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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

गुरु-कृपा-योग

सारसूत्र:

किसू काम के थे नहीं, कोइ न कौडी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
सीधे पलक न देखते, छूते नाहीं छांहिं।
गुरु सुकदेव कृपा करी, चरनोदक ले जाहिं।।
बलिहारी गुरु आपने, तन मन सदके जावं।
जीव ब्रह्म छिन में कियो, पाई भूली ठावं।।
सतगुरु मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट।
मारै गोला प्रेम का, है भ्रम्म का कोट।।
सतगुरु शब्दी तेग है, लागत दो करि देहि।
पीठ फेरि कायर भजै, सूरा सनमुख लेहि।।
सतगुरु शब्दी तीर है, कीयो तन मन छेद।
बेदरदी समझै नहीं, विरही पावै भेद।।

सतगुरु शब्दी लागिया, नावक का सा तीर।
कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर।।
सतगुरु शब्दी बान हैं, अंग-अंग डारै तोर।
प्रेम-खेत घायल गिरै, टांका लगै न जोड़।।
ऐसी मारी खैंच कर, लगी वार गई पार।
जिनका आपा न रहा, भये रूप ततसार।।
वचन लगा गुरुदेव का, छुटे राज के ताज।
हीरा मोती नारि सुत, सजन गेह गज बाज।।
वचन लगा गुरु ज्ञान का, रूखे लागे भोग।
इंद्र कि पदवी लौं उन्हें, चरनदास सब रोग।।

धीरे-धीरे लता है दिन।
सुख की परछाई अमा निशा के
अंधकार में जाती छिन
धीरे-धीरे लता है दिन।
कितनी ही कलियां उपवन में
विकसित सुरभित हो मुरझातीं
कितनी ही सुधियां जीवन में
बनती हैं, बन कर मिट जातीं
कितनी उज्ज्वल अभिलाषाएं भी
हो जाती हैं यहां मलिन
धीरे-धीरे लता है दिन।
उर-सागर में उठतीं-गिरतीं
लहरें अगणित अरमानों की
लुपती-छिपती ही रहती है
यह धूप-छांह मुस्कानों की
जग के पथ में रखने पड़ते हैं
फूंक-फूंक कर पग गिन-गिन
धीरे-धीरे लता है दिन।
है कभी मिलन की पुलक लिए
तो लिए विरह का ज्वार कभी
मधुबन में आता रहता है
मधुमास कभी पतझार कभी
नव-हरित पल्लवित आशाओं पर
भी पड़ जाता है यहां तुहिन
धीरे-धीरे लता है दिन।
एक-एक पल मृत्यु करीब आती है; एक-एक पल जीवन दूर हुआ जाता है। एक-एक पल सुबह दूर होती है; एक-एक पल सांझ निकट आती है। जिस व्यक्ति को यह ठीक-ठीक दिखाई पड़ जाता है, उसी के जीवन में परमात्मा की खोज शुरू होती है।
जो सोया-सोया सा जीता है, अपने सपनों में खोया-खोया सा, और जिसे जीवन के इस विराट तथ्य का कोई अनुभव नहीं होता कि जीवन हाथ से जा रहा है; कोई उपाय इसे रोक रखने का नहीं है। धीरे-धीरे यह दिन लेगा ही...। धीरे-धीरे लता है, लेकिन लता निश्चित है। इसे पकड़ रखने में कोई कभी समर्थ नहीं हुआ।
समय पर मुट्ठी नहीं बांधी जा सकती। समय कोई वस्तु नहीं है कि हम उसे बचा लें। और मौत कुछ ऐसी बात नहीं कि जो भविष्य में घटने वाली हो। जो वस्तुतः तो जन्म के साथ ही घट गई है। जो पैदा हुआ, वह मरेगा।
मृत्यु का जिसे ठीक-ठीक स्मरण हो जाए, जिसकी छाती में यह तीर साफ-साफ चुभने लगे, कि मौत आती है, कि हमारे कुछ भी किए से मौत रुकेगी नहीं। कमाओ धन, पद, प्रतिष्ठा, सब धूल में पड़ा रह जाएगा।
इस जीवन में, जहां मौत घटने ही वाली है, सार को पाने का कोई उपाय नहीं है। समय के भीतर सार का कोई अस्तित्व नहीं है। परमात्मा की खोज का अर्थ हैः उसकी खोज जो कालातीत है, जो समय के बाहर है। उसकी खोज ही खोज है। उसका पाना ही पाना है। क्योंकि उसे जिसने पा लिया, फिर कुछ छिनेगा नहीं; फिर कुछ खोएगा नहीं। इसलिए संत उसे ही संपदा कहते हैं। संसार को विपदा; प्रभु-अनुभव को संपदा।
तुम जिसे संपत्ति कहते हो, उसे संतों ने विपत्ति कहा है। और जिस संपत्ति की तुमने कभी कामना ही नहीं की, उसको संपत्ति कहा है।
तुम्हारे मन में स्वप्न भी नहीं उठा अभी, अभी तरंग भी नहीं उठी कि खोजें सत्य को-जो सदा रहेगा। जो खो जाएगा, उसकी खोज में मत गंवाओ क्षण। एक तो पा न सकोगे, और पा भी लिया तो खो जाएगा। हर हाल असफलता है।
सफलता संसार में होती ही नहीं। अब तक संसार में कोई सफल नहीं हुआ। जो विफल हुए-विफल हुए। जो सफल हुए, उनकी विफलता कुछ कम है?
महान सिकंदर ने दुनिया को जीत लिया, पर हाथ क्या लगा? मरते वक्त सिकंदर ने कहा था, ‘मेरी अरथी के बाहर मेरे दोनों हाथ लटके रहने देना।’ उसके वजीरों ने पूछा, ‘किसलिए? अरथी ऐसे तो निकाली कभी नहीं गई कि हाथ बाहर लटके रहें!’ सिकंदर ने कहा, ‘इसलिए ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं।’
सिकंदर भी खाली हाथ और भिखारी भी खाली हाथ? फिर कौन सफल है और कौन असफल है? इसलिए मैं तुमसे कहता हूंः विफलता तो विफलता है ही; सफलता से बड़ी कोई विफलता नहीं।
इस संसार में सफल होने का उपाय ही नहीं। इस संसार में जीना ऐसे ही है, जैसे कोई पानी पर लकीरें खींचे। तुम खींच भी नहीं पाते कि मिट जाती हैं। यहां कुछ ठहरता नहीं। और जहां कुछ भी न ठहरता हो, क्या उसी में सारा समय गंवा दोगे?
दिन तो ला जाता है, कब सांझ आ जाएगी, कुछ पता नहीं। इसके पहले कि सांझ आ जाए, उसे जान लो जहां न सांझ होती है, न सुबह होती है। उसे जान लो, न जन्म है जहां, न मृत्यु है जहां। नहीं सांझ नहीं भोर...!
जहां समय शांत हो गया है, जहां शाश्वत विराजमान है, वही संपदा है।
चरणदास कहते हैंः
किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
किसू काम के थे नहीं...।
किस काम के हो? हो तो बिना किसी काम के। लेकिन झूठे भ्रम पाल रखे हैं।
हर आदमी यहां ऐसे जीता है, जैसे उसके बिना दुनिया चल ही न सकेगी। ऐसे भ्रांति पाल लेता है कि मैं बड़े काम का हूं। मेरे बिना क्या होगा? इस भ्रांति के लिए तुम अपने आस-पास प्रमाण भी जुटा लेते हो। मगर तुम्हें पता हैः तुम नहीं थे, तब भी दुनिया चल रही थी, और मजे से चल रही थी। तुम नहीं होओगे, तब भी ऐसी ही चलती रहेगी। किसी के आने न जाने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारा होना न होना बराबर है। फर्क तो तभी पड़ेगा, जब तुम्हारे होने में परमात्मा का होना सम्मिलित हो जाए। अकेले तो तुम खाली हो; परमात्मा से जुड़ जाओ, तो भर जाओ।
किसू काम के थे नहीं...
क्या काम के थे-चरणदास कहते हैं? किसी मतलब के न थे। दो कौड़ी भी मूल्य न था।
तुम्हारे पास जो है, वह चरणदास के पास भी था। ख्याल रखना। सुंदर देह थी, स्वस्थ देह थी; संपन्न परिवार में पैदा हुए थे; धन-दौलत थी; पद-प्रतिष्ठा थी; फैला हुआ व्यवसाय था। तुम्हारे पास जो है, सब चरणदास के पास था। जैसी तुम्हारी आकांक्षाएं हैं, उनकी भी आकांक्षाएं थीं। दुनिया को जीत लेने की उनकी भी कामना थी।
उनका पूर्व नाम था-रणजीतसिंह। दुनिया को जीतने की भावना रही होगी। पिता के मन में रही होगी कि मेरा बेटा दुनिया को जीते। यह तो गुरु ने सब बात बदल दी। रणजीतसिंह को चरणदास बना दिया। जीतने चले थे-चरणों का दास बना दिया! सारी दुनिया को चरणों में झुकाने चले थे; गुरु की कृपा से सारी दुनिया के चरणों में झुक गए। सब कहानी बदल दी।
सब था, लेकिन चरणदास कहते हैंः
किसू काम के थे नहीं...
काम के तुम हो ही नहीं, जब तक तुम राम के नहीं हो। राम के हुए कि काम के हुए। राम के बिना बेकाम हो।
तुम्हारे भीतर हजार-हजार कामनाएं हैं, लेकिन काम के तुम बिल्कुल नहीं। एक राम के साथ संग जुड़ जाता है, तो जीवन में अर्थ आता है।
आज की दुनिया में तो जो सर्वाधिक चर्चित शब्द है, वह हैः अर्थहीनता, मीनिंगलेसनेस। सारी दुनिया के विचारशील लोग सोचते हैं कि जीवन में अर्थ क्या? सदा से सोचा है। लेकिन इस सदी में आकर तो बात बड़ी गहरी हो गई। अनेकों को लगता है, कोई अर्थ नहीं है।
कल ही किसी ने प्रश्न पूछा था कि जीवन में अर्थ क्या है? क्यों जीएं? किसलिए जीएं? जीवन में सार क्या है? और प्रश्न को एकदम टाला नहीं जा सकता। प्रश्न अर्थपूर्ण है।
वस्तुतः जीवन में सार नहीं है। वस्तुतः जीवन में अर्थ नहीं है। जैसा जीवन तुम जीते हो, वह किसी भी तो काम का नहीं है। राख ही राख है। इस राख के ढेर में तुम कितना ही उपाय करते रहो, हीरे-जवाहरात मिलने वाले नहीं हैं। वहां हैं ही नहीं तो मिलेंगे कैसे? तो प्रश्न तो ठीक ही है।
जो भी थोड़ा सोचेगा, उसके मन में उठेगा। रोज सुबह उठ आना; वही दुकान, वही बाजार, वही दफ्तर, वही दौड़धाप, वही आपाधापी। फिर थके-मांदे सांझ को घर आकर सो जाना। फिर सुबह वही दौड़ है!
कोल्हू के बैल में और तुममें फर्क क्या है?
अर्थ कहां है? और इस तरह कोल्हू के बैल की तरह जुते-जुते चलते-चलते एक दिन गिर जाओगे राह में। मुख में धूल रह जाएगी, धूल का स्वाद रह जाएगा। थे भी कभी या नहीं थे; कहीं कोई चिह्न न छूट जाएंगे।
तो सवाल तो उठता ही है समझदार को कि जीवन का अर्थ क्या है?
पश्चिम में बहुत विचारक हैं--सात्र्र है, मार्शेल है, जेस्पर है, जो कहते हैं कि कोई अर्थ नहीं है। सात्र्र का प्रसिद्ध वचन है कि जीवन मनुष्य का, एक व्यर्थ कहानी है। मैन इ.ज ए यू.जलेस पैशन। फोकट की धूम-धाम, व्यर्थ का शोरगुल; सार कुछ भी नहीं, अर्थ कुछ भी नहीं। पागल की बकवास। उन्माद में बके गए शब्द, जिनमें से कुछ अर्थ न निकाल सकोगे। और इसके लिए उनके पास प्रमाण भी काफी हैं। तुम सब प्रमाण हो। सारा जगत प्रमाण है।
सात्र्र की बात को सिद्ध करने के लिए कोई तर्क की जरूरत नहीं है। आंख खोलो, सब तरफ तुम्हें लोग दिखाई पड़ेंगे।
शोरगुल मचा है। लोग भागे जा रहे हैं। पूछो, कहां? -उनको पता नहीं। क्यों? -उनको पता नहीं। कहां से आते हो? --उनको पता नहीं। ऐसी अर्थहीन दौड़-धूप, और पसीने-पसीने हुए जा रहे हैं। लहू बहा रहे हैं, लहू को पानी कर रहे हैं, और बड़े सिर पटक रहे हैं। और बड़े संघर्ष में जूझे हैं एक दूसरे से। और सब अंततः कब्र में गिर जाएंगे। और मिट्टी-मिट्टी में मिल कर एक हो जाएगी। और खूब दौड़े, और खूब परेशान हुए।
जब जिंदगी थी तो सिवाय परेशानी के और कुछ न हुआ। बेचैनी और तनाव...। नींद भी न ले सके चैन से। एक क्षण विश्राम का भी न था।
तो प्रमाण तो सात्र्र को खोजने की जरूरत नहीं; तुम सब प्रमाण हो, सारा जगत प्रमाण है। लेकिन फिर भी सात्र्र की बात सही नहीं है। क्योंकि सात्र्र को राम का कोई पता नहीं है। राम के बिना अर्थ होता नहीं। ‘नहीं राम बिन ठांव!’
