अपने माहिं टटोल-(साधना-शिविर)
आठवां प्रवचन-अहंकार का भ्रम
मेरे प्रिय आत्मन्!बीते दो दिनों में, मनुष्य के मन पर कौन सी जंजीरें हैं, उन जंजीरों में से दो जंजीरों की हमने बात की है। और आज तीसरी जंजीर की बात करेंगे।
पहली जंजीर इस बात की है, यह बोध, यह भ्रम, यह ख्याल कि मैं जानता हूं। ज्ञान का भ्रम मनुष्य के मन की कारागृह की पहली ईंट है। दूसरा, मैं कर्ता हूं, कर्म का मालिक हूं, अपना मालिक हूं, यह भाव भी एकदम भ्रांत और झूठा है। ये दोनों बातें हमने विचार कीं। आज तीसरी और सर्वाधिक कठिन बात पर हम विचार करेंगे।
शायद ये दो बातें ख्याल में भी आई हों, तीसरी बात ख्याल में आनी और भी थोड़ी मुश्किल है। लेकिन जिन लोगों ने दो सीढ़ियों को समझा है, वे जरूर ही तीसरी भी समझ सकेंगे।
मैं जानता हूं, यह भ्रम है। मैं कर्ता हूं, यह भ्रम है। और सबसे बड़ा भ्रम यह है कि मैं हूं, मेरा होना। मेरा होना सबसे बड़ा भ्रम है। मैं हूं, यह मनुष्य के जीवन का केंद्रीय भ्रम है, केंद्रीय असत्य है। और इसी असत्य के आस-पास वह जीता है। इसलिए जो जीवन खड़ा होता है, वह सारा जीवन ही मिथ्या और झूठ हो जाता है। इस संबंध में हम आज की सुबह बात करेंगे।
मैंने कहा, कठिन होगी यह बात ख्याल में लानी, क्योंकि इसे तो हमने जन्म के साथ ही स्वीकार कर लिया है कि मैं हूं। और हमने न इस पर कभी विचारा, न इसकी कभी खोज की कि यह मैं क्या है? यह है भी या नहीं है? यह मैं कौन हूं? न हमने इसे खोजा, न सोचा, न हमने इसका कोई अनुसंधान किया। हमने इसे मान लिया है, हमने इसे स्वीकार कर लिया है। यह स्वीकृति हमारी एकदम अंधी है, यह तो इस बात से ही ज्ञात हो जाएगा कि हमें पता नहीं है कि मैं कौन हूं। जिस मैं को हम माने हुए बैठे हैं, उसका हमें कोई भी पता नहीं है कि वह क्या है। और जिस चीज का हमें पता ही न हो कि वह क्या है, उसे मान लेना अंधा तो होगा ही। लेकिन सामान्यतया हमने कुछ कामचलाऊ ख्याल पैदा कर लिए हैं, जिनसे हमें लगता है कि मैं हूं, यह हूं, वह हूं!
एक छोटी सी कहानी कहूं और उससे ही अपनी चर्चा शुरू करूं।
एक रात एक सराय में एक नया मेहमान आया। सराय भरी हुई थी, रात बहुत बीत चुकी थी, उस गांव के दूसरे मकान बंद हो चुके और लोग सो चुके थे। सराय का मालिक भी सराय को बंद करता था, तभी वह मेहमान अपने घोड़े को लेकर वहां पहुंचा और उसने कहाः कुछ भी हो, कहीं भी हो, मुझे रात भर टिकने के लिए जगह चाहिए ही। इस अंधेरी रात में अब मैं कहां खोजूं और कहां जाऊं?
सराय के मालिक ने कहाः ठहरना तो हो सकता है, लेकिन अकेला कमरा मिलना कठिन है। एक कमरा है, उसमें एक मेहमान अभी-अभी आकर ठहरा है, वह जागता होगा, क्या तुम उसके साथ ही उसके कमरे में सो सकोगे?
वह व्यक्ति राजी हो गया। एक कमरे में दो मेहमान ठहरा दिए गए। जो नया मेहमान आया था, वह अपने बिस्तर पर लेट गया। न तो उसने जूते खोले, न अपनी पगड़ी निकाली, न अपना कोट अलग किया, वह सब कपड़े पहने हुए लेट गया। दूसरा आदमी जो वहां ठहरा हुआ था, उसे हैरानी भी हुई, लेकिन अपरिचित आदमी से कुछ कहना ठीक न था, वह चुप रहा। लेकिन जो आदमी पगड़ी बांधे ही सो गया था, वह करवटें बदलने लगा और नींद आनी उसे कठिन हो गई। दूसरे मेहमान ने अंततः संकोच तोड़ा और उसने कहाः मित्र, अगर बुरा न मानें, तो मैं सोचता हूं, आपको इसीलिए नींद नहीं आ पा रही है कि आप जूते पहने हैं, सारे कपड़े पहने हैं, पगड़ी बांधे हुए हैं। ऐसे कभी कोई सोया है? थोड़े शिथिल हो जाएं, थोड़े इन कपड़ों को अलग कर दें, थोड़े आराम से हो जाएं, तो शायद नींद आ जाए।
वह आदमी उठ कर बैठ गया और उसने कहाः मैं भी सोचता हूं कि कपड़े अलग कर दूं, जूते अलग कर दूं। लेकिन एक बड़ी कठिनाई है, उस वजह से मैं अलग नहीं कर पा रहा हूं। अगर मैं अकेला होता इस कमरे में, तो मैं कपड़े अलग कर देता, पगड़ी अलग कर देता, आराम से सो जाता, लेकिन तुम भी हो।
तो उस आदमी ने कहाः मेरे होने से क्या कठिनाई है?
वह व्यक्ति बोलाः कठिनाई यह है कि अगर मैंने अपने सारे कपड़े उतार कर रख दिए, तो सुबह मैं कैसे पहचानूंगा कि मैं कौन हूं? कपड़ों के कारण ही तो मैं पहचानता हूं कि मैं कौन हूं। अगर अकेला होता, तो मैं समझ जाता कि मैं वही हूं और ये कपड़े मेरे हैं। लेकिन यहां दो आदमी हैं और रात भर की नींद के बाद जब मैं उठूंगा तो यह तय कैसे होगा कि मैं कौन हूं और ये कपड़े किसके हैं?
वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहाः आश्चर्य की बात है, क्या आप अपने को अपने कपड़ों से पहचानते हैं?
उस आदमी ने कहाः मैंने आज तक एक आदमी ऐसा नहीं देखा जो कपड़ों के अलावा और किसी चीज से अपने को पहचानता हो।
कपड़ों से ज्यादा पहचान किसी की गहरी नहीं है। भीतर कौन है, उसे तो कोई भी नहीं जानता; बाहर जो है, उसी को हम सब जानते हैं। वह तो कपड़ों से ज्यादा नहीं है। आदमी ने तो बात बड़ी अदभुत कही।
उस दूसरे व्यक्ति ने कहाः तब एक काम करें, नींद तो लेनी जरूरी है और आपने जो मसला उठा दिया वह बहुत कठिन है। अब एक ही रास्ता है, और आप न सो पाए तो मैं भी न सो पाऊंगा। उस कमरे में, उन दोनों मेहमानों के पहले जो लोग ठहरे होंगे, उनके बच्चे खेलने की एक गुड़िया और एक फुग्गा छोड़ गए थे। उस दूसरे आदमी ने इस पगड़ी बांधे वाले आदमी से कहाः आप कृपा करें, कपड़े उतार दें, यह गुब्बारा पड़ा हुआ है, इसको अपने पैर में बांध लें और यह गुड़िया अपने बिस्तर पर रख लें, ये आपके चिह्न हो जाएंगे, सुबह जब आप उठेंगे तो आप जान लेंगे कि मैं कौन हूं और अपने कपड़े पहन लेना। यह बात तय हो गई। उस आदमी ने कपड़े उतार दिए, पैर में गुब्बारा बांध लिया और गुड़िया पास रख ली और सो गया।
थोड़ी ही देर बाद लेकिन उस दूसरे आदमी को मजाक सूझी। उस सोए हुए आदमी के पैर से गुब्बारा निकाल कर उसने अपने पैर में बांध लिया और उसकी गुड़िया उठा कर अपने बिस्तर पर रख ली। कोई चार बजे रात वह आदमी घबड़ा कर उठा और जोर से चिल्लाने लगा और दूसरे आदमी को उसने हिला कर उठाया और कहा कि मेरे मित्र, मैंने जो कहा था, वह गड़बड़ मालूम होता है हो गई, कठिनाई खड़ी हो गई। मेरा नाम मुल्ला नसरुद्दीन है--था। जब मैं कपड़े पहने हुए था, मैं जानता था कि मैं मुल्ला नसरुद्दीन हूं। तुमने कहा था कि पैर में गुब्बारा बांध लो। वह गुब्बारा कहां है? वह तुम्हारे पैर में बंधा हुआ है। वह गुड़िया तुम्हारे पास रखी हुई है। इससे तय हो गया कि तुम मुल्ला नसरुद्दीन हो, लेकिन मैं कौन हूं अब? अब मैं कौन हूं, यह बड़ी मुश्किल हो गई पहचाननी। और अब इस जिंदगी में बड़ी कठिनाई हो जाएगी। आइडेंटिटी खो गई, मेरा नाम खो गया, मेरा व्यक्तित्व खो गया।
यह कहानी बड़ी अनूठी मालूम पड़ती है। लेकिन आपको भी शायद पता नहीं है, आपके कपड़े छीन लिए जाएं, आपकी पदवियां छीन ली जाएं, आपका नाम छीन लिया जाए, तो आप क्या रह जाएंगे? आपकी आइडेंटिटी भी खो जाएगी, आपका व्यक्तित्व भी खो जाएगा। आप भी खड़े हो जाएंगे, ना-कुछ, नोबडी, जिसकी कोई पहचान नहीं है, जिसकी कोई रिकग्नीशन नहीं है, जिसका कोई नाम नहीं है, जिसका कोई ठिकाना नहीं है।
हम अपने मैं को कैसे पहचानते हैं? कौन से रास्तों से पहचानते हैं?
