कुल पेज दृश्य

बुधवार, 22 अगस्त 2018

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-02)

दूसरा--प्रवचन-(सत्संग सरोवर, भक्ति स्नान)

प्रश्न-सार

॰ मनुष्य क्या है?
॰ परमात्मा की पहली झलक क्या है? यह कब घटित होती है?
॰ क्या सत्संग और भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं?
॰ प्रभु जग से नाता तोड़ी रे
मैं तुझसे नाता जोड़ी...
॰ यदि सब परमात्मा के हाथ में है, तो फिर व्यक्ति की स्वतंत्रता बेमानी हो जाती है। कृपया समझाएं।

पहला प्रश्नः मनुष्य क्या है?

एक अभीप्सा--स्वयं के अतिक्रमण की। जैसे बीज मिट जाना चाहे ताकि वृक्ष हो सके, ऐसा ही मनुष्य एक बीज है--मिट जाने को आतुर, ताकि परमात्मा हो सके।
मनुष्य बीज है परमात्मा के फूल का। इसलिए जिस मात्रा में जो मिटने को राजी है, उतना ही ज्यादा मनुष्य है। और जो मिटने में जितना सफल हो गया, उतना ही धन्यभागी है।

मनुष्य एक प्रार्थना है--लीन हो जाने की। क्योंकि होने में पीड़ा है। जैसे नदी दौड़ती है सागर की तरफ, पर्वतों को पार करती, मैदानों को पार करती--एक महत सागर-मिलन की प्रार्थना लिए। और सागर-मिलन में होगा क्या? नदी खो जाएगी। लेकिन खो जाने में सागर भी हो जाएगी। ऐसा ही मनुष्य एक चैतन्य का सरित-प्रवाह है; जो जा रहा है अनंत की तरफ।
सीमा पीड़ा देती है, असीम--आनंद। जहां-जहां सीमा है, वहां-वहां कारागृह है। मनुष्य एक कामना है सारी सीमाओं के पार पंखों को खोल कर उड़ जाने की।
इसलिए जिस मनुष्य के जीवन में अपने से पार जाने का सपना पैदा नहीं हुआ, वह देखने में मनुष्य जैसा लगता हो, उसके भीतर मनुष्यता नहीं जन्मी है। देह से मनुष्य होना एक बात है, प्राण से मनुष्य होना दूसरी बात है। प्राण से मनुष्य होने का अर्थ हैः आकाश ने पकड़ा तुम्हें; तुम्हारी आंखें उठीं चांद-तारों की तरफ; ऊंचाइयों ने पुकारा; ऊंचाइयों की चुनौती तुमने स्वीकार की; अंधेरे खाई-खड्डों में रहने की अब तुम्हारी तैयारी नहीं रही--चाहे वे अंधेरे कितने ही सुरक्षापूर्ण क्यों न हों और उन अंधेरों में कितनी ही सुविधा क्यों न हो और उन अंधेरों में अनंत-अनंत लोग क्यों न रह रहे हों!
ऊंचाई की तरफ जो चलता है उसे अकेला हो जाना होता है, क्योंकि भीड़ ऊंचाई पर उठने का साहस नहीं करती। भीड़ तो भीड़ है। भेड़-चाल उसकी जीवन-शैली है। जहां सारी भीड़ जा रही है, वहीं अगर तुम जा रहे हो, तो तुम अभी आत्मवान नहीं हो। आत्मवान का अर्थ होता है, अकेले जाने की सामर्थ्य; अपने पर इतना भरोसा कि अकेला भी जी सकूंगा, कि अकेला भी खोज सकूंगा।
धार्मिक व्यक्ति अनुगमन नहीं करता, अनुसंधान करता है। धार्मिक व्यक्ति खोज करता है, विश्वास नहीं करता। विश्वासी को भूल कर भी धार्मिक मत समझना। विश्वासी धोखा खा रहा है और धोखा दे रहा है। धार्मिक व्यक्ति तब तक विश्वास नहीं करता जब तक जान न ले। और जब जान ही लिया तो फिर विश्वास क्या? जान लिया तो जान लिया, विश्वास नहीं करना होता। सुबह उगते सूरज पर तुम विश्वास थोड़े ही करते हो! या कि करते हो? या कि विवाद खड़ा होता है कि मानें सूरज को कि न मानें, कि आस्तिक और नास्तिक होते हैं? नहीं, जब सूरज उगता है, दिखाई पड़ता है, तो विश्वास अविश्वास की बात ही नहीं रह जाती। जो है, है।
सत्य को जानना है। लेकिन जानने के लिए कीमत चुकानी होती है। विश्वास सस्ता है, दो कौड़ी का है। हिंदू बन जाओ, मुसलमान बन जाओ, जैन-ईसाई बन जाओ--सस्ती बातें हैं, कुछ खोना नहीं पड़ता। सच तो यह है, हिंदू बने रहने में, मुसलमान बने रहने में लाभ ही लाभ हैं। क्योंकि भीड़ तुम्हारे साथ है, भीड़ की सुविधाएं तुम्हारे साथ हैं, भीड़ की सुरक्षा तुम्हारे साथ है, तुम अकेले नहीं हो।
मनुष्य वही है, जो एकाकी चल पड़े। रवींद्रनाथ ने कहा हैः ‘एकला चलो रे!’ क्योंकि अकेले चलोगे तो ही उसको पा सकोगे। भीड़ वहां तक जाती ही नहीं है, भीड़ तो यहीं घसीटती है, भीड़ ने अभी अभीप्सा ही नहीं की है अपने से ऊपर उठने की। जिसके भीतर आकांक्षा जगी है कि जैसा मैं हूं, जहां हूं, इतना ही काफी नहीं है, इससे तृप्ति नहीं होती, इससे प्यास मिटती नहीं, भूख बुझती नहीं--कोई सरोवर तलाशना है, जहां प्यास बुझे! कोई स्थान खोजना है, जहां सिर झुके! और कोई सागर खोजना है, जहां सारी सीमाओं को तोड़ कर मैं लीन हो सकूं! मैं-भाव, अहंकार सीमा है। निर-अहंकार सारी सीमाओं का विसर्जन है।
तुम पूछते होः मनुष्य क्या है? निर-अहंकार होने की खोज। सीमाओं के पार जाने की कामना। अपना अतिक्रमण!
इस जगत में मनुष्य के अतिरिक्त और कोई अपना अतिक्रमण नहीं कर सकता। इसलिए स्वात्म-अतिक्रमण मनुष्य की परिभाषा है। कोई आम का वृक्ष आम के वृक्ष के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता--आबद्ध है। नीम का वृक्ष नीम ही रहेगा, कुछ और होने का उपाय नहीं; अपना अतिक्रमण नहीं कर सकता, अपने से पार नहीं जा सकता। सिंह सिंह है, कुत्ता कुत्ता है। इससे पार जाने का कोई उपाय नहीं है। सिर्फ आदमी की क्षमता है कि आदमी के पार जा सकता है, बुद्धत्व को पा सकता है, भगवत्ता पा सकता है।
यह मनुष्य का गौरव भी है और मनुष्य की यातना भी। गौरव, क्योंकि यह संभावना खुली है, पूरा आकाश उसका है। हाथ फैलाए तो सारा अस्तित्व उसका है, अपने आलिंगन में ले ले सारे अस्तित्व को। इसलिए गौरव।
यातना भी बहुत है। यातना इसलिए कि जहां भी है वहीं चैन नहीं पाएगा, बेचैनी बनी ही रहेगी। और आगे, और आगे... यह दौड़ जारी रहेगी। एक महत यातना भीतर मौजूद रहेगी, तनाव बना रहेगा। कोई पशु-पक्षी तनाव में नहीं है, क्योंकि जो है, है; कुछ और होना नहीं है।
मनुष्य की तकलीफ, मनुष्य की पीड़ा, उसका विषाद, उसका संताप--कि जो है, उतने से राजी नहीं है, कुछ और होना है। उसके भीतर एक गहन तीर की तरह चुभी हुई वासना है--कुछ और होना है! आश्वस्त होकर बैठ नहीं सकता--यात्रा करनी है! मनुष्य एक यात्रा है। कोई पशु-पक्षी यात्रा नहीं है; मनुष्य-भर एक यात्रा है।
और अगर धन की यात्रा की, पद की यात्रा की, तो यात्रा ही रह जाओगे।
अगर धर्म की यात्रा, की, तो तीर्थ यात्रा हो जाओगे। काशी और काबा जाने से तीर्थयात्रा नहीं होती। मनुष्य जब परमात्मा होने की आकांक्षा से सब कुछ समर्पित करने को तैयार हो जाता है, तब तीर्थयात्रा होती है। तभी कोई पहुंचता है उस पवित्र स्थल पर--जहां तृप्ति है, जहां परम तृप्ति है, जहां परितोष है; जहां पहुंचने के बाद फिर आगे और कुछ पाने को शेष नहीं रह जाता है। उस स्थान को निर्वाण कहो, मोक्ष कहो--या जो नाम देना चाहो!
मनुष्य मोक्ष का बीज है।
मनुष्य एक बूंद है, जिसके भीतर निर्वाण छिपा है। लेकिन बूंद जब तक सागर से मिल न जाए निर्वाण प्रकट न हो सकेगा। मनुष्य खिले तो उसमें से परमात्मा की सुगंध उठती है। और इसलिए जब तक तुम परमात्मा न हो जाओगे, तब तक कोई उपाय नहीं है सांत्वना का! कितना ही अपने को समझा लो, कितना ही अपने को उलझा लो, याद आती रहेगी! सब व्यवस्था को तोड़-तोड़ कर याद आती रहेगी कि तुम व्यर्थ कर रहे हो; जो भी कर रहे हो, सब व्यर्थ है। यह कामधंधा, यह दुकानदारी, यह बाजार व्यवसाय, यह सब ठीक है, लेकिन अभी असली काम तुमने नहीं किया है--यह कचोट रहेगी। यह घाव भीतर याद दिलाता रहेगा। और अच्छा है कि यह कचोट उठती रहे, यह कांटा चुभता रहे, क्योंकि यही कांटा चुभता रहे तो शायद एक दिन तुम वह हो सको, जो होना तुम्हारी नियति है।
रूह कालिब से निकल कर अस्ल में गुम हो गई
नै से होते ही जुदा नग्मा परीशां हो गया
जैसे बांसुरी से कोई स्वर निकल जाता है, और बांसुरी से अलग होते ही परेशान हो जाता है।
नै से होते ही जुदा नग्मा परीशां हो गया
जैसे कोई बांसुरी का स्वर भटक गया है बांसुरी से और परेशान है और अपने मूल-स्वर को, अपने मूलस्रोत को, उद्गम को खोजने चला है, ऐसा मनुष्य है--बांसुरी से जुदा हो गया स्वर, परमात्मा से दूर निकल गई किरन, अपने घर से भटक गया यात्री।
रूह कालिब से निकल कर अस्ल में गुम हो गई
और एक दिन इस देह के ऊपर उठ कर असलियत में गुम हो जाना है। ‘रूह कालिब से निकल कर अस्ल में गुम हो गई।’ वह जो असली है, वह जो यथार्थ है, उसमें जब तक तुम लीन न हो जाओगे, तब तक तुम बांसुरी का ऐसा स्वर हो, जो भटक रहा है, तलाश कर रहा है अपने मूलस्रोत की। बैचेन है, तड़प रहा है।
रूह जब तड़पी निगाहे-शौक आशिक बन गई
दिल जब उछला जल्वागाहे-हुस्ने-जानां हो गया

