कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-15)

पंद्रहवां --प्रवचन

बिगसत कमल भयो गुंजार

सारसूत्र:

मन मधुकर खेलत वसंत। बाजत अनहत गति अनंत।।
बिगसत कमल भयो गुंजार। जोति जगामग कर पसार।।
निरखि निरखि जिय भयो अनंद। बाझल मन तब परल फंद।।
लहरि लहरि बहै जोति धार। चरनकमल मन मिलो हमार।।
आवै न जाइ मरै नहिं जीव। पुलकि पुलकि रस अमिय पीव।।
अगम अगोचर अलख नाथ। देखत नैनन भयो सनाथ।।
कह गुलाल मोरी पुजलि आस। जम जीत्यो भयो जोति-बास।।


चलु मोरे मनुवां हरि के धाम। सदा सरूप तहं उठत नाम।।
गोरख, दत्त, गए सुकदेव। तुलसी, सूर, भए जैदेव।।
नामदेव, रैदास दास। वहं दास कबीर कै पुजलि आस।।

रामानंद वहं लिय निवास। धना, सेन, वहं कृस्नदास।।
चतुरभुज, नानक, संतन गनी। दास मलूका सहज बनी।।

यारीदास वहं केसोदास। सतगुरु बुल्ला चरनपास।।
कह गुलाल का कहौं बनाय। संत चरनरज सिर समाय।।

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं।।

धूमधाम से साजबाज से मंदिर में वे आते हैं।
मुक्ता-मणि बहुमूल्य वस्तुएं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं।।

मैं ही हूं गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लाई।
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने हूं आई।।

धूप दीप नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं।
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं।।

कैसे स्तुति मैं करूं तुम्हारी, है स्वर में माधुर्य नहीं।
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं।।

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा, खाली हाथ चली आई।
पूजा की विधि नहीं जानती फिर भी नाथ! चली आई।।

पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।
दान दक्षिणा और निछावर, इसी भिखारिन को समझो।।
मैं उन्मत्त प्रेम की लोभी, हदय दिखाने आई हूं।
जो कुछ है, बस, यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूं।।