एक सम्राट ने एक महाकवि को अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया था। तो वह कवि दरिद्र था, वह अपने फटे-पुराने कपड़ों को पहन कर पहुंच गया। लेकिन द्वार पर खड़े द्वारपालों ने उसे वापस लौटा दिया और कहाः भाग जाओ, सम्राटों से मिलने योग्य तुम्हारी सूरत नहीं मालूम होती।
बात सच थी। वह कोई भिखमंगा मालूम पड़ता था। वह वापस लौट आया। उसने अपने मित्रों को कहा। मित्रों ने कहाः तुम पागल हो। सम्राटों के द्वार पर आदमी नहीं, कपड़े पहचाने जाते हैं। सच्चाई तो यह है कि किसी द्वार पर आदमी नहीं पहचाने जाते, हर द्वार पर कपड़े पहचाने जाते हैं। तुम व्यर्थ ही दरिद्र कपड़े पहन कर वहां पहुंच गए। अगर एक मुर्दा आदमी भी अच्छे कपड़े पहन कर पहुंच जाता, तो उसका स्वागत होता। क्योंकि कपड़े दिखाई पड़ते हैं, आदमी तो दिखाई पड़ता नहीं। और आदमी का पता किसको है कि आदमी क्या है? कपड़े दिखाई पड़ते हैं, कपड़े पहचाने जाते हैं, कपड़े सब कुछ हैं।
उस कवि की बुद्धि में बात आ गई, उसने उधार कपड़े मांगे मित्रों से और अच्छे कपड़े पहन कर वह थोड़ी देर बाद वापस उसी द्वार पर पहुंच गया। संतरी भागे हुए आए, राजा को खबर दी गई, राजा खुद द्वार पर महाकवि को लेने आया, उसके हाथ में हाथ डाल कर वह भीतर गया। उसे भोजन पर बिठाया। बहुत स्वर्ण की थालियों में बहुत बहुमूल्य भोजन आए। वह महाकवि, वह राजा आमने-सामने बैठे। उस राजा ने कहाः शुरू करें भोजन, कृपा करें।
उस कवि ने कहाः शुरू करूं। भोजन उठाया और अपने कोट से बोला, मेरे कोट, तू पहले भोजन कर ले। अपनी पगड़ी को भोजन लगाया और कहा, तू भोजन कर ले। अपने जूते को भोजन लगाया।
राजा ने कहाः महानुभाव, बड़ी अजीब आदतें हैं आपकी भोजन शुरू करने की। ऐसी आदतें मैंने कभी देखीं नहीं। यह क्या कर रहे हैं आप?
उस कवि ने कहाः मैं तो पहले भी आया था, लेकिन द्वार पर जगह न मिल सकी। अब जिन कपड़ों के कारण द्वार खुले हैं, अगर उन्हें भूल जाऊं तो बड़ी अशिष्टता होगी। ये कपड़े हकदार हैं पहले भोजन कर लेने के, ये ही मुझे यहां लाए हैं। सच तो यह है, ये ही यहां आए हैं, मैं कहां हूं! क्योंकि मैं तो पहले भी आया था, लेकिन द्वार बंद पाए थे।
कपड़ों से आदमी पहचाना जाता है। दूसरे पहचानते हों, यह तो ठीक है, हम खुद भी अपने को अपने ही कपड़ों से पहचानते हैं।
एक यहूदी मित्र ने, जो जर्मनी से भारत की यात्रा पर आया, मुझसे एक बात कही। उससे मैं यह कह रहा था, उससे मैं यह कह रहा था कि आदमी अभी कपड़ों के ऊपर नहीं उठ सका, आत्मा की बात बहुत दूर है। उसने अपनी एक घटना सुनाई। हिटलर के जमाने में वह जर्मनी के एक जेलखाने में बंद रहा। यहूदियों की हत्या की हिटलर ने, पांच सौ यहूदी रोज मारे जाते रहे। अकेले हिटलर ने कोई बीस लाख यहूदी मारे। पांच सौ यहूदी रोज नियमित हत्या करने की योजना रही। वह भी यहूदी था, वह भी पकड़ लिया गया था। यह बिल्कुल संयोग की बात थी कि वह बच गया, क्योंकि वह आखिरी दिनों में पकड़ा गया और उसके मरने की लिस्ट थोड़ी दूर थी और युद्ध समाप्त हो गया। उसने मुझे बताया कि जब मैं पहली दफा ले जाया गया, तो मेरे साथ कोई दो हजार यहूदी और थे। हम सारे लोगों को जेल में ले जाकर सबसे पहला काम यह किया गया कि हमारे सारे कपड़े छीन लिए गए और हम नग्न कर दिए गए। दो हजार लोग नग्न कर दिए गए। फिर हमारे सिर घोंट डाले गए, हमारी मूंछें बना दी गईं, हमारे सारे बाल साफ कर दिए गए। और तब उसने कहा कि मैं इतना घबड़ा गया, आप ठीक कहते हैं, दो हजार नंगे और सिर घुटे लोगों में पहचानना मुश्किल हो गया कि कौन कौन है! जो अपने मित्र थे, वे भी समझ में नहीं आने लगे कि ये कौन हैं? खुद को आईने में देख कर शक होने लगा कि यह मैं मैं ही हूं?
कपड़ों ने--और कपड़ों से मेरा मतलब बहुत सी बातों से है। जो कपड़े हम पहने हुए हैं, वे तो कपड़े हैं ही, हमने और तरह के कपड़े भी पहन रखे हैं--पद के, पदवियों के, वंशों के, नामों के, परिवारों के--वे भी हमारे कपड़े हैं, वे भी हमने ओढ़ रखे हैं।
एक आदमी मिनिस्टर हो जाए, तो बड़े ऊंचे कपड़े मन पर उसके ओढ़ लिए जाते हैं। एक आदमी राष्ट्रपति हो जाए, तो उसकी आत्मा पर बड़े गहरे लबादे ओढ़ लिए जाते हैं। और उसी राष्ट्रपति को नीचे उतार लो उसकी कुर्सी से, उसके कपड़े छिन जाएंगे, वह ना-कुछ हो जाएगा। उसे फिर कोई पूछेगा नहीं, कोई फिकर नहीं करेगा।
बहुत तरह-तरह के कपड़े हमारे ऊपर इकट्ठे हैं। और इन्हीं कपड़ों को हम समझते हैं--मेरा होना, मेरा अस्तित्व, मैं! धन हो, पद हो, यश हो, पदवी हो, प्रतिष्ठा हो, तो मेरा मैं मजबूत हो जाता है। न हो, तो मेरा मैं छोटा हो जाता है, क्षीण हो जाता है।
मरते वक्त नेपोलियन हार चुका था युद्ध में और एक छोटे से द्वीप सेंट हैलेना में उसको बंद कर दिया गया था। अब नेपोलियन उन थोड़े से लोगों में से था, जिन्होंने सारी जमीन को हिला दिया। जिन्होंने पहाड़ों से कहा--हट जाओ! तो पहाड़ों को हट जाना पड़ा। जिन्होंने कौमों से कहा--मिट जाओ! तो कौमों को मिट जाना पड़ा। उन थोड़े से लोगों में एक था। आखिरी वक्त हार गया और हैलेना में बंद कर दिया गया। पहले ही दिन सुबह उठ कर वह घूमने निकला, एक छोटी सी पगडंडी पर। उसका मित्र, उसका डाक्टर उसके साथ था। छोटी थी, संकरी थी पगडंडी। उस तरफ से एक घास लेने वाली औरत घास का गट्ठा सिर पर लिए हुए आती थी। नेपोलियन के डाक्टर मित्र ने चिल्ला कर कहाः घसियारिन, रास्ता छोड़ दे! देखती नहीं कौन रास्ते पर आ रहा है?
लेकिन नेपोलियन ने कहाः मेरे मित्र, तुम भूल करते हो। रास्ता हमें छोड़ देना चाहिए। अब नेपोलियन कहां है! अब मैं कौन हूं! एक कैदी से ज्यादा नहीं।
और नेपोलियन छोड़ कर रास्ता खड़ा हो गया और उसने कहाः घासवाली को निकल जाने दो, वह कुछ है, मैं तो अब कुछ भी नहीं हूं। मैं नेपोलियन था कल तक और मैंने पहाड़ों से कहा होता--रास्ते से हट जाओ, तो पहाड़ हट गए होते। लेकिन आज, आज मैं क्या हूं! एक घासवाली फिर भी कुछ है, मैं तो कुछ भी नहीं, ना-कुछ, नोबडी। मुझे हट जाने दो।
वह नेपोलियन हट गया। यह नेपोलियन कल तक सब कुछ था, आज ना-कुछ कैसे हो गया? क्या छिन गया इसके पास से? इसके वस्त्र छिन गए, इसके कपड़े छिन गए, इसकी कुर्सी छिन गई, अब यह ना-कुछ है।
हम सारे लोगों को भी यह जो ख्याल है कि मैं कुछ हूं, क्या यह हमें पता है कि हम क्या हैं, उसका यह ख्याल है या केवल उन वस्त्रों का जो हमने पहन रखे हैं? हमने जो वस्त्र पहन रखे हैं, हमने जो नकाब ओढ़ रखे हैं, हमने जो मुखौटे पहन रखे हैं, हमने जो नाटक और अभिनय सीख लिया है, वही है हमारा मैं या कुछ और भी है? कोई और गहरा परिचय है या इसी से परिचय है? अगर इसी से परिचय है तो यह बड़ा झूठा मैं है और इसे छोड़ देना जरूरी है।
यह मैं, यह मेरे होने का भाव अत्यंत मिथ्या है, इसकी कोई सत्ता नहीं है, यह प्याज की भांति है। हम प्याज के छिलके निकालते चले जाएं, निकालते चले जाएं, आखिर में क्या बच रहता है? बस छिलके निकल जाते हैं और निकल जाते हैं, और भीतर कुछ भी नहीं है। वस्त्र ही वस्त्र हैं प्याज में, उसके भीतर कुछ भी नहीं है। ऐसा ही हमारा यह मैं है, इसमें वस्त्र ही वस्त्र हैं, निकालते चले जाएं, निकालते चले जाएं, भीतर बच रहता है ना-कुछ। भीतर कुछ पता नहीं चलता कि क्या है।
क्या हैं आप? उसको थोड़ा छीलना शुरू करें, उसके कपड़े निकालना शुरू करें। और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि भीतर रह गया शून्य, वहां किसी मैं का कोई पता नहीं चल रहा कि मैं कौन हूं। इसीलिए तो कोई भीतर नहीं जाना चाहता।
हम बातें इतनी सुनते हैं कि अपने को जानो, भीतर जाओ। सुन लेते हैं, लेकिन कभी भीतर जाना नहीं चाहते। क्योंकि भीतर जाने में बड़े प्राणों पर संकट आ जाएगा। खुद की चमड़ी निकाल-निकाल कर अलग करनी होगी, तभी तो कोई भीतर जा सकता है।
ये जितने वस्त्र हमने पहन रखे हैं, अपने मैं के आस-पास हमने जो सजावट कर रखी है, वह उखाड़ देनी पड़ेगी, तभी तो हम भीतर प्रवेश कर सकते हैं। उसको उखाड़ने में कोई भी डरता है, घबड़ाता है। वही तो मैं हूं। इसलिए भीतर जाने में एक भय, एक फियर, एक चिंता, एक संताप मालूम होता है।
आज की सुबह इस मैं की पर्तों को उखाड़ने का ही हम काम करेंगे। इस मैं की प्याज के छिलकों को अलग करने की कोशिश करेंगे, ताकि भीतर जाया जा सके और जाना जा सके कि वहां क्या है? वहां कौन छिपा है? कौन सी सत्ता? कौन सी आत्मा वहां निवास करती है?
