प्रवचन-आठवां
16 दिसंबर 1985, अपराह्म, कुल्लू-मनाली
जीवन सदा अनिश्चित है
रजनीशपुरम के कम्यून के असफल हो जाने के बाद अब कम्यून के भविष्य के संबंध में आपके क्या विचार हैं?पहली बात, वह असफल नहीं हुआ। क्या तुम सोचते हो कि सुकरात को जहर देकर मार डालना सुकरात और उसके दर्शन की असफलता थी? वस्तुतः वह तो उस आदमी की परम विजय थी। उसने सिद्ध कर दिया, एक अकेला आदमी और उसका सत्य, समाज और उसकी ताकत, उसकी संपदा, जनसंख्या, फौजें- इन सबसे शक्तिशाली है। वे लोग उस आदमी के साथ सिर्फ एक बात कर सकेः वे उसकी हत्या कर सके। लेकिन मनुष्य की हत्या करने से सत्य की हत्या नहीं होती। वस्तुतः उल्टे सुकरात को मारकर उन्होंने उसके सत्य को अमर कर दिया है। क्या तुम सोचते हो कि जीसस की सूली उनकी असफलता था? यदि जिस को सूली नहीं दी जाती तो ईसाइयत पैदा ही नहीं होती। उनको दी गई सूली ही, उनकी महिमा को उच्चतम शिखर पर ले जाती है। तो मैं नहीं मानता कि अमेरिका में कम्यून का नष्ट होना उसकी असफलता है; वह सफल हुआ है। हम कई चीजें सिद्ध करने मग सफल रहे हैं। हम यह सिद्ध करने में सफल हुए कि विश्व की सब से बड़ी रा य-सत्ता भी एक छोटे से कम्यून से डरती है, जिसके पास प्रेम के अलावा और कोई ताकत नहीं है। इसका मतलब हुआ, प्रेम ताकत से अधिक ताकतवर है।
हमने सफलतापूर्वक यह दिखा दिया है कि पांच हजार लोगों को छोटा सा कम्यून भी दुनिया में सब से बड़े राष्ट्र के राजनीतिकों और सरकारी कर्मचारियों की नींद हराम कर सकता है, जो कि मनुष्य के इतिहास में कभी घटा नहीं। उनका भय क्या था? हमारे छोटे से कम्यून से उनकी छाती पर सांप क्यों लोट गया? कारण यह था कि हमारे अत्यल्प साधनों के बावजूद हम सफल हुए, और उनके असीम स्रोतों के बावजूद वे असफल हुए। और हमारी उपेक्षा करना उनके लिए असंभव था, क्योंकि लोगों के मन में हमारे और अमेरिकन सरकार के बीच तुलना पैदा हो रही थी। यदि ये लोग एक मरुस्थल को मरूद्यान बना सकते हैं, यदि इनके यहां एक भिखारी नहीं है, कोई बेरोजगार नहीं, चार सालों से कोई अपराध नहीं हुआ- न कोई हत्या, न बलात्कार, न आत्महत्या; कोई पागल नहीं हुआ, तो फिर बड़े पैमाने पर यह क्यों नहीं हो सकता, जब कि तुम्हारे पास यह सब करने के लिए पूरी ताकत उपलब्ध है? और इन लोगों के पास उनकी बुद्धि और उनके श्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इससे और एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात सिद्ध हुई है- न केवल अमेरिका के लिए बल्कि मनुष्य के पूरे इतिहास के लिएः अतीत के और भविष्य के भी। हमारी कोई सरकार नहीं थी। पहली बार पांच हजार लोग चार साल तक बिना किसी सरकार के जीए हैं। यह कोई छोटी घटना नहीं है। यह पहला अराजवादी कम्यून था। अराजवादी इस संबंध में चर्चा करते हैं, लेकिन कोई भी इसको वास्तविकता बनाने में सफल नहीं हुआ है। और हम कोई जा-बूझकर एक अराजवादी समाज बनाने की चेष्टा नहीं कर रहे थे। वह तो उसकी छाया थी। हमने उसके संबंध में कोई सोच-विचार नहीं किया था। यह तो बाद में इसकी प्रत्यभिज्ञा हुई कि यहां कोई सरकार नहीं है, और फिर कोई अपराध नहीं घटते।
हमने लोगों को संतति निरोधक साधनों का उपयोग करने का कोई आग्रह नहीं किया था, और फिर भी चार वर्षों में एक भी बच्चा पैदा नहीं हुआ। उनकी बुद्धि पर भरोसा करना ही काफी था। तो हमने सिद्ध कर दिया है कि तुम व्यक्ति की बुद्धि पर भरोसा करो, उसकी निष्ठा पर भरोसा करो और उसका सम्मान करो तो तुम उससे चमत्कार करवा सकते हो। दूसरी बात, जो कि बिल्कुल ही असंभव मालूम पड़ती है- कम्यूनिस्ट और अराजवादी कभी एक बात पर सहमत नहीं हो सकते। क्योंकि अराजवादी कहते हैं, सरकार नहीं चाहिए। सरकार को तत्क्षण विसर्जित कर देना चाहिए। सरकार अब अपराधों का एकमात्र कारण है, जो भी अमानवीय है- सभी युद्ध, रक्तपात, सी तरह की कुरूप राजनीति। और कम्यूनिस्ट कहते हैं, हम आशा करते हैं कि भविष्य में कभी ऐसा समय होगा जब कोई सरकार नहीं होगी। लेकिन फिलहाल तो सरकार को हटाने से हालात सुधरेंगे नहीं। वे तो और भी बदतर होते जाएंगे। और शायद वे ठीक कहते हैं। शासन के होते हुए भी अपराध होते हैं, आर उनकी संख्या में वृद्धि होती जाती है। मालूम होता है, मनुष्य के मस्तिष्क में कोई परिवर्तन नहीं होता। इतने सारे नियंत्रणों, अदालतों और सजाओ के बाद भी मनुष्य का मन बड़ा अड़ियल मालूम पड़ता है।
यदि ये सार नियंत्रण हटा दिए जाएं तो समाज एक जंगली स्थिति में गिर जाएगा। कम्युनिस्ट कहते हैं, सुदूर भविष्य में कभी, जिसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती- जब तक कि पूरी दुनिया कम्यूनिस्ट नहीं बनती, और बाट् हस्तक्षेप का कोई भय नहीं रह जाता, तब तक शासन को विसर्जित नहीं किया जा सकत। उल्टे शासन को अधिक मजबूत बनाना चाहिए, ताकि लोगों पर समानता थोपी जा सके। क्योंकि आदमी असमान होने का इतना आदी हो गया है कि यह आदत छोड़ना उसके लिए आसान नहीं है। और कोई किसी के साथ समान होना नहीं चाहता। प्रत्येक व्यक्ति उच्चतर और श्रेष्ठतर होना चाहता है। दूसरे से उच्चतर और श्रेष्ठतर होने की इस मनोवृत्ति को नष्ट करने के लिए बहुत कठोर; वह बड़ा शिथिल शासन होता है। केवल सर्वहारा वर्ग की तानाशाही...तो कम्यूनिस्टों का पहला चरण यह है कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही लायी जाए।
