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बुधवार, 5 दिसंबर 2018

जीवन गीत-(प्रवचन-03)

जीवन गीत-ओशो

प्रवचन-तीसरा
विचारों से लड़नामत, देखना
मैं समझता हूं कि कोई और प्रश्न नहीं हैं। जो प्रश्न पूछे हैं, कुछ प्रश्न दोपहर भी किसी नेपूछे थे और एक-दो प्रश्न कल के भी बिना उत्तर के रह गए हैं।
प्रश्नों के संबंध में सबसे पहली बात तो यह जाननी जरूरी है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसके संबंध में किसी दूसरे से कोई भी उत्तर नहीं पाए जा सकते हैं। और जोभी उत्तर दूसरे से पाए जा सकते हैं वे भीतर जाकर न तो समाधान बनते हैं और न मनुष्यकी उलझन को हल कर पाते हैं। ठीक-ठीक जीवन के उत्तर तो खुद ही खोजने होते हैं - श्रम से साधना से। खुद ही उनके उत्तर पाने पड़ते हैं।
लेकिन फिर भी सोचने का ढंग विचार करने का ढंग पूछने से उपलब्ध हो सकताहै। मैं जिन प्रश्नों के उत्तर आपको हूं मेरे उत्तर मान लेने आवश्यक नहीं हैं ज्यादा अर्थ कीबात यह होगी कि आप भी उन प्रश्नों पर नई-नई दृष्टियों से विचार करना शुरू करें। प्रश्नतो एक मौका है उस मौके से मनुष्य विचार करने में पड़ जाता है। और अगर भीतर विचार पैदा हो जाए तो जीवन में ऐसी कोई समस्या उलझन नहीं है जो हल न की जा सके।

किसी एक प्रश्न का उत्तर पा लेना महत्वपूर्ण नहीं है वरन स्वयं के भीतर विचारकी शक्ति का जग जाना महत्वपूर्ण है। तब फिर किन्हीं ही जीवन की समस्याओं के उत्तरव्यक्ति खुद ही पाने में समर्थ हो जाता है।
सबसे ज्यादा जरूरी बात यही है कि हम सोचना शुरू करें। मैंने जो कहा कि आपप्रश्न पूछें वह इसीलिए। जो भी व्यक्ति विचार करेगा उसके मन में बहुत से प्रश्न उठने शुरूहोंगे। जीवन बड़ी समस्या है- और रोज सुबह से शाम तक हजारों प्रश्न उठते हैं। यदि हमउन प्रश्नों को वैसा ही मन में पड़ा रहने दें तो धीरे- धीरे मन उलझ जाता है और धीरे- धीरे मन की क्षमता रास्ते खोजने की कम हो जाती है।
इसलिए बहुत उचित है कि पूछें- मित्रों से पूछें गुरुजनों से पूछें, परिवार केवृद्धजनों से पूछें- और जहां से भी सीखने को मिल सके वहां से सीखें। सीखने के लिएहमेशा मन को खुला हुआ रखना चाहिए। चाहे कोई आदमी क्या भी हो जाए तो भी।बचपन से लेकर बुढ़ापे तक जो आदमी सीखने को हमेशा तैयार होता है उसके जीवन मेंज्ञान की संपदा इकट्ठी होती है।
लेकिन बहुत लोग बहुत जल्दी ही सीखना बंद कर देते हैं। बहुत लोग बहुत जल्दीही अपने मन के द्वार बंद कर लेते हैं फिर कुछ भी नहीं सीखते है। ऐसे लोग समय केपहले ही मुर्दा हो जाते हैं। और जीवन में जितनी संपदा ज्ञान की विचार की वे पा सकतेथे उससे भी वंचित रह जाते हैं
यह भी जरूरी नहीं है कि अपने बड़ी से ही सीखो छोटों से भी सीखा जा सकताहै। सच तो यह है कि जीवन की कोई भी घटना शिक्षा हो सकती है। एक वृक्ष पर से सूखागिरता हुआ पता भी शिक्षा हो सकता है। एक छोटी-छोटी बातें भी शिक्षा हो सकती हैं। लेकिन आंख खुली हुई हो तो पूरा जीवन ही शिक्षालय हो जाता है। और आंख बंद हो सीखने की प्रवृत्ति न हो पूछने की वृत्ति न हो इंक्वायरी न हो खोज न हो तो फिर जीवन के चारों तरफ कितनी ही बड़ी बातें घटती रहें उनसे हम कुछ भी नहीं सीख पाते हैं। हमारामन बंद ही रहा आता है।
और जो मनुष्य जितना कम सीखता है उस मनुष्य की अनुभूति उतनी ही छिछली उथली और ऊपरी हो जाती है गहरी नहीं हो पाती। जैसे जिस वृक्ष को ऊपर उठना हो उस वृक्ष को उतने ही गहरे तक अपनी जड़ें जमीन में फेंकनी पड़ती हैं। अगर वह जमीन में अपनी गहरी जड़ें न फेंके तो फिर ऊपर नहीं उठ सकता। जिस व्यक्ति कोजीवन में जितना ऊपर उठना हो उतना ही उसे खोज की चिंतन की विचार की गहरी जड़ेंफेंकनी जरूरी होती हैं। जो जितनी विचार की गहरी जड़ों को फेंकता है अपने जीवन मेंउसके वृक्ष की उतनी ही ऊंची शाखाएं हो पाती हैं। नीचे की जड़ें दिखाई नहीं पड़ती।
अगर तुम वृक्ष को देखो किसी भी वृक्ष को तो ऊपर तो वृक्ष दिखाई पड़ता है नीचे कीजड़ें दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन जो नहीं दिखाई पड़ती जडें उनमें ही वृक्ष के प्राण छिपेहोते हैं अदृश्य जड़ों में ही वृक्ष के प्राण होते हैं। अगर अदृश्य जड़ों को कोई काट दे तोफिर वृक्ष छोटा ही रह जाएगा।
स्वामी रामतीर्थ थे एक भारतीय संन्यासी थे वे जापान गए। उन्होंने वहां तीन सौ चार सौ और पांच सौ वर्ष पुराने देवदार के वृक्ष देखे जिनकी ऊंचाई एक बित्ते से ज्यादा नहीं थी। वे बहुत हैरान हुए! पांच सौ वर्ष पुराना देवदार का वृक्ष और एक बित्ते की ऊंचाई का! उन्होंने पूछा इसको किस रहस्य से तुमने छोटा रखा? यह कैसे इतना छोटा रहा पांचसौ वर्षों में?
