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शनिवार, 15 दिसंबर 2018

10--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

दान पृथ्‍वी का-(कहानी)

 दसघरा की दस कहानियां

हर रोज की तरह आज भी सूर्य देव अपने र्निधारत समय सेअस्ताचल को चला गया था। उसके जाते ही धीर-धीरे पृथ्वी पर रात घिरने लगी थी। शीतकालीन दिन वैसे भी भारत में बहुत छोटे हो जाते है। और दिसम्बर माह तो मानो पंख लगा कर दिन को दे देता है। पक्षी भी अपने उत्सव गीत गा-गा कर कब के सो गये थे। तभी अचानक घर की घंटी के बजने से वहां पर फैली बिखरी शांति के साथ ही अँधेरा भी पल भर के लिए थर-थरा गया। भय के मारे शांति मानो किसी खाली कोने में दुबक गई हो। शिवा प्रसाद जो अपने ध्‍यान में बैठे थे। न जाने क्‍यों आज इस घंटी की ध्वनि से उन्हें कुछ अशुभ की गंध आई। उनके अंतस में कुछ बेचैनी सी फैल गई। वैसे तो स्थूल तौर पर घंटी-घंटी होती है। पर न जाने क्‍यों उस दिन वह घंटी साधारण घंटी की तरह से बजाने वाली नहीं लग रही था। क्‍या विद्युत यंत्र भी मानव की संवेदना को अपने में प्रवेश कर लेते है। ऐसा कई बार होता है जब कोई विचार या संवेदना हमारे हाथों से होकर किसी यंत्र के माध्यम से कुछ कहती सी लगती है। क्‍योंकि ये कई बार देखा है कि एक ही घंटी को अनेक लोग जब बजाते है तो हम उसका अलग-अलक अहसास होता है। और हमारा पालतु कुत्‍ता पोनी तो पल भर में पहचान लेता था की घंटी किसी अजनबी ने बजाईं या परिचित ने। जब कोई परिचित घंटी बजाता तो वह भौंकता नहीं था केवल दरवाजे पर जा उसका स्वागत करता था।

पर आज अचानक ये घंटी शिवा प्रसाद जी को कुछ अच्‍छी नहीं लग रही थी। उसने उठने की कोशिश की इतनी देर में दो बार और घंटी बज गई उसने घड़ी की और देखा, रात के 8 बज कर 40 मिनट हुए है। अचानक उसका चित कुछ अशुभ होने के भय से कांप गया। फिर भी उसने अपने चित की उन तरंगों को देखा और मन को दिलासा दिया के तू हमेशा ही गलत क्यों सोचता है। क्‍या तेरे पास कोई अच्‍छे विचार नहीं है। और सब सोचते हुए दरवाजे की कुंडी खोली। देखा तो सामने एक अंजान युवक खड़ा है। शिवा प्रसाद जी अचानक बहार की ठंड से भी अधिक अंदर की सीतलता चीरती हुई सी लगी। मानो सब एक ठंडी जमी हुई कोई धारदार तलवार उनके अंदर उतरती चली जा रही हो। वह क्षण और भी अधिक मौन और बहुत सघन होता जा रहा था। मानो समय कुछ पल के लिए ठहर गया था या शायद शीतलता के कारण जम गया था। और अब बुंदे बन कर धीरे-धीरे टपक कर अशांति उत्पन्न कर रही था।

दरवाजे पर खड़े युवक ने साहस कर के कहा की ‘’अंकल निर्मल’…..और उस भारी हुए माहौल ने उसके निकलते शब्दों को भी जमा दिया। शब्द उसके मुख से फूटे नहीं उससे पहले उसकी आंखों से आंसू झरने लगे। या हो सकता है उसके मुख से शब्द जरूर निकले हो परंतु उसने जो कुछ भी कहा था वह शिवा प्रसाद जी को नहीं सुनाई दिया। शिवा प्रसाद जी देख रहे थे कि उसके दिल की धड़कन बहुत तेजी से चल रही है। अचानक आगंतुक के शब्‍द फिर शिवा प्रसाद के कानों में पड़े, अंकल आप घबराये नहीं और उस युवक ने शिवा प्रसाद को आगे बढ़ कर कंधे से पकड़ लिया और सहारा देने के लिहाज से कहां की भगवान का शुक्र है ज्‍यादा चोट नहीं आई...आप चलिए। शिवा प्रसाद जी अचेतन जान गया थे की कुछ अशुभ तो जरूर हुआ है। अब वह कितना भारी है और कितना दर्द अपने में समेटे है, ये उसको केवल सुनना और देखना हथा।