एक मर्कज पर सिमट आया जहाने-आ.र्जू
कस्रते-मौहूम से जब दिल परीशां हो गया

चश्म-पुरनम, जुल्फ आसुफ्ता निगाहें बेकरार
इस पशेमानी के सदके मैं पशेमां हो गया

वर्ना क्या था सि.र्फ तर्तीबे-अनसिर के सिवा
ख़ास कुछ बेताबियों का नाम इन्सां हो गया
ऐसे तो आदमी भी क्या है--पांच महाभूतों का जोड़-तोड़! ‘वर्ना क्या था सिर्फ तर्तीबे--अनासिर के सिवा’... मिट्टी, पानी, हवा का एक जोड़; और क्या था आदमी? वह तो धन्यभाग... ‘खास कुछ बेताबियों का नाम इंसां हो गया’...  लेकिन कुछ अभीप्साएं हैं, कुछ बेताबियां हैं, कुछ बेचैनियां हैं।
मिट्टी मिट्टी ही है, अगर उसमें अमृत होने की बेचैनी नहीं है। देह देह ही है, अगर उसमें परमात्मा पाने का सपना नहीं जगा है।
यह पंच महाभूतों का जो जोड़ है आदमी, इसको ही आदमी मत समझ लेना; यह तो केवल संभावना है। इसके भीतर जब अभीप्सा पैदा हो जाएगी--अपने से पार जाने की, अपने से ऊपर उठ जाने की, अपने से ऊपर छलांग लगा जाने की, तब वास्तविक मनुष्य का जन्म होता है। उस मनुष्य को ही हम ‘द्विज’ कहते हैं--जिसका दूसरा जन्म हुआ।
एक जन्म मां के पेट से होता है। एक जन्म ध्यान से होता है, प्रार्थना से होता है, पूजा से होता है, अर्चना से होता है, दूसरे जन्म को ध्यान में रखो। दूसरे जन्म के बाद ही, ‘द्विज’ बन कर ही, तुम ठीक अर्थों में मनुष्य होते हो। उसके पहले, नाम के आदमी हो!

दूसरा प्रश्नः परमात्मा की पहली झलक क्या है? यह कब घटित होती है?

चिन्मय! जैसे ही तुम मिटे, बस परमात्मा की पहली झलक घटित हुई। तुम्हारे रहते घटित न होगी। तुम चाहो कि तुम्हें होगी परमात्मा की पहली झलक, तो कभी न होगी। तुम रहे, तो झलक नहीं। तुम ही बाधा हो। कोई और बाधा नहीं है--ख्याल रखना।
अक्सर लोग सोचते हैं कि कुछ और बाधाएं हैं--कर्म की बाधा है, पाप की बाधा है, अज्ञान की बाधा है; इनको हटा दें तो परमात्मा की झलक मिल जाए। भूल में पड़े हो। न कर्म की बाधा है, न पाप की बाधा है, न अज्ञान की बाधा है; बाधा अगर कोई है तो तुम हो। ‘मैं’ की बाधा है।
और जब तक मैं न मिट जाए, तब तक उसकी झलक नहीं। जहां तक मैं है वहां तक द्वार बंद है। सूरज उगा रहे, तुम तक रोशनी नहीं पहुंचेगी। मैं गया, द्वार खुला। तुम मिटो, तो परमात्मा हो जाए।
परमात्मा की पहली झलक तुम्हारी मृत्यु पर घटती है; तुम्हारे विसर्जन पर।
आना है जो बज्मे-जानां में पिन्दारे-खुदी को तोड़ के आ
ऐ होशो-खिरद के दिवाने, यहां होशो-खिरद का काम नहीं
अगर आना है उस प्यारे की दुनिया में... ‘आना है जो बज्मे जाना में’... उस प्यारे की महफिल में आना है तो... ‘पिन्दारे-खुदी को तोड़ के आ’। बस एक चीज को तोड़ कर आ जाओ, मैं-भाव को तोड़ कर आ जाओ। ‘ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने!’... और अगर तुम अपनी अक्ल, अपनी चतुराई, अपनी होशियारी, अपना पांडित्य, अपना चरित्र, अपना त्याग, अपनी साधुता, अपना महात्मापन, इस सब को लेकर आ गए... ‘ऐ होशो-खिरद के दीवाने! यां होशो-खिरद का काम नहीं’... तो वहां पहुंच न पाओगे। वहां न तो बुद्धिमानी की जरूरत है, न चतुराई की जरूरत है, न गणित की, न किताब की, न हिसाब की। वहां सिर्फ एक बात की जरूरत है--शून्य होकर आ जाओ। तुम्हारे शून्य में उसका पूर्ण उतरता है। तुम्हारी शून्यता ही बस उसकी पूर्णता को खींच लेती है।
मिटो, ताकि पा सको।
लोग परमात्मा की झलक तो पाना चाहते हैं, लेकिन यह कीमत नहीं चुकाना चाहते। बस फिर झलक कभी नहीं मिलती। या, फिर जो झलकें मिलती हैं। वे उसके मन के ही खेल होते हैं। वे झलकें परमात्मा की नहीं होतीं, खुद की ही कल्पनाएं होती हैं। कृष्ण खड़े बांसुरी बजाते, कि राम खड़े धनुषबाण लिए, कि जीसस दिखाई पड़ते हैं सूली पर चढ़े। ये सब तुम्हारे मन के ही खेल हैं। यह तुम्हारे मन का जाल है। परमात्मा का कोई रूप नहीं, कोई रंग नहीं, कोई गुण नहीं। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि जिसकी झलक मिलेगी।
परमात्मा तो एक अनुभव है, एक स्वाद है, जो पूरे प्राण पर फैल जाता है, रोएं-रोएं पर फैल जाता है। परमात्मा एक अनुभूति है, व्यक्ति नहीं। जैसे प्रेम की अनुभूति होती है, ऐसी परमात्मा की अनुभूति है। प्रेम का कोई साक्षात्कार थोड़े ही होता है--कि मिल गए और प्रेम से दो बातें कीं। प्रेम का आविर्भाव होता है।
इक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फसाना है
सिमटे तो दिले-आशिक, फैले तो जमाना है
छोटा सा ‘प्रेम’ शब्द है--ढ़ाई आखर प्रेम के... कोई बड़ा शब्द नहीं है, छोटा सा। ‘इक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फसाना है!’ उसकी छोटी सी कहानी है, मगर उससे बड़ी और कोई कहानी नहीं। उस छोटे से शब्द में सब समा गया है--सारे शास्त्र! कबीर ने कहाः ढाई आखर प्रेम के, पढ़ै सो पंडित होय। सारे वेद, कुरान, पुरान, सब उसमें समा गए हैं। ‘सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो जमाना है।’ बस इस प्रेम का ही सारा खेल है। अगर सिमट गया तो आशिक का दिल बन जाता है। और अगर फैल गया, तो परमात्मा बन जाता है।
सिकोड़ो मत अपने प्रेम को, फैलने दो! इतना फैल जाए कि सारा अस्तित्व तुम्हारे प्रेम का आंगन बन जाए। इतना फैल जाए कि तुम बचो ही न। तुम धड़को जगत के प्राणों में, बहो वृक्षों की हरियाली में, खिलो फूलों में, चांद-तारों में, पहाड़ों में, पर्वतों में! इतने फैलो... फैलते जाओ कि यह जो छोटी सी गांठ तुमने सिकोड़ कर अहंकार की बना ली है, यह गल जाए। इसे इतना फैला दो कि यह मिट जाए। इतना विरल कर दो कि यह खो जाए। बस फिर पहली झलक।
मगर ख्याल रखना, पहली झलक का मतलब यह नहीं कि तुम्हें झलक मिलेगी। तुम नहीं रहोगे, तब पहली झलक। यह विरोधाभास है।
जब तक भक्त रहता है तब तक भगवान नहीं है। और जब भगवान है; तब भक्त कहां? भक्त का कभी भगवान से मिलन नहीं हुआ। भक्त मिटा तो मिलन हुआ, भक्त न रहा तो मिलन हुआ। इसीलिए तो ‘अनलहक’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का उदघोष उठा। ऐसी घड़ी आती है जब भक्त तो बचता नहीं, भगवान ही शेष रह जाता है। उसी घड़ी में उदघोष उठता है ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का। मैं ही ब्रह्म हूं!
जब तक तुम्हें भगवान अलग दिखाई पड़े, तब तक समझना अभी मन के जाल के बाहर नहीं गए हो। अगर भगवान तुम्हें वहां दिखाई पड़े, दूर खड़ा, तो समझना कि अभी तुम्हारा अहंकार मौजूद है। अभी देखने वाला मौजूद है तो दिखाई पड़ने वाला भगवान कल्पना होगा। जब तक द्रष्टा मौजूद है, तब तक दृश्य तुम्हारा कल्पना-जाल है। एक ही बचना चाहिए। द्रष्टा और दृश्य एक हो जाने चाहिए। उस घड़ी में पहली झलक।
और पहली झलक मिलती है तो पता चलता है कि हमने जो किया--वही जगजीवन कल कहते थे--कि हमने जो किया, उससे पाने का कोई कार्य-कारण संबंध नहीं है। हमारा किया ना-कुछ है। हमारा किया व्यर्थ था। हमारे किए से, जो हुआ है उसका कुछ लेना-देना नहीं है।
हमारा किया ऐसा है जैसा मैंने सुना है एक छिपकली एक महल में रहती थी। छिपकलियों में कहीं शादी-विवाह था। बैंडबाजे बजे, शहनाई बजी, निमंत्रण आया। लेकिन उस छिपकली ने कहा, मैं आ न सकूंगी। देखते हो मेरा काम? अगर मैं जाऊं तो यह पूरा महल गिर जाए। इसे मैं सम्हाले रखती हूं। मुझ पर बड़ा दायित्व है। तुम जो घास-फूस की झोपड़ियों में रहते हो, ठीक है; तुम चले भी जाओ तो कुछ हर्ज नहीं है। लेकिन यह बड़ा महल है... भारी हानि हो जाएगी मेरे जाने से। मेरा आना संभव नहीं।
अब छिपकली ऐसा सोचे तो आश्चर्य नहीं है! क्योंकि सभी छिपकलियां ऐसा सोचती हैं; आदमी भी ऐसा ही सोचता है। मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। मैं न रहूंगा तो दुनिया का क्या होगा? महल गिर जाएंगे, जिंदगी का तारतम्य टूट जाएगा। यह जो ‘मैं-भाव’ है, यह बड़े-बड़े सूक्ष्म रास्तों से लौट आता है। यह धर्म के नाम पर तपश्चर्या बन जाता है, योग बन जाता है। फिर तुम सोचते हो कि मेरे योग से परमात्मा करीब आएगा। मेरी साधना से सिद्धि होगी। मगर तुम्हारी साधना और तुम्हारी सिद्धि में उतना ही संबंध है जितना छिपकली में और महल के सम्हलने में; इससे ज्यादा नहीं।
जिस दिन झलक पहली बार उतरती है उस दिन पता चलता है कि मैं भी खूब पागल था! मैं सोचता था, ऐसा करूंगा, ऐसा भोजन करूंगा, इतनी बार भोजन करूंगा, रात पानी न पीऊंगा, पानी छान कर पीऊंगा, इतने कपड़े पहनूंगा, इतने देर सोऊंगा, ब्रह्ममुहूर्त में उठूंगा, ऐसा करूंगा ऐसा करूंगा... इस सबके जोड़ में मुझे परमात्मा मिलेगा। जब परमात्मा मिलेगा, तब तुम्हें हंसी आएगी कि मैं भी खूब पागल था! क्या जोड़ बिठा रहा था! क्या खाया, क्या पिया; कितने कपड़े पहने, कितने नहीं पहने; कहां रहा, कैसे नहीं रहा; कितने उपवास किए, कितने व्रत, कितने नियम--सब ऐसे व्यर्थ हो जाते हैं! कुछ तारतम्य ही नहीं है। जो मिलता है इतना विराट है कि अगर तुम्हारे उपवासों से मिला हो तो दो कौड़ी का हो जाएगा। तुमने जो कीमत चुकाई है, अगर वही परमात्मा की कीमत है तो परमात्मा पाने योग्य भी नहीं रह जाएगा। क्योंकि तुम शीर्षासन पर खड़े रहे रोज एक घंटा, इसलिए परमात्मा मिला, तो यही परमात्मा की कीमत हो गई--सिर के बल खड़े रहना एक घंटा। यह कोई बात हुई! कि तुम कांटों पर लेटे रहे; तो यह परमात्मा की कीमत हो गई! कार्य-कारण का कोई संबंध नहीं है। जिस दिन प्रसाद बरसता है उस दिन सब प्रयास बह जाते हैं; जैसे बाढ़ आ गई और सब झाड़-झंखाड़ किनारों के बह गए; कुछ पता न चला, सब गया। ऐसे ही तुम्हारी सारी साधना चली जाती है सिद्धि की बाढ़ में।
इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि हमने जो किया, उससे मिलने का कोई संबंध नहीं है। यद्यपि जब तक नहीं मिला था तब तक हम यही सोचते थे कि न करेंगे तो कैसे मिलेगा?
अहंकार हमेशा करने की भाषा में सोचता है। इस संसार में और सब चीजें करने से मिलती भी हैं। अगर कुछ न करोगे, तो धन नहीं मिलेगा, पद नहीं मिलेगा। कुछ नहीं करोगे, हाथ पर हाथ रखे बैठे रहोगे तो बुद्धू बने रहोगे, दूसरे लोग मार ले जाएंगे हाथ तुमसे पहले। यहां तो आपा-धापी करनी होगी, मार-धाड़ करनी होगी, गलाघोंट प्रतियोगिता है, झूम-झटक करनी होगी। ऐसे थोड़े ही बस तुम बैठे रहे, और लोग आ गए और कहा कि आप प्रधानमंत्री हो जाइए! कि नहीं, आपको तो होना ही पड़ेगा!! नहीं, यहां तो बहुत झंझटें हैं। यहां तो काफी सिर-फुड़ौवल होगी, तब अगर घुस पाए भीड़ में तो घुस पाए! फिर भी कुछ पक्का नहीं है, पहुंचते-पहुंचते लोग चूक जाते हैं। बिल्कुल हाथ पहुंचते-पहुंचते छिटक जाता है। भारी संघर्ष है!
तो यहां तो सब कर्म से मिलता है। इसलिए हमारे भीतर एक गणित का जन्म हो जाता है कि सभी कुछ कर्म से मिलता है तो परमात्मा भी कर्म से मिलेगा। बस वहीं भूल हो जाती है। परमात्मा इस जगत के गणित के बाहर है। कर्म से नहीं मिलता, समर्पण से मिलता है। अकर्म से मिलता है, झुक जाने से मिलता है। संघर्ष से नहीं मिलता, आक्रमण से नहीं मिलता, मिट जाने से मिलता है। जो बैठ रहा, चुप होकर, शांत होकर--इतना शांत होकर कि भीतर कोई तरंग भी न रही--किस अनायास घड़ी में उसका आगमन हो जाता है, पता भी नहीं चलता। और इसलिए बड़े से बड़ा चमत्कार यही है कि जो नहीं करते उनको मिलता है। जो अकर्म की गहराइयों में उतर जाते हैं, उनको मिलता है। जो शून्य की अतल तलहटियों में डूब जाते हैं, उनको मिलता है।
‘पूछते तुम हो कि पहली झलक क्या है? यह कब घटित होती है?’
चिन्मय, जब तुम मिट जाओगे, तब घटित होगी। इसलिए मिटाओ अपने को। इसलिए बह जाने दो, मत बचाओ अपने को। किसी बहाने मत बचाना। किसी सहारे मत बचाना। किसी खूंटी पर अपने को टांगे मत रखना। ज्ञान की खूंटी हो, त्याग की खूंटी हो, तपश्चर्या की, साधुता की--सब जाने दो! सब खूंटियां तोड़ डालो। कोई सहारे, कोई निमित्त मत छोड़ो। इतना ही तुम कर सकते हो कि अपने अहंकार को न बनाओ।
और मजा यह है कि अहंकार बनाओ तो ही बनता है, न बनाओ तो है ही नहीं अहंकार। इसलिए जैसे ही तुम्हें यह समझ में आ जाता है कि अहंकार के न होने से परमात्मा मिलेगा, वैसे ही अहंकार का बनाना धीरे-धीरे शांत हो जाता है। अहंकार तो ऐसे ही है जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता है। पैडल मारता रहा तो साइकिल चलती है। पैडल मारना बंद कर दो, साइकिल रुक ही जाएगी, थोड़ी-बहुत दूर चल कर रुक जाएगी। कितनी दूर चलेगी?
अहंकार कोई चीज नहीं है। पैडल मारना होता है निरंतर तो अहंकार बनता है। इसलिए अहंकारी को निरंतर कुछ न कुछ करने में लगा रहना पड़ता है। उपमंत्री है तो मंत्री हो जाए। मंत्री है तो फिर कैबिनेट में पहुंचे, दिल्ली पहुंच जाए। दिल्ली पहुंच गया तो कुछ और हो जाए--होता ही रहे... ! पैडल उसे मारते ही रहने पड़ते हैं। हजार रुपए हैं तो दस हजार हो जाएं, दस हजार हैं तो लाख हो जाएं, लाख हैं तो दस लाख हो जाएं। उसे पैडल मारते ही रहने होते हैं। ऐसा नहीं है कि दस लाख हो गए, अब बस ठीक है, अब क्या करना है, अब मजा करें। पैडल मारना बंद किया कि चारों खाने चित्त गिरोगे।
अहंकार तो निरंतर सक्रियता में जीता है। अहंकार तो ऐसा है जैसे नट चलता है रस्सी पर। अगर तुम न अहंकार को गति दो, न उसे भोजन दो, तो अहंकार तिरोहित हो जाता है। अहंकार कोई वस्तु नहीं है।
इसलिए मुझसे यह मत पूछना कि फिर अहंकार को कैसे मिटाएं? अक्सर लोग वह पूछने लगते हैं। उनसे कि कहो अहंकार नहीं होगा तो परमात्मा मिलेगा, तो वे कहते हैंः अहंकार को कैसे मिटाएं? अगर तुम ही मिटाओगे, तो नया अहंकार पैदा हो जाएगा कि मैं निर-अहंकारी हूं! देखो, मैंने अहंकार को मिटा दिया! यह और सूक्ष्म अहंकार है, और भी खतरनाक! पहले से भी ज्यादा इसकी गहरी जड़ें हो जाएंगी। यह फिर रुकावट हो जाएगी!
इसलिए यह तो पूछना ही मत कि अहंकार को कैसे मिटाएं? क्योंकि तुम अगर मिटाओगे, तो मिटेगा नहीं। इतना ही समझ लो कि अहंकार को कैसे न बनाएं। बस इतना ही पहचान लो कि किन-किन तरकीबों से हम अहंकार को बनाते हैं, उन-उन तरकीबों को शिथिल कर दो। अचानक तुम पाओगेः अहंकार सिकुड़ने लगा, बिखरने लगा; गिरने लगे उसके पत्ते, आ गई पतझड़; जल्दी ही उसकी जड़ें सूख जाएंगी, बस पानी मत दो, जल्दी ही तुम पाओगे, अहंकार गया।
और जिस घड़ी अहंकार गया, तत्क्षण परमात्मा का आविर्भाव हो जाता है--पहली झलक! और पहली झलक ही तो अंतिम झलक है। एक झलक मिल गई तो सब मिल गया। फिर पहले और अंतिम में कुछ भेद थोड़े ही है। एक बार परमात्मा की अनुभूति हो गई कि हो गई अनुभूति, फिर तुम्हारे लौटने का कोई उपाय नहीं है। फिर कौन अहंकार की गंदगी में लौटेगा? क्यों लौटेगा? जिसने स्वर्ग का सुख जाना, फिर नरक में क्यों पड़ेगा? जिसे हीरे-जवाहरात मिल गए, अब कंकड़-पत्थर क्यों बीनेगा?
कुछ इस अदा से आज वो पहलूनशीं रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे

ईमानो-कुफ्र और न दुनिया-ओ-दीं रहे
ऐ इश्क! शादबाश कि तन्हा हमीं रहे

यारब किसी के राजे-मुहब्बत की खैर हो
दस्ते-जुनूं रहे न रहे, आस्तीं रहे

जा और कोई जब्त की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क! हम तो अब तिरे काबिल नहीं रहे

मुझको नहीं कुबूल दो आलम की वुसअतें
किस्मत में कू-ए-यार की दो गज जमी रहे
बस भक्त की इतनी आकांक्षा है--
मुझको नहीं कबूल दो आलम की वुसअतें
मुझे दो दुनियाओं के जो सुख हैं, नहीं चाहिए। वे जो विशाल दो दुनियाओं के रहस्य हैं, मुझे नहीं चाहिए।
मुझको नहीं कुबूल दो आलम की वुसअतें
किस्मत में कू-ए-यार की दो गज जमीं रहे
उस प्यारे के गली की दो गज जमीन ही काफी है।
इस इश्क की तलाफी-ए-माफात देखना
रोने की हसरतें हैं जब आंसू नहीं रहे
और ऐसा होता है। जब परमात्मा का दर्शन होता है, तो रो भी न पाओगे, हंस भी न पाओगे। धन्यवाद भी न दे पाओगे, झुक भी न पाओगे, क्योंकि, वे सारी क्रियाएं भी अहंकार के साथ गईं। अवाक... सन्नाटा रह जाएगा! न कोई धन्यवाद उठेगा, न अनुग्रह के दो आंसू गिराने के उपाय रह जाएंगे।
इस इश्क की तलाफी-ए-माफात देखना
रोने की हसरतें हैं जब आंसू नहीं रहे
जब धन्यवाद करने का मौका आएगा, तो जबान न खुलेगी, ओंठ न खुलेंगे, कंठ अवरुद्ध हो जाएगा। जब दो आंसू गिराना चाहोगे, पाओगे कि आंसुओं का कुछ पता नहीं। जब सिर झुकाना चाहोगे, सिर न पाओगे। जब चाहोगे कि अब नाचूं आनंदमग्न होकर, तो अपने को न रोक पाओगे। अब नाचनेवाला कहां?
यह धर्म का विरोधाभास है।
जब तक तुम हो, रो भी सकते हो, गा भी सकते हो, नाच भी सकते हो--तब तक नाचने की कोई घटना नहीं घटती। और जब घटना घटती है कि नाचो, ऐसे नाचो पागल होकर आनंद में, मदमस्त होकर, लेकिन तब कौन नाचनेवाला बचा? गए वे दिन, जब तुम थे, अब परमात्मा ही है। ऐसी घड़ी में पहली झलक!
सोज में भी वही इक नग्मा है जो साज में है
फर्क नजदीक की और दूर की आवा.ज में है
बस इतना ही फर्क है। अभी भी तुम नहीं हो, परमात्मा ही है; बस तुम्हें भ्रांति है अपने होने की। दुख में भी वही स्वर है जो सुख का है। इस पृथ्वी पर भी स्वर्ग की ही हवा है। इस सूरज की किरणों में भी उसकी ही किरणें हैं। इन लोगों में भी वही धड़क रहा है। तुम्हें पता नहीं है, बस इतना ही फर्क है।
सोज में भी वही इक नग्मा है जो साज में है
उसी वीणा से तो आनंद का संगीत उठ आता है, उसी वीणा से विरह के गीत भी पैदा हो जाते हैं। वही वीणा ऐसा साज छेड़ सकती है कि तुम नाच उठो। और वही वीणा ऐसी विरह की पीड़ा को जगा सकती है कि तुम जार-जार रो उठो। वीणा वही है, स्वर भी वही है।
सोज में भी वही इक नग्मा है जो साज में है
फर्क नजदीक की और दूर की आवाज में है
बस जरा सा फर्क है। तुमने परमात्मा की आवाज अभी नजदीक से नहीं सुनी, बहुत दूर से सुनी है। वेदों में सुनी है, कुरानों में सुनी है, बाइबिल में सुनी है, बहुत दूर से सुनी है, उधार सुनी है, बुद्धों से सुनी है, नानक से सुनी है, कबीर से, जगजीवन से--तुमने नहीं सुनी है। बस दूर और पास की आवाज का फर्क है। तुम सुन लो, सब हो जाए।
ये सबब है कि तड़प सीना-ए-हर-साज में है
मेरी आवा.ज भी शामिल तेरी आवाज में है
जिस दिन जानोगे उस दिन पाओगेः तुम्हारी आवाज भी उसकी ही आवाज थी। तुम जो बोले थे, वह भी वही बोला था। तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे कंठ में भी वही विराजमान है। उसके अन्यथा कोई और है ही नहीं। इसलिए तुम्हें पता नहीं है, यह और बात है, लेकिन तुम हो तो परमात्मा में ही। मछली को पता न हो कि सागर में है, इससे क्या फर्क पड़ता है, है तो सागर में ही।
जो न सूरत में, न मानी में, न आवाज में है
दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज में है

