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सोमवार, 3 दिसंबर 2018

संबोधि के क्षण-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा 

असुरक्षा से संबोधि

एक फकीर था बोधिधर्म। वह हमेशा दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता था। सुननेवाले पीछे बैठें, तो वह उनकी तरफ मुंह करता ही नहीं था। चीन का सम्राट उससे मिलने आया, तो वह दीवाल की तरफ मुंह किए बैठा हुआ था। सम्राट पीछे बैठा था। उसने कहा, यह कौन सा ढंग है? कृपा करके इस तरफ मुंह करिए। उसने कहा, बहुत अनुभव के बाद दीवाल की तरफ मुंह करना सीखा हूं। सम्राट ने पूछा, मतलब नहीं समझा! उसने कहा, आदमियों की भीड़ में मैंने दीवाल ही देखी है, और तब बड़ी नाराजगी होती थी। तो फिर मैं दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता हूं। अब नाराजगी नहीं होती; क्योंकि अब दीवाल ही है, अब तो कोई बात नहीं है।

लेकिन जब आदमी दीवाल की तरह मालूम पड़ते हैं, तब बड़ा कष्ट होता है। वह जिंदगी भर दीवाल की तरफ मुंह करके ही बोलता रहता।
उसने सम्राट से कहा, मैं तुम पर दया करके इस तरफ मुंह किए हुए हूं, नहीं तो मैं बड़ा नाराज हुआ हूं। क्योंकि आदमी को दीवाल मानने में कष्ट है, और भीड़ तो बिलकुल ही दीवाल है। वहां कोई है ही नहीं, जो आपको सुन रहा है, समझ रहा है, अथवा आपसे जड़ रहा है। पर आप किससे बोल रहे हैं? किसी से नहीं बोल रहे हैं। आप खुले आकाश से बोल रहे हैं, भीड़ सुन रही है। तो बोला तो जा सकता है निकट ही।

और भी बड़ी कठिनाई है; क्योंकि जो हम बोलते हैं, वह बोलनेवाले पर ही निर्भर नहीं होता है; आधा तो सुननेवाले पर निर्भर होता है; क्योंकि मैं क्या बोलूंगा जयराज जी से, वह आधा उन पर निर्भर होता है, और विजय जी से क्या बोलूंगा वह आधा उन पर निर्भर होगा। वह मुझसे क्या निकलवा लेंगे, वह मुझे किस कोने में खड़ा कर देंगे, मुझे क्या कहना पड़ेगा, यह उन पर निर्भर है। भीड़ कुछ भी निकलती है, न निकाल सकती है।
तो एक-एक व्यक्ति के एनकाउंटर में कुछ अर्थ है।
प्रश्न--अर्जुन न होते, तो शायद कृष्ण का उद्देश्य कुछ और ही होता?
कृष्ण में कुछ और ही होता, अर्जुन के बिना कुछ और ही होता। वह अर्जुन ही था, जो उस उद्देश्य के पीछे का है। यानी ऊपर से ऐसा दिखता है कि बोलनेवाला बोल रहा है। यह इतनी सरल बात नहीं है। सुननेवाला भी बोलवा रहा है। वह निकाल रहा है, बहुत कुछ उस पर निर्भर करेगा। भीड़ में कोई नहीं है वहां। इधर मैं बहुत परेशान हुआ है; क्योंकि दिन-रात भीड़ ही भीड़ में हूं। भीड़ के पास न आत्मा होती है, न आंख होती है। इसलिए एक-एक व्यक्ति से सीधे आमने-सामने बात करने का जो रस है, मजा है! लेकिन आमतौर से नेतागण और गुरुजन सीधे बात करना पसंद नहीं करते हैं। सोचनेवाले आदमी को भी बर्दाश्त नहीं करते। हां, वह भीड़ ही चाहते हैं।
भीड़ बिलकुल मशीन है। भीड़ से कोई डर नहीं है, भीड़ खंडन नहीं करती है, भीड़ उलटकर जवाब नहीं देती है। भीड़ से कोई टक्कर नहीं है, कोई चुनौती नहीं है। भीड़ इधर खड़ी है, डेड मास है। आप बोले चले जाते हैं, जो आपको बोलना है, कहना है, जब आप एक व्यक्ति के सामने खड़े होते हैं, तो एक जिंदा आदमी है और वह आपको कुछ भी बोलने नहीं देगा। टोकेगा भी, गलत भी कहेगा। लड़ेगा भी,झगड़ेगा भी। जब दो व्यक्ति बात-चीत करेंगे, तो उसमें एक बोलनेवाला, एक सुननेवाला, ऐसा नहीं रह जाता। वह दोनों बोलनेवाले होते हैं, और दोनों ही सुनने वाले भी होते हैं। और उसमें ऐसा नहीं होता है कि एक सत्य जानता है, और दूसरा नहीं जानता है। उसमें दोनों के संघर्ष से सत्य निकलता है। लेकिन गुरु को खयाल होता है कि सत्य मेरे पास है, मुझे देना है, निकालने का सवाल कहां है? दे देना है, तो आप चुपचाप ले लो, रास्ते पहुंच जाओ।
इसलिए आमतौर से धर्मगुरु हैं, नेता हैं भीड़ को चलानेवाले लोग हैं, व्यक्ति को पसंद नहीं करते हैं। व्यक्ति के साथ डर जाएंगे। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जो लोग बड़ी-बड़ी भीड़ को प्रभावित करते हैं, वे एक छोटे से व्यक्ति से घबरा जाएंगे। हिटलर जैसा आदमी लाखों लोगों को कंपाएगा, लेकिन कमरे में एक आदमी के साथ अकेले नहीं बैठ सकता है घंटे भर। इतना डर जाएगा। शादी नहीं की है हिटलर ने मरने के दिन तक, इसीलिए कि और किसी को तो कमरे के बाहर रोक सकते हैं; लेकिन जिस औरत से शादी कर लेंगे, वह तो कमरे में साथ होगी। और साथ होने से इतना डर लगता है एक आदमी से! क्योंकि भीड़ में जो न तो है, वह अपने को व्यवस्थित कर लेता है। वह जैसा दिखाना चाहता है, वैसा हो जाता है। लेकिन चौबीस घंटे थोड़े ही पोज कर सकते हैं! चौबीस घंटे मुश्किल हो जाएगी, तो मर जाओगे। तो हिटलर ने किसी को दोस्त नहीं माना जिंदगी भर। उसके जो साथ थे वे कहते थे, या तो तुम उसे दुश्मन हो सकते हो, या उसके अनुयायी हो सकते हो। दोस्त होने का कोई उपाय नहीं है। कोई उसके कंधे पर हाथ नहीं रख सकता है। और कोई उसके पास बैठ भी नहीं सकता। वह हमेशा मंच पर होगा मंच के नीचे होगे। साथ होने का उपाय नहीं है। नेता छोड़ते नहीं उपाय।
व्यक्ति से सीधा उलझना बहुत कठिन बात है। और एक छोटे से छोटा आदमी इतना अदभुत आदमी है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। लेकिन भीड़ में कोई भी नहीं है, वह तो नोबडीनेस है। वहां बेधड़क है, कुछ भी नहीं है। इधर मुझे तो निरंतर ऐसा लगता है कि सीधा एक-एक व्यक्ति से पास में हो, तो उसका कुछ अर्थ है। कम्युकेशन है, संवाद है कुछ।
प्रश्न--आप तो बहुत घूमते हैं। आपको लगता है कम्युनिकेट करना आसान है। आपको इस देश में आज इंटेलेक्चुअल स्टैंडर्ड क्या लगता है?
बहुत कम है; लेकिन बहुत कम होने का कारण यह नहीं है कि बुद्धिमान लोग मुल्क में बहुत कम हैं। असल में बहुत गलती हो गयी। शिक्षित आदमी बुद्धिमान समझा जा रहा है, यह दिक्कत हो गयी है, और हम उसी में खोजते हैं। बुद्धिमान , एजुकेटेड और इंटेलिजेन्स को हम इकट्ठा माने हुए हैं, कि कोई आदमी शिक्षित है ठीक से, डिग्री है उसके पास, तो वह बुद्धिमान होगा। यह जरूरी नहीं है, डिग्री जरूरी नहीं है यह नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूं कि डिग्री होने से आदमी इंटलिजेंट हो, यह जरूरी नहीं है। बल्कि सच यह है कि डिग्री पाने का हमारा जो रास्ता है, उसमें इंटेलिजेंट आदमी पिछड़ जाएगा, स्टुपिड आगे हो जाएगा।
हमारा जो रास्ता है, वह इसी ढंग का है। क्योंकि हमारी सारी शिक्षा बहुत बहरे में स्मृति की परीक्षा है, बुद्धिमत्ता की नहीं। और बुद्धिमान आदमी जो है, वह बहुत जल्दी भूलता है। और बुद्धिहीन आदमी जो है, वह चीजों को पकड़ लेता है, और कभी नहीं छोड़ता है। और पकड़े इसलिए रखते हैं कि नए समझने का तो उपाय नहीं है, यही उसकी संपत्ति है। बुद्धिमान आदमी समझता है और छोड़ देता है। क्योंकि क्या पकड़ना है? कल जब फिर सामने जिंदगी हो, तो फिर बुद्धिमत्ता काम कर लेगी। तो बुद्धिमान स्मृति को इकट्ठा नहीं करता है, बुद्धू स्मृति इकट्ठी करता है। और स्मृति का जो प्रशिक्षण है, उसमें हम खोजने जाते हैं कि इंटेलिजेंट आदमी कहां है? तो शिक्षित आदमी जरूरी रूप से बुद्धिमान आदमी नहीं है। लेकिन, अगर हम यह श्रम छोड़ दें, और सहज आदमी में खोजने चलें, तो बुद्धिमान लोग दिखाई पड़ेंगे।
 कभी गांव में जिसको हम एक निपट गंवार कहेंगे, वह बुद्धिमान हो सकता है। लेकिन जो मेजरमेंट हैं, हो सकता है वह पकड़ में न आ सकें, क्योंकि हमने मेजरमेंट गलत बना रखे हैं। इसमें उसकी गलती नहीं है। बुद्धिमत्ता तो बहुत है, लेकिन शिक्षित होने की बुद्धिमत्ता समझे, तब फिर कठिनाई पैदा हो जाती है; और वैसे आदमी से, क्योंकि बुद्धिमान के भी बहुत रूप हैं। अक्सर यह होता है कि जो मेरी बुद्धिमत्ता है, वैसे आदमी को मैं बुद्धिमान समझ पाता हूं। और बुद्धि मता की बहुत दिशाएं हैं, बहुत आयाम हैं, बहुत डायमेंशंस हैं। यानी बुद्धिमत्ता कोई ऐसी चीज नहीं है कि एक ही तरह की हो।
एक पेंटर है। उसके पास एक तरह की विजडम है, बुद्धिमत्ता है। अगर गणितज्ञ से उसकी मुलाकात हो, तो गणितज्ञ समझ सकता है कि यह आदमी इटेंलिजेंट नहीं है। क्योंकि गणितज्ञ के पास एक तरह की बुद्धिमत्ता है, जहां दो चार ही होते हैं। जहां सब बंधा हुआ फिक्स्ड है। पेंटर की बात बहुत भिन्न है।
वानगाग का एक चित्र है। उसने दरख्त उतने बड़े बनाए हैं कि चौखटे के पर निकल गए हैं। पेंटिंग छोटी पड़ गयी है, और पेंटिंग का आकाश भी छोटा पड़ गया है, वह दरख्तों के पार चले जा रहे हैं, और सूरज वगैरह इतने छोटे-छोटे कोने में पड़े हैं कि जिनकी कोई हैसियत नहीं। उसका एक मित्र उसे देखने आया है। उस मित्र ने कहा कि यह क्या पागलपन है? दरख्त इतने बड़े और सूरज इतना सा? इसमें कोई गणित भी तो हो, यह कैसा गणित है? दरख्त इतना बड़ा सूरज इतना सा?  तुम्हें प्रपोर्शन का, अनुपात का कुछ खयाल नहीं है? अनुपात की जो भाषा है, वह गणित की भाषा है। प्रपोशन की जो भाषा है, वह गणित की भाषा है। तो उस चित्रकार ने कहा, मैं कोई गणितज्ञ नहीं हूं, और सूरज ने कोई गणित से सहमत होने को ठेका ले लिया है? मैंने तो कोई और ही बातें चित्रित की है। गणित से इसको कोई लेना-देना नहीं। दरख्तों को कभी भी ऐसा नहीं देख पाया। मैं दरख्तों को सदा ऐसा ही देख पाया हूं कि दरख्त जो हैं, वे पृथ्वी की आकांक्षाएं हैं, आकाश को छूने की। एम्बीशंस हैं पृथ्वी का।
तो पृथ्वी अभी तक जीत नहीं पायी है, लेकिन हमें क्या बात है? यह जो आदमी है, इसको गणितज्ञ कहेगा, ठीक है, फिजूल हुआ यह! यह नापना था, तौलना था। नाप तौल की एक दुनिया है, वहां की यह बुद्धिमत्ता है। लेकिन एक और प्रकार की बुद्धिमत्ता होती है। अब एक संगीतज्ञ है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। एक तार्किक है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। एक प्रेमी है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। और एक किसान है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। एक मिट्टी खोदने वाले है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। लेकिन, सच तो यह है कि जितने तरह के लोग हैं, उतनी तरह की बुद्धिमत्ताएं हैं। और हम जब भी तौलने जाते हैं, तो अपनी बुद्धि को हम कसौटी बना लेते हैं। वह दूसरा आदमी उस कसौटी पर नहीं बैठता; क्योंकि वह दूसरा आदमी हमारे जैसा नहीं है। तब कठिनाई हो जाती है।
मुझे बहुत जाएगा रहा है एक फकीर। उस पर गांव में लोगों ने इल्जाम लगा दिया है और कह दिया है राजा से कि यह फकीर नास्तिक है, अधार्मिक है, और इसके बोलने पर पाबंदी लगाना जरूरी है, नहीं तो सारा गांव बर्बाद हो जाएगा। तो राजा ने उस फकीर को बुला लिया, उस फकीर ने राजा से कहा कि किसने तुम्हें यह खबर दी? क्योंकि मुझे पता ही नहीं कि नास्तिकता और धार्मिकता तौलने का मापदंड क्या है? मैं तो उसी की खोज कर रहा हूं। मुझे पता चल जाए, तो मैं भी उस तराजू पर बैठकर अपने को तौल लूं कि मैं धार्मिक हूं कि अधार्मिक। कहां किसने? राजा ने कहा कि मेरे ये पंडित बैठे हैं। इन्होंने कहा है। उसने कहा कि इन पंडितों से, इसके पहले कि मैं अपनी जांच करवाऊं, एक छोटा सा सवाल पूछना है।
पंडित तैयार हो गए। ऐसे पंडित हमेशा तैयार होते ही हैं, रेडीमेड ही होते हैं। उनके पास कुछ ऐसा नहीं होता है कि किसी चीज का मुकाबला किया जा सके। उनके पास चीजें तैयार होती हैं। मुकाबला सिर्फ बहाना होता है, खूंटियां होती हैं, जिन पर जो उनके दिमाग में सदा से तैयार कर रखा है, वह टांग देते हैं। वे तैयार हो गए। उस फकीर ने एक-एक कागज उनको थमा दिया, और कहा कि मैं एक प्रश्न पूछता हूं, आप सब उत्तर लिख दें। तो उन्होंने सोचा कि यह कोई कठिन प्रश्न पूछेगा। और मजा यह है कि सब कठिन प्रश्नों के उत्तर तैयार हैं। सरल प्रश्न का उत्तर ही मुश्किल बात है। क्योंकि उसका उत्तर कहीं लिखा नहीं होता है। उस फकीर ने बड़ा सरल प्रश्न पूछा। उसने पूछा, व्हाट इज ब्रेड--रोटी क्या है? उन्होंने सोचा कि पूछेगा, ब्रह्म क्या है? और परमात्मा क्या है? मोक्ष क्या है? प्रेम क्या है? यह कैसा गंवार आदमी आ गया है, जो पूछता है कि रोटी क्या है? यह भी कोई सवाल है? कोई ज्ञान है?
उन्होंने कहा, यह भी कोई सवाल है? फकीर ने कहा, मैं बिलकुल नासमझ आदमी हूं, बस ऐसा ही सरल पूछ सकता हूं। आपकी बड़ी कृपा होगी, जवाब दे दें। आप इस पर लिख दें, राजा भी हैरान हुआ, इसको काहे के लिए पकड़ लाए हैं? यह क्या नास्तिक होगा? यह बेचारा, ऐसी सरल बातें भी इसे अभी पता नहीं कि रोटी क्या है! इसके सवाल कोई मेटाफिजिक्स के, कोई ज्ञान के तो नहीं हैं। पंडित लिखने में बड़ी मुश्किल में पड़ गए; क्योंकि कहीं नहीं लिखा था कि रोटी क्या है! पढ़ा ही नहीं था किसी किताब में, किसी ब्रह्मसूत्र में, किसी गीता में, किसी कुरान में! कहीं नहीं लिखा है कि रोटी क्या है। बड़ी मुश्किल में पड़ गए।
 एक ने लिखा, रोटी एक तरफ का भोजन है। और क्या लिखे। गेहूं, पानी और आग का जोड़ है। किसी ने लिखा है, रोटी बड़ी ताकतवर चीज है, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि रोटी सब कुछ है। खून भी वही है, हड्डी भी वही है, मांस भी वही है, मज्जा भी वही है। तो रोटी क्या है, कहना बहुत मुश्किल है। रोटी बहुत मिस्ट्री है। एक ने लिखा कि पहले यह पता चल जाए कि पूछनेवाले व मतलब का मतलब क्या है, मैं बता सकता हूं।
सबके कागज लेकर फकीर राजा के सामने गया और उसने कहा, यह कागज देख लें। इन पंडितों को यह भी पता नहीं है कि रोटी क्या है? और ये सब इस पर भी राजी नहीं हैं कि रोटी क्या है? ये इस पर कैसे राजी होंगे कि ईश्वर क्या है, और आस्तिकता क्या है? इन्होंने कैसे जान लिया मुझे? वह पता मुझे बता दें आप! मैं भी उस तराजू पर चढ़ जाऊंगा। अभी मुझे ही पता नहीं है कि मैं कौन हूं--नास्तिक हूं कि आस्तिक हूं। इनको कैसे पता लग गया है?