बिना राम के जीवन में ठिकाना नहीं मिलता। बिना राम के जीवन में विश्राम नहीं मिलता। बिना राम के जीवन में शरण-स्थल नहीं मिलता।
तो जिस मित्र ने कल पूछा था कि जीवन में अर्थ क्या है? उनसे मैं कहना चाहूंगाः जीवन में अर्थ बना-बनाया नहीं मिलता, रेडीमेड नहीं मिलता। रेडीमेड मिलता, तो दो कौड़ी का होता। जीवन में अर्थ निर्मित करना होता है। निर्मित करोगे, तो पाओगे। अर्थ वहां पड़ा नहीं है कि गए और उठा लिया। भीतर अपनी अंतरात्मा में जगाना होगा अर्थ; ालना होगा प्राणों के प्राण में, हृदय की धड़कनों में समाना होगा अर्थ को।
अर्थ एक गीत है; तुम गाओगे, तो गाया जा सकेगा। अर्थ एक नृत्य है; तुम नाचोगे, तो नाचा जा सकेगा। अर्थ एक उत्सव है; तुम तैयारी करोगे, तो फलित होगा।
अर्थ पड़ा नहीं है; मुफ्त नहीं है। गए और उठा लिया राह के किनारे, ऐसा नहीं है। अर्थ दुर्घटनावश नहीं मिल जाएगा, संयोगवश नहीं मिल जाएगा। अर्थ सृजन है; तुम जन्माओगे तो जन्मेगा। तुम्हें अर्थ को जन्म देना पड़ेगा। तुम्हें अर्थ को अपने गर्भ में रखना पड़ेगा। उसको ही संतों ने सुधि कहा हैः अर्थ को गर्भ में रखने को।
उसकी याददाश्त को ऐसे सम्हालना होगा, जैसे गर्भवती स्त्री अपने पेट में भविष्य की संभावना को सम्हालती है।
तुमने देखाः गर्भवती स्त्री कैसे चलती है-सम्हल-सम्हल, फूंक-फूंक कर। बड़ी जिम्मेवारी है। अकेली नहीं है, एक नये जीवन का उदभव हो रहा है। कुछ जन्मने को है। जैसे-जैसे प्रसव के दिन करीब आने लगते हैं, प्रसूता उतनी ही सम्हल कर चलने लगती है।
तुमने ख्याल कियाः गर्भवती स्त्री के चेहरे पर एक दीप्ति आ जाती है। स्त्री उतनी सुंदर कभी नहीं होती। एक भीतर जैसे जीवन का नया दीया जल रहा है; जैसे दो आत्माओं ने एक घर में वास किया है। ज्योति बहुत ब. जाती है।
गर्भवती स्त्री के चेहरे पर एक नई कोमलता, एक नया प्रसाद आ जाता है। भविष्य झलकने लगता है। नया फूल खिलने को है, उसकी गंध उड़ने लगती है। ऐसी ही दशा उसकी हो जाती है-बहुत बड़े अर्थों में, हजार गुनी ज्यादा-जिसके भीतर राम की याद...! जो राम की याद में भर गया; जिसने राम को अपने गर्भ में ले लिया; जो उसे अपने पेट में सम्हालने लगता है। तब अर्थ पैदा होता है।
अर्थ राम की छाया है--प्रभु-स्मरण की छाया है।
समय में अर्थ हो ही नहीं सकता, जब तक कि तुम शाश्वत की किरण को समय में न उतार लाओ। जब तक तुम्हारे समय के अंधकार में शाश्वत की ज्योति न उतर आए, तब तक अर्थ नहीं हो सकता। और शाश्वत भी है, और समय भी है; और दोनों बिल्कुल पास-पास हैं।
देह भी हो तुम, और आत्मा भी हो तुम; और दोनों बिल्कुल पास-पास हैं, पड़ोसी हैं। अब तुम्हारे ऊपर निर्भर है। अगर देह पर ही ध्यान रखा, तो जीवन में कभी कोई अर्थ पैदा न होगा। अगर आत्मा पर ध्यान गया, तो अर्थ की वर्षा हो जाएगी। जैसे आषा. में बादल घिर जाते हैं, धूप-ताप में तपी धरती, प्यासी धरती का हृदय उमगने लगता है। आषा. के बादल घिर गए...! ऐसी ही तुम्हारी दशा हो जाएगी; अर्थ के बादल तुम्हारे भीतर घिरेंगे। और जन्मों-जन्मों की सूखी पड़ी धरती आशा कर सकती है फिर कि अब वर्षा होने को है-अब होने को है, तब होने को है। और वर्षा होती है।
जो इस राम की वर्षा में नहा गए, उन्हीं को हम संत कहते हैं। जो राम की वर्षा के बिना रह गए...।
किसू काम के थे नहीं...।
जी भी लिए और जीए भी नहीं। चल भी लिए और कहीं पहुंचे भी नहीं। उपद्रव तो बहुत किया, लेकिन उत्सव नहीं हो सका।
सात्र्र ठीक है। हजार आदमियों में नौ सौ निन्यानबे आदमियों के संबंध में ठीक है। मगर वह जो एक आदमी बाकी रह जाता है-कोई बुद्ध, कोई नानक, कोई कृष्ण, कोई मोहम्मद, कोई चरणदास, कोई कबीर-वह जो एक आदमी बाकी रह जाता है, वही असली आदमी है। वे जो नौ सौ निन्यानबे आदमी हैं, नाममात्र को आदमी हैं। उनकी गिनती करना ही मत। उनसे कुछ हिसाब मत लगाना। वे अभी आदमी हुए कहां?
जिनके जीवन में अर्थ ही नहीं है, उनको आदमी कहने से प्रयोजन क्या है? उनमें और पशु में भेद क्या है? इसलिए शास्त्र तो कहते हैंः सभी लोग सिर्फ दिखाई पड़ते हैं कि मनुष्य हैं, हैं तो पशु।
इस पशुता से जब कोई मुक्त हो जाता है, तो मनुष्य का जन्म होता है। और पशुता से मुक्त कैसे होओगे? राम के सहारे के बिना कोई कभी हुआ नहीं।
जहां तुम खड़े हो, इससे पार जाना हो, तो पार की याद तो करनी पड़े। जहां तुम पड़े हो, उससे पार उठना हो, तो कम से कम आंख तो आकाश की तरफ उठानी पड़े।
सारे जगत में सदियों-सदियों में, अलग-अलग सभ्यताओं में, अलग-अलग संस्कृतियों में परमात्मा की अलग-अलग धारणा रही है। लेकिन सभी धारणाओं में एक बात सदा से रही है कि जब भी आदमी ने परमात्मा को याद किया, तो आकाश की तरफ आंखें उठाईं। आकाश में कोई परमात्मा नहीं बैठा है। वह सिर्फ प्रतीक है-पार की तरफ आंख उठाने का, दूर की तरफ आंख उठाने का। वह जो अनंत फैला है आकाश, ऐसा ही परमात्मा है।
तुम अपने छोटे से कुएं से निकल न सकोगे, अगर तुमने आंखें आकाश की तरफ न उठाईं। तो कुएं में ही दबे-दबे मर जाओगे। तुम्हें पता ही न चलेगा कि आकाश भी था। और अधिक लोग उस मेंक की तरह ही व्यवहार करते हैं...।
ईसप की कहानी तुमने सुनी होगी।
समुद्र का एक मेक तीर्थ-यात्रा को निकला होगा। राह थक गई, थका-मांदा है; एक कुएं में विश्राम करने को रुका। कुएं के मेक ने बड़ा स्वागत भी किया और कहा, ‘मित्र, कहां से आते हो? ’ उसने कहा, ‘सागर से।’ कुएं के मेक ने कहा, ‘सागर? सागर यानी क्या? सागर कहां है? कितना बड़ा है? ’ कुएं के मेक ने तो कभी कुएं के बाहर जाकर देखा नहीं। उसकी तो सारी दुनिया वहीं सीमित है, उस छोटे से घेरे में।
सहायता देने को...क्योंकि सागर वाला मेंक कुछ चुप ही रह गया; कुछ उत्तर न खोज पाया; कुछ ठगा सा रह गया-अवाक! उसकी सहायता के लिए कुएं का मेंक चैथाई कुएं में छलांग लगाया और कहा, ‘इतना बड़ा है सागर? ’ सागर के मेक ने कहा, ‘नहीं, नहीं।’
तो कुएं के मेंक ने आधे कुएं तक छलांग लगाई और कहा, ‘इतना बड़ा है सागर? ’ सागर के मेंक ने कहा, ‘क्षमा करो। समझाना कठिन है। तुम कुएं के कभी बाहर गए हो? ’ कुएं के मेक ने कहा, ‘कुएं के बाहर कुछ है भी? जाने योग्य रखा क्या है? जो है-यहां है। सब सुख यहां है। सब सार यहां है।’ उसने तीन-चैथाई कुएं की छलांग लगाई और कहा, ‘इतना बड़ा है? ’ लेकिन अब भी ना की आवाज सुन कर, वह थोड़ा नाराज हुआ। उसने पूरे कुएं का एक चक्कर लगाया और कहा, ‘इतना बड़ा है? ’
लेकिन जब सागर के मेक ने कहा कि ‘नहीं मित्र, तुम्हारे कुएं से कोई तुलना नहीं की जा सकती। सागर इतना बड़ा है कि भेद परिमाण का ही नहीं है, गुण का है। ऐसे नहीं कह सकता कि इतना बड़ा है, कि इससे हजार गुना बड़ा है, कि करोड़ गुना बड़ा है। कितना ही गुना कहूं, सागर बहुत बड़ा है।’
कुएं के मेक ने कहा, ‘अच्छा, बाहर निकलो। रास्ता पकड़ो। झूठे कहीं के! यह शिष्टाचार है कि मैंने तुम्हें अपने घर में मेहमान बनाया और तुम मेरे घर की निंदा कर रहे हो! आतिथेय की--अतिथि होकर-निंदा कर रहे हो? निकलो बाहर, रास्ता पकड़ो अपना। कुएं से बड़ी कोई चीज दुनिया में नहीं है।’
जो जहां रहता है, उससे बड़ी कोई चीज मानना नहीं चाहता। तुम अपनी दुकान से बड़ी चीज मानना चाहते हो? तुम अपने घर से बड़ी चीज मानना चाहते हो? तुम अपनी खोपड़ी से बड़ी चीज मानना चाहते हो? तुम अपने से बड़ी चीज मानना चाहते हो? और जब तक तुम अपने से बड़े की तरफ आंख न उठाओ, प्रभु की खोज शुरू नहीं होती। प्रभु विराट है, विभु है। और हम सब कुओं में बंद हैं।
यह कुएं के मेंक की कहानी तुम्हारी कहानी है। और फिर एक दिन तुम्हें लगे कि कोई सार नहीं जीवन में, तो जिम्मेवार किसी और को मत ठहराना। सार तो बहुत था, लेकिन कुएं के बाहर निकलना जरूरी था।
सार विराट में है, विराट के संदर्भ में है। क्षुद्र में कहां सार? सार पूर्ण में है। खंड में कहां सार? सार समग्र के संगीत में है।
तो अर्थ पैदा करना होगा। और अर्थ के पैदा करने का पहला कदम हैः आंख उठानी होगी आकाश की तरफ; ऊध्र्वगामी आंख। ऊपर की तरफ देखती आंख। अपने से बड़े की तरफ देखती आंख। बड़े को देखने में ही आदमी बड़ा होने लगता है।
चरणदास कहते हैंः किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।
ऐसी अवस्था थी कि एक कौड़ी में भी न बिकती अपनी देह। है भी क्या देह का मूल्य?
