फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-पांचवां)
5 दिसंबर 1985, प्रातः कुल्लू-मनाली
अपनी वास्तविकता को पा लेना स्वर्ग है
आज के मनुष्य के लिए आपका क्या संदेश है? मनुष्य-जाति का इतिहास हजारों वर्षों का है और मनुष्य ने कुछ गलत विचार, कुछ गलत किस्म की धारणाएं, अंधविश्वास बना लिए हैंः और वही बातें उसकी हड्डी, रक्त मांस-म जा बन गयी हैं। यह बात बिल्कुल भुला ही दी गयी है कि एक बच्चा न तो हिंदू के रूप में पैदा होता है, न ही मुसलमान के रूप मग पैदा होता है, न ही भारतीय के रूप में और न ही अमेरीकी के रूप में। हम हजारों वर्षों की जानकारियां बच्चों में भर देते हैं, उन्हें उन में संस्कारित कर देते हैं, और नष्ट कर देते हैं उनकी निर्दोष्तिा। और जिस क्षण कोई बच्चा अपनी निर्दोष्तिा खो देता है, वह अर्थहीन जीवन जीने लगता है। वह स्वयं नहीं हो सकता, वह बिल्कुल भूल ही जाता है कि वह कौन है, और वह ऐसी विचारधाराओं द्वारा भर दिया जाता है, जो उसकी अपनी होती ही नहीं। सह स्कीजोफ्रेनिया, यह खंडित होने की स्थिति ही मनुष्य-जाति की मौलिक समस्या हैः और मेरा मौलिक संदेश यही हो सकता है कि इस स्थिति के स्वरूप को, इसके पूरे वातावरण को मिटा दो। प्रत्येक बच्चे को अपनी निर्दोष्तिा में ही विकसित होने देना है।कुछ भी आरोपित नहीं करना है, उसे कुछ बनाने की कोशिश मत करोः केवल तभी इसकी संभावना है कि जो उसकी अपनी क्षमता है वह उसी के अनुकूल हो पाएगा। और केवल तभी कोई व्यक्ति आनंदपूर्ण हो पाता है जब वह स्वयं रूप हो जाता है। और कोई उपाय नहीं। और सभी उपाय कुंठा, दुख और नर्क की ओर ले जाते हैं। मेरे देखे केवल एक ही स्वर्ग है वह है किसी प्रभाव के, किसी हस्तक्षेप के बिना अपनी वास्तविकता को पा लेना। और केवल एक ही नर्क है- मां-बाप, समाज धर्म द्वारा या कि पंडित-पुरोहित, शिक्षकों और राजनेताओं के प्रभाव में आकर अपनी वास्तविकता, अपनी निजता खो देने की स्थिति। वे बच्चों को अपनी अकड़ में ले लेते हैं- और क्योंकि बच्चा असहाय होता है, वह विद्रोह नहीं कर पाता। तो स्वभावतया उसे नहीं बातों के पीछे चलना होता है जिनके लिए उसे कहा जाता है। सारी मनुष्य-जाति एक नर्क में जी रही है। कोई आनंद नहीं, कोई प्रेम नहीं, कोई खिलावट नहीं और उसका सीधा-साफ कारण है कि हम एकदम शुरू से ही कुछ विभाजित कर देते हैं। हम सत्य को दबाने की कोशिश करते हैं और असत्य को आरोपित करते हैं। मेरा संदेश हैः बहुत समय हुआ, अब तो यह सब बंद करो। क्या आप प्रेस के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे? जरूर। प्रेस को पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। और प्रेस की स्वतंत्रता में शामिल है, टेलीविजन, रेडियो और पूरे प्रसार माध्यम। इन पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए, क्योंकि सरकार के पास सारी सत्ता होती है और व्यक्तियों के पास कोई सत्ता नहीं होती। तो फिर उनकी लड़ाई कौन लड़ेगा? और सरकार से उन्हें बचाएगा कौन? मेरा यह मानना है कि राजनेताओं की अपेक्षा प्रेस अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन उसका महत्व केवल तभी बनता है यदि उसे स्वतंत्रता मिली हुई हो। जैसे कि इस देश में प्रेस ने इसके विरुद्ध कोई बड़ी आवाज नहीं उठायी कि टेलीविजन सरकार के अधीन नहीं होना चाहिए, कि रेडियो पर शासन का अधिकार नहीं होना चाहिए। वे लोक-संस्थाएं बन जानी चाहिए। तब प्रेस उन व्यक्तियों की लड़ाई लड़ कसती है कि जिनके पास कोई सत्ता नहीं है। बल्कि प्रेस उन्हें बड़ी शक्ति दे सकती है।
मैं स्वयं संपादक रह चुका हूं- और उस पद से त्यागपत्र दे दिया। क्योंकि हर बात सरकार के पक्ष में की जाती थी। सत्य कोई कसौटी नहीं है। बेचारे व्यक्ति की कोई सुरक्षा नहीं। सरकार पहले से ही इतनी शक्तिशाली है, फिर प्रेस भी सरकार के साथ शामिल हो जाती है। यह भी एक कारण रहा कि मैंने त्यागपत्र दे दिया। मेरा कहना था, मैं तो वही कहूंगा जो मुझे सत्य लगेगा, फिर चाहे वह सरकार के या किसी के भी विरोध में पड़े। और दूसरी एक बात जो मैंने देखी वह यह थी कि उन्हें अच्छी खबरों में कोई रस नहीं था। उन्हें रस है केवल बलात्कारों में, कत्ल में, तलाकों में कि सनसनीखेज सूचनाओं में। और मैंने कह दिया उनसे कि ये बातें बड़ी खतरनाक हैं। लाखों व्यक्ति होते हैं और बलात्कार तो केवल एक ही व्यक्ति करता है- और उसकी बात छपकर खबर बन जाती है। बाकी लोगों के बारे में क्या? मैंने उस प्रेम के मालिक से कहा, कि फ्रांस में एक आदमी ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए बताया है कि उसने एक ऐसे अजनबी का कत्ल किया जिसे पहले उसने कभी देखा भी न था। अजनबी बैठा हुआ था समुद्र तट पर और उसने पीछे से जाकर मार दिया उसे।
