नव संन्यास क्या? प्रवचन-दूसरा
संन्यासः नयी दिशा, नया बोध
आपको अपने संन्यास का स्मरण रखकर ही जीना है ताकि आप अगर क्रोध भी करेंगे तो न केवल आपको अखरेगा, दूसरा भी आपसे कहेगा कि आप कैसे संन्यासी हैं? साथ-ही-साथ उनका नाम भी बदल दिया जाएगा। ताकि अन्य पुराने नाम से उनकी जो आइडेंटिटी, उनका जो तादात्म्य था वह टूट जाए। अब तक उन्होंने अपने व्यक्तित्व को जिससे बनाया था उसका केंद्र उनका नाम है। उसके आस-पास उन्होंने एक दुनिया रचायी, उसको बिखेर देना है ताकि उनका पुनर्जन्म हो जाए। इस नए नाम से वे शुरू करेंगे यात्रा और इस नए नाम के आस-पास अब वे संन्यासी की भांति कुछ इकट्ठा करेंगे। अब तक उन्होंने जिस नाम के आस-पास सब इकट्ठा किया था वह गृहस्थ की तरह इकट्ठा किया था। तो एक तो उनकी पुरानी आइडेंटिटी तोड़कर नाम बदल देना है। दूसरे उनके कपड़े बदल देना है, ताकि समाज के लिए उनकी घोषणा हो जाए कि वे संन्यासी हो गए और चैबीस घंटे उनके कपड़े उनको भी याद दिलाते रहेंगे कि वे संन्यासी हैं। रास्ते पर चलते हुए, पाठ करते हुए, काम करते हुए वे कपड़े जो हैं उनके लिए कांस्टेंट रिमेंबरिंग का काम करेंगे।जो आदमी घर छोड़कर चला जाता है उसके गेरुए कपड़े चार दिन में उसके लिए साधारण कपड़े हो जाते हैं। लेकिन जो आदमी गेरुवे कपड़े पहनकर घर में रहेगा, जिंदगीभर उसके कपड़े साधारण नहीं हो सकेंगे। जो भी आदमी आएगा वह फौरन इस कपड़े को देखेगा। जो भी आदमी मिलेगा वह पहले कपड़े देखेगा, कपड़े के संबंध में पूछेगा। फिर कोई बात करेगा कि संन्यासी दुकान पर बैठा है। दफ्तर में काम करेगा तो लोग पूछेंगे- क्लर्क गेरुवा वस्त्र पहनकर क्यों बैठा हुआ है? वह कहीं भी भूल नहीं पाएगा कि वह संन्यासी है तथा कपड़े और उसके बीच निरंतर घोषणा चलती रहेगी। और जिंदगी बड़ी अ˜ुत है। यहां छोटे-से फर्क इतने बड़े सिद्ध होते हैं कि हिसाब लगाना मुश्किल है। अगर यह चैबीस घंटे स्मरण बना रहे कि मैं संन्यासी हूं तो यह स्मरण ही आपके व्यक्तित्व की बहुत-सी चीजों को बदल देगा जिन्हें आप लाख कोशिश करके नहीं बदल सकते। कल जो आप करते थे, आज करने में आपको होश रखना पड़ेगा। कल जैसा आप बोलते थे, वैसा बोलने में आज होश रखना पड़ेगा। यह होश आपके भीतर फर्क लाना शुरू कर देगा। इसलिए ऊपरी और कोई नियम मैं थोपना नहीं चाहता। आपका विवेक ही आपका नियम होगा। सिर्फ आपको स्मरण-भर बनाए रखना चाहता हूं कि आप संन्यासी हैं। बस इतना ही मैं चाहता हूं कि वह स्मृति आपसे छूटे नहीं। और विपरीत सिचुएशन अगर चैबीस घंटे मौजूद रहे तो ही नहीं भूलेंगे, अगर उल्टी परिस्थिति मौजूद रहे तो नहीं भूलेंगे। परिस्थिति अनुकूल हो जाए तो भूल जाएंगे। एक आश्रम में संन्यासी को बिठाल दें, थोड़े दिन में वह साधारण हो जानेवाला है। लेकिन एक दुकान पर बिठाल दें तो हमने चैबीस घंटे का एक तनाव पैदा किया है। आज जो ग्राहक आएगा, कल नया ग्राहक आएगा, वह भी कहेगा कि आप