आचरण होता है--सहज तुम्हारे भीतर जो उमगा जैसे फूल से बास आई जैसे दीये से ज्योति निकली ऐसे तुम्हारे भीतर से उमगा। जैसे भीतर--वैसे बाहर।
और संतोष और जो मिल जाए उसमें तृप्ति। मिल जाए तो तृप्ति न मिले तो तृप्ति। संतोष को अंतिम गुण कहा चरणदास ने। संतोषी ही सत्य पा सकेगा।
साधारणत हमारा मन सतत असंतोष में है। हम फेहरिश्त ही बनाते रहते हैं कि क्या नहीं मिला क्या मिलना चाहिए था हम निरंतर यही शिकायत करते रहते हैं भीतर--कि हे प्रभु मुझे यह क्यों नहीं मिला दूसरे को क्यों मिल गया यहां सब मजे में दिखाई पड़ते हैं। मैं ही दुखी हूं। यह शिकायत से भरा हुआ मन प्रार्थना से चूक जाता है हरि का ध्यान नहीं कर पाता। शिकायत बाधा है। कोई शिकायत नहीं अनुग्रह का भाव।
‘इनकूं लै सुमिरन करै निश्चय पावै मोष। जो इन छह को साथ में लेकर प्रभु का स्मरण करेगा उसकी मुक्ति निश्चित है।
‘मिटते सूं मत प्रीत करि रहते सूं करि नेह।
झूठे कूं तजि दीजिए सांचे में करि गेह।।
अमूल्य वचन है याद रखना।
‘मिटने सूं मत प्रीत करि। जो मिट जाएगा उससे प्रेम मत बनाओ क्योंकि वह प्रेम दुख लाएगा। मिट ही जानेवाला है जो उससे प्रेम बनाया तो दुख पैदा होगा। मिटते सूं मत प्रीत करि रहते सूं करि नेह। जो सदा रहेगा जो सदा है--शाश्वत नित्य--उससे ही प्रेम को लगाओ।
‘झूठे कूं तजि दीजिए सांचे में करि गेह। और जो मिट जाता है अभी है और अभी खो गया वही झूठ है पानी का बुलबुला।
जो कभी नहीं मिटता न जन्मता है न मरता है वही सच है। शाश्वतता अर्थात सत्य।
बह्म-सिंध की लहर है तामें न्हाव संजोय।
कलिमल सब छुटि जाहिंगे पातक रहै न कोय।।
कहते हे कि ब्रह्म तो ऐसे ही आता रहता है तुम्हारे पास जैसे सागर की लहरें तट की तरफ आती हैं। आता ही रहता है। तुम भी अगर बैठ जाओ सागर के तट पर। कुछ और नहीं करना पड़ता सिर्फ बैठना पड़ता है सागर के तट पर। लहर आती है धुला जाती है।
आदमी को कुछ और नहीं करना है शांत होकर बैठना सीख जाए। इतना ही ध्यान है--कि कभी घड़ी भर को चैबीस घड़ियों में तुम शांत होकर बैठ गए। कुछ नहीं करना है मौन हो रहे। कुछ किया ही नहीं। अक्रिया में डूब गए।
यह प्रतीक बड़ा प्यारा चुना है। ब्रह्म-सिंध की लहर है। भगवान ऐसे है जैसे सागर की बड़ी उत्तुंग लहर। कहीं जाना नहीं रेत पर ही बैठ गए आंख बंद करके। लहर आएगी नहला जाएगी। डुबा लेगी तुम्हें अपने में और चली जाएगी तुम ताजे हो उठोगे। ऐसा ही ध्यान है।
ध्यान में जब तुम करते हो कुछ। क्या करते हो करने को क्या है ध्यान में अक्रिया में डूब जाते हो। बैठ गए मौन होकर--चुप--सन्नाटा हो गया। जैसे ही सन्नाटा सघन होगा तुम पाओगे आती है एक विराट लहर वही विराट लहर परमात्मा है और तुम्हें नहला जाती है। तुम्हारा रोआं-रोआं पुलकित कर जाती है। तुम्हारी सब धूल-धवांस झाड़ जाती है। तुम्हें ताजा तरोताजा कर जाती है। तुम्हें फिर नया नितनूतन कर जाती है। तुम्हें नया जन्म दे जाती है।
‘ब्रह्म-सिंध की लहर है तामें न्हाव संजोय। बस इतना ही करना है कि तुम्हें एक संयोग बनाना है तांकि लहर तुम पर आ जाए। तुम्हें लहर लानी नहीं है। तुम्हें सिर्फ बैठने की कला सीख लेनी है।
‘कलिमल सब छुटि जाहिंगे पातक रहै न कोय। सब छूट जाएगी कलुषता कोई पाप न रह जाएगा।
का तपस्या नाम बिन जोग जग्य अरु दान।
चरनदास यों कहत हैं सभी थोथे जान।।
कहते हैं चरणदास कि तपस्या परमात्मा के नाम के बिना किसी अर्थ की नहीं। वह भी एक अहंकार ही है फिर। जिसे हरि का स्मरण नहीं है वह तपस्या कर के भी अपने अहंकार को ही ब.ाएगा--कि मैं तपस्वी कि त्यागी कि मुनि कि यति।