मारते समय भी उसने उसे देखा तक नहीं। कोई शत्रुता नहीं थी, लेकिन वह प्रसिद्ध होना चाहता था कि सभी पत्र-पत्रिकाओं में उसका चित्र छप जाएः और वह अपने उद्देश्य में सफल हो गया। तो बुराई को महत्व देकर तुम बढ़ावा देते हो बुराई को। व्यक्तियों की चेतना ऊंची उठाने की बजाय, उन्हें कुछ ठीक सिखाने की बजाय, तुम उनकी निम्नतर प्रवृत्तियों का अनुसरण ही करने लगते हो। तुम मनुष्य-जाति की सेवा नहीं करते। तुम विषाक्त कर देते हो मनुष्य-जाति को। मैं ऐसा नहीं कर सकता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई आदमी आत्महत्या कर लेता है। संसार के चार अरब लोगों में अगर कोई आदमी आत्महत्या कर लेता है तो उससे क्या? क्या तुम्हें और कोई ठीक खबर जैसी कोई खबर नहीं मिलती? वे चार अरब लोग और हजारों बातें कर रहे होंगे, कोई तो सुंदर चित्र भी बना रहा होगा। ऐसी ही कोई बात छपनी चाहिए मुख्य पृष्ठ पर। लेकिन तुम्हारा पहला पृष्ठ तो अपराधियों और राजनेताओं को समर्पित होता है, जो वस्तुतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस मैं इस भंाति परिभाष्ति करता हूं- सफल अपराधी राजनेता बन जाते हैं और असफल राजनेता अपराधी बन जाते हैं, इसलिए कुछ ज्यादा अंतर नहीं है दोनों में। राजनेताओं को डालना चाहिए चैथे पृष्ठ पर, और उन्हें बड़े महत्व का स्थान नहीं मिलना चाहिए। कौन उन्हें बड़ा बना देता है? एडोल्फ हिटलर मानसिक रूप से अविकसित था, वह कोई परीक्षा उत्तीर्ण न कर सका। कला अकादमी ने, आर्किटेक्चर अकादमी ने, उसे लेने से इनकार कर दिया।
जहां कहीं भी उसने आवेदन पत्र दिया, वह असफल हो गया, प्रवेश-परीक्षा में ही और वही विश्व के बड़े से बड़े नेताओं में एक नेता हो गया। किसने उसे इतना बड़ा बना दिया? यदि प्रेस ने मात्र उसकी अपेक्षा की होती, तो दूसरा विश्वयुद्ध न होता। एडोल्फ हिटलर से ज्यादा तो प्रेस जिम्मेदार है इसके लिए। जीवन में गुलाब और कांटे दोनों हैं। लेकिन कांटों पर इतना ज्यादा ध्यान क्या देना? लोगों तक गुलाबों को पहुंचाना होगा। यह एक मनोवैज्ञानिक क्रंाति होगी। अगर कोई रोज-रोज बुराई के बारे में पढ़ता रहे तो धीरे-धीरे वह अनुभव करने लगेगा कि बुराई जीवन का एक ढंग है। फिर धीरे-धीरे उसे लगने लगेगा कि यदि वह भी कोई अपराध कर ले तो ऐसी कोई बड़ी बात न होगी। हर कोई तो यह कर रहा है और अच्छाई की उपेक्षा की जाती है। खबरें पढ़ने वाले समझने लगते हैं कि अच्छाई कहीं घटित ही नहीं होती। क्योंकि उसकी कोई खबर नहीं मिलती। उन्होंने ए कहावत भी बना ली है कि नो न्यूज इज गुड न्यूज- कि अच्छी खबर कोई खबर नहीं। इसे बदल देना चाहिएः बुरी खबर कोई खबर नहीं है। केवल अच्छी खबर ही खबर कहला सकती है। केलिफोर्निया के विश्वविद्यालय में उन्होंने एक वर्षीय सर्वेक्षण किया, कि बुराई क्यों घटती-बढ़ती है। कभी यह बढ़ोत्तरी पर चलती जाती है, कभी नीचे घटाव पर आ जाती है? और वे हैरान हुए यह जानकर कि जब बाक्सिंग मैच होते हैं, तो बुराई सामान्य तल से तेरह प्रतिशत ऊंची बढ़ जाती है; और हफ्ते भर तक तो उसकी वही स्थिति बनी रहती है, फिर कहीं जाकर सामान्य तल पर आती है। बलात्कार होते हैं, कत्ल होते हैं आत्महत्याएं होती हैं। यदि बाक्सिंग तेरह प्रतिशत बढ़ा देती है अपराधों को, तो बाक्सिंग बिल्कुल समाप्त कर देनी चाहिए। वस्तुतः वही अपराधी है। और किसी पत्र-पत्रिका में बाक्सिंग के बारे में कुछ भी प्रकाशित नहीं होना चाहिए। यह एक भयंकर बात है लेकिन यह भयंकरता लोगों को एक ख्याल दे देती है कि तुम भी भयंकर हो सकते हो। तो भयंकर होने में कुछ हर्ज नहीं।
प्रसार माध्यम को और बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। पहली बात शासन से मुक्ति दूसरी बात हैः बुराई की उपेक्षा करना, जो अच्छाई की तुलना में बहुत छोटी है। और तीसरी बात है, प्रत्येक समस्या पर खुले रूप से बहस करने के लिए एक मंच का निर्माण करने की। और पूरा प्रसारण माध्यम इसमें शामिल हो सकता है, इस खुली बहस में भाग ले सकता है। यह कुछ मानवीय बात होगी; यह मानवीय नहीं कि एक हाथ में तलवार रहे और दूसरे हाथ में कुरान और लोगों से कहते रहो, हां, तुम चुनाव कर सकते हो। यह तो कोई तर्क संगत बात न हुई। इससे तो प्रमाणित नहीं होता कि कुरान सही है। इससे एक ही बात साफ हो जाती है कि आदमी मरना नहीं चाहता। चीजें बदल चुकी है। ईसाई भी आ पहुंचे हैं एक हाथ रोटी और दूसरे हाथ में बाइबिल लिए। लेकिन किसी की भूख मिटा देना, बुद्धिमत्ता करना तो न हुआ, यह चुनने का अधिकार देना न हुआ कि क्या सही है और क्या गलत है; कि बाइबिल गलत है या सही है, भूख इसका फैसला नहीं कर सकती।