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो।
यह तो बस्तु तुम्हारी ही है..ठुकरा दो या प्यार करो।।
भक्त के पास भगवान को चढ़ाने को कुछ है भी नहीं। जो है, उसका है। न चढ़ाओ तो तुम एक भ्रांति में जीते हो कि मेरा है। मेरा यहां कुछ भी नहीं। ‘मैं’ का ही कोई अस्तित्व नहीं तो ‘मेरे’ का क्या अस्तित्व होगा! ‘मैं’ एक झूठ है। और उस झूठ के फैलावे का नाम ‘मेरा‘ है। ‘मैं’ केंद्र है हमारे अज्ञान का। और ‘मेरा‘ उस केंद्र की परिधि। न तो ‘मेरा’ सच है, न ‘मैं’ सच है। दोनों जहां गिर जाते हैं, वहां पूजा पूरी हो जाती है। फिर सब उसका है। जिस क्षण तुम ऐसा जानते हो कि सब उसका है, उसी क्षण सारी चिंताओं से मुक्त हो जाते हो। उसी क्षण संताप के दिन गए, संगीत के दिन आए। उसी दिन दुख की रात कटी, सुख का सूरज ऊगा। उसी दिन पतझड़ तिरोहित हो जाता है और वसंत झरझर चारों ओर आंदोलित होने लगता है। झरत दसहुं दिस मोती!
वसंत उत्सव का प्रतीक है। फूल खिलते हैं, पक्षी गीत गाते हैं, सब हरा हो जाता है, सब भरा हो जाता है। जैसे बाहर वसंत है, ऐसे ही भीतर भी वसंत घटता है। और जैसे बाहर पतझर है ऐसे ही भीतर भी पतझर है। इतना ही फर्क है कि बाहर का पतझर और वसंत तो एक नियति के क्रम से चलते हैं,शंृखलाबद्ध, वर्तुलाकार घूमते हैं, भीतर का पतझर और वसंत नियतिबद्ध नहीं है। तुम स्वतंत्र हो, चाहे पतझर हो जाओ, चाहे वसंत हो जाओ। इतनी स्वतंत्रता चेतना की है। इतनी गरिमा और महिमा चेतना की है।
लेकिन दुर्भाग्य है कि अधिक लोग पतझर होना पसंद करते हैं। पतझर का कुछ लाभ होगा, जरूर पतझर से कुछ मिलता होगा अन्यथा इतने लोग भूल न करते! पतझर का एक लाभ है..बस एक ही लाभ है, शेष सब लाभ उससे ही पैदा होते मालूम होते हैं..पतझर है तो अहंकार बच सकता है। दुख में अहंकार बचता है दुख अहंकार का भोजन है। इसलिए लोग दुखी होना पसंद करते हैं। कहें लाख कि हमें सुखी होना है, सुख की कोशिश में भी दुखी ही होते हैं। सुख की तलाश में ही और-और नये दुख खोज लाते हैं। निकलते तो सुख की ही यात्रा पर हैं, लेकिन पहुंचते दुख की मंजिल पर हैं। कहते कुछ हैं लेकिन होता कुछ है। और जो होता है, वह अकारण नहीं होता। भीतर गहन अचेतन में उसी की आकांक्षा है। ऊपर-ऊपर है सुख की बात, भीतर-भीतर हम दुख को खोज रहे हैं। क्योंकि दुख के बिना हम बच न सकेंगे। सुख की बाढ़ आएगी तो हम तो कूड़े-करकट की भांति बह जाएंगे। पतझर में अहंकार टिक सकता है। न पत्ते हैं, न फूल हैं, न पक्षी हैं, न गीत हैं, सूखा-साखा वृक्ष खड़ा है, लेकिन टिक सकता है। और वसंत आए..कि गए तुम! वसंत आता ही तब है जब तुम चले जाओ। तुम खाली जगह करो तो वसंत आता है। तुम मिटो तो फूल खिलते हैं। तुम न हो जाओ तो तुम्हारे भीतर गीतों के झरने फूटते हैं।
और कुछ चढ़ाना नहीं है परमात्मा के चरणों में..और हम चढ़ाएंगे भी क्या? और हमारे पास है भी क्या? अपने को ही चढ़ा सकते हैं। इस अहंकार को ही चढ़ा दो, इस अस्मिता को ही चढ़ा दो, इस मैं को ही सूली दे दो और पिया की सेज मिल जाएगी। सूली ऊपर सेज पिया की। किस सूली के ऊपर है पिया की सेज? यह अहंकार सूली चढ़ जाए। इधर गर्दन कटी अहंकार की कि उधर प्रभात हुई। और जैसे ही अहंकार जाता है, उसके साथ ही आशचर्यजनक रूप से सारी चिंताएं, सारी व्यथाएं, सारी विपदाएं, सारे संताप चले जाते हैं। वही ऊर्जा जो संताप बनती थी, वसंत बन जाती है। वही ऊर्जा जो तुम्हारे भीतर दुख के कांटे उगाती थी, फूलों में बदल जाती है। ऊर्जा तो एक ही है, जो चाहो बना लो। निर्णय तुम्हारा है। हकदार तुम हो।
जो पतझर में जीने का निर्णय लिया है, उसे मैं संसारी कहता हूं और जिसने वसंत में जीने का निर्णय लिया है, उसे मैं संन्यासी कहता हूं।
ये जो गैरिक रंग है, यह वसंत का रंग है। यह वासंती रंग है। यह उदासी का रंग नहीं है, यह उत्सव का रंग है। यह रोता हुआ रंग नहीं है, यह हंसता हुआ रंग है, खिलखिलाता हुआ रंग है।
वसंत को ध्यान में रखना। परमात्मा के नाम पर भी पतझर पकड़े लोग बैठे हैं। परमात्मा के नाम पर भी लोग उदास होकर बैठे हैं, उनकी हृदयतंत्री बजती नहीं। परमात्मा के नाम पर बहुत गुरु गंभीर होकर बैठे हैं। उनका हास खो गया है। परमात्मा के नाम पर बहुत कठोर होकर बैठे हैं। उनकी मृदुता, उनका माधुर्य खो गया है। परमात्मा के नाम पर तुम्हारे तथाकथित महात्माओं को अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम सूखे-साखे वृक्ष पाओगे, जिनमें पत्ते भी ऊगते नहीं अब। मगर हम भी ऐसे मूढ़ हैं कि वृक्ष में जितने कम पत्ते हों, उतनी ही हमारी पूजा! कहते हैं, बड़ा उदासीन है! कहते हैं, देखो तो त्याग! पत्ते भी छोड़ दिए हैं, फूल भी छोड़ दिए हैं, ठूंठ की तरह खड़ा है; तपस्वी है, महात्मा है! ठूंठों को तुम महात्मा कह रहे हो! और जब तुम ठूंठों की पूजा करोगे तो आज नहीं कल, ठूंठ ही हो जाओगे। जैसी पूजा करोगे, जिसकी पूजा करोगे, वैसे ही हो जाओगे। हम पूजा ही उसकी करते हैं जैसे हम होना चाहते हैं। हम आदर ही उसको देते हैं जैसे हम होना चाहते हैं। तुम्हारा आदर अकारण नहीं होता। तुम उसी मंदिर में जाना चाहते हो जो मंदिर तुम बन जाना चाहते हो।
गुलाल तुम्हें वसंत के लिए पुकारते हैं। ये प्रीति भरे शब्द, ये मधुरस भरे शब्द हृदय में उतर जाने देना। इन्हें पीना, समझना मत। यह बात समझ की नहीं, अगम है, अगोचर है।
मन मधुकर खेलत वसंत। ...
वसंत एक उत्सव है। और जब तुम समझ लेते हो और अहंकार को चढ़ा देते हो, तो हो गए एक भौंरे, नाचते हो परमात्मा के कमल के चारों तरफ, गुनगुनाते हो गीत, तुम्हारा जीवन एक गुंजार हो जाता है।
मन मधुकर खेलत वसंत। ...
और वसंत का एक अर्थ है: फाग, होली। कि चलीं पिचकारी पर पिचकारी। कि न केवल तुम रंग जाते हो, तुम औरों को भी रंगने लगते हो। न केवल तुम रंगों से भर जाते हो, भीग जाते हो, तुम औरों को भी भिगोने लगते हो। बुद्ध ने कितनों को भिगोया! कितनों के साथ वसंत खेला! महावीर ने कितनों को भिगोया! कितनों को तर-बतर कर दिया! या जीसस ने, या मोहम्मद ने, या कबीर ने, या नानक ने। वे वसंत को उपलब्ध हुए, लेकिन जैसे ही वे वसंत को उपलब्ध हुए कि उन्होंने वसंत बांटना शुरू कर दिया। भर लीं पिचकारियां, उड़ाने लगे रंग..उन पर भी, जिन्होंने कभी सोचा न था सपने में कि वसंत का अवतरण होगा। उनको भी रंग डाला, जिनके सपनों में भी सत्य की तलाश न थी, जिन्होंने कभी भूल कर भी मंदिर की राह न पकड़ी थी। ये खिलखिलाते रंग, ये गूंजते हुए गीत उन्हें भी बुला लाए, उनके लिए भी निमंत्रण बन गए।
मन मधुकर खेलत वसंत। ...
गुलाल अपनी अवस्था कह रहे हैं; कि गए दिन रोने के, बीत गई पतझड़ की रात, सुबह हो गई..और मेरा मन तो भौंरा हो गया है, और परमात्मा के चारों तरफ नाच रहा है, वसंत खेल रहा है, परमात्मा के साथ फाग खेली जा रही है।
...बाजत अनहत गति अनंत।।
और जब से मैं मिटा हूं, तब से अनाहत नाद सुन रहा हूं।