आदमी की देह इस जगत में सबसे ज्यादा मूल्यहीन देह मालूम पड़ती है! हाथी मरता है तो सब चीजें काम आ जाती हैं, बिक जाती हैं। जिंदा जितने काम का था, उससे कहीं मर कर ज्यादा काम का हो जाता है।
शेर मरता है, खाल बिक जाती है। आदमी मरता है, कुछ भी नहीं बचता बिकने योग्य। एक कौड़ी भी नहीं मिलती। घर के लोग भी जल्दी करने लगते हैं कि चलो मरघट। पास-पड़ोस के लोग अरथी सजाने लगते हैं! क्योंकि घड़ी भर देर करो तो बदबू उठेगी। दिन-दो दिन लाश रुक जाए तो जिस देह में बड़ा सुख जाना था, देह में रहने वाले ने, और पास-पड़ोस संगी-साथियों ने भी, वे सभी तिलमिला उठेंगे। दुर्गंध बहुत उठेगी; जीना दूभर हो जाएगा। इस लाश को जल्दी निपटाना होता है। फिर तुम कुछ भी करो-गड़ाओ, जलाओ, मगर इसे जल्दी समाप्त करो। इससे छुटकारा पाओ।
आदमी की देह दो कौड़ी की भी नहीं है।
जब तक तुम देह में हो, तब तक तुम्हारा मूल्य दो कौड़ी का भी नहीं है। और मजा ऐसा है कि इसी देह में छिपा पड़ा है-अमृत का खजाना, स्वर्ग का राज्य। जरा दृष्टि बदले तो तुम अमोलक हो जाओ।
कहते हैं चरणदाः
किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
अमूल्य हो गई देह। यह कौन सी देह है, जो अमूल्य है? यह दिखाई पड़ने वाली देह नहीं। इस देह में ही छिपा हुआ अदृश्य है कुछ-वही तुम हो। तत्वमसि-वही तुम हो, वही तुम्हारा असली होना है।
तुम्हारी हालत ऐसी है, जैसे दीये में ज्योति जलती है और ज्योति दीया नहीं है। मिट्टी का दीया-ज्योति कहां है? ज्योति तेल भी नहीं है। ज्योति बाती भी नहीं है। यद्यपि बाती, तेल और दीये के बिना सहारे के ज्योति यहां प्रकट न हो सकेगी, यह सच है। लेकिन ज्योति तो कुछ और है--न बाती, न तेल, न दीया। अगर ज्योति अपने को दीया मान ले, तो दो कौड़ी की हो गई। फिर दीए का जितना मूल्य है, उतना ही मूल्य हो गया। दीए का मूल्य क्या है? ऐसी ही दशा आदमी की है।
तुम्हारे भीतर एक ज्योति है चैतन्य की, इसके लिए प्रमाण की तो जरूरत ही नहीं है! तुम भलीभांति जानते हो कि तुम हो। इस दुनिया में एक ही तथ्य तो ऐसा है, जो अनुभव सिद्ध है-कि मैं हूं!
पश्चिम में एक विचारक हुआ--देकार्त। वह चाहता था अपने दर्शनशास्त्र को किसी बहुत सुनिश्चित भित्ति पर आरोपित करना। ऐसी भित्ति पर, जो कभी डिगाई न जा सके। सोचाः परमात्मा पर रखूं अपने दर्शनशास्त्र की नींव। लेकिन परमात्मा पर तो संदेह उठाने वाले लोग हैं। और जो संदेह नहीं उठाते, वे भी अब तक सिद्ध नहीं कर पाए कि-है।
सिद्ध किया जाता रहा, असिद्ध किया जाता रहा। और तर्क करीब-करीब बराबर रहे। कोई विजेता हुआ नहीं; निष्पत्ति कुछ निकल नहीं सकी है।
दर्शनशास्त्र के पांच हजार साल की खोज-बीन, कोई परिणाम हाथ में नहीं आया है। जितने तर्क पक्ष में हैं, उतने ही विपक्ष में हैं। तो तुम्हें जो मानना हो मान लो, लेकिन तर्कगत रूप से न तो मानने का उपाय है, न न-मानने का उपाय है। कुछ भी निर्णय नहीं हुआ है। कहानी अधूरी है। और लगता भी नहीं कि पूरी हो सकेगी।
तो फिर किस बात पर...? पदार्थ पर रखी जाए नींव? परमात्मा छोड़ो--अदृश्य है, दिखाई भी नहीं पड़ता। किसी ने कभी देखा या नहीं-यह भी भरोसे की बात है। मान लो तो ठीक। कौन जाने बुद्ध भ्रम में पड़ गए हों? और कौन जाने कबीर धोखा दे रहे हों? कौन जाने चरणदास को सपना आ गया हो भगवान का और सोचा होः है?
बाहर से जानने का उपाय भी तो नहीं है। कोई कसने की व्यवस्था भी नहीं, कोई कसौटी भी नहीं।
तो परमात्मा को छोड़ो, सोचा देकार्त ने। पदार्थ पर भित्ती रखो। लेकिन चकित होकर उसे स्वीकार करना पड़ा कि पदार्थ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता है। परमात्मा तो सिद्ध किया ही नहीं जा सकता, पदार्थ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता।
दार्शनिक अर्थों में--पदार्थ भी है--हम कुछ पक्के रूप से नहीं कह सकते। क्योंकि रात सपने में तुम चीजें देखते हो और सुबह उठ कर पाते हो कि नहीं हैं। तो कौन जाने दिन में सपना देखते हो? रात सो जाते हो, तब दिन का सपना खो जाता है। रात अपने घर में सोते हो, घर भूल जाता है। रात भर घर की याद नहीं आती। रात भर न मालूम किन महलों में निवास करते हो; न मालूम किन पहाड़ों पर यात्राएं करते हो; न मालूम किन चांद-तारों में भटकते हो; तब वे सच हो जाते हैं। सुबह उठ कर आंख खुलती है, वे सब चांद-तारे झूठ हो गए; वे महल झूठ हो गए। यह घर फिर सच हो जाता है।
कौन जाने क्या सच है?
च्वांगत्सु का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि मैं रात सोया और सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं। फिर सुबह उठ कर मुझे विचार आने लगा कि बड़ी मुश्किल हो गई। अब पता नहीं, सच क्या है?
च्वांगत्सु सोचने लगाः रात मैंने सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं। अब यह हो सकता है, तितली सो गई हो और सपना देखती हो कि च्वांगत्सु हो गई! जब पहली बात सच हो सकती है, तो दूसरी भी हो सकती है। अगर च्वांगत्सु सपने में तितली हो सकता है, तो अड़चन क्या है, तितली सपने में च्वांगत्सु हो जाए!
क्या पताः जब तितली सो जाती है तुम्हारे बगीचे में तो क्या सपना देखती है? शायद सपना देखती होः आदमी हो गई है। तुम तितली होने का सपना देख लेते हो, तो तितली को क्या बाधा है? क्या अड़चन है?
च्वांगत्सु ठीक कह रहा है।
देकार्त को लगाः पदार्थ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। क्योंकि हम अपने भीतर से कभी बाहर तो गए नहीं। तुम भीतर ही हो, तुम सदा भीतर हो। बाहर से खबर आती है कि पदार्थ है। यह दीवाल, यह खंभा, यह वृक्ष, यह लोग...। मगर ऐसा ही तो सपने में होता है। खंभे होते हैं, दीवाल होती है, लोग होते हैं, वृक्ष होते हैं, और सुबह पाया जाता है, कुछ भी न था!
कौन जाने एक दिन मौत में जब हम जागेंगे, तो हम पाएं कि यहां जो देखा था, सब एक लंबा सपना था। सपना सात मिनट चले कि सत्तर वर्ष--इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई लंबा होने से सपना सच थोड़े ही हो जाएगा। रात भर देखा एक सपना-आठ घंटे देखा-तो भी सच नहीं होता। सपना-सपना है। लंबाई से क्या फर्क पड़ेगा? कौन निर्णय करे? कैसे निर्णय करे?
तो पदार्थ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता।
फिर कभी-कभी जागते में धोखा हो जाता है। रास्ते पर रस्सी पड़ी होती है-दिन की रोशनी में-और तुम डर जाते हो कि सांप है। भाग खड़े होते हो। भागने में गिर पड़ते; हाथ-पैर तोड़ लेते हो। प्लास्टर बंधवाना पड़ता है। और वहां कोई था ही नहीं; वहां रस्सी पड़ी थी।
कभी दिन के जागते में धोखा हो जाता है।
तो जहां धोखे की संभावना है, जहां इंद्रियां धोखा दे सकती हैं, जहां आंख ऐसी चीज देख सकती है-जो नहीं है...। और सांप के ही साथ ऐसा नहीं है, रस्सी के ही साथ नहीं है। तुमने जितनी चीजें देखी हैं-सभी ऐसी हैं।
एक दिन देखा कि स्त्री बहुत सुंदर थी। उसके मोह में पड़ गए, उसके प्रेम में पड़ गए; उससे विवाह कर लिया। और चार दिन में पाते हो कि कुछ भी सौंदर्य नहीं है। था-जब देखा था, तब था? अब संदेह होगा कि शायद धोखा हो गया। शायद मन ने देख लिया--जो नहीं था; सोच लिया--जो नहीं था। अब तो नहीं है। और अब भी किसी और को तुम्हारी पत्नी में सौंदर्य दिखाई पड़ सकता है; तुम्हें न दिखाई पड़ता हो।
एक दिन लगता हैः धन में सब कुछ है। किसको नहीं लगता? धन की भाषा सभी को आकर्षित करती है। और एक दिन धन पाकर पता चलता है कि कुछ हाथ नहीं आया; दौड़-धूप में जिंदगी गंवा दी और ये ठीकरे हाथ लगे। नहीं तो महावीर छोड़ कर न चले जाते। नहीं तो बुद्ध सिंहासन का त्याग न कर देते।
एक दिन लगा कि कुछ भी नहीं है। तो फिर धोखा हुआ था? और इससे उलटी हालत भी है।
एक जैन मुनि ने मुझे पूछा कि ‘मुझे चालीस साल हो गए घर छोड़े, और अब मुझे शक होता है कि मैंने छोड़ कर ठीक किया कि नहीं? पता नहीं सुख वहीं हो? यहां तो नहीं मिला।’
धन पाने वाला धन पा लेता है और अनुभव करता है कि सुख यहां मिला नहीं, शायद जंगल में हो। और जो जंगल में भटकता रहा है, वह चालीस साल बाद अब मरने के करीब सोच रहा है कि भूल तो नहीं हो गई? अब कोई उपाय भी नहीं है फिर जवान होने का, फिर संसार में दौड़ने का। अब तो मौत करीब आ रही है। लेकिन शक उठता है कि पता नहीं, मैंने जो जीवन का विकल्प चुना था, वह ठीक था या नहीं?
पदार्थ के संबंध में भी सच नहीं हुआ जा सकता, निर्णीत नहीं हुआ जा सकता।
तो फिर क्या करें? देकार्त सोचने लगाः किस बुनियाद पर रखूं अपने दर्शन का भवन? किस पर खड़ा करूं? और तब उसने एक सत्य खोजा। वह सत्य मैं हूं। इस पर संदेह नहीं किया जा सकता, यह एक असंदिग्ध सत्य है कि--मैं हूं। कोजीटो इरगो सूं--मैं हूं, यह एक सत्य है, जिस पर संदेह नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि इस पर संदेह करने के लिए भी मुझे होना पड़ेगा, इसलिए इस पर संदेह नहीं हो सकता। अगर मैं कहूंः मैं नहीं हूं, तो भी मुझे तो होना ही पड़ेगा। ‘नहीं’ कहने के लिए भी होना पड़ेगा।
तुमने प्रसिद्ध कहानी सुनी?
मुल्ला कॉफी हाउस में बैठा था। मित्रों ने जोश च.ा दिया कि ‘मुल्ला, तुम सदा डींग मारते हो-अपनी दान की, दया की। मगर कभी भोजन तक के लिए हमें घर नहीं बुलाया!’
मुल्ला ने कहा, ‘सभी चलो, उठो। पूरा कॉफी-घर चले।’
तीस-पैंतीस आदमियों का जत्था मुल्ला के साथ हो लिया।
पहले तो मुल्ला अकड़ा रहा, लेकिन जैसे-जैसे घर करीब आया...। जैसे सभी की अकड़ घर के करीब कम हो जाती है, उसकी भी होने लगी।
दरवाजे पर उसने कहा, ‘भाइयों, चुपचाप रहो। पहले...। अब तुम तो जानते ही हो; सब घर-द्वार वाले हो; तुम्हारी भी पत्नी है। तुम समझते ही हो, पत्नियों का मामला। मैं जरा अंदर जाकर उसे राजी कर लूं। अचानक पैंतीस आदमी देख कर एकदम बिफर जाएगी!’
सबकी समझ में बात आई। उन्होंने कहा, ‘हम रुकते हैं; अंदर जाकर तुम समझा-बुझा लो।’
मुल्ला अंदर गया, सो बाहर निकला न। घड़ी बीती, दो घड़ी बीती। आखिर लोगों ने दरवाजा पीटा।
मुल्ला ने अपनी पत्नी से कहा कि ‘मुझसे भूल हो गई, बड़ी भूल हो गई। कह गया जोश में, तेरी याद न रही। तू जाकर उनको कह दे कि मुल्ला घर में नहीं है।’ पत्नी ने कहा, ‘वे मानेंगे? ’ उसने कहा, ‘तू फिकर न कर। तू कहना कि वे घर में हैं ही नहीं। जिद्द पड़ जाना कि हैं ही नहीं घर में। बात खतम।’
पत्नी बाहर आई, उसने लोगों से पूछा कि ‘क्या चाहते हो? ’ उन्होंने कहा कि ‘मुल्ला नसरुद्दीन...!’ पत्नी ने कहा, ‘वे तो घर में हैं ही नहीं। वे तो आज दिन भर से घर में नहीं हैं।’
लोगों ने कहा, ‘अरे! यह भी खूब रही! हमने अपनी आंखों से उन्हें भीतर जाते देखा। हमारे साथ ही आए, हमको लिवा कर आए। अभी बाहर भी नहीं निकले।’
वे पत्नी से वाद-विवाद करने लगे। अब अपनी पत्नी हो तो आदमी वाद-विवाद नहीं करता; दूसरे की पत्नी में क्या अड़चन! वे वाद-विवाद करने लगे। उन्होंने कहा, ‘नहीं, वह घर में होना ही चाहिए। यह तो धोखा-धड़ी हो रही है। वह हमको निमंत्रण देकर आए कि भोजन आज यहीं होगा। और हम अपने घर भी नहीं गए। अब तो आधी रात भी हुई जा रही है, हम भूखे भी हैं।’
मुल्ला ने देखा कि विवाद ब.ता जा रहा है; पत्नी हारती सी लगती है; कुछ झेंपती सी लगती है कि अब क्या करें। तो मुल्ला एकदम ऊपर की खिड़की खोल कर नीचे झांका और कहा कि ‘जब हजार दफे वह कह रही है कि वे घर में नहीं हैं, तो नहीं होंगे। तुम्हें शर्म नहीं आती पराई स्त्री से विवाद करते? मेरी स्त्री कभी झूठ नहीं बोलती। फिर यह भी हो सकता है कि वह बाहर के दरवाजे से आए हों और पीछे के दरवाजे से चले गए हों!’ अब यह मुल्ला खुद ही बोल रहा है!