एक तरह की बुद्धिमत्ता उन पंडितों के पास भी थी। किताबों में जो लिखा था उसे वे जानते थे। यह आदमी बड़ा होशियार है। वह किताब की बात नहीं पूछेगा। यह आदमी भी एक तरह की बुद्धिमत्ता लिए हुए है, जो उससे गहरी है। इसके पास भी एक विजडम है। अक्सर होता है कि यहां कठिनाई है। हम बुद्धिमान आदमी नहीं मिलता है; क्योंकि हमारी जो बुद्धिमत्ता है, हम उसी से तौलते चलते हैं। और दूसरी बात यह होती है जाने-अनजाने, जो हमसे सहमत हो जाए, वह बुद्धिमान मालूम पड़ता है, जो कि ठीक नहीं है। मुश्किल तो यह है कि जो बुद्धिमान है, वह सहमत जरा मुश्किल से हो सकेगा। और हमारा मन कहता है, जो सहमत हो जाए उसे हम बुद्धिमान मान लें। सरल है वह बात। लेकिन जरा कठिन है सहमति। यानी हमारी नजर में उसकी बुद्धिमत्ता हम सहमति से तौल लेते हैं। और जब कि बुद्धिमान आदमी का सहमत होना जरा मुश्किल है। अपनी नजर है, अपनी दृष्टि है, अपना सोचना है।
और, मैं यह मानता हूं कि कोई किसी से सहमत हो ही क्यों? असल में सहमति की अपेक्षा बहुत गहरे में वायलेंस है, और मैं आकांक्षा करूं कि मुझसे आपको सहमत होना चाहिए, तो मैं किसी न किसी गहरे तल पर आपको मिटाना चाहता हूं, और अपने को उसमें बैठाना चाहता हूं। आपको डोमिनेट करना चाहता हूं, मारना चाहता हूं। तो हम यह भी खयाल में रखते हैं कि जो हमसे सहमत हो जाए, वह बुद्धिमान है। और इसीलिए यह हो जाता है कि गुरुओं और महात्माओं के पास निपट बुद्धू इकट्ठे हो जाते हैं, जो उनसे सहमत हो जाते हैं। हम कहते हैं, बहुत अच्छे लोग इकट्ठे हो गए हैं। और वे जो इकट्ठे हो गए हैं वे वही लोग हैं, जो सहमत हो जाते हैं।
 वाल्तेयर के खिलाफ कोई एक आदमी था, डिडरो। और उसने वाल्तेयर के खिलाफ बहुत सी बातें कहीं, और वह एक दिन वाल्तेयर को रास्ते पर मिल गया। तो, उसने वाल्तेयर से कहा कि आप तो सोचते हो, मैं इस आदमी को मार डालूं। तो वाल्तेयर ने कहा, क्या कहते हो? घर चलो। आज मैं डायरी में तुम्हारे संबंध में एक बाम कहना चाहता हूं वह उसे घर लाया। डायरी में उसने एक वाक्य लिखा है कि जो मुझसे असहमति हैं, और मेरे विरोध में हैं, उन्हें उस तरह से सोचने का अधिकार और हम है और उस तरह बोलने को भी। अगर इसकी लड़ाई में मुझे अपनी जान गंवानी पड़े, तो मैं जान गंवा दूंगा। लेकिन वे गलत हैं, यह कहने का अपना अधिकार मैं मानता रहूंगा। मैं जान लगा दूंगा उसके इस अधिकार के लिए थक उन्हें सोचने का हक है, लेकिन वह गलत हैं, यह कहने का हक है।
आखिर इतना खयाल हमें हो कि हम सहमति न खोज रहे हों, तो बहुत बुद्धिमान लोग मिल सकते हैं। लेकिन सहमति खोजने की वजह से कठिनाई हो जाती है। और फिर यह होता है जाने अनजाने किसी न किसी रूप में हम उस आदमी को पसंद करते हैं, तो किसी न किसी भांति हमारे जैसा है। जिससे हमारी कानफ्लिक्ट न हो। और दुख की बात यह है कि जो हमारे जैसा है, वह हमें कोई रस नहीं है दें सकता। रस हमें वही दे सकता है, जो हमारे मतभेद न रखता हो।
हम हमेशा यह कर लेते हैं कि जो हमारे जैसा है, उसे चुन लेते हैं। पहले मौके पर ही अच्छा लगता है, क्योंकि वह हमारा ही दर्पण है, उसमें हम ही दिखाई पड़ जाते हैं। फिर चार दिन बाद मुश्किल शुरू हो जाती है; क्योंकि यह आदमी तो बिलकुल हमारे जैसा है। पश्चिम में प्रेम विवाह की जो असफलता है, उसकी बुनियाद में कारण यह है। हर व्यक्ति उसको प्रेम कर लेता है पहले मौके पर, जो उसे अपने जैसा लगता है। लेकिन जब साथ रहता है, तो अपने जैसा आदमी सुखद नहीं मालूम पड़ता। भिन्न चाहिए, भेद चाहिए। उसकी अपनी रुचि, अपना व्यक्तित्व चाहिए, और वह बिलकुल मेरे जैसा है। तो वह काफी छाया मालूम होने लगता है। वह व्यर्थ हो जाता है। उसमें हमें कोई रस नहीं रह जाता है। और एक बात है, उनसे हमें जीतने की आगे कोई जरूरत नहीं रह जाती। वह जीत ही लिया गया है, बात खत्म हो गयी है। तो, ऐसा अक्सर हो जाता है। और इसलिए अपने विरोधी को प्रेम करने की क्षमता जब तक न बढ़े, तब तक न तो हम कीमती मित्र बना सकते हैं, न कीमती पत्नी खोज सकते हैं, न कीमती पति खोज सकते हैं और न कीमती साथी खोज सकते हैं। हम खोज ही नहीं सकते हैं, जब तब अपने से विरोधी में हम प्रेम की क्षमता विकसित नहीं करते हैं। इसलिए पता नहीं चलता है कि कितनी बुद्धिमत्ता है। बुद्धिमत्ता तो बहुत है। कई बार ऐसी जगह होती है, जहां हम कभी नहीं सोचते।
इधर कोई डेढ़ सौ दो सौ वर्ष में कालेज के प्रोफेसर बुद्धिमान समझे जाते रहे हैं। लेकिन दुनिया में जितने आविष्कार हुए हैं, वे उनके लोगों ने किए हैं, जिनका युनिवर्सिटी से कोई संबंध नहीं रहा है। यानी प्रोफेसर के नाम का, आविष्कार से संबंध न के बराबर है। और अज्ञात जगह से, अनजान कोने से कोई आदमी कुछ खोज लेता है। इसका हम कभी खयाल ही नहीं करते कि यह भी बुद्धिमान है। बहुत बार ऐसा होता है, रॉ इंटेलीजेंस जो है, वह दिखाई नहीं पड़ती है। कच्ची युनिवर्सिटी से नहीं गुजरी है, पक नहीं गयी है, कच्ची है, दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन कच्ची बुद्धिमत्ता में विकास की ज्यादा संभावना होती है, और बहुत उपाय मार्ग होते हैं। और पकी हुई बुद्धिमत्ता पके हुए घड़े की तरह होती है जिसको अब नहीं ढाला जा सकता। कच्चा घड़ा है, वह अभी बहुत तरह की शक्ल ले सकता है। तो रॉ इंटेलीजेंस तो बहुत है दुनिया में!
और भी बहुत मजे की स्थितियां हैं कि जिसको हम बुद्धिमान समझदार कहते हैं, जिस प्रक्रिया से, जिस प्रोसेस से, हम इसे गुजारते हैं, वह सब बुद्धिमत्ता छीन लेती है। हेनरी थारो विश्वविद्यालय से पढ़कर लौटा था। वह अपने गांव का पहला ग्रेजुएट था। गांव के लोगों ने स्वागत किया। गांव के बूढ़े आदमी ने उसके स्वागत में कहा कि यह हमारे गांव का पहला स्नातक है, इसलिए मैं इसको आदर देने नहीं आया हूं। इसको आदर देने इसलिए आया हूं कि यह लड़का विश्वविद्यालय से अपने को बचाकर वापस लौटा है। यह अभी भी बिलकुल ताजा है। बासी नहीं पड़ गया, इसके प्रोफेसर, गुरु इकट्ठे होकर भी इसकी जान नहीं ले पाए, इसको मार नहीं पाए। यह सब भी सोचता है। और अब भी फ्रेय प्वाइंट पर, ताजा हुआ है कि मैंने जान लिया है। अभी इसमें स्योनिरटी है कि खोजता हूं, कुछ पता नहीं है। वह इसमें है, इसलिए मैं इसका स्वागत करने आया हूं।
 और यह सच बात है, यह बड़ी रेयर घटना है। हमारी जो पचीस साल की तालीम की व्यवस्था है, वह बुद्धिमत्ता को करने की है। संभावना भी हो, तो उसको छांट डालने की है। क्योंकि बुद्धिमत्ता बहुत गहरे में विद्रोह है। और स्थिति यह है कि न समाज विद्रोह चाहता है, न बाप विद्रोह चाहता है, न मां, न गुरु, न नेता--कोई विद्रोह नहीं चाहता। जिस आदमी में थोड़ा भी बुद्धि है, वह विद्रोही हो जाएगा। क्योंकि उसकी बुद्धि पच्चीस जगह कहेगी कि यह गलत है। वह पूछेगा, क्यों है? हजार सवाल उठाएगा और सब जवाब जो पुराने पके-पके हैं, उन सबको गड़बड़ कर दोगे, सबको, हिला देगा, डुला देगा। चीजों को अराजक कर देगा।
तो इस बुद्धि का डर रहा है दुनिया में हमेशा। इसलिए बुद्धिमान आदमी पैदा न हो पाए, इसकी हमारी सारी चेष्टाएं हैं। बाप भी बेटे लिए कहता है कि जो आज्ञाकारी है, वह अच्छा है। लेकिन जिसमें थोड़ी बुद्धि है, वह एकदम आज्ञाकारी नहीं भी हो सकता है। आज्ञा मान सकता है, तोड़ भी सकता है। ये दोनों संभावनाएं सदा मौजूद रहेंगी। वह न भी कह सकता है, हां भी कह सकता है, लेकिन हां ऐसी न होगी कि जिसके भीतर का न बिलकुल मार डाला गया हो। मगर बाप को इच्छा नहीं लगेगा लड़का, जो न भी कह देता हो। बाप के अहंकार के विरोध में है यह बात कि लड़का, और न कह दे! स्कूल का शिक्षक भी नहीं चाहता कि कोई न कहे। देश का नेता भी नहीं चाहता कि कोई न कहे। सब चाहते हैं आज्ञा--आज्ञा चुपचाप मानो और चलो। तो, बुद्धिमत्ता नष्ट हो जाएगी, जंग खा जाएगी।
बहुत गहरे में समझा जाए, तो बुद्धि आती है निगेटिव से सदा ही। उसमें जो निखार आता है, वह इनकार से आता है। जैसे कोई पत्थर की मूर्ति बनाता है, तो छेनी से तोड़ डालता है जगह-जगह से और वह मूर्ति पत्थर से नहीं बनती, वह छेनी से और तोड़े गए टुकड़ों से निर्मित होती है अंततः। जो छान के काट डाला गया है, उससे निर्मित होती है। नहीं तो पत्थर तो पत्थर ही है। उसमें अगर तोड़ नहीं होती, तो बना रह जाता। तो प्रतिभा भी निषेध से, निगेटिव से, काटने से, तोड़ने से, इनकार से बनती है: और कोई पसंद नहीं करता है इसको। तो, हम सब मार डालते हैं, बिलकुल। मैं भी उस आदमी को पसंद करूंगा जो मैं कहूं कि यह; तो वह भी कहे, हां, ऐसा ही। इससे मेरे अहंकार को बड़ी गहरी तृप्ति मिलती है कि जो मैं कहता हूं वही ठीक है, और अकेला मैं नहीं मानता, और लोग भी मानते हैं। जितने लोग अनुयायियों को खोजते हैं, बहुत गहरे में, इन्हें भरोसा नहीं है कि जो यह कह रहे हैं वह ठीक है। जब बहुत लोग भी इसको ठीक कहते हैं, तब इनको भी भरोसा आता है। जब इतने लोग मानते हैं, तो गलत हो कैसे सकता है?
जो आदमी जितना भीतर भरोसे से कम है, भरोसा कम है जिसमें अपनी बात का, वह अनुयायी खोजेगा।
अनुयायी जो हैं वे सब्स्टीटयूप हैं, कान्फिडेंस लानेवाले हैं। तो वह सबको राजी करना चाहेगा, सहमत करना चाहेगा, और वह तोड़ेगा, लोगों की प्रतिभाएं नष्ट करेगा। अब तक आदमी ने प्रतिभा को जगने नहीं दिया, बुद्धिमत्ता को पैदा होने नहीं दिया। वैसे वह बहुत है। अगर उसे फूटने का मौका मिले, तो दुनिया अनूठी हो जाए, लेकिन तब उस दुनिया में नियम हम हो जाएंगे। उस दुनिया में ढांचे टूट जाए। उस दुनिया में व्यक्ति हों, समाज कम हो। जितनी बुद्धिमत्ता होगी, उस दुनिया में उतने ही इंडिविजुअल्स होंगे, सोसायटी मिट जाएगी।
तो, उस खतरे से बचने के लिए बुद्धिमान को हम पैदा नहीं होने देते हैं। इसलिए सुकरात को जहर पिला देते हैं, जिससे को सूली पर लटका देते हैं, हमने बुद्धिमान आदमी के साथ अच्छा व्यवहार ही नहीं किया कभी। तो वे पैदा कैसे हो? उनका होना बिलकुल अव्यावहारिक है, क्योंकि हम सब मिलकर उनको मार डालते हैं। इसलिए दिखाई नहीं देते। वैसे तो बुद्धिमानी बहुत है। हर आदमी में है। जन्म से उसको मिलती ही है। अगर वह खुदा ही उसको खोता चला जाए, तो बात अलग है। सौदा कर लेता है वह, कन्वीनियन्स खरीद लेता है, इंटेलिजेंस खो देता है। कुछ सौदा है। सुविधा इसी में है कि ज्यादा बुद्धिमानी न विकसित की जाए। सुविधा है बहुत, इसलिए नहीं मिलता है। नहीं तो वैसे एक-एक आदमी और अगर हम बहुत सहानुभूति से खोजने लगे, तो भी फर्क पड़ेगा। क्योंकि जब हम किसी व्यक्ति के पास परीक्षक ही रह जाते हैं। तब उस व्यक्ति के सब द्वार-दरवाजे बंद हो जाते हैं। वह डर जाता है और फिफेन्सिव हो जाता है। और जब कोई आदमी डिफेन्सिव हो गया, तो फिर हमें उसके लिए असली रूप का पता नहीं चलता कि भीतर क्या है! उसके पास अत्यंत सहानुभूति से, सिम्पैथी से जाने की जरूरत है। बड़े प्रेम से, परीक्षक की तरह नहीं! तो शायद एक साधारण से आदमी में भी इतनी बुद्धिमत्ता के फूल खिलने लगते हैं, लेकिन कभी किसी ने उसको सहानुभूति से नहीं देखा था, वह डर गया सब फूल उसने भीतर छिपा लिए हैं। वह डरा हुआ खड़ा है कि कुछ गड़बड़ न हो जाए।
हर आदमी को डिफेंस की हालत मग हमने डाल दिया है। ऐसी बेहूदी सोसायटी हमने बनायी है दुनिया में कि हर आदमी रक्षा की हालत में पड़ा हुआ है, किफेन्सिव हो गया है। और जब भी कोई डिफेन्सि हो जा, तब वह कभी खुलता ही नहीं, क्योंकि खुलने में डर है। वह हमेशा सिकुड़ा रहता है, बंद रहता है। इसलिए कई बार ऐसा होता है कि जिन्हें आप प्रेम करने लगते हैं, बाद में आप पाते हैं कि उनमें बुद्धिमत्ता है। तो प्रेम उनकी बुद्धिमत्ता को एकदम निकालने का, खुलने का मार्ग बना जाता है। और दूसरों में बिलकुल बुद्धिमत्ता नहीं पाते हैं। बेवकूफ कहेगा, क्योंकि उसको दिखाता है कि इसमें कुछ भी तो नहीं है। और सच बात यह है कि न केवल बुद्धिमत्ता, बल्कि जीवन की सारी चीजें, सहानुभूति की हवा में खिलती हैं। यानी सच बात तो यह है कि कोई आदमी इतना सुंदर नहीं होता है, जितना उसको कोई प्रेम करनेवाला मिल जाता है तब वह हो जाता है एकदम से। इतना सुंदर होता ही हनीं कभी वह आदमी; क्योंकि वह हमेशा डिफेन्सि है, सब सिकुड़ा रहता है, लेकिन जब उसके पास कोई बहुत प्रेम से आता है, तब उसकी सब पंखुडियां खिल जाती हैं। अब उसे डर नहीं है, वह पूरा खुल जाता है।
लोग कहते हैं कि हमें सौंदर्य से प्रेम है। यह आधा हिस्सा है। प्रेम करके हम सौंदर्य निर्मित करते हैं, यह ज्यादा गहरा और ज्यादा मूल्यवान हिस्सा है। हम सौंदर्य क्रिएट, निर्मित करते हैं। और उसी तरह इटैलिजेंस भी पैदा होती है। उसी तरह सहमति भी पैदा होती है, कान्फिडेंस भी पैदा होता है। लेकिन कोई किसी को प्रेम ही नहीं करता है। हम सब प्रेम चाहते हैं, इसलिए किसी की इटैलिजेंस हम नहीं पूछ पाते हैं और न किसी का सौंदर्य प्रकट कर पाते हैं। हम प्रेम चाहते हैं, और वह देने से खुलेगा। और मजा यह है कि अगर हम दें, तो प्रेम लौटता है। और मांगें, तो रुक जाता है। वह मांगने से कभी आता ही नहीं। दुनिया में मांगने से सिर्फ कूड़ा-कर्कट मिल सकता है, मूल्यवान कुछ भी नहीं मिल पाता। मूल्यवान तो किसी गहरे रिस्पोंस से आता है, और रिस्पोंस तो तब होता है, जब मैं हूं। इसलिए प्रेम की बहुत कभी होने की वजह से दुनिया में बहुत कम लोग बुद्धिमान दिखाई पड़ते हैं। वह प्रेम की कमी है। कोई किसी को प्रेम नहीं कर रहा है।
एक अमरीकी फिल्म अभिनेत्री थी ग्रेटा गार्बो, उसका कहीं कोई जीवन पढ़ा था मैं। वह यूरोप के किसी छोटे से कोने के गांव में, बीस वर्ष की, अठारह वर्ष ही हो गयी थी, तब तक एक नाई की दुकान में लोगों की दाढ़ी पर साबुन लगाने का काम करती थी। दो पैसे मिल जाते उसे दाढ़ी पर साबुन लगाने के। दाढ़ी तो नाई बनाता था, सिर्फ साबुन लगाने का काम वह करती थी। एक अमरीकी फिल्म डायरेक्टर घूमने आया था और वह उस नाई के यहां दाढ़ी बनवाने गया। वह लड़की तो वर्षों से साबुन लगा रही थी। लेकिन साबुन लगाने वाली लड़की को देखता कौन था? वह उस डायरेक्टर की दाढ़ी पर साबुन लगा रही थी। आईने में उस लड़की को देखा, और कहा, हाउ ब्यूटीफुल! और ग्रेटा गार्बो ने लिखा है कि मैं पहली दफा सुंदर हुई। उसके पहले तो मुझे इसका पता ही नहीं था। एक आदमी ने कहा कि कितनी सुंदर है, और बस सब बदल गया। वह १८ साल का समय कहां खो गया, मुझे पता नहीं! मैं दूसरी ही व्यक्ति हो गयी तत्क्षण। मैं साबुन लगाने वाली लकड़ी नहीं थी फिर। हाथ मेरा रुक गया। बात ही बदल गयी। सब कुछ बदल गया, जैसे एक नींद टूट गयी थी।
सौंदर्य का बोध फिर उसे अभिनय की खोज में ले गया। उसने लिखा है कहीं कि एक आदमी ने चलते हुए इतना सा कह दिया कि कितनी सुंदर है। इसकी मैं प्रतीक्षा कर रही थी, मेरा सौंदर्य इसकी प्रतीक्षा करता था कभी, मगर मुझे पता ही नहीं था। ऐसे ही बुद्धिमत्ता भी  प्रतीक्षा करती है, लेकिन कभी कोई कहे और किसी के प्रेम में वह खिल जाए। कोई चौंका दे उस। लेकिन हालतें उल्टी हैं कि हर आदमी दूसरे आदमी को बुद्धिमान तो मानने को राजी ही नहीं है; क्योंकि उसके अहंकार को चोट लगती है। इसलिए हर आदमी हर दूसरे आदमी को बुद्धिहीन सिद्ध करने की सब तरह से कोशिश कर रहा है।
चारों तरफ से यह कोशिश चल रही है। बाप भी यह नहीं चाहता कि बेटा उससे ज्यादा बुद्धिमान हो जाए। मां भी नहीं चाहती कि उसकी बेटी भी उससे ज्यादा सुंदर हो जाए। और अगर मां के सामने ही उसकी बेटी को कोई बहुत सुंदर कह देता है, तो मां पर जो गुजरती है, उसका खयाल करना मुश्किल है।
तो, हवा चाहिए चारों तरफ और एक साइकिक एटमासफियर (मनोवैज्ञानिक वातावरण) चाहिए कि जहां चीजें पैदा हों। वह हम पिछले पांच हजार साल में पैदा नहीं कर पाए। और इसलिए अधिकतम लोग, जो बहुत सुंदर हो सकते थे, साधारण रूप में मर जाते हैं। बहुत से लोग जो बुद्धिमान हो सकते थे, साधारण रूप में मर जाते हैं। बहुत से लोग जो बिलकुल असाधारण हो सकते थे, कि जिनका होना खूबी होती जमीन पर, वह बिलकुल ही एक कोने में ऐसे मर जाते हैं कि थे या नहीं, कभी पता नहीं चलता। इसको ही में कहता हूं कि बहुत से लोग बिना आत्मा को पाए मर जाते हैं। जब आत्मा की बात करता हूं, तो मुझे यह सारा होता है कि बहुत से लोग आत्मा पाए बिना मर जाते हैं। उनको पता ही नहीं चलता कि वह थे भी।
प्रश्न--तो, आपका मतलब यह है कि पाना दूसरों पर निर्भर है? अपने आप पर भी होना चाहिए?
