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सोमवार, 20 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-18)

प्रवचन-अट्ठारवां  

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, हमें ऐसा अनुभव होता है कि अचेतन की गहरी परतों में प्रवेश करना व उन्हें केवल सजगता के द्वारा रूपांतरित करना कठिन है, और पर्याप्त भी नहीं है, इसलिए सजगता के अलावा और क्या अभ्यास करें? कृपया इसके बारे में इसके प्रायोगिक आयाम को अधिक ध्यान में रखते हुए समझाए।
अचेतन को रूपांतरित केवल सजगता से ही किया जा सकता है। यह कठिन है, किंतु दूसरा कोई मार्ग नहीं है। सजग होने के लिए कितनी ही विधियां हैं। परंतु सजगता अनिवार्य है। आप विधियां का उपयोग जागरण के लिए कर सकते हैं; किंतु आपको जागना तो पड़ेगा ही।
यदि कोई पूछता है कि क्या कोई विधि है अंधकार को मिटाने की सिवा प्रकाश के, तो वह चाहे कितना ही कठिन हो, किंतु वही एकमात्र उपाय है, क्योंकि अंधकार केवल अभाव है, प्रकाश का। इसलिए आपकोप्रकाश का उपस्थित करना होगा और तब अंधकार वहां नहीं होगा।

अचेतना, मूर्च्छा-कुछ और नहीं है बल्कि चेतना का अभाव है। वह अपने में कोई विधायक वस्तु नहीं है, इसलिए आप कुछ और नहीं कर सकते सिवाय जागने के। यदि मूर्च्छा अपने ही आप में कुछ होती, तो फिर बात ही दूसरी होती। परंतु वह अपने आप में कुछ भी नहीं है। अचेतना-मूर्च्छा-इसका मतलब कुछ विधायक होना नहीं होता। इसका मतलब है सिर्फ चैतन्य का अभाव। यह सिर्फ अभाव है। इसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है। इसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। अचेतन शब्द केवल चैतन्य का अभाव दर्शाता है, इससे अधिक कुछ भी नहीं। जब हम कहते हैं-अंधकार, तो यह शब्द एक गलतफहमी की ओर ले जाता है, क्योंकि जैसी ही हम कहते हैं, अंधकार तो ऐसा प्रतीत होता है कि अंधकार कुछ ऐसी चीज है जो कि है। वस्तुतः वह है नहीं। इसलिए सीधे अंधकार के साथ आप कुछ भी नहीं कर सकते। कैसे कर सकते हैं आप?
आपने चाहे इस तथ्य को कभी न देखा हो, परंतु अंधकार के साथ सीधे आप कुछ भी नहीं कर सकते। जो कुछ भी आप अंधकार के साथ करना चाहते हैं, उसके लिए आपकी प्रकाश के ही साथ कुछ करना पड़ेगा, न कि अंधकार के साथ। यदि आप चाहते हैं कि अंधेरा हो जाए, तोप्रकाश बुझा दें। यदि आप अंधकार को नहीं चाहते, तोप्रकाश जला दें। परंतु सीधे अंधकार के साथ आप कुछ भी नहीं कर सकते। आपकोप्रकाश के मार्फत ही कुछ करना पड़ेगा।
क्यों? आप सीधे कुछ नहीं कर सकते? आप सीधे कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि अंधकार जैसी कोई चीज है ही नहीं, इसलिए प्रत्यक्ष आप उसे नहीं छू सकते। आपको कुछ प्रकाश के साथ ही करना पड़ेगा। और तब अंधकार के साथ भी कुछ किया जा सकेगा।
