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सोमवार, 3 दिसंबर 2018

संबोधि के क्षण-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छट्ठवां 

मेरा अंतर-सहयोग का सत्य

प्रश्न--अस्पष्ट है।
ओशो--तो हो सकता है, उस काल के एक खंड को देखा है उसने, इस लिए इतिहास लिख सकता है। हमारी काल की अनुभूति भी लंबी है। यह हो सकता है कि हमने काल को इतनी लंबाई पर देखा। जैसे समझें कि कुछ कीड़े हैं, जो वर्षा में ही पैदा होते हैं, और वर्षा में ही मर जाते हैं। उन्होंने न सर्दी देखी, न गर्मी। अगर तीनों कालों को देखनेवाला कोई कीड़ा या पक्षी उनसे कहे कि तुम घबराओ मत, वर्षा फिर आएगी, तो कीड़े कहेंगे, वर्षा को तो फिर कभी आते देखा नहीं, सुना नहीं, मां-बाप ने कभी कहा नहीं, हमारे पुराण में लिखा नहीं कि वर्षा फिर कभी आती है। आएगी तो भी कभी नहीं। आती है, और गयी तो गयी। कभी नहीं आती, क्योंकि वे कीड़े वर्षा में ही पैदा होते हैं और वर्षा में ही मर जाते हैं। उन्हें काल के दो और खंड हैं--और उन्हें यह खयाल में भी नहीं आता कि वर्षा एक घूमता हुआ जो काल-खंड है, थिर लौट आएगी। उसके साथ सब कीड़े भी लौट जाएंगे, और उसके साथ सब कीड़े भी विदा हो जाएंगे।

पर कीड़ा जो वर्षा में ही जीया है, यह बहुत कठिन है, यह बात। जो तीनों काल में जीया हो, उसके लिए यह मानना बड़ा मुश्किल होगा कि यह वर्षा फिर नहीं आएगी। उसने हजार बार इसे आते देखा है। यह भी मैं नहीं
कहता हूं अभी। यानी इन धारणाओं में पूरब ने इतनी बड़ी घटनाएं देखीं, और वह ऐसी जगह से गुजरा, और
फिर-फिर उसे लगा कि लौटना हो गया। उसने समय की बड़ी विस्तीर्ण धारणा बनायी, और अगर विस्तीर्ण बनाएंगे तो वर्तुल हो जाएगी, अगर छोटा सा बनाएंगे, तो स्ट्रेट लाइन छोटी ही हो सकती है।
यूक्लिड ने जब स्ट्रेट लाइन की बात ज्यामेट्री में कही, तो उसको खयाल नहीं था कि दो बिंदुओं को जोड़नेवाली निकटतम सीधी लाइन हो सकती है। दो बिंदु जोड़ें, तो सीधी लाइन हो जाती है। निकटतम मार्ग से जुड़ गए, तो सीधी लाइन हो जाती है। फिर अभी पचास वर्ष पहले जब नानयुक्लिडियन विचारक पैदा हुए, तो उन्होंने कहा, कोई सीधी लाइन है ही नहीं। क्योंकि सब सीधी लाइने गोल पृथ्वी पर खींचनी हों, तो वे सब किसी बड़े गोल खंड के टुकड़े हैं। इसलिए सीधी लाइन बिलकुल झूठी चीज है। बड़े वर्तुल के खंड हैं। और इतना बड़ा है वर्तुल, इसमें दिखाई नहीं पड़ता। पृथ्वी का वर्तुल तो बहुत बड़ा नहीं है, समय का वर्तुल और बड़ा होता है। कल्प-महाकल्प की जो धारणा है वह और भी बड़ा वर्तुल है।
होता क्या है? हमारी धारणाओं पर निर्भर करता है। आज से कोई हजार साल पहले, तारे हमारे, वह बिलकुल घर की चांदनी थे। वहां स्पेस की धारण बड़ी छोटी थी। सूरज बहुत आगे था, चांद और आगे था, तारे बहुत ही आगे थे; क्योंकि जो छोटा था, वह पास था, जो बड़ा था वह दूर था, जो और बड़ा था और दूर था। तो, अगर हम हजार साल पीछे लौटे तो जिन लोगों ने दुनिया का नक्शा खींचा था, उसमें पृथ्वी सेंटर थी। चांद तारे, सब तारे उसका चक्कर लगा रहे थे। एक छोटा सा घर था, अर्थ सेंट्रेड था वह, और स्पेस कोई लंबी न थी, और आकाश सब कुछ था, जो एन्क्लोज करना था। आकाश की धारणा वह थी, जो चारों ओर से हमें ढांके हुए था। ढक्कन की तरह है कि जैसे उल्टा बर्तन पृथ्वी पर ढंका हो, ऐसा आकाश ढंका है। और दिखता भी है चारों तरफ से जमीन को छूते हुए, उल्टे बर्तन की तरह। ऐसी छोटी सी धारणा है। फिर जैसे ही हमारी समझ तारों के विषय में बढ़ तो सारी धारणा बदल गयी। और ऐसी विस्तीर्ण धारणा आयी कि तब आकाश का अर्थ वह नहीं जो घेरता है, तब आकाश का अर्थ हो गया कि वह, जो है, जिसमें सब समा जाते हैं। जब फिर वह और है वह फैलता ही चला जाता है। आकाश की एक अंतहीन धारणा हमारे खयाल में आयी। समय की अंतहीन धारणा अभी भी पश्चिम की समझ में नहीं आयी है। अभी भी समय के मामले में पश्चिम थोड़ा छोटा टुकड़ा लेकर जी रहा है।
प्रश्न--इसका कारण क्या यह नहीं हो सकता कि समय को साक्षीभाव से पश्चिम नहीं देख सका?