आत्मा को जानने के पहले मैं की पर्तों को उखाड़ लेना जरूरी है। जैसे कोई कुआं खोदता है, मिट्टी निकालता है, पत्थर निकालता है, खोदता है जमीन को, पर्त-पर्त जमीन को अलग करता है, ताकि भीतर छिपे जल के स्रोत उपलब्ध हो सकें। ऐसे ही मनुष्य की आत्मा की खोज में भी खुदाई करनी होती है और मैं की बहुत सी पर्तें जो कि जमीन की भांति आत्मा के जल को घेरे हुए हैं, उन्हें तोड़ना पड़ता है और निकालना पड़ता है। और जब सारी मैं की पर्तें उखड़ जाती हैं, तब जो शेष रह जाता है, वही आत्मा है, वही मैं हूं।
मैं की झूठी पर्तों को जो उखाड़ने में समर्थ होता है, वही सच्चे मैं को जानने में समर्थ हो पाता है। और जो मैं की पर्तों को मजबूत किए जाता है, वह सदा के लिए आत्मा से दूर हो जाता है।
हम सारे लोग मैं की पर्तों को मजबूत करने में लगे रहते हैं। छोटा मकान मैं को उतनी मजबूत पर्त नहीं देता, बड़ा मकान और मजबूत पर्त देता है। इसलिए छोटे मकान से बड़े मकान की दौड़ चलती है। थोड़े रुपये मैं को मजबूती नहीं देते, बहुत रुपये मैं को मजबूती देते हैं। इसलिए थोड़े रुपयों से बहुत रुपयों की तरफ दौड़ चलती है।
एंड्रू कारनेगी मरा, अमेरिका का एक अरबपति। मरते वक्त उसके पास कोई चार अरब रुपये थे। चार अरब रुपये बहुत रुपये हैं, लेकिन दूसरे के पास हों तो, अगर खुद के पास हों तो बहुत कम हैं। अगर आपके पड़ोसी के पास चार अरब रुपये हैं, तो आपको लगेगा बहुत हैं। लेकिन अगर आपके पास हों, तो आपको लगेगा--क्या है, केवल चार अरब ही तो हैं! एंड्रू मरा, उसके पास चार अरब रुपये थे, उसकी जीवनकथा लिखने वाले एक लेखक ने उससे मरने के दो दिन पहले पूछा कि मित्र, तुम तो तृप्त हो गए होओगे, तुम्हारे पास तो अटूट और अपार संपत्ति है।
एंड्रू कारनेगी ने कहाः क्या कहते हो? दस अरब की मेरी योजना थी, मैं एक असफल आदमी हूं, केवल चार अरब कमा पाया। मैं दुखी हूं, मैंने जितना चाहा था, मैं उतना नहीं कमा पाया। अमेरिका में ऐसे लोग भी हैं जिनके पास दस अरब रुपया भी है।
एंड्रू कारनेगी के पास चार अरब रुपये का होना कोई सुख का कारण नहीं है, लेकिन अमेरिका में ऐसे लोग हैं जिनके पास दस अरब रुपया है, यह दुख का कारण जरूर है। क्यों है यह दुख का कारण? जिनके पास दस अरब हैं, उनका अहंकार और भी प्रगाढ़ और मजबूत है। एंड्रू कारनेगी उनके सामने छोटा है, वे बड़े हैं। उनकी अस्मिता, उनकी ईगो और मजबूत है। कारनेगी की बेचारे की थोड़ी छोटी है, उसके पास केवल चार अरब रुपये हैं।
कारनेगी दुखी मरा। दुनिया में कोई आदमी सुखी नहीं हो सकता। अहंकार किसी को सुखी नहीं होने देगा, क्योंकि अहंकार की सतत मांग यह होती है--और आगे, और आगे। क्योंकि जितना मिल जाता है, वह तो अहंकार उसे आत्मसात कर लेता है और उसकी भूख खड़ी हो जाती है--और आगे चाहिए। उसकी कोई तृप्ति नहीं है। तृप्ति इसलिए नहीं है कि अगर अहंकार कोई वास्तविक चीज होती, तो उसकी तृप्ति भी हो सकती थी, वह बिल्कुल छाया है। छाया की कभी कोई तृप्ति नहीं हो सकती।
एक राजमहल के द्वार पर एक सुबह बहुत भीड़ लग गई थी। एक भिखारी आया था और उसने अपना भिक्षा-पात्र राजा के महल के द्वार के सामने फैलाया और राजा से उसने कहाः मुझे भिक्षा मिल सकेगी?
उस राजा ने कहाः जिस द्वार पर तुम खड़े हो, वहां से कभी कोई खाली हाथ वापस नहीं लौटता। क्या चाहते हो? जो चाहोगे, मिल सकेगा।
लेकिन उस भिक्षु ने कहाः सवाल यह नहीं है कि क्या मैं चाहूं, मेरी शर्त दूसरी है और आज तक मेरी शर्त कोई पूरी नहीं कर पाया।
एक भिखारी राजा से ऐसा कहे, तो राजा के अहंकार को चोट लग जानी स्वाभाविक है। राजा ने कहाः तुम पागल हो! क्या तुम्हारी शर्त है? बोलो, हम पूरा कर देंगे।
उस भिखारी ने कहाः बड़ी छोटी है मेरी शर्त, लेकिन पूरा करने का वचन देने के पहले बहुत सोच लेना। यह जो भिक्षा-पात्र है मेरे पास, जो तुम्हें देना हो, मिट्टी देनी हो मिट्टी सही, लेकिन एक शर्त पर स्वीकार करता हूं--मेरा पूरा पात्र भर देना, अधूरा मत रखना, खाली मत रखना। चाहे मिट्टी डाल देना, तो राजी हूं, लेकिन अधूरा पात्र लेकर वापस न जाऊंगा, पात्र पूरा भरना पड़ेगा।
राजा हंसने लगा, छोटा सा पात्र था। और राजा के पास क्या थी कमी, सारी जमीन जीत चुका था। उसने अपने मंत्रियों को कहाः जाओ, हीरे-जवाहरातों से इसके पात्र को भर दो। यह भी याद रखे कि राजाओं के द्वार पर मिट्टी दान में नहीं मिलती। और क्या छोटी सी तेरी मांग है कि पात्र को पूरा भर दो। और पात्र ही लाना था तो कोई बड़ा ले आना था!
भिक्षु लेकिन खड़ा मुस्कुराता रहा। सदा ऐसा हुआ है, भिक्षु हमेशा राजाओं पर मुस्कुराते रहे हैं, लेकिन बहुत कम राजा समझ पाए हैं कि भिक्षु क्यों मुस्कुराते हैं। वह भिक्षु मुस्कुराता रहा। वजीर भर कर ले आए हीरे-जवाहरात, बहुत ज्यादा ले आए थे, पात्र बहुत छोटा था, ताकि भिक्षु देख ले और उसकी आंखें समझ लें कि किसके द्वार पर वह आ गया है। और वे हीरे-जवाहरात उस पात्र में डाले गए। लेकिन भिक्षु हंसता रहा। वह हतप्रभ न हुआ उस चमक को देख कर।
और थोड़ी देर में राजा की मुस्कुराहट खो गई, आंखों की रोशनी जाने लगी। भिक्षु का पात्र कुछ अजीब था, जितना भी उसमें डाला गया, खो गया, उसे भरना कठिन हो गया। खजाने खाली होने लगे, सुबह बीत गई, दोपहर आने लगी। नगर भर में खबर पहुंच गई, भीड़ बढ़ने लगी, द्वार के समक्ष राजधानी इकट्ठी होने लगी। भिक्षु खड़ा था और हंस रहा था। और राजा की हंसी समाप्त हो गई थी। और वजीर भागे हुए तिजोरियों से सोने-चांदी को लाने लगे, हीरे-जवाहरात चुक गए थे, सोना-चांदी डाला जाने लगा। लेकिन पात्र था अजीब, भरता नहीं था। जो भी डाला जाता था, खो जाता था उसमें।
सांझ हो गई और राजा हार गया। असल में सांझ होते-होते कौन राजा हार नहीं जाता है, सभी हार जाते हैं। सांझ हो गई, राजा हार गया और पैरों पर गिर पड़ा उस भिखारी के और कहाः क्षमा कर दो! भूल हो गई हमसे! कैसा है यह भिक्षा-पात्र तुम्हारा? क्या है जादू इसमें? देखने में इतना छोटा और भरने में इतना अपूर, इतना दुष्पूर! खजाने मेरे खाली हो गए और तुम्हारा पात्र खाली का खाली है! कहां गया सब जो इसमें डाला गया? क्या है इसका रहस्य? क्या है मिस्ट्री?