यदिप्रकाश है, तो अंधेरा नहीं है। यदि प्रकाश नहीं है, तो अंधेरा है। आप इस कमरे में प्रकाश ला सकते हैं, किंतु आप अंधेरा नहीं ला सकते। आप यहां से प्रकाश ले जा सकते हैं, अंधेरा नहीं। आप में और अंधकार में कोई संबंध नहीं है। क्यों? यदि अंधकार हो तभी न आदमी उससे संबंधित हो सकता है? परंतु अंधेरा तो है ही नहीं।
भाषा से यह भ्रम पैदा होता है, कि अंधकार जैसी कोई वस्तु है। अंधकार एक नकारात्मक शब्द है। वह इतना ही बतलाता है कि प्रकाश नहीं है, इससे यादा कुछ नहीं; और वही बात के अलावा और क्या करें, तो आप एक असंगत प्रश्न पूछते हैं। आपको सजग होना पड़ेगा, आप इसके अलावा कुछ और नहीं कर सकते।
सचमुच, बहुत सी विधियां हैं, सजग होने के लिए; यह एक दूसरी बात है। प्रकाश को पैदा करने की कितनी ही विधियां हैं, परंतु प्रकाश को ही पैदा करना पड़ेगा। आप आग जला सकते हैं और अंधकार नहीं होगा; आप एक मिट्टी के तेल का दिया जला सकते हैं। और तब भी कोई अंधकार नहीं होगा। और बिजली का उपयोग कर सकते हैं और तब भी कोई अंधेरा नहीं होगा। परंतु कुछ भी किया जाए, कोई भी विधिप्रकाश को उत्पन्न करने की काम में लाई जाए पैदा प्रकाश ही करना होगा।
इसलिए प्रकाश अनिवार्य है, और जो कुछ भी मैं इस प्रश्न के अंतर्गत कहूंगा, वह सब विधियों के बारे में होगा कि सजगता कैसे पैदा की जाए। वे कोई विकल्प नहीं है, यह स्मरण रहे। वे सजगता के लिए कोई विकल्प नहीं है, कुछ भी नहीं हो सकता। सजगता ही एक संभावना है अंधकार को मिटाने के लिए, मूर्च्छा को तोड़ने के लिए। परंतु इस सजगता को कैसे पैदा करें? मैंने एक विधि की बात की जो कि शुद्धतम हैः भीतर सजग रहें। चेतना व अचेतना की परिधि पर कुछ भी होता हो, पर सजग रहें।
क्रोध है वहां, क्रोध अंधकार में ही जन्मता है, क्रोध की जड़ें अचेतन में ही होती हैं। केवल शाखाएं व पत्तियां ही चेतन में आती हैं। जड़े, बीज, ऊर्जा का स्रोत-ये सब तो अचेतन में हैं। आप सिर्फ दूर की शाखाओं को जान पाते हैं। इन शाखाओं के प्रति सजग हों। जितने अधिक आप इनके प्रति सजग होंगे, उतने ही आप अंधेरे में देखने में समर्थ हो जाएंगे।
क्या आपने कभी ख्याल किया है कि यदि आप गहराई से अंधकार में देखें कुछ समय तक लगातार तो, एक हल्की सी रोशनी मालूम होने लगेगी। यदि अंधकार को आप एकाग्र होकर देखें, तो आपकोप्रतीति होने लगेगी और दिखलाई पड़ने लगेगा। आप स्वयं कोप्रशिक्षित भी कर सकते हैं, और तब अंधकार में भी थोड़ा प्रकाश होता है-क्योंकि इस जगत में कुछ भी अब्सोल्यूट-निरपेक्ष नहीं हो सकता और न ही कुछ निरपेक्ष है। प्रत्येक चीज सापेक्ष है।
जब हम कहते हैं कि अंधकार, तो उसका मतलब पूर्ण अंधकार नहीं होता। इसका मतलब होता है कि प्रकाश कम है। यदि आप उसमें देखने का अभ्यास करें, तो आप देखने में समर्थ हो सकते हैं। देखे; अंधकार में आंख को लगाए। और तब, धीरे-धीरे आपकी आंखें शक्तिशाली हो जाती हैं, और वे देखने लगती हैं।
