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बुधवार, 12 दिसंबर 2018

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-03)

फिर पत्तों की पाजेब बजी-तीसरा 

एक पृथ्वी, एक मनुष्यता टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।  मैं झंझावात का केंद्र बिन्दु हूं, इसलिए मेरे आसपास जो भी घटता है उससे मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता- फिर चाहे वह तूफान हो या किसी झरने का कल-कल निनाद हो; मैं दोनों का साक्षी हूं। और यह साक्षित्व निश्चल बना रहता है। जहां तक मेरे अंतरतम अस्तित्व का सवाल है, हर परिस्थिति में मैं केवल साक्षी होता हूं।  और यही मेरी सारी देशना है कि चीजें बदलती रहेंगी लेकिन तुम्हारी चेतना बिल्कुल अचल बनी रहे। चीजों की बदलाहट अनिवार्य है, वह उनका स्वभाव है। एक दिन तुम सफल होते हो, एक दिन तुम असफल होते हो। एक दिन तुम शिखर पर होते हो, दूसरे दिन तुम खाई में होते हो; लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ तत्व हमेशा बिल्कुल अचल होता है। वही कुछ तत्व तुम्हारी वास्तविकता है। और मैं अपनी वास्तविकता में जीता हूं, उन स्वप्नों और दुःस्वप्नों में नहीं, जो वास्तविकता को घेरे रहते हैं।  क्या आप यहां रहने की योजना बना रहे हैं?  मैं कभी कोई योजना नहीं बनाता।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।

मैंने दो कम्यून बना कर देख लिए- एक भारत में, एक अमेरिका में। दोनों ही अत्यंत सफल रहे। लेकिन वे जितने सफल हुए उतने ही राजनीतिक उनके खिलाफ हो गए। यदि मैं कम्यून बनाने में असफल होता तो राजनीतिक जरा भी विरोध नहीं करते; सफलता के कारण उपद्रव शुरू हुआ। क्योंकि मेरे कम्यून ने एक आदर्श निर्मित किया था।  अमेरिका के कम्यून में पांच हजार लोग रहते थे और उसका क्षेत्र एक सौ छब्बीस वर्ग मील का था। हमने चार साल के भीतर उस मरुस्थल को मरुद्दान में बदल दिया। पचास साल से वह भूमि बंजर पड़ी थी, उसे खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं था। और हमारी कोशिश के कारण वह जमीन हमारे लिए सब्जियां, फल, अनाज उगाने लगी और दूध के उत्पादन तथा कम्यून की हर जरूरत पूरी करने लगी। कम्यून बड़े सुविधाजनक ढंग से, आनंद से सृजनात्मक जीवन जी रहा था।  कम्यून में न कोई गरीब था, न कोई अमीर था। और इसके लिए जो सरल उपाय मैंने किया था, वह था, कम्यून में पैसे का उपयोग न करना। कम्यून के अंदर पैसे का कोई विनिमय करने की इजाजत नहीं थी। कम्यून के द्वारा हर चीज हर व्यक्ति को दी जाती थी।
तुम लखपति हो या निर्धन, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था; तुम्हारी हर जरूरत पूरी की जाती थी। और लोग प्रतिदिन बारह से चैदह घंटे काम करते थे, वे स्वयं कभी छुट्टी नहीं लेते थे। क्योंकि जिसका निर्माण वे इतने उल्लास से कर रहे थे, वह उनकी अपनी जगह थी। उनके दिन की शुरुआत ध्यान से होती थी। उसके बाद काम, और अंततः, उनके दिन का समापन नृत्य, गीत और साजों पर धुन छेड़ने से होता था। वह मानो एक स्वप्नलोक था।  जल्दी ही पूरे अमेरिका में खरब फैल गई। प्रसारण माध्यम के लोग वहां आने लगे। उनको विश्वास नहीं हो रहा था कि वहां कोई शासन नहीं था, कोई पदानुक्रम नहीं था, कोई नौकरशाही नहीं थी, और फिर भी हम एक उच्चकोटि के साम्यवाद का प्रयोग कर रहे थे- जिसमें कोई तानाशाही नहीं थी।  यह अमेरिकन राजनीतिकों के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गया। अगर पांच हजार लोगों के साथ एक जगह पर यह घटना घट सकती है तो कहीं अन्यत्र यह संभव क्यों नहीं हो सकता? और हमारे हाथ में कोई सत्ता नहीं थी; उनके हाथ में पूरी ताकत थी। दुनिया की सारी संपदा उनके पास थी, और फिर भी अमेरिका में तीन करोड़ भिखारी हैं। हमने दो सौ भिखारियों को अपने कम्यून में प्रवेश दिया था। उन्होंने अपनी चोरी करने की, शराब पीने की, और अन्य सभी बुरी आदतें छोड़ दी थीं। क्योंकि पहली बार उन्हें मनुष्य होने की गरिमा मिली थी। और कम्यून के अन्य सदस्यों की तरह उन्हें भी सम्मान मिलता था।