ओशो--साक्षीभाव से तो पश्चिम किसी चीज को नहीं देख सका। साक्षीभाव देखने पर न समय बचता है, न आकाश बचता है। यानी समय और आकाश को साक्षीभाव से देखा भी नहीं जा सकता। पश्चिम ने तो देखा ही नहीं है साक्षीभाव से टाइमस्पेस को। साक्षीभाव से देखे जाने पर वह बचता ही नहीं। जिन्होंने साक्षीभाव से देखा है, उन्हें वह माया हो गया है तत्काल, न हो गया है। उसे वह इनकार कर गया। क्योंकि साक्षीभाव से न देखिए, तो साक्षी भर नहीं बचता और सब हो जाता है। साक्षीभाव से देखने से साक्षी ही बचता है और खो जाता है। और साक्षीभाव से न देखिए, तो साक्षी भर नहीं बचता और सब हो जाता है। वह तो अगर हम ठीक से समझें तो बिकमिंग और बीइंग के बीच है साक्षी। सेतु है साक्षीभाव का। अगर साक्षीभाव पर जोर दिया, तो बाइंग बचेगा और बीमकिंग खो जाएगा। एकदम निषेध हो जाएगा बिकमिंग का। अगर साक्षीभाव छूटा, तो बिकमिंग बचेगी, और बीइंग का कोई पता नहीं चलेगा कि वह है भी या नहीं। और दो में से एक ही साथ बचता है, दोनों एक साथ बचते नहीं। और साक्षीभाव में जो हमारा कांशसनेस का सेंटर है, वह बदल जाता है।
जब तक मैं अपने को नहीं जानता हूं, तब तक आप मेरी चेतना के केंद्र हैं। क्योंकि मैं तो हूं नहीं। आपका मुझे पता नहीं है, तो आप मेरे केंद्र बनते हैं--आप आप, कोई मेरा केंद्र बने तो ही मैं जी पाता हूं। नहीं तो जीऊंगा कैसे? यानी दी अदर है, वह महत्वपूर्ण है; क्योंकि मैं तो हूं नहीं। मुझे कोई काम मिले तो जी सकता हूं, विचार मिले तो जी सकता हूं, सपना देखूं तो जी सकता हूं, मित्र हों, दुश्मन हों, तो जी सकता हूं। तू चाहिए मुझे हर हालत में। अगर तू ही है, तो मैं गया; क्योंकि मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। मैं हूं ही नहीं। हम कहते हैं बहुत मैं, निरंतर दिन-रात, लेकिन सत्य है हमारे लिए "तू'। और जो हम इतना जोर से "मैं' "मैं' बार-बार कहते हैं, उसका भी कारण यही है कि "तू' सत्य मालूम पड़ता है। और मन कहता है कि "मैं' सत्य होऊं।
मन कहता है कि "मैं' सत्य होऊं। तो, हम इसलिए "तू' को निरंतर इनकार करते हैं, और "मैं' की घोषणा करते रहते हैं। लेकिन "तू' के बिना हम एक मिनट जी नहीं सकते। अगर कोई, जिसको मैं प्रेम कर सकूं, नहीं है, तो मेरा प्रेम गया। क्योंकि वह सदा तू पर निर्भर है। और क्रोध भी। मैं नहीं कर सकता हूं, अगर "तू' न हो। तो जीने का उपाय नहीं छूटता है, अगर "तू' नहीं। और हमारी चेतना "तू' पर खंडित होकर बंट जाती है। थोड़ी सी चेतना मेरे उस मित्र पर भी है मेरी, जो मेरा मित्र बनकर एक "तू' बना है; और थोड़ी उस दुश्मन पर भी है, जो एक दुश्मन बनकर मेरा "तू' बन गया है। और इस तरह मेरी चेतना खंडित, बंट गयी। और मैं तो हूं नहीं। इन्हीं सबका जोड़ मैं हूं।
इन्हीं सबने जो कहा है, इन्हीं सबने जो बनाया है, इन्हीं सबने जो माना है, उन सबको जोड़कर मेरी यह तस्वीर है जो मैं हूं। इसको मैं इगो कहता हूं। "तू' के आधार पर बनी हुई जो मेरी दृष्टि, धारणा है, मेरे बाबत, वह ईगो है, यानी ईगो "तू' की आंखों में झांका गया रिफ्लेशन है। उसे भी इकट्ठा मैंने कर लिया है, बुरा-भला जैसा भी है। वह हजार तरह से है, जो हजार आंखों से इकट्ठा किया हुआ है। उसमें अच्छा भी है, बुरा भी है। बड़ा भी है छोटा भी है। क्रोध भी हूं, प्रेम भी हूं, सब हूं उसमें मैं। और वह इकट्ठा करके उसके पकड़े हुए हूं; क्योंकि वह मेरे लिए है।
और जैसे ही मैं साक्षी बनूं, तो एकदम से ट्रांसफार्मेशन होता है चेतना के बिंदु पर कि जब मैं साक्षी बनता हूं, तो मैं केंद्र बन जाता है, तू परिधि पर हो जाता है। और जैसे-जैसे मैं उभरने लगता है, वैसे-वैसे तू विदा होने लगता है। क्योंकि जैसे-जैसे तू उभरता था, मैं विदा होता था। वह ऐसा ही है, जैसे कि हम पानी को भाप बनाए। जैसे-जैसे पानी भाप बनने लगा, तो पानी विदा होने लगा। और भाप को पानी बनाए, तो भाप विदा होने लगेगी। चेतना उस छोर से चलती है, तो तू बन जाता है, और मैं मिट जाता है। और चेतना इधर लौट आती है, तो उधर तू खाली छूट जाता है, और मैं बन जाता है।