इतना सुनते ही शिवा प्रसाद का मस्‍तिष्‍क भय और अपशकुन से सुन हो गया था। पर उन्‍होंने अपने आप को सम्हाला, और दो गहरी श्वास ली। इतनी देर में आनंदी देवी जो निर्मल की मां थी। आकर वहां पर भी खड़ी हो गई और पूछने लगी कितनी देर से आप दरवाजे के पास खड़े हो। क्या अभी निर्मल अंदर नहीं आया। कहने लगी किसी के बोलने की आवाज नहीं आई-‘’कौन आया है, और आप किस से बात कर रहे हो।‘’ इतनी देर में शिवा प्रसाद जी अपने को सम्हाल चुके थे। ‘’कुछ नहीं, ऐसे ही निर्मल को....ओर उसका गला भर आया। आनंदी देवी सब समझ गई। पर वह शिवा प्रसाद को कहने लगी आप घबराओ मत जो भी हो आप भगवान पर भरोसा करें हमने कभी किसी का भूल से भी बुरा नहीं किया। तब भगवान हमारा बुरा कैसे कर सकता है, आप परमात्मा पर विश्वास करो और हिम्‍मत रखो......।

इतनी देर में शिव प्रसाद के पड़ोसी विश्‍वनाथ जी और उनके लड़के पूरण मल जो निर्मल के दोस्‍त थे, वह भी आ गये। सारी बातें सुन कर पूर्ण ने अपनी कार निकाली और चारों उस में बैठ कर चल दिये। दूरी कोई खास ज्‍यादा नहीं थी। पर अगर निर्मल को अगर ज्यादा चोट आ गई होगी तो उसे अस्पताल भी तो ले ही जाना होगा। इसलिए कार की तो जरूरत ही थी। गांव से आधा फरलांग दूरी पर जो शिव मंदिर है, माइक्रोवेव टावर (विदेश संचर सेवा) के सामने, वहीं पर जाकर जब गाड़ी रोकी तो 20-25 आदमियों की भीड़ सड़क के एक कोने में खड़ी थे। शिवा प्रसाद भारी कदमों से उतरे और भीड़ को चिरते हुए अंदर जा कर देखा तो निर्मल फुटपाथ पर आंख बंद किए लेटा हुआ था। उसने उसके सर पर हाथ फेर कर पूछा बेटा निर्मल तू ठीक है। इतनी देर से अचेत पड़े निर्मल ने अचानक शिवा प्रसाद के छुअन मात्र से अपनी आंखें खोल ली। इस सब को देख कर वहां पर खड़े लोग देख कर अचरज कर गये। वह तो ये देख रहे थे की इस की दिल की धड़कन तो चल रही है कि नहीं। कहीं यह अचेत में है, या कहीं कोमा में नहीं चला गया है। परंतु बाहरी चोट तो कही दिखाई नहीं दे रही थी। न ही कही खून निकला था। लेकिन ये तो पक्का था की चोट जरूर कहीं गहरे में लगी है।

कुछ ही देर में पुलिस की गाड़ी भी आ गई। बात ऐसे हुए थी कि एक सफेद रंग की मारुति वेन बीच सड़क पर एक नशेड़ी ने खड़ी कर रखी थी। और न ही उसने कोई लाईट जला रखी थी। अँधेरा होने के कारण मोटर साइकिल पर आते निर्मल उसे नहीं देख पाया था। या हो सकता है एक दम से बीच सड़क पर कोई गाड़ी अंधेरे में खड़ी होगी वह समझ नहीं पाया और उस से टकरा गया। या हो सकता है निर्मल की मोटर साइकिल भी कुछ तेज हो। आज कल के बच्चों को जितना मर्जी समझा लो की धीरे और ध्यान से गाड़ी चलना। परंतु हां हूं तो करते है परंतु करते है अपनी मर्जी की। और वह ड्राइवर कोई नशेड़ी सा दिख रहा था। वह अब तक भी अपनी उस वेन को बीच सड़क ही खड़ी किए हुआ था। अपनी सफाई के लिए की मुझे पीछे से आकर टक्कर मारी है। और जब पुलिस वाले ने शिवा प्रसाद को देखा तो नमस्कार कर पूछा साहब बेटा तो ठीक है ना। शिवा प्रसाद की आंखों में पानी आ गया। और वह कहने लगे सब ऊपर वाले की कृपा है’….इंस्पेक्टर ने गाड़ी वाले के पास जा कर पूछने लगे की गाड़ी को बीच सड़क पर क्यों खड़े किए हो। लेकिन वह तो किसी की बात सुन ही नहीं रहा था। और ऊपर से लगा जोर-जोर शोर मचाने देखों मेरी खड़ी गाड़ी में मारा है। वह नशे में तो था ही कहने लगा देखो साहब मेरा शीश टूट गया। पीछे भी कितना नुकसान हो गया। इंस्पेक्टर ने उसे शांत रहने को कहा। की भले आदमी तुझे अपनी गाड़ी की पड़ी है। क्या तुझे दिखाई नहीं देती कि मनुष्‍य की जान की कोई कीमत होती है। तुम्हारे अंदर जरा दिमाग या संवेदन शीलता नहीं रह गई है। थोड़ी इंसानियत नाम की भी कोई चीज होता है दुनियां में क्या तुम उसे जानते हो। क्‍या तेरी गाड़ी ज्‍यादा कीमती है किसी की जान से। और तू बता बीना लाईट के इसे बीच सड़क में खड़ा कर के क्‍या कर रहा था। क्‍या किसी चलती गाड़ी से इतने जोर से टक्कर लग सकती है। तो कम से कम उस गाड़ी की स्‍पीड़ तो 80 से भी ज्‍यादा होनी चाहिए। अगर तू उस समय 40 की गति से भी चल रहा हो तो। अब एक शब्द भी नहीं बोलना। वरना तु जानता नहीं मैं कौन हूं...।

