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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-36)

आत्म पूजा उपनिषद-भाग-2

अठारहवां प्रवचन- साधना-पथ का सहज विकास

प्रश्न

  1. ग्रीक, वैज्ञानिक खोज सत्य के लिए है, तथा पूर्वीय, धार्मिक खोज मोक्ष के लिए है।
  2. ध्यान में प्रगति की ओर इंगित करने वाले कौन-कौन से लक्षण हैं?
  3. क्या किसी संसारी व्यक्ति को भक्ति का मार्ग चुनना चाहिए और योग का मार्ग त्यागियों के लिए छोड़ देना चाहिए?
भगवन्! साधारणतः ऐसा विश्वास किया जाता है कि धर्म सत्य की खोज के लिए है। किन्तु एक रात्रि प्रवचन में आपने कहा कि यूनानी मन, वैज्ञानिकता की ओर झुका हुआ न, सत्य की खोज करता है और पूर्वीय धार्मिक मन के लिए मोक्ष यानी मुक्ति खोज की वस्तु है। परन्तु आपने पीछे यह भी कहा है क सत्य ही केवल मुक्त करता है?
क्या आप कृपा कर इस विरोधाभास को समझायेंगे?

दर्शनशास्त्र, फिलोसोफी सत्य की खोज के लिए है, न कि धर्म। धर्म तो मुक्ति की खोज है, आत्यंतिक मुक्ति की। दोनों में क्या अंतर है? जब तुम सत्य की खोज कर रहे हो, तो जोर अधिकाधिक बुद्धिगत मानसिक होता है। जब तुम मुक्ति की खोज कर रहे हो, तो फिर यह कोई सिर्फ बुद्धि का प्रश्न नहीं है, किन्तु तब यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व का प्रश्न है।
जिस क्षण भी कोई ‘सत्य’ शब्द का उच्चारण करता है तो तुम्हारी बुद्धि पर असर होता है। तुम्हारे भाव अप्रभावित रह जाते हैं, तुम्हारा शरीर अछूता रह जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सत्य का संबंध सिर्फ सिर से है। सत्य का तुम्हारे पैर के अंगूठे से क्या लेना-देना? सत्य का तुम्हारे रक्त, तुम्हारी हड्डी, मांस, मज्जा से क्या संबंध? लेकिन जैसे ही तुम ‘मुक्ति’ शब्द का उच्चारण करते हो, तो उसका संबंध तुम्हारी पूरी समग्रता से है। तब तुम उसमें पूरे-के-पूरे ही संलग्न हो जाते हो। यह पहला अंतर है। धर्म कोई बुद्धिगत मामला नहीं उसमें सिर्फ एक हिस्से की तरह संलग्न होती है, परन्तु तुम्हारा सारा अस्तित्व उसमें लगा होता है। मुक्ति तुम्हारे समग्र बीइंग के लिए है।
दूसरी बात, जब भी कोई सत्य के बारे में सोचता है तो उसमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सत्य को कहीं और खोजना है। तुम सिर्फ खोज करने वाले हो, सत्य कहीं और किसी वस्तु की भाँति रखा है जिसे कि खोजना है। परन्तु जब तुम मुक्ति की खोज में हो, तो मुक्ति को कहीं और किसी वस्तु की तरह नहीं खोजना है। तुम्हें ही रूपान्तरित होना है-उसे पाने के लिए। क्योंकि मुक्ति का अर्थ होता है-अपनी दासता को गिरा देना। सत्य हमें थिर प्रतीत होता है, जैसे कि कोई वस्तु हो। मुक्ति एक प्रक्रिया है, जीवन्त। इसीलिए मैं कहता हूँ कि धर्म बुनियादी रूप से मुक्ति की खोज है-आत्यंतिक, समग्र-मुक्ति की।
यह भी सही है कि मैंने कई बार कहा है कि सत्य मुक्त करता है। इसमें कुछ भी विरोधाभास नहीं है। धर्म की खोज मुक्ति के लिए है, सत्य सिर्फ साधनरूप है। यदि तुम सत्य को पा लेते हो, तो तुम्हें मुक्त होने में मदद करता है। सत्य मुक्त करता है, किन्तु मुक्ति ही अन्तिम बात है।
सचमुच, ज्यादा अच्छा हागा कि हम उसे दूसरी तरह से परिभाषित करें। जो मुक्त करे वह सत्य है, और जब तक वह तुम्हें मुक्त न करे, वह सत्य नहीं है। लेकिन मुक्ति अन्तिम-लक्ष्य है-धर्म के लिये। यह जोर कुछ छोटा-मोटा भेद नहीं है। यह एक बड़ा भेद है, क्योंकि जब भी मन खोजने निकलता है, सत्य की खोज करता है, तो सारी बात ही बदल जाती है। तब तुम उसके लिए सोचने लगते हो, तुम उसके लिए तर्क करने लगते हो, तुम उसे बौद्धिकता का रूप दे देते हो। तो बात मनसंगत हो जाती है।
सत्य अर्थपूर्ण है लेकिन सिर्फ मुक्ति की ओर साधन की भांति। अतः धर्म सत्य की खोज के विरुद्ध नहीं है। धर्म मुक्ति के लिए है, सत्य उसकी मदद करता है। किन्तु सत्य तब गौण, द्वितीय हो जाता है। वह प्राथमिक नहीं रहता, वह बुनियादी नहीं रहता। वह सिर्फ साधन है, मुक्ति लक्ष्य है। इसीलिए सारे हिन्दू-चिंतन के लिए ‘मोक्ष’ अंतिम लक्ष्य है, सारी हिन्दू खोज के लिए ‘मुक्ति’ अंतिम बात है।
सत्य सहायता करता है मुक्त होने में, इसलिए सत्य को खोजो, किन्तु सिर्फ मुक्ति की बड़ी खोज के एक हिस्से की भांति। सत्य को लक्ष्य मत बनाओ। यदि तुम सत्य को लक्ष्य बनाओगे, तो फिर तुम्हारी खोज धार्मिक नहीं है, तब वह दार्शनिक है। इसीलिए ग्रीक (यूनानी) मन और हिन्दू मन में अंतर है।
अरस्तु अथवा प्लेटो अथवा सुकरात के लिये सत्य ही आखिरी लक्ष्य है-सत्य को कैसे खोजें? तब तर्क साधन हो जाता है। हिन्दू मन के लिये ‘मुक्ति’ लक्ष्य है। मुक्ति कैसे।
यदि किसी को मुक्त होना है, तो उसे अपनी सारी दासतायें गिरा देनी पड़ेंगी। दासता की जंजीरों को कैसे काटें? तुम्हें उन्हें काटने के लिये एक विज्ञान की जरूरत है। वह विज्ञान है-योग। तब तुम्हारी खोज एक दूसरा ही मार्ग ले लेती है : तुम गुलाम क्यों हो? तुम बन्धन में क्यों पड़े हो? तुम बन्धन में पड़े ही कैसे? तुम दुःख में क्यों हो? क्यों? यह ‘क्यों तुम्हारी खोज की सारी यात्रा को बदल देगा। बन्धन का पता चलाना होगा, और तब उसे तोड़ना पड़ेगा। तभी तुम मुक्त होओगे।
 यदि सत्य ही खोज है तो फिर आदमी गलती में क्यों है? तब समस्या यह है कि इस गलती से कैसे बचा जाये। तब यह बात मूलभूत हो जाती है। तर्क गलत से बचने में मदद करेगा, तब तर्क-वितर्क, दार्शनिक चिंतन ही साधन है। इसीलिए यूनानी मन योग जैसी किसी बात के बारे में नहीं सोच सका। योग मौलिक रूप से पूर्वीय है। यूनानी मन तर्क को विकसित करेगा। वही यूनानी देन है-सारे संसार के विचार को। उन्होंने उसे इतना विकसित किया, आखिरी शिखर तक, कि वस्तुतः इन दो हजार वर्षों में उसमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सका। अरस्तु में तर्क अपने अंतिम शिखर पर पहुँचा। ऐसा कभी-कभी ही होता है कि एक आदमी किसी भी विज्ञान को उसकी पूर्णता तक विकसित कर दे। अरस्तु ने यह किया, परन्तु योग का कोई ख्याल वहाँ नहीं है।
भारत में योग आधारभूत है। हमने भी तर्क प्रणालियाँ विकसित की हैं, किन्तु सिर्फ उन सत्यों की उन अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए जो कि भाषा के पार चले जाते हैं। अतः हमने तर्क विकसित किया-एक साधन की भाँति-किसी चीज़ को अभिव्यक्त करने के लिये, न कि किसी चीज़ तक पहुँचने के लिये।
यूनानी तर्क का अर्थ है सत्य तक पहुँचने की एक प्रक्रिया। हिन्दू तर्क का अर्थ है कि सत्य तो उपलब्ध हो गया, मुक्ति पा ली गई किसी और साधन से। अब जबकि तुमने अनुभव उपलब्ध कर लिया उसे अभिव्यक्त करने के लिये तर्क की आवश्यकता पड़ेगी। इस भेद को स्पष्ट करने के लिये मैंने कहा कि हिन्दू मन धार्मिक है, और ग्रीक मन दार्शनिक है। धार्मिक मन अधिक-अधिक प्रायोगिक है।
मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। बुद्ध यह कहानी बहुत बार सुनाते थे। एक आदमी मर रहा था। बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे थे और उस आदमी के शरीर में एक तीर लगा था-किसी शिकारी का तीर। वह आदमी मर रहा था। वह एक दार्शनिक था। बुद्ध उस आदमी से कहते हैं कि इस तीर को निकाला जा सकता है। मुझे इसे बाहर निकाल लेने दो।
वह आदमी कहता है, ‘नहीं, पहले मुझे यह बताओ कि यह तीर किसने मारा? मेरा शत्रु कौन है? यह तीर मेरे शरीर में क्यां लगा? मेरे किन कर्मों का यह फल है? क्या तीर विष-बुझा है, या नहीं है?’ बुद्ध कहते है, ‘यह सारी बात तुम बाद में पूछ लेना। पहले मुझे तीर खींच लेने दो, क्योंकि तुम मरने ही वाले हो। यदि तुम सोचते हो कि नहीं पहले इन सब बातों का पता चल जाये और फिर तीर को खींचा जाये, तो तुम बचने वाले नहीं हो।’
यह कहानी उन्होंने बहुत बार सुनाई थी। उनका इस कहानी से क्या मतलब था? उनका अर्थ था कि हम सब मृत्यु के किनारे ही खड़े हैं। मृत्यु का तीर पहले ही तुम्हारी छाती में चुभा हुआ है। तुम्हें इसका पता हो या नहीं हो। मृत्यु का तीर तुमको पहले से ही लग चुका है। इसीलिए तुम दुःख में हो। तीर चाहे दिखाई नहीं पड़ता हो, किन्तु पीड़ा तो है। तुम्हारी पीड़ा कहती है कि मृत्यु का तीर तुम्हारे भीतर प्रवेश कर चुका है। मत पूछो इस तरह के सवाल कि इस जगत को किसने बनाया और मैं क्यों बना गया, कि जीवन बहुत है कि एक ही जीवन है, क्या मैं मृत्यु के बाद भी बचूँगा या नहीं।
बुद्ध कहते हैं, ये बातें बाद में पूछ लेना। पहले इस दुःख के तीर को खींच लेने दो। तब बुद्ध हँसते हैं और कहते हैं कि फिर बाद में मैंने किसी को पूछते हुए नहीं पाया, इसलिए बाद में सारी पूछताछ कर लेना।
यह योग है, इसका तुम्हारी स्थिति से ज्यादा संबंध है-तुम्हारी पीड़ा की वास्तविक स्थिति से और कैसे उससे पार हुआ जाये। इसका ज्यादा संबंध है तुम्हारी दासता से, तुम्हारे कारागृह से। और कैसे इसका अतिक्रमण किया जाये, कैसे मुक्त हुआ जाये? इसलिए ‘मोक्ष’ लक्ष्य है, अंतिम लक्ष्य, वास्तविक लक्ष्य। यह कोई सैद्धान्तिक सत्य नहीं है।
हमने बहुत-से सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं, लेकिन वे सिर्फ उपाय हैं। हमारे पास नौ प्रणलियाँ हैं और बहुत बड़ा साहित्य है। सर्वाधिक समृद्ध साहित्यों में से एक परन्तु हमारे सारे सिद्धान्त अर्थपूर्ण नहीं हैं। हमने बहुत से विचित्र सिद्धान्तों को निर्मित किया है। लेकिन बुद्ध तथा महावीर कहते हैं कि यदि कोई सिद्धान्त बन्धन से पार जाने में मदद करते हैं, तो वे ठीक हैं।
किसी भी सिद्धान्त के बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं है कि वह सही है या गलत है, उसके तर्क-वितर्क पर भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। उसका उपयोग करो और पार चले जाओ। नाव के बारे में सोचना-विचारना कैसा? यदि वह तुम्हें नदी पार करने में सहायता करे, तो नदी के पार चले जाओ। पार जाना अर्थपूर्ण है, नाव तो अर्थ हीन है। अतः कोई भी नाव काम दे देगी। इसीलिए हिन्दुओं ने एक अगूठा सहिष्णु मन विकसित किया, वह एक मात्र सहिष्णु मन है। एक ईसाई सहिष्णु नहीं हो सकता। असहिष्णुता वहाँ होगी। एक मुसलमान सहिष्णु नहीं हो सकता। असहिष्णुता वहाँ भी होगी ही।
इसमें उसका दोष नहीं है। यह इसलिए है क्योंकि उसके लिये नाव बहुत महत्वपूर्ण है। वह कहता है कि तुम केवल इसी नाव से नदी के पार जा सकते हो। दूसरी नावें ‘नाव’ नहीं हैं, वे सब नहीं हैं। दूसरा किनारा इतना महत्वपूर्ण नहीं है। इस किनारे की यह नाव ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए यदि तुमने गलत नाव चुनी तो तुम उस किनारे नहीं पहुँच सकोगे। परन्तु हिन्दू मन कहता है कि कोई भी नाव काम दे देगी। नाव असंगत है।
सब सिद्धान्त नावें हैं। यदि तुम ठीक से दूसरे किनारे पर दृष्टि लगाये हो, यदि तुम्हारी आँख दूसरे किनारे पर लगी हुई है, यदि तुम्हारा मन दूसरे छोर का ध्यान कर रहा है, तो फिर कोई भी नाव काम दे देगी। और यदि तुम्हारे पास कोई नाव नहीं है, तो तुम तैरो।
प्रत्येक व्यक्ति पार जासकता है, किसी भी संगठित नाव की आवश्यकता नहीं है। तैरो और यदि तुम हवा के रुख को जानते तो तुम्हें तैरने की भी जरूरत नहीं है। तब सिर्फ बहो। यदि तुम हवा के रुख को ठीक दिशा में हवा को बहने दो। फिर सिर्फ गिर पड़ना और छोड़ देना, और हवायें स्वयं तुम्हें उसे पार ले जायेंगी।
किसी नाव ने कोई ठेका नहीं ले लिया है। बिना नाव के भी कोई तैर सकता है। और यदि कोई आदमी बुद्धिमान है तो तैरने की भी जरूरत नहीं है, वह भी व्यर्थ है। यह आखिरी बात है जो कि बुद्धि से समझ में नहीं आयेगी। वे कहते हैं कि यदि तुम समग्र रूप से छोड़ दो, और विश्राम में आ जाओ तो यह किनारा ही वह किनारा है। तब कहीं जाना नहीं हैं। यदि तुम पूर्णरूप से विश्राम में हो, और पूर्णरूप से समर्पित हो, तो फिर यह किनारा ही वह किनारा है।
ऐसे हिन्दू मन के लिये, सिद्धांत, दर्शन, प्रणालियाँ आदि सब खेल है, उपाय हैं, सहायक हैं। किन्तु यदि तुम उनसे बहुत ज्यादा जुड़ जाओ तो वे हानिप्रद भी हो सकती हैं, यदि कोई आदमी किसी नाव से बहुत ज्यादा जुड़ जाये तो वे हानिप्रद भी हो सकती हैं, यदि कोई आदमी किसी नाव से बहुत ज्यादा जुड़ जाये तो फिर वह उस नाव से पार नहीं जा सकेगा क्यांकि अन्ततः वह नाव ही उसके लिये बाधा बन जायेगी। नाव तुम्हें उस पार ले जाये तो भी तुम नाव से उतरोगे ही नहीं। यह नाव की पकड़ ही बाधा बन जायेगी। ऐसा जो रुख है कि सिद्धान्त और प्रणालियाँ उपाय हैं, यह अदार्शनिक रुख है। दर्शन जीता है सिद्धान्तों में, जबकि धर्म अधिक प्रायोगिक है।
मुल्ला नसरुद्दीन कहा करता था कि सिर्फ प्रायोगिक विधियाँ ही धार्मिक विधियाँ है। एक दिन वह अपनी छत पर काम कर रहा था। वर्षा आने वाली थी और वह छप्पर पर काम कर रहा था। एक फकीर, एक भिखारी ने सड़क पर से मुल्ला को पुकारा, उसने उसे नीचे आने के लिये कहा। नीचे आना जरा कठिन था, किन्तु फिर भी मुल्ला नीचे उतरकर आया और उसने पूछा, ‘क्या मामला है? तुमने मुझे वहीं से क्यों नहीं बताया? मैं तुम्हारी बात सुन लेता।’ फकीर ने कहा, ‘मैं कुछ भीख मांगने आया हूँ, और मुझे जोर से पुकार कर मांगने में लज्जा आ रही थी।’ मुल्ला ने कहा कि ‘झूठे अहंकार में मत रहो। मेरे साथ ऊपर आओ, फकीर उसके पीछे-पीछे गया।’
फकीर जरा मोटा आदमी था। उसके लिये घर की छत पर चढ़कर जाना कठिन था। जब वह वहाँ पहुँचा तो नसरुद्दीन ने अपना काम वापस शुरू कर दिया। फकीर ने कहा कि, ‘मेरा क्या?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरे पास कुछ भी देने को नहीं है, माफ करना।’ फकीर ने कहा, ‘यह क्या बेवकूफी की बात है? तुमने मुझे नीचे सड़क पर ही क्यों न कहा दिया?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘प्रायोगिक विधियाँ अधिक उपयोगी हैं। अब तुम्हें पता चल जायेगा।’
धर्म प्रायोगिक है, दर्शन अप्रायोगिक है। क्या अर्थ है मेरा? यदि तुम पूछो कि क्या ईश्वर है? तो मैं तुम्हारा प्रश्न दो प्रकार से ले सकता हूँ-दार्शनिक अथवा धार्मिक। यदि तुम पूछो, ईश्वर क्या है? अथवा, क्या ईश्वर है? और मैं यदि इसे दार्शनिक तरह से लेता हूँ तो फिर किसी यात्रा की कोई जरूरत नहीं। मैं तुम्हें यही उत्तर दे दूंगा। मेरा जो भी विश्वास है, वह मैं तुम्हें कह दूँगा। मैं तर्क दूँगा। मैं और तर्क दूँगा और प्रमाण जुटाऊँगा, लेकिन यह सभी यहीं हो जायेगा। इसके लिये प्रायोगिक यात्रा की जरूरत नहीं है।
सत्य तभी अर्थपूर्ण है जबकि ऐसा प्रतीत हो कि बिना सत्य के तुम मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन तब सत्य का साधन की तरह मूल्य है, यही फर्क है। और इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। मैं कहता हूँ कि सत्य मुक्त करता है, किन्तु क्योंकि वह मुक्त करता है इसीलिए वह सत्य है। मुक्ति अंतिम लक्ष्य होना चाहिये, तब तुम सत्य का भी उपयोग कर सकते हो।
यदि तुम इस प्रश्न को एक धार्मिक प्रश्न की भाँति पूछो तो फिर फर्क को समझो। यदि तुम कहो कि यह धार्मिक सवाल है तब फिर मैं तुम्हें कोई सिद्धान्त नहीं दे सकता। तब मैं तुम्हें यह नहीं कह सकता कि ईश्वर है या नहीं, तब वैसा कहना व्यर्थ है। तब मैं तुम्हें एक विधि दूंगा और मैं तुम्हें उसका अभ्यास करने के लिये कहूँगा और तब तुम उसे जानोगे। तब तुम्हें लम्बी यात्रा पर जाना पड़ेगा। और जब तुम चेतना की एक विशेष स्थिति पर पहुँच जाओगे, तभी तुम्हें उत्तर उपलब्ध होगा।
दार्शनिक खोज के लिये किसी व्यक्तिगत रूपान्तरण की आवश्यकता नहीं है। तुम पूछो और मैं तुम्हें उत्तर दूँगा-यहाँ और अभी। तुम्हारे मन को बदलने की जरूरत नहीं है। यदि तुम धार्मिक प्रश्न पूछो तो चाहे प्रश्न वहीं हो, लेकिन यदि तुम कहते हो कि यह धार्मिक है, तो इसका अर्थ है कि किसी विशेष परिवर्तन की आवश्यकता है।
एक अंधा आदमी आता है और पूछता है कि क्या प्रकाश है? यदि वह एक दार्शनिक प्रश्न पूछ रहा है तो मैं एक सिद्धान्त प्रस्तुत कर सकता हूँ। इस बात से कोई संबंध नहीं है कि वह अंधा है, या वह अंधा नहीं है। सिद्धान्त तो अंधे के द्वारा भी समझे जा सकते हैं-प्रकाश के सिद्धान्त तो समझ ही सकता है, वह एक बौद्धिक मामला है। और वस्तुतः हो सकता है कि वह तुमसे भी ज्यादा सिद्धान्त को समझने में समर्थ होक्योंकि उसे प्रकाश के बारे में बात करो जिसके पास आँखें हैं, तो उसके अपने अनुभव हैं प्रकाश के बारे में कोई चिन्ता नहीं है।
यदि तुम एक आदमी से प्रकाश के बारे में बात करो जिसके पास आँखें हैं, तो उसके अपने अनुभव हैं प्रकाश के बारे में। तुम्हारे सिद्धान्त उसके अनुभवसे मेल खायें और न भी खायें, किन्त वह तर्क ज्यादा करेगा। जब कि एक अंधे आदमी को कोई भी सिद्धान्त चलेगा। सिर्फ एक ही कसौटी होगी कि उसे तर्क के द्वारा साबित किया जा सके। यदि तुम उसे तर्क के कथन की तरह से साबित कर सको, तो अंधा आदमी उस पर विश्वास कर लेगा। लेकिन यदि वह अंधा आदमी धार्मिक रूप से पूछे तो फिर उसकी दृष्टि के साथ कुछ करना पड़ेगा कि उसकी दृष्टि वापस आ जाये। सिद्धान्तों से उसे कुछ न होगा। कोई शल्य-चिकित्सा की जरूरत है, किसी ऑपरेशन की आवश्यकता है, सिद्धांतों से काम न चलेगा। किसी विधि की जरूरत है, ताकि वो अंधा आदमी देख सके। और जब तक वह देख नहीं लेता है, तब तक उसके लिये कोई प्रकाश नहीं है।
अब एक बहुत कठिन बात समझने के लिये है। यहाँ प्रकाश है। तुम अपनी आँखें बन्द कर लेते हो, क्या तुम सोचते हो कि जब तुमने आँखे बन्द कर लीं हैं तब भी प्रकाश है? वस्तुतः तर्क की दृष्टि से या ऊपर से आँखें बन्द कर लेने से प्रकाश नहीं मिट जाता है, प्रकाश तो वहाँ है। जब मैं अपनी आँख खोलता हूँ तो प्रकाश वहाँ है, जब मैं अपनी आँख बन्द कर लेता हूँ तब भी प्रकाश वहाँ है। मेरे आँख बन्द कर लेने से प्रकाश का कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं है। यह एक सामान्य ज्ञान है।
लेकिन भौतिक शास्त्र कुछ और बात कहता है वह कहता है कि प्रकाश एक ऐसी घटना है जिसमें तुम्हारी आँखों का भी योगदान है। तुम्हरी आँखों के बिना प्रकाश नहीं हो सकता। प्रकाश का स्रोत रह सकता है लेकिन प्रकाश नहीं हो सकता। प्रकाश तुम्हारी व्याख्या है, तुम्हारा दिया गया अर्थ है। कुछ अ, ब, स, है जिसे कि मेरी आँखें प्रकाश की तरह अर्थ देती हैं। यदि मेरी आँखें बन्द हो जाएं, तो फिर अर्थ देने वाला कोई भी नहीं बचा, प्रकाश विलीन हो गया।
एक दूसरा सरल उदाहरण लो। हम यहाँ बैठे हैं। इतने सारे रंग हैं, इतने सारे कपड़े हैं, किन्तु रंग को तुम्हारी आँखों की जरूरत है अन्यथा वह नहीं हो सकता। तुम आकाश में एक इन्द्रधनुष देखते हो। अपनी आँखें बन्द कर लो और इन्द्रधनुष विलीन हो गया। सिर्फ तुम्हारे लिये ही नहीं बल्कि वह वस्तुतः विलन हो गया है, उ क्योंकि एक इन्द्रधनुष को होने के लिये तीन चीजों की जरूरत हैः पानी की लटकती हुई बूंदें, उनके पार जाती हुई सूरज की किरणें और एक आंख उसकी ओर देखती हुई। इन तीनों चीजों की आवश्यकता है एक इन्द्रधनुष को होने के लिये। यदि एक भी तत्व कम हो तो इन्द्रधनुष नहीं हो सकता।
यदि पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य नहीं हो तो फिर कोई इन्द्रधनुष भी नहीं होंगे। यदि जमीन पर कोई आंख नहीं हो, तो कोई रंग न होंगे। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? अंधे के लिये प्रकाश नहीं होता। आध्यात्मिक अंधे के लिये कोई परमात्मा नहीं होता। स्रोत वहाँ है, किन्तु स्रोत परमात्मा नहीं है। स्रोत का अनुभव होने पर परमात्मा तो उसकी की गई एक व्याख्या है। स्रोत का अनुभव होने पर परमात्मा तो उसकी की गई एक व्याख्या है। स्रोत वहाँ है, तुम यहां अंधे हो। इसलिए कोईईश्वर नहीं है। जब स्रोत और तुम्हारी आंखें मिलती हैं तो परमात्मा की घटना घटती है, वह मिलना ही परमात्मा है।
धर्म एक प्रायोगिक विज्ञान है-तुम्हारी आंख को खोलने के लिये, अथवा तुम्हारी आँख जो कि काम नहीं कर रही है, उसे क्रियाशील बनाने के लिये किस कोण से देखने पर तुम्हारी आँखें परमात्मा का अनुभव करने में समर्थ हो जायें। वह कोई सैद्धान्तिक बात नहीं है। और परम स्वतन्त्रता, मुक्ति अंतिम लक्ष्य है, क्योंकि बन्धन ही दुःख में, अपनी पीड़ा में, अपने बन्धन में। अतः अन्ततः तुम्हारा रस है तुम्हारे अपने आनन्द में, तुम्हारी मुक्ति में न कि सत्य में।
सत्य तभी अर्थपूर्ण है जबकि ऐसा प्रतीत हो कि बिना सत्य के तुम मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन तब सत्य का साधनकी तरह मूल्य है, यही फर्क है। और इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। मैं कहता हूँ कि सत्य मुक्त करता है, किन्तु क्योंकि वह मुक्त करता है इसीलिए वह सत्य है। मुक्ति अंतिम लक्ष्य होना चाहिये, तब तुम सत्य का भी उपयोग कर सकते हो।
सत्य लक्ष्य नहीं होना चाहिये, वरना तुम्हारी दिशा गलत हो जायेगी। तब तुम अस्तित्व के पास बुद्धि के द्वारा पहुंचने का प्रयत्न करोगे। और हर कदम अगले कदम पर ले जाता है, और प्रत्येक कदम एक श्रृंखला निर्मित करता है। एक जरा-सा भेद तुम्हारे प्रश्न में, एक बहुत छोटा-सा परिवर्तन और तुम्हारा सारा मार्ग दूसरा हो जायेगा।
कोई बुद्ध के पास आता है और कहता है-क्या मृत्यु के पार भी जीवन है? बुद्ध उससे पूछते हैं, क्या तुम सचमुच जानना चाहते हो? वह आदमी कहता है, हाँ, सचमुच। लेकिन वह जरा बेचैन हो जाता है। वह उत्सुक था, लेकिन उसका कोई रस नहीं था। वह उत्सुकतावश जानना चाहता था कि क्या मृत्यु के बाद भी जीवन होता है? क्या जीवन बचता है मृत्यु के पार भी? बुद्ध उससे पूछते हैं, क्या तुम्हारा सचमुच ही रस है? और उनकी आँखें उस गरीब आदमी के भीतर चली जाती हैं और इसलिए वह आदमी बेचैन हो उठता है, और कहता है, ‘हाँ, सचमुच।’
तब बुद्ध कहते हैं कि तुम दो बार विचार करो। यदि वस्तुतः ही तुम्हारा रस हो, तो मैं तुम्हें रास्ता बता सकता हूँ कि मरा कैसे जाये और तब तुम देख लेना कि जीवन बचता है या नहीं। तुम्हारे लिये कोई दूसरा कैसे मर सकता है, और कौन जान सकता है? तुम्हें ही इसमें से गुजरना पड़ेगा। यदि मैं कहूँ भी कि हाँ, जीवन होता है मृत्यु के बाद भी, तो भी तुम इस पर विश्वास कैसे कर सकते हो? तब कोई दूसरा कहेगा कि ‘नहीं’। अतः फिर तुम किस भाँति निर्णय करोगे? लेकिन यदि सिर्फ उत्सुकता ही है, तो फिर तुम सिद्धान्तवादियों के पास चले जाओ, किसी दार्शनिक के पास चले जाओ। मैं कोई दार्शनिक नहीं हूँ।
बुद्ध कहा करते थे कि मैं एक वैद्य हूँ, एक चिकित्सक हूँ, अतः यदि तुम वाकई बीमार हो, तो मेरे पास आओ। मेरे पास कोई सिद्धान्त नहीं है, किन्तु मेरे पास तुम्हें ठीक करने की विधि है। मैं एक चिकित्सक हूँ।
धर्म एक औषधि है, दर्शनशास्त्र एक सिद्धान्त है।
भगवान, ध्यान के पथ पर बहुत से साधक यह जानने में बड़ी कठिनाई अनुभव करते हैं कि क्या वे कुछ प्रगति कर रहे हैं या नहीं, अथवा कि वे बीच में ही लटके हुए हैं और फिर-फिर पुनरूक्ति ही कर रहे हैं?
क्या आप कृपा कर यह बतायेंगे कि वे कौन-से-लक्षण हैं जो कि ध्यानी की सतत प्रगति को दर्शाते हैं?
ध्यान करते हुए, अपने पर काम करते हुए यदि तुम्हें यह पता न चलता हो कि तुम प्रगति कर रहे हो या नहीं तो यह बात ठीक से समझ लेना कि तुम प्रगति नहीं कर रहे हो। क्योंकि जब प्रगति होती है तो तुम उसे जानते हो। क्यों? यह ठीक ऐसे ही है जैसे कि बीमार होते हो और दया ले रहे होते हो, तो क्या तुम्हें यह अनुभव नहीं होगा कि तुम स्वस्थ हो रहे हो या नहीं? यदि तुम्हें स्वास्थ्य का अनुभव नहीं हो रहा हो और फिर भी यह प्रश्न उठता हो कि तुम ठीक हो रहे हो या नहीं, तो यह बात ठीक से जान लेना कि तुम ठीक नहीं हो रहे हो। स्वस्थ होना एक ऐसा अनुभव है कि जब तुम स्वस्थ होते हो, तो तुम उसे जानते ही हो।
लेकिन यह सवाल क्यों उठता है? यह सवाल कई कारणों से उठता है। एक कि तुम वस्तुतः श्रम नहीं कर रहे हो। तुम सिर्फ अपने को धोखा दे रहे हो। तुम अपने साथ चालबाजी कर रहे हो। तब तुम क्या कर रहे हो इसकी तुम्हें परवाह कम है और इस बात की ज्यादा है कि क्या घट रहा है। यदि तुम वस्तुतः उसे कर रहे हो, तो तुम परिणाम को परमात्मा पर छोड़ सकते हो। लेकिन हमारा मन कुछ ऐसा है कि हमें कारण की परवाह कम है और हमें परिणाम की परवाह ज्यादा है-लोभ के कारण।
लोभ बिना कुछ भी किये पाना चाहता है। इसलिए लोभी मन आगे चलता है। तब लोभी चित्त पूछता है कि क्या घट रहा है? कुछ हो भी रहा है या नहीं? जो तुम लोभी चित्त पूछता है कि क्या घट रहा है? कुछ हो भी रहा है या नहीं? जो तुम कर रहे हो केवल उसकी ही चिन्ता करो, और जब कुछ होगा तो तुम उसे जानोगे। वह होगा ही तुम्हें। उसे पूछने किसी और के पास नहीं जाना पड़ेगा।
दूसरा कारण इस बात को पूछने का यह है क्योंकि हम सोचते हैं कि कुछ चिन्ह, कुछ प्रतीक, कुछ रास्ते के पत्थर होने चाहिए जिनसे कि पता चले कि मैं पहुँच रहा हूँ, कि मैं यहाँ तक पहुँच गया, मैं अब वहाँ तक पहुँच गया अंतिम लक्ष्य पर पहुँचने के पहले हम हिसाब-किताब लगाना चाहते हैं। हम आश्वस्त होना चाहते हैं कि हम आगे बढ़ रहे हैं।
लेकिन वस्तुतः रास्ते के कोई पत्थर नहीं हैं क्योंकि कोई पटा-पटाया एक रास्ता नहीं है। और प्रत्येक अलग-अलग रास्ते पर हैं, हम सब एक ही सड़क पर नहीं चल रहे हैं। यहाँ तक कि जब तुम एक ही ध्यान की विधि का प्रयोग कर रहे हो, तब भी तुम उसी रास्ते पर नहीं हो। तुम हो नहीं सकते। कोई आम रास्ता नहीं है। हर रास्ता, हर मार्ग व्यक्तिगत है, निजी है। इसलिए किसी और का अनुभव तुम्हें इस मार्ग पर मदद नहीं करेगा। बल्कि, वह हानिप्रद भी हो सकता है।
किसी को अपने मार्ग पर कुछ चीज दिखलाई पड़ सकती है। यदि वह कहता है कि यह प्रगति का चिन्ह है तो हो सकता है कि वह चीज तुम्हें दिखलाई न पड़े। वे ही वृक्ष तुम्हारे मार्ग में नहीं भी हो सकते, वे ही पत्थर तुम्हारे मार्ग में नहीं भी मिल सकते हैं। अतः इस प्रकार की बकवास के शिकार होने की जरूरत नहीं है। केवल कुछ आंतरिक अनुभूतियाँ ही संगत हैं। उदाहरण के लिये, यदि तुम प्रगति कर रहे हो, तो कुछ बातें युगपथ होने लगेंगी। एक, तुम्हें अधिकाधिक सन्तोष का अनुभव होगा।
जब ध्यान पूरा होता है तो कोई इतना तृप्त अनुभव करता है कि वह ध्यान करना भी भूल जाता है। क्योंकि ध्यान करना भी एक प्रयास है, एक असंतोष है। यदि किसी दिन तुम ध्यान करना भी भूल जाओ और तुम्हें उसकी कोई तलब न लगे, तुम्हें कोई अन्तराल महसूस नहीं हो, तुम्हें भरा-पूरापन लगे, तब जानो कि यह अच्छा चिन्ह है। बहुत से लोग हैं जो कि ध्यान करते हैं और यदि वे नहीं करते हैं वो उनके साथ एक अजीब घटना घटती है। यदि वे कहते हैं तो उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं होता। यदि वे नहीं करते हैं तो उन्हें लगता है कि जैसे वे कुछ चूक रहे हैं।
यह एक प्रकार की आदत है, जैसे कि सिगरेट पीना, शराब पीना, या कोई भी, यह सिर्फ एक आदत है। ध्यान को एक आदत मत बनाओ, उसे जीवन्त रहने दो तब असन्तोष धीरे-धीरे खो जायेगा। तुम्हें सन्तोष का, तृप्ति का अनुभव होगा। और जब तुम ध्यान करते हो, तभी यदि कुछ घटित होता है, जब तुम ध्यान करते हो केवल तभी घटता है तो फिर वह झूठा है, वह सम्मोहन है। वह कुछ अच्छा करता है, लेकिन गहरा जाने वाला नहींहै। वह सिर्फ तुलना में अच्छा है। यदि कुछ भी नहीं हो रहा है, कोई ध्यान नहीं हो रहा है, कोई आनंद का क्षण नहीं आ रहा है, तो उसकी चिन्ता मत करो। यदि कुछ हो रहा है तो उसे पकड़ो भी मत। यदि ध्यान ठीक जा रहा है, गहरा हो रहा है तो तुम सारे दिन रूपान्तरित अनुभव करोगे। एक सूक्ष्म तृप्ति, एक सन्तोष हर क्षण मौजूद रहेगा। जो भी तुम कर रहे होओगे, तुम्हारे भीतर तुम्हें एक शीतल केन्द्र का अनुभव होगा-एक सन्तोष, एक तृप्ति की अनुभूति होगी।
निश्चित ही परिणाम भी होंगे। क्रोध कम-और कम संभव होता जायेगा। वह विलीन होने लगेगा। क्यों? क्योंकि क्रोध एक अ-ध्यानी चित्त की दशा है, एक ऐसे मन की जो कि अपने साथ चैन से नहीं है। इसीलिए तुम दूसरों पर क्रोध करते हो। मूलतः तुम अपने पर ही क्रोधित हो। चूंकि तुम अपने पर क्रोधित हो, तुम दूसरों पर क्रोध करते चले जाते हो।
क्या तुमने कभी यह देखा कि तुम उन्हीं पर सबसे ज्यादा क्रोधित होते हो जो कि तुम्हारे निकटतम होते हैं? जितनी ज्यादा निकटता होती है, उतना ही ज्यादा क्रोध होता है। क्यों? जितनी ज्यादा निकटता होती है, उतना ही ज्यादा क्रोध होता है। क्यों? जितनी ज्यादा दूरी होगी दूसरे व्यक्ति से उतना ही क्रोध कम होगा उसके प्रति। तुम अजनबी आदमी पर क्रोध नहीं करते। तुम अपनी पत्नी, अपने पति, अपने बेटे, अपनी बेटी, अपनी मां पर ज्यादा क्रोध करते हो। क्यों? क्यों तुम उन लोगों के प्रति ज्यादा क्रोधित होते हो जो कि तुम्हारे अधिक निकट हैं?
उसका कारण यह है कि तुम अपने पर ही क्रोधित हो। जितना ज्यादा कोई आदमी तुम्हारे निकट होगा, उतना ही वह तुमसे ज्यादा एक हो जायेगा। तुम अपने पर क्रोधि हो, अतः जब भी कोई तुम्हारे निकट होगा, तुम उस पर अपना क्रोध फेंक सकते हो। वह अब तुम्हारा हिस्सा हो गया। ध्यान के साथ तुम अधिकाधिक अपने से प्रसन्न रहने लगोगे-स्मरण रहे, अपने से।
कोई व्यक्ति अपने से प्रसन्न रहे, यह चमत्कार है। हमारे लिये, या तो हम किसी के साथ प्रसन्न हैं या किसी पर क्रोधित हैं। जब कोई अपने ही साथ प्रसन्न होता है, तो यह वस्तुतः स्वयं के ही प्रेम में पड़ जाता और जब तुम अपने ही प्रेम में पड़े होते हो तो क्रोध करना कठिन हो जाता है। सारी बात ही अर्थहीन लगती है। तब क्रोध कम होने लगेगा, प्रेम बढ़ता, जायेगा करुणा बढ़ती जायेगी। ये चिन्ह होंगे, सामान्य चिन्ह होंगे।
अतः यदि प्रकाश का अनुभव हो रहा हो, तो यह मत सोचो कि तुम्हें कुछ उपलब्धि हो रही है, कि कुछ रंग दिखाई पड़ रहे हैं। वे ठीक हैं, परन्तु सन्तुष्ट होने की जरूरत नहीं है जब तक कि मानसिक परिवर्तन नहीं होते हैं-कम क्रोध, अधिक प्रेम, कम हिंसा, अधिक करुणा।
जब तक यह नहीं होता तब तक तुम्हारा प्रकाश रंगां को देखना बच्चों का खेल है। वे सन्दर हैं, बहुत सुन्दर हैं। उनके साथ रहना अच्छा है। लेकिन वे ध्यान का उद्देश्य नहीं हैं। वे मार्ग पर घटित होते हैं, वे सिर्फ सह-उत्पत्ति हैं। लेकिन उनमें मत उलझना।
मेरे पास बहुत लोग आते हैं और वे कहते हैं कि अब मुझे नीला प्रकाश दिखलाई पड़ रहा है, तो इस चिन्ह का क्या अर्थ है? मैं कितने आगे बढ़ा? नीले प्रकाश से कुछ भी न होगा क्योंकि तुम्हारा क्रोध लाल रोशनी प्रकट कर रहा है। मूलभूत मनोवैज्ञानिक परिवर्तन अर्थपूर्ण है। अतः खिलौनों से राजी मत हो जाना। ये सिर्फ खिलौने हैं-आध्यात्मिक खिलौने। तुम्हें नीला प्रकाश दिखाई पड़े तो तुम कोई परमहंस नहीं हो जाओगे।
ये सब चीजें साध्य नहीं हैं। संबंधों में देखें कि क्या हो रहा है। अब तुम अपनी पत्नी के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हो? इसे देखो। क्या उसमें कुछ परिवर्तन आया? वह परिवर्तन ही अर्थपूर्ण है। तुम अपने नौकर के साथ कैसा बर्ताव करते हो? क्या उसमें बदलाहट हुई? वह बदलाहट ही महत्वपूर्ण है। यदि उसमें कोई परिवर्तन नहीं है, तो फेंको अपने नीले प्रकाश को। उससे कुछ भी न होगा। तुम धोखा दे रहे हो, और तुम धोखा देते रह सकते हो। इन चालाकियों को तो आसानी से पाया जा सकता है।
इसीलिए तथाकथित धार्मिक आदमी अपने को धार्मिक समझने लगता है। क्योंकि अब वह यह और वह देखने लगता है, और वह स्वयं जैसा था वैसा ही रहता है। यहाँ तक कि वह पहले से भी बुरा हो जाता है। तुम्हारी प्रगति को तुम्हारे संबंधों में देखना चाहिये। संबंध ही दर्पण हैं। वह उसमें तुम अपना चेहरा देखो। सदैव स्मरण रखो कि संबंध ही दर्पण है। यदि तुम्हारा ध्यान गहरा जा रहा है तो तुम्हारे संबंध भिन्न हो जायेंगे-समग्ररूप से भिन्न हो जायेंगे। प्रेम तुम्हारे संबंधों का आधार हो जायेगा, न कि हिंसा। अभी जैसे भी तुम हो, हिंसा ही आधारभूत स्वर है। यहाँ तक कि जब तुम किसी की ओर देखोगे भी तो तुम्हारा देखना भी हिंसा के ढंग से होगा। लेकिन वह हमारी आदत हो गई है।
ध्यान मेरे लिये बच्चों का खेल नहीं है। वह एक गहरा रूपान्तरण है। इस रूपान्तरण को कैसे जाना जाये? उसकी झलक हर क्षण तुम्हें अपने संबंधों में मिलेगी। क्या तुम किसी के मालिक बनना चाहते हो? तो फिर तुम हिंसक हो। कैसे कोई किसी का मालिक बन सकता है? क्या तुम किसी पर शासन करना चाहते हो? तो तुम हिंसक हो। कैसे कोई किसी पर शासन कर सकता है? प्रेम शासन नहीं कर सकता, प्रेम किसी का मालिक बनना नहीं चाहता।
इसलिए जो भी तुम कर रहे हो, सजग रहो, देखो उसे और ध्यान करते चले जाओ। जल्दी ही तुम्हें परिवर्तन का पता चल जायेगा। अब संबंधों में मालकियत नहीं होगी। धीरे-धीरे मालकियत खो जायेगी। और जब मालकियत नहीं रहती तो संबंध का अपना ही एक सौंदर्य होता है। जब मालकियत का भाव होता है, तो हर चीज गंदी हो जाती है, कुरूप तथा अमानवीय हो जाती है। लेकिन हम इतने धोखेबाज हैं कि हम अपने संबंधों के दर्पण में अपने को नीं देखेंगे क्योंकि वहां हमारा असली चेहरा दिखाई पड़ जायेगा। अतः हम अपने संबंधों की तरफ से आँखें बंद कर लेते हैं और सोचते रहते हैं कि कुछ भीतर दिखाई पड़नेवाला है।
तुम भीतर कुछ भी नहीं देख सकते। सबसे प्रथम, तुम अपना भीतरी रूपान्तरण अपने संबंधों में देखोगे, और तब तुम गहरे जाओगे। केवल तभी तुम्हें भीतर का अनुभव होगा। लेकिन हमारे अपने को देखने का निश्चित ढंग है। हम अपने संबंधों में बिल्कुलझांकना नहीं चाहते क्योंकि तब नग्न चेहरा ऊपर आ जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की शादी उसके पिताजी तय कर रहे थे। वह तय की हुई शादी थी, अतः मुल्ला अपनी होनेवाली पत्नी का चेहरा नहीं देख सकता था। तब विवाह के दिन जब विवाह संपन्न हो गया तो उसकी पत्नी ने चेहरे पर से पर्दा उठाया। वह भयानक रूप से कुरूप थी। और जब मुल्ला उस गहरे आघात से पीड़ित था तो उसकी पत्नी ने पूछा, ‘अब बोलो, मेरे प्यारे, तुम्हारा क्या हुक्म है?’यह एक मुसलमानों की रीत है। पहली बात जो पत्नी पूछती है वह यह है कि हे मेरे प्यारे, बताओ तुम्हारा क्या हुक्म है? मैं किससे पर्दा करूं, और मैं किसको अपना मुंह दिखाऊँ? बोला, मुल्ला कराहते हुए कहा-‘तुम जिसे चाहो अपना मुंह दिखा सकती हो बस, तुम मुझे अपना चेहरा न दिखाओ’। यह एक अनुबंध है।’
जब भी किसी चीज की इच्छा विलीन हो जाती है तो तुम अज्ञात में प्रवेश करते हो। ध्यान अपने अन्तिम लक्ष्य को पहुंच गया। तब संसार ही मोक्ष है। तब यह संसार ही मुक्ति है। तब यह किनारा ही वह किनारा है।
किन्तु बचकाने लक्षणों के पीछे न जाओ। जरा भी नहीं। उन्हें निर्मित कर सकते हो।
मेरा यह मतलब नहीं है कि उन लक्षणों के सारे अनुभव ही कल्पना हैं, लेकिन यदि तुम उस तरह से सोचो, तो तुम उनकी कल्पना कर सकते हो। यदि तुम यह विचार करते हो कि एक खास स्थिति में नीले प्रकाश का अनुभव होता है तो तुम बिना उस स्थिति को पहुंचे ही उसे निर्मित कर सकते हो। यह बहुत आसान है, उस स्थिति को पहुंचना बहुत कठिन है। इस नीचे प्रकाश को निर्मित करना बहुत सरल है। अपनी आंखें बंद करो और उस पर ध्यान केंद्रित करो और थोड़े ही दिनों में उसका अनुभव होने लगेगा। तब तुम्हारा अहंकार मजबूत होने लगेगा। अब तुम आध्यात्मिक मार्ग पर हो। कुण्डलिनी का विचार करो और तुम उसे अपने रीढ़ से चढ़ते हुए पाओगे। यह सब कल्पना है। यह आसान है, कठिन नहीं है। लेकिन तब तुम अपने को गलत मार्ग पर ले जा रहे हो।
मैं यह नहीं कहता कि इस तरह का कोई भी अनुभव कल्पना है, लेकिन यदि तुम उसके बारे में विचार करते हो, तो वह कल्पना हो जायेगा। उसे पूरी तरह भूल जाओ। केवल ध्यान में उत्सुकता रहे, तुम्हारे बदलते हुए संबंधों पर ही ध्यान रहे, तुम्हारे मौन पर तुम्हारे संतोष पर, तुम्हारे प्रेम पर ही ध्यान रे। इन पर ही तुम्हारा ध्यान केंद्रित रहे और कभी अचानक रीढ़ में ऊर्जा का प्रादुर्भाव होगा।
लेकिन उसके बारे में विचार मत करो। इस बात के प्रति सचेत होओ और भूल जाओ। अचानक तुम्हें कोई विशेष प्रकाश दिखाई पड़ेगा, उसे देखो और भूल जाओ। अचानक कोई चक्र चलने लगेगा, उसे जानो और भूल जाओ। उससे कोई मतलब मत रखो। उनकी चिंता ही हानिप्रद है। तुम्हारा मतलब तो सिर्फ संतोष, शांति, मौन, प्रेम, करुणा, ध्यान आदि से हो।
ये सब बातें होती रहेंगी। तभी वे प्रमाणिक हैं। जब तुम्हारा उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं और फिर भी वे होती हैं, तभी वे वास्तविक हैं। और वे बहुत बातें इंगित करती हैं लेकिन तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं क्योंकि जब वे होती हैं तो तुम जानते हो कि वे क्या दर्शा रही हैं। जैसा कि आदमी का मन मूढ़ है, यदि मैं तुम्हें यह कहूं कि वे क्या दर्शाती हैं तो तुम्हारा संबंध प्रेम, मौन तथा करुणा से कम होगा। ये बातें बड़ी कठिन हैं। नीला प्रकाश पैदा करना बड़ा सरल है और यह भी अनुभव करना बड़ा आसान है कि तुम्हारी रीढ़ में सर्प ऊपर उठ रहा है। यह बहुत आान है, इसमें कोई भी कठिनाई नहीं है।
इसलिए याद रहे कि दो प्रकार के आंतरिक अनुभव हैं। एक वे, जो कि सर्प ऊपर उठ रहा है। यह बहुत आसान है, इसमें कोई भी कठिनाई नहीं है।
इसलिए याद रहे कि दो प्रकार के आंतरिक अनुभव हैं। एक वे, जो कि तुम्हारी कल्पना द्वारा निर्मित किये जाते हैं और दूसरे वे जो कि घटित होते हैं। लेकिन घटित होने वाले अनुभवों के लिए तुम्हारी जरूरत नहीं है, कल्पना के लिए तुम्हारी जरूरत है। कल्पना के साथ मत खेलो। यह एक खतरनाक खेल है। कोई कुछ भी कल्पना कर सकता है तुम चाहे जो कल्पना कर सकते हो, लेकिन उससे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। और मन कुछ ऐसा है कि वह कुछ भी झूठी चीजें पाने की कोशिश करता रहता है, क्योंकि झूठे परिपूरक बड़े सस्ते हैं।
यदि तुम्हें अपने बगीचे में असली गुलाब उगाना हो तो उसमें समय लगता है। उसके लिए धैर्य की, प्रयास की जरूरत है और फिर भी पक्का नहीं है कि उगेगा ही। गुलाब निकले, न भी निकले। सरल है कि एक गुलाब खरीद लिया जाए, लेकिन तब वह तुम्हारा नहीं है। वह ऐसा लगता है जैसे तुम्हारे बगीचे में ही उगा है, लेकिन वास्तव में वह नहीं उगा है। जब तुम एक गुलाब का फूल खरीदते हो तो उसकी जड़ें तुम्हारे भीतर नहीं होतीं, वह सिर्फ तुम्हारे हाथ में होता है। वह तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा नहीं हुआ। तुमने उसकी कभी प्रतीक्षा नहीं की है, तुमने उसके लिए कभी धैर्य नहीं रखा है। वह बच्चा नहीं है। वह तुम्हारा बच्चा नहीं है। तुमने उसे खरीदा है। वह वहाँ है लेकिन एक विदेशी की तरह-न कि तुम्हारे आंतरिक विकास की तरह।
लेकिन कुछ चालाक लोग हैं जो कि असली फूल भी नहीं खरीदेंगे, वे लोग कागज के या पलास्टिक के फूल खरीद लेंगे क्योंकि वे ज्यादा स्थायी हैं। एक असली फूल तो मुरझा जाएगा। शाम तक वह खो जायेगा। इसलिए प्लास्टिक का फूल खरीद लो, वह सस्ता पड़ेगा, कम कष्टप्रद होगा और स्थायी होगा। लेकिन तब तुम धोखा दे रहे हो। असली विकास के लिए समय चाहिए, धैर्य चाहिए, श्रम चाहिए। काल्पनिक विकास तो नकली है इस भेद को सदा याद रखो।
एक बात और : जो भी तुम कर रहे हो, ऐसा मत सोचो कि परिणाम भविष्य में आयेगा। यदि तुम कुछ वास्तविक बात कर रहे हो, तो परिणाम अभी और यहीं होगा। भीतर के कार्यक्षेत्र में यदि तुमने आज ध्यान किया है, तो उसका नतीजा कल नहीं आयेगा। यदि तुमने आज ध्यान किया है, तो उसकी सुगंध, चाहे थोड़ी-सी हो, आज ही होगी। यदि तुम संवेदनशील हो, तो तुम उसे अनुभव कर सकते हो। जब भी कुछ वास्तविक किया जाता है, तो उसका प्रभाव तुम पर पड़ता है-अभी और यहीं।
इसलिए ऐसा मत सोचो कि कुछ भविष्य में होगा। जो भी तुम कर रहे हो वह तुम्हें अभी ही परिवर्तित नहीं करनेवाला है। समय से कुछ भी न होगा। समय अकेला उसमें सहायता न देगा। समय उसको गहरा करेगा, लेकिन अकेले समय से कुछ भी न होगा।
लेकिन हो सकता है कि तुम संवेदनशील नहीं हो। जो तुम कर रहे हो, तुम उसके प्रति संवेदनशील नहीं भी हो सकते हो। हमारी संवेदना खो गई है, क्योंकि असंवेदनशीलता में कुछ सुरक्षा है। यदि तुम्हें ज्यादा कुछ महसूस नहीं होता है तो तुम कम दुःखी होते हो। जो आदमी ज्यादा महसूस करता है, वह ज्यादा दुःख पाता है। इस कारण हमने अपने आप को असंवेदनशील बना लिया है। इसलिए जब कुछ इतना तीव्र होता है कि उसे ध्यान से हटाना असंभव हो, तभी हम उसके प्रति सजग होते हैं। अन्यथा हम मरे हुए रहते हैं, नींद में सोये हुए चलते रहते हैं।
यह संवेदनशीलता का अभाव समस्याएँ पैदा करेगा। जब तुम ध्यान करोगे तो ध्यान में जो भी होगा उसके प्रति भी संवेदनशील नहीं होओगे। अतः अधिकाधिक संवेदनशील बनो। और तुम एक ही आयाम में संवेदनशील नहीं रह सकते। या तो कोई सभी आयामों में संवेदनशील होगा, या फिर एक भी आयाम में संवेदनशील नहीं होगा। संवेदनशीलता तुम्हारे समग्र अस्तित्व से संबंध रखती है। अतः ज्यादा-से-ज्यादा संवेदनशील बनो, तब जो हो रहा है वह तुम्हें रोज-रोज प्रतीत होगा।
उदाहरण के लिए, तुम धूम में चल रहे हो। तब किरणों को अपने चेहरे पर अनुभव करो, संवेदनशील रहो। वे तुम पर चोट कर रही हैं। यदि तुम उन्हें अनुभव कर सको तो तुम्ळें भीतर के प्रकाश का भी अनुभव होगा जब वह तुम्हें चोट करेगा। अन्यथा, तुम अनुभव न कर सकोगे।
बाहर से ही प्रारंभ करो क्योंकि वह सरल है। और यदि तुम बाहर का भी अनुभव नहीं कर सकते, तो तुम भीतर का अनुभव भी नहीं कर सकते। जीवन में ज्यादा काव्यात्मक बनो व्यावसायिक नहीं। और कभी-कभी संवेदनशील होने में कुछ लगता भी नहीं है। तुम स्नान कर रहे हो, क्या तुमने कभी पानी का अनुभव किया? तुम रोजमर्रा के काम की तरह स्नान कर रहे हो, क्या तुमने कभी पानी का अनुभव किया? तुम रोजमर्रा के काम की तरह स्नान कर लेते हो, और बाहर निकल जाते हो। कुछ मिनट के लिए उसे अनुभव करो। पानी के फव्वारे के नीचे कुछ देर खड़े रहो और पानी के स्पर्श को अनुभव करो। उसे अपने ऊपर बहते हुए अनुभव करो। वह एक गहरा अनुभव हो सकता है, क्योंकि पानी जीवन है। तुम नब्बे प्रतिशत पानी हो। यदि तुम पानी को अपने ऊपर पड़ते हुए अनुभव नहीं कर सकते, तो तुम अपने भीतर के पानी के ज्वार को अनुभव नहीं कर सकोगे।
जीवन समुद्र में पैदा हुआ था। और तुम्हारे भीतर भी कुछ पानी है जो कि नमक की कुछ मात्रा लिए हुए है। समुद्र में तैरो और पानी को बाहर अनुभव करो। जल्दी ही तुम्हें पता चलेगा कि तुम भी समुद्र के हिस्से हो, और तुम्हारा भीतरी भाग समुद्र में उसके प्रति संवेदन में ज्वार उठा होगा तो तुम्हारा शरीर भी लहरें लेने लगेगा। वह लहरें लेता है, लेकिन तुम उसे अनुभव नहीं कर पाते हो। इसलिए यदि तुम इतनी स्थूल चीजें भी अनुभव नहीं कर सकते, तो फिर तुम्हारे लिए ध्यान जैसी सूक्ष्म चीज को अनुभव करना कठिन है।
फिर तुम प्रेम को अनुभव कैसे करोगे? हर आदमी दुःखी है, पीड़ित है। मैंने हजारों-हजारों लोगों को गहरे दर्द में डूबा हुआ देखा है। वह सारा दुःख प्रेम के लिए है। वे प्रेम करना चाहते हैं, और वे चाहते हैं कि कोई उन्हें प्रेम करे, लेकिन समस्या यह है कि यदि कभी तुम प्रेम भी करो, तो वे उसे अनुभव नहीं कर पाते। वे पूछते ही रहेंगे, क्या तुम मुझे प्रेम करते हो? अतः क्या किया जाये? यदि तुम कहो कि ‘नहीं’ तो उन्हें पीड़ा होगी।
यदि तुम्हें सूरज की किरणों का भी अनुभव नहीं होता है, यदि तुम्हें वर्षा की भी प्रतीति नहीं होती है, यदि तुम्हें प्रेम, करुणा आदि गहरी बातों का पता नहीं चलेगा। यह बड़ा कठिन है। तुम्हें क्रोध का, हिंसा का, उदासीनता का पता चलता है क्योंकि वे इतने स्थूल हैं। भीतर जानेवाला मार्ग तो बहुत सूक्ष्म है। और जितना ज्यादा सूक्ष्म तुम्हारा ध्यान होता जाता है, उतनी ही ज्यादा सूक्ष्म तुम्हारी प्रतीति हो जायेगी। लेकिन तब तुम्हें तैयार रहना पड़ेगा।
इसलिए ध्यान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कि तुम एक घंटा करो और फिर भूल जाओ। वस्तुतः सारा जीवन ही ध्यानपूर्ण होना चाहिए। तभी केवल तुम चीजों को अनुभव कर सकोगे। और जब मैं कहता हूँ कि सारा जीवन ही ध्यानयुक्त होना चाहिए, तो मेरा यह मतलब नहीं है कि तुम चौबीस घंटे आँखें बंद करके बैठ जाओ और ध्यान करो। नहीं जहां भी तुम होओ, वहीं तुम संवेदनशील बने रह सकते हो। वह संवेदनशीलता उपयोगी है। तब तुम्हें यह पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि मैं ध्यान में प्रगति कर रहा हूँ या नहीं।
तुम एक अंधे आदमी की भांति हो। तुम रास्ते को महसूस नहीं कर सकते क्योंकि तुमने कभी कोई चीज अनुभव नहीं की है। और जिस तरीके से हमें शिक्षित किया गया है, सुसंस्कृत किया गया है वह सब असंवेदनशीलता के लिए है। एक बच्चा रो रहा है। सारा घर उसके विरुद्ध है : रोओ मत। मेहमान आनेवाले हैं। मेहमान ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, और बच्चे का रोना कतई महत्वपूर्ण नहीं है। अब तुम उसे जीवन भर के लिए दबा रहे हो।
वह अपना रोना बंद कर देगा, लेकिन रोना बंद करना एक बड़ी गंभीर बात है। उससे उसके शरीर का सारा गुण धर्म बदल जाएगा। रोने को रोकने के लिए उसे तनावपूर्ण होना पड़ेगा, वह विश्राम में नहीं जा सकता। जो ऊपर आ रहा है उसे उसको भीतर दबाना पड़ेगा, उसे अपने श्वास को बदलना पड़ेगा। वास्तव में उसे अपना श्वास रोकना पड़ेगा, क्योंकि अगर श्वास आसानी से चलती रहे तो रोना भी चलता रहेगा। उसे अपना पेट खींचना पड़ेगा, उसके शरीर में सब कुछ गड़बड़ हो जायेगा। तब वह नहीं रो सकता, लेकिन तब वह हंस नहीं सकता। तब तुम उसे उसके सारे जीवन भर के लिए पंगु बना रहे हो।
हर व्यक्ति लंगड़ा हो गया है और उसे लकवा मार गया है। हम एक पक्षापात से भरे संसार में रह रहे हैं। अब सतत दमन होता रहेगा। यह बच्चा अब हंस नहीं सकता, वह रो नहीं सकता, वह नाच नहीं सकता, वह कूद नहीं सकता। जो भी उसका शरीर करना चाहेगा, वह नहीं कर सकता। जब भी शरीर कुछ करना चाहेगा, वह उसे नहीं करने देगा। और जब तुम उसको खेलने के लिए कहते हो तो वह भी स्वत-स्फूर्त नहीं है। उसका खेलना भी झूइा हो गया है। तुम कहते हो कि अब तुम खेल सकते हो। जब उसका समस्त अस्तित्व खेलना चाह रहा था उसे खेलने नहीं दिया गया और अब तुम उसे खेलने के लिए कहते हो। लेकिन अब वह खेलने का प्रयास करता है। और अब वह भी एक काम है।
अन्ततः हम एक ऐसा आदमी निर्मित करते हैं जो कि ज्यादा-से-ज्यादा एक यंत्र है। क्या तुम रो सकते हो? क्या तुम स्वत-स्फूर्त हंस सकते हो? क्या तुम अपने से नाच सकते हो? क्या तुम अपने से प्रेम कर सकते हो? यदि तुम नहीं कर सकते तो तुम ध्यान कैसे कर सकते हो? क्या तुम खेल सकते हो? यह मुश्किल है।
हर बात मुश्किल हो गई है। आदमी असंवेदनशील हो गया है। अपनी संवेदनशीलता को लौटाओ। उसे वापस प्राप्त करो। थोड़ा खेलो। खेलपूर्ण होना ही धार्मिक होना है। हंसो, रोओ, गाओ, कुछ अपने आप करो अपने पूरे दिल से। अपने शरीर को शिथिल छोड़ दो, अपनी श्वास कोढीला छोड़ दो और इस तरह घूमो जैसे कि तुम फिर से बच्चे हो गये। तब जब तुम ध्यान करोगे, तो तुम नहीं पूछोगे कि क्या मुझे कुछ हो रहा है? क्या मैं आगे बढ़ रहा हूं या नहीं, अथवा कि मैं सिर्फ एक वर्तुल में ही घूम रहा हूँ? तुम स्वयं जान जाओगे।
मैं तुम्हारी मुश्किल भी समझता हूँ। तुम अभी अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि तुम्हारी अनुभूति खो गई है। अपनी अनुभूति को पुनः प्राप्त करो। कम विचार, अधिक अनुभव, ज्यादा हृदय से जिओ, और सिर से कम जिओ। कभी-कभी समग्ररूप से शरीर में जिओ, क्योंकि यदि तुम अपने शरीर को भी अनुभव नहीं कर सकते, तो तुम अपनी आत्मा को अनुभव नहीं कर सकते। इसे स्मरण रखो। वापस शरीर में आ जाओ।
हम सचमुच शरीर के चारो ओर घूम रहे हैं, हम शरीर में नहींहैं। हर आदमी शरीर में रहने से डरा हुआ है। समाज ने डर पैदा कर दिया है, और वह बहुत गहरा है। वापस शरीर में लौटो, फिर से शरीर में जाओ। एक निर्दोष पशु की भांति हो जाओ।
पशुओं की ओर देखो-उन्हें कूदते, दौड़ते हुए। कभी-कभी उनकी तरह से दौड़ो और कूदो। तब तुम वापस शरीर में लौट आओगे। तब तुम अपने शरीर को अनुभव कर सको। सूरज की किरणों को, वर्षा को और बहती हुई हवाओं को अनुभव कर पाओगे। चारों ओर जो भी हो रहा है। उसको देखने की इस सामर्थ्य के साथ तुम भीतर जो भी हो रहा है, उसको अनुभव करने की सामर्थ्य जुआ पाओगे।
भगवन्! दोनों मार्गों में यानी भक्ति तथा योग दोनों में योग अति कठिन है, उसके लिए कठिन तपस्या कीर जरूरत है। एक संसारी आदमी के लिए वह अति कठिन है। जिन्होंने भी ‘ब्रह्म’ या ‘मोक्ष’ को उपलब्ध किया योग के द्वारा, उन्होंने संसार को त्याग दिया दूसरी और नरसी मेहता और मीराबाई के दृष्टांत हैं जो कि ये दर्शाते हैं कि एक सामान्य आदमी भक्ति के द्वारा भी परम ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है।
इसलिए क्या यह सही नहीं होगा कि सामान्य आदमी भक्ति के मार्ग को अपनाये?
सामान्य आदमी जैसा कोई आदमी नहीं है। प्रत्येक आदमी असाधारण है। चाहे तुम्हें पता हो, चाहे न हो, लेकिन कोई भी आदमी साधारण नहीं है। यह पहली बात है।
दूसरी बातः मीरा, नरसी मेहत्ता अथवा चैतन्य आदि ने कोई आसानी से अपने लक्ष्य को नहीं नहीं पा लिया। यह धारणा बिल्कुल गलत है। बल्कि इसके विपरीत, मीरा ने और भी ज्यादा कठिन मार्ग की यात्रा की है। इसीलिए तुम बहुत से योगियों का नाम गिना सकते हो, लेकिन तुम हजारों मीराओं का नाम नहीं गिना सकते। यदि तुम भक्तों की गिनती करने जाओ, जो कि मीरा के बराबर क्षमता रखते हों तो तुम्हारे हाथ की दो अंगुलियाँ काफी होंगी।
फिर योगियों की गणना करो, वे अनगिनत हैं। क्यों? यदि योग का मार्ग कठिन है और भक्ति का मार्ग, प्रेम का मार्ग सुगम है, सीधा सरल है, तो फिर यह असमानता क्यों? क्योंकि वह सरल नहीं है। लेकिन तब क्या मेरा यह अर्थ है कि भक्ति का मार्ग योग के मार्ग से ज्यादा कठिन है? नहीं। यह तुम पर निर्भर करता है।
यदि तुम्हारा मन एक विशेष ढंग का हो तो एक विशेष मार्ग तुम्हारे लिए सरल होगा। यदि तुम भक्त के ढंग के पुरुष या स्त्री हो तो तुम्हारे लिए भक्ति सरल होगी, और योग कठिन होगा। लेकिन यह तुम पर निर्भर करता है। मार्गों की तुलना नहीं की जाती है। यदि मैं भक्ति-भाव से भरा आदमी नहीं हूँ, तो मेरे लिए योग सरल होगा और भक्ति कठिन होगी। इसलिए यह साधक पर निर्भर है, न कि मार्ग पर। कोई भी मार्ग सरल नहीं है, और कोई भी मार्ग मुश्किल नहीं है।
लेकिन तब अधिक योगी क्यों हुए और भक्त इतने कम क्यों हुए? इसके बहुत से कारण हैं। पहला : कि यह भ्रान्तिपूर्ण विचार कि भक्ति का मार्ग सरल है, इसने बहुत-सी गड़बड़ पैदा कर दी। इसके कारण जिनके लिए, भक्ति का मार्ग नहीं है वे उस मार्ग पर जाते हैं। लेकिन तब वे मीरा और चैतन्य की भांति नहीं हो पाते, वह उनके लिए नहीं।
वह मार्ग उनके लिए नहीं है। उन्होंने अपने अनुसार उसे नहीं चुना। उन्होंने झूठी धारणा के कारण, जो कि प्रचलित है, उसके कारण चुना।
वास्तव में, जो लोग भक्ति का मार्ग चुनते हैं, वे सचमुच उस पर चलने के लिए उसे नहीं चुनते। वे सोचते हैं कि इस मार्ग पर चलना तो कुछ भी नहीं है और पा सब लेना है। ऐसा समझा जाता है कि तुम्हें भक्ति मार्ग पर कुछ भी नहीं करना है, और तुम सब कुछ पा लेते हो, सब केवल ‘नाम स्मरण’ से सब हो जाएगा। और खासकर कलियुग में, कलि के युग में।
वस्तुतः जो लोग कुछ भी नहीं करना चाहते हैं वे भक्ति को चुनते हैं। और भक्ति कोई दावा नहीं है कि तुम बिना कुछ भी किए सब कुछ पा लोगे। भक्ति तुम्हारी समग्रता को मांगती है। वह कोई खाली ‘नाम स्मरण’ नहीं है। तुम्हें अपने को समग्ररूप से समर्पण करना होता है। किन्तु समग्र समर्पण एक बड़ी कठिन बात है। इस झूठे विश्वास के कारण बहुत से तथाकथित भक्त हो गये हैं, किन्तु वे अपने को धोखा दे रहे हैं।
दूसरी बात यह धारणा कि योग का मार्ग अति कठिन है इस बात ने भी बहुत-सी समस्याएँ पैदा की हैं। क्योंकि जो लोग अहंकारी हैं वे इस मार्ग की ओर आकर्षित होते हैं। अहंकार चाहता है कुछ कठिन काम करना। यदि कोई बात सरल है तो वह अहंकार को तृप्त नहीं करती।
यदि कोई एवरेस्ट पहाड़ हो या गौरीशंकर हो, तो अहंकार को रस आता है। यदि मैं पहुँच जाऊँ तो मैं कह सकता हूँ कि केवल मैं ही पहुंचा हूँ। यह इतना कठिन है। कोई दूसरा नहीं पहुंचा। यदि वह कोई छोटी-सी पहाड़ी है, और कोई बच्चा भी चढ़ सकता है तो फिर अहंकार को उसमें कोई रस नहीं आता। अतः इस धारणा के कारण ही कि योग का मार्ग अति कठिन है, दुरुह है, असंभव है, बहुत-से अहंकारी उसके तरफ आकर्षित हुए हैं। और अहंकार ही तो बाधा है।
जो लोग कुछ भी करना नहीं चाहते हैं, वे भक्ति की ओर आकर्षित हो जाते हैं, और भक्ति में बहुत कुछ करना होता है, वह कोई न करना नहीं है। जो लोग अहंकारी होते हैं वे योग की ओर आकर्षित हो जाते हैं, लेकिन वे अहंकार के कारण ही आकर्षित होते हैं। वे अधिकाधिक अहंकारी हो जाते हैं। यदि तुम्हें पूरी तरह से अहंकारी देखने हों, तो तुम्हें कहीं और जाने की जरूरत नहीं, तथाकथित योगियों के पास चले जाओ, तब तुम्हें पूर्णरूपेण अहंकारी मिल जायेंगे। वह सर्वाधिक कठिन काम कर रहा है जगत में।
दोनों ही धारणाएँ गलत हैं। स्वयं के अनुसार चुनाव करो, सर्वप्रथम अपने प्रति जागो। वस्तुतः यदि तुम स्वयं के प्रति सजग हुए, तो तुम्हें चुनने की भी जरूरत नहीं रहेगी। तुम उसी मार्ग की तरफ जाते जाओगे जो कि तुम्हारे लिए उचित है। केवल अपने प्रति सजग रहो। स्वयं को अधिकाधिक अनुभव करो, ध्यान करो और अधिकाधिक अपने को अनुभव करो। फिर अपने चुनाव की भी चिंता मत करो।
मीरा ने कभी चुनाव नहीं किया। वह घटित हुआ। न ही महावीर ने कोई चुनाव किया। वह भी घटा। यदि तुम अपने को जानते हो, यदि तुम स्वयं को अनुभव करते होऔर ध्यान करते हो, तो धीरे-धीरे तुम उस मार्ग की तरफ जाने लगोगे जो कि तुम्हारे लिए है। तुम अपनी नियति की ओर मुड़ने लगोगे। यदि तुम चुनाव करोगे तो तुम चीजों को गड़बड़ कर दोगे-क्योंकि तुम्हारा चुनाव आखिर तुम्हारा ही चुनाव है। कैसे तुम अपनी नियति का चुनाव कर सकते हो? तुम सिर्फ उसे होने दे सकते हो, तुम उसे चुन नहीं सकते।
यदि तुम चुनाव करोगे तो तुम एक गहरी गलीत धारणा में पड़ जाओगे। तुम गलत हो, अतः तुम गलत ही चुन लोगे। तब बहुत-सा श्रम व्यर्थ चला जाएगा। और तुम तर्क बिठाते रहोगे कि मैं इतना सब कर रहा हूँ, और ऐसा ऐसा नहीं हो रहा है। और यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो उसके कारण होने चाहिए। मेरे पुराने कर्म बाधा बन रहे हैं। अथवा, मुझे और भी ज्यादा प्रयास करना चाहिए, या मुझे ज्यादा समय लगेगा। अथवा मैंने बहुत देर से शुरू किया, इसलिए अगले जन्म में जल्दी प्रारंभ करूँगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में एक घटना, और फिर हम बात पूरी करेंगे। मुल्ला नसरुद्दीन ने एक गधा खरीदा। गधे के मालिक ने मुल्ला को कहा कि गधे को कितना खाना रोजाना देना होगा? मुल्ला ने सोचा कि यह तो बहुत ज्यादा होगा, अतः उसने कहा, ठीक है। धीरे-धीरे मैं गधे की खुराक कम कर दूंगा और इसकी कम राशन की आदत डाल दूंगा। अतः वह धीरे-धीरे रोजाना उसका खाना कम करता गया।
अन्ततः खाना बिल्कुल भी नहीं पर आ गया-बिल्कुल नहीं पर। तो गधा गिर कर मर गया। मुल्ला बोला, कैसी दुर्भाग्य की बात है। यदि मुझे थोड़ा समय और मिलता तो मैं इस गधे को बिना खुराक पर भी रहने की आदत डाल देता। प्रयोग पूरा ही होने वाला था, लेकिन बड़े दुःख की बात है कि गधा मर गया।
आदमी रेशनलाइज करता चला जाता है, तर्क बिठाता रहता है। तर्क बिठाने से कुछ भी न होगा। चुनाव करने की कोशिश मत करो। होने दो। चुनाव मत करो, अपने स्वभाव को पहचानो। अपनी आत्यतिंक संभावना से संवेदनशील बनो, ध्यान करो और चुनाव करने का प्रयत्न मत करो। धीरे-धीरे तुम किसी एक दिशा में बढ़ते जाओगे। वह गति, वह बढ़ना अपने आप होने लगेगा। वह कोई चुना हुआ प्रयत्न नहीं होगा। वह तुम्हारे साथ घटित होगा, वह तुम्हारे भीतर विकसित होगा, और तुम उस तरफ बढ़ने लगोगे।
और तब तुम एक दिन जानोगे कि भक्ति तुम्हारा मार्ग है या योग तुम्हारा मार्ग है या योग तुम्हारा मार्ग है। जो दिशा तुम्हारे भीतर घटित होगी, प्रकृतिगत वह तुम्हारी होगी। जो दिशा चुनी जायेगी और जबरदस्ती थोपी जाएगी वह तुम्हारे लिए नहीं है। चुना हुआ मार्ग कठिन होगा, दुर्गम होगा, और अन्ततः व्यर्थ जायेगा। एक बिना-चुना मार्ग, एक दिशा जो कि तुम्हारे सामने अपने आप खुल गई है, वही सरल होगी, प्रकृतिगत होगी, ‘सहज’ होगी।
आज इतना ही।

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