पांचवां प्रवचन
भक्ति की कीमिया
सासूत्र:
जागै न पिछलै पहर, ताके मुखड़े धूल।सुमिरै न करतार कूं, सभी गवाधै मूल।।
पिछले पहरे जागि करि, भजन करै चित लाय।
चरनदास वा जीव की, निस्चै गति ह्नै जाय।।
पहिले पहरे सब जगैं, दूजे भोगी मान।
तीजे पहरे चोर ही, चैथे जोगी जान।।
जो कोई विरही नाम के, तिनकूं कैसी नींद।
सस्तर लागा नेह का, गया हिए कूं बींध।।
सोए हैं संसार सूं, जागे हरि की और।
तिनकूं इकरस ही सदा, नहीं सांझ नहीं भोर।।
सोवन जागन भेद की, कोइक जानत बात।
साधूजन जगत तहां, जहां सबन की रात।।
जो जागै हरि-भक्ति में, सोई उतरै पार।
जो जागै संसार में, भव-सागर में ख्वार।।
सतगुरु से मांगूं यही, मोहि गरीबी देहु।
दूर बड़प्पन कीजिए, नान्हा ही कर लेहु।।
आदि पुरुष किरपा करौ, सब औगुन छुटि जाहिं।
साध होन लच्छन मिलैं, चरनकमल ही छाहिं।।
हिय हुलसो आनन्द भयो, रोम-रोम भयो चैन।
भए पवितर कान ये, मुनि सुनि तुम्हरे बैन।।
सुबह न आई शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई।
जिस दिन तड़पे प्राण न उस दिन
देह लगी मिट्टी की री,
जिस दिन सिसकी सांस न उस दिन उम्र हो गई कुछ कम मेरी,
बरसी जिस दिन आंख न, उस दिन
गीत न बोले, अधर न डोले,
हंसी बिकाई, खुशी बिकाई, जिस दिन तेरी याद न आई।
सुबह न आई शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई।
धुंधलाया सूरज का दर्पण,
कजलाई चंदा की बेंदी
मूक हुई दुपहर की पायल,
रूठ गई संध्या की मेहंदी,
दिवस रात सब लगे पराए,
लुटे-लुटाए स्वप्न-सितारे,
छटा न छाई, घटा न छाई, जिस दिन तेरी याद न आई।
सुबह न आई शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई।
फिरते रहे नयन बौराए,
कनी भवन में कभी भुवन में,
रही सिसकती पीड़ा कोई,
इस क्षण मन में, उस क्षण तन में
जग-जग कर काजल अलसाया
चल-चल कर आंचल थक आया,
हाट न पाई, बाट न पाई, जिस दिन तेरी याद न आई।
सुबह न आई शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई।
गुम-सुम बैठी रही देहरी,
ठठका-ठिठका आंगन द्वारा
सेज लगी कांटों की साड़ी,
और अटारी कज्जल-कारा,
अगरु-गंध हिम लहर हो गई,
चंदन लेप ताप तक्षक का,
धूप न भाई छांह न आई, जिस दिन तेरी याद न आई।
सुबह न आई शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई।
भक्ति का सारा शास्त्र प्रभु-स्मरण का शास्त्र है। एक ही सूत्र है भक्ति का, वह है--प्रभु की याद।
हमारा मन और हजार बातों की याद से भरा है, सिर्फ प्रभु का कोई स्मरण नहीं है। हमारे मन में न मालूम कितनी चाहतें है, न मालूम कितनी वासनाएं हैं--अनगिनत। सिर्फ एक चाह अनुपस्थित हैः सिर्फ प्रभु को पाने की अभीप्सा नहीं है।
और तुम सब भी पा लो, प्रभु न मिले, तो सब मिला न-मिला हो जाएगा। सब कमाई, गंवाई हो जाती है। और तुम प्रभु पा लो, और कुछ भी न मिले, तो भी सब पा लिया। उसक पाने में ही पाना है; उसके खोने मैं ही खोना है।
प्रभु की याद का क्या अर्थ? क्या राम-राम की रटन से याद हो जाएगी? तब तो तोते भी भवसागर पार हो गए होते! लेकिन तोतों को कोई भक्त नहीं कहता है।
ऐसी थोथी याद से कुछ भी न होगा। ऐसी थोथी याद में उलझ गया आदमी तो, और भी झंझट में पड़ जाता है। हृदय की गहराई में तो संसार की याद चलती है; ओंठों पर राम का नाम चलता है।
ओंठों में थोड़े ही तुम्हारी आत्मा है। ओंठों से दोहरा लेने से कुछ भी न होगा। वहां चलना होगा, जहाँ तुम्हारे प्राण हैं। उस गहराई से उठनी चाहिए सुरति, सुमिरन। उस गहराई से, जहां तुम कर्ता भी नहीं होते हो; जहां तुम साक्षी मात्र होते हो।
ऐसा नहीं कि तुम राम का स्मरण करते हो, बल्कि तुम देखते हो कि राम का स्मरण उठ रहा है। तुम अपने भीतर एक चमत्कार होते देखते हो।
लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि होंठ से पुकारा गया नाम किसी काम में नहीं आ सकता। ओठ से पुकारा गया नाम उस अंतिम स्मरण के लिए सीडी बन सकता है; पर सीढ़ीपर रुक मत जाना।
प्रभु के स्मरण को भक्तों ने चार हिस्सों में बांटा है। पहला कहते हैं--ओंठ से स्मरण। वह ऐसे ही है, जैसे छोटा बच्चा स्कूल में सीखता है--ग गणेश का, ग गणेश का, ग गणेश का। ग का गणेश से क्या लेना-देना है? एक बार समझ जाएगा, फिर जिंदगी में दुबारा ऐसा नहीं पड़ेगा कि ग गणेश का। जहां भी ग आएगा, तो नहीं कहेगा ग गणेश का। वह केवल निमित्त मात्र था।
बच्चे को कठिन है ग को समझाना। ग अपने आप में बच्चे के लिए बेबूझ है। गणेश के चित्र से ग जल्दी जुड़ जाता है।
बच्चा चित्र समझता है, शब्द नहीं समझता। शब्द समझाने के लिए चित्र से जोड़ देते हैं; जो बच्चा समझता है, उससे जोड़ देते हैं उसे, जो वह अभी नहीं समझता। इसलिए बच्चों की किताबों में रंगीन चित्र होते हैं।
अ आम का--यह अ तो छोटे में लिखा हो, लेकिन बड़ा आम का चित्र होता है। बच्चा चित्र को देखकर आम को जानता है। आम का स्वाद भी उसे मालूम है। आम उसने चखा है। यह आम शब्द उसके लिए बिल्कुल व्यर्थ है। इसमें न कोई स्वाद है, न कोई गंध है, न कोई रंग है। न इसे हाथ में उठा सकता, न इसके साथ खेल सकता। यह बिल्कुल कोरा है। तो अ आम का; ग गणेश का।
धीरे-धीरे बच्चे को याद बनने लगती है। गणेश के साथ ग जुड़ जाता है। बच्चे के लिए रास्ता मिल जाता है। लेकिन फिर यहीं अगर कोई रुक जाय और जिंदगी भर ग गणेश का और अ आम का
प.ता रहे और ऐसी कभी घड़ी न आए, जब विना चित्रों के समझ सके। तो भूल हो गयी। तो सीढ़ीसीढ़ीन रही; मार्ग का अवरोध हो गयी।
भक्ति के जगत् में ऐसा बहुत लोगों के लिए हो गया। ओंठ से पुकारा गया नाम--ग गणेश का है। पहला पाठ, उनके लिए जिन्हें अभी कोई भक्ति का अनुभव नहीं है। लेकिन वहाँ से आगे जाना है। वह शुरुआत है जरूर, लेकिन अंत नहीं। फिर ओठ से थोड़े गहरे जाना है--कंठ।
तो भक्त कहते है, दूसरी सीड़ी; कंठ। ओठ चुप हो जाएं; कंठ में गूंज उठे। भीतर रहे गूंज, बाहर न आए।
बाहर किसको दिखलाना है? प्रभु है, तो तुम्हारे भीतर जो है उसे देख लेगा। और प्रभु नहीं है, तो तुम कितना ही चिल्लाओ, लाख चिल्लाआ, बैंडबाजे बजाओ, उससे कुछ न होगा। और तुम्हारे भीतर है, तो ही सार्थक है।
तुम्हारे मौन को भी प्रभु सुन लेगा। सच तो यह है कि मौन को ही सुनेगा। तो धीरे-धीरे शब्द से मौन की तरफ जाना है। शब्द से शुरू करो, फिर निशब्द में डुबकी मारते जाओ।
पहले ओंठ--फिर कंठ। फिर कंठ से और नीचे चलो--तो हृदय। और हृदय से नीचे चलो--तो साक्षी।
जब चैथी जगह पहुँच जाओ, साक्षी की जगह पहुंच जाओ, जब तुम देखने लगो अपने भीतर राम का गुंजन उठते हुए, सुनने लगो; तुम करने वाले न रह जाओ, तब समझना कि याद हुई।
फिर वैसी याद सतत बनी रहती है--उठते-बैठते, सोते जागते, खाते-पीते; तुम कुछ भी करो, फिर वह याद नहीं जाती। और जब याद ऐसी सतत हो जाती है--अखंड, अविच्छिन्न, गंगा की धारा जैसी तुम्हारे भीतर बहने लगती है, तभी पहुंचे; तभी जानना पहुंचे। उस घड़ी ही स्मरण शुरू हुआ।
आज के सूत्र बड़े अमूल्य हैं। भक्ति के मार्ग पर चलने वाले के लिए जो भी महत्वपूर्ण है, इन सूत्रों में आ गया है।
जागै न पिछले पहर ताके मुखड़े धूल।
सुमरै न करतार कूं, सभी गवावै मूल।।
‘जागै न पिछले पहर...।’ भक्तों ने रात को चार पहरों में बांटा है। पहला पहर सभी जागे होते हैं। असल में पहले पहर में सोना मुश्किल है। रोज घर-घर में यह घटना घटती है। मां जबरदस्ती कर रही है बच्चे को कि ‘सो जा; अब नौ बज गए, अब सोने का समय हो गया।’ और बच्चा सोना नहीं चाहता।
पहले पहर में सोना मुश्किल। पहले पहर में जागना सुगम। क्योंकि दिन भर जागे हैं, तो जाग सब तरफ छा गयी है। दिन भर सोचा है, विचारा है, काम किए हैं, उनकी धुन गूंजती रह गई है।
इसलिए पहले पहर में सोना मुश्किल। दिन भर की ध्वनियां आवाजें, शोरगुल, मन को शांत नहीं होने देते; शिथिल नहीं होने देते।
जितना तुम्हारा जीवन कार्य-कलाप से भरा होगा, उतना ही जल्दी सोना मुश्किल हो जाएगा। बिस्तर पर पड़े रहोगे और नींद न आएगी।
नींद कहां से आए? दिन पीछा नहीं छोड़ता। वह दिवस भर की धूल उड़ती ही चली जाती है। किसी से झगड़ लिए थे, वह झगड़ा अभी भी चल रहा है। किसी ने सम्मान किया था, वह गुदगुदी अभी भी बाकी है। कहीं झंझट में पड़ गए थे, वह झंझट पीछा नहीं छोड़ती।
दिन भर में बहुत से जाल फैलाए; दूसरों को फंसाने को फैलाए होंगे, अब उन जालों में खुद फंसे हो। दिन भर अभ्यास किया, अपने साथ जबरदस्ती की; तनाव पाले; बेचैनियां इकट्ठी कीं; अब उस री पर बैठे हो; अब नींद नहीं आती।
तो जितने कार्य-कलाप से भरा दिन होगा, उतनी ही निद्रा मुश्किल हो जाएगी--पहले पहर में।
जैसे-जैसे सभ्यता जटिल होती है, संस्कृति जटिल होती है, वैसे-वैसे लोगों की नींद खोने लगती है। पहले पहर में क्या, दूसरे पहर में भी नींद नहीं आती। रातें जगावन हो जाती हैं; निद्रा सपना हो जाती है।