‘का तपस्या नाम बिन जोग जग्य अरु दान। और तुम योग करो तो भी अहंकार बढ़ेगा। यज्ञ करो तो भी अहंकार बढ़ेगा। दान करो तो भी अहंकार बढ़ेगा। सिर्फ एक ही चीज है जो तुम्हारे अहंकार को पोंछ जाएगी वह है--ब्रह्म-सिंध की लहर।
तुम उस परमात्मा का स्मरण करो। तुम अपने से विराट को पुकारो। ताकि तुम्हारी क्षुद्रता उसमें खो जाए। तुम महान को पुकारो ताकि तुम्हारी यह अणु जैसी छोटी सी अहंकार की दशा उसमें लीन हो जाए। यह तुम्हारी बूंद उसके सागर में गिर जाए तो ही। अन्यथा तुम्हारा दान व्रत नियम उपवास यज्ञ योग--सब व्यर्थ हैं। चरनदास यों कहत हैं सब ही थोथे जान।
गई सो गई अब राखिं लै एहो मू अयान।
निकेवल हरि कूं रटो सीख गुरु की मान।।
‘गई सो गई अब राखि लै। चरणदास कहते हैं जो गया सो गया जो बीत गया सो बीत गया उसकी अब फिक्र न करो। अब बैठकर हिसाब मत लगाओ कि कितना गंवा दिया। क्योंकि उसके हिसाब में भी समय और गँवाया जाएगा।
‘गई सो गई उसकी कोई फिकर न लो। अब राखि लै। अभी-अभी सब हो सकता है। समय ही खोया है तुम नहीं खो गए हो। अभी भी समय है अभी भी तुम जीवित हो। एक क्षण में भी यह क्रांति घट सकती है। अगर त्वरा हो तीव्रता हो सघनता हो समग्रता हो तो अभी और यहीं घट सकती है।
‘गई सो गई अब राखि लै। जो गया उसके हिसाब में मत पड़ो।
मेरे पास लोग आ जाते हैं वे कहते हैं जन्मों-जन्मों का पाप कैसे कटेगा तुम कहां के हिसाब लगाने बैठे हो पाप में समय गंवाया अब हिसाब लगा रहे हो अब खाते-वही लिए बैठे हो जन्मों-जन्मों का पाप अब कैसे कटेगा गई सो गई।
वह सब सपना था जो तुमने देखा। पाप का देखा तो भी सपना था पुण्य का देखा तो भी सपना था। तुमने जो अछें कृत्य किए अतीत में वह भी व्यर्थ और तुमने जो बुरे किए वे भी व्यर्थ। सिर्फ एक ही बात सार्थक है प्रभु का स्मरण। वही सत्य है बाकी सब झूठ है। बाकी सब आता है चला जाता है।
मिटते सूं मत प्रीत करि रहते सूं करि नेह।
झूठे कूं तजि दीजिए सांचे में करि गेह।।
अब घर बना ली सत्य मेें।
यह अभी हो सकता है।
‘गई सो गई अब राखि लै एहो मू अयान। कहते हैं हे अज्ञानी हे मू. जो गया अब उसकी चिंता मंे मत पड़। अभी भी सब हो सकता है। अभी भी कुछ गया नहीं है। सुबह का भूला सांझ को भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता। तुम जब लौट आओ तभी ठीक घड़ी है।
तीन तरह के मू. संतों ने कहे हैं। मू. नंबर एक मानता है कि मैं मू. हूं। थोड़ी संभावना है क्योंकि मानता है कि मैं मू. हूं तो थो.ड़ी बुद्धिमत्ता की झलक है।
मू. नंबर दो मानता है कि मैं और मू. मैं कभी मू. नही। बड़ी मुश्किल है। अब दरवाजा खोलना कठिन होगा। लेकिन कठिन है खुल सकता है क्योंकि इतना ही कहता है कि मैं मू. नहीं हूं।
मू. नंबर तीन असंभव है। वह कहता है मैं बुद्धिमान हूं मैं ज्ञानी हूं। उसने असंभव कर दी बात।
अगर तुम मू. नंबर तीन हो तो कम से कम दो पर खिसको। अगर दो हो तो एक पर खिसको। एक से द्वार है।
जिस आदमी ने ऐसा समझ लिया कि मैं अज्ञानी हूं ज्ञान की शुरुआत हो गई। पहली किरण तो उतरी पहला बोध तो आया कि मैं अज्ञानी हूं। इतना समय तो गंवा दिया अब कुछ करूं। और यह करने की बात कुछ ऐसी है कि इसके लिए बुद्धिमानी चाहिए भी नहीं।
प्रभु का स्मरण करना है इसमें कोई शास्त्र-ज्ञान काम नहीं आएगा। सिद्धांत दर्शनशास्त्र वेद पुराण कुरान काम नहीं आएंगे। प्रभु का स्मरण है यह तो सरल से सरल चित्त व्यक्ति भी कर ले सकता है। वह तो कोई भी कर ले सकता है। इसके लिए बुद्धि की जरूरत नहीं केवल हृदय के जीवंत होने की जरूरत है।