संन्यासी होकर दुकान पर बैठे हैं? यह पूछना बंद होनेवाला ही नहीं है। इसका उपाय नहीं बंद करने का- निकलेंगे तो, उठेंगे तो, बैठेंगे तो। और एक दफा अगर चार- छह महीने, आठ महीने, साल-भर भी यह कांस्टेंट रिमेंबरिंग रह जाए तो आप में फिर फर्क हो ही जाएगा। फिर कपड़े का तो कोई मूल्य भी नहीं है। उनको छोड़ भी दें तो कोई हर्जा नहीं है। यह साल-भर की निरंतर स्मृति आपको तो बदल ही जाएगी, बदल ही जानेवाली है। अपनी तरफ से मैं बिल्कुल ही बाहरी और छोटा-सा अंतर करवाता हूं। भीतरी अंतर आप पर छोड़ता हूं। भीतर अंतर रोज होते चले जाएंगे। न मैं आपकी सेक्स लाइफ को कहता हूं कि बदलना है, कुछ भी बदलने को नहीं कहता हूं। बहुत ऊपरी बदलाहट करनी है। भीतरी बदलाहट आपकी स्मृति से आनी शुरू होगी और वह जैसे-जैसे आएगी, बदलते जाना है। नहीं बदले तो उसकी चिंता नहीं लेनी है। ध्यान पर ताकत लगानी है। संन्यासी के साथ दूसरी जो एक ही शर्त है मेरी, वह यह कि वह ध्यान पर श्रम करता रहे। और तुम्हारे पास समय ज्यादा बच सकेगा तुम्हारी घोषणा के बाद।
तुम्हारी सामाजिक औपचारिकताओं, फार्मलिटीज का जो ढेर वक्त जाया, नष्ट होता है वह बच सकेगा। किसी के घर शादी है, तुम नहीं जाओगे तो चल सकेगा। फिजूल के जलसे हैं, तुम नहीं जाओगे तो चलेगा। लोग समझते हैं, वह आदमी संन्यासी है, उसको छोड़ देना चाहिए। तुम्हारे घर भी फिजूल की बातचीत चलनी बंद हो जाएगी। तुम्हारे आस-पास फिजूल का कचरा बंद हो जाएगा इकट्ठा होने से। तुम्हारे पास समय भी बच सकेगा और उस समय का तुम उपयोग कर सकोगे। तो ध्यान पर शक्ति लगानी है और बाकी सारे परिवर्तन अपने से होने दें। एक तो यह बड़ा वर्ग होगा संन्यासियों का, जिसको मैं कहता हूं कि व्यापक हो। इतना व्यापक हो कि मुल्क में लाखों संन्यासी हों। इनसे हम पूरे मुल्क की हवा और पूरे मुल्क का वातावरण बदलने की कोशिश कर डालेंगे। तुम संन्यासी हो, इसके साथ ही तुम्हारा दूसरा स्मरण तुम्हें जोड़ रखना है कि अब तुम जो भी कर रहे हो वह परमात्मा के एक उपकरण, एक इंस्ट्रूमेंट की तरह कर रहे हो। अब तुम कर्ता नहीं हो। अब तुम अगर रोटी कमाना चाह रहे हो तो वह भी परमात्मा के लिए, अगर घर बना रहे हो तो वह भी परमात्मा के लिए, अगर दुकान चला रहे हो तो वह भी परमात्मा के लिए! अब तुम्हारी अपनी कोई इगोसेंटर्ड, अहंकेंद्रित व्यवस्था नहीं है, अपने लिए कुछ करने का कारण नहीं है। अपने लिए तो तुम छूट गए लेकिन तुम्हारी जिम्मेदारियां हैं, उनके लिए तुम परमात्मा के निमित्त सब किए चले जा रहे हो। यह भाव कि मैं कर्ता नहीं हूं सिर्फ साक्षी हूं, तुम्हारी जिंदगी को आमूल बदल देगा। जहां तुम हो वहीं बदलाहट होगी। और तुम्हारी बदलाहट आस-पास संक्रामक हो जाएगी। अगर दुकानदार संन्यासी हो तो ग्राहक को भी छूता है, क्लर्क अगर संन्यासी हो तो जो उसके पास काम करवाने गया है उसको भी छूता है। क्योंकि इसका सारा व्यवहार बदल जाएगा, इसका सारा ढंग बदल जाएगा, इसकी सोचने की व्यवस्था बदल जाएगी, इसका सारा रंग बदल जाएगा।