प्रेस के ऊपर बड़ी जिम्मेदारी है- और मनुष्य-जाति भी परिपक्व हुई जाती है। ये तो बड़े पिछड़े तरीके हैं निर्णय लेने के कि कौन सही है। हमारे पास बुद्धि है, हम तर्क संगत बातचीत कर सकते हैं। हम जा सकते हैं सूक्ष्म से सूक्ष्म तर्क तक। और सारी प्रेस उपलब्ध रहे। और उस तर्कसंगत विवेकशील बातचीत द्वारा ऐसा निर्णय, जो ज्यादा सर्व सम्मान होगा, न मेरा होगा, न और किसी का, स्वयं निकल जाएगा। न्यूज मीडिया- प्रसार माध्यम, देश की आत्मा होते हैं। अभी ऐसा नहीं है। यह केवल सनसनी ही फैलाता है। यह केवल पूर्ति कर देता लोगों की अपनी इच्छाओं की ही। अर्थशास्त्र में उनके पास एक अपना सिद्धांत है, कि जहां कहीं मांग है वहां उसकी पूर्ति का साधन भी है। न्यूज मीडिया वही कर रहा है। जिस किसी चीज की भी लोग मांग करते हैं, चाहे वे मांग करें अश्लीलता की, तो उन्हें मुहैया करा दो अश्लीलता, क्योंकि खरीद बेच का बाजार मौजूद है। मैं यह नियम बदलना चाहता हूं। मैं उसको उलटा करना चाहता हूं। मैं कहना चाहता हूं कि जहां कहीं कुछ उपलब्ध कराया जाता है, मांग निर्मित होगी ही। मांग की पूर्ति मत करते जाओ क्योंकि मांग उठ रही है समाज के निम्नतम वर्ग-तल से। समाज के उच्चतम बौद्धिक वर्ग से पूर्ति करो और मांग उत्पन्न करा।
और मैं जानता हूं कि ऐसा होता है। सारे अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों के विरुद्ध भी ऐसा घटित होता है। जब कार इत्यादि नहीं थी, तो कोई मांग नहीं कर रहा था इसकी। जैसे ही कार मार्केट में आयी, कार की सप्लाई पहले हो चुकी थी- और अब लाखों लोग करों के मालिक हैं। यदि वस्तुओं के संबंध में ऐसा घटित हो सकता है तो फिर विचारों के संबंध में ऐसा क्यों नहीं घटित हो सकता? इसलिए न्यूज मीडिया के लिए मेरा संदेश है कि तुम जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हो। तुम्हें मानवता की कोई चिंता ही नहीं है। लोग जो कुछ चाहते हैं वही कुछ उन्हें दिलाकर तुम तो उनके लिए अनुचित कार्य कर रहे हो। तुम्हें तो लोगों के लिए वास्तविक अर्थों में विश्वविद्यालय होना चाहिए। क्या आप अपने आलोचकों के लिए कुछ कहना चाहेंगे? मुझे प्रिय है आलोचना; लेकिन मुझे अपने कोई आलोचक दिखाई नहीं पड़ते। उन्होंने मेरी किताबें पढ़ी नहीं हैं, उन्हें नाम तक मालूम नहीं मेरी किताबों के, वे सच्चे आलोचक नहीं हैं। वे तो बस इधर-उधर की, सुनी-सुनाई बातों की मानकर चल रहे हैं और मेरे देखने में एक भी ऐसी आलोचना नहीं आयी जो कि सच में ही मेरे वक्तव्य पर आधारित हो। पहली बात तो यह है कि वे वक्तव्यों को तोड़-मोड़ देते हैं और फिर वे उनकी आलोचना करते हैं। यह तो एकदम अपराध हुआ और किसी कथन का रूप बिगाड़ देना बहुत आसान होता है। बस एक शब्द हटा दिया, या कि बिना संदर्भ के कुछ वाक्यों को बता दिया और फिर करने लगे उसकी आलोचना।
जैसे कि मेरी किताब संभोग से समाधि की ओर कामवासना के विरोध में है। उसमें है काम-ऊर्जा के रूपांतरण की बात। और मेरे आलोचक मेरी आलोचना कर रहे हैं कि मैं बता रहा हूं कामवासना की बातों। यह तो कोई आलोचना न हुई। ये लोग कायर हैं। यहां तक कि मेरी इस किताब के विरोध तक लिख दी गयी हैं। और मैंने अपना समय बेकार किया है उन्हें पढ़कर में। उन्होंने एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है। आलोचना करना स्वस्थ है; लेकिन आलोचना केवल तभी स्वस्थ होती है जब तुम पहले ही समझ लेते हो कि व्यक्ति कह क्या रहा है, और फिर बाद में तुम आलोचना करते हो। और यही परंपरागत पूर्वीय ढंग रहा है। अगर गौतम बुद्ध वेदों की आलोचना करते हैं, तो पहले वे उद्धरण देते वेदों का; ठीक उसी भंाति जैसे कि वे हैं। वस्तुतः वे उसमें निहित सभी लक्ष्य, अर्थ-तत्व सामने लाते हैं, जिसने उन सूत्रों को लिखा शायद वह भी न जानता हो। यदि तुम पहला भाग पढ़ो, तो तुम हैरान हो जाओगे कि वे आलोचना कैसे करेंगे। और वे वेदों का श्रेष्ठ सामने ले आते हैं। उन्हें उच्चतम स्वर्ण-शिखर तक पहुंचा देते हैं और फिर वे करते हैं आलोचना आरंभ। यही सही ढंग होता है आलोचना का, और पूरब में सदियों-सदियों से यही ढंग अपनाया जाता रहा है, लेकिन अब यह ऐसी बात नहीं रही। मैं लोगों की आलोचना करता रहा हूं। लेकिन संदर्भ से अलग कर के कभी नहीं और कभी भी उनके वक्तव्यों को तोड़ा-मरोड़ा नहीं। मेरा पहला काम होता है जितने सुंदर ढंग से हो सके उनके वक्तव्यों की व्याख्या कर दूं। और फिर उसकी आलोचना करूं। तब वह किसी प्रतिभाशाली का रचनात्मक कार्य होता है।
