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बुधवार, 22 अगस्त 2018

अपने माहिं टटोल-(प्रवचन-10)

अपने माहिं टटोल-(साधना-शिविर)

दसवां प्रवचन-सत्य है अनुसंधान-- मुक्त और स्वतंत्र

इधर तीन दिनों में सत्य की खोज में और उस रास्ते पर किन बाधाओं को मनुष्य दूर करे, किन सीढ़ियों को चढ़े और किन बंद द्वारों को खोले, उस संबंध में बहुत सी बातें हुई हैं। बहुत से प्रश्न भी उस संबंध में पूछे गए हैं। आज की रात उन सारे महत्वपूर्ण प्रश्नों पर मैं चर्चा करूंगा जो शेष रह गए हैं।
सबसे पहले, अनेक प्रश्न पूछे गए हैं कि हजारों वर्षों से हजारों लोग जिन बातों को मान रहे हैं, मैं उन बातों को गलत क्यों कहता हूं? और जिन बातों को इतने लोग सही मानते हों, क्या वे बातें गलत हो सकती हैं? क्या इतनी पुरानी परंपराएं, रूढ़ियां, जिन्हें हम सदा से मानते रहे हैं, भूल भरी हो सकती हैं?

एक छोटी सी कहानी इस प्रश्न के उत्तर में कहूंगा। उस कहानी से कुछ बात ख्याल में आ सकेगी और कुछ उसके पीछे। एक राजा के दरबार में एक अजनबी अपरिचित आदमी आया। और उस आदमी ने आकर राजा को कहाः तुमसे बड़ा सम्राट पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। और न ही इतिहास को ज्ञात है कि कभी तुमसे बड़ा कोई सम्राट हुआ हो।

राजा प्रसन्न हुआ, जैसे कि कोई भी प्रसन्न होता। और उस आदमी ने कहाः लेकिन तुम जैसे महान सम्राट के लिए आदमियों जैसे कपड़े पहनना शोभादायक नहीं है। मैं तुम्हारे लिए देवताओं के वस्त्र ला सकता हूं।
राजा ने कहाः कुछ भी खर्च हो जाए, कितनी भी संपदा लगे, लाओ तुम देवताओं के वस्त्र।
उस आदमी ने कहाः पहली बार ही पृथ्वी पर देवताओं के ये वस्त्र उतरेंगे तुम्हारे लिए, लेकिन बहुत खर्च करना होगा।
राजा के पास कोई कमी न थी, उसने खर्च का वचन दिया। राजा के सभी दरबारी चिंतित हुए, वे समझ गए कि कोई चालाक आदमी राजा को धोखा दे रहा है। देवताओं के वस्त्र! आज तक न देखे गए और न सुने गए! छह महीने का वचन दिया उस आदमी ने। और छह महीने हर दो-चार दिन में आकर दस-पांच हजार रुपये वह ले जाता रहा। देवताओं को रिश्वत खिलानी थी, और कई दफ्तर के काम निपटाने थे, तब देवताओं तक पहुंचना हो सकता था।
अंतिम तिथि आ गई, जब उसने वचन दिया था कि वह वस्त्र लेकर आ जाएगा। राजा के दरबारी प्रतीक्षा में थे कि आखिर में तो वह फंस ही जाएगा। उस दिन उसके घर पर सिपाहियों का पहरा लगा दिया गया कि कहीं वह भाग न जाए। लेकिन वह भागने को नहीं था, ठीक समय एक बहुत खूबसूरत पेटी में बंद ताला डाल कर वह बाहर निकला। लोग निश्चिंत हुए, जरूर वह वस्त्र ले आया था। राज-दरबार में वे वस्त्र पहुंचे। सैकड़ों लोग राजा के द्वार पर इकट्ठे हो गए थे। देवताओं के वस्त्र कभी देखे न गए थे। दरबारी हैरान थे, लेकिन अब शक करने की कोई बात भी न थी, वह आदमी पेटी लेकर आ ही गया था। उसने राज-दरबार में जाकर पेटी रखी। उस दिन दरबार सजा था और महल ज्योतियों से दीपायमान किए गए थे। राजा बैठा था अपने सिंहासन पर इस खुशी में कि पहला मनुष्य होगा वह, जो देवताओं के वस्त्र पृथ्वी पर पहनेगा। उस आदमी ने पेटी का ताला खोला, ताला खोल कर वह खड़ा हुआ और उसने कहाः मित्रो, एक बात सूचना कर दूं, जो देवताओं ने मुझसे कही है। उन्होंने कहा है कि ये वस्त्र केवल उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे, जो ठीक अपने ही पिता से पैदा हुए हों। ये वस्त्र सभी को दिखाई पड़ने वाले नहीं, ये देवताओं के वस्त्र हैं। ये कोई सामान्य आदमियों के वस्त्र नहीं हैं।
उसने पेटी खोली, उसने कुछ उसके भीतर से निकाला, हाथ तो उसका खाली आया और उसने राजा से कहाः अलग कर दीजिए अपना कोट और पहनिए यह कोट देवताओं का। राजा को भी हाथ खाली दिखाई पड़ा, दरबारियों को भी हाथ खाली दिखाई पड़ा। लेकिन बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई थी, सारे दरबारी ताली पीटने लगे और कहने लगेः इतना सुंदर कोट हमने कभी देखा नहीं!
राजा ने सोचाः अगर मैं यह कहूं कि कोट दिखाई नहीं पड़ता, तो व्यर्थ ही पिता के ऊपर संदेह हो जाएगा। खुद तो उसे संदेह हो ही आया, क्योंकि पूरे दरबारी कह रहे थे कि ओह, अदभुत! और एक-दूसरे से आगे बढ़े जा रहे थे प्रशंसा में कोट की। राजा ने सोचाः पिता तो मेरा संदिग्ध हो ही गया, अब व्यर्थ इस बात को खोलने से क्या फायदा, इस कोट को पहन ही लो, जो कि था ही नहीं। उसने अपना कोट निकाल दिया, जो कि था; और वह कोट पहना, जो कि नहीं था। धीरे-धीरे एक-एक वस्त्र निकाले जाने लगे, राजा नंगा होने लगा। एक-एक वस्त्र पेटी से वह निकालने लगा और उसने कहाः यह पहनें पजामा, यह पहनें टोपी, यह फलां, यह ढिकां। कुछ भी न था, हाथ खाली था। राजा के अपने वस्त्र छिनने लगे, राजा धीरे-धीरे नंगा खड़ा हो गया, केवल अधोवस्त्र रह गया, अंडरवियर रह गया। अंत में उस आदमी ने निकाला अंडरवियर, हाथ में कुछ भी न था। उसने कहाः यह लें और पहनें। अब बड़ी मुश्किल आ गई। लेकिन मजबूरी थी, दरबारी ताली बजा रहे थे और कह रहे थे, ऐसे वस्त्र तो कभी देखे नहीं। और सब एक-दूसरे से आगे थे ताली बजाने में, क्योंकि कोई भी अपने पिता पर संदेह करवाने के लिए तैयार न था। प्रत्येक को दिख रहा था--हाथ खाली है, पेटी खाली है। लेकिन जब शेष सारे लोग कह रहे हों, तो कौन मुफ्त अपनी मुसीबत मोल ले! जब सब कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे। जब इतने लोग कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे। यह तर्क तो स्पष्ट था। राजा का अंडरवियर भी छिन गया, वह पूरी तरह नग्न खड़ा हो गया। और सारे लोगों ने तालियां बजाईं और कहाः धन्य है महाराज! ऐसे वस्त्र पृथ्वी पर कभी नहीं देखे गए!
राजा भी बोलाः मैं भी हैरान हूं! इतना आनंदपूर्ण मालूम हो रहा है इन्हें पहन कर, ऐसा कभी भी मालूम न हुआ था!
उस आदमी ने, जो इन वस्त्रों को लाया था, उसने कहाः महाराज, ये वस्त्र पहली दफा उतरे हैं, देवताओं ने कहा था, राजा का जुलूस निकाल देना।
उस राजधानी में उस दिन उस नंगे राजा का जुलूस निकला। गांव भर में खबर पहुंच गई कि वस्त्र उसी को दिखाई पड़ेंगे जिसका पिता संदिग्ध न हो। और गांव भर में सभी को वस्त्र दिखाई पड़े। रास्तों पर लोगों ने तालियां बजाईं, फूल फेंके और कहाः धन्य है! धन्य है! ऐसे वस्त्र, ऐसे वस्त्र कभी नहीं देखे गए!
उस गांव में उस दिन दूसरे गांव से एक अजनबी युवक भी आया हुआ था, उसे इस घोषणा की कोई खबर न थी, वह भी भीड़ में खड़ा हुआ था। वह हैरान हो गया! वह चिल्लायाः क्या तुम सब पागल हो गए हो? यह राजा नंगा है!
लेकिन लोगों ने कहाः पागल है तू! देखता नहीं, इतने लोग जिस बात को कहते हैं, वह सच होती है। तेरे अकेले को कौन मानेगा? पागल है तू! और तुझे पता नहीं कि अनजाने ही तूने यह भी बता दिया कि तेरे पिता संदिग्ध हैं। हम सब अपने पिताओं के पुत्र हैं, हमें वस्त्र दिखाई दे रहे हैं।
उस राजधानी में जो हुआ था, पूरी मनुष्य-जाति के साथ इधर पांच-छह हजार वर्षों में हुआ है। जिन बातों की कोई सच्चाई नहीं है, वे केवल भीड़ की मान्यता के आधार पर सच होकर खड़ी हैं। और हर आदमी जानता है कि वे झूठ हैं, लेकिन कौन आदमी अपने ऊपर संदेह करवाए! जब सारे लोग कह रहे हैं कि सच हैं, तो उसे भी मान लेना होता है कि सच होंगी।
एक आदमी, एक-एक आदमी जानता है बहुत गहरे में--असत्य क्या है। लेकिन भीड़, भीड़ कहती हैः यही सत्य है। और भीड़, भीड़ की संख्या, भीड़ का बल और हजारों साल से पैदा हो जाने से भीड़ की ताकत, वह एक-एक आदमी को डरा देती है कि मैं अकेला इस सागर के सामने क्या कहूं? कौन सुनेगा? और वह कहेगा भी तो कोई सुनने को नहीं है। यद्यपि प्रत्येक दूसरे आदमी की स्थिति भी यही है, वह भी जानता है कि यह सरासर झूठ है। लेकिन झूठ भी बहुत दिन दोहराए जाने से और बहुत लोगों के दोहराए जाने से सच जैसे प्रतीत होने लगते हैं।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः ऐसा कोई झूठ नहीं है, जिसे निरंतर दोहराया जाए तो जनता के लिए वह सच न हो जाए। और उसने लिखा है कि यह मैं कोई बातचीत और सिद्धांत नहीं कह रहा हूं, यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। मैंने निरंतर न मालूम कितने प्रकार के झूठ बोले, लेकिन ठीक से प्रचार किया, लोगों को समझाया, और वे सच हो गए। मैं खुद ही बाद में हैरान हो गया, इतने लोग जब मानते हैं, तो ठीक ही होगा, मुझको भी ऐसा लगने लगा। जो कि मैंने ही झूठ बोले थे, जिनकी शुरुआत मुझसे हुई थी और मैं जानता हूं कि वे नितांत असत्य बातें थीं; लेकिन जब सारा मुल्क मानने लगा, तो मुझको तक शक हुआ कि कहीं मैं भूल में तो नहीं हूं! जब इतने लोग मानते हैं, तो ठीक ही मानते होंगे।
कोई भी असत्य प्रचार के माध्यम से सत्य हो सकता है। तो जिनको आप कहते हैं, हजारों वर्षों से हम मानते हैं, आपके हजारों वर्षों से मानने से कोई चीज सच नहीं हो जाती। इससे केवल इतना पता चलता है कि हजारों वर्ष तक प्रचारित होने से कोई भी चीज सच मालूम होने लगती है। और आप कहते हैं, हम इतने लोग मानते हैं, हमारी भीड़ इतनी है, इतनी संख्या है। संख्या से सत्य का क्या संबंध? सत्य कोई डेमोक्रेटिक, कोई लोकतांत्रिक पार्लियामेंट थोड़े ही है कि वहां आपने हाथ उठा दिए तो सत्य का निर्णय हो जाएगा, कि जिनके पक्ष में ज्यादा हाथ हैं वे जीत जाएंगे।
कोई लोकतंत्र नहीं है सत्य। सत्य कोई भीड़ की आवाज और हाथों का उठाया जाना नहीं है। उसका निर्णय कोई मत से नहीं होता। पुराने होने से कोई चीज सच नहीं हो जाती है और न नये होने से कोई चीज झूठ हो जाती है। ये कोई कसौटियां नहीं हैं।
फिर मैंने आपसे यह नहीं कहा है कि जो कुछ भी आप मानते हैं, वह असत्य है। मैंने यह कहा हैः मानना असत्य है। और इन दोनों बातों में भेद है। मैंने आपसे यह नहीं कहा है कि जो कुछ आप मानते हैं, असत्य है। मैं क्यों कहूं? मुझे क्या प्रयोजन? मैंने आपसे यह कहा हैः मानने वाली बुद्धि असत्य है, विचार करने वाली बुद्धि सत्य है। जो मान लेता है और विचार नहीं करता, उसकी बुद्धि असत्य है, उसकी चित्त की दशा असत्य है। वह फिर जो भी मान ले, वह भी असत्य होगा। जिन चीजों पर आपने कभी सोचा नहीं, खोजा नहीं, उन्हें किस भांति मान लिया है? क्यों मान लिया है? सिर्फ इसलिए कि बहुत लोग मानते हैं? सिर्फ इसलिए कि बहुत लोग स्वीकार करते हैं?
यह जो स्वीकृति है, बहुत लोगों के आधार पर खड़ी हुई, यही मनुष्य के चित्त पर सबसे बड़ा बंधन है। और जिस व्यक्ति को सत्य की खोज में निकलना हो, उसे मान्यता के, बिलीफ के, विश्वास के सारे बंधन तोड़ देने पड़ते हैं। उसे अपने चित्त को मुक्त करना होता है, मान्यता से, ताकि वह जान सके। जो मानता है, वह जानने से वंचित रह जाता है। जो दूसरे पर विश्वास कर लेता है, उसकी खुद की खोज समाप्त हो जाती है। और जो इस भांति स्वीकार करता है, वह अंधा है। और अंधे के लिए सत्य का दर्शन असंभव है। आंख चाहिए विचार करने वाली, खोजने वाली, सोचने वाली, चिंतन करने वाली, स्वतंत्र, निष्पक्ष बुद्धि चाहिए। विश्वासी की बुद्धि निष्पक्ष नहीं होती। विश्वासी की बुद्धि पक्षपातग्रस्त होती है, प्रिज्युडिस्ड होती है। और जो पक्षपात से भरा है, वह कभी निष्पक्ष होकर सोच नहीं पाता। और जो निष्पक्ष होकर नहीं सोच पाता है, वह कैसे उपलब्ध हो पाएगा उसे जो कि सत्य है? यह सवाल नहीं है कि कितने वर्षों से कोई बात दोहराई जा रही है। हजारों ऐसी मूढ़ताएं हैं जिनका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है।
जमीन को हजारों वर्षों तक गोल नहीं माना जाता था, चपटी माना जाता था। फिर एक दिन जिस आदमी ने कहा कि जमीन गोल है, लोगों ने कहा कि माफी मांग लो, ऐसी बात कभी मत कहो। हजारों वर्षों से जो बात मानी जाती रही है, वह सच है। उस आदमी को मजबूर किया अदालत में ले जाकर कि तुम माफी मांग लो, नहीं तो फांसी लगा देंगे। वह बेचारा बूढ़ा आदमी था, जिसने यह बात कही थी। सत्तर साल के ऊपर उसकी उम्र हो गई थी। उसे एक गांव से घसीट कर राजधानी तक ले जाया गया था। उसे घुटने के बल जबरदस्ती खड़ा कर दिया गया और कहाः मांग लो माफी और कहो परमात्मा से कि मैंने एक झूठी बात कही है। क्योंकि जो सब लोग मानते हैं और जो बाइबिल तक में लिखा हुआ है कि जमीन चपटी है, तो तुम कौन हो गोल बताने वाले? और बाइबिल तो भगवान के पुत्र की किताब है, तो उसमें कहीं झूठ हो सकता है? असत्य हो सकता है?
उस बेचारे ने क्षमा मांग ली। लेकिन क्षमा मांगते वक्त उसके मुंह से एक सच्ची बात निकल ही गई। उसने कहा कि हे परमात्मा! मैं माफी मांगे लेता हूं और मैं कहे देता हूं कि जमीन चपटी है, गोल नहीं। लेकिन मेरे कहने से क्या होता है? उसने पीछे एक बात जोड़ी, लेकिन मेरे कहने से क्या होता है, जो है वह है, जमीन तो गोल ही है।
हजारों वर्षों तक हम समझते थे कि सूरज जमीन का चक्कर लगाता है। जिस आदमी ने पहली दफा कहा कि नहीं, सूरज जमीन का चक्कर नहीं लगाता, जमीन ही सूरज का चक्कर लगाती है। तो बहुत परेशानी हो गई। हमने कहाः यह नहीं हो सकता, यह कभी नहीं हो सकता। हजारों साल तक लोग नासमझी की बात मान सकते थे क्या? हम रोज आंखों से देखते हैं कि सूरज डूबता है, ऊगता है।
लेकिन जैसे-जैसे हमारी समझ बढ़ी, हमने जाना कि नहीं, जमीन ही चक्कर लगाती है सूरज के, सूरज नहीं लगाता। और कितने ही हजारों वर्षों से यह बात कही गई हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। सूरज तब भी चक्कर नहीं लगाता था जब हम मानते थे कि चक्कर लगाता था, अब भी नहीं लगाता है।
हमारी मान्यता से सत्य प्रभावित नहीं होता, सत्य अपनी जगह है। हमारी मान्यता गलत होगी तो हम गलत और अंधेरे में भटकते रहेंगे, हमारा बोध स्पष्ट होगा तो हम सत्य के निकट पहुंच जाएंगे। सत्य हमारी मान्यता से प्रभावित नहीं होता, लेकिन हमारी मान्यता हमको प्रभावित कर देती है और अंधेरे में ढकेल देती है। क्या करें?
इन तीन दिनों में मैंने आपसे यह कहा हैः अपने विचार को निष्पक्ष, मान्यता से मुक्त, परंपरा, रूढ़ियों से ऊपर उठाना जरूरी है, अगर कोई जानना चाहता हो उसे जो कि है। अगर परमात्मा को खोजना हो, तो परमात्मा के नाम से जो-जो बताया गया है, उसे पकड़ कर बैठ रहना खतरनाक है, उसे छोड़ देना होगा। उसे छोड़ देना होगा इसलिए कि उसका अभी पकड़ना अंधेरे में पकड़ना है। और जो उसे पकड़ कर तृप्त हो जाता है, फिर वह सच्चे परमात्मा की खोज ही नहीं करता, उसे कोई जरूरत नहीं रह जाती है।
इसलिए मैंने जोर दिया है कि आपका चित्त निष्पक्ष हो, विचारपूर्ण हो, जागरूक हो, अंधा न हो, विश्वासी न हो, विवेकयुक्त हो।
अब तक कहा जाता रहा हैः विश्वास धर्म है। मैं आपसे कहता हूंः विश्वास अधर्म है। विश्वास धर्म नहीं है; धर्म है विवेक, धर्म है विचार। और चूंकि यह कहा जाता रहा है कि विश्वास धर्म है, इसी वजह से धर्म पीछे पड़ गया, विज्ञान के मुकाबले हारता चला गया। क्योंकि विज्ञान है विचार, विज्ञान विश्वास नहीं है। इसलिए विज्ञान तो रोज-रोज गति करता गया और धर्म सिकुड़ता गया, सिकुड़ता गया और सिकुड़ कर वह छोटे-छोटे डबरों में परिणत हो गया--हिंदू का डबरा, मुसलमान का डबरा, ईसाई का डबरा, जैनी का डबरा। वह सागर नहीं रह गया, वह छोटे-छोटे डबरे बन गए। और डबरे, आप जानते हैं, बहुत जल्दी सड़ जाते हैं। क्योंकि वे विराट नहीं होते, छोटे-छोटे होते हैं। तो हिंदू-मुसलमान के डबरे सब सड़ गए, उन सबसे सड़ांध उठ रही है, झगड़े खड़े हो रहे हैं, हिंसा और हत्या हो रही है।
सागर चाहिए धर्म का, डबरे नहीं चाहिए। धर्म चाहिए, हिंदू और मुसलमान और ईसाई नहीं चाहिए। एक ऐसी दुनिया चाहिए जहां धर्म तो हो, लेकिन हिंदू और मुसलमान न रह जाएं। क्योंकि हिंदू-मुसलमान की वजह से धर्म के आने में बाधा पड़ रही है। और हिंदू-मुसलमान तब तक रहेंगे, जब तक विश्वास है। जिस दिन विश्वास की जगह विचार होगा, विवेक होगा, उस दिन दुनिया में बहुत धर्मों की कोई गुंजाइश नहीं रह जा सकती है। क्यों? नहीं रह सकती है इसलिए कि कहीं हिंदू की केमिस्ट्री अलग होती है, मुसलमान की केमिस्ट्री अलग? हिंदू की एलोपैथी अलग, जैन की एलोपैथी अलग? मुसलमान का गणित अलग, ईसाई का गणित अलग, ऐसा होता है? हो सकता है? कि हम कहें कि हम तो मुसलमान हैं, हमारा गणित अलग होगा, हम हिंदुओं जैसा गणित नहीं बना सकते। हिंदू अपना गणित अलग बनाएं, दो और दो पांच करें, हम तो दो और दो चार करेंगे या दो और दो तीन करेंगे। हम हिंदू, तुम मुसलमान, हमारा-तुम्हारा गणित एक जैसा कैसे हो सकता है? नहीं, लेकिन गणित एक है सारी दुनिया का।
लेकिन मैं आपको यह बता दूं, आज से पांच सौ साल पहले गणित भी अलग-अलग थे। हिंदुस्तान में जैनियों का गणित अलग था, हिंदुओं का गणित अलग था। कैसे पागलपन की बातें हैं! गणित और अलग-अलग हो सकते हैं? लेकिन विचार ने खोज की, विवेक ने खोज की, हम युनिवर्सल, सार्वलौकिक नियमों पर पहुंच गए। गणित एक है दुनिया का, चाहे कोई कम्युनिस्ट मुल्क में रहता हो, चाहे कोई अमेरिका में रहता हो, चाहे कोई चीन में रहे, चाहे पाकिस्तान में, चाहे हिंदुस्तान में, गणित एक है। गणित विज्ञान बन गया, गणित विचार के द्वारा उपलब्ध हुआ, इसलिए एक हो सका।
धर्म अनेक क्यों हैं? जब जमीन के कानून एक हैं और जब पदार्थ के नियम एक हैं, तो आत्मा के नियम अनेक कैसे हो सकते हैं? जब सामान्य पदार्थ के नियम सार्वलौकिक हैं, युनिवर्सल हैं, तो परमात्मा के नियम भी अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? वे भी युनिवर्सल हैं। लेकिन हमारे विश्वास के कारण हम उन सार्वलौकिक नियमों को खोजने में असमर्थ हैं। हमारा विश्वास हमें रोकता है। वह कहता हैः यही सत्य है। तो फिर सत्य की खोज नहीं हो पाती। जब तक जमीन पर हिंदू-मुसलमानों में बंटे हुए होंगे लोग, तब तक धर्म नहीं उतर सकता। और ये ही सारे लोग चिल्लाते हैं कि धर्म नष्ट हो रहा है, और ये ही उसके हत्यारे हैं। ये ही सारे लोग चिल्लाते हैं कि दुनिया से धर्म समाप्त हो रहा है। धर्म समाप्त होगा, क्योंकि विश्वास पर खड़ा हुआ धर्म धर्म ही नहीं है।
लेकिन क्या विचार पर धर्म खड़ा हो सकता है?
मैं कहता हूंः हां, विचार पर धर्म खड़ा हो सकता है। और जिन लोगों ने भी धर्म को जाना है--महावीर ने, बुद्ध ने, क्राइस्ट ने, मोहम्मद ने, राम ने, कृष्ण ने--उन्होंने विश्वास के आधार पर नहीं जाना है; अपनी खोज, अपना विवेक, अपनी चेतना के जागरण से जाना है। दुनिया में आज तक जब भी धर्म जाना गया है, तब वह एक अत्यंत वैचारिक खोज की तरह जाना गया है, अंधे विश्वास की तरह नहीं।
इसलिए मैं कहता हूं कि चाहे कितने ही लोग मानते हों और चाहे कितने ही हजारों साल से मानते हों, इस बात को अथॉरिटी मत बना लेना कि हजार साल से कोई मानता है, इसलिए वह सच्ची बात होनी चाहिए। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह जरूरी रूप से झूठ है। मैं यह कह रहा हूं, आपका यह मानने का ढंग और तर्क गलत है। आप खोजें, निजी खोज करें, थोड़ा सोचें, विचार करें, और फिर जो आपको सच मालूम पड़े, वह आपके जीवन को बदल देगा। लेकिन जब तक हम खोज ही नहीं करते, सोचते ही नहीं, तब तक हम अंधों की भांति चलते हैं। और अंधों की भांति चलना मनुष्य के भीतर छिपे हुए परमात्मा का सबसे बड़ा अपमान है।
मनुष्य होने की पहली शर्त हैः स्वयं की चेतना और विवेक के प्रति दायित्व, स्वयं की स्वतंत्रता, सामर्थ्य और शक्ति के प्रति समर्पण, स्वयं के भीतर जो छिपा है उसकी अथक खोज, स्वयं में जो बीज-रूप से बैठा है उसे पूर्णता तक पहुंचाने का साहसपूर्ण प्रयत्न--मनुष्य होने में यह सब कुछ अंतर्गर्भित है। लेकिन जो लोग विश्वास से जीते हैं, वे मनुष्य नहीं, भेड़ों की भांति हो जाते हैं।
मैंने एक घटना सुनी है। एक छोटे से स्कूल में एक अध्यापक अपने बच्चों को गणित के पाठ पढ़ा रहा था। और उसने कहा... वह गांव गड़रियों का गांव था, जहां बहुत भेड़ें थीं। तो उसने गांव के उन बच्चों को समझाने के लिए कहाः एक छोटी सी बगिया में बारह भेड़ें बंद हैं। अगर उनमें से छह भेड़ें छलांग लगा कर बाहर निकल जाएं, तो भीतर कितनी बचेंगी?
एक बच्चे ने हाथ उठाया, वह बच्चा बहुत छोटा था। शिक्षक ने कहाः हां, बोलो, आज तुमने पहली बार ही हाथ उठाया।
उसने कभी हाथ नहीं उठाया था। वह बहुत छोटा था और नया-नया स्कूल में आया था। उसने कहाः और प्रश्नों के बाबत मैं जानता नहीं था, इसलिए चुप रहा, लेकिन इस बाबत जानता हूं। आपने क्या कहा?
उसने अपना प्रश्न दोहरायाः बारह भेड़ें बंद हैं, छह भेड़ें छलांग लगा कर बाहर निकल गईं, भीतर कितनी बचेंगी?
उस लड़के ने कहाः एक भी नहीं।
उस शिक्षक ने कहाः क्या कहते हो! तुम्हें इतना भी समझ में नहीं आता कि मैं कह रहा हूं बारह भेड़ें बंद हैं, छह बाहर निकल गईं।
उसने कहाः वह मैं नहीं समझता, गणित मुझे मालूम नहीं, लेकिन भेड़ों को मैं जानता हूं, मेरे घर में भेड़ें हैं। छह भेड़ें अगर निकल गईं, तो भीतर एक भी नहीं बचेगी। उसने कहाः गणित तो मैं नहीं जानता, लेकिन भेड़ों को मैं जानता हूं, मेरे घर में भेड़ें हैं।
भेड़ें निकल जाएंगी सभी। क्योंकि भेड़ होने में अंतर्गर्भित है अनुगमन, फॉलोइंग, दूसरे के पीछे जाना। और जो आदमी दूसरे के पीछे जाता है, वह अपने भीतर भेड़ की आत्मा को विकसित कर रहा है, आदमी की आत्मा को नहीं। जो फॉलो करता है, जो किसी का अनुयायी है, वह मनुष्य नहीं रहा। उसने अपनी खो दी गरिमा, खो दिया गौरव, खो दी आत्मा। अनुगमन नहीं, किसी के पीछे जाना नहीं, बल्कि खुद के भीतर जाना धर्म है। किसी के पीछे जाना धर्म नहीं है, खुद के भीतर जाना धर्म है। और खुद के भीतर जाने के लिए किसके पीछे जाइएगा? क्योंकि कोई आपके भीतर नहीं जा सकता, सिर्फ आप जा सकते हैं।
धर्म का संबंध अनुगमन, फॉलोइंग से नहीं है। लेकिन हम तो धर्मों के नाम से यही देखते हैं। ये जो इतने फॉलोअर्स सारी दुनिया में हैं--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, और नये-नये खड़े होते जाते हैं--ये फॉलोअर्स तो मनुष्य होने के स्वत्व को भी खो देते हैं। जो आदमी दूसरे के पीछे जाता है, उसने अपनी आत्महत्या कर ली।
नहीं जाना है किसी के पीछे। खोजना है उसे जो मेरे भीतर है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जो अपने भीतर है उसे खोज लेता है, वह उसे पा लेता है जिसकी बात राम करते हैं, कृष्ण करते हैं, महावीर करते हैं, वह उसे पा लेता है। वह उस परमात्मा पर पहुंच जाता है, जिसकी सारी चर्चा है। और जो दूसरे के पीछे चलता है, वह तो खुद पर ही नहीं पहुंच पाता, परमात्मा पर पहुंचना तो बहुत दूर है। वह दूसरे के पीछे भटकता है, भटकता है, भटकता है, खुद तक भी नहीं पहुंच पाता। और खुद तक पहुंचना, खुदा तक पहुंचने की पहली शर्त है। कौन पहुंचेगा स्वयं तक? वह जो अंधा होकर अनुगमन नहीं करता, आंख खोल कर जीता है।
इस आंख खोलने के नियम के बाबत हमने इधर तीन दिनों में बात की। कुछ और प्रश्न पूछे हैं, उनकी मैं चर्चा करूं।
तो इस प्रश्न के संबंध में आपसे कह दूंः सत्य मान्यता नहीं है। सत्य विश्वास नहीं है। सत्य अनुगमन नहीं है। सत्य है स्वयं की खोज। सत्य है विवेक और विचार। सत्य है अनुसंधान--मुक्त और स्वतंत्र। इसलिए इससे डरने की कोई जरूरत नहीं कि कितने लोग मानते हैं।
रूस में बीस करोड़ लोग हैं और उनमें से, करोड़ों में से करोड़ों लोग मानते हैं कि ईश्वर नहीं है। वहां एक बच्चा पैदा होता है, वह देखता है कि बीस करोड़ लोग मानते हैं कि ईश्वर नहीं है, वह भी मानने लगता है कि ईश्वर नहीं है। वह कहेगा कि बीस करोड़ लोग मानते हैं, तो क्या गलत मानते होंगे? बीस करोड़ लोग मानते हैं, तो क्या झूठ मानते होंगे? हमारे महापुरुष लेनिन, मार्क्स, स्टैलिन, ख्रुश्चेव मानते हैं कि ईश्वर नहीं है, तो क्या गलत मानते होंगे? इतने-इतने बड़े महापुरुष, इतना बड़ा देश, इतनी बड़ी ताकत, बीस करोड़ लोग, तो क्या झूठ मानते होंगे? तो वह बच्चा क्या कह रहा है? क्या वह बच्चा ठीक कह रहा है? अगर वह बच्चा ठीक नहीं कह रहा है, तो आप जो कह रहे हैं, वह कैसे ठीक है?
आप भी गलत कह रहे हैं, वह भी गलत कह रहा है। यह सवाल ही नहीं है कि क्या मानते हैं आप, सवाल यह है कि दूसरों को देख कर मानना गलत है। उसमें आप अपने को खो देते हैं। और मैं तो चूंकि स्वयं की खोज की बात कर रहा हूं, इसलिए खुद को खो देने की किसी भी शर्त को मानने को राजी नहीं हूं। इसलिए मैंने कहा कि यह मुक्त हो जाना जरूरी है।

इसी संबंध में पूछा है कि मैंने कहा कि ज्ञान से मुक्त हो जाना जरूरी है। यह तो बड़ी अजीब बात है!

निश्चित ही, ज्ञान से भी मुक्त हो जाना जरूरी है। किस ज्ञान से?
जो केवल शब्दों, विचारों, सिद्धांतों और किताबों से उपलब्ध होता है। उसमें कोई प्राण नहीं होते, वह एकदम निष्प्राण, थोथा, बासा, उधार, बारोड होता है। उसमें कोई प्राण नहीं होते, वह जीवन को कोई गति नहीं देता। वह वैसा ही होता है, जैसे एक आदमी तैरने के संबंध में किताबें पढ़ ले, बहुत किताबें पढ़ ले। दुनिया में जितनी किताबें लिखी हैं, पढ़ ले। दस-पांच भाषाएं सीख ले, तो दस-पांच भाषाओं में जितनी किताबें हैं, वह पढ़ ले। पचास साल जिंदगी के खतम कर दे, और तैरने के बाबत दुनिया का सबसे बड़ा विचारक हो जाए। और भाषण उससे करवाने हों, तो तैरने के बाबत घंटों भाषण कर सके। किताबें लिख सके, युनिवर्सिटीज में व्याख्यान दे सके, तर्क कर सके, विवाद कर सके। लेकिन उस आदमी को जरा सी नदी में पानी में धक्का दे दें, तो पता चल जाए कि वह पचास वर्ष में जो जाना था, किस अर्थ का है? किस कीमत का है? किस प्रयोजन का है? वह ज्ञान था। लेकिन तैरना ज्ञान से नहीं आता, तैरना तैरने से आता है। और तैरना और ही बात है।
एक फकीर था, मुल्ला नसरुद्दीन। वह एक नदी पर कुछ दिनों तक मांझी का काम करता था। छोटी सी नाव थी, उसमें लोगों को पार ले जाता था। उस गांव का एक बहुत बड़ा विद्वान, गणितज्ञ, बहुत पुरानी भाषाओं का जानने वाला पंडित, वह एक दिन उसकी नाव पर बैठा और नदी के पार गया। बीच में सहज ही उसने नसरुद्दीन को कहाः तुम गणितशास्त्र जानते हो? वह गणितशास्त्र का पंडित था।
नसरुद्दीन ने कहाः नहीं, महाराज!
उस पंडित ने कहाः तेरा चार आना जीवन व्यर्थ हो गया। फिर थोड़ी बात आगे चली, उसने कहाः तू धर्मशास्त्र जानता है?
उसने कहाः नहीं, महाराज!
उस पंडित ने कहाः तेरा और चार आना जीवन नष्ट हो गया; आठ आना बेकार हो गया। और थोड़ी बात चली, उसने कहाः तू दर्शनशास्त्र जानता है?
उस मल्लाह ने कहाः नहीं, महाराज!
वह पंडित हंसने लगा, उसने कहाः तू जीवन बेकार ही करने को उतारू है क्या? बारह आना जीवन नष्ट हो गया।
और तभी उठ आया जोर का तूफान, नाव डगमगाने लगी। तो मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछाः पंडितजी, तैरना आता है?
उन्होंने कहाः नहीं।
मुल्ला ने कहाः आपका सोलह आना जीवन नष्ट होता है। मैं चला, मुझे तैरना आता है। बारह आना नष्ट हुआ, कोई फिकर नहीं, चार आना बचा रहेगा। लेकिन आपका सोलह आना नष्ट होता है, हुआ नहीं। मैं जा रहा हूं।
जिंदगी में भी किताबें तैरना नहीं सिखाती हैं और न परमात्मा में तैरना सिखाती हैं। परमात्मा की नदी में भी केवल वे ही लोग पार होते हैं, जो परमात्मा को जीने की कोशिश करते हैं, जानने की नहीं। जीने से जानना निकल आता है, लेकिन जानने से जीना नहीं निकलता। जो आदमी जी लेता है, वह जान लेता है; लेकिन जो जानने में लगा रहता है, वह जी तो पाता ही नहीं, जान भी नहीं पाता है। शब्द इकट्ठे कर लेता है--उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल, सब उसे कंठस्थ हो जाते हैं। लेकिन शब्द तैराते नहीं, शब्द नाव नहीं बन सकते, शब्द प्राण नहीं बन सकते। शब्द बोझ बन जाते हैं उलटे, हलका नहीं करते आदमी को, और भारी कर देते हैं। जितना सिर पर किताबों का बोझ होता है, आदमी उतना और छोटा हो जाता है, बड़ा नहीं। बोझ दबा देता है।
इसलिए मैंने कहा कि शब्दों से आने वाला ज्ञान साथी नहीं है, संगी नहीं है, उस ज्ञान को छोड़ देना जरूरी है। और जो उस ज्ञान को छोड़ कर जीवन-सत्य के प्रति शांत होकर जीवन-सत्य को जीने की दिशा में गतिमान होता है, वह जान पाता है एक दिन उस सबको--उस सबको, जो शब्दों में कहा गया, लेकिन कहा नहीं जा सका है; उस सबको, जो शास्त्रों में बांधा गया, लेकिन बंध नहीं पाया; उस सब सौंदर्य को, उस सब प्रेम को, उस सब आनंद को, उस परमात्मा को, जो सब तरफ मौजूद है, वह जान पाता है जो धर्म में तैरना सीखता है।
उस तैरने की कला पर ही हम इधर तीन दिन तक बात करते थे कि वह कैसे तैरना सीख जाएं। लेकिन उस सीखने के लिए जरूरी है कि ये सारी बातें जो हमारे चित्त को बांधती हैं, छोड़ दी जाएं। ज्ञान बांधता है। ज्ञान से मेरा अर्थ? वह ज्ञान, जो हम दूसरों से सीख लेते हैं।
बंगाल में एक फकीर हुआ। छोटा उसका एक आश्रम था। उस आश्रम में नये-नये लोग आते, ठहरते, ज्ञान लेते। एक नया संन्यासी भी आया, पंद्रह दिन तक वहां रुका, उसने उस वृद्ध संन्यासी की बातें सुनीं। लेकिन उसे लगा कि उस वृद्ध संन्यासी के पास बहुत बातें नहीं हैं, थोड़ी सी ही बातें हैं। रोज-रोज उन्हीं को दोहरा देता है। पंद्रह दिन में ऊब जाना युवक का स्वाभाविक था। वह ऊब उठा और उसने सोचाः छोड़ दूं इस आश्रम को, कहीं और खोजूं। यह जगह मेरे लिए नहीं, यह गुरु मेरे लिए नहीं, यह तो बंधी हुई कुछ थोड़ी सी बातें दोहराता है और बात समाप्त। इनको कब तक सुनूंगा? और क्या सीखूंगा? लेकिन जिस संध्या वह छोड़ने को था, उसी संध्या कोई बात घट गई और फिर उस युवक ने वह आश्रम कभी नहीं छोड़ा। क्या घट गई उस रात बात?
एक और संन्यासी आ गया कहीं से। और रात उस आश्रम के अंतेवासी इकट्ठे हुए। वह जो नया संन्यासी आया था, उसने दो घंटे तक तत्व की बड़ी गहरी बातें कीं। बड़े सूक्ष्म, बड़े बारीक सिद्धांत समझाए। जो युवक संन्यासी छोड़ना चाहता था, वह भी बैठ कर सुनता था। उसके मन में हुआः ओह! गुरु हो तो ऐसा! कितनी गहरी इसकी बातें! कितने सूक्ष्म इसके विचार! कितनी पैनी इसकी दृष्टि! कैसा कुशल इसका तर्क! धन्य हुआ, ऐसा गुरु हो, इसी के साथ चला जाऊं कल सुबह। ठीक मिल गया वह आदमी जिसकी तलाश थी। एक यह बूढ़ा है, जो कुछ पिटी-पिटाई बातें रोज दोहरा देता है, जिनमें न कोई बहुत सार है, न अर्थ। सोचा उस युवक ने कि आज इस वृद्ध संन्यासी के मन में कितनी ग्लानि न अनुभव होती होगी, अपमान! कितना इसकी प्रतिभा हीन हो गई होगी मन ही मन में! कितनी हीनता लगती होगी! इस संन्यासी की बातें सुन कर कैसा मन ही मन में पछताता और दुखी होता होगा!
बात पूरी हुई, वह नया संन्यासी रुका, रुक कर उसने सबकी तरफ देखा कि क्या प्रभाव पड़ा है! उसने उस बूढ़े संन्यासी से पूछाः महानुभाव! मैंने जो बातें कहीं, क्या सोचते हैं उस संबंध में?
वह बूढ़ा इतनी देर तक आंख बंद किए बैठा सुनता था, उसने आंख खोलीं और उसने कहाः मेरे मित्र, पहली बात तो यही कहनी है कि मैं दो घंटे से सुनता हूं, तुम तो कुछ बोलते ही नहीं।
वह बोलाः मैं नहीं बोलता था, तो इतनी देर से कौन बोलता था?
उस वृद्ध ने कहाः शास्त्र बोलते थे, किताबें बोलती थीं, तुम नहीं बोलते थे। तुम्हारा बोला हुआ एक भी शब्द नहीं है। तो तुम कहते हो कि मैंने जो कहा उसका क्या परिणाम हुआ? तो पहले तो मैं यही निवेदन कर दूं कि तुमने कुछ कहा ही नहीं, परिणाम का सवाल कहां है!
वह जो संन्यासी छोड़ कर जाना चाहता था, रुक गया, फिर कभी उस आश्रम को नहीं छोड़ा उसने। यह बूढ़ा क्या बोला? यह बोला कि तुम्हारे भीतर से किताबें बोलती हैं, तुम नहीं बोलते।
ऐसा ज्ञान, जो कहीं और से आकर हमारे भीतर बोलने लगता है, किसी भी अर्थ का नहीं है, उसे छोड़ देना जरूरी है। और तब जागेगा वह, जो हमारे भीतर छिपा है।
दो तरह के ज्ञान हैं। एक तो ज्ञान होता है कुएं की भांति, और एक ज्ञान होता है हौज की भांति। हौज में हम क्या करते हैं? मिट्टी लाते, ईंट लाते, पत्थर इकट्ठे करते, दीवाल बनाते, हौज का घेरा बनाते हैं, फिर कहीं से पानी लाकर हौज में भर देते हैं। हौज में अपना कोई पानी नहीं होता, हौज में सिर्फ अपनी ईंट-पत्थर की दीवाल होती है। हौज में कोई पानी नहीं होता, हौज केवल दीवाल होती है ईंट-पत्थर की, घेरा होता है। लेकिन कुएं में? कुएं में काम उलटा करना पड़ता है। कुएं में सबसे पहले ईंट-पत्थर, मिट्टी, जो कुछ हो, उसे निकाल कर अलग करना पड़ता है। लाना नहीं पड़ता, अलग करना पड़ता है। हौज में लाना पड़ता है, कुएं में अलग करना पड़ता है। और जब सारी मिट्टी, पत्थर, ईंट अलग हो जाते हैं, तो नीचे से वह निकल आता है, जो जल का स्रोत है। कुएं में जल है, ईंट-पत्थर ऊपर पड़े हैं, उन्हें अलग कर देना होता है। हौज में जल नहीं है, जल लाना पड़ता है, रोकने के लिए ईंट-पत्थर की दीवाल बनानी पड़ती है।
ज्ञान भी ठीक ऐसे ही दो तरह का होता है। एक हौज वाला ज्ञान होता है, जिससे पंडित पैदा होते हैं। पंडित ईंट-पत्थर इकट्ठा करके दीवाल बना लेता है अपने दिमाग में--हिंदू होने की दीवाल, मुसलमान होने की दीवाल, वेदांती होने की दीवाल, फलांवादी होने की दीवाल--सब तैयार कर लेता है दीवाल। फिर जगह-जगह से पानी ले आता है और अपनी हौज में भर लेता है। फिर जिसकी हौज जितनी बड़ी, वह उतना बड़ा पंडित हो जाता है। हालांकि सच्चाई यह है कि हौज जितनी बड़ी हो, उतनी जल्दी सड़ जाती है और उसका पानी बदबू फेंकने लगता है। इसलिए पंडितों के मस्तिष्क से जितनी दुर्गंध जीवन में फैलती है, और कहीं से फैलती नहीं। लेकिन कुएं की बात और है। जो आदमी अपने मस्तिष्क से सारी ईंट-पत्थर को बाहर निकाल कर फेंक देता, जो अपने मस्तिष्क की सारी दीवालें गिरा देता, जिसके मस्तिष्क पर कोई सीमा नहीं रह जाती, मिट्टी-पत्थर की सारी पर्त अलग हो जातीं, उसके भीतर से आ जाता है वह स्रोत जीवन का, जल का, ज्ञान का। यह है ज्ञानी, जो कुएं की भांति अपने भीतर से ज्ञान को ले आता। वह है पंडित, जो हौज की भांति सब तरफ से ज्ञान को इकट्ठा कर लेता।
धर्म का पंडित से कोई संबंध नहीं है, यद्यपि पंडित सब तरफ से धर्म से संबंधित होने की घोषणा करते रहे हैं। धर्म से पंडित का कोई भी संबंध नहीं है। ज्ञानी का संबंध हो सकता है। पांडित्य एक कुशलता है, ज्ञान एक क्रांति है।
तो जिस ज्ञान को छोड़ने के लिए मैंने कहा, वह हौज वाला ज्ञान है। और इसलिए छोड़ने को कहा, ताकि कुएं वाला ज्ञान उपलब्ध हो सके। जो कुआं बनना चाहते हैं, उन्हें हौज अपनी मिटा ही देनी होगी। और जो कुआं बनने से रुकना चाहते हैं, उनकी मर्जी, वे अपनी हौज को और मजबूत बना सकते हैं, और ग्रंथ लाकर अपनी दीवाल खड़ी कर सकते हैं, और शब्द-सूत्र इकट्ठे करके इतना मजबूत किला बना सकते हैं कि उसके भीतर सूरज की कोई किरण कभी प्रवेश न कर सके।
यह चित्त की दशा है। इस चित्त की बंधी हुए दशा को, मैंने कहा, ज्ञान कोई छोड़े तो उसके जीवन में क्रांति आनी शुरू होती है।

एक मित्र ने और एक प्रश्न पूछा है। उन्होंने पूछा है, जैसा मैंने सुबह कहा, मैंने सुबह कहा कि अहंकार छूट जाना चाहिए। तो उन्होंने पूछा हैः यह अहंकार कैसे पैदा हो जाता है?

यद्यपि मैंने सुबह इस संबंध में कुछ बातें कही हैं, शायद वे ठीक से सुन न पाए हों, समझ न पाए हों, तो दो बातें उनसे कह देता हूं। एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे उनको बात समझ में आ जाए।
एक बहुत बड़े राजमहल के निकट पत्थरों का एक ढेर लगा हुआ था। कुछ बच्चे वहां खेलते हुए निकले। एक बच्चे ने पत्थर उठा लिया और महल की खिड़की की तरफ फेंका। वह पत्थर ऊपर उठने लगा। पत्थरों की जिंदगी में यह नया अनुभव था। पत्थर नीचे की तरफ जाते हैं, ऊपर की तरफ नहीं। ढलान पर लुढ़कते हैं, चढ़ाई पर चढ़ते नहीं। तो यह अभूतपूर्व घटना थी, पत्थर का ऊपर उठना, नया अनुभव था। पत्थर फूल कर दुगुना हो गया। जैसे कोई आदमी उदयपुर से फेंक दिया जाए और दिल्ली की तरफ उड़ने लगे, तो फूल कर दुगुना हो जाए। वैसा वह पत्थर जमीन पर पड़ा हुआ, जब उठने लगा राजमहल की तरफ, तो फूल कर दुगुना हो गया। आखिर पत्थर ही ठहरा, अकल कितनी, समझ कितनी, फूल कर दुगुना वजनी हो गया--ऊपर उठने लगा!
नीचे पड़े हुए पत्थर आंखें फाड़ कर देखने लगे। अदभुत घटना घट गई थी! उनके अनुभव में ऐसी कोई घटना न थी कि कोई पत्थर ऊपर उठा हो। वे सब जयजयकार करने लगे, धन्य-धन्य करने लगे। हद्द हो गई, उनके कुल में, उनके वंश में ऐसा अदभुत पत्थर पैदा हो गया, जो ऊपर उठ रहा है!
और जब नीचे होने लगा जयजयकार और तालियां बजने लगीं, और हो सकता है पत्थरों में कोई अखबारनवीस हों, जर्नलिस्ट हों, उन्होंने खबर छापी हो; कोई फोटोग्राफर हों, उन्होंने फोटो निकाली हो; कोई चुनाव लड़ने वाला पत्थर हो, उसने कहा हो, यह मेरा छोटा भाई है, जो ऊपर जा रहा है। कुछ हुआ होगा नीचे, वह ज्यादा तो मुझे पता नहीं विस्तार में, लेकिन नीचे के पत्थर बहुत हैरान होकर देखने लगे, जयजयकार चिल्लाने लगे। नीचे की जयजयकार उस ऊपर के पत्थर को भी सुनाई पड़ी। जयजयकार किसको सुनाई नहीं पड़ जाती है? बड़ा मजा है, जो जयजयकार कभी नहीं होती, वह भी सुनाई पड़ जाती है; तो जो होती है, वह तो सुनाई पड़ ही जाएगी। वह उसे सुनाई पड़ गई, वह और फूलने लगा। उसने चिल्ला कर कहा कि मित्रो! घबड़ाओ मत, मैं थोड़ी आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। उसने कहाः मैं जा रहा हूं आकाश की यात्रा को, ताकि जान सकूं कि क्या है रहस्य इस आकाश का? और लौट कर तुम्हें बता सकूं।
गया, महल की कांच की खिड़की से टकराया। तो पत्थर टकराएगा कांच की खिड़की से तो स्वाभाविक कि कांच चूर-चूर हो जाए। इसमें पत्थर की कोई बहादुरी नहीं है। इसमें केवल कांच का कांच होना और पत्थर का पत्थर होना है। इसमें कोई कांच की कमजोरी नहीं है और पत्थर की बहादुरी नहीं है। कांच का कांच होना, पत्थर का पत्थर होना है। पत्थर टकराया, कांच टूट कर चकनाचूर हो गया। लेकिन पत्थर खिलखिलाया और हंसा, जैसे कि नेता अक्सर खिलखिलाते और हंसते हैं। और उस पत्थर ने कहाः कितनी बार मैंने नहीं कहा कि मेरे रास्ते में कोई न आए, नहीं तो चकनाचूर हो जाएगा। वह वही भाषा बोला जो राजनीति की भाषा है--जो मेरे रास्ते में आएगा, चकनाचूर हो जाएगा। देखा अब अपना भाग्य, चकनाचूर होकर पड़े हो!
और वह पत्थर गिरा महल के कालीन पर, बहुमूल्य कालीन बिछा था। थक गया था पत्थर, लंबी उसने यात्रा की थी। सड़क की गली से महल तक की यात्रा कोई छोटी यात्रा है! बड़ी थी यात्रा, जीवन-जीवन लग जाते हैं--गली से उठते, महल तक पहुंचते। थक गया था, पसीना माथे पर आ गया होगा, गिर पड़ा। कालीन पर गिर कर उसने ठंडी सांस ली और कहाः धन्य, धन्य हैं ये लोग! क्या मेरे पहुंचने की खबर पहले ही पहुंच गई कि उन्होंने कालीन बिछा रखा है? और कितने अतिथि-प्रेमी और कैसे स्वागत-सत्कार के प्रेमी, महल बना कर रखा मेरे लिए? क्या पता था कि मैं आ रहा हूं? ठीक जगह खिड़की बनाई, जहां से मैं आने को था! ठीक-ठीक सब किया, कोई भेद न पड़ा, एक इंच मैं चूका नहीं। जो मेरा मार्ग था आने का, वहां खिड़की बनाई। जो मेरा मार्ग था विश्राम का, वहां कालीन बिछाए। बड़े अच्छे लोग हैं।
और यह वह सोचता ही था कि राजमहल के नौकर को सुनाई पड़ी होगी आवाज टूट जाने की कांच की, वह भागा हुआ आया, उसने उठाया पत्थर को हाथ में। पत्थर तो, पत्थर तो, हृदय गदगद हो उठा। उसने कहाः आ गया मालूम होता है मकान का मालिक, स्वागत में हाथ में उठाता है, प्रेम दिखलाता है। कितने भले लोग!
और फिर उस नौकर ने पत्थर को वापस फेंका। तो उस पत्थर ने मन में कहाः वापस लौट चलें, घर की बहुत याद आती है, होम सिकनेस मालूम होती है।
वह वापस गिरने लगा अपनी ढेरी पर, तो नीचे तो आंखें फाड़े हुए लोग बैठे थे। उनका मित्र, उनका साथी गया था आकाश की यात्रा को, चंद्रलोक गया था, वह लौट कर आया था। वह गिरा नीचे, फूलमालाएं पहनाई गईं, कई दिन तक जलसे चले, कई जगह उदघाटन हुआ और न मालूम क्या-क्या हुआ। और उन पत्थरों ने पूछा कि क्या-क्या किया? उसने अपनी लंबी कथा कहीः मैंने यह किया, मैंने यह किया, मेरा ऐसा स्वागत हुआ, ऐसी-ऐसी जगह मेरा सत्कार हुआ, इतने-इतने शत्रु मरे। कई चीजों का गुणनफल किया उसने। एक कांच मारा था, कई कांच बताए। एक महल में ठहरा था, कई महलों में ठहरा हुआ बतलाया। एक हाथ में गया था, अनेक हाथों में पहुंचने की खबर दी। जो बिल्कुल स्वाभाविक है, आदमी का मन। आदमी का मन जैसा करता तो पत्थर का मन तो और भी ज्यादा करेगा। और तब उसके पत्थरों ने कहाः मित्र, तुम अपनी आत्मकथा जरूर लिख दो, हमारे बच्चों के काम आएगी। ऑटोबायोग्राफी लिखो, क्योंकि सभी महापुरुष लिखते हैं, तुम भी लिखो।
वह लिख रहा है। जल्दी ही लिख लेगा तो आपको पता चलेगी, खबर हो जाएगी। क्योंकि उसके पहले भी और पत्थरों ने लिखी हैं और उनको आप अच्छी तरह पढ़ते रहे हैं। वह भी लिखेगा, उसकी भी पढ़ेंगे।
इस पत्थर पर आपको हंसी क्यों आती है? इस बेचारे में कौन सी खराबी है? यह आदमी से कौन सा भिन्न है? और इस पत्थर पर आप हंसते हैं, तो कभी अपने पर हंसे हैं? इस पत्थर की इस बात को सुन कर आप हंसते हैं कि मैं जा रहा हूं यात्रा को, लेकिन हम खुद क्या हैं? क्या हम भी किन्हीं अनजान हाथों के द्वारा फेंके गए पत्थर नहीं? हमें पता है, हम क्यों जन्म लेते हैं? हमें पता है, हम कैसे पैदा हो जाते हैं? हमें पता है, कौन हमें फेंक देता, कौन अनजान ताकत, कौन अनजान हाथ, कौन अपरिचित फेंक देता है जीवन में?
लेकिन हम कहते हैंः मेरा जन्म! मेरा जन्म-दिन है! आपसे पूछा था किसी ने कि आप किस जन्म-दिन पैदा होना चाहते हैं? आपसे कोई तारीख, तिथि, कोई पूछी थी कि आप कब पैदा होना चाहते हैं, जो आप कहते हैं, मेरा जन्म-दिन? आपका कोई निर्णय है इसमें? आपकी कोई च्वाइस? आपसे किसी ने पूछा था, आप पैदा भी होना चाहते हैं कि नहीं होना चाहते? न आपसे किसी ने पूछा कि आप पैदा होना चाहते हैं, न पूछा दिन, न कोई तारीख। लेकिन कहते हैंः मेरा जन्म-दिन!
यह ‘मेरा’ बड़ा अजीब है। कहते हैंः मेरी जवानी! आप ले आए इस जवानी को? यह आपके हाथ का कोई काम है? यह आपका प्रयत्न है कोई कि आप जवान हो गए? क्या आप चाहते कि जवान न हों, तो आप रुक जाते जवान होने से? नहीं, लेकिन कहते हैंः मेरी जवानी! यह ‘मैं’ कहां आ गया इस जवानी में?
कहते हैंः मेरी जिंदगी! क्या है जिंदगी आपकी? कौन सी चीज आपकी है इस जिंदगी में? कहते हैंः मेरा शरीर! क्या है आपका इसमें? इस शरीर में मेरे जो-जो कण हैं, न मालूम कितने शरीरों में रह चुके हैं। मुझसे पहले न मालूम इन कणों ने न मालूम कितने शरीरों में की हैं यात्राएं--पशुओं में, पक्षियों में, पौधों में। रोज अन्न खा रहे हैं, वह आपके शरीर में जाकर आपका हिस्सा बन रहा है, लेकिन कल तक किसी पौधे का हिस्सा था, किसी पौधे का शरीर था। जो श्वास मैं ले रहा हूं, कहता हूंः मेरी श्वास! यहां हम इतने लोग बैठे हैं, जो आप श्वास अभी ले रहे हैं, वह आपके पड़ोसी बहुत थोड़ी देर पहले ले चुके हैं, वह अब आपको मिल गई, थोड़ी देर बाद दूसरे को मिल जाएगी। आपका क्या है? आप कहां आते हैं? कहते हैंः मैं लेता हूं श्वास। लेकिन आपको पता है, अगर श्वास न आएगी तो आप ले सकेंगे? आप मालिक हैं श्वास के?
नहीं; जिंदगी फेंके हुए पत्थर की कथा है। लेकिन हम हर काम से अपने मैं को जोड़ लेते हैं, जो बिल्कुल झूठा है, जिसकी कोई जगह नहीं, जो बिल्कुल सब्स्टेंशियल नहीं है, जिसका कोई पदार्थगत कुछ भी सत्ता नहीं है, जो है बिल्कुल शैडो, है छाया की भांति झूठा।
उस पत्थर की कथा पर हंस गए थे, अपनी जिंदगी को थोड़ा उसकी जगह रख कर सोच लेना, तो पता चल जाएगा कि अहंकार कैसे पैदा हो गया है।
तो मैं इसमें क्या कहूं कि कैसे पैदा हो गया है? थोड़ा खोज लेना, तो पता चल जाएगा कि नासमझी है, भूल है, ख्याल है, छाया है, सत्य कुछ भी नहीं है उस अहंकार में। और यह दिख जाए, तो अहंकार छोड़ना नहीं पड़ता। यह दिख जाए, तो अहंकार गया। अगर उस पत्थर को यह दिख जाए कि वह कैसी नासमझी की बातें कह रहा है, तो बात खतम हो गई। फिर और कौन सी कथा रह गई?
तो जिस आदमी को अपने जीवन पर थोड़ी भी दृष्टि है, और जो अपने जीवन की कथा को थोड़ा आंकता है, देखता है, खोजता है, वह अनुभव कर लेता है कि अहंकार से ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं है। और जो यह जान लेता है कि अहंकार असत्य है, इसके साथ ही, इसके साथ ही, तत्क्षण, वह यह भी जान लेता है कि परमात्मा सत्य है। परमात्मा का सत्य होना अहंकार के असत्य होने के सिक्के का दूसरा पहलू है। जिसने यह जान लिया कि अहंकार असत्य है, उसने यह भी जान लिया कि परमात्मा सत्य है। और जो यह समझता है कि अहंकार सत्य है, वह अनिवार्य रूप से यह भी जानता है कि परमात्मा असत्य है।
तो जब तक अहंकार है भीतर, तब तक करो पूजा, करो प्रार्थना, पढ़ो मंत्र-तंत्र और जो भी उलटा-सीधा करना हो करो, कोई फर्क नहीं पड़ेगा, परमात्मा से कोई संबंध नहीं हो सकता। वह अहंकार बाधा है। वह अहंकार पूजा को भी पी जाएगा, अपना भोजन बना लेगा कि मैं पूजा करने वाला हूं! वह प्रार्थना को भी पी जाएगा और अपना भोजन बना लेगा और कहेगाः मैं प्रार्थना करने वाला हूं! तुम प्रार्थना करने वाले हो? मैं हूं असली प्रार्थना करने वाला इस गांव में! वह अहंकार सब पी जाएगा और हर चीज को अपने आस-पास जोड़ लेगा और कहेगा, मैं इससे मजबूत हो रहा हूं।
इसलिए धर्म की सबसे बुनियादी और आधारभूत क्रांति अहंकार के विसर्जन से प्रारंभ होती है और परमात्मा की उपलब्धि पर समाप्त होती है। इस अहंकार के विसर्जन के लिए बहुत कुछ मैंने आपसे सुबह बातें की हैं। लेकिन यह कैसे पैदा होता है, यह आप अपनी जिंदगी को खोजना, तो आपको दिख जाएगा। और मेरे कहने से तो दिखने का कोई संबंध नहीं है। इसलिए मैंने एक कहानी कह दी, और इस संबंध में कुछ भी नहीं कहूंगा। मेरे कहने से कुछ भी नहीं होगा, आप देखेंगे तो दिख सकता है। जो असत्य है, उसकी असत्यता को देख लेना कोई कठिनाई नहीं है। हम देखना ही न चाहें, तो बात दूसरी है। और हम देखना नहीं चाहते हैं। और देखना हम इसलिए नहीं चाहते हैं कि गहरे मन में हम अच्छी तरह जानते हैं कि देखा कि यह गया। इसलिए देखो ही मत, आंखें मूंदे रहो और चलते जाओ। इसलिए पूछो सबसे...
ऐसा एक दफा हुआ। रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा। गीत लिखा कि हे परमात्मा! मैं तुझे खोज रहा हूं। बहुत-बहुत वर्षों, जन्मों से मेरी खोज चलती तेरे लिए। अनेक बार थोड़ी-बहुत तेरी झलक मिली और फिर तू खो गया। लेकिन एक बार मैंने तय कर लिया कि तुझे अब खोऊंगा नहीं, और मैं तेरा पीछा ही करने लगा। आखिर एक सुबह मैं तेरे दरवाजे पर पहुंच गया, मैं तेरी सीढ़ियां चढ़ गया, मैंने तेरे द्वार की कुंडी अपने हाथ में ले ली और मैं बजाने को ही था कि मुझे ख्याल आया कि कुंडी बज जाएगी और तू निकल आएगा, तो फिर मैं क्या करूंगा? तू मिल जाएगा, फिर मैं क्या करूंगा? मैं बहुत डर गया--फिर मैं क्या करूंगा? अब तक तो तुझे खोजता था, यह काम था। अब तक तो तुझे खोजता था, यह व्यस्तता थी। अब तक तो तुझे खोजता था, रोता था, प्रार्थना करता था, गीत लिखता था, इसमें उलझा था। लेकिन तू मिल जाएगा, तो फिर क्या करूंगा? फिर अनंत-अनंत काल तक करूंगा क्या? तो मैं डर गया, मैंने कुंडी वापस छोड़ दी और मैं धीरे-धीरे जूते खोल कर सीढ़ियों से नीचे उतर आया कि कहीं तू आवाज सुन कर निकल ही न आए। और तब से मैं तुझे फिर खोज रहा हूं, हालांकि मुझे अच्छी तरह पता है कि तेरा घर कहां है, लेकिन मैं खोजता हूं। और बड़ा मजा है, खोजता भी मैं हूं और जानता भी मैं हूं कि तू कहां मिल जाएगा। लेकिन उस जगह से बच कर निकल जाता हूं, क्योंकि डर है--अगर तू मिल गया तो फिर क्या होगा?
जिंदगी बड़ी अदभुत है! मैं आपसे यह निवेदन करता हूंः जिन चीजों को आप खोजना चाहते हैं, उन्हीं चीजों से किसी गहरे तल पर आप बचना भी चाहते हैं। अगर बचना न चाहें, तो खोज तो आज और यहीं पूरी हो सकती है। लेकिन आप बचना भी चाहते हैं, खोजना भी चाहते हैं, इससे सारी कठिनाई खड़ी हो जाती है।
अहंकार, पूछते जरूर हैं आप, यह क्या है और इसको मैं कैसे समाप्त कर दूं? लेकिन हो सकता है, यह आपका अहंकार ही पूछ रहा हो--कि बड़ा मजा आ जाए अगर मैं ऐसा आदमी बन जाऊं जिसका कोई अहंकार नहीं है। यह अहंकार ही हो सकता है पूछ रहा हो--कि बहुत मजा आ जाए अगर मैं ऐसा आदमी बन जाऊं जिसका कोई अहंकार नहीं है। तो तरकीब पता लगा लें कि अहंकार खोने की तरकीब क्या है? यह हो सकता है अहंकार ही पूछ रहा हो। और तब बड़ी मुश्किल हो जाएगी। तब अहंकार से छूटने का कोई रास्ता न रह जाएगा। हमारा मन बड़े अजीब और अनूठे रास्तों पर काम करता है। लेकिन अगर मन सीधा और साफ काम करे, जो कि वह कर सकता है, तो जिंदगी बड़ी सरल है और सत्य बहुत निकट है।

एक छोटी सी बात, जो पूछी है, और फिर मैं अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि आप बार-बार कहते हैं कि परमात्मा को पाना सरल है, तो फिर सारे लोग पा क्यों नहीं लेते? कितने थोड़े से लोगों को तो शायद परमात्मा मिलता हो! और उसका भी कोई पक्का तो नहीं है कि उनको मिलता है कि नहीं मिलता! क्योंकि कौन तय करे? तो उन्होंने पूछा है कि आप कहते हैं बार-बार कि सरल है, सरल है, फिर मिलता क्यों नहीं है?

जरूर जब मिलता नहीं है, तो ख्याल आता है, कठिन होना चाहिए। लेकिन न मिलने के पीछे हमेशा कठिनाई ही नहीं होती है। बल्कि बड़ा मजा है, अगर परमात्मा का पाना कठिन होता, तो बहुत से लोग कभी का परमात्मा को पा लेते। क्योंकि जो चीज कठिन होती है, उसको पाने में अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है।
हिमालय पर एवरेस्ट की चोटी है, और छोटी-छोटी हजारों चोटियां हैं। एवरेस्ट पर हजारों लोग चढ़ने जाते हैं, छोटी-छोटी चोटियों की कोई फिक्र नहीं करता, उनको चढ़ना बहुत सरल है, उनको कोई देखता ही नहीं। लेकिन दुनिया भर से पहाड़ों पर चढ़ने वाले पर्वतारोही गौरीशंकर पर, एवरेस्ट पर चढ़ना चाहते हैं। पचास सालों में न मालूम कितने लोग मर गए उसको चढ़ने में। मैं बहुत हैरान हुआ! मैं सोचने लगा, छोटी-छोटी पहाड़ियां हैं, इन पर क्यों नहीं चढ़ते? इन पर चढ़ना तो बड़ा सरल है। इस पर क्यों चढ़ते हैं, जिस पर चढ़ना कठिन है? और तब मुझे दिखाई पड़ा कि कठिन पर चढ़ने में अहंकार को रस आता है--इतनी कठिन चीज और मैंने जीत ली!
तो जो कठिन है, आदमी का अहंकार उस तरफ जाता है; और जो सरल है, उस तरफ नहीं। दुनिया को जीतना बहुत कठिन है, इसलिए हर आदमी दुनिया को जीतना चाहता है। परमात्मा को जीतना बहुत सरल है, अहंकार के लिए कोई चैलेंज वहां नहीं है, कोई चुनौती वहां नहीं है, इसलिए कोई आदमी उस तरफ आंख नहीं उठाता।
कुछ लोग कभी-कभी आंख उठाते भी हैं, तो वे तभी उठाते हैं जब कोई परमात्मा की कठिनाई बताने वाला मिल जाए और वह कहे कि जन्म-जन्म कोशिश करनी पड़ेगी, शीर्षासन करना पड़ेगा, भूखे मरना पड़ेगा, घर छोड़ना पड़ेगा, कोड़े मारना पड़ेंगे अपने को, आंखें फोड़ना पड़ेंगी, कांटे छिदाने पड़ेंगे, धूप में पड़े रहना पड़ेगा, तब कहीं जन्म-जन्म की कोशिश से मिलेगा परमात्मा। तो फिर कुछ लोगों को बात जंच जाती है, कि तो फिर खोजना चाहिए। क्योंकि अहंकार को रस आना शुरू हो जाता है। अगर बात कठिन है, तो चलो देख लें एक मौका, इसको भी जीत कर देख लें। इसीलिए दुनिया में धर्म के नाम पर कठिन से कठिन तरकीबों की ईजाद हुई, यह मनुष्य के मन का शोषण है, अहंकार का शोषण है, और कुछ भी नहीं।
मैं तो कहता हूंः परमात्मा को पाना बहुत सरल है। अगर अहंकार न हो, तो आप इसी वक्त पा सकते हैं। लेकिन अहंकार को सरल बात जंचती ही नहीं, उसको जंचती है कठिन बात, दुरूह, दुर्गम, अगम हो, तो फिर चलो। तलवार की धार पर चलना हो, तो अभी अहंकारी को जंचता है कि चलो आ जाएं, चल कर देख लें। लेकिन कोई कहे कि घर में सोने जैसा सरल है, तो फिर तो बात जंचती नहीं। लेकिन मैं कहता हूंः सरल है। और न पाने का कारण यह है कि हम कठिन की खोज करते हैं, इसलिए परमात्मा को नहीं उपलब्ध हो पाते।
एक छोटी सी कहानी, अपनी चर्चा मैं रात की पूरी करूं।
एक बार बहुत पुराने जमानों में, एक बड़े साम्राज्य में, उस राज्य का बड़ा वजीर मर गया। जो बड़ा महामंत्री था, उसकी मृत्यु हो गई। उस राज्य का नियम था कि देश भर में सबसे बुद्धिमान आदमी को खोज कर वे मंत्री बनाते थे। तो तीन महीने लग गए, सारे मुल्क में अनेक तरह की प्रतियोगिताएं हुईं बुद्धिमान आदमी को खोजने के लिए। एक वाइ.जमैन खोजना था। फिर परीक्षाएं होते-होते, चुनाव होते-होते, छंटनी होते-होते अंत में तीन आदमी बच रहे, जो पूरे देश में सर्वाधिक बुद्धिमान समझे गए। अब अंतिम फैसला होने को रह गया, इन तीन में से एक चुना जाना था। अंतिम परीक्षा का दिन आ गया। सारा देश उत्सुक था, वे तीनों लोग भी उत्सुक थे कि क्या होगा? जीवन-मरण का सवाल था। वे सब भांति तैयार होकर आए थे कि कोई भी परीक्षा हो।
परीक्षा का दिन आ गया, कल सुबह परीक्षा होगी। आज सांझ से वे उत्सुक थे कि किसी भांति कल का पर्चा पता चल जाए, जैसा कि सभी परीक्षार्थी उत्सुक होते हैं। और ऐसा नहीं है कि परीक्षार्थी आज ही पर्चा पता चलाने के लिए उत्सुक हो गए हैं, हमेशा से उत्सुक हैं, वे भी उत्सुक हो गए।
लेकिन वे हैरान हुए, पर्चा पता चलाने की जरूरत ही न आई, गांव में दीवाल-दीवाल पर पर्चा लगा हुआ था, दुकान-दुकान पर उसकी चर्चा थी कि कल यह परीक्षा होने को है। वे बाजार में गए तो उन्हें पता चला कि यह होने को है परीक्षा। हर आदमी को पता था पूरे गांव में कि एक गणित की पहेली से खुलने वाला ताला है। उस ताले को लगा कर तीनों व्यक्तियों को कमरे के भीतर बंद कर दिया जाएगा और उनको कहा जाएगा कि जो सबसे पहले इस ताले को खोल कर बाहर आता है, वही वजीर है।
तीनों को पता चल गया। उनमें से दो तो फौरन भागे हुए बाजार गए, पुस्तकालयों में गए और उन्होंने किताबें खोजीं, शास्त्र खोजे तालों के संबंध में, गणित-पहेलियों के संबंध में कि न मालूम क्या होगा? किताबें ले आए, रात भर पढ़ते रहे, रात भर घोखते रहे, याद करते रहे, हिसाब लगाते रहे। जिंदगी-मरण का सवाल था, सोने का कोई सवाल भी नहीं था। लेकिन एक आदमी उनमें बड़ा अजीब था, वह सांझ से ही चादर तान कर सो गया। उन दो लोगों ने समझा कि इसने मालूम होता है ड्राप ले लिया, यह परीक्षा में बैठेगा नहीं, डर गया, घबड़ा गया, क्या हो गया! यह तैयारी नहीं कर रहा है कोई! रात भर वे तो तैयारी करते रहे, वह आदमी सोता रहा। दो-चार दफा उन्होंने उसे उठाया भी, तो उसने कहाः आज तो मुझसे बात ही मत करो, तुम अपनी तैयारी करो, मुझे अपनी करने दो। वे बहुत हैरान हुए कि यह कौन सी तैयारी हो रही है?
सुबह हो गई, वह आदमी तो रोज पांच बजे उठ आता था, आज तो वह सात बजे उठा। वे लोग समझे कि या तो इसका मस्तिष्क घबड़ाहट से, शॉक से कुछ गड़बड़ हो गया। उन्होंने रात भर इतनी तैयारी की, रात भर सोए नहीं एक क्षण, सब भांति से याद किया, याद किया। सुबह वे इस हालत में पहुंच गए कि अगर उनसे कोई पूछता कि दो और दो कितने होते हैं, तो वे नहीं बता सकते थे। क्योंकि रात भर जिन्होंने इतनी तैयारी की हो, उनका दो और दो का ख्याल भी भूल जाता है। मस्तिष्क बहुत बेचैन, अशांत, तनाव से भर गया था, जैसे सभी परीक्षार्थियों का हो जाता है। सब उन्हें याद होता है, लेकिन परीक्षा-भवन में कुछ भी याद नहीं रह जाता। वही हालत उनकी हो गई थी।
वे तीनों चले। वे दो तो डगमगाते पैर, बेचैन, परेशान, उनके मन में तो गणित चल रहे हैं, और वह एक गीत गुनगुनाता हुआ। उन दोनों को बहुत गुस्सा भी आया कि तुम यह क्या गीत गा रहे हो? यह कोई वक्त है गीत गाने का?
उसने कहाः तुम अपनी तैयारी करो, मुझे अपनी करने दो। मैं तुम्हें बाधा नहीं देता, तुम कृपा करके मुझे बाधा न दो।
वे तीनों पहुंचे। अफवाह सच थी। राजा ने उन्हें एक कक्ष में बंद कर दिया। द्वार पर एक अजीब सा ताला लटका हुआ है, जिस पर गणित के चिह्न और अंक बने हैं। और राजा ने कहाः मित्रो, यह ताला है, गणित की एक पहेली, पहेली ऊपर बनी है। इसे तुम अगर हल कर पाओ, तो ताला हल करते ही खुल जाएगा। जो आदमी हल करके बाहर निकल आएगा, वह वजीर हो जाएगा, वह चुन लिया जाएगा। तो अब तुम हल करो, मैं जाता हूं।
उन तीनों को छोड़ कर द्वार को बंद करके वह बाहर चला गया। वे दो व्यक्ति, जिन्होंने रात भर तैयारी की थी, उन्होंने जल्दी से अपने कपड़ों के भीतर हाथ डाले और छिपी हुई किताबें बाहर निकाल लीं। कोई यह न सोचे कि आजकल के विद्यार्थी ऐसा करते हैं, पहले के विद्यार्थी भी ऐसा ही करते थे। जो भी समझदार है, वह यह करेगा ही। समझदारी चालाकी ले ही आएगी। वे दो समझदार थे, एक नासमझ था, न वह कोई किताबें लाया था, न कुछ। वह एक कोने में आंख बंद करके बैठ गया। उन्होंने अपनी किताबें खोल लीं, ताले पर अंक देखे और अपना हिसाब लगाने में लग गए। बड़ा अजीब सा उलझन भरा सवाल था, जल्दी हल करना था, एक सेकेंड की फुर्सत न थी। तो जितनी तेजी से लग गए वे हल करने में, उतना ही मामला और उलझता चला गया, क्योंकि अशांत आदमी कहीं कुछ सुलझा पाता है! पहेली और बड़ी पहेली होती गई, किताबों ने और सहारा दे दिया पहेली को बड़ा करने में। किताब खोलते थे, दूसरी किताब खोलते थे, अंक देखते थे, उसके अंक उतारते थे मन में, सब काम चल रहा था, वजीर होने की जल्दी चल रही थी, कहीं कोई दूसरा न निकल जाए, यह घबड़ाहट चल रही थी। ऐसी विक्षिप्त हालत थी! कहीं कोई पहेली हल होनी थी?
वह तीसरा आदमी एक कोने में आंख बंद करके बैठ गया। उन्होंने एक-दो बार उससे भी कहाः महानुभाव! कुछ तैयारी करो, क्या कर रहे हो?
उसने कहाः तुम अपनी करो, मुझे अपनी करने दो।
वे तो अपने गणित सुलझाने में लग गए। वह जो आदमी चुपचाप बैठा था मौन, वह क्या कर रहा था रात भर से? वह मौन होने की कोशिश कर रहा था। क्योंकि जिंदगी में कोई भी सवाल हल करना हो, तो मौन हो जाना जरूरी है, साइलेंट हो जाना जरूरी है। क्योंकि जितना होगा चित्त शांत, उतनी सामर्थ्य होगी चित्त की देखने की, पहचानने की, प्रवेश की, विचार की, खोज की। तो पूरी रात से कोशिश कर रहा था कि सब भांति शांत हो जाए, मन में कोई उलझन न रह जाए, कोई विचार न रह जाए, अब भी वह यही कर रहा था। फिर आखिर उसका मन हो गया शांत और वह उठा और दरवाजे पर गया, उसने दरवाजा धकाया, बड़ी हैरानी की बात थी, दरवाजा लगा हुआ नहीं था, अटका था, वह बाहर निकल गया।
दो व्यक्ति अपने काम में लगे थे, उन्हें पता भी नहीं चला कि एक हममें से बाहर निकल गया। वह तो राजा जब उसे भीतर लेकर आया, तब उनकी आंखें खुलीं। उन्होंने कहाः अरे! तुम बाहर कैसे पहुंचे? क्योंकि उनको तो कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि यह आदमी और बाहर पहुंच सकता है! इतना कठिन सवाल और ऐसा सुस्त आदमी!
राजा ने कहाः यह आदमी अदभुत है। इसने समझदारी का पहला सबूत दे दिया। अरे पागलो, पहले यह तो देख लेना था कि ताला लगा भी है या नहीं लगा है? तुम उसे खोलने की कोशिश में लग गए!
पहली बात जाननी जरूरी थी, समझदारी का पहला नियम था कि जिस सवाल को हम हल करना चाहते हैं, देख तो लें कि वह सवाल है भी या नहीं? जो इस बात को सोचे बिना सवाल को हल करने में लग जाता है, वह क्या कभी सवाल को हल कर पाएगा? क्योंकि सवाल होता तो हल भी हो जाता, सवाल तो है ही नहीं, तो हल होगा कैसे?
इसलिए कठिन होता चला जाता है, कठिन होता चला जाता है। परमात्मा इसलिए सवाल बना हुआ है कि वह सवाल नहीं है, और जो सिद्धांतों और शास्त्रों में खोजते हैं, वे उलझते चले जाते हैं और बात कठिन होती चली जाती है। परमात्मा का द्वार बंद नहीं है, इसलिए कौन उसे खोलने की कोशिश कर रहा है? परमात्मा का द्वार खुला हुआ है, लेकिन इस खुले द्वार को देखने के लिए एक शर्त जरूरी हैः साइलेंट माइंड चाहिए, शांत मन चाहिए। वह शांत मन फौरन कह देगाः दरवाजा बंद नहीं है, उठो, देखो। तुम धक्का भी नहीं दोगे कि दरवाजा खुल जाएगा।
परमात्मा तो बहुत सरल है, आदमी के शास्त्र बहुत कठिन हैं। परमात्मा तो बहुत सरल है, आदमी की बुद्धिमत्ता बहुत जटिल है। परमात्मा तो बहुत सरल है, लेकिन उस सरलता को पहचानने वाला शांत और सरल मन हमारे पास नहीं है, एक जटिल और उलझा हुआ मन लिए हम बैठे हैं। और इस उलझे मन से हम हल करने चलते हैं। हल नहीं होगा, और उलझ जाएगा। इसलिए मैं बार-बार कह रहा हूं कि तथाकथित ज्ञान परमात्मा तक पहुंचने नहीं देता।
शांत मन है उसके लिए द्वार। शून्य मन है उसके लिए द्वार। और जो शांत और शून्य हो जाता है, वह जान लेता है सब--सब जो जीवन में अर्थपूर्ण है, सब जो जीवन में आनंदपूर्ण है, सब जो जीवन को आलोक से भर देता है और अमृत से, सब जहां मृत्यु समाप्त है और अनंत का उदघाटन है। सरल है बहुत। बहुत है सरल, अत्यंत है सरल, एकदम है सरल, क्योंकि है स्वरूप, क्योंकि वही है जो मेरा है। कठिन कैसे हो सकता? और परमात्मा कठोर नहीं कि उसके द्वार हों बंद; द्वार हैं खुले। लेकिन कोई जाए उन द्वारों के निकट।
जाने की ही बात हम इधर तीन दिन किए। यह अंतिम दिन है, अंतिम दिन अब हम अंतिम बार उस शून्य में बैठने की कोशिश करेंगे, जो उस आदमी ने की थी उस कमरे में, अकेले में बैठ गया था चुपचाप, मौन। पहेली नहीं पकड़ी थी उसने हल करने को, अपने मन को पकड़ा था शांत करने को। ये दो अलग बातें हैं। पहेली को पकड़ लें हल करने को, मन हो जाएगा अशांत। और अशांत मन कोई पहेली को सुलझा न पाएगा। उसने पकड़ा मन को, पहेली को नहीं। उसने पकड़ा मन को कि कर लूं इसे शांत, फिर देख लूंगा पहेली को। शांत मन के सामने कोई पहेली कभी नहीं है।
पूछते हैं बार-बार प्रश्न आपः ईश्वर क्या है? कहां है? स्वर्ग क्या है? नरक क्या है? पहेलियों को पकड़ रहे हैं, मन को नहीं पकड़ रहे हैं। पूछते हैं कि पुनर्जन्म है या नहीं? पूछते हैंः कर्मों का कोई संबंध है या नहीं? जमाने भर के न मालूम कहां-कहां के प्रश्न पूछते हैं। पहेलियों को पकड़ते हैं, लेकिन उस मन को नहीं पकड़ते, जो शांत हो जाए तो जिसके समक्ष कोई पहेली नहीं रह जाती। पहेलियों को पकड़िए, पंडित हो जाइएगा। शास्त्र पढ़िए, गुरुओं के पास जाइए, सेवा करिए उनकी, वे खूब ज्ञान देंगे आपको। और उनका ज्ञान आपकी मृत्यु बन जाएगा, आपका बंधन, आपका बोझ। और आपका चित्त भूल जाएगा इस बात को जो कि बेसिक थी, जो कि आधारभूत थी, वह यह कि पहेली को पकड़ना है या मन को? मैं जमाने भर की पहेलियां सुलझाने जाऊं या इस मन को सुलझा लूं?
मेरा कहना हैः जो मन को सुलझा लेता है, उसके लिए सब पहेलियां सुलझ जाती हैं। सुलझा हुआ मन, सुलझा हुआ जगत; सुलझा हुआ मन, सुलझा हुआ जीवन; सुलझा हुआ मन, तो फिर कोई बाधा नहीं रह जाती परमात्मा तक उठने में, वह सुलझा हुआ मन यात्रा कर लेता है।
उस आदमी की तरह थोड़ी देर हम भी एक कोने में चुप होकर बैठेंगे। ताले के संबंध में बिल्कुल मत सोचना, सोचना ही मत। और मत सोचना यह कि गीता क्या कहती है उस ताले को खोलने के बाबत? और कुरान क्या कहता है? और महावीर क्या कहते हैं? बुद्ध क्या कहते हैं? कृपा करो, इनको छोड़ दो। ताले को छोड़ दो, उसके साथ इन सबके दिए उत्तर भी छोड़ दो। क्योंकि जो ताले को खोजता है, वह इनके उत्तर खोजता है। खोजो उस मन को, जो भीतर है, करो उसे शांत, होने दो उसे मौन, हो जाने दो उसे शून्य और फिर देखो। तो फिर दिखाई पड़ेगा कि सिवाय परमात्मा के और कुछ भी नहीं है।
इतनी ही बात। और चूंकि अंतिम दिन है और इधर तीन दिनों में न मालूम क्या-क्या बातें मैंने आपसे कहीं, तो विदा के इस क्षण में जरूरी है कि ये दो-तीन बातें आखिर में और आपसे कह दूं। एक तो मैंने ऐसी बहुत सी बातें कहीं जिससे आपके मन को चोट पहुंची होगी, लेकिन मैं क्षमा नहीं मांगूंगा। क्योंकि मैंने जान कर ही वह चोट पहुंचाई है, कोई अनजाने में नहीं। दुख तो इतना ही रह जाता है कि चोट थोड़ी ही पहुंचा पाता हूं, पूरी नहीं पहुंचा पाता, क्योंकि शब्द बहुत आदमी के कमजोर हैं और तलवार नहीं बन सकते। लेकिन अगर बन जाएं और आपके हृदय को टुकड़े-टुकड़े कर दें, तो शायद आपकी जिंदगी में कुछ हो जाए। क्योंकि जड़ता हो गई है घनी, सो गए हैं गहरे, अब तो कोई बहुत क्रूरता से और कठोरता से न हिलाए, तो हिलना भी संभव नहीं है। अब तो कोई बहुत जोर से तूफान आ जाए और कोई आंधी और भूकंप आ जाए और सब हिल जाए, तो शायद हमारी नींद टूटे। और हो सकता है न भी टूटे। क्योंकि कोई बहुत ही गहरे सोने वाले हों, तो शायद भूकंप में भी सोए रहें।
तो इधर तीन दिन मैंने बहुत सी चोटें पहुंचाईं जान कर। दुख रहेगा तो उन लोगों का, जिनको चोट न पहुंची हो, तो उनसे क्षमा मांगता हूं कि अगली बार आऊंगा तो और जोर से पहुंचाने की कोशिश करूंगा। लेकिन जिनको पहुंच गई हो, उनका धन्यवाद करता हूं, उनका स्वागत करता हूं। वह चोट उनको चिंतन का मौका दे, विचार का, खोज का, उनके जीवन में कोई घड़ी आ जाए कि वे जाग सकें, खुद कुछ जान सकें, तो ही उन्हें उनकी आत्मा उपलब्ध हो सकती है।
अंतिम बार हम अब रात के ध्यान के लिए बैठेंगे।

समाप्त 

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