करवटें बदलते हैं लोग बिस्तर पर; सोना चाहते हैं और नहीं सो सकते। सोना चाहते है थोड़ी देर को अंधकार में; लीन हो जाना चाहते हैं थोड़ी देर को अहंकार के बाहर; थोड़ी देर भूल जाना चाहते हैं संसार; लेकिन संसार इतना ज्यादा है...संसार के कारण नहीं, तुम्हारे ही कारण।
संसार ने तुम्हें नहीं पकड़ा है, तुमने ही संसार को पकड़ा है। लेकिन दिन भर अभ्यास करते हो पकड़ने का; एकदम से छोड़ोगे कैसे? दफ्तर घर आ जाता है। फाईलें सिर में चली आती हैं। खाते-बही साथ बैठे रहते हैं। तुम तो दिन भर करते हो, वही चलता रहता है--चलता जाता है। उसकी एक अनवरत धारा है।
जैसे भक्त को भगवान का नाम चलता भीतर, ऐसे तुम्हें संसार की याददाश्त चलती भीतर। जैसे तुम संसार की याददाश्त के मात्र साक्षी रह जाते हो; तुम्हारे किए कुछ नहीं होता; ऐसे ही भक्त परमात्मा की
याददाश्त का साक्षी रह जाता है। अच्छा है, संसार से समझोगे तो तुम्हें समझ में आ जाएगी बात।
जैसे संसार भुलाए नहीं भूलता, ऐसे भक्त को भगवान भुलाए नहीं भूलता। और जैसे तुम्हें भगवान याद किए-किए नहीं आता, छुटक-छुटक जाता है; फिसल-फिसल जाते हो; वैसे भक्त को संसार याद किए-किए भी नहीं आता; छूट-छूट जाता है; भूल-भूल जाता है।
भक्त तुम से बिल्कुल विपरीत दशा में है।
यह जो रात्रि का पहला पहर है, इसमें सभी सामान्यतया जागते हैं। इसमें जागना विशिष्टता नहीं है। इसमें सो जाना विशिष्टता है। इसमें वही सो सकता है, जो निर्दोष है। इसमें वही सो सकता है, जिसकी संसार के ऊपर कोई बहुत आसक्ति, पकड़ नहीं; संसार का रोग जिसे नहीं है। इसमें भक्त ही सो सकता है। इसमें वही आदमी सो सकता है, जिसको मैं संन्यस्त कहता हूं।
संन्यस्त कभी भी सो सकता है और कभी भी जाग सकता है। जागने और सोने में संन्यासी को कोई बाधा नहीं है। जब चाहा, जैसा चाहा, वैसा हो जाएगा। आंख बंद की, तो सो जाएगा; आंख खोली, तो उठ आएगा। न तो उठते वक्त कोई बाधा अनुभव होगी, न सोते वक्त कोई बाधा अनुभव होगी।
निर्बाध जिसका चित्त हो गया, वही पहले पहर में सो पाएगा। छोटे बच्चे सो जाते है; आदिवासी जंगल के सो जाते हंै; या साधु-संत सो जाते हैं। नहीं तो पहले पहर में सोना बहुत मुश्किल है।
फिर दूसरा पहर है। दूसरे पहर में भोगी जागता। दूसरे पहर में वासनाग्रस्त जागता। इसलिए जो संस्कृति बहुत भोगपूर्ण होती है, दूसरा पहर रात का राग-रंग का हो जाता है। जैसे पश्चिम में नाइट-क्लब हैं, नाच-गान है, होटल हैं, खाना-पीना है, पार्टी-उत्सव है। वह सब रात्रि के दूसरे पहर में। सांझ को जल्दी सो जाने की बात, आदिम मालूम पड़ती है। असली जीवन तो रात में ही शुरू होता है। तो दूसरे पहर में भोगी जागता है।
इस तरह हम और भीतर चलेंगे इसमें, तो समझ में आएगा कि क्या प्रयोजन है।
तीसरे पहर में चोर जागता है। चोर की तो तभी बनती है, जब सब सो गए हों। चोर के जागने का मतलब है कि जिनसे चुराना है, वे अब सो गए होंगे। दूसरे पहर में भोगी जागे होते हैं और उन्हीं के पास पैसा-लत्ता है; जो कुछ भी है, उन्हीं के पास है। पहले पहर में तो साधु सो सकते हैं। उनके पास कुछ है नहीं। चोर जाग कर भी क्या करे? साधु के पास कुछ है नहीं, चोर चुराएगा भी क्या! या साधु के पास जो है, उसमें चोर को उत्सुकता नहीं है।
एक झेन फकीर के घर एक चोर ने प्रवेश किया। फकीर अपना कंबल ओ. कर सोया था। यह देख कर कि चोर इतनी दूर से आया है...। अंधेरी रात, अभी चाँद उगने को ही है। इस फकीर की झोपड़ी खोजता हुआ, टटोलता हुआ जंगल में आ गया है।
फकीर बड़ा बेचैन होने लगा और घर में कुछ है नहीं। और जो है घर में, वह तो चोर चाहेगा नहीं। फकीर उंडेल सकता है अपनी समाधि; फकीर दे सकता है अपना अमृत; मगर उसके लिए तो चोर का पात्र तैयार नहीं है। और चोर उस लिए आया भी नहीं है। और बिन मांगे जो मिले, उसको हम समझ भी नहीं पाते।
अब यह बड़ा फकीर था, बुद्धत्व का क्या करे? चोर के हाथ तो जेब तक जाते हैं, हृदय तक नहीं।
और घर में कुछ है नहीं; फकीर बेचैन होने लगा कि बेचारा, इतनी दूर आया! कुछ और उपाय न
देख कर जब चोर जाने लगा, तो उसने कहाः ‘रुक भाई! मुझे क्षमा कर। पहले खबर की होती तो मैं कुछ इंतजाम कर लेता। तू इतनी दूर आए खाली हाथ जाए, हमें बड़ा दुख हो जाएगा। यह कम्बल लेता जा; यही मेरे पास है।’
फकीर नंगा था और कम्बल था।
चोर बड़ा झिझका, बड़ा घबड़ाया। ऐसे तो किसी आदमी के घर में कभी चोरी करने गया भी नहीं था, जो अपने से दे दे। और देखा कि फकीर नंगा है और ठंडी रात है; चांद उगने लगा था, तो फकीर दिखाई पड़ने लगा था कि फकीर नंगा है। खिड़की से चांद झांक रहा था। लेकिन चोर इतना डर गया कि कुछ कह न सका; जल्दी से कंबल ले कर जाने लगा। बाहर दरवाजे के निकला था कि फकीर ने कहाः ‘सुन, धन्यवाद तो दे दे! ऐसी जल्दी क्या? और कंबल तो थोड़े दिन काम आएगा, धन्यवाद बहुत दिन काम आएगा। धन्यवाद तो दे ही दे।’
चोर ने घबड़ाहट में धन्यवाद भी दे दिया; भाग गया। वर्षों बाद पकड़ा गया। और चोरियां थी उसके नाम पर, उसी में यह कंबल भी पकड़ा गया। यह कम्बल प्रसिद्ध कम्बल था उस फकीर का। तो मजिस्ट्रेट पहचान गया। वह फकीर भी बुलाया गया।
मजिस्ट्रेट ने कहाः ‘अगर तुम कह दो कि इस आदमी ने चोरी की तुम्हारे घर, तो हमें किसी और चोरी का प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं रह जाएगी। यह काफी है।’ लेकिन फकीर बोला, ‘नहीं, यह
आदमी और चोर! यह आदमी चोर जरा भी नहीं है। मैंने कंबल भेट किया था। इसने धन्यवाद दे दिया था, बात खतम हो गयी थी। चोरी? नहीं, इस आदमी ने चोरी जरा भी नहीं की।’
चोर छूटा तो सीधा फकीर के घर पहूंचा। चरणों में गिर पड़ा और कहा, ‘उस दिन तो चूक गया, क्योंकि मेरी कोई दृष्टि न थी, लेकिन तुम उस रात से मेरे पीछे लगे रहे हो। यह तुम्हारा कंबल क्या है! यह तुम्हारी याद दिलाता रहा। वह तुम्हारा शांत चेहरा; वह चाँद की रोशनी में तुम्हारा नग्न खड़ा होना; वह तुम्हारा पुकारना और कम्बल भेंट देना! और वह तुम्हारा कहना कि धन्यवाद दे जा। कंबल तो थोड़े बहुत दिन में खत्म हो जाएगा; धन्यवाद आगे तक काम आएगा। वह फिर मेरा पीछा करता रहा। वे तुम्हारी आंखें मैं भूल न सका। वह तुम्हारी आवाज, वह तुम्हारी करुणा मैं भूल न सका। आज सच में ही चोरी करने आया हॅँू। लेकिन आज वही, जो तुम्हारे पास है--दो। अब तुम्हारा हो कर आया हूँ।’
फकीर के पास जाओगे, तो चुराने योग्य तो बहुत है। ईजिप्त में कहावत है कि जब तक शिष्य चुराने में कुशल न हो, गुरु से कुछ पा न सकेगा। महत्वपूर्ण कहावत है।
गुरु के पास बहुत कुछ है, लेकिन पहले तो उसे देखने की दृष्टि चाहिए, उसकी चाहत चाहिए। और फिर गुरु तुम्हें दे नहीं सकता। क्योंकि कुछ बातें ऐसी हैं जो दी नहीं जा सकती, सिर्फ ली जा सकती हैं। तुम चाहो तो ले लो, तुम न चाहो तो कोई तुम्हें दे नहीं सकता।
गुरु तो बहती गंगा है। तुम चाहो पी लो, तुम न चाहो तो किनारे पर खड़े प्यासे रह जाओ। और गंगा से तुम जब पीते हो, तब चोरी ही है। क्योंकि गंगा से आज्ञा भी कहां लेते हो? और आज्ञा लेने का उपाय भी कहाँ है? ऐसी ही चैतन्य की धारा है। लेकिन तुम्हें जब चाहत होगी तब ...।
तो पहले जो सो जाते हैं, उनके पास तो चोरों को चुराने को कुछ है नहीं। और दूसरे पहर जिनके पास है, वे तो जागे ही रहते हैं, पहले पहर, दूसरे दूसरे पहर जागे ही रहते हैं। जब भोगी सो जाते हैं, तब चोर की घड़ी आती है। रात का तीसरा पहर चोर जागता है। और रात के चैथै पहर साधु जागता है, संन्यासी जागता है।
चौथा पहर सब से कठिन पहर है जागने के लिए। पहला पहर सब से सरल पहर है जागने के लिए। सभी जागते हैं। सिर्फ साधु ही सो सकते हैं।
चौथा पहर सबसे कठिन है, जागने के लिए, क्योंकि नींद सबसे गहरी होती है चैथे पहर में। सभी सोते है, सिर्फ साधु ही जाग सकता है।
अब इस बात को भी ठीक से समझ लो। हमने चार अवस्थाएं बांटी हैं चेतना की। पहली अवस्था को कहते हैं: जाग्रत। तथाकथित जाग्रत; जिसमें हम जागे हुए हैं। तथाकथित इसलिए कि यह कोई असली जागरण नहीं है। बस, आंखें खुली हैं। जागे क्या खाक!
बुद्ध जागते हैं। फिर तो आंख भी बंद हो, तो भी जागे रहते हैं। और तुम तो आंख भी खुली हो, तो भी सोए ही हुए हो। लेकिन जागते से लगते हो--जागे-जागे लगते हो, इसलिए तथाकथित जागरण। पहली घड़ी; पहला भेद--चेतना का।
दूसराः स्वप्न। जब तुम सोए हो, लेकिन एकदम सोए भी नहीं, सपने चल रहे हैं। तुम्हारा जागरण भी जागरण नहीं, तुम्हारा सोना भी सोना नहीं।
सांसारिक आदमी बड़ी उलझन है। जागते में सोया रहता है, सोते में जागता रहता है। सोन में भी पूरा नहीं होता; सपने चल रहे हैं!