वीणा तुमने सुनी, सुंदर है, मधुर है, लुभावनी है। मगर कुछ नहीं उस वीणा के मुकाबले जो तुम्हारे भीतर बज रही है। तुमने बाहर सूरज का ऊगना देखा, सूर्योदय? सुंदर है, अति सुंदर है, पर उस सूरज के मुकाबले कुछ भी नहीं जो तुम्हारे भीतर प्रतीक्षा कर रहा है ऊग आने की। तुमने कमल खिले देखे झीलों में? आकर्षक हैं! लेकिन तुम्हारे चैतन्य की झील में जो कमल खिलता है, जो सहस्रदल कमल, उस के समक्ष कुछ भी नहीं। क्योंकि बाहर के सब कमल मुरझा जाते हैं और भीतर का कमल कभी मुरझाता नहीं। और बाहर जो सूर्योदय होता है, अभी सूर्योदय हुआ है अभी सूर्यास्त हो जाएगा; और भीतर का सूर्योदय हुआ तो हुआ। हुआ तो फिर हुआ ही हुआ, सदा के लिए हुआ। बाहर का वसंत आता है और विदा हो जाता है, भीतर का वसंत आता है तो सदा के लिए आजाता है। वह शाश्वत है। तुम्हारे भीतर एक नाद बज रहा है। तुम नहीं बजा रहे हो, कोई नहीं बजा रहा है, बजाने वाला नहीं है, लेकिन नाद उठ रहा है..नाद तुम्हारा स्वभाव है। उस नाद को ही हमने ओंकार कहा है।
...बाजत अनहत गति अनंत।।
अनंत स्वर तुम्हारे भीतर उठ रहे हैं। और जो नाद है, बेहद है। उसकी कोई सीमा नहीं है। उसे किसी शब्द में बांधा नहीं जा सकता। और कोई वाद्य संगीत का उसे बाहर अनुवादित नहीं कर सकता। जब भी कोई संगीतज्ञ संगीत की चरम पराकाष्ठा को छूता है, तो बस थोड़ी सी झलक पकड़ पाता है..बस, थोड़ी सी झलक! जैसे कोई चांद को पकड़ ले झील के प्रतिबिंब में, बस ऐसी! झील में चांद होता नहीं, सिर्प प्रतिबिंब बनता है। और जरा सी कंकड़ी डाल दो कि प्रतिबिंब खो जाता है। बाहर का संगीत अगर इतना भी पकड़ ले भीतर के संगीत को जितना चांद को पकड़ लेती है झील, तो भी बहुत। हमारे तानसेन और हमारे बैजू बावरा बस इतना ही कर पाते हैं। लेकिन उस झलक में भी कितने लोग डूब जाते हैं! उस झलक में भी कितने लोग आनंदित हो उठते हैं! काश, हम चांद को देख सकें, झलक में ही न उलझे रहें!
संगीत करीब से करीब संदेश देता है परमात्मा का। शब्द जो नहीं कह पाते, वह संगीत कह पाता है; क्योंकि संगीत ध्वनि है, अर्थहीन ध्वनि है। उस में एक आनंद तो है, मगर अर्थ नहीं है; एक उत्सव तो है, मगर अर्थ नहीं है। बुद्धि कुछ कर सके, ऐसा संगीत में कुछ भी नहीं है। इसलिए बुद्धि थकी रह जाती है। संगीत बुद्धि को बच कर निकल जाता है और हृदय तक पहुंच जाता है।
संगीत शुद्धतम संभावना है जहां तक बाहर के जगत की गति है भीतर ले जाने के लिए। लेकिन जिस दिन तुम भीतर का नाद सुनोगे, बाहर के सब नाद फीके हो जाएंगे। जिस दिन तुम भीतर का नाद सुनोगे, बाहर का सब संगीत केवल शोरगुल मालूम होगा और कुछ भी नहीं।
मन मधुकर खेलत वसंत। ...
यह तुम्हारा हास आया।
इन फटे-से बादलों में कौन सा मधुमास आया?
यह तुम्हारा हास आया।
आंख से नीरव व्यथा के
दो बड़े आंसू बहे हैं,
सिसकियों में वेदना के
ब्यूह ये कैसे रहे हैं!
एक उज्जवल तीर सा रवि-रश्मि का उल्लास आया।
यह तुम्हारा हास आया।
इन फटे से बादलों में कौन सा मधुमास आया?
यह तुम्हारा हास आया।
आह, वह कोकिल न जाने
क्यों हृदय को चीर रोई?
एक प्रतिध्वनि सी हृदय में
क्षीण हो हो हाय, सोई।
किंतु इससे आज मैं कितने तुम्हारे पास आया!
यह तुम्हारा हास आया।
इन फटे से बादलों में कौन सा मधुमास आया?
यह तुम्हारा हास आया।
अभी तो हम फटे से बादल हैं, अभी तो हमारे पास कुछ भी नहीं, भिक्षा के पात्र हैं..खाली, रिक्त..लेकिन परमात्मा हमारे भीतर हंस सकता है, मुस्कुरा सकता है! और हंसे तो हमारे पास भी झड़ी लगे..झरत दसहुं दिस मोती! ..हमारे पास भी रत्नों की वर्षा हो जाए। वर्षा शायद हो ही रही है। क्योंकि जब गुलाल के पास हुई, तो गुलाल के ही पास नहीं हुई, हो ही रही थी, गुलाल को दिखाई पड़ी। और थे अंधे, नहीं देख पाए! परमात्मा तो हंस रहा है, लेकिन तुम ऐसे उदास हो गए हो कि हंसी से तुम्हारा तालमेल नहीं हो पाता। तुम हंसना ही भूल गए हो। हंसने में भी कैसी कंजूसी हो गई है! तुम नाचना भूल गए हो। तुम्हें नृत्य की भाव-भंगिमा ही स्मरण नहीं रही। तुम न गाते हो, तुम न नाचते हो, न तुम हंसते हो, तुम्हारा वसंत से कैसे संबंध हो! कुछ तो वसंत जैसे होना पड़ेगा! क्योंकि समान से ही समान का संबंध हो सकता है।
और यही साधना है कि तुम थोड़े से वसंत जैसे होने लगो।
मैं यहां अपने संन्यासियों को यही कह रहा हूं..सुबह-सांझ, रोज..नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ, क्योंकि परमात्मा है!
एक तो नृत्य है, उत्सव है, परमात्मा को पाने के पहले। उससे पात्रता निर्मित होती है। और फिर एक उत्सव है, नृत्य है परमात्मा को पाने के बाद। उससे धन्यवाद प्रकट होता है, अनुग्रह प्रकट होता है। संन्यासी परमात्मा को पाने के पहले नाचता है, सिद्ध परमात्मा को पाने के बाद नाचता है। मगर संन्यासी ही सिद्ध हो सकता है। कोई और दूसरा सिद्ध नहीं हो सकता।
बिगसत कमल भयो गुंजार। ...
गुलाल कहते हैं: कैसे विस्मय के द्वार खुले जा रहे हैं! मेरे भीतर कमल खिल गया है। जहां अंधेरे के सिवाय मैंने कभी कुछ पाया न था, जहां कुरूपता के सिवाय कुछ और मुझे मिला न था..क्रोध मिला था, घृणा मिली थी, वैमनस्य-ईष्र्या मिली थी, द्वेष मिला था, अहंकार मिला था, तृष्णा मिली थी, वासना-कामना मिली थी, जहां मैंने सिवाय दुर्गंधयुक्त भाव-दशाओं के और कभी कुछ न पाया था, कूड़ा-करकट ही पाया था, जहां गंदगी का ढेर लगा था, वहां क्या चमत्कार हुआ है! ..बिगसत कमल भयो गुंजार! फूल खिल उठा है, कमल खिला है और गुंजार हो रहा है। कौन गा रहा है गीत? कौन खिला रहा है इस कमल को? कोई अदृश्य हाथ, जो पकड़ में नहीं आते। मगर होंगे, जरूर ही होंगे। कौन बजा रहा है इस वीणा को? कोई अदृश्य हाथ।
...जोति जगामग कर पसार।।
यह कौन है जो मेरे भीतर ज्योति को जगा दिया है? यह कैसा कमल है कि जिसके चारों तरफ संगीत गूंज रहा है और जिसके बीच से ज्योति उठ रही है? और यह ज्योति पसरती जा रही है, जगामग फैलती जा रही है। यह मुझ तक रुकेगी नहीं, यह दूर-दूर तक जाएगी, यह बात फैलेगी, यह गंध उड़ेगी, हवाएं इसे दूर-दूर तक ले जाएंगी, दिगदिगंत में पहुंचाएंगी। यह प्रकाश मेरे में समाएगा नहीं, यह मुझसे बड़ा है, यह मुझसे फूट कर बहेगा। यह बाढ़ की तरह है, मैं छोटा हूं, यह मेरे ऊपर से बह जाएगा, यह बहुतों तक पहुंचेगा।
...जोति जगामग कर पसार।।
और हम धन्यभागी हैं कि यह ज्योति किसी के भीतर समा नहीं पाती। नहीं तो बुद्ध चुप रह जाते। नहीं तो मोहम्मद से कुरान न उठती और कृष्ण ने गीता न गाई होती; और कबीर की अदभुत उलटबांसियां, आदमी उनसे वंचित रह जाता। तो बाउल फकीरों ने इकतारा न बजाया होता; और उनकी मस्ती हम कभी पहचान ही न पाते। ये थोड़े से लोग हमारी हवा को भी शराब से भर गए हैं। हमारे वातावरण को भी मदमस्त कर गए हैं। कारण कि जब भीतर की घटना घटती है, तो घटना इतनी बड़ी है कि तुम्हारी देह उसे सम्हाल नहीं सकती। न तुम्हारा मन उसे रोक सकता है। वह सब बांध तोड़ कर बहती है।
कलियो, यह अवगुंठन खोलो।
ओस नहीं है, मेरे आंसू