आशिकों के दिले-मजरूह से कोई पूछे
वो जो इक लुत्फ निगाहे-गलत-अंदाज में है
प्रेमियों से पूछो, बस एक जरा सी नजर, उसकी आंख का आंख में पड़ जाना, उसकी बांकी नजर, उसकी तिरछी नजर और क्रांति घट जाती है। जो मिटाए नहीं मिटता था, पाया नहीं जाता। जो खोजे नहीं मिलता था, वह एकदम सामने खड़ा है और पता चलता है सदा से सामने खड़ा था।
आशिकों के दिले-मजरूह से कोई पूछे
वो जो इक लुत्फ निगाहे-गलत अंदाज में है

गोशे-मुश्ताक की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह
सुन रहा हूं मैं वो नग्मा जो अभी साज में है
फिर तो ऐसी सूक्ष्मता पैदा होती है कि जो नग्मा अभी वीणा से जगा भी नहीं है, अभी वीणा के तारों में सोया हुआ है, वह भी सुनाई पड़ने लगता है। अभी तो वीणा बजती है, वह भी सुनाई नहीं पड़ती है--बिल्कुल बहरे हो। वीणा बज रही है और तुम पूछते हो--कहां है साज, कहां है संगीत? और कोयल में वीणा बज रही है, और पपीहे में बज रही है, और वृक्षों के पास से गुजरती हवाओं में बज रही है। सागर में नाचती हुई उतरती नदी में बज रही है। तुम्हारे कंठ में, तुम्हारे पड़ोसी के कंठ में--सब तरफ उसी की वीणा का नाद है। उसका ही नाद है। सारी आवाजें उसकी आवाजें हैं। सब अनाहत हैं!
गोशे-मुश्ताक की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह
सुन रहा हूं मैं वो नग्मा जो अभी साज में है
और फिर जब आंख खुलती है, पहचान आती है, पहली झलक मिलती है, तो जो अभी गीत पैदा भी नहीं हुआ वह भी सुनाई पड़ने लगता है। अभी जो गीत गाया भी नहीं गया, वह भी सुनाई पड़ने लगता है, उसकी मस्ती छाने लगती है। अभी तो दृश्य भी दिखाई नहीं पड़ता, तब अदृश्य भी दिखाई पड़ने लगता है। और धर्म की अगर कोई परिभाषा करनी हो, तो यही परिभाषा हैः अदृश्य को दृश्य कर लेने की कला। जो नहीं दिखाई पड़ताः जो नहीं दिखाई पड़ सकता, उसे देख लेने की कला; जो अव्यक्त है, उसे छू लेने की कला, जिसे छुआ नहीं जा सकता।
अगर सच में पूछो तो कोई अगर अछूत है तो सिर्फ परमात्मा! उसे छुआ नहीं जा सकता। लेकिन उसे छू लेने की कला का नाम धर्म है। असंभव को संभव बना लेने की कला का नाम धर्म है।
मगर कला का एक सूत्र बुनियादी हैः तुम मिटो! अहंकार जाए। परमात्मा आया ही हुआ है, बस अहंकार जाए और आंख खुल जाती है, और कान खुल जाते हैं। साज में सोए हुए गीत भी सुनाई पड़ने लगते हैं।
तब जीवन एक अनुभव है। तब जीवन एक अदभुत सौंदर्य है! तब जीवन बहुत रंगीन है! तब जीवन उत्सव है!

तीसरा प्रश्नः कृष्ण उद्धव को कहते हैं, मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्संग और भक्तियोग को छोड़कर संसार-सागर से पार होने का दूसरा उपाय नहीं है।
क्या सत्संग और भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? कृपा करके समझाएं।