आंतरिक अंधकार, अचेतना, ये एक ही बात हैं। इसके भीतर देखें। परंतु आप तभी देख सकते हैं, जब आप सक्रिय नहीं हैं। यदि आप कुछ भी करने लग जाते हैं, तो आपका मन उस तरफ चला जाता है। भीतर कुछ भी न करें। क्रोध हैः कुछ भी न करें। न निंदा ही करें, न प्रशंसा ही करें, न ही उसके साथ एक हों, और न ही उसे दबाए। कुछ भी न करें। केवल उसे देखें, निरीक्षण करें। इस भेद को समझ लें।
साधारणतः जो होता है, वह बिल्कुल उल्टी बात है। यदि आप क्रोध में हैं, तो आपका मन बाहर की उस चीज पर केंद्रित है जो कि क्रोध का कारण है-सदैव ही ऐसा होता है। किसी ने आपका अपमान किया है, आप क्रोध में हैं। अब तीन चीजें हैंः एक तो क्रोध का कारण आपसे बाहर, दूसरा क्रोध का स्रोत भीतर, और इन दोनों के बीच तीसरे आप स्वयं हैं। क्रोध तो एक ऊर्जा है जो कि भीतर है, वह कारण जिसने कि आपकी ऊर्जा को जगाया है वह बाहर है, और आप दोनों के बीच में हैं। मन का प्राकृतिक ढंग है स्रोत के प्रति सजग न रहना, बाहरी कारण पर केंद्रित होना। जब कभी आप क्रोधित होते हैं, तब आप बाहरी कारण पर एकाग्र हो जाते हैं।
महावीर ने क्रोध को भी एक प्रकार का ध्यान कहा है। उन्होंने उसे रौद्र ध्यान कहा है-(नकारात्मक रुख की और ध्यान), क्योंकि इसमें आप एकाग्र तो होते ही हैं, वास्तव में जब आप गहरे क्रोध में होते हैं, तो आप इतने एकाग्र हो जाते हैं कि सारा संसार ही विलीन हो जाता है। केवल क्रोध का कारण ही केंद्र पर होता है। आपकी समग्र ऊर्जा क्रोध के कारण पर लगी होती है, और आप उस कारण पर इतने एकाग्र हो जाते हैं कि आप स्वयं कोबिल्कुल ही भूल जाते हैं। इसीलिए क्रोध में आप ऐसी बातें कर सकते हैं, जिनके लिए कि बाद में आप कह सकते हैं कि न चाहते हुए भी मैंने ऐसा किया। आप मौजूद ही नहीं थे।
सजगता के लिए आप पीछे घूमें। आप बाहरी कारण पर चित्त को एकाग्र न कर के, अपने भीतर के स्रोत पर एकाग्र करें। कारण को भूल जाए, अपने आंखें बंद कर लें, और भीतर गहरे डूब जाए, और स्रोत को खोद निकालें। तब आप उसी ऊर्जा को काम में ले सकते हैं जो कि बाहर किसी और पर नष्ट की जाने वाली थी। तब ऊर्जा भीतर गति करती है। क्रोध में बहुत ऊर्जा है। क्रोध ऊर्जा ही है-भीतर की शुद्धतम अग्नि। उसे बाहर फिजूल नष्ट न करें।
दूसरा उदाहरण लें। आपको काम की प्रतीति हो रही है; काम भी ऊर्जा है, अग्नि है। परंतु जब कभी आप सेक्स का अनुभव करते हैं, तो फिर आप बाहर ही किसी पर केंद्रित हो जाते हैं, न कि उदगम पर। आप किसी के बारे में सोचने लगते हैं-प्रेमी के बार में, प्रेमिका के बारे में, अ, ब, स, किसी के भी बारे में। परंतु जब आप काम से भरे होते हैं, तो आप का ध्यान हमेशा किसी और पर होता है, तब आप ऊर्जा को नष्ट कर रहे होते हैं।