ओशो--यह ठीक बात है, यह अपने पर निर्भर होना चाहिए, लेकिन निन्यानबे प्रतिशत दूसरों पर निर्भर होता है। क्योंकि जो होना चाहिए, वह है नहीं। होना तो यही चाहिए कि प्रत्येक पर निर्भर हो। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत यह दूसरों पर निर्भर होता है। एक प्रतिशत ही स्वयं पर निर्भर होता है। और वह जो एक प्रतिशत है, वह भी आपको लगता ही है कि स्वयं पर निर्भर है। वह भी बहुत गहरे अर्थों में स्वयं पर निर्भर होता है, जैसे दोनों संभावनाएं हैं कि एक आदमी को आप कहें, बहुत बुद्धिमान है। उसकी हवा, उसके आसपास के सारे लोग उसे बुद्धिमान कहते हों, तो उसकी बुद्धिमत्ता पैदा हो जाए। और यह भी संभव है, लेकिन यह मुश्किल से संभव है कि सारे लोग उसको बुद्धिहीन कहते हों, तो वह डिफेंस में, बुद्धिमान होने की चेष्टा में लग जाएगा और सिद्ध करके बता देगा कि वह बुद्धिमान है। लेकिन यह भी दूसरे पर ही निर्भर होना है। दोनों में फर्क नहीं पड़ा। लेकिन यह संभावना बहुत कम है, सौ में एक है। और इसीलिए हमने जो समाज बनाया है वह कभी-कभी जिसको हम बुद्धिमान और प्रतिभाशाली कहें, हो पाता है। वह जो लड़कर, विरोध में खड़ा हो जाता है, सामान्यतः यह नहीं होगा।
यह ऐसा ही मामला है जैसे कि इस कमरे में हम प्लेग के कीटाणु फैला दे। पचास मित्र बैठे हैं और चालीस मित्र बीमार पड़ जाए, बाकी सब कहें, यह तो अपने पर निर्भर है, प्लेग के कीटाणुओं से क्या होता है? देखो हम भी प्लेग के कीटाणुओं में हैं, लेकिन हम बीमार नहीं पड़े। तो, यह सवाल प्लेग के कीटाणु का नहीं है। वे जो चालीस लोग बीमार पड़ गए हैं; अगर प्लेग के कीटाणु न होते, तो बीमार न पड़ते। और ये जो दस बीमार नहीं पड़ पा रहे हैं, ये भी उतने स्वस्थ नहीं हो सकते हैं, जितने की प्लेग के कीटाणु न होने पर होते। भले बीमार न पड़ गए हों, भले मर न गए हों, फिर भी उतने स्वस्थ नहीं हो सकते हैं, जितने कि ये भी हुए हैं। यानी मेरा कहना यह है कि समाज ने अब तक व्यक्ति को विकसित होने में सहायता नहीं दी है, तब कहीं दस-पांच लोग लाख-करोड़ में विकसित हो जाते हैं। अगर समाज ने मौका दिया होता, अपार्चुनिटी दी होती तो फिर लाखों लोग विकसित होते और ये दस लोग भी हजार गुना ज्यादा विकसित होते। ये तो विरोध के बावजूद इतने विकसित हो गए हैं। उनको तो कहना ही क्या था! हम खाद न डालें, और दस पौधे लगा दें, तो हो सकता है एकाध पौधे में फूल आ जाए एक गरीब सा फूल, और बाकी नौ पौधे बिना फूल के रह जाए तो हम कहें, यह तो अपने भीतर की बात है, इसमें आ गया, नौ में नहीं आया। लेकिन खाद डालने पर नौ में नहीं आता और इसमें जो फूल आता, उसका तो हिसाब लगाना मुश्किल है कि वह कैसा होगा! ऐसा कुम्हलाया हुआ फूल न होता। कुम्हलाया फूल बड़ा फूल होता। उसकी शान अगल होती। तो, मेरा कहना यह है कि यह बात तो सच है कि भीतर हमारे संभावनाएं हैं, लेकिन संभावनाओं के लिए अवसर बड़ी कीमती बात है। और संभावनाओं के लिए लड़ना चाहिए, अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिए, यह भी मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन अवसर भी निर्मित हो, इसकी धारणा विकसित करनी चाहिए। लड़ना भी पड़ेगा एक-एक आदमी को।
प्रश्न--आज की प्रतिभा जो वह भविष्य की है?
यह भी आप ठीक करते हैं। असल में प्रतिभा सदा ही भविष्य की होती है। जिसे हम आज समझ पाते हैं कि प्रतिभा है, उसे हम इसलिए समझ पाते हैं कि वह प्रतिभा नहीं है और अतीत की प्रतिभाओं की कुछ नकल है। तो हम समझ पाते हैं। सच में आज जो प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होगा, उसकी प्रतिभा को मापने के न तो आज मापदंड हैं, न आंख है, न लोग हैं, न हवा है। सौ दो सौ वर्ष लग जाएंगे।
प्रतिभाशाली आदमी की दोहरी कठिनाइयां हैं। वह अपनी प्रतिभा से सृजन भी करे, और अपनी प्रतिभा पहचानने के योग्य मापदंड और हवा भी खड़ी करे, ऐसा मरकर भी नहीं हो पाता। और अक्सर ऐसा होता है कि दो चार सौ वर्ष बीत जाने पर खयाल में आ पाता है वह आदमी। यह भी ठीक कहते हैं आप। बहुत चरम प्रतिभा की जो बात है, वह तो सदा ही भविष्य की है। और उसे स्वीकृति आज तक तो नहीं मिली, लेकिन मेरा मानना है कि समाज ऐसा होना भी चाहिए, कि चाहे हम प्रतिभा को आज बिलकुल माप न पा रहे हों, जांच भी न पा रहे हों, अनबूझ हो, न कल चांद भी पकड़ में आती हो, तो भी समाज ऐसा चाहिए कि भविष्य की संभावनाओं को आदर देता हो।
अब तक हम सिर्फ अतीत की उपलब्धियों को आदर देते रहे हैं, भविष्य की संभावनाओं को नहीं। अतीत की उपलब्धियों को आदर न दें, तो भी चल जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि आज अगर बुद्ध की प्रतिभा पहचान ली जाए, और हम आदर भी दें, तो फर्क क्या पड़ता है? बात खत्म हो गयी है। लेकिन भविष्य की संभावनाओं को पहचानना बहुत जरूरी है, क्योंकि होनेवाला है। और अगर हम उसे पहचानते हैं, तो उसके होने में साथी और सहयोगी बन जाएंगे। वास्तविकता देखने में तो बहुत ही सरल है। एक बगीचे में फूल खिले हैं, तो कोई भी देख लेता है। लेकिन बीच की संभावनाओं को पहचानना पारखी की बात है।
समाज ऐसा भी होना चाहिए कि वह भविष्य की संभावनाओं को भी अंगीकार करता हो। और भूल-चूक के लिए राजी होता हो। क्योंकि जब भी नए रास्तों पर कोई चलता है, तो गिरता है, भूल-चूक भी करता है, भटकता भी है। यानी मेरा कहना यह है कि भटकने को एक बार ही बुरा नहीं मान लेना चाहिए, अगर हमें संभावनाओं को आदर देना हो तो। और, जितने मापदंड हमारे पास हों, उनको अंतिम नहीं मान लेना चाहिए--अगर हम संभावनाओं को आदर देना चाहते हैं। हमें इस बात का बोध होना चाहिए कि जो जाना गया है, जो पाया गया है, वह बहुत थोड़ा है उसके सामने, जो जाना जाएगा और जो पाया जाएगा। इसका बोध अगर समाज को हो, तो यह कठिनाई नहीं होगी। भविष्य की प्रतिभा को भी खयाल में रखना जरूरी है।
प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--बिलकुल हो सकता है; क्योंकि जो भी सोचा जाता है, वह किसी न किसी रूप से हो सकता है। वह सोचा जा सकता है न! तो वह हो भी सकता है। यह दूसरी बात है कि कितना फासला लगे, कितनी कठिनाई हो, कितनी मुश्किल हो। अब तो मुझे लग रहा है कि जो मैं कह रहा हूं, वह बहुत शीघ्रता से हो सकता है। क्योंकि सारी दुनिया में जो कुंठा है, वह है ही इसलिए थक अधिकतम लोगों को स्वयं होने का मौका मिल नहीं पाता। और कोई कारण नहीं है। एंग्विश जो है आज की पीढ़ी का, सारा युग, सारे जगत का, वह जो परेशान है, बेचैनी है, वह बेचैनी अब भौतिक नहीं है।
गरीब मुल्कों को छोड़ दें, वहां की बेचैनी और है। वह बेचैनी अब एकदम भौतिक नहीं है। अब वह बेचैनी बहुत गहरे अर्थों में आत्मिक हो गयी है कि हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को खोज लेने के लिए आतुर हो उठा है। यह आतुरता इतनी तीव्र है कि अगर उसे मौका नहीं मिलता है, तो दुखी होगा, पछताएगा, आत्मघात करेगा, शराब पीएगा, मरेगा, कुछ करेगा, जहां से वह टूटेगा। यह बड़ा महत्व का मामला है कि जो व्यक्ति कुछ सृजन कर सकता है, अगर सृजन न कर पाए, तो उसकी सारी शक्ति विध्वंस बनने ही वाली है। क्योंकि शक्ति के दो ही उपाय हैं--या तो वह सृजनात्मक हो जाए, या विध्वंस मग लग जाए। अब भी सृजन शक्ति ठहर जाती है, तो वह विध्वंस बन जाती है। इसलिए मीडियाकर आदमी कभी विध्वंसक नहीं होता। जिसके पास प्रतिभा जैसी कोई चीज नहीं है बहुत, वह कभी विध्वंसक नहीं होता! क्योंकि विध्वंस के लिए सृजनात्मक शक्ति चाहिए ही और जब वह फ्रस्ट्रेट होती है, रुकती है दबाव पड़ता है टूट जाती है तो वह फोड़ने लगती है, मिटाने लगती है--जो बना सकती थी, वह मिटाने लगती है!
तो ऐसी स्थिति जो बन गयी है, उसे देखकर लगता है कि हम उस दबाव के करीब पहुंच गए हैं, जहां कठिनाई व्यक्ति की नहीं रह गयी है, जहां सामूहिक रूप से व्यक्ति कठिनाई में पड़ रहे हैं। तो इस बात की संभावना है कि दबाव में, चुनौती में, इस मरण के किनारे खड़े होने में, हो सकता है कि हम सारे ढांचे को तोड़ सके, जो बीते कल ने बनाया था। नया ढांचा दे सकें, यह कोई बहुत असंभव अब नहीं मालूम देता!
प्रश्न--ऐसा नहीं है कि लोग थक जाते हैं एक पर्टिकुलर ढंग से और एक वैल्यू, रेव्यूल्यूशन के बाद पैक हो जाते हैं? भाग्यवाद, फिर सामूहिक...
ओशा--बिलकुल थक जाते हैं। यह दूसरी बात है। क्योंकि पुराना एस्टाब्लिशमेंट सुव्यवस्थित था! बहुत डरा हुआ था, शांति से सोया हुआ था, तैयार था कोई बात न थी। यह क्रांतिकारी जो इतनी मुश्किल से सत्ता में पहुंचता है और ताकत इसके हाथ में आती है, इतनी मुश्किल से कि छीने जाने के प्रति इतना सजग और डर जाता है कि सब तरह के रास्ते तोड़ देता है, कि कहीं से कुछ गड़बड़ न हो जाए तो, क्रांतिकारी तो हमेशा सत्ता में आने पर क्रांति विरोधी सिद्ध होता है। इसलिए मेरा मानना है कि ठीक-ठीक क्रांतिकारी कभी भी एस्टाब्लिशमेंट में जाने को राजी होता! मेरा मानना है कि क्रांति कोई ऐसी घटना नहीं है कि एक तिथि में घटती है, और फिर खत्म हो जाती है। क्रांति एक सतत प्रक्रिया है, कांन्सटेंट कंटिन्युटी है। यानी मैं ऐसा नहीं मानता कि १९१७ में फलां तारीख को क्रांति हो गयी रूस में, और फलां तारीख को चीन में, और फलां तारीख हिंदुस्तान में, और बस!
दो तरह के समाज हैं! अभी तक का जो समा है, वह असल में स्थिति स्थापक है, एस्टाब्लिशमेंट वाला ही है। उस व्यवस्था में तो उसी व्यवस्था के भीतर क्रांति दबाव से निकल आती है, फिर नयी व्यवस्था निर्मित हो जाती है। अब तक कोई क्रांतिकारी समाज निर्मित नहीं हुआ है। क्रांतिकारी समाज का मतलब यह है कि जिसमें क्रांति की कभी जरूरत न पड़ेगी, क्योंकि रोज क्रांति चलती ही रहेगी उसमें। यानी हम किसी भी दिन किसी भी चीज को एस्टाब्लिश्ड नहीं मान लेंगे, और रोज मौके रहेंगे प्रयोग के, और रोज हम बदलते रहेंगे। और जो हमने कल बनाया था, उसे मिटाने की हिम्मत हनीं रखेंगे! तो, यह तो बिलकुल ठीक है! अब तक तो यही होता रहा है, और जागे भी यही हो सकता है! लेकिन वह बेमानी है अब। पांच हजार साल का अनुभव यह कहता है कि क्रांतियां सब  असफल हुई हैं। कोई क्रांति सफल नहीं हुई, क्योंकि लगा कि सफल होती है, सहल होते ही लोग कि सब कुछ गड़बड़ हो गया! क्रांति खुद ही वह हो गई, तो उसका दुश्मन था!
अब तो हमें क्रांति की प्रक्रिया पर फिकर करनी चाहिए क्रांति करने की नहीं!