तुम यह नहीं कह सकते कि ‘मैं घर में नहीं हूं।’ यह वक्तव्य झूठा होगा। यह अपने आप ही अपना खंडन हो जाएगा। तुम यह नहीं कह सकते कि ‘मैं घर में नहीं हूं।’ यह कहने के लिए भी तुम्हारा होना जरूरी होगा।
तो एक तत्व ऐसा है--मैं, मेरा होना, आत्म-भाव--जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता। क्योंकि संदेह से भी वही सिद्ध होता है। यह निःसंदिग्ध तत्व है। इस निःसंदिग्ध को जानते ही आदमी अमोलक हो जाता है। लेकिन गुरु-कृपा के बिना कैसे हो?
कहते हैं चरणदासः
किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
कृपा-तत्व को थोड़ा समझो, और गुरु-तत्व को भी।
गुरु का अर्थ होता है वह, जिसने अमोलक को पा लिया। अमोलक तो तुम्हारे भीतर भी है। तुम में और गुरु में फर्क अमोलक तत्व की कमी ज्यादती का नहीं है। ऐसा नहीं कि गुरु के पास अमोलक हीरा है और तुम्हारे पास नहीं। ऐसा फर्क नहीं है। फर्क इतना ही है कि उसे पता है और तुम्हें पता नहीं है।
तुम्हारी जेब में भी कोहिनूर पड़ा है। गुरु ने अपनी जेब टटोल ली और उसे कोहिनूर का पता चल गया। और तुमने अपनी जेब नहीं टटोली है। गुरु और तुम अस्तित्व की दृष्टि से बिल्कुल समान हो, लेकिन बोध की दृष्टि से बड़े भिन्न हो।
और जिसने अपने जेब में पड़े कोहिनूर को टटोल लिया हो, वही तुम्हें भी राजी कर सकता है कि तुम भी जरा टटोलो तो। पहले मैं भी ऐसे ही अंधेरे में भटकता था। पहले ऐसी ही चिंता और ऐसी व्यर्थता मुझे भी घेरे रहती थी। पहले मैं भी ऐसे ही दो कौड़ी का था। कोई तुम से यह कह सके कि पहले मैं भी ऐसे ही दो कौड़ी का था। न कुछ सार था, न कोई संगीत था, न कोई सुख था। जीवन उदास था, खाली-खाली था, रिक्त था। पर एक दिन अपने भीतर हाथ डाला और अमोलक पा लिया।
कोई तुमसे यह कह सके कि मैंने पा लिया, तुम भी जरा अपने भीतर टटोलो। एक बार अपनी गांठ तो खोलो। एक बार अपने भीतर तो जाओ। क्योंकि जैसा मुझे हुआ, वैसे ही तुम्हें भी हो सकता है, तुम भी मनुष्य हो। जैसा मैं मनुष्य हूं, वैसे तुम मनुष्य हो।
गुरु का अर्थ हैः जो तुम जैसा है-ठीक तुम जैसा है, लेकिन बोध आ गया और जानता है कि क्या हूं।
तुम भी जानते हो-मैं हूं। गुरु भी जानता है-मैं हूं। फर्क इतना ही है कि वह जानता है, मैं कौन हूं; तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूं। होने में कोई फर्क नहीं है। होना तो बराबर एक जैसा है। संपत्ति बराबर मिली है। संपत्ति सब को बराबर मिली है। तुम्हारी चेतना जरा लौटे, अपने को देखे...।
तुम दूसरों को देखने में इतने तल्लीन हो कि अपने पर नहीं लौट पाते। तुम बाहर दौड़ने में इतने रस से भरे हो कि भीतर नहीं आ पाते। तुम ‘पर’ में ही उलझे हो कि ‘स्व’ के प्रति नहीं जाग पाते।
गुरु का अर्थ हैः जो स्व के प्रति जाग गया। और स्व के प्रति जो जाग गया, वही तुम्हें जगा सकता है।
गुरु का अर्थ शिक्षक नहीं है। शिक्षक का अर्थ तो होता हैः उसने शास्त्र पढ़े। तुम उससे कुछ प्रश्न पूछो शास्त्रीय, तो जवाब दे देगा; सुसंगत जवाब देगा; शास्त्रयुक्त जवाब देगा। लेकिन जहां तक जागने का संबंध है, वह तुम्हारे जैसा ही सोया हुआ है।
जैसे तुमने सोए-सोए धन कमाया, वैसे सोए-सोए उसने शास्त्र पढ़े। जैसे सोए-सोए तुमने धन कमाया, उसने ज्ञान कमाया। मगर सोने में कोई फर्क नहीं है। सोया वह तुम जैसा ही है।
तुम्हारा ब्राह्मण, तुम्हारा पुरोहित, तुम्हारा मुल्ला, तुम्हारा पादरी-तुम जैसे ही सोए हुए हैं। तुम जैसे ही लोग हैं। फर्क इतना ही है कि उनका व्यवसाय धर्म है। तुम्हारा व्यवसाय कुछ और है, उनका व्यवसाय धर्म है। धर्म उनकी विशेषता है।
कोई आदमी डाक्टर हो गया है--डाक्टरी प.-प. करके। कोई आदमी राज हो गया है--राजगिरी कर-कर के। कोई आदमी कुछ और हो गया है। वे पंडित हो गए हैं। मगर चैतन्य में कोई भेद नहीं है।
गुरु-शिक्षक का नाम नहीं है। इसलिए हमारे पास गुरु शब्द है। दुनिया की किसी भाषा में गुरु शब्द नहीं है। शिक्षक शब्द दुनिया की सभी भाषाओं में है। गुरु अनूठा शब्द है।
गुरु का अर्थ होता हैः जो जाग गया। और जाग कर जिसने अपने जीवन की गुरुता जानी, महत्व जाना। गुरु यानी जिसने गुरुता अनुभव की; जिसके जीवन में सार का उदय हुआ। गुरु तुम जैसा है, लेकिन जागा हुआ; तुम सोए हुए।
गुरु शास्त्र से उत्तर नहीं देता है; गुरु स्वयं से उत्तर देता है। गुरु का अर्थ हैः जो स्वयं शास्त्र है। जो वेद से उत्तर दे-वह पंडित। जो कुरान से उत्तर दे--वह पंडित। जो अपने भीतर के वेद से, अपने भीतर के कुरान से उत्तर दे--वह गुरु। जो स्वयं प्रमाण हो अपने अनुभव का; जो कह सके कि यह मेरा अनुभव है; जो यह न कहे कि ऐसा मैं सोचता हूं कि ईश्वर है। जो कहेः ऐसा मैं जानता हूं कि ईश्वर है। जो यह न कहे कि मेरा विश्वास है कि आत्मा होती है। जो कहे कि मेरा अनुभव है कि आत्मा है। होती है, और विश्वास-यह सब तो सोए हुए आदमियों की बातें हैं। जो कहेः ईश्वर प्रत्यक्ष है...।
रामकृष्ण से किसी ने पूछाः ‘ईश्वर है? ’ रामकृष्ण ने कहा कि ‘तुम हो कि नहीं, इस पर मुझे शक होता है। मगर ईश्वर है, इस पर मुझे शक नहीं होता। तुम धुंधले-धुंधले मालूम पड़ते हो, ईश्वर बहुत प्रगा. रूप से प्रत्यक्ष है।’
जिसने ईश्वर को देखा, उसके लिए सब धुंधला हो ही जाएगा। स्वभावतः जिसने कोहिनूर देख लिया हो-छोटे-मोटे हीरे-जवाहरात फीके हो जाएंगे, कंकड़ पत्थर हो जाएंगे। जिसने उस परम सौंदर्य को देख लिया-इस जगत के सब सौंदर्य फीके हो जाएंगे।
राबिया अपने घर में बैठी थी। एक अदभुत फकीर औरत--रामकृष्ण जैसी औरत। एक दूसरा फकीर हसन उसके घर मेहमान था। सुबह हुई, हसन बाहर निकला। सूरज उगता था, पक्षी गीत गाते थे, ठंडी हवाएं थीं, बड़ी प्यारी सुहावनी सुबह थी।
हसन ने आवाज दी बाहर से कि ‘राबिया, तू भीतर बैठी क्या करती है? बाहर आ, देख, परमात्मा ने कितना सुंदर सूरज निकाला है। और परमात्मा ने कितना सुंदर सुबह जन्माया है? ’
राबिया खिल-खिला कर हंसी और कहा, ‘हसन, कब तक बाहर देखते रहोगे? भीतर आओ। तुम सूरज को देख रहे हो, मैं सूरज बनाने वाले को देख रही हूं। सूरज बिल्कुल फीका है। यह रोशनी कोई रोशनी है? रोशनी देखनी है तो उसकी देखो, जिसने सूरज बनाया है। एक नहीं हजारों सूरज बनाए, अनंत सूरज बनाए। जिससे अनंत सूरजों का जन्म हुआ, उसकी रोशनी देखो। हसन, भीतर आओ।’
बात तो छोटी थी। हसन ने तो यूं ही मजाक में कही थी, मगर बात बहुमूल्य हो गई।
राबिया गुरु है; हसन शिक्षक है। हसन भी प्रसिद्ध फकीर था। उसके बहुत शिष्य थे। राबिया से ज्यादा शिष्य थे। राबिया के शिष्य तो हिम्मतवर लोग ही हो सकते हैं। हसन का तो कोई भी हो सकता है।
न गुरु को कुछ पता है; न तुम्हें कुछ पता है। अंधों के साथ अंधों की दोस्ती जल्दी बन जाती है।
आंख वाले के साथ अंधे को दोस्ती बनाने में बड़ी अड़चन होती है। एक तो भाषा अलग होती है। आंख वाला बोलता है रोशनी की बातें, रंगों की बातें; अंधा समझता नहीं। भाषा अलग होती है। और फिर आंख वाले का साथ पकड़ने में भी अंधे के अहंकार को चोट लगती है। इसलिए दुनिया में लोग गुरुओं के पीछे कम जाते हैं, नेताओं के पीछे ज्यादा जाते हैं।
नेता का अर्थ होता हैः जिसको खुद भी पता नहीं कि कहां जा रहा है। वह देखता रहता है लौट-लौट कर पीछे कि जनता कहां जाना चाह रही है, वहीं जाने लगता है। और जनता सोचती हैः नेता तो देखो। जा रहा है, जहां जा रहा है, हम भी वहीं जा रहे हैं। यह बड़ा पारस्परिक संबंध है अंधों का।
नेता लौट-लौट कर देखता है कि जनता की क्या इच्छा है। जनता की जो इच्छा--उसी की आवाज मचा देता है, वह उसी की गुहार मचा देता है। जनता कहती है-समाजवाद; नेता कहता है--समाजवाद जिंदाबाद। जनता जो कहती है...।
और कई बार ऐसा होता है कि जनता को अपने हित-अहित का तो कुछ पता होता नहीं। अक्सर तो ऐसा होता है कि जनता को अपने हित का कोई पता हो ही नहीं सकता। पता ही अपने हित का होता तो कभी की जिंदगी बदल गई होती। जनता को तो कुछ पता नहीं होता। जनता अपना अहित भी कर लेती है। उसकी आकांक्षाओं के अनुकूल जो कहने वाला मिल जाए--जो कहेः तुम ठीक-जनता उसके पीछे हो लेती है।
अब यह बड़े मजे की बात है। नेता कह रहा हैः तुम ठीक। और जनता सोचती है कि हां, यह आदमी ठीक। इसके पीछे चलो।
गुरु के साथ तो बिरले लोग जाते हैं। हिम्मत चाहिए। क्योंकि पहली हिम्मत तो यह स्वीकार करने की चाहिए कि मैं अंधा हूं। यह बात खटकती है कि मैं और अंधा? यह बात खटकती है कि मैं और अज्ञानी? यह बात खटकती है कि मैंने अब तक कुछ भी नहीं पाया? ‘कोई न कौड़ी देह।’ दो कौड़ी मेरा मूल्य है। यह बात खटकती है! इस खटक के पार हिम्मतवर जा सकते हैं।
गुरु का साथ जोड़ना हो, तो यह स्वीकार करना होता है कि मैं ना-कुछ।
मैंने एक प्राचीन मिस्त्री कथा सुनी है।
एक शिष्य गुरु के पास आया। शिष्य बड़ा प्रख्यात था, गुरु से ज्यादा प्रख्यात था। बड़ा पंडित था; शास्त्रों का ज्ञाता था। सारे शास्त्र आगम-निगम कंठस्थ थे। लेकिन पीछे-पीछे पीड़ा आने लगी होगी। शास्त्र तो कंठस्थ हो गए; सत्य की कोई खबर नहीं मिल रही थी। शब्द तो सब याद हो गए; निःशब्द में जाने का द्वार नहीं मिलता था।
तो जीवन के अंतिम क्षणों में गुरु की तलाश की। देर तो वैसे ही हो गई थी। गुरु मिल भी गया।
गुरु ने देखा इस पंडित की तरफ और कहा, ‘ऐसा हैः मैं बहुत अड़चनें देखता हूं तुम्हारे भीतर। तुम्हारा ज्ञान भारी है। तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी! उसे हम छोड़ देंगे। तुम जो नहीं जानते हो, वह मैं तुम्हें जना दूंगा।’
शिष्य गया साल भर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे। वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा, लिखता ही रहा! कोई हजार पृष्ठ भर दिए। हजार पृष्ठ की पोथी लेकर आया।
गुरु ने कहा, ‘तुम आ गए! मुझे तो शक था कि अब तुम न आ पाओगे। क्योंकि इतना कचरा तुम्हारे दिमाग में है! अगर तुम यह सब लिखोगे...।’
हजार पृष्ठ की पोथी देखी। गुरु ने कहा, ‘यह बहुत ज्यादा है। मैं बू.ा हो गया। मेरी मौत करीब है। मैं इतना न प. सकूंगा। तुम संक्षिप्त कर लाओ। सार-सार लिख लाओ।’
तीन महीने लग गए। पंडित लौटा। संक्षिप्त कर लाया था। अब केवल सौ पृष्ठ थे। गुरु ने कहा, ‘यह भी ज्यादा है। मेरे दिन कम हुए जा रहे हैं। अब तो मैं सौ भी नहीं प. सकता, और संक्षिप्त कर लाओ।’
शिष्य लौटा। एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था। लेकिन गुरु बिल्कुल मरने के करीब था। उसने कहाः ‘भाई! यह तो बहुत ज्यादा है, तुम और संक्षिप्त कर लाओ। जल्दी बगल के कमरे में चले जाओ, और संक्षिप्त कर लाओ।’
शिष्य एक पंक्ति में सारा सार लिख कर लाया-एक महावाक्य। गुरु की आखिरी सांस अटक रही थी। गुरु ने कहा कि तुम्हारे लिए रुका हूं। तुम्हें समझ कब आएगी? और संक्षिप्त कर लाओ। संक्षिप्त करने में कंजूसी क्या करते हो? ’
तब शिष्य को होश आया। भागा दूसरे कमरे में। एक खाली कागज ले आया। गुरु के हाथ में खाली कागज दिया। गुरु ने कहा, ‘तुम शिष्य हुए। यद्यपि मैं तो जा रहा हूं, लेकिन तुम शिष्य हो गए। तो मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा। मैं जिंदा था, तो भी तुमसे मेरा कोई संबंध न था। क्योंकि ज्ञान बीच में खड़ा था। अब तुम कोरे कागज हो गए। हालांकि मैं जा रहा हूं, मगर कोई फिकर नहीं; संबंध हो गया। मृत्यु भी अब मुझे तुमसे न तोड़ सकेगी। ऐसे तो जीवन भी मुझे तुमसे न जोड़ सकता था!’