फिर अराजवादी और कम्यूनिस्ट कैसे सहमत हो सकते हैं? उनका पहला चरण हैः शासन का इंकार। उन्हें लोकतांत्रिक शासन भी मंजूर नहीं है। और कम्युनिस्टों का पहला चरण हैः देश पर अति कठोर, लगभग फौजी शासन; ताकि हम सभी पुरानी आदतों को तोड़ डालें, जो मनुष्य के मन को जकड़े हुए हैं। बाकुनान, तालस्ताय जैसे अराजवादी, और कार्ल माक्र्स और लेनिन जैसे समाजवादी निरंतर बहस करते रहे हैं। वे एक-दूसरे को दुश्मन की तरह देखते हैं। मैंने ये बातें इतने विस्तार से कहीं क्योंकि कम्यून में जो हुआ, वह चमत्कार था। वहां कोई शासन नहीं था, और फिर भी एक उच्च कोटि का कम्युनिजम संभव हो सकता, जिसमें कोई तानाशाही नहीं थी। वहां किसी बात को थोपने की कोई जरूरत न थी। हमने इतना ही किया था कि कम्यून के भीतर हमने पैसे का उपयोग करना छोड़ दिया था। तुम कम्यून को पैदा दे सकते थे लेकिन कम्यून के भीतर चीजें खरीदने-बेचने के लिए तुम पैसे का उपयोग नहीं कर सकते थे। तो तुम्हारे पास लाखों डालर हों और मेरे पास फूटी कौड़ी भी न हो, लेकिन कम्यून में न मैं गरीब हूं, न तुम अमीर हो। तुम्हारे लाखों डालर व्यर्थ हैं।
उनका उपयोग तो तभी है जब तुम उनका व्यावहारिक उपयोग कर सकते हो। नहीं तो वे तुम्हारे पास हैं या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है? तो कम्यून में केवल पैसे का उपयोग न करने से...और कम्यून, लोगों की जरूरतों की पूरी जिम्मेदारी लेता था- स्वास्थ्य संबंधी, शिक्षा, पोष्ण, कपड़े, भोजन, निवास, वाहन, सब कुछ। मुझे इसका अहसास नहीं था कि उसका यह नतीजा निकलनेवाला है। इसीलिए मैं कहता हूं, जीवन इतना रहस्यपूर्ण है, इतना अगम है, इतना अदभुत है कि मैंने समाजवाद और अराजवादी को एक साथ जीते हुए देखा। कोई शासन नहीं, कोई अमीर नहीं, कोई गरीब नहीं। यह इतनी बड़ी घटना है कि यद्यपि वह सिर्फ चार साल तक चली, और उसको सूली दी गई...लेकिन सूली पर चढ़ा देना कभी भी सफल नहीं हुआ है। तुम किसी को सूली पर भी चढ़ाते हो जब तुम स्वयं को उसके आगे बेबस पाते हो। अमेरिका के कम्यून को सूली दी गई है, अब वह पूरी दुनिया में फैल जाएगा। उसकी हत्या उसकी असफलता नहीं है, वह सफलता का सुनिश्चित प्रतीक है। हम यह सिद्ध करने में सफल हुए हैं कि मनुष्यता के सामने जो भी समस्याएं हैं उन सब को हम सुलझा सकते हैं। ये सब समस्याएं आदमी ने खुद पैदा की है। एक तरफ वे उन्हें पैदा किए चले जाते हैं, और दूसरी तरफ वे उनका समाधान खोजते रहते हैं। यह जगत इतनी मूढ़ता में जीता रहा है कि वह देखता भी नहीं कि समस्या पैदा किसने की है? उसकी जड़ ही क्यों नहीं काट देते? कल रात एक महिला मुझसे पूछ रही थी...बुद्धिमान महिला है, और अनूठी भी- इस अर्थ मग कि वह मुसलमान थी। वह पूछ रही थी, साम के साथ किस तरह व्यवहार करें?
इतना कलह चलता है कि लगता है, इसका कोई उपाय नहीं है। मैंने कहा, पहले तुम समस्या खड़ी करते हो और फिर उसका समाधान खोजने लगते हो। पहली बात, विवाह ही अनावश्यक है। विवाह के विलीन होते ही सब ससुराल वाले अपने आप विदा हो जाएंगे। जड़ ही काट दो। दूसरी बात, जैसे ही पुरुष किसी स्त्री के साथ रहने योग्य हो जाता है, उसे उस स्त्री के साथ अकेला छोड़ देना चाहिए। यह जरा मनोवैज्ञानिक मामला है। वह नौ महीने मां के गर्भ में रहा है; उसने उसकी परवरिश की, शिक्षित किया, उसके काबिल बनाया। और अब तक उसकी जिंदगी में वह एकमात्र स्त्री थी। और ध्यान रहे, वह मां हो या न हो, वह एक स्त्री है। और उसके लिए यह बर्दाश्त के बाहर है कि एक अजनबी स्त्री घर में आए, जिसने तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं किया है...और अचानक तुम्हारी अपनी मां से वह स्त्री अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। और पच्चीस साल तक वह तुम्हारी देखभाल करती रही है।
तुम सब कुछ भूल गए...कि जब तुम बीमार थे, वह रात भर तुम्हारे पास बैठी जागती रही...या तुम्हें शिक्षा देने के लिए वह काम कर रही थी...किसी न किसी तरह वह तुम्हारी जरूरतें पूरी कर देती थी, ताकि तुम्हें ऐसा न लगे कि तुम गरीब हो। अचानक एक परायी और आ जाती है, और मां का तुम्हारे लिए कोई मूल्य नहीं रह जाता। और उसके लिए पत्नी जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता; क्योंकि उसने तुमसे विवाह किया है, तुम्हारी मां से नहीं। उसका तुम्हारी मां से कुछ लेना-देना नहीं है। और जीवन के संबंध में उसके अपने सपने थे। उनका तुम्हारी मां से कोई तालमेल नहीं बैठता। संघर्ष शुरू हो जाता है। और फिर तुम एक तरफ से सम्हालने की कोशिश करते हो तो दूसरी तरफ से दरार पैदा होती है। यदि वह आदमी अपनी मां का पक्ष लेता है, जो कि वह अपना कर्तव्य समझता है, तो फिर उसकी स्त्री उसके लिए चैबीसों घंटे उपद्रव खड़ा करने वाली है- छोटी-छोटी बातों के लिए। वह असहनीय होता है। कर्तव्य निभाने के लिए वह इतना नर्क नहीं झेल सकता। यदि वह पत्नी का पक्ष लेता है तो मां आगबबूला हो जाती है; ऐसा रूप उसने पहले कभी नहीं देखा था। अब दोनों में बड़ी प्रतिस्पर्धा चलती है। और दो स्त्रियों के बीच बेचारा गैर-अनुभवी पुरुष मारा जाता है। और तुम समाधान चाहती हो?