वह भिक्षु बोलाः कोई रहस्य नहीं, कोई जादू नहीं। एक मरघट से निकलता था, एक आदमी की खोपड़ी मिल गई, उसी से मैंने यह भिक्षा-पात्र बना लिया। और यह तो आप जानते हैं, आदमी की खोपड़ी कभी नहीं भरती, इसलिए भिक्षा-पात्र भी कभी नहीं भरता है। बहुत राजा इस भिक्षा-पात्र के सामने हार चुके हैं, यह कभी नहीं भरा है।
और यह कहानी कुछ ऐसी नहीं है कि किसी एक महल के द्वार पर घट कर समाप्त हो गई हो, यह हर आदमी के द्वार पर रोज घट रही है। हम अपनी-अपनी खोपड़ी के भिक्षा-पात्र को भरने में लगे हैं। कभी भरता नहीं, भर नहीं सकता, भरने का कोई उपाय नहीं है। कारण है कुछ न भरने का। कुछ कारण है। और वह कारण यह है कि जो चीज हो, वह भरी भी जा सकती है; लेकिन जो हो ही न, उसे कैसे भरा जा सकता है? जो चीज हो, उसे भरा जा सकता है; लेकिन जो हो ही नहीं, उसे कैसे भरा जा सकता है? जिसका अस्तित्व हो, उसके साथ कुछ किया जा सकता है, उसे भरा जा सकता है, खाली किया जा सकता है; लेकिन जिसका कोई अस्तित्व न हो, जिसका होना केवल कल्पना हो, उसके साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता।
जैसे इस कमरे में अंधकार भरा हो और हम सारे लोग अंधकार को निकालने की कोशिश करें, तो क्या हम अंधकार को निकाल पाएंगे? हम कितनी ही गठरियां बांधें, गठरियां बाहर चली जाएंगी, अंधकार यहीं रह जाएगा। हम कितने ही धक्के दें और पहलवानों को लिवा लाएं, पहलवान थक जाएंगे और अंधकार यहीं रहेगा। अंधकार को निकाला नहीं जा सकता। अंधकार को लाया जा सकता है? न निकाला जा सकता है, न लाया जा सकता है। अगर हम सारे लोग निकल पड़ें कि चलो आज थोड़ा-थोड़ा अंधकार ले आएं इस कमरे में भरने को, सांझ को हम खाली हाथ वापस लौट आएंगे, अंधकार कोई भी ला नहीं सकेगा। न अंधकार लाया जा सकता, न निकाला जा सकता। क्यों? क्योंकि वस्तुतः अंधकार है ही नहीं, उसका कोई एक्झिस्टेंस नहीं है, उसकी कोई सत्ता नहीं है। वह केवल दिखाई पड़ता है, है नहीं। हां, प्रकाश लाया जा सकता है। और प्रकाश आ जाए, तो अंधकार विलीन हो जाता है। विलीन हो जाता है, यह कहना भी गलत है, क्योंकि जो था ही नहीं, वह विलीन कैसे होगा? उचित होगा यही कहना कि प्रकाश होते ही पाया जाता है कि अंधकार नहीं है और प्रकाश बुझते ही पाया जाता है कि अंधकार है।
अंधकार फिर क्या है? अंधकार केवल प्रकाश का अभाव है, एब्सेंस। अंधकार की अपनी कोई प्रेजेंस, अपनी कोई उपस्थिति नहीं है अंधकार की, वह खुद नहीं है, वह किसी का न होना है, वह किसी की गैर-मौजूदगी है, वह किसी की एब्सेंस है, वह किसी की अनुपस्थिति है। खुद का उसका कोई होना नहीं है।
इसलिए अंधकार के साथ हम कुछ भी नहीं कर सकते। न हम उसे ला सकते, न निकाल सकते। अंधकार के साथ डायरेक्ट एक्शन नहीं हो सकता, कोई सीधा कृत्य नहीं हो सकता। अंधकार के साथ कुछ करना हो, तो प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ता है। उलटे रास्ते से, इनडायरेक्ट जाना पड़ता है।
अंधकार की ही तरह है हमारा अहंकार, उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है। इसलिए अहंकार को न तो कोई भर सकता और न कोई निकाल सकता। उसका अपना कोई होना नहीं है। अगर उसके साथ कुछ भी करना हो, तो आत्मा के साथ कुछ करना पड़ता है। आत्मा की अनुपस्थिति है अहंकार, आत्मा की एब्सेंस है अहंकार। जैसे अंधकार प्रकाश की अनुपस्थिति है, वैसे अहंकार आत्मा की अनुपस्थिति है। अहंकार के साथ सीधा कुछ भी नहीं किया जा सकता।
लेकिन अहंकार के साथ हम दो काम करते हैं, हजारों वर्ष से करते रहे हैं। एक काम तो है अहंकार को भरने का। उसकी कथा वही है जो उस भिक्षु की कथा है और उसके पात्र की। भरते हैं, भरते हैं, भरते हैं, भरते-भरते खुद मिट जाते हैं और पाते हैं कि अहंकार नहीं भरा, वह वहीं का वहीं, उतना का उतना, वैसा का वैसा खाली है। क्या आप सोचते हैं, सिकंदरों, नेपोलियनों, हिटलरों के अहंकार भर जाते हैं? नहीं। सिकंदर ने मरने के पहले दुख जाहिर किया था। उसने कहा था कि मैं बहुत दुखी हूं, भगवान बहुत अजीब है, इसने केवल एक ही दुनिया बनाई, कम से कम दो तो बनानी थीं, ताकि कोई आदमी जीतना चाहे तो दो दुनिया जीत सके। एक ही दुनिया! केवल एक दुनिया है जीतने को!
सिकंदर को दुख था कि कम से कम दो दुनिया होनी चाहिए। कम से कम दो तो बनानी थीं, जीतने वाले को कुछ सुविधा तो होती। एक ही दुनिया है केवल! अहंकार अगर पूरी दुनिया जीत ले, तो फौरन सोचेगा कि दूसरी दुनिया कहां है? यह जो चांद-तारों पर जाने की इतनी कोशिश चल रही है, इसके पीछे बहुत गहरे में मनुष्य का अहंकार है। जमीन काफी नहीं है। चांद-तारे जीतने होंगे, दूर के सितारों पर राज्य कायम करना होगा, वहां झंडे गाड़ने होंगे। और इसलिए बड़ी जोर की दौड़ है। पता नहीं रूस पहले झंडा गाड़ दे चांद पर कि अमेरिका! कौन मालिक हो जाए उसका?
अब अहंकार आकाश में लड़ रहे हैं, दूसरी दुनिया की खोज हो गई। अगर सिकंदर को उसकी कब्र में पता चल जाए, तो बड़ी बेचैनी होगी उसे, कि चांद खोज लिया गया। बड़ी गलती की जो दो हजार साल पहले पैदा हुए, आज पैदा होना था, तो न केवल जमीन के मालिक हो सकते थे बल्कि चांद के भी।
लेकिन कोई चांद से हल होने को नहीं है। क्योंकि दुनिया बहुत बड़ी है और अहंकार अपूर है, दुष्पूर है, उसे भरने का कोई रास्ता नहीं है। कितना ही भरें, वह खाली रह जाता है। और खाली रह जाने से दुख होता है, पीड़ा होती है। खाली रह जाने से चिंता होती है, उसे भरने का मन होता है। हम सारे लोग जो दुखी और पीड़ित हैं, उस दुख और पीड़ा में क्या है? वह अहंकार जो नहीं भरा जा सक रहा है, वह जगह खाली है। तो सोचते हैं कि शायद आगे जगह पहुंचने से वह भर जाए, तो जिस छोटी कुर्सी पर मैं बैठा हूं, बड़ी कुर्सी पर पहुंच जाऊं तो भर जाए। लेकिन हमारी आंखें अंधी हैं, हम देखते नहीं कि उस बड़ी कुर्सी पर जो बैठा है, वह भी उतना ही दुखी है और आगे की बड़ी कुर्सी को देख रहा है। उस बड़ी, और बड़ी कुर्सी पर जो बैठा है, वह भी उतना ही दुखी है और आगे की बड़ी कुर्सी को देख रहा है। जमीन पर कहीं कोई एकाध आदमी ऐसा है जो आगे न देख रहा हो? अगर कहीं कोई ऐसा आदमी मिल जाए, तो समझ लेना कि वह आदमी परमात्मा का आदमी है, जो आगे न देख रहा हो। और जान लेना कि उस आदमी ने आत्मा जैसी कोई चीज जानी होगी। क्योंकि जो आगे की तरफ देख रहा है, वह अहंकार की दौड़ में है। फिर हो सकता है कि वह आगे उदयपुर से दिल्ली की तरफ देख रहा हो, या यह भी हो सकता है कि उदयपुर से स्वर्ग की तरफ देख रहा हो, या यह भी हो सकता है कि उदयपुर से मोक्ष की तरफ देख रहा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आगे की तरफ जो देख रहा है, वह अहंकार की दौड़ में है। ख्याल है कि वहां पहुंच जाऊं तो पूर्ति हो जाएगी। लेकिन जो आदमी इस भाषा में सोचता है कि वहां पहुंच जाऊं तो सब ठीक हो जाएगा, वहां पहुंचने पर भाषा तो यही रहेगी, दिल तो यही रहेगा, दिमाग तो यही रहेगा, वह और आगे का सोचने लगेगा--वहां पहुंच जाऊं तो सब ठीक हो जाएगा। और यह मन कहीं नहीं बदलता, इसलिए मनुष्य की खोपड़ी का भिक्षा-पात्र कभी नहीं भरता है। यह हमारा अहंकार है, जो नहीं भरने देता। अहंकार दुख और पीड़ा है।
फिर क्या करें?
तो शिक्षक और उपदेशक मिल जाते हैं, जो कहते हैंः छोड़ दो इस अहंकार को। यह अहंकार दुख है, तो छोड़ दो। अहंकार दुख है, तो हटा दो। अहंकार दुख है, तो भगवान के चरणों में डाल दो, समर्पण कर दो। अहंकार दुख है, तो विनम्र हो जाओ, निर-अहंकारी हो जाओ। बड़ी ठीक बात मालूम पड़ती है, तर्कयुक्त मालूम पड़ती है--छोड़ दो अहंकार को।
लेकिन जो है ही नहीं, उसे क्या छोड़ा जा सकता है? जो है ही नहीं, उसे छोड़ा जा सकता है?
यह बात तो बड़ी लॉजिकल, बड़ी तर्कयुक्त मालूम पड़ती है, हजारों साल से कही जा रही है--अहंकार छोड़ो। छोटे-छोटे बच्चों को हम समझाते हैं--अहंकार छोड़ो। स्कूल में समझाते हैं, समाज में समझाते हैं, शिक्षक, गुरु, साधु, संन्यासी समझा रहे हैं--अहंकार छोड़ो। लेकिन इससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण और कोई बात नहीं हो सकती है। अहंकार छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि अहंकार है ही नहीं। अगर होता, तब तो हम उसे भर ही लेते, छोड़ने का सवाल क्या था! जैसे अंधकार नहीं छोड़ा जा सकता, वैसे ही अहंकार भी नहीं छोड़ा जा सकता है। अगर छोड़ा जा सकता होता, तो दुनिया की ये धार्मिक शिक्षाएं आदमी को अब तक बदल देतीं। नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि उलटे परिणाम होते हैं। अहंकार छोड़ने वाला जितना अहंकारी हो जाता है, वैसा अहंकारी खोजना कठिन है। बड़ी सूक्ष्म हो जाती है उसकी अस्मिता, बड़ा दबा लेता है अपने अहंकार को।
विनम्र लोगों की आंखों में देखें, जो लोग कहते हैं कि हमने अहंकार छोड़ दिया, उनके पास जाएं, तो हैरान हो जाएंगे, उनका अहंकार बहुत अदभुत है। हां, उनके अहंकार के रास्ते दूसरे हैं, इसलिए पहचानने में देर लग सकती है। लेकिन अहंकार वहां मौजूद है, बड़े सूक्ष्म मार्गों से।
जो यह कहता है, मैं विनम्र हूं, यह घोषणा भी अहंकार की ही घोषणा है। मैं विनम्र हूं, यह घोषणा भी अहंकार की ही घोषणा है। क्योंकि जहां अहंकार नहीं है, वहां यह दावा कौन करेगा कि मैं विनम्र हूं? कौन करेगा यह दावा? और अगर आप किसी ऐसे आदमी से, जो कहता है मैं विनम्र हूं, कह दें कि हां, आप तो हैं, लेकिन हमारे गांव में आपसे भी ज्यादा विनम्र आदमी है; तो वह दुखी हो जाएगा, उसके अहंकार को चोट लग जाएगी कि मुझसे भी ज्यादा विनम्र आदमी कोई और हो सकता है?