गुरु मर गया और उसकी मृत्यु की उस घड़ी में शिष्य ज्ञान को उपलब्ध हो गया। क्या हुआ? यह कहानी बड़ी अनूठी है।
कोरा कागज लाते ही क्या हुआ? कोरा कागज लाने का अर्थ हुआः मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जो ऐसा भाव रख सके गुरु के पास, वही शिष्य। नहीं तो जरा सी भी अड़चन तुम्हें रही ज्ञान की, तो दीवाल बनी रहती है।
तो पहले तो गुरु का अर्थ होता है वह, जो जाग गया अपनी संपदा के प्रति। तुम्हें जगा सकता है। जगा हुआ ही जगा सकता है।
यहां अगर पांच सौ आदमी सो रहे हों और किसी को जगाना हो, तो कोई जगा हुआ ही जगा सकता है। एक सोया आदमी, दूसरे सोए आदमी को नहीं जगा सकता। सोचो तोः कैसे जगाएगा? खुद ही सोया है, दूसरे को कैसे जगाएगा? हां, एक सोया आदमी दूसरे आदमी को सुला सकता है।
तुमने कभी देखा। कोई आदमी तुम्हारे पास ही बैठ कर जम्हाई लेने लगे, झपकी खाने लगे, थोड़ी देर में तुम भी जम्हाई लेने लगोगे और झपकी खाने लगोगे।
एक सोया आदमी दूसरे को सुला सकता है। मगर एक सोया आदमी दूसरे सोए को जगा नहीं सकता। जगाने के लिए तो कोई जागा हुआ चाहिए।
गुरु का अर्थ हैः जो जाग गया। इसलिए हमने गुरु शब्द दिया है-जागे हुए को।
गुरु का अर्थ होता हैः गुरुता। जो भारी हुआ; अब छिछला नहीं रहा। जिसमें वजन आया। जिसमें मूल्य आया। अब ऐसा ही उथला-उथला न रहा; जिसमें गहराई आई। जो गंभीर हुआ--वह गुरु।
जागते ही मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता, परमात्मा हो जाता है। और सोया हुआ मनुष्य भी मनुष्य नहीं होता। सोया हुआ मनुष्य पशु होता है।
तो तुम यह बात ख्याल में रख लेना कि मनुष्य तो सिर्फ बीच का पड़ाव है। यहां कुछ मनुष्य हैं, जो वस्तुतः पशु हैं; सोए हुए हैं। और यहां कुछ मनुष्य हैं, जो वस्तुतः परमात्मा हैं; जागे हुए हैं। मनुष्य तो सिर्फ बीच का पड़ाव है। पशु से परमात्मा में ले जाने वाला सिर्फ एक सेतु है। मनुष्य कोई अवस्था नहीं है, यात्रा है। पशु से परमात्मा तक की जो यात्रा है, वही मनुष्यता है।
गुरु सुकदेव कृपा करी...।
तो पहले तो गुरु-तत्व, और दूसरा कृपा-तत्व भी समझने जैसा है। क्योंकि संतों का सारा सार वहां है।
कृपा का अर्थ होता हैः अकारण। कृपा का अर्थ होता हैः कार्यकारण के बाहर।
तुमने दो घंटे मेहनत की, तुम्हें दो रुपये मिल गए मजदूरी के। यह कोई कृपा नहीं है। तुमने दो घंटे मेहनत की, तुम्हें दो रुपये मिल गए। तुमने जमीन खोदी, बीज बोए, पानी सींचा; गेहूं की फसल आई, तुमने फसल काटी। यह कोई कृपा नहीं है।
कृपा का अर्थ होता हैः तुमने अपने से कुछ भी न किया था; तुमने ऐसा कुछ भी न किया था, जिसके कारण तुम दावा कर सकते कि यह मुझे मिलना चाहिए। तुम्हारे पास दावे का कोई उपाय न था और मिला-भेंट, पुरस्कार--अकारण।
जीसस के जीवन में ठीक कहानी है, जो कृपा के सूत्र को समझाती है। जीसस कहते थे, कृपा ऐसी किः एक अंगूर के खेत के मालिक ने मजदूर बुलाए। अंगूर पक गए थे और जल्दी तोड़ लेना जरूरी था अन्यथा सड़ जाएंगे। बहुत मजदूर आए। दोपहर तक उन्होंने काम किया। लेकिन लगा कि सांझ तक पूरे अंगूर तोड़े न जा सकेंगे, आदमी कम हैं। मालिक आया था तो उसने फिर अपने मुकद्दम को भेजा कि कुछ और मजदूर ले आओ। तो मुकद्दम भागा गया। बाजार से कुछ और लोग ले आया।
सांझ होने के करीब-करीब मालिक फिर आया और उसने कहा कि ‘इससे भी काम नहीं होगा। तुम कुछ और मजदूर लाओ।’ तो मुकद्दम फिर भागा गया। लेकिन जब तक वह मजदूरों को लेकर आता, तब तक सूरज भी ल गया।
तो कुछ मजदूर सुबह आए थे, कुछ दोपहर आए थे, कुछ सांझ को आए। और रात होने के करीब थी, तो मालिक ने सब को उनका जो-जो जरूरी था-बांटा। सुबह के मजदूरों को भी उतना ही दिया; दोपहर जो आए थे, उनको भी उतना ही दिया; सांझ जो आए थे, जिन्होंने कुछ भी न किया था, जो आकर बस खड़े हुए थे और सूरज ल गया था, उनको भी उतना ही दिया।
स्वभावतः सुबह के मजदूर नाराज हो गए, भड़क उठे। उन्होंने कहा, ‘यह अन्याय है। हम सुबह से सिर पटक रहे हैं, दिनभर की धूप हमने सही, और हमको भी उतना? दोपहर जो आए, आधे दिन से, उनको भी उतना? और चलो उनको भी छोड़ दो। मगर ये जो अभी आकर खड़े हुए हैं, जिन्होंने कि एक पत्ता नहीं तोड़ा, यहां से वहां एक पत्ता नहीं रखा; इनको भी उतना? ’
वह मालिक हंसने लगा। उसने कहा, ‘तुम कृपा-तत्व समझते हो? तुम्हें जितना चाहिए था, उतना मिला या नहीं, यह मुझे कहो।’ उन्होंने कहा, ‘हमें तो मिल गया जितना चाहिए था। सुबह से सांझ तक मजदूरी का जो मिलना चाहिए था, हमें पूरा मिल गया।’
तो उस मालिक ने कहा, ‘फिर तुम्हें क्या फिकर? तुम्हें जो मिलना था, पूरा मिल गया। तुम्हें इसकी क्या चिंता कि मैंने इनको दिया? यह मेरे पास बहुत ज्यादा है, इसलिए देता हूं। मेरे पास है, इसलिए देता हूं। इनकी मजदूरी के कारण नहीं देता हूं। यह मेरे पास है, इसलिए देता हूं। मेरे पास आधिक्य में है, इसलिए देता हूं।’
कृपा का अर्थ होता हैः गुरु के पास कुछ इतना आधिक्य में है कि वह बांट रहा है। बांटना उसे पड़ रहा है। बिना बांटे वह न रह सकेगा। पात्र मिलेंगे तो पात्र को देगा, अपात्र मिलेंगे तो अपात्र को देगा।
एक तिब्बती कहानी है कि एक गुरु जिंदगी भर इनकार करता रहा, शिष्य स्वीकार न करता था। जब भी कोई आकर कहता कि मुझे शिष्य बना लो, वह इतनी बाधाएं खड़ी कर देता कि तुम्हारी पात्रता कहां? सच बोलते हो? ईमानदार हो? हिंसा तो नहीं करते? मांसाहार तो नहीं करते? पर-स्त्री-गमन तो नहीं करते? कभी जिंदगी में चोरी तो नहीं की? यह...वह...। इतनी बातें उठा देता कि कोई पात्र ही सिद्ध न होता। तो वह इनकार कर देता कि जब तक पात्र नहीं, कैसे स्वीकार करूं?
लेकिन एक दिन उसका नौकर, जो उसकी सेवा-टहल करता था...। शिष्य तो उसने स्वीकार कभी किए नहीं थे, क्योंकि पात्र कोई मिला न था। उसने नौकर को बुलाया और कहा, जा तू बाजार में...। वह हिमालय के पहाड़ में रहता था। भाग नीचे बस्ती में। जो भी शिष्य होना चाहे, जल्दी ले आ।
उस नौकर ने कहा, मालिक, आप शिष्य इतनी साधारणता से स्वीकार नहीं करते! गांव थक गया प्रार्थना कर-कर के। अनेक बार लोग आ कर जा चुके। आपने किसी को कभी स्वीकार नहीं किया। उसने कहा, तू फिकर न कर। तू जा। जो भी मिले, ले आ। कहना, गुरु बदल गए हैं। जो भी मिलेगा, उसको देने वाले हैं।
दस-पंद्रह लोगों को पकड़ लाया। उसमें अजीब-अजीब तरह के लोग थे। किसी से पूछा कि ‘तुम किसलिए आए हो? ’ उसने कहा, ‘मेरी पत्नी मर गई। मैं दुखी था। इस आदमी ने कहा कि गुरु देने को तैयार हैं, तो चला आया।’ उसमें एक आदमी ऐसा था, जो कि जुए में हार गया था। उसने कहा, ‘मैं हार गया हूं; जीवन बड़ा उदास है, इसलिए चला आया।’
उसमें एक आदमी ऐसा भी था, उसने कहा कि मुझे कोई कारण नहीं आने का। मैं तो ऐसे ही घर के बाहर घूम रहा था। यह आदमी बोला कि ‘चलते हो? ’ मैंने कहा, ‘चलो देखें, क्या हर्जा है!’
उनमें से किसी को भी यह भरोसा नहीं था कि यह गुरु उनको स्वीकार कर लेगा। उसने सब को स्वीकार कर लिया। उन सब ने एक साथ कहा, ‘आप हमें स्वीकार कर रहे हैं? ’
एक जुआरी है; एक की पत्नी मर गई; एक ऐसे ही चला आया है-जिसको कोई कारण ही नहीं है, जिसे परमात्मा इत्यादि से कुछ लेना-देना नहीं है। सिर्फ खाली बैठा था, काम-धाम नहीं था, घर के बाहर टहल रहा था; चला आया कि चलो, एक चहलकदमी हो जाएगी। ‘इन सब को स्वीकार कर रहे हैं! और आपने अब तक सभी को इनकार किया? ’
उस गुरु ने कहा, ‘मेरे पास था नहीं। इसलिए मैं बहाना खोज लेता था कि तुम पात्र नहीं हो। अब मेरे पास है; अब मैं कोई बहाना नहीं खोज सकता। अब सवाल यह नहीं है कि अब तुम पात्र हो या नहीं। अब सवाल यह है कि कोई भी लेने को मिले तो मैं देने को तत्पर हो गया हूं।
मेरे भीतर मेघ घना हो गया है, वर्षा होना चाहती है। अब मैं यह न देखूंगा कि कहां हो; सुंदर भूमि हो, स्वच्छ भूमि हो-अब यह मैं कुछ न देखूंगा। अब तो अपवित्र भूमि हो तो भी बरसूंगा। बरसना ही होगा। फूल खिलने के करीब आ गया, सुगंध फैलेगी। अब मैं यह न पूछूंगा, कि पूरब जाएगी, कि पश्चिम, कि उत्तर, कि किनके नासापुटों में जाएगी--पापियों के, पुण्यात्माओं के? अब तो सुगंध को मुक्त करना होगा।
‘अब तो दीया जल गया है, रोशनी पड़ेगी। अब रोशनी यह नहीं पूछ सकती कि सिर्फ साधुओं पर पडूंगी और असाधुओं पर नहीं पडूंगी। कि असाधु पास से निकलेगा तो मैं अपने को बंद कर लूंगी, और साधु पास से निकलेगा तो खुल कर बहने लगूंगी!’
इस तत्व का नाम कृपा है।
कृपा का अर्थ होता हैः गुरु के पास है, और इतना है कि उसे बांटना होगा। नहीं तो बोझ हो जाएगा।
गुरु का अर्थः गुरुता। उसके जीवन में पहली दफा सार्थक का उदय हुआ है। सार्थक घना हो रहा है। सार सघन हो रहा है, सघनता के कारण गुरुता पैदा हो रही है। उसे अपने को हलका करना होगा, उसे बांटना ही होगा।
जब गीत हृदय में हो, और न गाओ तो बोझ हो जाता है। गाना ही होगा। जब पैर में नाच आ जाए और घूंघर न बांधो और नाचो न, तो दिक्कत में पड़ जाओगे।
बांटना ही होता है इस जगत में। वह अनिवार्य तत्व है। इस बात का नाम कृपा है।
गुरु के पास तुम्हें जो मिलता है, वह तुम्हारी पात्रता के कारण नहीं; उसकी कृपा के कारण। इस तत्व का बड़ा मूल्य है भक्ति के मार्ग पर। क्योंकि इसके कारण शिष्य में जरा से भी अहंकार के जन्मने का उपाय नहीं रह जाता।
नहीं तो शिष्य सोचता है कि ‘देखो! मैं यम पालता, नियम पालता; आसन लगाता, प्राणायाम करता, प्रत्याहार साधता; धारणा-ध्यान, सब करता हूं। इसके फल में मुझे मिल रहा है। धन्यवाद देने की भी जरूरत क्या है? ’
लेकिन शिष्य कहता है कि मैं कुछ भी साधूं, जो मिल रहा है, उसका इस साधने से कोई संबंध नहीं। इस साधने से भला मैं पवित्र हो गया हूं। और जो मिल रहा है, उसे सम्हाल सकूंगा, झेल सकूंगा। मगर जो मिल रहा है, उसका मेरी पात्रता से कोई संबंध नहीं है। मेरे यम-नियम, मेरे साधन-व्यायाम-मेरे घड़े को सीधा कर गए हैं, यह सच है। लेकिन जो वर्षा आकाश से हो रही है, वह मेरे घड़े को सीधा देख कर नहीं हो रही है। वह तो हो ही रही है। मैं उलटा भी होता तो भी होती। घड़ा उलटा भी पड़ा रहता तो ऐसा थोड़े ही था कि वर्षा नहीं होती। वर्षा तो होनी ही थी।
जिसके पास है, वह तो बरस कर जाएगा। जब ध्यान फलता है, तो उसके साथ ही करुणा भी उपजती है। जो है-वह तो बरस कर जाएगा। आधिक्य है--तो बहेगा।
गुरु तो ऐसा है, जिसमें बा. आ गई; कूल-किनारे तोड़ कर बहेगा। इस तत्व का नाम कृपा।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
जब तक गुरु न मिल जाए, जब तक गुरु के माध्यम से परमात्मा की कृपा न मिल जाए, जब तक गुरु के द्वार से--गुरुद्वारे से--प्रभु तुम्हारे पास बह कर न आ जाए, तब तक तुम अमोलक न हो सकोगे। तब तक तो तुम एक झूठ हो, एक नाटक।
तुम कहते हो तो अभिनय काशृंगार सभी धो डालूंगी
लेकिन मुझको यह बतला दो, नाटक से पहले क्या थी मैं?
झोली ले अलख जगाती हूं
मैं घूम फिरी द्वारे-द्वारे
पग के कांटे भी ऊब गए
पर घायल पांव नहीं हारे
सुनती हूं सह भी लेती हूं,
अति कड़वे बोल सदाव्रत के
कोई मुझको यह बतला दो, याचक से पहले क्या थी मैं?
यह क्या कम है प्यासे मन से
हर पनघट आदर से बोला
परिचय की जिज्ञासा लेकर
पनिहारिन ने घूंघट खोला
गगरी बादल से पूछ रही, बरसा क्यों जेठ दुपहरी में?
अब कोई यह तो बतला दो, चातक से पहले क्या थी मैं?
कलियों की करुणा जाग गई
उपवन का कण-कण महक गया
भवरों की मोहक गुन-गुन पर
मेरा भावुक मन बहक गया
माला का मोल चुकाने में, माली के द्वारा ठगी गई
अब कोई यह भी बतला दो, ग्राहक से पहले क्या थी मैं?
जब गीत विरह के गाए तो
जग ने राधा का नाम लिया
हर राधा सुन कर चैंक पड़ी
बोली, किसको उपनाम दिया
राधाओं ने बाधा कह कर, बंशी का गुंजन छीन लिया
अब कोई आकर बतला दे, बाधक से पहले क्या थी मैं?
जब तक गुरु न मिल जाए, तुम एक बाधा हो। जब तक गुरु न मिल जाए, तब तक तुम राधा नहीं।
गुरु के साथ रचे रास चैतन्य का-तो राधा।
यह ‘राधा’ शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। यह राधा शब्द बड़ा सांकेतिक है।
राधा जैसी कोई स्त्री थी, इसका कोई प्रमाण शास्त्रों में मिलता नहीं। राधा का कोई उल्लेख पुराने शास्त्रों में नहीं है। बहुत बाद में मध्ययुग के भक्तों ने राधा शब्द को जोड़ा।
राधा का कोई ऐतिहासिक अस्तित्व नहीं मालूम होता। हां, पुराने शास्त्र इतना जरूर कहते हैं कि सारी गोपियों में कोई एक थी, जो बहुत निकट थी। सारी गोपियों में कोई एक थी, जो छाया की तरह कृष्ण के पीछे लगी रहती थी। लेकिन उसका कोई नाम नहीं था।
मध्य-युग में यह नाम खोजा गया-राधा। इसके पीछे एक बड़ा मूल्यवान संकेत है। राधा शब्द धारा शब्द का उलटा है। धारा का अर्थ होता हैः नीचे की तरफ जाए। वासना की तरफ चेतना बहती है तो उसका सांकेतिक नाम है-धारा। जैसे पहाड़ से गंगा उतरी-तो धारा। चली नीचे की तरफ, मैदान पर आई। छोड़ दिए शिखर सौंदर्य के। छोड़ दिए गौरीशंकर। छोड़ दी ऊंचाइयां। छोड़ दिए वे पवित्र हिमखंड-अछूते, अस्पर्शित, सदा के कुंवारे-और उतरी कीचड़ में-तो धारा।
जब तुम्हारी चेतना वासना की तरफ उतरती है-तो धारा। और जब चेतना ऊध्र्वगामी होती है, तो धारा के उलटे हो गए तुम-राधा। चले ऊपर की तरफ। छोड़ा कीचड़-कमल बने। उठे ऊपर की तरफ। छोड़ी पृथ्वी-चले आकाश की तरफ। छोड़ी देह-आत्मा की खोज की।
देह है पृथ्वी; आत्मा है-आकाश। देह है मैदान; आत्मा है--गौरीशंकर। इसलिए तो हम कहते हैंः कैलाश पर वास है परमात्मा का। उसका मतलब समझना। कोई कैलाश पहाड़ पर परमात्मा नहीं बैठा है। कैलाश पर वास है शिव का। उसका कुल इतना ही अर्थ है-ऊपर की तरफ चलो, ऊध्र्वगामी बनो, कैलाश की यात्रा करो।
गुरु के साथ जुड़ते ही धारा, राधा हो जाती है। वह गुरु की कृपा का फल है।
सीधे पलक न देखते, छूते नाहीं छांहिं।
गुरु सुकदेव कृपा करी, चरनोदक ले जाहिं।।
चरणदास कहते हैंः उन लोगों को मैं जानता हूं, जो मुझे कभी सीधी आंख से भी नहीं देखते थे। जो मेरी छाया भी नहीं छूते थे।
चरणदास तो वणिक थे, ढूसर बनिया थे। तो ब्राह्मण तो उनसे दूर ही दूर रहते होंगे। और फिर ऐसी गुरु कृपा हुई कि अब ब्राह्मण भी आते हैं, चरण धोकर चरणोदक ले जाते हैं!
सीधे पलक न देखते, छूते नाहीं छांहिं।
गुरु सुकदेव कृपा करी, चरनोदक ले जाहिं।।
चरणदास कहते हैंः कैसा अपूर्व घट गया, कैसी क्रांति हो गई! मुझ जैसे क्षुद्र के लोग चरणों का पानी को ले जा रहे हैं-धोकर! मेरा इसमें कुछ भी नहीं। यह गुरु से जो बहा है, यह जो कृपा गुरु की उतरी है, यह उसी का सन्मान है।
किसी अन्य जगह पर भी कहा हैः
ढूसर के बालक हुते, भक्ति बिना कंगाल।
गुरु सुकदेव कृपा करी, हरि-धन किए निहाल।।
वणिक के पुत्र थे। चरणदास कहते हैंः ढूसर के बालक हुते...
ऐसे धन बहुत था। वणिक-पुत्र थे।
...भक्ति बिना कंगाल।
लेकिन धन का क्या होता? भक्ति के बिना कंगाल थे, भिखारी थे।
गुरु सुकदेव कृपा करी, हरि-धन किए निहाल।
दे दिया हरि का धन। परमात्मा की संपत्ति दे दी और निहाल कर दिया।
बलिहारी गुरु आपने, तन मन सदके जावं।
जीव ब्रह्म छिन में कियो, पाई भूली ठावं।।
सुनना यह वचन बड़ा महत्वपूर्ण हैः कि बलिहारी है तुम्हारी गुरु, कमाल है तुम्हारा कि
जीव ब्रह्म छिन में कियो...!
एक क्षण में बदल दी तुमने कथा। एक क्षण में अर्थहीन को, सार्थक कर दिया! कमाल है! बलिहारी है!
जीव ब्रह्म छिन में कियो...
एक क्षण भी नहीं लगा। और मैं तो समझता थाः देह हूं; और तुमने परमात्मा बना दिया! मैं तो समझता थाः सब असार; और तुमने सार बरसा दिया।
एक क्षण में यह क्रांति घट जाती है, एक पल में; क्योंकि यह संपत्ति कहीं खोजने नहीं जानी है। यह पड़ी ही है। यह तुम लेकर ही आए हो। यह तुम्हारा स्वरूप है।
जीव ब्रह्म छिन में कियो, पाई भूली ठावं।।
सतगुरु मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट।
कहते हैंः मेरा गुरु ऐसा है, जैसा कोई शूरवीर; जैसा कोई धनुर्धारी।
सतगुरु मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट।
और उसका शब्द चोट करने वाला है। शब्द मलहम करने वाला नहीं है, सांत्वना देने वाला नहीं है; शब्द चोट करने वाला है। फर्क समझ लेना।
पंडित-पुजारी का शब्द सांत्वना देता है, चोट नहीं करता। पंडित-पुजारी का शब्द तो शामक है; समझा-बुझा देता है, लीप-पोत कर देता है।
घर में कोई मर गया। अगर पंडित-पुजारी आएगा, वह कहेगाः ‘क्यों रोते हो? अरे, आत्मा अमर है। कहीं कोई मरता है? यह जो तुम्हारा प्यारा मर गया, स्वर्गवासी हो गया।’ यह पंडित की वाणी है।
अगर गुरु आएगा और रोते देखेगा, तो कहेगा कि ‘ठीक से रो लो, क्योंकि जैसे यह मर गया, ऐसे ही तुम भी मर जाओगे।’ चोट करेगा। क्योंकि चोट के बिना कोई जागता नहीं। सांत्वना से क्या होगा?
यह मर गया और पंडित समझा रहा है कि ‘मत घबड़ाओ; स्वर्गवासी हो गया।’ सभी स्वर्गवासी हो जाते हैं! यहां जो भी मरा-सब स्वर्गवासी! नरक तो खाली पड़ा होगा। क्योंकि तुम देखते होः कोई भी मरे, नरकवासी तो कोई होता ही नहीं; सब स्वर्गवासी हो जाते हैं!
यह पंडित ने सांत्वना खोजी। भेज देता है सभी को स्वर्ग में। तुम्हें राहत मिलती है कि चलो, कोई हर्जा नहीं। तुम भलीभांति जानते हो अपने पति को, अपनी पत्नी को कि आशा बहुत कम है स्वर्गवासी होने की। मगर हो गए तो अच्छा ही हुआ।
मैंने सुना हैः एक स्त्री ने, एक ईसाई स्त्री ने अपने पति की कब्र के लिए...। पति मर गए, कब्र के लिए पत्थर बनवाया। उस पत्थर पर लिखवाया, ‘स्वर्ग में विश्राम करो। शांति से स्वर्ग में विश्राम करो। रेस्ट इन पीस।’
इधर पत्थर बन कर तैयार हुआ, तब तक पति के द्वारा की गई वसीयत खोली गई। वसीयत में पति पत्नी के लिए कुछ भी नहीं छोड़ गया। और सब बांट गया। मगर पत्नी के लिए एक पैसा नहीं छोड़ गया।
पत्नी तो एकदम नाराज होकर भागी पत्थर खोदने वाले के पास। कहा कि ‘बदलो; यह नहीं चलेगा। यह आदमी धोखा दे गया! इसने जिंदगी भर सताया और मर कर भी सता गया। यह मत लिखो इसके पत्थर पर।’
उसने कहा कि ‘नहीं, पत्थर तो बन गया। अब बदलना मुश्किल है।’ तो पत्नी ने कुछ सोचा और उसने कहा, ‘फिर ऐसा करो। तुमने लिख दिया-स्वर्ग में शांति में विश्राम करो; जब तक मैं नहीं आ जाती-इतना और जोड़ दो-रेस्ट इन पीस, अनटिल आइ कम।’
हमारा स्वर्गवास, हमारी आत्मा की अमरता, सब सांत्वनाएं, मलहम-पट्टियां हैं। सदगुरु चोट करता है।
सतगुरु मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट।
मारै गोला प्रेम का, है भ्रम्म का कोट।।
और सतगुरु यद्यपि प्रेम बरसाता है, लेकिन उसका प्रेम भी तलवार है। उसका प्रेम भी ऐसे है, जैसे अग्नि।
मारै गोला प्रेम का, है भ्रम्म का कोट।।
और ऐसा उसे होना ही पड़ेगा।
सतगुरु की करुणा अपार है, उतना ही उसे कठोर भी होना पड़ता है। नहीं तो तुम्हारे जीवन को रूपांतरण देना संभव नहीं होगा। सतगुरु अगर मीठा ही मीठा हो, तो शिष्य के जीवन में क्रांति की संभावना नहीं; डायबिटीज भला हो जाए! सतगुरु मीठा ही मीठा नहीं हो सकता; कड़वा भी होगा। बहुत बार चोट भी करेगा। बहुत बार तड़फाएगा भी।
सतगुरु मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट।
मारै गोला प्रेम का, है भ्रम्म का कोट।।
वह जो भ्रम की दीवाल तुमने उठा रखी है, जब तक गोलों की उस पर वर्षा न हो, तब तक वह गिरेगी भी नहीं।
तो सतगुरु के लिए ठीक-ठीक बात कही गई है कि सतगुरु ऐसे है, जैसे कुम्हार। तुमने देखा, कुम्हार चाक पर घड़ा बनाता। एक हाथ भीतर रखता, उससे सहारा देता। और एक हाथ बाहर रखता, उससे चोट करता। भीतर से सहारा देता है, नहीं तो गिर जाएगा; वह घड़ा बनेगा ही नहीं। अगर चोट ही चोट करे, तो घड़ा नहीं बनेगा। और अगर सहारा ही सहारा दे, तो भी घड़ा नहीं बनेगा। तो एक हाथ से सहारा देता है, एक हाथ से चोट करता है। सहारे को चोट, और चोट को सहारे से संयुक्त करता है। तभी निर्माण हो पाता है। तभी जीवन में अर्थ का उदय हो पाता है।
तो शिष्य को बहुत बार लगेगाः भाग जाऊं, छोड़ दूं; यह चोट ज्यादा हो गई; बरदाश्त के बाहर हो गई। जो कमजोर हैं, वे भाग जाएंगे। जो हिम्मतवर हैं, वे ही टिक पाते हैं।
सतगुरु शब्दी तेग हैं, लागत दो करि देहि।
सतगुरु के शब्द तो तलवार की भांति हैं। एक चोट में दो टुकड़े कर देते हैं। सार को अलग कर देते हैं, असार को अलग कर देते हैं। सच को अलग कर देते हैं, झूठ को अलग कर देते हैं। माया को ब्रह्म से अलग कर देते हैं। देह आत्मा को, एक दूसरे से अलग कर देते हैं।
सतगुरु शब्दी तेग हैं, लागत दो करि देहि।
पीठ फेरि कायर भजै, सूरा सनमुख लेहि।।
तो जिसमें थोड़ी भी कायरता हो, वह तो पीठ फेरकर भाग खड़ा होगा। वह कहेगा, ऐसे पिटने थोड़े ही आए। हम आए थे, स्वर्ग की तलाश में; हम आए थे, सत्य की तलाश में। हम कोई चोट खाने थोड़े ही आए थे? हम अपमानित होने थोड़े ही आए थे?
लेकिन सिवाय इसके कि तुम्हारा अहंकार तोड़ा जाए, तुम परमात्मा से और किसी तरह जुड़ न सकोगे।
तुम्हारा अहंकार तोड़ना ही होगा, चाहे कितनी ही पीड़ा हो। इसलिए कायर तो भाग खड़े होते हैं। कायर तो सांत्वना की तलाश में हैं; सत्य की बातें करते हैं।
सतगुरु शब्दी तेग हैं, लागत दो करि देहि।
पीठ फेरि कायर भजै, सूरा सनमुख लेहि।।
तो जो शूरवीर होगा, वह सामने से लेगा। वह धन्यवाद मानेगा गुरु का कि उसने चोट की। न करता चोट तो क्रांति संभव नहीं थी। चोट करते-करते ही...। जैसे छेनी से मूर्तिकार चोट करते-करते पत्थर को तोड़ता है, अनग. पत्थर को एक सुंदर प्रतिमा में बदलता है, वैसी ही सारी प्रक्रिया है।
सतगुरु शब्दी तीर है, कीयो तन मन छेद।
और सदगुरु को तन-मन में छेद करना होगा, तभी तो तुम्हें दर्शन हो सकेंगे आत्मा के-जो तन और मन के पीछे छिपी है।
जैसे कोई कुआं खोदता है, ऐसे सतगुरु को तुम्हारे भीतर ध्यान का कुआं खोदना होगा।
बेदरदी समझै नहीं, विरही पावै भेद।।
जो अन-अधिकारी है, कायर है, हिम्मत नहीं है, कमजोर है, भयभीत है...।
बेदरदी समझै नहीं...
वह नहीं समझ पाएगा। उसे अभी दर्द ही नहीं उठा परमात्मा को पाने का; अभी प्यास ही नहीं जगी।
प्यास जगे, तो आदमी कुआं खोदने की सारी तकलीफ उठाने को तैयार हो जाता है। लेकिन प्यास ही न हो, तो सोचता हैः इतनी मेहनत किसलिए? किस प्रयोजन से?
मुफ्त मिले परमात्मा, तो लोग लेने को तैयार हैं। कुछ श्रम करना पड़े, तो तैयार नहीं। और कुछ टूटना पड़े, कुछ अपने को बदलना पड़े, तो तैयार नहीं। लोग चाहते हैंः हम जैसे हैं, वैसे ही रहें, और परमात्मा मिल जाए। मुफ्त मिल जाए।
धन पाने के लिए सब कुछ करने को तैयार हैं। पद पाने के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हैं। परमात्मा पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं!
बेदरदी समझै नहीं, विरही पावै भेद।।
लेकिन जिसके हृदय में विरह की अग्नि जलनी शुरू हुई है, जिसे दिखाई पड़ने लगा कि मौत सब छीन लेगी, जल्दी करो; सांझ करीब आती है, जल्दी करो। कुछ करो कि शाश्वत से संबंध जुड़ जाए। जीवन का अवसर ऐसे ही न खो जाए। वे ही समझ पाएंगे-गुरु की चोट को।
सतगुरु शब्दी लागिया नावक का सा तीर।
तीर की तरह हैं सतगुरु के शब्द।
कसकत हैं निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर।।
फिर बहुत कसकते हैं, जब तीर लग जाए छाती में।
कसकत हैं, निकसत नहीं...।
निकाल भी नहीं सकते। तीर ऐसा है कि निकालने का कोई उपाय नहीं। लग गया तो लग गया। फिर कसकता है, फिर खूब पीड़ा देता है। लेकिन पीड़ा मीठी है। क्योंकि पीड़ा परमात्मा को पाने के मार्ग पर है।
कसकत हैं निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर।।
सतगुरु शब्दी बान हैं, अंग-अंग डारै तोर।
सतगुरु को तुम्हें तोड़ना ही होगा, तुम्हें मिटाना ही होगा। इसलिए जब मुझसे कोई संन्यास लेता है, तो मैं कहता हूं कि मरने की तैयारी है? मिटने की तैयारी है? सिर कटाने की तैयारी है? अगर उतनी तैयारी न हो, तो संन्यास से कुछ लाभ न होगा। तब संन्यास झूठ होगा।
तुम मिटो तो ही परमात्मा हो सकता है। और परमात्मा हो जाए तो ही तुम हो सकते हो। उसके पहले सब झूठ है; नाटक है।
सतगुरु शब्दी बान हैं, अंग-अंग डारै तोर।
प्रेम-खेत घायल गिरै, टांका लगै न जोड़।।
और यह ऐसा युद्ध का मैदान है, जहां गुरु का मारा हुआ जब गिरता है कोई-
प्रेम-खेत घायल गिरै...
यह युद्ध प्रेम का है। सतगुरु शत्रु नहीं है। सतगुरु ने तुम्हें चाहा है, प्रेम किया है। इसलिए तुम्हें तोड़ने को उत्सुक हुआ है।
प्रेम-खेत घायल गिरै, टांका लगै न जोड़।।
और कठिनाई ऐसी है कि यह जो चोट सतगुरु की लगती है, फिर इसको जोड़ा नहीं जा सकता। एक दफे लग भर जाए, तो यह हड्डी टूटी, सो टूटी। फिर इसको जोड़ने की कोई औषधि नहीं। और यह जो घाव हुआ, सो हुआ। फिर यह कभी नहीं भरता। क्योंकि यह घाव घाव थोड़े ही है; यह तो परमात्मा के आने का द्वार है।
पहले घाव जैसा लगता है; जब तक परमात्मा नहीं आया, तब तक घाव जैसा लगता है। जब परमात्मा आएगा, तब तुम समझोगे कि जिसे घाव समझा था, वह तो तुम्हारे भीतर खिलते हुए कमल थे। तुम्हारी समझ खोटी थी। जिसे चोट समझा था, वह तो वरदान था। और जिसे अभिशाप समझा था, वह अनुकंपा थी।
प्रेम-खेत घायल गिरै, टांका लगै न जोड़।।
ऐसी मारी खैंच कर, लगी वार गई पार।
जिनका आपा न रहा, भये रूप ततसार।।
और कहते हैंः गुरु ऐसे सम्हाल कर चोट मारता है, ऐसे निशाने से मारता है-
ऐसी मारी खैंच कर, लगी वार गई पार।
-कि आर-पार हो जाती चोट।
मौके की तलाश करता है गुरु। कब तुम अपने हृदय को असुरक्षित छोड़ देते हो, उस क्षण की तलाश करता है गुरु। कब तुम अपने हृदय को बचाने की तैयारी नहीं रखते हो, उसकी तलाश करता है गुरु। जब वह क्षण आ जाता है, जब भी तुम मौका दे देते हो, जब देखता है कि असुरक्षित तुम्हारा हृदय पड़ा है, अब तुम पहरा नहीं दे रहे हो...।
तो पहले गुरु तुम्हें खूब प्रेम बरसाता है, तुम्हें करीब लेता है, ताकि भरोसा आ जाए; ताकि तुम अपनी रक्षा करना छोड़ दो, ताकि तुम अपने धनुषबाण रख दो, ताकि तुम अपनी ाल हटा कर रख दो कि इससे क्या खतरा है; यह तो अपना है।
जिस दिन तुम्हारी ाल, गुरु पाएगा नहीं ांके हुए है तुम्हें, उसी दिन...।
ऐसी मारी खैंच कर, लगी वार गई पार।
जिनका आपा न रहा, भये रूप ततसार।।
और जब तुम्हारा आपा मिट जाएगा, मैं का भाव मिट जाएगा, तब तुम ततसार हो जाओगे। उस परमात्मा के रूप में एक हो जाओगे--तत्वमसि। तब तुम तदाकार हो जाओगे। मगर मिटना होगा। मिटे बिना पाना नहीं है।
जीसस ने कहा हैः जो मिटेगा, वही पाएगा। जो बचाएगा, वही मिट जाएगा। डूबा जो, वही उबरेगा।
तो गुरु से अपने को बचाना मत। तर्क से, विचार से, उपाय से-गुरु से अपने को बचाना मत। बचाना ही हो, तो गुरु के पास जाना मत। जब तैयारी हो जाए इस बात की कि अपने में कुछ रखा ही नहीं है; मिटने में हर्ज क्या है, खोने को है क्या?