और सपने क्या हैं? तुम्हारे दैनंदिन जीवन का ही प्रतिफलन हैं। वे ही आवाजें, वे ही रंग, वे ही ढ़ंग, फिर-फिर नये रूप लेते हैं। मन उन्हीं-उन्हीं में बार-बार लौट जाता है। अब वस्तुएं नहीं हैं, तो विचार ही काफी है। संसार बंद हो गया है, क्योंकि आंख बंद है। तो तुम अपना ही संसार फैला लेते हो। चल-चित्र देखने जाने की जरूरत नहीं है। इतना तो देखते हो रोज तुम चल-चित्र! मन के परदे पर कितने चित्र देखते हो? तो दूसरी अवस्था हैः स्वप्न।’
तीसरी अवस्था हैः सुषुप्ति। ऐसे सो गए कि स्वप्न भी न रहा। लेकिन स्वप्न के साथ ही साथ तुम भी चले गए; तुम भी न बचे। सुषुप्ति का अर्थ हैः न स्वप्न रहा, न सोने वाला रहा। तुम्हें अपनी याद भी न रही।
तुम्हें अपनी थोड़ी-थोड़ी याद तभी रहती है, जब कुछ अड़चन होती रहे। बाहर कुछ अड़चन हो, तो तुम्हें कुछ याद रहती है। भीतर कुछ अड़चन हो, तो तुम्हें थोड़ी याद रहती है। अड़चन में ही तुम्हें याद रहती है। काँटा चुभता रहे, तो तुम्हें थोड़ी याद रहती है। कांटा बिल्कुल न चुभे, तो तुम बिल्कुल बेहोश हो जाते हो; फिर तुम्हें कुछ होश रहता ही नहीं।
संस्कृत में प्यारा शब्द है--वेदना। वेदना के दो अर्थ होते हैं: दुख और बोध। वेदना उसी धातु से बना है, जिससे वेद; जिससे विद्वान, बोध, होश।
यह बड़े मजे का शब्द है--वेदना। और इसके दो अर्थ हैं, जिनमें कोई ताल-मेल नहीं दिखाई पड़ता। एक अर्थ हैः दुख; और एक अर्थ हैः जागरण। मगर ताल-मेल है। जिसने भी यह शब्द गढ़ा होगा, वह भाषा-शास्त्री ही नहीं रहा होगा। उसने जीवन के शास्त्र को समझा होगा--कि तुम्हारा जो बोध है तथाकथित, तुम्हारा जो वेद है, वह तुम्हारे दुख पर निर्भर है। इधर दुख गया कि उधर बोध गया।
जागे रहते हो, तो बाहर का दुख हैः यह हवाई जहाज जा रहा है, यह ट्रेन जा रही है, चह रास्ते पर शोरगुल हो रहा है, यह बच्चा चिल्ला रहा, है; कोई रो रहा है; कोई झगड़ रहा है। यह सब उपद्रव चल रहा है। इस उपद्रव के कांटे चुभे रहे हैं, तो तुम्हें थोड़ी सी याद बनी रहती है, धीमी-धीमी, कि मैं हूं। यह भी बहुत धीमी-धीमी, बहुत भीनी-भीनी। किसी काम आ जाए, ऐसी नहीं। बस, जरा सी एक झलक बनी रहती है, एक टिमटिमाती सी ज्योति बनी रहती है कि मैं हूं। लेकिन इसमें होने के लिए सब उपद्रव चलता रहता है। तो इसकी चोट पड़े, तो तुम्हें याद रहती है।
रात सपने में भी तुम्हें याद रहती है। पहाड़ से फेके जा रहे हो और एक चट्टान तुम्हारी छाती पर गिर रही है, तो तुम्हें याद रहता है। कोई बेचैनी बनी रहती है सपने में, तो याद रहती है।
सुषुप्ति का अर्थ हैः न तो बाहर को कोई बेचैनी रही, न भीतर को कोई बेचैनी रही। लेकिन जैसे हो चैन आया, वैसे ही तुम गए। सुषुप्ति में तुम मूच्र्छितहो जाते हो। सुषुप्ति यानी मूच्र्छना!
ये तीन सामान्य दशाएं हैं। चैथी दशा का नाम है--तुरीय। तुरीय का अर्थ होता है सिर्फ--चैथी दशा। शब्द का अर्थ होता है--चौथा। उसको कोई नाम नहीं दिया है; क्योंकि हमारे पास कोई नाम देने योग्य शब्द नहीं है। तो उसको सिर्फ चैथी दशा कहां है--तुरीय।
तुरीय का अर्थ होता हैः बेचैनी जरा भी न रही--न बाहर की, न भीतर की; मगर होश पूरा है।
वेदना तो न रही, वेद पूरा है। अब होश के लिए किसी चोट की जरूरत नहीं है। अब बिना चोट के होश है।
यह जो तुरीय की अवस्था है, यह जागरण की, यह वास्तविक जागरण की अवस्था है। और यह बड़ी अनूठी अवस्था है। यह ऐसी अनूठी अवस्था है कि शरीर सो जाता है, मगर तुरीय की अवस्था में जो व्यक्ति है, वह जागा रहता है। शरीर ही सोता है फिर, अंतस-चेतना कभी नहीं सोती। अंतसचेतना जागी ही रहती है। वह दीया जलता ही रहता है। वह अखंड जलता है।
यें चार अवस्थाएँ हैं। इन्ही चार के आधार पर रात को भी ज्ञानियां ने चार अवस्थाओं में बाँट दिया है।
पहली साधारण अवस्था हैः जागरण की--तथाकथित जागरण की। सभी जागे रहते हैं। दूसरी अवस्था हैः स्वप्न जैसी--भोग की। भोग यानी स्वप्न। भोग का अर्थ होता है--सपना। कोई धन का सपना देख रहा की इतना धन हो जाए, तो मजे में हो जाऊंगा। कोई देख रहा हैः ऐसी सुंदर स्त्री मिल जाए, ऐसा सुंदर पुुरुष मिल जाए; ऐसा पद मिल जाए, ऐसा कुछ हो जाए--तो सपना है। भोग यानी सपना।
दूसरी अवस्था सपनों से भरे हुए लोगों की। और तीसरी अवस्था पाप की, चोरी की, हत्या की, घृणा की, क्रोध की। वह सुषुप्ति की अवस्था है। सब होश खो गया। उतना भी होश न रहा, जितना सामान्य आदमी को होता है; वह भी गया। तो तीसरी अवस्था चोर की, हत्यारे की, अपराधी की।
और चौथा जो रात का पहर है, वह समानातर है तुरीय के। अगर चैथे में जाग गए, तो तुरीय में जाग गए। अब यह जो चौथा पहर है, यह एक तरफ से और भी समझ लेना।
नींद, वैज्ञानिकों के हिसाब से, रात के अंतिम पहर में सर्वाधिक गहरी होती है। तीन से पांच या चार से छह। प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ा-थोड़ा भेद होता है, लेकिन दो घंटे जो अंतिम हैं, वे सर्वाधिक गहरे होते हैं। स्वप्न भी नहीं रह जाता। तो परम शांति होती है। यद्यापि तुम भी नहीं रह जाते, लेकिन फिर भी शांति होती है।
जिस आदमी को रोज दो घंटे सुषुप्ति के मिल जाते है।, वह तरोताजा हो कर उठता है। सुबह उसके जीवन में तुम लहर ताजगी की देखोगे। थकान गई, थका-मांदापन गया। फिर जीवन का उल्हास, फिर उत्साह, फिर उत्सव। रात ने चिंताएं छीन लीं। रात ने सब दर्द छीन लिए। रात मलहम-पट्टी कर गई। रात सब घाव भर गयीं। वह जो दो घंटे तुम खो गए थे बिल्कुल, उन खो गए दो घंटो में प्रकृति ने बहुत सा काम कर दिया। जो-जो तुमने खराब कर लिया था पिछले दिन, प्रकृति सब ठीक जमा गयी; सब व्यवस्था बिठा गयी। तार ढ़ीले पड़ गए थे वीणा के; कस गई। तार ज्यादा कस गए थे, तो ढ़ीले कर गयी। लेकिन संतुलन बिठा गई; साज ठीक कर गयी। इसलिए सुबह तुम साज की अवस्था में होते हो।
तुम सुबह देखते हो? तुम सुबह और ही ढ़ंग के आदमी होते हो, अगर रात ठीक से सो लिए। तुम ज्यादा प्रेमपूर्ण होते हो; ज्यादा दयापूर्ण होते हो; ज्यादा करुणापूर्ण होते हो। तुम्हें वृक्ष ज्यादा हरे दिखाई पड़ते है; फूल ज्यादा सुर्ख दिखाई पड़ते हैं, पक्षियों के गीत तुम्हारे कानों में स्पष्ट सुनाई पड़ती है। सूरज, सूरज की रोशनी, आकाश की नीलिमा--सब आकर्षित करती है। सुबह फिर तुम ऐसे हो जैसे छोटा बच्चा होता है। थोड़ी देर को ही सही, शायद क्षण भर का, दो क्षण को, कुछ पलों को, मगर तुम सुबह बड़े ताजे होते हो।
सुबह तुम से कोई कहे चोरी करो, तो तुम शायद न कर पाओ। सुबह तुमसे कोई कहे कि किसी का कुछ छीन लो, तो शायद तुम न छीन पाओ।
सुबह देना सरल है, छीनना कठिन है। देना आसान है, छी-झपट मुश्किल है।
सुबह प्रार्थना सरलता से हो सकती है। यही प्रार्थना सांझ होते-होते मुश्किल हो जाएगी। सुबह तुम आदमी पर भरोसा कर सकते हो, क्योंकि अपने पर भरोसा है। सांझ आते-आते तो आदमी पर अविश्वास हो जाता है, क्योंकि अपने पर अविश्वास हो जाता है। सांझ तक तो तुम हार चुके, दौड़ चुके, गिर चुके, धूल-धूसरित हो चुके। सब चेष्टा कर ली और विषाद हाथ लगा; अब कैसा भरोसा।
सुबह तुममें ताजगी होती है, आत्मविश्वास होता है, भरोसा होता है। वह दो घंटे जो गहरी नींद आ जाती है...। वैज्ञानिक हिसाब से...।
और वैज्ञानिक हिसाब भक्तों और योगियों के हिसाब से बिल्कुल मेल खा रहा है। वैज्ञानिक हिसाब से दो घंटे आदमी के शरीर का तापमान दो डिग्री नीचे गिर जाता है। सुबह-सुबह...रात के जाते-जाते वह तुम्हें जो थोड़ी हलकी-हलकी सरदी, मीठी-मीठी सरदी लगती है और एक कम्बल और खींच लेने का मन होता है, उसका कारण इतना ही नहीं कि सुबह ठंडी होती है। उसका असली कारण यह है कि तुम्हारे शरीर का तापमान दो डिग्री नीचे गिर जाता है। तुम थोड़े ठंडे हो गए होते हो। तुम थोड़े शीतल हो गए हो। वह जो मन में चलती हुई उधेड़बुन थी, जो तुम्हें गर्म रखती थी, वह जो भीतर चलता हुआ ज्वर था मन का; वह जो तुम्हें पूरा का पूरा उत्तप्त रखता था, वह चला गया। शोरगुल बंद हुआ; बाजार समाप्त हुआ; सपने भी जा चुके। तुम सब भाँति शीतल हो गए। उस शीतलता के कारण, उस मन की शीतलता के कारण तुम्हारी देह भी शीतल हो जाती है। दो डिग्री वस्तुतः तापमान नीचे गिर जाती है। और यही दो घंटे सर्वाधिक गहरी नींद के घंटे है। ये दो घंटे अगर तुम सो लिए ठीक से, तो सुबह तुम ताजे अनुभव करोगे। स्वस्थ मन हो जाएगा, स्वस्थ तन हो जाएगा।
ये दो घंटे अगर तुम्हें कोई जगा दे, इन दो घंटो में अगर कोई बाधा डाल दे, तो तुम दिन भर चिड़-चिड़े और परेशान रहोगे। छह घंटे सो लिए हो रात, वे छः घंटे काम नहीं आएंगे। ये दो घंटे खराब हो गए तो, बस, अड़चन हो जाएगी। ये दो घंटे भी सो लो रात में और तुम रात भर जागते रहो, तो भी काम चल जाएगा।
ये दो घंटे, वैज्ञानिक कहते हैं, अत्यंत आवश्यक हैं, क्योंकि इन्हीं दो घंटों में तुम्हारी सारी चेतना विलुप्त हो जाती है अंधकार में। अहंकार खो जाता है। बोध सो जाता है। जब तुम नहीं होते, तभी परमात्मा तुम पर काम कर सकता है, प्रकृति तुम पर काम कर सकती है; क्योंकि तुम बाधा नहीं देते।
इसलिए तो जब कोई आदमी बीमार होता है, तो डाक्टर की पहली फिकर होती है कि उसे नींद आ जाए। क्योंकि नींद में ही प्रकृति उसको स्वस्थ कर पाएगी। अगर नींद न आयी, तो वह स्वस्थ हो ही न सकेगा। दवाएं कुछ भी न कर सकेंगी। इसलिए नींद की दवाएं देते हैं मरीज को। वह सो जाए, तो परमात्मा के कुशल हाथ से उसे फिर से ठीक कर जायें, साज को फिर बिठा दें। इसने तो सब खराब कर लिया है; अब परमात्मा का ही सहयोग मिले, तो ठीक हो सकता है।
नींद में चुपचाप तुम्हारे भीतर प्रकृति काम करती है।