आप काम के कृत्य में ही ऊर्जा को नष्ट नहीं करते, बल्कि काम के बार में चिंतन करके भी उससे कहीं अधिक ऊर्जा नष्ट करते रहते हैं, क्योंकि काम-कृत्य तो एक क्षणिक बात है। जब वह शिखर पर आ जाता है, ऊर्जा का निकास हो जाता है, और आप वापस वहींफेंक दिए जाते हैं। परंतु काम के बारे में चिंतन लगातार चल सकता है। आप काम चिंतन में चलते चले जाते हैं, और लगातार ऊर्जा को नष्ट करते रह सकते हैं। और प्रत्येक व्यक्ति ऊर्जा विनष्ट कर रहा है। हमारा नब्बे प्रतिशत चिंतन काम संबंधी ही होता है। जो कुछ भी आप बाहरी रूप से कर रहे हैं, आंतरिक रूप से वह काम संबंधित ही है, और हो सकता है कि आपको इसका पता भी नहीं हो।
आप एक कमरे में बैठे हुए हैं और एक स्त्री प्रवेश करती है। आपका बैठने का ढंग अचानक बदल जाता है; आपकी रीड़ सीधी हो जाती है; आपकी श्वास बदल जाती है; आपका रक्तचाप भिन्न हो जात है। हो सकता है कि इस सब का आपको पता भी नहीं चले कि क्या हो गया है, किंतु आपके सारे शरीर ने काम संबंधी प्रतिक्रिया की है। जब वह स्त्री वहां नहीं थी, आप आप ही थे। अब आप दूसरे ही आदमी हैं।
एक सारा पुरुषों का समूह दूसरे ही प्रकार का होता है; एक सारा स्त्रियों का समूह भिन्न ही प्रकार का होगा। पर उसमें एक भी यदि दूसरे सेक्स का व्यक्ति आ जाए, तो सारा का सारा समूह, सारी ऊर्जा का ढांचा ही अचानक बदल जाता है। आपको चाहे इसका पता न हो, परंतु जब आपका मन किसी और पर केंद्रित होता है, तो आपकी ऊर्जा बहने लगती है। जब आपको काम का अनुभव हो, तो उसके स्रोत पर देखें, न कि कारण पर। इसे स्मरण रखें।
विज्ञान का संबंध यादातर कारण से है, और धर्म का यादा संबंध स्रोत से, मूल से। स्रोत, उदगम सदैव भीतर है, और कारण सदैव बाहर। कौन सा कारण? आप एक क्रांखला बद्धप्रतिक्रिया में हैं। किस कारण से जुड़े हैं आप अपने चारों ओर? किस मूल स्रोत से जुड़े हैं आप आपने भीतर? अतः इसे स्मरण रखें; यही शुद्धतम विधि है; अचेतन ऊर्जा को चेतन ऊर्जा में बदलने की। पीछे घूम जाए, भीतर देखें।
यह कठिन होने वाली बात है, क्योंकि बाहरी दृष्टि स्थिर हो गई है। आप एक ऐसे आदमी हैं, जिसकी गर्दन को लकवा मार गया है, और जो कि हिल नहीं सकता और पीछे मुड़कर देख भी नहीं सकता। आपकी आंखें ठहर गई हैं। आप लाखों वर्षों से बाहर देख रहे हैं, इसलिए आप जानते ही नहीं कि भीतर कैसे देखते हैं। इसे करें-जब भी आपके मन में कुछ हो, तो उसके उदगम तक उसका पीछा करें। क्रोध है, अचानक क्रोध आ गया है भड़क कर, आंखें बंद कर लें। उस पर ध्यान करें। कहां से यह क्रोध उठ रहा है? यह सवाल ही गलत है। पूछें कि कौन सी ऊर्जा आपके भीतर क्रोध में रूपांतरित हो रही है। देखें कि आपके भीतर यह क्रोध वहां से ऊन रहा है। कौन सा वह स्रोत भीतर है जहां से कि यह ऊर्जा उठ रही है?
क्या आपको पता है कि आप क्रोध में वे काम भी कर सकते हैं जो कि सामान्य मनोदशा में आप कदापि नहीं कर सकते! क्रोध में एक आदमी एक बड़े से पत्थर को आसानी से उठाकर फेंक सकते हैं। जब वह क्रोध में नहीं है, तो वह उसे हिला भी नहीं सकता जब कोई क्रोध में होता है, उसमें बहुत ऊर्जा होती है। एक छिपा हुआ स्रोत अब उसके साथ होता है। इसलिए यदि एक आदमी पागल हो जाता है, तो वह बहुत शक्तिशाली हो जाता है। क्यों? कहां से आ रही है यह शक्ति? यह कहीं तो बाहर से नहीं आ रही है। अब उसके सारे स्रोत एक साथ चल रहे हैंः क्रोध, काम, प्रत्येक चीज एक साथ जल रही है। प्रत्येक स्रोत उबल रहा है।
केवल इसी बात से मतलब रखें कि क्रोध कहां से ऊन रहा है, या कहां से कामवासना उठ रही है। उसका पीछा करें। कदम पीछे लौटाए। शांति से ध्यान करें, और क्रोध के साथ उसकी जड़ों को पहुंच जाए। यह मुश्किल है, परंतु यह असंभव नहीं है। यह आसान नहीं है, यह सरल होने वाली बात नहीं है, क्योंकि वह हमारी लंबी जड़ जमाए आदत के साथ लड़ाई है। सारा का सारा अतीत ही तोड़ना पड़ेगा और आपको कुछ नया करना पड़ेगा जो कि आपने पहले कभी नहीं किया। यह सिर्फ आदत का भार है, जो कि कठिनाई उत्पन्न करेगा। पर प्रयत्न करें, और तब आप एक नया ही मार्ग अपनी ऊर्जा की गति के लिए निर्मित करेंगे। आप एक वृत्त होने जा रहे हैं, और वृत्त में ऊर्जा कभी विनष्ट नहीं होती। जब ऊर्जा उठती है और बाहर की ओर जाती है, तो वह कभी वृत्त नहीं बन सकती। तब वह सिर्फ नष्ट होती है। यदि गति भीतर की ओर हो, तो वही ऊर्जा जो कि बाहर की ओर जा रही थी अपने ऊपर ही लौट आती है। ध्यान इस ऊर्जा को उसी स्रोत पर वापस ले जाता है, जहां से कि क्रोध उठ रहा था। एक वृत्त बन जाता है। यह आंतरिक वृत्त ही महावीर की शक्ति है। काम-ऊर्जा जो कि बाहर किसी और की तरफ नहीं बह रही है, अपने मूल उदगम की और ही लौट जाती है। यह काम-ऊर्जा का वृत्त ही बुद्ध की शक्ति है।
हम लोग बहुत ही कमजोर हैं-इसलिए नहीं कि हममें बुद्ध से कम शक्ति है। हमारे पास भी शक्ति की मात्रा उतनी ही है; प्रत्येक उतनी ही ऊर्जा की मात्रा लेकर उत्पन्न होता है। परंतु हमारी आदत है उसे नष्ट करने की। वह सिर्फ हमसे बाहर ही जाती है, और वापस कभी नहीं लौटती है। और एक बार यह आपके बाहर चली जाए, वह कभी वापस नहीं आ सकती। वह आपकी सीमा से बाहर चली गई। एक शब्द मेरे भीतर उठता है; मैं उसे बोल देता हूं; वह बाहर चला गया। अब वह मेरे पास वापस कभी नहीं आने वाला है, और जो शक्ति उसे पैदा करने में लगी, जो उसे बाहर फेंकने में लगी, वह नष्ट हो गई। एक शब्द मेरे भीतर उठता है, मैं उसे बाहर नहींफेंकता; मैं चुप हो जाता हूं, तब वह शब्द चलता रहता है, भीतर, मेरे भीतर घूमता रहता है और आखिर में अपने मूल स्रोत पर वापस गिर जाता है। ऊर्जा फिर से उपभोग कर ली गई।
मौन होना ऊर्जा है, शक्ति है; ब्रह्मचर्य शक्ति है; क्रोधित न होना, ऊर्जा है। परंतु यह दमन नहीं है। यदि आपने क्रोध को दबाया, तो फिर आपने ऊर्जा को काम में ले लिया। दमन न करें; देखें और पीछा करें। लड़ें नहीं; केवल क्रोध के साथ पीछे चले। यह शुद्धतम विधि है सजगता की।
परंतु कुछ दूसरी चीजों का उपयोग किया जा सकता है। नए शुरू करनेवालों के लिए कुछ विशेष उपाय संभव हैं। अतः मैं तीन उपायों की बात करूंगा। एक तरफ का उपाय है जो कि शरीर की सजगता पर निर्भर करता है। भूल जाए क्रोध को; भूल जाए काम को। वे मुश्किल समस्याएं हैं। और जब आप उसमें होते हैं, आप इतने पागल हो जाते हैं कि आप ध्यान नहीं कर सकते। जब आप क्रोध में होते हैं, तो आप ध्यान नहीं कर सकते। आप ध्यान के बारे में सोच भी नहीं सकते। अब आप सिर्फ विक्षिप्त हैं। इसलिए भूलें उसे, वह कठिन है। तब अपने शरीर का उपयोग करें सजगता के लिए एक उपाय की भांति
बुद्ध ने कहा है कि जब आप चलें, तो सजगता से चलें। जब आप श्वास लें, तो होशपूर्वक श्वास लें। बौद्धों की जो पद्धति है वह है-अनापानासती योग-बाहर आती और भीतर जाती श्वास का योग, बाहर आती, भीतर जाती श्वास के प्रति सजगता। श्वास भीतर आती है, तोश्वास के साथ भीतर चले जाए। जानें, होश रखें, कि श्वास भीतर आ रही है। जब श्वास बाहर जा रही है, तो उसके साथ बाहर चले आए। भीतर आए, बाहर आए श्वास के साथ।
क्रोध मुश्किल है, काम भी मुश्किल है, श्वास इतनी कठिन नहीं है। श्वास के साथ-साथ चलें। एक भी श्वास बिना होश रखे भीतर या बाहर नहीं आने या जाने दें। यही ध्यान है। अब आप का ध्यान श्वास केंद्रित होगा, और जब आपका ध्यान श्वास पर केंद्रित होगा, तो विचार अपने आप रुक जाएंगे। अब आप विचार नहीं कर सकते, क्योंकि जैसे ही आप विचार करते हैं आपकी चेतना श्वास पर से विचार पर चली जाती है। आप श्वास को चूक जाएंगे।
इसका प्रयत्न करें, और आपको मालूम पड़ जाएगा। जब आप श्वास के प्रति सजग हैं, तो विचार रुक जाएंगे। वही ऊर्जा जो कि विचार के उपयोग में आ रही थी, अब श्वास के प्रति जागने के काम आ रही है। यदि आप विचार करना शुरू करें, तो आप श्वास की राह चूक जाएंगे। आप भूल जाएंगे, और आप सोचने लग जाएंगे। आप दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते।
यदि आप श्वास का अनुगमन कर रहे हैं, तो यह एक लंबी प्रक्रिया है। किसी को भी इसमें बहुत गहरे जाना पड़ेगा। इसमें किसी को कम से कम तीन महीने लगेंगे, और यादा से यादा तीन वर्ष, यदि इसे कोई चौबीस घंटे करे। यह पद्धति भिक्षुओं के लिए है-उसके लिए जिन्होंने कि सब कुछ छोड़ दिया है। केवल वही चौबीस घंटे अपनी श्वास पर ध्यान कर सकते हैं। इसीलिए बौद्ध भिक्षु और भिक्षुओं की दूसरी परंपराओं ने अपने निर्वाह को कम से कम पर आधारित कर लिया, ताकि कोईप्रकार की अड़चन न आए। वे भोजन के लिए भिक्षा मांग लेते हैं और पेड़ के नीचे सो जाते हैं, बस, इतना काफी है। उसका सारा समय सजगता के आंतरिक अभ्यास के लिए हैं, जैसे कि श्वास पर ध्यान।
एक बौद्ध भिक्षु घूमता है। उसे अपनी श्वास के प्रति सतत ध्यान रखना पड़ता है। बौद्ध भिक्षुओं के चेहरे पर जो शांति आप देखते हैं, वह कुछ और नहीं बल्कि श्वास पर ध्यान करने की शांति है। यदि आप भी सजग हो जाएं, तो आपका चेहरा भी शांति प्रकट करेगा, क्योंकि यदि विचार नहीं है, तो आपको चेहरा चिंता, विचार नहींप्रकट कर सकता। आपका चेहरा विश्राम को उपलब्ध हो जाता है। सतत श्वास के प्रति सजगता मन कोबिल्कुल ही रोक देगी। वह जो लगातार चिंता में पड़ा मन था, वह रुक जाएगा। और जब मन जाता है और सांप सिर्फ श्वास के प्रति सजग हैं, यदि मन काम नहीं कर रहा है, तो आप क्रोधित नहीं हो सकते, आप कामवासना में नहीं पड़ सकते।
काम या क्रोध या लोभ या ईर्ष्या या जलन कोई भी चीज हो, उसे मन की यांत्रिकता की आवश्यकता होती है। और यदि यांत्रिकता रुक जाती है, तो आप कुछ भी नहीं कर सकते। यह फिर उसी बात पर ले जाते है। अब जो ऊर्जा काम में, क्रोध में, या लोभ में, महत्वाकांक्षा में काम में आती है, उसे कोई रास्ता नहीं मिलता। और आप लगातार श्वास पर ध्यान कर रहे हैं, रात और दिन। बुद्ध ने कहा है-नींद में भी, श्वास के प्रति सजग रहने की कोशिश करो। यह शुरू में कठिन होगा, परंतु यदि आप दिन में होश रख सकें, तोधीरे-धीरे यह आपकी नींद में भी प्रवेश कर जाएगा।
कोई भी चीज नींद में भी प्रवेश कर जाती है, यदि वह दिन के समय आपके मन में गहरे चली गई हो। यदि दिन में आप किसी चीज के प्रति चिंतित रहे हैं, तो यह आपको नींद में भी प्रवेश कर जाती है। यदि आप लगातार सेक्स के बारे में सोचते रहते हैं, तो वह आपकी नींद में प्रवेश कर जाता है। यदि आप सारे दिन क्रोध में रहते हैं, तो क्रोध आपकी नींद में प्रवेश कर जाता है। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि कोई कठिनाई नहीं है। यदि कोई आदमी लगातार श्वास पर ध्यान करता रहे, और श्वास के प्रति सजग रहे, तो अतः वह भी नींद में प्रवेश कर जाता है। आप तब स्वप्न नहीं देख सकते। यदि भीतर आती और बाहर जाती श्वास के प्रति आपकी सजगता है, तो नींद में आप स्वप्न नहीं देख सकते।
जिस क्षण भी आप सपना देखते हैं, यह सजगता नहीं होती। यदि सजगता है, तो स्वप्न असंभव है। इसलिए एक बौद्ध भिक्षु जो कि सोया हो, वह आपकी तरह नहीं है। उसकी नींद की गुणवत्ता ही भिन्न है, उसकी गहराई अलग ही है। और एक खास सजगता उसमें है।
आनंद ने बुद्ध से कहा-आपको कितने वर्षों से लगातार देख रहा हूं। यह चमत्कार जैसा लगता है। आप ऐसे सोते हैं जैसे कि जाग रहे हों! आप सारी रात्रि उसी करवट सोते रहते हैं। हाथ जहां पर रखा हो वहां से वह नहीं हटेगा। पांव उसी जगह वैसे ही रहेगा। बुद्ध उसी करवट रात भर। एक ही आसान में सोएंगे। जरा भी हिलन-डुलन नहीं। कई रातों आनंद बैठा रहता और देखता रहता और आश्चर्य करता-यह किस प्रकार की नींद है! बुद्ध हिलेंगे भी नहीं। वे ऐसे होंगे, जैसे कि एक मृत शरीर हो और वे उसी करवट उठेंगे जिस करवट कि रात साए थे। आनंद ने पूछा-आप करते क्या हैं? आप सोते भी हैं या नहीं? आप कभी हिलते भी नहीं!