लेकिन एक नशे के आदि आदमी को संवेदन शीलता का पाठ नहीं पढ़ा सकते आप। और ऊपर से अगर वह लालची हो तो और भी कठिन है। उसे तो अपने नुकसान की रटन लगी थी। इतनी देर में विश्वनाथ जी को एक दम से ताव आ गया। और उसने जा कर उस ड्राइवर को इतने जोर से चांटा मरा की.....वह चारों खाने चित गिरा। और कहा इंस्पेक्टर साहब इस का मेडिकल करवाइए ये नशे में है। अब मात्र एक थप्‍पड़ में ही सारा नशा पल में ही न जाने कहां उड़न छू हो गया। और वह नशेड़ी लगा हाथ जोड़ने नहीं मर जाऊँगा....गरीब आदमी हूं। जो सब लोगों वहां पर घंटे भर से उसका तमाशा देख रहे थे उन सब ने उसे दुत्कारा। कितना बेशर्म आदमी है यह, आधा घंटे से शोर मचा रहा है। इस आदमी में जरा भी मनुष्यता नहीं बची। कि जो बच्चा इस की गाड़ी से आकर टकराया है उसकी हालत कैसी है। उसे जाकर देख ले कही ज्‍यादा चोट तो नहीं आई है। या उसे कही डाक्‍टर वगेहरा को तो नहीं दिखलाना। या अगर दिखाने के लिए अपनी गाड़ी का उपयोग करें। कितना संवेदन हीन होता जा रहा है आज का मनुष्य। पैसे में ही उसके प्राण मानो अटके पड़े है। हम ज्‍यादा सुविधाओं में रहते-रहते कही पत्‍थर दिल तो नहीं हो रहे है। देखों इसे अब अपने पर पड़े एक ही थप्पड़ के दर्द को सहन नहीं कर सका।

शिवा प्रसाद जी को विश्‍वनाथ जी ने समझाया। छोड़ो शिव प्रसाद जी विश्‍व नाथ जी ने कहां अपना बच्‍चा ठीक है ये भगवान की कम कृपा है हमारे ऊपर। ये जैसा करेगा उसे ऐसा ही भरना होगा। तब अचानक उस इंस्पेक्टर को शिवा प्रसाद की और देख कर कहां, सर आप बच्‍चे को देखिये इस सब को मैं सम्हाल लेता हूं। पूर्ण ने सहारा दे कर निर्मल को कार में बिठाया और शिवा प्रसाद और विश्‍वनाथ को कहने लगे अंकल आप भी आ जाओ किसी नर्सिंग होम में चलते है। पास ही डा. घोष का क्लिनिक था, वो पारिवारिक डा. की तरह ही गये थे। शिवा प्रसाद ने कहा बेटा क्‍यों न डा. घोष को ही दिखा ले वो भरोसे के डा. भी है। और ज्यादा दूर भी नहीं है। तब सब ने शिवा प्रसाद की ही बात समझ में आई और गाड़ी डा. घोष के क्लिनिक की और चल दी।

डा. घोष ने निर्मल को अच्‍छे से चेक किया और कहा किसी किस्‍म की कोई ऐसी वैसी बात नहीं है। इतना बड़ी दुर्घटना होने पर भी निर्मल की हालत ठीक है। कई लोगों ने बताया की वहां अभी तक कम से कम 10-12 एक्सीडेंट (दुर्घटना) हो चुके है, और एक भी आदमी नहीं बचा। कई सालों से वहां दुर्घटनाएँ हो रही थी। उसके साथ-साथ मृत्यु के लिए भी उस जगह को लोग अशुभ मानने लगे थे। सब लोग तो यही सोच रहे थे कि यहां की दुर्घटना हुई नहीं की प्राण गये। उस जगह का नाम सुनने से ही आदमी के प्राण कांप जाते थे। उस जगह को श्रापित और मनहूस मानने लगे थे। विश्‍वनाथ ने कहा की जब मुझे पता चला की मंदिर के सामने दुर्घटना हुई है तो मैं तो बहुत घबरा गया था। क्‍यों कि वहां दुर्घटना होने का मतलब है मौत। डा. घोष ने एक घंटा निर्मल को अपने क्लिनिक पर लिटा कर रखा। की अंदरूनी खून का रिसाव तो नहीं है। फिर इंजेक्शन और दवाई दे कर कहां की विश्व नाथ जी घबराने की कोई बात नहीं है। आपका बेटा एक दम से ठीक है। बस थोड़ा टकराने की वजह से मांसपेशियों में दबाव आया है। वह दर्द कुछ दिन तो रहेगा। परंतु कोई खतरा नहीं है। आपके जरूर कोई पुण्य कर्म ही है जो बेटा मौत के मुख से निकल कर आया है। ये आपके जरूर अच्छे कर्मों का ही फल भगवान ने दिया है। आप जैसे देवता स्वरूप के साथ परमात्मा कभी अन्याय नहीं कर सकता। तब शिवा प्रसाद सोचने लगे...कि ऐसा क्या पुण्य कर्म किया था। परंतु लाख दिमाग पर जोर डालने से भी उसे कुछ याद नहीं आ रहा था।

