अपने माहिं टटोल-(साधना-शिविर)
सातवां प्रवचन-तुम ही हो परमात्मा
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से आज के प्रश्नोत्तरों की यह चर्चा शुरू करूंगा।
एक बहुत अंधेरी रात थी और एक रेगिस्तानी पहाड़ी पर एक छोटी सी सराय में एक बड़ा काफिला आकर रुका। उस काफिले में कोई सौ ऊंट थे। व्यापारी यात्रा कर रहे थे और थके-मांदे आधी रात को उस छोटी सी पहाड़ी सराय में पहुंचे थे विश्राम को। उन्होंने जल्दी-जल्दी खूंटियां गाड़ीं, ताकि वे अपने ऊंटों को बांध सकें, और फिर विश्राम कर सकें। लेकिन आखिरी ऊंट को बांधते वक्त उन्हें पता चला कि उनकी खूंटियां और रस्सियां कम पड़ गई हैं। निन्यानबे ऊंट तो बंध गए थे, एक ऊंट को बांधने के लिए रस्सी और खूंटी खो गई थी। उस ऊंट को उस अंधेरी रात में बिना बंधा छोड़ना खतरनाक था, भटक जाने का डर था।
तो वे सराय के बूढ़े मालिक के पास गए और उन्होंने कहाः बड़ी कृपा होगी अगर एक ऊंट के बांधने के लिए खूंटी और रस्सियां मिल जाएं। हमारी खो गई हैं।
उस बूढ़े मालिक ने कहाः रस्सियां और खूंटियां हमारे पास नहीं हैं, लेकिन हम एक ऐसी तरकीब जानते हैं कि ऊंट बिना रस्सी के और खूंटी के भी बांधा जा सके। तुम जाओ, खूंटियां गाड़ दो और रस्सियां बांध दो और ऊंट को कहो कि बैठ जाओ। वह सो जाएगा।
वे लोग हंसने लगे।
उन्होंने कहाः आप पागल तो नहीं हैं! खूंटियां और रस्सियां होतीं तो हम खुद ही न गाड़ देते और बांध देते। कौन सी खूंटी बांध दें?
उस बूढ़े आदमी ने कहाः उस खूंटी को गड़ाओ जो कि तुम्हारे पास नहीं है, लेकिन आवाज ऐसे करो जैसे कि खूंटी गाड़ी जा रही है। जमीन खोदो, खूंटी गाड़ो, झूठी खूंटी सही, नहीं है, कोई फिकर नहीं। अंधेरे में ऊंट को क्या दिखाई पड़ेगा कि तुम असली खूंटी गाड़ते हो कि झूठी। गाड़ दो खूंटी। गले पर हाथ डालो और जैसे रस्सी बांधते हो, बांध दो रस्सी। कोई हर्ज नहीं रस्सी असली है कि नकली। और बांध दो उसे और कह दो कि बैठ जाओ, सो जाओ। जब कि निन्यानबे ऊंट सो चुके हैं तो यह बहुत मुश्किल है कि सौवां ऊंट भाग जाए। वह सो जाएगा। अरे, आदमी तक भीड़ के पीछे चलता है तो यह तो ऊंट है।
मजबूरी थी। खूंटी थी नहीं, मान लेनी पड़ी बात। मजबूरी में, विश्वास तो नहीं आया उन लोगों को कि ऐसी झूठी खूंटियों से ऊंट बंध जाएगा। लेकिन मजबूरी थी, खूंटी थी नहीं, बांधना जरूरी था। सोचा, देखें, प्रयोग कर लें। वे गए, उन्होंने वह खूंटी गाड़ी जो कहीं भी नहीं थी और उन्होंने वे रस्सियां बांधीं जिनका कोई अस्तित्व न था। और जब उन्होंने ऊंट से कहाः बैठ जाओ! तो वे हैरान हो गए, ऊंट बैठ गया। वे हंसते हुए और मजाक करते हुए जाकर सो गए।
सुबह हुई, वे गए, उनका काफिला नई यात्रा करने को शुरू हुआ। ऊंट खोल दिए गए, खूंटियां निकाल ली गईं, रस्सियां निकाल ली गईं। लेकिन जिनकी बंधी थीं उन्हीं की तो। जिसकी बंधी ही नहीं थी, उसकी खूंटी क्या निकालते, रस्सी क्या निकालते! तो निन्यानबे ऊंट जो बंधे थे, उन्होंने उनकी खूंटियां निकाल लीं, रस्सियां निकाल लीं और काफिला चलने को हो गया। लेकिन सौवां ऊंट उठने को राजी न हुआ। वे बड़े परेशान हो गए कि इसको क्या हो गया? वे उसे बहुत धक्के देने लगे और चोट करने लगे, लेकिन ऊंट तो उठता नहीं था। वे घबड़ाए। शक तो उन्हें रात में भी हुआ था कि यह बूढ़ा सराय का मालिक कोई गड़बड़ तो नहीं कर रहा है! कोई जादू, कोई मंत्र तो नहीं कर रहा है! चमत्कार तो नहीं दिखला रहा है! बिना खूंटी के ऊंट बंध गया और अब यह ऊंट उठता भी नहीं है। तो गए और उस बूढ़े से कहा कि बहुत गड़बड़ कर दी है। उस ऊंट को उठाइए अब। क्या कर दिया है आपने? वह ऊंट उठता नहीं है।
उस बूढ़े ने कहाः पहले उसकी खूंटी तो निकालो! रस्सी तो खोलो!
उन्होंने कहाः कौन सी रस्सी? कौन सी खूंटी?
उसने कहाः जो रात गड़ाई थी वह। जो खूंटी गड़ाई थी वह खोदो और निकालो और जो रस्सी बांधी थी उसे खोलो, तब ऊंट उठेगा।
वे गए, उन्होंने उस खूंटी को खोदा जो कि थी ही नहीं और उस रस्सी को खोला जिसका कोई अस्तित्व न था। वे परेशान रह गए, ऊंट उठ कर खड़ा हो गया। वह काफिला चल पड़ा।
उस सराय के बूढ़े मालिक ने यह कहानी मुझे बताई। मैंने उससे कहाः तुम ऊंटों की कहानी बताते हो। मैं तुम्हें आदमियों की कहानी बताता हूं। सब आदमी ऐसे बंधे हैं जैसा वह ऊंट बंधा था। और ऊंट तो फिर भी ऊंट है, लेकिन आदमी को देख कर बहुत दया आती है। वह उन खूंटियों से बंधा है जिनका कोई अस्तित्व नहीं और उन रस्सियों का गुलाम है जो कहीं हैं ही नहीं। और उठने की हिम्मत नहीं कर सकता, खड़े होने का, चलने का साहस नहीं कर सकता, क्योंकि वह कहता है कि मैं तो बंधा हूं।
इधर दो दिनों से हम उन्हीं खूंटियों और रस्सियों की बात कर रहे हैं। कल आखिरी खूंटी और रस्सी की बात करेंगे। दो खूंटियों की चर्चा हमने दो दिनों में की। एक तो ज्ञान की खूंटी है, जो बिल्कुल झूठी है। उससे आदमी बंधा है। और एक कर्ता होने की, कर्म की खूंटी है। उससे आदमी बंधा है। वह भी बिल्कुल झूठी है। इन दो की हमने बात की है। कल तीसरी की हम बात करेंगे।
इन दो झूठी खूंटियों के संबंध में बहुत से प्रश्न आ गए हैं। बहुत से लोगों को यह बात जान कर बहुत पीड़ा होती है कि मैं एक ऐसी चीज से बंधा हूं जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। इस पीड़ा को भुलाने के दो उपाय हैं--एक तो यह कि वह आंख खोल कर देख ले कि जिन जंजीरों से बंधा है वे सिर्फ मानसिक जंजीरें हैं, उनकी कोई सत्ता, उनका कोई यथार्थ, उनका कोई ठोस अस्तित्व नहीं है। और दूसरा रास्ता यह है कि वह आंख बंद किए रहे और माने चला जाए कि उनका अस्तित्व है, इसलिए मैं कैसे छूटूं?