तो माली ने उन्हें बताया गमले के नीचे से हम इसकी जड़ें हमेशा काटते रहते हैं! चूंकि जड़ें बड़ी नहीं हो सकतीं इसलिए वृक्ष ऊपर नहीं उठ सकता!
इसलिए जड़ें तो दिखाई नहीं पड़ती हैं। वैसे ही मनुष्य की जो विचार की जड़ें हैं वे भीदिखाई नहीं पड़ती हैं। लेकिन उनमें ही मनुष्य के प्राणों के विकास की सारी संभावनाएं छिपीरहती हैं। अगर उनको ही तुमने विकसित नहीं किया तो तुम्हारा जीवन भी विकसित नहींहोगा। अगर उन पर तुमने ध्यान नहीं दिया तो तुम छोटे पौधे की भांति रह जाओगे। अगरजीवन में एक बड़ा पौधा बनना है- ऐसा पौधा जिसमें फल लगें फूल लगें जिसकी सुवासफैले, जिसकी छाया के तले दूसरे लोग विश्राम करें अगर जीवन में ऐसा बड़ा पौधा बननाहै तो विचार की जड़ों को बहुत बहुत गहराई तक भेजना जरूरी है। कौन यह करेगा? अगर खुद ही हम खोज करेंगे तो यह होगा। पूछो! किसी भी मौके को- जब तुम पूछ सको, खोजसको- खोओ मत! कोई छोटी-छोटी घटना भी जीवन में हो सकता है बहुत बड़े ज्ञान का भार लेकर आ रही हो और हम न पूछें तो वह ज्ञान हमें नहीं मिल सकेगा।
एक फकीर हुआ। उससे बाद के जीवन में पूछा गया कि तुम्हारे कौन गुरु हैं?
तो उसने कहा : ऐसे तो मेरा पूरा जीवन ही गुरु रहा और जो भी आदमी रास्ते पर मुझे मिला उससे ही मैंने कुछ सीखा। लेकिन सबसे पहले जिस आदमी से मैंने सीखा वहएक चोर था।
पूछने वाला बहुत हैरान हुआ! चोर से कोई क्या सीखेगा? लेकिन उस फकीर नेकहा कि मैं एक गांव में गया आधी रात थी कोई मुझे... दरवाजे सब बंद थे। एकआदमी रास्ते पर मिला उसने कहा अब तो दरवाजे बंद हैं, आप मेरे साथ ही आएं औरठहर जाएं। लेकिन मैं एक चोर हूं! हो सकता है आप साधु हैं मेरे घर ठहरना पसंद नकरें। लेकिन उस साधु ने कहा जब उस व्यक्ति ने कहा, मैं एक चोर हूं तो मैं उसकी ईमानदारी और सच्चाई से प्रभावित हुआ। इतना सच्चा तो मैं भी नहीं हूं जितना वह चोरथा। मैंने उसके पैर छुए और उसे प्रणाम किया और कहा कि तुम मेरे गुरु हुए तुमसे मैंने एक बात सीखी। साधु होकर भी मैं इतना सच्चा नहीं हूं कि ठीक-ठीक कह सकूं कि मैंकौन हूं और क्या हूं लेकिन तुमने एक चोर होकर भी यह स्पष्टता से कहा कि मैं चोर हूं।तो मैं तुमसे प्रभावित हुआ, तुमसे मैंने सच्चाई सीखी।
वह उस चोर के घर रात को गया। उसे सुला कर चोर ने कहा क्षमा करें, अब तोमेरा धंधे का वक्त है तो मैं जाता हूं आप विश्राम करें मैं सुबह तीन या चार बजे के करीब लौटूंगा।
वह चोरी करने चला गया। वह रात कोई पांच बजे सुबह होते-होते लौटा। उससाधु ने पूछा : क्या चोरी सफल हुई? कुछ लाए?
उस चोर ने हंसते हुए कहा : आज तो नहीं लेकिन कल फिर कोशिश करेंगे।
ऐसे वह साधु एक महीना उस चोर के घर रहा। रोज चोर सुबह लौटता, वह साधुपूछता, कुछ लाए? वह कहता आज तो नहीं लेकिन कल कल जरूर लेकर आएंगे।फिर वह साधु चला आया।
उसने बाद में बताया कि जब मैं भगवान को खोजने लगा और रोज-रोज असफल होने लगा; शांत होने की चेष्टा करता था लेकिन नहीं हो पाता था; मन से विचारों को दूरकरने का प्रयास करता था लेकिन विचार दूर नहीं होते थे; भगवान को खोजता था, लेकिन भगवान नहीं मिलता था; तब मैं थक जाता निराश हो जाता और सोचता कि सब-कुछ छोड़ दूं! तब मुझे उस चोर की याद आती जो रोज रात को कहता था अगर आज नहीं मिला तो कल तो जरूर मिल जाएगा। तब फिर मैं सोचता कि एक साधारण सा चोर भीजब कल पर इतना विश्वास रखता है इतनी आशा रखता है इतना साहस रखता है तो मैं परमात्मा को खोजने निकला हूं मुझे भी इतनी जल्दी निराश नहीं होना चाहिए। मैं भीसोचता कि आज नहीं तो कल जरूर मिल जाएगा।
फिर एक दिन परमात्मा की अनुभूति मुझे हुई और तब मैंने सबसे पहले उस चोरको प्रणाम किया, जहां मैं था वहीं से-कि तुम मेरे गुरु हो और तुमसे मैंने यह आशासीखी यह हिम्मत सीखी यह साहस सीखा और निराशा से मैं बचा।
अब यह चोर से एक आदमी सीख सकता है तो जिंदगी में सीखने की बात तो सबतरफ से सीखी जा सकती है। केवल वे ही लोग जो अपने मस्तिष्क की दीवालों को बंद कर लेते हैं, सीखने से वंचित हो जाते हैं। विद्यालय में ही विद्या नहीं मिलती शिक्षालयों में हीसब ज्ञान नहीं मिल जाता है असली ज्ञान तो जीवन में मिलता है। लेकिन अगर तुम पूछोनहीं खोजो नहीं आंखें खोल कर देखो नहीं तो ज्ञान की वर्षा ऐसे नहीं होती जैसे पानी बरसता है-कि वह अपने आप तुम्हारे ऊपर बरस जाएगा और तुम्हें मिल जाएगा। उसे तो खोजना होगा प्रयास करना होगा। और जो प्रयास करता है वह निश्चित रूप से पुरस्कृत होता है। तो इसलिए मैंने तुमसे कहा कि तुम कुछ पूछो। यह नहीं कि तुम मुझसे पूछो। नहीं, तुम पूछने की प्रक्रिया सीखो पूरी जिंदगी से पूछो जहां तुमसे बन सके वहां पूछो।
तुम तो हैरान हो जाओगे -लोगों ने ऐसी-ऐसी चीजों से पूछा है और उत्तर पाए हैंकि तुम दंग रह जाओगे।
अमरीका में उन्नीस सौ पैंतीस में एक बहुत बड़े वनस्पति शास्त्री- वैज्ञानिक ने एकवृक्ष से बातें करनी शुरू कीं। तुम्हारी कल्पना में नहीं हो सकता कि वृक्ष से बातें कैसे होसकती हैं? हम तो अभी आदमी से भी बात करना नहीं जानते। आदमी से ही बात करो तो थोड़ी देर में विवाद और झगड़ा हो जाएगा। वृक्ष से तो बातें हो कैसे सकती हैं?