जिस तरह इन लोगों ने अमेरिका का कम्यून नष्ट किया है और जिस तरह भारत का कम्यून नष्ट किया है, उसने हमें काफी सबक सिखाया है। मैं कोई कम्यून स्वतः निर्मित नहीं करूंगा- जब तक कि कोई शासन मुझे निमंत्रित नहीं करता, मेरा सहयोग नहीं करता और मुझे एक आदर्श गांव बनाने का निमंत्रण नहीं देता- ऐसा गांव जो पूरे देश को उपलब्ध हो। और उस गांव में एक छोटा सा विश्वविद्यालय भी हो, जहां हम तीन महीनों या छह महीनों के कोर्स शुरू कर सकते हैं। दूसरे गांवों के लोग वहां आकर सीख सकते हैं कि हमने किस तरह यह निर्माण किया है, ताकि वे लोग भी कर सकें। हम अपने लोगों को भी दूसरे गांवों में भेज सकते हैं, जो वहां के लोगों को सिखाएंगे कि हमने किस तरह गांव बसाया है। और हम अन्य लोगों को मार्गदर्शन करने के लिए चीजें निर्मित करने के लिए, हमारे लोगों को भेज सकते हैं। लेकिन मैं अपने से कुछ भी शुरू करने वाला नहीं हूं।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।  यह बिल्कुल बकवास है। तुम जरा मेरे लोगों को देखो, उनमें से नब्बे प्रतिशत साधारण लोग हैं। और यह किसी के लिए भी बंद नहीं है। मैंने भिखारियों को भी स्वीकार किया है। लेकिन उन भिखारियों और साधारण आदमियों को मैंने धनी बना दिया है। जब कोई साधारण आदमी मेरे कम्यून में आता है, तो वह साधारण ही होता है, लेकिन मेरे कम्यून में रहने से वह बहुत आसाधारण बन जाता है।
यह तो बिल्कुल झूठ है।  भगवान, नाम को गलत समझे जाने के आधार क्या हैं?  उसका आधार यह है कि भारत में तीन धर्म हैं। हिन्दू धर्म में भगवान का अर्थ होता है- ईश्वर। बौद्ध धर्म और जैन धर्म भी भगवान शब्द का उपयोग करते हैं, लेकिन उनका अर्थ ईश्वर नहीं होता, क्योंकि न बौद्ध धर्म ईश्वर को मानता है, न जैन धर्म मानता है। उन धर्मों में कोई ईश्वर नहीं है। लेकिन बुद्ध को ‘भगवान गौतम बुद्ध’ कहा जाता है और महावीर को ‘भगवान वर्धमान महावीर’ कहा जाता है। भगवान का उनका अर्थसर्वथा भिन्न है। उनका अर्थ हैः धन्यभागी वह जो चेतना के अंतिम शिखर तक पहुंच गया। तो जितने प्राणी हैं, उतने भगवान हो सकते हैं। वह प्रत्येक का जन्मसिद्ध अधिकार है। हिंदू धर्म में ईश्वर का एकाधिकार है, वह फासिस्ट है। जैन और बौद्ध धर्म में भगवान महज तुम्हारी क्षमता है।  यह समस्या इसलिए खड़ी हुई, क्योंकि मैं जैन धर्म में पैदा हुआ हूं; और भगवान मेरे लिए ईश्वर कभी नहीं था। मेरे लिए वह हमेशा परम चेतना का प्रतीक रहा है, जो हर कोई उपलब्ध कर सकता है। यह गलतफहमी सिर्फ मेरे साथ नहीं है, यह हजारों वर्ष पुरानी है।
अब जैसे, हिंदु महावीर को भगवान कभी नहीं मानेंगे, क्योंकि उन्होंने यह संसार निर्मित नहीं किया। वे तो ईश्वर के आंशिक अवतार भी नहीं हैं। वे राम को ईश्वर का आंशिक अवतार मानते हैं। वे कृष्ण को ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं। लेकिन बौद्ध और जैन उनसे सहमत नहीं होंगे। क्योंकि कृष्ण का पूरा चिंतन ही हिंसा का है।  गीता एकमात्र ऐसी किताब है जो इतनी स्पष्टता से हिंसा की शिक्षा देती है। सच पूछा जाए तो महात्मा गांधी उसकी वजह से जड़बुद्धि प्रतीत होते हैं। वे अहिंसा के संबंध में और अहिंसा के दर्शन के संबंध में बातचीत करते हैं, और गीता को अपनी माता कहते हैं, और वह कल्पना भी नहीं कर सके कि गीता पूरी हिंसा से भरी है। अर्जुन को कृष्ण सिखा रहे हैं, उस पूरी शिक्षा का सार यही है कि युद्ध में उतर, लड़। यही तेरा धर्म है। तू योद्धा है। मारना और मरना ही तेरा जीवन है। और यही परमात्मा की इच्छा है।  मैं खुद कृष्ण को भगवान शब्द के मेरे अर्थ में भगवान नहीं कहूंगा। वे राजनीतिक हैं, और बड़े धूर्त राजनीतिक हैं। मैं राम को भगवान नहीं कहूंगा। राम को भगवान कहना इस शब्द का मूल्य कम करने जैसा है। क्योंकि यही यह आदमी है जिसने शूद्र के कानों में पिघला हुआ सीसा डलवाया, क्योंकि यही वह आदमी है जिसने शूद्र के कानों में पिघला हुआ सीसा डलवाया, क्योंकि उस शूद्र ने पेड़ के पीछे छिपकर वेदों के मंत्र सुन लिए थे- और यह महापाप था।
जो आदमी परम चेतना को उपलब्ध है, वह इस तरह आचरण करेगा? उसके लिए भी कोई शूद्र है, और उसे इस कुरूप ढंग से सजा देती है? मैं राम को भगवान कहने की कल्पना भी नहीं कर सकता।  तो यह विवाद हजारों साल पुराना है। मैं गौतम बुद्ध और महावीर के पक्ष में हूं, राम, कृष्ण, या महात्मा गांधी के पक्ष में नहीं हूं। महात्मा गांधी भी धार्मिकता का मुखौटा ओढ़े हुए राजनीतिक हैं। पाकिस्तान बना इसके लिए महात्मा गांधी और उनका धार्मिकता का, साधुता का मुखौटा जिम्मेदार है। अन्यथा जिन्ना कांग्रेस के सदस्य थे और उन्होंने सोचा भी नहीं था कि मुसलमान भारत से अलग हों। लेकिन जब उन्होंने देखा कि गांधी हिंदु संत बन रहे हैं, गीता को माता कहते हैं, लेकिन कुरान को पिता नहीं कहते, उनका सारा आचरण जीवन हिंदु संत जैसा हो रहा है तो स्वभावतः जिन्ना को डर पैदा हुआ कि यह आदमी हिंदू अधिराज्य बनाने वाला है। और इस देश में मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। तो मैं मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराता। पाकिस्तान के लिए महात्मा गांधी जिम्मेदार हैं, और उनकी तथाकथित अहिंसा, जो कि बिल्कुल थोथी थी; क्योंकि गीता और अहिंसा, ये दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।  