रात के समय तो निर्मल का शरीर गर्म था। परंतु सुबह उठने पर शरीर का एक-एक जोड़ दर्द कर रहा था। क्‍योंकि खड़ी गाड़ी में मोटर साइकिल जब वेन से टकराई तब वह पूरे जोर से उछल कर वेन के शीशे को तोड़ा हुआ नीचे गिरा। अब निर्मल को सब बातें धीरे-धीरे याद आ रही थी। कि कैसे उसकी आंखें बंद हो गई और उसे समझ ही नहीं आ रहा था। टकराहट बहुत तेज थी फिर ऊपर से निर्मल कोई हलका फुलका भी नहीं था। उसका वज़न 90 किलो था। तगड़ा था। लेकिन जवान था। वरना तो इस तजी से टकराने से ह्रदय गति या ब्रेन हेमरेज भी हो सकता था। बाद में पता चला की लड़के का पेशाब और पखाना भी कपड़ों में ही निकल गया था। दुर्घटना में यही सबसे खतरनाक स्थिति होती है। आदमी के प्राण इन्हीं द्वारों से निकलते है। लेकिन लड़का इस घटना को झेल गया। ये भी एक चमत्कार ही था।

तभी अचानक फिर से घर की घंटी बजी, सुबह से ही देखने वालों का तांता लगा था। क्‍योंकि निर्मल का स्‍वभाव ऐसा था जिस से भी वह एक बार बात कर ले उसका दिल जीत लेता था। क्रोध तो उसे छू तक नहीं गया था। शिवा प्रसाद को तो सब महात्‍मा के नाम से जानते थे। लेकिन लड़का भी बहुत भला और सज्जन था। सब को राम-राम कह कर चलता था। सब की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता था। और पढ़ाई में भी बहुत तेज था। सब जानते थे देखना एक दिन जरूर आई एस या आई पी एस बन जायेगा। ये सब तो उसके बाएं हाथ का खेल है। उसके अलावा खेल कूद में भी बहुत निपूर्ण था। शिव प्रसाद भी अपने जमाने में खेल कूद में बहुत ही अच्छे थे। पूरे गांव में जब क्रिकेट खेला जाता था तो एक मात्र शिव प्रसाद ही ऐसे खिलाड़ी थे। जिसे आउट करना कठिन था। आस पास के सभी कलब जानते थे। चाहते तो रणजी ट्रॉफी आराम से खेल सकते थे। वह रमन लाबा या अपना सुरेंद्र खन्ना अजय शर्मा के साथ खेले हुए थे। परंतु रोजी रोटी ने वो सब नहीं होने दिया। और फिर नौकरी के बाद सब खत्म हो गया। भारत में कितनी ही ऐसी प्रतिभाएं है जो की उनके ही पेट और परिवार का बोझ अपने अंदर समेट लेता है। लेकिन लड़का निर्मल अपने सलवान पब्लिक स्कूल में क्रिकेट का कैप्टन है। वह एक दिन गांव का ही नहीं देश का भी नाम रोशन करेगा। सब गांव जानता था की शिवा प्रसाद तो एक दम भगत आदमी है। देवता तुल्य है। एक दम शांत मौन रहते है। बस सुबह दोनों पति-पत्नी घूमने के लिए जाते थे। और दिन में लिखना पढ़ना और ध्यान आदि में ही समय गुजारते थे। जब से रिटायर्ड हुए है तो इन सब कामों के लिए अधिक समय मिल गया था। अब तो कुछ नहीं करते पर पहले ग्रह मंत्रालय में डिप्टी सेक्रेटरी थे। एक ही बच्‍चा था उनका अकेला निर्मल।

दरवाजा खोलने पर देखा तो वही रात वाला इंस्पेक्टर सामने खड़ा था। उसने आ कर शिवा प्रसाद जी को नमस्ते की। और निर्मल का हाल चाल पूछने लगा। उसके हाथ में फलों से भरे कई थैले थे। शिवा प्रसाद को बड़ा अचरज हुआ की मैं आपको शायद नहीं जानता हूं। फिर आप ने ये कष्ट क्या उठाया। नहीं सर वह मेरा भी तो भाई है। अभी-अभी शिवा प्रसाद जी ध्‍यान के कमरे से लोटे थे। शिवा प्रसाद ने उस इंस्पेक्टर को गौर से देखा और उन्‍हें लगा कि इसे पहले भी कभी देखा है आपको। और याद करने की कोशिश करने लगे। वह इंस्पेक्टर निर्मल के पास आकर बैठ कर उसका हाल चाल पूछने लगा। आस पास और भी कई लाग खड़े थे। तभी आनंदी देवी उठी और चाय बनाने चली गई।