इसलिए विनम्र आदमी इस बात की कोशिश करते हैं कि मैं विनम्र हूं और दूसरे जो विनम्र हैं वे झूठे विनम्र हैं, वह सच्ची विनम्रता नहीं है। एक साधु दूसरे साधुओं के बाबत समझाता फिरता है कि वे काहे के साधु हैं, अहंकारी हैं, विनम्र तो मैं हूं।
लेकिन यह घोषणा कौन कर रहा है? यह सूचना कौन कर रहा है? यह विज्ञप्ति कौन कर रहा है कि मैं विनम्र हूं? यह मैं की विनम्रता कोई विनम्रता हो सकती है? यह अहंकार की ही सूक्ष्मतम पर्त है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ती। क्योंकि हम एक ही तरह के अहंकार को जानते हैं, भरने वाले अहंकार को। खाली करने वाले अहंकार को हम नहीं जानते। हम भोग के अहंकार को जानते हैं, लेकिन त्यागी के अहंकार को नहीं जानते। लेकिन त्यागी भी अत्यंत अहंकारी होता है। यह अहंकार होता है--मैंने किया त्याग। और इसलिए त्याग करने वाले भोग की निरंतर निंदा करते देखे जाते हैं। निंदा क्यों? संसारी को संन्यासी गाली देता देखा जाता है, पापी कहता देखा जाता है। क्यों? इसी में उसके अहंकार की तृप्ति और मजा है कि मैं हूं त्यागी और तुम हो भोगी। मैं जाऊंगा स्वर्ग और तुम सड़ोगे नरक में। मैं भगवान के पास बैठूंगा और तुम, तुम नरक की ज्वालाओं में सताए जाओगे।
क्राइस्ट को जिस रात पकड़ा गया और सुबह सूली दी गई, जब उन्हें उनके दुश्मन पकड़ कर ले जाने लगे, तो उनके शिष्यों ने पूछा कि जीसस, तुम तो चले, लेकिन एक बात बताते जाओ, हो सकता है दुश्मन तुम्हारी हत्या कर दें, एक बात समझा दो। तुमने हमसे कहा था, भगवान का राज्य होगा, किंग्डम ऑफ गॉड, स्वर्ग का राज्य, और तुमने हमें बताया था कि भगवान के सिंहासन के पास तुम बैठोगे, क्योंकि तुम इकलौते पुत्र हो भगवान के। लेकिन हमारी पोजीशंस क्या होंगी? हमारी जगह क्या होंगी? हम कहां बैठेंगे? तुम भगवान के बगल में बैठोगे, लेकिन हम लोगों के स्थान क्या होंगे भगवान के आस-पास स्वर्ग के राज्य में, कृपा करके यह तो बता दो! हमने कितना त्याग किया, इसका स्मरण रखना, भूल मत जाना।
इन्होंने त्याग किया था इसलिए ताकि भगवान के पास कोई विशेष जगह पर बैठने का मौका मिल जाए। भगवान का दरबार अगर कहीं हो, तो उसमें कोई नंबर पीछे न लगे, आगे रहे। यह ख्याल कि हमने त्याग किया था, उसका बदला क्या होगा स्वर्ग में, यह क्या है? यह अहंकार नहीं तो और क्या है? त्यागी का अपना अहंकार है, भोगी का अपना अहंकार है। होगा भी, क्योंकि त्यागी भी छोड़ रहा है।
एक साधु ने मुझसे कहा कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। मैंने पूछाः यह लात कब मारी? उन्होंने कहाः कोई बीस-पच्चीस वर्ष हो गए होंगे। तो मैंने उनसे निवेदन किया कि लात ठीक से लग नहीं पाई, नहीं तो तीस वर्ष तक उसके स्मरण रखने की कोई भी जरूरत नहीं थी। उसे कहने और बताने का भी कोई कारण नहीं था, लात अगर लग गई होती तो। लेकिन लात लग नहीं पाई। यद्यपि रुपये खो गए, लेकिन लात नहीं लग पाई। और जब लाखों रुपये उनके पास रहे होंगे, तो मैंने उनसे कहा कि जरूर आपको इसका रस आता रहा होगा कि लाखों रुपये मेरे पास हैं, मैं कुछ हूं। और फिर जब आपने उन लाखों रुपयों को छोड़ दिया, तो दूसरा रस आने लगा कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी, मैं कुछ हूं। उस मैं कुछ हूं में कोई फर्क नहीं पड़ा, वह वहीं का वहीं खड़ा है। लाखों रुपये थे तो वह था, लाखों रुपये छोड़ दिए तो वह है। और मैं आपसे निवेदन करता हूंः पहले होने से दूसरा होना ज्यादा मजबूत है। पहला होना बहुत कच्ची दीवाल पर खड़ा हुआ था कि लाखों रुपये हैं। लाखों रुपये छिन भी सकते थे, दीवाला निकल सकता था, नुकसान हो सकता था, हुकूमत बदल सकती थी, न मालूम क्या-क्या हो सकता था। लाखों रुपये छिन सकते थे और वह मैं कुछ हूं मिट सकता था। लेकिन लाखों रुपयों का त्याग अब कोई भी नहीं छीन सकता, इसका कोई दीवाला नहीं निकल सकता। अब यह अहंकार बहुत परमानेंट है, अब यह बहुत स्थायी है। रुपये का दंभ बहुत अस्थायी है, त्याग का दंभ बहुत स्थायी है, उसे अब कोई नहीं छीन सकता, अब कोई रास्ता नहीं है। अब हुकूमत बदले तो बदल जाए, दुनिया बदले तो बदल जाए, लेकिन अब यह त्याग छिन नहीं सकता। यह बड़ी हैरानी की बात है!
और इसीलिए त्यागी को लगता है कि मैंने कोई स्थायी संपत्ति कमा ली। वह अहंकार की ही स्थायी संपत्ति है। क्योंकि त्याग को छीनने का कोई उपाय नहीं है, धन को तो छीना जा सकता है। लेकिन है वह अहंकार, क्योंकि जिसे यह स्मरण है कि मैंने त्यागा, उसका अहंकार मौजूद है। अहंकार छोड़ा नहीं जा सकता।
फिर क्या किया जाए? न अहंकार भरा जा सकता है, न अहंकार छोड़ा जा सकता है। फिर क्या किया जाए? ये दोनों रास्ते नहीं हैं। ये दोनों रास्ते गलत साबित हुए हैं। इन दोनों रास्तों ने हजारों साल से मनुष्य के मन को पीड़ित किया है और परिणाम नहीं आया। आगे भी इनसे परिणाम आने को नहीं है। बुनियादी रूप से यह बात गलत है।
सबसे पहली बात, सबसे पहला सूत्र अहंकार की खोज में यह होगा कि मैं पहले यह तो देख लूं कि जिसे मैं भरने या जिसे मैं छोड़ने चला हूं, वह है भी या नहीं? एक आदमी अगर अपने घर से कोई चीज निकालना चाहता हो, तो पहले यह तो पता लगा ले कि वह है भी या नहीं? या कोई चीज भरना चाहता हो, तो यह तो पता लगा ले कि वह है भी या नहीं? कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति पहले यह तो जान ले कि यह अहंकार है? कहां है? क्या है? अगर यह है, तो फिर इसके साथ कुछ किया जा सकता है। लेकिन आश्चर्यों का आश्चर्य यही है कि जो लोग अहंकार को खोजने जाते हैं, वे पाते हैं कि वह है ही नहीं। तो न तो उसे भरना पड़ता है और न छोड़ना पड़ता है। वह नहीं पाया जाता है।
भारत से एक भिक्षु कोई चौदह सौ वर्ष पहले चीन गया, नाम था उसका बोधिधर्म। वह चीन पहुंचा। उसके पहुंचने के पहले उसकी ख्याति चीन पहुंच गई। वह बहुत अदभुत व्यक्ति रहा होगा। चीन का सम्राट उसे लेने चीन की सीमा पर आया। उसने स्वागत किया बोधिधर्म का और एकांत में बोधिधर्म से कहाः भिक्षु, बड़ी प्रशंसा मैंने सुनी है तुम्हारी और बड़े दिन से तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूं कि तुम कब आ जाओ। मेरे जीवन का एक दुख है, उसे मैं मिटाना चाहता हूं। अहंकार मुझे पीड़ा दे रहा है। और सैकड़ों-सैकड़ों धर्मोपदेशकों ने मुझे समझाया है कि अहंकार छोड़ो तो दुख के बाहर हो जाओगे। लेकिन मैं अहंकार कैसे छोडूं? मैंने सब उपाय किए। मैंने उपवास किए, मैंने रूखे-सूखे भोजन किए, मैं गद्दियां छोड़ कर जमीन पर सोया, मैंने शरीर को कृशकाय कर लिया, मैं भूखों मरा, मैंने सब तरह के भोग बंद किए, मैंने सब तरह के अच्छे वस्त्र पहनने बंद कर दिए, सर्दियां और गर्मियां मैंने लंगोटियों पर गुजारीं। लेकिन भीतर मैं पाता हूं कि अहंकार मरता नहीं, वह मौजूद है। धन भी मैंने देख लिया, राज्य भी मैंने देख लिया, त्याग भी मैंने देख लिया, मैं बड़ा परेशान हूं, यह अहंकार तो जाता नहीं, वह तो मौजूद है, वह कहीं छोड़ता नहीं पीछा। अब मैं क्या करूं?