...कोई जरूरत नहीं है। पहले तो, यह समस्या ही क्यों पैदा करनी? जैसे ही शादी हो जाती है, वह अपना घर अलग बसा सकता है; अपनी नौकरी, अपना काम स्वतंत्र रूप से कर सकता है। हमें इस बात की फिकर लेनी चाहिए कि वह पुराने परिवार से साथ न रहे। अब उसके जीवन में एक नए व्यक्ति का आगमन हुआ है। यह नया व्यक्ति पुराने ढांचे में समा नहीं सकता। यह इतनी सरल बात है। लेकिन, फिर भी यह बात बुनियादी नहीं है। बुनियादी बात यह है कि विवाह हो ही क्यों? दो व्यक्ति प्रेम करते हैं, वे एक साथ रह सकते हैं। प्रेम ऐसी चीज है कि आज है, कल नहीं होगा। कल जब प्रेम विदा हो जाएगा तो तुम क्या करोगे? तुम्हें दिखावा करना पड़ेगा। और आदमी के जीवन में बड़ा पाप तब होता है जब वह प्रेम का दिखावा करता है; क्योंकि प्रेम जीवन की श्रेष्ठतम गुणवत्ता है, और तुम उसका दिखावा कर रहे हो। और अगर तुम्हें प्रेम का दिखावा करने की आदत हो जाए तो शायद तुम प्रेम की प्रामाणिक गुणवत्ता को कभी खोज ही न पाओगे।
वह दिखावा ही तुम्हारी वास्तविकता बन जाए...और दुनिया में लाखों की वही वास्तविकता बन गई है। उन्हें कभी प्रेम का अनुभव ही नहीं होता, वे हमेशा दिखावा करते हैं। मां से प्रेम करने का दिखावा करते हो। क्योंकि वह तुम्हारी मां है; तुम्हारे पिता से आदर करने का दिखावा करते हो, क्योंकि वे तुम्हारे पिता है; बच्चों से प्रेम करने का दिखावा करते हो, क्योंकि वे तुम्हारे बच्चे हैं। सब दिखावे। इन दिखावों से घिरे हुए तुम्हारा सच्चा विकास नहीं हो सकता। तुम अपनी क्षमता को वास्तविक नहीं बना सकते। अमेरिका में कम्यून का हमारा अनुभव अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। समय का कोई सवाल नहीं है। सिद्ध करने के लिए चार साल काफी होते हैं। चार सालों में जो घटा है, वह चार सौ सालों में भी घट सकता है; और पांच हजार लोगों के साथ जो घट सकता है, वह पचास हजार लोगों के साथ भी घट सकता है। सभी आदमी एक जैसे हैं। तो मत कहना कि वह प्रयोग असफल हुआ। नहीं, प्रयोग तो सफल हुआ है। अमेरिका उसे पहचान नहीं सका। अमेरिका ने सिद्ध कर दिया है कि वह बुद्धिमान नहीं है, संवेदनशील नहीं है। अराजवादी, और साम्यवाद, बिना किसी संघर्ष के एक साथ जी रहे थे, इस संयोग को वे देख नहीं पाए। जहां तक मेरा संबंध है, हम सफल हुए हैं। हमने अपनी छाप छोड़ दी है, और कई प्रदेशों में, विभिन्न कालों में, भिन्न-भिन्न लोगों के साथ यह दोहराया जाएगा; और यह फैलने वाला है। अन्य दृष्टियों से भी यह अत्यंत सफल रहा है।
पहली बार मेरा अस्तित्व, मेरा दर्शन, मेरे लोग विश्व-विख्यात हो गए। पहली बार दुनिया को यह स्वीकार करना पड़ा कि एक निराले ढंग का आदमी है, जिससे शासन डरते हैं, धर्म डरते हैं। अब संन्यास एक घरेलू शब्द हो गया है। एक कम्यून नष्ट हो गया तो कोई परवाह नहीं। उस कम्यून से हमने बहुत कुछ सीख लिया है। मेरा दूसरा कम्यून एक स्वतंत्र द्वीप पर होगा। तो उसमें शासन के हस्तक्षेप करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। और कोई शासन हम पर हुक्म नहीं चला सकता कि तुम वीसा पर कितने दिन रह सकते हो या नहीं। वह हमारा अपना घर होगा। और जो जितना चाहे उतना रह सकता है। हम किसी देश की सीमा के अंतर्गत नहीं होंगे, हम आत्मनिर्भर होंगे। और उन लोगों ने जिस कम्यून को नष्ट किया है उससे कहीं अधिक श्रेष्ठतम और बेहतर कम्यून हम बनाएंगे। वह विश्व के सभी कम्यूनिस्टों के लिए आदर्श होगा।
इस कम्यून के विनष्ट होने से अब पहली बार तुम पूरी दुनिया की नजरों में आए हो। अब तक तुम एक छोटा सा आंदोलन थे, रहा के एक किनारे पड़ा हुआ। अब हम रास्ते के बीच आ गए हैं। और अब प्रत्येक व्यक्ति को हमारे संबंध में कोई न कोई रुख अख्तियार करना ही पड़ेगा- या तो हमारे पक्ष मग या विपक्ष में। दोनों का स्वागत है। हम एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं छोड़ेंगे, जो उपेक्षा करे। भगवान, आपके भारतीय संन्यासियों तथा प्रेमियों के लिए आपका क्या संदेश है? जो इस देश में रहने की आपकी अनिश्चितता के संबंध में चिंतित हैं, इस संबंध में वे क्या कर सकते हैं? पहली बातः जीवन सदा अनिश्चित है। निश्चितता का ख्याल ही उपद्रव पैदा करता है; न केवल इस मामले में बल्कि और मामलों में भी। यहां और अन्यत्र मेरे जो संन्यासी हैं, उनके लिए मेरा संदेश है कि हमें अनिश्चितता के साथ रहना चाहिए। क्योंकि निश्चितता होती ही नहीं। तुम उस संबंध में कुछ नहीं कर सकते। वह बिल्कुल अप्राकृतिक है, अस्तित्वगत नहीं है। आज तुम सांस ले रहे हो, कल नहीं ले पाओगे; क्या निश्चितता है? आज मैं यहां हूं, कल नहीं होऊंगा। जीवन जिस तत्व का अनुसरण करता है, वह अनिश्चितता। लेकिन हम डरपोक है और हम चीजों को सुनिश्चित बनाना चाहते हैं। हम अज्ञात से भयभीत हैं। इसलिए जो भी निश्चित दिखाई देता है उसे हम पकड़ लेते हैं। और इस कायरता के कारण, भय और किसी भी निश्चित दिखाई पड़नेवाली बात को पकड़ ने के कारण, पूरी मनुष्यता को अत्यधिक मुसीबत झेलनी पड़ी है। क्योंकि केवल झूठी चीजें निश्चित होती है। प्लास्टिक का गुलाब सुनिश्चित होता है।