गई सो गई अब राखि लै एहो मू. अयान।
निकेवल हरि कूं रटो सीख गुरु की मान।।
और गुरु की सीख एक ही है कि किसी तरह हरि से जुड़ जाओ। गुरु का काम इतना ही है कि पहले तुम्हें अपने से जोड़ ले और जब तुम गुरु से जुड़ जाआ तो तुम्हें हरि से जु.ड़ा दे और फिर बीच से हट जाए।
पहले गुरु तुम्हें अपने पास लेता है ताकि तुम्हें हरि के पास पहंुचा सके। फिर एक घड़ी आती है जब गुरु तुम्हारे बीच से हट जाता है ताकि तुम हरि में पूरे लीन हो सको गुरु भी बाधा न रहे।
सद्गुरु उसी को कहा है जो पहले तुम्हें अपने हृदय में समा ले और तुम्हारे हृदय में समा जाए। यह पहला कदम सदगुरु का। दूसरा कदम कि धीरे-धीरे तुम्हारे हृदय से बाहर हट जाए जगह खाली कर दे ताकि परमात्मा समा जाए। पहले तुम्हें बुलाए पास अपने क्योंकि वही एक उपाय तुम्हारे लिए हो सकता है उस पार जाने का। तुम्हें अपनी नाव में बिठा ले और जब तुम दूरसे किनारे पहंुच जाओ तो तुम्हें नाव से उतार दे तुम्हें विदा दे दे।
आदमी दो तरह की गलतियां करते हैं। पहले तो वे गुरु की नाव में सवार नहीं होते। बड़ी जद्दोजहद करते हैं बड़े बचने के उपाय करते है। अगर कभी गुरु की नाव में सवार हो गए तो फिर दूसरे किनारे जाकर उतरते नहीं। फिर वे कहते हैं अब हम न उतरेंगे। अब हमें कहां छोड़ कर जाते हो
तो गुरु को दो काम करने पड़ते हैं। एक दिन तुम्हें नाव में च.ाना पड़ता है एक दिन तुम्हें नाव से उतार देना पड़ता है। ऐसे गुरु को ही सदगुरु कहा है।
सदगुरु की सीख बहुत छोटी सी है। लेकिन उस छोटी सी चिनगारी से अज्ञान के बड़े से बड़े जंगल जल जाते हैं। वह इतनी ही है जग माहीं न्यारे रहौ लगे रहौ हरि-ध्यान।
और गुरु के पास ख्याल रखना
गुरु कहै सो किजिए करै सो कीजै नाहिं।
चरनदास की सीख सुन यही राख मन माहिं।।
इन सूत्रों पर ध्यान करना। इन सूत्रों से तुम्हारा रास्ता बहुत स्पष्ट हो सकता है। ये सूत्र तुम्हारे लिए मार्ग पर पाथेय का काम देंगे। ये तुम्हारा कलेवा वन जाएंगे। लंबी यात्रा है और कलेवा चाहिए होगा।
संतों ने जो भी कहा है कहने में उन्हें रस नहीं है। वे कोई कवि नहीं हैं। उन्होंने सिर्फ इसीलिए कहा है कि कोई सुने तो जाग सके। जगाने के लिए कहा है। उनके वक्तव्य मात्र वक्तव्य आनंद से नहीं दिए हैं। उनके वक्तव्य व्यवहारिक हैं प्रयोग के लिए हैं। उनके वक्तव्यों में आह्वान है। तुम्हारे लिए संकेत हैं कि अनंत की यात्रा पर कैसे जाया जा सकता है।
रहो पृथ्वी पर परमेश्वर में प्राण को रखो। जैसे-जैसे प्रभु की याद सघन होती जाएगी वैसे-वैसे तुम पाओगे प्रभु तुम्हारे भीतर उतरने लगा तुम प्रभुमय होने लगे।
मेरी गोद में
भूगोल
बाहों में
आकाश
आंखों में
ग्रह-नक्षत्रों की
दौड़ती स्वर्ण-रेखा
आज मैने अपने को
विराट होते देखा।
जिस क्षण प्रभु की याद पूरी हो जाएगी तुम उसी क्षण पाओगे तुम और प्रभु दो नहीं। तुम अपने को विराट होता पाओगे।
अणु में ब्रह्मांड पाया जाता है। बूंद में सब सागरों का रहस्य छिपा है ऐसा ही छिपा है तुम में परमात्मा। कला इतनी ही है कि अभी घड़ी भर निष्क्रिय होए बैठ जाओ ताकि आए उसकी सिंध की लहर और तुम्हें तरोताजा कर जाए। तुम्हारे जीवन को पुलकित कर जाए नृत्यमय कर जाए। तुम्हारी उदासी को छीन ले और तुम्हें उत्सव से भर जाए।

आज इतना ही।

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