सब कुछ बदलेगा। उस बदलाहट से दूसरों में भी बदलाहट आनी शुरू होगी, तो हमारी इस मुल्क की जिंदगी में जितनी अनीति और जितना भ्रष्ट जीवन है उसके रूपांतरण के लिए हम आधार खोज सकेंगे। लोगों के मन में यह बात बैठ गई है कि अब अच्छा आदमी जी ही नहीं सकता। यह इतना गहरा बैठ गया है कि अब बुरे होने के लिए रास्ता खोजना पड़ता है। हमने तर्क अपने मन में बिठा लिए हैं कि अच्छा आदमी जी नहीं सकता। अच्छा आदमी तो मर ही जाएगा। तो मैं यह भी दिखाना चाहता हूं कि अच्छा आदमी ही नहीं, संन्यासी भी ठेठ इस जिंदगी में जी सकता है। तो वह आधार जो हमारे मन में अनीति का कारण बन रहा है उसे गिराने का उपाय हो सकेगा। फिर कहा जा सकता है कि इस तरह के लोग पाखंडी हो सकते हैं, तो कुछ हर्जा नहीं। क्योंकि जो आदमी संन्यासी होकर पाखंडी है, वह संभव है पहले भी पाखंडी रहा हो। हम दुनिया का कोई नुकसान नहीं करते हैं उससे, लेकिन उसके पाखंडी होने में बाधा हम जरूर डालते हैं। वह इतनी आसानी से पाखंडी नहीं हो सकेगा जितनी आसानी से वह कल हो सकता था। और अगर होगा भी तो दुनिया का हम कोई नुकसान नहीं कर रहे हैं। वह आदमी पहले पाखंडी था ही तो अब कोई दुनिया का अहित नहीं हो गया है। वह जितना पाखंडी था उतना ही होगा। फिर ऊपर से हम कोई नीति-नियम नहीं थोप रहे हैं ताकि उस आदमी को धोखा करना पड़े। हम उसकी किसी तरह की जिंदगी की भीतरी बातों को नहीं छू रहे हैं- छू ही नहीं रहे हैं। वह उसकी स्वतंत्रता ही होगी। हम उससे नहीं कह रहे हैं कि वह लोभ छोड़ दे। छूटता है तो वह उसकी स्वतंत्रता होगी। हम उससे नहीं कह रहे हैं कि वह काम छोड़ दे। छूटता है तो वह उसकी भीतरी व्यवस्था होगी। इसलिए हम कभी उसे गिल्टी, अपराधी बनाने की तरकीब नहीं कर रहे हैं, नहीं तो हमारा पुराना सारा संन्यासी अपराधी हो जाता। क्योंकि जो हमने उसको छोड़ने के लिए कहा है, नहीं छोड़ पाता है तो या तो वह दिखावा करता है कि उसने छोड़ दिया है। और नहीं छोड़ पाता है तो भीतर अपराधी होता है और या फिर वह पाखंडी हो जाता है- कहता कुछ है, करता कुछ है। इस सबकी हम बाधा नहीं डालते हैं। जिस संन्यासी की मैं बात कर रहा हूं, वह किसी का शिष्य नहीं है- मेरा भी शिष्य नहीं है। मैं ज्यादा से ज्यादा गवाह-भर हूं कि मेरे सामने वह संन्यास के मार्ग पर गया। इससे ज्यादा मेरे प्रति उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं है कि मैं उससे कल पूछ सकूं कि ऐसा तुमने क्यों किया? वह अपने ही प्रति रिस्पांसिबल, जिम्मेवार है। यह बिल्कुल इनर रिस्पांसिबिलिटी, आंतरिक जिम्मेवारी है। इसमें किसी से कोई लेना-देना नहीं है। कल उसे लगता है कि नहीं, यह मेरे काम की बात नहीं है या मैं इसमें नहीं जा सकता हूं तो हम उसे रोक नहीं रहे हैं कि वह जीवनभर के लिए संन्यासी हो जाए। वह उसको छोड़ दे। जिस दिन