क्या तुमने कभी सुना है कि अर्जुन को उस दर्शन की शिक्षा देने के कारण और भारत में महायुद्ध करवाने के कारण- जिसके बाद भारत फिर खड़ा नहीं हो सका- जैन पुराण में कृष्ण अब भी नर्क में हैं? उस युद्ध से भारत की रीढ़ ही टूट गई। सिर्फ जैन शास्त्रों में कृष्ण नर्क में सड़ रहे हैं। उनको भगवान कहने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
महात्मा गांधी फिर एक बार वही भूमिका अदा कर रहे हैं- महात्मा का मुखौटा, अहिंसा की चर्चा, और फिर भी गीता की शिक्षा। गीता की तुलना में तो कुरान भी अहिंसक है। कृष्ण की तुलना में तो मोहम्मद भी अहिंसक हैं। तो यह डर पैदा कर दिया कि हिंदुओं द्वारा इस देश का शासन होगा। दूसरे, चूंकि वे अहिंसा की बात कर रहे थे, उन्होंने सारे देश की हिंसा को दबा दिया। और जैसे ही ब्रिटिश देश छोड़ कर गये और देश का बंटवारा हुआ तो चालीस साल तक महात्मा गांधी जिस हिंसा को दबा रहे थे उसका विस्फोट हुआ। दस लाख लोग मारे गए। और मैं फिर महात्मा गांधी की ओर अंगुलि-निर्देश करता हूं। इस सबके लिए वे ही जिम्मेदार हैं।  जब मेरे लोग मुझे भगवान कहने लगे तो मेरे ईश्वर होने का कोई सवाल ही नहीं था। ईश्वर तो बिल्कुल ही निरर्थक धारणा है, उसका कोई अर्थ ही नहीं है। वह तो एक परिकल्पना भी नहीं है। अस्तित्व में कोई ईश्वर नहीं है। अस्तित्व में कोई ईश्वर नहीं है। अस्तित्व स्वयं में काफी है। मेरी दृष्टि में भगवान का अर्थ है- प्रत्येक की परम क्षमता। तुम्हारा भगवान सुप्त हो सकता है, मेरा भगवान जाग्रत हो सकता है, लेकिन जहां तक हमारी भगवत्ता संबंध है, उसमें कोई फर्क नहीं है।  आपने कहा कि विदेशियों की अपेक्षा भारतीय संन्यासियों की संख्या बहुत कम है। अब आप भारत में रहेंगे तो शायद परिस्थिति उल्टी होगी। (आगे टेप में सुना नहीं जा सकता) वस्तुतः मैं राष्ट्रों में विश्वास नहीं करता। मेरे लिए पूरी पृथ्वी एक है और पूरी मनुष्यता एक है। जैसे ही तुम देशी और विदेशी की भाषा में सोचने लगते हो, तुम व्यर्थ विभाजन पैदा करते हो जो अंततः युद्ध, नफरत, निकृष्टता, श्रेष्ठता और सभी तरह की कुरूप मनोवृतियों की ओर ले जाता है।
यह बात सच है कि जिन्हें तुम्हारी भाषा में गैर-भारतीय कहते हैं, वे लोग ज्यादा हैं। लेकिन उसका कारण इतना है कि दुनिया में गैर-भारतीयों की संख्या अधिक है। इसके लिए मैं क्या कर सकता हूं? भारतीय ज्यादा नहीं हैं। छह आदमियों में एक आदमी भारतीय है। और मैं सोचता हूं कि मैंने वह अनुपात अच्छी तरह से बनाये रखा है। मेरे शिष्यों में तुम पाओगे कि छह शिष्यों में एक शिष्य भारतीय है। मैं भारत में रहा तो भी इसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। उसका कारण यह है कि मैं जो शिक्षा दे रहा हूं उसके लिए एक खास बुद्धिमानी चाहिए, एक खास शिक्षा, एक खास संस्कृति चाहिए जो दुर्भाग्य से अधिकांश भारत में नहीं पाई जाती।  तो जब मैं इस तरह की बातें कहता हूं जैसे मैंने राम के संबंध में कहीं, वे मुझे भारतीयों से तोड़ने के लिए काफी हैं। वे मुझे कोई प्रत्युत्तर नहीं दे सकते। वे यह स्पष्ट नहीं कर सकते कि वह पूरी तरह समर्थनीय है। लेकिन उनके अचेतन संस्कार ऐसे हैं कि मैंने राम के खिलाफ कुछ कहा नहीं कि उनकी नजरों में मैं निंदित हो जाता हूं, मैं उनका दुश्मन हो जाता हूं।  और इसमें फर्क होता है। अमेरिका में मैं जीसस की ऐसी आलोचन करता रहा हूं जैसी कभी किसी ने न की हो- यहूदियों ने भी नहीं।
उन्होंने जीसस को सूली दी लेकिन उनकी आलोचना नहीं की। और खास कर अब तो जीसस की आलोचना करने की हिम्मत किसी में नहीं है, और वह भी एक ईसाई देश में। लेकिन पांच हजार ईसाई सुन रहे थे, समझने की कोशिश कर रहे थे, तथ्य को देख रहे थे। यहां तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं राम की, कृष्ण की आलोचना कर रहा हूं और पांच हजार हिंदु सुन रहे हैं।  एक अरसे से हिंदु मस्तिष्क का विकास रुका हुआ है। पांच हजार साल पहले मनु के साथ ही उसका विकास रुक गया। तबसे वह विकसित नहीं हुआ है; लेकिन ये वही लोग हैं जिनकी एक खास संस्कृति है, खास तरह की शिक्षा है और खुला हुआ मन है।  