उस वैज्ञानिक ने जब यह घोषणा की कि मैं एक वृक्ष से बातें शुरू किया हूं और मुझे आशा है कि मैं सफल हो जाऊंगा। तो सारे अमरीका में उसकी हंसी उड़ी सारेअखबारों में उसकी फोटो छपी कि यह आदमी पागल हो गया। कहीं कोई वृक्ष से बातेंकिया है कभी? लेकिन वह अदभुत पागल आदमी था कि अपने काम में लगा रहा। एककैक्टस के पौधे से- जिसमें कांटे ही कांटे होते है वह रोज सुबह बैठ कर घंटे भर बातें करता उससे प्रेम करता उस पर पानी सींचता जितने हृदय के भाव होते उसको बताता।वृक्ष तो चुप रहता वृक्ष क्या बोलेगा वृक्ष तो कभी बोला ही नहीं है इसलिए एक तरफा ही बातें होतीं, वह वैज्ञानिक खुद ही उस पौधे से कुछ कहता रहता।
उसकी पत्नी भी परेशान हो गई उसके बच्चे भी हैरान हुए। उन्होंने कहा : यह क्या पागलपन किया? बदनामी होगी। इससे कोई फल आने वाला है?
लेकिन उसने कहा कि मैं प्रतीक्षा करूंगा। और उस पौधे से उसने क्या कहा? उसपौधे से सारी बातें करता जैसे कोई मित्रों से करता है। और अंत में एक बात रोज उससे कह देता। उससे कह देता कि मैं तो तुमसे कह रहा हूं पता नहीं मेरी भाषा तुम समझते होया नहीं समझते हो पता नहीं तुम तक मेरी बातें पहुंचेंगी या नहीं पहुंचेंगी लेकिन अगर मेरा प्रेम तुम तक पहुंच जाए तो तुम किसी इशारे से जाहिर तो कर ही सकते हो कि मेरा प्रेमतुम तक पहुंच गया। तो मैं तुम्हें बताता हूं तुम यह इशारा कर देना तो मैं समझ जाऊंगा।और उसने क्या कहा? उसने यह कहा कि तुम्हारे इस पौधे में - कांटों वाला पौधा है कैक्टस का उसमें कांटे ही कांटे हैं- अगर एक ऐसी शाखा निकल आए जिसमें कांटे नहों, तो मैं समझ जाऊंगा कि मेरी बातें तुम तक पहुंचीं।
उस पौधे में कभी बिना कांटे की कोई शाखा नहीं निकली, यह तो असंभव ही था।लेकिन सात साल तक वह यह कहता रहा। और तुम हैरान हो जाओगे, एक दिन ऐसाआया कि उस पौधे में एक शाखा निकली जिसमें कांटे नहीं थे। तब तो सारा अमरीका स्वीकार किया, सारी दुनिया ने स्वीकृति दी कि जरूर मनुष्य की प्रेम की वह आवाज उस पौधे के प्राणों तक भी पहुंची अन्यथा वह शाखा कैसे निकलती जिसमें कांटे नहीं हैं?सारी शाखाएं कांटों वाली एक शाखा बिना कांटे की भी निकल आई। पौधा भी, अगर सतत उसके साथ प्रेम किया गया, उत्तर दिया उसने।
तो अगर तुम जिंदगी से पूछो- पत्थरों से, पौधों से, आदमियों से, आकाश से, तारों से - तो सब तरफ से उत्तर मिलेंगे। लेकिन तुम पूछो ही नहीं तो उत्तरों की वर्षा नहींहोती, ज्ञान कहीं बरसता नहीं किसी के ऊपर। उसे तो लाना पड़ता है उसे तो खोजनापड़ता है। और खोजने के लिए सबसे बड़ी जो बात है वह हृदय के द्वार खुले हुए होनेचाहिए। वे बंद नहीं होने चाहिए। दुनिया की तरफ से दरवाजे बंद नहीं होने चाहिए बिलकुल खुला हुआ मन होना चाहिए। और जो भी आए चारों तरफ से, निरंतर सजग रूपसे, होश पूर्वक उसे समझने सोचने और विचारने की दृष्टि बनी रहनी चाहिए।

एक-दो बातें पूछी हैं :

मन से कुछ विचार निकाल डालना है किंतु वह
विचार बारंबार हृदय में जबर्दस्ती उठता है तो
उसको कैसे निकाल डालें?


होता है किसी विचार को हम अपने मन से बाहर निकालना चाहते हैं। हो सकताहै विचार प्रीतिकर न हो, दुखद हो चिंता लाता हो उदासी लाता हो घृणा का विचार हो, हिंसा का विचार हो। कोई ऐसा विचार हो जिसे हम अपने मन से बाहर कर देना चाहते हैं, कोई ऐसी स्मृति हो पीड़ा से भरी हुई अपमान की कोई स्थिति हो दुख की कोई घटना हो, हम उसे भूल जाना चाहते हैं विस्मरण करना चाहते हैं, मन से हटाना चाहते हैं। लेकिनजितना उसे हटाते हैं वह और हमारे पास आती है। जितना हम उसे दूर फेंकते हैं, वह औरलौट-लौट कर हमारे पास आ जाती है।
तो यह पूछा है कि यह कैसे हो कैसे उसे अलग किया जाए?