नरेंद्र! सत्संग है सरोवर और भक्ति है स्नान। सत्संग संक्रामक वातावरण का नाम है; जहां परमात्मा की बीमारी पकड़ जाए, जहां धर्म का रोग लग जाए।
सत्संग का अर्थ हैः जहां कोई परमात्मा को उपलब्ध हो गया है, उसके पास बैठना। जैसे बीमारी संक्रामक होती है, वैसे ही स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है। और जैसे पाप संक्रामक होता है, वैसे ही पुण्य भी संक्रामक होता है। और जैसे जुआरी के पास बैठ कर जुआ खेलने की कामनाएं उठने लगती हैं, वैसे ही प्रार्थना में लीन व्यक्ति के पास बैठकर प्रार्थना की तरंगें उठने लगती हैं।
हम अलग-अलग टूटे हुए नहीं हैं, हम जुड़े हैं। हम एक-दूसरे से जुड़े हैं। जब तुम जाओगे हिमालय के पास तो जिन्होंने कभी ऊपर आंखें नहीं उठाई हैं, वे भी गौरीशंकर पर क्वांरे बर्फ को जमा हुआ देख कर, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ--जैसे सोना पिघलता हो, कि चांदी पिघलती हो--एक बार तो आंख ऊपर उठा ही लेंगे। जो सदा जमीन पर आंखें गड़ा कर चलते रहे, जिनकी पहचान जमीन के गड्ढों और नालियों और कूड़े-करकट के अतिरिक्त और किसी चीज से नहीं है, वे भी हिमालय के करीब जाएंगे तो एक बार तो आंख उठा कर देखना ही होगा गौरीशंकर को। और आंख पर एक झलक पड़ जाए गौरीशंकर की, यात्रा शुरू हुई।
सत्संग का अर्थ होता हैः किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठ जाना जो गौरीशंकर जैसा हो; जिसके पास बैठ कर सपने पर खोलने लगें; जिसके पास बैठ कर अभीप्साएं जगने लगें, सोई हुई आकांक्षाएं सजग होने लगे; जिसके पास बैठ कर परमात्मा को पाने का पागलपन पकड़ने लगे।
सत्संग सरोवर है और जो उसमें डुबकी लगा लेते हैं वे भक्त हो जाते हैं। सत्संग के बिना भक्ति नहीं। कैसे भक्ति सीखोगे, कहां भक्ति सीखोगे? इसका स्वाद कैसे लगेगा? जिसने चखा हो, शायद उसकी बात सुन कर, शायद उसकी भाव-दशा देख कर, शायद उसके पास बैठ कर, उसकी तरंगों से आंदोलित होकर, उसकी आंखों में झांक कर, उसका हाथ हाथ में लेकर, उसके चरणों में सिर रखकर, थोड़ी सी बूंद तुम्हारे कंठ में भी उतर जाए। इतना तो पक्का है कि जिसने परमात्मा को जाना है, उसके पास से तुम वैसे ही न लौट सकोगे जैसे गए थे। या तो दोस्त होकर लौटोगे, या दुश्मन होकर लौटोगे। जो दोस्त होकर लौटा, उस पर भक्ति की छाप लगनी शुरू हो गई। जो दुश्मन होकर लौटा, उसने अपने को बचाने का उपाय शुरू कर दिया। वह घबड़ा गया। दुश्मनी आत्मरक्षा है।
जो व्यक्ति बुद्ध के पास से दुश्मन होकर लौट गया है, उस पर नाराज मत होना, क्रोध मत करना, वह दया का पात्र है। वह घबड़ा गया। यह जो बाढ़ आती थी बुद्ध की उसकी तरफ, वह डर गया। उसने जोर से किनारे को पकड़ लिया। उसने बुद्ध की बाढ़ में बहने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि नहीं, कोई बाढ़ ही नहीं है। वह इतना भयभीत हो गया कि उसे लगा कि अगर मैंने एक बार और आंख खोल कर देखा इस गौरीशंकर को, तो फिर मैं अपने कदमों को नहीं रोक सकूंगा। फिर ये कदम यात्रा पर निकल जाएंगे। फिर क्या होगा, मैंने वह सब जो घर-गृहस्थी बना रखी है, वे सब जो मैंने जाल फैला रखे हैं बाजार में? और अभी सब तो अधूरा है। अभी कुछ तो पूरा नहीं हुआ। अभी बेटे का विवाह करना है। अभी सब तो अधूरा है। अभी तो बेटी को बच्चा होने वाला है। अभी नई-नई दुकान का शुभमुहूर्त किया है। अभी सब नया-नया है, कच्चा-कच्चा है। ... और हमेशा सब नया-नया रहता है, हमेशा सब कच्चा-कच्चा रहता है। पकता यहा कुछ है नहीं, कभी नहीं पकता। बूढ़े से बूढ़े आदमी की जिंदगी में सब उलझा रहता है। सुलझता यहां कुछ है ही नहीं। उलझन पर उलझन आती चली जाती है। यह सबका क्या होगा, अगर मैं चल पड़ा इस गौरीशंकर को देख कर? अब इस गौरीशंकर से बचने का उपाय क्या है? एक ही उपाय है कि मैं इनकार ही कर दूं; मैं कह दूं कि गौरीशंकर है ही नहीं। ऐसा इनकार कर दूं कि फिर यह भाव, सवाल, यह प्रश्न मन में जगे ही नहीं।
इससे लोग बुद्धों के पास जाकर कभी-कभी दुश्मन होकर लौट जाते हैं। ये अपनी रक्षा कर रहे हैं। ये कह रहे हैंः नहीं, कोई बुद्ध नहीं है। यह आदमी भ्रांति में पड़ गया है। कहां कैसा परमात्मा, कहां कैसा सत्य? यही संसार सब कुछ है। जो मैंने जाना, वही ठीक है। मैं अपने जानने को अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहता हूं। मैंने बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी दुनिया बनाई है; मत कहो मुझसे कि वह सब भ्रम है। मत जगाओ मुझे मेरी नींद से। मैंने सुंदर सपने संजोए हैं। मैं बामुश्किल सपने बना पाया हूं, किसी तरह दुख-स्वप्नों से बाहर हुआ हूं, थोड़े भले दिन करीब आ रहे हैं, और तुम आ गए और तुम कहते हो, यह संसार सब सपना है! और परमात्मा को खोजो!
नहीं, कोई परमात्मा नहीं है। इनकार करना ही होगा। अगर अपना संसार बचाना है तो परमात्मा को इनकार करना ही होगा। और परमात्मा का जो संदेश लेकर आया है, उसे भी इनकार करना होगा। अगर यह बात तुम अपने को समझाने में राजी हो गए कि न कोई परमात्मा है, न कोई परमात्मा को कभी पाता है, ये सब भ्रांतियां हैं--तो तुम सुरक्षित! तुम फिर अपने सपने में उलझ जाओगे।
मगर बुद्धपुरुषों के पास से कोई भी तटस्थ नहीं लौट पाता। यह बुद्धपुरुषों की परीक्षा है। उनके पास से या तो कोई डूब जाता है, उनके रंग से भर जाता है, या कोई दुश्मन होकर आ जाता है। या तो मैत्री या शत्रुता--बुद्धों के साथ दो ही तरह के नाते होते हैं; तीसरा कोई नाता नहीं होता। बुद्धों की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता। यह असंभव है। और दुश्मनी करो, तो तुम अपने हाथ से अवसर गंवाते हो!
फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा है कि मैं ईश्वर को स्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि ईश्वर को स्वीकार करने का अर्थ होता है कि मैं गलत हूं। और मैंने जो किया है, सब गलत है।
नीत्शे ईमानदार आदमी मालूम होता है। सच्ची बात तो कह रहा है कम से कम, कि मैं स्वीकार नहीं कर सकता ईश्वर को! कैसे करूं? अपने को गलत! और मैंने जो किया है, सब गलत! और मेरी सारी जिंदगी की दौड़-धूप व्यर्थ! यह अहंकार के विपरीत पड़ती है बात। इससे तो बेहतर यही है, उस अज्ञात-अगोचर को, पता नहीं हो या न हो, उसको ही इनकार कर दो।
दो ही उपाय हैं। अगर परमात्मा को स्वीकार करते हो तो तुम फिर अपनी जिंदगी में उसी ढंग से न रह सकोगे जैसे कल तक रहे हो। तुम्हें जिंदगी की शैली बदलनी ही होगी। बदलनी ही होगी! कोई उपाय नहीं है। तुम्हें अपनी जिंदगी नये ढंग से शुरू करनी होगी! कोई उपाय नहीं है। तुम्हें फिर से नई बुनियादें डालनी होंगी, नये शिलान्यास करने होंगे। फिर से श्रीगणेश करना होगा।
जिसमें इतनी हिम्मत है कि फिर से श्रीगणेश कर सके--हो सकता है पचास साल जी लिया, साठ साल जी लिया, सत्तर साल जी लिया--फिर से श्रीगणेश कर सके, जिसमें इतना साहस है, मौत द्वार पर दस्तक दे रही है, फिर से श्रीगणेश कर सके, वही बुद्धों से मैत्री बना पाता है। बुद्धों से मैत्री बनाने का नाम सत्संग है।
नीत्शे ठीक कहता है कि नहीं मानूंगा ईश्वर को, क्योंकि फिर तो मैं गलत हुआ। फिर मेरा किया-धरा सब गलत हुआ। इससे तो आसान यही है कि एक बार ईश्वर को ही इनकार कर दूं। अपने सारे संसार को इनकार करने के बजाय यही उचित है, ईश्वर को ही इनकार कर दूं।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में एक मुकदमा था। उसने अपनी स्त्री को गोली मार दी। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, ऐसा क्या कारण आ गया? तो उसने कहा कि मैं घर आया, मैंने पर-पुरुष के साथ इसे सोए देखा, तो मैंने गोली मार दी। मजिस्ट्रेट ने पूछा, साधारणतः अगर तुम नाराज ही इतने हो गए थे तो उस पुरुष को गोली क्यों नहीं मारी? तो उसने कहा कि रोज-रोज नये-नये पुरुषों को गोली मारने के बजाय एक स्त्री से ही झंझट छुड़ा लेना बेहतर था।
संसार का तुम्हारा बड़ा विस्तार है--दुकान है, बाजार है, धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, परिवार है--एक परमात्मा को ही भुला देना आसान मालूम पड़ता है। एक परमात्मा को ही गोली मार देनी आसान मालूम पड़ती है। शेष सब बच जाता है।
सत्संग का अर्थ होता हैः तुम बेचैनी में पड़ोगे। इसलिए पहले तो लोग सत्संग से बचते हैं। सब तरह के उपाय करते हैं। अगर किसी भूल-चूक से आ भी गए, घटनावशात, संयोगवशात आ भी गए, तो भी अकड़ कर बैठे रहते हैं। अपना बचाव करते रहते हैं। तैयारी में रहते हैं कि कैसे यहां से निकल भागें! कहीं उलझ न जाएं! छोटे-छोटे बहाने खोज लेते हैं। छोटे-छोटे निमित्त कारण बना लेते हैं कि इस कारण, अभी समय नहीं आया। कल के लिए स्थगित कर देते हैं, कि जब समय आएगा तब। और अगर ऐसा लगता है कि खिंचे जा रहे हैं किसी प्रवाह में, तो फिर क्रोध खड़ा होता है--कि यह कौन है जो मेरी जिंदगी के बने-बनाए खेल को, तमाशे को नष्ट किए दे रहा है?
छोटे बच्चों से खिलौने छीने हैं कभी? जो उनकी हालत हो जाती है, वही सत्संग में उनकी हो जाती है जिन्होंने खिलौनों से बहुत ज्यादा लगाव बना लिए हैं। किसी छोटे बच्चे से खिलौना छीनना, रोता है, चिल्लाता है। तुम्हें पता है कि खिलौना है, मगर उसे पता नहीं है। वह अपने खिलौने को अपनी छाती से लगा कर रखना चाहता है। रात सोता भी है तो अपने खिलौने को छाती से लगा कर सोता है। तुम भी रात अपना खिलौना छाती से लगा कर सोते हो। कुछ लोग अपने धन का हिसाब लगाते सोते हैं--वह खिलौना छाती से लगाए हैं। कोई चुनाव लड़ने की योजना बनाते हुए सोते हैं। कल उठ कर सुबह कौन से उपद्रव तुम्हें करने हैं, उसका सब आयोजन करके सोते हैं। ... खिलौने!
सत्संग में खिलौने छीन लिए जाएंगे। सत्संग में और कुछ छीना नहीं जाता है, सिर्फ खिलौने छीने जाते हैं; खिलौने तोड़े जाते हैं।
और ध्यान रखना, अगर कहीं कोई साधु-महात्मा तुम्हारे खिलौनों को संवारता हो, तुम्हें सांत्वना देता हो, तुम्हें भरोसा-ढाढ़स बंधाता हो, तो समझ लेना कि वह सत्संग नहीं है। सत्संग तो वही है जहां तुम्हारे सारे खिलौने तोड़ दिए जाएंगे, बुरी तरह तोड़ दिए जाएंगे, बेरहमी से तोड़ दिए जाएंगे। तुम्हारे खिलौनों पर रहम तुम पर बेरहमी है। तुम पर रहम करना हो तो तुम्हारे खिलौनों पर बेरहम होना ही पड़ेगा।
इसलिए सत्संग कठोर प्रक्रिया है। सिर्फ हिम्मतवर की है। सिर्फ जिनके भीतर साहस है, दुस्साहस है, वे ही सत्संग कर पाते हैं। इसलिए कहा ज्ञानियों नेः खड्ग की धार है।
सत्संग का अर्थ होता हैः तुम तैयार हो अब। अगर तुम्हारे सपने छीने जाएंगे, तो तुम उनको बनाने की चेष्टा न करोगे। तुमने खुद भी खूब विषाद देख लिया। तुमने जिंदगी देख ली; कुछ पाया नहीं। हाथ खाली हैं। खिलौने से भरे हाथ खाली हाथ हैं, भरे हाथ नहीं हैं। तुम समझ गए, इतनी समझ तुम्हें आ गई, तो सत्संग में दोस्ती बनेगी, मैत्री बनेगी।
और जो सत्संग में मित्र-भाव से बैठ जाता है, उसमें भक्ति का आविर्भाव होता है।
सत्संग सरोवर है, भक्ति स्नान। सत्संग में जो नहा लिया, ताजा हो जाता है। आंखें नई हो जाती हैं। हृदय नया हो जाता है। देखने के ढंग, पहचानने के ढंग नये हो जाते हैं। सारी धूल हट जाती हैं। फिर से जन्म होता है। फिर से जीवन की शुरुआत होती है--सम्यक शुरुआत होती है। जो जीवन तुमने शुरू किया था जन्म के बाद, वह तो बेहोशी में हुआ था। तुम्हें कुछ पता न था, जो मां-बाप ने करवाया, वही तुमने किया। जो पास-पड़ोस के लोग करते थे, वही तुम करते रहे। तुम देखा-देखी चलते रहे। मंदिर गए तो मंदिर चले गए और मस्जिद गए तो मस्जिद चले गए। कुरान रटते थे तो तुमने कुरान रट ली और गीता रटते थे, तुमने रट ली--तुमने देखा-देखी की। यह स्वाभाविक भी था। बच्चे से ज्यादा आशा की भी नहीं जा सकती है। बच्चा तो अनुकरण करता है। लेकिन अभागे हैं वे लोग, जो जिंदगी भर बचकाने बने रहते हैं और जिंदगी भर अनुकरण करते रहते हैं। बच्चे तो क्षम्य हैं। क्या करते और! जहां पिता गए थे, वहां बच्चा चला गया था। जिस मूर्ति के सामने मां झुकी थी, उसके सामने बच्चा झुक गया था। घर में सत्यनारायण की कथा होती थी तो उसने समझा था--यही धर्म है। और घर में यज्ञ-हवन होते थे तो उसने समझा था--यही धर्म है। और कोई उपाय भी तो न था। इन्हीं लोगों से सीखना था।
बच्चे क्षमा किए जा सकते हैं।
लेकिन कब तक तुम बच्चे रहोगे? कब तक देखा-देखी? कब तक नकल? कभी तो प्रौढ़ बनो! जब कोई व्यक्ति प्रौढ़ बनता है, तो सत्संग के योग्य बनता है। तब वह अपनी तरफ से तलाश शुरू करता है। अब वह कहता है, मैं खोजूंगा किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसे मिल गया हो। मैं उनके पीछे नहीं चलूंगा, जिन्हें खुद भी पता नहीं है; जो मेरे ही जैसे अंधे हैं। मैं अब बैठूंगा किसी ऐसी आभा के पास, किसी ऐसे आभामंडल में, जहां सत्य की कोई प्रतीति हुई हो।
और ध्यान रखना, अगर तुम हिम्मतवर हो तो सत्संग में पहुंचते ही तत्क्षण तुम्हारा हृदय गवाही दे देगा कि हां, ठीक जगह आ गए! यह गवाही बुद्धि की नहीं होती, हृदय की होती है। हृदय कह देता है। और हृदय कभी झूठ नहीं बोलता। बुद्धि सदा झूठ बोलती है। क्योंकि बुद्धि जो भी बोलती है, सब उधार है। अगर तुम हृदय खोल कर बैठ जाओ किसी कबीर, किसी नानक, किसी जगजीवन के पास, बिना किसी अवरोध के, भर नजर देख लो कबीर को--तुम्हारा हृदय कह देगा, गवाही दे जाएगा। कोई तुम्हारे भीतर तरंग कह जाएगी तुमसे कि बस, आ गई वह जगह जहां झुकना है! पहुंच गए उस स्थल पर, मिल गया तीर्थ!
हां, बुद्धि की अगर सुनी, तो अड़चन होगी। क्योंकि बुद्धि तो रटा-रटाया दोहराएगी।
और कबीर जो कह रहे हैं, वह स्वानुभूत है। तुम्हारी बुद्धि और कबीर की बात में मेल नहीं पड़ेगा। बुद्धि तो कहेगीः नमाज पढ़ो। और कबीर कहते हैंः क्यों चिल्ला रहा है पागल, क्या तेरा खुदा बहरा हो गया है? और बुद्धि कहती हैः नमाज पढ़ो और यह कबीर कहते हैंः क्या तेरा बहरा हुआ खुदा? एकदम चोट लग जाएगी बुद्धि को। बुद्धि कहेगीः यह बात ठीक नहीं है। बुद्धि ने सुना है कि काशी में मरोगे तो मोक्ष जाओगे, बैकुंठ मिलेगा। और यह कबीर कह रहे हैंः काशी भर में मत मरना। क्योंकि काशी में मरे अगर मोक्ष गए, तो दो कौड़ी का मोक्ष। काशी में मरने के कारण मोक्ष मिलेगा तो दो कौड़ी का हो गया!
लोग काशी-करवट को जाते हैं। अनेक बूढ़े-ठूढ़े काशी रहते हैं जाकर इसीलिए कि वहीं मरना हो जाए। जिए तो नहीं धर्म को, काशी-करवट लेने गए हैं!
कबीर कहते हैंः जीओ!
मरते वक्त कबीर ने कहा--उठ कर खड़े हो गए, और कहा कि चलो, अब मेरे मरने का वक्त करीब आ गया है--जिंदगी भर काशी रहे--अब यहां से चलो! लोगों ने कहाः आप क्या कह रहे हैं? कबीर ने कहाः काशी में न मरूंगा। चलो दूर निकल चलो काशी से!
हट गए काशी से दूर। पास के एक गांव में जाकर मरे। सिर्फ इसीलिए, यह सूचना देने को कि इस स्थानों पर मरने से कोई मोक्ष नहीं होता। स्थितियां होनी चाहिए, अंतर्दशा होनी चाहिए।
जीओ! धर्म मरने की बात नहीं है, जीने की बात है। कहां मरे, इससे क्या होगा? कैसे जिए, इससे क्या होगा। कबीर को सुनोगे, तो बुद्धि को तो अड़चन आएगी। अगर बुद्धि को बीच में लाए, दुश्मन होकर लौट जाओगे--सत्संग चूक गया! क्योंकि बुद्धि कहेगीः वेद में तो ऐसा लिखा है, कुरान में तो ऐसा लिखा है, गीता तो ऐसा कहती है और यह कबीर क्या कह रहे हैं, यह बुद्ध क्या कह रहे हैं? यह तो बात जंचती नहीं है। यह तो नरक के अनुकूल नहीं है। यह तो शास्त्र के अनुकूल नहीं है। चूक गए तुम सत्संग।
सत्संग हृदय से पकड़ा जाता है। बुद्धि को रख दो हटाकर। हृदय से अनुभव करो। शांत बैठ जाओ--कबीर जैसे व्यक्ति के पास जाओ तो शांत बैठ जाना, मौन बैठ जाना, बुद्धि को कहनाः तू चुप, थोड़ा मेरे हृदय को बोलने दे; थोड़ा मेरे हृदय को डोलने दे; थोड़ा मेरे हृदय को पकड़ने दे तरंगें इस व्यक्तित्व की। और तुम चकित हो जाओगे, तुम्हारा हृदय जो कहेगा, वही निर्णायक है। अगर सत्संग है वहां, अगर सत्य को उपलब्ध हुआ व्यक्ति मौजूद है वहां, तो तुम्हारा हृदय तत्क्षण समर्पित हो जाएगा--तत्क्षण! हृदय को पता है, हृदय को ही पता है! बुद्धि को कुछ भी पता नहीं है। बुद्धि अंधी है; अंधेरे में टटोलती है। हृदय के पास आंखें हैं प्रेम की। हृदय को अनुभव हो जाता है। बस, फिर पड़ गई भांवर, सत्संग शुरू हुआ, बंधा अनंत से नाता! यात्रा शुरू हुई! इसमें जितने डूबोगे, उतनी भक्ति निखरेगी।
सत्संग में डूबने से भक्ति निखरती है। फिर जब भक्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है, तो भगवान की उपलब्धि होती है।
ये तीन सीढ़ियां समझ लो। सत्संग से शुरुआत है, भक्ति में मध्य है; भगवान में अंत है। मगर पहचान होती है हृदय से।
साकी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सरूर था कि मुझे भी सरूर था
कभी किसी परमात्मा के प्यारे को देखोगे, उसकी आंखों में झांकोगे, तो उसको इतना नशा है कि उसकी आंखों में देख कर तुम्हें नशा हो जाएगा।
साकी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सरूर था मुझे भी सरूर था
शराब पीनी भी नहीं पड़ेगी; साकी की आंखों में देखी लहराती शराब कि कुछ न कुछ नशा तुम पर भी छा जाएगा।
जाहिद मगर इस रम्ज से आगाह नहीं है
सिजदा वही सिजदा है कि जो नंगे-जबीं है
तथाकथित धार्मिकों को कुछ पता नहीं है कि असली सिजदा, असली प्रार्थना क्या है? जहां माथा अपने आप झुक जाए; सिर्फ झुके ही नहीं, मिट ही जाए! मंदिरों और मस्जिदों में तुम माथा झुका रहे हो, वह केवल आदत है, डर है, संस्कार है, भाव नहीं। और जहां भाव नहीं है वहां भक्ति कैसी? जब भाव से झुकता है माथा तो फिर उठता ही नहीं।
जिस रंग में देखो उसे वो पर्दानशीं है
और इस पे ये पर्दा है कि पर्दा ही नहीं है
जरा पहचान होने लगे, या किसी पहचान वाले से पहचान होने लगे, कि तुम पाओगे कि हर तरफ वही छिपा है। और मजा यह है कि छिपा जरा भी नहीं है। ‘जिस रंग में देखो उसे वो पर्दानशीं है’। हर पर्दे के पीछे वही है। ‘और इस पे ये पर्दा है कि पर्दा ही नहीं है। उघड़ा खड़ा है, नग्न खड़ा है परमात्मा।
हर एक मकां में कोई इस तरह मकीं है
पूछो तो कहीं भी नहीं, देखो तो यहीं है
हर मकान में छिपा है। पूछो, तो कहीं भी नहीं, देखो, तो यहीं है। देखने-देखने की बात है, पूछने की नहीं।
कबीर ने कहाः ‘लिखा-लिखा की है नहीं, देखा-देखी बात।’ देखो! हृदय देखता है, बुद्धि पूछती है।
हर एक मकां में कोई इस तरह मकीं है
पूछो तो कहीं भी नहीं, देखो तो यहीं है