तो वैज्ञानिक कहते हैं: ये दो घंटे नींद के लिए बड़े अनिवार्य हैं।
लेकिन अब तुम थोड़े हैरान होओगे। संतों ने सदा से कहा है, ये दो घंटे याद के लिए हैं। ऊपर से तो दिखाई पड़ेगा कि यह तो विपरीत बात हो गयी, क्योंकि अगर दो घंटे याद करना है, तो जागना पड़ेगा। और जागना पड़ा, तो फिर दिन भर चिड़चिड़ापन रहेगा और प्रकृति को मौका न मिलेगा। यह ऊपर की ही बात है। संतों ने कहा, उसके पीछे कारण है।
ये दो घंटे सर्वाधिक गहरी नींंद क हैं, ये सर्वाधिक गहराई के भी हैं। इन दो घंटों में तुम अपने हृदय से भी नीचे की गहराई में उतर जाते हो।
पहले पहर में सिर में भटकते रहते हो। दूसरे पहर में कंठ में आ जाते हो। तीसरे पहर में हृदय में आ जाते हो। चैथे पहर में हृदय से नीचे उतर जाते हो; अपने अंतसचेतन में डूब जाते हो।
तो संतों ने कहा कि ये दां घंटे जैसे नींद के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, सुषुप्ति के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, वैसे ही जागरण के लिए भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि वहीं से जागरण लाना है। उसी चैथे तल से, उसी तुरीय की अवस्था से, जागरण को खींचना है।
लेकिन अगर तुम संतों के ढ़ंग से जागो, तो नुकसान न होगा; चिड़चिड़ापन नहीं आएगा। क्यों? क्योंकि संतत्व का पहला सूत्र ही यह है कि अहंभाव न हो। अगर अहंभाव न हो और तुम जाग जाओ इन दो घंटो में, तो जो लाभ नींद से होना था, वह तो हो ही जाएगा, क्योंकि वह अहंभाव के न होने के कारण होता था। और जो लाभ जागरण से होना है, परम लाभ, वह भी हो जाएगा।
और ये दो घंटे सर्वाधिक महत्वपूर्ण घंटे हैं तुम्हारे चैबीस घंटे में। यह चैबीस घंटे का जो वर्तुल है, इसमें ये दो घंटे सर्वाधिक मूल्यवान हैं। यहाँ तुम परमात्मा के निकटतम होते हो। अगर तुम सो गए गहरे, तो परमात्मा को मौका मिलता है कि तुम्हें ठीक कर दे। और अगर जाग गए गहरे, तो परमात्मा, से मिलन हो जाता है। क्योंकि परमात्मा करीब होता है। सो गए तो भी लाभ होता है, क्योंकि परमात्मा का हाथ तुम्हारे भीतर जा कर काम कर देता है। जाग गए, तब तो कहना ही क्या! हाथ में हाथ पकड़ लेते हो। जाग गए, तो परमात्मा को रंगे-हाथ पकड़ लेते हो। जाग गए तो मिलन हो जाता, मुलाकात हो जाती। और एक बार मुलाकात हो जाए, तो यह मुलाकात फिर चैबीस घंटे जारी रहती है। नहीं सांझ नहीं भोर...। फिर सुबह-सांझ का कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर दिन-रात कहां? फिर तो सब एक सा हो जाता है।
एक दफे उसका हाथ पकड़ में आ जाए, एक दफे पहचान हो जाए, तब तो तुम उसे जगह-जगह पा लोगे, पत्नी मैं भी पा लोगे, बेटे में भी पा लोगे, वृक्ष में, पहाड़-पर्वत में भी पा लोगे। तब तो उसके सिवाय कोई है ही नहीं। एक दफे पहचान ही होने की बात है। प्रत्यभिज्ञा हो जाए, एक बार आंख में आंख जुड़ जाए, नजर से नजर मिल जाएं, फिर तुम सब जगह पहचान लोगे।
यह जो चौथा पहर है, निश्चित ही बहुमूल्य है। लेकिन संत कहते हैं, जागने का ढ़ंग है उस चैथे पहर में। ऐसे ही जाग जाओगे, तो चिड़चिड़े हो जाओगे। प्रभु-स्मरण में जागो, प्रार्थना में जागो, ध्यान में जागो।
उस चैथे पहर को रात का ध्यान बना लो। उस समय ध्यान जितनी सुगमता से हो जाएगा, फिर कभी न हो पाएगा। इसलिए पतंजलि ने कहा है--समाधि, सुषुप्ति के बहुत करीब है।
पतंजलि ने तो बड़ी हिम्मत की घोषणा की है कि समाधि और सुषुप्ति एक जैसी हैं, जरा-सा फर्क है। जरा सा कहो या बहुत बड़ा कहो--एक ही बात है। फर्क इतना है कि सुषुप्ति में होश नहीं होता और समाधि में होश होता है; बाकी सब एक जैसा है।
सुषुप्ति में भी तुम नहीं होते, समाधि में भी तुम नहीं होते। सुषुप्ति में भी सब शीतल हो गया होता है; समाधि में भी सब शीतल हो गया होता है। सुषुप्ति में सारा जगत खो गया और समाधि में भी सारा जगत् खो गया। सुषुप्ति में विचार न रहे, स्वप्न न रहे कोई अंतर्वस्तु न रही; सिर्फ चैतन्य मात्र रहा। और वैसा ही समाधि में। लेकिन सुषुप्ति में चेतना सोई हुई होती है; समाधि में जागी हुई होती है। बस, इतना ही फर्क है।
सुषुप्ति से समाधि निकटतम है। सुषुप्ति द्वार है समाधि का--अगर समझ हो।
इसलिए चैथे पहर में जागने की बात संतों ने सदा से कही है। और इसी देश में नहीं कही है। क्योंकि इसका देश से कोई संबंध नहीं है। यह मनुष्य की अंतप्र्रकृति के समझने के कारण है।
चाहे चीन, और चाहे इजराइल और चाहे भारत, दुनिया के किसी भी कोने में जब भी लोगों ने परमात्मा की खोज की है, उनको यह बात समझ में आ गयी कि चैबीस घंटे में ये दो घंटे जितनी सरलता से प्रवाह होता है परमात्मा में, फिर कभी नहीं होता। इनसे विपरीत घंटे भी हैं। एक वर्तुल है चैबीस घंटे का।
जैसे समझो कि सुबह चार से छह बजे तक अगर तुम्हारा तापमान दो डिग्री नीचे गिर जाता है और तुम सुषुप्ति में खो जाते हो; तो जैसे चार से छह सुबह परमात्मा सर्वाधिक निकट होगा; चार से छह शाम परमात्मा सर्वाधिक दूर होगा। वह दूसरा विपरीत बिंदु है।
तो जिसने ठीक से यह खोज लिया कि कब परमात्मा मेरे निकटतम है, उसे यह भी पता चल जाएगा कि कब मैं परमात्मा से दूरतम होता हूं।
और तब एक सूत्र और तुम्हें याद दिला दूं। अगर तुम्हें यह पक्का पता चल गया की चार से छह...। उदाहरण के लिए कह रहा हूं। किसी का होगाः तीन से पांच, किसी का होगाः दो से चार; किसी का होगाः चार से छह। मगर कहीं चार के आस-पास--इस तरफ या उस तरफ। दो घंटे उस तरफ, तो दो से चार; दो घंटे इस तरफ, तो चार से छह। दो बजे रात और छह बजे सुबह के बीच कभी वे दो घंटे होते हैं।
अगर तुम्हें उन दो घंटों का पता चल गया, तो एक तो यह बात समझ में आ गई कि वे दो घंटे पूरे के पूरे प्रभु-स्मरण में जाने चाहिए। क्योंकि जब सब से करीब हो, तभी कर लो बातचीत; तभी कर लो गुफ्तगू; तभी कुछ कह लो, कुछ सुन लो। कुछ निवेदन करना हो, तो निवेदन कर दो। इस समय संबंध बहुत स्पष्ट है। आमना-सामना हो रहा है; कही गई बात पहुंच जाएगी। जो संदेश देना चाहते हो--सुन लिया जाएगा। और उस तरफ से अगर कोई उत्तर आया, तो भी पहुंच जाएगा। अन्यथा तुम्हारी प्रार्थना पहले तो पहुंच नहीं सकती, अगर बहुत दूर से पुकारो। अगर पहुंच भी जाए और वहां से उत्तर आए, तो तुम न सुन पाआंगे; दूरी बहुत होगी। बीच में हजार बाधाएं होंगी--एक।
और दूसरी बातः ठीक उससे विपरीत; अगर चार से छह सुबह तुम्हारा समय है--चौथा पहर, तो शाम चार से छह तुम्हारा समय है, जब तुम परमात्मा से सर्वाधिक दूर होओगे। तब भी होश रखना। क्योंकि यह चार से छः, यह जो शाम का समय है, यही तुम्हारे पाप का समय होगा। इसको तुम सावधानी से बचाना। इस समय ही तुम से भूल-चूक होगी। इस समय ही तुमसे गलतियां हो जायेंगी, जिनके लिए जीवन भर पछतावा होगा। क्योंकि इस समय तुम सर्वाधिक दूर रहोगे परमात्मा से। इसी समय तुमसे अपराध हो सकता है; इसी समय तुम से क्रोध हो सकता है, घृणा हो सकती है, ईष्र्या हो सकती है। इस समय तुम सबसे ज्यादा खिन्न रहोगे। इस समय तुम सब से ज्यादा उत्तप्त रहोगे। इसी समय तुम्हारा सिर विक्षिप्त रहेगा।
अगर अपना सूत्र साफ हो गया, तो सुबह के दो घंटे परमात्मा की याद में बिता देना; और ये सांझ के दो घंटे भी परमात्मा की याद में बिताना। हालांकि परमात्मा तक आवाज पहुंच नहीं पाएगी। मगर बिताना परमात्मा की याद में ये दो घंटे भी, ताकि कुछ और करने को उपद्रव सुविधा न रहे। कम से कम द्वार-दरवाजे बंद कर के शांत बैठने की कोशिश करना।
और तीसरी बात इस संबंध में: जिस दिन इन दो घंटो में जो सब से दूर हैं, तुम्हें ऐसा हो अनुभव होने लगे, जैसा सुबह के दो घंटों में होता है, तो समझना की पहुंच गए। अब कोई फर्क नहीं पड़ेगा--नहीं सांझ नहीं भोर...।
जब सर्वाधिक दूर थे, तब भी अगर ऐसा अनुभव में आने लगे कि उतने ही करीब, जितने सुबह, तो क्रांति घट गयी। इसी दिन असली भक्त का जन्म होता है।
सुनो ये शब्दः ‘जागै न पिछले पहर, ताके मुखड़े धूल।’ जो सुबह के ब्रह्ममुहुर्त मे न जागे, जो उस अपूर्व समय का उपयोग न कर ले, अगौरव हाथ लगेगा; अपमान हाथ लगेगा, अप्रतिष्ठा हाथ लगेगी। ‘ताके मुखड़े धूल।’ मृत्यु ही हाथ लगेगी, अमृत हाथ न लगेगा। तो धूल में धूल एक दिन गिर जाएगी और सारा अवसर खो गया।
इस धूल से फूल भी पैदा हो सकता था, लेकिन तुमने गँवा दिया अवसर। धूल ही थे और धूल ही रहे। इसके पहले की धूल धूल में गिर जाए, फूल को पैदा कर लो। इस अवसर का उपयोग कर लो।
इसके पहले कि वीणा टूटे, उसमें छिपे संगीत को मुक्त कर लो। इसके पहले की कंठ नष्ट हो जाए, प्रभु का गीत गुनगुना लो। इसके पहले की हृदय की धड़कन बंद हो, धड़कन-धड़कन में उसके सुमिरन को गुंजा लो।
वीणा है यह देह और यह वीणा एक हो प्रयोजन से है कि इसमें परमात्मा का गीत उठ सके। इसमें दिव्य गीत उठ सके।
जागै न पिछले पहर, ताके मुखड़े धूल।
सुमरे न करतार कूं, सभी गवावै मूल।।
ब्याज की तो बात ही क्या करो, उसका मूल भी खो जाता है, सभी कुछ खो जाता है। जिसने करतार को याद न किया, जिसने अपने बनाने वाले को याद न किया, जिसने अपने मूल-स्रोत की स्मृति न की...।
‘पिछले पहरे जागि करि, भजन करै चित लाय।’ वह जो पिछला पहर है, जाग जाओ, भजन करो। और भजन यांत्रिक न हो; चित ला कर करो।
नहीं तो यांत्रिक भजन करने वाले भी हैं। उनको मैं जानता हूँ। उठ कर भी बैठ जाते हैं; झपकी भी खा रहे हें, राम-राम भी दोहराए चले जाते हैं! राम-राम ऐसे ही दोहराए चले जाते हैं--यंत्रवत! नहीं कुछ अर्थ है उसमें, नहीं प्राणों का कोई संबंध है। बस, ओठ तक की बात है। ऐसा मत करना इससे तो गहरी नींद सो लेना--वही अच्छा। नहीं तो दिन भर चिड़-चिड़े रहोगे!