तो जब मैं इन काल्पनिक बंधनों की बात करता हूं तो मन में बहुत सी बातें उठती हैं। सबसे पहली बात तो यही उठती है, हमारा अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता कि हम झूठी खूंटियों से बंधे हैं। उस ऊंट को भी कोई समझाता कि मित्र, तू एक ऐसी खूंटी से बंधा है जो है ही नहीं। वह हंसता और कहताः मैं पागल हूं? क्यों फिजूल की बातें कर रहे हो? मैं बंधा हूं, यह इस बात का सबूत है कि खूंटी सच्ची होनी चाहिए। वह ऊंट कहता है कि मैं बंधा हूं, यह इस बात का सबूत है कि खूंटी सच्ची होनी चाहिए।
हम भी यही कहते हैंः क्योंकि मैं पूजा कर रहा हूं, वह इस बात का सबूत है कि जिसकी मैं पूजा कर रहा हूं, वह भगवान सच्चा होना चाहिए। नहीं तो मैं पूजा ही क्यों करता? वह ऊंट कहताः नहीं तो मैं बंधता ही क्यों? और हजार साल से हम पूजा कर रहे हैं, इसलिए भगवान और भी सच्चा होना चाहिए।
आपकी पूजा करने से भगवान सच्चा नहीं होता है, न आपकी प्रार्थना करने से। न ऊंट के बंधने से खूंटी सच्ची होती है। झूठी खूंटियों से ऊंट बंध सकता है और झूठे भगवानों की पूजा हो सकती है।
एक मित्र ने पूछा हैः सच्चा भगवान कौन सा है, जब आप कहते हैं, ये सब झूठे भगवान हैं?
मनुष्य जिस भगवान को निर्मित करता है, उसे मैं झूठा भगवान कहता हूं। जिस भगवान को भी मनुष्य बना लेता है वह झूठा भगवान है। असल में भगवान को हम जानते भी नहीं हैं, बना कैसे सकेंगे? जिन मूर्तियों को हमने बनाया है वे भगवान की मूर्तियां हैं, या कि हमारी ही मूर्तियां हैं? एक चीनी अपनी ही मूर्ति बनाता है भगवान की, तो पता है कैसी बनाता है? उसकी गाल की हड्डियां निकली हुई होती हैं, नाक चपटी होती है। क्यों ऐसी बनाता है भगवान की मूर्ति? भगवान चीनी है? निश्चित। एक नीग्रो भगवान की मूर्ति बनाता है तो कैसी बनाता है? काले रंग की बनाता है। ओंठ चौड़े होते हैं, बाल घुंघराले होते हैं। नीग्रो से पूछोः भगवान का रंग क्या है? वह कहता हैः काला, एकदम काला। नीग्रो से पूछोः शैतान का रंग कैसा है? वह कहता हैः सफेद, बिल्कुल सफेद। अंग्रेज से पूछोः भगवान का रंग? वह कहेगाः सफेद। और डेविल, शैतान का रंग? वह कहेगाः काला। बड़ी अजीब बात है! हिंदू से पूछो, तो भगवान हिंदू अपनी शक्ल में बनाता है! अगर घोड़े अपने भगवान बनाना चाहें तो आप सोचते हैं किस शक्ल में बनाएंगे? आदमी की शक्ल में? घोड़ों की शक्ल में बनाएंगे। कोई घोड़ा आदमी को इस योग्य न समझेगा कि उसकी शक्ल में भगवान को बनाए।
हम अपनी शक्ल में बनाते हैं भगवान को। हम अपने को ही भगवान की जगह रख कर पूजते हैं। हमारा भगवान हमारा प्रतिरूप है। कहा तो यह जाता है कि भगवान ने मनुष्य को बनाया, लेकिन यह सचाई तो बहुत दूर रह गई है, सचाई यह हो गई है कि मनुष्य ने भगवान को बना दिया। अपनी ही शक्ल में बनाते हैं, अपनी ही कल्पना में, अपनी ही आकांक्षा में हम निर्मित कर लेते हैं। यह भगवान झूठा होगा। क्योंकि मनुष्य जो कि बिल्कुल एकदम अज्ञान में और अंधेरे में है, वह भगवान को बनाएगा तो वह भगवान सच्चा कैसे हो सकता है? उसमें उसका ही प्रतिफल, उसका ही रिफ्लेक्शन, उसकी ही छवि अंकित हो जाएगी। इसलिए जितने छोटे हम होते हैं उतना ही छोटा हमारा भगवान भी होता है। हम जो भाषा बोलते हैं, वही भगवान बोलता है।
पिछला महायुद्ध हुआ। पिछले महायुद्ध में जर्मनी बढ़ता गया और फ्रांस की फौजें हारती चली गईं। एक अंग्रेज जनरल से एक फ्रेंच जनरल ने कहाः क्या मामला है? भगवान क्या हम पर नाराज है? हम हारते चले जा रहे हैं रोज!
अंग्रेज जनरल बड़ा धार्मिक था। अक्सर हत्यारे और पापी धार्मिक हो जाते हैं, क्योंकि हत्या से इतना भय लगता है कि सिवाय भगवान के उस भय से उन्हें कोई भी नहीं छुड़ा सकता। और दुनिया के जनरल और सेनापति और राजनीतिज्ञ, इनसे बड़े मर्डरर्स, इनसे बड़े हत्यारे कोई और हैं? स्वाभाविक है कि वह जनरल धार्मिक हो। वह रोज प्रार्थना करता था भगवान की। उसने कहा कि तुम इसीलिए हार रहे हो कि तुम शायद भगवान की प्रार्थना नहीं करते हो। हम भगवान की प्रार्थना करते हैं इसलिए हम तो नहीं हार रहे हैं। और देखो, इंग्लैंड का सूरज डूबता नहीं, और हमारा राज्य इतना विस्तीर्ण हो गया भगवान की कृपा से ही न! उसमें कहीं सूरज अस्त नहीं होता है। तुम शायद प्रार्थना नहीं करते हो भगवान की।
उस फ्रेंच जनरल ने कहाः प्रार्थना तो हम भी करते हैं। जब से हारने लगे हैं, तब से बहुत जोर-जोर से करते हैं। जो भी हारने लगता है, जोर-जोर से प्रार्थना करने लगता है। जो कौम मरने लगती है, भगवान-भगवान चिल्लाने लगती है। बहुत जोर से प्रार्थनाएं कर रहे हैं हम, लेकिन कोई असर नहीं मालूम होता।
वह अंग्रेज जनरल मुस्कुराया और उसने कहाः मालूम होता है कोई भूल हो रही है। किस भाषा में प्रार्थना करते हो?
फ्रेंच में।
पागल हो गए हो, भगवान अंग्रेजी के सिवाय कोई भाषा नहीं समझता। यही गड़बड़ हो रही है। तुम प्रार्थना किए जा रहे हो, वह समझ नहीं पाता है। वह अंग्रेजी समझता है, न कि फ्रेंच समझता है।
हमको हंसी आती है इस बात पर। लेकिन हम पांच हजार साल से यही दोहराते रहे हैं कि संस्कृत जो है दिव्य वाणी है, भगवान की वाणी है। इस बेवकूफी में कोई फर्क है? अंग्रेजी पर हंसी आती है, क्योंकि वह अंग्रेज की नासमझी है। और हम क्या कहते रहे हैं इतने दिनों तक? संस्कृत दिव्य वाणी है, भगवान की वाणी है। तो फिर अंग्रेजी भी भगवान की वाणी हो सकती है और चीनी भी और पाकिस्तानी भी और न मालूम क्या। असल में जिसकी भाषा जो है वही भगवान की वाणी है। उसकी अपनी भाषा का अहंकार, अपनी जाति का, अपने रंग का अहंकार, और अपनी प्रतिछवि में भगवान की, भगवान की सृष्टि।
तो मैं जिस भगवान को झूठा कह रहा हूं वह जो हम निर्मित करते हैं, जिसको हम बनाते हैं। फिर सच्चा भगवान कौन सा है? सच्चा भगवान है वह जिसे हम निर्मित नहीं कर सकते, बल्कि यदि हम अपने को बिल्कुल मिटा डालें, खो दें और शून्य हो जाएं तो उसे जान सकते हैं। जैसे एक बूंद सागर में खो जाती है तो सागर को जान लेती है। सागर के साथ एक हो जाती है तो पहचान लेती है--सागर क्या है। ऐसे ही जब कोई व्यक्ति अपने अहंकार को विलीन करके शांत और शून्य हो जाता है तो जान पाता है उसे जो कि सबमें फैला है और व्याप्त है।
भगवान बनाया नहीं जा सकता, जाना जा सकता है। जाना भी क्या जा सकता है, भगवान के साथ एक हुआ जा सकता है। और उसके साथ एक होना ही उसे जान लेना है। कोई रूप नहीं है उसका कि आप जब उसे जानेंगे तो कुछ आमने-सामने खड़े होकर बातचीत होगी। ये बचकानी बातें छोड़ दें। भगवान के सामने खड़ा नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि जब हम भगवान को जानने निकल पड़ते हैं तो हम खुद तो खो जाते हैं, वही रह जाता है।
कबीर ने कहा हैः प्रेम की गली बहुत संकरी है, उसमें दो नहीं समा सकते। उसमें या तो भगवान हो सकता है या हम हो सकते हैं।
तो या तो मैं हो सकता हूं और जब तक मैं हूं तब तक भगवान नहीं हो सकता। क्योंकि मैं ही तो बाधा हूं उसके होने में। और जब मैं खो जाऊं, मिट जाऊं तो जरूर वह हो सकता है। जिस-जिस मात्रा में मेरा अहंकार, मेरी ईगो, मेरी अस्मिता खोती है और विलीन होती है, उसी-उसी मात्रा में वह निकट आता है और एक होता जाता है। लेकिन उसका कोई दर्शन थोड़े ही हो जाएगा कि वह सामने खड़ा है। भगवान कोई व्यक्ति तो नहीं है, भगवान तो है समस्त के भीतर छिपी हुई ऊर्जा, समस्त के भीतर छिपी हुई शक्ति, समस्त के भीतर छिपा हुआ जीवंत प्रवाह। वह जो लिविंग कांशसनेस है, वह जो सब तरफ छाया हुआ जीवन है, वही तो है भगवान। उसका कोई रूप? उसका कोई आकार? नहीं, न कोई रूप, न कोई आकार, न कोई नाम। नाम सब हमारे दिए हुए हैं, और हमारे, जिन्हें पता नहीं अपना भी, वे भगवान को नाम देने की कोशिश कर रहे हों तो पागलपन है।
एक संन्यासी सारी दुनिया की यात्रा करके भारत वापस लौटा था। एक छोटी सी रियासत में मेहमान हुआ। उस रियासत के राजा ने जाकर उस संन्यासी को कहाः स्वामी, एक प्रश्न बीस वर्षों से निरंतर पूछ रहा हूं। कोई उत्तर नहीं मिलता। क्या आप मुझे उत्तर देंगे?