छोड़ना है, यह उसकी मौज होगी। इसको कोई बाधा डालता नहीं। हालांकि मैं मानता हूं कि एक दफा संन्यास में, इस स्थिति में गया आदमी वापस नहीं लौट सकता है। क्योंकि उसके साथ के जुड़े हुए आनंद हैं, शांतियां हैं। वह उसको याद आएंगी और बुलाएंगी। तो बड़े व्यापक पैमाने पर यह होगा। दूसरे कुछ लोग हो सकते हैं जिनके लिए घर का कोई अर्थ ही नहीं है, घर है ही नहीं। रिटायर्ड, वृद्ध लोग हो सकते हैं जिनके लिए घर और ना-घर, कोई प्रयोजन नहीं है। अब जिंदगी में होने न होने का कोई मतलब नहीं है उनका। कोई जिम्मेवारी नहीं है। किसी को उनके हटने से दुःख नहीं पहुंचता है। युवक हो सकते हैं ऐसे, जिनके ऊपर कोई जिम्मेवारी नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को मैं चाहता हूं कि अगर वे चाहें तो उनके लिए कुछ केंद्र मुल्क में होंगे जहां वे संन्यासी की तरह उन आश्रमों में रहें। लेकिन वे आश्रम भी प्रोडक्टिव, उत्पादक होंगे, वे आश्रम भी नॉन-प्रोडक्टिव नहीं होंगे। ऐसा नहीं होगा कि समाज उन आश्रमों को पालेगा। उन आश्रमों की अपनी खेती होगी, अपना बगीचा होगा, अपनी छोटी-मोटी इंडस्ट्री होगी और हर संन्यासी को वहां भी तीन घंटे काम करना ही पड़ेगा जो काम वह कर सकता है।
अगर वृद्ध है तो तीन घंटे संन्यास के स्कूल में पढ़ा दे। डाक्टर है तो तीन घंटे आश्रम के अस्पताल में काम करे। चमार है तो तीन घंटे जूता साफ कर दे। जो भी कर सकता है, वह कर दे। और यह कम्यून-लिविंग होगी। इसमें जो डाक्टर काम करेगा और जो जूते की पालिश का काम करेगा उनमें कोई अंतर नहीं होगा। इनमें कोई ऊंचा-नीचा नहीं होगा। वह यह कर सकता है, वह यह करता है। दोनों को बराबर सुविधाएं, बराबर इंतजाम मिलेंगे। आश्रम में कोई पैसे का लेन-देन नहीं होगा। आश्रम के किसी संन्यासी को कोई पैसा नहीं देगा। खाना, रहना, कपड़ा वह सारा इंतजाम मिलेगा। उस संन्यासी को बाहर किसी काम के लिए भेजा जाएगा तो उसकी व्यवस्था होगी। यह सबके लिए समान होगा और तीन घंटे प्रत्येक को काम करना पड़ेगा ताकि आश्रम किसी पर निर्भर न हो। धीरे-धीरे ये इंडिपेंडेंट यूनिट, स्वतंत्र इकाई हो जाएंगे। ये यूनिट दो तरह के काम करेंगे। एक तो जो संन्यास ....गृहस्थ जीवन में संन्यासी होते हैं उनके लिए ट्रेनिंग की जगह हो जाएगी कि वे कभी महीने-पंद्रह दिन के लिए वहां आकर रह जाएं, वापस लौट जाएं। ध्यान के लिए आ जाएं और वापस लौट जाएं। और दूसरे संन्यासी दूसरा काम करेंगे। हर आश्रमवासी संन्यासी को जिसे तीन घंटा काम करना जरूरी होगा, उसे हर वर्ष में तीन महीने ध्यान करवाने के लिए बाहर जाना जरूरी होगा। वे गांव-गांव जाकर लोगों को ध्यान करवाएं और ये संन्यासी खबर भी दे आएं और इस संन्यास के लिए कुछ लोग उत्सुक होते हैं तो उनको उत्सुक भी कर आएं। दूसरा वर्ग संन्यासियों का यह होगा। और तीसरा एक वर्ग उन संन्यासियों का होगा, जो घर में भी संन्यास लेने की हिम्मत नहीं जुटा सकते