वह आज है, कल भी रहेगा। वस्तुतः वैज्ञानिक तो कहते हैं कि प्लास्टिक को नष्ट करना अति कठिन है। ये सब प्लास्टिक के थैले, बोतलें, बर्तन, जो हम जमीन में फेंकते रहते हैं, उन्हें जमीन आत्मसात नहीं कर पाती। वे जमीन की रीसाइकलिंग की, चीजों को पुनः प्राकृतिक रूप में ले आने की प्रक्रिया में अवरोध पैदा करते हैं। प्लास्टिक तुम्हारे परमात्मा से अधिक चिरस्थायी है। असली फूल तो अनिश्चित होगा ही। अब चुनाव तुम्हारा है। असली फूल जीवंत होगा। असली फूल में एक आनंद होगा। असली फूल में एक आनंद होगा। असली फूल में एक सुगंध होगी। असली फूल हवाओं में, वर्ष में, धूप में नाचेगा। लेकिन तुम्हें स्मरण रखना होगा कि चूंकि वह जीवंत है, सांझ होते-होते वह मुरझा जाएगा। और उसमें कुछ भी गलत नहीं है। चीजें सदा क्यों बनी रहें? उन्हें बदलते रहना चाहिए। तो नए फूल, नई, चीजें, नई घटनाएं संभव होगी। जरा एक बात सोचो, यदि तुम्हारे सभी पूर्वज मर न जाते...और वह कोई छोटी-मोटी संख्या नहीं होती; और यदि डार्विन सही है तो...उस मकान में रहना, उन सब पूर्वजों के साथ, जो कि मनुष्य होंगे, धर्म मानव होंगे, बंदर होंगे, और भी सभी किस्म के जानवर, बिल्कुल मछली तक, तो वह एक अच्छा-खासा चिड़ियाघर होगा। और तुम तो पागल हो जाओगे या आत्महत्या कर लोगे। अच्छा है कि जीवन में परिवर्तन होता रहता है, उसमें नए के उदय के लिए जगह बनती रहती है। तो मेरे संन्यासियों को मेरा संदेश यह है कि अनिश्चितता के बारे में चिंतित मत होना। उल्टे उसका आनंद लो।
उसमें उत्तेजना होती है। अगर तुम सतर्क हो जाओ तो वह मस्ती बन सकती है। यदि यहां मेरा होना सुनिश्चित है तो तुम मुझे भूल ही जाओगे। लेकिन अगर मेरा होना अनिश्चित है, कल शायद मैं चला जाऊं। तुम मेरी उपस्थिति को माने रहकर बैठ नहीं रह सकते। फिर अगर तुम्हें मुझे मिलना है तो आज ही मिलना होगा। तुम उसे कल के लिए स्थगित नहीं कर सकते। यदि तुम मेरे दर्शन को जीना चाहते हो तो आज ही जीना होगा। तुम स्वयं को धोखा नहीं दे सकते कि मैं उसे कल जीऊंगा। क्योंकि कल तुम्हारे हाथ में नहीं है; और कौन जाने, शायद वह आए ही न। अनिश्चितता सुंदर है। निश्चितता मुर्दा होता है। केवल मुर्दे सुनिश्चित होते हैं। जीवित लोग तो अनिश्चित होंगे ही। इससे उनके लोग बड़ी उलझन में पड़ते हैं, क्योंकि उन्हें पक्का पता नहीं होता कि कल में क्या कहनेवाला हूं। वे चाहते हैं कि मैं कहीं पर तो रुकूं कि अब पूर्ण विराम आ गया। और तुम तोते की तरह मेरी बातें उद्धृत करते रहो- बिना इस डर के कि तुम्हारा खंडन करूं। लेकिन यह संभव नहीं है। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि चीजें कैसे होती हैं। मेरे दुश्मन चाहते हैं कि मेरी जबान पर ताला लगे; मेरे होंठ सी दिए जाएं, और तब वे बड़े खुश होंगे। मेरे कारण उनको कोई तकलीफ नहीं होगी।
लेकिन बड़े सूक्ष्म रूप से, जो लोग मुझसे प्रेम करते हैं, वे भी यहीं चाहते हैं। हालांकि वे जानते नहीं हैं कि वे यह चाहते हैं कि मैं मेरा दर्शन, ईसाई धर्म शिक्षा की भंाति बिल्कुल नपे-तुल शब्दों में प्रस्तुत करूं, ताकि तुम उसमें विश्वास कर सको। मैं तुम्हें विश्वास नहीं करने देता। तुम हमेशा संदेह में रहते हो...कल मैं ऐसा कुछ कह दूं जो उससे असंगत हो। लेकिन मेरा अपना दृष्टिकोण यह है कि जीवन अपने आप में संगत नहीं होता; इसीलिए उसका विकास होता रहता है। कोई वृक्ष यदि संगत हो तो अपनी जड़ों से ऊपर विकसित नहीं होगा; वह जड़ों के साथ अपनी संगति बनो रखेगा। लेकिन वह असंगत होता है। वह जड़ों के अतिरिक्त भी कुछ और हो जाता है। वह तना बनता है। यदि वह तने के साथ संगत बना रहे तो आशाएं नहीं बनेगा। उनकी तने के साथ कोई संगति नहीं है। यदि वह शाखाओं के साथ संगत होगा तो उसके पत्ते नहीं उगेंगे; क्योंकि पत्तों के और शाखा के बीच क्या संबंध है? उस पर फूल कभी नहीं लगेंगे। फूलों और पत्तों के बीच क्या संबंध है? उस पर फल नहीं आएंगे, क्योंकि फल जड़ों से उतनी ही दूर हैं जितनी दूर कोई दो चीजें हो सकती हैं। तुम नहीं कह सकते कि उनमें कोई संगति है। लेकिन में, उनमें वही रस बह रहा, जो जड़ों में है, जो तने में है, जो फल में है। वह वही रस है।
लेकिन उस रस को देखने के लिए तुम्हारे पास एक अंतर्दृष्टि चाहिए। नहीं तो तुम हर कहीं असंगतियां देखोगे। तो मेरे लोग अनिश्चितता से प्रेम करना सीख लें, असंगति का सम्मान करना सीख लें। क्योंकि वह असंगति सिर्फ तुम्हारी आंखों में है। क्योंकि तुम गहरे नहीं देख सकते। गहरे में एक रस है, जो वही है, जो विभिन्न आकारों में अभिव्यक्त होता है। और मैं अपने मित्रों को कभी भी निश्चितता में छोड़नेवाला नहीं हूं- कम से कम जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक। आखिरी सांस तक मैं असंगत बना रहूंगा। और मैं चाहूंगा कि मेरे लोग भी ऐसे ही हों। क्योंकि लोग धर्मांध हो जाते हैं। संगत लोग मनुष्यता के लिए अभिशाप सिद्ध हुए हैं। मैं चाहूंगा कि मेरे लोग लचीले हों, संगत नहीं। वे जीवन के साथ बहे, जहां वह ले जाए। मैं जहां भी हूं, उनका हूं। और सिर्फ भारत के संबंध में क्यों सोचें? क्योंकि मैं किन्हीं राजनीतिक सीमाओं में विश्वास नहीं करता। यह पूरी पृथ्वी हमारी है। यह संपूर्ण विश्व हमारा है। कहीं भी रहूं, इससे फर्क नहीं पड़ता। मैं तुम्हारे साथ हूं। मेरा प्रेम तुम्हारे साथ है। सपना संदेश मैं तुम्हारे भीतर उंड़ेलता रहूंगा। मैं यहां रहूं या कहीं दूर, तुम जरा भी वंचित न होओगे। शायद मैं यहां रहूं तो ही तुम चूकोगे। क्योंकि यह मेरा अनुभव रहा है।
मैं चार साल तक बंबई रहा। मेरे फ्लैट के ऊपर ही एक दंपति रहते थे। चार साल तक वे मेरे पास आने की सोचते रहे, और निरंतर स्थगित करते रहे- यह सोचकर कि वे तो किसी भी क्षण मिल सकते हैं। तुमको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस दिन मैंने बंबई छोड़ी, उन्होंने भी बंबई छोड़ दी। उसी सांझ वे संन्यास लेने आ गए। मैंने उनसे पूछा, मैं तुम्हें पहचानता हूं। मैंने तुम्हें लिफ्ट में, सीढ़ियों पर देखा है। तुम उसी जगह रहते थे जहां मैं रहता था। उन्होंने कहा, हम रहते थे, लेकिन हम स्थगित करते रहे...कि आप यहां हैं, किसी भी दिन...लेकिन अब आप नहीं हैं। यद्यपि हम आपके संन्यासी नहीं थे, हम आपसे परिचित भी नहीं थे, आपकी मौजूदगी ने कुछ कर दिया है। अब हम उस घर में आपके बिना नहीं रह सकते। हमने बंबई छोड़ दिया है। अब हम यहां पूना में आपके संन्यासी बनकर रहने आए हैं, ओरेगॉन में हजारों भारतीय आए जो पूना कभी नहीं आए थे। और ये हजारों भारतीय लोग इतने गरीब थे कि वे इतनी दूर अमेरिका तक यात्रा करने का सपना भी नहीं देख सकते थे। वह उनकी कल्पना के बाहर था।
उन्होंने अपने मकान बेच दिए, अपनी जमीन बेच दी, अपनी जिंदगी जोखिम में डाल दी। क्योंकि जब वे वापस लौटेंगे तो फिर क्या करेंगे? लेकिन उन्होंने कहा, कुछ भी हो, लेकिन हम बूढ़े हैं और एक बार हम भगवान को देखना चाहते हैं। हम पूना में चूक गए। बंबई में चूक गए, जब कि वहां मिलना इतना आसान था। अब हम नहीं चूक सकते। आदमी का मन बड़े बेतुके ढंग से काम करता है। मैं यहां हूं, तो जरूरी नहीं है कि उससे इस देश के संन्यासियों को सहायता मिलती हो। वे सोचेंगे कि भगवान तो यहां उपलब्ध ही हैं। मैं कहीं और हुआ तो वे इस तरह निश्चित नहीं हो सकते। और अच्छा है कि वे किसी भी तल पर मेरे बारे में निश्चित नहीं हो सकते। इस भंाति मैं उन्हें सिखा रहा हूं कि अनिश्चितता के साथ आनंदमग्न होकर जैसे जीया जाएं; असंगत अस्तित्व के साथ आनंद से कैसे जीया जाए। मैं जो भी कर रहा हूं या मेरे आसपास जो भी घट रहा है, वह मेरी देशना का सारभूत अंश है। साधक के आंतरिक विकास के रास्ते में आनेवाले प्रमुख अवरोध क्या है? और इन अवरोधों को वह किस भंाति पार करे? अवरोध ज्यादा नहीं हैं, बहुत थोड़े हैं। उनमें एक है, दमित मन।
क्योंकि तुमने जो भी दबाया है, जब भी तुम ध्यान में शांत बैठोगे तब तक दमित ख्याल, वह दमित ऊर्जा, पहली बात होगी जो तुम्हारे मन में प्रकट होगी और तुम्हें भर देगी। अगर वह सेक्स होगा तो ध्यान भूल जाएगा और तुम एक अश्लील काम-क्रीड़ा के दौर में फंस जाओगे। तो पहली बात, दमन को छोड़ दो, जो कि बिल्कुल सरल है; क्योंकि दमन प्राकृतिक नहीं है। तुमसे कहा गया है कि सेक्स पाप है। वह है नहीं। वह प्राकृतिक है। और अगर प्रकृति पाप है तो मैं नहीं सोचता कि पुण्य क्या हो सकता है। वस्तुतः प्रकृति के विपरीत जाना पाप है। एक छोटी सी समझ कि तुम जो भी हो, अस्तित्व ने तुम्हें इस तरह बनाया है। तुम्हें स्वयं को समग्रता से स्वीकार करना है। यह स्वीकृति उन सारे अवरोधों को हटा देगी जो दमन से पैदा हो सकते हैं। दूसरी बात, जो साधक की राह की राह में अवरोध बनकर खड़ी हो जाती है वह है, ईश्वर के संबंध में उसके मन पर थोपी हुई धारणाएं। क्योंकि जैसे ही तुम ध्यान की बात उठाते हो वैसे ही ईसाई आदमी पूछेगा, किस पर? हिंदू पूछेगा, किस पर?