स्वामी ने कहाः निश्चित दूंगा।
वह राजा हंसा, उसने कहा कि इतना निश्चय न दें, इतना आश्वासन न दें, क्योंकि न मालूम कितने संन्यासियों से मैंने पूछा है वही प्रश्न और उत्तर नहीं पाता हूं।
उस संन्यासी ने उस राजा से कहाः नहीं, आज तुम खाली उत्तर नहीं लौटोगे। पूछो।
उस राजा ने कहाः मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं। और पहले ही बता दूं, कृपा करके गीता के श्लोक पढ़ कर समझाने की कोशिश मत करना, वह मैंने काफी सुन लिया है। उपनिषद और वेदों की बातें सुनने की भी मेरी कोई इच्छा नहीं है, वे मैंने सब पढ़ लिए हैं। ईश्वर को समझाने की कोशिश मत करना। मैं तो सीधा मिलना चाहता हूं। मिलवा सकते हों तो कह दें, हां; न मिलवा सकते हों तो कह दें, न; मैं वापस लौट जाऊं।
यही उसने न मालूम कितने संन्यासियों से पूछा था। हमेशा संन्यासी चौंक गए होंगे, लेकिन इस बार उस राजा को ही चौंक जाना पड़ा। उस संन्यासी ने कहाः अभी मिलना चाहते हैं कि थोड़ी देर ठहर कर?
इसकी आशा भी न थी, अपेक्षा भी न थी। राजा थोड़ा चिंतित हुआ, सोचा उसने, शायद मेरी बात समझी नहीं गई। न मालूम यह कोई ईश्वर नाम वाले आदमी से मिलाने की बात तो नहीं समझ रहे? तो उसने कहाः माफ करिए, शायद आप समझे नहीं। मैं परम पिता परमात्मा की बात कर रहा हूं, किसी ईश्वर नाम वाले आदमी की नहीं, जो आप कहते हैं कि अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हो?
उस संन्यासी ने कहाः महानुभाव, भूलने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं तो चौबीस घंटे परमात्मा से मिलाने का धंधा ही करता हूं। अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हैं, सीधा जवाब दें।
उस राजा ने भी कभी सोचा नहीं था कि कोई आदमी इतनी जल्दी मिलवाने को तैयार हो जाएगा। ऐसे आपको भी कोई मिल जाए और एकदम से कह दे कि अभी मिलना है कि थोड़ी देर बाद? तो आप कहेंगेः थोड़ा मैं घर पूछ आऊं, पत्नी से, बच्चों से। इतनी जल्दी भी क्या! पता नहीं मिलने का क्या परिणाम हो। वह राजा भी थोड़ा परेशान हुआ।
संन्यासी ने कहाः इतना परेशान क्यों होते हैं? जब बीस साल से मिलने को उत्सुक थे और आज वक्त आ गया तो मिल लो।
राजा ने हिम्मत की, उसने कहाः अच्छा मैं अभी मिलना चाहता हूं, मिला दीजिए।
संन्यासी ने कहाः कृपा करो, इस छोटे से कागज पर अपना पता लिख दो ताकि मैं भगवान के पास पहुंचा दूं कि आप कौन हैं।
राजा ने कहाः यह तो ठीक ही है। मुझसे भी कोई मिलता है तो पता पूछ लेता हूं--नाम, ठिकाना, परिचय। राजा ने लिखा--अपना नाम, अपना महल, अपना परिचय, अपनी उपाधियां और उसे दीं।
वह संन्यासी बोला कि महाशय, ये सब बातें मुझे बिल्कुल झूठ और असत्य मालूम होती हैं जो आपने कागज पर लिखीं।
वह राजा बोलाः मैं पहले ही शक में पड़ गया था कि आप आदमी कुछ गड़बड़ हो। भगवान से मिलवाने की बात इतनी आसान! कल्पना में भी नहीं उठती थी। तभी मैं समझ गया था कि या तो यह आदमी पागल है, और या फिर मैं पागल हूं। यह हो क्या रहा है, यहां भगवान से मिलवाना हुआ जा रहा है! यह मेरा ही परिचय है। मैं हूं राजा इस राज्य का। यह मेरा नाम है।
उस संन्यासी ने कहाः मित्र, अगर तुम्हारा नाम बदल दें तो क्या तुम बदल जाओगे? तुम्हारा अ नाम से ब कर दें तो फर्क पड़ जाएगा कुछ? तुम्हारी चेतना, तुम्हारी सत्ता, तुम्हारा व्यक्तित्व दूसरा हो जाएगा?
उस राजा ने कहाः नहीं, नाम के बदलने से मैं क्यों बदलूंगा? नाम नाम है, मैं मैं हूं।
तो संन्यासी ने कहाः एक बात तय हो गई कि नाम तुम्हारा परिचय नहीं है, क्योंकि तुम उसके बदलने से बदलते नहीं। आज तुम राजा हो, कल गांव के भिखारी हो जाओ तो बदल जाओगे?
उस राजा ने कहाः नहीं, राज्य चला जाएगा, भिखारी हो जाऊंगा, लेकिन मैं क्यों बदल जाऊंगा? मैं तो जो हूं हूं। राजा होकर जो हूं, भिखारी होकर भी वही होऊंगा। न होगा मकान, न होगा राज्य, न होगी धन-संपत्ति, लेकिन मैं? मैं तो वही रहूंगा जो मैं हूं।
तो संन्यासी ने कहाः तय हो गई दूसरी बात कि राज्य तुम्हारा परिचय नहीं है, क्योंकि राज्य छिन जाए तो भी तुम बदलते नहीं। तुम्हारी उम्र कितनी है?
उसने कहाः चालीस वर्ष।
संन्यासी ने कहाः तो पचास वर्ष के होकर तुम दूसरे हो जाओगे? बीस वर्ष के जब थे तब दूसरे थे? बच्चे जब थे तब दूसरे थे? जवान जब हो गए, दूसरे हो गए? बूढ़े जब हो जाओगे तो दूसरे?
उस राजा ने कहाः नहीं। उम्र बदलती है, शरीर बदलता है, लेकिन मैं? मैं तो जो बचपन में था, जो मेरे भीतर था, वह आज भी है, कल भी रहेगा। मैं तो एक सातत्य हूं। मैं तो एक कंटीन्यूटी हूं। मेरे भीतर तो एक सतत कोई है, चेतना, जो कुछ भी कहें, जीवन कहें, वह हूं मैं।
उस संन्यासी ने कहाः फिर उम्र भी तुम्हारा परिचय न रहा, शरीर भी तुम्हारा परिचय न रहा। फिर तुम कौन हो? उसे लिख दो तो पहुंचा दूं भगवान के पास, नहीं तो मैं भी झूठा बनूंगा तुम्हारे साथ। यह कोई भी परिचय तुम्हारा नहीं है।
राजा बोलाः तब तो बड़ी कठिनाई हो गई। उसे तो मैं भी नहीं जानता फिर! जो मैं हूं, उसे तो मैं भी नहीं जानता! इन्हीं को मैं जानता हूं मेरा होना।
उस संन्यासी ने कहाः फिर बड़ी कठिनाई हो गई, क्योंकि जिसका मैं परिचय भी न दे सकूं, बता भी न सकूं कि कौन मिलना चाहता है, तो भगवान भी क्या कहेंगे कि किसको मिलाना चाहता है? तो जाओ पहले इसको खोज लो कि तुम कौन हो। और मैं तुमसे कहे देता हूं कि जिस दिन तुम यह जान लोगे कि तुम कौन हो, उस दिन तुम आओगे नहीं भगवान को खोजने। क्योंकि खुद को जानने में वह भी जान लिया जाता है जो परमात्मा है।
मूर्तियों में नहीं है वह, और न नामों में है, और न चित्रों में, और न रूपों में, न मंदिरों में। जो उसे वहां खोजता है, वह एक झूठे भगवान के पीछे दौड़ रहा है जो आदमी के द्वारा बनाया गया है। आदमी के द्वारा बनाया हुआ भगवान आदमी से बड़ा नहीं है, नहीं हो सकता है। उसमें आदमी की सब क्षुद्रताएं, आदमी की करतूत है वह। और इसीलिए तो आदमी के बनाए हुए भगवान के नाम पर झगड़े, उपद्रव, परेशानी खड़ी होती रही है, हो रही है। यह सारी जमीन बंट गई है--हिंदुओं में, मुसलमानों में, जैनों में, ईसाइयों में। आदमी-आदमी बंट गया है, खंडित हो गया है। किसके द्वारा? आदमी के द्वारा बनाए हुए भगवान! आदमी के द्वारा बनाए हुए भगवान आदमी को तोड़ने का मार्ग बन गए हैं, जोड़ने का नहीं।
लेकिन जो परमात्मा है, जो सत्य है, जो हम सबका जीवन है, उसे यदि हम सब जानेंगे तो मनुष्य टूटेगा नहीं, जुड़ जाएगा। उसे हम जानेंगे तो प्रेम की एक धार सारे जगत में व्याप्त हो जाएगी। उसे हम जानेंगे तो जीवन का अर्थ, जीवन का अभिप्राय कुछ और हो जाएगा। उस भगवान की इधर हम तीन दिनों तक बात कर रहे हैं कि उसको कैसे जाना जा सके।
लेकिन उसको हम छोड़ दे रहे हैं, इसलिए कि उसे जानने का सवाल उठता नहीं, जब तक कि हम उसे न जान लें जो हम हैं। इसलिए हम पूरी कोशिश कर रहे हैं इस बात को विचार करने की कि यह मैं कौन हूं? इसे कैसे जान सकूं? सच्चे धर्म का संबंध मनुष्य के सत्य को जानने से है। सच्चे धर्म की खोज, मनुष्य के भीतर जो छिपा है, उसे पहचान लेने से है। और वह एक दफा पहचान लिया जाए तो वही पहचान आखिर में परमात्मा की पहचान सिद्ध होती है। उसके अतिरिक्त और कभी कहीं कोई परमात्मा न जाना गया है, न जाना जा सकता है। जो खुद को ही नहीं जानता वह और क्या जान सकेगा?
हम खुद को जानते हैं? पहचानते हैं? परिचय है हमारा कोई? जिसके साथ, जिस जीवन के साथ हम रह रहे हैं, जिसके साथ हम श्वासें ले रहे हैं, उसे हम पहचानते हैं, क्या है वह? कौन छिपा है वहां भीतर?
नहीं, बिल्कुल अपरिचित। और भगवान का विवाद कर रहे हैं कि भगवान कैसा-कैसा है। अपनी कोई खोज-खबर नहीं, भगवान का विवाद कर रहे हैं। इस विवाद में जरूर कोई मतलब है। इसमें मतलब यह है कि जो खुद को जानने से बचना चाहते हैं, वे हजार तरह की फिजूल बातों को जानने में लग जाते हैं ताकि खुद को जानने से बच जाएं।
जो आदमी यह तय कर रहा है--स्वर्ग है या नहीं? नरक है या नहीं? प्रश्न पूछते हैंः पुनर्जन्म है या नहीं? आत्मा मरने के बाद बचती है या नहीं? बचती है तो कहां जाती है? मोक्ष है तो कहां है? ये सब प्रश्न पूछ रहे हैं। और एक भी कोई प्रश्न नहीं पूछता कि मैं कौन हूं? बड़ी हैरानी की बात है! सारे मुल्क में घूमता हूं, इधर लाखों लोगों से संपर्क हुआ है, एक भी आदमी ने अब तक मुझसे नहीं पूछा है कि मैं कौन हूं, इसके लिए कोई सोच-विचार करूं। एक प्रश्न मुझसे नहीं पूछा गया अभी तक कि मैं कौन हूं। यह तो लोग पूछते हैं कि भगवान क्या है? स्वर्ग क्या है? नरक क्या है? आकाश, पाताल, न मालूम क्या-क्या पूछते हैं, लेकिन कोई यह नहीं पूछना कि मैं कौन हूं?
शायद हमें यह ख्याल है कि हम अपने को तो जानते ही हैं, उसको क्या पूछना! जिसको नहीं जानते, उसको पूछें। लेकिन सचाई यह है कि हम अपने को सबसे कम जानते हैं, बिल्कुल भी नहीं जानते। और जो खुद को न जानता हो वह क्या जान सकेगा? और ऐसा मनुष्य जो खुद से अपरिचित है, अनजान, वह बना लेगा भगवानों को, मंदिरों को, मस्जिदों को। वे खतरे के अड्डे हो जाएंगे, और कुछ भी न होगा।
इसलिए मैंने कहाः मनुष्य के द्वारा निर्मित सभी भगवान झूठे हैं। हां, मनुष्य खुद को जान ले तो खुद के द्वारा वह जान सकेगा सारे जगत में जो व्याप्त है उसे। एक ताला खुल जाए उसके जीवन का तो सारे जीवन का ताला खुल जाता है। एक बूंद को कोई समझ ले तो सारे सागर को समझ लिया। एक प्रकाश की किरण को कोई समझ ले तो सारे सूरज को समझ लिया। एक कंकड़ को कोई समझ ले तो सारी पृथ्वी समझी जा चुकी, क्योंकि अणु में वह सब मौजूद है जो विराट में छिपा है। तो एक अपने भीतर के ताले को कोई खोल ले तो खोल लिए उसने जीवन के द्वार। खुद खोल कर वह पाएगा कि सबका द्वार खुल गया। वहीं है, वहीं छिपा है, वहीं बैठा है। बड़ी अजीब जगह चुनी है भगवान ने भी छिपने की। कोई और आसान जगह चुन लेता तो बड़ी आसानी हो जाती। किसी मंदिर में छिप जाता तो हम दीवाल वगैरह खोद कर सब तरह से उसका पता लगा लेते। किसी शास्त्र में छिप जाता तो हम घोल कर पी जाते उस शास्त्र को, उस भगवान को पचा लेते। कहीं और छिप जाता आकाश-पाताल में, कोई चिंता न थी, हमारे वैज्ञानिक बना लेते जेट और वहीं पहुंच जाते और पता लगा लेते। बाकी उसने भी ऐसी शरारत की, ऐसी जगह छिप गया है, जहां जाने की हमारी इच्छा ही नहीं होती है। वह हमारे भीतर ही छिप कर बैठ गया है।
ऐसी कहानी है बड़ी पुरानी। पता नहीं कहां तक सच है, कहानियों का कोई भरोसा भी नहीं है। एक कहानी मैंने सुनी है। भगवान ने दुनिया बनाई, एक-एक चीज बनाई; झाड़, पौधे, पशु-पक्षी बनाए, कीड़े-मकोड़े बनाए। कितना बड़ा जाल रचा। सब बनाया। कहानी है, यह मैंने कह दिया। कहीं यह मत पूछने लगना कि कब बनाया? कैसे बनाया? नहीं तो कल इसी पर प्रश्न आ जाएं आपके, क्योंकि प्रश्नों के आने में कोई कठिनाई नहीं है। भगवान ने यह सब बनाया। और फिर आखिर में आदमी बनाया। आदमी बनाने के बाद फिर उसने कुछ भी नहीं बनाया। तो देवताओं ने उससे पूछाः फिर और कुछ नहीं बनाते? सब बंद कर दिया?
उसने कहाः आदमी को बना कर भूल हो गई। अब आगे जी डरता है और कुछ बनाने को। और चीजें बनाई थीं तब तो बनाने का मजा था, आदमी को बना कर मैं दिक्कत में पड़ गया। बड़ी दिक्कत तो यह हो गई कि आदमी मैंने ऐसा बना दिया जो खुद ही चीजें बनाने में होशियार है, वह खुद ही चीजें बनाने लगा। मेरी कोई जरूरत न रही। एक बात। दूसरी बात, इस आदमी से मैं बड़ा डरा हुआ हो गया हूं, क्योंकि यह भगवान की खोज भी करता है। और किसी दिन पा ले तो फजीहत करे, न मालूम क्या करे। आखिर अगर यह पा ले हमको तो यह क्या करेगा हमारे साथ? क्या व्यवहार करेगा? कुछ अंदेशा तो लगता नहीं है इसके व्यवहार का, क्योंकि जो दूसरे आदमियों के साथ यह करता है, कुछ वैसा-वैसा हमारे साथ भी करेगा। अंदाज तो लगता ही है। आदमी क्या कर रहा है दूसरे आदमियों के साथ? तो अगर यह हमको पा ले तो हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही करेगा। इससे बहुत डर लगता है। तो मैं ऐसी जगह की खोज की तलाश में हूं जहां यह मुझे न पा सके।
तो देवताओं से उसने पूछा कि मुझे कोई जगह बताओ जहां मैं छिप जाऊं।
बहुत जगह लोगों ने बताई, किसी ने कहा इस जगह छिप जाओ, किसी ने आकाश में, किसी ने पाताल में।
उसने कहाः ये सब जगह छोटी हैं, आदमी के पास दिमाग है, वहां आ जाएगा। वह खोज लेगा, वह रास्ता बना लेगा, वह नरक तक गड्ढे खोद लेगा, आकाश तक सीढ़ी लगा लेगा।
फिर एक बूढ़े देवता ने कहाः तो फिर एक ही रास्ता है, आप आदमी के भीतर ही छिप जाओ। उसका उसे ख्याल भी नहीं आएगा कि अपने भीतर भी खोजें, वह सारी जमीन खोजेगा, और आप शांति से बैठे रहो।
तो भगवान आदमी के भीतर बैठ गया। तब से वह बैठा हुआ है वहां और बात, तरकीब काम कर गई। आदमी सब जगह खोज रहा है, एक जगह छोड़ कर--जहां वह है, वह। वहां हमें कोई ख्याल नहीं उठता कि वहां हम खोजें। क्योंकि हमें यह भ्रम है कि अपने को तो हम जानते ही हैं, वहां क्या रखा हुआ है!
मैं आपसे निवेदन करूं, इससे बड़ा रहस्य और कहीं भी नहीं है जो आपके भीतर छिपा है। इस छोटी सी देह, इस छोटी सी खोपड़ी, इस छोटे से जीवन में बहुत-बहुत विराट छिपा है। जब तक वैज्ञानिकों ने एटम न तोड़ा था, अणु न तोड़ा था, तब तक किसी को ख्याल भी न था कि छोटे से कणों को तोड़ने में इतनी शक्ति, इतनी ऊर्जा छिपी हो सकती है। एक छोटे से एटम का विस्फोट--नागासाकी, हिरोशिमा के एक लाख आदमी थोड़े ही पलों में जल कर राख हो गए! अब तो बड़े एटम बम, हाइड्रोजन बम हमने ईजाद कर लिए। ये क्या हैं?
छोटे से अणुओं को तोड़ने से जो ताकत उपलब्ध हुई है वह--ऐसे छोटे अणुओं में जो आंखों से दिखाई नहीं पड़ते, इतने छोटे अणुओं में कि अगर एक अणु के ऊपर दूसरे अणु को हम रखते जाएं तो एक लाख अणु रखें तो आदमी के बाल के बराबर मोटाई होगी। इतने छोटे अणु में बाल की मोटाई के एक लाख बटा हिस्सा! उतने छोटे अणु में इतनी ऊर्जा उपलब्ध हुई छिपी हुई कि अगर उसका विस्फोट हो जाए तो करोड़ों लोग, करोड़ों का जीवन तत्क्षण राख हो जाए। कतई ख्याल भी न था कि एक छोटे अणु में ऐसा छिपा होगा।
ऐसे ही मनुष्य के चित्त के भी अणु हैं। पदार्थ के अणु की तो हमने खोज कर ली तो वहां परमाणु की शक्ति मिल गई। मनुष्य के चिद्-अणु हैं--मनुष्य के भीतर चेतना के अणु हैं। अगर उनको भी हम खोल लें तो वहां परमात्मा की शक्ति मिल जाती है। पदार्थ के अणु में छिपी है पदार्थ की शक्ति, मनुष्य की चेतना के अणु में छिपी है परमात्मा की शक्ति। दोनों उसकी ही शक्तियां हैं, उसके ही दो रूप हैं। छोटा नहीं है मनुष्य का यह मन। इस छोटे मन में बहुत छिपा है। इसकी उपेक्षा न करें, अपनी उपेक्षा न करें।
धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं जो अपनी उपेक्षा नहीं करता है। और अधार्मिक आदमी वह है जो जीवन भर अपनी उपेक्षा करता है। और सब चीजों की चिंता करता है, अपनी उपेक्षा करता है और खुद को तो मान लेता है कि मैं जानता हूं, खुद को तो समझ लेता है कि मैं जानता हूं, यह बात खत्म हो गई। यह अध्याय बंद हो गया। मैं तो जानता हूं--मेरा यह नाम है, मेरा यह ठिकाना है, फलां पिता का लड़का हूं, यह मेरा मकान है। जान लिया मैंने अपने को, वह तो बात खत्म हो गई।
यह बात खत्म नहीं हुई है, यह अध्याय खुला हुआ रखें, इसे क्लोज न करें, इसे बंद न करें, यह खुला हुआ है।
इसीलिए मैंने कहा है, इधर दो दिनों में सच्चे भगवान की खोज, सत्य की खोज मनुष्य निर्मित धर्मों में नहीं बल्कि उस चेतना में प्रवेश से होगी जो परमात्मा का ही अंश है।
कुछ और प्रश्न पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा हैः भक्ति से, पूजा और प्रार्थना से भगवान की उपलब्धि नहीं होगी? क्या भक्ति भगवान तक पहुंचने का मार्ग नहीं है?
सुनते तो हम यही आए हैं कि भक्ति और भगवान का बड़ा संबंध है। लेकिन बड़े दुख की बात है, मुझे आपसे सच्ची बात कहनी ही होगी। भक्ति और भगवान का कोई संबंध नहीं है। रत्ती भर भी संबंध नहीं है। भक्ति तो मनुष्य की कल्पना है और भगवान का मनुष्य की कल्पना से क्या संबंध? सचाई तो यह है कि भगवान या सत्य का अनुभव तब होता है जब मनुष्य की सारी कल्पनाएं शांत और तिरोहित हो जाती हैं। और हम कल्पनाएं कर रहे हैं। और ईजाद कर रहे हैं कल्पनाएं अपने मन की। और उनके मन की कल्पनाओं का अनुभव भी हो सकता है, क्योंकि मनुष्य स्वप्न देखने में बहुत समर्थ है। मनुष्य स्वप्न देखने में, इमेजिनेशन में बहुत समर्थ है।
हमारे बीच में कुछ लोग ज्यादा इमेजिनेटिव होते हैं। स्त्रियां बहुत काल्पनिक होती हैं। पुरुषों में भी कुछ स्त्रैण चित्त के लोग होते हैं, वे भी बहुत काल्पनिक होते हैं। जैसे कवि बहुत काल्पनिक होते हैं। ये सारे लोग तो भगवान की भक्ति करके और भी जल्दी दर्शन कर सकते हैं, इनको तो देरी नहीं है, कठिनाई नहीं है। क्योंकि जिसकी कल्पना जितनी प्रखर है और सपना देखने में जो जितना गहरा प्रवेश कर सकता है, वह उतने जल्दी भगवान के दर्शन कर सकता है।
लियो टॉल्सटॉय का नाम आपने सुना होगा--बड़ा लेखक, विचारक था रूस का। बहुत कल्पनाशील था। एक रात मास्को के एक ब्रिज के ऊपर उसे पुलिस के लोगों ने पकड़ा। वह एक पुल के ऊपर खड़ा था, खतरनाक पुल के पास जहां कि पुलिस का एक सिपाही हमेशा तैनात होता था। तैनात इसलिए होता था कि वह पुल जो था, मरने वालों की खास जगह थी। जिन-जिन को मरना होता था, रात उसी पुल पर से जाकर कूद पड़ते थे और मर जाते थे। इसलिए स्थायी रूप से स्युसाइड पॉइंट था वह मास्को में। आत्महत्या करने वालों का अड्डा था। और हो सकता है, युनिवर्सिटी की परीक्षाएं खत्म भी हों इसलिए पुलिस वाला निरंतर वहां खड़ा रहता था।
टॉल्सटॉय को रात दो बजे वहां पकड़ा गया। पुलिस के आदमी ने आकर देखा, यह आदमी अपना लबादा पहने हुए ठंडी रात में चक्कर काट रहा है। एक-दो दफे उसने देखा, तीसरी दफे आकर उसने कंधे पर हाथ रखा और कहाः महानुभाव, क्या इरादे हैं?