और जो लोग आश्रम में लंबे समय के लिए आने की स्थिति में नहीं हैं, ऐसे लोगों के लिए- जितने समय के लिए संन्यास लेना हो उतने समय के लिए वे आश्रम में आएं और संन्यास ले लें- महीनेभर के लिए, दो महीनेभर के लिए वे संन्यास ले लें! महीनेभर के बाद वे अपने घर अपने पुराने कपड़ों में चले जाएंगे। महीनेभर वे संन्यासी की तरह रहेंगे, महीनेभर के बाद वे साधारण कपड़ोें में लौट जाएंगे। इरादा मेरा यह है कि अधिकतम लोगों के लिए सर्वाधिक संन्यास सुलभ हो सके। यानी ऐसा न हो कि संन्यास इतना सख्त हो, उसकी शर्तें इतनी ज्यादा हों कि बहुत कम लोगों के लिए संभव हो सके। अभी क्या है- बुरी चीज बेशर्त उपलब्ध है- अधिकतम लोगों के लिए। अच्छी चीज सशर्त उपलब्ध है- बहुत कम लोगों के लिए। इसलिए स्वभावतः है कि दुनिया अच्छी न हो पाए और बुरी हो जाए। अगर किसी को बुरा होना है तो कोई शर्त ही नहीं है। और अच्छा होना है तो हजार शर्तें हैं। यह तो बहुत महंगे हिसाब हैं।
इस हिसाब को तोड़ना पड़ेगा। हमें अच्छे होने के लिए भी कम-से-कम शर्तें कर देनी पड़ेंगी- न्यून, जितनी न्यून हो सके। मिनिमम पर उसको ठहरना होगा। इसलिए मैंने तीन बातें कीं। इसमें सबके लिए उपाय हो जाता है। जो घर में भी कपड़ा बदलने में डरता है वह भी एक महीने; दो महीने के लिए, साल में, दो साल में जब सुविधा होगा, कर लेगा। शायद एक-दो दफा महीनेभर रहने के बाद उसकी हिम्मत बढ़ जाए और वह घर में आकर कपड़ा बदल ले। जो आजीवन जाना चाहता है, उसके लिए दूसरा इंतजाम कर देना है। जो आजीवन गया है वह भी मेरे लिए पीरियाडिकल, सावधिक है, वह अपनी तरफ से भले गया हो। कल वह कहता है, मैं वापस लौटना चाहता हूं तो उसकी कोई रोक न होगी, न उसकी निंदा होगी। अब तक क्या हुआ है? संन्यासी की जो व्यवस्था है हमारी उसमें एंट्रेस, प्रवेश है, एक्जिट, निकास है ही नहीं। उसमें आदमी प्रविष्ट हो जाए तो वापस नहीं लौटे। वापस लौटे तो हम उसकी निंदा करेंगे। सारा समाज उसका दुश्मन हो जाएगा और हर आदमी कहेगा कि अपराध हो गया। यह इतना खतरनाक है कि एक आदमी को सोचने का मौका ही नहीं बचता इस पर। और संन्यासी हुए बिना कैसे जाना जा सकता है कि मुझे भीतर रहना है कि नहीं रहना है? बाहर से निर्णय करना पड़ता है मकान के कि आप भीतर आएं तो पक्की कसम खाकर आएं कि बाहर नहीं निकल सकेंगे। और भीतर जाकर हो सकता है कोई कठिनाई हो। हो सकता है तुम्हें न ठीक पड़े। तो हम जितने स्वागत से संन्यास देंगे उतने स्वागत से विदा भी करेंगे। और यह अपेक्षा रखेंगे कि तुम फिर वापस लौट सकोगे। पर यह लौटना भीतरी होगा, तुम्हें लगे तो; ताकि सभी संन्यास की दिशा में अपनी सामथ्र्य के अनुसार जा सकेंगे, ऐसा ख्याल है। और मेरा मानना है कि सर्वाधिक श्रेष्ठ और सर्वाधिक महत्वपूर्ण घर में रहकर संन्यास लेना सिद्ध होगा। साधना वहां अ˜ुत परिणाम लाएगी और जल्दी परिणाम लाएगी। चूंकि तुम घर की जिंदगी में कोई फर्क