इसलिए जिन्होंने भी साक्षी का प्रयोग किया उन्होंने कहा, मैं ही हूं अहं ब्रह्मास्मि। तू है ही नहीं। तू बिलकुल झूठ है। और फिर तू के जितने रूप हैं, सब वह निषेध कर गए। इस निषेध को माया कहता हूं। मैं यह जो निषेध है साक्षी की तरफ से किया गया, जो यह कह रहा है कि और कुछ भी नहीं है, बस मैं ही हूं, ब्रह्म मैं ही हूं। और ब्रह्म का इसलिए तू अर्थ नहीं होता है। ब्रह्म का भी मैं का ही अर्थ है, अहं ब्रह्मास्मि। वह यह नहीं कहता कि तुम ब्रह्म हो। तुम तो हो ही नहीं। तुम्हारा तो होना ही नहीं है, मैं हूं और मैं ब्रह्म हूं।
तो जगत माया हो जाता है तो उसमें से यथार्थ छिन जाता है। सच बात यह है कि और बड़े मजे की बात है कि चीज पर हम चेतना को केंद्रित करते हैं, वहीं यथार्थ पैदा होता है। मेरी दृष्टि में यथार्थ जो है, वह कंसेंट्रेटेड अटेंशन है। जिस चीज को भी हम पूरी एकाग्रता से ध्यान में। लेते हैं, वह हो जाती है यथार्थ। यथार्थता जो है, वह हम देते हैं उसको। और हम अपना ध्यान खींच लेते हैं, तो अयथार्थ हो जाते हैं। उसका होना जो है, एकदम तीखात्तीखा तो जब मैं आपको गौर से देखता हूं, तो मैं आपको यथार्थकर रहा हूं। यानी यथार्थ का मेरा मतलब यही है कि जब कोई ध्यान से आपको देखता है, और इसलिए हमारे मन में ध्यान से देखे जाने की बड़ी आकांक्षा है। और कोई कारण नहीं है। कोई हमें ध्यान से देखे! और जितनी आंखें हमें ध्यान से देखें, उतने हम रियल मालूम पड़ते हैं कि मैं भी हूं। कोई देखे और किसी की आंख जुड़ जाए मुझ पर, तो ही मुझे भी लगता है कि मैं हूं, नहीं तो गया। तो नेता की, गुरु की जो दौड़ है। उसे देखने में हमको यथार्थ मिल जाता है। और जिस चीज को हम देखते हैं वही यथार्थ हो जाती है।
अभी एक व्यक्ति है अमेरिका में, जो किसी भी चीज को सोचे, तो उसके सोचने के फोटोग्राफ लिए जा सके हैं, यह पहला मौका है। अभी मैंने उसका सारा साहित्य देखा जो दंग करनेवाला है।
प्रश्न--यानी भौतिक साक्ष्य भी उपस्थित किया जा सकता है?
ओशो--बिलकुल उपस्थित हो गया है, यानी जो आदमी कार के संबंध में सोचता है, उसकी आंख पर कार का चित्र उभर आता है। आंख में भी कार दिखाई पड़ती है और कैमरे के सामने आप आंख पकड़िए, तो कैमरा भी कार पकड़ता है। और वह आदमी फिर सोचता है और ऐसी चीजें नहीं; जो उसने नहीं देखी है, वह भी। जैसे ताजमहल--और वह सोच रहा है जोर से, सोचता रहेगा और फिर आंख खोलेगा, और कैमरे में ताजमहल आ जाएगा। वह गहरे अटेंशन का प्रयोग हुआ।
यहां काशी में एक विशुद्धान शून्य--विज्ञान वाले हैं--वह किसी भी चीज को, चिड़िया उड़ रही है उसको देखेंगे। आंख बद कर लेंगे, और चिड़िया फौरन गिर जाएगी और मर जाएगी। वे उसको गौर से देखेंगे, वह चिड़िया फड़फड़ाएगी और फिर उड़ जाएगी। यह सारा का सारा खेल ध्यान का है। हम जिस चीज पर ध्यान देते हैं, वह यथार्थ होनी शुरू हो जाती है, उसे आकार मिलने लगता है। यानी सच यह है कि हम एक दूसरे को निर्मित कर रहे हैं, पूरे वक्त। जैसा कि हम ध्यान दे रहे हैं वैसा ही वह निर्मित होता चला जा रहा है।
यथार्थ मनुष्य के ध्यान की बाई प्रोडक्ट है कि जैसा ध्यान हो, वैसी चीजें बन जाती हैं, वैसा हो जाता है। तो फिर जब ध्यान चीजों पर होता है, बाहर होता है, दी अदर पर होता है, तू पर होता है, तो भीतर उसकी धारा नहीं रह जाती, बाहर जाने लगती है। और जब बाहर जाने लगती है, तो भीतर शून्य हो जाता है। क्योंकि वहां ध्यान होगा, तो वहां भी यथार्थ आ सकता है। नहीं तो वहां भी नहीं आएगा। ध्यान जहां जाएगा, वहीं यथार्थ आ जाएगा। यथार्थ का मतलब ही है दिया हुआ ध्यान, दिया गया ध्यान। वह वहां शून्य हो जाता है, इसलिए यथार्थवादी कह रहा है कि आत्मा नहीं है। कहां है आत्मा? शून्य हो गयी आत्मा। तो वह पदार्थ पर ध्यान दे रहा है। पदार्थ है।
इसलिए मेरा मानना है कि पदार्थवादी में और अध्यात्मवादी में बुनियादी भेद नहीं है, प्रक्रिया एक ही है, अध्यात्मवादी कह रहा है जगत नहीं है, और नहीं होने का दूसरा कोई कारण नहीं है। जगत उतना ही है अभी, जितना कि पदार्थवादी के लिए आत्मा है। वह उतना ही है, आकार नहीं ले पा रहा है, निराकार हो गया है। क्योंकि ध्यान जो आकार देता था, वह हट गया। और वह ध्यान अगर भीतर हो गया है केंद्रित, तो भीतर एक सत्ता उघड़ जाती है, जो थी। लेकिन ध्यान न होने से पड़ी रहती है, पड़ती रहती है अनंतकाल तक, अनंत जन्मों तक, और उसका कोई पता नहीं चलता। पता चलेगा ही कैसे? ध्यान देंगे तो पता चलेगा।