से ही मृदु पद धो लो।।

कोकिल-स्वर लेकर आया है
यह अशरीर समीर,
सुखमय सौरभ आज हुआ है
पंचबाण का तीर,
मन में कितना है रहस्य
ओ लघु सुकुमार शरीर!
व्योम तुम्हारे रुचिर
रंग में डूबा है गंभीर,
सुरभि-शब्द की एक लहर में,
तुम क्या हो, कुछ बोलो।
कलियो, यह अवगुंठन खोलो।।
तुम भी कली हो उसी कमल की जिसकी गुलाल बात कर रहे हैं। मगर जरा पर्दा उठाओ! मीरा कहती है: घूंघट के पट खोल।
कलियो, यह अवगुंठन खोलो।
ओस नहीं है, ...
कोई फिकर नहीं, तो आंसुओं से ही पैर धो लो। उस परमात्मा के पैरों को आंसुओं से ही धो लो।
कोकिल-स्वर लेकर आया है,
यह अशरीर समीर,
यह जो समीर तुम्हारे चारों तरफ बह रही है, इस में अदृश्य रहस्य छिपे हुए हैं। इसमें ऐसी कोकिल की तान है, जो तुमने कभी सुनी नहीं..जो बाहर के कानों से सुनी भी नहीं जाती।
सुखमय सौरभ आज हुआ है
पंचबाण का तीर
मन में कितना है रहस्य
ओ लघु सुकुमार शरीर!
यह छोटी सी देह है, मगर रहस्यों पर रहस्य इसमें भरे हैं। यह छोटी सी देह ऐसा समझो कि जैसे एक छोटा सा पूरा विश्व है, इस पिंड में ब्रह्मांड समाया हुआ है। जैसे यह छोटा सा नक्शा है सारे अस्तित्व का!
व्योम तुम्हारे रुचिर
रंग में डूबा है गंभीर,
सुरभि-शब्द की एक लहर में,
तुम क्या हो, कुछ बोलो।
कलियो, यह अवगुंठन खोलो।।
यह अवगुंठन एक ही तरह से खुल सकता है कि तुम अपने से पूछो कि मैं कौन हूं। जितना गहरे में पूछोगे उतना ही पाओगे: मैं हूं ही नहीं; मैं नहीं हूं। एक दिन यह उत्तर तुम्हारे सामने खड़ा हो जाएगा..मैं नहीं हूं। फिर भी कुछ तो है। उस कुछ का नाम ही परमात्मा है। उसे कोई भी शब्द दिया नहीं जा सकता, वह निःशब्द है, अनिर्वचनीय है।
निरखि निरखि जिय भयो अनंद। ...
और जिस दिन तुम उस का जरा सा भी अनुभव कर लोगे, तो नाचोगे।
निरखि निरखि जिय भयो अनंद। ...
देखोगे तो ही आनंदित हो सकोगे। जिन्होंने देखा है उन्होंने तो बहुत कहा है कि आनंद है, सच्चिदानंद है, सुन भी लेते होतुम, मगर तुम्हारे भीतर कोई पुलक नहीं उठती, तुम्हारे भीतर प्राणों में कोई टंकार नहीं पड़ती, तुम्हारी वीणा में संगीत नहीं छिड़ जाता; न कमल खिलता है, न गंध उड़ती है, न दीया जलता है। दूसरों के कहे यह नहीं हो सकेगा! निरखि निरखि जिय भयो अनंद। जिस दिन तुम निरखोगे, जिस दिन तुम पहचानोगे, उस दिन प्राण आनंद से परिपूरित हो उठेंगे।
...बाझल मन तब परल फंद।।
तब पड़ोगे तुम परमात्मा के फंदे में; तब होगी सगाई; तब पहली दफा तुम जानोगे प्रीति का संबंध, प्रेम का नाता। बाझल मन तब परल फंद। ये जो मन भागा-भागा फिरता था, फिर नहीं भागेगा। ये जो मन सारे जगत में भागा फिरता था और कहीं शरण न पाता था, रत्ती भर न हटेगा। जब भौंरे को मिल जाता है कमल, तो बस बैठ जाता है। फिर कमल बंद भी हो जाए तो भी भौंरा भागता नहीं। कमल रात बंद हो जाता है, तो भौंरा भी उसके भीतर बंद हो जाता है। बंद होते कमल को देख कर भी भौंरा भागता नहीं। अब यह कारागृह नहीं है, यह उसका घर है; वह अपने घर आगया है; जिसकी तलाश थी, वह मिल गया है।
लहरि लहरि बहै जोति धार। ...
और तब तुम भीतर देखोगे कि लहरों पर लहरें आरही हैं ज्योति की। और ऐसी ज्योति की जो किसी ईंधन से नहीं जलती; इसलिए चुक नहीं सकती; बिन बाती बिन तेल।
लहरि लहरि बहै जोति धार। चरनकमल मन मिलो हमार।।
और उसी लहर में तुम डूबते जाओगे, डूबते जाओगे; उस लहर में तुम लहर हो जाओगे और तभी तुम मिल पाओगे परमात्मा के चरणों से। तुम जब तक पिघलोगे नहीं, तरल न बनोगे..अभी तो बहुत ठोस हो, अभी तो चट्टान की तरह हो। अभी तो जितना तुम चट्टान की तरह होते हो उतना ही लोग कहते हैं कि यह है आदमी मजबूत! तरल आदमी का तो कोई सम्मान ही नहीं है जगत में। जो आंसुओं में बह जाए, उसकी तो तुम निंदा करोगे कि क्या मर्द होकर रोते हो! छोटे-छोटे बच्चों को हम कहने लगते हैं कि क्या लड़कियों जैसा रो रहा है! प्रकृति ने कुछ भेद नहीं किया है आदमी की आंखों में; चाहे स्त्री हो, चाहे पुरुष, एक सी ही ग्रंथियां हैं आंसू की। जितनी स्त्रियों की आंखों में आंसू की ग्रंथि हैं, उतनी ही पुरुषों की आंखों में। लेकिन पुरुषों को हम रोने तक नहीं देते। पुरुष क्या बनाते हैं उनको हम, पुरुष बना देते हैं, कठोर बना देते हैं। उनकी आंखों से आंसू तक छीन लेते हैं। आंसू ही नहीं छिनते आंखों से, उनके भीतर से सारा गीलापन खो जाता है, वे सूख जाते हैं, ठूंठ हो जाते हैं।
और अब तो स्त्रियां भी मुकाबले में लगी हैं। वे भी स्पर्धा में हैं कि बहुत हो लिया, बहुत रो लिया, अब हम भी पुरुषों को मात कर के रहेंगे। अब तो उनकी आंखें भी सूखने लगी हैं। अब तो वहां से भी आद्र्रता विलीन हुई जा रही है। जल्दी ही वहां भी हरियाली नहीं होगी। जल्दी ही वहां भी पत्ते झर जाएंगे और फूल नहीं खिलेंगे। स्त्रियों के भी महात्मा होने के दिन करीब आरहे हैं! पहले स्त्रियां महात्मा नहीं हो सकीं, क्योंकि इतनी कठोर नहीं हो सकीं। मुझसे लोग पूछते हैं कि बुद्ध हुए, महावीर हुए, कृष्ण हुए, ईसा हुए, मोहम्मद हुए, जलालुद्दीन, कबीर, फरीद, इतनी अनंतशंृखला हुई संतों की, सदगुरुओं की, स्त्रियां क्यों नहीं महात्मा पद पा सकीं? स्त्रियां तरल रहीं, सरल रहीं, आद्र्र रहीं। और तुमने महात्मा के नाम पर जो कल्पना गढ़ रखी है, वह कठोर होने की, वह बिल्कुल सूखे-साखे होने की।
शास्त्र कहते हैं कि महात्मा को सूखी लकड़ी जैसा होना चाहिए। क्यों? क्योंकि गीली लकड़ी में से धुआं उठता है। गीली लकड़ी को जलाओगे तो धुआं उठेगा। सूखी लकड़ी को जलाओगे तो धुआं नहीं उठेगा। तो महात्मा को क्या कोई चूल्हे में डालना है, क्या करना है! कि महात्मा पर क्या रोटियां पकानी हैं! फूल लगने दो! मगर फूल सूखी लकड़ियों में नहीं लगते। सूखी लकड़ियों में धुआं नहीं उठता, यह सच है, सो चूल्हे के काम की हैं, मगर फूल नहीं लगते उनमें।
संसार को बगिया बनाना है कि एक चूल्हा!
सदियों से कठोरता सिखाई गई। स्त्रियां इतनी कठोर नहीं हो सकीं, इसलिए बड़ी पिछड़ गईं। महात्माओं के साथ उनका तालमेल नहीं बैठ सका। रोने लगें, गाने लगें, हंसने लगें! नाचने लगें! कुछ स्त्रियां पहुंचीं, मगर बामुश्किल। जैसे, मीरा। खूब निंदा सही। महात्मागण पक्ष में नहीं थे मीरा के..हो नहीं सकते थे। क्योंकि ये नाच, ये गीत, ये तम्बूरा, ये अलमस्ती, ये अल्हड़पन, ये आंसुओं की धार, इसमें कहां वीतरागता है? आंख तो बिल्कुल पत्थर की हो जानी चाहिए।
मैंने सुना है मुल्ला नसरुद्दीन एक दुकान पर कुछ सामान खरीदने गया। दुकानदार दाम ज्यादा बता रहा था। मुल्ला ने कहा: दाम दुगुने हैं। दुकानदार ने कहा कि दुगुने हों या तिगुने, इसी दाम में मैं चीजें बेचता हूं। मुल्ला ने कहा: सामने का दुकानदार आधे में बेच रहा है। तो उस दुकानदार ने कहा: वहीं से ले लो। उसने कहा कि वहां से कैसे लें, उस का स्टाक खत्म हो गया है! उस दुकानदार ने कहा: स्टाक जब मेरा खत्म हो जाता है तो मैं तो एक चैथाई में बेचता हूं, आधे की क्या बात!
ऐसे ही जिद्दमजिद चलती रही। आखिर उस दुकानदार ने कहा: भई, सिर पच गया; उसने कहा कि ऐसा कर, अगर तू एक काम कर दे तो आधे में दूंगा; अगर तू बता दे कि मेरी कौन सी आंख असली है और कौन सी नकली?
मुल्ला ने गौर से देखा और कहा कि बाईं आंख तुम्हारी नकली है। दुकानदार तो बड़ा हैरान हुआ, बाईं आंख उसकी नकली थी! मगर इस कला से बनाई गई थी कि पहचानना मुश्किल था कौन असली, कौन नकली। उसने कहा कि नसरुद्दीन, मान गए भाई! कैसे पहचाने कि बाईं आंख नकली है? नसरुद्दीन ने कहा: उसमें कुछ दया दिखाई पड़ती है। असली तो हो ही नहीं सकती। असली तो बिल्कुल कठोर है।
असली महात्मा एकदम कठोर।
मीरा को बहुत गालियां सहनी पड़ीं, बहुत अपमान सहना पड़ा। घर के लोगों ने ही जहर का प्याला भेजा। दुश्मनी की वजह से नहीं, बदनामी बचाने के लिए।
अगर मीरा जैसी कोई एकाध स्त्री पहुंच गई, तो यह बावजूद पुरुषों के और पुरुषों की धारणाओं के। लेकिन अब स्त्रियां भी कठोर होती जा रही हैं। बहुत झेल लिया उन्होंने भी। अब और उनको लगता है कि बिना कठोर हुए पुरुष के साथ स्पर्धा नहीं की जा सकती। अगर बाजार में जूझना हो और गलाघोंट प्रतियोगिता में लगना हो, तो फिर अपनी-अपनी छुरी पर धार रखनी पड़ेगी। और हृदय कठोर करना पड़ेगा, जब गर्दनें काटनी हो एक-दूसरे की। यह धारणा कि महात्मा सूखी लकड़ी होना चाहिए..काष्ठवत..इस धारणा ने सारे धर्म को ही सूखी लकड़ी कर दिया। ऐसे नहीं कोई महात्मा होता! ये रुग्णचित्त लोग हैं जिनको तुमने महात्मा कहा है।