नहीं लाते हो, इसलिए घर के लोग दो-चार दिन में राजी हो जाएंगे। ज्यादा देर नहीं लगेगी। क्योंकि उनकी जिंदगी में तुम कोई फर्क लाते नहीं। संन्यासी के प्रति परिवार का, मां का, पिता का, पत्नी का, पति का सबका भय सदा से रहा है। इसलिए पूरी सोसायटी, बड़े मजे की बात है कि संन्यासी को आदर देती है, लेकिन संन्यास के खिलाफ लड़ती रहती है। बेटा चोर हो जाए तो बाप को समझ में आ जाता है, वह बर्दाश्त कर लेता है। संन्यासी हो जाए तो बहुत मुश्किल हो जाती है।
उसका कुल कारण इतना है कि कोई चोर भी हो जाए तो भी घर छोड़कर नहीं भाग सकता। संन्यासी घर छोड़कर भाग सकता है। वह ज्यादा दुःखद सिद्ध होता है। पत्नी है, उसके लिए भय हो जाता है कि पति घर छोड़कर भाग जाएगा। बच्चे हैं छोटे, वे भी भयभीत हो जाते हैं। और तुम्हें भी तो गिल्ट, अपराध अनुभव होता है कि उनको तुम छोड़कर जा रहे हो। और इसलिए मैं मानता हूं कि पुराने दिनों में संन्यासियों का जो बड़ा वर्ग था उनमें पचहत्तर प्रतिशत लोग थोड़े वायलेंट, हिंसक लोग थे। नहीं तो इतनी आसानी से नहीं जा सकते थे। हिंसक वृत्ति थी। उन्होंने किसी तरह का मजा लिया पत्नी को कष्ट देने में, बच्चों को कष्ट देने में। रस है उसमें थोड़ा। पचहत्तर प्रतिशत संन्यासी बहुत गहरे में किसी तरह का रिवेंज, बदला ले रहे हैं। वे जिनको दुःख देकर जा रहे हैं, उनसे रिवेंज ले रहे हैं। यह तो आज मनोविज्ञान भी कहता है कि जो लोग आत्महत्या करते हैं वे भी अपने को मारने के लिए कम करते हैं, जो जिंदा रह जाएंगे उनको दुःख देने के लिए ज्यादा करते हैं। जैसे कि एक पत्नी धमकी दे रही है कि मैं आत्महत्या कर लूंगी। वह यह नहीं कह रही है कि मेरी जिंदगी बेकार हो गयी है। वह कह रही है कि तुम्हें सदा के लिए अपराधी छोड़ जाऊंगी कि मैंने तुम्हारे लिए आत्महत्या की। तुमने ऐसा काम किया कि मुझे आत्महत्या करनी पड़ी। मैं जिंदगीभर तुम्हें सताऊंगी। यह भाव तुम्हें जिंदगीभर सताएगा कि मैंने आत्महत्या की।
मेरी कमी भी सताएगी, मेरी आत्महत्या भी सताएगी। तो यह बड़े मजे की बात है, आत्महत्या करनेवाले लोग लगते हैं कि सेल्फ पनिशमेंट, स्वयं की सजा कर रहे हैं, पर यह भी दूसरे को पनिशमेंट देने की कोशिश है उनकी। इसलिए जब मैं संन्यास की बात करता हूं तो तुम्हें चिंता होगी, परेशानी होगी लेकिन एक वर्ष में, दो वर्ष में आहिस्ता-आहिस्ता रास्ते पर आ जाएगी बात। इसलिए आ जाएगी कि मेरे संन्यासी पहले से बेहतर आदमी हो जानेवाले हैं। वह अगर पति थे तो बेहतर पति हो जानेवाले हैं, पिता थे तो बेहतर पिता हो जानेवाले हैं, पत्नी थी तो बेहतर पत्नी हो जानेवाली है। और मैं मानता हूं कि एक व्यक्ति घर में संन्यासी होगा तो वह न्यूक्लियस, प्रेरणा-केंद्र बन जाएगा। धीरे-धीरे वह पूरा परिवार संन्यास के इर्दगिर्द आ जाएगा। फिर कोई बाधा नहीं मानता हूं। तुम्हारा विवेक जो कहे, सोचें! इस पर किसी का भी मन होता हो- तो सोचे!