टॉल्सटॉय की आंखों में आंसू थे, उसने कहाः महाशय, आप थोड़ी देर से आए, जिसको आत्महत्या करनी थी उसने कर ली। मैं तो पहुंचाने आया था।
वह पुलिसवाला तो घबड़ा गया, वह वहीं खड़ा था। अब वह झंझट में पड़ेगा, क्योंकि ड्यूटी पर था और आदमी कूद कर मर गया। उसने कहाः कौन मर गया?
टॉल्सटॉय ने कहाः पावलोना नाम की स्त्री मर गई। तुम्हें पता नहीं? आज दो दिन से यहां चक्कर लगा रही थी मरने के लिए, तुम क्या कर रहे थे?
वह तो और भी घबड़ा गया, टॉल्सटॉय को पकड़ कर पुलिसथाने ले गया।
पुलिसथाने जाते-जाते टॉल्सटॉय का दिमाग थोड़ा शांत हुआ। वह जरा कविता से नीचे उतरे। पुलिसथाने पहुंच कर हंसने लगे। वे लोग बोलेः क्यों हंसते हैं?
उन्होंने कहाः असल बात यह है कि मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं, उस उपन्यास में पावलोना नाम की एक स्त्री है। उस उपन्यास में वह इस पुल के पास आकर आत्महत्या कर लेती है। उसने आज रात आत्महत्या की, मैं भूल ही गया कि यह बात काल्पनिक है, मैं उसी के पीछे चला आया। वह कूद पड़ी, मैं वहीं खड़ा दुखी हो रहा था।
पात्र है उपन्यास का जिसको वह लिख रहा है। लेकिन कवि और लेखक अपने पात्रों के साथ जीने लगते हैं। इतने सच्चे हो जाते हैं वे। कल्पनाएं इतनी प्रगाढ़ हो जाती हैं।
टॉल्सटॉय एक दफा सीढ़ियां चढ़ रहा था लाइब्रेरी की। उसके साथ एक औरत चल रही थी ऐसे ही, काल्पनिक औरत जिससे वह बातचीत कर रहा था। जो उसके उपन्यास में पार्ट करने वाली थी। वे दोनों चले जा रहे थे सीढ़ियां चढ़ते। सीढ़ियां संकरी थीं, दो की जगह थी। ऊपर से एक सज्जन नीचे उतर रहे थे, तीन के लायक जगह नहीं थी। और स्त्री को कहीं धक्का न लग जाए ऊपर वाले का इसलिए टॉल्सटॉय बचा। बचा तो सीढ़ियों से चूक गया और नीचे गिर कर पैर तोड़ लिया। ऊपर वाले आदमी ने कहाः महानुभाव, आप हटे क्यों? हम दो के लिए काफी जगह थी। हटने की कोई जरूरत न थी।
टॉल्सटॉय ने कहाः दो! और तीसरी स्त्री कहां गई जो मेरे साथ थी?
कोई तीसरी स्त्री वहां नहीं है। लोगों ने कहाः यहां तो कोई तीसरी स्त्री नहीं थी।
तब टॉल्सटॉय चौंका और उसने कहाः अरे, बड़ी भूल हो गई, माफ करें। मैं भूल ही गया। मेरी एक पात्रा मेरे साथ चल रही थी। मैं उससे बातें कर रहा था। उसको धक्का न लग जाए, इसलिए मैं नीचे बचा और व्यर्थ टांग तोड़ ली। एक ऐसी औरत के लिए जो थी नहीं, एक ऐसी टांग टूट गई जो बिल्कुल थी।
अलेक्जेंडर ड्यूमा का नाम सुना होगा, एक दूसरा बहुत बड़ा नाटककार था। उसने पेरिस में अपना मोहल्ला बदला। एक मोहल्ले में रहता था, वहां के लोग तो परिचित हो गए थे उससे, उसके पागलपनों से। लेकिन मोहल्ला बदल लिया, दूसरे मोहल्ले के लोगों को कोई पता नहीं था। रात मोहल्ले के लोगों की, आधी रात नींद खुल गई। कोई बड़ा झगड़ा मचा हुआ था। नया जो मेहमान आया हुआ था, उसके कमरे में ऐसा मालूम हो रहा था कि कोई हत्या हो जाएगी। दो आदमी लड़ रहे थे, तलवारों की खटाखट आवाज आ रही थी। दो आदमियों की आवाजें आ रही थीं, दो अलग आवाजें आ रही थीं, एक-दूसरे को गालियां दे रहे थे, कोई झगड़ा हो गया था। दरवाजे सब तरफ से बंद। मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए, उन्होंने पुलिस को खबर की। दरवाजे तोड़ कर अंदर घुसा जा सका।
अलेक्जेंडर ड्यूमा अकेला ही तलवार लिए दरवाजे के सामने खड़ा था। पूछा कि दूसरा आदमी कहां है?
ड्यूमा ने कहाः कौन सा दूसरा आदमी? लोगों को देख कर वह थोड़ा ठंडा हुआ। पसीना-पसीना हो रहा था, तलवार लिए हुए था। उसने कहाः माफ करिए, आप जाइए। मैं अपने नाटक के एक पात्र के साथ द्वंद्व-युद्ध कर रहा था।
लोगों ने कहा कि दो आवाजें आ रही थीं।
उन्होंने कहाः जब मैं अपने पूरे जोश में आ जाता हूं तो अपनी तरफ से भी बोल लेता हूं, उसकी तरफ से भी बोल लेता हूं। मुझे पता भी नहीं चलता है कि यह क्या हो रहा है! लेकिन जब मैं इस तरह जी लेता हूं किसी घटना को तभी मैं लिख पाता हूं, तभी वह जिंदा हो जाती है, नहीं तो मुर्दा हो जाती है। बैठ कर मैं नहीं लिख सकता। पसीना-पसीना! तलवार लिए खड़ा है!
ये ऐसे लोग अगर भगवान के दर्शन करना चाहें, इन्हें देर लगेगी? इनको क्षण भर देर न लगेगी। ये जब चाहें, मुरली बजाने वाले भगवान इनके सामने खड़े हो सकते हैं। जब चाहें, धनुर्धारी राम खड़े हो सकते हैं। कोई भी खड़ा हो सकता है। इनकी कल्पना की ईजाद और इनका इतना भावाविष्ट मन! इतना इमेजिनेटिव! ये कोई भी चीज को अनुभव कर सकते हैं। लेकिन यह कोई भगवान का अनुभव न होगा। यह प्रोजेक्शन है, यह मन का ही प्रक्षेप है। मन समर्थ है कल्पनाएं देखने में। तो भक्ति सिर्फ एक कल्पना है, और भक्ति के द्वारा आप जैसे भगवान को चाहें बिल्कुल देख सकते हैं। लेकिन वह भगवान आपकी कल्पना के सिवाय और कहीं नहीं है।
और यह हो सकता है कि एक राम के भक्त को, एक कृष्ण के भक्त को, एक क्राइस्ट के भक्त को, तीनों को एक कमरे में एक रात बंद कर दिया जाए, तो कृष्ण का भक्त कृष्ण को बांसुरी बजाते हुए देखता रहेगा उसी कमरे में, उसी में राम का भक्त धनुर्धारी राम को देखता रहेगा, उसी कमरे में क्राइस्ट का भक्त सूली पर लटके हुए क्राइस्ट को देखता रहेगा। और अगर बाकी से पूछा जाए कि तुमको इनके भगवान दिखाई पड़े थे? तो वह हंसेगा, कहेगाः इनके भगवान कहां? मेरे भगवान थे! इनके तो कोई थे नहीं। तीनों विवाद करेंगे कि तुम्हारे भगवान कहां हैं, हमें तो दिखाई नहीं पड़ते। अपने-अपने भगवान तीनों को दिखाई पड़ते रहेंगे। किसी दूसरे का भगवान किसी दूसरे को दिखाई नहीं पड़ेगा।
अपनी कल्पना है, अपनी कल्पना का लोक है और हजारों वर्षों तक धर्म को इस कल्पना के जोड़ने के कारण ही धर्म एक विज्ञान, एक साइंस नहीं बन पाया। और आज सारी दुनिया में साइंस के मुकाबले धर्म को रोज हार खानी पड़ रही है। उसके पीछे यह कल्पना का सारा जाल है। अगर पांच हजार वर्षों में कल्पना से धर्म को बचाया होता और तथ्य और सत्य की खोज में एक वैज्ञानिक विधि को विकसित किया होता तो आज विज्ञान से धर्म को हार जाने का कोई कारण न था। विज्ञान के सामने धर्म मात खा रहा है, रोज हार रहा है, रोज जमीन खो रहा है। उसका एकमात्र कारण हमने जो धर्म खड़ा किया हुआ है वह एकदम कल्पना पर खड़ा किया है। सत्य पर, यथार्थ पर नहीं, विज्ञान की विधि पर नहीं, मन की कविता पर खड़ा है।
कविता धर्म नहीं है। काव्य कर लेना और बात है। खूबसूरत है काव्य। कल्पनाएं कर लेना और बात है। सुंदर हैं कल्पनाएं। उनमें आनंद भी आ सकता है। सपने सुखद भी हो सकते हैं। लेकिन सुखद होने से कोई सपना सत्य नहीं हो जाता।
मेरा निवेदन है, एक वक्त जमीन के इतिहास में आ गया है, एक समय आ गया मनुष्य की चेतना में, कि उस धर्म का जन्म हो जो भक्ति न हो, विज्ञान हो, साइंस हो। उस धर्म का जन्म हो जो कल्पना न हो, सत्य हो। धर्म का जन्म हो जो हमारी आशाओं और इच्छाओं पर नहीं, हमारी कल्पनाओं और विचारों पर नहीं, बल्कि हमारे प्राणों के सीधे साक्षात और अनुभव पर खड़ा हो।
आसान हैं ये सारी बातें। कल्पना कर लेनी आसान है और अनुभव कर लेना भी। और इस अनुभव के लिए सहारे भी खोज लिए गए हैं।
क्या आपको पता है, दुनिया में बड़ा भाग भक्तों का, संन्यासियों का गांजा, अफीम, शराब और न मालूम क्या-क्या नशे करता आ रहा है। क्यों? क्या आपको पता है, यह अकारण है? यह अकारण नहीं है। चाहे दूर मेक्सिको में, चाहे तिब्बत में, चाहे भारत में, चाहे चीन में, चाहे यूनान में, दुनिया के कोने-कोने में इस तरह के काल्पनिक भगवान के खोजियों ने नशे का उपयोग किया है, क्यों?
नशे से कल्पना आसान हो जाती है। नशे में कल्पना प्रखर हो जाती है। होश खो जाता है, कल्पना तीव्र हो जाती है। जितना तेज नशा हो उतनी ही कल्पना तेज और आसान हो जाती है। फिर उस कल्पना की लहरों में कुछ भी देखा जा सकता है। भांग में, अफीम में, गांजे में, और अभी नई-नई ईजादें हो रही हैं अमेरिका में। अमेरिका में नये भक्तों का संप्रदाय खड़ा हो रहा है। अल्डुअस हक्सले उनके नेता हैं। वहां भक्तों का एक संप्रदाय बन रहा है। उन्होंने नई ईजादें कर ली हैं वैज्ञानिक। मैस्कलीन नाम का एक इंजेक्शन बना लिया है और एल एस डी नाम का एक एसिड तैयार कर लिया है। मैस्कलीन का इंजेक्शन लगवा लीजिए, छह घंटे तक भगवान के दर्शन करिए। क्योंकि मैस्कलीन जो है, शुद्ध से शुद्ध नशा है खींचा हुआ। उसे आपकी नसों में डाल दिया, छह घंटे के लिए मस्त हो जाइए। समाधि में पहुंच जाइए, नाचिए, कूदिए, खूब भगवान का कीर्तन कीजिए और खूब आनंद अनुभव कीजिए और जैसा भगवान चाहिए वैसा देख लीजिए। क्रिश्चियन को लगा दो, क्राइस्ट दिखाई पड़ने लगते हैं। और हिंदू को लगा दो, तो कृष्ण दिखाई पड़ने लगते हैं। मैस्कलीन बड़ा अदभुत है। जैसा भगवान चाहो वैसा पैदा हो जाता है।
असल में जो कल्पना आपके मन में बैठी है, वह नशा उसे जीवन दे देता है। उसे छोड़ देता है, उसे रिलीज कर देता है आपके चित्त से। वह आपके सामने खड़ी हो जाती है। नशे में लोग और चीजें तो देखते ही हैं और न मालूम क्या-क्या देखते रहे हैं, भगवान भी देख लिया। तो पश्चिम में बहुत जोर का फैड पैदा हुआ है। मैस्कलीन लगवाओ। हो सकता है आने वाले दिनों में हिंदुस्तान में भी वे दवाइयां आ जाएंगी। कितनी देर लगेगी? अमेरिका हिंदुस्तान में फासला कितना है? और अमेरिका के बड़े-बड़े लोग उसकी तारीफ कर रहे हैं कि बड़ा आसान है।
अल्डुअस हक्सले ने कहा कि पुराने साधुओं को, कितनी बेचारों को तकलीफ उठानी पड़ी। सालों तपश्चर्या करो, वह यह करो, उलटे-सीधे खड़े होओ, योगासन खड़े करो, सिर नीचा करो, पैर ऊपर करो, उपवास करो, कितनी तकलीफें उठानी पड़ीं। अब हमने ज्यादा अच्छी एक तरकीब निकाल ली। मैस्कलीन लगाओ और समाधि में आनंदित, मग्न हो जाओ। अल्डुअस हक्सले का कहना है कि जैसे पुराने जमाने के लोग बैलगाड़ी में चलते थे, बहुत वक्त लगता था। ऐसे पुराने भक्ति के रास्ते थे। यह नया रास्ता है। इससे सीधा जेट प्लेन की तरह आप न मालूम कितनी लंबी यात्रा एकदम कर लेते हैं। फर्क दोनों में नहीं है। कल्पना में खड़ा हुआ जो धर्म है वह नशे का उपयोग है ही। कल्पना खुद एक नशा है।
आपने देखा है, जब आप चित्त में कल्पना से भर जाते हैं तो कैसे नशे में झूम उठते हैं। जब भी कोई कल्पना मन को पकड़ती है तो कैसे इनटॉक्सीकेट अनुभव करने लगते हैं, कैसा नशा मालूम होने लगता है। अलमस्त हो जाते हैं, मस्ती छा जाती है।
और नशे की स्थिति के अलावा भी बहुत तरकीबें की गई हैं जिनका ठीक-ठीक हिसाब लगाना आज कठिन हो गया है। एक आदमी लंबा उपवास कर ले तो हम कहते हैं, बड़ी तपश्चर्या कर रहा है। लेकिन आपको पता है, लंबे उपवास के बाद कल्पना आसान हो जाती है, जैसा नशे से आसान हो जाती है। लंबे उपवास में शरीर की शक्ति गिर जाती है। शक्ति गिरने से कल्पना तीव्र हो जाती है।
आपको अगर लंबा बुखार आया हो और भोजन न मिला हो तो आपको पता होगा, लंबे बुखार में भोजन न मिला हो तो खाट आसमान में उड़ सकती है, देवी-देवता दिखाई दे सकते हैं। और सब कुछ हो सकता है। कमजोरी में चित्त काल्पनिक हो जाता है। ताकत में चित्त काल्पनिक नहीं होता। इसलिए जितना कमजोर आदमी हो उतना अच्छा भक्त हो सकता है। जितना शक्तिशाली आदमी हो उतना जरा भक्ति मुश्किल है। इसलिए कोई शक्तिशाली हो तो उपवास करवा-करवा कर उसको कमजोर कर देने का उपाय है। तब फिर वह आसानी से भक्त हो सकता है। उस कमजोरी में, चित्त जहां कमजोर है वहां कल्पना प्रबल हो जाती है। तो उस कल्पना की प्रबलता में फिर जिसको देखना हो उसको देखा जा सकता है।
लेकिन, यह कीर्तन और भजन और भक्ति कहीं ले जाते नहीं। हां, थोड़ी देर को राहत देते हैं, शांति देते हैं, थोड़ी देर को मन को उलझाने का साधन हो जाते हैं। एस्केप बन जाती है, पलायन मिल जाता है, थोड़ी देर को बचाव मिल जाता है। इससे ज्यादा नहीं। लेकिन जिसको सच में परमात्मा की खोज की तरफ आंखें उठानी हों, जिसके मन में यह ख्याल हो कि खोजना है सत्य को, उसे स्मरण रखना होगा कि चित्त की सारी की सारी कल्पनाओं के जाल तोड़ देने होंगे। वे खूंटियां हटा देनी होंगी जो झूठी हैं, कल्पना की हैं और वे रस्सियां काट देनी होंगी जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। और उस सत्य को खोजना होगा जो है। उस सत्य की हमें कोई कल्पना करने की जरूरत नहीं है। अगर वह है तो हम शांत होकर खड़े हो जाएं, वह हमें दिखाई पड़ेगा। और अगर वह नहीं है तो ही हमें उसे खोजना और निर्मित करना होगा।
एक व्यक्ति आज ही मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि मैं तो निरंतर भाव रखता हूं कि सब जगह ब्रह्म छाया हुआ है, सब जगह ब्रह्म व्याप्त है।
तो मैं पूछता हूंः अगर यह अनुभव हो रहा हो कि ब्रह्म सब जगह व्याप्त है, तो इसके भाव करने की कौन सी जरूरत है? अगर एक आदमी सुबह से उठ कर दिन भर यह कहे कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं, तो आपको शक हो जाएगा कि इसको खुद भी कोई शक है पुरुष होने का। अगर यह पुरुष है तो इसको दोहराने की क्या जरूरत है? अगर यह है, तो बात हो गई। अगर किसी को यह अनुभव हो रहा है कि सब जगह भगवान व्याप्त है तो इसको दोहराने की क्या जरूरत है कि सब जगह भगवान व्याप्त है, सब जगह भगवान व्याप्त है। जो इसे दोहरा रहा है, उसे अनुभव नहीं हो रहा है। उसे अनुभव न होने के लिए ही वह दोहरा रहा है। और दोहरा-दोहरा कर कल्पना कर रहा है कि सब जगह भगवान व्याप्त है। ऐसी कल्पना अगर वह कर भी ले तो वह कल्पना भगवान का अनुभव नहीं है। वह हमारी ही कल्पना का अनुभव है।
अंतिम रूप से आज की चर्चा में यह कहना चाहूंगा कि मनुष्य का चित्त जब सब तरह की कल्पनाओं को छोड़ कर शांत होता है, जब कोई कल्पना चित्त में नहीं रह जाती, तभी उसी निर्दोष और शांत क्षण में, उसी झील की भांति मौन चित्त में उसका दर्शन होता है, जो है। अगर उसे जानना है जो है तो उसे छोड़ देना होगा जो हमने कल्पित किया हुआ है, तभी अनुभव हो सकता है सत्य का। इसलिए मैंने खूंटियों वाली कहानी कही। हम बहुत सी खूंटियों से बंधे हैं जो हमारी अपनी ईजाद हैं, जिनका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। वे सब कल्पना की खूंटियां हैं, कल्पना के जाल हैं। और उनको ही धर्म कहा जाता रहा है। इसलिए आज अगर आपसे मैं कहूं कि वह धर्म नहीं है तो बड़ी चोट पहुंचती है। चोट पहुंचनी स्वाभाविक है।
अगर उस ऊंट को भी कोई कहता कि पागल, तू जहां बंधा है वहां कोई खूंटी नहीं है, तो वह भी नाराज होता। और अगर कोई बहुत तेज ऊंट होता, तो झगड़ा करने को खड़ा हो जाता। और अगर कोई सिद्धांतवादी ऊंट होता, तो तर्क करने को खड़ा हो जाता। वह तो बेचारा ऊंट था, न तो उससे किसी ने कहा और न झगड़ा हुआ और न पता चल सका कि उस ऊंट का क्या ख्याल था इस मामले में।
लेकिन अगर आपसे कोई कहे कि आप बिल्कुल कल्पना से बंधे हैं, तो आप नाराज हो जाएंगे, क्योंकि हमारे अहंकार को यह स्वीकार नहीं होता है कि हम कल्पना से बंधे हैं। हमारा तो ख्याल यह होता है कि हम सत्य के साथ खड़े हैं। हरेक को यह ख्याल है कि मैं सत्य के साथ खड़ा हूं। लेकिन अगर आप सत्य के साथ खड़े हैं तो आपके जीवन में परम आनंद की वर्षा हो जाती। तो आपके जीवन में आलोक बरस जाता। तो आपका जीवन मंगल से भर जाता। तो आपके जीवन में दुख-पीड़ा विलीन हो जाती। तो आपके जीवन में विसंगीत न रह जाता। तो आपके जीवन में आती एक सुगंध, आता एक संगीत, आती ताजी हवाएं जो आपको मुक्त कर देतीं।
लेकिन वह तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। न तो वह संगीत सुनाई पड़ता है जीवन से, न वे ताजी हवाएं जीवन में मालूम होती हैं, न वह आह्लाद, न वह आनंद, न कोई अर्थ, न कोई प्रकाश, न कोई थिरक, न कोई पुलक, कुछ भी तो नहीं मालूम होता। तो कैसे मान लें कि सत्य के साथ आप खड़े हैं? अगर हम किसी बगीचे के पास जाएं और न वहां सुगंध आती हो, न ठंडी हवाएं आती हों, न वहां कोई हरियाली दिखाई देती हो और कोई हमसे कहे कि आप बगीचे में खड़े हैं तो हम कहेंगे--बगीचे में कैसे खड़े हैं? न कोई ठंडक मालूम होती है, न कोई शीतल हवाओं का पता चलता है, न कोई सुगंध! कैसा है यह बगीचा? तो वह कहेः यह बगीचा ऐसा है, जिसमें कोई पौधे वगैरह नहीं हैं, फूल वगैरह नहीं हैं, ऐसा बगीचा है यह। तो फिर बात अलग है।
जिस सत्य के साथ मनुष्य-जाति खड़ी है, अगर वह ऐसा सत्य है कि न उसमें कोई आनंद है, न कोई सौंदर्य है, न कोई स्वतंत्रता है, तो फिर ठीक है। अगर ऐसा कोई बगीचा है जहां कोई पौधे, फल-फूल कुछ भी नहीं हैं तो नाम ही है बगीचा, ऐसे है मरुस्थल। तो ऐसे अगर किसी सत्य के पास खड़े हैं तो बात अलग है। लेकिन जांचिए और परखिए और खोज करिए कि जिसे हम सत्य मान रहे हैं अगर वह सत्य होता तो हम दूसरे तरह के आदमी हो गए होते। लेकिन हम तो कीड़ों-मकोड़ों की तरह करीब-करीब जीवन गुजार रहे हैं। तो निश्चित ही इस बात की सूचना है कि हम सत्य के निकट नहीं हैं, हम किसी असत्य को सत्य मान कर बैठे हुए हैं, इसलिए हमारा सारा श्रम व्यर्थ जा रहा है। हमारी सारी साधना व्यर्थ जा रही है। हमारी सारी खोज व्यर्थ जा रही है। कहीं हम पहुंचते नहीं, कहीं हम कुछ पाते नहीं। एक कोल्हू के बैल की तरह का घेरा है, उसमें हम घूमते हैं, घूमते हैं और समाप्त हो जाते हैं।
इसलिए यह जानते हुए भी कि मेरी बातें शायद आपको चोट पहुंचाएं, मैं उन बातों को कहने को तैयार हूं जो कई बार ऐसी लगती हैं कि आपके मन पर हिंसा हो जाएगी, आपको दुख पहुंचेगा, चोट पहुंचेगी। लेकिन कई बार ऐसा हो जाता है कि घाव मिटाने को कुछ चोट पहुंचानी पड़ती है ताकि वह फूट जाए और बह जाए। और कई बार ऐसा हो जाता है कि जो आपको प्रेम करते हैं उनको भी आपके साथ सर्जरी करनी होती है। मैं जो भी कर रहा हूं, मेरे प्रेम से कर रहा हूं, और कोई भी कारण नहीं है, और कोई वास्ता भी नहीं है। मुझे जो बात ठीक लगती है वह आपसे कह रहा हूं। आपको चोट पहुंचे, जानता हूं कि पहुंचेगी। चाहता हूं, पहुंचनी चाहिए। शायद चोट पहुंच जाए तो आपके भीतर विचार पैदा हों, शायद कोई धक्का दे दे, आपकी नींद खुल जाए।
नाराज तो आप होंगे उससे, जो आपको धक्का देकर नींद खुलाएगा, क्योंकि नींद टूटना किसी को भी पसंद नहीं आता है। नाराज तो आप होंगे कि इस आदमी ने बेवक्त नींद तोड़ दी। अभी तो हम अच्छा-अच्छा सपना देख रहे थे, इसने जगा दिया।
कितना ही अच्छा सपना हो, लेकिन जागरण के मुकाबले कुछ भी नहीं है। टूट जाए और जागरण आ जाए तो चाहे कितना ही मधुर रहा हो सपना, जागते ही आप पाएंगे कि सपना झूठा था, जागरण सत्य है। उसकी ही खोज कर रहे हैं।
कल अंतिम दिन और, अंतिम सूत्रों पर आपसे बात करूंगा कि वह जागरण कैसे फलित हो सकता है जो सारी कल्पनाओं से मुक्त कर दे और सत्य के सामने ले जाए और पहुंचा दे वहां जहां परमात्मा है--उसकी कल हम अंतिम बात करेंगे। अभी कुछ और प्रश्न हैं, वह कल मैं ले लूंगा।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए पंद्रह मिनट के लिए बैठेंगे। थोड़ा सा रात के ध्यान के संबंध में आप समझ लेंगे और फिर दूर-दूर फैल जाएंगे।
आप पहले हट ही जाएं दूर-दूर, चूंकि लेट जाना होगा ध्यान के लिए, इसलिए अपना-अपना स्थान बना लें।
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