अन्यथा तथाकथित आलोचक मात्र भौंकते कुत्तों की तरह हैं और हाथी अपनी चाल चलता जाता है, उनकी ओर देखे बिना ही। मैंने देखा कि मेरे बारे में हजारों झूठ बोले गए हैं और उसे आलोचना माना जाता है। वह आलोचना नहीं है। बस अचानक अकल्पनीय रूप से वे किसी भंाति मेरा वक्तव्य अपने हिसाब से बिठा लेते हैं- जनता अनपढ़ है- और फिर यह बहुत आसान हो जाता है। क्योंकि उन्होंने पहले से ही वक्तव्य में छिद्र बना लिए होते हैं। फिर वे उसकी खूब आलोचना कर सकते हैं। और शाबासी दे सकते हैं स्वयं को, कि यह व्यर्थ है। पूरब में हमारे पास एक विशाल परंपरा रही है। जब शंकर, मंडन मिश्र के पास आए- मंडन मिश्र अपने समय के बड़े दार्शनिक में से एक थे, वृद्ध थे, शंकर के पिता की आयु के थे। और शंकर थे केवल तीस वर्ष के- वे वहां आए और गांव के बाहर जो लड़कियां कुएं से पानी भर रही थीं उनसे पूछा कि क्या मुझे मंडन मिश्र के घर का रास्ता दिखा सकती है? सारी लड़कियां हंस पड़ी। वे बोली! कोई जरूरत नहीं। बस आप नगर के भीतर चले जाइए। जहां आप देखेंगे कि तोते तक भी वेद-मंत्रों का गान गा रहे हैं, वही होगा मंडन मिश्र का घर। और उन्होंने देखा कि जहां मंडन मिश्र रहता था, उसके अहाते के आसपास बहुत प्रकार के पक्षी वेदों-उपनिषदों के सुंदर-सुंदर मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। अपनी पूरी भारत-यात्रा के दौरान वे थोड़े विचलित हुए। लेकिन वे आगे बढ़े और मंडन मिश्र के पैर छू लिए क्योंकि वे उनके पिता की उम्र के थे। और उनसे कहने लगा कि मैं आप से तार्किक वाद-विवाद करने आया हूं। मैं आपके दर्शन-सिद्धांतों से सहमत नहीं हूं। मंडन बोले, बिल्कुल ठीक है। मेरा पूरा आशीर्वाद है। तुम प्रारंभ करो विवादः और मैं प्रार्थना करूंगा कि तुम्हारी बात ही ठीक उतरे। तुम युवा हो, मैं लगभग समाप्त ही हूं।
हारूं या कि जीतूं उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। महत्व इसी का है कि सत्य युवा-पीढ़ी के हाथ में होना चाहिए। यदि तुम अपना सत्य सिद्ध करके दिखा सकते हो, तो भला मुझ से ज्यादा और कौन प्रसन्न होगा। यह वाद-विवाद का, आलोचना का संस्कृतिशील ढंग है, लेकिन मंडन बोले, एक कठिनाई है, तुम्हें निर्णायक खोजना होगा जो कि निर्णय देगा। शंकर ने कहा, निर्णय देने को मैं आपकी पत्नी को चुनना चाहूंगा, वे ही बनें निर्णय कर्ता। यह होती है मानवता। अब इसकी हर संभावना है कि पत्नी मंडन के जीतने में मदद देगी। लेकिन वैसा वातावरण न था, वैसा युग न था। वह जीतने में मदद देगी सत्य को। वह सत्य किससे संबंध रखता है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। और जब वह हो जाती है न्याय कर्ता निर्णय कर्ता तो फिर मंडन मिश्र उसके पति नहीं रहते। वह तो वाद-विवाद में भाग लेने वाले एक प्रतियोगी मात्र हो जाते हैं। वाद-विवाद छह महीने तक चला। दोनों ही दिग्गज थे, प्रकांड पंडित थे। अंततः मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने घोषणा कर दी- शंकर आधे विजेता हो गए हैं। यह बात बड़ी अजीब थी। कोई व्यक्ति आधा नहीं जीतता। शंकर बोले, मैं समझा नहीं बात। वह बोली, समझ में आ जाएगी। मैं मंडन की पत्नी हूं। जब तमक तुम मुझे भी न हरा दो, तब तक तुम्हारी जीत आधी ही रहेगी। इसलिए अब मंडन निर्णायक होंगे और मैं तुम्हारे सामने प्रतियोगी रहूंगी। यदि तुम मुझे भी हरा दो, तो हम दोनों तुम्हारे शिष्यों हो जाएंगे। शंकर बहुत उलझन में पड़ गए कि अब क्या करें। तर्क तो बिल्कुल ठीक था कि भारत में पत्नी को पति का आधा भाग, अधाऋगिनी माना ही जाता है। इसलिए केवल पति को जीतने से तुम्हारी जीत नहीं मानी जा सकती और तुम विजेता नहीं कहला सकते, तुम्हें पत्नी को भी जीतना होगा।
और उन्हें थोड़ा भय भी हुआ। क्योंकि वे उस स्त्री को देख रहे थे छह महीनों से, जो पति को भी संकेत दे देती थी कि वह कहां गलती करने वाले हैं। और पहली बात जो उसने शंकर से पूछी वह थी कि, आपने आध्यात्मिकता की बहुत बातें की हैं, ब्रह्म की, ईश्वर की, वह सब तो समाप्त हुआ। मैं आपसे कामवासना के संबंध में पूछना चाहती हूं। शंकर ब्रह्मचारी थे, उन्होंने कहा, मैं कामवासना के विषय में कुछ नहीं जानता। तब वह कहने लगी, फिर तो जीत अधूरी ही रहेगी। आप स्वयं को मंडन का विजेता घोषित नहीं कर सकते जब तक कि आप भारती को भी न जीत लें। शंकर बोले, मुझे छह महीने का समय दें, ताकि मैं कामवासना के संबंध में कुछ जान लूं और फिर आऊं। उतना समय उन्हें दे दिया गया। यह आलोचना का, वाद-विवाद का संस्कृतिशील ढंग हुआ। और जगत के प्रसार-माध्यम को इतने ऊंचे स्तर तक उठ जाना चाहिए कि वह तमाम उद्देश्यों के लिए मंच बन जाए। यहां तक कि अलोकप्रिय उद्देश्यों के लिए भी। यह एक अजीब तथ्य है कि जो आज अलोकप्रिय उद्देश्य है वही कल लोकप्रिय उद्देश्य बन सकता है। माक्र्स के जमाने में, कम्यूनि म एक अलोकप्रिय उद्देश्य था। आज आधा जगत कम्यूनिस्ट है। प्रसार-माध्यम को बगैर किसी पूर्वाग्रह के ऐसी सुविधाएं दी जानी चाहिएः और विशेषकर भारतीय पत्रकरिता इस दृष्टि से बहुत पीछे है। अमरीका में मैंने प्रसार-माध्यम की शक्ति देखी है। यहां तक कि सरकार भी भयभीत थी। वे मुझे मार सकते थे, जब तक वे चाहते मुझे सता सकते थे लेकिन सारे प्रसार-माध्यम, सारा मीडिया उनके पीछे लगा था। और मीडिया स्वतंत्र है, कहीं शासन काट-छांट नहीं करता- और मीडिया के पास कुछ खास रियायतें हैं, कोई शर्तें नहीं लादी जाती हैं उस पर। और उन्होंने बारह दिनों के भीतर मेरा जेल से छूटना संभव कर लिया, बिल्कुल गैरकानूनी था; कि बिना वारंट के, बिना कोई कारण बताए, बारह भरी हुई बंदूकों ताने मुझे कैसे गिरफ्तार किया गया? लेकिन मीडिया ने यह सारी खबर पूरे संसार में पहुंचा दी।
और तब एक सरल, निर्दोष व्यक्ति जिसके हाथ में कोई हथियार न था- संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली देश से कहीं अधिक शक्ति पूर्ण हो गया। जहां कहीं भी मैं उन बारह दिनों में था वे वहीं पहुंच जाते थे, उनके हेलीकाप्टर्स, उनके कैमरे, उनके फोटोग्राफर्स सभी जेल के आसपास ही आ पहुंचते। जेलर भयभीत थे। एक जेलर ने मुझसे कहा, ऐसा तो कभी नहीं हुआ। ये इतने सब लोग, ये क्यों इतनी रुचि ले रहे हैं आप में? मैंने कहा, उन्हें मुझमें रुचि नहीं है। उन्हें रुचि है तुम लोगों की गैरकानूनी हरकतों में- और वे इसे पूरी दुनिया को बता देंगे, और आखिर कब तक तुम मुझे अंदर बंद किए रख सकते हो? एक बार मैं बाहर हुआ, तो प्रेस को एक शब्द भर कहने की देर है कि तुरंत वह खबर संसार में हर जगह जा पहुंचेगी। तुम लोगों के पास सारी शक्तियां हैं, मेरे पास कोई शक्ति नहीं। लेकिन न्यूज मीडिया तुम्हारे परमाणु हथियारों से ज्यादा शक्तिवान है। तुम इन लोगों से भयभीत क्यों हो? यदि तुम मुझे मार डालना चाहते हो तो मार डालो, यदि तुम मुझे तंग करना चाहते हो, तो तंग कर लो। लेकिन तुम जानते हो कि मीडिया मौजूद है, तुम कुछ नहीं कर सकते। उन बारह दिनों में मीडिया सरकार से अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। और मीडिया के कारण ही उन्हें मुझे कोर्ट में लाना पड़ा वरना कोई कारण न था। वे मुझे मेरे अटार्नियों से फोन द्वारा बात भी नहीं करने देते थे, वे कहते कि अटार्नी आपको फोन कर सकते हैं लेकिन आप फोन नहीं कर सकते उन्हें। और अटार्नी के पास कोई उपाय न था यह जानने का कि मैं हूं कहा? वे मुझे जबरदस्ती जाली नाम- डेविड वाशिंग्टन- के नाम से हस्ताक्षर कराना चाहते थे। अब जो व्यक्ति फोन-काल सुनता था वह कह देता कि भगवान यहां हैं ही नहीं।
लेकिन अगली सुबह सारे अमेरिका में यह खबर फैल गयी थी कि अगर कोई फोन द्वारा भगवान से संपर्क करना चाहता है तो वह संपर्क करे डेविड वाशिंग्टन से; कि उन्हें इसी नाम से हस्ताक्षर करने को मजबूर किया जा रहा है। तुरंत उन्होंने जेल बदल डाला, फिर उन्होंने कभी मुझे जाली नाम से हस्ताक्षर करने को नहीं कहा। और यहां तक कि जब वे मुझे एक जेल से दूसरी जेल में ले जा रहे होते तो भी कार तक पहुंचने के लिए कुछ समय लगता नहीं था। वही बहुत होता, मीडिया आ पहुंचता, एक ही बात पूछने को कि, क्या आपको सताया जा रहा है, क्या उन्होंने आपके शरीर को हाथ लगाया है? बस एक शब्द कह दें तो यह नौकरशाही सहन नहीं कर पाएगी। लेकिन इस देश में स्थिति बिल्कुल दूसरी है। पत्रकार कमजोर हैं, वे दरिद्र देश की मांगों को पूरा कर रहे हैं, उनका मनोरंजन कर रहे हैं, उनकी मनोत्तेजन की परिपूर्ति कर रहे हैं, और दूसरी ओर नौकरशाही के जूते पालि कर रहे हैं। इसे ज्यादा मानवीय होना है और व्यक्ति के लिए होना है। क्योंकि शासन के पास पर्याप्त सत्ता है; व्यक्ति सत्ताहीन है। लेकिन भारतीय पत्रकारिता तो अब तक करुणाशील भी नहीं हुई है। इस दृष्टि से यह पश्चिम से कहीं निम्न है। इसे अपने स्तर ऊंचे उठाने होंगे। आपके लिए बने इस सारे आलोचनात्मक रवैये को समाप्त करने की दिशा में क्या हम कुछ कर सकते हैं? सारे आलोचनात्मक दृष्टिकोण समाप्त करने की जरूरत नहीं है।
जरूरत कुल इतनी है कि जैसा मैं हूं ठीक उसी भंाति मुझे बताया जाए, तब वे झूठे दृष्टिकोण मिट जाएंगे। बस, प्रत्येक विषय को उठाया जाए एक-एक करके, कि मैं क्या कहना चाहता हूं, और झूठी आलोचना स्वयं ही विदा हो जाएगी। उसमें बल नहीं है। मैं धार्मिक नेताओं को, राजनेताओं को चुनौती देती रहा हूं, सार्वजनिक खुले मंच पर वाद-विवाद के लिए। किसी ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। वे जानते हैं कि जो कुछ मैं कह रहा हूं उसका खंडन नहीं किया जा सकता। और जो कुछ वे कह रहे हैं वह सब कूड़ा-कचरा है। इसलिए प्रेम के सामने वही कुछ लाने का प्रयास करो जो कि वास्तव में मेरा अभिप्राय है। लोग जानते नहीं कि मैं कह क्या रहा हूं। वे तो बस समाचार पत्र और आलोचकों के कथन पढ़ लेते हैं। वे यह पता करने की फिकर भी नहीं लेते कि कोई आलोचक सही बातों की आलोचना कर रहा है या नहीं? क्या आपका अभिप्राय यही है, जिसकी कि वह आलोचना कर रहा है। एक भी समाचार पत्र ने मुझसे नहीं पूछा; विशेष कारण से क्योंकि यह बात उनके लिए लाभदायी है। उनके पत्र की बिक्री की दृष्टि से यह बात अच्छी है। लोग पसंद करते हैं कि किसी के बारे में कुछ भद्दी-भोंडी बात कही जाए, और वे सत्य के खोजी नहीं हैं कि वे लाइब्रेरी में जाकर खोजेंगे कि इस आदमी ने ऐसा कहा भी है या नहीं। इसलिए उनकी फिकर मत लेना, विधायक ढंग तो यही होगा कि लोगों को बताया जाए कि प्रत्येक आवश्यक विषय पर मेरा अभिप्राय क्या है। और फिर वे करें आलोचना। तब लोग दोनों पहलू जान सकते हैं।
क्या गरीबी से ग्रस्त भारत जैसा देश स्वर्ग में बदला जा सकता है? यह देश स्वर्ग था। यह फिर स्वर्ग बन सकता है। इसने कुछ नासमझियां की हैं जिन्होंने यहां के स्वर्ग को नष्ट कर दिया। पहली बात, भारत का पतन प्रारंभ होता है महाभारत से उस बड़े भारतीय महायुद्ध से, और इसकी जिम्मेदारी आती है कृष्ण पर। उन्होंने अर्जुन को राजी किया इस युद्ध के लिए। पूरी गीता ही दर्शन है हिंसा का। मुझे कई बार आश्चर्य होता है कि नीत्से की दृष्टि में गीता कैसे नहीं आई, क्योंकि उसने तो मनुस्मृति को खोज निकाला था और उसकी प्रशंसा की। शायद उसने सोचा होगा कि गीता एक धार्मिक है और फिर उसने पढ़ा ही न होगा उसे। वरना उसने उसकी और भी ज्यादा प्रशंसा की होती। मनु, कृष्ण, नीत्से और हिटलर, सभी एक ही श्रेणी के हैं। अर्जुन हिमालय जाकर तप करना चाहता था। कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए सारे योद्धाओं को देख वह सोच ही न सकता था कि इस प्रकार का युद्ध जीतने में भी कोई अर्थ हो सकता है, क्योंकि ये मित्र है, अपने बंधु-बांधव हैं, सगे-संबंधी हैं जो दोनों और बंट गए हैं, वे साथ-साथ खेले, वे पढ़ते रहे एक साथ। यह एक पारिवारिक झगड़ा था। यहां तक कि अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य तक भी दूसरी ओर थे। कृष्ण थे अर्जुन की ओर, उनकी सेना दूसरी ओर थी, क्योंकि अर्जुन का भाई ही था दुर्योधन और दोनों ने ही अपने मित्रों से सहयोग मांगा था। अब बांटने का वही एकमात्र तरीका था।
सारे दृश्य को देखकर वह बोला, इसमें कोई सार नहीं। उन्हें ही राज्य करने दो। फिर कम से कम जिनसे मैं प्रेम करता हूं, मेरे वे अपने लोग जीवित तो रहेंगे। यदि मैं जीतता हूं, तो यहां ढेरों लाशें ही मिलेंगी। तब सोने के सिंहासन पर बैठना भी भला मुझे क्या खुशी देगा। बस मुझे राज-सिंहासन मिल जाएगा। मुझे तो बस जाने दो। यह अर्थहीन है। और कृष्ण लगातार उसे राजी करने का प्रयास करते ही रहे, युद्ध के लिए तर्क दिए, हिंसा के लिए तर्क दिए, और उनका अंतिम तर्क तो ऐसा था कि अर्जुन का संस्कारित मन उसे अस्वीकार न कर सका- कि यह तो परमात्मा की मरजी है कि तुम्हें यह युद्ध करना है। अगर मैं अर्जुन की जगह होता तो मैं कह देता कि परमात्मा की मरजी आपको पता होने से पहले मुझे पता है। परमात्मा की मरजी है कि मैं हिमालय जाकर तप करूं। आपके पास क्या प्रमाण है कि मुझे यह संदेश परमात्मा से मिला है वह गलत है, और आपको मिला परमात्मा का संदेश सही है। लेकिन बेचारा अर्जुन, जिसमें यह विचार घर कर चुका था कि कृष्ण स्वयं ईश्वर के अवतार हैं, मान गया उनकी बात। लाखों लोगों की मृत्यु हो गयी; और वे इस देश के श्रेष्ठ व्यक्ति थे, और इस देश की रीढ़ टूट गयीं सदा के लिए। तब से लेकर आज तक भारत अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया है! वरना वह तो सारे जगत में सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था। पिछले दो हजार वर्ष से भारत बिना कोई प्रतिरोध किए गुलाम बना रहा है। तुलसीदास जैसे व्यक्ति जनता को बताते रहे हैं कि एक पत्ता भी उसकी मरजी के बिना नहीं हिलता है।