महात्मा तो होगा वसंत! लहरि लहरि बहै जोति धार। उसके भीतर तो नृत्य होगा ज्योति का। और भीतर ही नहीं होगा, जब भीतर होगा तो बाहर भी होगा। फैलेगी ज्योति। चरनकमल मन मिलो हमार। और सिवाय इसके कोई रास्ता नहीं है कि तुम इतने तरल हो जाओ कि जैसे नदी सागर में मिल जाती है ऐसे तुम परमात्मा से मिल सको। मगर तरलता हो तो ही। अगर नदी जम गई हो और पत्थर की बर्फ बन गई हो, तो फिर सागर में नहीं मिल सकती..सागर तक पहुंच भी जाए तो भी बर्प की तरह जमी हुई नदी सागर में नहीं मिलेगी। सागर किनारे से बहता रहेगा, नदी अपनी अकड़ में अकड़ी रहेगी। तुम्हें बर्फ की तरह नहीं जम जाना है, जल की तरह तरल होना है। जितने तरल हो सको उतना शुभ है।
तुम्हें आज पाकर चंचल हूं,
मैं आशाओं के उभार में।
जैसे ये तारे देखो..
दुहरे-तिहरे हो उठे धार में।।
ध्वनि-लहरें हिल-डोल उठीं, इस पार और उस पार हमारे,
जैसे मौन सुरभि की लघु गति,
फैल गई है हार हार में।।
ज्योत्सना है, मानो अपने वे रजत स्वप्न सच होकर आ,
जुही झांकती है समीर को,
लता-कुंज के द्वार-द्वार में।।
आओ, अपनी छाया में हम प्रेम-मिलन के चित्र निहारें,
एक बार में दो मिलाप हैं,
देखो तो अपने विहार में।।
इसी मिलन के बल पर मैं, नश्वरता सुख से सहन करूंगा।
अपनेपन का भार खो चुका,
अश्रु-धार के एक ज्वार में।।
...रोने की कला आजाएगी तो आंसू ही बहा ले जाते हैं अहंकार को। ...
अपनेपन का भार खो चुका,
अश्रु-धार के एक ज्वार में।।
तुम्हें आज पाकर चंचल हूं,
मैं आशाओं के उभार में।
नाचो, तरंगित होओ, चंचल होओ, जैसे कि झील में लहरें नाच रही हों।
जैसे ये तारे देखो..
दुहरे-तिहरे हो उठे धार में।।
तुमने देखा, आकाश में तारा एक हो, लेकिन नदी की लहरों में दोहरा-तिहरा हो उठता है। लहरों में छितर जाता है। चांद निकलता है आकाश में और नदी में देखा? चांदी ही चांदी फैल जाती है! जब तुम नाचोगे तो परमात्मा तुम्हारे भीतर भी दोहरा-तिहरा हो उठता है। जितना तुम्हारा गहन नृत्य होगा, उतना ही परमात्मा तुम्हारे भीतर गहरा हो जाता है।
आवै न जाइ मरै नहिं जीव। ...
और व्यर्थ की घबड़ाहटों में न पड़ो। नरकों से न डरो; स्वगों का लोभ न करो। आवै न जाइ...न तो तुम आए हो कहीं से, न तुम कहीं जाओगे। न तुम्हारा कोई जन्म है, न तुम्हारी कोई मृत्यु है। तुम शाश्वत हो! और तुम कैसी छोटी-छोटी चीजों से डर बैठे हो! क्या-क्या डर बिठाए हैं लोगों ने तुम्हें! पंडित-पुरोहितों ने तुम्हारे भयभीत होने का खूब शोषण किया है। तुम्हारे तथाकथित धर्म सब भय पर खड़े हैं। तुम्हारे भगवान की धारणा भी भय पर खड़ी है। और भगवान और भय का कहीं कोई संबंध हो सकता है! भगवान का अनुभव होता है प्रेम से। भय से तो भगवान भी शैतान जैसा मालूम होगा। जिसको हम भय करते हैं, उसको हम आदर से सकते हैं? जिसको हम भय करते हैं, उसको हम प्रेम कर सकते हैं? जिसको हम भय करते हैं, मौका मिल जाए तो हम उसको गोली मार दें। मौके की तलाश जारी रहेगी।
तुम अगर भगवान से भयभीत हो तो तुम्हारे और उसके बीच कभी प्रेम की सगाई नहीं हो सकती। और ‘सबसे ऊपर प्रेम सगाई।’ भय से सगाई होगी कैसे? भय से तो टूट जाएगी और। मगर इस दुनिया में भी हमने भय की सगाई बना रखी है। और इसी को हम परमात्मा तक भी फैलाए हुए हैं। यहां लोग बंधे हुए हैं जोड़ों में..सिर्प भय के कारण! अब पत्नी सोचती है, जाएं तो कहां जाएं? और पति सोचता है कि अब ठीक है, अब इसको झेलते-झेलते इसके उपद्रवों के तो आदी हो गए, अब और किसके नये उपद्रव झेलें! फिर लोकलाज है, पद-प्रतिष्ठा है, लोग क्या कहेंगे, तो बंधे रहो! लड़ते रहो, बंधे रहो! झगड़ते रहो, बंधे रहो! एक-दूसरे से भयभीत हैं।
पति-पत्नी ऐसे डरते हैं एक-दूसरे से! अगर तुम किसी जोड़े को रास्ते पर चलते देखो और दोनों को उदास और परेशान, तो मझ लेना कि विवाहित हैं। और अगर कोई जोड़ा रास्ते पर चल रहा हो और प्रसन्नचित्त और आनंदित, सो समझना कि मामला गड़बड़ है! ये विवाहित नहीं हो सकते! पत्नी किसी ओर की होगी, पति किसी ओर का होगा!
 मुल्ला नसरुद्दीन फिल्म देखने गया था। एक अभिनेता अद्भभुत अभिनय कर रहा था। मुल्ला ने कहा, वाह, अभिनय हो तो ऐसा! वह जो प्रेम जतला रहा था, एकदम घुटनों को टेक कर खड़ा था...हिंदी फिल्मों में तो ऐसे अद्भभुत दृश्य आते ही हैं! हिंदी फिल्में तो गजब हैं! दुनिया में कहीं कोई गाना-वाना नहीं गाता, हिंदी फिल्मों को छोड़ कर। जरा ही मौका मिला कि गाना शुरू! और कहां से बैंड-बाजे आजाते हैं एकदम से, यह भी कुछ समझ में नहीं आता। जिंदगी में ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हें दुख चढ़ा और तुमने एक दुख का गाना गाया और फौरन साज बजने लगा। कि पिया गए दूर और तुमने उनको पुकार लगाई और एकदम साज बजने लगा! यह साज कौन बजाते हैं? बड़े रहस्य हैं! मगर हिंदी फिल्मों में तो जो हो जाए सो थोड़ा! ....
तो बस, घुटने टेक कर अभिनेता एक स्त्री को प्रेम प्रकट कर रहा है। आंसुओं की धार बही जा रही है। कह रहा है कि तुम्हारे बिना जी ही नहीं सकता..एक दिन भी नहीं जी सकता, सांस रुक जाएगी। तुम नहीं मिलीं तो सब खो जाएगा।
मुल्ला ने अपनी पत्नी से कहा कि कितना कुशल अभिनेता है। और पत्नी ने कहा: तुम्हें मालूम है, यह जिसके सामने अभिनय कर रहा है, वह इसकी पत्नी है। वास्तविक जीवन में वह इसकी पत्नी है। मुल्ला ने कहा: तब तो गजब हो गया! तब तो पक्का ही अभिनेता है!! अपनी पत्नी से कोई ऐसी बातें कहे कि तुम्हारे बिना मर जाऊंगा, कि तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं जी सकता! अपनी पत्नी से ऐसे कहीं कोई बातें कहता है! पति और पत्नी के बीच में यह शिष्टाचार आता ही नहीं। वहां तो हालतें ही उल्टी हैं।
मुल्ला बीमार था। डाक्टर उसको देखने आया। नब्ज देखी, छाती की धड़कन देखी, तापमान लिया और बोला कि ऐसा लगता हैकि कम-से-कम तीस साल से कोई खतरनाक बीमारी तुम्हारे पीछे पड़ी है।
मुल्ला ने कहा: धीरे बोल भइया, वह बगल के कमरे में ही बैठी है! और ठीक तीस साल हुए हैं, ...तूने भी गजब कर दिया! नाड़ी देख कर तूने भी क्या....बड़े-बड़े वैद्य देखे, मगर ठीक तीस साल...। मगर धीरे! अगर सुन लिया तो और मुसीबत हो जाएगी।
यहां भी हमने जीवन के सारे संबंध भय पर खड़े कर रखे हैं। मां-बाप बच्चों को डरा रहे हैं। और डरा कर सोचते हैं आदर मिलेगा। धमका रहे हैं। और बच्चे आदर देंगे। मगर आदर थोथा होगा, झूठा होगा। और जब तक छोटे हैं और जब तक बलशाली नहीं, तभी तक देंगे। जिस दिन बल आजाएगा, उस दिन बदला लेंगे। जिस दिन वे बलशाली हो जाएंगे और मां-बाप कमजोर होंगे..आखिर एक दिन मां-बाप बूढ़े होंगे और कमजोर हो जाएंगे, बच्चे जवान होंगे..फिर ये ही बच्चे उनको सताएंगे। फिर बूढ़े रोते फिरते हैं कि क्या हो गया, कलियुग आगया। कलियुग वगैरह कुछ नहीं आया, भइया, यह आपकी ही कृपा है! और सतयुग में भी तुम यही करते रहे। और अब भी तुम यही कर रहे हो। बच्चे जब कमजोर थे, तुमने सता लिया, अब तुम कमजोर हो गए हो, अब बदला मिल रहा है; अब बच्चे तुम्हें सता रहे हैं।
हमने सब संबंध विकृत कर दिए हैं।
शिक्षक सदियों से बच्चों को मार रहा है, पीट रहा है और आशा करता है: सम्मान। कि गुरु को सम्मान मिलना चाहिए। ये बच्चे गुरु की पिटाई नहीं करते, यही बहुत है। सम्मान क्या मिलना चाहिए? आजकल उन्होंने शुरू कर दी, पिटाई भी शुरू कर दी, क्योंकि अब छोटे-छोटे बच्चे नहीं रहे। प्राइमरी स्कूल में ठीक है कि तुम उनको डंडे के बल पर शांत रखो, लेकिन विश्वविद्यालय में वे तुम्हारी ही उम्र के हो जाते हैं।
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। मैं सुबह रोज तीन बजे उठ कर स्नान करने जाता। अंधेरा होता। बाथरूम में मैंने प्रवेश किया, ...तो मेरा बाथरूम तो निश्चित था। उसमें मेरे डर से कोई प्रवेश भी नहीं करता था। और तीन बजे रात तो वैसे भी कोई प्रवेश करने वाला नहीं था। ... उस दिन देखा मैंने, एक सज्जन उसमें नहा रहे हैं। मैंने उनको पकड़ा गर्दन से और बाहर निकाला कि तुम्हें पता है कि तीन बजे इसमें कोई प्रवेश कर ही नहीं सकता। उन्होंने ज्यादा गड़बड़ की तो मैंने उनको एक धौल भी लगा दी। अंधेरा था, मैंने देखा नहीं कौन हैं, क्या मामला है! वह तो सुबह पता चला कि वे नये-नये दर्शनशास्त्र में अध्यापक होकर आए थे। मुझे बुलाया वाइस-चांसलर ने, कहा कि यह बात ठीक नहीं है कि अध्यापक को तुमने धक्का मार कर बाहर निकाला और एक धौल भी लगाई। मैंने कहा: कौन अध्यापक? एक छोकरा नहा रहा था! उन्होंने कहा, वह छोकरा नहीं है, जी! वह अध्यापक है। वे नये-नये आए हैं। मैंने कहा कि अंधेरे में कौन किसको देखे! तीन बजे रात, कौन अध्यापक है, कौन विद्यार्थी है ब्रह्ममुहूर्त में सब समान है। ब्रह्ममुहूर्त में तो ब्रह्म के ही दर्शन होते हैं! मारने वाला भी ब्रह्म और मारा जाने वाला भी ब्रह्म!
विश्वविद्यालय में तो विद्यार्थी अब जवान हैं। वे अध्यापकों से कैसे डरेंगे? किसलिए डरेंगे? तो परीक्षाओं में ले जाते हैं छुरा। टेबल पर छुरा गड़ा कर और फिर नकल शुरू कर देते हैं। बस, छुरा देखकर अध्यापक इधर-उधर देखता है। कौन झंझट मोल ले!