जैसे, मेरे संन्यासियों में तुम मुसलमान मुश्किल से पाओगे। मेरे कुछ मुसलमान संन्यासियों हैं, लेकिन उनकी संख्या नगण्य है। इसका कारण इतना ही है कि वे सोच भी नहीं सकते कि कुरान के पार भी कुछ हो सकता है। चैदह सौ साल पहले इतिहास रुक गया है, जम गया है। हजरत मोहम्मद के साथ उसका पूर्ण विराम हो गया। उसके बाद हम व्यर्थ ही जी रहे हैं, मरणोपरान्त जी रहे हैं। अब न कुछ खोजने योग्य है, न कुछ पाने योग्य है।  मेरा अपना अनुभव बड़ा अजीब रहा है। मेरे संन्यासियों में चालीस प्रतिशत यहूदी हैं। अब मैं समझ सकता हूं कि यहूदियों को इतने अधिक नोबल पुरस्कार क्यों मिलते हैं। वे लोग सचमुच बुद्धिमान हैं। और चूंकि उनकी भूमि उनसे छिन गयी, वे विभिन्न देशों में बिखर गये। किसी एक भूमि और एक देश में उनकी जड़ें जम न सकीं, वे उखड़ गईं।
और अपनी जड़ों के उन्मूलन के कारण एक अर्थ में वे मुक्त हो गए। तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा कि इस पूरी सदी पर यहूदियों का अधिकार है। कार्ल माक्र्स यहूदी है। अब आधी से ज्यादा दुनिया उससे प्रभावित है सिग्मंड फ्रायड यहूदी है। जो भी स्वयं को बुद्धिजीवी मानता है वह फ्रायड से प्रभावित होगा ही। अलबर्ट आइंसटीन यहूदी है। हिरोशिमा और नागासाकी उसके निर्माण हैं।  और मैं यहूदी धर्म की कड़ी से कड़ी आलोचना करता रहा हूं लेकिन एक भी यहूदी संन्यास छोड़कर नहीं गया।  वह खुला मन हिंदुओं के पास नहीं है, जो उस बात को त्याग करने के लिए तत्क्षण तैयार हो जाते हैं, जो उनके तर्क बुद्धि को गलत मालूम होते हैं। जिनके पास ऐसा मन है, वे मेरे पास आ रहे हैं। भारत में मेरे लगभग एक लाख संन्यासी हैं। और जब मैं यहां रहूंगा तब उनकी संख्या बढ़ जाएगी। लेकिन उनके साथ मुश्किल यह है कि उन सबकी एक विशिष्ट धारणा होती है। यदि मैं उनका समर्थन करूं तो वे मेरे साथ होंगे। वे मेरे साथ नहीं होते, वे अपनी धारणा के साथ होते हैं। और मेरा काम कुल इतना है कि तुम्हारी सारी विचारधाराओं को विनष्ट कर दूं ताकि तुम पूरी तरह से ताजे और मुक्त हो जाओ और अपने बल पर गति कर सको।  उसके स्थान पर मैं तुम्हें कुछ नहीं देता। मैं तुम्हारा सारा ढांचा नष्ट करता हूं।
तुम मेरे धर्म को ढांचा तोड़ने का धर्म कह सकते हो। और फिर मैं तुम्हें कोई नया ढांचा दिये बिना अकेला छोड़ देता हूं। मैं तुम्हारी निजता का सम्मान करता हूं और तुम्हारी स्वतंत्रता का सम्मान करता हूं। और मैं तुम्हारे आसपास कोई पिंजरा निर्मित नहीं करता। क्योंकि मैं जानता हूं कि पंख खोलकर आकाश में उड़ने वाले पक्षी से सोने के पिंजरे में कैद पक्षी बिल्कुल भिन्न होता है। वह पिंजरा कीमती हो सकता है लेकिन पक्षी मर जाता है। उसकी स्वतंत्रता छिन जाती है।  कल ही कोई दो पक्षी मुझे भेंट करने के लिए लाया था। जब मेरे पास लाये गए थे तब दोनों मुर्दा थे, वस्तुतः मृत थे। मैंने उनसे कहा कि तुमने उनकी स्वतंत्रा छीन ली; और उसी क्षण वे मर गए। उनकी स्वतंत्रता उनकी आत्मा है।  और मेरे संन्यासियों के साथ मुझे जो काम करना है, वह किसी धर्म का या संगठन का निर्माण नहीं बल्कि ऐसे व्यक्ति तैयार करने, जो अपने पैरों पर खड़े हो सकें, वे आकाश में जितनी दूर चाहें उतनी दूर तक उड़ान भर सकें। तो कोई भी- चाहे वह हिंदू हो या ईसाई हो या यहूदी हो, जो भी खुला है, वह मेरे पास आ सकता है।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।
उसी कारण से। वही भारतीय मन, बंद मन। मैंने उनसे कभी सहानुभूति की अपेक्षा नहीं की थी। वस्तुतः मेरे साथ जो हुआ उससे तो हृदय की गहराई में उन्हें खुशी ही हुई होगी। मेरी हत्या की जाती तो शायद वे उत्सव मनाते। अमेरिकन प्रेस नितांत सुहानुभूतिपूर्ण थी। विश्व भर की पे्रस मुझसे सहानुभूति रखती थी, सिर्फ भारतीय प्रेस को छोड़कर। भारत में पैदा होना दुर्भाग्य है।  आपने धर्मों के संबंध में कहा है लेकिन प्रेस (टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता) वे लोगों का शोषण कर रहे हैं। क्योंकि लोग हजारों वर्षों से सोचते आये हैं कि कामवासना पाप है, उसका दमन करना चाहिए। और ये लोग, जिन्हें सदियों से सिखाया गया है कि कामवासना पाप है, खंडित हो गये हैं। क्योंकि काम तुम्हारी ऊर्जा है। तुम्हारे पास अन्य कोई ऊर्जा नहीं है। तुम काम ऊर्जा ही पैदा हुए हो। तुम काम ऊर्जा से ही सृजन करते हो, प्रजनन करते हो।  सभी महान सर्जक अति कामुक होते हैं। मनुष्य के पूरे इतिहास में तुम एक भी नपुंसक आदमी नहीं दिखा सकते जिसने कुछ भी सृजन किया हो- कोई सुंदर कविता या शिल्प या चित्र। नपुंसक आदमी तो साधु भी नहीं हुआ है, जो कि उसे होना चाहिए; क्योंकि उसे कामवासना की कोई समस्या नहीं है। अगर कामवासना के सारे निंदक सही हैं, तो सिर्फ नपुंसकों पर ही ईश्वर की कृपा होनी चाहिए; और नपुंसकता को आध्यात्मिक गुण मानना चाहिए। लेकिन एक भी नपुंसक आदमी संत नहीं बना है।