जैसे कि ध्यान के लिए कोई विषय चाहिए! ये सब धर्म निपट बकवास सिखते रहते हैं। ध्यान का इतना ही अर्थ है कि मन में कोई विषय नहीं हैं और तुम अपनी चेतना के साथ अकेले रहे गए हो- एक दर्पण, जो कुछ भी प्रतिबिंब नहीं करता। तो अगर तुम हिंदू होओगे तो तुम अपने अचेतन में परमात्मा की कुछ न कुछ धारणा लिए हुए हो- कृष्ण, राम या कोई और धारणा तो जैसे ही तुम आंख बंद करोगे...ध्यान का अर्थ है, किसी वस्तु पर ध्यान करना। तत्क्षण तुम कृष्ण या क्राइस्ट पर ध्यान करने लगते हो- और तुम चूक गए। ये कृष्ण और ये क्राइस्ट अवरोध हैं। इसलिए तुम्हें ध्यान रखना है कि ध्यान, किसी चीज पर मन केंद्रित करना नहीं है। ध्यान है, तुम्हारे मन का सब बातों से रिक्त होना- उसमें तुम्हारा ईश्वर भी शामिल है। और उस अवस्था में आना जब तुम कह सकते हो कि मेरे दोनों हाथ शून्यता से भरे हैं। उस शून्यता का खिलना जीवन की परम अनुभूत है। तीसरी बात जो अवरोध बन सकती है, और अवरोध बनती है, वह है ध्यान के संबंध में इस तरह सोचना; जैसे तुम्हें ध्यान करना है- सुबह बीस मिनिट, या आधा घंटा, या दोपहर में या रात को। कुछ समय के लिए ध्यान करना और बाकी समय तुम जैसे हो वैसे ही बने रहना। सब धर्म यही कर रहे हैं। एक घंटा ध्यान करना काफी है। लेकिन ध्यान का एक घंटा और गैर-ध्यान के तेईस घंटे...तुम कल्पना नहीं कर सकते कि ध्यान पूर्ण चेतना में प्रवेश करने की दौड़ तुम किस तरह जीत सकते हो। तुम एक घंटे में जो कमाते हो वह तेईस घंटों में खो जाता है।
फिर से तुम्हें अ, ब, स से शुरू करना पड़ता है। हर रोज तुम वही करोगे, हर जन्म में तुम वही करोगे, और तुम वही के वही रहोगे। तो मेरी दृष्टि में ध्यान श्वासोच्छवास जैसा है। ऐसा नहीं कि तुम एक घंटा बैठो। मैं बैठने के खिलाफ नहीं हूं, मैं यह कह रहा हूं कि ध्यान ऐसा होना चाहिए जो छाया की तरह दिन भर तुम्हारे साथ- एक शंाति, एक मौन, तनावरहित स्थिति। काम करते समय तुम पूरी तरह से उसमें होते हो। इतनी समग्रता से कि विचारों का नाता-बाना बुनने के लिए मन के पास कोई ऊर्जा नहीं बचती। और तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारा काम, फिर वह कुछ भी हो, गड्ढे खोदना, या कुएं से पानी लाना या कुछ भी- वह सब ध्यान में बदल जाता है। तभी बुद्धत्व को उपलब्ध होने की संभावना बनती है। तब तुम बैठ भी सकते हो क्योंकि वह भी एक कृत्य है, लेकिन तुम ध्यान के साथ बैठने का तादात्म्य नहीं करते। वह भी उसी का हिस्सा है। तुम चलते-चलते ध्यान करते हो, काम करते-करते ध्यान करते हो, शांत बैठे-बैठे तुम ध्यान करते हो कभी-कभी बिस्तर पर लेटे-लेटे तुम ध्यान करते हो।
ध्यान तुम्हारा निरंतर साथी बने। और यह ध्यान जो तुम्हारा निरंतर साथी बन सकता है वह बिल्कुल सरल सी बात है। मैं उसे साक्षीभाव कहता हूं। जो भी हो रहा है उसके साक्षी बने रहना। चलते समय, बैठते समय, खाते समय, तुम अपने को देखते रहते हो। और तुम आश्चर्य-चकित होओगे कि तुम अपने कृत्यों के जितने साक्षी होओगे उतने ही तुम उन्हें अधिक कुशलता से करने लगोगे। तुम इसलिए कर पाओगे क्योंकि तुम तनावरहित होते हो। उनकी गुणवत्ता ही बदल जाती है। तम यह भी देखने लगोगे कि तुम जितने ध्यानपूर्ण होओगे उतनी तुम्हारी हर भावभंगिमा सौम्य, अहिंसक हो जाती है, उसमें एक सौष्ठव होता है। और न केवल तुम, अन्य लोग भी इसे देखने लगेंगे। किसी ने मुझे पूछा कि अब तो लोग संन्यास लेना चाहते हैं उन्हें आपने यह भी इजाजत दी है कि यदि वे माला और कपड़े न पहनना चाहें तो उन्हें उसकी पूरी छूट है। लेकिन फिर वे कैसे पहचाने जाएंगे?