तुमने देखा? सुबह जल्दी उठ आने वाले लोग, धार्मिक कहलाने वाले तथाकथित लोग, दिन भर तुम उन्हें चिड़-चिड़ा पाओगे। अगर तुम्हारे घर में एकात बू.-बू.िया को यह झंझट हो जाए सुबह जगने की, ब्रह्ममुहुर्त में याद करने की, तो तुम पाओगेः वह दिन भर बदला लेता है। जैसे तुम्हारा कुछ कसूर है। वह चिड़चिड़ा रहेगा, नाराज रहेगा; हर छोटी-छोटी बात में क्रोध से भर जाएगा। बहाने खोजेगा। रोष से भर जाने के लिए तैयारी ही दिखाता रहेगा। हर चीज में भूलें खोज लेगा। वह दिन भर चिड़चिड़ापन बताएगा। घर में एक आदमी धार्मिक हो जाए, तो घर भर की मुसीबत हो जाती है।
मेरे एक पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने एक बार मुझे आ कर कहा कि ‘मेरे पति आपके पास आते हैं। आप उनको समझा दें। वे आपका ही मानेंगे, किसी का मान भी नहीं सकते। वे किसी को गिनते ही नहीं। हम तो परेशान हो गए हैं। अभी बच्चों की परीक्षा पास आ रही है और वे सुबह से उठ आते हैं। सुबह नहीं, आधी रात--दो बजे--और जपजी का पाठ करते हैं!’
सरदारजी थे। मजबूत आदमी; वे मोहल्ले भर को जगा देते थे। उनकी पत्नी ने कहा, ‘मोहल्ला भर भी नाराज है। कोई जपजी सुनना नहीं चाहता--दो बजे रात! कोई कुछ कहता भी नहीं, क्योंकि अब किसी के धर्म में क्या बाधा देनी? लेकिन लोग मुझे आ कर कहते हैं कि समझाओ अपने पति को। और अब तो बच्चां कि परीक्षा आ रही है, तो बच्चे बहुत परेशान हैं। न वे प. सकते हैं, न सो सकते हैं। और यह आधी रात का उपद्रव...। और वह किसी की सुनते नहीं, क्योंकि वे कहते हैं: धर्म में बाधा! तो उनके सामने तो कोई कह नहीं सकता।’
वे आए तो मैंने उनसे पूछा। वे आते थे मेरे पास। मैंने पूछा, ‘चरणसिंह! मामला क्या है? आधी रात उठ आते हो? वे बोले, आधी रात नहीं, ब्रह्ममुहुर्त में उठता हूं; दो बजे सुबह उठता हूं।’ मैंने कहाः ‘दो बजे सुबह? सारी दुनिया उसको आधी रात मानती हैं। और करते क्या हो? ’ उन्होने कहाः ‘कुछ नहीं करता; जपजी का पाठ करता हूं। आपसे किसने शिकायत की? मेरी पत्नी आयी थी? उसकी नहीं सुहाता। धार्मिक नहीं है। संस्कार नहीं हैं। नहीं तो आह्लादित होती कि जपजी का पाठ बिना किए सुनने मिल रहा है।’
मैंने उनसे पूछा कि ‘मुझे यह बताओ कि दिन भर तुम्हारी क्या दशा रहती है? क्योंकि वह कसौटी है।’ तो उन्होंने कहा, ‘चिड़चिड़ापन रहता है; नाराजगी रहती है। हर चीज पर क्रोध रहता हैं। उसी को मिटाने के लिए तो दो बजे उठ कर जपजी का पाठ करता हूँ। उसी को मिटाने के लिए!’ मैंने कहा, ‘उसी की वजह से यह हो रहा है। यह तुम छोड़ो।’
उनको तो भरोसा न आया। उन्होंने कहा, ‘आप और कहते हैं छोड़ो? ’ मैंने कहा, ‘इससे न तुम्हें लाभ हो रहा है, न किसी और को लाभ हो रहा है’ तुम जिद्द में पड़े हो। दिन में नींद आती है; दिन भर नींद आती है। आएगी ही। अब दो बजे रात से उठ जाओगे...। सोते कब हो? ’ बोले कि ‘ग्यारह सा. ग्यारह। बस, इससे ज्यादा देर नहीं।’
मगर ग्यारह, सा. ग्यारह, बारह बजे सोओगे और दो बजे उठ जाओगे, तो परेशानी रहेगी। मैंने उनके दफ्तर में भी पूछ-ताछ करवाई। मिलिटरी में थे वे। उनके कैप्टन भी मेरे पास आते थे। उनको मैंने पूछा। उन्होंने कहा, ‘हम भी परेशान हैं। यह आदमी झपकी ही खाता रहता है। यह टेबल पर बैठा है; जरा कोई न देखे कि बस, सो गया! और हर चीज में भूल-चूक करता है। ऐसे है धार्मिक। टेबल पर भी बैठा-बैठा जपजी...।
अंततः वे पागल हुए। मैंने उन्हें बहुत समझाया कि ये पागलपन के लक्षण हैं। मगर उन्होंने कहा, ‘अखंड तो करना चाहिए पाठ।’
तो वे सब काम करते हुए भीतर जपजी करते रहते। एक दिन हालत बिगड़ गई। रास्ते पर चले आ रहे थे; बस वाले ने हॉर्न बजाया! वे जपजी करते रहे। उनको हॉर्न वगैरह सुनाई न पड़ा। टक्कर खा कर गिर पड़े। फिर पागलपन का दौैर शुरू हुआ। फिर कोई दो साल लगे उन्हें खींच लेने में बाहर वापस, उनके पागलपन से। और यह सारा खुद ने आयोजित कर लिया।
सुबह का जो जागरण है, वह जागरण खतरनाक हो सकता है, अगर जबरदस्ती किया जाए। और अगर उस जागरण में भजन हृदयपूर्वक न हो, और केवल औपचारिक हो, शाब्दिक हो, यांत्रिक हो, लोभ के कारण हो, तो तुम अपनी जिंदगी खराब कर लोगे। वैसे भजन में मत पड़ना।
तो कुछ सूचनाएं तुम्हें दे दूं, नहीं तो सुन कर, कई ना-समझ होंगे यहाँ, वे कल से हो ब्रह्म-मुहुर्त, दो बजे शुरू कर दें।
पहली बातः अगर सुबह ब्रह्ममुहुर्त में उठना हो, तो कम से कम नौ बजे सोने चले जाना। और जिसे नौ बजे सोने जाना हो, उसे दफ्तर दफ्तर में छोड आना चाहिए। नौ बजे आने के पहले तक उसे सारे संसार से अपने को बाहर हटा लेना चाहिए--रूठे से...। रूठ जाना चाहिए, संसार से। उदासीन हो जाना चाहिए।
दफ्तर से चलते वक्त बहुत होशपूर्वक दफ्तर को नमस्कार कर लेना चाहिए। दुकान छोड़ते वक्त कह देना चाहिएः अब कल आयेंगे; कल तक विदा। फिर भूल कर भी उसका विचार नहीं करना। पुरानी आदत होगी; कुछ दिन आयेंगी। लेकिन धीरे-धीरे होश सम्हालना और उसको विदा कर देना। घर आ गए; दफ्तर भूल जाना चाहिए। दुकान-बाजार भूल जाना चाहिए।
अगर नौ बजे सोने जाना हो, तो सात बजे से तैयारी करने लगना--सोने की। क्योंकि नींद एकदम से नहीं आ सकती। और पहले पहर में सबसे ज्यादा कठिन है।
स्नान कर लेना; शांत बैठना; अब कोई जरूरत नहीं कि अखबार पढ़े। क्योंकि अखबार इस जगत के पागलपन सूचना देता है। इस जगत के पागलपन की खबरें हैं उसमें: कहीं हत्या हो गई; कहीं चोरी हो गई; कहीं कोई मार डाला गया; कहीं कोई बम गिरा--युद्ध हो गया; कहीं कुछ, कहीं कुछ। सब उपद्रव की खबरें हैं।
सांझ का वक्त उपद्रव की खबरें अगर पढ़ेगे, तो रात दुख-स्वप्न देखोगे। पढ़ेगे तो यहीं कि इंदिरा गांधी कब जेल जानेवाली है। लेकि न रात जेल चले जाओगे। क्योंकि वही गूंजता रहता है खोपड़ी में। उसकी तरंगे बनी रहती हैं।
रेडिओ मत सुनना; अखबार मत पढ़ना; टेलिविजन मत देखना। सच तो यह है कि अगर नौ बजे रात सोने चले जाना हो, तो तेज रोशनी में भी मत बैठना। पढ़ना भी मत। शिथिल करना अपने को, लेट जाना--बॉथटब में; घड़ी भर वहां पड़े रहना ज्यादा अच्छा होगा; गरम जल में डूबे रहना; शिथिल हो जाना।
हलका भोजन करना। ज्यादा भोजन मत कर लेना। क्योंकि जितना ज्यादा भोजन कर लोगे, उतना चैथे पहर में जागना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि उतनी ही ज्यादा दे शरीर को पचाने में लग जाएगी। अगर हलका भोजन किया, तो तुम अचानक पाओगे कि तीन बजने के करीब आते-आते नींद अपने से जाने लगी। क्योंकि शरीर को जरूरत नहीं रही। जितना भारो भोजन कर लोगे, जितना ठूंस-ठूंस कर पेट में भर दोगे, उतना ही शरीर को पचाने में लंबा समय लग जाता है। और जब तक शरीर का भोजन न पच जाए तब तक जागरण नहीं आता।
ख्याल रखना नींद और भोजन का गहरा संबंध है। इसलिए तो जब कभी तुम उपवास करते हो, तो रात में नींद नहीं आती। क्योंकि बिना भोजन के नींद की जरूरत कम हो जाती है। नींद की सब से बड़ी जरूरत है--भोजन को पचाना। इसलिए तो जब तुम भोजन कर लेते हो, तत्क्षण झपकी आने लगती है। इधर भोजन किया और झपकी आने लगती है। क्यों? क्योंकि जो जीवन ऊर्जा है, जो तुम्हारे मस्तिष्क को ज्वलंत रखती है, ज्योतिर्मय रखती है, वह जीवन ऊर्जा तत्क्षण पेट की तरफ बहने लगती है। क्योंकि पेट में पचाने की जरूरत आ पड़ी। और पचाना पहली जरूरत है। होश इत्यादी तो नम्बर दो की जरूरतें हैं।
शरीर में भोजन आ गया, तो सारी शरीर की ऊर्जा भोजन को पचाने में लग जाती है। इसलिए नींद मालूम होने लगती है।
जब जागना हो ब्रह्ममुहुर्त में, तो हलका भोजन करना; कि तीन बजे, चार बजे तक आते-आते भोजन का काम पूरा हो जाय। शरीर को तुम अपने से जागता पाओगे। तुम चार बजे करीब पाओगेः आंख खुल गयी।
अलार्म भर कर मत उठना। क्योंकि वह जबरदस्ती है; उसकी कोई जरूरत नहीं।
अलार्म की जगह एक नई कला सोचना। रात जब सोने लगो, प्रभु का स्मरण करते सोना, और प्रभु को कह कर सोना कि ‘उठा देना मुझे चार बजे।‘ तुम कुछ ही दिन में पाओगेः तीन-चार सप्ताह के भीतर यह कला काम करने लगेगी। तुम अचानक पाओगेः जैसे कोई जगा गया।
और प्रभु के द्वारा जगाए जाने का मजा हो और है। जैसे कोई कह गयाः उठो गोपाल। कोई निश्चित कह जाएगा। अगर तुमने चार बजे कहा, तो चार बजे ही यह घटना हो जाएगी।
लेकिन रात जब सोने लगो, तो प्रार्थना करते ही सोना। क्योंकि रात तुम जो स्मरण करते सोते हो, उसकी धुन रात भर बजती रहती है। रुपये गिनते सोए, तो रात भर रुपये गिनोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन कपड़े की दुकान करता है। एक रात बीच रात में उठ कर चादर फाड़ डाली। जब चादर फाड़ रहा था, तभी पत्नी ने कहा, ‘अरे, अरे! यह क्या करते हो? ’ तो मुल्ला बोला, ‘चुप रह। तू दुकान पर भी आने लगी? ’ तब उसे होश आया। वह किसी ग्राहक को सपने में कपड़ा दे रहा था। चादर फाड़ रहा था।
तुम जो सोचते सोओगे स्वभावतः उसकी धुन तुम्हारे भीतर बजती रहेगी।
जो अंतिम विचार होता है सोते समय, वही प्रथम विचार होगा--जागते समय। यह गणित है। यह शतप्रतिशत सही गणित है। इस में जरा भी भेद नहीं पड़ता।
तो रात भूल कर भी ऐसा विचार कर के मत सोना, जिसे तुम सुबह साक्षात नहीं करना चाहते हो।
रात चिंता लेते सोओगे, सुबह वही चिंता ले कर उठोगे। इसकी तुम परख कर लेना। क्योंकि जो मैं कह रहा हूँ, वह वैज्ञानिक है। इसकी तुम परख कर लेना। दो-चार दिन परख कर के देखो। रात सोते-सोते