इसलिए अगर हमलावर आए, तो वह परमात्मा की ही मर्जी होगी; यदि तुम्हें गुलाम होना है तो वह मर्जी होगी परमात्मा की ही। वह परमात्मा में तुम्हारी आस्था की परीक्षा है। मेरे देखे ये अपराधी हैं, जिन्होंने इस पूरे देश को गुलाम बना दिया। और चाहे तुम अब स्वतंत्र भी हो, लेकिन फिर भी गुलाम-मानसिकता भीतर है। वह मानसिकता अभी भी जारी है। यदि तुम निर्धन हो, तो वह है परमात्मा की मर्जी उसके विरुद्ध संघर्ष करना परमात्मा के विरुद्ध संघर्ष करना माना जाता है। यदि तुम निर्धन हो, तो वह बात तुम्हारी श्रद्धा, विश्वास के लिए एक परीक्षा हो जाती है। तुम जहां कहीं भी हो, जैसे भी हो उसी में संतोष जानो, यही जीवन-दर्शन है तुम्हारे तथाकथित धर्मों का। स्वभावतः यदि ऐसा दर्शन लोगों के मन पर छाया रहता है तो लोग धनवान नहीं हो सकते। वरना इस देश की गरीब बहुत आसानी से मिट सकती है। लेकिन समस्या है कि उसके हाथ और भी चीजों को मिटना पड़ेगा। यह परमात्मा की मर्जी बिल्कुल नहीं है कि तुम्हें गरीब रखना है, कि तुम्हारे पूर्व जन्मों के बुर कर्मों के कारण तुम्हें गरीब होना है। तुम गरीब हो तो इसलिए कि तुम अपनी बुद्धिमत्ता से काम नहीं लेते हो। तुम गरीब हो क्योंकि तुम आधुनिक टेक्नालाजी का प्रयोग नहीं कर रहे हो। और महात्मा गांधी जैसे लोग हुए हैं जिनके लिए सारी टेक्नालाजी चरखे पर आकर समाप्त हो जाती है। उसके बाद सारी टेक्नालाजी गलत हो जाती है। हमें इन सभी लोगों को एक ओर हटा देना है, चाहे उन्हें लागों ने कितना ही पूछा हो, कितना ही संत माना हो। लेकिन वे ही अपराधी हैं। और यहीं तो मुझे निरंतर अड़चन महसूस होता है। तुम पूछते हो, क्या यह देश फिर स्वर्ग बन सकता है? बिल्कुल बन सकता है। लेकिन तुम्हें इन संतों को बीच में हटा देना होगा- तुलसीदास को, महात्मा गांधी को और कृष्ण को। ये वे अवरोध हैं जो तुम्हारा निर्मित कर रहे हैं। और तुम्हारा मन ही तो है जो सोचता है, कार्य करवाता है। इन दिनों शंकराचार्य की पदवियों वाले लोग भी संतति-नियंत्रण का विरोध करने की शिक्षा दे रहे हैं।
अब इन लोगों को जेल में होना चाहिए। संतति नियंत्रण को तो एक पुण्य जाना होगा, पाप नहीं। और जो कोई जबरदस्ती लादे गए ब्रह्मचर्य की बात कहता है, वह चाहे हिंदू हो कि जैन कि बौद्ध और या कि ईसाई, वह अपराधी है क्योंकि ऐसा ब्रह्मचर्य कामवासना की विकृतियां उत्पन्न करता है। वह व्यक्ति को स्वस्थ बुद्धिमान नहीं बनाता। उससे व्यक्ति का मन ज्यादा और ज्यादा कूड़े-कर्कट से भरता चला जाता है, और वह विकृति मन केवल नर्क ही बना सकता है। ऐसे मन कई नर्क बना चुके हैं; किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इसी सदी के अंत होने तक देश की आबादी एक अरब हो जाएगी, इसका अर्थ हो सौ करोड़ व्यक्ति हम सौ करोड़ व्यक्तियों सहित कोई स्वर्ग नहीं बना सकते। आधी आबादी की नियति मृत्यु ही होगी। और उनमें कोई तुम्हारा प्रेमी, और तुम अपने चारों ओर उन्हें भूख से मरते हुए देखोगे। पचास करोड़ व्यक्ति मर रहे हों- इससे बड़ा नर्क और क्या होगा? और हम कुछ कर ही नहीं पाते। अभी भी समय है। मैंने कोई तीस वर्ष पहले संतति-नियमन की बात करनी शुरू की थी। अगर उन्होंने उस समय सुन ली होती मेरी बात्..उन्होंने तो उसकी निंदा की थी, कि मैं अनैतिकता सिखा रहा हूं। अगर उन्होंने मेरी बात सुनी होती उस समय तब तो जनसंख्या चालीस करोड़ की ही थी, अब है अस्सी करोड़। अगर उन्होंने मेरी बात पर ध्यान दिया होता तो जनसंख्या चालीस की चालीस करोड़ ही बनी रहती। लेकिन तब की तो बात ही क्या, वे आज भी उस पर ध्यान नहीं देंगे। जनसंख्या को नियंत्रित करना, नयी टेक्नालाजी को सारे संसार से ग्रहण करना बहुत आसान है। जरूरत सिर्फ सरकार से मिलने वाली गारंटी की है जो पूंजी बाहर से आ रही है उसका राष्ट्रीयकरण बिल्कुल नहीं होना चाहिए। ऐसे टेक्नीशियन्ज हैं, जो यहां आ सकते हैं और प्रशिक्षण दे सकते हैं। देश को ग्रहणशील होना होगा- वह तो बंद है। सन सैंतालीस से जो था वही पचासी में हैं।