मैंने कहा, अब उनकी पहचान अधिक सूक्ष्म होगी। अब वे उनके ध्यान से पहचाने जाएंगे। और वे सचमुच ध्यान कर रहे हैं तो वे किसी को धोखा नहीं दे पाएंगे। बाजार में रहनेवाले लोग भी जिन्हें ध्यान का कोई अनुभव नहीं है, जिन्होंने ध्यान का नाम भी नहीं सुना है, देखेंगे कि कुछ बदलाहट हुई है। वे जिस ढंग से चलते हैं, जिस ढंग से बोलते हैं, उसमें एक गरिमा है; उनको एक मौन, शंाति घेरे हुए है। लोग तुम्हारी प्रतीक्षा करने लगेंगे, क्योंकि तुमसे उन्हें पोष्ण मिलेगा। तुमने अपनी जिंदगी में देखा होगा कि ऐसे लोग होते हैं जिनसे लोग बचते हैं। क्योंकि उनके साथ रहने से ऐसा लगता है कि वे तुम्हें चूस रहे हैं; जैसे वे तुम्हारी ऊर्जा को खींचकर तुम्हें रिक्त किए दे रहे हैं। और जब वे विदा होते हैं तब तुम कमजोर अनुभव करते हो, जैसे तुम्हारा कुछ लुट गया हो। ध्यान में ठीक इससे उल्टा है। ध्यानी साथ होकर तुम भर जाओगे। तुम कभी-कभी उस व्यक्ति से मिलना चाहोगे। उसके पास सिर्फ होना काफी है। मेरे एक प्राध्यापक, डा. एस. के. सक्सेना, दर्शन शास्त्र के विभाग-प्रमुख थे और मैं उनका विद्यार्थी था, लेकिन वे मुझे छात्रावास में रहने नहीं देते थे। और मेरे लिए यह जरा दिक्कत थी क्योंकि वे पियक्कड़ थे, जुआरी थे, भले आदमी थे, और अपने परिवार के साथ कभी नहीं रहें थे। उनका परिवार दिल्ली में रहते था। क्योंकि वे किसी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। और मुझे संकोच होता था क्योंकि वे मुझे अपने घर ले जाते थे, और फिर वे शराब नहीं पीते थे- सिर्फ मेरे प्रति उनके मन में जो सम्मान और प्रेम था, उसके कारण। और मैं जानता था कि उनके लिए बहुत कठिनाई होगी। वे बूढ़े आदमी हैं, और वे कोई कभी-कभार शराब पीनेवालों में से नहीं थे, पक्के पियक्कड़ थे। उन्हें शराब रोज लगती थी। उसके बिना वे जी नहीं पाएंगे। तो मैंने उनसे कहा कि मैं एक शर्त पर आ सकता हूं कि आप मेरे कारण अपनी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। जो भी कुछ आप करते आए हैं वह जारी रखें। यदि आप पीना चाहते हैं तो शौक से पीएं, मैं वहां हूं ही नहीं।
उन्होंने कहा, वही तो मुश्किल है। मैं तुम्हें वहां ले जाता हूं क्योंकि जब तुम वहां होते हो तब मुझे पीने की जरूरत ही नहीं महसूस होती है। मुझे लगता है कि तुमसे मुझे पोष्ण मिलता है, जब तुम मेरे मकान में होते हो तो मेरा मकान घर बन जाता है; अन्यथा मैं केवल मकान में रहता हूं। मैंने कभी घर जाना नहीं। मेरी पत्नी है, मेरे बच्चे हैं, लेकिन कभी किसी भंाति वह वातावरण नहीं बन पाया, जो तुम्हारे घर में प्रवेश करते ही बन जाता है। तुम अलग कमरे में सोते हो, मैं अलग कमरे में सोता हूं, लेकिन जब तुम मेरे घर में होते हो तो मैं इतनी गहरी नींद लेता हूं- और वह भी बीना पीए। तो यह मत सोचना कि तुम्हें छात्रावास से अपने बंगले पर ले जाने में मैं कोई तुम पर अहसान कर रहा हूं। माना कि मेरा घर हर तरह से अधिक सुविधाजनक है लेकिन नहीं, तुम ही मेरे ऊपर अहसान कर रहे हो। मैं इतना भर जाता हूं। उन्होंने मुझसे कहा, जब तुम वहां होते हो तब मैं इतना नहीं खाता जितना कि रोज खाता हूं। और मेरे डाक्टर मुझसे कहते रहते हैं कि ज्यादा खाना मत खाओ। आपकी उम्र हो गई है, आप डाइबिटीज के मरीज हैं, शराब भी पीते हैं। वह शराब आपको नष्ट किए दे रही है। वह शराब आपके डाइबिटीज की बुरी हालत बना रही है और आप खाए चले जाते हैं- मिठाई से और स्वादिष्ट भोजन से आपको खास लगाव है। लेकिन जब तुम होते हो तब मुझे भूख ही नहीं लगती। मैं भर जाता हूं।
डाक्टर जिस बात को इतने वर्षों में नहीं कर सके...तुमने तो मुझसे की कहा भी नहीं। वस्तुतः मुझे उन्हें कहना पड़ता था कि आपको कुछ खाना चाहिए। मैं अकेला खा रहा हूं और आप सिर्फ बैठे हैं। वे कहते, मुझे पता है, लेकिन मुझे भूख ही नहीं है। और मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। ने केवल तुम बल्कि दूसरे लोग भी इस बदलाहट को अनुभव करने लगेंगे। बस एक छोटा सा ख्याल रखना हैः साक्षीभाव। आंतरिक जगत और बाट् जगत के बीच संतुलन कैसे पैदा करें? चार्वाक और बुद्ध एक साथ कैसे बनें? संतुलन करने की कोई जरूरत नहीं है, वे संतुलित हैं ही। यह दरार सिर्फ धर्मों ने पैदा की है। उन्होंने तुमसे कहा है कि तुम्हारा शरीर अलग है; तुम्हारी आत्मा अलग है। संसार पदार्थ है, ईश्वर आत्मा है। इन सब धारणाओं ने एक खंडित अवस्था पैदा कर दी है, नहीं तो तुम एक साथ काम कर ही रहे हो। तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, तुम्हारी आत्मा, सब संयुक्त होकर काम कर रहे हैं। उसमें कोई समस्या नहीं है। सिर्फ इन धारणाओं से तुम्हें मुक्त होना है, वे व्यर्थ हैं। अस्तित्व एक है। शरीर उतना ही आध्यात्मिक है जितनी कि आत्मा भौतिक है। शरीर दृश्य आत्मा है, और आत्मा अदृश्य पदार्थ।