इंस्पेक्टर ने कहां सर याद है आज से 16 -17 साल पहले कि बात, शायद दिसम्बर 1984 की एक रात थी, उस समय में एक सिपाही था। इसी थाने में। जब हमने एक सरदार को ..... अचानक शिवा प्रसाद को सारी बातें याद आ गई। हां याद है। अरे वो तुम थे पर तुमने मुझे पहचाना खूब। तब इंस्पेक्टर ने कहा की सर कुछ चेहरे ऐसे होते है जिन्‍हें हम जीवन में एक बार देख कर भी नहीं भूल पाते। मैं उस रात को कभी नहीं भूल पाया।

इतनी देर में आनंदी भी आ गई और दो चार पड़ोस के लोग भी निर्मल का हाल चाल पूछने के लिए आ गये। तब शिवा प्रसाद कहने लगे। हाँ वो दिसम्बर की एक काली रात थी। रात के यही कोई 9.30 बजे होगे। मुझे दफ्तर से किसी मीटिंग में अचानक रूकना पड़ गया था। वैसे तो 6 बजे ही आ जाता था। परंतु जो लिखा है उसे टाला नहीं जा सकता। प्रकृति जो कराती है ठीक ही कराती है। ठीक वहीं जगह थी। समय पाकर कुछ बदल जरूर गई थी। रोड भी इतना अधिक चौड़ा नहीं था न ही उस समय वहाँ पर स्ट्रीट लाईट ही लगी थी। ठीक एक दम से वहीं जगह जहां कल निर्मल का एक्सीडेंट हुआ था। ठीक वही जगह एक दम से पक्की मेरी आंखें के सामने वह आज भी चलचित्र की भांति खड़ी है। एक सफेद रंग की एम्बेसडर कार सड़क के किनारे खड़ी थी। में अपने स्कूटर पर आराम से आ रहा था। जब मैं गाड़ी के पास से गुजरा तो मैंने सोचा ऐसे ही कोई एकांत में प्रेमी जोड़ा बैठा बात कर रहा होगा। परंतु जब मैंने पास से देखा की उस खाली कार में एक सिख बैठा है। और एक दम से अकेला, और उसका सर आगे स्टीयरिंग की और झुका हुआ है। या तो वह बेहोश हो गया लगता है या शराब के नशे के कारण गाड़ी नहीं चला पा रहा था। उन दिनों ये रास्‍ता और भी बहुत सुनसान होता था। लोग रात नौ बजे भी इधर आने में लोग डरते थे। उस समय पुलिस हमेशा गश्त करती रहती थी। उस सरदार जी की ऐसी हालत देख कर मुझे कुछ अजीब सा लगा। तब मैंने आगे जाकर स्कूटर रोका। क्‍योंकि अकेला एक सिख, चाहे वो पीये ही हो पर इस सुनसान रात में अकेला। अभी 84 के दंगों की तो वो खून की होली की आग बुझी भी नहीं थी। जो इंदिरा गांधी की हत्‍या के बाद सरदारों के साथ सलूक हुआ था। मैं अंदर तक कांप गया। मेरे चित ने कहां कुछ भी हो एक बार जाकर देखना तो चाहिए, कम से कम मनुष्यता तो यही कहती है। मैंने स्‍कूटर को एक और रोका ओर गाड़ी की और गया। पास जाकर देखा तो उस सरदार जी के मुंह से झाग निकल रहे थे। एक बार तो मैंने सोचा की कहीं इन्होंने आत्म हत्‍या तो नहीं कर ली। पर फिर भी मैंने उन्‍हें और पास से छू कर देखा और समझ गया की इन्‍हें मिरगी को दौरा पड़ा है। दूसरी एक बात ने मेरा ध्‍यान अपनी और खींचा की गाड़ी का नम्‍बर-0004, वी. आई. पी था। इतनी देर में पास के गांव टोड़ापूर के श्री महेश यादव जो ब्रह्म यादव के छोटे भाई है वह वहाँ से गुजर रहे थे।

मुझे खड़ा देख कर उन्‍हें अपनी कार रोक कर मेरे पर आ कर पूछने लगे कि भाई साहब क्‍यों खड़ हो। उनके पास आ जाने से मैंने उन्‍हें सरदार जी की हालत उन्‍हें दिखाई ओर पूछा महेश अब क्‍या किया जा सकता है। उस समय तक हम एक से दो हो गये। अब हमारे पास कार भी थी। और हिम्‍मत भी दो गुणा हो गई थी। इतनी देर में ये इंस्पेक्टर साहब अपनी साइकिल पर गश्त करते हुए वहां पर आ पहुंचे थे। अब तो हमारा साहस और बढ़ गया था। हमने उन सरदार जी को गाड़ी से निकाला और महेश की कार में पिछली सीट पर लिटा दिया। पास में ये इंस्पेक्टर साहब बैठ गये। उनकी जेब में जो परिचय पत्र था। वह एन. सी. इ. आर. टी में आफिसर थे। उनका घर का पता, करोल बाग, नाई वाला लिखा था। वह जगह हमारी देखी हुई थी। हम सीधा नई वाली गली में गाड़ी ले कर चले गये। एक गली के नुक्कड़ पर कुछ लोगों भीड़ लगी थी। मैंने महेश से कहां की गाड़ी को उस जगह रोको में इस भीड़ से पूछा कर आता हूं।