देखते रहना कि आखिरी बात कौन सी रही मन में। और तब तुम चैंक जाओगे। सुबह जब जागोगे, तुम अचानक पाओगेः वही बात दरवाजे पर खड़ी है। जो रात अंतिम रही, वही सुबह प्रथम होगी। उसी से मुलाकात होगी। उसी को सोचते-सोचते सो गए थे; वह अधूरी पड़ी रह गयी थी। फिर जब जागोगे, तो उसी से फिर गुजरोगे। फिर उसी से मिलन हो जाएगा। इसलिए भक्तों ने कहा हैः सोने जब जाओ रात, तो प्रभु-स्मरण में रहो।
और प्रभु को कह कर सोना! उससे अच्छा जगाने वाला और कोई भी नहीं। उसको कहना कि तू ही जगा देना। चार बजे उठा देना।
अभी कल मुझे लंदन से एक पत्र मिला--एक संन्यासी की मां का। संन्यासी कुछ तीन महीने यहां था। अभी कोई महीने भर पहले गया। उसको कैंसर था। कोई तीन महीने पहले चिकित्सक उसे सर्जरी के लिए टेबल पर लिटा दिए थे। संयोग की बात...। कभी-कभी संयोग भी बड़े महत्वपूर्ण होते हैं।
उन्होंने यह सोच कर कि शायद वह बचे या न बचे...। क्योंकि खतरनाक आपरेशन था। पूरा पैर उसका काटना पड़ता था। फिर भी बचेगा, इसका पक्का नहीं था। क्योंकि पैर में तो कैन्सर फैला ही गया था; ऊपर भी फैलने की संभावना थी। फैल गया हो; कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन पैर तो अलग करना पड़ेगा, शायद बच जाय, शायद न बचे। तो जिस विश्वविद्यालय में वह युवक...। कैंब्रिज में वह युवक विद्यार्थी था; तो कैंब्रिज के ईसाई पुरोहित को बुला लिया कि वह आ कर कम से कम आपरेशन के पहले उसे कुछ उपदेश दे दे।
यह संयोग की बात थी कि कैंब्रिज का जो पुरोहित था, वह मुझमें उत्सुक था। वे भी आकर अब संन्यस्त हो गए हैं।
तो उस पुरोहित ने जा कर ‘मस्टर्ड सीड’ नाम की मेरी किताब उस युवक को दी और कहा कि तू इसको प. जा; जितना थोड़ा बहुत प. सके। और मेरा तो सुझाव यह है कि बजाय तू आपरेशन करवाने के, पहले पूना हो आ। अब यह आपरेशन तो होगा। तू बचेगा कि नहीं बचेगा, यह तो दूर बात है। लेकिन थोड़ा ध्यान सीख आ।’
उस युवक को बात जम गई। वह टेबल से उठ आया। उसने कहा, ‘पहले मैं यह किताब पढ़गां, फिर मैं निर्णय करूं। किताब पढ़ कर तो वह तीसरे दिन पूना आ गया।
उसकी हालत निश्चित ही खराब थी। चिकित्सकों ने कहा भी था कि यह जाना खतरनाक है, क्योंकि कैन्सर फैल सकता है। मैंने भी उससे कहा कि ‘तू आ गया है--ऐसी खतरनाक हालत में, तो तीन
दिन यहां रह ले और वापस चला जा। वह तीन दिन रहा। फिर उसने कहा, ‘अब तो जाने का मन नहीं। मौत ही आएगी, तो आने दें। मरने के पहले थोड़ा शांत हो लूँ, मौत तो आनी ही है। और चूंकि मौत इतने करीब है; मेरे पास समय भी गंवाने को नहीं है।’ आप सब के पास तो रामय भी गँवाने को है, उसके पास समय भी गँवाने को नहीं था।
वह तत्क्षण संन्यस्त हुआ। तीन महीने यहां रहा; धीरे-धीरे उसका आनंद ब.ता गया। कैंसर भी
ब.ता गया! गांठें उसकी, जब वह यहां से गया, तो उसकी गरदन पर भी आ गयीं। मगर जरा भी चिंता न थी; जरा भी पीड़ा न थी; बड़ा आह्लादित था। उसका चेहरा देखते बनता था। उस पर दया भी आती थी कि वह
दिन दो दिन का मेहमान है।
ऐसे तो भी दिन दो दिन के मेहमान हैं। दया तो सभी पर आती है। पर उसका तो बहुत साफ ही मामला था। और उसकी निशिंचतता देख कर बड़ा आनंद भी आता था। उसका आनंद देख कर बड़ा आनंद भी आता था।
उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी थी; उसके चेहरे पर एक रस आ गया था। उसकी आंखों में चमक आ गयी थी। तो जब मैंने उससे कहा कि ‘अब जा भी। अब तीन महीने तू रह लिया; ध्यान भी तूने सीखा; अब जा। यह आपरेशन निपटा ले।
तो उसने कहा, ‘अब मैं जा सकता हूँ। अब मुझे चिंता नहीं। मौत हो कि जीवन, कुछ फर्क नही पड़ता। मैं प्रभु को याद करते मर सकता हूँ।
कल उसकी मां का पत्र अया कि वह चल बसा। लेकिन चलने के पहले वह ‘मस्टर्ड सीड’ अपनी मां को भेंट कर गया। और चलने के पहले एक अपूर्व घटना हुई। उसी घटना के लिए मैंने यह उल्लेख किया। कोई दो घंटे पहले...तीन बजे होंगे दोहपर के, वह बहोश हो गया। खुश था, आनंदित था। उसकी मां ने लिखा है कि वह मर गया, इसका हमें दुख नहीं है। हमें खुशी इस बात की है कि यह जो पांच-सात दिन वह पूना से लौट कर हमारे पास रहा, इतना आनंदित था...! हमने इतना आनंदित उसे कभी नहीं देखा था। क्योंकि बचपन से ही तड़प रहा था। वह पैर की खराबी बचपन से थी। और इतना प्रेमपूर्ण भी कभी नहीं
देखा। और मौत इतनी करीब थी। और इतना जीवन्त भी उसे कभी नहीं देखा। तो हम खुश है, हम प्रसन्न हैं। वह विदा तो हुआ है, लेकिन उसके विदा तो हुआ है, लेकिन उसके विदा होने के बाद घर में एक ऐसी शांति छोड़ गया है, जैसी हमने कभी नहीं जानी।
दो घंटे पहले बेहोश गया और बेहोशी में उसने दो बार बुद-बुदा कर कहा ‘पांच बजने को पांच!’
पिता और मां दोनों मौजूद थे, डाक्टर मौजूद थे। कुछ समझे नहीं। पांच बजने का पांच, पांच बजने को पांच...! लेकिन बात तो साफ ही थी कि वह घड़ी की बात कर रहा है। तीन बजे थे! पांच बजने को पांच ज्यादा दूर भी नहीं थे। तो वे प्रतीक्षा करते रहे। घबड़ाए कि शायद कुछ होने वाला है पांच बजने को पांच बजे...। फिर कुछ भी नहीं हुआ, तो निशिं्चत हो गए। लेकिन दूसरे दिन सुबह पांच बजने को ठीक पांच मिनट थे तब उसकी मृत्यु हुई। तब पिता मौजूद थे। जैसे ही वह मरा उन्होंने घड़ी देखी; पांच बजने को पांच!
अगर तुम शांत हो जाओ, तो सुबह कब जागना है, यह तो कोई बात ही नहीं; परमात्मा में कब जाना है, इसका भी बोध हो जाएगा। तुम्हें अपनी मृत्यु की घड़ी भी साफ-साफ प्रकट हो जाएगी। जागने की तो क्या बात है? मौत की घड़ी भी साफ हो जाएगी।
रात सोते समय जल्दी सो जाओ। कम भोजन कर के सोओ; हलका भोजन कर के सोओ। ऐसा जो किसी तरह का बोझ न लाए, जिसका पता ही न चले कि तुम्हारी शरीर पर बोझ है। किया न किया बराबर जैसा लगे।
घड़ी आधा घड़ी गरम जल में पड़े रहो। दिन भर की सारी चिंताओं से छुटकारा पा लो। उन सबको विदा कर दो। रात भर के लिए द्वार-दरवाजे संसार के बंद कर दो। फिर प्रभु को स्मरण करते सो जाओ। उसी को कह दो कि सुबह उठा देना--जब तेरा मुहूर्त आ जाए। और तुम थोड़े ही दिन में पाओगे कि ठीक मुहूर्त पर उठने लगे।
और जब तुम बिना किसी बाहरी दबाव के...अलार्म के या किसे के द्वारा उठाए जाने के उठोगे, तो तुम पाओगेः दिन भर बड़ी शांति, कोई चिड़चिड़ाहट नहीं। फिर हृदयपूर्वक स्मरण करना।
उठ क स्नान कर लेना, बैठ जाना फव्वारे के नीचे। और स्मरण को ऐसा करो कि वह सब तरफ से आने लगे। वह तो जलाधार गिरती हो तुम्हारे ऊपर यह उसी की जलधार है। उसी का जल हैः उसी की हवा है; उसी का आकाश है। उसको ही अनुभव करना।
सब तरह से स्वच्छ होकर बैठ जाना, शांत, एक कोने में, धीमा सा दीया जला देना। उदबत्ती या धूप या जो भी तुम्हें प्रीतिकर लगे, उस सुगंध से कमरे की भर लेना। यह जगह जहां तुम प्रार्थना करो, अगर रोज वही हो, एक ही जगह हो, तो अच्छा। और एक ही ढ़ंग से करो, तो अच्छा।
वही स्नान रोज, वही भाव रोज; धीरे-धीरे सघन होता जाता है। धीर-धीरे ऐसी घड़ी आ जाती है कि ब्रह्म-मुहूर्त आते ही तुम्हारे प्राण-प्राण में उसका नाद उठने लगेगा।
ऐसा होता है न। रोज तुम ग्यारह बजे भोजन करते हो, तो ग्यारह बजे भूख उठती है। रोज दस बजे रात सोने जाते हो, तो दस बजे झपकी आने लगती है, जम्हाई आने लगती है। ऐसा हो ठीक प्रार्थना भी होता है।
रोज नियम से करोगे, रोज वहीं करोगे, रोज वैसे ही करोगे, रोज-रोज, रोज-रोज, धीरे-धीरे सघन होते-होते तुम्हारे प्राण-मन सब में उतर जाएगी। तब तुम एक दिन अचानक पाओगेः यह भी भूख है, बड़ी गहरी भूख है। और परमात्मा भोजन है।
जब भूख उठ आती है, तो भोजन भी मिलता है। जब प्यास उठ आती है, तो उसकी जल-धार भी बरसती है।
लेकिन सुबह के ये दो घंटे अपूर्व हैं; अगर सहज भाव से उठ सका--तो ही। असहज नहीं, चेष्टा से नहीं--सरलता से। चाहे महीने दो महीने लग जायें सरलता से उठने में, लेकिन उठना सरलता से ही। और ऐसा आयोजन करना।
उन दो घंटों के हिसाब से बाकी बाईस घंटे का आयोजन करना कि वे दो घंटे सरलता से उठ सको--इस तरह से बाईस घंटे जीना। वे दो घंटे तुम्हारे शिखर हो जाएं। उन्हीं पर सब समर्पित हो जाएं। उठो, तो उनके लिए उठना। खाओ, तो उनके लिए खाना। सोओ, तो उनके लिए सोना। बोलो, तो उनके लिए बोलना। कुछ भी करो, तो ख्याल करना कि उन दो घंटों पर क्या असर पड़ेगा।
इस आदमी को गाली देंगे, तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मन में क्रोध अटका रह जाएगा। मेरे वे दो घंटे खराब हो जायेंगे? इतना लोभ करूंगा, तो फिर सांझ को बिना लोभ के सो सकूंगा? इतनी धन की चिंता करूँगा, इतनी आकांक्षा अभीप्सा करूंगा धन की, तो क्या फिर सुबह का ब्रह्ममुहूर्त मुझे उपलब्ध होगा? इस ढ़ंग से सोचना।
वे दो घंटे तुम्हारा मंदिर हैं। उनको ही बनाना है। और सारा जीवन उन्हीं दो घंटों के मंदिर को बनाए में ईंट बन जाए। इस तरह चलोगे, तो तुम एक दिन पाओगे चरणदास क्या कर रहे हैं।
पिछले पहरे जागि करि, भजन करै चित लाय।
चरनदास वा जीव की, निश्चय गति ह्वै जाय।।
वह निश्चित परमगति को उपलब्ध हो जाता है; मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।
इस जगत में उनकी हो गति होती है, जो प्रभु के स्मरण से भर जाते है। क्योंकि उसके स्मरण के सहारे ही गति है। उसके स्मरण की नौका मिल जाए, तो ही पार जाना हो सकता है, नहीं तो इस पार ही पड़े रहोगे। यही सड़न, यही गलन, यही नरक!