लेकिन ऊर्जा नहीं है, ठोस होकर वह पदार्थ बन जाती है। और अब आधुनिक भौतिकी ने इसे निःसंदिग्ध रूप से सिद्ध कर दरिया है कि अणु-ऊर्जा बन सकते हैं- विराट ऊर्जा। छोटे से अणु में इतनी ज्यादा ऊर्जा होती है। तो भौतिकी के अनुसार, अब ऊर्जा और पदार्थ अलग नहीं है। और ऊर्जा है...यह ऐसे ही है जैसे बर्फ होती है बर्फ की सघन शिला; वह पिघल सकती है और पानी बन सकती है। अब वह ठोस न रही। वस्तु तो वही है। उसे गरम करके हम भाप बना सकते हैं। पल भर के लिए तुम उसे देख सकते हो और फिर वह अदृश्य हो जाएगी। बर्फ, पानी और भाप, ये तीनों अवस्थाएं तीन अलग चीजें नहीं हैं। वह एक ही चीज हैं; एक ही ऊर्जा, जो विभिन्न चीजों में अभिव्यक्त होती है। तो यह सवाल नहीं है कि कैसे कोशिश करें। क्योंकि यदि तुम कोशिश कर रहे हो तो इसका मतलब है, तुमने विभाजन पहले ही स्वीकार कर लिया। और अब तुम, जो कि आत्मा हो, और शरीर जो कि चार्वाक है या जोरबा है, इन्हें जबरदस्ती एक साथ लाना है। नहीं, सिर्फ यह विभाजन छोड़ दो, सरलता से जीयो। फिर भोजन करना आध्यात्मिक हो जात है, नहाना आध्यात्मिक हो जाता है, प्रेम करना आध्यात्मिक हो जाता है। फिर तुम कुछ भी करो, तुम अपनी समग्रता उसमें उड़ेल देते हो- तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, तुम्हारी आत्मा।
समाज उसमें अड़चन खड़ी करेगा, क्योंकि वह सोच ही नहीं सकता कि भोजन करना आध्यात्मिक हो सकता है। लेकिन चार्वाक यही कहते थेः खाओ, पीओ, मौज करो। लेकिन उस बेचारे को कोई समझ न सका। वह उन भारतीयों में से एक है जिन्हें सर्वाधिक गलत समझा गया है। वह कह रहा हैः खाने जैसी साधारण क्रिया भी आध्यात्मिक आनंद बनाओ। और तुम्हारे बाकी सब कृत्यों के संबंध में यही बात सच है। किसी बात की निंदा करके उसका इंकार मत करो। उसमें कुछ अच्छा देखने की कोशिश करो। मैं अमेरिका के कारागृह में था। कारागृह में एक कोठरी में छह कैदी थे। वे प्रसन्न थे, क्योंकि वे प्रतिदिन मुझे दूरदर्शन पर देखते थे। और वे प्रतीक्षा ही कर रहे थे। और परिचारिका ने मुझे बताया के वे विभाग में जाकर अच्छे कपड़े ले आए। और उन्होंने स्नान किया है। और इन्हें किसी तरह यह पता चल गया है कि आपको एलर्जी है, इसलिए उन्होंने सुगंधित साबुन नहीं लगाया है। ये लोग इतने साथ-सुथरे कभी नहीं थे। और जेल में जितना संभव था उतना उन्होंने सब कुछ सुंदर आयोजित कर लिया है। और वे सब आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। और वे लोग सचमुच आनंदित थे। एक घंटे के बाद, जब हमें एक-दूसरे का परिचय कराया गया, और मैंने कहा कि मैं सारी रात सोया नहीं हूं इसलिए मुझे सोने दें, तो वे बोले, आप सो सकते हैं, हम कोई बाधा नहीं डालेंगे। और एक घंटे तक उन्होंने एक-दूसरे से बातचीत भी नहीं की। और मैं जब सोकर उठा तब उन्होंने पूछा कि सिर्फ एक अड़चन है; हमें बहुत बुरा लगता है कि इस कारागृह में करने के लिए कुछ भी नहीं है; या तो आप टी. वी. देखें या सो जाएंः खाएंः खाना खाएं, टी. वी. देखें, सो जाएं- बस यही आप कर सकते हैं।
कोई काम नहीं है। तो हम ताश खेलते रहते हैं। और हम इसलिए चिंतित थे कि पता नहीं आपको अच्छा लगे या न लगे; और आप हमें ताश खेलने देंगे या नहीं। मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है। सच पूछो तो मैं तुम्हारे साथ ताश खेलूंगा। मुझे खेल के नियम तो पता नहीं हैं, तुम्हें मुझे सिखाने होंगे। और मैं नहीं जानता मुझे कितने दिन यहां रहना होगा। तो यह अच्छी शिक्षा होगी। तुम मुझे सिखा सकते हो। उन्होंने कहा, आप सचमुच कह रहे हैं? आध्यात्मिक व्यक्ति ताश खेल सकता है? मैंने कहा, ताश में गैर-आध्यात्मिक क्या है? और इतनी एकाग्रता से और इतने ध्यान से खेल सकते हो कि ताश खेलना भी एक ध्यान बन सकता है। उन्होंने कहा, हमने इस तरह कभी सोचा ही नहीं था। मैं उनके साथ ताश खेला। वे बड़े परेशान थे कि मैं खेल रहा हूं। उन्होंने कहा, आप सिर्फ हमारे लिए मत खेलिए। मैंने कहा, तुम्हारे लिए क्यों, मैं भी तो यहां हूं। मुझे पता नहीं है ये लोग मुझे कितने दिन तक रखनेवाले हैं। ताश खेलना अच्छा होगा। और तुम मुझे सिखा ही दो, क्योंकि वे मुझे एक कारागृह से दूसरे कारागृह में ले जाएंगे? तो मैं कुछ तो जान लूंगा। तो उन्होंने कहा, हम आपको सभी गुर सीखा देंगे। बहुत बड़े गुर। वह अच्छा रहेगा। उन्होंने शेरिफ से कहा, हम सोचते थे कि आध्यात्मिक कहीं दूर बादलों में होती है; लेकिन यह सच नहीं हैं। यह आदमी ताश खेल सकता है, गुर सीख सकता है। और हम इतने आनंदित है कि आपने हमें उनके साथ रहने के लिए चुना। और जब मैं वहां से गया तो वे सब रो रहे थे, आंसू बहा रहे थे। मैंने कहा, आंसू बहाने की जरूरत नहीं है।
यदि तुम चाहोगे तो मैं फिर आ सकता हूं। मैंने एक छोटा सा अपराध किया नहीं कि वे मुझे वापस भेज देंगे। तो कोई अड़चन नहीं है। फिकर मत करो। वे बोले, हम लोग नहीं चाहते कि आप यहां दुबारा आएं। आपके लोग वहां पर प्रतीक्षा कर रहे होंगे। हम सोच रहे हैं कि सिर्फ तीन दिन में आप इतने हमसे घुलमिल गए हैं कि हम आपके लिए रो रहे हैं, तो आपके लोगों पर क्या बीतती होगी जो आपके साथ बरसों से रह रहे हैं। और यह अपराधी कह रहे हैं! और मैंने देखा कि वे अपराधी तुम्हारे राजनीतिकों और तुम्हारे अधिकारियों से कहीं अधिक मानवीय हैं, अधिक सच्चे और प्रामाणिक हैं।
उनके साथ रहना बड़ा आनंदपूर्ण था।
16 दिसंबर 1985, अपराह्म, कुल्लू-मनाली
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