जो पोटेंशियल है, उसे एक्चुअल कर देता है ध्यान। जो अव्यक्त है, उसे व्यक्त कर देता है। और एक तरफ व्यक्त हो जाए, तो दूसरी तरफ अव्यक्त होगा; क्योंकि वहां ध्यान सिकोड़ लेना पड़ता है। और साक्षी में ध्यान सिकोड़ना पड़ता है। और उस पर लगा देना पड़ता है, जो भीतर है। तो दुनिया माया हो जाती है। जो लोग दुनिया को माया कह रहा हैं, और जो आत्माओं को इनकार कर रहे हैं, वे दोनों एक ही तरह के लोग हैं। दोनों सीक्रेट नहीं समझ पा रहे हैं। सीक्रेट केवल इतनी है कि जिस चीज पर ध्यान देते हो, वह हो जाता है, और जिस चीज पर ध्यान नहीं देते हो, वह नहीं होता है। दोनों अपत्तिजनम हैं। तो भी दोनों हैं, क्योंकि दोनों हैं। हम उसको ही उघाड़ पाते हैं, जिस पर ध्यान देते हैं। यानी अगर साक्षी होकर भी मैं उसको नष्ट कर दूं, या अपने आपको नष्ट कर दूं, तो दोनों ही भ्रामक हैं।
दोनों ही भ्रामक हैं। अधूरे हैं। आधे सत्य हैं। और इसलिए दुनिया मुश्किल में पड़ी हुई है। नास्तिक के पास भी आधा सत्य है और आस्तिक के पास भी आधा सत्य है। कहना चाहिए, एक ही चीज के दो पहलू हैं आधे-आधे। इसीलिए किसी को हरा नहीं पाते। वह हराएंगे कैसे? दोनों के पास आधा-आधा है।
प्रश्न--वह गैप और पार्टिसिपेशन जो दोनों में है, वह डिस्टर्ब पैदा कर देता है। और वह सिर्फ प्रेम, जो कि अभिव्यक्त है, सेवा के रूप में हम कहें या और किसी सृजनात्मक रूप में कहें, पार्टीसिपेशन को वही सिद्ध करता है।
ओशो--ठीक कहते हैं, ठीक कहते हैं। इसलिए ध्यान का जो दूसरा हिस्सा है, वह प्रेम है या करुणा है।  तब पूरा सत्य प्रकट होगा।
प्रश्न--लिव कर सकते हैं तब?
ओशो--लिव कैसे करेंगे? असल में पूरे न हो पाए, तो कभी नहीं लिव कर सकते। क्योंकि आधा जो विरोध में इनकार कर दिया है, वह चारों तरफ से घेरे हैं, और कारागृह बन गया है। वह कारागृह बन गया है, अब वह मुक्ति नहीं ला रहा है। गौतम बुद्ध ने बहुत अदभुत व्यवस्था की है। या तो ध्यान के प्रयोग के पहले, या बाद, किसी भी हालत में, जिसको हमने ब्रह्म-विहार कहा है--करुणा, मैत्री उसके भाव का हममें उदय होना चाहिए। क्योंकि तब, जैसा मैंने अभी कहा कि या तो तू या मैं, यह हमारा सामान्य डिवीजन है देखने का, ध्यान का। लेकिन ऐसा भी हो सकता है, तू भी और मैं भी। या ऐसा भी हो सकता है, न तू, न मैं। यह प्रेम का अनुभव होगा। प्रेम के अनुभव हम दो ढंग से कह सकते हैं। न तू, न मैं, कोई और। उसी को परमात्मा कहेंगे। परमात्मा को अगर मैं मैं से आइइंटीफाई करता हूं, तो मैं आपका निषेध कर देता हूं और अगर तू से करता हूं तो मेरा निषेध हो जाता है। मैं परमात्मा की परिभाषा करता हूं, जो मैं भी है और हूं भी है--जहां मेरा मैं और आपका तू दोनों आकर मिल गए हैं और एक हो गए हैं।
प्रश्न--तब परम हो गए हैं?
ओशो--तब वह परम हो गया है। तब उसने दोनों घेर लिए हैं। इसलिए परमात्मा में सब विरोध समाहित होंगे। यूनिटी अभी अपोजिट है।
प्रश्न--कम हो गया?
ओशो--जैसे ही यूनिटी वह दोनों कट गए। और उन दोनों की बीमारी गयी। दोनों का निषेध गया। और फिर या तो रास्ता यह है कि तू भी और मैं भी। वह भी जोड़ता है। वह एक ही बात को, विधेय और निषेध से कहने की बात है। तो अकेला ध्यान, इस तरह के वादों को जन्म देता है, जो जगत को मिथ्या कर देते हैं और जीवन को अयथार्थ कर देते हैं। और एक तरह से जीवन की जो विस्तीर्ण क्षमता है, उसको सिकोड़कर मार देते हैं। कर्म भी नुकसान पाता है। सृजन भी नुकसान पाता है--माया का क्या सृजन करना और क्या काम करना? कला--सबको घातक प्रहार होते हैं। विज्ञान तो बुरी तरह मर जाता है। यानी विज्ञान सर्वाधिक मर जाता है, क्योंकि विज्ञान तो यथार्थ है कुछ, तो ही उसकी खोज में जा सकता है। कला थोड़ी बहुत बच सकती है; क्योंकि कल वह फिक्शन में भी जाने की हिम्मत रखती है। यानी अगर हम जगत को माया भी कह दें, तो भी कलाकार को बहुत दिक्कत नहीं होती है। वह कहता है, माया भी है काफी। वह जा सकता है। इसलिए भारत जैसे मुल्कों ने, जहां साक्षी पर जोर दिया, विज्ञान तो बुरी तरह मरा, कला फिर भी बच गयी। यानी कला की, मैं मानता हूं, विज्ञान से ज्यादा गहरी गति है। इन अर्थों में कि उसे माया से भी बाधा नहीं पड़ती। वह माया में भी प्रवेश कर सकती है, वह स्वप्न को भी सत्य मान सकती है। इसलिए इतनी ही थोड़ी कल। जिंदा रह सकी। लेकिन विज्ञान तो बुरी तरह मर गया; क्योंकि विज्ञान तो शुरू ही इससे होता है कि यहां यथार्थ है। अगर माया है तो झाड़ भी कर देगी, फिर माया मैं क्या सत्य खोजना है? विज्ञान मरता है, कला मरती है। क्योंकि जो सपना बिलकुल सपने जैसा मालूम होने लगे, उसके भी प्राण निकल जाते हैं। सपने के प्राण इसमें हैं कि वह यथार्थ जैसा मालूम हो, तो ही उसका प्राण है। अगर प्रेयसी माया मालूम होने लगे, तो मर जाएगी। उसके प्राण तो निकल गए। वह है, तो सार्थकता जुड़ती है।
तो मैं बातें कर रहा हूं, वह तीसरे विकल्प की हैं। यानी मैं केवल ऐसे, न केवल साक्षी पर जोर देना चाहता हूं; क्योंकि वह एकांगी है और न अकेली करुणा पर जोर देना चाहता हूं, वह भी एकांगी है। वह तू को ध्यान में लेती है। प्रार्थना तू को ध्यान में लेती है। प्रेम भी तू को ध्यान में लेती है। ये एकांगी हैं। इसलिए किसी न किसी रूप किसी न किसी रूप में प्रज्ञा और करुणा, ध्यान और प्रेम दोनों एक ही साधना के प्रमुख हिस्से होना चाहिए कि मैं ही हो सकूं, और दूसरा मिट न जाए। बल्कि मेरे होने में दूसरे का होना भी विकसित हो। तो यहां, उस हालत में जो दो विरोधी छोर हैं, जो एक-दूसरे को मिटाकर जीते और बनते हैं, अगर ये दोनों बचें, या दोनों मिट जाए, तो जो शेष रह जाता है, वही सत्य है। इसलिए अकेला साक्षी उस सत्य तक नहीं ले जाएगा, और न अकेला विज्ञान उस सत्य तक ले जा सकता है। उस सत्य के लिए किसी न किसी रूप में धर्म और विज्ञान का गहरा ताल-मेल चाहिए। इसलिए परमात्मा की खोज सर्वाधिक कठिन है। आत्मा की खोज सरल है, और इसलिए कुछ लोग आत्मा पर रुक गए--जैसे, जैन। साक्षी पर पूरा बल दिया, आत्मा रह गयी।
प्रश्न--यानी उनका व्यवहार पक्ष पुष्ट हो गया?
ओशो--व्यवहार पक्ष तो पुष्ट हुआ। लेकिन परमात्मा तक गति नहीं हुई। गति हो गयी आत्मा की तरफ। मेरा कहना यह कि साक्षी के गहरे प्रयोग ने उन्हें आत्मा से बाहर नहीं जाने दिया। आत्मा पर्याप्त हो गयी। वह ठहर गयी वहां बाद में।
प्रश्न--मैं पार्टीसिपेशन की बात कर रहा था कि आत्मा तक ही मैं पहुंच गया, लेकिन आत्मा, आत्मा ही नहीं है, अगर वह पार्टीसिपेट नहीं करती है?
ओशो--नहीं है, नहीं है।
प्रश्न--अगर यह चीज आ जाए, तो यह जो हमारी भ्रामक स्थितियां पैदा हुई हैं मन में, वह निकल जाएंगी?
ओशो--बिलकुल नहीं निकल जाएंगी। असल में मैं हूं ही तब, जब मैं पार्टीसिपेट करता हूं।
प्रश्न--और वह भी सर्वमय भाव से सर्व भाव से नहीं, सर्वमय-भाव से?
ओशो--मैं कहूंगा, भाव लें ही न बीच में। समग्र-भाव से यानी हम चुनाव न करें कि किस भाव से पार्टीसिपेट करूं उसे। पूर्णभाव से मेरा पार्टीसिपेशन हो तो टोटल पार्टीसिपेशन हो। एक फूल को भी देखने जाऊं, तो सिर्फ देखूं ही नहीं, बाहर ही खड़ा न रह जाऊं, फूल भी हो जाऊं। यानी ऐसा न हो कि मैं फूल के बाहर खड़ा होकर देख रहा हूं, आन लुकर हूं। मैं देखते क्षण में, मैं फूल ही हो गया हूं। फूल ऐसी कोई अलग चीज नहीं रह गयी है। मैं कोई अलग नहीं रह गया हूं। उस दर्शन के क्षण में फूल और मैं एक हो गया हूं--इतने समग्र-भाव से, कर्म भी इतने ही समग्र-भाव से, उठना-बैठना भी इतने ही समग्र-भाव से, ऐसे समग्र-भाव से जो पार्टीसिपेशन होगा कि जिस गहराई तक पार्टीसिपेशन हो, उस गहराई तक हम डूब रहे हों, जितने गहरे तक, उतने ही गहरे तक हमें पता चलेगा सत्य का। अगर मैं पूरा ही डूब जाऊं, तो ही पता चलेगा पूरे का।
हिंदी के एक प्राचीन कवि का वचन है कि जो पार निकल गए, वे अभागे हैं, जो डूब गए वे धन्यभागी हैं।
प्रश्न--पार जाए तो पर है; डूब जाए तो पार--यह कबीर का वचन है।
ओशो--एक और कवि का, जिसका वचन मैंने आपको कहा। जो डूब गए वे धन्यभागी हैं। जीसस ने एक जगह कहा है कि तुमने अपने को बचाया, तो तुम मिट जाओगे। तुम अगर मिट सके, तो फिर तुम्हें कोई नहीं मिटा सकेगा।
लाओत्से का एक वचन है। एक दिन अपने शिष्य से वह कह रहा है। शिष्य ने पूछा है कि आप कभी जिंदगी में हारे कि नहीं हारे? तो लाओत्से कह रहा है कि मुझे कोई कभी नहीं हरा सका। शिष्य ने पूछा,इसका सीक्रेट इसका राज? लाओत्से ने कहा, क्योंकि मैं हारा ही हुआ था, इसलिए मुझे कभी कोई नहीं हरा सका। उसी जीत मेरी ही जीत थी। तो उससे मैंने कहा, आओ मेरी कुर्सी पर बैठ जाओ। वह समझा की जीत गए और हम थे सहयोगी, हम उसके दुश्मन थे ही नहीं। हम लड़े ही नहीं कभी, तो हम हारते कैसे? हमने उसे जीताया था। और हम नहीं हारे इतने समग्र-भाव से। लाओत्से का शिष्य पूछता है, कभी आप कहीं अपमानित हुए? कहीं बाहर निकाले गए? तो लाओत्से कहता है, कभी नहीं। क्योंकि हम सदा उस जगह बैठे, जिसके पीछे और कोई जगह नहीं बचती थी। और बड़े लोगों को हमने निकाले जाते देखा, हमारी तरफ किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। हम उस जगह बैठे थे, जहां जूते निकाले जाते थे। वहां हम बैठ गए थे। हमें कोई भगाता भी नहीं था, और हम बड़े मजे में थे। और हम बड़ों-बड़ों को मारते देखते थे, अपमानित होते देख रहे थे। और हम हंस रहे थे। जो मान खोजेगा, वह अपमानित हो जाएगा। हमने मान खोजा ही नहीं। हमने अपमान को ही मान समझ लिया पार्टीसिपेशन इतना कि अपमान को मान समझ लिया। फिर बहुत मुश्किल हो गयी।
एक जंगल से गुजर रहा है लाओत्से। जंगल में बड़े पैमाने पर दरख्त काटे जा रहे हैं। बहुत कारीगर लगे हैं और एक दरख्त नहीं है, जो बिना कटे बचा है। किसी राजा का राजमहल बन रहा है। लकड़ी काटी जा रही है। फिर भी एक वृक्ष इतना बड़ा है कि उसके नीचे एक हजार बैलगाड़ियां हैं। उस वृक्ष, की एक डाली भी नहीं काटी गयी है। तो लाओत्से ने कहा, आओ उस वृक्ष से पूछ लें कि राज क्या है? बचा कैसे? जब कि सब कटा जा रहा है। जंगल उजड़ा जा रहा है, तुम बचे कैसे? शिष्य से कहा, जाओ जरा वृक्ष से पूछो। यह वृक्ष बड़ा ज्ञानी मालूम होता है। शिष्य गए, चक्कर लगाकर आए कि वृक्ष तो कुछ बोलता नहीं। तो लाओत्से ने कहा, यह भी उसके ज्ञान का एक हिस्सा होगा। क्योंकि तुम जाकर बोले कि फंसे। लाओत्से ने कहा कि बोले कि फंसे। यह भी उसका हिस्सा होगा ज्ञान का। बड़ा होशियार है। फिर जाओ, उनसे पूछो जो दरख्तों को काट रहे हैं, दूसरे दरख्तों को, कि इस दरख्त को क्यों छोड़ दिया? शायद उनसे कुछ खबर लग जाए। क्योंकि कटने की घटना में दौ ही चीजें हैं--एक तो वृक्ष होशियार हो और दूसरे काटनेवालों ने कैसे छोड़ दिया! काटनेवाले तो कुछ न कुछ करते! शिष्य गए हैं, और जो कारीगर काट रहे हैं, दूसरे वृक्षों को, लकड़ियां चीर रहे हैं, उनसे पूछते हैं, उस वृक्ष को क्यों नहीं काटते? वे कहते हैं, वह वृक्ष बिलकुल लाओत्से जैसा है। उन्होंने पूछा, क्या मतलब? वह वृक्ष इतना टेढ़ा-मेढ़ा है कि उसकी कोई लकड़ी सीधी नहीं होगी। वे शिष्य पूछते हैं कि इसको काटकर जला तो सकते हो। इस वृक्ष को जलाने से इतना धुआं  छूटता है कि कोई उसका...तो तुम अपने गुरु से कहना कि वह वृक्ष बिलकुल लाओत्से जैसा है।
तो लौटकर शिष्य गुरु से कहते हैं कि कारीगर कहते हैं कि वृक्ष बिलकुल लाओत्से जैसा है। तो उसने कहा, वह मैं समझ ही गया। वह इतना बेकार है, वह इसलिए आखिरी जगह खड़ा हो गया है कि ज्यादातर किसी को जरूरत ही नहीं पड़ती उसकी। लेकिन देखा, वह आखिरी जगह होकर कितना फल-फूल रहा है। उसकी शाखाएं कितनी दूर तक चली गयी है। कितने लोग उसके नीचे विश्राम ले रहे हैं। अगर उसने जरा भी कोशिश की होती अच्छा बनने की, तो वह काट गया होता। जिन्होंने अच्छा बनने की कोशिश की, वे कट रहे हैं। तो लाओत्से ने कहा, ठीक कहा उन कारीगरों ने। और उनसे कह देना जब निकलें वहां से कि लाओत्से कहता था कि तुम ठीक कह रहे हो। हम भी उसी वृक्ष की तरह हैं, इसीलिए खूब बड़े हो गए हैं। कोई काटने ही नहीं आया, क्योंकि उस जगह खड़े हैं, और इतना हुआ निकलना है। और लकड़ी चीरनेवालों ने कहा, वह बिलकुल बेकार है। वह किसी काम का नहीं है।
अगर हम बहुत गौर से देखें, तो जितना गहरा पार्टीसिपेशन होगा, उतने ईगोलेस हो जाएंगे; क्योंकि ईगो ही तो पार्टीसिपेशन नहीं होने देता है। आपसे मैं नहीं जुड़ पाता हूं, क्योंकि मैं हूं। तब आपके आस-पास घूम सकता हूं, लेकिन प्रवेश नहीं होगा। प्रवेश हो तो आप भी टूटें, आप भी मैं हूं, मैं भी मैं हूं। दो मैं हैं चारों तरफ, तो पार्टींसिपेशन नहीं होगा। और दूसरे के लिए तो मैं कुछ कर नहीं सकता हूं; लेकिन मेरा मैं अगर विदा हो तो पार्टीसिपेशन हो जाता है, उसी वक्त हो जाता है। और जितना गहरा मैं चारों तरफ फैल जाऊं, यानी ऐसा न लगे कि आपकी आंख आपकी ही है, और ऐसा भी न लगे कि मेरी ही है, और  उधर से भी मैं देखता हूं। ऐसा न लगे कि आपका हाथ आपका ही है, वह मेरा ही है और सभी हाथ मेरे हाथ हैं, इतना गहरा पार्टीसिपेशन हो जाए।
लाओत्से एक गांव से गुजर रहा है। एक आदमी ने पीछे से आकर लकड़ी से उस पर चोप कर दी है, तो वह गिर पड़ा है? वह आदमी भाग गया है? उसके शिष्य कह रहे हैं, क्या करना है? जाए, उसे पकड़ें? उसने कहा, नहीं, ऐसा मत करना; क्योंकि जब उसने मुझे मारा, तब मैं बिलकुल झुक गया। उसने हमला किया, मैंने बिलकुल जगह दे दी तो हमला किया। हम दोनों उस कृत्य में सहभागी हैं। वह मारनेवाला, मैं पिटनेवाला। मैं रेसिस्टेन्स नहीं था। इसी लिए पहली कहानी से जूडो निकला।
जूडो का नियम है कि आपको घूंसा मारे, उसका घूंसा पी जाओ। जूडो मत। पूरे शरीर को ऐसा छोड़ो, जैसे पूरा शरीर घूंसा पी जाए। तुम घूंसे के साथ एक हो जाओ। जूडो के विचारक कहते हैं कि अगर एक बैलगाड़ी जा रही हो, और उसमें एक आदमी होश में बैठा हुआ हो, और एक आदमी शराब पीए बैठा हो, और बैलगाड़ी उलट गयी, तो शराब जिसने पी है, उसको चोट नहीं लगेगी, जो होश में बैठा है, उसको चोट लग जाएगी। क्योंकि शराब पीनेवाला उलटने के लिए ही राजी हो जाएगा। वह तो कुछ चोट से रेसिस्ट नहीं करता। गाड़ी उलट गयी, वह भी उलट गया। यानी उसमें उसका कोई विरोध नहीं है कि अपने को बचाए अपने को रोके कि मर न जाऊं। जूडो साइंस वह कहती है कि गाड़ी उलटने से हमारी हड्डी नहीं टूटती है। वह तो जब गाड़ी उलटी, तो तुम हड्डी कड़ी कर लेते हो कि बचा, वह हड्डी टूट जाती है। वह जो दफा, और फिर खड़ा हो जाता है। कुछ भी दुखता नहीं उसका, और हम तो गिर के गए। क्योंकि बच्चा भी शराबी की हालत में है। अभी गिरा, तो गिरने के साथ एक हो गया।
पार्टीसिपेशन का गहरे से गहरा मतलब यह होता है कि जो हो रहा है, जैसा हो रहा है, हम उसके लिए भी राजी हैं। जीसस गहरे से गहरे इस मामले में गए हैं। चूंकि क्रिश्चियनिटी बहुत गहरे में नहीं जा सकी, इसलिए, जीसस का फायदा दुनिया को नहीं हुआ। जीसस कहते हैं, जो तेरा कोट छीने, तू उसे अपने कमीज भी दे देना। पता नहीं, उसको कमीज की जरूरत हो, संकोच में छीनता नहीं हो। पार्टीसिपेशन हुआ यह। यह बात हुई न कि जो तुम्हारा कोट छीने, उसे जल्दी से अपने कमीज भी दे देना, क्योंकि ऐसा न हो कि बेचारा संकोच में कमीज न छीनता हो। तो आदमी तुझसे बोझ ढोने को कहे कि चल लेकर मील भर, तो तुम दो मील लेकर चले जाना। हो सकता है आदमी भला हो, दो मील तक कहने की हिम्मत न कर पाता हो।
जीसस का एक वचन इतना अदभुत है कि दुनिया में और किसी का नहीं है। वचन है रेसिस्ट नाट ईविल। इतनी हिम्मत कि बुराई से भी राजी हो जाओ। उससे भी पार्टीसिपेट करो टटोल। वह ऐसा नहीं कि भलाई से पार्टीसिपेट करेंगे, बुराई से नहीं करेंगे। सुख से पार्टीसिपेट करेंगे, दुख से नहीं करेंगे। मित्र से करेंगे, दुश्मन से नहीं करेंगे। जिंदगी से करेंगे, मौत से नहीं करेंगे। ऐसा चुनाव हुआ तो मुश्किल में पड़ जाएंगे हम। चुनाव हुआ कि तुम फिर बच गए, और फिर वह जोड़ नहीं हो पाया। चुनाव ही न हो, जो भी होगा पार्टीसिपेट करेंगे।
एक झेन फकीर अपने घर के बाहर बैठा हुआ है। कोई उससे आकर पूछता है, क्या कर रहे हो? वह कहता है, धूप ने बुलाया था तो बाहर आ गया हूं। वह यह नहीं कहता कि मुझे सर्दी लग रही थी इसलिए बाहर आ गया। वह कहता है, धूप ने बुलाया था तो बाहर आ गया हूं। वह बैठा रहा और धूप लेता रहा। थोड़ी देर बाद उठा और भीतर जाने लगा। पूछा कहां जा रहे हो? कहा, घर की छाया बुलाती है। यह नहीं कह रहा है कि मैं छाया में जाता हूं। कहता है कि घर की छाया बुला रही है। अब यह आदमी बिलकुल पार्टीसिपेट कर रहा है। इन अर्थों में पार्टीसिपेट कर रहा है कि यह जैसे है ही हनीं। धूप बुलाती है तो धूप में चला जाता है, छाया बुलाता है तो छाया में चला जाता है। जिंदगी ने बुलाया तो जिंदगी में आ गया, मौत ने बुलाया तो वहां जाने को राजी है यहां आना भी सुखद है, वहां जाना भी सुखद है।
इस स्थिति को ही मैं मुक्ति कहता हूं। पार्टीसिपेट जहां टोटल है, वहां मुक्ति है। वहां अब कोई बंधन नहीं है, क्योंकि पार्टीसिपेट करता है। ये दबाव मुझ पर बंधन डाल ही नहीं सकते। अब कोई उपाय नहीं है मुझे बांधने का। और ऐसी जीवन मुक्ति पूरे जीवन को स्वीकार करती है। उसमें कोई निषेध नहीं है--न पदार्थ का, न परमात्मा का, न शरीर का, ना आत्मा का। न इंद्रियों का है, न भोग का। निषेध है ही नहीं। और जिसके चित्त में निषेध नहीं है, उसे मैं आस्तिक कहता हूं। आस्तिक से मेरा मतलब है कि जिसके मन में कोई निषेध न हो।
प्रश्न--किसी भी चीज में निषेध नहीं, लेकिन काम किया नहीं जाता है। हर काम किया नहीं जाता है, लोग समझ नहीं पाते हैं। यह भी क्या मुक्ति होता है?
ओशो--वह यही समझते हैं कि इसमें कुछ चोरी हो जाएगी, बेईमानी हो जाएगी, हत्या हो जाएगी। मजा यह है कि अगर यह खयाल है कि सब जैसा है, वह जो टोटेलिटी आफ थिंकिंग है, उसके साथ एक है, तो यह आदमी चोरी करेगा कैसे? यह संभव भी नहीं है। मेरा कहना है, जो सर्वभाव से, जो सर्व स्वीकृत का भाव है, उसमें जो बच जाए, वही पुण्य है। जो छोड़ना ही नहीं पड़ता, वह बचता ही नहीं। उसे कहीं छोड़ने का, निषेध करने नहीं जाना पड़ता। वह होता ही नहीं। वह वहां है ही नहीं।
लेकिन हमारी भूल यह है कि अंधेरे में रहनेवाले लोगों से--जो सदा से अंधेरे में रहे हो--जाकर अगर कोई कहे कि तुम दिया जला लो, तो वह कहेगा कि दिया तो जलाएंगे, लेकिन अंधेरा कैसे मिटाएंगे? वह पूछेंगे भर। जलाएंगे नहीं दिया। जलाए तो फिर सवाल ही नहीं उठता। सवाल तो अंधेरा निकालने का है। अब उनको समझाना मुश्किल है कि दिया जला, तो अंधेरा रहा ही नहीं; फिर निकालने का सवाल ही नहीं। या ऐसा भी कह सकते हैं, जब दिया जल गया, तो अंधेरा भी दिया ही हो जाता है। फिर अंधेरा भी उजाला ही है, फिर बात कहां है कि तुम जाओगे निकालने?
तो उसे डर लगता है कि चोरी कर रहा है, बेईमानी कर रहा है, झूठ बोल रहा है। उसे लगता है, तो सब स्वीकार लूं--झूठ भी बोलूं, चोरी भी करूं, पाप भी करूं? तो गलत सिखा रहे हैं आप। यह नहीं हो सकता, निषेध चाहिए, यह इनकार कि चोरी मत करना।
पहली दफा उपनिषद का अनुवाद हुआ जर्मनी में, तो जिन्होंने पहले अनुवाद की हवा पहुंचाई, उनके सामने सबसे बड़ा जो सवाल उठा, वह यह था कि ये धर्मग्रंथ कैसे हैं? क्योंकि इनमें नहीं लिखा है कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, टेन कमांडमेंट कहां हैं? ये धर्म-ग्रंथ हैं कैसा? इनमें कहीं लिखा ही नहीं है कि तुम क्या न करो। इनमें तो बस यही ब्रह्म, ब्रह्म--तो ये धर्म ग्रंथ संदिग्ध मालूम होते हैं। क्योंकि धर्म ग्रंथ को तो होना चाहिए साफ--क्या मत करो--पराई स्त्री को मत देखो, दूसरे को धन तुम्हारा नहीं है, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, दगा मत करो। यह सब लिखा नहीं है, तो ये धर्म ग्रंथ कैसे? लेकिन उन्हें पता ही नहीं कि जिसने यह लिखा है, वह सिर्फ नीति ग्रंथ रह गया है, धर्म ग्रंथ नहीं है। उसे धर्म ग्रंथ लिखने की जरूरत  ही नहीं है।
अमृतसर में मैं एक वेदांत सम्मेलन में गया था। एक बड़े संन्यासी है। उन्होंने अपने प्रवचन के बाद नारे लगवाए लोगों से धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। उनके पीछे बोला, तो मैंने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। वे कहते हैं धर्म की जय हो, फिर अधर्म बचेगा नाश करने के लिए? धर्म की जय हो गयी, बात खत्म हो गयी। आगे की बात की फिकर कैसे करोगे? यानी ऐसा ही है कि दिया जले और अंधेरा हटाएंगे।
अब इनको पता नहीं है कि यह जो नारा दिया जा रहा है कि धर्म की जय, तो हो गयी बात! अधर्म के नाश की बात पूरी हो गयी। ये दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो हिस्से हैं। डर लगता है, वही डेथ है, जो हमें धर्म तक नहीं पहुंचने देता है, नीति तक अटका लेता है। और नीति बड़ी साधारण बात है। धर्म को उससे क्या लेना-देना?
प्रश्न--असल में ईशावास्यापनिषद का जो वाक्य है--ईशावास्यं इदं सर्व...
ओशो--इदं को मध्ययुग में बिलकुल ही हम लोगों ने दृष्टि से बाहर कर दिया और उसमें पार्टीसिपेशन नहीं खोजा। उसके कारण हमारी कला में भी कुछ अति उठ आयी है; क्योंकि जब कवि या कलाकार छोटा बनेगा, तो कला कैसे छोटी बनेगी? और मुख्य समस्या आज की मेरी दृष्टि में, यानी मेरी अपनी समस्या यही है--अनुकृति और अभिव्यक्ति की।

बंबई,

१४-९-६९


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