उस बोधिधर्म ने कहाः मेरे मित्र, तुमने जो भी किया, वह व्यर्थ है, क्योंकि तुमने सबसे बुनियादी बात नहीं की। वह बुनियादी बात कल सुबह हम करेंगे, तुम चार बजे आ जाओ, मैं तुम्हारे अहंकार को खत्म ही कर दूंगा।
वह राजा बहुत हैरान हुआ! इतनी आसान है क्या बात, जिसे जीवन भर उसने खत्म करने की कोशिश की है, यह कहता है व्यक्ति कि चार बजे रात आ जाओ, खत्म कर देंगे! खैर देखें। वह राजा उतरने लगा उस मंदिर की सीढ़ियां जहां बोधिधर्म ठहरा था, वह आधी सीढ़ियों पर होगा कि बोधिधर्म ने कहा कि सुनो, एक बात ख्याल रखना, जब आओ तो अकेले मत आ जाना, अहंकार को साथ ले आना।
राजा थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उसने कहा कि यह क्या बात हुई कि अहंकार को साथ ले आना! बोधिधर्म ने कहाः इसलिए कहता हूं कि तुम अगर अकेले आ गए, तो मैं हत्या किसकी करूंगा? साथ ले आना अहंकार को, तो उसको खत्म कर दूंगा, एकबारगी में मामला निपट जाएगा, बात खत्म हो जाएगी।
चार बजे वह आया। आते ही से बोधिधर्म ने पूछाः ले आए अहंकार?
उसने कहाः आप भी कैसी बातें करते हैं! अहंकार कोई वस्तु तो है नहीं कि मैं ले आता।
बोधिधर्म ने कहाः चलो एक बात तय हो गई कि अहंकार कोई वस्तु नहीं है। फिर क्या है अहंकार?
उस राजा ने कहाः अहंकार तो एक भाव है, एक चित्त की दशा है।
उसने कहाः चलो दूसरी बात मान लेता हूं कि अहंकार भाव है। अब आंख बंद करके बैठ जाओ और खोजो कि वह भाव कहां है? और तुम्हें मिल जाए तो मुझे बता देना, वहीं मैं उसकी हत्या कर दूंगा।
उस अंधेरी रात में, चार बजे सुबह, वह राजा आंख बंद करके बैठ गया और खोजने लगा अपने भीतर कि अहंकार कहां है? और बोधिधर्म सामने डंडा लिए बैठा हुआ था, वह डंडा हमेशा अपने हाथ में रखता था। और उसने कहाः तुम्हें मिल जाए, तो मुझे बस बता भर देना कि पकड़ लिया, मैं उसकी हत्या कर दूंगा। वह सामने बैठा है और राजा को बीच-बीच में डंडे से धक्के देते जाता है कि देखो, ख्याल से खोजो, कोई जगह चूक न जाए, कोई कोना बिना जाना न रह जाए, सारे मन को खोज डालो कि कहां है अहंकार और पकड़ लो उसे वहां कि यहां है, यह है। और तुम जैसे ही कह सकोगे कि यह है, मैं उसकी हत्या कर दूंगा।
आधी घड़ी बीती, घड़ी बीती, वह जो राजा बैठा था, उसके चेहरे पर बड़ा तनाव, खोज रहा है। लेकिन धीरे-धीरे चेहरे का तनाव शिथिल होता गया, उसके चेहरे के स्नायु तंतु शिथिल होते गए, उसका चेहरा एकदम शांत होता गया। घंटा बीता, दो घंटा बीता, वह खोज रहा है। लेकिन अब, अब उसकी आंखों के आस-पास कोई बड़ी शांति इकट्ठी होने लगी। उसके ओंठों के आस-पास कोई मुस्कुराहट घनी होने लगी। वह खोज रहा है, और सुबह होने लगी और सूरज निकलने लगा और सूरज का प्रकाश आने लगा और उसके चेहरे पर सूरज की रोशनी पड़ने लगी। वह कोई दूसरा आदमी हो गया। और बोधिधर्म ने उसे हिलाया और कहाः मित्र, कब तक खोजते रहोगे?
उसने आंख खोली, उसने बोधिधर्म के पैर पड़े और कहाः मैं जाता हूं। जिसकी हत्या के लिए मैं आया था, वह है ही नहीं। मैंने आज तक खोजा नहीं, इसलिए वह था; आज मैंने खोजा, तो पाया कि वह नहीं है।
बोधिधर्म ने कहाः वैसा ही है यह, जैसे किसी घर में अंधेरा हो और किसी आदमी को हम कहें कि जाओ दीया ले जाओ और खोजो कि कहां है? दीया लेकर वह भीतर जाए, तो अंधेरा नहीं मिलेगा। अंधेरा होता है, क्योंकि दीया नहीं होता। और दीया लेकर भीतर कोई जाता है, तो पाता है, अंधेरा नहीं है। ऐसे ही जब कोई सम्यकरूपेण मन के भीतर होशपूर्वक दीया लेकर जाता है--विचार का, विवेक का, प्रज्ञा का दीया लेकर खोजता है भीतर, तो पाता है, वहां कोई अहंकार नहीं है। जब तक नहीं जाता खोजने, तब तक अहंकार है। हमारी अनुपस्थिति अहंकार है, जैसे ही हम भीतर उपस्थित होते हैं खोजने को, वहां कोई अहंकार नहीं है।
सुना है ऐसा मैंने कि एक बार अंधकार ने भगवान की अदालत में शिकायत कर दी थी और अर्जी दे दी थी कि सूरज मेरे पीछे नाहक पड़ा हुआ है। रोज सुबह से सांझ तक मुझे परेशान करता है। और मैंने आज तक इसका कुछ बिगाड़ा नहीं, कोई कसूर नहीं किया, कोई झगड़ा नहीं है। पता नहीं करोड़ों-करोड़ों साल से इसको क्या सूझ गई है कि रोज सुबह से मौजूद हो जाता है और मुझे परेशान करता है, मेरा पीछा करता है। आप सूरज को समझा दें।
भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम क्यों पड़े हो व्यर्थ अंधेरे के पीछे? क्या बिगाड़ा है उसने तुम्हारा?
सूरज ने कहाः कैसा अंधेरा? कौन अंधेरा? मेरा आज तक उससे मिलना नहीं हुआ। कौन कहता है कि मैं उसके पीछे पड़ा हूं? मेरी कोई मुलाकात भी नहीं है। झगड़े का तो कोई सवाल नहीं है। कहां है वह अंधेरा? उसे मेरे सामने ले आएं। और अगर वह मेरी शिकायत करे तो मैं माफी मांग लूं और सदा के लिए उसका पीछा बंद कर दूं। लेकिन वह है कहां?
इस बात को हुए बहुत दिन हो गए। भगवान भी थक गए, वे अभी तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं ला सके हैं। मामला वहीं पड़ा हुआ है, फाइल के भीतर ही पड़ा हुआ है। और वह फाइल में ही पड़ा रहेगा। भगवान की अदालत में यह फैसला हो नहीं पाएगा कभी, क्योंकि अंधेरे को सूरज के सामने लाया नहीं जा सकता।
आत्मा के सामने अहंकार को नहीं लाया जा सकता। ज्ञान के सामने अहंकार को नहीं लाया जा सकता। अवेकंड माइंड के सामने, जागे हुए मन के सामने अहंकार को नहीं लाया जा सकता। तो सवाल क्या है? सवाल सीधा और साफ है। सवाल यह है कि हम किस भांति जाग जाएं और भीतर देख सकें। अगर हम भीतर जाग कर देख सकें तो वहां कोई ईगो, कोई अस्मिता, कोई अहंकार, कोई मैं वहां नहीं है। फिर वहां जो है वही परमात्मा है, फिर वहां जो है वही मोक्ष है, फिर वहां जो है वही निर्वाण है। फिर उसे कोई कोई नाम दे दे, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। वहां जो है, वही परम आनंद है, वही परम सत्य है।
कैसे हम जाग जाएं? कैसे हम भीतर ज्योति जगा लें? कैसे भीतर दीया जल जाए और हम खोज सकें?
जल सकता है। ज्योति मौजूद है, दीया मौजूद है, सब कुछ मौजूद है, सिर्फ हमारी दृष्टि उस ओर नहीं है, सिर्फ हमारा ख्याल, सिर्फ हमारे विचार की दिशा और गति उस ओर नहीं है। सब मौजूद है, चित्त पूरी तरह तैयार है, जागरण की पूरी की पूरी सामग्री साथ है। सिर्फ हमारा ख्याल नहीं है, हमारा विचार नहीं है, हमारी दृष्टि नहीं है। और हमारी दृष्टि जिस तरफ है, तीन दिनों मैंने आपसे बातें की हैं, उस तरफ की दृष्टि इस तरफ दृष्टि को जाने नहीं देती। एक ही सूत्र है समस्त जीवन के सार को उपलब्ध करने का, एक ही विज्ञान है, एक ही सीक्रेट है, और वह है स्वयं के भीतर जागरण को, होश को, अवेयरनेस को उपलब्ध कर लेना। कैसे जागें?
तीन छोटी-छोटी बातें इस संबंध में इस अंतिम चर्चा में आपसे मैं कहूंगा।
वे बातें छोटी हैं, लेकिन उनका प्रयोग बहुत वृहत परिणाम ला सकता है। उससे बड़ा और कोई परिणाम किसी बात से नहीं आता। एक छोटी सी चिनगारी पूरे पर्वत में आग लगा सकती है। ऐसे ही छोटे से तीन सूत्र हैं जागरण के, वे उपलब्ध हों तो अहंकार नहीं पाया जाता है। और जो पाया जाता है, वही आत्मा है।
पहला सूत्रः हमारे चारों तरफ जो जगत है, उसके प्रति हमें जाग्रत होना चाहिए, सोए हुए नहीं। हम उसके प्रति सोए हुए हैं। क्या आपको ख्याल है, कभी आपने सड़क पर चलते हुए लोगों को पांच मिनट के लिए रुक कर होश से देखा हो? क्या आपको ख्याल है कि दरख्तों के पास बैठ कर आपने पांच मिनट दरख्तों को होश से देखा हो? क्या आपको ख्याल है, सुबह उगते सूरज को पांच क्षण ठहर कर आपने पूरे विवेक से देखा हो, पूरे जागरण से? रात के आकाश के तारे कभी देखे हों? सब भांति शांत और मौन होकर देखा हो? सब तरह के विचार को छोड़ कर, निर्विचार होकर, शांत होकर, चारों तरफ जो दुनिया फैली है, उसे पहचाना हो, उसके प्रति आंखें खोली हों?