चरनदास वा जीव की निश्चय गति ह्वै जाय।
पहले पहरे सब जगैं, दूजे भोगी मान।
तीजे पहरे चोर ही, चैथे जोगी जान।।
‘जो कोई विरही नाम के, तिन कूं कैसी नींद।’--और फिर तो एक ऐसी घड़ी आ जाती हैः ‘जो कोई विरही नाम के, तिन कूं कैसी नींद।’ कि फिर तो कभी नींद लगती ही नहीं। शरीर जरूर सोता है; शरीर की जरूरत है। थकता है, तो सोता है। लेकिन चेतना थकती ही नहीं; उसके सोने की कोई जरूरत ही नहीं।
शरीर को सोने की जरूरत है, क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है यंत्रवत है। यंत्र थक जाते हैं। तुम्हारी कार भी तुम चलाते रहो आठ दस घंटे, तो रोक देनी पड़ती है। यंत्र थक जाता है।
चेतना यंत्र नहीं है; चेतना शाश्वतता है। कैसी थकन? अनंत काल से चल रही; अनंत काल तक चलती रहेगी। कहीं कोई थकन नहीं।
चेतना कोई यंत्र थोड़े ही है, जो थक जाए। यंत्र होता है, तो घर्षण होता है--यंत्र के अलग-अलग अंगों में, उसी के कारण थकन होती है। चेतना के कोई अंग भी नहीं है। चेतना अखंड है।
शरीर को भूख लगती है, क्योंकि ऊर्जा चली गयी। विश्राम की जरूरत होती है, ताकि फिर ऊर्जा उपलब्ध हो जाए।
लेकिन चेतना तो शाश्वत है, अमृत है। न तो थकान होती है, न भूख लगती है, न विश्राम की जरूरत होती है। मगर उस चेतना का तुम्हें अभी पता ही नहीं। अभी तो तुम जिसको चेतना कहते हो, वह चेतना की बहुत दूर की धुन हैः बहुत दूर की प्रतिध्वनि, प्रतिफलन।
जैसे चांद बनता हो झील में और झील में चांद को तुम असली चांद समझ लो। ऐसे ही तुम्हारी बुद्धि में चेतना का बिंब पड़ रहा है, वह कोई असली चेतना नहीं है। इसलिए कहाः तुम्हारा जागरण औपचारिक है; असली जागरण बुद्धों का।
जो कोई विरही नाम के, तिन कूं कैसी नींद।
सस्तर लागा नेह का, गया हिए कूं बींध।।
शस्त्र जिनके हृदय में बिंध गया प्रेम का, प्रभु-प्रेम का, अब कहां नींद? अब कैसी नींद?
‘सोए हैं संसार सूं, जागे हरि ओर।’ समझना। तुम संसार में जागे हो, परमात्मा में सोए हो। भक्त परमात्मा में जागता है, संसार में सो जाता है।
‘साए हैं संसार सूं...।’ संसार की तरफ सो गया जो। ‘जागे हरी की और।’
ये दो शब्द याद रखोः काम और राम। जो काम की ओर उन्मुख है, वह राम की ओर विमुख। जिसने काम की और मुंह किया, राम की ओर पीठ हो जाती है। और जिसने राम की ओर मुंह किया, उसकी काम की ओर पीठ हो जाती है।
सोए हैं संसार सूं, जागे हरि की ओर।
तिन हूं इकरस ही सदा, नहीं सांझ नहीं भोर।।
फिर न कोई सुबह है, न कोई सांझ है। चैबीस घंटे, अहर्निश वही है। फिर कोई भेद नहीं। जागो तो वह, सोओ तो वह। उठो तो वह, बैठो तो वह। जीओ तो वह, मरो तो वह। हर हालत में वही--और वही; एक स्वर। एक ही स्वाद। ‘तिनकूं इकरस ही सदा, नहीं सांझ नहीं भोर।’
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।
भक्त तो फिर भगवान से भी कह देता हैः ‘अब औरों की तो क्या कहूूं? ’ भक्त कहता है, ‘तुम भी रूठ जाओ, तो मुझे परवाह नहीं।’ जानता है कि अब तुम से अलग होने का उपाय ही नहीं।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार मुझे परवाह नहीं है
दीप स्वयं बन गया शलभ अब जलते-जलते,
मंजिल ही बन गया मुसाफिर चलते-चलते,
गाते-गाते गेय हो गया गायक ही खुद,
सत्य स्वप्न ही हुआ स्वयं को छलते-छलते,
डूबे जहां कहीं भी तरी वहीं अब तट है।
अब चाहे हर लहर मझधार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, सब संसार मुझे परवाह नहीं है।
यह बड़े प्रेम का वचन है।
अब पंछी को नहीं बसेरे की है आशा,
और बागबां को न बहारों की अभिलाषा,
अब हर दूरी पास, दूर है हर समीपता,
एक मुझे लगती अब सुख-दुख की परिभाषा,
अब न ओंठ पर हंसी, न आंखों में है आंसू,
अब तुम फेंको मुझ पर रोज अंगार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार मुझे परवाह नहीं है।
अब मेरी आवाज मुझे टेरा करती है,
अब मेरी दुनिया मेरे पीछे फिरती है,
देखा करती है मेरी तस्वीर मुझे अब
मेरी ही चिर प्यास अमृत मुझ पर झरती है,
अब मैं खुद को पूज, पूज तुमको लेता हूं,
बंद रखो अब तुम मंदिर के द्वार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठा रूठे सब संसार मुझे परवाह नहीं है।।
सुनते हो?
‘दीप, स्वयं बन गया शलभ अब जलते-जलते।’ पतंगा जब दीये पर गिर जाता है, फिर कैसी दूरी? ‘दीप, स्वयं बन गया शलभ अब जलते-जलते।’ अब तो पतंगा दीया बन गया; दीया पतंगा बन गया।
एक घड़ी आती है भक्त की जब भगवान में गिर जाता है, जैसे पतंगा दीये पर गिर जाता है। फिर भक्त ही भगवान् हो जाता हैं।
दीप, स्वयं बन गया शलभ अब जलते-जलते,
मंजिल ही बन गया मुसाफिर चलते-चलते,
गाते-गाते गेय हो गया गायक ही खुद,
सत्य स्वप्न ही हुआ अब स्वयं को छलते-छलते,
डूबे जहां कहीं भी तरी वहीं अब तट है,
अब चाहे हर लहर बने मंझधार मुझे परवाह नहीं है।
भेद गए, अभेद आया। द्वैत गया, अद्वैत आया। अब प्रेमी अपने प्रिय पात्र से भिन्न नहीं है।
‘अब मेरी आवाज मुझे टेरा करती है।’...वह जो आवाज एक दिन लगती थी, परमात्मा कि आवाज है, कि कहती थीः ‘उठो गोपाल; कि सुबह हुई।’ अब वह आवाज परमात्मा की आवाज नहीं, मेरी ही आवाज है। अपने ही अंतर्तम की आवाज है--अपनी ही अंतरात्मा की।
अब मेरी आवाज मुझे टेरा करती है,
अब मेरी दुनिया मेरे पीछे फिरती है,
देखा करती है मेरी तस्वीर मुझे अब।
भक्त इतना एक हो आता है भगवान से कि अब तस्वीर और भगवान की तस्वीर अलग-अलग मालूम नहीं होती।
मेरी ही चिर प्यास अमृत मुझ पर झरती है,
अब मैं खुद को पूज, पूज तुमको लेता हूँ,
बंद रखो अब तुम मंदिर के द्वार, मुझे परवाह नहीं है।
यह बड़े प्रेम का वचन है।
‘अब मैं खुद को पूज, पूज तुमको लेता हूं।’ अब भेद ही न रहा। नहीं सांझ नहीं भोर।
‘सोवन जागन भेद की कोइक जानत बात।’ कोई विरला ही जानता है सोने और जागने का भेद।
‘साधूजन जागत तहां, जहां सबन की रात।’ साधु वहीं जागता है, जहां सबकी रात है--वह चौथा पहर। जो सबकी गहरी सुषुप्ति, है, वही साधु की जाग्रति है, ध्यान है, समाधि है।
साधुजन जागत तहां, जहां सबन की रात।
जो जागै हरि-भक्ति में, सोई उतरै पार।
जो जागै संसार में, भवसागर में ख्वार।।
और जो संसार में जागा है, वह नष्ट होगा।
जागै न पिछले पहर, ताके मुखड़े धूल।
सुमरै न करतार कूं, सभी गवावै मूल।।
‘सतगुरु से मांगू यही, मोहि गरीबी देहु।’ गरीबी का अर्थ होता है--मुझसे ऐसा सब छीन लो, जिसकी याद परमात्मा में बाधा बनती हो। मुझसे वह सब अलग कर लो, जो मेरे और परमात्मा के बीच
दीवाल बनता हो।
सतगुरु से मांगू यही, मोहि गरीबी देहु।
दूर बड़प्पन कीजिए, नाना ही कर लेहु।।
अब मुझे इतना छोटा बना दो, मेरा सारा बड़प्पन ले लो। मगर एक बात भर पूरी हो जाए। कितना ही छोटा बनाओ, ऐसी कुछ दशा मेरी कर दो कि परमात्मा की कृपा मुझ पर बरस सके।
छोटा बनाने का वही अर्थ होता है।
जब बच्चा छोटा होता है, तो मां उसकी जरा सी आवाज सुन कर भागी आती है। जैसे-जैसे बड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे मां उसकी चिंता छोड़ने लगती है। जब वह जवान हो जाएगा, तो मां को उसकी चिंता की कोई जरूरत न रहेगी।
तुम जितना अपने को बड़ा मानोगे, उतना ही ‘परमात्मा की तुम्हें जरूरत नहीं’ इसकी तुम घोषणा कर रहे हो।
भक्त कहता हैः मुझे छोटा कर दो। मुझे इतना छोटा कर दो कि मैं केवल रोने में समर्थ रह जाऊं। मेरा रोना ही प्रार्थना बन जाएगी।
सतगुरु से मांगू यही, मोहि गरीबी देहु।
दूर बड़प्पन कीजिए, नाना ही कर लेहु।।
मुझे मिटा दो। मैं बचूं न, ताकि परमात्मा ही बचे। मुझे पोंछ दो, मुझे हटा दो।
प्रेम पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूं, उस जगह तुम चलो
कब्र-सी मौन धरती पड़ी पांव पर,
शीश पर है कफन-सा घिरा आसमां,
मौत की राह में, मौत की छाह में
चल रहा रात दिन सांस का कारवां
जा रहा हूं चला, जा रहा हूं ब.ा,
पर नहीं ज्ञात है किस जगह शाम हो?