मेरे हाथ में उनका परिचय पत्र था। मैंने भीड़ में खड़े लोगे में से एक युवक सरदार जी से पूछा ये पता मुझे बता सकते हो कहां पर होगा। और उन लोगों को समझने में देर नहीं लगी की हम उन्‍हें ही पूछ रहे है। वह सरदार जी कहने लगे ये मेरे पिता जी है। मैंने कहां आप घबराइए मत सब ठीक है। आप हमारे साथ आइये वह हमारे साथ गाड़ी के अंदर सुरक्षित है। उन्‍हें गाड़ी से उतारने में हमारी मदद करें। सब ठीक है, बस उन्‍हें शायद थोड़े से चक्र आ गये थे। ऐसी कोई बात नहीं है। और भीड़ फटा-फट गाड़ी की और दौड़ी। जिस चीज की उन्‍हें उन्‍होंने कल्‍पना भी नहीं की थी वो अचानक यूं घर के पास मिल जायेगी।

लड़का लपक कर कार के पास गया। और अपने पिता को पहचान कर रोने लगा। कि हम न जाने कहां-कहां ढूंढ रहे थे। क्या-क्या बुरे विचार हमारे मन में आ रहे थे। उसने हमारी और देख कर कहां अंकल आप घर चले। सबने सहारा दे कर उनके पिता को गाड़ी से बहार निकला और घर की और ले गये। शायद गली का दूसरा या तीसरा मकान था उनका। घर के लोगों ने जो हमारा स्‍वागत सत्कार किया मानो हम भगवान है। हमें वहां कम से कम 25-30 मिनट लग गये होंगे। वो जो हिन्दू सिखों के मन में एक नफरत की परत जमा हो गई थी। वो उनकी प्‍यार भरी बातों और बहते आँख के आंसू बन एक पल में न जाने कहां बह गई। एक अनूठे विश्‍वास और प्रेम का साफ सुथरा मार्ग कैसे पल में तैयार हो गया। वह सरदार जी अपने किसी रिश्तेदार के यहां तिलक नगर जा रहे थे। और टोड़ापूर-इंद्रपुरी का वह सुनसान रोड जहां वह बेहोश हो गये थे। दंगों के कारण काफी बदनाम था। वह इसलिए फिक्र कर रहे थे की जिस जगहा उन्हें जाना था न वे तिलक नगर पहुंचे न ही घर और आप ये भी जान लीजिए की उस जमाने में मोबाइल फोन भी नहीं होता था। अब उनकी चिंता भी अपनी जगह सही थी। आज हम उस युग के विषय में नहीं सोच सकते की संदेश देने के लिए चिट्ठी लिखनी होती थी। जो एक हफ्ते में कहीं मरती पचती वहां पर पहुंचती थी। तब दूसरे हफ्ते आप के पास संदेश आता था। उस समय कितने कम लोगों के पास टेलीफोन होता था। वह भी अगर दूर मुम्बई पूना करना हो अगर ट्रंकाल तो आप पहले बूक करो। खेर जो कुदरत को मंजूर था। ठीक वही हुआ। कुछ ही देर में सरदार जी होश में आ गए। मैंने सही सोचा था उनको मिरगी का दौरा ही पड़ा था। उनका सारा परिवार ही उनके कुछ अड़ोसी पड़ोसी व रिसते दार भी इस घटना के बाद परमात्मा का एक करिश्मा ही समझ रहे थे।

एक सुंदर वातावरण में से जब हम चले तो हमारे ह्रदय और चेहरे पर एक प्रकार की शांति थी। एक मनुष्यता ने आज फिर दानवता और कुरता पर विजय पाई थी। एक लम्बी खाई एक नफरत जो दो समुदायों के बीच एक काली छाया बन गई थी। जो हिन्दू और सिखों के बीच में एक नफरत की दीवार बन गई थी। उसे हमने पार किया था ये हमारे लिए एक गर्व महसूस समय था। अभी वो जख्म ताजा थे इस तरह की मरहम लगाने से उन में रिसाव नहीं होगा वह भर जायेगें समय पाकर। हम खुशी-खुशी घर की और चले। रात काफी हो गई थी। उन दिनों इतनी रात को रोड बहुत अधिक सुन सान हो जाते थे। लेकिन जब हम घटना स्थल पर पहुंचे तो क्‍या देखते क्या है, वहां तो पुलिस की गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ खड़ी थी। मानो कोई युद्ध छिड़ गया हो। या कोई इन काउंटर करने के लिए पुलिस बल घेरा डाले खड़ा हो। हमारी समझ में नहीं आ रहा की क्‍या हो गया। हमारे साथ उन सरदार जा का एक लड़का और एक पड़ोसी भी उनके साथ आये थे। जिससे कि वह अपने पिता जी की गाड़ी ले जा सके। क्योंकि वह न तो सही जगह को जानते थे। और फिर रात भी काफी हो गई थी। हमारे पास जो गाड़ी की चाबी थी वह तो हमने उन्हें उनके घर पर ही दे दी थी। इसके अलावा हमें तो उसी मार्ग से घर आना ही था। हमारी कार खाली ही थी। तब हमने ही उन्हें कहां की आप हमारे साथ चले और गाड़ी को लेकर आ जाये। मेरा स्कुटर और इन सिपाही की साइकिल भी तो वहां पर खड़ी थी। इसलिए वो दो लोग हमारे ही साथ गाड़ी मैं बैठ लिए।

हमने दूर से ही देखा तो गाड़ी के पास पुलिस की भिड़ लगी थी। कई पुलिस की गाड़ियों की लाईट जल रही थी। हमने सोचा अरे अब क्या हो गया। हम तो यहां पर सब ठीक ठाक छोड़ कर गये थे। वह पर एक माइक्रोवेव का टावर था जो आज भी है। उस के चौकीदार ने एक कार जो सड़क पर खड़ी थी। और मेरा एक स्कूटर और उस पुलिस के सिपाही की साइकिल को हम लोग गेट के अंदर खड़ी कर गए थे। जब उस चौकीदार ने उन्हें गेट के अंदर खडी देखा तो उसने न आगे का सोचा ने पीछे का सीधा 100 नम्बर मिलाया और पुलिस को फोन कर दिया की यहां पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया है। एस. एच‍. ओ. ही नहीं केन्द्रीय रिजर्व पुलिस की भी एक गाड़ियां वहां पर आ गई थी। उन दिनों वैसे भी दंगों के कारण दिल्‍ली काफी संवेदन शील हो गई थी। जब हम उतरे तो समझ ही नहीं पा रहे थे। ये सब क्‍या मामला है। मैंने अपना परिचय पत्र उन एस एच ओ को दिखाया, पुलिस का सिपाही, जो इस समय इंस्पेक्टर हो गया है। वह ये सब सून कर मंद-मंद मुस्करा रहा था। उन्‍होंने कहां नेकी करने के बदले में ये सब मिलेगा इस की कल्‍पना भी नहीं थी। खेर उन सिख युवक ने अपने पिता के साथ घटना की सारी बात विस्तार से एस एच ओ जी को कह दि। और उस सिपाही ने जो वहाँ पर गश्त कर रहा था उस ने भी यहीं सब बात कही। लेकिन क्‍योंकि मेरा स्कूटर और इंस्पेक्टर साहब की साइकिल उस गेट के अंदर खड़ी कर दी थी। हमने तो सुरक्षा के लिहाज से उन्हें वहां खड़ा कर दिया था। हमें क्या पता था ये सब आफत हो जायेगी। जब थाने से सिपाही आये और उन्‍होंने इन सिपाही की साइकिल पहचान ली वे समझ गए की कुछ नहीं हुआ है। ये गलत काल है। उन बेचारों ने मेरे स्कूटर का ताला ताड़ कर बहार निकाल दिया। क्‍योंकि कमिश्नर साहब भी बस आने ही वाले थे। वो लोग घटना के इस हालात को देख कर समझ गए थे की कोई ऐसी बात नहीं घटी जैसा की फोन आया था। क्योंकि फिर सिपाही की साइकिल तो यहां नहीं ही खड़ी होनी चाहिए थी। कुछ लोग कितने मंद बुद्धि होते है। एक चौकीदार जिसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी दे रखी थी वह इस तरह से पूरे सरकारी तंत्र को परेशान करें। इस समय अगर कहीं दूसरी जगह पर सच ही वारदात हो रही होती तो वहां क्या होता। बाद में उस चौकीदार का क्या हुआ मुझे पता नहीं। परंतु उस पर दफतर की कार्यवाही जरूर हुई होगी।

इतनी देर में एक एम्‍बेसड़र कार आकर रुकी उस में कमिश्नर साहब थे। जब सब बातों का उन्हें पता था। तब जाकर उनका सारा तनाव खत्‍म हुआ और माहौल को कुछ हलका करने के लिए मजाकिया हंसी हंस कर कहने लगे। गजब है ये सब भी, उन्होंने शिव प्रसाद जी के कंधे पर हाथ रख कर कहा साहब ‘’नेकी कर और कुएं में डाल। आपने अच्‍छा काम किया। पर आपके साथ अच्छा नहीं हुआ। आपके स्कूटर का लोक तोड़ दिया। ये सब सून कर मैं हंस पड़ा था। हम लोगों से उन्होंने माफी मांगी और कहां की आप जाओ कहो तो दो सिपाही आपके साथ भेज सकता हू। मैंने मना कर दिया की दूर ही कितना है। महेश यादव जी से गले मिले और उसे धन्यवाद दे हम घर की और चल दिए। मैंने महेश को कहा की तुम भी घर जाओ काफी देर हो चूकी है। हमें घर जाने की जल्‍दी तो थी ही। क्‍योंकि काफी देर हो गई थी, घर के लोग हमारा भी फिक्र कर रहे थे। तब भी रात के 12 बजे गए थे मुझे घर आते-आते। अगर थाना-चौकी की नौबत आती तो रात के 2 तीन 3 तो बज ही बज जाते।

अब में उस रात पैदल ही घर आया था। तब मुझे याद आया जीवन जटिल है। हम जो भी करते है वह आस्‍तित्‍व में लिख जाता है। वह लोट कर आता है। बीज और पेड़ में जो समय की दूरी होती है उसे हम देख नहीं पाते।

तब अचानक सिपाही ने कहां हां साहब आप ने जो किया वो सब नहीं कर सकते अगर उस सरदार को कोई ऊंच नीच हो जाती तो आप पर भी शक किया जा सकता था। आप सरकारी आदमी है। नौकरी के लाले पड़ सकते थे परंतु आपने साहस के मनुष्यता को आगे आने दिया। एक मनुष्य का जीवन कीमती है। आज निर्मल को जो धरती ने जीवन दान दिया है। ये उसी एक घटना का फल है। सच ‘’नेकी कर कुएं में डाल’’ वाली बात सही है। अगर हम नेकी कर के उसे बीज से फल की आस करते है, तो उस बात का महत्‍व खो जाता है। बड़े बूढ़ों ने एक-एक बात जीवन के निचोड़ से कही गई है। वह सिपाही भी आज इंस्पेक्टर हो गया है। वो अपने जीवन बीज को और शिवा प्रसाद के जीवन बीज का साक्षी है। घर का माहौल एक दम से हलका हो गया। सब ने चाय पी और फिर देखने आने का कह कर चले गए।

(यह कहानी मेरे जीवन की एक सत्‍य घटना पर आधारित है, सन 1984 में मैंने जो बोया था, उसे पृथ्‍वी में मुझे मेरे पुत्र को जीवन दान दे कर मुझे लोटा दिया। आज जो लोगों की मानसिकता, पश्चिम कि सभ्यता से इतनी अधिक प्रभावित होती जा रही है इसमें हमारी जड़े ही न जाने कहां खो गई है......कहीं खो गई मनुष्‍य की मनुष्यता और मनुष्‍य के मन की भावुकता...उनका साहास उनकी शांति...विश्‍वास नहीं होता। क्योंकि हम बहुत तेजी में जी रहे है। जब आप जड़ो को संचित ही नहीं दोगें पोषण ही नहीं दोगे तो क्या होगा। वह वृक्ष मुरझाना शुरू कर देगा। पत्तों के सिचने से थोड़ा ही पल्लवित होता है। कर्म का सिधान्त अति पराचिन सत्य है। लेकिन थोथी पश्चमी घारण आदमी को कहीं का नहीं रख रही थी। युरोप में जितने भी धर्म जन्मे सब एक जन्म को मानते है। वह भी एक सत्य को पाने का कारण बन सकता है। कि आप अब वो सब करो पल को भी नष्ट मत करो। परंतु इंसान ने किया क्या अपने स्वार्थ के लिए की कोई कर्म नहीं है खाओं पिओ और मर जाओ। वही पुरानी चारवाक की कथा जो आज कामनुजिम बन गयी है।

परंतु प्रकृति अपनी एक गति पर ही चलती है। आज आपने एक नेक काम किया एक बीज बो दिया। जरूर उससे एक पौध बनेगी समय पा कर वह एक विशाल वृक्ष भी बनेगा। लेकिन इस के बीच में दिन का महीने का साल का या जन्मों का समय भी लग सकता है। परंतु ऐसा नहीं हो सकता की कार्य निरर्थक चला जाये।

सालों पहले जो हमसे हुआ था हम तो उसे कब का भुल गए थे परंतु देखा अपने वह प्रकृति नहीं भूली थी। आज उस धरा ने, पृथ्वी के ठीक उस कोने ने ठीक उसी जगह सालों पहले वह बोया हुआ कर्म बीज रूप में हमें लोटा दिया...सच आप देखो प्रकृति लोटा देती है, उस बीज को जो कभी हमने दबाया था।

परंतु समय तो लगता है बीज बोने और फसल तैयार होने में उस समय के ही ह्रदय में अनको रहस्य समाये होते है। जिसे हम देख नहीं पाते है। क्योंकि दोनों के बीच में दिनों, महीनों या हो सकता है जन्म का भी दूरी हो। जो एक परछाई की तरह पीछे तो चलती है। परंतु उसे हम निहार नहीं पाते। )

 

     नमन इति शुभम्

 मनसा-मोहनी दसघरा

 

        

 


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