गुरु-शिष्य का संबंध भी भय पर। मां-बाप का बेटों-बच्चों से संबंध भी भय पर। पति-पत्नी का संबंध भी भय पर। सारे संबंध तुमने भय पर खड़े कर रखे हैं। और अंतिम संबंध, कम से कम उसे तो दया करते, छोड़ देते, कम से कम परमात्मा और व्यक्ति का संबंध तो भय पर खड़ा न करते! उसको भी भय पर खड़ा कर रखा है, कि नरक में सड़ोगे। ...अब नरक से जो डरें वे डरें। आजकल कोई नरक से डरता भी नहीं। पहले लोग कहते हैं कि नरक सिद्ध करो, है कहां? कोई लौट कर आया? और जब होगा तब देखा जाएगा। और होशियार आदमी यहां तरकीब खोज लेता है, वहां भी खोज लेगा। ...कि स्वर्ग में तुम को पुरस्कार मिलेगा। यह भय और लोभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुमने बच्चे समझ रखा है लोगों को! कि स्वर्ग में पीपरमेंट की गोलियां और नरक में कुटाई-पिटाई!
इस तरह परमात्मा और मनुष्य का संबंध समाप्त ही हो गया।
गुलाल तुमसे कहना चाहते हैं: भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं है। सभी संत तुमसे यही कहना चाहते हैं।
आवै न जाई मरै नहिं जीव। ...
न तो तुम आए हो, न जाओगे। तुम अस्तित्व के अनिवार्य अंग हो। तुम परमात्मा के हिस्से हो! कहां का नरर्क, कहां का स्वर्ग! स्वर्ग है तो तुम्हारे भीतर और नर्क है तो तुम्हारे भीतर। वह तुम्हारा मनोविज्ञान है, कोई भौगोलिक स्थितियां नहीं।
...पुलकि पुलकि रस अमिय पीव।।
गुलाल कहते हैं, छोड़ो यह भय-लोभ और फिर नाचो, गाओ, और फिर पीओ अमृत को।
...अगम अगोचर अलख नाथ। ...
वह परमात्मा अगम है। अगम्य है। हम उसे समझ कर भी समझ नहीं सकते। वह समझ में आजाए, ऐसा कोई दो और दो चार वाला गणित नहीं। वह रहस्य है। जितना समझोगे उतना ही पाओगे कि और समझने को शेष है। जितना समझोगे उतना पाओगे कि अरे, कुछ भी न समझा! अभी तो बूंद भी नहीं समझे और सागर सामने खड़ा है! इस बात को ख्याल रखना, इस दुनिया में जितने नासमझ लोग हैं, वे ही इस भ्रांति में जीते हैं कि समझ में आता है। समझदार तो कहते हैं, कुछ समझ में नहीं आता। यह बात इतनी बड़ी है। यह अस्तित्व इतना विस्मय-विमुग्ध भाव से देखने योग्य है। ज्ञान की अकड़ से मत देखो, तुम्हारा ज्ञान बाधा है, अज्ञान के भाव से देखो। छोटे बच्चे की तरह देखो। तुम कुछ नहीं जानते। गीता कंठस्थ होगी, कुरान याद होगा, मगर तुम जानते कुछ भी नहीं। और परमात्मा को जानने की सीमा में तुम कभी बांध भी न पाओगे। किसी तराजू पर उसे तोल नहीं सकते और किसी कसने की कसौटी पर कस नहीं सकते। कोई माप नहीं है जिससे माप सको। अमाप है। तर्कातीत है। अगम है। अगोचर है। इन आंखों से दिखाई पड़ने वाला नहीं है।
मगर तुम्हारी कोशिश यही है कि इन्हीं आंखों से दिखाई पड़ जाए।
इन्हीं आंखों से देखने के लिए तुमने मूर्तियां बना रखी हैं। फिर उन्हीं मूर्तियों को देखते-देखते तुम आंखें बंद करके भी उन मूर्तियों को देखने की कोशिश करते हो। इसको लोग समझते हैं साधना कर रहे हैं। पहले देखते हैं गणेश जी को बाहर बैठे, फिर आंख बंद कर लेते हैं, फिर आंख बंद करके गणेश जी को देखने की कोशिश करते हैं। कुछ दिन कोशिश करते रहोगे तो आंख बंद करके भी गणेश जी दिखाई पड़ने लगेंगे। एक तो गणेश जी का ढंग ऐसा है, कि तुम बचना भी चाहो तो न बच सकोगे, आंखें बंद की कि और-और दिखाई पड़ेंगे! कि हनुमान जी खड़े हैं, लाल लंगोट बांधे हुए। आंखे बंद करके देखोगे तो दिखाई पड़ेंगे। किसी भी चीज को तुम अगर आंख खोल कर बहुत दिन तक देखते रहोगे ध्यानपूर्वक, फिर आंख बंद करोगे तो उसकी प्रतिछवि रह जाती है। वह फिर भीतर दिखाई पड़ने लगती है।
इसलिए बुद्ध ने कहा है कि जब तक भीतर तुम्हें कुछ भी दिखाई पड़ता रहे तब तक जानना कि अभी ध्यान नहीं लगा। चाहे राम दिखाई पड़ें, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, जब तक कुछ भी दिखाई पड़ता रहे भीतर तब तक समझना कि अभी ध्यान पूरा नहीं हुआ। अभी बाहर ही भटक रहे हो। आंख से दिखाई पड़ने वाली चीज ही नहीं है।
इसलिए सब मूर्तियां झूठी। सब मूर्तियां खिलौने। बच्चों को उलझा लो तो ठीक, लेकिन बूढ़े भी मूर्तियों में उलझे हैं। रामलीलाएं चल रही हैं! राम-सीता की बारात निकलती है! बाराती बन कर लोग सम्मिलित होते हैं। बच्चे गुड़ियों का विवाह रचाते हैं, तुम राम-सीता का विवाह रचाते हो। वही खेल कर रहे हो, जरा बड़े पैमाने पर। जरा शोरगुल ज्यादा, भीड़-भाड़ ज्यादा, रंग जरा धार्मिक दे दिया, पुट जरा धार्मिक दे दिया, मगर मामला वही का वही है। तुम्हारी मूर्तियां, तुम्हारे धार्मिक क्रियाकांड, सब बाह्य हैं। और परमात्मा तुम्हारी आंतरिकता का नाम है। इस जगत की जो आंतरिकता है, वही परमात्मा है।
अगम अगोचर अलख नाथ। ...
उसे न कोई लक्ष्य बना सकता है, न वह किसी का लक्ष्य बनता है। अलक्ष्य है, अलख है।
अलक्ष्य शब्द को समझ लेना जरूरी है।
कभी भूलकर भी यह मत सोचना कि परमात्मा को पाना है। क्योंकि अगर तुमने परमात्मा को पाने की वासना अपने भीतर जगाई, तो वासना ही बाधा बन जाती है। परमात्मा पाया जाता है, लेकिन परमात्मा को पाने की वासना बाधा बन जाती है। फिर परमात्मा कैसे पाया जाता है? जब तुम्हारी सब वासनाएं क्षीण हो जाती हैं। परमात्मा के पाने की वासना भी सम्मिलित है उन सब वासनाओं में। जब तुम्हारे भीतर कुछ भी पाने की कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। तब तत्क्षण उसका अनाहत नाद बज उठता है। उसका सूर्य उदय हो आता है। तब तुम्हारे भीतर ज्योति लहराने लगती है। परमात्मा तुम्हारी वासना का लक्ष्य नहीं है। न हो सकता है। परमात्मा तो निर्वासना का अनुभव है।
इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की। उन्होंने सिर्प इतना ही कहा, किस तरह वासना छूटे, यह मैं तुम्हें बताता हूं। वासना छूट जाएगी, फिर शेष सब अपने से हो जाएगा। फिर आगे की तुम बात पूछो ही मत। क्योंकि तुमने पूछी और तुमसे गलत हुई। तुमसे अगर कहा जाए कि परमात्मा है, तो तत्क्षण मन में वासना पैदा होती है कि उसे पाएं। और फिर अगर कहा जाए कि वह आनंद है, तब तो और भी वासना पैदा होती है। और अगर कहा जाए कि वह अमृत है और उसे पाकर तुम भी अमृत हो जाओगे, तब तो तुम्हारा प्राण एकदम ही लोभ से भर जाता है, कि जल्दी पाकर रहें, पाना ही है!
वासना से अगर तुम परमात्मा को पाने चले तो चूकते रहोगे। क्योंकि तुम कभी उस शांत अवस्था में ही न आपाओगे, वासना तुम्हें उद्विग्न रखेगी, व्यथित रखेगी, बेचैन रखेगी। वासना तुम्हें कभी वर्तमान में स्थिर न होने देगी, हमेशा भविष्य में भटकाए रखेगी, कल्पनाओं के जाल में उलझाए रखेगी।
अगम अगोचर अलख नाथ। ...
वह जो स्वामी है, इस जगत का जो मालिक है, न तो उसे हम अपनी वासना का लक्ष्य बना सकते हैं, न आंखों का दृष्य बना सकते, न बुद्धि के लिए विचार का विषय बना सकते।
...देखत नैनन भयो सनाथ।।
लेकिन एक और आंख है भीतर की, ये आंखें नहीं; एक और देखने का ढंग है, जिससे वस्तुएं नहीं देखी जातीं, जिससे चैतन्य देखा जाता है। देखना तो केवल कहने की बात है, अनुभव किया जाता है। देखत नैनन भयो सनाथ। और जिस दिन तुम उसे अपने भीतर अनुभव कर लोगे उस दिन तुम सनाथ हो जाओगे, उसके पहले तुम अनाथ हो।
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। सामने ही एक मकान बन रहा था, मैंने कहा, यह क्या बन रहा है? उन्होंने कहा: अनाथालय बना रहे हैं। मैंने कहा, तुम नाहक बना रहे हो! पूरी पृथ्वी अनाथालय है, अब और एक अनाथालय की क्या जरूरत है! अनाथालय के भीतर अनाथालय! तुम तो ऐसा करो, एक सनाथालय बनाओ। कि जो सनाथ हो गए हों, उनके ठहरने की कोई जगह बनाओ। उन्होंने कहा: हम कुछ आप का मतलब नहीं समझे। तो मैंने गुलाल का यह वचन उनको कहा:
अगम अगोचर अलख नाथ। देखत नैनन भयो सनाथ।।
वही है सनाथ, जिसने परमात्मा को जान लिया, पहचान लिया, प्रतीति कर ली, पी लिया; जिससे परमात्मा का आलिंगन हो गया, जो डूब गया उसमें और डूब जाने दिया उसे अपने में, जिसने भेद न रखा, जो अभिन्न हो गया, अभेद हो गया, जो अद्धैत हो गया, वही सनाथ है। मालिक से जुड़ोगे तो ही, अन्यथा तुम अनाथ ही हो।
कह गुलाल मोरी पुजलि आस। ...
गुलाल कहते हैं, मेरी तो आशा पूरी हो गई। मेरी तो अभीप्सा पूरी हो गई।
...जम जीत्यो भयो जोति-बास।।
मैंने तो मृत्यु को जीत लिया और ज्योति में मेरा निवास हो गया। उस ज्योति में, जो कभी बुझती नहीं। उस ज्योति में, जो इस जगत का प्राण है, जो इस अस्तित्व का अस्तित्व है।
चलु मोरे मनुवां हरि के धाम।
तुम्हें भी पुकारते हैं कि आओ, तुम भी चलो। मैं तो पहुंच गया; अब प्यारे, तुम भी आओ! चलो, हम चलें हरि के धाम। तुम भी अपने मन को पुकारो..चलु मोरे मनुवां हरि के धाम।
बढ़ो, अभय, विश्वास-चरण धर!
सोचो वृथा न भव-भय कातर!
ज्वाला के विश्वास के चरण,
जीवन-मरण समुद्र संतरण,
सुख-दुख की लहरों के सिर पर,
पग धर कर पार करो भव सागर।
बढ़ो-बढ़ो विश्वास-चरण धर!
क्या जीवन? क्यों, क्या जग कारण?
पाप-पुण्य, सुख-दुख का वारण?

व्यर्थ तर्क! यह भव लोकोत्तर,
बढ़ती लहर बुद्धि से दुस्तर;
पार करो विश्वास-चरण धर!
जीवन-पथ तमिस्रमय निर्जन,
हरती भव-तम एक लघु-किरण,
यदि विश्वास हृदय में अणु भर,
देंगे पथ तुम को गिरि-सागर।
बढ़ो अमर विश्वास-चरण धर!
चलु मोरे मनुवां हरि के धाम।
लेकिन चलोगे कैसे? डर लगता, भय लगता। उस पार जाना है तो इस पार को छोड़ना होगा। और इस पार हमने कितनी आकांक्षाओं से, कितनी तृष्णाओं से अपने छोटे-छोटे-घरघूले बनाए हैं। ताश के पत्तों के ही घर सही, मगर नाम तो घर है! नाम से ही हम धोखा खा रहे हैं। इस किनारे पर हमने कितनी आशाओं के बीज बोए हैं, अभी फसल काटी कहां, उस पार कैसे चलें! और फिर उस पार! है भी कोई पार या नहीं? दिखाई तो पड़ता नहीं। अगम है, अगोचर है, अलख है। हमारी आंखें उस दूर-दूर के पार को देख नहीं पातीं। और बीच में मझधार है और तूफान है और आंधियां हैं। तो डर लगेगा, भय लगेगा। लेकिन यह भय और डर तभी तक लगता है जब तक तुम्हारे भीतर श्रद्धा नहीं उमगी है। श्रद्धा का एक कण ही काफी है और सारे भय विसर्जित हो जाते हैं।
श्रद्धा कहां मिलती है? बाजार में तो बिकती नहीं, हाट में तो पाई नहीं जाती, लेकिन अगर किसी के जीवन में क्रांति घटी हो, किसी के भीतर लहर-लहर ज्योति बह रही हो, उसके पास बैठने से मिलती है, सत्संग से मिलती है, संगति से मिलती है। सत्संग के अतिरिक्त श्रद्धा का स्वाद और कहीं नहीं मिलता।
ध्यान रहे, श्रद्धा का अर्थ विश्वास नहीं है। तुम तो विश्वास का मतलब यह समझते हो कि मान लिया। मां-बाप कहते हैं..न उनको पता है..पंडित-पुजारी कहते हैं..न उनको पता है..जो स्वयं नहीं जानते, वे तुम्हारे भीतर विश्वास जगा रहे हैं! उनका विश्वास मिथ्या, थोथा तुम्हारा विश्वाश तो और भी मिथ्या। और थोथा होगा। उनका विश्वास उधार है। तुम्हारा विश्वास उधार होगा। और श्रद्धा नगद होती है, उधार नहीं होती।
नगद श्रद्धा कहां मिलेगी?
किसी जीवंत गुरु के पास ही मिल सकती है। किसी जागते गुरु के पास ही एकमात्र उपाय है। बगीचे में जाओगे तो गंध तुम्हारे वस्त्रों में भी समा जाएगी। वैसे ही किसी सत्संग में बैठोगे, जहां बूंदा-बांदी हो रही है अमृत की, जहां मोती झर रहे हैं, एकाध मोती भी तुम्हारे हाथ लग जाए तो बात हो जाए! फिर सब भय मिट जाता है। फिर अज्ञात में जाने की क्षमता और साहस का जन्म होता है। और वैसा साहस हो तो ही तुम कह सकोगे अपने से: चलु मोरे मनुवां हरि के धाम।
आगे बढ़, आगे बढ़, आगे!
बीत गया है वह अतीत तो,
किसके लिए रुका तू?
पीछे छूट गया जो उसका,
रस तो लूट चुका तू!
पाकर नई अतृप्ति निरंतर
नये पाठ पढ़ आगे
आगे बढ़, आगे बढ़, आगे!
आगे अंधकार तो पीछे
अस्ताचल की लाली,
क्रम-क्रम से गिरती है उस पर
अमिट यवनिका काली!
पर देखे हैं सभी दृश्य वे
आरहस्यमय आगे
आगे बढ़, आगे बढ़, आगे!
गिर-गिर कर ही तो संभलेगा
अटकेगा भटकेगा
तभी लगेगा न तू ठिकाने,
जब भूले-भटकेगा।
उठ, तू उठता ही जाएगा
ऊंचे चढ़-चढ़ आगे!
आगे बढ़, आगे बढ़, आगे!
गिरने से मत घबड़ाना। भटकने से मत घबड़ाना। भूल-चूक से मत डरना। जिसने भूल-चूक नहीं की, उसने कभी कुछ सीखा नहीं। जो गिरने से डरा, वह ऊपर उठा नहीं। कहीं कोई गलती न हो जाए, वह तो मुरदा हो गया जीते-जी। वह कदम ही उठाने में भयभीत होगा। यह तो अच्छा है कि छोटे बच्चे डरते नहीं कि कहीं चलने से गिर न पड़ें, नहीं तो कोई आदमी कभी चलेगा ही नहीं। तो बच्चे उठ-उठ कर चलने लगते हैं। मां-बाप रोकते भी हैं कि बेटा, गिर पड़ोगे, मत चलो, बच्चे सुनते नहीं। गिरते हैं, घुटने टूट जाते हैं, फिर-फिर उठ आते हैं; चल कर ही रहते हैं। अगर बच्चे भी तुम जैसे भयभीत हों और कहें कि कहीं चोट खा जाएं, कि कहीं गिर जाएं, और बैठे ही रहें, तो बस गोबर-गणेश ही रह जाएं। फिर उनके जीवन में कुछ भी न हो।
अज्ञात की खोज पर भी निकलना एक नया जन्म है। डरना मत, भूल-चूक होंगी। वही भूल-चूक बार-बार न करना, इतना ही काफी है। नई-नई भूल रोज-रोज करना, ताकि रोज-रोज सीख सको। और भटकना भी। क्योंकि भटकोगे नहीं तो कभी ठीक रास्ता मिलेगा नहीं। ठीक रास्ता मिलने का एक ही उपाय है कि सब रास्तों पर भटक लो। जो-जो गलत हैं, वह जान लोगे कि गलत हैं, तभी ठीक को पहचान सकोगे।
मेरे पास जो लोग आते हैं, उनसे मैं पूछता हूं कि और कहां-कहां गए? उनसे मैं कहता हूं, पहले और जगह हो आओ, और द्वार-दरवाजे खटका आओ, क्योंकि सही द्वार को पहचानने के लिए बहुत गलत द्वार पहचान लेने जरूरी हैं। नहीं तो पहचान ही न सकोगे। मूल्य भी न समझ पाओगे। मैं जो कह रहा हूं, वह तुम्हारी श्रद्धा न बन पाएगी। तुम बहुत जगह धोखा खाओ, डरो मत। धोखा खाना इस जीवन की अनिवार्य प्रक्रिया है। तुम बहुत जगह मिथ्या के जाल में उलझो, घबड़ाना क्या है! अरे, मिथ्या मिथ्या है, जाल कितनी देर चलेगा? आज टूटेगा, नहीं तो कल टूटेगा, नहीं तो परसों टूटेगा। और जब भी तुम मिथ्या के बाहर आओगे, तुम ज्यादा प्रौढ़, ज्यादा बुद्धिमान, ज्यादा कुशल, जीवन की परख को ले कर आओगे। जो लोग मेरे पास बहुत जगह भटक कर आते हैं, उनके आने का रंग और ढंग और होता है! जो लोग पहली दफा सीधे आजाते हैं, उनके आने का ढंग बड़ा साधारण होता है, रंग बड़ा कच्चा होता है। मेरा भी यह अनुभव है कि जीवन एक अवसर है, जिस में तुम दूर-दूर तक भटको, कोई हर्जा नहीं, हमेशा लौट सकते हो सही राह पर। मगर सही की पहचान गलत की पहचान के बिना होती नहीं।
कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं, असार को असार जान लेना सार को जानने का एकमात्र उपाय है। गलत गलत है, ऐसा पहचान लेना सही को पहचानने की कसौटी है।
चलु मोरे मनुवां हरि के धाम। सदा सरूप तहं उठत नाम।।
वहां तो सदा ओंकार का नाद हो रहा है। वहां तो सदा वसंत है। वहां तो एक ही ऋतु है, वसंत, वहां दूसरी ऋतु नहीं। वहां तो उत्सव ही उत्सव है।
गोरख, दत्त, गए सुकदेव। ...
अनेक संतों के नाम वे गिनाते हैं। मगर छोटे-छोटे भेद के साथ। और वे भेद महत्त्वपूर्ण हैं। समझने जैसे हैं।
गोरख, दत्त, गए सुकदेव। ...
गोरख के लिए, दत्त के लिए, सुकदेव के लिए शब्द प्रयोग किया..‘गए।’ गोरख महायोगी थे। उनके नाम से ही तो गोरखधंधा शब्द चला। उन्होंने इतनी प्रक्रियाएं साधीं, इतने जटिल साधन किए और इतनी पद्धतियां खोजीं कि साधारण आदमी उलझ जाए। सुलझना तो दूर, उलझ जाए। सो गोरख के नाम पर शब्द ही चल पड़ा: गोरखधंधा। कोई आदमी उलझा हो तो हम उसको कहते हैं: क्या गोरखधंधे में उलझे हो? हमें याद भी नहीं कि हमने अनजाने ही एक महापुरुष का नाम ले लिया..गोरख। और सब तरह से तो गोरख भूल ही गए, बस एक गोरखधंधा शब्द में बचे हैं।
मगर शब्द बना तो अकारण नहीं बना। गोरख ने इतनी विधियां खोजीं, जितनी भारत में किसी और ने कभी नहीं खोजीं। बड़े वैज्ञानिक हैं। और बड़े सतत श्रम से पहुंचे। इसलिए शब्द उपयोग किया..‘गए।’ चेष्टा से! श्रम से!
...तुलसी, सूर, भए जैदेव।।
तुलसी, सूर और जैदेव गए नहीं, भए। ये गा-गा कर हो गए। ये तो गुण गा कर हो गए। ये गए नहीं, ये हो ही गए। यह होना और गोरख के होने में फर्क है। यह होना सुगम है। इसमें विधि-विधान नहीं है; इसमें बहुत योग, तपश्चर्या, साधना नहीं है। जयदेव, तुलसी, सूर तो गीत गा-गा कर, उसकी प्रशंसा के गीत गा-गा कर डूब गए।
वही हो गए, जिसके गीत गाते थे, वही हो गए। गाते-गाते हो गए।
नामदेव, रैदास दास। ...
नामदेव और रैदास ने दास्य-भाव की साधना की। समर्पण किया। जैसे गोरख ने साधना की..संकल्प..वैसे नामदेव और रैदास ने समर्पण किया। सब उसी पर छोड़ दिया कि जो तेरी मर्जी! अपने हाथ में कुछ भी न रखा। हम कुछ करेंगे, हम कहीं जाएंगे, हम पहुंचेंगे, यह बात ही न रखी। कहा, हमारी क्या बिसात! सब उसके चरणों में छोड़ दिया।
नामदेव, रैदास दास। वहं दास कबीर कै पुजलि आस।।
और कबीर भी उसीशंृखला में आते हैं..परम दासों की। इसलिए बार-बार कहते हैं कबीर अपने को: ‘दास कबीर!’ बड़े रस से कहते हैं, बड़े आनंद से कहते हैं! दुनिया में दास शब्द के लिए ऐसा आदर कहीं भी नहीं है। क्योंकि दुनिया ‘दास’ का राज ही नहीं समझी।
मेरे पास पृथ्वी के सभी देशों से आए हुए संन्यासी हैं। जब मैं उनको नाम देता हूं तो कभी-कभी किसी को ऐसा नाम भी दे देता हूं जिसमें ‘दास’ होता है। उनको समझाता हूं कि दास का अर्थ होता है: स्लेव, गुलाम, सरवेंट। अब और क्या करो? दास जैसे प्यारे शब्द के लिए और कोई शब्द नहीं है अंग्रेजी में। वे सुन तो लेते हैं, फिर मुझे पत्र लिखते हैं कि यह आपने हमें कैसा नाम दिया! गुलाम, सरवेंट, स्लेव। इस संबंध में बड़ी बेचैनी होती है। कोई अच्छा सा नाम नहीं दे सकते आप हमें? अब ‘दास’ से अच्छा नाम कुछ हो नहीं सकता। बहुत मुश्किल है इससे अच्छा नाम पाना। लेकिन दुनिया की किसी भाषा में इस शब्द का अनुवाद करना कठिन है। क्योंकि दुनिया की भाषा में केवल हम उन्हीं को दास कहते हैं, भौतिक अर्थो में जो गुलाम हैं। और गुलामी कोई अच्छी बात तो नहीं! तो उनको अखरे, यह आश्चर्य की बात नहीं है, स्वाभाविक है। पश्चिम में तो दास का मतलब ही यह हुआ कि आप भी क्या बात कर रहे हैं! दास-प्रथा कब की बंद हो गई और अभी आप दास शब्द दे रहे हैं! इससे बड़ी चोट लगती है।
उनको दास की गरिमा का पता नहीं। दास अगर जबरदस्ती बनाए जाओ, तो एक बात है, और अगर दास अपने हाथ से बन जाओ, तो बिल्कुल और बात है! जबदस्ती बनाए जाओ, तो अपमानजनक है, और अपने हाथ से बन जाओ, स्वेच्छा से तो इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं।
वहं दास कबीर कै पुजलि आस।।
और जो दास हुआ, उसकी आशा सदा पूरी हो गई है। चाहे संकल्प वाला पहुंचा हो, न पहुंचा हो...क्योंकि संकल्प का रास्ता तो तलवार की धार की तरह है। पहुंचने की संभावना कम, गिरने की, कट मरने की ज्यादा। वह तो ऐसा है जैसे कोई नट रस्सी पर चले। पहुंच जाए, इसकी संभावना कम, गिर जाए, इसकी संभावना ज्यादा। संकल्प में खतरा है। खतरा है अहंकार का। वह गड्ढा है। संकल्प अगर रस्सी है, तो उसी के नीचे खाई है अहंकार की। जो संकल्प करेगा, उसकी अस्मिता बढ़ेगी कि मैं कुछ कर रहा हूं; कि देखो, मैंने इतनी साधना की, इतनी तपश्चर्या की, इतना योग, इतने व्रत-नियम-उपवास। खतरा है कि कहीं ‘मैं’ मजबूत न हो जाए। संकल्प के साधक को स्मरण रखना पड़ता है कि संकल्प तो सघन हो, लेकिन ‘मैं’ मजबूत न हो जाए। संकल्प कहीं भूल से भी ‘मैं’ को भोजन न देने लगे। नहीं तो पहुंचने का रास्ता भटकने का रास्ता हो जाएगा। जिस सीढ़ी से सोचा था पहुंचेंगे, वह सीढ़ी गिराने का कारण हो जाएगी। ...लेकिन दास को कोई खतरा नहीं है। क्योंकि दास तो पहले ही चरण में अहंकार को समर्पित कर देता है। संकल्प के मार्ग पर अहंकार अंतिम चीज है जिसको छोड़ना पड़ता है, और समर्पण के मार्ग पर अहंकार पहली चीज है। सब बीमारी पहले ही छोड़ दी जाती है, फिर खतरा है ही नहीं। इसलिए दास का रास्ता तो बड़ा मधुर है। उसकी आशा तो निरंतर पूरी होने वाली है। इसलिए गुलाल ठीक कहते हैं..