मुझसे कोई पूछे तेरे मिलने की अदाएं
दुनिया तो ये कहती है कि मुमकिन ही नहीं है
किसी प्रेमी से पूछो, दुनिया से मत पूछना। दुनिया को क्या पता? तुम परमात्मा के संबंध में उससे पूछना, जिसकी आंखों में तुम्हें परमात्मा का सरूर मिले; जिसके आस-पास परमात्मा की शराब बहती हुई मालूम पड़े; जिसके पास बैठ कर तुम डरने लगो कि कहीं डूब तो न जाओगे; जिसके पास बाढ़ आने लगे; जिसके पास तुम्हारा हृदय एक नई उमंग से आंदोलित हो उठे; जिसके पास तुम्हारा हृदय एक नई तरह से धड़कने लगे, श्वास एक नई शैली ले ले; जिसके पास बैठ कर थोड़ी देर को तुम दुनिया को भूल ही जाओ, किसी और जगत के द्वार खुल जाएं, कोई रहस्य के पर्दे उठें, उससे पूछना! और पूछना क्या, देखना। क्योंकि देखना ही पूछने की असली बात है। पूछे-पूछे से कुछ भी न होगा। देखना।
सत्संग दर्शन है सदगुरु का।
और कृष्ण ने उद्धव से जो कहा, ठीक ही कहाः मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्संग और भक्ति-योग को छोड़ कर संसार-सागर से पार होने का और दूसरा उपाय नहीं है।
सत्संग से शुरुआत, भक्ति में मध्य, भगवान में पूर्णाहुति।

तीसरा प्रश्नः भगवान!
प्रभु, जग से नाता तोड़ी रे
मैं तुझसे नाता जोड़ी
जहां बिठाए बैठ रहूं मैं
जो दे-दे सो खा लूं
जो पहनाए पहन रहूं मैं
जहां सुलाए सो लूं
प्रभु, जग से नाता तोड़ी रे!

आर्या! जग भी उसका ही है। जग भी उसने ही दिया है। नाता तोड़ने की जरूरत ही नहीं है; बस उससे नाता जोड़ो! किसी से नाता तोड़ो मत; उससे नाता जोड़ो जरूर। उससे नाता जुड़ जाए, बस यही काफी है। फिर तुम अचानक पाओगे कि सब में वही व्याप्त है। जग में भी वही व्याप्त है। यह सारा विस्तार उसी का है। इस विस्तार में कहीं भी कुछ भ्रांति नहीं है। भ्रांति है हमारे अहंकार में। भ्रांति है हमारे मन में।
माया जगत का नाम नहीं है, माया हमारे मन का फैलाव है। जगत तो उसका ही है। लेकिन मन ने एक फैलाव कर लिया है, जो झूठा है। जो नहीं है, उसे देख लिया है, जो है, उसे अनदेखा कर दिया है। असार को पकड़ लिया है, सार को छोड़ दिया है।
जग से नाता नहीं तोड़ना है। यही तो मेरी बुनियादी शिक्षा है। जग उसका ही प्रकट रूप है। जग में वही छिपा खड़ा है। जग को उसकी प्रतिमा समझो।
आर्या, तेरे मन में पुराना संस्कार होगा गहरा। सदा से यह कहा गया है कि संसार से नाता तोड़ो और परमात्मा से नाता जोड़ो। मैं कहता हूंः सिर्फ परमात्मा से नाता जोड़ो, और तुम पाओगे कि संसार भी उसका ही रूप है। नाता तोड़ने की बात ही क्या करनी, यहां कोई दूसरा है ही नहीं। इसलिए मैं कहता हूंः घर छोड़ कर मत जाओ, पत्नी भी मत छोड़ो, बच्चे भी मत छोड़ो, अन्यथा जल्दी ही उपद्रव शुरू हो जाएगा।
अब जैसे आर्या ने कहा कि प्रभु जग से नाता तोड़ी रे! अब जल्दी ही इसके मन में भाव उठने लगेंगे कि अब क्या पति, क्या बच्चे, क्या घर! सब छोड़ो-छाड़ो, सब झंझट है। हालांकि तू कह रही है--
जहां बिठाए बैठ रहूं मैं
जो दे दे सो खा लूं
जो पहनाए पहन रहूं मैं
जहां सुलाए सो लूं
प्रभु, जग से नाता तोड़ी रे!
... फिर प्रभु, फिर यह काहे के लिए, जग से नाता किसलिए तोड़ रही है? यही तो उसने जगह चुनी है तुम्हारे लिए। सोओ, खाओ, पीओ--यह उसका ही इंतजाम है।
मेरे पास रोज ऐसा मौका आ जाता है। कोई आ जाता है, वह कहता कि हम तो सब आप पर छोड़ दिए, अब जो कहेंगे आप, वही हम करेंगे। और मैं कहता हूंः भाई, अपने घर जाओ! वह कहते हैं कि हम जा ही नहीं सकते! आप जो कहेंगे, वही हम करेंगे! हम तो सब आप पर ही छोड़ दिए हैं! अब हम कहीं जाने वाले नहीं हैं! अब तो आपके चरणों में हैं, अब तो आपकी मर्जी हमारी मर्जी। और मैं उनसे कह रहा हूं कि भाई मेरे, तुम अपने घर जाओ! अब तो यह हो ही नहीं सकता, हम तो सब आप पर ही छोड़ दिए हैं! अब इन्हें कोई कैसे समझाएं कि तुम क्या कह रहे हो? अगर मुझ पर ही छोड़ दिए हो तो मैं कह रहा हूंः घर जाओ। वह कहते हैं, घर इत्यादि हमें जाना नहीं!
पुराना एक संस्कार है। संन्यास का अर्थ थाः सब छोड़ दो, तब परमात्मा मिलेगा। संन्यास का पुराना अर्थ थाः संसार और परमात्मा में विरोध है। यह बात इतनी अज्ञानपूर्ण है; अगर विरोध ही है तो संसार हो ही नहीं सकता। अगर परमात्मा संसार का विरोधी ही है तो बनाए क्यों? तो चलने क्यों दे? तो इसे सजाए क्यों? इतने फूल क्यों खिलाए? इतने चांद-तारे क्यों बनाए? नये-नये बच्चों को जन्म क्यों देता चला जाए?
तुम अगर किसी चीज के विरोध में हो तो तुम बनाना तो बंद ही कर दोगे न? अगर कोई कवि कविताओं के विरोध में है कविताएं रचेगा नहीं? और कोई चित्रकार अगर चित्रों के विरोध में है तो क्यों सिर फोड़ेगा? क्यों तूलिका उठा कर और कैनवस पर रंग पोतता रहेगा? पागल है? परमात्मा संसार को सजाए ही चला जाता है, बनाए ही चला जाता है, नितनूतन किए जाता है। परमात्मा संसार के विरोध में नहीं है। परमात्मा तो संसार में पूरा का पूरा लिप्त है, डूबा हुआ है--आकंठ डूबा हुआ है। यह उसकी कृति है। जैसे नर्तक अपने नृत्य में डूबा रहता है, ऐसा परमात्मा इस जगत में डूबा हुआ है।
लेकिन पंडितों ने, पुरोहितों ने एक विरोध खड़ा किया, संसार और परमात्मा के बीच एक द्वंद्व खड़ा किया। मैं तुम्हें द्वंद्व से मुक्त करना चाहता हूं। मैं तुम्हें निर्द्वंद्व देखना चाहता हूं। कोई विरोध मत खड़ा करो। अगर परमात्मा को यह जगत स्वीकार है तो तुम कौन परमात्मा से ऊपर उठ कर जगत को अस्वीकार करने की चेष्टा कर रहे हो? उसे स्वीकार है तो तुम्हें भी स्वीकार हो। यही तो अर्थ है। जहां बिठाए वहां बैठे रहो; जहां सुलाए वहां सो लो; जो पहनाए वह पहन लो। अगर उसने मां को बनाया है तो मां, और अगर पति को बनाया है तो पति, और पत्नी बनाया तो पत्नी, और उसने घर दिया तो घर, जो उसने दिया है, इसे सरल भाव से स्वीकार कर लो--धन्यवादपूर्वक! यह उसका ही है। इसको प्रार्थनापूर्वक जीओ। वह है असली क्रांति! पति में परमात्मा देखो, पत्नी में परमात्मा देखो। यह असली क्रांति! वह जो बेटा तुम्हारे घर में पैदा हुआ है, उसका ही रूप है। उसकी ही एक ही किरण उतरी तुम्हारे गर्भ से। उसमें देखो परमात्मा को!
धर्म के नाम पर बहुत अनाचार हुआ है। सबसे बड़ा अनाचार हुआ कि लाखों लोग अपने घर-द्वार छोड़कर भाग गए। अगर किसी और कारण भागते तो हमने इनकी खूब निंदा की होती। लेकिन उन्होंने बहाना ऐसा खोजा कि निंदा भी लोग न कर सके। हम उनका सम्मान करने में लग गए और यह भूल ही गए--उनकी पत्नियों का क्या हुआ, उनके बच्चों का क्या हुआ? उनके बच्चे भिखमंगे हो गए, अनाथ हो गए। उनकी पत्नियां वेश्याएं हो गईं। इस सबका हमने हिसाब नहीं रखा। बस एक आदमी संन्यासी हो गया, हम उसके स्वागत-सम्मान में लग गए, शोभायात्रा निकालने में लग गए, यह भूल ही गए कि वह जो कर आया है, उसके परिणाम क्या हुए? लाखों लोगों ने घर छोड़ा। लाखों घर बरबाद हुए। इस बरबादी, इस दुख का जिम्मेवार कौन है?
मेरे संन्यास की धारणा, आर्या, बिल्कुल अलग है। मेरे संन्यास की धारणा हैः सब उसका है! सब में वही है! उसका ही मान कर, उसका ही अंगीकार करके, संसार को जीओ--और एक क्रांति हो जाएगी। जीओ संसार में और फिर भी तुम पाओगेः संसार के बाहर हो। जल में कमलवत!
कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन
लाख बलाएं, एक नशेमन

कामिल रहबर, कातिल रह.जन
दिल-सा दोस्त न दिल-सा दुश्मन
बस एक ही दोस्त है, एक ही दुश्मन है--दिल, तुम्हारा मन। न कहीं और कोई दोस्त है, न कहीं कोई और दुश्मन है। छोड़ो, बदलो कुछ भी तो बस इस मन को बदलो।
और यहां फूल ही फूल हैं। जरा दामन फैलाओ और फूलों से भर लो।
कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन
लाख बलाएं, एक नशेमन

कामिल रहबर, कातिल रहजन
दिल-सा दोस्त न दिल-सा दुश्मन

फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन
लेकिन अपना-अपना दामन
फूल तो खिले हैं सब तरफ, बात अगर कुछ है तो अपने-अपने दामन को फैलाने की। कोई अपने दामन में फूल भर लेता है, सुवासित हो जाता है उसका जीवन। और कोई अपने दामन को सिकोड़े खड़ा रहता है और फूलों से वंचित रह जाता है।
फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन
लेकिन अपना-अपना दामन

उम्रें बीतीं, सदियां गुजरीं
वही है अब तक अक्ल का बचपन

इश्क है प्यारे, खेल नहीं है
इश्क है कारे-शीशा-ओ-आहन

आज न जाने राज ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन

आ, कि न जाने तुझ बिन कल से
रूह है लाशा, जिस्म है मदफन

कांटों का भी हक है कुछ आखिर
कौन छुड़ाए अपना दामन
ऐसी भाव-दशा का नाम आस्तिकता है।
कांटों का भी कुछ हक है आखिर
कौन छुड़ाए अपना दामन
अगर कांटा भी कभी दामन में उलझ जाए, तो छुड़ाने की जल्दी मत करना, कांटा भी उसी का है! फूल तो चुनना ही, कांटे को भी अंगीकार कर लेना। क्योंकि फूल ही उसके नहीं हैं, कांटे भी उसके हैं। कभी कोई दुख आ गड़े, उसको भी स्वीकार कर लेना। और तब तुम चकित होकर पाओगे कि जिस कांटे को स्वीकार कर लिया, वही कांटा फूल बन जाता है। और जिस दुख को भी अहोभाव से अंगीकार कर लिया, वहीं दुख का रूपांतरण हुआ। वहीं सुख का फूल खिल जाता है। और तब विरह की रात भी मिलन की रोशनी से भर जाती है। यह संसार भी परमात्मा से दीप्त हो उठता है!
आज न जाने राज ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन!
विरह चल रहा है, लेकिन जिस दिन भक्त सब को स्वीकार कर लेता है--बेशर्त, निरपवाद--कांटे भी, फूल भी; रात भी, दिन भी; जीवन भी, मौत भी--उस दिन यह हिज्र की रात, यह विरह की रात मिलन की रोशनी से भर जाती है।
इसलिए आर्या, तेरा भाव ठीक है, लेकिन और ठीक करना पड़े! भाव में थोड़ी सी कठिनाई है, उस कठिनाई को भी गिरा दे! जग स्वीकार ही करना है तो फिर बेशर्त स्वीकार कर लो। फिर अपनी मर्जी को बीच में लाओ ही मत। मर्जी आई कि अहंकार आया। अहंकार आया कि परमात्मा से दूरी हुई। मर्जी गई, अहंकार गया। अहंकार गया कि सिर्फ परमात्मा है और कुछ भी नहीं--न कोई जग है, न कोई मैं है, वही है! पूछो, तो पता नहीं चलता, देखो, तो दिखाई पड़ता है।
पांव उठ सकते नहीं मंजिलें-जानां के खिलाफ
और अगर होश की पूछो तो मुझे होश नहीं

हुस्न से इश्क जुदा है न जुदा इश्क से हुस्न
कौन सी शै है? जो आगोश-दर-आगोश नहीं

यहां कोई चीजें अलग-अलग नहीं हैं।
हुस्न से इश्क जुदा है न जुदा इश्क से हुस्न
न तो यहां सौंदर्य प्रेम से अलग है और न प्रेम सौंदर्य से अलग है। यहां रात-दिन साथ-साथ हैं। यहां प्रेमी और प्रेयसी साथ-साथ हैं। यहां भक्त और भगवान साथ-साथ हैं। यहां माया और ब्रह्म साथ-साथ हैं।
पांव उठ सकते नहीं मंजिलें-जानां के खिलाफ
और अगर होश की पूछो तो मुझे होश नहीं

हुस्न से इश्क जुदा है न जुदा इश्क से हुस्न
कौन सी शै है? जो आगोश-दर-आगोश नहीं

मिट चुके जिह्न से सब यादे-गुजश्ता के नुकूश
फिर भी इक चीज है ऐसी कि फरामोश नहीं

कभी उन मदभरी आंखों से पिया था इक जाम
आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश नहीं
देखो, ये मदभरी आंखें तुम्हें सब तरफ से तलाश रही हैं।
कभी उन मदभरी आंखों से पिया था इक जाम
आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश नहीं

इश्.क गर हुस्न के जल्वों का है मरहूने-करम
हुस्न भी इश्क के एहसां से सुबकदोश नहीं
और निश्चित ही प्रेम सौंदर्य का बड़ा आभारी है, लेकिन सौंदर्य भी प्रेम का आभारी है। भक्त भगवान का आभारी है, सच, लेकिन भगवान भी भक्त का आभारी है। क्योंकि न तो भक्त को भगवान के बिना चैन है और न भगवान को भक्त के बिना चैन है। जुड़े हैं, संयुक्त हैं। यह सारा अस्तित्व इकट्ठा है। यहां कोई चीज अलग-अलग नहीं है। यहां भेद न करो--जगत अलग और परमात्मा अलग; और मुझे परमात्मा को खोजना है तो जगत को छोड़ना पड़ेगा--ऐसे गणित मत बिठाओ। ये गणित भ्रांत हैं। तुम जहां हो, जैसे हो, वैसे ही समर्पित हो जाओ। जैसा रखे, वैसे ही रहो। जैसा जिआए, वैसे ही जीओ।
जरा इस अनूठी कीमिया का उपयोग तो करो! सब अपनी मर्जी छोड़ दो और अचानक तुम पाओगे--सब गए बोझ! पहाड़ जैसे बोझ थे, गिर गए, निर्भार हुए। इतने निर्भार कि चाहो तो उड़ जाओ आकाश में। जमीन का गुरुत्वाकर्षण जैसे काम न करे। करके तो देखो! कुछ करना नहीं है और--जहां हो, जैसे हो, वैसे ही स्वीकार कर लो! यही उसकी मर्जी है--और उसकी मर्जी, मेरी मर्जी!

आखिरी प्रश्नः यदि सब कुछ परमात्मा के हाथ में है, एक पत्ता भी उसकी मर्जी के बगैर नहीं हिलता, तो फिर व्यक्ति की स्वतंत्रता बेमानी हो जाती है। कृपया समझाएं।

मैत्रेए! व्यक्ति है ही नहीं, कैसी स्वतंत्रता? व्यक्ति हो तो स्वतंत्रता। समष्टि है। व्यक्ति भ्रांति है।
व्यक्ति ऐसे ही है जैसे सागर में एक लहर। लहर सोचे कि मैं स्वतंत्र हूं, थोड़ी देर मान सकती है और थोड़ी देर को भ्रांति भी बन सकती है स्वतंत्र होने की। क्योंकि लहर उठती है आकाश की तरफ... उत्तंगु लहर! ... चांद-तारों को छूने को बढ़ती है, लगता है कि स्वतंत्र हूं, सागर से स्वतंत्र हूं, देखो मैं अलग हूं; और यह भी लगता है कि और लहरों से भी मैं अलग हूं--कोई लहर गिर रही, कोई लहर उठ रही, कोई मर रही, कोई जवान, कोई बढ़ रही; किसी दूसरी लहर के गिरने से मैं तो नहीं गिर रही हूं--तो निश्चित ही अलग हूं। किसी और लहर के बढ़ने से मैं तो नहीं बढ़ रही हूं, निश्चित ही अलग हूं।
लेकिन क्या सच में ही लहर अलग है? लहर की कोई स्वतंत्रता है? भ्रांति है। अहंकार है। लहर सागर से एक है। और बाकी सारी लहरें भी सागर से जुड़ी हैं। सारी लहरें सागर की! सागर लहरा रहा है। लहरें कहां हैं? सागर लहरा रहा है! लहरें कहां हैं।
परमात्मा लहरा रहा है; व्यक्ति कहां है? व्यक्ति भ्रांति है। मान लेना कि मैं हूं, तो फिर सवाल उठता है स्वतंत्रता का। कैसी स्वतंत्रता?
और तुम यह मत सोच लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि तुम परतंत्र हो। क्योंकि जब स्वतंत्रता ही नहीं तो कैसी परतंत्रता? स्वतंत्रता-परतंत्रता तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न यहां कोई स्वतंत्र है--क्योंकि अलग नहीं--न यहां कोई परतंत्र है; क्योंकि कोई ‘पर’ ही नहीं, तो परतंत्र कैसे? तो न कोई स्वतंत्रता है न कोई परतंत्रता है। परतंत्रता-स्वतंत्रता के लिए दो का होना जरूरी है। दोनों के लिए दो का होना जरूरी है। अगर कोई भी न हो, तुम अकेले होओ, तो क्या तुम कहोगे मैं स्वतंत्र हूं? किससे स्वतंत्र? और किससे स्वतंत्र, कैसे स्वतंत्र? और अगर तुम अकेले हो और कोई भी नहीं, तो क्या तुम कह सकोगे मैं परतंत्र हूं? कैसी परतंत्रता? दूसरा है ही नहीं। एक का आवास है। एक में ही लहरें उठ रही हैं। एक ही अनेक जैसा भासता है।
इसलिए सब स्वतंत्रता भ्रांति है, सब परतंत्रता भ्रांति है। छोड़ो स्वतंत्रता, छोड़ो परतंत्रता, छोड़ो दोनों का मूल आधार--अहंकार! और अहंकार के जाते ही जो घटता है--प्रसाद, जो महोत्सव--उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते! उस प्रसाद की तुम कोई धारणा भी नही कर सकते। क्योंकि यह स्वतंत्रता-परतंत्रता यह अहंकार--यही तो तुम्हारे सारे कष्ट हैं, सारे नरक का कारण है। इन्हीं में तो, तुम उलझे हो। और कौन कब स्वतंत्र हो पाता है? सिकंदर भी स्वतंत्र नहीं है। मौत आती है तो परतंत्र सिद्ध हो जाता है। और परतंत्र से परतंत्र आदमी भी परतंत्र नहीं है।
यूनान में एक विचारक हुआ, एपिटेक्टस। उसको यूनान के सम्राट ने बुलाया और कहा कि मैंने सुना है कि तुम कहते हो कि तुम्हें कोई परतंत्र नहीं कर सकता; यह बात गलत है। एपिटेक्टस ने कहाः तो करके दिखाएं महाराज! बड़ी हिम्मत की चुनौती थी! फकीर, नंगा फकीर, उसने कहाः तो करके दिखाएं! वह सम्राट भी बहुत दुष्ट प्रकृति का था। उसने जल्लाद बुला रखे थे। उसको बंधवा दिया हथकड़ियों से। कहाः अब? लेकिन उसने कहाः मैं परतंत्र नहीं हूं। जिसको आपने परतंत्र किया है, यह तो देह है, यह मैं नहीं।
उसने जल्लादों को कहा, इसकी टांग उखाड़ दो। तो जल्लाद उसकी टांग मरोड़ कर तोड़ने लगे। उसने कहा कि देखो, तोड़ तो रहे हो, लेकिन अभी तक मैं महाराज के कुछ काम पड़ जाता था, अब आगे काम न पड़ सकूंगा--वह ख्याल रखना--मजे से तोड़ो! टांग उसकी तोड़ी जा रही है, लेकिन वह ऐसे कह रहा है जैसे कि कोई चीज किसी और की तोड़ी जा रही है। कहाः मजे से तोड़ो! अभी तो कुछ काम पड़ जाता था, अब आगे काम न पड़ सकूंगा--वह ख्याल रखना। उतना मैं सावधान किए देता हूं।
टांग तोड़ दी गई, एपिटेक्टस हंसता रहा। एपिटेक्टस ने कहा कि तुम मेरी देह को चाहो तो जंजीरों में डाल दो, कारागृह में डाल दो, लेकिन मुझे तुम कैद न कर सकोगे। मैं स्वतंत्रता हूं।
तो एक एपिटेक्टस है जो कहता है, मैं स्वतंत्र हूं--कारागृह में पड़ कर, टांग तोड़ी जा रही, जंजीरों में बंधा हुआ! और एक सिकंदर है, जो मरते वक्त, अनुभव करता है कि मेरा सारा साम्राज्य, सारा धन, सब व्यर्थ गया! मैं मर रहा हूं ऐसे ही जैसे एक कुत्ता मरता है।
फर्क क्या?
दोनों ही भ्रांतियां हैं। न तो कोई परतंत्र है, न कोई स्वतंत्र है। परमात्मा है--और एक है। तुम जो भ्रांति बनाना चाहो, बना सकते हो। अगर तुम्हें स्वतंत्रता की भ्रांति बनानी है तो शरीर से अपने को भिन्न मान लेना, तो स्वतंत्रता की भ्रांति पैदा हो जाएगी। अगर परतंत्रता की भ्रांति बनानी है, शरीर के साथ अपना तादात्म्य कर लेना, तो परतंत्रता की भ्रांति पैदा हो जाएगी। लेकिन एक ही है। दो होते तो स्वतंत्रता-परतंत्रता हो सकती थी। अगर तुम ठीक से समझना चाहो तो यह अस्तित्व एक परस्परतंत्रता है। न स्वतंत्रता, न परतंत्रता, परस्परतंत्रता, इंटरडिपेंडेंस। सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
और अंतिम विश्लेषण में एक ही है। तुमने श्वास ली, जब श्वास तुम्हारे भीतर गई तो तुम्हारी श्वास हो गई। और तुमने कहा, मेरी श्वास है। और घड़ी भर पहले किसी और की सांस थी। और फिर क्षण भर बाद तुम्हारी श्वास बाहर गई, किसी और ने ली, उसकी श्वास हो गई। तुमने वृक्ष से एक नाशपाती तोड़ कर खाई। अभी तक बाहर थी, अलग थी; दो दिन बाद पच गई, खून बन गई, मांस-मज्जा बन गई, तुम्हारा अंग हो गई। एक दिन तुम मर जाओगे, तुम्हारी कब्र पर एक नाशपाती का झाड़ उगेगा, उसमें एक नाशपाती लगेगी, उसमें तुम्हारा लहू, मांस-मज्जा, सब खाद बन जाएंगे। हो सकता है तुम्हारा नाती-पोता उसको खाए--तो बापदादों को पचा गया!
सब परस्पर निर्भर हैं; सब जुड़ा है।
अंग्रेजी के महाकवि टेनिसन ने कहा हैः घास के एक पत्ते को भी हिलाओ, दूर-दूर के चांद-तारे हिल जाते हैं। जैसे तुमने मकड़ी के जाले को कभी हिला कर देखा? एक जरा सा धागा हिलाओ, सारा जाल हिल जाता है। एक पत्ता तोड़ो, सारा अस्तित्व कंप जाता है।
इसलिए तो महावीर ने अहिंसा की बात कही। पत्ता भी मत तोड़ो। क्योंकि यहां एक ही है।
इसलिए तो जीसस ने कहाः दुश्मन को भी क्षमा कर दो। क्योंकि दुश्मन भी दूसरा नहीं, तुम ही हो। दुश्मन से भी ऐसा ही प्रेम करो जैसा तुम अपने से करते हो, क्योंकि तुम और दुश्मन ऊपर-ऊपर अलग दिखाई पड़ रहे हैं, भीतर-भीतर एक हैं।
सारे धर्मों का सार क्या है?
एक छोटा सा शब्द कि यह अस्तित्व अद्वैत है। फिर इस अद्वैत के आधार पर सारे अनुशासन विकसित हुए हैं--अहिंसा का, प्रार्थना का, ध्यान का। सारे अनुशासन अद्वैत की धारणा से निकले हैं। अद्वैत की गंगोत्री से सारी गंगाएं विचार की निकली हैं। मगर मूलभाव समझ लेना चाहिए। यहां न कोई स्वतंत्र है, न कोई परतंत्र है। अगर तुम ऊपर-ऊपर से देखो, परिधि पर, तो परस्परतंत्रता; और अगर केंद्र पर देखो तो परस्परतंत्रता भी नहीं है, क्योंकि वहां भी क्या परस्पर; दो ही नहीं हैं, एक है।
एक को जान लेना परमात्मा को जान लेना है।
इसलिए तो बार-बार कहा जाता है कि अहंकारी नहीं जान पाएगा। क्योंकि अहंकारी मान कर चल रहा है कि मैं अलग हूं; उसने दो तो मान ही लिए। और दो के मान लेने में भ्रांति खड़ी हो गई, दीवाल खड़ी हो गई। मैं पृथक हूं, यही अज्ञान है। मैं पृथक नहीं हूं, यही ज्ञान की उदघोषणा है; अहं ब्रह्मास्मि!
उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु को कहाः ‘तत्त्वमसि, श्वेतकेतु!’ तू वही है। जरा भी भिन्न नहीं। रंचमात्र भिन्न नहीं।
इस भाव में डूबो। इस भाव में गहरे उतरो। इस भाव में जितनी गहराई बढ़ेगी, उतना ही सत्संग। जितना गहरा सत्संग, उतनी भक्ति। जितनी भक्ति, उतना भगवान करीब।
दूरी नहीं हैः बस, जरा साहस चाहिए--अपने को छोड़ने का साहस!
मनुष्य है स्वयं को अतिक्रमण करने की अभीप्सा। जगाओ उस अभीप्सा को। जागो! वह अभीप्सा जगे, ऐसी जगे कि लपटें बन जाएं और उसमें तुम जल कर राख हो जाओ! इधर तुम राख हुए कि उधर तुम्हारे भीतर से नये का आविर्भाव हुआ--शाश्वत का, अमृत का! अमृतस्य पुत्रः!

आज इतना ही।

1 टिप्पणी: