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बुधवार, 22 अगस्त 2018

अपने माहिं टटोल-(प्रवचन-09)

अपने माहिं टटोल-(साधना-शिविर)

नौवां प्रवचन-नई संस्कृति की खोज

मेरे प्रिय आत्मन्!
पिछली चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मेरे पास आए हैं। सभी प्रश्न बहुत अर्थपूर्ण, बहुत महत्व के हैं। कुछ थोड़े से प्रश्नों पर अभी और कुछ पर रात में विचार करेंगे। प्रश्न चूंकि बहुत हैं, मैं बहुत थोड़े संक्षेप में एक-एक का उत्तर देने की कोशिश करूंगा।
सबसे पहले, एक मित्र ने पूछा है, और वैसी बात करीब-करीब पूरे मुल्क में जगह-जगह पूछी जाती है। आप सबके मन में भी वह प्रश्न उठता होगा। उन्होंने पूछा हैः आजकल की दुनिया खराब हो गई है। अभी यह जो गीत गाया, उसमें भी यह बात है कि आजकल की दुनिया खराब हो गई है। इस खराब दुनिया को ठीक रास्ते पर कैसे लाया जाए?
इस प्रश्न में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो यह कहना कि आजकल की दुनिया खराब हो गई है, इस बुनियादी भ्रम पर खड़ा हुआ है कि पहले की दुनिया अच्छी थी। यह बात इतनी बुनियादी रूप से गलत है जिसका कोई हिसाब नहीं। पहले की दुनिया भी आज से अच्छी नहीं थी। आज का आदमी खराब हो गया है, इससे ऐसा ख्याल पैदा होता है कि पहले का आदमी बहुत अच्छा था। शायद आपको पता नहीं कि इस तरह के ख्याल के पैदा हो जाने का कारण क्या है।

जमीन पर जो पुरानी से पुरानी किताबें उपलब्ध हैं, सबसे पुरानी किताब चीन में उपलब्ध है, जो कोई छह हजार वर्ष पुरानी है। उस पुरानी किताब में भी यह लिखा हुआ है कि आज की दुनिया खराब हो गई है, पहले के लोग बहुत अच्छे थे। ये पहले के लोग कब थे? आज तक एक भी ऐसी किताब नहीं मिली है, जिसने यह कहा हो--अभी के लोग अच्छे हैं, जो लोग मौजूद हैं, ये अच्छे हैं। अब तक मनुष्य-जाति के पास ऐसा एक भी उल्लेख नहीं, जो यह कहता हो--अभी के लोग अच्छे हैं। पहले के लोग अच्छे थे। ये पहले के लोग कब थे? बुद्ध और महावीर यह कहते हैं कि जमाना खराब हो गया, लोग बुरे हैं, पहले के लोग अच्छे थे। क्राइस्ट यह कहते हैं कि लोग बुरे हैं, पहले के लोग अच्छे थे। ये पहले के लोग कब थे? और अगर अच्छे लोग जमीन पर थे, तो अच्छे लोगों से बुरे लोग पैदा कैसे हो गए? वह अच्छी संस्कृति से बुरी संस्कृति पैदा कैसे हो गई? उस अच्छे से विकार कैसे पैदा हो गया?
नहीं, सच्चाई कुछ और है। सच्चाई बिल्कुल उलटी है। अगर पहले के लोग अच्छे थे तो युद्ध कौन करता था? हिंसा कौन करता था? पुरानी से पुरानी युद्ध की कथा हमारी महाभारत की है, वे लोग अच्छे लोग थे? अपनी पत्नियों को दांव पर लगाने वाले लोग अच्छे थे? आज एक साधारण आदमी भी अपनी पत्नी को दांव पर लगाने में दो दफा विचार करेगा, सोचेगा--यह उचित है? लेकिन उस समय, जिसको हम कहें कि जो धर्म का बहुत विचारशील आदमी था, वह भी विचार नहीं कर रहा है पत्नी को दांव पर लगाते वक्त। जुआ खेलने में कोई संकोच नहीं हो रहा है उसे। अपने ही भाई की पत्नियों को नंगा करने में किसी को कोई संकोच नहीं हो रहा है बीच सभा में। और वहां जो लोग बैठे हैं, वे बड़े विचारशील हैं, धर्म के ज्ञाता हैं, वे भी बैठे देख रहे हैं। ये लोग अच्छे थे? तो फिर महाभारत क्यों हो गया? इतना संघर्ष, इतना रक्तपात क्यों हो गया, अच्छे लोग थे तो?
अच्छे लोग एक मिथ, एक कल्पना और कहानी है। नहीं तो बुद्ध ने किन लोगों को समझाया कि चोरी मत करो? महावीर ने किनको समझाया कि हिंसा मत करो? अगर लोग अहिंसक थे, तो महावीर पागल थे, ढाई हजार साल पहले किसको समझा रहे थे कि चोरी मत करो, हिंसा मत करो, दूसरे की स्त्री पर बुरी नजर मत रखो? लोग रखते होंगे, तभी तो समझा रहे थे, नहीं तो समझाएंगे कैसे? यह ब्रह्मचर्य का उपदेश किसको दे रहे थे? अगर सारे लोग ब्रह्मचर्य को मानते थे, तो ब्रह्मचर्य का उपदेश किसके लिए था? और अगर सारे लोग ईमानदार थे, तो ईमानदारी की शिक्षाएं हमारे ग्रंथों में क्यों लिखी हुई हैं? किसके लिए लिखी हुई हैं? लोग बेईमान रहे होंगे, तब तो ईमानदारी की शिक्षा की बात लिखी है ग्रंथों में, नहीं तो कौन लिखता? जरूरत रही होगी जिंदगी को कि ईमानदारी कोई सिखाए। लोग बेईमान रहे होंगे, लोग हत्यारे रहे होंगे, लोग चोर रहे होंगे, तब तो अचौर्य समझाया जा रहा है, अहिंसा समझाई जा रही है। और लोग एक-दूसरे को घृणा करते रहे होंगे, तब तो प्रेम के इतने उपदेश दिए गए हैं, नहीं तो किसको दिए जाते?
लेकिन भ्रम कुछ और बातों से पैदा हो जाता है। हर युग में अच्छे लोग होते हैं। उन थोड़े से अच्छे लोगों की कथा बच रहती है, बाकी लोगों के जीवन का कोई हिसाब नहीं बचता। हमारे युग में गांधी थे। दो हजार साल बाद, हम जो लोग बैठे हैं, हमारी कोई कथा बच रहेगी? लेकिन गांधी की बच रहेगी। और दो हजार साल बाद लोग गांधी को कहेंगे, इतना अच्छा आदमी था, उस युग के लोग कितने अच्छे रहे होंगे! गांधी से वे सारे युग को तौल लेंगे, जो कि बिल्कुल झूठी तौल होगी। गांधी अपवाद था, नियम नहीं था। और दो हजार साल बाद, जब हम सबकी कोई कथा शेष नहीं रह जाएगी और गांधी की कथा शेष होगी, तो गांधी के आधार पर हम सबके बाबत जो निर्णय लिया जाएगा, वह बिल्कुल झूठा होगा। हम तो गांधी के हत्यारे हैं। लेकिन दो हजार साल बाद लोग कहेंगेः गांधी इतना अच्छा आदमी था, उसके समाज के लोग कितने अच्छे नहीं रहे होंगे!
तो राम और कृष्ण, बुद्ध और महावीर, दो-चार नामों के आधार पर हम उस जमाने के लोगों के बाबत सोचते हैं। वह सोचना बिल्कुल फैलेसी है, बिल्कुल झूठ है। ये आदमी अपवाद थे। ये नियम नहीं थे। जहां तक सामान्य आदमी का संबंध है, आदमी विकसित हुआ है, उसका पतन नहीं हुआ है, उसका कोई ह्नास नहीं हुआ है। आदमी, सामान्य आदमी विकसित हुआ है। उसके जीवन में पीछे के आदमी से गति हुई है, उसके विचार में गति हुई है, उसकी चेतना में विकास हुआ है।
कई कारणों से यह बात कही जा सकती है। मैं कोई कारण नहीं देखता हूं कि लोग पहले से बुरे हो गए हैं। लोग पहले से भले हो गए हैं।
मैं तीन दिन से जो बातें कह रहा हूं, अगर ये ही बातें मैंने दो हजार साल पहले कही होतीं, आप मेरी हत्या कर देते। आप ज्यादा बेहतर आदमी हैं, दो हजार साल पहले के आदमी से।
क्राइस्ट ने ऐसी कौन सी बात कह दी थी जिसकी वजह से लोगों ने क्राइस्ट को सूली पर लटका दिया? जो क्राइस्ट ने कहा था, तीन दिनों में मैंने उससे बहुत ज्यादा तीखी और आपको चोट पहुंचाने वाली बातें कही हैं, लेकिन आपमें से किसी ने पत्थर भी नहीं मारा, फांसी लगाने की तो बात दूसरी है।
क्राइस्ट के पास जो लोग थे, उनसे आप बेहतर आदमी हैं। सुकरात को जिन लोगों ने जहर पिलाया था, उनसे आप बेहतर आदमी हैं। जितना पीछे हम लौटते हैं, आदमी विचारपूर्ण नहीं है, आदमी अत्यंत अंधा है, अत्यंत अविचारपूर्ण है। विचार विकसित हुआ है, विचार आगे गया है, मनुष्य की चेतना ने नई-नई बातें विचार की हैं, नये स्पर्श किए हैं, नये अनुभव किए हैं, नई दिशाएं खोली हैं।
थोड़ा सोचें, हमारी सदी पहली सदी है, जिसने युद्ध के विरोध में सामूहिक आवाज दी है। आज तक युद्ध स्वीकृत था। पिछली किसी भी सदी ने यह नहीं कहा कि युद्ध पाप है। यह पहला मौका है कि इन दो महायुद्धों के बाद सारी दुनिया में जो भी विचारशील है, वह कह रहा है, युद्ध पाप है। आज युद्ध के विरोध में जितनी चेतना है, उतनी दुनिया में कभी भी नहीं थी। आज हिंसा के विरोध में जितनी चेतना है, उतनी कभी भी नहीं थी। आज जितना भाईचारा सारे जगत में मनुष्य-मनुष्य के बीच पैदा हुआ है, उतना कभी नहीं था। आज जितना उदार है मनुष्य, उतना कभी भी नहीं था। आज जितने उसके हृदय के द्वार दूसरों के लिए भी खुले हैं, उतने कभी भी नहीं खुले थे। जितना हम पीछे लौटते हैं, उतना नैरो माइंडेड, उतना संकीर्ण आदमी उपलब्ध होता है।
लेकिन आप कहेंगे कि नहीं, पहले का आदमी कम चीजों से तृप्त हो जाता था, उसे बहुत चीजों की जरूरत नहीं होती थी, वह अपरिग्रही था। आज बहुत चीजों की जरूरत है।
यह बात भी एकदम गलत है। चीजें नहीं थीं, यह बात दूसरी है, लेकिन चीजों से तृप्ति कम चीजों में थी, यह बात झूठ है। चीजें नहीं थीं, यह मैं मानता हूं। बुद्ध के समय में किसी आदमी को कार रखने का परिग्रह और वासना पैदा नहीं होती थी, इसका कारण यह मत समझ लेना कि कार के प्रति उसका त्याग था। कार नहीं थी। जो चीजें मौजूद थीं, उनके लिए वह दौड़ में खड़ा हुआ था हमेशा। उन चीजों के लिए कोई इनकार नहीं था उसके मन में। जो चीज नहीं थी, उसकी तो कामना वह नहीं कर सकता था। आज के आदमी का भोग बढ़ गया है, यह बिल्कुल ठीक नहीं है। हां, उसके पास भोग के साधन बढ़ गए हैं, यह जरूर ठीक है। पिछले आदमी के पास भोग के साधन कम थे। जो थे, उन्हीं में वह विचार करता था, उन्हीं में खोज करता था, उन्हीं को पाने की कोशिश करता था। आदमी वही है, उसके पास साधन बढ़ गए हैं। लेकिन इससे कोई आदमी का पतन नहीं हो गया है, बल्कि जिस आदमी ने ये साधन बढ़ाए हैं, वह उसकी उन्नत बुद्धिमत्ता के लक्षण हैं, उसके ज्यादा सोच-विचार और खोज के परिणाम हैं, प्रकृति के ऊपर उसके ज्यादा नियंत्रण की सूचना हैं, प्रकृति के रहस्यों को जानने में उसकी ज्यादा गति के प्रतीक हैं।
और हम सोचते हैं कि पहले के लोग ज्यादा ईमानदार थे, ज्यादा सच्चाई पसंद थे।
यह किस हिसाब पर आप सोचते हैं? किस कारण से आप यह सोचते हैं? अगर पुरानी कथाएं उठा कर पढ़ें, तो जितनी बेईमानी हो सकती है, उनमें मौजूद है; जितने धोखेधड़ियां हो सकते हैं, वे मौजूद हैं; जितना पाखंड हो सकता है, वह मौजूद है; जितना असत्य हो सकता है, वह मौजूद है; जितनी चालाकियां हो सकती हैं, वे सब मौजूद हैं। कोई फर्क नहीं पड़ा है। हां, एक बात में फर्क पड़ गया है। पहले कुछ लोग चालाकियां करते थे, बाकी लोग, चूंकि उनकी बुद्धिमत्ता बहुत कम विकसित थी, चालाकियों के शिकार होते थे। अब चूंकि बड़े पैमाने पर अधिक लोगों की बुद्धिमत्ता विकसित हुई है, इसलिए थोड़े लोगों को चालाकी करने का मौका नहीं है।
यह थोड़ा विचारणीय है। बुद्धिमत्ता का कम होना ईमानदारी नहीं है। दुनिया में बुद्धिमत्ता विकसित हुई है, इसलिए चालाकी में भी, अगर आप आगे हैं, तो दूसरे लोग भी आगे हैं, वे आपसे पीछे खड़े होने को राजी नहीं हैं। तो शायद आप सोचते हों कि सभी लोग, सभी लोग वही करने लगे हैं, जो कि थोड़े से बुद्धिमान लोग पीछे करते रहे हैं, वह आज हर आदमी करने में समर्थ हुआ है, क्योंकि बुद्धिमत्ता बहुत बड़े पैमाने पर विकसित हुई है, विवेक और विचार विकसित हुआ है।
जैसे उदाहरण के लिए आपसे कहूं, पुरुषों ने नियम बना रखा था कि विधवाएं विवाह नहीं करेंगी, लेकिन पुरुषों ने अपने लिए नियम नहीं बनाया हुआ था कि विधुर विवाह नहीं करेंगे। पुरुष चालाक रहा होगा, बेईमान रहा होगा, होशियार रहा होगा। आज स्त्रियां भी शिक्षित हुई हैं, उनको यह चालाकी साफ समझ में आ गई है कि पुरुष अपने तो विवाह कर सके विधुर होने के बाद और स्त्री न कर सके, यह कैसा हिसाब है? तो स्त्री अगर आज विधवा होकर विवाह करना चाहती है, तो हम कहते हैंः देखो, कितना पतन हो गया, विधवा विवाह कर रही है! यह सिर्फ स्त्रियों की बुद्धिमत्ता विकसित हुई है और आपकी चालाकी अकेली नहीं चल सकती, तो आज आपको लगता है--यह स्त्री कैसी, देखो पतित हो गई! कभी स्त्रियों ने सोचा था कि विधवा और विवाह करेगी? और आप कैसे विवाह करते रहे थे? स्त्री भी पुरुष के समकक्ष खड़ी हो गई है विचार करने में, तो आज कठिनाई हो रही है पुरुष को।
तीन हजार वर्ष तक हिंदुस्तान में करोड़ों हरिजनों को हमने सताया, शूद्रों को सताया। जो बुद्धिमान थे, उन्होंने उनको जमीन पर लिटा रखा, उनकी छाती पर बैठे रहे। उनके साथ जो भी अनाचार किया जा सकता था, किया गया। उन्हें जिस भांति हीन किया जा सकता था, किया गया। उनके भीतर की मनुष्यता की जिस भांति हत्या की जा सकती थी, वह की गई। न उन्हें ज्ञान, न उन्हें विचार के विकास का कोई मौका दिया गया। आज वे भी बुद्धिमान हो गए हैं। वे इनकार कर रहे हैं कि अब यह आगे नहीं चलेगा। तो हम कहते हैंः जमाना कैसा बिगड़ गया! वर्ण-धर्म सब छूटा जा रहा है। यह शूद्र देखो, यह हमारे साथ खड़े होने की हिम्मत कर रहा है, धक्का देकर हमारे साथ खड़ा होना चाहता है। आपने तीन हजार वर्ष तक क्या किया था उसके साथ? वह ईमानदारी थी? वह नैतिकता थी? वह धर्म था? तो आज उसके मन में विद्रोह खड़ा हो गया, आज उसकी बुद्धिमत्ता, वह भी जाग गया, उसके बच्चे भी सोचने लगे हैं, तो आपको लग रहा है कि सारा वर्ण-धर्म नष्ट हो गया! हे भगवान, यह कलियुग आ गया!
यह कलियुग नहीं आ गया है। ये जितनी मूढ़ताएं और जितने शोषण हम चलाते रहे थे, उनकी मृत्यु का वक्त आ गया है। इसलिए सारी परेशानी खड़ी हो गई है। हर जगह परेशानी खड़ी हो गई है। एक ढांचा था हमारा, वह ढांचा टूट रहा है, तो हम परेशान हैं, हम कहते हैं, दुनिया बड़ी बुरी हुई जा रही है। दुनिया बुरी नहीं हो रही, बल्कि दुनिया में बहुत सी बुराइयां चल रही थीं, उनको तोड़ने का ख्याल आदमी के सामने स्पष्ट हो गया है। अब वे बुराइयां नहीं चल सकेंगी। इसलिए उन बुराइयों से जो लोग फायदा उठा रहे थे, जिनका स्वार्थ उनसे तय हो रहा था, वे सब परेशान हो गए हैं। और वे सारे जमाने को गाली दे रहे हैं, सारे बच्चों को गाली दे रहे हैं, नये युवकों को गाली दे रहे हैं, नई पीढ़ी को गाली दे रहे हैं।
लेकिन मैं आपसे निवेदन करता हूं, हमने हजारों सालों में जो-जो किया है आदमी के साथ, बड़ा बेहूदा था, उसको तोड़ने का ख्याल आया, क्योंकि सारे लोगों के पास विचार पहुंचे, ख्याल पहुंचे, जागृति आई, चेतना आई।
मनुष्य की चेतना निरंतर विकसित हो रही है। और यह उचित भी है परमात्मा के जगत में कि चेतना निरंतर विकसित हो। विकास जीवन है। पतन का क्या कारण है वहां? कोई वजह नहीं है।
आपको पता है, आज बिहार में आपका आदमी भूखा मर रहा है, इंग्लैंड, अमेरिका और रूस के बच्चे अपनी जेबों से पैसा काट कर बिहार के आदमी को भोजन भेज रहे हैं। यह आदमी का विकास है कि पतन? यह कल्पना के बाहर था आज से हजार साल पहले कि एक कौम में कोई भूखा मरे और दूसरी कौम उसकी फिकर करे। दूसरी कौम कहतीः बहुत अच्छा हुआ, मर जाओ बिल्कुल, तो हम तुम्हारी पूरी जमीन पी जाएं, हड़प जाएं।
आज सारी जमीन पर आदमी-आदमी के प्रति एक अभूतपूर्व संबंध पैदा हुआ है, जो कभी नहीं था। पुराने दिन तो ये थे कि एक हिंदू मुसलमान को छूता तो स्नान करता। तो इस मुसलमान के मरने से हिंदू क्या फिकर करने वाला था? मर जाए यह। लेकिन आज बिहार में जो अनजान लोग मर रहे हैं, क्या मतलब है किसी किसान को जो हालैंड में काम करता हो? क्या प्रयोजन है किसी बच्चे को जो बेल्जियम में पढ़ता हो? क्या मतलब है उसे कि बिहार में कोई मर रहा है? मर जाए। उदयपुर के आदमी को उतनी फिकर नहीं है बिहार के आदमी की, जितना अमेरिका का किसान सोच-विचार में पड़ा हुआ है कि उसे कुछ भेजे। आज अमेरिका में चार किसानों में से एक किसान जितना पैदा कर रहा है, वह हिंदुस्तान आ रहा है। और यह बात जानते हुए कि हिंदुस्तान के नासमझ लोग गाली देते रहेंगे कि ये भौतिकवादी हैं, पापी हैं और हम आध्यात्मिक हैं, यह जानते हुए यह आ रहा है। हम गाली दिए जा रहे हैं सारी दुनिया को और वह सारी दुनिया हमारे लिए हर तरह की चिंता किए जा रही है। यह कभी पिछले दिनों में संभव हुआ था? यह कभी संभव हो सकता था? यह संभव हुआ है।
लेकिन हमें यह पीछे का रोग क्यों पकड़ता है कि पीछे सब अच्छा था?
इसके कुछ बुनियादी मनोवैज्ञानिक कारण हैं। पहला कारण तो यह है, पहला बुनियादी कारण तो यह है, यह थोड़ा सोचने-समझने जैसा जरूरी है। हर आदमी का मन बचपन में आनंद को अनुभव करता है। बचपन में न तो चिंता होती है, न फिकर होती है। मां-बाप फिकर करते हैं, चिंता करते हैं, बच्चा सिर्फ जीता है। कोई दायित्व नहीं, कोई बोध नहीं, कोई भार नहीं। फिर बच्चा बड़ा होता है, जैसे-जैसे जवान होने लगता है, दायित्व बढ़ता है, बोझ बढ़ता है। उसे दिखाई पड़ने लगता है कि बचपन बहुत अच्छा था, अब बड़ी मुसीबत शुरू हो गई। इस भांति उसका चित्त पीछे की तरफ सोचना शुरू कर देता है कि पीछे अच्छा था, अब सब गड़बड़ हो गया। फिर जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, जवान होता है, प्रौढ़ होता है, बूढ़ा होता है, कठिनाई बढ़ती जाती है। उसका चित्त सोचने लगता हैः पीछे सब अच्छा था, अब सब गड़बड़ होता जा रहा है।
एक-एक व्यक्ति को यह अनुभव होता है उसके चित्त में कि पीछे सब अच्छा था, अब सब गड़बड़ होता जा रहा है। यह जो बुद्धि का निर्माण हो जाता है, पीछे सब अच्छा था, यह मोड ऑफ थिंकिंग, यह सोचने का ढंग फिर सारी चीजों में काम करता है और वह कहता है कि पीछे सब अच्छा था और अब सब गड़बड़ हो गया है। इसका संबंध व्यक्तिगत मन की सोचने की विधि से है। हमारा व्यक्तिगत मन बचपन में आनंद अनुभव करता है, बाद में दुख अनुभव करता है, हर आदमी। इसलिए उसके सोचने का ढंग यह हो जाता हैः पहले सब अच्छा था। फिर इस बात को वह हर चीज पर लागू करता है--समाज पर, जीवन पर, संस्कृति पर, सभ्यता पर--पीछे सब अच्छा था। यह उसके चित्त में बैठी हुई बचपन की याद है, जो काम करती है। और इसके आधार पर वह जो नतीजे लेता है, वे नतीजे एकदम भ्रांत और झूठे हैं, उनमें कोई अर्थ नहीं है।
मनुष्य विकसित हो रहा है, मनुष्य आगे जा रहा है, मनुष्य की चेतना निरंतर ऊर्ध्वगामी है। और यही उचित है। परमात्मा के इस जगत में नीचे जाना कैसे संभव है? नीचे जाने की बात अधार्मिक है। मनुष्य तो ऊपर जा रहा है, रोज नये अनुभव उसे और ऊपर ले जा रहे हैं।
लेकिन कुछ लोगों को लग रहा है कि नीचे जा रहा है। उनके निहित स्वार्थ टूट रहे हैं। जिन-जिन के स्वार्थ थे, उनको लग रहा है कि मनुष्य नीचे जा रहा है। जो मंदिर में बैठ कर पूजा करता था, आज मंदिर में कम लोग जा रहे हैं कल की बजाय। जो पादरी चर्च में भाषण करता था, उसके भाषण सुनने लोग नहीं जा रहे हैं। जो किताबें कल तक भगवान की किताबें समझी जाती थीं, लोग समझने लगे कि वे भी आदमियों की किताबें हैं। दुख पैदा हो रहा है, परेशानी पैदा हो रही है। पुरोहित का वर्ग सारी दुनिया में परेशान है, क्योंकि उसका धंधा एकदम विलीन हो रहा है। लोग समझ रहे हैं, भगवान मंदिर में नहीं है। लोग समझ रहे हैं, भगवान जीवन में है। लोग समझ रहे हैं, गंडे, ताबीज, तंत्र-मंत्र नासमझियां हैं। लोग जीवन के सूत्र खोज रहे हैं। लोगों की आंखें खुल रही हैं, कि तुम उनको अब समझाओ कि नरक में सड़ोगे, तो वे विश्वास करने को राजी नहीं हैं। तुम उनको कहो कि स्वर्ग में आनंद मिलेगा, दान करो, तो भी वे विश्वास करने को राजी नहीं हैं।
विश्वास की शक्ति कम हुई है। होगी। जब विचार विकसित होता है, तो विश्वास कम होता है। विश्वास अंधापन है। जब आंखें खुलती हैं, तो कोई आदमी विश्वास नहीं करता, विचार करता है। दुनिया में विचार जग रहा है, विश्वास शिथिल हो रहा है। इसलिए जो लोग विश्वास को धंधा बनाए हुए थे और विश्वास के आधार पर जी रहे थे, वे सब परेशान हो गए हैं।
थाईलैंड में चार करोड़ की आबादी है। चार करोड़ में बीस लाख भिक्षु, साधु। चार करोड़ की आबादी में बीस लाख साधु! थाईलैंड के युवकों ने कह दिया कि आप साधु हो, ठीक, लेकिन खेती-बाड़ी करो, अनाज पैदा करो, मुफ्त हम खाने नहीं देंगे। तो थाईलैंड का साधु कहता हैः जमाना बिल्कुल बिगड़ गया। यह क्या बात कर रहे हो? यह कोई बात करने की है? साधुओं ने कभी काम किया है? साधुओं ने कभी खेती-बाड़ी की है? जूते सीए हैं? कपड़े बुने हैं? साधु यह नहीं करता। तो थाईलैंड कहेगा कि तो फिर साधु मत रह जाओ। लेकिन अब बीस लाख लोगों की पलटन को मुफ्त नहीं पोसा जा सकता। भारी पड़ गई है। चार करोड़ की आबादी में बीस लाख आदमी कितने भारी हो गए हैं? तो वे बीस लाख आदमी चिल्ला कर कह रहे हैं कि जमाने का पतन हो गया। और बीस लाख आदमी जब चिल्ला कर कह रहे हों, तो सबके दिमाग में यह बात पैदा हो जाती है कि पतन हो गया है, जरूर हो गया होगा। लेकिन ये बीस लाख लोग अब जी नहीं सकेंगे।
हिंदुस्तान में भी वही हालत है, सारी दुनिया में वही हालत है। कैथलिक पादरियों की संख्या बारह लाख है। बारह लाख आदमी बिना कुछ किए जी रहे हैं। बारह लाख पादरी हैं सारी दुनिया में, वे मुफ्त जी रहे हैं। उनके आप पैर भी छू रहे हैं, आदर भी दे रहे हैं, भगवान भी मान रहे हैं, वे मुफ्त जी रहे हैं। कुछ क्रिएट नहीं किया, कुछ पैदा नहीं कर रहे हैं। एक ही काम करते हैं, वक्त आ जाए तो लड़वाने का काम करते हैं। प्रोटेस्टेंट से लड़ो, तो कैथलिक पादरी लड़वाने का काम करता है; मुसलमान से लड़ो, तो लड़वाने का। एक धंधा है पादरी के पास कि लड़वाने का वक्त आ जाए तो वह भाषण देता है कि लड़ो! और समझाता है कि अगर धर्म के युद्ध में मर गए, तो मोक्ष बिल्कुल निश्चित है। और पागल होते हैं जो इस मोक्ष की आशा में मर भी जाते हैं।
अब ये बारह लाख पादरी परेशान हैं, क्योंकि इंग्लैंड और यूरोप और अमेरिका में लड़के उनसे कह रहे हैं कि अब यह आगे नहीं चलेगा, यह आखिरी वक्त है, यह आखिरी पीढ़ी है जो तुमको चलने दे रही है। यह फौज-फांटा हम नहीं पाल सकते, इसकी कोई जरूरत भी नहीं है।
चर्च खाली होते जा रहे हैं, इसलिए परेशानी है। क्योंकि जब नहीं आते चर्च में सुनने वाले, तो दान भी नहीं आता है। दान नहीं आता, तो पादरी भी मुश्किल में पड़ता है।
अब नये युवक यज्ञ नहीं करवाएंगे, हवन नहीं करवाएंगे। तो यज्ञ और हवन पर जो जी रहे थे, वे क्या कहेंगे? वे कहेंगेः अधर्म आ गया, धर्म के दिन चले गए, न लोग यज्ञ करते हैं, न हवन करते हैं।
सच्चाई यह है कि यज्ञ और हवन करने वाले लोग नासमझ थे। उनके पास विचार की कोई शक्ति नहीं थी, कोई वैज्ञानिक बुद्धि नहीं थी, इसलिए उनका कोई भी शोषण कर रहा था। अब यह तो वक्त नहीं रहा। तो बीच में आने वाले पचास वर्षों में यह होगा कि सारी दुनिया में एक अव्यवस्था मालूम पड़ेगी, जो व्यवस्था थी वह टूट जाएगी। और जब कोई पुरानी व्यवस्था टूटती है और नई व्यवस्था निर्मित होती है, तो बीच में एक संक्रमण का वक्त होता है, जो बड़ी पीड़ा का और तकलीफ का होता है। हम सारी दुनिया में उसी वक्त से गुजर रहे हैं, संक्रमण का एक समय है। जब हमने पुराना मकान तो गिरा दिया है और नया अभी बना रहे हैं, तो बीच में थोड़ी तकलीफें झेलने का वक्त है। लेकिन दुनिया किसी बुरे रास्ते पर नहीं है। विचार उसे भले रास्ते पर ले जा रहा है। और अगर कहीं कोई दिखाई पड़ती हो बुराई, तो मेरा कहना है कि वह पिछली ही पीढ़ियों से पैदा हुई है, पिछली ही संस्कृतियों से पैदा हुई है।
जैसे हम देख रहे हैं, यह बात सच है, आप कहेंगे कि दिखाई पड़ता है कि आदमी नैतिक नहीं रह गया, झूठ बोलता है, धोखा करता है, पाप करता है। ये पूछे हैं सारे प्रश्न कि यह आदमी करता है। तो आप सोचते हैं आदमी बुरा हो गया है?
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि अब तक आपने आदमी को पाप से रोकने के लिए जो उपाय किए थे, वे उपाय गलत थे। अब तक फियर सिर्फ एक उपाय था। धार्मिक लोगों ने भय, भय के आधार पर दुनिया में पाप रोकने की कोशिश की थी। घबड़ाया था लोगों को कि नरक में डलवा देंगे, कड़ाहों में जलाए जाओगे, यह होगा, वह होगा, जन्म-जन्म तक कुत्ते हो जाओगे, बिल्ली हो जाओगे, योनियां बदल जाएंगी, कष्ट भोगोगे, चौरासी करोड़ योनियों में भटकोगे, फिर मनुष्य हो पाओगे। ऐसी-ऐसी घबड़ाहट और फियर पैदा किया था। और इसी भय के आधार पर उसको अच्छा बनाया था कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो। भय के आधार पर नीति खड़ी की गई थी। जब तक लोग अंधे थे, उस नीति ने काम किया। अब लोग विचार करने लगे। और विचार में उनको दिखाई पड़ने लगा कि यह नरक है भी या नहीं? भय के जो मुद्दे थे, वे विचार के सामने टूट गए। तो अब उस आदमी को आप कहिए कि नरक चले जाओगे अगर चोरी की, तो वह कहता है कि कोई हर्जा नहीं, चले जाएंगे, आप फिकर मत करो। क्योंकि नरक का हमें कोई पक्का भरोसा नहीं कि है। तो अब वह चोरी कर रहा है। आपका पुराना ढंग जो था, वह व्यर्थ हो गया और आपको नया ढंग सूझ नहीं रहा कि वह चोरी से कैसे बचे।
पांच हजार साल तक केवल भय के आधार पर हमने आदमी को बेईमानी और चोरी करने से रोका। वह आधार नासमझ लोगों में चल सकता था, समझदार लोगों में नहीं चल सकता। तो फिर अब क्या हो? हमारा आधार गलत था, इसलिए लोग अनैतिक दिखाई पड़ रहे हैं। नये आधार रखने होंगे। भय आधार नहीं हो सकता। फियर के आधार पर कोई आदमी कभी नैतिक नहीं होता है। चौरस्ते पर एक पुलिसवाला खड़ा हुआ है और आप वहां से निकलते हैं और चोरी नहीं करते, तो आप यह मत सोचना कि आप नैतिक हैं। लेकिन चौरस्ते पर कोई पुलिसवाला नहीं है और आप चोरी नहीं करते, तो ही आप समझना कि आप नैतिक हैं। अदालतें, कानून, पुलिस, सब रोकते हों, तो आप चोरी नहीं करते, इससे कोई नैतिकता का संबंध नहीं है, सिर्फ भय है।
तो हमने बहुत भय खड़े किए। चौरस्ते पर पुलिसवाला खड़ा है, फिर अदालत है, फिर नीचे नरक है और फिर ऊपर सुप्रीम कांस्टेबल है भगवान, वह सबसे बड़ा पुलिसवाला, वह ऊपर से देख रहा है, नजर रखे हुए है हरेक को कि किसी ने चोरी की, तो उसको फिर सजा दिलवानी है, नरक में डालना है। वह यही धंधा कर रहा है बेचारा हजारों साल से। बहुत ऊब गया होगा, परेशान हो गया होगा। उसकी तो कोई गति नहीं, उसका कोई ट्रांसफर भी नहीं होता, उसकी कोई बदली नहीं होती, वह कोई रिटायर नहीं होता। वह भगवान ऊपर बैठा हुआ है और एक-एक आदमी का पाप देख रहा है। कितने आदमी, और कितने आदमी मर चुके, और वह पाप देखते-देखते कितना नहीं घबड़ा गया होगा, पागल नहीं हो गया होगा, उसको हम ऊपर बिठाए हुए हैं। यह हमने आदमी को घबड़ाने के लिए सारा इंतजाम किया। और इस घबड़ाहट में, इस डर में आदमी अगर थोड़ा सा नैतिक मालूम पड़ता था, वह नैतिकता झूठी थी। आज यह सारा भय छूट गया। मनुष्य को उदय हुआ विचार, उसने चीजें देखीं और सोचीं, उसे लगा कि ये मामले सच्चाई के नहीं हैं, कल्पना के हैं। और कल्पना के हैं।
आपको पता है, तिब्बतियों का नरक कैसा होता है? और हिंदुओं का नरक कैसा होता है? हिंदुस्तान में हम गर्मी से परेशान हैं, तो हमने नरक में गर्मी का इंतजाम किया हुआ है--आग जल रही है, कड़ाहे जल रहे हैं, तेल खौल रहा है। लेकिन तिब्बत? तिब्बत ठंड से परेशान है, तो अपने पापियों के लिए अगर गर्म जगह भेज दें तो पापी बहुत प्रसन्न हो जाएंगे। तो उन्होंने इंतजाम किया है कि वहां ऐसी बर्फ है जो कभी गलती ही नहीं, बर्फ ही बर्फ है तिब्बतियों के नरक में। और उस नरक में डाल देंगे, बर्फ ही बर्फ में, ठंडक-ठंडक में मरेगा आदमी। तिब्बतियों के लिए बर्फ का भय हो सकता है, इसलिए तिब्बत के नरक में बर्फ है। हिंदुओं के लिए, भारतीयों के लिए गर्मी का भय है, इसलिए गर्मी का। अगर हिंदू को तिब्बतियों के नरक में भेज दिया जाए, तो वह समझेगा कि किसी एयरकंडीशन दुनिया में भेज दिया गया। वह एकदम आनंदित होकर नाच उठेगा कि लगेगा स्वर्ग आ गया।
लेकिन सारी दुनिया के अगर नरकों का आप विचार करेंगे, तो हैरान हो जाएंगे। हर कौम में जो तकलीफ है, वह तकलीफ नरक में पैदा कर दी है। वही तकलीफ नरक में पैदा कर दी है--भय देने के लिए। और स्वर्ग में? स्वर्ग में प्रलोभन दे दिया है। भय का उलटा प्रलोभन है। जो लोग अच्छे काम करेंगे, उनको स्वर्ग भेज देंगे। और स्वर्ग में क्या होगा? अरब के मुल्कों में, क्या वायदा किया गया है मुसलमान मुल्कों में? वायदा किया गया है कि स्वर्ग में शराब के झरने बह रहे हैं। हद्द हो गई! यहां हम समझाते हैं लोगों को कि शराब मत पीओ! जो शराब नहीं पीएगा उसको स्वर्ग में शराब की नदियां बह रही हैं, पीए, नहाए, डूबे, जो करना हो करे, यह प्रलोभन है।
जमीन पर स्त्रियों के लिए हम कहते हैं कि स्त्रियों से बचना, संयम रखना। लेकिन स्वर्ग में हमने अप्सराओं की व्यवस्था कर दी है। और अप्सराएं, जो लोग स्त्रियों से यहां बचेंगे, उनको मिलेंगी। और वे अप्सराएं बहुत अच्छी होंगी। यहां की स्त्रियां तो आखिर बूढ़ी हो जाती हैं, अप्सराएं कभी बूढ़ी नहीं होतीं। उनकी उम्र सोलह ही वर्ष बनी रहती है कांसटेंट, उसमें फर्क नहीं पड़ता। उम्र बदलती नहीं, बस सोलह पर टिकी रहती है, अप्सराओं की उम्र सोलह ही रहती है, उसके ऊपर नहीं जाती। ये प्रलोभन हैं हमारे। हद्द बेईमानी, हद्द नासमझी और मनुष्य के साथ खूब खिलवाड़ किया गया है। यह वहां उनको मिल जाएगा। यहां इच्छाओं से बचना, कामनाओं से बचना, वहां हमने कल्पवृक्ष निर्मित कर रखे हैं। उनके नीचे बैठना और जो कामना करो, पूरी हो जाएगी।
तो यहां नरक का भय और स्वर्ग का प्रलोभन, इन दो के बीच हम आदमी की कोशिश किए कि तुम नैतिक हो जाओ। जो आदमी अंधा था, विचारहीन था, वह रुक गया होगा। लेकिन उसका रुकना नैतिकता नहीं है। क्योंकि जिस चीज में भय के कारण हम रुकते हैं, प्रलोभन के कारण रुकते हैं, उसमें हम वस्तुतः नहीं रुकते, हमारा चित्त तो काम करता ही रहता है, करता ही रहता है, ऊपर से हम रुक जाते हैं।
यह नीति खतम हो गई है। और यह अच्छा हुआ है, यह शुभ है। यह नीति गलत आधारों पर खड़ी थी। अब एक नई नीति को जन्म देने का सवाल है। और ये पुराने लोग जो पुरानी नीति के अतिरिक्त सोचने में जरा भी समर्थ नहीं हैं, उनको ऐसा लग रहा है कि आ गया यह तो महाकाल का समय, प्रलय आ जाएगी, अब क्या होगा?
नहीं साहब, प्रलय नहीं आ जाएगी, नई नीति का जन्म होगा। मनुष्य के ऊपर जब संकट खड़े होते हैं, तभी विचार पैदा होता है। अब एक बड़ा संकट, एक बड़ी क्राइसिस पैदा हो गई सारी दुनिया में कि क्या करें, नीति अब कैसे खड़ी हो? भय पर अब खड़ी नहीं हो सकती, प्रलोभन पर अब खड़ी नहीं हो सकती। वे पिटे-पिटाए रास्ते गए, अब बच्चे स्वर्ग-नरक नहीं मानेंगे।
छोटा सा बच्चा मुझसे एक स्कूल का पूछता था कि कहां है यह नरक, मुझे बताइए! मैंने तो पूरी भूगोल पढ़ डाली, उसमें कहीं है नहीं। यह बच्चा उन बूढ़ों से ज्यादा विकसित है जिन्होंने नरक मान लिया होगा चुपचाप। यह ज्यादा विकसित है, इसकी चेतना ज्यादा प्रबुद्ध है। इसकी प्रबुद्ध चेतना के लिए नई नीति चाहिए। उसी नई नीति की मैं आपसे बात कर रहा हूं। वह नीति शांत मन से निकलती है, भयभीत मन से नहीं। जब कोई व्यक्ति चित्त को शांत करता है, तो शांत चित्त अनैतिक होने में असमर्थ हो जाता है। किसी भय के कारण नहीं, किसी प्रलोभन के कारण नहीं, एक आंतरिक बोध के कारण। शांत मनुष्य, विचारवान मनुष्य, जाग्रत मनुष्य अनैतिक होने में असमर्थ हो जाता है। अनैतिकता सोए हुए मन का लक्षण है, इसकी हम तीन दिन से बात कर रहे हैं। सोया हुआ आदमी जो भी करेगा, वह अनैतिक होगा। जागा हुआ आदमी जो भी करेगा, वह नैतिक होगा।
तो जागरण कैसे आ जाए? तो हम जगत में एक नई नीति के जन्म की शुरुआत कर सकेंगे। करनी पड़ेगी, सोचना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा कि छोटे-छोटे बच्चे के चित्त को हम कैसे जाग्रत कर सकें।
अभी तो हम भयभीत करते थे। और भयभीत होने से चित्त विकसित नहीं होता, क्रिपिल्ड होता है, ग्रंथि से भर जाता है, दब जाता है। यही तो वजह है कि जिन-जिन कौमों ने बहुत ज्यादा इस तरह की बातें सिखाईं, उन कौमों के बच्चे विकसित नहीं हो पाए। हमारी कौम के बच्चे सबसे कम विकसित हैं। दुनिया में आज किसी भी कौम के बच्चों के सामने हमारे बच्चे कमजोर हैं--बौद्धिक रूप से, शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से, सब तरह से कमजोर हैं। और उसका कुल कारण इतना है कि हमने उनको दबाया, दबाया, कभी हमने उनके चित्त को स्वतंत्रता से विकसित होने का मौका नहीं दिया। हमारे बच्चे वैसे हैं, जैसे एक पौधा पैदा हो और जगह-जगह से हम उसको मोड़ दें, इधर जाओ, इधर जाओ, सब तरफ से शाखाएं उसकी दबाएं, तो आखिर में एक पौधा पैदा होगा पंगु, जिसमें पत्ते तो लगेंगे, लेकिन उनमें जान न होगी, जिसमें डालें तो निकलेंगी, लेकिन वे इतनी घुमाई-फिराई गई होंगी कि बेजान हो जाएंगी। वह कुरूप, अग्लीनेस का एक सबूत हो जाएगा, और कुछ भी नहीं।
तो अब चिंतन सारी दुनिया में है कि मनुष्य का चित्त--ज्ञान, शांति, अभय, इनके आधार पर कैसे नैतिक हो सकता है? हो सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि तभी हो सकता है, और कभी नहीं हो सकता, भय के आधार पर कोई नैतिक नहीं हो सकता। भय खुद ही अनीति है। भय सबसे बड़ी अनीति है। लेकिन हम तो कहते रहे हैं कि गॉड फियरिंग, ईश्वर-भीरु, ईश्वर से डरने वाला धार्मिक होता है। और मैं आपसे यह कहता हूंः जो किसी से भी डरता है, वह कभी धार्मिक नहीं होता। डरने वाला कभी धार्मिक होता ही नहीं। धार्मिक तो वह होता है, जो डरता ही नहीं। अभय, फियरलेसनेस उसका पहला सूत्र है, वही धार्मिक हो सकता है। वही नैतिक हो सकता है, जो अभय को उपलब्ध होता है, जो सारे भय से मुक्त हो जाता है। यह भय की मुक्ति की खोज बच्चों के लिए करनी है।
मनुष्य का ह्नास नहीं हुआ है। एक संस्कृति का, एक सभ्यता का ह्नास हो गया है। और वह गलत थी, इसलिए ह्नास हो गया, और कोई कारण न था। अब मनुष्य बिना संस्कृति के खड़ा है, उसकी नई संस्कृति की खोज का सवाल है। और वे लोग जो पुरानी ही बातों को दोहराए चले जा रहे हैं, वे मनुष्य के इस संकट को मिटाने में सहयोगी नहीं होंगे। क्योंकि वे पुराने ढांचे गलत हो गए थे, इसलिए छोड़ने पड़े हैं। उन्हीं ढांचों को हम वापस आदमी के ऊपर थोपने की कोशिश करेंगे जितनी देर तक, उतनी देर तक नई दिशाएं नहीं खुल सकेंगी।
एक बात स्पष्ट रूप से जान लेना जरूरी हैः एक जमाना मर गया, जो कल तक था। लेकिन उसकी मृत्यु से कोई अहित नहीं हो गया है। एक नया जमाना पैदा हो सकता है, जो कल होगा। इसलिए जो लोग भी थोड़ा सोच-विचार करते हैं, उन्हें खोज करनी चाहिए--कि किन कारणों से पुराना ढांचा मर गया? किन कारणों से? और नया ढांचा किन कारणों से खड़ा हो सकता है और विकसित हो सकता है?
हमारी पुरानी पूरी नीति दमन, सप्रेशन की थी--दबाओ, दबाओ, दबाओ! लेकिन मन को मुक्त करो, खोलो, उसके द्वार खोलो, पहचानो, वह नहीं थी। वह गई। लेकिन यह कोई पतन नहीं है, यह विकास है। मनुष्य ज्यादा सुदृढ़ भूमि पर, ज्यादा आलोकित भूमि पर कदम रख रहा है।
तो मुझे तो ऐसा नहीं दिखाई पड़ता कि आज का आदमी बुरा है कल के आदमी से। मैं तो आशान्वित हूं, आज का आदमी बहुत भला है। और मैं यह भी कहना चाहता हूंः कल का आदमी और भला होगा, परसों का आदमी और भला होगा। विकास आगे की तरफ है, क्योंकि विकास परमात्मा की तरफ है। बीज विकसित हो रहा है आगे की तरफ। केवल वे ही लोग इस विकास में बाधा बनते हैं, जो ढांचों के ऊपर जोर पकड़ लेते हैं।
एक बच्चा घर में पैदा होता है, हम उसको कपड़े पहनाते हैं। फिर बच्चा बड़ा होने लगता है, तो अगर हमारा कपड़ों से बहुत मोह हो, तो हम कहेंगेः यह बच्चा बिल्कुल बिगड़ता जा रहा है, बच्चा बिल्कुल बिगड़ रहा है। कल तक जो कपड़े ठीक आते थे, अब यह गड़बड़ कर रहा है, और कपड़े ठीक नहीं आ रहे हैं। अगर हम कपड़ों के बहुत प्रेमी हों, तो बच्चे की टांग काट देंगे, हाथ काट देंगे, ताकि कपड़े के भीतर रहे, क्योंकि कपड़ा हमने इतनी मुश्किल से बनाया था। लेकिन अगर हम बच्चे को प्रेम करते हैं, तो हम कहेंगेः यह कपड़ा फेंक दो और नये कपड़े बनाओ, बच्चा विकसित हो रहा है।
मनुष्य-जाति विकसित हो रही है, तो जो कपड़े तीन हजार वर्ष पहले उसे पहनाए गए थे, वे तंग हो गए हैं, वे उसके प्राणों में फंदा बन गए हैं। और हम कहते हैंः यह आदमी गड़बड़ हुआ जा रहा है। हमारे सब कपड़े फिजूल हुए जा रहे हैं। हमारी सारी नीति, हमारा धर्म, हमारे शास्त्र फिजूल हुए जा रहे हैं। तो इस आदमी को काटो, छांटो, ताकि कपड़े के भीतर रहे।
नहीं; आदमी गड़बड़ नहीं हुआ है, आपके ढांचे छोटे पड़ गए हैं। ढांचे बदल देने होंगे। आदमी तो विकसित हो रहा है। और आदमी की सारी तकलीफ तभी पैदा होती है, जब वह तो विकसित हो जाता है और ढांचा छोटा रह जाता है। किसी बड़े आदमी को छोटे बच्चे का कमीज पहना दें, तो जैसी हालत हो जाएगी, वैसी हालत पूरी मनुष्य-जाति की आज है। मनु महाराज को हुए हो गए होंगे ढाई हजार, तीन हजार साल। और तीन हजार साल पहले मनु महाराज जो लिख गए, वह आज के आदमी को पहनाया जा रहा है। हद्द नासमझी की बात है! तीन हजार साल में क्या हम भाड़ झोंकते रहे? तीन हजार साल में कोई विचार नहीं किया? आदमी के बाबत नई खोज नहीं की? तीन हजार साल में हमने कुछ भी नहीं जाना? कोई नया अनुभव नहीं कि मनु के आगे हम विकसित हो सकें?
लेकिन नहीं, मनु जो ढांचा दे गए, उस पर हम खड़े हैं। और तकलीफ इसलिए हो रही है कि ढांचा बदलने को हम राजी नहीं हैं। हम इसी के लिए राजी हैं कि चाहे आदमी को बदलना पड़े, ढांचा हम न बदलेंगे। तो फिर तकलीफ खड़ी हो रही है, उससे आदमी के ऊपर हम क्रोधित हो रहे हैं, निंदा कर रहे हैं उसकी और वही बातें दोहराए जा रहे हैं जिनसे आदमी विकृत हो रहा है। छोटे-छोटे बच्चों को हम क्या सिखा रहे हैं? वे ही गलत बातें, जिनकी वजह से आदमी परेशान है, उनको सिखाए जा रहे हैं।

इस संबंध में एक प्रश्न पूछा है, उसकी भी मैं इसी संबंध में बात कर लूं। एक मित्र ने पूछा है कि अगर हम बच्चों को कोई भी शिक्षा न दें, तब तो बच्चे बिगड़ जाएंगे। अगर हम उनको आदर्श न सिखाएं, अगर हम उनको सिद्धांत न सिखाएं, तो वे बिगड़ जाएंगे।

बड़े मजे की बात है कि आप तीन हजार साल से सिखा रहे हैं, फिर भी वे बिगड़ क्यों गए हैं? आदर्श भी सिखा रहे हैं, शिक्षा भी दे रहे हैं, सिद्धांत भी, गीता भी पिला रहे हैं, रामायण, कुरान, बाइबिल भी पिला रहे हैं और फिर भी वे बिगड़ गए? तीन हजार साल से आप क्या कर रहे हैं और?
तो मैं यह नहीं कहता हूं कि कुछ भी न सिखाएं। मैं यह कहता हूं कि उनके ऊपर थोपें नहीं, उनके भीतर जो छिपा है, उसके सहारे बनें, उसे विकसित करें।
दो बातें हैं। एक बच्चे पर हम थोप दें कोई बात, तो बच्चे की आत्मा हमेशा के लिए परतंत्र हो जाती है। और बच्चे के भीतर जो छिपी हुई शक्तियां हैं, उनको सहारा दें, उनको विकसित होने का मौका दें, समझें उस बच्चे को और उन-उन ताकतों को जो उसके भीतर सोई हैं, जगाएं, तो बच्चा विकसित होगा। बच्चे के ऊपर ढांचे नहीं देने होते, उसकी चेतना को दिशा देनी होती है। और हम ढांचे देते रहे हैं।
हम छोटे-छोटे बच्चों को क्या कहते हैं? हम उनसे कहते हैंः महावीर जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, गांधी जैसे बनो। यह बात एकदम गलत है। कोई बच्चा क्यों महावीर जैसा बने? वह खुद बनने को पैदा हुआ है। कोई महावीर की ट्रू कॉपी बनने को पैदा हुआ है? उसकी जिंदगी अपनी है, वह अपनी आत्मा लेकर आया है, क्यों बने महावीर जैसा? क्यों बुद्ध जैसा बने? क्यों गांधी जैसा बने? वह खुद अपने जैसा बनेगा। लेकिन हम उसे सिखा रहे हैं कि फलां जैसे बनो, उस जैसे बनो। और इस सिखाने का परिणाम यह होगा कि अगर बच्चा बुद्ध, महावीर और राम जैसा बनने की कोशिश में पड़ गया, तो एक बात तय है, वह जो होने को पैदा हुआ था, वह नहीं बन पाएगा। और वही होता उसका विकास, वही होती उसकी आत्मा, वह नहीं हो पाएगा। और जब उसका विकास नहीं हो पाएगा, उसकी आत्मा पूर्णता को नहीं पा पाएगी, तो वह होगा दुखी, पीड़ित, परेशान, चिंतित, हैरान। उसकी समझ में नहीं आएगा कि यह क्या हो रहा है?
और क्या आपको पता है, आज तक जमीन पर कोई एक आदमी दूसरे आदमी जैसा हुआ है? बुद्ध को हुए ढाई हजार साल हो गए, फिर दूसरा बुद्ध क्यों नहीं पैदा हुआ अब तक? ढाई हजार साल कोई कम वक्त है? राम को हुए और भी वक्त हो गया, अब तक दूसरा राम क्यों पैदा नहीं हुआ? कोई कम समय मिला है राम को होने में फिर दुबारा? लेकिन सच्चाई यह है... और हमारी आंखें इतनी अंधी हैं कि हम देखते नहीं, फिर भी हम दोहराए चले जा रहे हैं--राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो, क्राइस्ट जैसे बनो। सच्चाई यह है कि कोई आदमी कभी किसी दूसरे जैसा न बन सकता है, न बनने की जरूरत है। हर आदमी यूनीक है, हर आदमी बेजोड़ है, हर आदमी अद्वितीय है। परमात्मा अदभुत कलाकार मालूम होता है, वह एक ही चीज को दुबारा पैदा ही नहीं करता। इतना इनवेंटिव मालूम होता है, इतना आविष्कारक। उसकी आविष्कार की बुद्धि चुकती ही नहीं है। वह एक ढांचे को बनाता है और तोड़ देता है, फिर नये आदमी बनाता है। वह कोई फैक्ट्री नहीं खोली हुई है उसने कि जहां ढांचे लगे हुए हैं, सांचे लगे हुए हैं, एक सी मॉडल की फोर्ड गाड़ियां निकलती जा रही हैं हजारों। एक-एक आदमी अद्वितीय और बेजोड़ है। सृष्टि की अदभुत से अदभुत लीलाओं में यह एक लीला है कि हर आदमी बेजोड़ और अलग है। हर आदमी अपने जैसा है, और किसी जैसा भी नहीं है।
लेकिन हम बच्चों को सिखाते हैंः दूसरों जैसे हो जाओ। यह शिक्षा बुनियादी रूप से गलत है। इसका फल क्या होगा? उस बच्चे का व्यक्तित्व मर जाएगा। उधार होगा उसका व्यक्तित्व। और अगर वह बन भी गया किसी जैसा, तो वह नकल होगी, सच्चाई नहीं। राम तो नहीं बन पाएगा, रामलीला का राम जरूर बन सकता है। और रामलीला के राम की कोई भी जरूरत दुनिया में नहीं है। क्योंकि रामलीला का राम एकदम झूठा आदमी है, एकदम झूठा, उसमें कोई भी मतलब नहीं है। पाखंड इसी से पैदा हुआ दुनिया में, दूसरे जैसे बनने की कोशिश से।
अगर किसी फूलों की बगिया में कोई उपदेशक पहुंच जाए और फूलों को समझाने लगे, गुलाब से कहे कि जुही जैसे हो जाओ; चंपा से कहे, चमेली जैसे हो जाओ; तो क्या होगा उस बगिया में? पहली बात तो यह कि फूल उसकी बात ही न सुनेंगे। फूल इतने नासमझ नहीं हैं जितना आदमी कि हर किसी की बात सुनने लगें। वे उसकी फिकर ही नहीं करेंगे। वह उपदेशक बकता रहेगा, न वे ताली बजाएंगे, न संगठन बनाएंगे। लेकिन हो सकता है कुछ फूल आदमियों के साथ रहते-रहते बिगड़ गए हों। साथ रहने से बुरा परिणाम तो होता ही है। जंगल में जो जानवर रहते हैं, उनको वे बीमारियां नहीं होतीं, आदमी के पास जो जानवर रहते हैं, उनको आदमी की बीमारियां हो जाती हैं। तो आदमी के बगीचों में रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों और उपदेशकों की बातें सुनने लगे हों, तो शायद कुछ फूल सुन लें और मान लें। और चमेली चंपा जैसे होने की कोशिश में लग जाए और गुलाब जुही जैसा होने लगे, तो फिर उस बगिया में क्या होगा? वह बगिया उजड़ जाएगी, उसमें फूल फिर पैदा नहीं हो सकेंगे।
इसलिए नहीं हो सकेंगे फूल पैदा कि गुलाब सिर्फ गुलाब ही हो सकता है। वही उसकी नियति, वही उसकी डेस्टिनी, वही उसका आनंद, वही परमात्मा के द्वारा दिया गया उसका दायित्व है। वह जुही नहीं हो सकता। लेकिन जुही होने की कोशिश में, उसकी सारी ताकत तो लग जाएगी जुही होने की कोशिश में और तब वह गुलाब भी नहीं हो पाएगा, क्योंकि ताकत खर्च हो जाएगी जुही होने में। जुही तो हो नहीं सकेगा और इस जुही होने की कोशिश में गुलाब भी नहीं हो पाएगा। उस पौधे पर फिर फूल नहीं आएंगे। वह बगिया उजड़ जाएगी। और बगिया उजड़ जाएगी, तो उपदेशक कहेगाः देखो, कैसा कलियुग आ गया है, फूल नहीं लग रहे पौधों में! यह जमाना ही खराब है।
यह उपदेशक की करतूत है यह कलियुग। यह जमाना खराब नहीं है, यह बगिया में फूल आते, यह उपदेशक की करतूत है कि फूल बगिया में नहीं आ रहे हैं।
आदमी की जिंदगी पर जो सबसे बड़ा पाप और दुर्भाग्य हो गया है, वह उपदेशकों की अदभुत शिक्षाएं हैं। उन्होंने हरेक को सिखा दिया, किसी और जैसे हो जाओ। फिर कोई आदमी अपने जैसा नहीं हो पा रहा है। आदमी की जिंदगी में फूल आने बंद हो गए हैं।
नई शिक्षा, नई नीति, नया धर्म मनुष्य से कहेगाः तुम भूल कर भी किसी और जैसे होने की कोशिश मत करना। तुम तो खोजना अपने भीतर कि तुम क्या हो सकते हो? क्या तुम्हारे भीतर बीज छिपा है? कौन सी पोटेंशियलिटी है? तुम उसी को विकसित करना, उसी को फैलाना, तुम वही हो जाना। तुम्हारे ऊपर यही दायित्व है परमात्मा का कि तुम वही हो जाना जिसको लेकर तुम पैदा हुए हो। तुम नकल में मत पड़ना, क्योंकि नकल करने वाला आदमी अपनी आत्मा खो देता है।
और हम सब नकल में पड़े हुए हैं। अजीब-अजीब नकलें हैं! और हममें जो जितना नकल करने में कुशल होता है, वह उतना बड़ा नेता हो जाता है, उतना बड़ा ज्ञानी हो जाता है। हममें जो सबसे ज्यादा ईडियट होता है, हममें जो सबसे ज्यादा मूढ़ होता है, वह सबसे ज्यादा नकल कर पाता है। नकल करने के लिए बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है, नकल करने के लिए बुद्धिहीनता की जरूरत है। जितना बुद्धिहीन आदमी हो, उतनी नकल कर सकता है। क्योंकि उसे कोई सोच-विचार ही पैदा नहीं होता। अगर महावीर नग्न खड़े हैं, तो वह भी नग्न खड़ा हो सकता है। लेकिन महावीर की नग्नता उनका अपना फूल है, वह उनके अपने भीतर की जिंदगी है, वह उनकी अपनी इनोसेंस, अपने निर्दोष चित्त से आई हुई बात है। वह उनका अपना व्यक्तित्व है, वह नग्नता उनके फूल की अपनी सुगंध है। दूसरा आदमी नंगा खड़ा हो जाए, तो महावीर की नग्नता और इसकी नग्नता एक हो जाएगी? महावीर की नग्नता निकल रही है उनकी इनोसेंस से, उनकी अपनी निर्दोषता से, और यह आदमी नग्नता का अभ्यास करके खड़ा हो गया। यह सर्कस का आदमी है, इसकी नग्नता बिल्कुल झूठी है। और यह झूठा नंगा आदमी सब तरह की कोशिश करके बिल्कुल महावीर जैसा बन सकता है, बल्कि यह भी हो सकता है कि अगर महावीर और इसको परीक्षा में बिठाया जाए, तो यह पास हो जाए, महावीर फेल हो जाएं। यह इसलिए हो सकता है कि महावीर के लिए जो सहज है, उसमें भूल-चूक भी हो सकती हैं, इससे भूल-चूक हो ही नहीं सकतीं, इसका तो गणित का हिसाब है। इसका तो एक-एक रत्ती-रत्ती हिसाब है।
ऐसा एक दफे हो गया है, इसलिए मैं कह रहा हूं, ऐसी एक परीक्षा हो चुकी है। यूरोप में हंसोड़ अभिनेता है, चार्ली चैपलिन। ख्यातिनाम है, हजारों-लाखों उसको प्रेम करने वाले हैं सारी दुनिया में। चैपलिन का जन्म-दिन था और उसके मित्रों ने जन्म-दिन पर एक समारोह आयोजित किया। और सारे यूरोप और अमेरिका से आमंत्रित किए उन्होंने अभिनेता, जो चार्ली चैपलिन का पार्ट करें। चार्ली चैपलिन का पार्ट करने के लिए एक काम्पिटीशन रखा। दुनिया भर के अभिनेताओं को आमंत्रित किया कि चार्ली चैपलिन का पार्ट करो। जगह-जगह प्रतियोगिताएं हुईं, आखिर में सौ अभिनेता चुने गए और वे लंदन में इकट्ठे हुए। वे सौ अभिनेता चार्ली चैपलिन का पार्ट करेंगे, और उनमें जो सबसे अच्छा पार्ट कर सकेगा चार्ली चैपलिन का, ऐसे तीन अभिनेताओं को तीन बड़े पुरस्कार इंग्लैंड की महारानी देगी।
चैपलिन ने अपने मन में सोचा कि मैं भी दूसरे नाम से भरती क्यों न हो जाऊं? मैं भी दरख्वास्त लगा दूं दूसरे नाम से और प्रतियोगिता में दूसरी नकल से चला जाऊं। कौन पता लगा सकेगा? वहां तो एक से सौ आदमी हैं, मैं उसमें खो जाऊंगा। और पहला पुरस्कार तो मुझे मिल ही जाएगा, क्योंकि मैं असली चार्ली चैपलिन हूं।
उसने झूठे नाम से दरख्वास्त भर दी और प्रतियोगिता में सम्मिलित हो गया। लेकिन जब प्रतियोगिता का फल निकला, तो बड़ी मुश्किल हो गई, उसको नंबर दो स्थान मिला, नंबर एक दूसरा आदमी ले गया। वह असली चार्ली चैपलिन को नंबर दो का पुरस्कार मिला। यह तो बाद में पता चला कि चार्ली चैपलिन खुद भी थे और नंबर दो आए।
इसलिए मैंने कहा कि महावीर की नकल करने वाला साधु, क्राइस्ट की नकल करने वाला पादरी, शंकराचार्य की नकल करने वाला संन्यासी, जीत सकते हैं अगर प्रतियोगिता हो तो, उनसे जो कि मूल थे। क्योंकि यह नकल करना एक कुशलता की बात है।
यह नकल सारी दुनिया में पैदा हुई है। और इस नकल की वजह से, जो असली आदमी का जन्म होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है।
तो मेरा कहना हैः नकल पर खड़ी हुई नीति खतरनाक, आत्मघाती, स्युसाइडल है। अब एक ऐसी नीति को विकसित करना है कि प्रत्येक बच्चे को खुद होने का मौका मिल सके। बच्चों से कहना है कि तुम अपने जैसे होना।
उस मां को, उस पिता को मैं सच्चा मां और पिता कहता हूं, उस गुरु को मैं सच्चा गुरु कहता हूं, जो अपने बच्चों से कहे कि तुम खुद जैसे बनने की कोशिश करना और कभी भूल कर भी किसी और जैसे मत बनना। तो तुम्हारे भीतर एक सुगंध, एक सौरभ, एक गरिमा पैदा होगी, जिसके लिए तुम जमीन पर आए हो। और जिस दिन वह सुगंध तुम्हारे भीतर पैदा होगी, उसी दिन तुम्हारे जीवन में आनंद की घड़ी होगी। उसी सुगंध के आधार पर तुम जान सकोगे उसको जो परमात्मा है, उसके बिना कोई उसे जानता नहीं। खुद को पूरी तरह से विकसित करने पर ही, खुद के जीवन की सारी कलियां जब खिल जाती हैं तभी, खुद का व्यक्तित्व जब पूरी तरह प्रफुल्लित होता है तभी--तभी जीवन में आनंद का, कृतज्ञता का, धन्यता का भाव पैदा होता है। वही धर्म है। और वैसा व्यक्ति अनजाने, अनचाहे, बिना प्रयास के शुभ होता है, मंगलदायी होता है। क्योंकि जो खुद आनंद से भर जाता है, वह दूसरे को दुख देने में असमर्थ हो जाता है।
यह मैं अंतिम बात इस चर्चा में आपसे कहना चाहता हूं। जो खुद आनंद से भर जाता है, वह दूसरे को दुख देने में असमर्थ हो जाता है। और अनीति क्या है? दूसरे को दुख देना। और नीति क्या है? दूसरे को दुख न दे पाना। जो आदमी खुद दुखी है, वह बच नहीं सकता दूसरे को दुख देने से, दुख देगा ही। क्योंकि जो हमारे पास है, वही हम दूसरे को दे सकते हैं। जो हमारे पास नहीं है, वह हम कैसे देंगे? अगर मैं दुखी हूं, तो मैं आपको दुख ही दे सकता हूं। मैं आपको आनंद कैसे दूंगा? कहां से दूंगा? वह मेरे पास नहीं है। तो चाहे मैं कितना ही कहूं कि मैं आपको आनंद देना चाहता हूं, प्रेम देना चाहता हूं, लेकिन अगर मैं दुखी हूं, तो मैं दूंगा दुख। और अगर मैं आनंदित हूं, तो मैं चाहूं भी कि आपको दुख दूं, तो दुख न दे सकूंगा। क्योंकि जो मेरे पास है, वही तो मैं दूंगा।

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