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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-31)

आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2

तेरहवाँ प्रवचन

संतोष तथा स्वीकार सेविकास

प्रश्न

  1. क्या विकास असन्तोष तथा अस्वीकार का परिणाम नहीं है?
  2. व्यक्ति अथवा परिस्थिति-कौन जिम्मेवार है, तथा क्या धार्मिक व्यक्ति की समाज को बदलने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए?
भगवन! कल रात्रि आपने कहा कि समग्र स्वीकार से कोई विकसित रह गया जबकि पश्चिम अस्वीकार व संतोष के कारण ही विकसित हुआ।
इसलिए, क्या यह स्पष्ट नहीं है कि असंतोष व अस्वीकार ही विकास और आगे बढ़ने के लिए एकमात्र सिद्धान्त है?
कृपया समझायें।
बहुत-सी बातें समझनी पड़ेंगी।

एक-लाओत्से, कृष्ण, बुद्ध, महावीर इन सब को मिलाकर भी उनमें समूचा पूर्व नहीं समाता। उन्होंने स्वीकार सिखाया लेकिन पूर्व में किसी ने भी स्वीकार को नहीं समझा। और जिन्होंने भी उसे समझा वे विकसित हुए। लाओत्से मनुष्य की शुद्धतम संभावना को उपलब्ध हुआ-बड़ी-से-बड़ी संभावना को पहुँचा जहाँ कि मनुष्य पहुँच सकता है। बुद्ध स्वीकार व संतोष से एक दिव्य विभूति को उपलब्ध हुए। लेकिन पूर्व ने इन सिद्धान्तों का अनुकरण नहीं किया। सिर्फ इसलिए कि वे पूर्व में पैदा हुये थे, इसका यह अर्थ नहीं है कि पूर्व उन्हें मानता रहा है। तो यह पहली बात है।
दूसरी बात, पश्चिम विकसित हुआ है, लेकिन एक ऐसे संकट की स्थिति तक, एक मन की ऐसी रुग्ण अवस्था तक विकसित हुआ है कि पश्चिम अब पूर्व की ओर देख रहा है। पश्चिम ने असंतोष के सिद्धान्त को माना है, और एक अर्थ में पश्चिम पूर्व से ज्यादा ईमानदार है। पूर्व बेईमान है।
हम कृष्ण की पूजा करते चले जाते हैं, बुद्ध और महावीर की उपासना करते चले जाते हैं, ओर हम सोचते हैं कि हम उनका अनुकरण कर रहे हैं। हमने कभी उनका अनुकरण किया ही नहीं। केवल होंठो तक ही बात रही। किन्तु, पश्चिम ने उसे माना और अब वह उसके शिखर पर पहुँचा गया है। अब उन्हें लगता है कि सारा जीवन ही अर्थहीन है क्योंकि जो कुछ भी उन्होंने प्राप्त किया है, वह सब अर्थहीन सिद्ध हो रहा है। वस्तुओं का विकास हुआ है, न की चेतना का। उन्होंने बहुत कुछ इकट्ठा कर लिया है, लेकिन मनुष्य और-और रिक्त हो गया है।
और अब जबकि सब कुछ उपलब्ध कर लिया गया है, अब जबकि पश्चिम अपनी आकांक्षा की पूर्ति में सफल हो गया है, तो असमता स्पष्ट हो गई है। आदमी खाली-का-खाली है-अविकसित। इसलिए पश्चिम के विचारक पश्चिम के महान बुद्धिजीवी लोग बुद्ध, लाओत्से तथा महावीर की भाषा में सोचने लगे हैं। अब उन्हें असंतोष की अनुपयोगिता का पता चल गया है। असंतोष और अधिक असंतोष को जन्म देता है और तृप्ति असंभव हो जाती है। एक असंतोष से तुम दूसरे असंतोष को जाते हो, और उससे तीसरे को, और इस तरह सन्तोष व शान्ति को कभी नहीं पहुँचते।
यही बात उपनिषद कहते हैं। वे कहते हैं कि यदि तुम सन्तोष व शान्ति से शुरू करो तो तुम शान्ति हो। क्योंकि प्रारंभ ही अन्त है, बीज ही वृक्ष है। जो बीज में नहीं है वह वृक्ष में भी नहीं हो सकता। यदि सन्तोष शुरू में है, आधार है, तुम्हारे मन की भूमि है, जड़ें हैं, केवल तभी सन्तोष के फूल लग सकते हैं। वे फूल कहीं और से नहीं आ रहे हैं। वे तुम्हारे ही भीतर से उगते हैं, वे तुम्हारा ही विकास हैं। अतः यदि प्रारंभ में तुम सन्तुष्ट हो, तो तुम उसे अन्त में भी पाओगे।
यदि तुम असंतोष से प्रारंभ करो, तो असंतोष ही पैदा होगा और वह कभी भी सन्तोष में परिवर्तित नहीं होगा। जितना तुम उसके पीछे भागोगे उतना ही अधिक वह वहाँ होगा। और यदि असंतोष बढ़ता ही जाये तो अन्ततः परिणामस्वरूप विक्षिप्तता उपजेगी। एक विक्षिप्त मनुष्य का मतलब होता है एक ऐसा आदमी जो कि पूरी तरह असंतुष्ट है, जिसे कोई आशा नहीं है, पूरी तरह निराशा से घिरा है।
अब पश्चिम एक तृप्ति को पहुंच गया है-अपनी आकांक्षा की तृप्ति को। पश्चिम प्रामाणिकरूप से ईमानदार है। उसने एक खास रास्ता अपनाया था और जब तुम कहीं, किसी रास्ते पर चलते हो, तो ही पता चलता है कि यह कहीं पहुँचता है या नहीं।
पूर्व को कुछ स्पष्ट नहीं रहा। इसके नेता संतोष की बात करते रहे और यहां के लोग अपने को धोखा देते रहे। ये लोग संतुष्टि की चर्चा करते रहे और असंतोष में जीते रहे। पूर्व ऊपर से बुद्ध के साथ रहा, केवल ऊपर से। वास्तव में वह बुद्ध के साथ जरा भी नहीं रहा। जब मैं कहता हूँ ‘पूर्व’, तो मेरा मतलब पूर्व के अधिकतम लोगों से है। वे उतने ही भौतिकवादी हैं जितने कि पश्चिम के लोग, किन्तु एक झूठे चेहरे के साथ, एक मुखौटे को लगाये हुए।
पूर्व भी उतना ही अधार्मिक है, जितना कि पश्चिम किन्तु बेईमानी के साथ। हम सोचते चले जाते हैं कि हम धार्मिक लोग हैं, लेकिन हम हैं नहीं। इसलिए हम एक गहरी खाई में पड़े हैं, एक गहरे उलझाव में हैं। हम कहीं भी नहीं पहुंचे-उपनिषदों के कारण से नहीं, बल्कि सच तो यह है कि हम उनके अनुसार कभी चले ही नहीं। हम चले ही नहीं क्योंकि हम दो नावों पर सवार रहे। हम दो विपरीत दिशाओं में यात्रा करते रहे। हमारा मन अध्यात्म की बात करता रहा, और हमारा मन भौतिकवाद के पीछे चलता रहा।
यही कारण है कि पूर्व सब आयामों में दरिद्र रह गया-केवल भौतिक व आर्थिक अर्थों में ही नहीं, अध्यात्म में भी, क्योंकि किसी भी आध्यात्मिकविकास के लिए ईमानदारी आधारभूत बात है। अच्छा है कि अधार्मिक हों बजाय झूठे धार्मिक होने के क्योंकि एक ईमानदार अधार्मिकता से धर्म भी पैदा हो सकता है। लेकिन एक बेईमान धार्मिक मनुष्य के साथ धर्म के विकास की कोई संभावना नहीं है।
इसलिए इसे स्मरण रखें कि पूर्व वस्तुतः पूर्व नहीं है। केवल थोड़े से लोग ही हैं जिन्हें कि हम पूर्व का कह सकते हैं। अतः वास्तव में पूर्व और पश्चिम कोई भौगोलिक स्थान नहीं हैं। यह विभाजन थोड़ा ज्यादा सूक्ष्म है। पश्चिम में ऐसे लोग हुए हैं जो कि पूर्व के हैं। जीसस पूर्व के हैं, इकहार्ट पूर्व के हैं, फ्रांसिस पूर्व के हैं, बोहमे पूर्व के हैं। ये सारे लोग पश्चिम के नहीं हैं। और तुम पश्चिम के लोग हो, तुम पूर्वी नहीं हो। इसलिए पूर्व और पश्चिम भौगोलिक विभाजन नहीं है। ‘पूर्व’ का मतलब है कि जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण पश्चिम का अर्थ है कि एक खास प्रकार का दृष्टिकोण।
हम अचेतनरूप से भौतिकवादी हैं। इसलिए तुम भौतिकवाद में भी विकसित नहीं हो सकते, क्योंकि विकास का अर्थ होता है-एक सचेतन प्रयास। तुम भौतिकवाद में भी बढ़ नहीं सकते क्योंकि तुम सचेतन रूप से भौतिकवादी नहीं हो, और तुम चेतना की दूसरी ऊँचाईयों को भी नहीं पहुँच सकते क्योंकि तुम झूठे हो बनावटी हो। इसलिए पहली बात यह है कि यह एक बड़ी उलझन है।
दूसरी बात : जब हम कहते हैं कि स्वीकार, तो हमारा क्या अर्थ होता है? जब उपनिषद कहते है, स्वीकार ही आनन्द है, निर्वाण है, तो उनका क्या अर्थ है? क्या इसका मतलब है, मर जाना, रुकना, सड़ना? नहीं। इसका अर्थ है कि जो भी होता है, जो भी है, और जो भी हो रहा है, हम उसके विरुद्ध नहीं हैं, हम उससे नहीं लड़ेंगे। हम उसके साथ बहेंगे।
उदाहरण के लिए-जैसे, कि एक बीज है। वह अपने को स्वीकार कर लेता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अब वह बीज विकसित नहीं होगा। एक बीज का अर्थ ही होता है एक विकास की संभावना, और तो उसका कुछ मतलब नहीं होता। एक बीज अपने को स्वीकार कर लेता है, इसका अर्थ है कि विकास को स्वीकार कर लिया। वह एक प्राकृतिक बात है। बीज वृक्ष होने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि प्रयास का अर्थ है कि तुम ऐसा कुछ होने की कोशिश कर रहे हो जो कि तुम नहीं हो। इसे स्मरण रखें-प्रयास की आवश्यकता तभी है जबकि तुम कुछ और होने का प्रयत्न कर रहे हो जो कि तुम नहीं हो। और जो भी तुम नहीं हो, वह तुम कभी भी नहीं हो सकते, चाहे कितना ही प्रयत्न करो।
हम केवल स्वयं होने े लिये ही विकसित होते हैं, इसलिए प्रयत्न करो। गहरे अर्थों में बेकार है। तुम ऊर्जा व्यय कर रहे हो। संघर्ष व्यर्थ है, तुम ऊर्जा बर्बाद कर रहे हो। स्वीकार का अर्थ अविकास नहीं है। उसका अर्थ है विकास का प्राकृतिक रूप से बहाव, बिना किसी प्रकार के संघर्ष के। संघर्ष एक रुग्ण चित्त को निर्मित करता है। और संघर्ष भी क्यों? किसके विरुद्ध तुम संघर्ष कर रहे हो? जो भी तुम्हारे लिये संभव है तुम उसमें सरलता से विकसित हो सकते हो। स्वयं को समग्ररूप से स्वीकार करो और अस्तित्व के साथ बहो। विकास होगा और यह विकास नैर्सिंक होगा। स्वतःस्फूर्त होगा। इसमें कोई तनाव नहीं होगा। एक बुद्ध, बुद्ध हो जाते हैं। वस्तुतः उसमें कोई भी प्रयास नहीं है, उसमें सिर्फ बहाव है।
यदि तुम बुद्ध होना चाहो तो उसमें संघर्ष है। बहुतों ने कोशिश की है, हजारों ने बुद्ध होने का प्रयत्न किया है। तब वह एक संघर्ष है, क्योंकि वह बुद्धत्व उनका बीज नहीं है। वे कुछ और हो सकते हैं, उनकी नियति कुछ और है। लेकिन वे किसी और की नकल करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
इस तरह हजारों लोगों ने बुद्ध का अनुसरण किया, लेकिन वे एक भी बुद्ध को पैदा न कर पाये। उन्होंने नकली बुद्धों को पैदा किया, उन्होंने नकलें तैयार कीं, कॉरबन कापियाँ-झूठी, मुर्दा, निर्जीव। जब भी तुम किसी का अनुकरण करते हो, तो तुम्हें संघर्ष करना पड़ता है। जब भी तुम अपनी स्वयं की नियति स्वीकार कर लेते हो, तो फिर किसी संघर्ष की जरूरत नहीं होती। तुम उसमें विकसित होते हो। और प्रत्येक व्यक्ति अपूर्व है, और प्रत्येक व्यक्ति की अपनी नियति है।
स्वीकार का अर्थ है-वही हो जाओ जो कि समग्र अस्तित्व तुम्हारे द्वारा होना चाहता है। लड़ो मत। यदि तुम गुलाब का फूल हो, तो गुलाब ही हो जाओ। कमल होने का प्रयत्नम त करो। तब कोई संघर्ष नहीं है। एक गुलाब का फूल गुलाब का फल हो जाता है। लेकिन उसे सिखाओ, समझाओ, तो एक गुलाब की कली सोच सकती है, कल्पना कर सकती है किवह कुछ और है। तब उसमें संघर्ष होगा, तनाव और चिन्ता होगी। और सारी कोशिशें ही बेकार चली जायेगी। और उससे कोई विधायक नतीजा नहीं निकलेगा, इतना ही नहीं, बल्कि उससे निषेधात्मक परिणाम भी होगा।
यदि एक गुलाब का फूल, कमल का फूल होने का प्रयत्न करे तो वह असंभव है। अतः वह संभावना तो होती ही नहीं, लेकिन साथ ही उस प्रयास में, कमल होने के संघर्ष में, यह संभव है कि अब यह फूल गुलाब का फूल भी न हो पाये, क्योंकि उसकी ऊर्जा नष्ट हो गई। समग्र स्वीकार का सिद्धान्त यह है कि स्वयं को स्वीकार करो और प्रकृति के साथ बहो, जहाँ भी वह ले जाये। वही तुम्हारी नियति है। बीच में मत आओ, अपने को खींचकर कुछ और बनाने की कोशिश मत करो। वही संघर्ष है।
यही अर्थ है ताओ का, यही अर्थ है धर्म का, यही अर्थ है आंतरिक स्वभाव का। इसका अनुकरण करो। और जब मैं कहता हूँ, इसका अनुकरण करो, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि कुछ प्रयत्न करो। वस्तुतः मेरा मतलब है, उसे होने दो, तुम्हारी जो भी नियति है उसे होने दो, तुम्हारी नियति को विकसित होने दो। तब एक दूसरा ही विकास होता है-चेतना का विकास, वस्तुओं का नहीं। अतः स्वीकार से तुम्हें कोई बड़ा घर प्राप्त नहीं होगा किन्तु तुम्हें एक और बड़ी आत्मा उपलब्ध होगी। तुम आिर्र्थकरूप से धनवान नहीं हो जाओगे, लेकिन तुम अवश्यमेव आध्यात्मिक रूप से धनी हो जाओगे।
जीसस कहते हैं कि यदि तुम यह सारा संसार भी पा लो और अपने आप को खो दो, तो उसका क्या अर्थ होगा? तुम भिखारी हो, और तुम भिखारी ही रहोगे। और यदि तुम स्वयं को पा लो, और सारा संसार खोभी दो, तो तुमने कुछ भी नहीं खोया। यही पूर्व का बुनियादी रुख है जीवन के प्रति-क्योंकि पूर्व का कहना है कि सुख वस्तुओं में नहीं है किन्तु तुम्हारे चैतन्य में है। उसका वस्तुओं से कुछ लेना-देना नहीं है, उसका तुमसे लेना-देना है, तुम्हें विकसित होना है।
वस्तुएँ विकसित हो सकती हैं। वस्तुएँ ज्यादा, और ज्यादा हो सकती हैं। लेकिन उनको पाना ‘होना’ नहीं है। तुम सारे संसार को पा सकते हो बिना भीतर किसी भी आत्मा के, और तुम सड़क के भिखारी भी हो सकते हो अपनी भीतरी बादशाहत के साथ। वह स्वरूप का विकास ही सही अर्थों में विकास है। और जब स्वीकार सिखाया जाता है तो वह हमारे स्वरूप के विकास के लिये ही सिखाया जाता है। जिन्होंने भी इस बात को सीखा है और इस पर चले हैं, वे विकसित हुए हैं। और उनकी कोई तुलना नहीं है।
हजारों, लाखों लोगों ने अस्वीकार, असन्तोष का अनुकरण किया है, सारे संसार ने, सारी मनुष्यता ने उसे ही अपनाया है, किन्तु अस्वीकार पर चलने वालों ने एक भी बुद्ध को जन्म नहीं दिया। एक भी जीसस अथवा एक भी लाओत्से को पैदा नहीं किया।
सचमुच बाह्य विकास असन्तोष पर ही निर्भर है, किन्तु आंतरिक विकास सन्तोष पर निर्भर है। अब यह तुम्हारी मर्जी है। यदि तुम वस्तुओं का ढेर लगाना चाहो, तो तुम लगा सकते हो, लेकिन तब तुम सिर्फ एक नौकर हो जो कि चीजों का ढेर लगाता जाता है। और तब मृत्यु आती है और सब खो जाता है, और जो कुछ भी तुमने पाया था, मृत्यु उस सबको मिटा डालती है।
एक और भी विकास है-आंतरिक विकास-जिसे कि मृत्यु भी नष्ट नहीं कर सकती। बुद्ध कहते हैं कि जब तक तुमने ऐसा कुछ उपलब्ध नहीं कर दिया है जिसे कि मृत्यु भी नहीं मिटा सकती, तब तक तुमने कुछ भी नहीं पाया। ऐसा कुछ पाओ जो कि मृत्यु भी नहीं मिटा सकती, तब तक तुमने कुछ भी नहीं पाया। ऐसा कुछ पाओ जो कि मृत्यु भी नहीं मिटा सकती, तब तक तुमने कुछ भी नहीं पाया। ऐसा कुछ पाओ जो कि मृत्यु का भी अतिक्रमण कर जाये। केवल तभी तुम विकसित हुए। अन्यथा मृत्यु भी नहीं मिटा सकती, तब तक तुमने कुछ भी नहीं पाया। ऐसा कुछ पाओ जो कि मृत्यु भी नहीं मिटा सकती, तअब तक तुमने कुछ भी नहीं पाया। ऐसा कुछ पाओ जो कि मृत्यु का भी अतिक्रमण कर जाये। केवल तभी तुम विकसित हुए। अन्यथा मृत्यु तुम्हारा हर जीवन नष्ट कर डालती है और तुम फिर से भिखारी हो जाते हो और पुनः तुम्हें अ-ब-स से प्रारंभ करना पड़त है।
विकास का अर्थ होता है एक सातत्य, जीवन प्रवाह। लेकिन वस्तुएँ तुम्हारे साथ नहीं जा सकतीं। जो भी तुम्हारे पास है वह तुम्हारा नहीं है। वह सब मृत्यु का है, वह सब इस संसार का है। वह तुम्हारा नहीं है। तुम सिर्फ अपने को धोखा दे रहे हो। इस तरह तुम अपने को धोखा दे सकते हो। तुम्हारा विकास तुम्हारे सन्तोष से होता है। और जब मैं कहता हूं सन्तोष, तो मेरा मतलब लाचारी से नहीं है। इसे याद रखें।
अतः यह तीसरी बात है। एक व्यक्ति अपने को सांत्वना देने के लिए सन्तुष्ट आरोपित कर सकते हो। तुम कह सकते हो कि ठीक है, यही मेरी किस्मत है, इसे मैं स्वीकार करता हूं। लेकिन भीतर गहरे में यह स्वीकार नहीं है। यह सिर्फ स्वयं को सांत्वना देने के लिये है। यदि कोई अवसर अमीर होने का आ जाये, तो तुम उसे खोने वाले नहीं हो। और यदि कोई कहता है कि यह धन तुम अपने सन्तोष के बदले में ले लो, तो तुम अपना सन्तोष फेंक दोगे और वह धन स्वीकार कर लोगे।
अतः हारा हुआ सन्तोष, सन्तोष नहीं है। वह तो सिर्फ तुम्हारा चेहरा बचाने की तरकीब है। तुम हारे हुए अनुभव करना नहीं चाहते, इसलिए तुम सन्तोष का नाटक करते हो। बहुत से लोग ऐसे सन्तोष का पालन करते रहते हैं, लेकिन यह उपनिषदों की शिक्षा नहीं है। उपनिषदों के लिए सन्तोष का अर्थ लाचारी नहीं है, हारा हुआ होना नहीं है। वस्तुतः वह एक गहरी समझ है।
जीवन कुछ ऐसा है कि तुम सिर्फ उसके एक हिस्से हो, एक बहुत छोटे से हिस्से। और सर्व बहुत बड़ा है-एक आरगेनिक होल, एक जीवन्त सर्व है। यह ऐसे ही है जैसे कि मेरी उंगलियाँ मेरे जीवित शरीर के अंग हैं। वे मेरे शरीर के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकती, वे मेरे शरीर के खिलाफ कुछ चाह भी नहीं सकतीं। वे कुछ और नहीं हैं, बस मेरे शरीर का एक हिस्सा मात्र हैं। यदि मेरा शरीर बीमार हो जाये, तो वे बीमार हो जायेंगी। यदि मेरा शरीर मर जाये, तो वे भी मर जायेंगी। यह समझें कि मैं इस सर्व का एक हिस्सा मात्र हूँ, कि मैं इसके साथ बहूँगा, कि मैं इससे नहीं लडूंगा, यही सन्तोष है।
यह एक गहरी समझ है। स्मरण रहे कि सन्तोष शब्द का जो अर्थ किया जाता है, उससे यह सन्तोष एक इतनी भिन्न बात है कि इसे समझना भी बहुत कठिन है। इस प्रकार का आदमी हर हालत में सन्तुष्ट होगा। चाहे वह गरीब हो, चाहे अमीर हो। इस दूसरे हिस्से को भी याद रखें। वह गरीब होने का भी प्रयत्न नहीं करेगा क्योंकि वह भी प्रयास है। वह गरीब होने की भी कोशिश नहीं करेगा क्योंकि वह भी एक आकांक्षा है। तब फिर वह समग्र से लड़ रहा होगा; फिर वह किसी बात के लिए मना कर रहा होगा, स्वीकार नहीं कर रहा होगा।
यदि समग्र की यही मरजी है कि वह अमीर हो, तो ठीक है, वह अमीर होगा। यदि समग्र की मर्जी है कि वह गरीब हो, तो वह गरीब होगा। वह अमीरी से गरीबी में आसानी से आ-जा सकता है। वास्तव में, वह हवाओं में एक सूखे पत्ते की भाँति होगा। जहाँ कहीं भी हवाएँ ले जायें, वह चला जायेगा। उसकी कोई मरजी नहीं है, उसका कोई अहंकार नहीं है, उसकी अपी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है। समग्र की इच्छा ही उसकी इच्छा है। यही स्वीकार है। और जब कोई ऐसे स्वीकर में जीता है, तो वह आंतरिक विकास के उच्चत्तम शिखर पर पहुँच जाता है।
यह पूर्वीय धर्म का अंतरतम प्राण है, किन्तु पूर्व ने इसका अनुगमन नहीं किया। जिन्होंने इसका पालन किया वे विकास की अन्तिम ऊँचाईयों तक पहुँचे। जिन्होंने इसे नहीं माना और ऐसा दिखाया कि वे इसका पालन कर रहे हैं, वे आंतरिक संघर्ष में पड़े।
पूर्व में अधिकतम लोग इस प्रकर से आंतरिक सांर्ष में पड़े हैं। वे सोचते हैं कि वे धार्मिक हैं, और वे हैं नहीं। और यह विचार कि ये आध्यात्मिक हैं, बाधा बन जाता है, क्योंकि यदि कोई रुग्ण है और सोचता है कि स्वस्थ है तो फिर उसकी कोई चिकित्सा संभव नहीं है। एक रुग्ण आदमी को जानना चाहिए कि मैं रोगी हूँ, यह पहला कदम है स्वास्थ्य की तरफ या स्वास्थ्य की कोई भी संभावना की ओर।
अस्वस्थ आदमी स्वयं को स्वस्थ समझे, यही सबसे भयानक बीमारी है क्योंकि तब सब द्वार ही बन्द हो जाते हैं। लेकिन ऐसा होता है, और आदमी बड़ी आसानी सेअपने को धोखा दे सकता है। अतः यह संभव है कि पश्चिम और-और पूर्व हो जाये और पूर्व अधिक और अधिक पश्चिम हो जाये। यह हो ही रहा है।
वह दिन दूर नहीं है जबकि सूरज पश्चिम में उगेगा क्योंकि पश्चिम की जो शिखर की चेतनाएँ हैं, जो कि ऊँचे-से-उँचे प्रबुद्ध व्यक्ति हैं, जो कि आगे की ओर देख सकते हैं, वे सब पूर्व की ओर मुड़ रहे हैं। और पूर्व में इससे बिल्कुल उलटा हो रहा है। वह जो तथाकथित बौद्धिक वर्ग है, जो बुद्धिजीवी हैं वे कम्युनिस्ट हो रहे हैं। यदि पूर्व में तुम कम्युनिस्ट नहीं हो, तो कोई बुद्धिमान मानने को तैयार नहीं होगा। बिल्कुल यह संभव है कि तुम बुद्धिजीवी हो और साम्यवादी नहीं हो। लेकिन जो साम्यवादी नहीं हैं वे भी साहस के साथ नहीं कह सकते कि वे साम्यवादी नहीं हैं। और वे जो साम्यवादी नहीं हैं, वे अपने को कम-से-कम समाजवादी तो कहेंगे ही। यह उनका मुखौटा है। वे जो कि पूरी तरह साम्यवाद के विरोधी होंगे, वे भी साम्यवाद, समाजवाद, समानता की बातें करेंगे।
अभी तो पूर्व में एक भी पूर्वी मन ढूंढ़ना बहुत कठिन है। बड़ा सोवियत रूस में भी साम्यवाद पुराना हो गया। सोवियत बौद्धिक वर्ग, सोवियत के अति बुद्धिजीवी लोग भी अब आंतरिक संसार की खोज कर रहे हैं। सारे संसार में सोवियत रूस ही एक अकेला देश है जो मनोवैज्ञानिक खोज में इतना अधिक धन खर्च कर रहा है कि अमेरिका भी उससे पीछे है। रूस के बहुत-से विश्वविद्यालयों में, मन-संगत खोज सारे अनुसन्धान कार्यक्रम का एक अनिवार्य अंग हो गई है।
मनुष्य केवल पदार्थ नहीं है, मनुष्य मन भी है। और जब तक हम कुछ मन के बारे में नहीं जान लेंगे, कुछ भी संभव नहीं है। आदमी को बदला नहीं जा सकता, कोई क्रान्ति संभव नहीं है। किन्तु पूर्व में, तथाकथित पूर्व में, भौगोलिक पूर्व में अध्यात्म, धर्म के बारे में बात करना अन्धविश्वास हो गया है। यदि पूर्व में आज कोई धर्म की बात करे, तो तथाकथित बुद्धिजीवी सोचते हैं कि यह प्रतिक्रियावादी है, क्यों हो रहा है ऐसा?
पश्चिम ने भौतिकवाद का अनुगमन किया है, लेकिन पूरी ईमानदारी के साथ, पूरे मन से। और ईमानदारी सदैव लाभ पहुँचाती है, वह सदा कुछ देती है। अब उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जो कुछ भी वे कर रहे थे गलत है। और वे बुनियादी रूप से गलत रहे हैं। और वे ईमानदार लोग हैं, इसलिए वे इसे स्वीकार करते हैं। हम लोग बेईमान हैं, हम कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकते। हम बदलते रहते हैं लेकिन ऊपर सतह पर हम वही पुराना चेहरा लगाये रखते हैं। हम कभी मानने को राजी ही नहीं होते कि हम गलत रहे हैं। यह चित्त का लक्षण, एक बहुत ही स्वस्थ है कि कोई स्वीकार करे कि वह गलत है क्योंकि वह यह बताता है कि जो कुछ भी किया गया था, उसे अनकिया किया जा सकता है। अब तुम अपना मार्ग बदल सकते हो, तुम दूसरी दिशा में जा सकते हो।
पूर्व एक दोहरा जीवन जीता रहा है। वह सदा स्वर्ग की ओर देखता रहा है और सदा जमीन पर जीता रहा है। उससे ही सारी गड़बड़ पैदा होती है, क्योंकि जाते हो। तुम आकाश की तरफ देखते रहते हो, और वहाँ चलने के लिये कोई मार्ग नहीं है। अतः हमारा मन बँटा हुआ है, खंड-खंड है, स्किजसेफ्रेनिक है। एक साथ जीते हैं हम-दो जीवन। जो कुछ भी तम कहते हो, तुम जानते हो कि सही नहीं है, उसे किया नहीं जा सकता। लेकिन फिर भी तुम उसे कहे चले जाते हो।
एक वृद्ध सज्जन यहाँ पर थे। वे एक बड़े प्रोफेसर रहे हैं-भारत के अग्रणी शिक्षा शास्त्रियों में से एक हैं-और उन्हें भारत की विश्वविद्यालयों की दशा से बहुत पीड़ा है। वे मुझे कह रहे थे कि उनकी सन्तान का भविष्य बहुत अंधकार पूर्ण है, और वे कह रहे थे कि मेरे स्वयं के बच्चे भी मेरी सुने के लिये राजी नहीं हैं। कोई नैतिकता नहीं है, कोई धर्म नहीं है, कोईईमानदारी नहीं है। यह सब क्या हो रहा है?
अतः मैंने उनसे कहा कि अपने बच्चों का तुम जो कुछ भी शिक्षा दे रहे हो, क्या तुम भी उसका अनुगमन करते हो? क्योंकि तुम जीवन में एक बहुत ही सफल व्यक्ति रहे हो-बहुत ही सफल। तुम चोटी तक पहुँचे। वे वाइस-चांसलर रहे और कितने ही पदों पर रहे। अतः मुझे ईमानदारी से बताओ कि जो कुछ भी शिक्षा तुम अपने बच्चों को दे रहे हो, क्या तुमने भी उसे माना?
वे बेचैन हो गये लेकिन वे ईमानदार आदमी थे। अतः कहने लगे कि मुश्किल है ईमानदार होना और साथ ही सफल होना। इसलिए मैंने पूछा कि वे अपने बच्चों से क्या चाह रहे हैं, ईमानदार होना या सफल होना? मैंने उनसे कहा कि वास्तव में, आपके बच्चे आपसे ज्यादा ईमानदार है क्योंकि वे इस पाखंड को देख पा रहे हैं। वे कहते हैं कि चूँकि हमें सफल होना है, ईमानदारी की बात क्यों करते हैं? तब बेईमानी की बात करो और सफल होओ। और यदि हमें ईमानदार होना है, तो सफलता की सारी महत्त्वाकांक्षाओं को छोड़ो। तब असफल हो जाओ और ईमानदार रहो। इन विद्यार्थियों को उलझन में क्यों डालते हो?
लेकिन वे सोचते हैं कि वे एक नैतिक व्यक्ति हैं और उनके बच्चे अनैतिक हैं। बच्चे सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि तुम्हारा सारा सोचतने का ढंग और जीने का तरीका एक पाखंड है। यदि ईमानदारी का ही अनुगमन करना है तो फिर सफलता की उम्मीद ही मत करो। अगर फिर भी सफलता मिल जाये तो चमत्कार है। यदि ऐसा नहीं हो, तो उम्मीद करने की कोई जरूरत नहीं है। तब कम-से-कम कोई विषाद तो नहीं होगा कि तुमने ईमानदार होना चुना है। तब तुमने असफल होना ही चुना है।
लेकिन एक पिता का मन, हर एक पिता का मन यह चाहता है कि तुम ईमानदार भी रहो और सफल भी बनो। तब एक दोहरा मन निर्मित होता है। अतः बात ईमानदारी की करो, और बेईमान तथा सफलता का पाठ सिखाओ। सारी दौड़ जारी रखो-चूहों की दौड़।
यदि तुम आंतरिक विकास चाहते हो तो स्वीकार ही नियम हैं। मैं यह नहींकह रहा हूँ कि आंतरिक विकास के पीछे-पीछे बाहरी विकास भी आयेगा। उसकी कोई अभिवार्यता नहीं है। ऐसा हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। तुम गरीब बने रह सकते हो। लेकिन आंतरिक समृद्धि के साथ बाहरी दरिद्रता दुःख नहीं देती। दुःख नहीं देती। दुःख तभी होता है जबकि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर से दरिद्र हो। बाहरी समृद्धि और आंतरिक दरिद्रता के साथ बहुत भारी पीड़ा होती है। लेकिन ऐसा कभी-कभी ही होता है कि तुम बाहर और भीतर दोनों तरफ से समृद्ध हो।
इसलिए इन दोनों के बीच चुनाव है। तुम्हारा जोर किस बात पर है? यदि तुम आंतरिक विकास और आंतरिक समृद्धि के पक्ष में हो तो उसका अनुगमन करो। तब फिर स्वीकार ही नियम है। किन्तु यदि तुम उसके पक्ष में नहीं हो, जाओ। तुम बाह्यरूप से समृद्ध हो सकते हो, लेकिन अन्ततः तुम्हें पता चलेगा कि तुमने अपना जीवन बर्बाद ही किया।

भगवन्! एक दिन आपने कहा कि जीवन अन्तर्संबंध है-कि यहाँ हर चीज एक दूसरे से संबंधित है। दूसरे दिन आपने कहा कि केवल तुम्हीं सब बात के लिए जिम्मेवार हो। लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की बुनियाद उसके प्रारंभिक बचपन में रख दी जाती है, तीन साल से सात साल की अवस्था के बीच, जिससमय कि वह कुटुम्ब तथा वातावरण के हाथों में निः सहाय होता है। क्या आप यह विरोधाभास हमें समझायेंगे?
दूसरी बातः इस विपरीतता के बावजूद मनुष्य का समग्र विकास व्यक्तिगत एवं सामाजिक प्रयास पर निर्भर है। अतः क्या यह आवश्यक नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति को समाज के ढांचे में आमूल परिवर्तन लाने का प्रयत्न करना चाहिये?
यह हमें विरोधाभासी प्रतीत होता है। एक दिन मैंने कहा कि हर चीज कि तुम्हीं जिम्मेवार हो। ये कथन विरोधाभासी लगते हैं, लेकिन ये हैं नहीं क्योंकि जब मैं कहता हूं कि ‘तुम्हीं जिम्मेवार हो’ तो मेरा मतलब है कि तुम्हीं सर्व हो। कहीं से तो हमें प्रारंभ करना होता है, और तुम किसी अन्य से तो प्रारंभ नहीं कर सकते हो।
वस्तुतः तुम ही निकटतम बिन्दु हो जहां से कि सर्व को पहुँचा जा सकता है। तुम सर्व के अंग हो, और हर चीज एक-दूसरे पर निर्भर है। लेकिन दूसरे हिस्से जो कि निर्भर हैं वे तुमसे बहुत दूर हैं। तुम उनसे अपनी यात्रा शुरू नहीं कर सकते हो, तुम्हें अपने से यात्रा शुरू करनी पड़ेगी। अतः जब मैं कहता हूँ कि हर चीज एक-दूसरे पर निर्भर है तो यह एक दार्शनिक कथन है, एक सत्य है-उसका सत्य जो कि पहुँच गया। जब मैं कहता हूँ कि तुम्हीं जिम्मेवार हो तब यह भी सत्य है, लेकिन यह साधक का सत्य है, न कि सिद्ध का-उसका नहीं जो कि पहुँच गया।
लेकिन जिसे यात्रा करनी है वह कहाँ से अपनी यात्रा प्रारंभ करे? तुम मेरी जगह से तो यात्रा शुरू नहीं कर सकते। तुम किसी और के स्थान से यात्रा प्रारंभ नहीं कर सकते। तुम्हें वहीं से यात्रा करनी पड़ेगी जहाँ कि तुम हो। और यदि तुम सोचते हो कि तुम जिम्मेवार नहीं हो, तो तुम गिर जाओगे और वहीं सड़ जाओगे। तब तुमने सारी बात को ही गलत समझ लिया। तब वह सर्व की अंतर्निर्भरता बजाय सहायक होने के अवरोध बन गई। और ऐसा ही हो सकता है।
हम चाहें तो अमृत को भी जहर में बदल सकते हैं और हम जहर को भी अमृत बना सकते हैं। यह सब हम पर निर्भर है। अतः मैं कुछ उदाहरण दूँ। जैसे कि बुद्ध कहते हैं कि जो कुछ पाना है, वह पहले से तुम में मौजूद है। यह कथन दो व्याख्याओं पर ले जा सकता है : एक कि अब कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि जो भी पाना है, वह पहले से मिला ही हुआ है। अतः कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं। मैं जैसा भी हूँ, ठीक हूँ। अब तुमने एक कीमती सत्य को विषैला बना दिया।
इसकी दूसरी तरह से भी व्याख्या की जा सकती है, जो कि बिल्कुल ही भिन्न हो। जब बुद्ध कहते हैं कि तुम वह हो ही, जो कि तुम हो सकते हो तो यह एक आशा बंधाता है। अब यह असंभव जैसा नहीं लगता। तुम्हारे पास बीज है। बीज वृक्ष हो सकता है, तुम बीज से वृक्ष की ओर जा सकते हो। अब वृक्ष होना असंभव नहीं है। वह मुझमें छिपा है, अतः अब मैं विश्वास के साथ आगे बढ़ सकता हूँ, मैं आशा के साथ आगे जा सकता हूँ। मैं बिना किसी भय के अज्ञात में प्रवेश कर सकता हूँ। तब यह सहायक हो सकता है।
जब मैं कहता हूँ कि सारा जगत ही एक समष्टि है, कॉसमॉस है, अन्तर्संबंधित है, तो इसका अर्थ है कि हम अलग-थलग द्वीप नहीं हैं, बल्कि हम एक अनन्त महाद्वीप हैं, हम एक-दूसरे से जुड़े हैं। कोई छोटा नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति वास्तव में ही समग्र है।
रामतीर्थ ने कहा है कि ‘तुम मानो या न मानो, लेकिन यह जगत मैंने ही बनाया है। तुम विश्वास करो, चाहे तुम विश्वास न करो, लेकिन ये तारे मैं ही चलाता हूँ।’
वे पागल हैं। यदि तुम इस कथन के ऊपरी अर्थ की ओर देखो, तो वे पागल हैं। लेकिन यदि समग्र अस्तित्व अन्तर्निर्भर है, तो फिर वे पागल नहीं हैं। तब चाहे किसी ने भी जगत को बनाया हो, ‘मैं’ भी उसका हिस्सा रहा हूँगा। मेरे बिना यह संसार बनाना असींव है। वे यह कह रहे हैं कि मैं एक अंग हूँ, और चाहे कोई भी इन तारों को चला रहा हो, मैं उसका अंग हूँ। मेरे बिना वे नहीं चल सकते।
जब मैं कहता हूँ कि हर चीज़ एक दूसरे पर निर्भर है, तो उका अर्थ है कि तुम सर्व हो। तुम केवल एक हिस्से नहीं हो, तुम अकेले नहीं हो, तुम छिटके हुए नहीं हो। तुम ही सर्व हो, सर्व ही तुममें उपस्थित है। यही अन्तिम बल्ल है, लेकिन तुम्हारे लिये यह एक सिर्फ सैद्वान्तिक वक्तव्य है। यह बुद्ध के लिये बोध हो सकता है, लेकिन तुम्हारे लिये तो केवल सिद्धान्त की बात है। यह तुम्हारा बोध नहीं है।
यह तुम्हारा बोध कैसे हो? कहाँ से प्रारंभ करें? यदि तुम कहते हो कि मैं सिर्फ एक हिस्सा हूँ, अतः मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तो कुछ भी नहीं हूँ, तब फिर कोई भी गति संभव नहीं है। तुम वहीं गिर कर मर जाओगे। यह जो महान सत्य है यह तुम्हारे लिये घातक सिद्ध होगा। यदि तुम चलो और इस सत्य का बोध करो तो तुम्हें जिम्मेवार होना पड़ेगा जो भी तुम हो, उसके लिये जिम्मेवार बनना पड़ेगा। तब तुम उसे बदल सकते हो। और तुम उसे बदल सकते हो क्योंकि तुम केवल तुम ही नहीं हो, यह सर्व भी तुम्हारे पीछे है। जिस क्षण भी तुम कहते हो कि मैं ही जिम्मेवार हूँ, तो उसी क्षण सर्व ने तुम्हारे भीतर घोषणा कर दी। जिस क्षण भी तुम कहते हो कि ‘मैं चलूँगा’ उसी क्षण सर्व तुम्हारे साथ चलने लगा।
मैं एक दूसरा उदाहरण देता हूँ : हिन्दुओं ने हजारों-लाखों वर्षों से यह माना है कि प्रत्येक व्यक्ति आत्मा है, और आत्मा अमर है, आत्मा शुद्ध है, आत्मा ही परमात्मा है। गुरजिएफ ने इस सदी में कहा कि अपने आप को धोखा मत दो। आत्मा को उपलब्ध करना बड़ा कठिन है। प्रत्येक के पास आत्मा नहीं होती है, यह तो बहुत मुश्किल से कभी होता है कि कभी किसी ने आत्मा को पा लिया हो, अन्यथा तुम बिना आत्मा के ही हो।
यह बात तोबिल्कुल विपरीत दिखाई पड़ती है। वह कहता है कि बहुत थोड़े से लोग ही, विरले ही आत्मा को उपलब्ध कर पाते हैं। वह कहता है कि आत्मा एक उपलब्धि है। यह तुम्हें अपने जन्म के साथ नहीं मिलती। यह अभी इस समय तुम्हारे भीतर नहीं है। यह तभी संभव है जबकि तुम कुछ प्रयास करो। तब तुम आत्मा को निर्मित कर सकते हो। यदि तुम प्रयत्न नहीं करो तो तुम बिना आत्मा के ही मर जाओगे। गुरजिएफ कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति अमर नहीं है। केवल वे ही लोग जो कि आत्मा को पा लेते हैं, अमर होते हैं। अन्यथा तुम सिर्फ एक कचरा हो। प्रकृति तुम में हार गई। तुम जीवित नहीं बचोगे। हर आदमी बचनेवाला नहीं है।
यह बात हिन्दू, जैन, बौद्ध शिक्षा के बिल्कुल विपरीत दिखाई पड़ती है। ईसाइयत भी, मुसलमान भी-वस्तुतः सभी धर्म सिखाते हैं कि तुम्हारे पास आत्मा है, और गुरजिएफ कहता है कि ‘नहीं’ है। और सचमुच वह इस सदी के जानने वालों में से एक था। लेकिन इतना जोर क्यों है? वह कहता है कि इस शिक्षा के कारण ही कि हर एक के पास आत्मा है, कोई भी प्रयास नहीं करता है। प्रत्येक यह विश्वास करता है कि ठीक है, आत्मा तो सदा-सदा शुद्ध है। गीता को पढ़ो-कृष्ण कहते हैं कि तुम चाहे कुछ भी करो; तुम्हारी आत्मा अस्पर्शित ही रह जाती है, वह शुद्ध-बुद्ध है।
यह बात बहुत खतरनाक हो सकती है। गुरजिएफ कहता है कि इन्हीं शिक्षाओं की वजह से मनुष्यता अधार्मिक हो गई है। वह कहता है कि यह बकवास बन्द करो। जब तक तुम पा न लो, तुम्हारे पास कोई आत्मा नहीं है। अतः गुरजिएफ एक गहरा धक्का मारता है। वह कहता है कि तुम्हारे पास क्या है कि जगत को तुम्हारी सदा-सदा आवश्यकता हो? क्या है ऐसा तुम्हारे पास? कुछ भी तो नहीं। केवल तुम्हारी मूर्खताएँ। यह सोचना कि तुम्हारी मूर्खताएँ शाश्वत हो जायें, यह तो बहुत अन्धकारपूर्ण भविष्य हुआ।
तुम सोचते हो कि सारी मूर्खताएं शाश्वत हो जायेंगी क्योंकि हर आदमी शाश्वत है। लेकिन गुरजिएफ कहता है कि नहीं, यह जगत तुम्हें इतने लम्बे समय के लिये सहने के लिये तैयार नहीं है, जब तक कि तुम इस जगत के लिये अर्थपूर्ण न हो जाओ। जब तक कि तुम इस विश्व-सत्ता की नियति का एक हिस्सा न हो जाओ, तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। और तुम शाश्वत भी क्यों हो जाओ और तुम उसकी मांग भी क्यों करो? केवल इस मूर्खता को दोहराने के लिये, जो कि तुम कर रहे हो? गुरजिएफ कहता है कि पहले उपलब्ध कर लो। आत्मा हो जाओ। तुम हो सकते हो लेकिन वह एक क्रिस्टलाइजेशन है, एक प्रकार की केंद्रीभूत अवस्था है। तुम में सारे तत्त्व मौजूद हैं, उन्हें जोड़ लो, आंतरिक कीमिया से गुजर जाओ, और तब तुम्हारे भीतर एक नई चीज का जन्म होगा जो कि आत्मा होगी।
अतः वह कहता है कि बुद्ध के पास आत्मा है, जीसस के पास आत्मा है, और चूँकि उनके पास आत्मा है, वे कहते चले जाते हैं कि हर एक के पास आत्मा है। नहीं। उनकी बातों में मत आओ। उनके पास आत्मा है और वे अमर हैं, लेकिन तुम नहीं हो। इसलिए उनसे धोखा खाने की जरूरत नहीं। और सचमुच उसकी बात सहायक हो सकती है। लेकिन हम हर बात को नुकसान में बदल सकते हैं-गुरजिएफ की शिक्षा को भी तब हम कह सकते हैं कि यदि वह इतनी दुर्लभ है, तो फिर वह हमारे लिये नहीं है। वह हमसे पार है।
ऐसा कुछ भी मनुष्य से नहीं कहा जा सकता जिसका कि गलत उपयोग नहीं किया जा सके। वह मन नये अर्थ दे देगा। अतः जब मैंने कहा कि यह जगत एक कॉसमॉस है, समष्टि है, एक जीवन्त इकाई है, कि यहाँ सब अर्न्तंबंधित है, तो मेरा मतलब यह था कि तुम एक महाविराट के हिस्से हो, तुम अकेले नहीं हो। तुम्हारे भीतर से अस्तित्व बढ़ रहा है, विकसित हो रहा है। तुम्हारा एक गहरा मिशन है, एक महान नियति है।
इसे जानने के लिये तुम्हें अपने सारे दृष्टिकोण को बदलना होगा। और वह रूपान्तरण तभी प्रारंभ होता है जबकि तुम अपने को जिम्मेवार समझो। यदि तुम महसूस करो कि तुम ही जिम्मेवार हो, तो तुम बदल सकते हो। अतः इस अन्तर्निर्भरता के सिद्धान्त को एक मदद रूप बना लो, इसे अपने आत्म-रूपान्तरण के लिए एक सीढ़ी बना लो, इसे बाधा मत बनाओ।
और यह बात सही है कि आदमी करीब-करीब बचपन में ही निर्मित कर दिया जाता है। उसमें बहुत-सी बातें सम्मिलित हैं। एक : मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तुम ‘तबुला रेसा’-यानी एक कोरे कागज की तरह पैदा होते हो। तुम्हारे प्रथम पाँच या सात वर्ष उस पर सब कुछ लिख देते हैं ओर वह तुम्हारी जिन्दगी का ढाँचा बन जाता है; तुम उसी को दोहराते रहते हो।
पहली बात तो यह है कि कोई भी ‘तबुला रेसा’ की तरह पैदा नहीं होता क्योंकि यह बचपन ही प्रारंभ नहं है, यह जीवन ही हमारी शुरूआत नहीं है। तो हर बच्चा सिर्फ बच्चा नहीं है, बहुत बूढ़े लोग उसमें मौजूद हैं-बहुत जन्मों के। उसने बढ़ापा कई बार जिया है और वह सब स्मृतियाँ हर बार सुरक्षित रही हैं। मन उन सब स्मृतियों के साथ आगे चलता रहता है-तो यह सब बड़ा ही जटिल मामला है।
मनोवैज्ञानिक कहेंगे कि तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारी आनुवांशिकता यह चीजें सब तय करेंगी। लेकिन पूर्व कुछ ज्यादा जानता है। पूर्वीय मनीषा कुछ ज्यादा जानती है क्योंकि पूर्वीय मनीषा कहती है कि यह जीवन बहुत बड़ी श्रृंखला की सिर्फ एक कड़ी है। और अभी जो मानव के मन में बहुत गहरे गये हैं पश्चिम में उनका कहना है कि- जैसे कि सी-जी-जुंग वे कभी ऐसा अनुभव कर रहे हैं कि यह जीवन प्रारंभ नहीं है। कोई बच्चा बच्चा ही पैदा नहीं होता। उसके पास भी बहुत-सी स्मृतियाँ हैं।
पूर्वीय मनीषा का कहना है कि माता-पिता तुम्हारे जीवन को निश्चित नहीं करते। वस्तुतः तुमने उनको चुना है। तुमने विशेष माता-पिता के द्वारा जन्मा हूँ, तो यह मेरा अपना चुनाव है। वे मुझे निर्मित करेंगे क्योंकि मैंने उन्हें स्वयं को निर्मित करने के लिये चुना है। और मैंने उन्हें अपने को निर्मित करने के लिये चुना है क्योंकि उसके पीछे मेरे अतीत के जीवन के बहुत से कर्म हैं। यह एक श्रृंखला है।
अतएवं अन्त में मैं ही जिम्मेवार हूँ। यदि मैं एक बहुत हिंसक पिता को चुना हूँ, अथवा कि एक बहुत ही विद्वान व्यक्ति को, चाहे कुछ भी हो, वह मेरा ही चुनाव है। तब फिर वे मुझे निर्मित करते हैं लेकिन यह उनके द्वारा मेरा निर्माण, मेरी शिक्षा आदि अन्तिम नहीं है। अन्ततः तुम्हीं मालिक हो, तुम उसे कभी भी फेंक सकते हो। यह कठिन है, लेकिन यह संभव है।
यह बहुत ही कठिन है क्योंकि यह कोई कपड़े उतारकर फेंकना जैसा नहीं है। यह तो तुम्हारी चमड़ी बदलने जैसा है। यह तुम्हारे भीतर इतना गहरा उतर गया है, जो भी हुआ है, वह इतना गहरे चला गया है कि वह तुम्हारा खून और हड्डी बन गया है, तुम उसी से बने हो। अब तुम अपने को उससे अलग सोच भी नहीं सकते। तुम्हारा तादात्म्य उसके साथ एक हो गया है। लेकिन फिर भी उसे उतार फेंकना असंभव नहीं है। तुम उसमें से बाहर छलांग लगा सकते हो।
वास्तव में, सब योग इसी बात से संबंधित है कि कैसे उन सारे प्रभावों को जिन्होंने कि तुम्हें निर्मित किया है, तुम उनसे बाहर निकल सको-चाहे जो भी तुम हो, तुम उसमें से कैसे छलांग लगा जाओ, तुम कैसे पार चले जाओ-कि कैसे तुम अपने माता-पिता, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारी वंश-परंपरा, कि कैसे तुम अपने विगत जीवन के पार चले जाओ। योग का सारा विज्ञान इसी बात से संबंधित है कि वह तुम्हें उस सबके पार जाने में मदद करे। अतः एक हम कुछ थोड़ी बातें समझ लें कि यह किस प्रकार संभव हो सकता है।
शिक्षा, लालन-पालन आदि तुम्हें एक प्रकार का व्यक्तित्व प्रदान करते हैं, एक प्रकार की आकृति है कि मैं यह हूँ। एक अच्छा आदमी, एक बुरा आदमी, एक धार्मिक आदमी, एक बुद्धिमान आदमी, एक मूर्ख आदमी-हर एक आदमी की अपनी एक आकृति है जो कि समाज के द्वारा दी गई है, माता-पिता द्वारा शिक्षा दी गई है। इस सबको कैसे फेंका जाये? संन्यास इस सबको फेंक देने का उपाय था।
शायद तुमने कभी ख्याल न किया हो कि हिन्दू समाज चार वर्णों में विभाजित है-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। लेकिन संन्यासी किसी भी जाति से संबंधित नहीं है। यदि एक ब्राह्मण संन्यासी हो जाये, तो वह सिर्फ एक संन्यासी है। यदि एक से पार है। जब तुम संन्यासी नहीं थे, किन्तु एक गृहस्थ थे तो तुम ब्राह्मण थे या कुछ और थे। जब तुम संन्यास में छलांग लगाते हो, तो तुम फिर ब्राह्मण नहीं हो और वह सब जो भी तुम्हारे ब्राह्मण होने से जुड़ा था, बिखर गया।
जब तुम एक संन्यासी हो जाते हो, तो तुम मृत्यु की प्रक्रिया से गुजरते हो। संन्यास का अर्थ था मृत्यु। इसलिए संन्यास की दीक्षा श्मशान पर दी जाती थी। और श्मशान पर होनेवाली सार-की-सारी प्रक्रिया पूरी की जाती थी। तुम्हारा सिर घुटा डाला जाता था जैसे कि हम मुर्दे का सिर घोट देते हैं। अब तुम समाज के लिये मर गये, जो कुछ भी तुम्हारा था, अब तुम उसके लिये नहीं हो।
तब फिर तुम्हारा नाम बदल दिया जाता था क्योंकि तुम्हारे नाम से भी तुम्हारा तादात्म्य था। अब तुम्हारा गुरु ही तुम्हारा पिता होता था। अब तुम्हारे कोई और माता-पिता नहीं थे। अब तुम्हें नये सिरे से सब कुछ शुरू करना पड़ेगा। तुम्हारा कोई घर नहीं होगा, कोई जाति नहींहोगी, तुम्हारे कोई माता-पिता नहं होंगे, कोई पति, कोई पत्नी नहीं होगी, इस संसार से कोई संबंध नहीं होगा। नये नाम के साथ एक मोड़ एक अन्तराल आ जायेगा। अतत गिर गया। अब तुम्हें अ-ब-स से प्रारंभ करना पड़ेगा। ुम्हारे शत्रु थे, वह आदमी अब मर गया। मित्र थे, लेकिन अब तुम उनसे वैसा ही व्यवहार नहीं कर सकते, जैसा कि पहले करते थे। वह आदमी अब मर गया।
एक कहानी है। एक बौद्ध साधु एक गाँव से गुजर रहा था। वह उसी गाँव का रहने वाला था। संन्यास लेने के पहले वहां एक सुन्दर युवती उससे प्रेम करती थी। उसने उसका चेहरा पहचान लिया। हालांकि वह बिल्कुल बदल गया था और उसे पहचानना भी कठिन था, और फिर वह भिक्षुओं के साथ जा रहा था। इतने सारे बौद्ध भिक्षु थे, और वे सब एक जैसे दिखाई पड़ रहे थे, एक-से-कपड़े, मुंडे हुए सिर, कोई व्यक्तित्व नहीं। लेकिन फिर भी उस स्त्री ने उसे पहचान लिया, अतः वह उसके पीछे गई।
और तब उसने उस भिक्षु से कहा कि तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते। मैं तुम्हें पहचानती हूँ, तुम वही आदमी हो। उस भिक्षु ने कहा, केवल चेहरा वही है, लेकिन वह आदमी तो अब नहीं रहा, वह तो मर गया। उस युवती ने कहा, लेकिन तुम तो मुझे प्रेम करते थे। भिक्षु ने जवाब दिया, मैं फिर तुम्हें कहता हूँ कि वह आदमी मर गया। यदि मैं कभी उससे मिला, तो उसे तुम्हारी कहानी सुना दूँगा। मैं उसे कह दूंगा कि वह लड़की तुम्हें अब भी प्रेम करती है। लेकिन मैं नहीं सोचता कि अब कभी उससे मिलना संभव है। यह पुराने से टूटना और नये तादात्म्य को जीना ही बुनियादी रूप से संन्यास का अर्थ होता था।
बुद्ध अपने घर वापस लौटते हैं। बुद्ध के पिता बहुत क्रोधित हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि, ‘‘कृपा कर मेरी बात तो सुनें। मैं वही सिद्धार्थ नहीं हूँ जिसने कि घर छोड़ा था।’’ पिता तो और भी ज्यादा गुस्सा हो गये। उन्होंने कहा, ‘‘तुम मुझे सिखाते हो? मैं तुम्हारा पिता हूँ। मैंने तुम्हें जन्म दिया है, मैं तुम्हें भली-भाँति जानता हूँ। बुद्ध ने फिर कहा, ‘‘तुम अपने को ही नहीं जानते। तुम मुझे कैसे जान सकते हो?’’
यह बात आग में घी का काम कर जाती है और पिता तो आग बबूला हो उठते हैं। वे चिल्लाकर कहने लगते हैं, ‘‘क्या हो तुम? यह कैसा बर्ताव है? मेरा अपना ही लड़का, मेरा अपना ही खून व हड्डी। तुम मुझे क्या कह रहे हो?’’ और गौतम बुद्ध कहते हैं, ‘‘आप शान्त हो जायें, कृपया क्योंकि जिस आदमी ने आपका घर छोड़ा था, जो कि आपके पास रहता था, वह कब का ही मर गया।’’
इस तरह संन्यास की विधि से छलांग लगाने का उपयोग किया जाता था, उस चमड़ी से जो कि समाज ने आरोपित की थी। और फिर बहुत-सी विधियाँ थीं अनसीखा कने की। मैं तुमसे कितनी ही बार कह चुका हूँ कि ध्यान अनसीखा करने की विधि है। इसलिए जो भी तुमने सीख लिया है, उसे अनसीखा कर दो, उसे फेंक दो। पुनः खाली स्लेट हो जाओ। जो भी समाज ने उस पर लिख दिया है उसे धो डालो। और वह किया जा सकता है। ध्यान उसकी विधि है। तुम अनसीखा कर सकते हो।
शिक्षा कुछ सीखने की विधि है, ध्यान अनसीखा करने की विधि है। तब तुमने अपने व्यक्तित्व को अनसीखा कर दिया, जब तुमने अपने पुराने तादात्म्य को छोड़ दिया, तभी केवल कुछ संभव है। अन्यथा तुम वर्तुल में घूमते रहते हो। और वर्तुल बहुत मजबूत है। उसमें से छलांग लगाना बहुत कठिन है, लेकिन असंभव नहीं है। और यह कठिन है क्योंकि तुमने निर्णय नहीं किया है। यदि तुमने निर्णय कर लिया है तो फिर कुछ भी असंभव नहीं है। निर्णय के साथ ही परिवर्तन प्रारंभ हो जाता है।
महावीर के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने अपना घर त्यागने का निर्णय किया। लेकिन माता जीवित थी, अतः उसने कहा कि नहीं जाओ, घर मत छोड़ो जब तक कि मैं मर न जाऊँ। फिर से संसार त्यागने की बात ही मत करना। तुम प्रेम की बात करो, तुम अहिंसा की बात करो लेकिन यदि तुमने संसार को त्यागा तो वह मुझे मार डालेगा। मेरी हत्या कर देगा। अतः उसकी बात ही मत करना। लेकिन माँ को भी बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि महावीर ने फिर वह बात ही नहीं उठाई। सारा परिवार आश्चर्य करने लगा। यह कैसा संन्यास था? यह किस तरह का त्याग था। केवल एक बार महावीर ने बात की और तब माँ क्राधित हो गई और वे रुक गये।
दो वर्ष तक उन्होंने बात ही नहीं की। फिर उनकी माँ की भी मृत्यु हो गई। वे एक दिन लौट रहे थे, तो उन्होंने अपने बड़े भाई से पूछा कि अब माँ तो मर गई है, अतः मुझे संसार त्यागने की आज्ञा दो। भाई तो बहुत क्रोध में आ गया। उसने कहा कि क्या बेकार की बात करता है तू? इसकी कभी बात ही मत उठाना। अतः दो वर्ष तक वे फिर कुछ नहीं बोले।
सारे परिवार को बड़ा धक्का लगा। यह किस तरह का त्याग था? लेकिन तब उन्होंने अनुभव करना शुरू किया कि महावीर घर में थे लेकिन वे वहाँ नहीं थे। वे पूरी तरह अनुपस्थित थे। किसी ने भी उन्हें घर में उपस्थित अनुभव नहीं किया। वे सिर्फ छाया हो गये। महीने बीत जाते और तब कभी कोई कहता कि महावीर कहाँ है? वे घर में ही थे। वे इतने अनुपस्थित हो गये कि एक दिन सारा परिवार इकट्ठा हुआ और उन्होंने कहा कि यदि तुम यही कर रहे हो, तो फिर हमारा कर्तव्य हो जाता है कि तुम्हें छोड़ने की आज्ञा दे दें। तुम जा सकते हो क्योंकि तुम तो पहले से ही जा चुके हो।
महावीर ने उसी दिन घर छोड़ दिया किसी ने पूछा कि आप भाग क्यों नहीं गये? आप बच कर क्यों नहीं निकल गये? उन्होंने कहा कि उसकी कोई भी जरूरत नहीं थी। मैंने आंतरिक छलांग लगा ली थी। जिस दिन मैंने निर्णय किया, उसी दिन मैं संन्यासी हो गया। केवल मेरी छाया वहाँ थी अन्यथा मेरी माँ को बहुत दुःख होता। घर छोड़ने की कोई भी जरूरत नहीं थी। वहाँ सिर्फ छाया ही थी, ‘मैं’ वहाँ नहीं था। जिस दिन मैंने निर्णय किया उसी दिन घटना घट गई। ये चार वर्ष मेरे लिये कुछ भी नहीं थे। मैं सिर्फ छाया था। मैं उस घर में सारी जिन्दगी रह सकता था।
जिस दिन भी आदमी छलांग लगाने का निर्णय लेता है, छलांग पहले ही लग जाती है, क्योंकि निर्णय ही छलांग है। इतना भी पता होना कि मैं एक गहरे बंधन में पड़ा हूँ, इतना-सा बोध भी उससे बाहर ले आता है। अब देर-अबेर, यह बन्धन भी तुम्हारे लिये कारागृह नहीं रह जायेगा।
किन्तु पश्चिमी मनोविज्ञान एक बहुत ही हानिप्रद दृष्टि पैदा कर रहा है। वह कहता है कि तुम पहले से ही पूरे हो। जब तुम सात वर्ष के थे, तभी तुम्हारी नियति निर्वीत हो गई थी और अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। यदि यह तुम्हारा विचार बन जाये, तो फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता-इसलिए नहीं कि तुम पूरे हो गये बल्कि तुम्हारे इस विचार के कारण। यदि तुम कहते हो कि अब कुछ भी और नहीं किया जा सकता क्योंकि मैं पहले ही पूरा हो चुका हूँ। जो कुछ भी हो सकता था, वह सब मेरे दिमाग में डाल दिया गया है, फिर मैं क्या कर सकता हूँ। अब मुझे इसी कारागृह में रहना पड़ेगा। यही मेरा जीवन है। यदि कोई इस तरह विचार करता है, तो यह सोचना बाधा बन जायेगा, अन्यथा दूसरी कोई बाधा नहीं है।
अतः पश्चिमी मनोविज्ञान के हिसाब से पश्चिमी मन की कोई जिम्मेदारी नहीं है। पश्चिम में युवकों का विद्रोह और दूसरे विद्रोह तथा अन्य विनाशकारी आन्दोलन ये सब वस्तुतः पिछले सालों के पश्चिमी मनोविज्ञान के द्वारा पैदा किये गये हैं। इस बात के लिये फ्राइड सबसे ज्यादा जिम्मेवार है, मार्क्स से भी ज्यादा-क्योंकि उसने कहा कि तुम सात वर्ष की आयु में पूरे हो चुके। तुम्हारे माता-पिता जिम्मेवार हैं, तुम जिम्मेवार नहीं हो। इसलिए जो भी तुम कर रहे हो-यदि तुम अपराधी हो, यदि तुम कातिल हो-तुम उसके लिये कुछ भी नहीं कर सकते, तुम्हें यही होना था। और अब तुम्हारे मृत माता-पिता तो बदले नहीं जा सकते।
इसलिए फ्रायड भी उसी नतीजे पर पहुँचता है जहाँ कि ईसाइयत पहले पहुँच चुकी थी कि आदम ने पाप किया, उसके लिये हम जिम्मेवार नहीं हैं, वही जिम्मेवार है। आदम यानी कि पहला पिता। उसके कारण ही सब कुछ नियत हुआ। अब हम पाप में ही पैदा हुए और हमें पाप में ही मरना पड़ेगा। यदि तुम फ्रायड के साथ चले तो तुम इसी निष्कर्ष पर पहुँचोगे। यदि माता-पिता ही जिम्मेवार हैं तब तो फिर अन्ततः आदम और ईव ही जिम्मेवार हैं।
किन्तु आदम और ईव को तो बदला नहीं जा सकता। वह तो अब असंभव है। इसलिए जैसा भी है; वह चलता है। यह स्वीकार नहीं है, ‘‘यह तो हारना है। और इससे मनुष्य गौरव ही नष्ट हो जाता है। यदि तुम कुछ भी नहीं कर सकते, यदि तुम अपने को ही नहीं बदल सकते तो तुम मनुष्य की सारी गरिमा ही खो देते हो। तब तुम सिर्फ एक स्वचालित यन्त्र की भाँति हो जाते हो, एक मेकेनिकल चीज हो जाते हो। बस अब तुम दौड़ पूरी करोगे, चूँकि तुम्हारे माता-पिता ने चाबी भर दी है, तुम चक्कर पूरा करोगे, और फिर मर जाओगे। और इसी बीच में यदि तुम्हें अवसर मिला, तो तुम किसी और में चाबी भर दोगे, और इस तरह तुम चलते रहोगे।
यह तो बहुत अपमानजनग बात हो गई। मनुष्य अपने को बदल सकता है। वह संभावना सदा तुम्हारे साथ है। और यह धारणा कि मैं स्वयं को बदल सकता हूँ इससे ही बदलाहट प्रारंभ होती है। क्रान्ति शुरू हुई।
और अन्त में, पूछा गया है कि क्या यह अनिवार्य नहीं है कि धार्मिक आदमी समाज के ढाँचे में भारी परिवर्तन लाये? वह स्वयं ही समाज के ढाँचे में एक भारी परिवर्तन है-धार्मिक आदमी। वह समाज में कोई परिवर्तन लाने का प्रयत्न नहीं करेगा। वह स्वयं ही एक भारी परिवर्तन है।
आज इतना ही।  

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