एक कांति की ही सतत गति हो! हम क्रांतिकारी चित्त पैदा करें ऐसा चित्त जो एस्टाब्लिशमेंट फार्म लेता ही नहीं है, व्यक्ति ही नहीं लेता। अगर समाज की ऐसी स्थिति, मनःस्थिति हम ढाल सकें, तो बदलती चली जाए नदी की धारा की तरह ऐसा नहीं कि नदी की धारा कल बही थी, तो अब बहना जरूरी न हरा! उसे नदी रहना है तो आज भी बहना है, कल भी बहना है! नदी रहना है तो बहते ही रहना है, और नहीं तो तालाब हो जाएगी। नदियां बने से बचेंगी तो तालाब हो कर रहेंगी।
अब तक की सब क्रांतियां तालाब बन गयी हैं, क्योंकि हमने क्रांति को एक घटना समझा है कि क्रांति कोई चीज है कि एक दफा कर लो तो निपट गए। कांति ऐसी कोई चीज नहीं है। वह ऐसी चीज है कि उसे करते ही रहो, यानी जीवन का ढंग जाए। क्रांति कोई घटना न हो, जीने का ढंग ही हो। हम जिए ही ऐसे, कि वह क्रांति बन जाए। जीने की व्यवस्था ही क्रांति तकी हो, तब ऊबने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि हम कहीं स्वीकार करके रुकते नहीं हैं।
दूसरी बात भिन्न है। ऐसा भी हो सकता है कि व्यक्ति अपने को पा ले, तो ऊब जाए। नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता। क्योंकि व्यक्ति पूर्ण रूप से कभी अपने को पा नहीं पाता। इतना अनंत विस्तार है व्यक्ति का अपने को पाना, कि ऐसी घड़ी कभी नहीं आती, जब कोई कह दे कि मैंने अपने को पा लिया है। और ऐसी घड़ी आती है तो आदमी ऊब जाएगा। फिर ऊबना पक्का है उसका, क्योंकि जो चीज पा ली गई है, उससे हम ऊब ही जाते हैं लेकिन मेरी दृष्टि में व्यक्ति के भीतर संभावना इतनी अनंत है कि हम थककर कहने लगते हैं कि हमने पा लिया असल में हम कभी अपने को नहीं पा पाते। यानी कोई चित्रकार यह नहीं कह सकता कि उसने यह चित्र बना दिया है, बात खत्म हो गयी अब।
रवींद्रनाथ की जिंदगी में एक बहुत बढ़िया घटना घटी है। मर रहे हैं जिस दिन, बीच बीच में बेहोश हो जाते हैं। फिर आंख खुल जाती है तो बात करने लगते हैं। गीत गाने लगते हैं। जिस दिन मरे हैं, चार दफे बेहोशी के बाद होश आया, तो फिर उठ नहीं सकते हैं, तो बोलकर गीत लिखाने लगते हैं। तो किसी ने कहा कि आप छोड़े फिकर आपने बहुत गीत लिखा लिए छह हजार आपके गीत संगीत में बंध गए हैं। ऐसा अब तक दुनिया में कभी नहीं हुआ है। शैली के दो हजार ही हैं गीत जो संगीत में बंध जाए। वह महाकवि है, तो आप महाकवि से भी महाकवि हैं। अब आप चिंता मत कीजिए। अब आप शांत रहिए। उन्होंने कहा, लोग क्या कहेंगे कि क्या इस कवि ने अपने को पा लिया? यानी मरने से पहले मर गया? न! मुझे मरने दो, और मुझे लिखने दो। यानी यह कवि होना एक प्रोसेस है। यह कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि बस हो गया पूरा कि छह हजार गीत लिख लिए तो कंटीन्उस, मरने की आखिरी घड़ी तक वह लिख रहे हैं। और आखिरी घड़ी में जो उन्होंने कुछ बचन लिखे हैं, उनमें एक बचन बहुत अदभुत हैं कि लोग कहते हैं कि मैं महागायक हूं। लेकिन हे परमात्मा उनकी बात मत सुनना, क्योंकि वे बिलकुल गलत हैं। तभी तो मैं साज बिठा पाया था अभी गाया कहां था? अभी तो तान तबूंरा सब ठोंक-पीट कर तैयार कर लिया था, अब गाने को था कि तेरा बुलावा आ गया।
जिस आदमी को ठीक से, पक्का आ गया है व्यक्ति को गहरे अनंत में ले जाना, वह किसी दिन ऐसा नहीं पाएगा--उसको हजार जन्म दो और हजार जन्मों के बाद भी वह कहेगा कि अभी हुआ क्या? अभी तो यात्रा शुरू हुई है, अभी हम चले ही हैं, अभी पहुंच कहां गए? जिंदगी में पहुंचना नहीं है चला है सिर्फ! मृत्यु में पहुंचना है। इसलिए जिनको पहुंचने का खयाल पैदा हो जाता है, वह मर जाते हैं उसी वक्त, वे तुरंत मर जाते हैं, वे जीते नहीं। फिर ऊब जाएंगे। फिर ऊबते हैं मरने। और हम खुद अपने हाथ से मर जाते हैं, क्योंकि मरना कन्वीनिटयंट पाते हैं, मरना बड़ा सरल है।
किसी आदमी ने दस किताबें लिख ली, दस गीत गा लिए, बात खत्म हो गयी। निश्चित हो गया, प्रतिष्ठित हो गया, लोगों ने आदर दिया। वह बैठ गया, पहुंच गया। मंजिल पा ली उसने। अब मरा। अब मर ही गया। यानी यह मुझे ऐसा लगता है, जैसे कि एक आदमी साइकिल चला रहा है, तो ऐसा नहीं है कि पैडल कोई वक्त पर रोक ले और कहे कि बस ठीक है, अब चलना हो चुका। पैडल रोक ले, और साइकिल चल जाए, ऐसा नहीं होने वाला है। वह साइकिल चला रहा है पूरे वक्त, क्योंकि पैडल चल रहा है। जिस क्षण पैडल रुका, साइकिल रुकी। यानी साइकिल का चलना पैडल के चलने से अलग बात नहीं है।
तो, वह तो जिंदगी की गति है, वह हमारी आत्म-खोज से भिन्न चीज नहीं है। वह चल रही है तो जिंदगी है। नहीं तो हम गए। और बहुत लोग मर जाते हैं। और बहुत लोग जो हम कहें कि कुछ उपलब्ध कर लेते हैं, वह बहुत जल्दी मर जाते हैं। क्योंकि उपलब्धि हुई और बात खत्म हो गयी। और उसके मरने का कारण यह है कि बहुत कम है यह उपलब्धि! तो मैं कह रहा हूं कि अगर इसके अनंत फैलाव हों, और हर व्यक्ति उपलब्ध कर रहा हो, तो कोई इतनी जल्दी ठहरेगा नहीं। कोई नहीं ठहरेगा। लेकिन अभी ठहर जाता है। क्योंकि पीछे लोग दिखाई पड़ते हैं और हम एक शिखर पर, जहां कोई भी नहीं है। बिलकुल ठीक है। खत्म हो गया यह।
ऐसा मुझे कभी भी नहीं लगता है कि हम कभी भी अपने को पा लेते हैं।
 प्रश्न--ऐसे व्यक्ति जिनके हमें दर्शन हुए, जैसे गांधी, टैगोर, अरविंद, इनकी प्रतिभा को आप संपन्न मानते हैं? उनकी प्रतिभा जो भी, वे देश के लिए, समाज के लिए, उनके खुद के लिए वह संपन्न थी या नहीं?
ओशो--दोत्तीन बातों पूछ रहें हैं आप। पहली बात तो यह है कि प्रतिभा सदा उस व्यक्ति के लिए सार्थक और संपन्न होती है, जिसकी है। और दूसरे के लिए सदा बांधने वाली सिद्ध होती है, रोकने वाली सिद्ध होती है। प्रतिभा जो है, वह जिस व्यक्ति के भीतर है, उसके लिए तो समृद्धि और सार्थकता देने वाली होती है। लेकिन दूसरों को सदा बांधने वाली और रोकने वाली सिद्ध होती है। अब तक ऐसा होता रहा है। जैसे गांधी जी की प्रतिभा गांधीजी के लिए तो आनंद है, लेकिन गांधी वादियों के लिए बिलकुल कारागृह है। उनको बांध दिया बुरी तरह, कस दिया बुरी तरह।
तो, मैं जिस प्रतिभा की बात कर रहा हूं, मेरा कहना यह है कि ऐसी मनोदशा होनी चाहिए समाज की कि प्रतिभा का आदर हो, स्वागत हो, सम्मान हो, अनुमान न हो। उसके पीछे कोई न जाए। क्योंकि जब भी आप प्रतिभाशाली के पीछे गए, तो आप अपनी हत्या करते हैं। आप मिटते हैं। आपका व्यक्तित्व गया। आप गए। और इसलिए अनुयायी बनाना मैं आत्मघातक मानता हूं किसी का भी बड़े से बड़े का भी। इसलिए दुनिया में हमेशा जो बड़े लोग होते हैं, जैसा अब तक हुआ है, तो उसके पीछे दस पीछे साल के लिए बड़े अंधेरे का युग आता है। उसका कारण है। वे बड़े लोग इस तरह बुद्धि को कुंठित कर जाते हैं कि पांच-पचास साल लग जाते हैं। उससे छूटने में और बचने में। इधर गांधी से बचने में पचास साल लगेंगे इस मुल्क को। तब कहीं झंझट छूटेगी। और गांधी से छूटने की जरूरत न पड़ती, अगर आप न बंधते।
यह सवाल गांधी से छूटने का नहीं है, आप बंध गये हैं इसलिए उपद्रव है। गांधी ठीक है और वह अदभुत व्यक्ति हैं, बात खत्म हो गयी। अरविंद ठीक है, और रवींद्रनाथ ठीक है और ऐसे हजार लोग होने चाहिए। फिर जब हम पूछते हैं यह बात, हमारे मन मैं खयाल ही यह होता है कि क्या इनका अनुगमन किया जाए? गांधी अगर ठीक है तो हम पूछते हैं इसलिए क्या इनके पीछे चले? मैं मानता हूं कि कोई भी ठीक हो सकता है, लेकिन पीछे चलना कभी ठीक नहीं है। और ठीक होना व्यक्तिगत या निजी घटना है। पीछे नहीं जाना है आपको। पीछे गए कि गए, बुरी तरह गए। अब तक ऐसा हुआ है कि बड़ी प्रतिभाओं से फायदा तो कम, नुकसान ही ज्यादा हुआ है। फायदा हो सकता था, अगर हमने इनकी इंडिविजुअल यूनिकनेस को स्वीकार किया होता। हमने कहा होता--राम, राम हैं, बहुत अदभुत हैं। और कृष्ण, कृष्ण हैं, बहुत अदभुत हैं। बुद्ध बुद्ध हैं, बहुत अदभुत हैं। और सौभाग्य है कि पृथ्वी पर हुए और हमने उन्हें देखा और जाना। लेकिन हम इस चक्कर में पड़ गए कि हम बुद्ध कैसे हो जाए। हम एक नकली बुद्ध हो सकते हैं ज्यादा से ज्यादा, और कुछ भी नहीं मेरी दृष्टि में कोई दो आदमी न तो एक जैसे हैं, और न ही हो सकते हैं, न कोई संभावना है। कोई मार्ग भी नहीं है। अगर किसी व्यक्ति ने दूसरे जैसे होने की कोशिश की, तो वह सिर्फ आवरण ओढ़ सकता है। और तब तक के सारे महापुरुष दुखदायी सिद्ध हुए, सुखदायी हो सकते थे, हो नहीं पाए। और जहरीले सिद्ध हुए। क्योंकि हमारी पकड़ यही थी कि उनका अनुगमन करो, उनको मानकर चलो, उन जैसे हो जाओ।
फिर दूसरी बात यह है कि प्रतिभाशाली जो भी कह देती है, वह प्रतिभाशाली है, इसलिए ठीक हो जाता है। ठीक होना जरूरी नहीं है। प्रतिभा बिलकुल गलत हो सकती है, और फिर भी प्रतिभा हो सकती है। यानी कुछ ऐसा नहीं है जरूरी कि प्रतिभा है किसी के पास, तो उसका ठीक होना अनिवार्य है। प्रतिभा पूरी हो सकती और बिलकुल गलत हो सकती है। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? और बहुत प्रतिभाएं गलत हुई हैं। वे प्रतिभाएं तो इतनी आकर्षित करती हैं, अभिभूत कर लेती हैं। लेकिन वे बिलकुल गलत हैं।
प्रश्न--गुरु और शिष्य की जो परंपरा चली, उस विषय में क्या खयाल है आपका?
 ओशो--बड़ी खतरनाक है परंपरा और बहुत नुकसान पहुंचाया है गुरुओं ने। मेरी समझ यह है कि अच्छी दुनिया होगी, तो उसमें गुरु तो नहीं होंगे, शिष्य होंगे। इसको थोड़ा समझ लेना जरूरी है, क्योंकि मैं तो रास्तों को तोड़ देता हूं। गुरु तो न हों। क्योंकि ऐसा कोई भी आदमी, जिसको गुरु होने का खयाल है, पागलखाने में भेज देने जैसा आदमी है। जिसे लगता है कि मैं गुरु हूं, उसका इलाज करवाना चाहिए वह न्यूरोटिक है। लेकिन शिष्य दुनिया में होने चाहिए। शिष्य होने से मेरा मतलब है एटीटयूट आफ लर्निग वह सभी में होना चाहिए।
एक आदमी सीखे-सीखे। शिष्य का मतलब है सीखने का भाव। तो सीखे जितना सीख सके, और मजा यह है कि गुरु सीखने में बाधा डालते हैं। क्योंकि जब भी कोई गुरु बनता है तो बांध लेता है। और तब और दिशाओं में सीखने के रास्ते बंद कर देता है। वह कहता है सीखो यहां और कहीं से नहीं। तो महावीर को जिसने गुरु बना लिया, वह मोहम्मद से नहीं सीख सकता। और मोहम्मद बहुत अदभुत आदमी है, उनसे बहुत सीखने का है। और जिसने मोहम्मद को पकड़ लिया, वह बुद्ध की तरफ आंख नहीं उठा पाएगा। और ये बड़े-बड़े गुरु हैं। छोटे-छोटे गुरु भी बहुत हैं। वे भी सब रोकते हैं।
सीखने की क्षमता और सीखने का भाव प्रत्येक में होना चाहिए, और मरने तक होना चाहिए। यानी जो आदमी जीवन भर शिष्य बना रहे, मरते वक्त तक, वह अदभुत आदमी है।
लेकिन, हमारे यहां कुछ ऐसी बात है कि आदमी जन्म से गुरु हो जाता है। शिष्यत्व तो बहुत अनोसेंट और निर्दोष भाव है। वह बहुत अदभुत भाव है। सीखने की तैयारी है। इससे बड़ी सरलता और विनम्रता हो नहीं सकती।
एक मुसलमान फकीर था बायजीद। वह जब मरने के करीब है, तो उसके शिष्यों ने उससे पूछा है, मित्रों ने उससे पूछा कि आपने कहां से सीखा कौन सा गुरु हैं? बायजीद ने कहा, अगर गुरु होता तो बहुत कम सीख पाता। गुरु कोई न था, इसलिए बहुत सीख पाया। जो भी मिला, उसी से सीखा। और ऐसा भी नहीं था कि आदमियों से ही सीखा। दरख्त से सूखा पता गिर रहा था, तो उससे भी सीखा। कल यह पत्ता हरा था और आज सुखकर गिर गया और मैं रास्ते भर सोचता चला आया, उस गिरे हुए पत्ते को देखकर गिरना पड़ेगा। और उस पत्ते को मैंने नमस्कार कर लिया कि आज तू अच्छे वक्त पर गिर गया कि मैं निकलता था। तेरी बड़ी कृपा है। नहीं तो यह खयाल ही नहीं आता कि सूखा पत्ता कल रहा था, वह कितनी अकड़ और शान में था, फिर सूखकर गिर गया जब मैं गुजरता था। क्यों समझ में आयी है यह बात कि अभी हरे हैं, कल सूख जाएंगे।
बायजीद ने कहा, एक बार मैं एक गांव गया, रात के कोई बारह बज गए। मैं भटक गया रास्ता, तो गांव में कोई नहीं मिला। एक चोर मिला चोरी पर निकला था। मैंने उससे पूछा कि मित्र रास्ता बता सकोगे? मैं कहां जाऊं कहां ठहरूं? रात अंधेरी है, मुझे कुछ पता नहीं है! उस चोर ने कहा तुम साधु मालूम पड़ते हो। क्योंकि साधु होना ऊपर से दिख जाता है। लेकिन तुम्हें पता नहीं किससे पूछ रहे हो। मैं चोर हूं। और चोर होना ऊपर से कभी नहीं दिखता। वह तो भीतर होता है। तो तुम मुझे पहचान नहीं पाए हो। फिर भी मैं तुम्हें बता दूं कि मैं चोर हूं, अगर तुम्हारी मर्जी है तो तुम मेरे घर ठहर सकते हो। घर खाली है, और मैं रात भर तो बाहर रहूंगा।
बायजीद ने कहा अपने मित्रों से कि मैंने उस दिन पहली दफा जाना कि चोर की इतनी हिम्मत हो सकती है कि कह दे कि मैं चोर हूं, साधु इतनी हिम्मत से कह नहीं सकता कि मैं साधु हूं क्योंकि मेरे भीतर चोर मौजूद था, तभी वह कह सका कि मैं चोर हूं, नहीं तो कहना बहुत मुश्किल था। एकदम  मुश्किल था। तो मैंने उसके पैर छू लिए। वह कहने लगा, यह आप क्या करते हैं? मैंने कहा कि मैं तेरे पैर छूता हूं। क्योंकि स्वयं को चोर कहने की हिम्मत सिर्फ साधु में होती है। चल, मैं तेरे घर चलता हूं।
मैं उसके घर गया। वह मुझे सुलाकर चला गया। वह पांच बचे के करीब लौटा। नींद खुली तो मैंने पूछा कि कुछ मिला? कुछ लाए? तो वह कहने लगा, आज तो नहीं, लेकिन कल फिर कोशिश करेंगे। फिर वह सो गया। वह दिन भर सोया रहा। दोपहर को उठा तो बड़ा मस्त था, नाचता था, गाता था। मैंने उससे कहा, कुछ मिला नहीं ? फिर कल मिल जाएगा? फिर रात गयी, मैं महीने भर से उसके घर था। और हर बार यह हुआ कि सुबह वह आया और मैंने पूछा, कहो कुछ मिला, और वह कहता आज नहीं मिला, लेकिन कल फिर कोशिश करेंगे। महीने बाद मैंने छोड़ दिया उसका घर। फिर मैं भगवान की शोध में वर्षों भटकता रहा और बार-बार ऐसा होने लगा कि नहीं मिलता, तो छोड़ यह खयाल। तभी उस चोर का खयाल आ जाता कि वह आदमी रोज लौट कर कहता था कि कल फिर कोशिश करूंगा। वह तो साधारण धन चुराने गया था, फिर भी हिम्मत बड़ी थी। हम भगवान को चुराने चले थे और बड़ी कमजोर है, कैसे काम चलेगा? तो फिर मैं टिका ही रहा, और जब भी हारने लगता मन, तो फिर उस चोर का खयाल आ जाता, जो कहता कि कल और कोशिश करेंगे। तो उस चोर से जो मैंने सीखा था, उसी से परमात्मा को पाया, नहीं तो पा नहीं सकता था। तो उसने मरते वक्त ऐसी बहुत सी बातें कहीं, क्योंकि बहुत से गुरु मिले उसे।
एक गांव से गुजरता था, एक छोटा सा बच्चा दिया लिए जा रहा था। पूछा उससे, कहां जाते हो दिया लेकर? उसने कहा, मंदिर में जाना है। तो मैंने उससे कहा, कि तुमने जलाया है दिया? तो उसने कहा, मैंने ही जलाया है। मैंने उससे पूछा जब तुमने ही जलाया है, तो तुम्हें पता होगा कि रोशनी कहां से आयी है। बता सकते हो? तो उस बच्चे ने नीचे से ऊपर तक मुझे देखा। फूंक मार कर रोशनी बुझा दी और कहा कि अभी आपके सामने चली गयी, बता सकते हैं, कहां चली गयी है? तो मैं भी बता दूंगा कि कहां से आयी थी। तो मैं सोचता हूं, वही चली गयी होगी, जहां से आयी थी। उस बच्चे ने कहा कहां चली गयी होगी?
तो, उस बच्चे के पैर छूने पड़े। और कोई उपाय न था। नमस्कार करना पड़ा। कि तू अच्छा मिल गया। हमने तो मजाक किया था, लेकिन मजाक उल्टा पड़ गया बहुत भारी पड़ गया। अज्ञान इस बुरी तरह से दिखाई पड़ा, लेकिन ज्योति का पता नहीं चला कि कहां से आती है और कहां जाती है! और हम बड़े ज्ञान की बातें किए जा रहे हैं। उस दिन से मैंने ज्ञान की बातें करना बंद कर दिया। क्या फायदा? जब एक ज्योति का पता नहीं तो भीतर की ज्योति की बातें करने में मैं चुप रहने लगा, उससे बच्चे ने चुप करवाया। हजारों किताबें पढ़ी, जिनमें लिखा था कि मौन रहो। नहीं रहा लेकिन उस बच्चे ने ऐसा चुप करवा दिया कि कई वर्ष बीत गए, मैं नहीं बोला। लोग पूछते थे, बोलो। तो मैं लिख देता था कि दिए की ज्योति कहां जाती है बताओ? मतलब क्या बोलने का? कुछ पता नहीं है तो बोलूं क्या?
तो इसको मैं कहता हूं, एटीटयट आफ लर्निग और डिसाइपलशिप, शिष्यत्व। गुरु तो बिलकुल नहीं होने चाहिए दुनिया में, सब शिष्य होने चाहिए। और अभी हालत यह है कि गुरु सब हैं, शिष्य खोजना बहुत मुश्किल है।
प्रश्न--हमें यह उत्सुकता होती है जानने की कि आप सक्सेस हुए, क्या करते थे, आपकी शुरुआत कैसे हुई, कहां से आपने यह चालू किया? लोगों के खयालातों का चैनेलाइज करने का कब से खयाल हुआ आपको? किस खयाल से शुरू किया?
ओशो--बहुत कठिन बात पूछते हैं। कठिन कई कारणों से है। एक तो यह कि जिंदगी कुछ ऐसी चीज है कि वह ठीक कहां से शुरू होती है, कभी बताया नहीं जा सकता। यानी जहां से जिन्हें शुरू होता है, वे कहते हैं। वह हमेशा माना हुआ बिंदु होता है। और दूसरी कठिनाई यह है कि अपने संबंध में कुछ भी कहना बड़ा मुश्किल मामला है। हां, इसलिए कठिन है कि दूसरे को तो हम बाहर से देखते हैं तो तसवीरे आंक जाती हैं। प्रतिबिंब होते हैं हमारे पास। कल और था, परसों और था। हम अपने ऊपर कभी देखते नहीं। और भीतर अपनी कोई तसवीर नहीं आंकती। वह तो एक धारा ही होती है! अलग-अलग नहीं होते हैं। तो भी मुश्किल हो जाता है और फिर जन भी हम बताना चाहते हैं तो और मुश्किल हो जाता है। वह जब हम बताने जाते हैं तो कुछ खंडों को छू पाते हैं और बीच के हिस्सों में गैप रह जाते हैं, और उनमें कई बार जोड़ दिखाई नहीं पड़ता। जैसे कि कोई सीढ़ियां जा रही हों हजारों, और उसमें दस-पांच सुंदर सीढ़ियां बताना, बीच की सीढ़ियां जाए, तो उन सीढ़ियों के बीच कोई तुम, कोई संबंध नहीं दिखाई पड़ रहा है। फिर भी कोशिश की जा सकती है कि क्या हुआ।
जो पहली से पहली बात मेरे खयाल में आती है, चारों तरफ एक अदभुत झूठ का बोध होना जरूरी है। जो पिता कह रहे हैं उसमें, जो मां कह रही है उसमें, जो मित्र कह रहे हैं उसमें, जो शिक्षक कह रहे हैं। उसमें। फिर लगा कि चारों तरफ एक गहरा झूठ सबको घेरे हुए है और यह समझ में आना शुरू हुआ कि वह झूठ मुझे भी घेरे हुए हैं। यही मैं जिस ढंग से देखता हूं, वह झूठ था। क्योंकि भीतर से मैं कुछ और ढंग से देखना चाहता था। और जो बात मैंने कहीं, वह थी ही नहीं। रास्ते पर एक आदमी मिला और कहा नमस्कार! आपको देखकर बड़ी खुशी हुई भीतर से मन में हो रहा था, यह आदमी कहां से दिख गया सुबह-सुबह, कहीं दिन खराब न हो जाए। तो भी दिखाई पड़ना शुरू हुआ, वह चारों तरफ का जो झूठ है, वह मुझको भी पकड़ रहा है। और अगर जल्दी जागे नहीं, तो फिर शायद पकड़ ही लेगा। फिर उससे छूटना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सब तरफ से घेरे लिए चला जाता है। जिससे कोई प्रेम नहीं, उससे कह रहे हैं, बहुत प्रेम है।
जो मुझे पहला बोध होना शुरू हुआ बहुत छोटी उम्र से, वह यह था कि एक अजीब झूठ चारों तरफ पकड़े हुए हैं कि घर में लोग बैठे हुए हैं, वहां छोटे बच्चे से बाहर कहलवा देते हैं कि वह घर पर नहीं हैं। फिर मुझे बाहर भेजते हैं देखने कि देख लेना कौन है। अगर फलां आदमी हो तो कहना घर में हैं, और फलां आदमी हो तो कहना घर में नहीं है। तो होता है! यह घर में होना सचाई है या कि झूठ है, जो कि कोई होता है तो आदमी घर में है कोई होता है तो घर में नहीं हैं।
मुझे जो पहला स्मरण आता है वह यह कि चारों तरफ सब चीजों में एक अजीब झूठ हैं। मुझे मंदिर में ले जाया गया है, मुझे पत्थर की मूर्ति दिखाई पड़ रही है, और घर के लोग कह रहे हैं, भगवान। फिर झूठ मालूम पड़ रहा है कि बिलकुल पत्थर की मूर्ति है, इसको मैंने बाजार में बिकते भी देखा है। यह बाजार से खरीद करके मंदिर में लायी जाती है। भगवान कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, और घर के लोग हाथ जोड़े हुए हैं। इनका हाथ जोड़ना एकदम झूठ मालूम पड़ रहा था। सरासर झूठ मालूम पड़ रहा था। जो मुझे पहला खयाल आता है, जो मुझे बचपन पकड़ना शुरू हो गया, वह यह कि फाल्स सूडो है जो चारों तरफ सबको पकड़े हुए हैं। और जैसे-जैसे बड़ा होने लगा, वैसे-वैसे मुझे दिखाई पड़ने लगा कि सब तरफ एकदम घना झूठ है मुझे पकड़ लेगा, और अगर झूठ पकड़ लेता है, तो फिर जीवन में सत्य की खोज को कोई रास्ता नहीं रहता है।तो वह क्या है, इसका पता ही नहीं चलेगा कभी। और पता चलता है ही नहीं।
लंदन में एक फोटोग्राफर था। वह अपने दरवाजे पर तख्ती लगाए हुए है। और उसमें दाम लिख रखे हैं, और लिख रखा है कि आप जैसे हैं, अगर वैसा फोटो उतरवानी हो, तो पांच रुपए, और जैसे आप दिखाई पड़ना चाहते हैं, वैसी फोटो उतरवानी हो तो दस रुपए। और जैसा आप सोचते हैं कि आप हैं, अगर वैसी फोटे उतरवानी हो तो पंद्रह रुपए। एक आदमी गया उसी दुकान पर। उसने कहा, बड़ी मुश्किल है। हम तो सोचते हैं, फोटो एक ही तरह की होती है। मेरी फोटो एक ही तरह ही होगी, इतने प्रकार की कैसे हो सकती है? और यहां ऐसे लोग भी आते हैं कि १५ और १० रुपए वाली फोटो भी उतरवाते हैं। उस फोटोग्राफर ने कहा, आप पहले आदमी हैं, जो पहले नंबर की फोटो उतरवाने का खयाल कर रहे हैं। यहां अब तक कोई आया नहीं, जिसने पहले नंबर की फोटो उतरवायी हो।
मुझे यह बोध एकदम से गहरा पकड़ने लगा रोज-रोज, और उससे बड़ी अड़चन शुरू हो गयी, परेशानी शुरू हो गयी। क्योंकि जहां-जहां वह मुझे दिखाई पड़ने लगा, वहीं मुश्किल शुरू हो गयी। घर के बुजुर्गों से कहने लगा, यह क्या मामला है? शिक्षकों से कहने लगा, यह क्या बात है? तब एक बात मुझे इतनी साफ दिखाई पड़ने लगी कि यह झूठ अगर मुझे पकड़ लेता है, तो जिंदगी खो ही गयी। तो जैसा हूं, वैसा दिखाई पडूं और जैसा मुझे दिखाई पड़े, वैसा कहूं। जैसा मुझे ठीक लगे, उसको वैसा ही जीऊं, चाहे उसका कोई भी परिणाम हो। एक बात पक्की है, मैं झूठ होने को राजी नहीं हूं। मैं जैसा हूं, वैसे रहूंगा। तो फिर किसी चीज पर विश्वास करना मुश्किल हो गया कि भगवान है, कि आत्मा है, कि पिछला जन्म है, कि कर्म है--किसी भी चीज पर विश्वास करना मुश्किल हो गया। क्योंकि सब विश्वास मुझे झूठे मालूम पड़े। वास्तव में विश्वास झूठ का दूसरा नाम है। जो आपको नहीं मालूम होता, नहीं दिखाई पड़ता, उसको मान रहे हैं, वह झूठ है।
इतना पढ़ा मैंने कि कहीं से कुछ पता चल जाएगा। इतने लोगों के पास गया, इतने लोगों से मिला, इतना भटका कि कहीं से कोई बता सकेगा। तो यह सब धीरे-धीरे पता चला कि कोई दूसरा शायद बता भी नहीं सकता। तो एक बात पक्की मेरे मन में जम गयी कि विश्वास नहीं करूंगा। जान लूंगा तो जान लूंगा, नहीं जानूंगा तो अज्ञानी रहूंगा। विश्वास नहीं करूंगा। और उसने तो कुछ ऐसी हालत में पहुंचा दिया था कुछ दिन कि घर के लोग समझते थे कि मैं पागल हो गया, क्योंकि ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर भी मुझे शक होने लगा। जैसे मैं अपने पिता से पूछने लगा कि इसको मैं कैसे मानूं कि आप मेरे पिता हैं? मुझे क्या पता? और क्यों मानूं? और जब किसी चीज पर विश्वास न करने की हिम्मत कर ली, तो अड़चन होना स्वाभाविक ही था। सब तरफ अड़चन आ गयी और साथ ही भीतर एक वैक्यूम का आना शुरू हो गया। जब हम किसी चीज पर विश्वास ही न करे, तो भीतर कौन सी चीज को पकड़ें? किसको पकड़ें? क्या हो भीतर? पकड़ने का कोई उपाय नहीं रहा कि कोई सहारा बना लें, कि कोई विचार पकड़ लें, धर्म पकड़ लें, संप्रदाय पकड़ लें, कोई किताब गीता, कुरान कोई तो सहारा बन जाए।
तो भीतर एक वैक्यूम आया। एक वर्ष मैं बिलकुल वैक्यूम में ही था। वैक्यूम में--मतलब आप आकर बैठ जाए और कोई मुझे पता नहीं कि आप आ गए हैं। आपको देख रहा हूं कि आप आ गए हैं। आप बैठे हैं। आप चले गए। लेकिन कल आप मुझे पूछें कि आप आए थे, तो मुझे पता नहीं रहता था। यानी आंखें बिलकुल ऐसी हो गयी जैसे दर्पण हो--कोई आया और कोई गया। और एक वर्ष तक शायद मैं ज्यादातर पड़ा ही रहा। उठा भी नहीं;  क्योंकि जब कोई विश्वास ही न रहा, तो यह भी होने लगा कि घर के लोग कहते हैं कि खाना खा लो, तो मैं कहता, खाया तो ठीक, नहीं खाया तो ठीक; क्योंकि खाना खाने से किसको क्या मिल गया है? वे कहते कि उम्र कम हो जाएगी, शरीर कमजोर हो जाएगा, मर जाओगे बीमार पड़ जाओगे। तो मैं उनसे पूछता कि आपको पक्का भरोसा है कि आप खाना खाते रहेंगे, तो मरेंगे नहीं? अगर ऐसी बात हो तो मैं कल से खाना खा लूं। आप मुझे ऐसा बता दें कि लोग खाना खाते रहे वे नहीं मरे, तो मैं भी खाना खा लूं। और जिंदा रहकर आपको क्या मिल गया है, जो मुझे जिंदा रहने की आप सलाह देते हैं?
धीरे-धीरे घर के लोगों ने भी छोड़ दी फिकर कि जो कहना हो करो, न करना हो न करो। और तब उस वैक्यूम में मैं बिलकुल आटोमेटा जैसा हो गया, यानी मैं उठकर क्यों जा रहा हूं, कहां--यह भी मेरे खयाल में न रहा। बस चीजें आटोमैटिक हो गयी। प्यास लगी है, तो जाकर पानी पी लिया है। भूख लगी है तो जाकर चौके में बैठ गया हूं। नहीं लगी तो दो दिन गुजर गए, चार दिन गुजर गए। स्नान करने गया हूं तो घुटो गुजर गए, दिन गुजर गए, स्नान ही करता रहा हूं। घर के लोगों ने समझा कि पागल हो गया है। मुझे भी बीच-बीच में बस एक ही शक दोहरता रहा, लोगों की आंखों में देखकर कि शायद में पागल हो गया हूं। लेकिन मैंने कहा कि ठीक है, अगर पागल हो जाना है, तो हो जाना ही ठीक है।
 वह शून्य जितना बढ़ता चला गया करीब दो या तीन बार मैं कई दिनों तक कोमा में चला गया, यानी दो-चार दिन बेहोश ही पड़ा रहा, होश ही नहीं रहा। लेकिन मैंने इससे भोगने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मैंने सख्त मान लिया था कि जो भी हो, मैं जानना ही चाहता हूं--या तो मर जाऊं, या जानूं। एक वर्ष तक निरंतर इस शून्य में गुजरते-गुजरते, एक दिन कोई आधी रात होगी, एकदम से उठ पड़ा हूं--और कोई चीज एकदम से फूट गयी, कोई बंद द्वार खुल गया। ऐसा हुआ जैसे कोई दिया एकदम से जल जाए और अंधेरे में चीजें दिखाई पड़ने लगें। ऐसा होने के बाद सब बदल गया। ऐसा होने के बाद मैं एकदम नार्मल हो गया। एकदम चुपचाप, सीधा, नार्मल हो गया।
उस दिन के बाद कोई अविश्वास न रहा तो विश्वास भी न रहा। दोनों ही चले गए। और एक सीधी दृष्टि हो गयी। अब मेरे साथ कोई पक्का नहीं है खयाल मुझे कि क्या कहूंगा आज से। आप कोई बात पूछ लेते हैं, तो मुझे दिखाई पड़ने लगता है। और जो मुझे दिखाई पड़ता है वह मैं कह देता हूं। उसमें मुझे भी पता नहीं कि इस शब्द के बाद दूसरा शब्द क्या आएगा और इसके बाद क्या कहूंगा, इसका मुझे पता नहीं है। और जब कोई नहीं है, तब मैं बिलकुल खाली हूं। जब कोई आ गया है तो सोच-विचार खत्म ही हो गया। यानी जब बोल रहा हूं, तब यह विचार है। नहीं बोल रहा हूं, तो बिलकुल मौन हूं। फिर इतनी अदभुत शांति और ऐसे आनंद का अनुभव हुआ है कि मैंने ईश्वर का अर्थ ही यही कर लिया, और जीने का एक बिलकुल नया ही आयाम। खाना भी खा रहा हूं, तो ऐसा नहीं है कि खाना मेरे लिए छोटा आनंद है। उतना ही आनंद है, जितना परमात्मा का है। आपसे बात कर रहा हूं, तो आनंद मुझे उतना ही है कि जितना परमात्मा से बात करूं, उसमें मेरे लिए फर्क नहीं है। सोया हूं तो उसमें भी आनंद है।
अब जो भी कर रहा हूं, यानी अब ऐसा नहीं है कि कोई मेरे लिए धार्मिक कृत्य है और कोई अधार्मिक कृत्य है--कोई सांसारिक बात है, और कोई पारलौकिक है। छोटी से छोटी चीज में भी, और सब चीजों में रस है। मैं ऐसी चीजों में विरस हूं ही नहीं। वैराग्य जैसी चीज ही नहीं है। किसी भी चीज में मुझे विराग है, और सभी चीजों में है। अब तो मैं वैराग्य की परिभाषा ही यह करने लगा हूं कि राग हो जाए, तो वैराग्य हो जाता है। और स्वाद अगर पूर्ण आ जाए, तो स्वाद से मुक्ति हो जाती है।
तो, अब तो जो भी चीजें हैं, उसको कैसे पूरा करूं--उस पर पूरा ही रुक जाता हूं। खाना खा रहा हूं, तो पूरा खा रहा हूं, यानी उस वक्त सिर्फ खाना ही खा रहा हूं, कुछ और हनीं कर रहा हूं। सो रहा हूं, तो बस सो ही रहा हूं। कल की कोई बात करता है तो ही मुझे कल का खयाल आता है; नहीं  तो कल जब आएगा तक उसको देख लेंगे। अभी जो है--आपके घर ठहरता हूं, तो आप मेरे परिवार के हैं। मुझे याद ही नहीं रहता कि किसी दूसरे के यहां हैं। और जब आपका घर छोड़कर गया, तो फिर आप मुझे याद ही हनीं आते कभी। फिर आऊंगा दुबारा, तो फिर ऐसे लगेगा कि आप ही के साथ रहता था। और बिलकुल याद आ जाएगा और पूरे याद आ जाएंगे। किसी को भूलता ही नहीं और किसी को याद भी नहीं करता कभी। यानी एक तो भूलना ऐसा होता है कि हम किसी की याद करते रहते हैं तो नहीं भूलते। तो कभी किसी को याद ही हनीं करता। तो जब वह सामने आ जाता है, तो याद आ जाता है। जब वह चला जाता है, तो उसी के साथ याद भी चली जाती है। जैसे एकदम खाली मकान हो, वैसी हालत हो गयी है।
लेकिन अब तो न कुछ छोड़ने का मन है, न कुछ पकड़ने का है। न किसी के पक्ष में हूं, न किसी के विपक्ष में। और यह भी पक्का नहीं है कि जो आपसे कहता जो आपसे कहता हूं, उसका आग्रह भी नहीं है कि उसे कोई माने। क्योंकि मैंने तो सब ना मानकर एक दिशा पायी है। इसलिए तो लोगों से कहता रहता हूं कि जहां तक बने, किसी को मानना मत। मुझको भी मत मानना, मानना ही मत। और न मानने में ठहरने की कोशिश करना। और अगर ठहर गए कभी न मानने में, तो वह हो जाएगा जो जानना है। माननेवाला कभी जानने तक नहीं पहुंचता है।
और जिस दिन से यह हुआ, उस दिन के पहले मैं किसी से बात ही नहीं करता था। यानी मुझसे बात करवाना ही मुश्किल था। यानी ऐसा भी हो जाता था कि कोई मित्र आ गया है, और जबर्दस्ती मुझे हिला रहा है और कहता है कि इस बात का मुझे जवाब दो, वह बैठा है, मैं देख रहा हूं, कोई जवाब नहीं है। और यह भी नहीं कहूंगा कि मैं नहीं कहता हूं, नहीं कहूंगा। मुझे कोई रुचि भी नहीं थी किसी और में।
लेकिन उस विस्फोट के बाद एक और अजीब घटना घटी है, और वह यह कि यह अनुभव होना शुरू हुआ कि आनंद को जितना बांट दो, उतना बढ़ जाता है। तो अब ऐसा नहीं है कि मैं किसी के माइंड का चैनेलाइज कर रहा हूं। मुझे जो लगता है, कह देता हूं और अपने रास्ते पर चला जाता हूं। फिर उस कहने के पीछे यह भी नहीं है कि आपने उसे ना पकड़ा, स्वीकार किया। आपसे कोई संबंध ही नहीं बांधता कि कोई मेरा शिष्य हुआ, कि कोई मेरा अनुयायी हुआ कि कोई मेरा साथी हो गया। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बस बात इतनी है कि आपने मुझे सुन लिया, मेरी बात सुन ली और मेरे भीतर जो--जैसे कोई बादल भर जाए पानी से, तो बरस कर धरती पर कोई कृपा नहीं करता, बल्कि धरती कृपा करती है कि बरस जाने देती है।
प्रश्न--जे कृष्णमूर्ति और आपके विचार कहां तक मिलते हैं?
मिल सकते हैं, बहुत से विचारों से मिल सकते हैं। दुनिया में किसी समझदार आदमी का किसी फालोंअर से खयाल नहीं रहा--कभी नहीं। लेकिन फालोअर सभी को मिल जाते हैं--जे कृष्णमूर्ति को भी और सबको भी। विचार मेल खा सकते हैं बहुत से। सच तो यह है कि अगर मैं कुछ जान रहा हूं, तो यह हो नहीं सकता कि वह दूसरे जाननेवालों से मेल न खाता हो। यह हो ही नहीं सकता। अगर मैं जान रहा हूं, तो वह मेल खाएगा ही। यह हो सकता है कि युग बदलते हैं, भाषा बदल जाती है, शब्द बदल जाते हैं, कहने के ढंग बदल जाते हैं। और फिर एक-एक व्यक्ति का अपना-अपना माध्यम होता है।
 बुद्ध और महावीर एक साथ थे बिहार में, और कई बार ऐसा हुआ, एक ही गांव में ठहरे, और एक बार तो ऐसा हुआ कि एक ही धर्मशाला के आधे हिस्से में बुद्ध ठहरे हुए थे और आधे मग महावीर ठहरे थे। और दोनों ही बड़ी उल्टी बातें बोलते हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन दोनों बिलकुल एक ही बात बोल रहे हैं। मुझसे किसी ने पूछा कि जब एक गांव में और एक ही धर्मशाला में बुद्ध और महावीर ठहरे थे, तो मिले क्यों नहीं? तो मैंने कहा, मिलने की कोई जरूरत न थी। मिलने की जरूरत वहीं होती है, जहां कुछ भेद हो। वहां कोई भेद न था, मिलने की कोई जरूरत न थी। शब्द बिलकुल अलग-अलग हैं और बहुत उल्टे भी हैं। महावीर कहते हैं कि आत्मा को पा लेना सबसे बड़ा ज्ञान है, बुद्ध कहते हैं कि आत्मा को मानने से बड़ा अज्ञान नहीं है। उनके कहने का तरीका बिलकुल भिन्न है। महावीर कहते हैं आत्मा को पा लेना सबसे बड?ा ज्ञान है। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि तुम नहीं हो आत्मा। तुम अहंकार हो, उसको छोड़ दो, उसको नष्ट हो जाने दो, तो आत्मा मिल जाएगी। और बुद्ध आत्मा से ही इनकार करते हैं। वे कहते हैं--आत्मा को छोड़ दो, तो वह मिल जाएगा जो है, और तब कोई दिक्कत नहीं रहेगी।
असल में दुनिया में जिन्होंने जो कुछ कभी जाना हो, उनके शब्दों में रत्ती भर का कोई भेद नहीं हो सकता है--होने का कोई उपाय नहीं है। अगर भेद दिखता है, तो वह हमें दिखता है। हमारे पास सिर्फ शब्द होता है, अनुभूति नहीं होती है। और शब्द में भेद हो सकते हैं। अनुभूति में कोई भेद नहीं है। हम कहने जाते हैं तो भेद शुरू हो जाते हैं।
लाओत्से ने जिंदगी भर नहीं लिखा कुछ। बहुत लोगों ने कहा कि लिखो। उसने कहा, पहले बहुत लोग लिख चुके हैं, क्या उससे कुछ फायदा हुआ? अगर उससे कोई फायदा नहीं हुआ, तो मुझसे और क्यों कागज खराब करवाते हो? मैं नहीं लिखता। अस्सी वर्ष का हो गया तो चीन छोड़कर जा रहा था। तो चुंगी पर रोक लिया गया चीन के। कहा मैं लिखे देता हूं;लेकिन जो मैं जानता हूं, उसमें पहली बात यह कि लिख नहीं सकता और दूसरी बात, अगर किसी तरह कोशिश भी करूं, तो तुम कभी पढ़ नहीं पाओगे। तुम वही पढ़ सकते हो, जो तुम जानते हो। उससे ज्यादा तुम कैसे जानोगे? और मुझे एक आदमी दिखाई नहीं पड़ता, जो मेरी किताब पढ़कर जान लेगा--तो क्यों मेहनत करवाते हो? लेकिन उसकी बात नहीं मानी गयी। तो उसने एक किताब लिखी है--ताओ तेह किंग। एक छोटी सी किताब है यह। इससे छोटी किताब नहीं है दुनिया में और इससे कीमती किताब भी हनीं है। कीमती इस लिहाज से कि पहला वाक्य उसने लिखा, कि मुझे बड़ी दिक्कत में डाल रहे हो। सत्य कहा नहीं जा सकता। और मैं कहने जा रहा हूं। और जैसे ही कहा जाता है, वैसे ही सब गड़बड़ हो जाता है। तो वह जो जानता है, वह इतना बड़ा है और शब्द इतना छोटा है कि जैसे कोई सागर को जाने और एक प्याली में भरकर आ जाए घर, तो जो घर ले आए उसे किसी को बताए कि यह सागर है तो प्याली में देखे वह सागर को, तो जितना जान ले उतना भी शब्द में नहीं जाना जा सकता। लेकिन जो भी जीवन में कभी जाना है, वह एक ही है, वह दो हो नहीं सकता।
शब्द बदलते रहेंगे, रोज बदलते रहेंगे। गीता में जो है, कुरान में जो है, बाइबिल में जो है, महावीर में, बुद्ध में वह यह है कि हम जानें, तो ही खयाल में आता है, नहीं तो नहीं आता। और उसे अगर पाना हो, जानना हो, तो किसी को पकड़ मत लेना--महावीर को या बुद्ध को या कृष्णमूर्ति को, मुझको या किसी को भी। पकड़ा कि खो गया। पकड़े कि बाकी चीज पकड़ ली और गए। तो सारी चेष्टा यह नहीं है कि मैं आपको कहकर कुछ समझा दूंगा। कहने की सारी चेष्टा यह है कि शायद थोड़ी सी बेचैनी आप में हो जाए। और उसमें एक गति शुरू हो जाए और आप चल पड़ें, तो यात्रा शुरू हो जाए। तो यह जो आप कहते हैं, चैनेलाइज नहीं कर रहा हूं।
प्रश्न--यह जो आप बोल रहे हैं, इसका कोई लक्ष्य तो है न?
ओशो--बिलकुल नहीं। नहीं आनंद जी, बिलकुल नहीं क्योंकि मेरा मानना यही है कि लक्ष्य सिर्फ दुखी चित्त में होता है। सिर्फ दुखी आदमी के पास लक्ष्य होता है।
प्रश्न--संसार में चार आदमी अगर अच्छा सोचने लगें, तो यह लक्ष्य ही हो गया।
ओशो--नहीं, नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि अच्छा सोचने लग जाए, जैसे सोचना चाहिए, तो फिर तो मुझे बताना पड़े कि कैसे सोचना चाहिए। वह मैं नहीं कह रहा हूं। और जो लक्ष्य की बात उठायी, तो बहुत अच्छी बात उठायी।
खास तौर से हमारा खयाल है कि जो भी हम करते हैं, उसका कोई लक्ष्य होता है। मजा यह है कि लक्ष्य भविष्य में होता है, और करना वर्तमान में होता है। वर्तमान और भविष्य कभी नहीं मिलते। मिलते ही नहीं। लक्ष्य सदा भविष्य में होता है और करना सदा अभी होता है। इसलिए एक और तरह की भी जिंदगी है कि जहां करना ही लक्ष्य होता है। जैसे एक आदमी कहीं चला है--दिल्ली जा रहा है पैदल चलकर। उससे आप पूछते हैं, कहां जा रहे हो? वह कहता है कि दिल्ली जा रहा हूं। लक्ष्य हैं एक आदमी सुबह घूमने निकला है, उससे आप कहते हैं, कहां जा रहे हो? वह कहता है, जा कहीं भी हीं रहे हैं। घूम रहे हैं। लक्ष्य तो वहां भी है, वह उसी के साथ जुड़ा है, बस उसके बाहर नहीं है।
जैसे वानगाग से किसी ने पूछा कि तुम किसलिए पेंट करते हो? उसने कहा, किसलिए! तुमने कभी चांद से नहीं पूछा कि तुम किसलिए हो? तुमने कभी फूलों से नहीं पूछा कि किसलिए खिलते हो? जैसे फूल खिलते हैं, और जैसे चांद आकाश में है, वैसे ही पेंट करते हैं। किसलिए नहीं। पेंट करना ही आनंद है। मैं जब आपसे बोल रहा हूं, तो वह बोलना ही आनंद है। आपने सुन लिया, यह इतना बड़ा आनंद है कि इसके आगे और लक्ष्य बनाने की जरूरत नहीं है। और कुछ बनेगा तो बनेगा अपने से। उससे कुछ लेना-देना नहीं है, उससे कुछ हमारा प्रयोजन नहीं। हमारी नजर में वह नहीं है। तो मैं बिलकुल लक्ष्यहीन आदमी हूं। मेरा मानना है कि जिसने भी जिंदगी में लक्ष्य खोजा, वह मुश्किल में पड़ा। जिसने जिंदगी को ही लक्ष्य मान लिया, उसने जान लिया, जान ही--रोज-रोज, पल-पल जी लेना ही।
जीसस के जीवन की घटना है। वह गुजर रहे हैं एक बगीचे से। उनके मित्र साथ हैं। बगीचे में लिली के फूल खिले हैं। जीसस ने उन फूलों को दिखाकर कहा, देखते हो लिली के फूल? सोलोमन--वह सबसे बड़ा सम्राट है उनका--जैसे हमारे यहां कुबेर की कल्पना है, वैसे यहां सोलोमन की है। सोलोमन अपनी पूरी शान में भी इतना शानदार नहीं था, जितना लिली के ये गरीब फूल हैं। तो किसी से उसने पूछा कि कारण क्या है? उसने कहा, कारण यह है कि सोलोमन कल पर जी रहा था, लिली का फूल अभी जी रहा है--इसी वक्त, कल है ही नहीं। उसे कल से कोई लेना-देना नहीं है।
 लक्ष्य ही आदमी के चित्त में टेन्शन है। जिस आदमी की जिंदगी में लक्ष्य नहीं है, उसकी जिंदगी में कोई टेंशन नहीं है।
प्रश्न--पच्चीस साल पहले हमारे नेता गांधीजी या जवाहरलाल जी ने आजादी हासिल की, तो उनका लक्ष्य था कि आजादी लेनी है। यदि लक्ष्य न होता, तो आजादी नहीं मिलती।
ओशो--बहुत बड़ी आजादी मिलती। वह भी जाना नहीं? क्योंकि अंग्रेजों के जाने से आजादी नहीं मिल जाती है। जहां तक जिंदगी की सामान्य दौड़ का संबंध है, वहां लक्ष्य ही लक्ष्य हैं, और उन लक्ष्यों में जीनेवाले लोग हैं; लेकिन मेरा कहना यह है कि लक्ष्य में जीनेवाला आदमी सदा दुख में जीता है। जब तक उसे लक्ष्य नहीं मिलता, तब तक वह दुख में जीता है। और जब लक्ष्य मिल जाता है, तब एक नया दुख शुरू होता है कि अब क्या? लक्ष्य में जीनेवाला माइंड सदा दुख में जीता है। पहले तो जब तक लक्ष्य नहीं मिलता है, तो इसलिए दुखी होता है कि लक्ष्य नहीं मिलता। जब लक्ष्य मिल जाता है, तब इसलिए दुखी होता है कि अब क्या? यानी तब वह नया लक्ष्य बनाए और फिर दुख में जीना शुरू करे।
दो तरह के लोग है: एक वे हैं जो सदा लक्ष्य में जीते हैं--जो बिना लक्ष्य के एक मिनट जी नहीं सकते। अगर प्रेम कर रहे हैं तो भी लक्ष्य है, गीत गा रहे हैं तो भी लक्ष्य है। जो भी कर रहे हैं, उसका लक्ष्य है। ऐसे आदमी हमेशा टेंशन में जीते हैं। ऐसे आदमी को मैं अधार्मिक आदमी कहता हूं--अधार्मिक और उस आदमी को मैं धार्मिक आदमी कहता हूं जो जहां है वहीं जीता है।
एक झेन फकीर हुआ बोकोजू। एक आदमी उससे मिलने गया। उससे पूछा, तुम्हारी साधना क्या है? उस वक्त वह बगीचे में गङ्ढा खोद रहा था। तो उसने कहा, गङ्ढा खोदना। आगंतुक ने कहा, ऐसी साधना कभी सुनी नहीं--क्या हम भी गङ्ढा खोदें, कि कहीं पहुंच जाएंगे? उसने कहा, कहीं पहुंचने के लिए गङ्ढा खोदना साधना नहीं रह जाएगा। हम कहीं पहुंचने के लिए नहीं खोद रहे हैं सिर्फ गङ्ढा खोद रहे हैं। और गङ्ढा खोदने में बड़ा आनंद आता है। फिर भी उसने पूछा कि बताओ, मैं कैसे जीऊं? तो उसने कहा, मुझे जब नींद आती है तब सो जाता हूं और जब मेरी नींद टूटती है, तब उठ जाता हूं। जब भूख लगती है, खाना खा लेता हूं। जब भूख नहीं लगती है, तो नहीं खाता हूं। जब चुप होने का मन होता है तो चुप हो जाता हूं; जब बोलने का मन होता है, तो बोलने लगता हूं। मैं एक सूखे पत्ते की तरह हो गया हूं। हवाएं पूरब ले जाती हैं तो पूरब चला जात हूं, पश्चिम ले जाती हैं तो पश्चिम चला जाता हूं। और जब हवाएं उसे जमीन पर गिरा देती है, तब विश्राम करने लगता हूं। और जब हवाएं छाती पर उठा लेती हैं और आकाश में चढ़ा देती हैं, तो आकाश में तैरने लगता हूं। मैं एक सूखा पत्ता हूं। मैंने जिंदगी को स्वीकार कर लिया है।
एक तो लक्ष्य से जीना। तो साधारण आदमी को वही सिखाया गया है कि लक्ष्य से जीओ--धन कमाओ, यश कमाओ, पद कमाओ यह बदलो, वह बदलो। ऐसे आदमी जी रहा है--चाहे आजादी लानेवाला है, चाहे गुलामी लानेवाला है। सब लक्ष्य से जी रहा है आदमी। सारी आदमियत लक्ष्य से जी रही है। कुछ थोड़े से लोग कभी ऐसे भी होते हैं, जो लक्ष्य से नहीं जीते, वे सिर्फ जीते हैं। अर्थात जीना ही लक्ष्य है। मेरा मानना है, ऐसे ही लोग जीवन की परम कृतार्थता को उपलब्ध होते हैं--ऐसे ही लोग, और अभी तो ये छूट के व्यक्ति हैं, छोटे मोटे! अगर किसी दिन कोई समाज भी ऐसे जीया, वह समाज भी परम कृतार्थता को उपलब्ध होगा। परम कृतार्थता को कोई भी उपलब्ध होता है, जब कल का कोई सवाल नहीं रहता। और जब जीवन की छोटी से छोटी चीज भी आनंद बन गयी है अपने में, यानी वह जूते भी साफ कर रहा है, तो उतना ही आनंदपूर्ण है जितना प्रार्थना करना है। तो लक्ष्य कोई भी नहीं है।
तो मेरी समझ यह है कि अगर आनंद की दिशा में जाना हो, तो लक्ष्य के ऊपर उठना जरूरी है, उसके बियांड जाना जरूरी है। और अगर दुख की दिशा में जाना हो तो, लक्ष्य पकड़कर चलना पड़ता है। वह दुनिया उसे पकड़कर चलती है। राष्ट्र चलते हैं, समाज चलते हैं, लेकिन मैं मानता हूं कि ऐसा चलना गलत है। वैसी गुलामी भी गलत है, वैसी आजादी भी गलत है। और होता क्या है कि एक गलती को मिटाने के लिए दूसरी गलती लानी पड़ती है, लेकिन दूसरी गलती से वह ठीक नहीं हो जाती है।
मैंने सुना है--एक गांव में एक आदमी ने कांच साफ करने का धंधा शुरू किया। उसने एक पार्टनर रखा। वह पार्टनर पहले जाकर लोगों के कांच गंदे कर आता। तीन दिन बाद वह आदमी निकलता था और चिल्लाता था, कांच साफ करवा लो। लोग उससे कांच साफ करवाते हैं। कहते हैं, तुमने बड़ी कृपा की। तुम आ गए, बड़ी कृपा है, हम बड़े परेशान हैं, सब खिड़कियां गंदी हो गयी हैं हर गांव में यही होता है। वह आदमी चार छह दिन पहले कांच गंदे कर आता। वे दोनों एक ही धंधे के पार्टनर हैं। ये गुलामी लानेवाले और आजादी लानेवाले एक ही धंधे के पार्टनर हैं। बहुत गहरे में दोनों लक्ष्य वाले हैं। वह भी एक लक्ष्य लेकर आ रहे हैं, ये भी एक लक्ष्य लेकर आ रहे हैं! मेरा मतलब समझे न? वह गुलामी को मिटा रहे हैं, वह कोलतार पोत गया अभी कोई उसको मिटानेवाला आ गया है। वे हैं सब पार्टनर, एक ही बिजनेस है उनका। उनमें कोई बहुत फर्क नहीं है।
कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें किसी धंधे से मतलब नहीं है। जिन्हें जीना ही काफी है। और मैं ऐसे लोगों का--अधिकतम लोग ऐसे हो जाए--तो मानता हूं कि कभी एक ऐसा समाज भी बन सकता है, जो बस जीता हो। तब स्वर्ग होगा। यानी मैं मानता हूं कि स्वर्ग नर्क में एक ही फर्क हो सकता है--अगर कहीं स्वर्ग और नर्क है तो स्वर्ग तो लोग सिर्फ जीते होंगे, और नर्क में लोग योजनाएं बनाते होंगे जीने की--कल की, आगे की, कभी की।
तो, मैं तो बिलकुल लक्ष्यहीन हूं। और मैं मानता हूं कि यह लक्ष्य की बात बुनियादी रूप से गलत हैं। और क्या करे आदमी कि किसी भी तरह से लक्ष्यहीन हो जाए--चाहे बांसुरी बजाए, चाहे पेंट करे, चाहे सड़क साफ करे। लेकिन ऐसा कुछ हो जाए कि वह मूवमेंट पूरी तरह से जिंदगी को घेर ले। और यह मूवमेंट परफेफ्ट एकशन बन जाए, पूर्ण कर्म हो जाए, इसी क्षण।
शरद बाबू की एक किताब है, जिसमें एक लड़की है कमल। वह एक कलाकार से शादी करके आ गयी है। जिस मकान में वह कलाकार उस लड़की को लेकर आया है, उस मकान का मालिक बूढ़ा है, वह बहुत घबड़ा गया है। लड़की बड़ी सुंदर है और बड़ी निर्दोष मालूम पड़ती है। दोपहर को जब कलाकार बाहर गया है, तो बूढ़ा उस लड़की से कहता है कि पागल, तुझे कुछ पता भी है, यह आदमी और भी दस-पांच औरतों को यहां ला चुका है? दो-चार महीने से ज्यादा नहीं चलती है एक स्त्री। तूने ठीक से शादी कर ली? कानून से? नहीं तो कल मुश्किल में पड़ जाएगी। उस लड़की ने कहा, यह हुआ नहीं, यह तो बड?ा अच्छा हुआ। वह तो कहता था कि कानून से शादी कर लो। लेकिन मैंने ही कहा, शादी की क्या जरूरत है? प्रेम ही काही है। यह तो बड़ा अच्छा हुआ। अगर हम कानून से शादी कर लेते, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाते; क्योंकि तीन महीने बाद जब वह छोड़ता, तो छोड़ न सकता। जब छोड़ना चाहता, तो छूटना तो हो ही जाता, फिर कानून रह जाता। यह तो बड़ा अच्छा हुआ, भगवान की कृपा। उस बूढ़े ने कहा, पागल तुझे पता नहीं है। यह सारा प्रेम चुक जाएगा जल्दी। तो उसे लड़की ने उस बूढ़े से कहा कि मालूम होता है आपने कभी प्रेम पहचाना नहीं। क्योंकि जब प्रेम होता है, तो क्षण काफी होता है। उसके आगे के क्षण की फिकर किसको होती है? वह फिकर तो जिसको प्रेम नहीं होता, उसी को होती है। आगे के क्षण की फिकर--कि कल भी प्रेम होगा कि नहीं, यह फिकर पैदा ही तब होती है, जब प्रेम नहीं हो जाता है। उसने कहा, अभी तो प्रेम है। और अब तक है, है। और जब  नहीं होगा, नहीं होगा। उपाय क्या है? अभी है। और तुमने अच्छा बता दिया। अगर पंद्रह दिन रहना है प्रेम, तो फिर पूरा तो जी लूं! फिर एक क्षण खोना ठीक नहीं है। क्योंकि पंद्रह साल रहता, तो आराम से भी जी सकते थे, और अगर पंद्रह दिन रहना है, तो और भी फुर्सत नहीं रह जाती। फिर कभी चूक भी सकते थे। बीच में छुट्टी भी रख सकते थे। पंद्रह ही दिन होगा न? तब तो एक-एक क्षण मूल्यवान हो गया।
तो, मैं मानता हूं कि चूंकि हम एकदम दुख में हैं, एकदम व्यर्थता में हैं, और कोई रस नहीं है, कोई आनंद नहीं है किसी का में, इसलिए हम रस और आनंद लक्ष्य में रखकर सुविधा बनाते हैं जीने की। वहां रख लेते हैं कि कल होगा, कल होगा। आज तकलीफ है, झेल लो; आज मुश्किल है, झेल लो। कल सब ठीक हो जाएगा, वह लक्ष्य मिल जाएगा, तो सब ठीक हो जाएगा। आज के जीने की जो कठिनाई है, उसे हम कल के लक्ष्य को बनाकर सरल बनाने की कोशिश करते हैं कि आज जीना मुश्किल हो जाए। अगर आप लक्ष्य मिटा दें। किसी का, और आज जीवन दुख है, तो फिर जीएगा कैसे? तो कल का लक्ष्य बनाकर, आज के दुख को झेलने का उपाय है लक्ष्य। लेकिन जब आज आनंद हो तो कल के लक्ष्य का सवाल क्या है? कल है ही नहीं!
यानी अगर बहुत ठीक से हम समझें, तो कल दुख पैदा होता है। गहरे में समझे, तो टाइम दुख से पैदा होता है। आनंद में टाइम नहीं होता। अगर आप एक क्षण को भी आनंद में हैं, तो फिर समय नहीं रह गया। समय है ही नहीं। और जब समय न हो, तो लक्ष्य कहां होगा? क्योंकि लक्ष्य हमेशा भविष्य में हो सकता है, और भविष्य हो सकता है समय में। और वर्तमान, समय का हिस्सा नहीं है। भविष्य समय है, अतीत समय है। वर्तमान, समय का हिस्सा है ही नहीं।
 तो, मैं समय के तीन हिस्से नहीं करता--अतीत, वर्तमान, भविष्य; नहीं। वर्तमान तो समय का हिस्सा ही नहीं है। समय का हिस्सा तो भविष्य और अतीत है। अतीत है स्मृति, वह है समय, और भविष्य है आशा, कल्पना, लक्ष्य, वह है समय।
और वर्तमान का क्षण तो बिलकुल ही कालातीत है। हम अगर उसमें डुब जाए तो एकदम काल के बाहर हैं। चाहे जिस कारण से डूब जाए--प्रेम के क्षण में, संगीत के क्षण में, किसी भी क्षण में डूब जाए, किसी सृजन के क्षण में डूब जाए। एक चित्रकार चित्र बनाकर डूब जाता है। एक मूर्तिकार मूर्ति बनाकर डूब जाता है। एक संगीतज्ञ संगीत में डूब जाता है। और धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं, जो चौबीस घंटे डूबा ही रहता है। चित्रकार चित्र बनाकर फिर बाहर आ जाता है। मूर्तिकार मूर्ति बनाता है, फिर वापस, उसी हमड्रम दुनिया में वापस लौट आता है। और धार्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूं, जो चौबीस घंटे उसमें ही डूबा रहता है। और ऐसा अगर डूबना हो, तो फिर जिंदगी प्रत्येक क्षण ही डुबानेवाली बने, और वह डूब सकता है। और ऐसे डुबाने की प्रक्रिया को मैं साधना कहता हूं। यानी लक्ष्य छिन जाए जीवन से, और क्षण गहरा हो जाए! और जिंदगी फैलाव में न हो।
 दो तरह की जिंदगी है। एक फैलाव की जिंदगी हैं, होरिजेंटल है। एक लकीर पर बिंदु रखे हुए हैं, वह चले गए हैं आगे तक। और एक जिंदगी वर्टिकल है। ऊपर जाती है, नीचे जाती है। तो अगर वर्टिकल जिंदगी में जाना हो, तो यह क्षण काफी है, इसमें गहरे से गहरा डूबा जा सकता है, ऊंचे से ऊंचा जाया जा सकता है। जाने का वह मार्ग ही अलग है। वहां प्रत्येक क्षण अपने में पर्याप्त है, अगल क्षण का सवाल नहीं है। और अगर ऐसे न जाना हो, तो फिर होरिजेंटल गति है। एक क्षण से दूसरा क्षण, दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा, और पहले क्षण को इसमें गुजारो, तो दूसरा क्षण आएगा। तो जीएंगे। दूसरा इसमें गुजारो, तो तीसरा आएगा, तो जीएंगे। और ऐसे पूरी जिंदगी गुजारो और आखिर में मौत हाथ में आ जाती है, और कोई लक्ष्य नहीं आता हाथ में, आ सकता नहीं। क्योंकि लक्ष्य आ सकता था, उसी वर्तमान में पकड़ लेने से, उतर जाने से।
एक जर्मन मिस्टिक हुआ हकहार्ट। वह एक कहानी कहता था। एक आदमी ने ज्ञान इकट्ठा करने के लिए दुनिया की सारी किताबें इकट्ठी कीं। उसने सोचा कि किताबें इकट्ठी कर लूं ताकि ज्ञान मिल सके। तो ज्ञान लक्ष्य बनाया, किताबें संग्रह कीं। संग्रह करते-करते वह साठ साल का हो गया, लेकिन किताबें अभी भी बहुत बाकी रह गयीं। और उसने कहा जिंदगी तो चुक जाती है, ज्ञान कब होगा? किसी ने उससे कहा कि पागल किताबें ही जुटाता रहेगा? उसने कहा, ज्ञान तो तभी होगा जब सब किताबें जुट जाएंगी। तो किताबें तो बहुत ज्यादा हैं, तो तेरी जिंदगी तो बहुत छोटी है। तेरी जिंदगी चुक जाएगी, किताबें नहीं जुटेंगी। तुझे जो ज्ञान प्राप्त करना हो, अभी कर ले। लेकिन उसने कहा, अब मैं क्या कर सकता हूं। इतनी किताबें हो गयीं--साठ साल का बूढ़ा आदमी, इतनी किताबें इकट्ठी करने लगा रहा, तो खयाल नहीं किया कि कितनी हो गयी। आज जाकर देखा, तो घबड़ा गया कि किताबें इतनी थीं कि साठ जन्मों में पड़ी नहीं जा सकती थीं।
तो, वह बीमार पड़ गया। उसने गांव के बड़े पंडितों को बुलाकर कहा, बड़ी कृपा होगी, मैं तो मर गया, साठ साल गंवा दिए। और अब मौत करीब आती है, और किताबें इतनी ज्यादा हैं, इन्हें संक्षिप्त कर दो, तो बड़ा हो। तुम सब पंडित लग जाओ, जो खर्च होगा दे दूंगा। लेकिन किताबें संक्षिप्त कर दो। पंडितों ने पांच साल लगाए किताबें संक्षिप्त कर लें, तो ज्ञान मिल जाए। और वक्त संक्षिप्त करने में जा रहा है। फिर भी वे किताबें लेकर आए, तो पांच ऊंटों पर लद जाए, इतनी किताबें थीं। क्योंकि लाइब्रेरी तो इतनी बड़ी थी कि पांच सौ ऊंटों पर लद जाए। तो उसने कहा, पागलो, यह मुश्किल है, मैं कब पढ़ पाऊंगा? पांच ऊंटों पर नहीं हुई किताबें भी बहुत ज्यादा हैं। यह तो नहीं हो सकता है। तो और संक्षिप्त करो। पंडितों ने कहा, पांच वर्ष और लग जाएंगे।
पांच वर्ष और लगे। किताबें संक्षिप्त करके लाए। जब वे लोग किताबें लेकर आए तो वह बीमार, मरणासन्न पड़ा था। चिकित्सक घेरे खड़े थे। पांच किताब में संक्षिप्त कर लाए थे। उस आदमी ने सिर पीट लिया। उसने कहा, ये पांच किताबें मैं कब पढूंगा? और संक्षिप्त करो। क्योंकि मुझे ज्ञान पाना है। उन्होंने और संक्षिप्त कीं। अब की बार जब दे आए, तब वह बेहोश हो गया। और चिकित्सकों ने कहा, घड़ी दो घड़ी का मेहमान हैं। पांच पन्नों में संक्षिप्त करके लाए थे। वे पांच पन्ने भी बहुत ज्यादा थे। चिकित्सकों ने कहा, पांच पन्ने कब पड़ेगा? क्योंकि मरा, अभी मरा। और संक्षिप्त करो। उन्होंने और संक्षिप्त किया, तो वे पांच शब्द लेकर आए, लेकिन अब वह आदमी मरने के कगार पर था। पांच शब्द नहीं कह पाए, उसके कान में, एक शब्द कह पाए। वह बेहोश था, लेकिन तब उसने सुना भी नहीं होगा। कोई कहता है, उन्होंने कहा, परमात्मा, कोई कहता है, मोक्ष, निर्वाण। कुछ भी कहा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। और वह आदमी था, जो जिंदगी इसकी व्यवस्था में गंवाते हैं कि जाएंगे कभी।
प्रश्न--लेकिन लक्ष्य हीनता भविष्य में है?
जी नहीं लक्ष्य हीनता ही जीवन है।
प्रश्न--क्या लक्ष्य हीनता स्वयं में एक लक्ष्य नहीं है?
हां ऐसा कह सकते हैं; लेकिन नहीं कह सकते इसलिए कि लक्ष्य होता है सदा भविष्य में। और जीना होता है सदा अभी, वर्तमान में। अभी और भविष्य का कोई मेल--जोल नहीं होता। कह सकते हैं कि जीवन ही लक्ष्य है। लेकिन लक्ष्य की यह भाषा खतरनाक है; क्योंकि लक्ष्य होगा कहीं, समव्हेअर और जीवन है यहां। इन दोनों के बीच कोई मेल नहीं है। कहें तो कह सकते हैं, हर्ज नहीं है; लेकिन खतरनाक है कहना। क्योंकि वह पुराना भाव फिर खयाल में आ जाता है। और दूसरी बात जो आप कहते हैं कि लक्ष्य हीनता मृत्यु नहीं है? नहीं, बस लक्ष्य की खोज ही मृत्यु है। लक्ष्य की खोज में जीवन खो जाता है।
प्रश्न--फिर विकास क्यों नहीं कर रहे हैं?
ना, यह हमें लगता है। क्योंकि हमारी धारणा यह है कि जब तक लक्ष्य का तनाव हमें खींचने का हो, तब तक विकास होगा ही नहीं एक छोटी कहानी कहूं आपको। कल्याण जी, खयाल में लीजिए।
एक रात तानसेन विदा हुआ है अकबर के दरबार से। सीढ़ियों पर अकबर उसे छोड़ता है, और सीढ़ियों पर हाथ पकड़कर रोक लेता है। अकबर की आंख में आंसू हैं। उससे कहता है अकबर कि तू कैसा अदभुत आदमी है! पृथ्वी पर तेरे जैसा कभी कोई हुआ है संगीतज्ञ? है कोई? कई बार मेरे मन में सवाल उठता है कि तुझसे भी बेहतर किसी ने गाया बजाया होगा? और कल से मैं बड़ा चिंतित हूं, क्योंकि रात मुझे एक और खयाल आया। हो सकता है, तूने भी किसी से सीखा हो। कोई तेरा गुरु हो। तेरा कोई गुरु है? तानसेन ने कहा, मेरे गुरु हैं, जिनसे मैंने सीखा। वह हैं अभी। तो अकबर ने कहा, कभी उन्हें बुलाओ दरबार में और हम उन्हें सुनें। तानसेन ने कहा, यह जरा मुश्किल है। क्योंकि वे तब नहीं गाते, जब कोई गाने के लिए कहे। किसी को सुनना हो, तो तब सुनना पड़ता है, जब वे गाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जब किसी ने कहा कि गाओ, तब कैसे गाया जा सकता है? जैसे किसी ने कभी कहा कि करो प्रेम, तब कहीं प्रेम किया जा सकता है? तब अभिनय हो  सकता है, प्रेम नहीं हो सकता। तो वे गाते नहीं हैं कहने पर, कभी गाते हैं।
अकबर ने कहा, फिर कैसे होगा? उसने कहा, मैं पता लगाता हूं कि के कब बातें हैं। जब गाते हैं, तब हम चले चोरी से सुनना पड़ेगा। यह हो सकता है, हम सामने जाए, वह गाना बंद कर दें। छिपकर ही सुनना पड़ेगा। और उनसे छिप-छिपकर ही मैंने सीखा है। सच तो यह है कि सीखना सब छिप-छिपकर ही होता है। वह इतना डेलिकेट मामला है कि आमने-सामने थोड़े ही होता है। छिप-छिपकर ही होता है, किनारे-किनारे से बचकर होता है। और जो लोग आमने-सामने ही देखने के आदी होते हैं, वह कभी हनीं सीख पाते। वह बिहाइंड द लाइनस होता है। जो लाइन से पढ़ने के आदी होते हैं, वे चूक जाते हैं। उसने कहा, छिपकर!
तानसेन ने कहा, कि पता लग गया है। वे तीन-चार बजे रात उठते हैं। गंगा के तट पर रहते हैं। वहीं झोपड़ी के पीछे हम छिप जाएंगे रात दो बजे। जब वे गाएंगे, तब सुन लेंगे। शायद ही अकबर की हैसियत के किसी सम्राट ने चोरी से किसी फकीर का गीत सुना हो। अकबर छिप गया है रात दो बजे। तानसेन है और एक-दो मित्र हैं। और तीन बजे के लगभग हरिदास ने गाना शुरू किया है, और अपने सितार पर गा रहे हैं, और झोपड़े में नाच रहे हैं। फिर गीत बंद हो गया। वे स्नान करने चले गए।
फिर ये रथ में वापस लौट। महल तक अकबर कुछ बोला नहीं सीढ़ियों पर उसने तानसेन से कहा कि मैं तो सोचता था कि तुझसे श्रेष्ठ कौन हो सकेगा! अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, तू तो कुछ भी नहीं है। लेकिन इतना फर्क क्यों? तो तानसेन ने कहा कि फर्क इसलिए है कि मैं गाता हूं, बजाता हूं, कोई लक्ष्य है, कुछ पाने का खयाल है। गाते हैं और बजाते हैं, खत्म हो गयी बात। गाने का खयाल नहीं रहता। वे मालिक हैं, मैं गुलाम हूं। वह लक्ष्य मेरी गुलामी बना हुआ है। वह जो मुझे मिलना चाहिए, उसमें मेरा प्राण लगा है; यहां तो मरो प्राण ही नहीं है। मैं बजा रहा हूं, तो मेरे मुर्दा हाथ बजा रहे हैं। मेरे प्राण तो, वह जो मिलेगा उसमें हैं; वह जो आंखों में दिखेगा--आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा तो उसमें है। तो मैं बिलकुल मुर्दा बजाता हूं। उनका बजाना बड़ा जीवंत है। क्योंकि उन्हें कुछ पाना नहीं है। न किसी की आंख का सवाल है, न किसी के सम्मान का। अकबर ने कहा, फिर वह बजाते ही क्यों हैं? यह हम कैसे सोच सकते हैं कि ऐसा भी कोई आदमी हो सकता है, जो बिना कारण बजाता है? तानसेन ने कहा कि मैंने उनसे कभी पूछा था, तो उन्होंने कहा था कि दो तरह का बजाना है--एक तो वह बजाना है जिसमें आनंद मिलने की कल्पना है। और एक बजाना है जो आनंद के मिलने से निकलता है; क्योंकि आनंद भी तो बटेगा न? तो फिर बजेगा, कुछ होगा।
तो,एक तो वह विकास है फीवरिश बुखार से भरा हुआ, जो लक्ष्य के टेंशन से पैदा होता है। वह वैसा ही है, जैसे कोई किसी बैल के गले में रस्सी बांधकर खींचता है। तो बैल खिंच रहा है, और बैल यह भी कह सकता है कि जब तक कोई रस्सी में नहीं खींचता, तो फिर बैल चलेगा कैसे? यह बात ठीक है। बैलगाड़ी में नहीं चलेगा। लेकिन जंगल में बैल का अपना भी एक चलना है जिसमें बैलगाड़ी का कोई लेना-देना नहीं है।
तो, एक फीवरिश डेवलपमेंट हैं हमारा, जिसमें एक बुखार है, और आगे का लक्ष्य रस्सी की तरह बंधा हुआ है। यह विकास नहीं है। यह सिर्फ बुखार है। विकास तो वह है, जो अत्यंत सहज है, जिसमें आगे कोई खींच नहीं रहा है, पीछे कोई धक्के नहीं दे रहा है। बल्कि फूल खिल रहा है, क्योंकि कली फूल बनेगी ही। करोगे क्या? उस तरह जो विकास होता है, वह भी एक विकास है। वह इसलिए नहीं होता कि आगे कुछ मिलना है, बल्कि जो हमें मिलता जाता है, वह हमारे भीतर नए-नए फूल खिलता चला जाता है। जो-जो होता चला जाता है, वह नए-नए फूल खिलाता जाता है। फूल खिलते हैं, लेकिन फूलों को खिलने की कोई कामना नहीं है, कोई एम्बीशन नहीं है, कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। फूल खिलते हैं। विकास तो होता ही है। बल्कि मैं मानता हूं, यही बकवास है। क्योंकि इसमें बुखार नहीं है--अत्यंत स्वस्थ, शांत, शालीन और सहज है। आदमी भर को यह खयाल है कि विकास तनाव से होगा और यह गलत शिक्षा का खयाल है।
प्रश्न--आप ऐसा नहीं समझते कि अच्छे, प्रतिभा के लोग, सब लोग इस विचार को फालो करें?
ओशो--नहीं, नहीं, यह तो मैं कह नहीं रहा। फालो करें, ऐसा नहीं। मैं कहता हूं मिलेगी, हजार-लाख गुना होकर मिलेगी। और बीमार नहीं होगी, स्वस्थ होगी, सरल होगी। एक तो ऐसा भी कि कलियों को जबर्दस्ती खोलकर भी फूल बनाया जा सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। आप पकड़कर खोल दें, तो भी कली खिल जाएगी और फूल दिखेगा। लेकिन एक वह भी कली है, जो खिलती है और फूल आता है। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। एक फूल के खिलने में सहजता है और एक फूल की कलियों को जबर्दस्ती खिला दिया जाता है। हो सकता है धोखा हो जाए। मैं तो यह कह रहा हूं कि फीवरिस आदमी दुनिया को कुछ दे ही नहीं पाता। वह अपने फीवर को संक्रमित कर जाता है।
प्रश्न--उसके बाद एक दीगर सेक्रीफाइज न होकर, आप अपनी पर्सनल हैपीनेस लूज करे, और कुछ दें दुनिया को...!
ओशो--हां, मैं समझा आपकी बात। असल में सेक्रीफाइज बहुत गंदा शब्द है। त्याग शब्द ही बहुत बेहूदा है। और जब आप कहते हैं त्याग, तभी आप दूसरे को डोमिनेट करना शुरू कर देते हैं। आप कहते हैं सेक्रीफाइज, तभी आप हावी होना शुरू हो जाते हैं। नहीं, वैसी खिली हुई सहज प्रतिभा भी बहुत कुछ देती है। लेकिन देने में कोई सेक्रीफाइज बनाना ही गलत है; और अगर सेक्रीफाइज करके देना पड़े, और दुख से देना पड़े तो मैं मानता हूं कि वह कभी आनंद पैदा नहीं कर सकता। बहुत गहरे में दुख की ही प्रतिध्वनियों को बढ़ाता चला जाएगा। लेकिन जो आनंद से दिया जाता है, और आनंद से ही दान हो सकता है, लेकिन तब दान बिलकुल मूक है। और तब दान देनेवाले को पता भी नहीं है कि किया। यही होगा कि दान देनेवाला दानदाता तो बनेगा नहीं। सेक्रीफाइज का तो सवाल ही नहीं है। अनुगृहीत होगा उसका जिसने ले लिया, क्योंकि उसके आनंद को बंटने का मौका नहीं था, न किसी ने बांट लिया।
जब आप फूल के किनारे से निकलते हैं, तो उसकी सुगंध आपको मिल गयी। अगर फूल कह सके, तो अनुगृहीत होगा, धन्यवाद देगा। नहीं तो ऐसा भी हो सकता था, रास्ते से कोई न निकलता, सुगंध गिरती रहती। कोई पहचाना, तो धन्यवाद दे सकता है। जो महानतम दान है, वह त्याग से नहीं होता। वह आनंद से ही होता है। लेकिन हम सब इतने दुखी लोग हैं कि आनंद की भाषा नहीं समझ पाते। त्याग की ही भाषा समझ पाते हैं। मां अपने बेटे से कहती है कि तू अपना त्याग कर मेरे लिए। उसने त्याग किया अपने पति के लिए४ उसका पति त्याग कर रहा है बेटों के लिए। बेटे त्याग कर रहे हैं बहनों के लिए। सारी दुनिया एक-दूसरे के लिए त्याग कर रही है और एक चक्कर पैदा हो गया है। उसमें सब दुखी हैं। मेरा मानना यह है कि एक-एक व्यक्ति का सबसे बड़ा काम यह है कि वह आनंदित हो जाए। और उसके आनंद से बहुत कुछ बंटेगा चारों तरफ। फैल जाएगा चारों तरफ, लेकिन न तो त्याग होगा, और न त्याग का खतरा होगा। क्योंकि जिस आदमी ने भी त्याग किया, वह आपको टार्चर करेगा। त्याग बड़ा टार्चर है। अगर मां ने कहीं यह कहा कि बच्चे, मैंने तुझे नौ महीने पेट में रखा, बड़ा त्याग किया। ले लेगी जान बच्चे की, उस बच्चे को मार डालेगी, जिंदा नहीं रहने देगी। अगर उसने यह कहा कि मैंने तुझे दूध पिलाया, और तुझे बड़ा किया, और तू रोया, और तेरी इतनी सेवा की, मैंने इतना त्याग किया, तो पहली बात यह है कि वह मां ही हनीं है।
प्रश्न--तो वह त्याग कैसा?
ओशो--हां, मैं यही कह रहा हूं कि जो कहा जाए वही नहीं, जो अनुभव भी किया जाए वह भी मैं ही हूं। असल में त्याग का अनुभव ही गलत बात है। अगर मेरे आनंद से हुआ है, तो बात क्या है? त्याग कहां है? अगर मैंने दो घंटे जाकर किसी फूल पर पानी डाला, और वह मेरा आनंद था, तो यह त्याग नहीं है। और जिसे मैं प्रेम करता हूं, उसके पास रात भर बैठा रहा, वह बीमार है, तो यह त्याग नहीं है। त्याग नहीं, यह मेरा आनंद है। और वह जो आप कहते हैं, यह तो एक्स्ट्रीम सेल्फिशनेस है, वे ठीक कहते हैं। अगर प्रत्येक व्यक्ति सच्चे अर्थों में स्वार्थी हो जाए तो दुनिया से सब बीमारियां खत्म हो जाए। लेकिन मजा यह है कि कोई स्वार्थी तक नहीं है, तो परमार्थी होना बहुत मुश्किल है। और परम स्वार्थ में सब परार्थ हल हो जाता है; क्योंकि जब मैं परम स्वार्थ में उतरता हूं तब मैं करूंगा क्या--मैं अपना आनंद ही खोजूंगा न! और ध्यान रहे, जिस दिन भी मैं अपने आनंद को जीने लगता हूं, उस दिन मैं आनंद ही बटूंगा, करूंगा क्या? दुखी आदमी दुख बांटता है, चाहे कुछ भी; क्योंकि जो हमारे पास है, वही हम बांट सकते हैं, अन्य कुछ बांट ही नहीं सकते।
तो इधर मैं ऐसा सोचता हूं, लक्ष्य से मुक्त, त्याग से मुक्त, स्वार्थ परार्थ की भाषा से मुक्त, सिर्फ जीने के आनंद में प्रफुल्लित, ऐसा व्यक्ति अगर खिले, तो उसकी संबंध बहुत बंटेगी। उसकी सुगंध होगी, तो वह सुगंध वैसी नहीं होगी, जिसे आप कह रहे हैं। उसे बहुत दान मिलेगा। लेकिन, जो दुनिया हमने बनायी है, वह दुख पर खड़ी है। और दुखी चित आधार है। दुखी चित्त सिर्फ दुख की भाषा में सोच सकता है। इसे हम कई बार पहचान भी नहीं पाते हैं। अब जैसे कि महावीर है, वह नग्न खड़े हो गए, तो जैन ग्रंथों में लिखा है और जैन गुरु समझते हैं कि उन्होंने बड़ा त्याग किया--कपड़े छोड़ दिए। धन छोड़ दिया, घर छोड़ दिया। मैं मानता हूं, इससे बड़ी नासमझी की बात नहीं हो सकती। महावीर के लिए नग्नता इतनी आनंदपूर्ण रही होगी कि अगर वे कपड़े पहनते तो वही त्याग हो जाता है। महावीर के लिए नग्न होना ऐसा आनंदपूर्ण रहा कि छूट गए कपड़े। लोग कह रहे हैं कि त्याग किया। यह बात वे लोग कर रहे हैं, जो नंगे खड़े होने में कोई आनंद नहीं देख पा रहे हैं। वह ठीक कह रहे हैं; क्योंकि उनके लिए नंगा खड़ा होना बड़ा दुख हो जाएगा। और यह आदमी नंगा खड़ा हो गया और हमें लग रहा है कि त्याग किया। और महावीर ने अगर महल छोड़ दिया, तो हमें लग रहा है कि भारी त्याग किया। क्योंकि महल! हम तो उस महल की कामना ही किए बैठे हैं कि मिल जाए, और महावीर के लिए हो सकता है कि पहल की दीवालें कारागृह बन गयी हों और वह सिर्फ कारागृह से निकल रहे हो।
और महावीर से जब किसी ने कहा कि आपने इतना छोड़ा तो उन्होंने कहा, छोड़? कोई आदमी अपने घर का कचरा बाहर फेंक देता है कूड़े में, तब हम नहीं कहते कि उसने कुछ छोड़ा। जो मुझे कचरा दिखने लगा वह छूट गया। जो आनंदपूर्ण था, वह रह गया। अपना अपना आनंद। और अगर आनंद नहीं है, तो खतरनाक है वह आदमी। खतरनाक आदमी है अगर त्याग किया है तो, अगर वह आनंद नहीं है उसका।
प्रश्न--उनके सामने लक्ष्य था कि गांव के इतने लोग नंगे रहते हैं।
ओशा--हां, अगर वैसा है, तो महावीर खतरनाक आदमी है। वह गर्दन पकड़ लेंगे फिर, वह बहुत सताएंगे। गुरु लोग इसी तरह सत्ता रहे हैं। वे कह रहे हैं, हमने इतना त्याग किया। वह गर्दन पकड़ लेते हैं कि हम जले गए थे, अब हमें गद्दी पर बिठाओ।
प्रश्न--वह क्या अनुभूति है जिसकी वजह से सब परिवर्तन हो जाता है, बदल जाता है? वह कैसे आएगी? आपका प्रयास कहीं अनकांशस से कांशस से...?
ओशो--नहीं, वही मैंने कहा। अब इसे आखिरी बात मान लेना। मैंने कहा न कि मेरा प्रयास तो एक ही था कि जो मैं नहीं जानता हूं, वह न मानूं। किसी को पकड़ूं न। किसी बात को सत्य न मान लूं। किसी विचार को स्वीकार न करूं, जिसे न जान लूं। मानूंगा नहीं, इतना ही प्रयास था। और जब मानूंगा नहीं, तो हाथ से सब चीजें छूट गयी, हाथ खाली हो गया। क्योंकि सब हाथ मान्यता से भरे हैं। पूरी खोपड़ी हमारी मान्यता से भरी है।
एक लड़की मुझसे प्रेम करती थी, युनिवर्सिटी में था। उसने कहा, मैं आपसे विवाह करना चाहूंगी। मैंने कहा, तू कर सकती है। क्योंकि मेरा कोई भरोसा नहीं; क्योंकि मैं किसी को पत्नी नहीं मान सकता। मेरा भरोसा नहीं, मैं तुझे पत्नी नहीं मान सकता; क्योंकि इतनी कठोरता मैं कर ही नहीं सकता कि तुझे पत्नी मानूं। मैं तुझे गुलाम नहीं बना सकता। मैं कोई भरोसे का आदमी नहीं हूं। आज तुझसे कहता हूं कि प्रेम है, और कल अगर प्रेम न रहा, तो कह दूंगा कि नहीं है। जिस दिन नहीं होगा, उस दिन नहीं कहूंगा कि है, फिर ढोंग नहीं रचा सकूंगा। आज तू कहती है, तो मैं कहता हूं कि ठीक है। साथ रहना सुखद हो सकता है। तुझे रहना हो रह, लेकिन कल विदा हुआ जा सकता है। फिर वह दुबारा लौटी नहीं कभी। क्योंकि हम तो सारा मामला है पक्का भरोसा करके, आगे का इंतजाम करके, सिक्योरिटी करके--हमारे सब विश्वास ही सिक्योरिटी से हैं--भगवान को मानो, मोक्ष को मानो, नर्क को मानो, स्वर्ग को मानो, कर्म को मानो। सब सिक्योरिटी हैं--पाप को मानो, पुण्य को मानो। तो कोई सुरक्षा मैंने नहीं मानी। और वह जो विस्फोट आया, वह असुरक्षित होने से आया। वह जो टोटल इनसिक्योरिटी पैदा हुई, उससे आया।
प्रश्न--वह क्या था?
ओशो--यह कहना बहुत मुश्किल है कि वह क्या था? ऐसे ही जैसे कि झील के एक झरने पर पत्थर रखा हो, पत्थर को हम तोड़ डालें, तो पत्थर बिखर कर टूट जाएगा, अलग हो जाएगा और झरना फूट पड़े पीछे से, जो कि था ही, जो कि है ही सब में। हमने जो मान्यताएं पकड़ रखी हैं, वह पत्थरों की तरह हैं--चारों तरफ से उस झरने को रोके हुए। और अगर हम तैयार हो जाए, मान्यता के त्याग को, बिलीफ को, तो पत्थर हट जाते हैं, और झरना फूट पड़ता है। और वह झरना कैसा? यह इतना ही मुश्किल है मामला, जैसे किसी आदमी की आंखें न हों, और उसने प्रकाश न देखा हो। वह पूछे कि प्रकाश क्या है? और कोई आदमी उससे कहे कि घर में दिया जल रहा है और दिए में सब दिखाई पड़ता है।वह आदमी कहे, यह तो सब ठीक है, लेकिन दिया जला का मतलब क्या है? प्रकाश, इसका मतलब क्या है?
एक कहानी निरंतर कहता हूं--रामकृष्ण कहते थे। एक आदमी गया है अपने मित्र के घर। अंधा है। उसने खीर बनायी है। अंधे ने पूछा है कि यह खीर कैसी है, यह क्या है, किस चीज से बनी है? तो मित्रों ने कहा, यह दूध से बनी है। पूछा कि पहेली मत बुझाओ; क्योंकि मुझे खीर का ही पता नहीं है, दूध का पता नहीं है। तुम कहते हो दूध से बनी है, और एक नया प्रश्न खड़ा हो गया है कि दूध क्या है? फिर उन्होंने कहा, दूध बिलकुल सफेद होता है, शुभ्र। तो कहा, शुभ्रता? मुश्किल में डाल दिया, मैं तो मर गया। वह खीर तो वही रही, दूध भी वहीं रहा! यह शुभ्रता क्या है? कुछ ऐसा समझाओ कि मैं जरा समझ जाऊं। तो एक मित्र ने कहा कि बगुला देखा है कभी? वह अंधा आदमी, उससे कहा बगुला देखा है कभी? बगुले की तरह सफेद पंख, बस वैसा ही सफेद दूध होता है। उस अंधे आदमी की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा, तूने तो मुश्किल कर दी। बगुला तो देखा ही नहीं कभी। कुछ ऐसा बताओ मुझ अंधे का मजाक न करो। कुछ ऐसा बताओ, कि मैं समझ जाऊं। तो एक मित्र पास आया, उसने हाथ उठाया। उसने कहा, मेरे हाथ पर हाथ फेर। अब तेरी समझ में आता है कुछ? हाथ पर हाथ फेरा उसने। उसने कहा, लेकिन इसका मतलब क्या है? स्पर्श हुआ तुम्हारे हाथ का, सुडौल है बहुत। उसने कहा, बगुले की गर्दन ऐसी होती है--सुडौल, हाथ की तरह। अंधा खड़ा होकर नाचने लगा। उसने कहा, जान गया कि दूध कैसा होता है, सुडौल हाथ की तरह न? बिलकुल पहचान गया कि दूध कैसा होता है। सुडौल हाथ की तरह होता है। वे सब मित्र कहने लगे, क्षमा कर, क्षमा कर! यह बात मत कर। यह तो और मुश्किल हो गयी इससे तो वही ठीक था कि तू जानता था कि नहीं जानता है। यह तो और झंझट हो गयी। हम कुछ न समझा पाए।
असल बात यह है कि विस्फोट तो है अनुभव। और ऐसा अनुभव है कि जिसके लिए कोई पैरलज जीवन में नहीं है। बिलकुल क्षण में, एक क्षण में, धीरे-धीरे कभी भी नहीं, इसीलिए विस्फोट कह रहा हूं। एक्स्टपलोजन कहने का कारण ही कुल इतना है कि कोई ग्रोथ नहीं है कि ऐसा धीरे-धीरे वे चीज हो सकती हैं, जो खंड-खंड की जा सकें। जैसे प्रेम धीरे-धीरे नहीं हो सकता। जो धीरे-धीरे नहीं हो सकता। जो धीरे-धीरे हो, वह प्रेम नहीं, सिर्फ लाइकिंग होगी। लाइकिंग अक्सर लव समझ ली जाती है। लव तो विस्फोट ही होता है! धीरे-धीरे जो होता है, वह सिर्फ पसंद है। धीरे-धीरे हम एक आदमी के साथ रहते हैं, तो उसे पसंद करने लगते हैं। और जिन मुल्कों ने विवाह ईजाद किया, उन्होंने इसी तरकीब पर ईजाद किया कि दो को साथ कर दो, धीरे-धीरे पसंद करने लगेंगे। और दूसरों के साथ का उपाय मत दो, ताकि उनको पसंद करना ही पड़े। इसलिए दूसरे की पतियों से, दूसरे की लड़कियों के मिलने का उपाय बंद कर दो ताकि साथ रहना पड़े। साथ रहने से संग हो, उस संग से पसंदगी हो। पसंदगी से प्रेम मालूम होने लगे। वह विवाह के बाद प्रेम मालूम होते नहीं, क्योंकि विवाह के बाद एक ग्रोथ है, जो पसंदगी की है। प्रेम तो एक विस्फोट है, जो एक क्षण में घट जाता है।
वैसे उदाहरण के लिए कह रहा हूं--ऐसे ही ज्ञान भी एक विस्फोट है, जो एक क्षण में घट जाता है। ऐसा नहीं होता कि थोड़ा-थोड़ा अज्ञान कम होता चला जाता है--एक दिन आप पाते हैं कि अज्ञान कम होते-होते ज्ञान आ गया। ऐसा नहीं होता कि पहले मैं माचिस जलाता हूं तो ऐसा नहीं होता कि पहले थोड़ा अंधेरा बाहर जाता है। फिर और थोड़ा अंधेरा बाहर जाता है, और थोड़ा बाहर जाता है। ऐसा नहीं होता है। माचिस जली कि अंधेरा नहीं है। इसमें इतना ही विस्फोट है। लेकिन विस्फोट क्या है, वह विस्फोट करके ही जानना पड़ेगा। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है।
तो उसके लिए मैं कहता हूं कि कभी दस-पांच मित्रों को लेकर दस-पंद्रह दिन कहीं भी एकांत में चलकर रहें। विस्फोट की प्रतीक्षा करें।
प्रश्न--क्या मेरा भी हो सकता है?
ओशो--हो सकता है। बिलकुल हो सकता है। यानी मेरी तो सारी कोशिश ही यह है कि खयाल में आ जाए कि ऐसी कोई चीज हो सकती है, तो वह करनी ही पड़े, बल्कि तैयारी है हमारे भीतर सबके। और नहीं पा रही है, इससे हम बहुत ज्यादा कष्ट झेल रहे हैं। क्योंकि कोई झरना भीतर से फूटना चाहता है, और सब तरफ से पत्थर दबा दिए गए हैं। वह झरना हमारी जिंदगी है। जितनी सभ्यता बढ़ती जाती है, उतने पत्थर चढ़ते चले जाते हैं। वे उस झरने पर दब जाते हैं। इसलिए सभ्यता पागल करती है। आदमी को। सभ्यता आत्महत्या लाती है। क्योंकि वह झरना कहता है कि मुझे निकलने दो। और हम सब दबाते चले जाते हैं। पत्थर क्या है, यह समझाया जा सकता है। वह हमारी पहचान है और पत्थर हट जाए तो, विस्फोट होगा। लेकिन वह होगा, तो ही खयाल में आएगा, उसके बिना नहीं आ सकेगा।

बंबई,

१४-९-६९


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