वस्त्रों का रंग गेरुवा ही क्यों चुना जाए?
गेरुआ चुनने के बहुत कारण हैं। एक तो कारण यह है कि वह संन्यासी का पुराना रंग है। सफेद चुना जा सकता है लेकिन सफेद चुनकर तुम पर कोई चोट नहीं पड़ेगी। सफेद सहज ही पहना जा सकता है, सफेद चुनने में कोई चोट नहीं पड़ेगी। सफेद सहज ही पहना जा सकता है, कोई अड़चन नहीं आएगी। गेरुआ जानकर चुना है; क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुम्हें संन्यास की रिमेंबरिंग, याद बनी रहे। तुम जहां से निकलो, सारी सड़क उत्सुक हो जाए और तुम्हें भी पता चले कि लोग देख रहे हैं, और तुम भी अपने को देख सको। मैं तुमको बेहोशी में नहीं छोड़ना चाहता। इससे तुम्हें होश का तीर चुभ जाएगा।
सफेद कलर में रहें तो वह भी अलग होता रहेगा?
वह ज्यादा अलग नहीं होगा। सफेद लुंगी सहज ही पूरा दक्षिण पहनता है। ऐसे ऊपर चादर भी डाल लेते हैं। उससे अंतर पड़नेवाला नहीं है और उससे क्या फर्क पड़ता है! मैं सफेद चुनता तो यह पूछ सकते थे कि सफेद क्यों चुना? इससे क्या फर्क पड़ता? कुछ तो चुनना पड़ेगा मुझे! तो आप यह पूछ नहीं सकते कि सफेद क्यों चुना? सफेद उतना आंख को दिखाई भी नहीं पड़ता। एक सड़क से तुम सफेद कपड़े पहनकर निकलो तो, और एक सड़क से तुम गेरुआ कपड़े पहनकर निकलो, तो गेरुआ कपड़े में नब्बे मौके दिखायी पड़ने के हैं, सफेद कपड़े में दस मौके! यह जो बात कर रहा हूं- तो चाहता यह हूं कि तुम्हें मैं थोड़ी दिक्कत में डालूं। तुम्हें दिक्कत में पड़ना जरूरी है। वह दिक्कत ही तुम्हारे लिए याद बनेगी। इसलिए ज्यादा-से- ज्यादा दिक्कत में डालने का ख्याल है। इसलिए एक माला भी डाल दी गले में, ताकि तुम्हारे लिए शक ही न रह जाए किसी को। नहीं तो शौक में भी इस वक्त गेरुआ पहना जाने लगा है। इसलिए एक माला जोड़नी पड़ेगी। नहीं तो इस वक्त बंबई में लड़कियां शौक में भी गेरुआ पहने हुए हैं। माला और गेरुआ संन्यासी को दोनों ख्याल देनेवाला हो जाएगा।
सब लोगों ने और सारे देश ने यदि संन्यास व्रत ले लिया तो कल यदि देश पर किसी ने आक्रमण कर दिया तो क्या होगा?
संन्यासी लड़े, संन्यासी से ज्यादा दुनिया में कोई भी नहीं लड़ सकता। क्योंकि संन्यासी का मतलब यह है कि जो जानता है कि आदमी अमर है। उसको तो लड़ने का कोई भय ही नहीं। संन्यासी जैसा लड़ सकता है वैसा दुनिया में कोई कभी लड़ ही नहीं सकता। अहिंसावादी का इतना ही मतलब होता है कि अपनी तरफ से किसी को मारने नहीं जाता; लेकिन अहिंसावादी का मतलब यह नहीं होता है कि अपने को पिटवाने के लिए निमंत्रण देता है। वह भी हिंसा है। अगर कोई मुझे जूता मारता है और मैं बैठे हुए सहता हूं तो यह भी हिंसा सही जा रही है। यह अहिंसा नहीं है। संन्यासी किसी को मारने नहीं जाता है। संन्यासी को अगर मारोगे तो उससे ज्यादा करारा जवाब इस दुनिया में कोई नहीं दे सकता। मैं तो संन्यासी को सैनिक मानता हूं!
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