यह क्या दिखाता है? यह दिखाता है कि तुम्हारी सारी ऊर्जा- फिर तुम बच्चे पैदा करो, या चित्र बनाओ, या संगीत का निर्माण करो, या बुद्ध हो जाओ; कुछ भी करो वह एक ही ऊर्जा है जो अलग-अलग आकारों में, अलग अभिव्यक्तियों में, अलग-अलग आयामों में गति करती है।  तो जब मैंने कहा कि कामवासना का दमन न किया जाए बल्कि उसे हमारे स्वाभाविक अस्तित्व की तरह स्वीकृत किया जाए, तभी हम उसे रूपांतरित कर सकते हैं, उससे ऊंची उड़ान भर सकते हैं; तो तत्क्षण पूरा भारतीय प्रेस उसमें उत्सुक हो गया। मैंने चार सौ किताबें लिखी हैं, उनमें सिर्फ एक किताब सेक्स के संबंध में हैं। भारतीय पत्रकारों को बाकी तीन सौ निन्यानबे किताबों की कोई जानकारी नहीं है। उनकी दृष्टि में मेरी एक ही किताब है; और वह भी उन्हें पूरी-पूरी पता नहीं है। किताब का नाम है, ‘संभोग से समाधि की ओर।’ उसका सिर्फ पहला हिस्साः सेक्स, उन्होंने इतना भी कष्ट नहीं उठाया कि वह किताब सेक्स के संबंध में नहीं है। वह किताब संभोग का समाधि में रूपांतरण करने के संबंध में है। और पहले दमन को विसर्जित करना होगा, तभी वह रूपांतरण संभव है। वस्तुतः में पूरी दुनिया में सेक्स का सबसे बड़ा दुश्मन हूं, लेकिन आश्चर्यों का आश्चर्य तो वह जो भारतीय पत्रकारों ने किया है। उन्होंने मुझे ठीक वही बना दिया है, जो मैं नहीं हूं। और मैं समाचारपत्र या पत्रिकाएं पढ़ता नहीं हूं क्योंकि वे एकदम घटिया होती हैं। उन्हें पढ़ना अपना समय खराब करना है। वे लोगों का शोषण कर रहे हैं। वे सनसनी फैला रहे हैं, झूठ को गढ़ रहे हैं और चीजों को संदर्भ के बाहर रखकर प्रस्तुत कर रहे हैं।  लेकिन विश्व प्रेस की यह स्थिति नहीं है।
और मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि जब मैं अमेरिकन प्रसारण माध्यम की बात कर रहा था, तो मुझे साफ दिखायी पड़ रहा था कि वे मेरी बातों को विकृत नहीं करेंगे; और उन्होंने नहीं किया। बल्कि मैं तो वहां कोई नहीं था, एक विदेशी था। यदि मुझे जेल में सताया भी जाता तो अमेरिका के प्रेस को मुझसे क्या लेना-देना था? लेकिन पूरी प्रेस दूरदर्शन, आकाशवाणी, समाचारपत्र, मासिक पत्रिकाएं, ये सब मैं जिस जेल में जाता उसे घेर लेते। और इस प्रसारण माध्यम के कारण ही वे मेरा बाल भी बांका न कर सके। वे उनसे भयभीत थे।  भारतीय शासन भारतीय प्रेस से जरा भयभीत नहीं है। भारतीय प्रेस अभी प्रौढ़ नहीं हुआ। और वस्तुतः भारतीय पत्रकारों को सरकार से मांग करनी चाहिए कि दूरदर्शन, रेडियो, सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं होने चाहिए। वे प्रसारण माध्यम के अंग हैं, और वे सार्वजनिक होने चाहिए।  इस प्रसारण माध्यम ने मेरा संरक्षण किया। अमेरिकन मार्शल ने भी मुझसे कहा कि हम आपको छू नहीं सकते, आप बिल्कुल सुरक्षित हैं, क्योंकि विश्व भर का प्रसारण माध्यम देख रहा है। आपके साथ कुछ भी किया तो तो अमेरिका की भत्र्सना होगी। लेकिन भारतीय प्रेस के बारे में वही नहीं कहा जा सकता।  भारतीय पत्रकारिता में अच्छे लोग हैं। जब मैं आप जैसे लोगों को देखता हूं, ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने मुझे देखा हुआ है, तो मुझे आश्चर्य होता है कि आप लोगों का अपने समाचार पत्रों से तालमेल कैसे बैठता है। आप अपने को इतने अपमानित कैसे कर सकते हैं? समाचार माध्यम में काफी अच्छे और बुद्धिमान लोग हैं, लेकिन वे उसी ढांचे में समाने की कोशिश करते हैं। वे विद्रोही नहीं हैं।
मैं चाहूंगा कि पहला विद्रोह तो यह हो कि रेडियो तथा दूरदर्शन पर शासन का नियंत्रण न हो। क्योंकि वह नवीनतम प्रसारण माध्यम है, और शीघ्रतम भी। और लोग खास कर भारत जैसे देशों में पढ़ नहीं सकते लेकिन देख सकते हैं, सुन सकते हैं। तो देश के अधिकांश लोग अगर पढ़ सकते तो देख और सुन तो सकते हैं। और दूरदर्शन और रेडियो सरकार द्वारा नियंत्रित हैं। देश का अधिकांश क्षेत्र प्रसारण माध्यमों के लिए उपलब्ध नहीं है, वह सिर्फ सरकार के प्रचार के लिए उपलब्ध है।  