तकनीकी तरक्की नहीं हुई तो इसी कारण क्योंकि टाटा और बिड़ला और ऐसे ही लोगों को सुरक्षित रखना था। क्योंकि फिर एंबेसेडर कौन खरीदेगा? अगर सारी दुनिया के लोगों को यहां कारें बनाने दी जाए- मेहनत से काम करने वाले हों, सारी सामग्री मौजूद है, केवल टेक्नीशियन्ज की जरूरत है, तो फिर कौन खरीदेगा एंबेसेडर? यह तो एकाधिकार है एंबेसेडर का, इसकी रक्षा के लिए ही चार सौ प्रतिशत टेक्स देना पड़ता है बाहर से लाने वाली कार के लिए। यह बेहूदा है, लेकिन कारण यही है कि बिड़ला राजनेताओं को पोष्ण करते रहे हैंः राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए पैसा देते रहे हैं। और दूसरे धनवान भी यही कुछ करते हैं। तो इसलिए जो लोग सत्ता में दिखायी पड़ते हैं वे वास्तविक सत्ताधारी नहीं है, उनके पीछे हैं सत्ता दिला कर बादशाह बनाने वाले दूसरे लो। उनकी वास्तविकता प्रकट करनी ही होगी और सरकार को भी सही दशा दिखाकर दुरुस्त करना है, कि तुम कैसे देश को गरीब बनाए जा रहे हो। सारा विश्व तैयार है रुपया लगाने को, टेक्नीशियन्ज, टेक्नालाजी लाने को। तो भी एक गारंटी तो चाहिए ही कि तुम उस सब का राष्ट्रीयकरण नहीं करोगे। और राष्ट्रीयकरण करने की कोई जरूरत भी नहीं है। जनसंख्या की बड़ौत्तरी पर रोक लगाओ, पूरे जगत के लिए सभी द्वार दरवाजे खोल दो, हर तरह के उद्योग खोल देने से बेकारी गायब हो जाएगी और कोई गरीब न रहेगा, सारे श्रम का उपयोग हो जाएगा। और यह केवल संक्रमण काल ही होगा। बीस-तीस वर्ष में हम स्वयं ही हर चीज बनाने के योग्य हो जाएंगे।
लेकिन स्वतंत्रता के चालीस वर्ष बाद भी कुछ नहीं हो पाया है। राजनेता को केवल अपनी सत्ता बनाए रखने में ही रुचि है। धनवान की रुचि केवल इसी में है कि वह और ज्यादा धनवान होता चला जाए। और इन दोनों के बीच, गरीब पिस गया है और ज्यादा ही गरीब होता जा रहा है। तो मेरा सुझाव बहुत सीधा-साफ है। संतति-नियमन का विरोध करने का शिक्षा देने वाले पोप या मदर टेरेसा जैसे लोगों को इस देश में आने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। वे शत्रु हैं, उन्हें यहां नहीं आने देना चाहिए। यदि वे संतति-नियंत्रण के विरुद्ध सिखाते हैं तो उन्हें बाहर करना होगा। इसमें अपने लाभ जुड़े हैं कि ज्यादा गरीब बनें, ज्यादा हो जाएं और ज्यादा कैथोलिक बन जाएं। अब पोट यहां आने को है, अगर सरकार में जरा भी बुद्धिमत्ता है, तो उसे यह शर्त लगा देनी होगी कि संतति-नियमन के या कि गर्भपात के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहना होगा। पोप आध्यात्मिक उपदेश आदि दे सकता है, अगर इस विषय में कुछ कहने को है उनके पास। लेकिन उनके पास तो वही एकमात्र आध्यात्मिकता दिखाई पड़ती है। पूरी दुनिया में वे इस तरह की शिक्षा देते रहे हैं कि यह परमात्मा के विरुद्ध पाप है। और अगर ऐसे उपदेश देने को पाप राजी नहीं है, तो कह दो उससे कि आपके लिए यहां कोई जगह नहीं है। और पूरे विश्व के लिए द्वार खोल दे। वहां पैसा मौजूद है, टेक्नालाजी है, लेकिन श्रम करने वाले व्यक्ति नहीं है। हमारे पास काम करने वाले हैं, सस्ती श्रमिक सेवा है। वही कार जो वहां दो लाख में बनकर तैयार हो जाती है हम यहां एक लाख में बना सकते हैं। बस हमें जरूरत है तो टेक्नीशियन्ज की, पैसे की, उन उत्पादक-यंत्रों की जो उत्पादन कर सकें।
हमारे यहां श्रमिक-सेवा इतनी ज्यादा सस्ती है। अमेरिका में मैंने देखा कि लगभग हर चीज यहां से दस गुना ज्यादा महंगी है तो सिर्फ इसलिए श्रम करने वाले उपलब्ध नहीं है। बड़े से बड़े धनपति के यहां भी नौकर नहीं है। और यह देश तो भरा हुआ है उन लोगों से जिनके पास कोई जगह नहीं है उन्हें रख पाने की। वे सब शिक्षित लोग हैं जो कुछ भी करने को तैयार हैं। लेकिन कोई काम-काज नहीं है। इसलिए एकमात्र तरीका यही है कि भारत पूंजी लगाने का खुला क्षेत्र बन जाए, जिसके साथ सरकार का पूरा सहयोग हो और गारंटी भी मिले, न केवल इस सरकार द्वारा बल्कि आने वाली किसी भी सरकार की गारंटी भी मिले- कि जो पैसा बाहर से आया है उसका राष्ट्रीयकरण नहीं हो सकता। और दस वर्ष के भीत रही तुम पाओगे ही तुम पाओगे कि तुम्हारा देश स्वर्ग बन गया।
उसमें कोई बड़ी बात नहीं।
5 दिसंबर 1985, प्रातः कुल्लू-मनाली
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