आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2
बाहरवां-प्रवचन --आंतरिक एकालाप का भंजन
पंद्रहवाँ सूत्र
मौनं स्तुतिः।मौन ही प्रार्थना है।
मौन ही प्रार्थना है। प्रार्थना से हमारा मतलब सदा परमात्मा से कुछ कहने का होता है। लेकिन उपनिषद कहते हैं कि जो कुछ भी तुम कहोगे वह प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना की नहीं जा सकती। तुम प्रार्थना नहीं कर सकते, वह कोई कृत्य नहीं है। वह तुम्हारा करना नहीं है। इसलिए वस्तुतः तुम प्रार्थना नहीं कर सकते। तुम केवल प्रार्थना ‘हो’ सकते हो। प्रार्थना तुम्हारे कुछ भी करने से संबंधित नहीं है। वह तुम्हारे अस्तित्व का किसी खास स्थिति में होना है।
इसलिए पहली बात जो कि समझ लेनी है, वह यह क मनुष्य के अस्तित्व में दो आयाम हैं। एक है उसका होना, उसका अस्तित्व, दूसरा है उसका करना। प्रार्थना दूसरे का हिस्सा नहीं है। तुम उसे नहीं कर सकते, और जोप्रार्थना तुम कर सकते हो, वह झूठी होगी, अप्रामाणिक होगी। तुम हो सकते हो-प्रार्थना तुम्हारे होने के आयाम से संबंधित है।
यह शरीर जा भी करे वह प्रार्थना नहीं हो सकती। शरीर प्रार्थना में हो भी नहीं सकता। मन प्रार्थना नहीं कर सकता, प्रार्थना में हो भी नहीं सकता। शरीर कुछ करने के लिए बना है, यह करने के लिए साधन है। मन भी करने के लिए, किसी कृत्य के लिए साधन है। सोचना क्रिया का हिस्सा है, वह भी कृत्य है।
इसलिए तुम अपने शरीर से ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते जो कि प्रार्थना बन सके, न ही मन से तुम ऐसा कुछ कर सकते हो जो कि प्रार्थना कहला सके, क्योंकि ये दोनों ही करने के, कृत्य के आयाम से जुड़े हैं। प्रार्थना शरीर और मन के पार होती है। अतः यदि तुम्हारा शरीर पूर्णतया अक्रिया में है, निष्क्रिय है, और तुम्हारा मन भी खो गया है, रिक्त हो गया है, तभी प्रार्थना संभव है।
यह सूत्र कहता है, मौन ही प्रार्थना है। जब मन काम नहीं कर रहा है, जब शरीर भी निष्क्रिय हो गया हो, तब मौन है। जो कुछ भी उस मौन में जाना जाता है वह मन का हिस्सा नहीं है। इसलिए जब भी हम कहते हैं कि उसका मन शांत हो गया है तो वह अर्थहीन बात है। मन कभी शांत नहीं हो सकता। मन के होने का मतलब ही अशांति होता है। मन यानी शोरगुल, शांति नहीं अतः जब हम कहते हैं कि उसका मन शांत हो गया है, तो वह गलत बात है। यदि कोई सच में ही चुप हा गया है, तब हमें कहना चाहिए उसके पास मन नहीं है।
‘शांत मन’ यह स्वविरोधी शब्द है। यदि मन होगा तो वह मौन नहीं हो सकता। और यदि मौन है तो मन नहीं होगा। इसलिए झेन फकीर ‘अ-मन’ शब्द का उपयोग करते हैं, वे कभी भी शांत मन नहीं कहते। ‘अ-मन’ ही मौन है। और जैसे ही मन नहीं होता, तुम्हें अपने शरीर की भी प्रतीति नहीं होती, क्योंकि मन की राह से ही शरीर की प्रतीति होती हैं यदि कोइ मन नहीं हो, तो तुम्हें ऐसा नहीं लग सकता कि तुम शरीर हो। चेतना से शरीर विलीन हो जाता है। इसलिए प्रार्थना में न तो मन रहता है और न शरीर ही केवल शुद्ध अस्तित्व को मौन के द्वारा इंगित किया है।
इस प्रार्थना को कैसे उपलब्ध करें-इस मौन को? इस प्रार्थना में कैसे हुआ जाये? इस मौन में कैसे डूबा जाये? जो भी तुम करोगे वह व्यर्थ होगा, यही सबसे बड़ी समस्या है। एक धार्मिक साधक के लिए यह बड़ी से बड़ी समस्या है, क्योंकि वह जो भी करेगा उससे वह कहीं न पहुँचेगा-क्योंकि करने से उसका कुछ संबंध नहीं है। तुम किसी विशेष आसन में बैठ जाओ, वह भी करना होगा। तुमने बुद्ध का आसन देखा होगा। तुम भी बुद्ध के आसन में बैठ सकते हो, वह भी करना होगा। बुद्ध के लिए यह आसन घटित हुआ है। यह कोई उनके मौन का कारण नहीं है। बल्कि, वह बाई-प्रोडक्ट है, उसकी सह-उत्पति है।
जब मन नहीं हो जाता है, जबकि अस्तित्व पूरी तरह मौन हो जाता है तोशरीर छाया की तरह पीछे-पीछे चलता है। तब शरीर एक विशेष आसन ग्रहण करता है-सर्वाधिक विश्रामपूर्ण, सबसे अधिक निष्क्रिय। लेकिन तुम इससे उलटा नहीं कर सकते। तुम पहले ऐसा नहीं कर सकते कि आसन ग्रहण कर लो और पीछे-पीछे शान्ति उतार लो। चूँकि हम बुद्ध को एक विशेष आसन में बैठे हुये देखते हैं तो हम सोचते हैं कि हम भी यदि इस आसन में बैठ जायें तो आंतरिक शान्ति भी आ जायेगी। यह गलत श्रृंखला है। बुद्ध के लिए अन्तर की बात पहले घट गई है, और उसके बाद यह आसन आया है।
इसे अपने अनुभव से देखोः जब तुम्हें क्रोध आता है, तोशरीर एक विशेष मुद्रा ले लेता है। तुम्हारी आँखें लाल हो जाती हैं, तुम्हारे चेहरे पर एक प्रकार का भाव आ जाता है। क्रोध भीतर होता है और शरीर उसका अनुकरण करता है। बाहर से ही नहीं, भीतर से भी शरीर की सारी रासायनिक प्रक्रिया बदल जाती है। तुम्हारा खून तेज गति से दौड़ने लगता है, तुम्हारी साँस दूसरी ही तरह से चलने लगती है। तुम लड़ने के लिये, अथवा भागने के लिये तैयार हो जाते हो। लेकिन पहले क्रोध होता है और फिर शरीर उसका अनुकरण करता है।
दूसरे ध्रुव से शुरू करें : अपनी आँखें लाल कर लें, साँस की गति तेज कर लें, जो-जोशरीर करता हो वह सब करें, जबकि क्रोध आता है। तुम क्रोध की नकल कर सकते हो, लेकिन तुम भीतर क्रोध को पैदा नहीं कर सकते। एक अभिनेता यही तो कर रहा है सारे समय। जब वह प्रेम का पार्ट अदा कर रहा है, तो वह शरीर से बही सब कर रहा है, जो प्रेम में घटता है। परनतु भीतर कोई प्रेम नहीं है। और हो सकता है कि एक अभिनेता तुमसे ज्यादा अच्छा कर रहा है, लेकिन उससे प्रेम पैदा नहीं होगा। वह तुमसे ज्यादा भली प्रकार क्रोधित होगा, जितना कि तुम असली क्रोध में भी नहीं हो सकोगे, लेकिन वह सब झूठ है। भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है।
जब भी तुम बाहर से कुछ करते हो, तो तुम एक झूठी स्थिति निर्मित करते हो। असली तो पहले भीतर केन्द्र पर घटित होता है, और उसके बाद उसकी तरंगें बाहर परिधि पर पहुँचती हैं। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि प्रार्थना मौन है। यह प्रार्थना में अन्तस्थ केन्द्र है। यहीं से प्रारंभ करो।
लेकिन यह बहुत कठिन है। और कई कारणों से यह कठिनाई पैदा होती है। पहली बात तो यह है कि तुमने कभी मौन जाना ही नहीं, इसीलिए वस्तुतः यह शब्द ही अर्थहीन है। तुमने यह शब्द सुना है, तुम जानते हो कि इसका अर्थ क्या है? लेकिन वस्तुतः इसकी अनुभूति का तुम्हें कुछ भी पता नहीं। मौन का अनुभव कैसा होता है यह तुम नहीं जानते। इसीलिए इससे कुछ भी मतलब नहीं निकलता। यह शब्द कानों में मूंजता है, हम सोचते हैं कि हम जानते हैं, लेकिन उससे कुछ भी नहीं समझा जाता। यह शब्द ही हमसे बिल्कुल अपरिचित है। जहाँ तक अनुभव का प्रश्न है, केवल शब्द की ध्वनि का ही हमें पता है।
मुल्ला नसरुद्दीन मस्जिद में अपने तीन और मित्रों के साथ मौन का अीयास कर रहा था। वह एक धार्मिक दिन था और उन्होंने चौबीस घंटे के लिए मौन रहने की प्रतिज्ञा की थी। यही उनकी प्रार्थना थी। ‘मौन ही प्रार्थना है’-उन्होंने यह बात सुनी थी। पाँच-दस मिनट बाद ही उन्होंने बोलना शुरू कर दिया। पहले आदमी ने कहा, मुझे शक है कि मैंने अपने घर पर ताला लगाया है या नहीं। दूसरे ने कहा कि यह तुमने क्या किया, तुमने मौन तौड़ दिया। अब तुम्हें फिर से प्रारंभ करना पड़ेगा। तीसरे ने कहा कि ओ मूर्ख! तूने भी मौन तोड़ दिया? मुल्ला नसरुद्दीन चौथा था। उसने कहा कि अल्लाह की बड़ी मेहरबानी है, मैं ही केवल बचा हूँ जिसने कि अभी तक मौन नहीं तोड़ा। उन्होंने ‘मौन’ शब्द तो सुना है, उन्होंने यह सुना था कि मौन ही प्रार्थना है।
ऐसा क्यों होता है? जब कोई दूसरा मौन तोड़ता है, तो हर एक उसके प्रति सजग हो जाता है। लेकिन जब कोई स्वयं ही मौन तोड़ता है, तो वह अपने ही प्रति सजग नहीं होता। क्यों? क्योंकि उनके लिए बात करना, कुछ भी बोलना ही मौन तोड़ना था। वास्तव में, जो कुछ भी तुम बोलते हो, उसे तुम खुद कभी नहीं सुनते, जब कोई दूसरा कहता है तो तुम उसे सुनते हो। तुम अपनी आवाज और ध्वनि से इतने परिचित हो कि तुम जानते ही नहीं कि तुम क्या कह रहे हो, कि तुम क्या बोले चले जा रहे हो।
दूसरी कठिनाई यह है कि तुम सतत अपने भीतर बोल रहे हो, इसलिए यदि तुम बाहर कुछ बोलते हो, तो उसमें कोई भी अन्तर नहीं पड़ता। भीतर तो तुम बोल ही रहे थे। अब तुमने बाहर भी कुछ बोल दिया, लेकिन जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, तुम्हारे लिए इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जब कोई और बोलता है तो तुम्हारे लिए कुछ नई बात होती है। अब तक वह चुप था, अब वह कुछ बोला है। जब तुम भीतर बोल रहे हो, तब यदि तुम कुछ भी बाहर बोलोगे, तो तुम्हें उसका पता नहीं रहेगा। कोई दूसरा ही जान पाता है कि तुमने मौन तोड़ दिया।
तुम्हें दूसरों का पता ही इसलिए चलता है कि तुम भीतर सतत अपने से ही बोल रहे हो। एक एकालाप, एक सतत एकालाप भीतर चल रहा है। जागे हो अथवा सोये हो, तुम लगातार बोल रहे हो। यह लगातार बातचीत ऐसी एक आदत बन गई है कि तुमने इसका कोई इन्टरवेल ही नहीं जाना। जब तुम भीतर नहीं बोलते और बाहर दूसरों से बात कर रहे हो, तो तुम एक भार से मुक्ति का अनुभव करते हो, विश्राम अनुभव करते हो क्योंकि जब तुम दूसरों से बोलते हो, तो स्वयं से बोलने के एक कर्तव्य से मुक्त हो जाते हो। और अपने आप से बोलना इतना उबाने वाला है। तुम पहले ही जानते हो कि तुम क्या कहोगे, और फिर भी तुम उसे कहते हो।
कोई भी तुम्हारे लिए इतना उबाने वाला नहीं होगा जितने कि तुम स्वयं हो। तुमने वही वही बात लाख बार कही होगी, और फिर भी तुम कहे ही चले जाते हो। तुम कोई आविष्कारक नहीं हो। तुम एक वर्तुल में घूमते रहते हो, उसी बात को पुनरुक्त करते हुए। इस पर ध्यान दो। एक चौबीस घंटे के लिये इस बात को देखो और नोट करो कि तुम अपने से क्या कह रहे हो। तब तुम्हें बड़ा अजीब लगेगा कि तुम वही बात अपने से सारी जिन्दगी कहे चले जाते हो।
एक दिन में ही तुम अपने को पुनरूक्त करते चले जाते हो। यह एक गहरी आदत बन गई जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। और जब कोई चीज़ गहरी जड़ जमा लेती है तो तुम्हें उसका होश नहीं रहता। वह स्वचालित हो जाती है। शरीर का जो रोबोट पार्ट है, शरीर की जो यांत्रिकता है, वह उसे ले लेती है और उसे चलाती रहती है। इसीलिए मौन इतना कठिन है, क्योंकि मौन का अर्थ होता है कि भीतर के एकालाप को तोड़ना। यह कोई किसी और से बात करने का सवाल नहीं है। मौन दूसरे से संबंधित नहीं है। भीतर गहरे यह तुमसे ही संबंधित है।
अपने आप से बात मत करो। यह बहुत कठिन है। अतः हमें कारण खोजने पड़ते हैं कि क्यों हम अपने से बात करते हैं। असल में, क्या हम अपने से बात करते ही रहते हैं? यदि तुम ध्यान दो तो तुम कारण खोज सकते हो। कारण यह है कि कुछ भी जीवन में पूरा नहीं है, सभी कुछ अधूरा है। तुम भोजन कर रहे हो और दफ्तर की बात सोच रहे हो। अतः भोजन करना तृप्तिदायी नहीं होगा, उससे संतुष्टि नहीं होगी। तुम संतोष अनुभव नहीं करोगे। वह अधूरा ही रह जायेगा।
तुम जल्दी-जल्दी भोजन कर लेते हो। तुम जैसे-जैसे अपने पेट को भर लेते हो और दफ्तर दौड़ जाते हो। एक प्रक्रिया अधूरी रह गई। फिर जब तुम दफ्तर में होओगे तो अपनी पत्नी, बच्चों की सोचोगे, घर की हजारों चीज़ों के बारे में सोचोगे। तब तुम दफ्तर में नहीं होओगे। सारे दिन तुम दफ्तर में थे, फिर भी तुम वहाँ नहीं थे। दफ्तर का काम भी अधूरा ही रह गया, और अब तुम अपने घर आ गये हो। अब फिर दफ्तार के बारे में सोच रहे हो। तुम अपनी पत्नी के साथ हो, लेकिन तुम हो नहीं। तुम अनुपस्थित हो।
यह एक बड़ी मुश्किल बात है कि कोई पति अपनी पत्नी के साथ होता है-मुश्किल से कभी ऐसा होता है, और इससे बड़ी चोट पहुँचती है क्योंकि पत्नी को मालूम पड़ जाता है। पति को भी ऐसा लगता है कि पत्नी मौजूद नहीं है। कोई भी मौजूद नहीं है। सभी कुछ अधूरा है। तुमने जो अधूरा छोड़ दिया है वह मन को पूरा करना पड़ता है। इसलिए मन वर्तुल में घूमता रहता है। वह उन चीजों को पूरा करता रहता है जिन्हें कि तुमने अधूरा छोड़ दिया है।
क्या तुम्हें ऐसा कुछ भी स्मरण है जो कि तुमने पूरा किया है? क्या तुम्हारे जीवन में ऐसा कोई भी क्षण, केई भी अनुभव है जिसे कि तुम कह सको कि पूरा है-समग्र? यहद एक भी अनुभव ऐसा है जो कि पूरा हो, तो मन पीछे कभी नहीं जायेगा। फिर कोई भी जरूरत नहीं है। फिर वह व्यर्थ है। मन सिर्फ पूरा करने की कोशिश करता रहता है हर चीज़ की। मन की आदत है पूरा करने की। और जरूरी भी है, अन्यथा जीवन असंभव हो जाएगा।
इसलिए, यह जो सतत एकालाप भीतर चल रहा है यह तुम्हारे जीवन को गलत ढंग से जीने के कारण है, अधूरा जीने के कारण है। कुछ भी पूरा नहीं होता और तुम नई चीज़ों की शुरूआत करते रहते हो। तब फिर मन अधूरी चीज़ों से भर जाता है। वे कभी भी पूरी नहीं होंगी, लेकिन वे तुम्हारे मन पर एक बोझ हो जाएगी-एक सतत बोझ, एक सदैव बढ़ता हुआ बोझ, और उसी से एकालाप पैदा होता है।
इसीलिए जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो, तुम्हारा एकालाप बढ़ जाता है, और बूढ़े लोग जोर-जोर से बड़बड़ाने लगते हैं। वस्तुतः बोझ इतना बढ़ जाता है कि उस पर से नियंत्रण खो जाता है। अतः बूढ़े लोगों को देखो, व बैठे हैं, लेकिन उनके पैर चल रहे हैं, और वे बात कर रहे हैं, और हावभाव बना रहे हैं। वे क्या कर रहे हैं तुम सोचते हो कि वे पागल हो गये हैं, कि वे बूढ़े हो गये है और अब वे मूर्ख हो गये हैं।
नहीं ऐसी बात नहीं है। उनकी एक लम्बी अधूरी जिन्दगी रही है, और अब मृत्यु निकट है और मन जल्दी में है कि उस सब को पूरा कर लें। और यह असंभव लगता है। इसलिए यदि तुम इस एकालाप को ताड़ना चाहते हो, तो जो भी तुम हो, उसे पूरा करो। और नई चीजें शुरू मत करो। तुम विक्षिप्त हो जाओगे। जो भी कर रहे हो उसे पूरा करो-छोटी-से छोटी चीज़ को भी।
तुम स्नान कर रहे हो, उसे भी पूरी तरह करो। उसे पूरा कैसे करें? वहीं मौजूद रहो। तुम्हारी उपस्थिति से हो जाएगा। वहीं होओ, आनंद लो, उसे जिओ, अनुभव करो। तुम्हारे ऊपर जो पानी गिर हा है, उसको अनुभव करो। अपने स्नानघर से तभी बाहर आओ जबकि उसे पूरा कर लो। अन्यथा स्नान तुम्ळारा पीछा करेगा। वह छाया हो जाएगा, वह तुम्हारे पीछे-पीछे चलेगा। जब तुम भोजन कर रहे हो तो भोजन की करो। तब सभी कुछ भूल जाओ। तब इस सांर में दूसरी कोई भी बात मौजूद नहीं है, सिवाय तुम्हारे उस कृत्य के। जो भी तुम करो, उसे इतने पूरी तरह करो, इतने शांत भाव से बिना किसी जल्दबाज़ी के करो कि मन निखरने जाये, वह सन्तुष्ट हो जाये। तभी उसको छोड़ा।
लगातार तीन महीने तक हर कार्य को पूरा करने का होश रखने के बाद कभी-कभी तुम्हारे एकालाप में अन्तराल आने लगेंगे। तब पहली बार तुम्हें मालूम पड़ेगा कि यह एकालाप तो तुम्हारे कार्यों को अधूरा रखने के कारण था।
बुद्ध ने एक शब्द का प्रयोग किया है : राइट लिविंग-सम्यक जीवन। उन्होंने आठ सिद्धान्त बताये हैं। एक है सम्यक जीवन। सम्यक जीवन का अर्थ होता है समग्र रूप से जीना। गलत जीवन का अर्थ होता है कि अधूरा जीना।
यदि तुम क्रोध में हो तो, पूरी तरह क्रोध करो। प्रामाणिक रूप से क्रोध करो, उसे पूरा करो। उसकी पीड़ा कोझेलो। उसमें कोई नुकसान नहीं हैं, क्योंकि पीड़ा से ही तुम्हें प्रज्ञा उपलब्ध होगी। पीड़ा झेलने में कोई नुकसान नहीं है क्योंकि पीड़ा से ही कोई अतिक्रमण करता है। अतः उसके दंश कोझेलो। लेकिन प्रामाणिकरूप से क्रोधित होओ।
और तुम क्या कर रहे हो? तुम क्रोधित हो और तुम मुस्कुरा रहे हो अब यह क्रोध तुम्हारा पीछा करेगा। तुम सारी दुनिया को धोखा दे सकते हो लेकिन तुम अपने मन को धोखा नहीं दे सकते। मन भली-भाँति जानता है कि मुस्कुराहट झूठी थी। अब क्रोध भीतर-भीतर चलेगा वही एकालाप हो जायेगा। तब तुमने जो भी नहीं कहा, उसे तुम भीतर कहोगे। जो कुछ भी तुमने नहीं किया, उसे तुम कल्पना करोगे कि किया। अब तुम एक स्वप्न निर्मित कर लोगे। तुम अपने शत्रु से लड़ाई करोगे, इस क्रोध के कारण मन तुम्हें कुछ पूरा करने में मदद कर रहा है।
लेकिन वह भी असम्भव है क्योंकि तुम दूसरी बातें कर रहे हो। यह भी सहायक हो सकता है : अपना कमरा बन्द कर लो। तुम क्रोधित नहीं हुए थे, स्थिति ऐसी थी कि तुम क्रोधित नहीं हो सकते थे। अपना कमरा बन्द कर लो, और अब क्रोध कर लो। लेकिन इस एकालाप को चालू मत रखो। उसे कर लो। किसी पर क्रोध करने की जरूरत भी नहीं है, एक तकिया काफी है। उसके साथ लड़ो। अपने क्रोध को पूरा कर डालो, व्यक्त कर दो। लेकिन वह प्रामाणिक हो, वास्तविक हो। इसे सच्चा होना चाहिए, और तब तुम्हें भीतर अचानक विश्राम का भाव महसूस होगा। तब एकालाप टूट जायेगा। अब एक अन्तराल होगा, एक गैप होगा। यह गैप ही मौन है।
इसलिए पहली बात : इस एकालाप को तोड़ो। और तुम यह तभी कर सकते हो जबकि तुम्हारा जीवन सम्यक हो जाये, पूर्ण हो जाये। कभी अधूरा मत करो। भीतर की विक्षिप्तता को विसर्जित करो। एक ही जीवन की नहीं बहुत-से अधूरे जीवन थे-ऐसी हमारी स्थिति है। जब तुम प्रेम भी करते हो, तब भी तुम हजारों चीजें एक साथ कर रहे होते हो। तब प्रेम एक झूठ हो जाता है।
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यदि तुम किसी को प्रेम कर रहे हो और उस समय एक विचार भी तुम्हारे मन से गुजरा, तो तुम प्रेम करने से चूक गये। तुम अने प्रेम के विषय से दूर चले गये। एक गैप आ गया, संवाद टूट गया। जब दो प्रेमी प्रेम में होते हैं, तो बाकी कुछ भी नहीं होता सिर्फ प्रेम ही होता है : और कुछ भी नहीं। वे एक दूसरे के शरीर से खेल रहे हैं, उसमें पूरे खो गये हैं। उनकी चेतना से सारा संसार गायब हो गया है, कुछ भी नहीं बचा है। तब प्रेम पूरा हुआ। और तब मौन के पीछे पागल नहीं होंगे। तब उनके मन विकृत नहीं होंगे।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि डान जुआन, बायरन जैसे लोग जो कि अपने प्रेम-पात्र बदलते रहते हैं, वे सचमुच प्रेम करने के काबिल ही नहीं होते। ऐसा कहा जाता है कि बायरन ने अपने जीवन में साठ स्त्रियों से प्रेम किया, और उसका जीवन बहुत छोटा था। ये तो जाने हुए मामले हैं। वास्तव में कितने किये होंगे, इसका कोई पता नहीं। उसे समाज से बाहर कर दिया गया था क्योंकि प्रत्येक उससे डरा हुआ था। और वह इतना सुन्दर पुरुष था लेकिन यह विक्षिप्तता क्यों?
कोई सोच सकता है कि वह एक बहुत बड़ा प्रेमी था। ऐसी बात नहीं थी। वह प्रेमी जरा भी नहीं था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि वह प्रेमी जरा भी नहीं था। वह मैनिआक था, पागल था-बस एक विकृत मन था। वह एक भी प्रेम को पूरा नहीं कर सका। और इसके पहले कि कोई भी प्रेम पूरा होता, वह दूसरा प्रारीं कर देता।
ऐसा कहा जाता है कि उसे जबरदस्ती एक लड़की से विवाह करना पड़ा। सच ही उसके साथ जबरदस्ती की गई थी क्योंकि उसने तो मना कर दिया था। वह विवाह कर भी कैसे सकता था क्योंकि दूसरे दिन वह किसी दूसरी स्त्री के पीछे भागेगा। जब उसके साथ जबरदस्ती की गई थी तब वह चर्च के बाहर आ रहा था। चर्च की घंटियाँ बज रही थीं, और अभी मेहमान भी चर्च में ही थे। वह सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, उसकी पत्नी का हाथ उसके हाथ में था, और अचानक वह रुका, उसने हाथ छोड़ दिया। सामने एक स्त्री सड़क पार कर रही थी। उसकी आँखें उस स्त्री का पीछा कर रही थीं। एक तरह से ईमानदार आदमी होने के नाते उसने अपनी पत्नी से कहा कि अब मेरे लिये तुम्हारा कुछ मूल्य नहीं है, अब वह स्त्री ही सब कुछ हो गई है।
उसे दुख उठाना पड़ा, क्योंकि प्रेम एक ग्रोथ है, विकास है। प्रेम एक लम्बा विकास है। और वह जितना बढ़ता है, उतना ही वह गहरा चला जाता है। तितलियों वाले मन प्रेम में विकसित नहीं हाते। वह असींव है, क्योंकि तब प्रेम की जड़ें ही नहीं लगतीं। इसके पहले कि प्रेम की जड़ें फूटें, वे हट जाते हैं। इस प्रकार के मन वाले लोग दुःखी होंगे क्योंकि वे प्रेम नहीं कर पायेंगे और वे प्रेम पा भी नहीं सकेंगे। कुछ भी कभी पूरा नहीं होता है, कुछ भी कभी पक नहीं पाता है। तब सारी जिन्दगी एक तरह से घावों से सनी होगी-अधूरे घाव। और यही सब क्षेत्रों में भी होता है।
न तो तुमने कभी प्रेम किया, न तुमने कभी क्रोध किया, न ही कभी तुमने स्वयंस्फूर्त कुछ किया, न ही तुमने सचमुच कभी भोजन किया, न ही तुम कभी समग्ररूप से सोये। तुमने कुछ भी अपने को पूरा उड़ेल कर कभी नहीं किया कि तुमने उसमें अपने को पूरा ही लगा दिया हो। तुम सदा उसके साथ-साथ कुछ और भी करते रहे।
बोकोजू से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? तुम इस निर्जन जंगल में क्या करते हो? क्या कर रहे हो? बोकोजू ने कहा कि मैं कुछ भी नहीं करता, मेरी कोई साधना नहीं है, कोई विधि भी नहीं है। जब मुझे भूख लगती है, मैं भोजन कर लेता हूँ, मुझे भूख नहीं लगती तो मैं नहीं खाता। जब मुझे लगता है कि झोपड़ी ठंडी हो गई है, तो मैं बाहर धूप में चला जाता हूँ। जब धूप तपने लगती है और बर्दाश्त नहीं होती, तो मैं वृक्षों की छाया में चला जाता हूँ। लेकिन जहाँ भी मैं होता हूँ, समग्र होता हूँ। जब मुझे नींद आती है, तो पड़कर सो जाता हूँ। इतना ही मैं यहाँ करता हूँ।
उस आदमी ने कहा कि यह तो कुछ ीी नहीं है। इतना तो प्रत्येक कर रहा है। बोकोजू ने कहा कि यदि सब कोई करता होता, तो यह जगत एक दूसरा ही स्थान होता-मौन, शान्त, प्रेमपूर्ण। तब मुक्ति की मांग करने की जरूरत नहीं होती। यह जगत ही मोक्ष हो जाता।
वैसा कोई भी नहीं कर रहा। बोकोजू का उत्तर बहुत साधारण लगता है, लेकिन यह साधारण नहीं है। यह अति कठिन है। यह बड़ा कठिन है कि सोओ और सपने नहीं आते हों, क्योंकि सपनों का अर्थ होता है कि एक अधूरा दिन। अब वह रात सपनों में पूरी हो रही है। जो ुछ भी तुमने दिन में अधूरा छोड़ दिया है वह सपनों में पूरा हागा। इसलिए यदि तुम अच्छे आदमी थे-दिन में, यदि तुमने अच्छे आदमी बनने की चेष्टा की-दिन में और अच्छाई तुम्हारे लिए स्वाभाविक नहीं थी, स्वतःस्फूर्त नहीं थी बल्कि थोपी हुई थी, तब सपने में तुम दूसरे छोर पर चले जाओगे। यदि तुम चेष्टा करके ईमानदार रहे थे, तो सपने में तुम किसी को धोखा दोगे। तब सब पूरा होगा।
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यदि सपने आने बन्द हो जायें, तो तुम पागल हो जाओगे क्योंकि सपने बहुत-से अधूरे कार्यों को पूरा कर देते हैं जो कि तुमने अधूरे छोड़ दिये थे। और जब तक वे पूरे न हो जायें, तब तक वे विलीन नहीं होते। वे तुम्हारे अन्तस से वाष्पीात नहीं होते। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सपने एक दैनंदिन रेचन की प्रक्रिया है। इसलिए यदि तुम ठीक से नहीं सोए हो, तो तुम बेचैनी अनुभव करोगे। यह इसलिए नहीं है कि तुम ठीक से नहीं सोए बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सपने नहीं देख सके।
अब वे कहते हैं कि नींद जरूरी नहीं है। एक आदमी बिना नींद के भी बहुत दिनों तक रह सकता है, यहाँ तक कि कई महीने व साल भी रह सकता है। वे कहते हैं कि नींद इतनी आवश्यक नहीं है। सपने जरूरी हैं, और तुम बिना नींद के सपने नहीं देख सकते, इसलिए नींद की जरूरत है। इसलिए नींद की आवश्यकता सपने देखने के लिए है। लेकिन नींद की आवश्यकता क्यों है? तुम किसी को मारना चाहते थे और मार नहीं सके, तो तुम उसे नींद में मार डालोगे, उससे तुम्हारा मन हल्का हो जायेगा। सबेरे तुम ताजा हो जाओगे तुमने मार डाला।
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि जाओ और किसी को मार डालो ताकि तुम्हें सपने नहीं आयें। लेकिन इसे याद रखो : यदि तुम किसी की हत्या करना चाहते हो, तो अपना कमरा बन्द कर लो, हत्या करो, ध्यान करो, और सचेतन रूप से हत्या कर दो। जब मैं कहता हूँ कि उसे मार डालो, तो मेरा मतलब है कि तकिये को मार डालो। उसका एक पुतला बनाओ और उसे मार डालो। यह सचेतन प्रयास, यह सचेतन ध्यान तुम्हें तुम्हारे बारे में एक गहरी अन्तर्दृष्टि प्रदान करेगा।
एक बात स्मरण रखो, हर बात को पूरी करो। प्रत्येक क्षण को ऐसे जिओ कि जैसे उसके ओ कोई दूसरा क्षण नहीं है। तभी तुम उसे पूरा कर सकोगे। ध्यान रखो कि मृत्यु किसी भी क्षण धटित हो सकती है। यह क्षण आखिरी हो सकता है। इस अनुभव करो कि यदि मुझे करना है तो मुझे अभी और यहीं पूरा करना है, समग्ररूप से।
मैंने एक यूनानी वजीर के बारे में एक कहानी सुनी है। किसी कारण से राजा उसके विपरीत हो गया। दरबार में कुछ शडयंत्र चल रहा था, और उस दिन वह वजीर अपना जन्म दिवस मना रहा था। वह अपने मित्रों के साथ आनन्द मना रहा था। अचानक दोपहर राजा का सन्देशवाहक आया और उसने वजीर से कहा कि मुझे क्षमा करें, राजा ने तय किया है कि आज शाम छः बजे तुम्हें फांसी दी जायेगी। अतः छः बजे तैयार रहें। वहाँ सारे मित्र भी मौजूद थे, संगीत चल रहा था, शराब उड़ रही थी, खाना-नाचना चल रहा था। वह उसका जन्म-दिन था।
इस समाचार से सारा वातावरण ही बदल गया। वे सब उदास हो गये। लेकिन वजीर ने कहा कि उदास न हों क्योंकि यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है, इसलिए हमें नृत्य को पूरा करने दो, और हमें उस दावत को भी पूरा करने दो, जो कि हम कर रहे थे। और दूसरी कोई संभावना नहीं है, इसलिए हम भविष्य में पूरा नहीं कर सकते। और मुझे इस उदास वातावरण में विदा मत दो, अन्यथा मेरा मन इसकी बार बार चाह करता रहेगा, और यह रुका हुआ संगीत और ठहर गया, राग रंग मेरे मन पर एक बोझ हो जायेगा। इसलिए इसे पूरा करने दो। अब तो इसे रोकने का जरा भी वक्त नहीं है।
उसके कारण वे लोग नाचते रहे, लेकिन नाचना बड़ा कठिन था। वह अकेला पूरे जोश से नाच रहा था, वह अकेला ही सबसे अधिक उत्सव मना रहा था। बाकी सारा समूह तो जैसे वहाँ था ही नहीं। उसकी पत्नी रो रही थी, लेकिन वह नाचता, मित्रों से बात करता रहा। और वह इतना प्रसन्न था कि सन्देशवाक ने राजा के पास लौटकर कहा कि यह आदमी अद्भुत है। उसने खबर सुनी लेकिन वह उदास नहीं हुआ। और उसने उसखबर को दूसरी ही तरह से लिया-हम तो सोच भी नहीं सकते। वह तो हँस रहा है- और नाच रहा है और आनन्द मना रहा है। और वह कहता है कि चूँकि ये क्षण आखिरी हैं, और इनके आगे कोई भविष्य नहीं है, वह उन्हें बर्बाद नहीं कर सकता, उसे उन्हें जीना ही पड़ेगा।
राजा स्वयं देखने आया कि आखिर वहाँ क्या हो रहा था। केवल वह वजीर नाच रहा था, गा रहा था, और पी रहा था। राजा ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? वजीर ने कहा, यह मेरे जीवन का सिद्धान्त है कि इस बात को ध्यान रखूँ कि किसी भी क्षण मृत्यु घटित हो सकती है। इस सिद्धान्त के कारण ही, मैं हर क्षण को उसकी पूरी संभावना में जिया। लेकिन आपने आज इसे इतना स्पष्ट कर दिया, कि मैं आपका बड़ा आभारी हूँ। अब तक यह सिर्फ मेरा सोचना था। कहीं मन में तो यह विचार छिपा चल ही रहा था कि अगले क्षण मृत्यु होने वाली है। भविष्य मौजूद था, लेकिन आज आपने भविष्य बिल्कुल गिरा दिया। आज की शाम-आखिरी शाम होगी। जिन्दगी अब बहुत छोटी हो गई है, अब मैं इसे स्थगित नहीं कर सकता।
राजा इतना आनंदित हुआ कि वह उस वजीर का शिष्य हो गया। उसने कहा कि मुझे सिखाओ। यही एकमात्र कीमिया है। यही एक ढंग है जीवन को जीने का। यही कला है। इसलिए मैं तुम्हें फांसी नहीं दूँगा, लेकिन तुम मेरे गुरु हो जाओ। मुझे सिखाओ कि हर क्षण कैसे जिया जाये।
हम स्थगित करते रहते हैं। यह स्थगन ही भीतरी संवाद हो जाता है, एक आंतरिक एकालप हो जाता है। स्थगित मत करो। अभी और यहीं में रहो। और जितना अधिक तुम वर्तमान में रहोगे, उतनी कम तुम्हें इस सतत सोचतने-विचारने की जरूरत पड़ेगी उतना ही कम तुम्हें सोचना पड़ेगा। यह सोचना है ही स्थगित करने के कारण। और हम हर चीज को स्थगित करते चले जाते हैं। हम सदैव कल में रहते हैं जो कि कभी नहीं आता, और जो कभी आ भी नहीं सकता वह असंभव ह। जो भी आता ह, वह आज हाता है, और हम आज को कल के लिए बलिदान करते रहते हैं, जो कि कहीं भी नहीं है। तब फिर मन अतीत की बात सोचता रहता है जो कि तुमने नष्ट कर दिया, जो कि तुमने किसी ऐसी बात के लिए बलिदान कर दिया जो कि पूरी नहीं हुई। और तब हम दूसरे आने वाले कलों के लिए स्थगित करते रहते हैं। जो कुछ भी तुम चूक गये हो, तुम सोचते हो कि तुम कहीं भविष्य में पकड़ लोगे।
तुम उसे कभी भी नहीं पकड़ सकोगे। यह अतीत और भविष्य के बीच में लगातार तनाव, यह वर्तमान को लगातार चूकते जाना, यही आंतरिक शोर है। जब तक यह नहीं रुक जाता है, तब तक तुम उस मौन को प्राप्त नहीं हो सकते जो कि प्रार्थना है। अतः पहली बात, हर क्षण समग्र होने का प्रयत्न करो। दूसरी बात, तुम्हारा मन इतने शोगुल से भरा है क्योंकि तुम सोचते हो कि दूसरे शोर पैदा कर रहे हैं, और तुम उसके लिए जिम्मेवार नहीं हो। इसलिए तुम सोचते ही रहते हो कि किसी और अच्छे संसार में-इससे अच्छी पत्नी के साा, इससे अच्छे घर में, अच्छी बस्ती में सब कुछ ठीक हो जायेगा। और तुम मौन हो जाओगे। तुम सोचते हो कि तुम चुप नहीं हो क्योंकि तुम्हारे चारों ओर सब कुछ गड़बड़ है। इसलिए तुम शान्त कैसे हो सकते हो?
यदि तुम इस भाँति सोचते हो, यदि यही तुम्हारा तर्क है, तो वह बेहतर दुनिया कभी नहीं आएगी। सब जगह यही जगत है, सब जगह ऐसे ही पड़ोसी है, और सब जगह ऐसी ही पत्नियाँ, ऐसे ही पति हैं और ऐसे ही बच्चे हैं। तुम एक भ्रम निर्मित कर सकते हो कि कहीं स्वर्ग मौजूद है, लेकिन सब जगह नर्क ही है। इस प्रकार के मन के साथ, सब जगह नर्क है। यह मन ही नर्क है।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी रात देर से अपने घर आये। घर में डाका पड़ गया था, इसलिए पत्नी चीखने चिल्लाने लगी। फिर उसने मुल्ला से कहा कि सब कसूर तुम्हारा है, तुमने जाने के पहले ताला ठीक से देखा क्यों नहीं?
और तब तक तो सारे पड़ोसी वहाँ इकट्ठे हो गये। यह एक बड़ी सनसनीखेज बात थी। मुल्ला के घर चोरी हुई थी। हर एक आदमी शोर में शामिल हो गया। एक पड़ोसी ने कहा, मुझे पहले ही शक था। तुम्हें पहले कभी शक नहीं हुआ? तुम बड़े ही लापरवाह हो। दूसरे ने कहा, तुम्हारी खिड़कियाँ खुली हुई हैं। तुमने जाने के पहले उन्हें बन्द क्यों नहीं किया? तीसरे पड़ोसी ने कहा, तुम्हारे ताले ही बहुत बेकार मालूम पड़ते है, तुमने उन्हें बदला क्यों नहीं? और इस तरह हर आदमी मुल्ला का ही कसूर निकाल रहा था।
तब मुल्ला ने कहा कि एक मिनट भाइयों, मेरा कोई कसूर नहीं है। तब तो सारे पड़ोसी एक साथ बोले कि फिर किसका दोष है? यदि तुम्हारा नहीं है, तो फिर किसका दोष है? तब मुल्ला ने कहा कि चोर के बारे में क्या ख्याल है?
मन सदैव दूसरों को दोषी ठहराता रहता है। पत्नी मुल्ला नसरुद्दीन पर दोष डालती है, सारे पड़ोसी भी उसे ही दोषी ठहराते हैं और वह बेचारा वहाँ किसी पर भी दोष नहीं डाल सकता, इसलिए वह कहता है कि चोर के बारे में क्या ख्याल है?
हम एक दूसरे को दोषी ठहराते रहते हैं। इससे तुम्हें ऐसा भ्रम होता है कि तुम दोषी नहीं हो, कहीं कोई और ही गलत है-अ-ब-स। और यह हमारे तथाकथित मन का एक बुनियादी रुख है। हर बात में कोई और ही कसूरवार है। और जैसे ही हमें कोई बचने का रास्ता मिलता है, हम आराम से हो जाते हैं। तब बोझ फिंक जाता है। एक आध्यात्मिक साधक के लिए मन किसी भी काम का नहीं है, वह एक बाधा है। यह मन ही बाधा है। हमें यह बात ठीक से जान लेनी चाहिए कि चाहे कोई भी मामला हो, कैसी ीी स्थिति हो, हम ही उसके लिये जिम्मेवार हैं, और कोई जिम्मेवार नहीं है।
यदि तुम्हीं जिम्मेवार हो, तो फिर कुछ हो सकता है। यदि कोई और जिम्मेवार है, तो फिर कुछ भी सींव नहीं है। यही बुनियादी झगड़ा है, द्वंद्व है एक धार्मिक मन और एक गैर-धार्मिक मन में। गैर-धार्मिक मन सोचता है कि कोई और जिम्मेवार है। समाज को बदलो, परिस्थिति में परिवर्तन करो, आर्थिक स्थिति में सुधार करो, राजनीति को बदलो, कुछ-न-कुछ बदलो, और सब ठीक हो जायेगा।
हमने कितनी ही वार हर चीज बदल डाली है, और कुछ भी ठीक नहीं हुआ है। धार्मिक मन कहता है कि अगर तुम्हारा यही मन रहा तो कोई भी परिस्थिति क्यों न हो, तुम नर्क में ही रहो, तुम दुःख में होओगे, तुम उस मौन को नहीं पा सकोगे।
अपने ही ऊपर जिम्मेवारी थोपो। उत्तरदायी बनो, क्योंकि तभी कुछ हो सकता है। तुम अपने साथ ही कुछ कर सकते हो। तुम संसार में किसी को भी नहीं बदल सकते, केवल तुम अपने को ही बदल सकते हो। केवल वही क्रान्ति एकमात्र संभव है।
केवल एकमात्र रूपान्तरण सींव है और वह है स्वयं का। लेकिन वह तभी समझा जा सकता है जबकि हम यह अनुभव करें कि हम ही उत्तरदायी हैं। तुम भीतर इतने शोगुल से क्यों भरे हो? इतनी भीतरी चिनता क्या है? तुम ही जिम्मेवार हो, यह पहला कदम है। तब तुम कारण को बदले नहीं जा सकते। कारण भीतर ही है, तभी वह बदला जा सकता है।
उसी परिस्थिति में जिसमें कि तुम परेशान हो, हो सकता है कोई दूसरा बिल्कुल परेशान न हो। एक बुद्ध उसी परिस्थिति में जरा भी विचलित न होकर उससे गुजर जायेंगे, किसी प्रकार की खरोंच भी नहीं लगेगी। क्यों? तुम ऐसी परिस्थितियों में बेचैन क्यों हो उठते हो? तुम तैयार ही थे। तुम परिस्थिति की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। कोई तुम्हारे विरुद्ध क्रोधित है, तुम भी क्रोधित हो जाते हो। तुम कहते हो कि उसने ऐसा कुछ किया। तुम कहते हो कि उसने ऐसा कुछ किया। ुम कहते हो कि उसने कारण पैदा कर दिया, मैंने तो सिर्फ सुना, मैं तो क्रोधित नहीं था, उसने मुझे क्रोधित कर दिया।
किन्तु धार्मिक विश्लेषण िान्न है, धर्म कहता है कि क्रोध सदैव तुम्हारा है। क्रोध वहाँ पहले ही से मौजूद था-पैदा होने के लिए। उसने उसे भड़का दिया, यह सच है, लेकिन पहले ही से कुछ मौजूद था। वह ऊर्जा, वह प्रवृत्ति, वह क्रोध करने की आदत पहले ही वहाँ थी। इसी कारण वह उसे भड़का सका। यदि ऊर्जा ही नहीं होती, कोई इकट्ठा हुआ क्रोध नहीं होता, कोई दबा हुआ क्रोध नहीं होता, कोई आदत नहीं होती, तो वह चाहे कुछ भी करता, तुम्हें स्पश
र् नहीं कर सकता था। वह तुम्हें स्पर्श करता है क्योंकि तुम स्पर्शित होने के लिये तैयार ही थे। तुम भड़क उठने को उद्यत ही थे। उसने तो सिर्फ स्थिति पैदा की और तुम्हारी सहायता की। वह तो तुम्हारा सहायक है। यदि वहाँ कोई स्थिति मौजूद करनेवाला नहीं होता तो तुम्हीं पैदा कर लेते। तुम्हें उसकी जरूरत थी। तुम्हें उसकी बुरी तरह आवश्यकता थी।
स्मरण रखो : जब भी तुम दुबारा क्रोध करो, पूरी स्थिति का विश्लेषण करना, उसका ध्यान करना, और तब तुम जानोगे कि तुम पहले ही से तैयार थे। तुम तैयार ही थे और तुम प्रतीक्षा कर रहे थे, और इस आदमी ने तो सिर्फ तुम्हें मौका दिया।
मुल्ला नसरुद्दीन पर कोर्ट में मुकद्दमा था। अचानक बिना किसी कारण के उसने अपने ग्राहक को पीटा और फिर घर से बाहर चला गया। इसलिए मजिस्ट्रेट ने पूछा, ‘‘क्या कारण था? तुमने अचानक ऐसा क्यों किया? कोई लड़ाई भी नहीं हुई थी, कुछ भी नहीं था, तुमने अचानक ऐसा क्यों किया?’’
मुल्ला ने कहा, ‘‘मैं दरवाजे पर खड़ा था, और दरवाजा खुला था और सड़क खाली थी और कोई भीड़ भी नहीं थी, और डंडा भी पास में था और पत्नी भी घर में भीतर की ओर देख रही थी, इसलिए मैने सोचा कि ऐसा अवसर मुझे नहीं चूंकना चाहिये।’’
तुम अवसर पैदा कर लोगे यदि तुम्हें नहीं भी मिला तो। तुम उसे नहीं चूकोगे, तुम उसे निर्मित कर लोगे। यदि तुम घटना के प्रति जागो, तो कुछ हो सकता है। तो फिर तुम्हारे काबू में है कुछ करना। स्रोत भीतर है, लेकिन तुम उसे बाहर प्रक्षेपित करते हो। तब तुम कुछ नहीं कर सकते। यदि तुम बिना ही कारण प्रक्षेपित करते रहोगे, तो फिर तुम कुछ नहीं कर सकते, तुम निरुपाय हो। फिर तुम कर भी क्या सकते हो? यदि कोई तुम्ॅहें उत्तेजित कर देता है, तुम्हारे भीतर क्रोध उत्पन्न कर देता है, तो फिर तुम क्या कर सकते हो? तब तुम तो सिर्फ एक निःसहाय शिकार हो।
दूसरी बात : स्मरण रहे कि जो भी तुम हो, उसके लिए तुम्हीं उत्तरदायी हो। यदि कोई तुम्हें अवसर भी देता है, तब भी वह तुम्हें अपने को ही व्यक्त करने का अवसर देता है। सदैव तुम्हीं हो जो कि आत्यंतिक रूप से जिम्मेवार हो। यह जिम्मेवारी पर इतना जोर क्यों है? क्योंकि यदि मैं ही जिम्मेवार हूँ, तो मैं प्रतिक्रियान्वित होने से अपने को रोकूँगा। तुम कुछ करते हो, मैं प्रतिक्रिया करता हूद्द। प्रतिक्रिया सिर्फ गुलामी है। तुम मुझे चला रहे हो। तुम मुझे सुखी कर रहे हो, तुम मुझे दुःखी कर रहे हो। तब तुम मेरे मालिक हो गये, मैं तुम्हारा गुलाम हो गया।
यदि तुम मेरी और देखकर मुस्कुराते हो, तो मैं प्रसन्न हो जाता हूँ; और जरा भी आँख गुस्से की दिखी और मैं दुःखी हो जाता हूँ। तब तुम मेरे मालिक हो। यदि मैं सोचता हूँ कि तुम जिम्मेवार हो, तो तुम मेरे मालिक बने रहते हो और मैं तुम्हारा गुलाम रहता हूँ। यदि मैं ही जिम्मेवार हूँ, तो चाहे तुम मुस्कुराओ, और चाहे तुम कुछ भी करो, मैं तुम्हारे कारण प्रतिक्रिया करने वाला नहीं हूँ, मैं अपने हिसाब से चलता हूँ।
मुल्ला एक मस्जिद में प्रार्थना करने के लिये बैठा था। उसका कुर्ता थोड़ा छोटा था, तो उसके पीछे बैठे आदमी ने सोचा कि यह जरा ठीक नहीं लगता, तो उसने उसे जरा नीचे खींच दिया। तुरन्त मुल्ला ने अपने आगे बैठे आदमी का कुर्ता भी नीचे खींच दिया। उस आदमी ने पूछा कि, ‘‘यह तुम क्या कर रहे हो?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘मुझसे मत पूछो। यह जो आदमी मेरे पीछे बैठा है उसी ने यह सब चालू किया है। मैं जिम्मेवार नहीं हूँ। मैंने तो सिर्फ प्रतिक्रिया की है। यदि यही तरीका है-मजिस्द में प्रार्थना करने का-तो मुझे उसका अनुकरण करना चाहिये।’’
तुम कुछ भी करते रहते हो क्योंकि वैसा लोगों ने तुम्हारे साथ किया है। तुम उसे दूसरों तक पहुँचाते रहते हो। चाहे तुम्हें उसका पता न भी हो। क्या तुम्हें पता है कि जब तुम कोईबात अपने बच्चों को कह रह होते हो तो तुम वही बात दोहरा रहे हो जो कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें कही थी? यही मुल्ला नसरुद्दीन है। क्या तुम्हें इसका पता है? तुम जिस तरह अपनी पत्नी से व्यवहार कर रहे हो, वह वही है जो कि तुमने अपने पिता को अपनी माँ से कहते देखा था। तुम सिर्फ, चीजों को हस्तांतरित कर रहे हो। तुम खुद कुछ भी नहीं हो, केवल एक रास्ता हो। यह तुम क्या कर रहे हो?
जब तुम अपने नौकर के साथ होते हो, क्या तुमने कभी ख्याल किया है कि तुम किस तरह व्यवहार करते हो? क्या यही वही ढंग नहीं है, जिस तरह कि तुम्हारा मालिक दफ्तर में तुम्हारे साथ व्यवहार करता है? क्या कर रहे हो तुम? तुम सिर्फ एक लम्बी श्रृंखला के एक हिस्से हो। तब तुम मौन नहीं हो सकते। कैसे हो सकते हो मौन? तुम्हें सब तरफ से खींचा और घसीटा जा रहा है, और तुम्हें कोई भी चीज प्रभावित कर सकती है- कोई भी फालतू बात। यदि कोई क्रोधित होता है, तो तुम कहते हो कि मैं तो सिर्फ प्रतिक्रियान्वित हुआ था। वह मुझ पर क्रोधित क्यों हुआ? क्यों? वह क्रोधित हुआ, यह उसकी समस्या है। तुम्हारा उससे क्या लेना-देना? लेकिन नहीं, तुम इसे अपना कर्तव्य समझते हो, और तुम उसे बड़ी कर्तव्य बुद्धि से निभाते हो-तुम्हारे साथ कुछ भी किया जाये।
स्मरण रहे, कि तुम गुलाम नहीं हो और कसी ने भी तुम पर यह गुलामी आरोपित नहीं की है। यह तुम्हीं ने आरोपित की है। इसे फेंको। मालिक बनो। केवल तभी तुम शांत हो सकते हो। केवल एक मालिक ही मौन हो सकता है। और जब मैं कहता हूं ‘मालिक’ तो मेरा मतलब है उस आदमी से जो कि अपने भीतर से कृत्य करता है, जो कि प्रतिक्रियान्वित नहीं होता। हम तो सदैव प्रतिक्रिया करते रहते हैं, हमारे जीवन में कोई क्रिया ही नहीं है। जिस क्षण भी तुम कुछ क्रिया करते हो, तुम अपने भीतर एक गहरे मौन का अनुभव करते हो क्योंकि अब तुम मालिक हुए। अब तुम्हें कोई बेचैन नहीं कर सकता। अब तुम निःसहाय नहीं हो।
बुद्ध एक जगह से गुजर रहे हैं। कोई उन्हें गाली देने लगता है। बुद्ध उसकी बात सुनते हैं और तब वे आनंद की ओर मुड़ कर कहते हैं कि आनंद, यह एक पुरानी उधारी थी। अब यह चुका दी गई। किसी जीवन में मैंने इसे जरूर गाली दी होगी। अब कोई श्रृंखला नहीं, ‘मित्र, धन्यवाद।’ बुद्ध ने उस आदमी से कहा, ‘अब हिसाब पूरा हुआ। मै प्रतिक्रिया करने वाला नहीं हूं। बुद्ध कहते हैं कि प्रतिक्रिया ही पुनर्जन्म है। यदि तुम प्रतिक्रिया करते हो, तो तुम्हें बार-बार जन्म लेना होगा क्योंकि तुम एक श्रृंखला मे बंधे हो। हिसाब बंद नहीं हुए हैं, खाता खुला है।
अतः तीसरी बात, मालिक बनो। जो भी तुम करो, उसे क्रिया की भांति करो, प्रतिक्रिया की भांति मत करो। प्रतिक्रिया करने के प्रलोभन को रोको। वही एक बुराई है, एक मात्र पाप-प्रतिक्रिया करना। हंसों, यदि हंसने का मन हो, किन्तु प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मत हंसो। रोओ यदि तुम्हें रोना आ रहा हो, लेकिन प्रतिक्रिया में मत रोओ। प्रतिक्रिया करना छोड़ो, क्रिया करो। यदि ये तीन बातें पूरी हों, तो तुम उसे मौन में गिर जाओगे जो कि प्रार्थना है।
यह सूत्र कहता है, मौन ही प्रार्थना है। ‘मौनं स्तुति’।
जब तुम्हारे भीतर कोई एकलाप नहीं चल रहा होता है और तुम मौन होते हो, भीतर कोई तनाव नहीं, कोईप्रतिक्रिया नहीं, कुछ भी अधूरा नहीं, कुछ भी लटका हुआ नहीं, सभी कुछ पूरा और समाप्त हो गया ते तुम एक आकाश हो जाते हो- सिर्फ एक आकाश। असीम आकाश। क्योंकि सारी सीमाएं तुम्हारी प्रतिक्रियाएं हैं। सारी सीमाएं तुम्हारी चिन्ताएं है। तुम्हारे स्वरूप् की सारी चिन्ताएं तुम्हारी विक्षिप्तताऐं हैं। जब तुम मौन होते हो, तो तुम एक असीम, अन्नत आकाश होते हो।
लेकिन यह सूत्र इसे प्रार्थना क्यों कहता है? यह बीच में प्रार्थना को लाने का क्या अर्थ है? अच्छा होता है कि इसे ध्यान कहते। प्रार्थना क्यों कहा? जब तुम मौन होते हो, तो वह ध्यान है। फिर प्रार्थना को बीच में क्यों लाये? इसे यूंह ी बीच में नहीं लाया गया। क्योंकि जब तुम एक असीम आकाश होते हो, तभी परमात्मा तुम्हारे भीतर उतरता है। तुमने पुकार लिया उसे, तुमने बुलावा दे दिया। जब तुम पूरी तरह मौन होते हो, तो तुम एक आतिथेय हो गये। अब दिव्य अतिथि आ सकता है। और केवल ऐसे ही खालीपन में, इसी मौन में इसी शून्यता में वह दिव्य अतिथि आ सकता है। यही एकमात्र निमंत्रण है, एक मात्र बुलावा है। यही एक मात्र प्रार्थना है।
प्रार्थना का अर्थ होता है परमात्मा को आने के लिए बुलावा देना, परमात्मा से कहना कि जाओ, मेहमान बना मेरे। कोरे शब्दों से कुछ भी न होगा, खाली निमंत्रण भेज देने से कुछ भी न होगा। तुम चाहे कुछ भी करो-रोओ, चिल्लाओ, उसे कुछ भी न होगा। पहले मेजबान बनो। मौन का मतलब है मेजबान बनना, आतिथेय बनना। अब तुम तैयार हो। अब प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। अब तो परमात्मा उतरता है। जब तुम मौन होते हो, तो परमात्मा वहां मौजूद हो जाता है।
अच्छा होगा कि दूसरे शब्दों में कहें कि परमात्मा वहां सदा ही मौजूद है, लेकिन तुम्हें उसका पता नहीं चलता क्योंकि तुम मौन ही नहीं हो। मेहमान मौजूद है, किन्तु मेजबान सोया पड़ा है। अतिथि वहां उपस्थित है किन्तु आतिथेय को कुछ खबर नहीं है। आतिथेय के पहले ही अतिथि आ चुका है किन्तु आतिथेय ही कहीं और भटक रहा है। वह भटकना ही मन है।
क्या तुमने कभी ख्याल किया कि तुम्हारा मन एक भटकन है? मन का अर्थ ही होता है घूमना। तुम यहां मौजूद नहीं हो, यही मतलब होता है मन का। तुम कहीं और ही हो। यदि तुम यहीं होओ तो फिर मन नहीं है। तब कहीं कोई घूमना नहीं है। मन वर्तमान में नहीं हो सकता, वह सिर्फ अतीत अथवा भविष्य में ही हो सकता। मन यहां और अभी में नहीं हो सकता। वह सिर्फ वहां और कभी में होता है। वह सदा भटकता रहता है। जब तुम मन होते हो, तो तुम कहीं-न-कहीं घूमते रहते हो। परन्तु अतिथि तो सदैव उपस्थित रहता है।
जब बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ, तो बुद्ध से पूछा गया कि आपको क्या मिला? उन्होंने कहा, कुछ भी नहीं क्योंकि जो भी मुझे लगता है कि मिला है वह मिला ही हुआ था, केवल मुझे पता नहीं था। इसलिए अच्छा होगा कहना कि मैंने कुछ पाया नहीं बल्कि बहुत कुछ खो दिया। मैंने अपने को ही खो दिया- जो कि बहुत ज्यादा था, मैंने अपने को खो दिया और उसे पाया जो कि सदा-सदा से था, जो कि मौजूद ही था।
हमें अपने घर लौटना है। यह घर लौटना ही मौन है। यह तुम्हारा घर वापस आ जाना ही मौन है। और ऋषि कहता है कि यही प्रार्थना है क्योंकि जब तुम मौन होते हो तो निमंत्रण पहुंच जाता है। तुमने बुला लिया। तुमने प्रार्थना कर ली।
और फिर प्रार्थना में बहुत-सी बातें शामिल ही हैं। यदि तुम प्रार्थना करते हो, और यदि वस्तुतः ही यह प्रार्थना है, तो फिर तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर आने में कोई भी अन्तराल नहीं है। यदि बीच में अंतराल है तोप्रार्थना झूठी है।
यदि तुम मौन हो, तो परमात्मा उपस्थित ही है। फिर कोई भी अन्तराल नहीं है। यदि तुम मौन हो और तुम पाते हो कि परमात्मा उपस्थित नहीं है, तो याद रखना कि तुम मौन नहीं हो। यह विचार भी कि ‘परमात्मा को मेरे पास आना चाहिए’ सब गड़बड़ कर देता है।
बुद्ध ने कहा है कि परमात्मा की आकांक्षा करना भी बाधा बन जाती है। तब तुम समग्ररूप से मौन नहीं हो सकते। तुम मांग रहे हो, इसलिए तुम दूर चले गये। तुम भटक गये, तुम दूर निकल गये। यदि तुम मोक्ष भी मांग रहे हो-शाश्वत जीवन, अमरत्व, स्वर्ग या कुछ भी मांग रहे हो, तो तुम चले गये। समग्र मौन का अिर् होता है, समग्र स्वीकार जो भी है उसका। अतः आखिरी बात यह समझ लेनी है कि मौन का मूलभूत अर्थ होता है समग्र स्वीकार।
अस्वीकार ही हमारे मन में, हमारे स्वरूप में शोर उत्पन्न करता है जब भी तुम किसी बात के लिए ‘ना’ कहते हो, तो तुम्हारा मनचला मन काम करने लगा। जब भी तुम ‘हां’ कहते हो, तो तुम्हारा मन रुक जाता है। ‘ना’ ही शुरू करनेवाला है, ‘हां’ रोकनेवाला है। आस्तिक का अर्थ होता है, थीइस्ट। संस्कृत में, आस्तिक का अर्थ होता है, जिसने हर बात के लिए आखिरी ‘हां’ कह दी। अब वह कभी ‘ना’ नहीं कहेगा। अब वह ‘हां’ ही अन्तिम है। अब इससे पीछे नहीं लौटना।
स्वीकार का अर्थ होता है कि अब तुम जो भी है उसे स्वीकार करते हो। यदि क्रोध है, तो तुम स्वीकार करते हो। यदि दुख है, तो तुम स्वीकार करते हो। यदि लोभ है, उसे भी तुम स्वीकार करते हो। यदि चिन्ता है, परेशानी है, उसे भी स्वीकार करते हो। तुम हर बात को स्वीकार करते हो। तब तुम कैसे अशांत हो सकते हो? इसलिए आखिरी विशेषण में मौन का अर्थ होता, समग्र स्वीकार।
बुद्ध ने उसे नाम दिया है : वे उसे कहते हैं, तथाता-सचनेस। वे कहते हैं कि जो भी कुछ है, वह है। जो भी कुछ है, है। उसे स्वीकार करो, और तुम मौन हो जाओगे। कहो ‘ना’, मना करो, बदलने का प्रयत्न करो और तुमने अशान्ति को पैदा कर दिया। यह जो मौन है, यह प्रार्थना है। और इस मौन को पैदा नहीं किया जा सकता है, ऊपर से थोपा नहीं जा सकता है।
जीवन में, जो भी कीमती है, जो भी मूल्यवान है, वह सदा बहुत-सी चीजों का परिणाम है। तुम उस तक सीधे नहीं पहुँच सकते। उदाहरण के लिए-सुख, प्रसन्नता। तुम उसे सीधे नहीं पा सकते। और जो लोग भी कीमती है, जो भी मूल्यवान है, वह सदा बहुत-सी चीजों का परिणाम है। तुम उस तक सीधे नहीं पहुँच सकते। उदाहरण के लिए-सूख, प्रसन्नता। तुम उसे सीधे नहीं पा सकते। और जो लोग भी सुख को सीधे पाना चाहते हैं, वे सर्वाधिक दुःखी होते हैं-और सिर्फ अपने प्रयास के कारण। जब भी तुम कुछ करते हो, उसमें पूरी तरह डूब कर करो, तो सुख मिलता है।
एक चित्रकार चित्र बनाता है। वह उसके बनाने में अपने को पूरी तरह भूल गया। वह वहाँ पूरी तरह मौजूद है, फिर भी वस्तुतः, वह वहाँ नहीं है। सचमुच एक महान चित्रकार चित्र कभी नहीं बनाता, चित्र भी बनता है।
वानगॉग से एक बार पूछा गया कि तुम्हारे सारे चित्रों में से सबसे सुन्दर चित्र कौन-सा है? तो वानगाग ने कहा कि मैंने तो कोई भी चित्र नहीं बनाया। मैं नहीं बता सकता। और यदि तुम बहुत ही जोर देते हो, तो कहता हूँ कि यह जो कि अभी बनाया जा रहा है, अभी लेकिन मैं उसका चित्रकार नहीं हूँ, चित्र तो बन रहा है। चित्रकार मौजूद नहीं है।
वानगॉग को एक आनंद मिल सकता है लेकिन वह इस जगत का नहीं होगा। एक गायक, एक नृत्यकार आनंदित हो सकते हैं लेकिन वह आनंद किसी और जगत का होगा। और वस्तुतः वह किन्हीं और बातों के परिणामस्वरूप होगा।
मौन भी बहुत-सी बातों के परिणामस्वरूप होता है-सम्यक जीवन, सम्कयक कृत्यु, सम्यक स्वीकार, सम्कयक आतिथेय होने के परिणामस्वरूप। तब अचानक मौन घटित होता है। वह वहाँ है ही। वह वहाँ सदा ही उपस्थित है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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