वस्तुतः अमेरिकन अधिकारी आश्चर्यचकित थे। जेल का एक शेरिफ मुझसे बोला बड़े आश्चर्य की बात है कि भारतीय सरकार बिल्कुल खामोश है। बारह दिन तक मुझे सताया गया और अंततः जब अदालत मुझे रिहा करने वाली थी, उससे सिर्फ दो घंटे पहले सान फ्रांसिस को से एक युवक वहां पहुंचा। उसने कहा कि भारतीय राजदूत ने मुझसे प्रत्यक्ष पूछताछ करने के लिए उसे भेजा है। भारत सरकार मेरे मुंह से जानना चाहती है कि मुझे क्या चाहिए।  मैंने कहा, ‘तुमने बड़ी देर कर दी। मेरी दो घंटे में रिहाई होने वाला है। बारह दिन तक तुम कहां थे? और उसके बाद भी...मेरी रिहाई हो गई, मैं अपने कम्यून में वापिस आ गया, और तब वाशिंगटन से राजदूत का फोन आता है कि क्या आपको हमारी कोई मदद चाहिए है? मैंने कहा, अब क्या मदद करोगे? बारह दिन तक तुम कहां थे?  और बारह दिन प्रसारण माध्यम एक ही बात को दोहरा रहा था कि क्यों मैं व्यर्थ ही सताया जा रहा हूं? न मेरी अदालत में कोई पेशी हुई है, गिरफ्तारी के वारंट के बिना मुझे पकड़ा गया है, जो कि बिल्कुल गैर-कानूनी है। मेरी गिरफ्तारी का कोई कारण नहीं दिया गया।
और एक निहत्थे आदमी को तुम बारह बंदूकों से घेर कर गिरफ्तार करते हो। और तुम कोई प्रत्युत्तर नहीं देते। तुम्हारे पास गिरफ्तारी का वारंट नहीं है, न कोई करण है; और भारतीय राजदूत वहां चुप्पी साधे हुए बैठा रहता है! और जब मैं छूट गया तो उसने पूछा, आपकी क्या मदद करें? मैंने कहा ‘मुझे कोई मदद नहीं चाहिए। हां, आप अगर कोई मदद चाहते हों तो मुझसे मांग सकते हैं। मैं आपकी मदद कर सकता हूं। तुम्हें शर्म आनी चाहिए और इस्तीफा देना चाहिए तुम जरा सी आवाज भी न उठा सके? तुम दूरदर्शन से एक भेंटवार्ता प्रसारित कर सकते थे कि यह बिल्कुल गैर-कानूनी है। तुम अमेरिकन सरकार पर दबाव डाल सकते थे।  लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं किया। उल्टे अभी एक विश्वसनीय सूत्र से मुझे पता लगा है कि अमेरिकन सरकार ने भारत के कुछ संसद सदस्यों को खरीद लिया है, ताकि संसद यदि किसी भंाति मेरी सहायता करे तो वे संसद में मेरा विरोध करें। कभी-कभी ऐसा लगाता है कि अपने आपको भारतीय कहलाना कुरूप बात है। कभी-कभार मुझे लगता है कि मैं प्लास्टिक सर्जरी करवा लूं ताकि यह चमड़ी भारतीय न रहे। मुझे सचमुच शर्म आती है।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।  हां, पे्रस साधारण आदमी को मुझसे दूर रख रही है। राजनीतिक चाहते हैं कि साधारण जन मुझसे दूर रहें। धार्मिक नेता चाहते हैं कि साधारण जनता मुझसे दूर रहे।  अब वे चिंतित हैं, हिमाचल प्रदेश चिंतित है कि वह मुझे यहां रहने दे या नहीं। भारतीय सरकार चिंतित है कि मुझे भारत में बसने दे या नहीं। कोई भी प्रांत मुझे अपने प्रदेश में रहने नहीं देगा। क्योंकि मैं जो भी कहूंगा वह न्यस्त स्वार्थों के विपरीत पड़ेगा।
और मैं कोई राजनीतिक नहीं हूं। मैं सबकी प्रशंसा में अच्छी-अच्छी बातें नहीं कहता रहूंगा। अगर वक्त पड़े तो मैं इस देश के बाहर जाऊंगा लेकिन अपनी मातृभूमि में बिना बुलाये मेहमान की तरह नहीं रहूंगा। अमेरिका में कम से कम इतनी सांत्वना तो थी कि मैं यहां विदेशी हूं और वे मेरे साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं। लेकिन भारत में यह सांत्वना नहीं है। यह मेरा देश है और वे मेरे साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं। और मैं सोचता हूं कि इसमें पे्रस मेरी बहुत मदद कर सकती है। बस थोड़ा सा साहस चाहिए।  मैंने यहां अमेरिका में कोई जुर्म नहीं किया है। लेकिन शायद एक अपराधी को माफ किया जा सकता है, पर एक विद्रोही को नहीं। लेकिन उस मामले में मैं किसी भी तल पर समझौता नहीं करूंगा। मैं विद्रोही बना रहूंगा, और मैं वही बातें कहता रहूंगा, जो मेरी चेतना को ठीक दिखाई पड़ती है- जब तक कि कोई उनको गलत सिद्ध नहीं करता, उनके खिलाफ तर्क नहीं जुटाता।  और मैं किसी के साथ कोई भी तर्क करने के लिए सदा तैयार हूं- राजनीतिक हो, धर्मगुरु हो या कोई भी।
क्योंकि मैं जो भी कहता हूं वह अपने अधिकार से कहता हूं। मैं गीता का सहारा नहीं लेता हूं, मैं कुरान का सहारा नहीं लेता हूं, मैं केवल अपनी चेतना पर निर्भर करता हूं। लेकिन लगता है अंधों की घटी में आंखों का होना खतरनाक है।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।  