...कोई न कौड़ी देह
किसू काम के थे नहीं...
तो गुरु अगर मिटा भी देगा, तो क्या मिटता है? यह कचरे में कुछ आग भी लगा दी, तो क्या हर्जा है? लगा देने दो आग। इस कचरे में कुछ मूल्य है ही नहीं।
जिस दिन तुम्हें ऐसा दिखाई पड़ने लगेगा कि इस जीवन में कोई सार नहीं, उसी दिन तुम तैयार होओगे कि ठीक है, अब मिटा ही दो। शायद इसी दांव लगाने से कुछ सार्थक बात मिल जाए। निश्चित मिलती है।
इस जगत में दांव लगाने वाले कभी भी हारते नहीं; मगर दांव पूरा चाहिए। कंजूस और कृपण का दांव नहीं; बच-बच कर नहीं कि थोड़ा सा लगाएं। पूरा दांव चाहिए।
जिनका आपा न रहा, भये रूप ततसार।।
वचन लगा गुरुदेव का, छुटे राज के ताज।
और जब गुरु का वचन समझ में आ जाता है, उसकी वाणी प्रगट हो जाती है, उसका भाव हृदय पर खुल जाता है, उसका रंग तुम्हें रंग लेता है, तब सिंहासन भी व्यर्थ लगते हैं। तब गुरु के हाथ से लगी सूली ज्यादा सार्थक लगती है। तब सूली ज्यादा मूल्यवान है-सिंहासन दो कौड़ी का।
...छुटे राज के ताज।
फिर कोई राज्य पर बिठाना चाहे-सिंहासन पर, साम्राज्य देना चाहे, तो भी तुम कहोगेः क्षमा करो, अब हमने बड़ी संपत्ति पा ली; अब बच्चों के खेल-खिलौने काम के नहीं।’
हीरा मोती नारी सुत, सजन गेह गज बाज।।
फिर तो हीरे हों, मोती हों, सुंदर स्त्रियां हों, सुंदर पति हो, घर हो, हाथी-घोड़े हों; किसी मूल्य के नहीं। सब खिलौने हैं, सब शतरंज के खिलौने हैं।
वचन लगा गुरु ज्ञान का, रूखे लागे भोग।
एक दफा गुरु का स्वाद आ जाए, उसकी कृपा का स्वाद आ जाए, एक दफे गुरु के माध्यम से परमात्मा की एक बूंद भी तुम्हारे अनुभव में आ जाए, तुम्हारे कंठ में उतर जाए-
...रूखे लागे भोग।
फिर कुछ भी नहीं है इस संसार में। सब रूखा लगेगा, सब सूखा लगेगा। और यही समझ लेने की बात है।
इसलिए मैं तुमसे संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं परमात्म-अनुभव करने को कहता हूं। संसार में छोड़ने योग्य भी क्या है? छोड़ने योग्य भी कुछ नहीं है। इतना सब राख ही राख है।
राख का कोई त्याग करता है? कूड़ा-कर्कट है। इसमें कोई मूल्य ही नहीं है। जो इसे छोड़ कर जाते हैं, वे तो मानते हैं कि इसमें मूल्य है।
जो कहते हैंः हमने लाखों रुपये छोड़ दिए हैं, उनकी बात ही सुनो तो पता चलता है कि लाख उनके लिए अभी भी मूल्यवान है। रुपये रुपये थे। अभी भी रस ले रहे हैं वे; छोड़ कर भी रस ले रहे हैं। अब छोड़ने का मजा ले रहे हैं! अब एक नया अहंकार निर्मित कर रहे हैं कि हमने सब छोड़ दिया।
नहीं, सतगुरु कहते हैं कि संसार में क्या छोड़ने जैसा है? परमात्मा को चख लो, फिर सब फीका हो जाएगा, सब छूट जाएगा-छोड़ना न पड़ेगा। छोड़ना पड़े तो गलत, छूट जाए तो सही।
वचन लगा गुरु ज्ञान का, रूखे लागे भोग।
इंद्र कि पदवी लौं उन्हें, चरनदास सब रोग।।
अब तो उन्हें तुम कहो कि इंद्र के सिंहासन पर बैठ जाओ, तो चरणदास कहते हैंः वह भी उनको रोग जैसा लगेगा। कि यह कौन से पाप का फल भोगना पड़ रहा है? यह किस झंझट में मुझे डाल रहे हो?
जिसने मस्ती जानी ध्यान की, जिसने रस पाया प्रेम का, जिसने अनुभव की रोशनी परमात्मा की-थोड़ी ही सही-सारा संसार व्यर्थ। संसार ही व्यर्थ नहीं, स्वर्ग में इंद्र का राज्य भी व्यर्थ।
परमात्मा का जरा सा भी अनुभव इस बड़े से बड़े संसार को छोटा कर जाता है। उसकी एक बूंद, इसके सब सागरों से बड़ी है। और उसके सुख की एक किरण, इसके सारे सुखों से बड़ी है।
बड़ी ही कहना ठीक नहीं, क्योंकि भेद परिमाण का नहीं, गुण का है। वह बात ही और है। उस बात को इस संसार की भाषा में प्रगट करने का कोई भी उपाय नहीं है।
मगर बड़ी पीड़ा से भक्त को गुजरना पड़ता है, टूटना पड़ता है, खंड-खंड बिखरना पड़ता है। बड़ी याद, बड़ी प्यास, बड़े विरह से...। कितना भक्त रोता है।
तुम्हारी दीद है, मकसद रहा जिसकी बरसात का
वो चश्म-ए-मुंतजिर पथरा गई, क्या तुम न आओगे
बहुत बार उसे लगता हैः आंखें कितना रो चुकीं; आंखें पथराने लगीं। और यह आंसुओं की वर्षा तेरे लिए हो रहो थी।
तुम्हारी दीद है, मकसद रहा जिसकी बरसात का
बस, एक ही इच्छा थी कि सब लुटा कर इन आंसुओं में तेरा एक दर्शन हो जाए।
वो चश्म-ए-मुंतजिर पथरा गई, क्या तुम न आओगे
वह आंख अब पथराने लगी, अब उसमें से आंसू भी नहीं गिरते। क्या तुम अब भी न आओगे?
बहार-ए-सिजा बुलबुल के नग्मे चांदनी रातें
हर एक शय आने वाली आ गई, क्या तुम न आओगे
और सब हो गयाः बसंत भी आ गया; फूल भी खिल गए; बुलबुल के नगमें भी गूंज गए; चांदनी रातें भी उतर आईं-सब हो गया।
हर एक शय आने वाली आ गई...।
जो भी इस संसार में होना था, हो चुका। देख लिया सब। क्या तुम न आओगे?
बहुत बार भक्त घबड़ाने भी लगता है। रात लंबी लगती है विरह की।
विरह की रात ही बहुत लंबी लगती है। साधारण रात का, विरह की रात से कोई मुकाबला नहीं। दिन कटते नहीं लगते। कब होगा मिलन? कैसे होगा मिलन? बस, एक ही धुन समाई होती है।
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबां आते-आते
भक्त कहने लगता हैः कुछ तो सोचो। यहां दुनिया हाथ से जा रही है; यह सुबह जा चुकी, यह दोपहर गुजरने लगी, यह सांझ आने लगी; जल्दी ही सब ल जाएगा। दिन लते-लते लता है।
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबां आते-आते।
तेरी मेहरबानी की बड़ी खबरें सुनी थीं, लेकिन बड़ी देर हुई जा रही है; तू अभी तक नहीं आया!
आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम
जाते रहे हम जान से, आते ही रहे तुम
भक्त से कोई पूछो, कितना रोता है। लेकिन ध्यान रखना, रोने में दुख नहीं है। रोने में बड़ी मधुर पीड़ा है। मधुर, बड़ी मीठी पीड़ा है।
कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर।।
धन्यभागी है। उसके आंसू सिर्फ दुख के आंसू नहीं हैं। उसके आंसू प्रार्थना हैं।
फिर मेरी आंख हो गई नम नाग
फिर किसी ने मिजाज पूछा है!
भक्त की आंख तो क्षण में गीली हो जाती है। जरा सी बात उठाओ कि गीली हो जाती है। आंख में जैसे आंसू तैयार ही रहता है। जैसे अब झलका, अब झलका; जैसे किसी तरह भक्त सम्हाले हुए है।
तुम न आओगे तो मरने की हैं सौ तदबीरें।
मौत कुछ तुम तो नहीं कि बुला भी न सकूं।
बहुत बार भक्त सोचने लगा कि इससे तो मर जाना बेहतर। अगर मर कर ही तुम मिलो, तो वही बेहतर। कितना बुलाते-बुलाते, कितना पुकारते-पुकारते थक गया हूं! नाराज भी हो जाता है कभी। कभी रूठ भी जाता है।
आप का ऐतबार कौन करे।
रोज का इंतजार कौन करे।
मगर रूठने से भी कुछ नहीं होता। फिर-फिर याद करने लगता है।
तआमुल तो था उनको आने में कासिद
मगर यह बता तर्ज-ए-एनकार क्या थी
इस पर भी भरोसा करता है। कहता है कि नहीं आते, कोई हर्ज नहीं, लेकिन तुम्हारे इनकार करने की तर्ज क्या है?
कई बार प्रेमियों को लगता है कि नहीं कही जाती है, लेकिन ‘नहीं’ अर्थ नहीं होता, ‘हां’ अर्थ होता है।
तआमुल तो था उनको आने में कासिद
मगर यह बता तर्ज-ए-एनकार क्या थी
वह पूछने लगता है कि इनकार कर रहे हो, इसमें कहीं तुम्हारा स्वीकार तो नहीं छिपा है! नहीं आ रहे हो, इसमें कहीं आने की तैयारी तो नहीं छिपी है! ऐसे न मालूम कितने भावों में भक्त गुजरता है।
भाव में गुजरने की यह सारी यात्रा का नाम ही भक्ति है। मगर हर हाल याद उसी की। कभी नाराज भी हो जाता है, लेकिन नाराजगी में भी याद उसी की। कभी राजी भी हो जाता है। लेकिन राजी में भी याद उसी की।
और याद तो पहला विरह का रूप है। फिर जब उसे पहली झलक मिलती है, तब और भी भयंकर विरह शुरू होता है। क्योंकि पहली झलक के बाद...।
जब तक झलक नहीं मिली है, तब तक एक बात है। रो रहा है, पुकार रहा है। लेकिन जब पहली झलक मिल गई, आकाश में बिजली कौंध गई, फिर उसके बाद तो जगत सब रूखा हो गया, बेस्वाद हो गया। फिर अब वह चाहता है कि अब झलक से काम न होगा, अब पूरे मिलो।
तस्कीने दिले महजू न हुई
वो सई-ए-करम फरमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए
बहला भी गए, तड़पा भी गए।
तस्कीने दिले महजू न हुई-दुखित हृदय शांत नहीं हुआ इससे।
तस्कीने दिले महजू न हुई।
वो सई-ए-करम फरमा भी गए।
और वह आ भी गए, उनकी कृपा बरस भी गई। एक क्षण झलक भी मिली।
इस सई-ए-करम को क्या कहिए!
इस कृपा को क्या कहें?
बहला भी गए, तड़पा भी गए। एक क्षण को लगा कि आ गएः और तड़प और ब. गई।
उस रोशनी के बाद फिर और अंधेरा गहरा हो जाता है।
तो एक विरह है--जब तक दर्शन नहीं हुआ प्रभु का। फिर दूसरा विरह--महा विरह है, जब उसकी झलक मिली। और फिर तीसरा विरह है--जब वह मिल भी गया, लेकिन उतने से भी भक्त की तृप्ति नहीं होती। जब तक भक्त उसमें डूब न जाए, उसको अपने में न डुबा ले; जब तक भक्त भगवान न हो जाए, भगवान भक्त न हो...।
इसलिए भक्त की यात्रा तीन विरह से गुजरती है। लेकिन यह सारा विरह अपूर्व प्रेम से भरा हुआ है। यह सारा विरह प्रेम की ज्योति से जगमग है।
इस सूत्र को ध्यान करनाः
किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
तुम्हारी भी देह अमोलक हो सकती है। तुम भी हकदार हो, जन्मसिद्ध तुम्हारा अधिकार है। देर अगर हो रही तो इसलिए कि तुमने पुकारा नहीं। देर अगर हो रही तो इसीलिए कि तुम्हारे आंसू अभी गिरे नहीं। देर अगर हो रही तो इसीलिए कि अभी दर्द उठा नहीं।
बेदरदी समझै नहीं, विरही पावै भेद।।
देर अगर हो रही तो इसीलिए कि तीर सदगुरु का अभी लगा नहीं; कि तुम अपने को बचाए चले जा रहे हो।
अब और न बचाओ।
कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर।।

आज इतना ही।

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