किस जगह पग रुके, किस जगह में छुटे
किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो,
मुसकराए सदा पर धरा इसलिए,
जिस जगह पर मैं, झरूं उस जगह तुम खिलो
प्रेम पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूं, उस जगह तुम चलो
प्रेम का पथ सूना अगर हो गया
रह सकेगी बसी कौन सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो
कौन है जो हंसे फिर चमन में कली
प्रेम को ही पग में मिला न मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ शमशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहां एक अपमान है,
आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए,
रात-दिन मैं लूं, रात-दिन तुम लो।
प्रेम पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूं, उस जगह तुम चलो।
आदमी दीन हो जाए, वहीं परमात्मा की शक्ति मिलनी शुरू हो जाती है। जहाँ आदमी गिरता है, वहीं परमात्मा के चरण तुम्हें चलाने लगते है। जहां तुम झरते हो, वहीं परमात्मा खिलता है।
मैं दारिद्र हो जाऊं, दीन हो जाऊं, छोटा हो जाऊं--भक्त की इस अभिलाषा में सिर्फ एक ही घोषणा हैः मेरा अहंकार न बचे। मुझे मिटाओ। अनुकंपा करो। मुझे जलाओ’ मुझे राख कर दो।
आदि पुरुष किरपा करौ, सब औगुन छुटि जाहिं।
साध होत लच्छन मिले, चरनकमल की छाहिं।।
‘आदि पुरुष किरपा करो...।’ भक्त कहता हैः मेरे किए जो हो सकता है, वह मैं कर रहा हूँ। लेकिन मेरे किए अंतिम बात नहीं हो सकती। वह तो तेरी कृपा से होगी। अंतिम बात मेरे हाथ में नहीं है।
मैं पुकारूंगाः मैं रोऊंगा; मैं प्रार्थना करूंगा; मैं स्मरण करूंगा; मैं सब करूंगा--जो मैं कर सकता हूँ। लेकिन मेरा सामथ्र्य कितना? मेरे हाथ कितने बड़े? तेरे आकाश तक नहीं पहुंच सकेंगे। हाथ फैला कर भी खड़ा हो जाऊंगा तो मेरे हाथ छोटे है। मैं तुझे न छू पाऊंगा। तेरी कृपा के बिना न हो सकेगा।
इसलिए कृपा के तत्त्व को ठीक से समझ लेना। भक्ति के मार्ग पर कृपा अनिवार्य तत्त्व है; अंतिम तत्त्व है।
भक्त सब करता है, लेकिन अंततः यही जानता हैः होगा उसकी कृपा से। इसलिए भक्त के मन में अहंकार नहीं उठता।
प्रयास पर भरोसा ही नहीं, तो अहंकार कैसे उठेगा? भक्त जो करता है, जानता हैः उससे पाने में कुछ सहायता नहीं मिलेगी; सिर्फ मैं पाना चाहता हूं--इसको खबर परमात्मा तक पहुंचेगी। मेरी चाह सच्ची है; मेरा ईमान सच्चा है; मैं ऐसे ही नहीं मांग रहा हूं। मांगने के लिए सब कुछ करने को तैयार हूं। लेकिन फिर भी मेरे किए क्या होगा? उसकी कृपा चाहिए।
‘आदि पुरुष किरपा करौ, सब औगुन छुटि जाहिं।’ मैं तो छुड़ाऊंगा भी अवगुण, तो एक छुड़ाऊंगा, तो दूसरा फंस जाता है। एक से बचता हूं, तो दूसरे में उलझ जाता हूँ।
यहां कांटे ही कांटे है। अगर अहंकार से छुटकारा पाओ, तो विनम्रता की अकड़ आ जाती है। अगर संसार छोड़ दो, तो त्याग की अकड़ आ जाती है। अगर धन को छोड़ दो, इतने धन पर मैंने लात मार
दी--यह अकड़ पैदा हो जाती है। यहाँ तो बड़े उपद्रव हैं। यहां एक चीज हटाओ, दूसरी पकड़ जाती है। यहाँ से बचना दिखाई नहीं पड़ता।
‘आदि पुरुष किरपा करौ, सब औगुन छुटि जाहिं।’
‘साध होन लच्छन मिलै’...। मैं कोशिश तो करता हूं, साधु होने की, चरणदास कहते हैं, लेकिन हो नहीं पाता। कुछ भी करता हूं, उसी में से असाधुता निकल आती है। साधु बन कर बैठ जाता हूं, तत्क्षण पता चलता है कि अहंकार वहां भी आ गया। तेरी कृपा हो, तो ही साधु होने के लक्षण मिलेंगे, अन्यथा नहीं।
‘साधु होन लच्छन मिलै, चरनकमल की छाहिं।’ तेरे चरणों की छाया मिले, तो सब मिल गया। उसी छाया में मेरे हृदय के फूल खिलेंगे; मेरे खिलाएं नहीं खिलेंगे।
तेरी अनुकंपा में, तेरी वर्षा में, तेरे प्रसाद में...। ‘हिय हुलसो आनंद भयो।’
और तेरे चरणकमल की छांह जब भी मिल जाती है, क्षण भर को भी मिल जाती हैः ‘हिय हुलसो आनंद भयो’...। तभी हृदय नाचने लगता है। और तभी आनंद हो जाता है।
‘रोम-रोम भयो चैन।’ और बिना कुछ किए रोआं-रोआं शांत हो जाता है। सब तरफ विश्राम, विराम आ जाता है। सब दौैड चली जाती है।
हिय हुलसो आनंद भयो, रोम-रोम भयो चैन।
भए पवितर कान ये, मुनि सनि तुम्हरे बैन।।
परमात्मा मौन है, इसलिए उसका नाम--मुनि। वह बोलता नहीं, फिर भी बोलता है।
उपनिषद कहते हैं: उसके पैर नहीं, फिर भी चलता है; तब तो आता है भक्त तक; नहीं तो कैसे आएगा? पैर तो उसके नहीं हैं। और हाथ नहीं हैं उसके, या हजार हाथ हैं उसके। क्योंकि सभी को सहारा दे देता है। और बोलता नहीं, लेकिन उसके मौन में उपदेश है।
‘भवे पवितर कान ये’...। चरणदास कहते हैं कि ये कान मेरे पवित्र हो गए। तुम बोले नहीं, और मेरे कान पवित्र हो गए।
‘मुनि सुनि तुम्हरे बैन।’ तुम्हारे मौन से जो संदेश मिल गया; तुम्हारे चरणों की छाया में बैठ कर जो संदेश मिल गया; तुम्हारी अनुकंपा में जो आशीर्वाद मिल गया--मेरा हृदय हुलसा, आनंद हुआ।
तुम्हारे मौन में कहे गए शब्द, अनकहे शब्द, मेरी सारी अपवित्रता को लेकर वह गए। तुम्हारे मौन की लहर क्या आयी, मैं नहा गया। ब्रह्म-सिंध की लहर है...।
बांस के बन में से गुजरती हुई हवा
जैसा बोलती है
या बिल्कुल सबेरे-सबेरे बादल के दलों में किरण
जैसा रंग घोलती है
या जैसे आधी रात के सूने में गहरी होती है सुगंध
या जैसे अलस काले नाग में बंध के रह जाता है
ऐसा परमात्मा चारों तरफ मौन से बोल रहा है।
‘बांस के वन में से गुजरती हुई हवा जैसा बोलती है।’ तुम्हें सुनना आ जाए, तो तुम इन पक्षियों के नाद में उसी को सुनोगे।
‘बांस के बन में से गुजरती हुई हवा जैसा बोलती है।’ फिर तो बांस के बन में से गुजरती हुई हवा भी, उसी के होंठ पर रखी बंसी है। बंसी भी बांस से ज्यादा क्या है? कोई बंसी का नाद सुनने के लिए
आदमी के होंठ पर ही होना जरूरी तो नहीं?
बांस के बन में गुजरती हुई हवा
जैसा बोलती है
या बिल्कुल सबेरे बादल के दलों में किरण
जैसा रंग घोलती है।
यह उसी का हाथ है। यह वही चितेरा है, जो सुबह बादलों को रंग जाता है, जो सांझ तारों को सजा जाता है। सब तरफ उसकी कला है। सब तरफ उसके हस्ताक्षर है--पत्ते-पत्ते पर, पत्थर-पत्थर पर।
‘या बिल्कुल सबेरे-सबेरे बादल के दलों में किरण जैसा रंग घोलती है।’ आंख हो देखने की, कान हो सुनने को, फिर वही है--और केवल वही है।
‘या जैसे आधी रात के सूने में गहरी होती है सुगंध।’ फिर हर गंध उसकी सुगंध है। फिर सब तरफ से उसी का संकेत आता है।
‘या जैसे अलस काले नाग में बंध के रह जाता है छंद।’ तुमने देखा: कभी मदारी अपनी बीन बजाता है। इधर मदारी की बीन बजती है, उधर धंद काले नाग में बंध कर रह जाता है।
वैज्ञानिक अपूर्व बात कहते हैं। वे कहते हैं: नाग को कान नहीं होते। इसलिए बड़ी मुश्किल थी। अब यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि मदारी बीन बजाता है और नाग नाचता है; छंदबद्ध हो जाता है।
वैज्ञानिक बड़ी चिंता में रहे वर्षों तक, कि मामला क्या है? क्योंकि नाग को कान होते हीं नहीं, नाग वज्र बहरा है। कान होते ही नहीं। वज्र बहरा कहना भीं ठीक नहीं; बहरे को कम से कम कान तो होते हैं।
दिखाई तो पड़ते हैं; काम न करते हों। लेकिन नाग को कान होते ही नहीं। कान की इंद्रिय ही नाग में नहं है। इसलिए वैज्ञानिक बड़े चिंतित थे। और इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता। तो वे कई सिद्धांत खोजते थे कि हो सकता है, वह जो मदारी बीन बजा कर डोलने लगता है, उसको देख कर...। लेकिन मदारी दूसरे कमरे में बैठकर बीन बजाए; नाग को दिखाई भी न पड़े, तो भी नाग डोलता है।
नाग को पकड़ने की तरकीब ही यह है कि नाग अगर छिपा हो दूर खोह में और मदारी बीन बजाए, तो अपनी गुफा से निकल आता है। तो गुफा में दिखाई तो पड़ता नहीं, इसलिए बात हल नहीं होती।
फिर धीरे-धीरे और विश्लेषण से पता चला कि नाग को कान तो नहीं होते, लेकिन नाग का पूरा शरीर ध्वनी के प्रति संवेदनशील है। पूरा शरीर...। जै हमें कोई छूए, तो हमें स्पर्श का अनुभव होता है, ऐसे ध्वनि की जो तरंग पड़ती है, नाग का पूरा शरीर उसे स्पर्श करता है। पूरा शरीर उसे अनुभव करता है। तो यह कहना ठीक नहीं कि नाग को कान नहीं होते। यह कहना चाहिए कि नाग पूरा का पूरा कान है। इसलिए कान पकड़ में नहीं आते। पूरी देह ही उसकी कान है।
‘या जैसे असल काले नाग में बंध के रह जाता है छंद।’ ऐसे ही जिस दिन तुम्हें प्रभु की मौन-वाणी सुनाई पड़ेगी, तुम नाग की तरह छंदबद्ध हो जाओगे।
ये चरणदास के वचन वैसे ही छंदबद्धता से निकले है। चरणदास कोई कवि नहीं है। यह कविता, कविता नहीं है; यह कविता अनुभव है, स्वानुभव है। यह कुछ तुकबंदी नहीं है--कि व्याकरण, भाषा और मात्रा और छन्द के नियम से इनका निर्माण हुआ हो। नहीं; जो भीतर जाना है, वह तुमसे कह देना चाहा है। और जो भीतर जाना है, वह इतना छंदबद्ध है कि उसके प्रभाव में जो कहा है, वह भी छंदबद्ध हो गया।
बुद्धों के सभी वचन काव्य होते हैं। वे कविता में हो या न हों, इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके भीतर जिस महाकाव्य का जन्म हुआ है, उसमें डूब कर आते सभी शब्द संगीतमय हो जाते हैं।
चरणदास के आज के इन वचनों पर खूब ध्यान करता। ऐसे ही जैसेः
बांस के वन में से गुजरती हुई हवा
जैसा बोलती है
या बिल्कुल सबेरे-सबेरे बादल के दलों में किरण
जैसा रंग घोलती है
या जैसे आधी रात के सूने में
गहरी होती है सुगंध
या जैसे अलस काले नाग में बंध के रह जाता हैं छंद।
आज इतना ही।
Osho is love❣️🇳🇵
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