बुद्धत्व को उपलब्ध होने वाले हर व्यक्ति के साथ प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कुछ चेतना तो उत्पन्न होती है। लेकिन एक बुद्ध पूरी दुनिया को रूपांतरित नहीं कर सकता। कम से कम दो सौ बुद्ध चाहिए। इस पृथ्वी पर दो सौ बुद्ध हों तो वे निश्चित रूप से पूरी हवा बदल देंगे, धर्म विलीन होंगे, राष्ट्र विलीन होंगे, युद्ध विलीन होंगे। और आदमी पहली बार बिना किसी दमन के, बिना किसी निंदा के आजादी से जी सकेगा। आदमी जैसा है वैसा स्वीकृत होना चाहिए। उसके ऊपर कोई कर्तव्य या अकर्तव्य थोपना नहीं चाहिए। वह जिस दिशा में विकसित होगा उसी दिशा में, वैसे ही उसे प्रेम और सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन कम से कम दो सौ ज्ञानोपलब्ध व्यक्ति चाहिए। और यह भी मेरा एक मूलभूत काम है।  सारी दुनिया में मेरे दस लाख संन्यासी हैं। और अब मैंने अन्य लोगों के लिए भी द्वार खोल दिये हैं। वे लोग, जिनकी सहानुभूति थी लेकिन जो उनके कपड़े, उनकी नौकरी या परिवार नहीं छोड़ सके। अब मैंने संन्यास सबके लिए खुला कर दिया है। यदि तुम्हारा मन नहीं है तो तुम्हें कपड़े बदलने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी इच्छा न हो तो माला भी पहनने की जरूरत नहीं है।
लेकिन तुम ध्यान तो कर सकते हो। कपड़ों से काई फर्क नहीं पड़ता। वह तो एक आयोजन था कि संन्यास एक तथ्य की तरह पहचाना जा सके। अब वह पहचाना जाने लगा है। अब उसमें कोई सार नहीं है।  तो मैंने द्वार खोल दिए हैं। अगर दस लाख लोगों ने संन्यास लिया है तो कम से कम तीस लाख लोग संन्यास लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्हें सिर्फ माला और कपड़ों का भय था; अन्यथा वे सहानुभूतिपूर्ण थे। और चार अरब लोगों में अब एक ऐसी संभावना पैदा हुई है जो पहले कभी नहीं थी।  बुद्ध कभी बिहार से बाहर नहीं गए। महावीर कभी बिहार से बाहर नहीं गए। सच तो यह है कि बिहार नाम ही इसलिए मिला क्योंकि बुद्ध और महावीर वहां विहार करते थे। विहार यान घूूमना। यदि बिहार जैसी छोटी-सी जगह में बुद्ध बीस लोगों को ज्ञानी बना सके तो पच्चीस सदियों के बाद, ध्यान की अधिक परिष्कृत विधियों के रहते... जीसस कभी जूड़िया के बाहर नहीं गये। और तैंतीस साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुई। उनका शिक्षा-काल सिर्फ तीन साल रहा। रामकृष्ण बंगाल से ही बंधे रहे। लेकिन मैंने पूरी दुनिया में संपदा निर्मित की है। अब हर देश में मेरे कम्यून हैं, और ऐसा एक भी देश नहीं है जहां संन्यासी नहीं हैं। यहां तक कि सोवियत रूस में भी, जो साम्यवादी देश है उसमें भी।  तो इसकी संभावना है और समय भी आ गया है कि दो सौ बुद्ध निर्मित किए जाएं। अन्यथा यह पृथ्वी नष्ट होने वाली है। राजनीतिक उसको नष्ट करने को तैयार बैठे हैं, उसे नष्ट करने के लिए अधिक से अधिक आणविक शस्त्रास्त्र बना रहे हैं। धर्म इस जगत को बचाने में उत्सुक नहीं है। उनकी पूरी उत्सुकता है गरीब लोगों को कैथोलिक या हिंदू या फलां-ढिकां बनाने में। किसी को उस महाविनाश की फिक्र ही नहीं है जो क्षितिज पर मंडरा रहा है।  लेकिन दो सौ ज्ञानापलब्ध व्यक्ति इस पूरे वातावरण को निश्चित रूप से बदल सकते हैं।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।  यह भय के कारण है। ईश्वर की कोई जरूरत ही नहीं है। आदमी इतना भयग्रस्त होकर जीया है कि उसे किसी सुरक्षा की जरूरत थी।
बीमारी का भय था, मृत्यु का भय था। अधिकतर मृत्यु ही आदमी को इतना भयभीत कर देती है कि उसे अपनी रक्षा करने के लिए मृत्यु के पास का कोई चाहिए।  ईश्वर कोई खोज नहीं है, वह अविष्कार है। और ईश्वर के नाम पर पुरोहित बड़ी सुगमता से शोषण कर सके। कहते हैं, वेद ईश्वर ने लिखे हैं; और उन वेदों में इतनी मूढ़तापूर्ण बातें हैं कि यदि ईश्वर ने उन्हें लिखा है तो वेदों के साथ वह भी निंदित हो जाएगा। ईसाई कहते हैं बाइबिल परमात्मा ने लिखी है और यदि बाइबिल परमात्मा ने लिखी है तो उसमें कम से कम पांच सौ पृष्ठ हैं जो अश्लीलता से भरे हैं। तब फिर परमात्मा पूरे अस्तित्व में बड़े से बड़ा अश्लील साहित्यिक हैं।  तुम हिंदू पुराणों को देखोगे तो वहां सिर्फ अश्लीलता पाओगे। हिन्दुओं ने भी शिवलिंग को परमात्मा बनाया है। यह अच्छा हुआ कि सिग्मंड फ्रायड कभी शिवलिंग के बारे में जान न पाया कि ऐसे भी लोग हैं जो अपने मंदिरों में लैंगिक प्रतीकों की पूजा करते हैं; और जो इससे बिल्कुल बेखबर हैं कि वह किसकी पूजा कर रहे हैं।  ईश्वर है ही नहीं। ईश्वर के पक्ष में दिए जाने वाले सभी तर्क असिद्ध हो जाते हैं। वे लोग जो वस्तुतः चेतना के उच्चतम शिखर पर पहुंचे हैं, उन्होंने कभी ईश्वर की धारणा को स्वीकार नहीं किया। पतंजलि- वह आदमी, जिसने उसके पूरे योग का विज्ञान निर्मित किया, ईश्वर को नहीं मानता।
उसी तरह बुद्ध, शायद महानतम मानव जो इस धरती पर चला हो...एच. जी वेल्स ने उनके संबंध में लिखा है, ‘वे सर्वाधिक ईश्वर विहीन व्यक्ति थे और फिर भी सबसे अधिक ईश्वरतुल्य।  ईश्वर के पक्ष में एक भी तर्क नहीं है। वह बिल्कुल ही निरर्थक परिकल्पना है। और अच्छा होगा कि हम उस परिकल्पना को बिल्कुल ही त्याग दें। क्योंकि उस त्याग के साथ ही इस्लाम, हिंदू धर्म, ईसाइयत, यहूदी धर्म एकदम विलीन हो जाते हैं; और उनके साथ ही उनके चर्च, हजारों कार्डिनल; बिशप, पोप भी जो मनुष्यता के शोष्क हैं और कुछ भी नहीं, वे सब खो जाएंगे।  ईश्वर सबसे बड़ी विपदा है। हां, लोग ईश्वर तुल्य हों। जिसका मतलब है, वे सच्चे हों, प्रामाणिक हों, प्रेमपूर्ण हो, होशपूर्ण हों। ये सब गुण उन्हें ईश्वर तुल्य बनाएंगे। लेकिन इससे वे ईश्वर नहीं हो जाते।  तो मैं तो ईश्वर को नष्ट कर रहा हूं और भगवत्ता को हर मनुष्य तक पहुंचा रहा हूं। उसे एक मंदिर में प्रतिमा बनाकर पूजने की बजाय यदि उसे एक गुणवत्ता की तरह, एक सुगंध की तरह दूर-दूर तक फैलाएं तो ज्यादा अच्छा होगा। जब तुम वही हो सकते हो तो उसकी पूजा क्यों करना।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।  और कुछ? फिर वापिस आना। और इस बात की कोशिश करो कि भारत में पत्रकारिता का वही तल हो जो पूरे विश्व में है। हमें पीछे नहीं छूटना चाहिए। सरकार की नौकरशाही की विशाल यंत्रणा के खिलाफ व्यक्ति की स्वतंत्रता अक्षण्ण बनाये रखने का वह एक सशक्त साधन है। एक अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता।
अमेरिका के एक कारागृह में ऐसा हुआ। वहां के मार्शल ने मुझ झूठे नाम के नीचे हस्ताक्षर करने के लिए कहा- डेविड वाशिंगटन। मैंने कहा, ‘यह बिल्कुल पागलपन है, यह मेरा नाम नहीं है। मैं इसके नीचे क्यों हस्ताक्षर करूं? तुम न्याय विभाग में काम करते हो। यह किस तरह का न्याय है?  उसने कहा, ‘मुझे आपके साथ बहस नहीं करनी है। अगर आप हस्ताक्षर नहीं करते हैं जो आपको इस इस्पात की कड़ी बैंच पर बैठना होगा- सारी रात; और मैं आपकी पीठ के बारे में जानता हूं। अगर आप इस पर हस्ताक्षर करते हैं तो मैं आपको एक कोठरी दिलवा सकता हूं और आप सो रहे हैं।  मैंने कहा, ‘ठीक है, तुम डेविड वाशिंगटन लिखो और मैं हस्ताक्षर करता हूं। उसने डेविड वाशिंगटन लिखा और पूरा फार्म भरा और मैंने नीचे सिर्फ अपना ही नाम हिंदी में लिख दिया। उसने पूछा, ‘यह क्या है? ‘मैंने कहा, ‘डेविड वाशिंगटन ही होगा।  लेकिन मैंने उससे कहा, याद रखना, कल सुबह दूरदर्शन की सब चैनलों पर सब केंन्द्रों से प्रसारित हो जाएगा कि तुमने मुझसे गैर-कानूनी कृत्य करवाया; और उसका कारण यह था कि तुम चाहते थे कि लोगों को पता न चले कि मैं इस कैद में हूं। तुम मुझे मार भी डालोगे तो भी वे मुझे खोज नहीं पाएंगे कि मैं कहां खो गया; क्योंकि तुम्हारे बोर्ड पर डेविड वाशिंगटन होगा। लेकिन कल सुबह सभी दूरदर्शन के परदे पर यह प्रकट हो जाएगा।  वह कहने लगा, यह आप कैसे कह सकते हैं?
मैंने कहा ‘मैंने व्यवस्था कर ली है।  कुछ देर के लिए वह फार्म लाने गया था, और एक लड़की की रिहाई होने वाली थी, वह मेरे पासे ही बैठी थी। मैंने उससे कहा, ‘जब तुम बाहर निकलोगी तो सिर्फ एक बात करना। बारह पूरी प्रेस खड़ी है, तुम उन्हें सिर्फ दो बातें बताना- एक कि मुझसे जबर्दस्ती डेविड वाशिंगटन इस नाम के नीचे हस्ताक्षर करवाए गये हैं, और दूसरे मैंने अपना ही नाम हिंदी में लिख दिया है। वे आकर जांच कर सकते हैं।  और दूसरे दिन प्रातः पूरे अमेरिका में यह समाचार फैल गया- हर अखबार में, हर आकाशवाणी केंन्द्र में, हर चैनल पर...। तुम किसी निर्दोष व्यक्ति के साथ मनमानी नहीं कर सकते; खास कर उस हालत में, जबकि इतने विशाल और सशक्त प्रसारण माध्यम पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है।
दूसरे ही दिन वे मुझे कारागृह में ले गए क्योंकि उन्हें डर पैदा हो गया। क्योंकि उन्होंने जो किया था वह सचमुच गैर-कानूनी था। और उसके बाद उन्होंने दुबारा मुझसे किसी नाम के नीचे हस्ताक्षर नहीं करवाये। भारतीय पत्रकारिता को ऊंचा उठाना है। कुछ व्यक्तियों को कुर्बानी होगी, लेकिन उसे विश्व प्रेस से स्तर पर लाना होगा। और यह मेरे अकेले का सवाल नहीं है। प्रेस का संरक्षण न हो तो एक अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए नौकरशाही की शक्तिशाली यंत्रणा के खिलाफ क्या सुरक्षा है?  मेरी दृष्टि में, प्रेस को शासन से भी अधिक शक्तिशाली भूमिका निभानी है।
शासन को प्रेस से डरना चाहिए, प्रेस को शासन से नहीं। 
फिर कभी आइये।  

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