वहं दास कबीर कै पुजलि आस।।
जो भी वहां दास होकर गया, उसकी आशा पूरी हुई, सदा पूरी हुई।
रामानंद वहां लिय निवास। ...
रामानंद ने वहां निवास कर लिया है। वे प्रभु के भीतर प्रविष्ट हो गए हैं। उन्होंने प्रभु को घर बना लिया है। प्रभु उनका मंदिर हो गए हैं।
रामानंद भक्त हैं। भक्त तो भगवान के हृदय में प्रविष्ट हो जाता है। भक्त तो तीर की तरह भगवान के हृदय में प्रविष्ट हो जाता है। भक्त और भगवान के बीच जरा भी फासला नहीं बचता। इसलिए ‘निवास’ शब्द का उपयोग किया है, कि ‘रामानंद वहां लिय निवास।’
...धना, सेन, वहं कृस्नदास।।
इसी तरह वहां धन्ना भगत पहुंचा, सेना नाई पहुंचा, कृष्णदास पहुंचे। भक्त होकर, प्रेम में लिप्त होकर। डूब कर।
चतुरभुज, नानक, संतन गनी। ...
चतुर्भुज, नानक और न मालूम कितने संत, वे कैसे पहुंचे हैं? उनके पहुंचने का रास्ता वही है..‘दास मलूका सहज बनी’, जैसे मलूक दास की सहज बनी, कुछ किया न धरा, कुछ किया ही नहीं, न संकल्प, न समर्पण...दास मलूका अद्भभुत हैं। दास मलूका बेजोड़ हैं। दास मलूका तो कहते हैं कि समर्पण किया, उसमें भी करना आ जाएगा न। और करना जहां आगया, वहां संकल्प आगया। दास मलूका की पकड़ बड़ी गहरी है। इसलिए वे तो कहते हैं:
अजगर करै न चाकरी, पंछी करैं न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
वह तो हैं ही, समर्पण क्या करना है! उनका ही है सब! उन्हीं का उन्हीं को देने चले, कुछ तो शरम खाओ! दास मलूका कहते हैं: कुछ तो लजाओ! उन्हीं का उन्हीं को देने चले! उन्हीं का है ही, बात खतम हो गई! देना-लेना क्या है?
एक है, संकल्प करता है। दूसरा उसके विपरीत समर्पण करता है। मलूकदास कहते हैं कि हम हैं ही कहां जो कुछ करें, वही है। इसलिए कहते हैं..
अजगर करै न चाकरी, पंछी करैं न काम।
दास मलूका कह गए, सब के दाता राम।।
वही मालिक है। करने-धरने की बात ही मत उठाओ! तो दास मलूका तो चादर ओढ़ कर पड़े रहे। ऐसे पाया उन्होंने जैसा किसी ने कभी नहीं पाया। सहज। दास मलूका कहते हैं परमात्मा पाया ही हुआ है, तुम भ्रांति में पड़े हुए हो कि छोड़ दिया, कि खो गए, कि भूल गए, कि भटक गए। न तुम कहीं दूर गए हो, न जा सकते हो..चाहो तो भी नहीं जा सकते। उससे दूर जाने का कोई उपाय ही नहीं। उससे अलग होने की कोई व्यवस्था ही नहीं है। इसलिए एक होने की व्यर्थ बकवास न उठाओ! ये कसमें मत खाओ कि मैं एक होकर रहूंगा। ये कसमें बताती हैं कि तुम अभी भ्रांति में पड़े हो कि अलग हो गए हो। यह मत कहो कि सब उसके चरणों में छोड़ता हूं। इसका तो मतलब यह हुआ कि तुम मानते हो कि तुम्हारा है और छोड़ रहे हो। बड़ी कृपा कर रहे हो उस पर।
दास मलूका बहुत अद्भभुत हैं! ‘दास मलूका सहज बनी!’ कुछ नहीं किया..
न संकल्प, न समर्पण ..बात बन गई।
यारीदास वहं केसोदास। ...
यारी भी वहां हैं, केसोदास भी वहां हैं। ये सब ऐसे ही गए हैं, जैसे मलूकदास गए। ...सतगुरु बुल्ला चरनपास।।
गुलाल के सतगुरु हैं: बुल्ला। तो अंततः उनको स्मरण करते हैं, वे कहते हैं: सतगुरु बुल्ला चरनपास। सतगुरु बुल्ला परमात्मा के चरणों के निकटतम हैं। भक्त कहीं और नहीं होना चाहता, बस चरणों के पास होना चाहता है। चरण पा लिए तो सब पा लिया। और कुछ पाने को क्या बच रहा! चरणों में सिर लग गया तो सब मिल गया। गुलाल कहते हैं कि मेरे सतगुरु हैं बुल्ला, उनको मैंने सबसे ज्यादा उनके चरणों के पास पाया गुलाल बुल्ला के चरण पकड़ लिए। बुल्ला परमात्मा के चरण पकडे हुए हैं। इस तरह परोक्ष रूप से गुलाल के, हाथों में भी परमात्मा के चरण आगए। वही ऊर्जा प्रवाहित होने लगी। वही लहर-लहर ज्योति।
कह गुलाल का कहौं बनाय। ....
गुलाल कहते हैं, कैसे कहूं, किस तरह बात को बनाऊं? बनती नहीं; बनाता हूं, बिगड़-बिगड़ जाती है; कहना चाहता हूं, कह नहीं पाता। ‘कह गुलाल का कहौं बनाय’, ...किस तरह बना कर कहूं कि तुम्हें समझ में आजाए?
...संत चरनरज सिर समाय।।
बस, इतना ही कह सकता हूं कि अगर कहीं कोई संत मिल जाए, तो उसके चरणरज में अपने सिर को समा जाने देना। बस, इतना पर्याप्त है। इतना तुमसे हो सके, तो सब हो जाएगा। झरत दसहुं दिस मोती! मोती झरने लगेंगे।
संत के चरण तुम पकड़ लो, संत परमात्मा के चरण पकड़े हुए हैं, तुमने अनजाने परमात्मा के चरण ही पकड़ लिए। धीरे-धीरे संत तो खो जाएगा, परमात्मा के चरण ही तुम्हारे हाथ में आजाएंगे। संत का अस्तित्व दोहरा है। हम जैसा है एक तरह और एक तरफ से परमात्मा जैसा है। दृश्य है, हड्डी-मांस-मज्जा का, जैसे हम, और दूसरी तरफ अदृश्य, अलख, अगोचर। परमात्मा तो हमें दिखाई पड़ता नहीं, उसे पकड़ना भी चाहें तो कहां पकड़ें! लेकिन संत हमें दिखाई पड़ सकते हैं। संत परमात्मा के प्रकट रूप हैं। इसलिए संतों को हमने अवतार कहा है। अवतार का कुछ और अर्थ नहीं होता।
और ये गलतियां छोड़ देना कि केवल दस अवतार होते हैं, कि केवल चैबीस अवतार होते हैं। जहां भी किसी के भीतर का दीया जलता है, वहीं परमात्मा अवतरित होता है। अनंत अवतार होते हैं। अनंत अवतार हुए हैं, अनंत होते रहेंगे। यह भी हमारी कंजूसी है..हमारी कंजूसी भी हद की है। हम परमात्मा तक को भी फैलने नहीं देते, उसको भी सिकोड़ते हैं।
मुसलमानों से पूछो तो वे कहते हैं: बस, एक पैगंबर है। एक अल्लाह और एक उसका पैगंबर। दो पैगंबर हो जाएं, तुम्हें कुछ अड़चन होगी! दो पैगंबर हो जाएं तो मुसलमान को अड़चन होती है; कि फिर किस की मानें? उसके सब भीतर के संदेह खड़े होने लगते हैं, वह घबड़ाने लगता है। उसको अड़चन होती है कि फिर हमारे पैगंबर आधे ही रह गए, क्योंकि दूसरा पैगंबर हो गया। जैसे कि पैगंबर होना कोई धन है! कि दो हो गए तो बंट जाएगा! कि तीन हो गए तो और बंट गया! और दस-पचास हो गए, तो पूंजी सब खत्म ही हो गई! कौड़ी हाथ रह जाएगी। एक ही रहे तो सारी संपदा उसके पास है। पागल हुए हो! परमात्मा की संपदा कुछ ऐसी है जो बंट जाए!
ईसाइयों से पूछो तो वे कहते हैं: एक ही बेटा है परमात्मा का, इकलौता बेटा! यह भी खूब रही! फिर क्या हुआ? फिर कोई संतति-निग्रह करवा लिया परमात्मा ने? एक बेटे के बाद..और वैसे भी संतति-निग्रह दो के बाद का नियम है, एक के बाद नहीं। कम से कम दो की आज्ञा तो है संतति-निग्रह में। ये एक पर रुक गए! क्या अड़चन आ गई फिर? क्या बहुत निराश हो गए जीसस से? कि खोपड़ी ठोंक ली कि अब बहुत है, एक ही बहुत है, कि अब ऐसी भूल दुबारा न करेंगे!
इस पर ईसाई बहुत जोर देते हैं: इकलौता बेटा! क्योंकि डर है कि कहीं और दावा न कर दे कोई! क्योंकि बहुत बेटे अगर परमात्मा के हों, तो परमात्मा की संपत्ति बंट जाएगी। अदालत में मुकदमे चल जाएंगे। और संपत्ति बंट गई तो ईसाइयों के हाथ में कम पड़ेगी फिर, और लोग ले जाएंगे, अभी पूरी की पूरी पर कब्जा है।
ऐसे सब दावेदार हैं।
इधर हिंदू हैं, वे कहते हैं, दस अवतार हैं। पहले हिंदू दस अवतार कहते थे, फिर धीरे-धीरे हिम्मत बढ़ाई, उन्होंने चैबीस किए। वह भी कारण पड़ा, करना पड़ा। क्योंकि जैनों ने कहा, चैबीस तीर्थंकर; और बौद्धों ने कहा, चैबीस बुद्ध; तो हिंदुओं ने कहा कि हम क्या इन से पीछे रह जाएं! आगे निकले जा रहे हैं! हमारे दस, इनके चैबीस! उन्होंने भी फौरन चैबीस कर दिए, कि चैबीस अवतार!
मगर अगर किसी जैन से कहो, पच्चीसवां तीर्थंकर, तो एकदम नाराज हो जाए। पच्चीस तो होते ही नहीं, बस, चैबीस ही होते हैं। चैबीस पर क्या अड़चन आजाती है? चैबीस पर क्यों अटक जाता है मामला? चैबीस की संख्या में ऐसा क्या है? क्या परमात्मा को इसके आगे आंकड़े नहीं आते? मामला क्या है? जैसे देहात में होता है न, आदमी दस तक गिनती करता है, फिर एक से शुरू करता है। क्योंकि दस अंगुलियां हैं, सो एक से दस तक गिनता है। मगर परमात्मा का क्या मामला है? चैबीस अंगुलियां हैं! कि बस, चैबीस तक गिनती कर ली, फिर एक से शुरू!
ये हमारी कंजूसियां हैं। परमात्मा का इनसे कुछ लेना-देना नहीं। मैं तुम से कहता हूं: अनंत उसके अवतार हुए हैं, अनंत उसके तीर्थंकर, अनंत उसके पैगंबर। और बेटे तो सभी उसके हैं। जो जान लेता है कि मैं उसका बेटा हूं, वह तीर्थंकर हो गया, पैगंबर हो गया, अवतार हो गया। जो नहीं जानता..है तो बेटा उसी का, नहीं जानता लेकिन..वह अभी तीर्थंकर नहीं है, अवतार नहीं है। मगर जिस दिन जान ले..अभी जान ले, अभी पहचान ले, जरा टटोल ले भीतर, ‘अपने मांहि टटोल’, तो अभी तीर्थंकर हो जाए, अभी पैगंबर हो जाए, अभी अवतार हो जाए।
अवतार शब्द बड़ा प्यारा है। इसका अर्थ होता है: अवतरित होना: ऊपर से नीचे उतरना। न तो तीर्थंकर शब्द में वह खूबी है, न पैगंबर शब्द में वह खूबी है जो अवतार में है। पैगंबर का अर्थ होता है: उसका संदेश लाने वाला। अब संदेश लाने वाला कोई भी हो सकता है। डाकिया को कुछ खास होने की जरूरत नहीं, चिट्ठी ले आए, बस! खाकी वर्दी पहन कर चिट्ठी लेकर आजाए। डाकिया होने के लिए कोई और गुण थोड़े ही चाहिए, इतना ही काफी है कि बीच में चिट्ठी हजम न कर जाए, कि किसी की चिट्ठी किसी और को न दे जाए, कि खुद ही चिट्ठी निकाल कर खोल कर पढ़ने न बैठ जाए, बस ऐसे थोड़े से गुण चाहिए। पैगंबर होनें में कुछ खास बड़ा अर्थ नहीं है। तीर्थंकर का अर्थ होता है: ऐसे व्यक्ति, जिसके द्वारा तीर्थ का निर्माण होता है। तीर्थ कहते हैं घाट को। जिस घाट से नाव छूट सकती है, उस पार जा सकती है। चलो, ठीक है, कोई खास बात नहीं! लेकिन अवतार शब्द तो बड़ा ही बहुमूल्य है। इसका अर्थ होता है: परमात्मा का उतरना। तुम जब भीतर तैयार हो जाते हो..संत चरनरज सिर समाय..जब तुम किसी संत के चरणों में अपने सिर को मिटा देते हो, जब तुम शून्य हो जाते हो, तब तुम्हारे भीतर अवतरण होता है। परमात्मा उतरता है। जैसे आकाश से किरणें उतरती हैं। जैसे चांद से रोशनी उतरती है। जैसे तारों से अमृत झरता है। ऐसे तुम्हारे भीतर परमात्मा उतरता है। झरत दसहुं दिस मोती!
गुलाल ठीक कहते हैं। कह गुलाल का कहौं बनाय। कैसे कहूं! बात सीधी है, साफ है, सरल है, फिर भी कहने में नहीं आती, शब्दों से छूट-छूट जाती है। बात सिर्प इतनी सी है: ‘संत चरनरज सिर समाय।’

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें