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बुधवार, 22 अगस्त 2018

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-01) 

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(जगजीवन दास) 

पहला-प्रवचन-(चाहत खैंचि सरन ही राहत)

सारसूत्र:

साईं, जब तुम मोहि बिसरावत।
भूलि जात भौजाल-जगत मां, मोहिं नाहिं कछु भावत।।
जानि परत पहिचान होत जब, चरन-सरन लै आवत।
जब पहिचान होत है तुमसे, सूरति सुरति मिलावत।।
जो कोई चहै कि करौं बंदगी, बपुरा कौन कहावत।
चाहत खैंचि सरन ही राखत, चाहत दूरि बहावत।।
हौं अजान अज्ञान अहौं प्रभु, तुमतें कहिकै सुनावत।
जगजीवन पर करत हौ दाया, तेहिते नहिं बिसरावत।।


बहुतक देखादेखी करहीं।
जोग जुक्ति कुछ आवै नाहीं, अंत भर्म महं परहीं।।
गे भरुहाइ अस्तुति जेइ कीन्हा, मनहि समुझि ना परई।
रहनी गहनी आवै नाहीं, सब्द कहे तें लरई।।
नहीं विवेक कहै कछु औरे, और ज्ञान कथि करई।
सूझि बूझि कछु आवै नाहीं, भजन न एको सरई।।
कहा हमार जो मानै कोई, सिद्ध सत्त चित धरई।
जगजीवन जो कहा न मानै, भार जाए सो परई।।

बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं।
साधन कहा सो काटि-कपटिकै, अपन कहा गोहरावहिं।।
निंदा करहिं विवाद जहां-तहं, वक्ता बड़े कहावहिं।
आपु अंध कछु चेतत नाहीं, औरन अर्थ बतावहिं।।
जो कोउ राम का भजन करत है, तेहिकां कहि भरमावाह।
माला मुद्रा भेष किए बहु, जग परमोधि पुजावहिं।।
जहंते आए सो सुधि नाहीं, झगरे जन्म गवावहिं।
जगजीवन ते निंदक वादी, बास नर्क महं पावहिं।।

जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में
हाय वो और इक उजड़े हुए काशाने में
मिलती है उम्रे-अबद इश्क के मैखाने में
ऐ अजल तू भी समा जा मेरे पैमाने में
हरमो-दैर में रिंदों का ठिकाना ही न था
वो तो ये कहिए अमां मिल गई मैखाने में
आज तो कर दिया साकी ने मुझे मस्त-अलस्त
डाल कर खास निगाहें मेरे पैमाने में
आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्या है
अपना अफसाना मिला कर मिरे अफसाने में
हज्बे-मय ने तिरा ऐ शैख भरम खोल दिया
तू तो मस्जिद में है नीयत तेरी मैखाने में
मश्वुरे होते हैं जो शैखो-बिरहमन में ‘जिगर’
रिंद सुन लेते हैं, बैठे हुए मैखाने में

प्रेम का मार्ग मस्ती का मार्ग है। भक्ति अर्थात एक अनूठे ढंग का पागलपन। तर्क नहीं, तर्कसरणी नहीं, प्रीति का एक सेतु।
बुद्धि से तलाश नहीं होती परमात्मा की, हृदय से होती है। बुद्धि से जो खोजते हैं, खोजते बहुत, पाते कुछ भी नहीं। हृदय से खोजो भी न, सिर्फ पुकार उठे, सिर्फ प्यास उठे, जहां बैठे हो वहीं परमात्मा का आगमन हो जाता है। प्रेमी को खोजने नहीं जाना पड़ता; परमात्मा खोजता हुआ चला आता है। भक्ति के शास्त्र का यह सबसे अनूठा नियम है।
जगजीवन के सूत्र इस नियम से ही शुरू होते हैं।
लेकिन यह बात बड़ी उलटी है। ज्ञानी खोज-खोज कर भी नहीं खोज पाता और भक्त बिना खोजे पा लेता है। इसलिए बात थोड़ी बेबूझ है। दीवानगी की है, पागलपन की है। पर प्रेम पागलपन का ही निचोड़ है।
जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में
खोजने वाले जाएंगे कहां? या मंदिर जाएंगे या मस्जिद जाएंगे। खोजने वाला जाएगा ही बाहर। खोज का मतलब ही होता है--बाहर, बहिर्यात्रा। खोजने वाला चारों दिशाओं में भटकेगा। जमीन में खोजेगा, आकाश में खोजेगा।
जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में
और जो न मंदिर में सीमित है और न मस्जिद में, न काबा में, न कैलाश में, उसे तुम कैसे खोजोगे काबा में-कैलाश में? उसे खोजने गए, उसी में भूल हो गई। उसे खोजने गए, उसमें ही तुमने पहला गलत कदम उठा लिया। खोजने तो उसे जाना पड़ता है जो कहीं महदूद हो। कहीं सीमित हो। जो किसी दिशा में अवरुद्ध हो। जिसका कोई पता-ठिकाना हो। जिसकी तरफ इशारा किया जा सके कि यह रहा। अंगुली उठाई जा सके।
परमात्मा तो सब जगह है। इसलिए उसका कोई पता तो नहीं है! न उत्तर, न पश्चिम, न पूरब। परमात्मा पूरब में नहीं है, पूरब परमात्मा में है। न परमात्मा पश्चिम में है। पश्चिम परमात्मा में है। परमात्मा वहां नहीं है, परमात्मा यहां है। तुम परमात्मा को खोजने जाते हो--उसी में भटक जाते हो। क्योंकि तुम परमात्मा में हो। जैसे चली मछली सागर की खोज में! और सागर में है मछली। खोज ही भटकाएगी। खोज ही न पहुंचने देगी।
जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में
हाय वो और इक उजड़े हुए काशाने में
जिस दिन उससे मिलन होता है, उस दिन बड़ी हैरानी होती है। जो सुंदर से सुंदर मंदिरों में नहीं पाया जिसे, परंपरा से पूजित तीर्थों में नहीं पाया जिसे, उसे अपने टूटे घर में पाया!
हाय वो और इक उजड़े हुए काशाने में
अपने इस छोटे से घर में पाया उसे! उस दिन भरोसा नहीं आता, विश्वास भी नहीं आता, कि जिसे हम खोजने चले थे, वह खोजने वाले में ही छिपा था। और जब तक हम खोजते थे तब तक हम भटकते थे।
प्रेमी खोज छोड़ देता है। प्रेमी सिर्फ पुकारता है। जैसे छोटा बच्चा रोता है। खोजने जाए तो जाए कहां? असहाय भी है--अभी चल भी तो नहीं सकता। और आदमी इतना ही असहाय है। परमात्मा की यात्रा पर चलने वाले पैर हमारे पास कहां? सामर्थ्य कहां, शक्ति कहां? यह अहंकार ही है जो तुमसे कहता है कि खोजो तो मिल जाएगा। यह अहंकार ही है जो तुम्हें भरमाता है, भटकाता है। रोओ--भक्त कहता है--खोजो मत; पुकारो! जैसे छोटा बच्चा अपने झूले में पड़ा ही पुकारता है। जाए तो जाए कहां? जाए तो जाए कैसे? न जाने की सामर्थ्य है, न उठने की सामर्थ्य है। लेकिन उसके रोने की आवाज सुन कर मां दौड़ी चली आती है। फिर मां और बच्चे में तो थोड़ी दूरी भी है, उतनी भी दूरी तुममें और परमात्मा में नहीं। तुम जिसे खोजने चले हो, वह तुम्हारा स्वरूप है।
गहन पुकार! तीव्र पुकार! बस तुम्हारे ही प्राणों को छेद जाती है बिजली की कौंध की भांति। और इसी टूटे घर में, इसी खंडहर में, जिसे तुमने कभी मंदिर की तरह सोचा भी न था! और तुम्हारे तथाकथित साधु-संत तो तुम्हें इस शरीर की निंदा सिखा रहे हैं। वे तो कह रहे हैं, इसी शरीर के कारण तुम भटक गए हो। और जिन्होंने जाना है, उन्होंने इसी शरीर में उसे जाना है। फिर यह शरीर कैसा ही हो--काला हो कि गोरा हो, स्वस्थ हो कि अस्वस्थ हो, जवान हो कि बूढ़ा हो, भेद नहीं पड़ता, इसी में छिपा है। इसी टूटे घर में छिपा है। चैतन्य उसका ही दूसरा नाम है। तुम्हारे भीतर जो दिया जल रहा है, होश का, यह उसकी ही उपस्थिति है।
मिलती है उम्रें-अबद इश्क के मैखाने में
यह प्रेम की मधुशाला में जो प्रविष्ट होता है, वही इस रा.ज को समझ पाता है। और उसे ऐसी उम्र मिल जाती है जिसका कोई अंत नहीं। उसे शाश्वतता मिल जाती है। उसे अमृतत्व मिल जाता है। अमृतस्य पुत्रः। उसे अनुभव होता है कि मैं अमृत का ही बेटा हूं। कि मैं उसी से आया हूं, वही हूं, उसी तरफ जा रहा हूं। उसी में हूं, उसी का हूं। भटकूं तो भी उसी में भटक रहा हूं। भूल जाऊं तो भी उसी में हूं। बिल्कुल स्मरण न रहे तो भी उससे दूर जाने का उपाय नहीं है।
मिलती है उम्रें-अबद इश्क के मैखाने में
ऐ अजल तू भी समा जा मेरे पैमाने में
भक्त के प्रेम में इतनी सामर्थ्य है कि मौत को भी उसमें डुबा लेता है। मौत समाप्त हो जाती है। उसके प्रेम में ही मौत मर जाती है। प्रेम एकमात्र स्वर है शाश्वतता का। प्रेम एकमात्र अनुभव है अमृत का!
हरमो-दैर में रिंदों का ठिकाना ही न था
मंदिर में और मस्जिद में मतवालों के लिए जगह ही न थी। वहां तो होशियार अड्डा जमा कर बैठ गए हैं। वहां तो चालबाज, चतुर-चालाक, पंडित-पुरोहित, ध्यानी मालिक होकर बैठ गए हैं।
हरमो-दैर में रिंदों का ठिकाना ही न था
वहां पियक्कड़ों को कौन घुसने दे? वहां प्रेमियों को कौन घुसने दे? वहां तो प्रार्थनाएं भी औपचारिक हो गई हैं। उन प्रार्थनाओं से अब आंसू पैदा नहीं होते।
वहां तो पूजा भी जड़ हो गई है। पैर नाचते नहीं, हृदय में नृत्य नहीं होता। आरती उतरती है, आदमी अछूता का अछूता रह जाता है। फूल चढ़ जाते हैं, प्राणों का फूल अनचढ़ा रह जाता है। पाखंड हो रहा है, प्रार्थना नहीं हो रही है। प्रार्थना तो प्रेम में ही हो सकती है। और प्रेम के कोई नियम नहीं होते। प्रेम की कोई मर्यादा नहीं होती। प्रेम की कोई भाषा नहीं होती। प्रेम के कोई बंधे हुए ढंग नहीं होते। प्रेम तो सहज होता है, स्वस्फूर्त होता है।
हरमो-दैर में रिंदों का ठिकाना ही न था
वो तो ये कहिए अमां मिल गई मैखाने में
वह तो यह गनीमत समझो कि कभी-कभी कोई मधुशाला भी होती है। मंदिरों और मस्जिदों के इस उपद्रव में कभी-कभी कोई मधुशाला भी होती है--खैर, समझो! कभी कोई बुद्ध, कभी कोई मीरा, कभी कोई जगजीवन, कभी कोई कबीर, कभी कोई क्राइस्ट, कभी कोई कृष्ण--कभी-कभी--जमीन तो मंदिर-मस्जिदों से भरी है लेकिन कभी-कभी यहां कोई मधुशाला भी हो जाती है। वहीं शरण मिल जाती है। वहीं दीवाने बैठ कर रो लेते हैं और पा लेते हैं। वहीं दीवाने बैठकर गा लेते हैं और पा लेते हैं। वहीं दीवाने बैठ कर मस्त हो लेते हैं और परमात्मा आ जाता है। कहीं जाना नहीं पड़ता।
आज तो कर दिया साकी ने मुझे मस्त-अलस्त
डाल कर खास निगाहें मेरे पैमाने में
एक बार तुम पागल होने की हिम्मत तो जुटाओ, भरे तो तुम्हारी आंखें आंसुओं से, भरे तो तुम्हारा हृदय पुकार से, प्यास से--और कर देगा वह तुम्हें मस्त!
आज तो कर दिया साकी ने मुझे मस्त-अलस्त
डाल कर खास निगाहें मेरे पैमाने में
और तुम्हारे हृदय की प्याली में जिस दिन उसकी निगाहें पड़ेंगी... ! पुकारो तो सही; रोओ तो सही; गुनगुनाओ तो सही, नाचो तो सही; नियम तो छोड़ो, मर्यादा तो तोड़ो; थोड़े सहजस्फूर्त, स्वाभाविक; न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध, बस आदमी--बस उतना काफी है, उतना पर्याप्त है। एक असहाय शरणभाव कि मेरे खोजे से कुछ भी न होगा, अब तू मुझे खोज! मैं तो चलता रहा, चलता रहा, चलता रहा, जीवन-जीवन बीत गए, एक इंच भी यात्रा पूरी नहीं हो सकी, अब तो बैठ गया थक कर, अब तू ही हाथ बढ़ा! यही भक्ति का बुनियादी आधार है। परमात्मा खोजे भक्त को।
आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्या है
यह प्रेम का राज, यह प्रेम का रहस्य, यह प्रेम का रस, स्वाद क्या है, देखें तो सही!
आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्या है
अपना अफसाना मिला कर मेरे अफसाने में
और ऐसे दीवानों, जगजीवन जैसे दीवानों के पास अगर तुम्हें बैठना हो जाए, तो .जरा उनकी कहानी में अपनी कहानी मिला लेना, उनके गीत में अपना गीत डुबा देना, उनके प्रेम में अपने प्रेम को मिला लेना; उनके साथ नाच उठना, उनके साथ गा उठना!
आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्या है
अपना अफसाना मिलाकर मेरे अफसाने में
और जब कभी ऐसी कोई मधुशाला जागती-जीती, जब कभी कोई ऐसा अलमस्त फकीर नाचता-गाता, जब कहीं मधुक पर मधुकलश ढाले जाते हैं, तो तुम यह मत समझो कि भक्त ही पाते हैं। मंदिरों और मस्जिदों में बैठे हुए पुजारी और पंडित भी तड़फते हैं--आ नहीं पाते क्योंकि उनके न्यस्त स्वार्थ वहां अटके हैं; उनके सारे स्वार्थ वहां जुड़े हैं। हिम्मत नहीं जुटा पाते, लेकिन ईर्ष्या तो जगती है, जलन तो पैदा होती है।
उस जलन का लक्षण? कि वह इस तरह की मधुशालाओं का विरोध करते हैं।
 नहीं तो क्या पड़ी! मंदिर-मस्जिदों में बैठे हुए लोगों को मेरे विरोध की क्या पड़ी? पंडित-पुजारी को मुझसे क्या लेना-देना है? मैं अपना गीत गाऊंगा, विदा हो जाऊंगा, वे अपना काम करें। नहीं लेकिन वह बड़े बेचैन हैं। उनको भी ईर्ष्या हो रही है। कुछ घट रहा है, और वे चूके जा रहे हैं। इतना साहस भी नहीं है कि जीवन के छोटे-मोटे स्वार्थों को छोड़ कर आ सकें!
मेरे पास साधुओं के पत्र आते हैं कि हम आना चाहते हैं, मगर कैसे आएं? हजार बाधाएं हैं। समाज आने नहीं देगा। हमारे श्रावक आने नहीं देंगे। लोगों को पता चल जाएगा कि हम आए थे तो हमें बड़ी मुसीबत होगी। ऊपर-ऊपर तो हम आपका विरोध ही करते हैं। भीतर-भीतर हम आपके वचनों को भी पढ़ते हैं, उनमें डूबते भी हैं, रस भी पाते हैं, जानते भी हैं, कि कुछ हो रहा है, जाना था, हिम्मत नहीं जुटा पाते। आए दिन पत्र आते हैं! आए दिन लोग खबरें लेकर आते हैं कि फलां साधु, कि फलां महात्मा, कि फलां साध्वी आना चाहती है! तैयार है!
हज्बे-मय ने तिरा ऐ शैख भरम खोल दिया
और वह जो शराब की निंदा कर रहा है मंदिर में बैठकर पुजारी, उसकी शराब की निंदा ने ही उसका भरम खोल दिया है--
तू तो मस्जिद में है नीयत तेरी मैखाने में
मश्वुरे होते हैं, जो शैखो बिरहमन में ‘जिगर’
रिंद सुन लेते हैं बैठे हुए मैखाने में,
वे जो मशवरे हो रहे हैं अस्तित्व में, जहां पहुंचे हुए लोगों के वार्तालाप हो रहे हैं जहां बुद्ध और महावीर, जहां कृष्ण और क्राइस्ट, जरथुस्त्र और मोहम्मद, और उनके बीच जो मशवरे हो रहे हैं, जो गुफ्तगू हो रही है, वह प्रेम में जो डूब जाते हैं--रिंद सुन लेते हैं, बैठे हुए मैखाने में--वे अपनी मधुशाला में ही बैठे-बैठे सब पा लेते हैं। सारे बुद्धों का सार उन पर बरस जाता है।
ऐसे ही एक बुद्धपुरुष जगजीवन के वचनों में हम उतरते हैं--
साईं, जब तुम मोहि बिसरावत।
जगजीवन कहते हैं, यह मैं तुमसे कह दूं--परमात्मा से कह रहे हैं वह कि यह मैं तुमसे कह दूं--कि तुम जब मुझे बिसार देते हो तब ही मैं तुम्हें भूल जाता हूं, यह बड़े मजे की बात! जगजीवन कह रहे हैं कि जब तुम मुझे बिसार देते हो तब ही मैं भूल जाता हूं तुम्हें, याद रखना! जब तुम मुझे याद कर लेते हो, तब मैं तुम्हें नहीं भूल पाता हूं। सब तुम्हारे साथ हैं। याद करो तो तुम याद कहते हो मुझे, भूल जाओ तो मैं भूल जाता हूं। मैं इतना असहाय हूं कि याद भी मेरे बस में नहीं। इतनी भी मेरी सामर्थ्य नहीं है कि तुम्हें याद करूं--खोजने की तो बात छोड़ो! रूंकर तुम्हें भुलाएं! इतनी भी मेरी शक्ति नहीं है। वह तो जब कभी तुम मुझे याद आ जाते हो, तो मैं जानता हूं कि जरूर तुमने मुझे याद किया होगा! नहीं तो तुम मुझे याद भी आ सकते थे, इसका मुझे भरोसा नहीं है। और जब मैं भूल जाता हूं, तब मैं जानता हूं कि तुमने मुझे बिसरा दिया।
यह प्रीतिभरा उलाहना देखा?
यह सिर्फ भक्त ही हिम्मत कर सकता है। यह शिकायत देखी--यह प्रार्थना भरी शिकायत देखी? यह निर्भय निवेदन देखा? यह समर्पण की अंतिम पराकाष्ठा देखी? सब छोड़ दिया! --सब! प्रार्थना भी, स्मरण भी!
साईं, जब तुम मोहि बिसरावत।
हे मेरे मालिक, जब तुम मुझे भुला देते हो, ...
भूलि जात भौजाल-जगत मां, ...
तभी मैं संसार में उलझ जाता हूं। ध्यान रखना, दोष तुम्हारा है, मेरा नहीं। मैं तो अबूझ। बच्चा अगर खो जाए मेले में, तो दोष किसका है? बच्चे का? कि उसकी मां का, कि उसके पिता का?
ज्ञानी की यह हिम्मत नहीं है। ज्ञानी की अकड़ है। ज्ञानी कहता है कि अगर मैं तुझे भूल गया--तो मैं भूल गया। समझना! ज्ञानी कहता है, मैं भूल गया हूं तुझे, याद करूंगा! खोजूंगा, तपश्चर्या करूंगा, व्रत-नियम-उपवास साधूंगा! साधना--और एक दिन सिद्धि होगी। मैं ही तुझे याद करूंगा, मैं ही तुझे पाऊंगा। भक्त कहता है--न तो मैं तुझे पा सकता, न तुझे याद कर सकता, इतना जानता हूं कि कभी-कभी जरूर तू मुझे याद करता होगा, क्योंकि अनायास--अनायास! --न मालूम किस कोर, किस किनारे से तेरी याद मेरे भीतर आ जाती है!
मुझे कोई कारण मेरे भीतर नहीं दिखाई पड़ता। मेरे भीतर कोई जड़ नहीं दिखाई पड़ती जिसमें से वह सुरति पैदा होती है। लगता है कहीं तेरे तरफ से आती है।
यह भी क्या मंजर है, बढ़ते हैं न हटते हैं कदम
तक रहा हूं दूर से मंजिल को मैं, मंजिल मुझे
मेरी तो हालत ऐसी है।
यह भी क्या मंजर है, बढ़ते हैं न हटते हैं कदम
न आगे जा सकता है, न पीछे जा सकता है--ऐसी मेरी दिशा है। हिल-डुल भी नहीं सकता। मेरी सामर्थ्य इतनी छोटी है। एक छोटी बूंद सागर की तलाश पर निकले भी तो क्या निकले! न मालूम किन मरुस्थलों में कहां खो जाएगी। बूंद की सामर्थ्य क्या है सागर की खोज करे! यह तो सागर ही उठाले तो उठाले।
यह भी क्या मंजर है, बढ़ते हैं न हटते हैं कदम
तक रहा हूं दूर से मंजिल को मैं, मंजिल मुझे
देखता रहता हूं टकटकी बांधे। लेकिन फासला ऐसा लगता है कि अंतहीन। अनंत। मैं पहुंच सकूंगा इतनी यात्रा कर दूर के तारे तक, यह मेरी सामर्थ्य नहीं। यह मेरा बस नहीं। लेकिन फिर भी कभी-कभी तू बड़े पास से सुनाई पड़ता है।
यादे-जानां भी अजब रूह-.ा.जा णातात है
सांस लेता हूं तो जन्नत की हवा आती है
मर्गे-नाकामे-मोहब्बत मिरी तक्सीर मुआफ
जीस्त बन-बन कर मिरे हक में कजा आती है
नहीं मालूम वे खुद हैं कि मोहब्बत उनकी
पास ही से काई बेताब सदा आती है
समझ मुझे कुछ पड़ता नहीं! तूने पुकारा या तू खुद मेरे पास से गुजर गया!
नहीं मालूम वो खुद हैं कि मोहब्बत उनकी
पास ही से कोई बेताब सदा आती है
हृदय के बिल्कुल पास से, इतने पास से कि हृदय के भीतर से कोई आवाज आती है, भर लेती है मुझे, आलिंगन में ले लेती है मुझे। कोई गंध छिटका जाता मुझ पर। कोई गीत बरसा जाता मुझ पर।
यादे-जानां भी अजब रूह-फजा आती है
सांस लेता हूं तो जन्नत की हवा आती है
मगर कभी-कभी ऐसा होता है--जरूर तेरे कारण होता होगा; मेरे कारण होता तो सदा कर लेता... समझना! अगर मेरे बस में होता तो चौबीस घंटे कर लेता, तेरी याद भी, हे प्यारे, तेरी याद भी--‘यादे-जानां भी अजब रूह-फजा आती है।’
यह भी एक रहस्य है, कब आती है, कब नहीं आती? क्यों आती है, क्यों नहीं आती? कभी तो चाहता हूं और नहीं आती। और कभी ना-चाहे उतर आती है। अनायास! भक्त चकित होता है। भक्त सदा आश्चर्य विमुग्ध होता। कभी ऐसा प्रसाद बरसता है उस पर कि यह तो सोच भी नहीं सकता कि यह मेरे प्रयास का परिणाम है। कोई तालमेल नहीं। प्रयास इतना छोटा है और प्रसाद इतना बड़ा है, कि इसमें संबंध जुड़ता नहीं--कार्य-कारण का संबंध नहीं जुड़ता। भक्त की चेष्टा--ना-कुछ, बूंद जैसी। और भक्त की उपलब्धि--सब कुछ। महासागर जैसी। इसमें कुछ संबंध नहीं है कार्य-कारण का। कुछ मैंने पुकारा इसलिए तू मुझे मिल गया--ऐसी भूलभरी बात भक्त नहीं कह सकता।
मर्गे-नाकामे-मोहब्बत मेरी तक्सीर मुआ
जीस्त बन-बन के मेरे हक में कजा आती है
मौत भी आती है तो भी मेरे हक में जीवन बन जाती है। दुख भी आता है, तो मेरे हक में सुख बन जाता है। कांटा भी चुभता है तो न मालूम कौन, किस चमत्कार से उसे फूल बना जाता है। भक्त के जीवन में दुर्घटनाएं भी सौभाग्य होने लगती हैं। इसलिए भक्त कहता है, ये मेरे किए नहीं हो रहा है। सब तेरा है।
साईं, जब तुम मोहि बिसरावत।
भूलि जात भौजाल-जगत मां, मोहि नाहिं कछु भावत।।
सब भूल-भाल जाता हूं। स्मरण ही नहीं आता, परमात्मा की सुध भी नहीं उठती, सत्य का विचार भी नहा जगत्ा। ऐसे भटक जाता हूं जैसे तुझसे कोई पहचान ही नहीं। मगर दोष तेरा है। यह हिम्मत भक्त की है! यह हिम्मत त्यागी की, तपस्वी की, ज्ञानी की नहीं है। यह हिम्मत भक्त की है, यह हिम्मत प्रेमी की है--कि दोष तेरा है। तू तो बड़ा है; तू तो रहमान है, रहीम है, हम भूलें भी, तो तू तो मत छोड़! हम हाथ भी छोड़ दें तो तू तो हाथ पकड़े रख! हम अंधेरे में खो भी जाएं तो तू तो हमारा पीछा कर सकता है! हम तेरी तरफ पीठ कर लें, लेकिन तुझे कौन रोकता था कि सामने आकर खड़ा न हो जाए!
जानि परत पहिचान होत जब, चरन-सरन लै आवत।
लेकिन यह बात तुम्हें तब समझ में आएगी जब पहचान होगी। जब प्रसाद बरसेगा तब समझ में आएगी यह बात कि अपने प्रयास की क्या सामर्थ्य, क्या औकात! जैसे कोई चम्मच से सागर को खाली करने में लगा हो, ऐसे हमारे प्रयास हैं। और एक दिन सागर खाली हो जाए तो क्या तुम समझोगे कि तुम्हारी चम्मच के खाली करने से खाली हो गया!
जानि परत पहिचान होत जब, ...
यह बात--जगजीवन कहते हैं--तुम तब समझ पाओगे जो मैं कह रहा हूं, जब पहचान होगी। तब तुम पाओगे, अपना किया तो रंचमात्र था और जो मिला है, वह अपार है। कोई संबंध हमारे कृत्य में और हमारी उपलब्धि में नहीं है। साधना और सिद्धि में कोई संबंध नहीं है। इसलिए भक्ति कहती हैः प्रयास से नहीं मिलता परमात्मा, प्रसाद से मिलता है। उसकी ही अनुकंपा से मिलता है। जब वह तुम्हें चरण में ले लेता है, जब अचानक वह तुम्हें झुका लेता अपनी शरण में... तुम्हारे झुकने से तुम न झुकोगे।
इस संबंध में एक मनोवैज्ञानिक सत्य समझ लेना उपयोगी होगा।
तुम जो भी करोगे, उससे तुम्हारा अहंकार ही बढ़ेगा। जो भी! बेशर्त! उपवास करोगे, तो अहंकार बढ़ेगा। योग साधोगे तो अहंकार बढ़ेगा। तुम जो भी करोगे तुम ही करोगे न! तुम्हारे करने से तुम्हारा कर्ता पुष्ट होगा। तुम अगर अकर्ता होकर भी बैठ जाओगे, तुम कहोगे--मैं कुछ नहीं करता, तो भी कर्ता पुष्ट होगा भीतर से, तुम कहोगे कि देखो, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। मैं अकर्ता हो गया हूं। लेकिन ‘मैं’ बनेगा।
इस ‘मैं’ के बाहर जाने का उपाय क्या है? और समस्त धर्मो ने कहा हैः ‘मैं’ के जो बाहर गया, वही परमात्मा में गया।
इस ‘मैं’ के बाहर जाने की विधि क्या है फिर? क्योंकि जो भी हम करेंगे उससे ‘मैं’ ही मजबूत होगा। अनिवार्यरूपेण। निरपवाद। कुछ भी करो। अकर्म भी करो, अक्रिया भी साधो, शांत होकर बैठ जाओ, मौन करो, ध्यान करो, लेकिन जो भी तुम करोगे वह तुम्हारे कर्ताभाव को मजबूत करेगा। और तुम्हारा कर्ताभाव ही तो अहंकार है। तो फिर उपाय क्या है?
 भक्त कहता है, उस पर छोड़ो। उसे करने दो! तुम कहो कि यह रहा मैं, तू कर! तुम प्रतीक्षा करो! प्रयास नहीं, प्रतीक्षा! और प्रतीक्षा का ही नाम है प्रार्थना। प्रार्थना का अर्थ है, तू कुछ कर। प्रार्थना का सारसूत्र इतना ही है : मेरे किए सब अनकिया हो जाता है; मैं करता हूं तो गलत हो जाता है। ठीक भी करता हूं तो गलत हो जाता है। दान भी देता हूं तो लोभ के कारण देता हूं--ऐसी मेरी मुसीबत है। दया भी करता हूं तो अहंकार मजबूत होता है। जो भी मैं करूं, उसी में भूल हो जाती है, क्योंकि मेरा ‘मैं’ पीछे से आ जाता है। ‘मैं’ की छाया विषाक्त कर देती है मेरे कृत्य को। इसलिए अब मैं क्या करूं? अब मैं कैसे करूं? सब विधि-विधान व्यर्थ हैं। अब तू कुछ कर!
जानि परत पहिचान होत जब, चरन-सरन लै आवत।
और तब वह अपूर्व घटना घटती है : अज्ञात हाथ आते हैं और झुका लेते हैं। एक अज्ञात किरण उतरती है और अंधेरे को तोड़ जाती है--जन्मों-जन्मों के अंधेरे को। एक अज्ञात बाढ़ आती है और बहा ले जाती है सब कूड़ा-करकट, छोड़ जाती है निश्छल, पवित्र, शुद्ध चैतन्य पीछे।
जब पहिचान होत है तुमसे, सूरति सुरति मिलावत।।
और जब तुम से पहचान होती है, तब मेरी सुरति और तुम्हारी सूरत एक ही बातों के दो नाम हैं। सुरति का अर्थ होता हैः मेरा स्मरण, मेरी स्मृति, तुम्हारी याददाश्त। जब तुमसे पहचान होती है, तब मेरे भीतर तुम्हारी याद और तुम्हारा चेहरा और तुम्हारी सूरत, इन में भेद नहीं रहता। मेरी सुरति तुम्हारी सूरत, तुम्हारी सूरत मेरी सुरति।
मेरी नजर से तेरी जुस्तजू के सदके में
ये इक जहां ही नहीं, सैकड़ों जहां गुजरे
हुजूमे-जल्वा में परवाजे-शौक क्या कहना
कि जैसे रूह सितारों के दर्मियां गुजरे
बस जरा-सात एक झलक और आत्मा आकाश में उड़ने लगती है।
हुजूमे-जल्वा में परवाजे-शौक क्या कहना
फिर ऐसी हिम्मत आती, फिर ऐसा साहस उठता है, फिर डैने फैला कर आदमी चांद-तारों के पास उड़ता है। जो छोटी-मोटी बदलियों के भी पार नहीं जा सकता था, वह अनंत आकाश को पार कर जाता है।
मेरी नजर से मेरी जुस्तजू के सदके में
ये इक जहां ही नहीं सैकड़ों जहां गुजरे
तेरी आंख से आंख भर मिल जाए कि एक जहां नहीं, सैकड़ों जहां गुजर जाते हैं। पलभर में अनंत काल बीत जाता है। एक क्षण शाश्वत हो जाता है। ‘हुजूमे-जल्वा में’, और तेरे उस प्रसाद में, तेरे उस रहस्यपूर्ण अनुग्रह में, ‘परवाजे-शौक क्या कहना।’ ऐसी हिम्मत, ऐसा साहस इस ना-कुछ में उठता है कि बूंद सागर होने का रस लेने लगती है। ऐसे पंख फैलते हैं--
कि जैसे रूह सितारों के दर्मियां गुजरे--
फिर कुछ चिंता नहीं रह जाती।
फिक्रे-मंजिल है न, होशे-जादा-ए-मंजिल मुझे
जा रहा हूं जिस तरफ ले जा रहा है दिल मुझे
फिर कोई चिंता नहीं कि मंजिल कहां है! कोई फिकर नहीं, तेरी आंख से आंख मिली कि मंजिल मिली। ‘फिक्रे मंजिल है न,’ अब कुछ चिंता नहीं कि कहां है मंजिल, कहां है गंतव्य--और न इस बात की चिंता है कि मैं ठीक रास्ते पर चल रहा हूं कि नहीं? यह मजे की बात समझना! यह गहरी बात पकड़ना!
फिक्रे-मंजिल है न, होशे-जादा-ए-मंजिल मुझे
अब कौन फिजूल की बकवास में पड़े कि ठीक चल रहा हूं कि गलत चल रहा हूं, कि ठीक दिशा में चल रहा हूं कि गलत दिशा में चल रहा हूं! एक बार उसकी नजर नजर में पड़ी...
आज तो कर दिया साकी ने मुझे मस्त-अलस्त
डाल कर खास निगाहें मेरे पैमाने में
एक बार उसकी नजर नजर में पड़ी, एक बार पहचान हुई, फिर सभी दिशाएं उसी से भरी हैं और सभी रास्ते उसी के हैं। फिर संसार ही निर्वाण है। फिर देह ही आत्मा है। फिर तुम जहां हो, वहां ठीक हो। तुम जैसे हो, वैसे ही ठीक हो। फिर दुर्भाग्य नहीं है, फिर सौभाग्य ही सौभाग्य है!
जा रहा हूं जिस तरफ ले जा रहा है दिल मुझे
बस, फिर तुम्हें पता चला--सुराग मिला हृदय का!
जब पहिचान होत है तुमसे, सूरति सुरति मिलावत।।
जो कोई चहै कि करौं बंदगी, बपुरा कौन कहावत।
उस बेचारे को क्या कहें हम, उस पर दया आती है, जो सोचता है कि--‘जो कोई चहै कि करौं बंदगी’, कि मैं प्रार्थना करूंगा, कि मैं बंदगी करूंगा, वह बेचारा दया का पात्र है। बंदगी परमात्मा करवाएगा तो होगी! परमात्मा आएगा और झुकाएगा, तो!
प्राचीन शास्त्र कहते हैं : जब शिष्य तैयार होता है, गुरु उपस्थित हो जाता है। जब भक्त तैयार होता है, परमात्मा आकर उसे घेर लेता है।
और भी एक अनूठा सूत्र सूफी फकीरों के पास है। वे कहते हैंः जब तुम्हारे मन में परमात्मा की तलाश उठे, जब तुम परमात्मा को खोजने की आकांक्षा से भरो, तो समझ लेना कि उसने तुम्हें चुन लिया है। नहीं तो यह प्यास ही न उठती। जब तुम तैयार हो जाओ, तो उसका अर्थ केवल इतना ही हुआ कि उसने तुम्हें तैयार किया है। यही जगजीवन कह रहे हैं
जो कोई चहै कि करौं बंदगी, बपुरा कौन कहावत।
उस बेचारे को हम क्या करें! दया का पात्र है। बंदगी कभी किसी ने की है? प्रार्थना कभी किसी ने की है? प्रार्थना हो जाती है, की नहीं जाती। कृत्य नहीं है, प्रयास नहीं है, प्रार्थना विधि नहीं है। जैसे प्रेम हो जाता है, ऐसे ही प्रार्थना हो जाती है।
चाहत खैंचि सरन ही राखत...
उसकी मर्जी पर सब है। ‘चाहत खैंचि सरन ही राखत’, वह चाहता है तो खींच कर अपने चरणों में रख लेता है। लाख भागो, भाग नहीं पाते। लाख दूर जाओ और दूर नहीं जा पाते। कहां जाओगे? सब जगह वही है।
चाहत खैंचि सरन ही राखत, चाहत दूरि बहावत।।
और अगर चाहता है, तो बह जाने देता है, दूर बह जाने देता है।
दिल ने सीने में तड़प कर उन्हें जब याद किया
दरो-दीवार को आमादा-ए-फरियाद किया
वस्ल से शाद किया हिज्र से नाशाद किया
उसने जिस तरह से चाहा मुझे बरबाद किया
हमको देख ओ गमे-फुर्कत के न सुनने वाले
इस बुरे हाल में भी हमने तुझे याद किया
और क्या चाहिए सर्माया-ए-तस्कीं ऐ दोस्त
इक नजर दिल की तरफ देख लिया, शाद किया
शरहे-नैरंगी-ए-असबाब कहां तक कीजै
मुख़्तसर ये कि हमें आपने बरबाद किया
मौत इक दामे-गिरफ्तारी-ए-ताजा है ‘जिगर’
ये न समझो कि गमे-इश्क ने आजाद किया
भक्त तो कहता हैः आबाद करो तो तुम, बरबाद करो तो तुम। सारी जिम्मेवारी तुम्हारी। भक्त अपना सारा उत्तरदायित्व परमात्मा पर छोड़ देता है। यही समर्पण है।
शरहे-नैरंगी-ए-असबाब कहां तक कीजै
मुख्तसर ये कि हमें आपने बरबाद किया
और क्या चाहिए सर्माया-ए-तस्कीं ऐ दोस्त
इक नजर दिल की तरफ देख लिया, शाद किया
जब चाहा और एक नजर हमारे दिल की तरफ देखा, तब शाद किया। तब उत्सव बरस गया। तब आनंद के फूल खिल गए। तब वसंत आ गया। और जब नजर फेर ली, तब बरबादी छा गई, पतझड़ हो गया। अंधेरी रात उतर आई।
वस्ल से शाद किया हिज्र से नाशाद किया
कभी मिला लिया अपने में--और खूब मस्त किया! और कभी दूर कर दिया अपने से, विरह में तड़पाया और बड़ी अंधेरी रातें दीं! उसने जिस तरह से चाहा, मुझे बरबाद किया! भक्त कहता है कि बरबादी! --तो तुम्हारे हाथ पाता हूं। और आबादी! --तो तुम्हारे हाथ पाता हूं। एक बात तय है कि मैं नहीं हूं और तुम हो। लेकिन जिस दिन कोई इतनी सरलता से कह देता है कि मैं नहीं हूं, तुम हो, उसी दिन जीवन रूपांतरित हो जाता है। उसी दिन से तुम्हारे जीवन में एक नया सूत्रपात होता है, एक नई किरण उतरती है--एक नया प्रभात, एक सूर्योदय!
हौं अजान अज्ञान अहौं प्रभु, तुमतें कहिकै सुनावत।
कह रहे हैं कि यह भी जो मैं कह रहा हूं, यह भी मेरा अज्ञान ही है। क्योंकि तुम तो जानते ही हो, तुमसे कहना क्या? अजान हूं, अज्ञान हूं। नहीं तो यह भी क्या कहना है?
जगजीवन पर करत हौ दया, तेहिते नहिं बिसरावत।।
और यह भी तुम्हारी जो मैं चर्चा कर रहा हूं, यह भी तुम्हारी कृपा है। तुमने मुझे नहीं बिसराया, इसलिए तुम्हारी याद चल रही है, इसलिए तुम्हारी याद कात धारा बह रही है। इसलिए नहा रहा हूं इस गंगा में, इसलिए तुम्हारी चर्चा कर रहा हूं। यह चर्चा भी तुम्हीं करवा रहे हो। नहीं तो मैं अज्ञानी, मैं अजान, मैं क्या कहूंगा?
जगजीवन के पास सैकड़ों लोग इकट्ठे हो गए थे--दीवाने, प्रेमी, भक्त। वह यह कह रहे हैं कि इनसे जो मैं कह रहा हूं, वह वही जो तुम मुझसे कहलवा रहे हो। यह मैं नहीं कह रहा हूं, यह तुम कह रहे हो। गलती हो तो तुम्हारी; ठीक हो तो तुम जानो! ऐसे पूर्ण समर्पण का नाम भक्ति है।
तुम चौंकोगे यह बात जान कर कि ठीक-ठीक परमात्मा को सौंप देना बहुत आसान है, क्योंकि उसमें भी अहंकार होता है। ऐसे वचन हैं शास्त्रों में कि जो कुछ ठीक, वह तेरा और जो कुछ गलत, वह मेरा। मगर सोचना, इसमें भ्रांति है। इसका मतलब यह हुआ कि अभी इतना अहंकार कायम है। ठीक तेरा! कि देख, .जरा देख, मेरी दरियादिली देख, कि सब ठीक तुझे देता हूं, कि सब ठीक तेरा--और गलत-गलत? मेरा। जरा देख, मेरी हिम्मत देख, मेरी कूबत देख, यह मेरा त्याग देख, कि गलत अपने ऊपर ले रहा हूं! मेरा यह विनम्र भाव देख, मेरी सदाशयता देख, कोई छोटा-मोटा दिल नहीं है मेरे पास!
आमतौर से आदमी उलटा करता है। ठीक-ठीक अपने पास रखता है, गलत-गलत परमात्मा पर छोड़ देता है। जब तुम सफल होते हो, तब तुम कहते हो--मैंने सफलता पाई। और जब तुम हार जाते हो, तुम कहते हो--भाग्य, भगवान! परिस्थिति बस में न थी!
अहंकार दूसरा रूप भी ले लेता है। वह और भी सूक्ष्म है। वह कहता है, देख, बुरा मैं ले लेता हूं अपने सिर! सब भला तेरा, सब बुरा मेरा। मगर अभी ‘मैं’ बचा। यह क्रांति नहीं हुई। यह अहंकार ने नया रंग लिया, नया ढंग लिया, नई शैली सीखी। यह अहंकार ने विनम्रता के वस्त्र ओढ़े। सावधान, अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। उसकी चालबाजियां बड़ी गहरी हैं। वह साधु बन जाता है, महात्मा बन जाता है। वह बड़ा उदार बन जाता है। अहंकार कोई भी वेश रख लेता है! अहंकार सभी वेशों में अपने को समा लेता है। अहंकार बहुरुपिया है। शैतान बन जाता है, साधु बन जाता है, पापी बन जाता है, पुण्यात्मा बन जाता है।
असली भक्त कुछ और कहता है। वह कहता हैः बरबाद! तो तूने किया। आबाद! तो तूने किया। सही, तूने किया; गलत, तूने किया। करने वाला ही तू है। तो अपनी गलती भी भगवान के चरणों में जो रख देता है। जो सब समर्पित कर देता है।
तुमने कहानी सुनी?
प्राचीन कहानी है, एक भक्त स्त्री की। वह कृष्ण की भक्त थी। सब चढ़ा देती थी। गांव में खबर फैल गई कि वह सब कृष्ण को चढ़ा देती है। बुरा-भला भी चढ़ा देती है। जो कुछ है, सब चढ़ा देती है। क्रोध आता है उसको, तो वह कहती है--सम्हाल! यह तुझे चढ़ाया! गाली निकल जाती है उसके मुंह से तो कह देती है--कृष्ण को समर्पण! यह अजीब औरत है, यह पागल है! गाली और कृष्ण को समर्पण?
और एक दिन तो हद्द हो गई। वह यात्रा को गई थी, जब लौट कर आई तो घर में खूब कूड़ा-करकट इकट्ठा हो गया था--कई दिन तक सफाई नहीं हुई थी। उसने सब साफ किया, सब कूड़ा-करकट इकट्ठा किया और जाकर कृष्ण की मूर्ति के पास सब समर्पित कर दियाः समर्पण है। जो है, तेरा है। बुरा तो तेरा, भला तो तेरा। यह समग्रता देखो!
और कहते हैं, वह जो कचरा उसने फेंका था, वह बैकुंठ में कृष्ण के ऊपर गिरा। जरूर गिरा होगा। इतने प्यार से फेंका गया हो, इतने समर्पण से फेंका गया हो--और तुम्हारे फूल भी नहीं पहुंचते, उसका कचरा भी पहुंचा! और जब उनके स्वर्ण-सिंहासन पर कचरा गिरने लगा तो वह हंसे। और जब देवताओं ने पूछा, यह माजरा क्या है? यह कचरा कहां से आ रहा है? यह कौन आप पर कचरा फेंक रहा है? यह किसकी सामर्थ्य? कृष्ण ने कहा : वह बुढ़िया, जो गालियां फेंकती है वह सभी कुछ देती है। अब जब उससे अच्छा-अच्छा लिया है, तो अब बुरा-बुरा थू कहते मुझसे भी नहीं बनता। फूल भी चढ़ाती है, कचरा भी फेंकती है--जब सभी दे दिया तो मैं भी सभी लेता हूं। और जब कोई सभी देता है, तभी मैं सभी लेता हूं। जो बचा-बचा कर देता है, उसका कुछ भी नहीं लिया जा सकता।
शर्त से नहीं दिया जाता। बेशर्त दिया जाता है।
हौं अजान अज्ञान अहौं प्रभु, तुमतें कहिकै सुनावत।
जगजीवन पर करत हो दया तेहिते नहिं बिसरावत।।
बहुतक देखादेखी करहीं।
मगर ख्याल रखना, ऐसा सुन कर देखादेखी मत करने लगना कि फूल तो अभी चढ़ाए ही नहीं और कचरा चढ़ा दिया। देखादेखी मत करने लगना। धर्म को सबसे बड़ी बाधा अधर्म के कारण नहीं है, देखादेखी के कारण है। धर्म के मार्ग पर सबसे बड़ी अड़चन देखादेखी के कारण है। लोग मंदिर जा रहे हैं, तुम भी चले। देखादेखी चले। बस, व्यर्थ हो गया जाना। नकल हो गई। तुम्हारे हृदय का आविर्भाव न हुआ। तुम कार्बनकापी हो गए। परमात्मा तक सिर्फ मूल प्रतियां पहुंचती हैं, कार्बनकापियां नहीं। धर्म के जगत में सबसे महत्वपूर्ण बात याद रखने जैसी अगर कोई है तो यह--देखादेखी मत करना! क्योंकि देखादेखी का मतलब होता है, ऊपर-ऊपर। ऊपर-ऊपर रंग-रोगन कर लिया, भीतर-भीतर जैसे थे वैसे रहे। आचरण भी सम्हाल लिया, चरित्र भी बना लिया, एक जीवन-शैली रच ली। पूजा भी की, पाठ भी किया, प्रार्थना भी की--सब देखादेखी। सब ऊपर-ऊपर। और भीतर? जैसे थे वैसे के वैसे रहे। देखादेखी प्राणों तक नहीं जा सकती। नकल असल नहीं हो सकती। नकल असल जैसी दिखती है, इसलिए धोखा दे सकती है।
इसलिए दुनिया में असली खतरा धर्म को नास्तिक से नहीं है--नास्तिक तो कम से कम साफ है कि नास्तिक हूं; बात खतम हो गई! न कोई परमात्मा है, न मुझे खोजना है। है ही नहीं, तो खोजना क्या है? कम से कम ईमानदार है। बेईमान हैं तुम्हारे तथाकथित आस्तिक। भरोसा भी नहीं है परमात्मा पर, खोजे भी चले जाते हैं। किसे धोखा दे रहे हो? यह कैसी आत्मवंचना है? प्रार्थना करते हो और भीतर कोई श्रद्धा भी नहीं है। कर रहे हो तब भी तुम जानते हो कि कुछ होना नहीं है। मगर चलो देख लो करके, शायद! शायद मौजूद है। तो प्रार्थना नहीं हो सकती। तुम जानते हो भलीभांति कि पहले भी प्रार्थना नहीं सुनी गई है, यह भी नहीं सुनी जाएगी, पर हर्जा क्या है?
मेरे एक शिक्षक मरणशय्या पर थे। मैं उन्हें देखने गया। वे जीवन भर नास्तिक थे। मैंने उन्हें राम-राम जपते देखा। ओंठ से राम-राम, राम-राम कर रहे हैं। मैंने उन्हें हिलाया; मैंने कहा, यह क्या कर रहे हैं? पूरी जिंदगी पर पानी फेरे दे रहे हैं। नास्तिकता का क्या हुआ? उन्होंने कहा--छोड़ो जी, नास्तिकता की बात! अब मरते वक्त, कौन जाने परमात्मा हो ही! अब मरते वक्त यह बात मत उठाओ। राम-राम कर लेने में हर्ज क्या है? वैसे ही बिस्तर पर पड़ा हूं, कोई काम दूसरा है भी नहीं, हुआ तो ठीक है, न हुआ तो ठीक है। न हुआ तो अपना कुछ बिगड़ न गया, वैसे ही बिस्तर पर पड़े थे। और अगर हुआ, तो कहने की बात रह जाएगी कि देख, आखिरी वक्त याद किया था।
मगर यह आस्तिकता है? यह याद, याद है? यह याद पहुंचेगी? उस बुढ़िया का कचरा भी पहुंच गया था, यह याद भी नहीं पहुंचेगी। यह याद यूं ही घुट कर मर जाएगी। यह कंठ के बाहर ही न निकलेगी, इसमें पंख हो ही नहीं सकते। इसमें प्राण ही नहीं हैं, तो पंख कैसे होंगे? यह आकाश की यात्रा पर नहीं जा सकती। यह आदमी किसको धोखा दे रहा है? अपने को ही धोखा दे रहा है।
बहुतक देखादेखी करहीं।
और इस जगत में धर्म के नाम पर बहुत से लोग देखादेखी ही कर रहे हैं। तुम्हारे मां-बाप मंदिर जाते थे तो तुम भी मंदिर जाने लगे। वे तुम्हें मंदिर ले गए बचपन से, आदत बन गई। आदत से कहीं धर्म हुआ? आदत और धर्म? लोग सोचते हैं कि कुछ आदतें अच्छी होती हैं, कुछ आदतें बुरी होती हैं, मैं तुमसे कहता हूंः आदत मात्र बुरी होती है। अच्छी आदत जैसी चीज होती ही नहीं। आदत का मतलब होता है, यांत्रिक। अच्छाई यांत्रिक नहीं होती, सहजस्फूर्त होती है।
अच्छाई आदत से नहीं होती। किसी ने गाली दी और तुम आदत की वजह से क्रोधित न हुए, यह कोई अच्छाई न हुई। क्रोध तो भीतर आ ही गया! आदत थी पुरानी, अभ्यास था, सम्हाल गए--गटक गए, दबा लिया कंठ के नीचे, ऊपर मुस्कुराहट जारी रखी, हंसते रहे। मगर क्रोध तो हो ही गया! तुमने प्रकट नहीं किया, इसमें क्या फर्क पड़ता है! घटना तो घट ही गई, तुम्हारे प्राण तो दूषित हो ही गए, धुआं तो उठ ही गया, आग तो लग ही गई, जहर तो फैल ही गया। इतना ही हुआ कि बाहर न आया, तुम्हारे भीतर ही रहा। दूसरे व्यक्ति को थोड़ा लाभ मिला। लेकिन तुम्हें कुछ लाभ नहीं हुआ। आदत--अच्छी आदतें जिनको हम कहते हैं, सामाजिक व्यवस्थाएं हैं। उनसे समाज के जीवन में थोड़ी सुविधा होती है।
जैसे इंजिन में तेल डालते हैं न, तो तेल के कारण इंजिन के कल-पुर्जे जल्दी नहीं घिसते, ऐसे ही अच्छी आदतें व्यक्तियों के बीच में तेल का काम करती हैं, जल्दी घिसने नहीं देतीं, जल्दी झगड़ा खड़ा नहीं होता। आदत बना ली कि जब भी कोई रास्ते पर मिला, जयरामजी! यह तेल है। इससे रास्ता बना रहता है। इससे झगड़ा-झांसा ज्यादा खड़ा नहीं होता। हालांकि न तुम्हें मतलब है जयराम जी से, न उन्हें मतलब है जयरामजी से! राह पर कोई मिला, पूछ लिया--कहिए कैसे हैं? न तुम्हें मतलब है! और इसीलिए कभी-कभी कोई ऐसा नासमझ भी हो जाता है, कि तुमने पूछा, कहिए कैसे हैं, वह रोक कर सारी कथा बताने लगता है कि कैसा है! तब तुम घबड़ाते हो, कि भई, हमारा यह मतलब नहीं था! मगर अब अच्छे फंसे! यह तो पूछ कर फंस गए। वह बताने लगा अपनी सारी कहानी कि पत्नी बीमार है और बेटे की नौकरी नहीं लग रही है--अब तुमने पूछा! नहीं, कोई इसलिए तो पूछता भी नहीं कि कहिए कैसे हैं। यह तो सिर्फ बीच का तेल है। इससे जिंदगी घिसटती-पिसटती चलती रहती है। अच्छी आदतें लुब्रीकेंट हैं! उससे ज्यादा नहीं।
आदतें कोई अच्छी नहीं होतीं। अच्छा आदमी आदतों से मुक्त होता है। वह प्रतिपल जीता है। अच्छा आदमी स्वभाव से जीता है, बुरा आदमी आदत से जीता है। अच्छा आदमी जयराम जी करता है स्वभाव से। तुम्हें देख कर राम की याद आती है। आनी चाहिए। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उसी की प्रतिमा है। तुम्हें देख कर राम की सुध आ जाती है। एक जीवंत व्यक्ति पास से निकले, जीवन का एक झोंका निकल जाए पास से और तुम्हें राम की याद न आए--तुम मुर्दा हो। सहजस्फूर्त जयराम जी उठे, आदत से नहीं। तब शुभ का जन्म होता है।
लेकिन तुमने तो जीवन बना रखा है, वह आदत का जीवन है। लोग माला भी फेर लेते हैं आदत से। दुकान पर बैठे रहते हैं, ग्राहक भी चलाते रहते हैं, नजर भी रखे रहते हैं--कोई सामान चोरी नहीं ले जा रहा है, कुत्ता भीतर तो नहीं घुस गया, मुनीम कुछ पैसे तो नहीं नदारद कर रहा है, तौलने वाला दांडी मार रहा है कि नहीं मार रहा है--सब चल रहा है और माला भी चल रही है! और राम-राम का जप भी चल रहा है। यह आदत है। आदत से कोई धार्मिक नहीं होता!
लेकिन हमने दुनिया में यह धोखा खड़ा कर लिया है। इसलिए दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक ईमानदार नास्तिक और एक बेईमान नास्तिक! बेईमान नास्तिकों को लोग आस्तिक समझते हैं। आस्तिक तो सच में कभी-कभार होता है। कभी कोई एकाध लाखों में आस्तिक होता है। बाकी तो सब झूठे आस्तिक हैं। बहुतक देखादेखी करहीं।
ऐ हुस्ने-यार! शर्म, ये क्या इंकिलाब है
तुझसे ज्यादा दर्द तिरा कामयाब है

आशिक की बेदिली का तगाफुल नहीं जवाब
उसका बस एक जोशे-मोहब्बत जवाब है

मैं इश्के-बेनियाज हूं, तुम हुस्ने-बेपनाह
मेरा जवाब है, न तुम्हारा जवाब है

मैखाना है उसी का, ये दुनिया उसी की है
जिस तिश्ना-लब के हाथ में जामे-शराब है

ऐ मोहतसिब! न फेंक, मिरे मोहतसिब! न फेंक
जालिम! शराब है, अरे, जालिम! शराब है

अपने हुदूद से न बढ़े कोई इश्क में
जो जर्रा जिस जगह है, वहीं आफताब है

मेरी निगाहे-शौक भी कुछ कम नहीं मगर
फिर भी तिरा शबाब, तेरा ही शबाब है

सर्माया-ए-फिराक ‘जिगर’ आह कुछ न पूछ
इक जान है, सो अपने लिए खुद अजाब है
हाथ में प्याली हो भरी, प्रेम की, प्रार्थना की, उसकी याद की और तुम पीयो, तो आस्तिकता!
मैखाना है उसी का, ये दुनिया उसी की है
जिस तिश्ना-लब के हाथ में जामे-शराब है
लेकिन शराब की बातों से थोड़े ही कोई बेहोश हो जाता है? शराब चाहिए। और लोग शराब की बातों से ही बेहोश हो रहे हैं! किसको धोखा दे रहे हो? लोग डोल रहे हैं शराब की बातों से! बातों से कहीं कोई डोला? तुम अपने को ही वंचना दे रहे हो। इतना सस्ता नहीं है मामला! देखादेखी छोड़ो! बहुतक देखादेखी करहीं।
जोग जुक्ति कछु आवै नाहीं, ...
न तो मिलने का राज पता है कि कैसे उससे मिलें, न मिलने की कोई विधि-कला पता है कि कैसे उससे मिलें।
... अंत भर्म महं परहीं।
अंत में बहुत पछताओगे। जिंदगी भर का धोखा अंत में टूट जाएगा। मौत आएगी और गिरा देगी सारे ताश के महल और डुबा देगी सारी कागज की नावें, और तब तुम चौंकोगे, तब तुम तड़फोगे, लेकिन तब किए कुछ भी न हो सकेगा! बहुत देर हो गई! अब पछताए होत का, चिड़िया चुग गई खेत।
और जिंदगी भर देखादेखी में पड़े रहे। लोग उधार जी रहे हैं, बासे जी रहे हैं। रामायण रट ली है तोतों की भांति, हाथ में शराब का प्याला नहीं है--हाथ में राम का प्याला नहीं है। गीता कंठस्थ कर ली है यंत्र की भांति। ग्रामोफोन के रिकार्ड हो गए हैं। दोहराए चले जा रहे हैं। तुम सोचते हो कि ग्रामोफोन के रिकार्ड, जिनमें भजन भरे हैं, मोक्ष पहुंच जाएंगे? बैकुंठ पहुंच जाएंगे? तो तुम कैसे पहुंच जाओगे? भजन जगना चाहिए--जीवंत, एक लपट की भांति, जो तुम्हारे अहंकार को राख कर जाए। जलो भजन में! तभी नया जन्म होता है।
जोग जुक्ति कछु आवै नाहीं, अंत भर्म महं परहीं।।
अंत में बहुत पछताना होगा, क्योंकि अंत में पता चलेगा कि जिंदगी यूं ही गई। व्यर्थ गई! हिसाब-किताब लगाने में चली गई। न हाथ कुछ आया, न हाथ कुछ लगा। खाली हिसाब लगाते रहे।
बुद्ध कहते थे, एक आदमी अपने घर के सामने बैठकर रोज घर के सामने से निकलती हुई गाय-भैंसों को गिनता रहता था। गांव भर की गाय-भैंसें चरने जातीं नदी के पास, वह बैठा गिनता रहता। सांझ को भी बैठा गिनता कि जितनी गई थीं उतनी वापिस लौटीं कि नहीं? बुद्ध ने कहा, मैं उसे देखता। मैंने उससे पूछा, मेरे भाई, दूसरों की गाय-भैंसें गिनने से तुझे सार क्या है? कितनी गईं, कितनी आ गईं--तेरी तो इसमें एक भी नहीं है। ऐसा ही बुद्ध कहते मैं तुमसे कहता हूं कि कब तक तुम वेद गिनते रहोगे, कुरान गिनते रहोगे? कब तक तुम शास्त्रों के शब्द दोहराते रहोगे? इनमें एक भी तुम्हारा अपना नहीं है, निज का नहीं है। एकाध तो अनुभव तुम्हारा निज का हो जाने दो। उस पर ही भित्ति खड़ी होती है। जीवन का मंदिर उसी पर निर्मित होता है।
गे भरुहाइ अस्तुति जेइ कीन्हा, मनहिं समुझि ना परई।
मगर तुम भूल जाते हो। लोगों की स्तुतियां! लोग कहते हैं--आह! कैसा ज्ञान आपका! पंडित जी, धन्यभागी आप! लोग स्तुति कर जाते हैं, लोग कहते हैं कि वाह, पूरे उपनिषद कंठस्थ हैं आपको! वेद याद है आपको! प्रसा हो गए तुम, फूले नहीं समाते। ‘गे भरुहाइ’... खूब फूल जाते हो स्तुति से... ‘मनहि समुझि ना परई’, इतनी सी बात तुम्हें समझ में नहीं आती कि इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है? दोहराते रहो वेद, क्या होगा? वेद का जन्म होना चाहिए तुम्हारे प्राणों में। बाहर से भीतर की तरफ नहीं जाता वेद, भीतर से बाहर की तरफ आता है।
फर्क ऐसा ही है जैसे हम एक सीमेंट की हौज बना लेते हैं, उसमें पानी भर देते हैं--बाहर से। मगर हौज में और कुएं में कुछ फर्क है या नहीं? कुएं में पानी भीतर से आता है, उसमें से हम पानी निकालते जाते हैं और पानी आता चला जाता है। कुएं के संबंध जुड़े हैं सागर से, दूर झरनों से। उसके बड़े स्रोतों का जाल फैला है। गरीब नहीं है कुआं, जितना दिखता है उतना ही नहीं है कुएं में, बहुत है, अदृश्य छिपा है। तुम निकालते जाओ और कुआं भरता चला जाता है--और नया ताजा जल आता चला जाता है। लेकिन हौज भरी तो कुएं जैसे ही दिखाई पड़ती है, मगर निकालो पानी तो पता चल जाएगा कि हौज है। नया कुछ नहीं आता। और हौज ज्यादा दिन भरी रहे तो जो भर दिया था पानी--जब भरा था, ताजा था, जब निकालोगे तो गंदा हो चुका होगा, मुर्दा हो चुका होगा। पानी बहता रहे तो ताजा होता है। भर जाए तो मर जाता है।
पंडित में ज्ञान बाहर से भरा जाता है--पंडित हौज है। ज्ञानी कुआं है। उसमें भीतर से आविर्भूत होता है, उसके पास झरने हैं, वह परमात्मा से जुड़ा है। मगर झूठी स्तुति बड़ा रस दे देती है लोगों को। जरा देख लेना कि किसकी स्तुति से प्रसन्न हो रहे हो? न उन्हें कुछ पता है, न तुम्हें कुछ पता है, अंधे अंधों की स्तुति कर रहे हैं। कुछ समझो। ऐसे नहीं चलेगा। इस तरह कभी नहीं चला।
काम आरि जज्बा-ए-बेइख्तियार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उनको प्यार आ ही गया

जब निगाहें उठ गगईं अल्लाह री मे’ राजे-शौक
देखता क्या हूं वो जाने-इंतिजार आ ही गया

हाय ये हुस्ने-तसव्वुर का फरेबे-रंगो-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने-बहार आ ही गया

हां सजा दे ऐ खुदा-ए-इश्क ऐ तौफीके-गम
फिर जबाने-बेअदब पर जिक्रे-यार आ ही गया

इस तरह खुश हूं किसी के वादा-ए-फर्दा पे मैं
दर हकीकत जैसे मुझको एतिबार आ ही गया

हाए काफिर दिल की ये काफिर जुनूं-अंगेजियां
तुमको प्यार आए न आए मुझको प्यार आ ही गया

जान ही दे दी ‘जिगर’ ने आज पाए-यार पर
उम्र-भर की बेकरारी को करार आ ही गया
जब तक तुम सच में ही न झुकोगे उसके चरण पर--
जान ही दे दी ‘जिगर’ ने आज पाए-यार पर
आज प्रेमी के पैर पर प्राण दे दिए--
उम्र-भर की बे.ारारी को करार आ ही गया
तभी जीवन भर की अशांति मिटती है और शांति के मेघ घिरते और बरसते हैं। तभी जीवन का अंधकार मिटता है और सुबह होती है।
काम आखिर जज्बा-ए-बेइसिख़्तयार आ ही गया
लेकिन भावनाएं चाहिए उबलती हुईं, प्रार्थनाएं चाहिए नाचती हुईं।
काम आखिर जज्बा-ए-बेइख्तियार आ ही गया
असीम आकांक्षा चाहिए, अभीप्सा चाहिए।
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उनको प्यार आ ही गया
तड़पो! लेकिन बहुत हैं जो तड़पना ही नहीं जानते। बहुत हैं जो बिना तड़पे ही मान लेते हैं। वे झूठों में पड़ जाते हैं। वे भ्रांतियों में उलझ जाते हैं। वे अपने ही मन के सपनों में भटक जाते हैं।
रहनी गहनी आवै नाहीं, सब्द कहे तें लरई।।
न तो रहना आता, न परमात्मा को गहना आता है--न उसे ग्रहण करने की क्षमता है, न उसे जीने की क्षमता है--न परमात्मा को अपने भीतर प्रविष्ट होने देते हो--डरे हो, सब तरफ से द्वार-दरवाजे बंद करके बैठे हो, न सूरज की किरण घुस सके, न हवा आ सके, न वर्षा आ सके--सब तरफ से द्वार-दरवाजे बंद किए बैठे हो, .जरा भी जगह खाली नहीं छोड़ी है, खुली नहीं छोड़ी है, ऐसे डरे हो! कब्र बना ली है अपने चारों तरफ। खुला करो अपने को। आने दो उसकी रोशनी, आने दो उसकी वर्षा, आने दो उसका पवन, बहने दो उसे तुम्हारे भीतर।
रहनी गहनी आवै नाहीं, ...
न तो तुम गहन करते हो उसे--तो रहोगे कैसे? उसे जीओगे कैसे? आने दो उसे भीतर। फिर तुम्हारा जीवन उसी से आपूरित हो जाएगा। लेकिन शब्दों में खूब उलझ गए हो। इतने उलझ गए हो कि शब्दों के पीछे बड़ा लड़ाई-झगड़ा कर रहे हो। .जरा कुरान के खिलाफ बोल दो! मुसलमान आ गया लेकर लट्ठ। इसे क्या पता है कुरान का? जरा वेद के खिलाफ बोल दो! चले, आर्यसमाजी आ गए! झगड़ा करने! जैसे उन्हें पता है कि वेद में क्या है। अपने भीतर क्या है, उसका जब तक पता न हो तब तक न वेद का पता होता है, न कुरान का पता होता है।
सब वेदों की वेद, सब किताबों की किताब भीतर है। पहले उसे पढ़ो। उसे पढ़ लिया तो सब शास्त्र पढ़ लिए। उसे बिना पढ़े तुमने जो भी पढ़ा है, सब कूड़ा-करकट है। बोझ है, भार है; मुक्ति का मार्ग नहीं है, बंधन का उपाय है। उससे तुम अपनी जंजीरें गढ़ सकते हो। और सुंदर जंजीरों को तुम चाहो तो आभूषण भी मान सकते हो। मगर तुम कारागृह में बंद रहोगे।
जगजीवन कहते हैं, शब्दों पर लोग लड़ने को तैयार हैं। शब्दों पर ही लड़ते रहे हैं। बुद्ध, महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट का थोड़े ही कोई झगड़ा है--कैसा झगड़ा--लेकिन लोगों का झगड़ा चल रहा है। ईसाई मुसलमानों को काटते रहे, मुसलमान ईसाइयों को काटते रहे, हिंदुओं ने बौद्धों को जला दिया--यह चलता रहा। मंदिर जलाए जाते रहे, मस्जिदें उखाड़ी जाती रहीं, शास्त्र मिटाए जाते रहे, मूर्तियां तोड़ी जाती रहीं--ये कौन लोग हैं? जो शब्दों पर लड़ रहे हैं। शब्द का इतना मूल्य नहीं है। असली मूल्य है रहनी-गहनी का।
रहनी गहनी आवै नाहीं, सब्द कहे तें लरई।।
और अगर ऐसे लोगों से तुम यह भी कहो कि भाई, कुछ रहो, कुछ जिओ, कुछ ग्रहण करो, तो भी लड़ने को तैयार हो जाते हैं। वे कहते हैं--तुमने हमें समझा क्या है? हम कोई अज्ञानी हैं! .जरा-.जरा सी बात पर लोग लड़ने को तैयार हो जाते हैं।
नहीं विवेक कहै कछु औरे, और ज्ञान कथि करई।
कुछ तो लोग कहते हैं और कुछ करते हैं। उनका कहना एक है और कहना बिल्कुल विपरीत है। और उन्हें जरा भी होश नहीं है कि किस तरह से जी रहे हो? यह कैसा धोखा? यह कैसा अपने को खंडों में काट लिया है? वही कहो, जो जीते हो। वही जीओ, जो कहते हो। एकरस बनो। क्योंकि जो एकरस होगा, वही उस परम रस को पा सकेगा। जो एक होगा, वही उस एक को पा सकेगा। उस एक को पाने के लिए कम से कम इतनी भीतर तो तैयारी करो कि एक हो जाओ।
नहीं विवेक कहै कछु औरे, और ज्ञान कथि करई।
सूझि-बूझि कछु आवै नाहीं, भजन न एकौ सरई।।
तुमने कितनी प्रार्थनाएं की हैं, कोई प्रार्थना फली? तुमने कितने भजन किए हैं, कोई फूल लगे? तुम कितनी बार मंदिर में झुके, रोशनी बरसी? सब करते रहे और कुछ भी तो हुआ नहीं--फिर भी तुम्हें समझ नहीं आती कि करने में कहीं चूक हो रही है। ‘सूझि बूझि कछु आवै नाहीं’, तुम्हें इतनी सूझ-बूझ भी नहीं, कितने दफा तुम सिर पटक आए हो मंदिर की देहलीज पर--पाया क्या है? उपलब्धि क्या है? जैसे के तैसे। ऐसे कब तक समय को गंवाए चले जाओगे?
‘कहा हमार जो मानै कोई।’ जगजीवन कहते हैं, सुनो, गुनो, मान लो हमारी, क्योंकि हम जीकर कह रहे हैं, क्योंकि हम वेद से नहीं कह रहे हैं, यह वेद हमारे भीतर जन्मा है उससे कह रहे हैं।
मैंने सुना है, एक यहूदी फकीर बोलता था, अपने अनुभव की बोलता था। लेकिन अनुभव की बात .जरा बेबूझ होती है। उसके सुनने वाले जो आते थे सिनागाग में, उनको उसकी कुछ बातें जंचती नहीं थीं। बेबूझ लगती थीं। अतर्क्य लगती थीं। कुछ तारतम्य नहीं बैठता लगता था, कुछ संगति नहीं मालूम पड़ती थी। तो एक दिन उन्होंने कहा कि हम आपको सुनने आते हैं हमेशा, लेकिन कुछ समझ में नहीं आता। कुछ ऐसा कहो कि हमारी समझ में पड़े। उसने कहा, अगली बार। अगली बार वह फकीर खड़ा हुआ, पहले उसने अपना बायां हाथ ऊपर उठाया और दो अंगुलियां लोगों को दिखाईं। लोगों ने बड़े गौर से देखा! ऐसे उसने कभी किया नहीं था! फिर बोलना शुरू किया। धाराप्रवाह! लोगों को मस्त कर दिया! ऐसा बोला जैसा कभी नहीं बोला था। और जब बोलना खत्म किया तो तालियों की गड़गड़ाहट से सिनागॉग गूंज गया। तब उसने अपना दूसरा हाथ उठाया और दो अंगुलियां ऊपर उठाईं।
जब वह उतरा मंच से तो लोगों ने उसे घेर लिया कि और सब तो समझ में आया, मगर यह रा.ज क्या? पहले बाएं हाथ की दो अंगुलियां उठाईं, फिर दाएं हाथ की। उसने कहा, ये उद्धरण-चिह्ल, कोटेशन मार्क्स। यह अपना नहीं था, यह सब उधार था। इसलिए तुम्हें जंचा। अरे मूढ़ो, ये सब किताब की लिखी कही। ये उद्धरण चिह्ल थे। इनके बीच में जो भी कहा, अपना था ही नहीं। सब कचरा था। इसीलिए तुम्हें जंचा। तुम कचरे के आदी हो गए हो। मैं अपनी गुनी कहता हूं, तुम्हें जंचती नहीं। क्योंकि जब सीधे-सीधे अनुभव से कुछ आता है, तो समझने के लिए पात्रता चाहिए। जब सीधा-सीधा अनुभव बरसता है, ताजा और गर्म, तो हिम्मत चाहिए अपने को खोलने की। और जब सीधा-सीधा कुछ आता है तो न तो हिंदू होता, न मुसलमान होता, न यहूदी होता। वह फकीर इतने दिन से बोलता था और किसी की समझ में नहीं आता था। उस दिन समझ में आया, क्योंकि उस दिन वह वही बोला जो यहूदी किताबों में लिखा है। कचरा। उधार। बासा।
तुम भी जब कोई गीता सुनाने लगता है, एकदम सिर हिलाने लगते हो। वह सिर तुम आदत के वश हिला रहे हो। शायद तुम्हें ठीक-ठीक पता भी न हो कि क्यों हिला रहे हो? और लोग हिला रहे हैं शायद इसलिए हिला रहे हो। ‘बहुतक देखा-देखी करहीं’। या यह सोच कर कि जब सब हिला रहे हैं, अपन न हिलाओ, जरा ठीक नहीं मालूम होता!
मार्क ट्वेन फ्रांस गया। मार्क ट्वेन अमरीका का बड़ा लेखक था। फ्रांस में उसके बेटे का बेटा पढ़ता था। उसके स्वागत का समारोह हुआ। मार्क ट्वेन आया था तो पेरिस में बड़ा समारोह हुआ। उसे फ्रांसीसी भाषा नहीं आती थी। मगर उसका जो बारह-तेरह साल का नाती था, उसको आती थी। मार्क ट्वेन ने होशियारी की। उसने कहा कि मैं इसको देखता रहूंगा, इसके अनुसार चलता रहूंगा--किसी को पता भी नहीं चलेगा। तो जब उसका बेटा ताली बजाए तो वह भी ताली बजाए। जब उसका बेटा हंसे तो वह भी हंसे। आखिर में वह बड़ा प्रसन्न था कि किसी को पता भी नहीं चल पाया कि मुझे फ्रांसीसी भाषा नहीं आती। जब लौटने लगे तो बेटे ने कहा--दादा जी, आपने मेरी तक बड़ी फजीहत करवाई। फजीहत! उसने कहा--हां। क्योंकि जब वे आपकी तारीफ करते थे तब मैं ताली बजाता था--और आप भी ताली बजाने लगते थे! लोग बड़े चौंकते थे। मेरा ताली बजाना ठीक, लोगों का ताली बजाना ठीक, आप तो कम से कम संयम रखते! आप क्यों ताली बजाते थे? उन्होंने कहा--हद हो गई, मैं तो तुझे ही देख कर चल रहा था। मैंने तो यही सोच लिया था कि तू जो करेगा, वही करूंगा, क्योंकि मुझे भाषा आती नहीं।
अक्सर लोग वही कर रहे हैं जो दूसरे कर रहे हैं, क्योंकि जीवन की भाषा उन्हें नहीं आती। और जीवन की भाषा ही परमात्मा की भाषा है। और उसकी पाठशाला तुम्हारे भीतर है।
कहा हमार जो मानै कोई, सिद्ध सत्त चित धरई।
अगर कोई हमारी बात मान ले, तो सत्य दूर नहीं है। चित्त में ही छिपा है। सिद्धि भी दूर नहीं है, तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है।
जगजीवन जो कहा न मानै, भार जासए सो परई।।
उसकी मर्जी! भाड़ में पड़ेगा!
बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं।
गीत उठने दो अपना। उठने दो वाणी अपनी। खिलने दो फूल अपने, उधार मत खरीद लाओ बाजार से। ले आ सकते हो, प्लास्टिक के फूल मिलते हैं बाजार में, लटका दे सकते हो वृक्षों में--शायद पड़ोसियों को धोखा भी हो जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन मेरे करीब कुछ दिन रहा। पड़ोस में ही उसका मकान था। रोज मैं उसको देखता, मैं थोड़ा हैरान होता, उसने अपनी खिड़की पर एक गमला लटका रखा था, उसमें फूल-पत्तियां दूर से बड़े प्यारे लगते थे, मैं रोज उसको देखता कि वह उसमें लोटे से पानी डाल रहा है, लेकिन पानी उसमें से, लोटे में से कभी गिरता ही नहीं। खाली लोटा! एक दिन मैंने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, चमत्कार कर रहे हो तुम! कई दफे मैं देख चुका, कभी पानी तुम्हारे लोटे में से गिरता नहीं है। उसने कहा, फूल ही ये कौन सच्चे हैं! प्लास्टिक का है। मगर मोहल्ले के लोगों को धोखा देने के लिए कि प्लास्टिक का नहीं है, मैं पानी दिखाने का भी ढोंग करता हूं रोज सुबह कि पानी डालता हूं। नहीं तो लोग समझेंगे पानी तो कभी डालता ही नहीं, तो फूल नकली होंगे। फूल ही कौन असली हैं, जो असली पानी डालो! फूल भी नकली हैं, पानी भी नकली है।
ऐसी तुम्हारी जिंदगी है--फूल भी नकली हैं, पानी भी नकली है। फिर तुम आनंदित होना चाहते हो? आनंद नकल से संभव नहीं है। असल होना होगा। असल होने का ही पुरस्कार है आनंद।
बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं।
एक तो कवि होता है, जिसके भीतर से गीत उठता है। और एक होता है, तुकबंद। तुकबंद के भीतर से गीत नहीं उठता। वह तुकबंदी कर लेता है। वह जोड़-तोड़ कर शब्दों को जमा-बिठा कर मात्रा-छंद का सब हिसाब बिठा देता है, मगर होता तुकबंद ही है। उसे तकनीक मालूम है, लेकिन उसके प्राणों में काव्य नहीं है। यही तो कवि और तुकबंद का भेद है।
और यह भेद तुम्हें सब जगह मिलेगा।
कोई चाहे तो चित्रकला सीख सकता है, उसको रंगने की कला आ जाएगी। लेकिन अगर उसके भीतर चित्र ही नहीं जन्मते, अगर उसके भीतर सपने ही नहीं उठते रंगीन, तो वह क्या खाक चित्र बनाएगा? वह रंग भरने की कला जानता है, किसी तरह रंग भर देगा, नकल कर देगा, झाड़ बाहर हैं वैसे ही झाड़ बना देगा... ।
पश्चिम के बहुत बड़े चित्रकार विन्सेंट वानगॉग ने इस तरह के चित्र बनाए हैं कि लोग बड़े चकित होते थे। एक चित्र में झाड़ इतने ऊंचे चले गए हैं, इतने ऊंचे चले गए हैं कि चांद-तारों को छू गए। किसी ने पूछा कि वानगॉग, हमने वृक्ष बहुत देखे हैं, मगर कोई वृक्ष चांद-तारों को नहीं छूता। वानगॉग ने कहा, मैं कोई फोटोग्राफर नहीं हूं, चित्रकार हूं। फोटोग्राफर तो उतना ही कर सकता है जितना बाहर है। मैं वृक्षों की आत्मा को पहचानता हूं। मैं इनके पास बैठा हूं। मैंने वृक्षों के भीतर झांका और देखा है। मैंने वृक्षों का अनुभव किया है। माना कि चांद-तारों तक पहुंच नहीं पाते लेकिन आकांक्षा है। पहुंचना चाहते हैं। मैंने सुना है कान लगा कर उनके हृदय की धड़कन को, हर वृक्ष चांद-तारों को छूना चाहता है। यह मैं तुमसे कहता हूं मेरी मानो, भरोसा करो, मैं उनकी भाषा जानता हूं। जो वे नहीं कर पाते हैं, वह मैंने उनके लिए किया है।
यह चित्रकार है। यह कोई फोटोग्राफर नहीं है। फोटोग्राफी में और चित्रकला में यही तो फर्क है।
अभी कुछ दिन पहले पश्चिम में बड़ा तहलका मचा था। चर्चिल की पत्नी ने चर्चिल का एक बनाया हुआ चित्र जिसकी कीमत कम से कम दस लाख से लेकर पचास लाख रुपया थी, जला दिया। जब बनाया गया था चित्र, चर्चिल जिंदा था। लेकिन जैसे ही चित्र बनाया गया, पत्नी को पसंद नहीं आया। चर्चिल को भी पसंद नहीं आया। उन्होंने उसे तलघरे में छिपा कर रख दिया। जिस चित्रकार ने बनाया था--दुनिया के बड़े चित्रकारों में से एक। फिर उस चित्र का कुछ पता ही नहीं चला। फिर चर्चिल के मरने के बाद खोज-बीन शुरू हुई कि वह चित्र कहां है लेकिन तब भी उसकी पत्नी ने कुछ पता नहीं चलने दिया, फिर अभी पत्नी मरी, जब पत्नी मरी तब खोज-बीन पूरी तरह शुरू हुई कि अब तो चित्र मिलना ही चाहिए। खोज-बीन करने से पता चला कि वह चित्र मिला नहीं, लेकिन खबर मिली नौकर-चाकरों से कि वह चित्र चर्चिल की पत्नी ने जला दिया। वह लाखों रुपए की अमूल्य निधि जला दी, क्यों? पत्नी नाराज थी, चर्चिल भी नाराज था उस चित्र से। चर्चिल ने चित्रकार से कहा भी था कि क्या मैं ऐसा दिखाई पड़ता हूं? चित्रकार ने कहा--आप ऐसे दिखाई नहीं पड़ते, लेकिन आप ऐसे हैं। यह भेद भारी है। यह आपकी आत्मा है, खूंखार, चालबाज, बेईमान, सब तरह से कपटी राजनीतिज्ञ को होना पड़ता है। राजनीति का वह धंधा है। राजनीतिज्ञ दिखता कुछ और है, होता कुछ और है। चित्रकार ने कहा, मुझे तुम्हारे दिखने से क्या लेना-देना, यह तो चार पैसे का कैमरा भी उतार देगा--इसमें रखा क्या है? जो तुम दिखाई पड़ते हो, यह तो कैमरा कर देगा, इसमें मुझे मेहनत करने की क्या जरूरत है? मैं तो वह आंक रहा हूं, जो तुम हो। मगर वह बरदाश्त नहीं था। उसे छिपा दिया, उसको जला दिया चित्र को।
साधारण चित्रकार कैमरे का काम करता है, वह चित्रकार नहीं है; तक्नीशियन है। वास्तविक जो चित्रकार है, वह आत्माओं में उतरता है, गहराइयों में डूबता है, ऊंचाइयों में उड़ता है, वह मोती लाता है गहरे सागर से। ‘बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं’। ऐसे तुकबंदी मत करो जीवन की। और परमात्मा को तुम उधार कर सकोगे? उधार जाग सकोगे? जी सकोगे? उधार पा सकोगे? इस भ्रांति में न पड़ो। परमात्मा तो एक गीत है जो तुम्हारे प्राण जब गाएंगे, तभी तुम जानोगे। तुकबंदी नहीं, परमात्मा तो एक संगीत है। जब तुम शांत होओगे तब तुम्हारे भीतर जगेगा, उठेगा। और तुम्हारे प्राणों को आपूरित कर देगा। आकंठ तुम भर जाओगे, आल्हादित हो उठोगे। परमात्मा वेद और कुरान में नहीं है, परमात्मा तुम्हारी श्वास-श्वास में है, हृदय की धड़कन-धड़कन में है।
साधन कहा सो काटि-कपटिकै, अपन कहा गोहरावहिं।
शास्त्रों से ले-लेकर, उधार, अपना बता-बता कर तुम किसको धोखा दे रहे हो? ‘निंदा करहिं विवाद जहां तहं, ...  और इस कारण जगह-जगह तुम्हें विवाद में पड़ना पड़ता है, जगह-जगह निंदा में पड़ना पड़ता है... ‘वक्ता बड़े कहावहिं।’ बस एक ही शायद तुम्हें मजा आ रहा हो कि लोग कहते हैं--खूब बोलने वाला! कि खूब लिखने वाला! कि खूब सुंदर वचनों का धनी! लेकिन यह सब वचन ऊपर-ऊपर हैं, ये थोथे हैं, ये तुम्हारे प्राणों के नहीं है। इनकी जड़ें तुम्हारे अस्तित्व में नहीं हैं। इससे तुम हो सकता है दूसरों से थोड़ी वाह-वाही ले लो, थोड़े लोग तालियां बंजा दें और तुम्हारी प्रशंसा कर दें, स्तुति कर दें, तुम्हारा अहंकार थोड़ा भर जाए, लेकिन जितना अहंकार भरेगा उतने ही तुम दूर चले गए परमात्मा से। पास आना तो दूर, और दूर चले गए।
आपु अंध कछु चेतत नाहीं, औरन अर्थ बतावहिं।।
आंख तो खोलो अपनी। दूसरों को राह बताने चल पड़े हो! इस दुनिया में अगर पंडित लोगों को राह बताना बंद कर दें तो बहुतों को राह मिल जाए। पंडितों के कारण राह नहीं मिल पाती। उन्हें खुद पता नहीं है लेकिन बताने का मजा लेते हैं। जिन्हें कुछ पता नहीं है ध्यान का, वे ध्यान पर किताबे लिखते हैं। जिन्हें कुछ पता नहीं है ध्यान का, वे ध्यान की दीक्षा देते हैं। जिन्होंने कभी प्रार्थना जानी नहीं है, वे प्रार्थना समझाते हैं, करवाते हैं।
मैं चकित हुआ हूं यह देख कर--इस देश के बड़े से बड़े साधु-संन्यासियों से सब से मेरा संबंध आया--मै चकित हुआ यह जान कर; कोई ध्यान का उन्हें पता नहीं।
जैनों के एक बड़े गुरु हैं, आचार्य तुलसी। मुझे निमंत्रण दिया था तो मैं गया। फिर दोपहर मुझसे अलग मिलना चाहे। मैंने कहा, अलग मिलने की क्या जरूरत? और भी बहुत लोग उत्सुक हैं सुनने को कि मेरे आपके बीच क्या बात होगी, उनको भी सुनने दें! उन्होंने कहा कि नहीं, यह बात एकांत में करने की है। मैंने सोचा कि जरूर उन्हें कोई गहरी बात पूछनी होगी, एकांत में करने की, ठीक है।
एकांत में मिलना हुआ। जो पूछा वह यह था कि ध्यान कैसे करें? तो मैंने कहा, आप सात सौ साधुओं के गुरु हैं, इनको आप क्या सिखाते हैं? इनको आप क्या करवाते हैं? आप सात सौ साधुओं के बड़े पंथ के आचार्य हैं। अगर ध्यान भी इनको नहीं सिखाया है, तो किस धोखे में डाल रखा है? आपको भी पता नहीं है! तो आप सिखाएंगे कैसे? और जिस गुरु ने आपको आचार्य के पद पर बिठाया, उसको पता था? अगर पता था तो तुमको तो कम से कम आचार्य के पद पर नहीं बिठा सकता था। तब से जो मुझसे नाराज हुए हैं, तो नाराज ही हैं!
मैंने कहा, मैं ध्यान समझा सकता हूं, करवा भी सकता हूं, लेकिन सवाल यह है कि यह धोखाधड़ी क्या है फिर? और फिर सबके सामने स्वीकार करने में डर क्या है? एकांत की क्या जरूरत है? यह ज्यादा साधुतापूर्ण हुआ होता कि अपने सारे--कोई बीस हजार लोग इकट्ठे हुए थे वहां--सारे अपने श्रावकों के सामने मुझसे कहा होता कि मुझे ध्यान नहीं आता। यह ज्यादा साधुतापूर्ण हुआ होता। यह ज्यादा विनम्रतापूर्ण हुआ होता।
लेकिन ठीक है, मुझसे पूछा है तो मैंने उनसे ध्यान के संबंध में बात की। ध्यान उन्हें समझाया और उसका जो उन्होंने उपयोग किया वह केवल इतना है कि अब वह दूसरों को ध्यान करवा रहे हैं। उन्होंने किया नहीं है। क्योंकि मैं कुछ गलत बातें उनको बता आया था, वे भी वह दूसरों को समझा रहे हैं। अगर किया होता तो वे गलत बातें छूट जातीं। इसलिए जान कर मैं उतनी शर्त उसमें लगा आया था। वह जिसने ध्यान किया है वह तो बातें कह ही नहीं सकता। वह मैं जानकर ही रख आया था, थोड़ी-सी तरकीब उसमें लगा आया था कि यह करेंगे तो मुझे पता चल जाएगा, कि इन्होंने किया कि नहीं किया! लेकिन अब वह शिविर लेते हैं--ध्यान के शिविर! दूसरों को ध्यान करवा रहे हैं! ‘आप अंध कछु चेतत नाहीं, औरन अर्थ बतावहिं।।’
औरों को अर्थ बताने चल पड़ते हैं। ‘जो कोइ राम का भजन करत’ है, तेहि कां कहि भरमावहिं। ‘ और यहां तक हो जाती है हालत कि कभी-कभी सीधे-सीधे लोग--जो राम से जुड़ ही जाते--इन बताने वालों के कारण नहीं जुड़ पाते। सीधे-साधे लोग, जिनको व्यवस्था नहीं है, विधि नहीं है, विधान नहीं है, ज्ञान नहीं है, पांडित्य नहीं है, शायद सरलता से, निर्दोषता से परमात्मा को पुकारते और जुड़ जाते--तो इनके कारण नहीं जुड़ पाते। क्योंकि ये उनको विधि-विधान देने को तैयार खड़े हैं। ये कहते--ऐसा करो!
टालस्टाय की प्रसिद्ध कहानी है। एक फकीर की खूब ख्याति हो गई। तो रूस का जो सबसे बड़ा धर्मगुरु था, उसने पता लगवाया। पता चला कि एक फकीर नहीं है, वे तीन हैं। चूंकि उनका नाम नहीं है किसी का भी कुछ, इसलिए वे एक की तरह ही जाने जाते हैं। वह एक झील के पार रहते हैं। और वहां हजारों लोग उनके दर्शन को जाते हैं और बड़ा आनंद पाते हैं। उसने कहा, यह हमें पता भी नहीं है। और मेरे बिना कोई संतत्व को उपलब्ध हो जाए, यह हो नहीं सकता। ईसाइयत में यह नियम है। जैसे सर्टिफिकेट होता है, ऐसे ही ईसाई चर्च सर्टिफिकेट देता है संतत्व का कि कौन संत? जब तक ईसाइयत से सर्टिफिकेट न मिल जाए, चर्च से, तब तक कोई अपने को संत नहीं कह सकता।
बड़ा नाराज हुआ प्रधान धर्मगुरु और गया नाव में बैठ कर। देखा उन तीन सीधे-साधे आदमियों को, वे झाड़ के नीचे बैठ थे बड़े प्रसन्न, सुबह की धूप थी, बड़े आनंदित, डोल रहे थे। तीनों ने उठकर चरण मेरे छुए धर्मगुरु के, धर्म गुरु तो उसी से आश्वस्त हो गया कि इन्होंने चरण मेरे छुए, मामला खत्म हो गया, काहे के संत-वंत हैं! वह तो बेचारे सीधे-साधे लोग थे, संत थे, इसीलिए चरण छुए। लेकिन उसने सोचा, जब मेरे चरण छू रहे हैं तो बात साफ हो गई कि मैं इनसे ऊपर हूं यह भी जानते हैं। पूछा कि तुम्हारा ये सारे संतत्व का इतना प्रचार कैसे हुआ? उन्होंने कहा, हमें कुछ पता नहीं, लोग आने लगे। हम तो समझाते हैं कि भाई, यहां न आओ, क्यों भीड़-भाड़ करते हो? भीड़-भाड़ छोड़ कर तो हम यहां जंगल में आ गए हैं, मगर लोग पीछा नहीं छोड़ते! मगर उनके चेहरे पर एक चमक तो थी। वह तो इस अंधे धर्मगुरु को भी दिखाई पड़ रही थी। चमक ऐसी थी कि अंधा भी देख लेता। कहा--लेकिन तुम करते क्या हो? तुम्हारी साधना क्या है? उन्होंने कहा, हम, आपसे क्या छिपाना! तू बता दे, उन्होंने अपने साथी से कहा। उसने तीसरे से कहा कि भाई, तू बता दे! वे तीनों एक-दूसरे पर टालने लगे, बड़े शर्मिंदा होने लगे, आंखें नीची झुकाने लगे। उस धर्मगुरु ने कहा, ऐसी शर्मिंदगी की बात क्या है, कोई खराब काम करते हो? नहीं, खराब काम नहीं करते, लेकिन अब आपसे क्या कहना, कैसे कहना? हमें प्रार्थना इत्यादि कुछ आती नहीं, हम बेपढ़े-लिखे गंवार हैं, तो हमने खुद ही गढ़ ली है प्रार्थना।
ईसाइयत मानती है, परमात्मा के तीन रूप हैं। परमात्मा पिता, परमात्मा बेटा--जीसस--और दोनों के मध्य में पवित्र-आत्मा। ऐसे तीन परमात्मा के रूप हैं। तो हमने अपनी एक प्रार्थना खुद ही गढ़ ली है कि हे प्रभु, तुम भी तीन हो, हम भी तीन हैं, हम तीनों पर कृपा करो! धर्मगुरु ने सुना तो चौंक गया यह प्रार्थना! उसने कहा, बंद करो यह प्रार्थना, यह बकवास है! यह है हमारी स्वीकृत प्रार्थना।
बड़ी लंबी स्वीकृत प्रार्थना उसने दोहराई।
उन तीनों ने कहा, एक दफा और दोहरा दें क्योंकि हम भूल जाएंगे। जब धर्म-गुरु चलने लगा तो उन्होंने फिर पकड़ कर कहा कि एक दफा और, बस एक दफा और! जब वह नाव में बैठने लगा तो उन्होंने कहा, बस एक दफा आखिरी दोहरा दें, हम भूल जाएंगे तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी! फिर उसने दोहराई और वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि तीन भटके हुए लोगों को रास्ते पर ले आया। और जब वह नाव में बैठ कर चला और बीच झील में नाव थी, तब उसने देखा कि वे तीनों भागते चले आ रहे हैं पानी पर। घबड़ा गया जब उनको पानी पर दौड़ते देखा! एक बवंडर की तरह चले आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि रुको, हम भूल गए, फिर से एक बार! तब उसे होश आया कि मैंने क्या किया? झुक कर उनके चरण छुए और कहा--तुम्हारी प्रार्थना सुन ली गई है, तुम अपनी प्रार्थना जारी रखो, मेरी प्रार्थना भूल जाओ। मैं तो जन्म-जन्म से कर रहा हूं यह प्रार्थना, अभी पानी पर चलने की मेरी सामर्थ्य नहीं। तुम्हारी प्रार्थना सुन ली गई है। तुम अपनी पुरानी प्रार्थना में ही लग जाओ।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है, सीधे-सरल लोग पहुंच जाते हैं। मगर पंडित नहीं पहुंचने देते।
जो कोइ राम का भजन करत हैं, तेहिकां कहि भरमावहिं।
जा भी ऐ नासेह! कहां का सूद और कैसा जियां
इश्क ने समझा दिया है इश्.क का हासिल मुझे
कह देना धर्मोपदेशकों से--जाओ भी, ‘जा भी ऐ नासेह!’ ये हिसाब-किताब की, पाप-पुण्य की, लाभ-हानि की, स्वर्ग-नरक की बकवास मुझसे मत कर!
जा भी ऐ नासेह! कहां का सूद और कैसा जियां
इश्क ने समझा दिया है इश्क का हासिल मुझे
मुझे तो प्रेम में ही मिल गया है सब, प्रेम ही प्रेम की उपलब्धि है, और कुछ मुझे पाना नहीं है--न कोई बैकुंठ; न कोई स्वर्ग; न कोई नरक का मुझे भय है और न मुझे किसी स्वर्ग का कोई लोभ है। ‘इश्क ने समझा दिया है इश्क का हासिल मुझे।’ बस प्रेम पर्याप्त प्रार्थना है।
माला मुद्रा भेष किए बहु, जग परमोधि पुजावहिं।।
ये जो पंडित-पुजारी परमात्मा की पूजा करते हैं, असल में परमात्मा की पूजा में इनका रस नहीं है, ये चाहते हैं--ये पूजे जाएं लोगों के द्वारा। जगत इनको पूजे।
आंखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा गुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नजर तो नजर का .कुसूर था
और जो आदमी अपने को पुजवाना चाहता है, वह क्या पूजा करेगा? हां, जो पूजा करता है, उसकी पूजा शुरू हो जाती है--यह बात और है। ये दोनों एक जैसी दिखाई पड़ती हैं, पर बड़ी भिन्न हैं। जो परमात्मा की पूजा करते-करते परमात्मा में लीन हो जाता है, हजारों लोगों को उसमें परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं--उसके व्यक्तित्व में, उसकी मौजूदगी में, उसके अस्तित्व में, उसकी आभा में, उसके मौन में, उसके शब्दों में। लोग उसके प्रति झुकने लगते हैं इसलिए नहीं कि उसके प्रति झुकते हैं, बल्कि उसके बहाने परमात्मा के प्रति झुकने लगते हैं। वह तो होता ही नहीं। वह तो मिट गया। वह तो एक झरोखा है। उस झरोखे से लोग दूर के चांद-तारे देखने लगते हैं।
मगर जो इसी चेष्टा में लगे हैं कि हमारी पूजा हो, उनको परमात्मा का मिलना तो बहुत दूर, हां उनका अहंकार जरूर भरेगा। और इस अहंकार के भरने के कारण वे न मालूम कितने लोगों को भटकाने के कारण हो जाएंगे।
नास्तिकों ने दुनिया को नहीं भटकाया है, तथाकथित आस्तिक पंडितों ने, पुरोहितों ने, दुनिया को भटकाया है। नास्तिक में तो मैं सदा एक ईमानदारी देखता हूं। जब कोई आदमी मुझसे आकर कहता है मैं नास्तिक हूं, मैं खुश हो जाता हूं। मैं कहता हूं, तब रास्ता आसान है। कम से कम तुम ईमानदार हो। ईमानदारी अच्छी शुरुआत है। जब मुझसे कोई आकर कहता है कि मैं आस्तिक हूं, तब मुझे बेचैनी होती है। और जब मुझसे कोई आकर कहता है कि मैंने इतने शास्त्र पढ़े हैं, इतना ज्ञान है, इतना अनुभव है, इतने मैंने प्रयोग किए हैं, इस-इस तरह की साधना की है, इस-इस तरह के उपवास-व्रत किए हैं, तपश्चर्या की है, तब तो मुझे उस पर बड़ी दया आने लगती है। क्योंकि वह सिर्फ अहंकार को मजबूत करके आ गया है। परमात्मा और उसके बीच चीन की दीवाल खड़ी हो गई है।
जहंते आए सो सुधि नाहीं, झगरे जनम गवावहिं।
और ऐसे पंडित-पुरोहित, इन्हें यह भी पता नहीं कहां से आए, कौन हैं; मैं कौन हूं, इसका भी उत्तर इन्हें मिला नहीं और झगड़े में, विवाद में जीवन गंवा रहे हैं।
जगजीवन ते निंदक वादी...
और इनका कुल धंधा इतना है, निंदा करो--हिंदू हो तो मुसलमान की निंदा करो, मुसलमान हो तो हिंदू की निंदा करो। हिंदू हो तो मुसलमान की निंदा में रस है, ईसाई की निंदा में रस है--निंदा में ही रस है। और कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि तुम इन निंदकों को भी खूब पूजने लगते हो।
अगर निंदा का रस देखना हो, तो आर्यसमाज के तथाकथित महर्षि दयानंद की किताब ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़नी चाहिए; तो तुम्हें पता चलेगा कि निंदा में कैसा लोग रस लेते हैं। सबकी निंदा! निंदा ही निंदा! जैसे सब की निंदा करने से परमात्मा की प्रशंसा हो जाएगी। ‘जगजीवन ते निंदक वादी, बास नर्क महं पावहिं।।’ और अगर ऐसे लोग नरक जाएं, तो आश्चर्य नहीं। ऐसे लोग यहां भी नरक में रहते हैं। नरक ही उनका जीवन है। दुख उनकी उपलब्धि है। विवाद नहीं करना है।
सदाकत हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज
हकीकत खुद को मनवा लेती है, मानी नहीं जाती
सत्य हो, तो विवाद की जरूरत नहीं होती। सत्य की मौजूदगी प्रमाण बन जाती है।
हकीकत खुद को मनवा लेती है, मानी नहीं जाती
सत्य स्वतः प्रमाण है।
ये प्यारे वचन तुम्हारे जीवन की एक अनूठी यात्रा का प्रारंभ बनें, ऐसी आशा करता हूं। सूत्र एक है और बहुत बार दोहरेगा जगजीवन के वचनों मेंः मनुष्य परमात्मा को नहीं खोज सकता, परमात्मा ही मनुष्य को खोज सकता है, तुम सिर्फ पुकारो! तुम प्यास बनो--ज्वलंत प्यास--और तुम जहां हो वहीं उसका हाथ आ जाएगा। उसके हाथ अनेक हैं। इसीलिए तो हमने उसके चित्र बनाए हैं अनंत हाथों वाले। तुम कहां खोजोगे? तुम्हारी खोज में ही भूल हो जाएगी। खोज का मतलब ही है कि तुमने मान लिया कि मेरे बस में है पाना। मेरे बस में है तो अहंकार निर्मित हुआ। नहीं, तुम्हारे बस में कुछ भी नहीं है, सब उसके बस में है। इतना ही कहो--तेरी मर्जी पूरी हो! तू जैसा चलाए, चलें; तू जैसा रखे, रहें; उठाए तो उठें, बिठाए तो बैठें; जिलाए तो जीएं; मारे तो मर जाएं; लेकिन तेरी हर मर्जी में हम पूरे राजी हों।
इस राजीपन का नाम भक्ति है।
और भक्त को मिल जाता है--इतना, जितना प्रयास से कोई संबंध नहीं! प्रयास तो चुल्लू भर है, प्रसाद सागर भर।

आज इतना ही।

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