नहीं खोली हैं, हम करीब-करीब सोए-सोए चले जाते हैं। चलते रहते हैं सोए-सोए। सोए-सोए चलने का, स्लीपिंग हालत में चलने का मतलब मेराः दुनिया बाहर होती है, हम भीतर आक्युपाइड होते हैं, भीतर विचार में उलझे होते हैं। विचार की एक धुंधली परत भीतर चलती रहती है। बाहर सड़क पर आप चले जा रहे हैं, लोग समझते हैं कि आप सड़क पर चल रहे हैं, और हो सकता है मन में आप आकाश में उड़ रहे हों। लोग समझ रहे हैं कि आप सड़क पर चल रहे हैं, और हो सकता है आप अपने घर में अपनी पत्नी से झगड़ा कर रहे हों। लोग समझते हैं कि आप सड़क पर चल रहे हैं, हो सकता है आप इजरायल में किसी की हत्या कर रहे हों। आप कहां हैं, चल कहां रहे हैं, ये दोनों दो बातें हैं। चित्त आपका कहीं और है, चलना कहीं और, तो चलना सोया हुआ होगा, जागा हुआ नहीं हो सकता। कोई भी क्रिया जागी हुई तब होती है, जब चित्त भी वहीं होता है जहां क्रिया होती है।
तो बाहर के जगत के प्रति जागरण का प्रयोग! कैसे करें?
कभी अचानक ठहर जाएं। चलते-चलते रास्ते पर रुक जाएं और जरा देखें--चारों तरफ क्या है? कभी घर की छत पर आंख खोल कर बैठ जाएं और देखें--ये तारे क्या हैं? कुछ सोचें न, सिर्फ देखें। क्योंकि आपने सोचा कि आप कहीं और गए। सोचा कि आप सोए। आपने सोचना शुरू किया कि जो मौजूद है वह हट गया और कोई चीज जो मौजूद नहीं है, आ गई।
एक गुलाब के फूल के पास आप बैठे हैं, और आपने सोचना अगर शुरू कर दिया गुलाब के फूल के बाबत, तो वह जो फूल आपके सामने है, उसके प्रति आप सो गए। हो सकता है आपने गुलाब के फूल पर जो कविताएं पढ़ी हों, वे याद आ जाएं, और जिन मित्रों ने आपको गुलाब के फूल भेंट किए हों, वे याद आ जाएं, या गुलाब के फूल से जो-जो एसोसिएशन हों, जो-जो संबंध हों, वे याद आ जाएं, लेकिन यह गुलाब का फूल जो मौजूद है, इसके प्रति आप सो गए, आपका मन कहीं और गया।
चीजों के प्रति जागने का मतलब हैः सोचें नहीं, देखें। और हम देखने में इतने असमर्थ हो गए हैं कि एक पति अपनी पत्नी, जिसके पास वह वर्षों से रह रहा है, उसको भी नहीं देख पाता। उसको भी उसने कभी आंख भर कर पूरी तरह देखा नहीं है। एक पिता अपने बेटे को कभी देखता नहीं कि पूरी तरह देखा हो--क्या है यह? एक मित्र अपने मित्र को नहीं देखता है। और आप हैरान हो जाएंगे, कभी जरा पांच मिनट आंख बंद कर लें और अपनी मां का चेहरा स्मरण करें। आप हैरान हो जाएंगे, आपको मां का चेहरा तक स्मरण नहीं आएगा। कभी देखा ही नहीं ठीक से, स्मरण कैसे आएगा? पांच मिनट आंख बंद करके ख्याल करें--मेरी मां का चेहरा कैसा? तो सब रेखाएं धुंधली हो जाएंगी, वहां कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा। बड़ी हैरानी होगी कि मां का चेहरा भी मुझे स्पष्ट, मेरी स्मृति में नहीं है। क्यों? हां, ऐसे अगर ख्याल न करें तो शायद आपको यह ख्याल होगा कि मुझे याद है अपनी मां का चेहरा। लेकिन आज ही आप जरा कोशिश करना आंख बंद करके, तो आपको पता चलेगा कि सब रेखाएं मिट जाती हैं, बिगड़ जाती हैं। मां का चेहरा भी पकड़ में नहीं आता कि ठीक-ठीक कैसा है? मां की आंख कैसी थी? कैसी है? क्या उसकी आंखों में भाव हैं, वे कुछ भी न पकड़ेंगे। कभी आपने देखी नहीं है गौर से। किसने देखी है अपनी मां की आंख को गौर से? जिसे हम प्रेम करते हैं, उसको भी हमने कभी देखा थोड़े ही है। उसके पास से निकल जाते हैं सोए-सोए, दूसरी पच्चीस बातें सोचते हुए। उसके पास बैठे रहते हैं, जिस मित्र को हम प्रेम करते हैं, उसको गले से लगाए बैठे रहते हैं, लेकिन हमारा मन तो न मालूम कहां होता है। इसलिए दिखाई हमें पड़ता है कि हम किसी को गले से लगाए हैं, लेकिन हमारे बीच हजारों मीलों का फासला होता है, क्योंकि हम कहीं और होते हैं। ऐसा सारा जीवन सोया-सोया है। इस सोए-सोए जीवन में जब हम बाहर के प्रति ही नहीं जाग सकते, तो भीतर के प्रति क्या जागेंगे, वह तो बहुत कठिन बात है।
तो पहला सूत्र हैः बाहर के प्रति जागना। जो भी बाहर दिखाई पड़े--बहुत है बाहर, क्या नहीं है बाहर--उसे बहुत ध्यान से देखना, बहुत ध्यान से सुनना, सारी इंद्रियों का अत्यंत ध्यान से, बहुत इंटेंसिवली उपयोग करना। भोजन करते वक्त पूरी तरह स्वाद लेना जरूरी है; आंख खोल कर फूल को देखते वक्त पूरी तरह उसके सौंदर्य को पी लेना जरूरी है; संगीत सुनते वक्त उसकी ध्वनियों को कानों के पूरे-पूरे प्राणों तक पहुंच जाना जरूरी है; किसी का हाथ हाथ में लें, तो उसका हाथ हाथ से जुड़ जाना जरूरी है। इतनी समग्रता से, इतने होश से, इतनी तन्मयता से जब कोई व्यक्ति बाहर के जीवन में जीना शुरू करता है, तो एक अवेयरनेस, एक जागरण, एक ज्योति उसके भीतर जागनी शुरू होती है।
फिर यही ज्योति दूसरे सूत्र में मन के प्रति लगानी होती है। मन है भीतर, विचारों से भरा हुआ, विचार ही विचार हैं वहां। कामनाएं, कल्पनाएं, इच्छाएं हैं वहां, स्मृतियां हैं, भविष्य की आकांक्षाएं हैं, वे सब मन के भीतर चल रही हैं। जैसे सड़क पर लोग चल रहे हैं, ऐसा मन में भी यात्रा चल रही है बहुत सी चीजों की। पहले बाहर के प्रति जागें, फिर मन के प्रति जागें। फिर मन को देखें कि यह क्या हो रहा है मन के भीतर?
हम सोए-सोए चल रहे हैं, मन के प्रति हमने कभी देखा ही नहीं कि वहां क्या हो रहा है। हम अपने काम में लगे हैं और मन अपना काम कर रहा है। हमें ख्याल भी नहीं है कि मन में क्या हो रहा है, कितना हो रहा है, कितनी बड़ी फैक्टरी वहां चौबीस घंटे चल रही है। अगर कोई आपके दिमाग से सारी की सारी फैक्टरी को बाहर निकाल कर रख दे, तो पूरा शैतान का कारखाना वहां मिलेगा। वहां क्या हो रहा है, नहीं कहा जा सकता।
एक छोटे से आदमी के मन के भीतर कितना क्या चल रहा है, उसे भी देखना और जानना जरूरी है, उसके प्रति भी जागना जरूरी है, उसके प्रति भी होश रखना जरूरी है। कभी दो क्षण बैठ कर उसे भी देखें कि मन के भीतर क्या हो रहा है। लेकिन हम तो कभी मन को देखते भी नहीं कि वहां क्या होता है। शायद हम डरते हैं, शायद हम भयभीत हैं कि पता नहीं वहां क्या हो रहा हो। कौन देखे! चले चलो, अपने काम में उलझे रहो। हम इसीलिए काम में उलझे रहते हैं कि कहीं भीतर देखने का मौका न आ जाए, नहीं तो बड़ी पीड़ा भी हो सकती है। क्योंकि जो आदमी समझता है कि मैं साधु हूं, हो सकता है उसके मन में किसी की हत्या के ख्याल चल रहे हों, वह कैसे भीतर देखे? भीतर देखे तो अहंकार को चोट लगती है कि मैं हूं साधु, मैं हूं अच्छा आदमी, हजार लोग मेरे पैर पड़ते हैं और महाराज-महाराज कहते हैं और मेरे भीतर यह चलता है? तो वह उसको देखना ही बंद कर देता है, ताकि जो दिखेगा ही नहीं, समझेंगे कि वह है ही नहीं। जैसा कि रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग होता है, दुश्मन आता है तो सिर गपा कर खड़ा हो जाता है रेत में। दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता। शुतुरमुर्ग सोचता है, जो दिखाई पड़ता नहीं, वह है ही नहीं। आसानी से छुटकारा हो गया।
ऐसे ही हम शुतुरमुर्ग की तरकीबें काम में लाते हैं। मन को देखते नहीं, ताकि पता ही न चले कि क्या है। जितना हम फिकर करते हैं अपने कपड़ों की कि वे ठीक हैं कि गलत; अपने जूतों की कि उनमें कील निकली है कि नहीं; अपने बालों की कि वे ठीक काढ़े गए कि नहीं; उतनी फिकर भी हम उस मन की नहीं करते जो हमारे प्राणों में भीतर बैठा है कि वहां क्या हो रहा है! वहां कितनी कीलें हैं, वहां कितनी गंदगी है, वहां कितना सब अव्यवस्थित है, कितना डिसऑर्डर है, कितनी अनार्की है, कितनी अराजकता है, कितना पागलपन है, वहां कोई देखने की फिकर नहीं। हम अपने कपड़े ठीक-ठाक कर लेते हैं, बाहर से इत्र छिड़क लेते हैं, फूल सजा लेते हैं और चल पड़ते हैं। और भीतर क्या लिए हुए हैं? उसके प्रति भी जागना बहुत जरूरी है।
अत्यंत निष्पक्ष भाव से, जो भी चलता हो मन में, बुरा-भला, कुछ भी, उसे शांति से देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें। और आप हैरान हो जाएंगे, उसे देखते-देखते ही आपको दो बातें पता चलेंगी। एक, कि जिसे आप देख रहे हैं वह और आप अलग हैं। एक यह बहुत क्रांतिकारी बोध होगा कि विचारों को जिन्हें आप देख रहे हैं, वे अलग हैं, आप अलग हैं। नहीं तो आप देख भी नहीं सकते थे, देखने वाला अलग है। और यह बोध आ जाएगा कि देखने वाला अलग है, तो मन एकदम बदल जाएगा, बात दूसरी हो जाएगी, मैं अलग हूं, विचार अलग हैं। एक संबंध टूट जाएगा, मैं अलग हूं, विचार अलग हैं। फिर विचारों की कोई पीड़ा, बोझ, भार नहीं रह जाएगा मन पर। जो अलग है, वह बात खत्म हो गई।
दूसरी बात, देखते-देखते यह पता चलेगी, जैसे कोई हवाई जहाज से उड़ रहा हो, नीचे के मकानों को देखे, तो मकान सब जुड़े हुए मालूम पड़ते हैं, दो मकानों के बीच में खाली जगह मालूम नहीं पड़ती। अभी आप इतने लोग यहां बैठे हैं, अगर हजार फीट ऊपर से जाकर मैं देखूं, तो आपके बीच में कोई खाली जगह दिखाई नहीं पड़ेगी। लेकिन मैं धीरे-धीरे, धीरे-धीरे करीब आऊं, तो हर आदमी और उसके पड़ोसी के बीच में खाली जगह दिखाई पड़ेगी, इंटरवल होगा, गैप होगा। जब आप विचारों के प्रति जागेंगे और उनके करीब आकर देखेंगे, तो दूसरी बात आपको पता चलेगी--हर दो विचारों के बीच में थोड़ी सी खाली जगह है, जहां कोई विचार नहीं है। एक विचार जाता है, फिर दूसरा आता है, दोनों के बीच में एक खाली जगह है, जहां कोई विचार नहीं है, इंटरवल है, गैप है। वह गैप बड़ा अदभुत है। उसी खाली जगह में आपकी आत्मा है। उसी विचार-शून्य क्षण में आप गहरे कूद सकते हैं। वही जगह है जहां से आप भीतर छलांग ले सकते हैं। जब आपको ये गैप दिखाई पड़ेंगे तो आपको पता चलेगाः विचार मैं नहीं हूं, बल्कि जो रिक्त जगह है वह मैं हूं। और जैसे ही यह बोध होगा कि जो रिक्त स्थान है, जो खाली शून्य अंतराल है, वह मैं हूं, वह जो स्पेस है बीच में, वह मैं हूं, तो आपको आत्मा की तरफ जागने का पहला मौका इन्हीं रिक्त स्थानों में से मिलेगा।
और तीसरा जागरण है आत्मा का। वह आपको करना नहीं पड़ता है। दो जागरण आप करते हैं, तीसरा जागरण अनायास अपने आप घटित होता है। दो काम आप करते हैं, तीसरा काम परमात्मा करता है। बाहर के प्रति और उस मन के प्रति आप जाग जाएं, तीसरा जागरण अपने से, अपने से पैदा होगा। तीसरा जागरण, दो जागरण का अनिवार्य परिणाम है। जैसे एक किसान बीज बो देता है, फिर बीज बोने के बाद पौधे की रक्षा करता है, फिर पौधे में फल आते हैं, फूल आते हैं। लेकिन फूल लाने नहीं पड़ते, फूल अपने आप आते हैं। बीज बोना पड़ता है, पौधे की सम्हाल करनी पड़ती है, लेकिन फूल लाने नहीं पड़ते, वे अपने आप आते हैं। उनको कोई खींच-खींच कर नहीं निकालता कि अब फूल भी निकालें, जैसे बीज बोए थे, अब फूल भी निकालें। और किसी ने अगर फूल निकालने की कोशिश की, तो फिर फूल कभी न निकलेंगे। फूल तो अपने से आते हैं, वह फ्लावरिंग अपने से होती है। दो काम किसान करता है, बीज बोता है, पौधे की रक्षा करता है; तीसरा काम परमात्मा करता है, फूल खिलाने का।
जीवन की खोज में भी जागरण का बीज मनुष्य को बोना पड़ता है। जागरण की रक्षा मनुष्य को करनी पड़ती है। और वह जो परम जागरण है, उसके फूल अपने आप आते हैं। वे सहज आते हैं, वे परमात्मा की तरफ से आते हैं। वह हमारे श्रम की भेंट है परमात्मा की ओर से। वे हमें खींच कर नहीं लाने पड़ते।
इसलिए दो जागरण आप साधें, तीसरा जागरण आपको उपलब्ध होता है। इसीलिए जब तीसरा जागरण उपलब्ध होता है, तो साधक को पता चलता है कि मैंने क्या किया, यह तो अपने आप आया! और तभी वह परमात्मा के प्रति कृतज्ञता और ग्रेटिट्यूड से भर जाता है। वह कहता हैः मैंने क्या किया? मैंने तो कुछ और ही किया था, जिसका कोई मूल्य नहीं है। और यह जो मिल गया है, यह तो मैं जानता भी नहीं था कि मैंने कभी किया। यह क्या हो गया? एक बिल्कुल अनूठा, अद्वितीय, अलौकिक, अज्ञात, अननोन अनुभव उसके ऊपर अवतरित हो जाता है। वह उसे ग्रेस मालूम होती है, वह भगवत्-कृपा मालूम होती है, लगता है कि भगवान की कृपा से यह हो गया। वह सहज तीसरी घटना घटती है। वह तीसरी घटना घट सके, उसके लिए दो घटनाओं की तैयारी हर मनुष्य को करनी होती है।
इधर तीन दिनों में मैंने तीन बंधन तोड़ने को आपसे कहे--ज्ञान का, कर्म का और आज अहंकार का। कैसे यह अहंकार का बंधन विलीन हो सकता है, उसकी मैंने आपसे बात की। कैसे यह जागरण जाग्रत हो सकता है भीतर, जिसके प्रकाश में अहंकार नहीं पाया जाएगा; कैसे यह सूरज लाया जा सकता है, जिसके सामने अंधकार नहीं होगा--उसकी मैंने आपसे बात कही।
लेकिन बातों से कुछ भी नहीं होता है। बातें सुनने में कितनी भी अच्छी लगती हों, इससे भी कुछ नहीं होता है। बल्कि अक्सर यह होता है कि जो बातें हमें सुनने में अच्छी लगती हैं, हम उन्हें इसीलिए सुन लेते हैं कि वे अच्छी लगती हैं और बात खत्म हो जाती है। अच्छी बातों में एक खतरा है, बड़ा खतरा अच्छी बातों में यह है कि वे सुखद लगती हैं और हम सुन कर उनका सुख ले लेते हैं और बात समाप्त हो जाती है।
बात समाप्त नहीं होनी चाहिए। क्योंकि जो बात सुनने में तक अच्छी लगती हो, काश वह हमारे अनुभव में आ जाए तो क्या होगा! जो बात सुनने में भी एक सौंदर्य की तरफ, एक संगीत की तरफ मन को खोलती हो--सुनने में, जिसका कोई बड़ा मूल्य नहीं है--अगर वह बात घटित हो जाए, तो क्या होगा! अगर वह स्थिति उपलब्ध हो जाए, तो क्या होगा! कैसे आनंद में और कैसे नृत्य में हमारा प्रवेश हो जाएगा! कैसे आलोक में हम प्रतिष्ठित हो जाएंगे!
तो अंतिम रूप से यह कहूंगा कि परमात्मा करे, वह प्यास इन बातों से आपके भीतर गहरी हो, जो इन बातों को केवल सुनने का सुख न बनाए, बल्कि किसी दिन अनुभूति के आनंद में परिवर्तित कर दे। तो अंतिम रूप से यह बात कहता हूंः परमात्मा प्यास को जगाए, गहरी करे, आपके प्राणों को परेशान कर दे, आपको इतने असंतोष से भर दे, इतनी गहरी प्यास से भर दे कि आप बेचैन हो उठें, जब तक कि उस तरफ का द्वार न खुल जाए जहां से शांति के सागर की धारा उपलब्ध होती है। आप पागल हो उठें, जब तक कि वह द्वार न खुल जाए, उस द्वार को ठोकते ही चले जाएं, पीटते ही चले जाएं, जब तक कि उस द्वार से खुलने की खबर न आ जाए।
क्राइस्ट ने कहा हैः नॉक एंड दि डोर शैल बी ओपन्ड अनटु यू। खटखटाओ और द्वार तुम्हारे लिए खुल जाएंगे। लेकिन मैं तो यह कहता हूंः खटखटाने की तो बात दूर, द्वार के करीब तो आओ, द्वार के पास तो आओ, पास आते ही द्वार खुल जाएंगे। और यह भी बात दूर कि द्वार खुल जाएंगे, सच तो यह है कि हम दूर खड़े हैं, इसलिए द्वार बंद हैं। हम पास हुए कि द्वार खुले ही हुए हैं। परमात्मा के द्वार बंद नहीं हैं, लेकिन हम दूर खड़े हैं। यही उनके बंद होने का एकमात्र कारण है, और कोई भी नहीं। हम निकट हुए कि वे खुले। शायद वे खुले ही हैं, दूर होने की वजह से हमें बंद दिखाई पड़ते हैं। पास होते ही पाया जाता है कि वे खुले हैं। तो प्यास जगे और हम द्वार के करीब आएं।
बातें अर्थपूर्ण नहीं हैं। लेकिन बातों से प्यास जग जाए तो प्यास अर्थपूर्ण है। उस प्यास के लिए कुछ, उस प्यास के लिए कुछ मुझे नहीं, आपको करना होगा। और उस प्यास के लिए निपट रूप से आपको करना होगा, कोई साथी और सहयोगी नहीं हो सकता, कोई पड़ोसी आपका साथ नहीं दे सकता। अपने ही निगूढ़ अंतर्तम में, अपने ही एकांत में, अपने ही प्राणों के भीतर उस प्यास को जगाना होगा। जो जगा लेते हैं, वे धन्यता को उपलब्ध हो जाते हैं। जो नहीं जगा पाते, उनका जीवन एक दुख-स्वप्न से ज्यादा नहीं है।
इतनी ही बात अभी सुबह मुझे आपसे कहनी है। कुछ और आपके प्रश्न होंगे इस संबंध में, वह मैं दोपहर और रात बात करूंगा। अब हम सुबह के ध्यान के लिए थोड़ी देर बैठेंगे, एक दस मिनट के लिए।
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