मन की प्रकृति को समझना जरूरी है तभी कुछ किया जा सकता है। मन कीप्रकृति का पहला नियम यह है कि अगर किसी चीज को भूल जाना है तो उसे भूलने कीकोशिश नहीं करनी चाहिए। क्योंकि भूलने की कोशिश के ही कारण बार-बार उसकी यादबनी रहती है। तुम जब भी उसे भूलना चाहो तभी उसको फिर याद करना पड़ता है। औरभूलने की तो कोशिश होती है लेकिन पीछे उसकी याद वापस खड़ी हो जाती है।
तुम्हें एक कहानी सुनाऊं उससे यह समझ में आ सकेगा।
तिब्बत में मिलारेपा नाम का एक बहुत बड़ा साधु हुआ। उसके पास एक आदमीआया और उसने कहा कि मैं कोई मंत्र सिद्ध करना चाहता हूं ताकि मेरे पास बड़ी शक्तियांआ जाएं मैं कोई चमत्कार मिरेकल कर सकूं। मिलारेपा ने कहा कि मैं तो सीधा-सादाफकीर हूं मुझे कोई चमत्कार नहीं मालूम और न कोई शक्ति और न कोई मंत्र। लेकिनजितना उसने इनकार किया उतना ही उस आदमी को ऐसा लगा कि जरूर इसके पास कुछहोना चाहिए इसीलिए बताता नहीं है। वह उसके पीछे ही पड़ गया। वह रात वहीं पड़ा रहताउसके दरवाजे पर। आखिर मिलारेपा घबड़ा गया। उसने एक रात अमावस की रात थी, उससे कहा कि ठीक है तुम नहीं मानते यह मंत्र ले जाओ। एक कागज पर पांच पंक्तियोंका छोटा सा मंत्र लिख दिया और कहा इस मंत्र को ले जाओ अमावस की रात को ही यहसिद्ध होता है इसे तुम पांच बार पढ़ना पांच बार पढ़ते से ही यह सिद्ध हो जाएगा।
वह आदमी तो कागज को लेकर भागा। उसे धन्यवाद देने का भी खयाल न रहा, उसने नमस्कार भी नहीं की उस दिन उसने पैर भी नहीं छुए। वह तो भागा जल्दी से किघर जाए और मंत्र को सिद्ध करे। मंदिर की कोई बीस-पच्चीस सीढ़ियां थीं वह उनसे नीचेउतर ही रहा था बीच सीढ़ियों पर था तभी उस साधु ने चिल्ला कर कहा कि सुनो, एकशर्त और है! मंत्र जब पढ़ो तो खयाल रखना बंदर की स्मृति न आए बंदर दिखाई न पड़े।अगर मन में बंदर का खयाल आ गया तो मंत्र बेकार हो जाएगा।
उस आदमी ने कहा : यह भी क्या बात बताई! मुझे जिंदगी हो गई आज तक बंदरका खयाल नहीं आया स्मृति नहीं आई। कोई डर की बात नहीं कोई चिंता का कारण नहीं।लेकिन वह सीढ़ियां पूरी भी नहीं उतर पाया कि उसके भीतर बंदर की स्मृति आनीशुरू हो गई। वह जैसे घर की तरफ चला भीतर बंदर भी उसके मन में स्पष्ट होने लगाबंदर बहुत साफ दिखाई पड़ने लगा घर पहुंचते-पहुंचते। वह बहुत घबड़ाया। उसने कहायह क्या मुश्किल हो गई! वह बंदर को भगाने लगा कि हटो मेरे मन से। लेकिन बंदर थाकि जितना वह हटाने लगा और स्पष्ट होने लगा। मन में उसका बिंब बंदर की प्रतिमास्पष्ट होने लगी। वह घर गया आंख बंद करे तो बंदर दिखाई पड़े अब मंत्र को कैसेपड़ा जाए जब तक बंदर दिखाई पड़े रात भर में परेशान हो गया लेकिन बंदर से
छुटकारा नहीं हो सका।
सुबह वापस लौटा उसने वह मंत्र उस साधु को लौटा दिया और कहा क्षमा करेंअगर यही शर्त थी तो आपको मुझे बताना नहीं था। बताने से सब गड़बड़ हो गई। बंदरमुझे कभी स्मरण नहीं आता था आज रात भर बंदर मेरे पीछे पड़ा रहा। और दुनिया काकोई जानवर मुझे दिखाई नहीं पड़ा सिर्फ बंदर दिखाई पड़ा। और: मैं इसे रात भर निकालनेकी कोशिश करता था लेकिन वह नहीं निकलता था।
जिसको कोई निकालना चाहेगा उसे निकालना कठिन हो जाएगा। क्योंकिनिकालने के कारण ही उसकी स्मृति परिपक्व होती है मजबूत होती है।
तो फिर क्या रास्ता है?
अगर किसी विचार को किसी स्मृति को निकालना हो मन से तो पहली तो बातयह है निकालने की कोशिश मत करना- पहली शर्त! फिर क्या होगा? अगर नहींनिकालेंगे तब तो वह आएगा। सिर्फ उसको देखना। निकालना मत मात्र चुपचाप बैठ करउसे देखना। न उसे निकालना, न उसे हटाना। तटस्थ भाव से विटनेस भर हो जाना, उसकेसाक्षी भर हो जाना।
जैसे कोई रास्ते पर बैठ जाए- रास्ते पर लोग निकलते हैं, तांगे निकलते हैं कारेंनिकलती हैं जानवर निकलते हैं- किनारे पर हम बैठ कर चुपचाप देख रहे हैं। रास्ता चलरहा है न हम चाहते हैं कि फलां आदमी रास्ते पर चले, न हम यह चाहते हैं कि फलांआदमी न चले हम सिर्फ देख रहे हैं। हमारा कोई लगाव नहीं हम मात्र देख रहे हैंअनासक्त भाव से बिना किसी लगाव के अनअटैच्मेंट सिर्फ देख रहे हैं।
ठीक ऐसे ही अगर मन से किन्हीं विचारों से मुक्ति पानी हो, तो सिर्फ देखना, उनसेलड़ना मत। लड़ने के बाद तो उनको हटाना असंभव है। मात्र उनको देखना। जब भी कोईस्मृति ऐसी है जो हटाने जैसी है, कोई विचार ऐसा है जिसे विदा करना है- एकांत में बैठजाओ उसे आने दो आंख बंद कर लो चुपचाप देखो। जैसे फिल्म देखते हैं हम सिनेमामें बैठ कर एक पर्दे पर चलते हुए चित्रों को देखते हैं, वैसे चुपचाप उसे देखो। कुछ करोमत, छेड़ो मत हटाओ मत बुलाओ मत मात्र देखो-जैसे केवल एक दर्शक मात्र। तुमहैरान हो जाओगे अगर दर्शक मात्र की तरह देखो तो थोड़ी देर में वह विलीन हो जाएगी।और जब भी वह आए तब दर्शक की तरह देखो कुछ दिनों में वह विलीन हो जाएगी, उसका आना बंद हो जाएगा।
अगर कोई व्यक्ति इसी भांति अपने सब विचारों को निरंतर देखता रहे ऑब्जर्वकरता रहे तो धीरे- धीरे सभी विचार क्षीण हो जाते हैं। और तब एक अपूर्व शांति भीतरफलित होती है। तब चित्त निरंतर शांत निरंतर मौन बना रहता है। उसमें विचारों की भीड़-भाड़, शब्दों की भीड़- भाड़ व्यर्थ का कचरा कोई भी नहीं घूमता है।
अभी तो मस्तिष्क एक कचरेघर की भांति है। अगर तुमसे मैं कहूं कल अपने कमरेपर बैठ कर अकेले में दस मिनट केवल तुम्हारे मन में जो भी चलता हो उसको कागज परलिखना तो बाद में पढ़ कर तुम घबड़ा जाओगे। तुम्हारे दिमाग में ऐसे पागलपन के विचारचलते हुए मालूम पड़ेंगे, ऐसी व्यर्थ की बातें- जिनका कोई मतलब नहीं, जिनकी कोईसंगति नहीं जिनसे कोई प्रयोजन नहीं जिनका कोई लाभ नहीं- तुम्हारे मन में दौड़ती हुईमालूम पड़ेगी। अगर दस मिनट तुम अपने सारे विचारों को वैसा का वैसा लिखो तो खुद हीघबड़ा जाओ दूसरों को बताने की हिम्मत न हो। क्योंकि कोई भी देख कर कहेगा कि तुमपागल हो, ये विचार तुम्हारे मन में कैसे चलते हैं!
पागल में और सामान्य आदमी में बहुत फर्क नहीं है। सामान्य आदमी के भीतरधीरे- धीरे जो विचार चलते रहते हैं पागल थोड़ा और आगे बढ़ जाता है उन्हीं विचारों कोजोर-जोर से बोलने लगता है तो वह पागल दिखाई पड़ता है। और जो नहीं बोलते हैं वेठीक दिखाई पड़ते हैं। लेकिन दोनों के भीतर एक से विचार चलते होते हैं।
इन सारे विचारों के चलते हुए कोई भी मनुष्य कभी शांत नहीं हो सकता। इनविचारों से छुटकारा होना चाहिए। लेकिन हटाने से कोई विचार नहीं हटता है। धक्के देनेसे जबरदस्ती करने से कोई विचार नहीं हटता बल्कि और आता है। जितना दबाओ उतनाआएगा जितना भगाओ उतना वापस लौटेगा।
रास्ता है-न भगाओ न दबाओ बल्कि देखो शात होकर देखो सिर्फ निरीक्षणकरो मात्र दर्शक रह जाओ। जैसे रास्ते पर कोई खेल हो रहा है तुम खड़े होकर देख रहेहो ऐसे ही अपने मन के खेल को देखो और दूर खड़े हो जाओ। सिर्फ देखो उस देखने केही द्वारा धीरे- धीरे- धीरे विचार क्षीण हो जाते हैं और एक स्थिति आती है कि मन इतना शांतहो जाता है जैसे आकाश हो बिना बादल का बिना बादल का नीला आकाश हो जिसमेंकोई बादल नहीं। ऐसा ही एक क्षण आता है जब मन बिना विचार के शांत नीले आकाशकी भांति हो जाता है। वही स्थिति अपूर्व आनंद की होती है। उसी स्थिति में मनुष्य कोअपनी आत्मा का बोध होता है उसी स्थिति में उसे परमात्मा की प्रतीति और अनुभव शुरूहोते हैं।
मन की एक ऐसी दशा मन की एक ऐसी शांत स्थिति मन की एक ऐसी बादलोंसे रहित आकाश जैसी स्थिति को पैदा कर लेना ही ध्यान है।
कल हमने ध्यान का प्रयोग किया आज फिर हम ध्यान के प्रयोग के लिए अभीबैठेंगे। उस ध्यान के प्रयोग में भी इसी बात को मन के भीतर मौजूद करना है। मन केभीतर इसी स्थिति को लाना है।
कौन सी स्थिति?
यह जो मैंने अभी कहा। दो तरह के आकाश से अभी हम परिचित हैं। एक तोआकाश होता है बरसात के दिनों का जब वर्षा के दिन होते हैं आकाश में बादल होतेहैं आकाश बादलों में डंका होता है। सूरज भी निकलता है तो दिन में दिखाई नहीं पड़ता।रात में चांद भी निकले तो उसका पता नहीं चलता। बादल सबको ढांके रहते हैं। एकआकाश है वह भी हम जानते हैं जब आकाश में कोई बादल नहीं होते। पूरा आकाशखुला और स्वच्छ और साफ होता है। तब चांद भी निकले तो दिखाई पड़ता है सूरज भीनिकले तो दिखाई पड़ता है। छोटे-छोटे तारे भी दिखाई पड़ते हैं। आकाश नीली शांत झील
की भांति होता है।
ऐसे ही मन की भी दो अवस्थाएं हैं।
एक तो विचारों से भरा हुआ मन। विचारों के कारण विचारों को बदलियों केकारण धुएं के कारण पीछे कौन बैठा है उसका कोई दर्शन नहीं होता। और एक ऐसामन जहां विचार बिलकुल न हों निर्विचार हो शांत हो कोई बादल न चलते हों मन परमन बिलकुल दर्पण की भांति स्वच्छ और निर्मल हो तब भीतर जो छिपा है जिसको कोईआत्मा कहे परमात्मा कहे सत्य कहे कोई और नाम दे जो भी भीतर हमारे प्राणों के प्राणमें जो शक्ति छिपी है उसका अनुभव होता है।
उस अनुभूति के लिए सबसे बड़ी जरूरत है मन को बिलकुल खाली, शांत, मौन, निर्मल कर लेना। उसको ही ध्यान कहते हैं। ध्यान से कोई और बड़ी बात का अर्थ नहीं है।ध्यान का अर्थ है मन की शांत स्थिति को उपलब्ध कर लेना। कोई भी व्यक्ति कर सकताहै। लेकिन थोड़ा सा, थोड़ा सा सजग होना, समझना, क्या है और कैसे किया जा सकता है?
कल मैंने थोड़ी सी बात तुम्हें समझाई। शायद पहला दिन था। कुछ की समझ मेंनहीं आई होगी, कुछ की समझ में आई होगी, तो कुतूहल बना हुआ था कि और दूसरों कोक्या हो रहा है? स्वाभाविक है, तुम तो छोटे-छोटे बच्चे हो। बड़े-बड़ों को भी इसी तरहका कुतूहल बना रहता है जिज्ञासा बनी रहती है कि दूसरों को क्या हो रहा है? और उसजिज्ञासा में वे अपना समय खो देते हैं। तो आज दूसरा दिन है और तुममें से किसी को यहजिज्ञासा की फिकर नहीं करनी चाहिए कि किसी दूसरे को क्या हो रहा है, तुम्हें फिकरकरनी चाहिए कि मुझे क्या हो रहा है। अपने भीतर ध्यान देना चाहिए।
तो आज हम प्रयोग के लिए लेट कर तो प्रयोग नहीं करेंगे आज, क्योंकि तुम सबबाहर बैठे हो बैठ कर प्रयोग करेंगे।
बैठ कर प्रयोग में भी इतना फासला होना चाहिए कि कोई किसी को छूता हुआ नहो। क्योंकि कोई किसी को छू रहा हो तो उसके कारण ही भीतर एक बोध दूसरे कीमौजूदगी का बना रहता है। तो सब इस भांति बैठेंगे कि कोई किसी को छूता हुआ न हो।फिर जब हम ठीक से बैठ जाएंगे तो बैठे हुए ही शरीर को शिथिल करेंगे, जैसाकल हमने लेट कर किया था और कल रात फिर हम लेट कर करेंगे ताकि तुम्हें दोनोंस्थितियों का पता चल जाए कि ध्यान का प्रयोग बैठ कर भी किया जा सकता है और लेटकर भी किया जा सकता है। अगर समझ आ जाए तो ध्यान का प्रयोग खड़े रह कर भीकिया जा सकता है। और समझ आ जाए तो काम करते हुए भी किया जा सकता है। सच
तो यह है कि किसी भी स्थिति में मन को शांत रखने का प्रयोग किया जा सकता है।लेकिन वे बाद की बातें हैं। अभी तुम दो ही स्थितियों में : लेट कर और बैठ कर ध्यान कोकरना सीख लोगे तो एक अदभुत क्षमता शांत होने की तुम्हारे भीतर उपलब्ध हो जाएगी।और अगर तुम शांत हो सको तो तुम्हारे जीवन में बहुत सी बातें फलित होंगी।
जो व्यक्ति जितना शांत हो जाता है उतना ही प्रेमपूर्ण हो जाता है। जो व्यक्ति जितनाअशांत होता है उतना ही क्रोध से घृणा से कठोरता से भरा होता है। जो व्यक्ति जितनाशांत हो जाता है उसके जीवन की उतनी ही बुराइयां क्रमश: झड़नी शुरू हो जाती हैं।क्योंकि शांत व्यक्ति बुराई करने में असमर्थ हो जाता है। बुराई करने के लिए अशांत होनाजरूरी है।
एक मित्र हैं मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं तो शराब पीता हूं क्या मैं भीध्यान कर सकता हूं? मैं तो मांस खाता हूं क्या मैं भी ध्यान कर सकता हूं? मैं तो जुआखेलता हूं क्या मैं भी ध्यान कर सकता हूं?
मैंने उनसे कहा : न तो जुए की फिकर करो न तो मांस खाने की न शराब पीनेकी। तुम ध्यान करो।
वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा : मैं तो जिसके भी पास गया वही कहता है पहलेइन्हें छोड़ो फिर तुम ध्यान करो।
मैंने कहा कि नहीं इन्हें पहले छोड़ना असंभव है क्योंकि ये अशांत मन से पैदाहोने वाली चीजें हैं। तो मैं इनको छोड़ने को नहीं कहता। मैं तुमसे कहता हूं पहले शांत होजाओ। फिर जो होगा देखा जाएगा।
उन्होंने ध्यान शुरू किया। वही ध्यान जो मैं तुम्हें समझा रहा हूं। तीन महीनेतक -लेकिन उन्होंने बड़े साहस से बड़ी हिम्मत से बड़े सातत्य से प्रयोग किया। तीनमहीने के बाद वे मेरे पास आए और कहने लगे आपने मुझे धोखा दिया। धोखा आपनेमुझे यह दिया कि मेरा जुआ तो छूट गया। धोखा आपने मुझे यह दिया कि शराब पीनी मुझेकठिन हो गई है। धोखा मुझे आपने यह दिया कल एक मित्र के घर मैं गया वहां मांसभोजन पर था मुझे देखने से ही घबड़ाहट होने लगी तो मैं चिंतित हो गया कि मैं आजतक मांस कैसे खाता रहा? कैसे यह अब तक मैंने बर्दाश्त किया? कैसे यह मैंने खाया? मैंने उनसे कहा : मैंने आपको कोई धोखा नहीं दिया। अगर आपकी अब भी मर्जी
हो तो ध्यान छोड़ दें। जुआ खेलें शराब पीए और जो करना हो करें।
उन्होंने कहा : अब तो कठिन है। ध्यान से जो शांति और आनंद मुझे मिल रहा है, उसे छोड़ना अब अंसभव है।
चित्त जितना शांत होगा उतनी जीवन की बुराइयां अपने आप छूटती जाती हैं।
तुमने यह तो सुना होगा लोगों से कि बुराइयां छोड़ दो लेकिन तुमसे शायद हीकिसी ने यह कहा हो कि अशांत चित्त चाहे भी तो बुराइयां छोड़ नहीं सकता है। बुराइयांछोड़ने के लिए शांत चित्त चाहिए। इसलिए बुराइयों की फिकर मत करो चित्त के शांत हीनकी फिकर अगर की तो बुराइयां अपने आप छूट जाती हैं। जैसे पके पत्ते वृक्ष से गिर जातेहैं वैसे ही शांत चित्त से बुराइयां अपने आप गिर जाती हैं। बुराइयां छोड़ने की भीआवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिए शांति का बहुत मूल्य है।
शांत चित्त स्वास्थ्य की अनिवार्य आधार भूमि है।
जिस व्यक्ति को जीवन में स्वस्थ रहना हो अत्यधिक स्वस्थ रहना हो उसके भीतरशांत चित्त होना चाहिए।
अशांति हजार तरह की बीमारियां लाती हैं। पहले तो लोग सोचते थे कि सभीबीमारियां शरीर की होती हैं। फिर धीरे- धीरे खोज जैसे-जैसे आगे बढ़ी आज केमनोवैज्ञानिक कहते हैं कि करीब अस्सी प्रतिशत सौ में से अस्सी बीमारियां मन की होतीहै। बीस साल पहले वे कहते थे पचास प्रतिशत मन की होती हैं। पचास साल पहले वेकहते थे दस प्रतिशत मन की होती हैं। सौ साल पहले चिकित्सक कहता था बीमारियांशरीर की होती हैं। सौ साल के भीतर खोज से पता चला अस्सी प्रतिशत बीमारियां मन सेपैदा होती हैं। यह हो सकता है कि और पच्चीस साल के भीतर यह पता चले कि शत-प्रतिशत बीमारियां मन से पैदा होती हैं। इस बात की बहुत संभावना है।
मन जितना अशांत हो उतना शरीर रुग्ण होने लगता है। मन जितना अशांत होउतने मस्तिष्क के स्नायु बीमार होने लगते हैं और अनेक तरह की बीमारियों का आमंत्रणहमारे भीतर शुरू हो जाता है। अगर तुम्हें स्वस्थ रहना है, तो मन का अपूर्व रूप से शांत होजाना जरूरी है।
तुम्हें शायद यह पता न हो, जितना मनुष्य अशांत होता जा रहा है, उसकी नींद नष्टहोती जा रही है।
न्यूयार्क में चालीस प्रतिशत लोग बिना नींद की दवा लेते हुए नहीं सोते हैं। औरवहां के डॉक्टरों का खयाल है कि इस सदी के पूरे होते-होते, यानी तैंतीस साल के बादन्यूयार्क में एक भी आदमी बिना दवा लिए नहीं सो सकेगा। इतना मानसिक तनाव है, इतनी बेचैनी है। तुम्हें शायद पता न हो अकेले अमरीका में प्रतिदिन पंद्रह लाख से लेकरतीस लाख लोग अपने मन के इलाज के लिए डॉक्टरों के पास जाते हैं। अभी वहां की सारीगणनाओं ने यह प्रकट किया है कि अमरीका में कोई चालीस प्रतिशत लोग मानसिक रूपसे स्वस्थ नहीं हैं। करीब-करीब पागल होने की स्थिति में हैं। और अमरीका इस समयजमीन पर सबसे ज्यादा सभ्य मुल्क है। यह हैरानी की बात है। और ये सारी स्थितियां सारीदुनिया में फैलती चली जा रही हैं।
अगर तुम्हें सुरक्षित रूप से मन और शरीर का स्वास्थ्य चाहिए, तो भीतर ध्यान केप्रयोग पर बहुत ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। और जो व्यक्ति जितना शांत हो जाता हैउसके बाकी जीवन में भी, उसके सारे व्यवहार में, उसके चिंतन में उसके देखने-सोचनेमें विचार करने में सबमें आमूल अंतर आ जाते हैं।
ध्यान केंद्रीय तत्व है, जिसके आधार पर पूरे व्यक्तित्व की सारी की सारी रूप-रेखानवीन ढंग से व्यवस्थित की जा सकती है।
इसलिए उसे तुम कोई साधारण कुतूहल की बात मत समझना। और यह भी मतसोचना कि इतनी छोटी सी बात पंद्रह मिनट प्रयोग करना है इससे क्या होगा?
बहुत छोटी-छोटी बातों में बहुत बड़े-बड़े रहस्य छिपे होते हैं। एक छोटे से बीज मेंबहुत बड़ा वृक्ष छिपा रहता है। तुमने एटम बम का नाम सुना होगा। छोटे से अणु में इतनीशक्ति छिपी होती है कि लाखों लोग करोड़ों लोग समाप्त हो जाएं। तो बहुत छोटी-छोटीचीजों में बहुत बड़े अर्थ छिपे रहते हैं। ध्यान भी ऐसी ही छोटी सी प्रक्रिया है। उसमें बहुतअर्थ हैं और जीवन को बदल देने की बड़ी शक्ति है।
दुनिया में जिन भी बड़े लोगों के नाम तुमने सुने हैं- क्राइस्ट या मोहम्मद, महावीरया बुद्ध राम या कृष्ण, जरथुस्त्र या कनफ्यूशियस जिन भी बड़े लोगों के नाम तुमने सुनेहोंगे तुम्हें यह जान कर हैरानी होगी कि उन सारे लोगों के जीवन का केंद्रीय बिंदु ध्यानथा। उन सारे लोगों ने ध्यान पर ही जीवन भर श्रम किया। उन सारे लोगों ने जो भी पायावह ध्यान से पाया। तो उसी ध्यान की बहुत छोटी सी प्रक्रिया मैं तुम्हें बता रहा हूं। अगरतुम्हारे जीवन में उसकी जड़ें जम जाएं अगर उसका बीज तुम्हारे प्राणों में आरोपित हो
जाए तो तुम एक बिलकुल नये तरह के व्यक्ति को नये तरह के व्यक्तित्व को अपने भीतर
पाने में समर्थ हो सकते हो।
तो मैं फिर से तुम्हें ध्यान के संबंध में दो बातें समझा दूं इसके पहले कि हम ध्यानके लिए बैठें।
सबसे पहले तो शांत बैठ जाना है। सारे शरीर को ढीला छोड़ देंगे। आंख को बंदकर लेंगे। और फिर दो मिनट तक मैं यह सुझाव दूंगा कि तुम्हारा शरीर बिलकुल ढीलाहोता जा रहा है। तो तुम शरीर को ढीला छोड़ते जाना। इस बात की बहुत संभावना है किजब शरीर ढीला होगा तो वह चूंकि हम बैठे हुए हैं वह आगे को झुकने लगेगा। वहझुकने लगे तो तुम डरना मत उसे झुक जाने देना। यह भी हो सकता है कि किसी का शरीरपीछे को गिर जाए तुम उसकी भी फिकर मत करना। अगर शरीर पीछे को गिर जाए तोगिर जाए उसकी चिंता मत करना। लेकिन सामान्य रूप से थोड़ा आगे को झुक करबैठना जिससे पीछे न गिरे। वह आगे झुक जाए और जब शरीर झुकने लगे ढीला होकर,
तो तुम उसकी चिंता मत करना उसे झुक जाने देना। अपनी तरफ से कड़े होकर मतबैठना अपनी तरफ से सारे शरीर को ढीला छोड़ देना।
फिर दो मिनट तक तुम्हें मैं सुझाव दूंगा कि शरीर ढीला हो रहा है। तुम ढीला छोड़तेजाना। दो मिनट के बाद मैं कहूंगा श्वास शांत हो रही है। दो मिनट तक मैं कहता रहूंगा, तुम्हारी श्वास शांत हो रही है। फिर अपने मन में यह भाव करना कि मेरी श्वास शांत होरही है, शांत हो रही है शांत हो रही है। क्रमश: श्वास शांत होती जाएगी। फिर दो मिनटके बाद कहूंगा तुम्हारा मन भी शून्य हो रहा है। विचार सब समाप्त हो रहे हैं मन शून्य होरहा है। तब तुम भाव करते रहना- मन शून्य हुआ शून्य हुआ। दो मिनट पूरे होते-होतेतुम्हारा मन भी एकदम शांत हो जाएगा। जैसे बाहर रात शांत हैं सारा आकाश शांत हैठीक वैसे ही तुम्हारे भीतर भी एक शांति पैदा होनी शुरू हो जाएगी।
अंतिम रूप से मैं कहूंगा दस मिनट के लिए सब शांत और शून्य हो गया। तबदस मिनट उसी शांति और शून्य में चुपचाप बैठे रहना है।
आस-पास कोई आवाज होगी सुनाई पड़ेगी। कोई पक्षी चिल्लाएगा तो सुनाईपड़ेगा। उसको शांति से सुनते रहना है जैसे हमें कोई प्रयोजन नहीं है। हमें शांत बने रहनाहै। कोई आवाज पैदा होगी गूंजेगी और चली जाएगी। तुम्हें उसकी चिंता नहीं करनी हैतुम्हें उसके कारण डिस्टर्ब नहीं होना है। वह सुनाई तो जरूर पड़ेगी कि हम जिंदा हैं मर नहींगए हैं और हमारे कान सक्रिय हैं। सब सुनाई पड़ेगा लेकिन उससे तुम्हें चिंता नहीं होनीचाहिए। सुनाई पड़े सुन लो और शांत बैठे रहो। कोई प्रतिक्रिया मत करो कोई रिएक्शनमत करो। भीतर उसके बाबत कोई चिंतन मत करो। थोड़ी देर में ही एक दो मिनट बीतते-बीतते मन धीरे- धीरे नीचे डूबने लगेगा। दस मिनट पूरे होते-होते तुम्हारा मन बहुत गहरे मेंडूब जाएगा।
उसके बाद जब ध्यान से वापस लौटने के लिए मैं कहूंगा कि तुम ध्यान से वापसलौटो तो बहुत धीरे- धीरे गहरी श्वास लेनी है ताकि शरीर में शक्ति आए। फिर जब शक्तिआ जाए तो धीरे से आंख खोलनी है। और ध्यान के बाद एकदम बातचीत में नहीं लगजाना है कि किसको क्या हुआ और किसको क्या हुआ। वह तुम जाकर कमरे पर विचारकरना और कमरे पर जाकर ध्यान को फिर करना फिर बिस्तर में सो जाना।
असली में बिस्तर पर ही सोते समय कर लेने की बात है। और सुबह उठ कर बैठकर, कर लेना चाहिए। रात को सोते समय बिस्तर पर सोकर ध्यान करना चाहिए औरसुबह उठ कर बैठ कर ध्यान करना चाहिए। अगर दोनों समय- रात्रि को सोते समयऔर सुबह जागते वक्त ध्यान करो तो तुम्हारे चौबीस घंटे में भीतर एक शांति की धाराबहने लगेगी। तुम्हें स्पष्ट अनुभव होने लगेगा जैसे प्राणों में शीतल धारा निरंतर बही जारही है। मस्तिष्क में कोई शांति स्वस्थ ताजगी निरंतर मौजूद है। और अगर उसका तुम्हेंअनुभव हो तो उसका आनंद अदभुत है जिसे शब्दों में कहना कठिन है।

अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।

आप लोग जो कुर्सियों पर हैं अगर नीचे आ जाएंगे तो उपयोगी होगा। या यहां आजाएं दोनों तरफ।
यह लाइट बुझा देना है।
बैठ जाएं बिलकुल शांति से बैठ जाएं। एकदम शांति से बैठ जाएं। आंख बंद करलें। ही कोई लेटना चाहे तो लेट सकता है। किसी को लेटने जैसा लग रहा हो वह लेटसकता है।
बिलकुल शांति से बैठें। एकदम शांति से बैठें। कोई बात न करें। पीछे कोई बातकर रहा है गलत बात है। यह बिलकुल पीछे कौन बात कर रहा है?
आंख बंद कर लें और शरीर को ढीला छोड़े जैसे शरीर में कोई प्राण न हों। देखेंबहुत बढ़िया रात है बहुत शांति की। अगर थोड़ा सा भी ठीक से प्रयोग किया तो अभीइसी क्षण अनुभव होगा। जरा सी बात से उसे खोया जा सकता है जरा सी नासमझी से।बिलकुल शांत बैठें। एक प्रयोग करने के लिए भूमिका बनाएं मन की। बिलकुलशांत। आंख बंद करें शरीर को ढीला छोड़े जैसे शरीर में कोई प्राण नहीं हैं। शरीरबिलकुल ढीला होता जा रहा है।
अब मैं सुझाव दूंगा दो मिनट तक ठीक वैसा ही भाव करें। अपने आप थोड़ी देरमें जो मैं कह रहा हूं वैसा ही होने लगेगा।
शरीर के हम मालिक हैं हम जैसा चाहें वैसा शरीर में हो सकता है।
अनुभव करें ' शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिलहो रहा है। भीतर ऐसा अनुभव करें सारी शक्ति से शरीर शिथिल हो रहा है... शरीररिलैक्स हो रहा है... शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिलहो रहा है... शरीर एकदम शिथिल और शांत होता जा रहा है।
देखें कोई किसी दूसरे की फिकर जरा भी न करें। पर मुझे यहां से दिखाई पड़रहा है।
शरीर एकदम शिथिल और शांत होता जा रहा है शरीर शिथिल होता जा रहा है।एकदम छोड़ दें जैसे शरीर पर हमारी कोई ताकत नहीं। सारी शक्ति छोड़ दें। शरीर शिथिलहो रहा है .शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर एकदम शिथिलऔर शांत होता जा रहा है... शरीर शिथिल होता जा रहा है... शरीर शिथिल होता जा रहाहै.. .शरीर शिथिल हो गयाहै...।
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