बुद्ध ने कहा-आनंद, एक दिन आएगा, जब तुम जानोगे। इससे इस बात का पता चलता है कि तुम ठीक से अनापान सती योग का अभ्यास नहीं कर रहे हो, यह इतना ही बतलाता है। अन्यथा यह प्रश्न नहीं उठता। तुम अनापान सती योग का अभ्यास नहीं कर रहे हो। यदि तुम दिन में सतत अपनी श्वास के प्रति सजग रहो, तो यह असंभव है कि रात में तुम उसके प्रति सजग रहो। और यदि मन सजगता की और लगा है, तो स्वप्न प्रवेश नहीं कर सकते। जब कोई स्वप्न नहीं है, तो मन साफ होता है-पारदर्शक। तुम्हारा शरीर सोता है, परंतु तुम नहीं। तुम्हारा शरीर विश्राम करता है, तुम सजग रहते हो, भीतर लौ जलती है। इसलिए, आनंद, बुद्ध ने कहा, मैं नहीं सोता हूं, केवल शरीर ही सोता है। मैं तो जागता रहता हूं। और केवल नींद में ही नहीं आनंद, किंतु जब मैं मरूंगा तब भी तुम देखोगे कि मैं जागा हुआ ही रहूंगा। केवल यह शरीर ही मरेगा।
श्वास के प्रति सजगता का अभ्यास करें। तब आप इसे गहरा करने में सक्षम हो सकेंगे सजगता का अभ्यास शरीर की गतिविधियों के साथ करें। बुद्ध ने उसके लिए एक शब्द का उपयोग किया है-वे उसे माइंडफुलनेस कहते है-होश, सजगता। उन्होंने कहा-होशपूर्वक चलो। हम भी चलते हैं, पर बिना कोई होश रखे।
एक दिन जब बुद्ध बोल रहे थे तो एक आदमी उनके सामने बैठा हुआ था। वह अनावश्यक ही अपना पांव व उसका एक अंगूठा हिला रहा था। उसके लिए कोई कारण भी नहीं था। उसके लिए कोई कारण भी नहीं था। बुद्ध ने बोलना बंद कर दिया और उस आदमी से पूछा, तुम अपना पांव और अंगूठा क्यों हिला रहे हो? अचानक जैसे ही बुद्ध ने यह पूछा वह आदमी रुक गया। तब बुद्ध ने पूछा-यह अचानक तुम रुक क्यों गए।
उस आदमी ने कहा, क्यों, मुझे पता भी नहीं था कि मैं अपना पांव अथवा अंगूठा हिला रहा हूं। मुझे कुछ भी पता नहीं। जैसे ही आपने पूछा मैं सजग हो गया। बुद्ध ने कहा-क्या मूर्खता की बात करते हो! तुम्हारा पांव हिल रहा है और तुम्हें पता भी नहीं है? तो फिर तुम अपने शरीर के साथ क्या कर रहे हो? तुम जिंदा आदमी हो या मरे हुए? यह तुम्हारा पांव है; यह तुम्हारा अंगूठा है, जो हिलता ही चला जाता है, और तुम्हें स्वयं इसका कुछ भी पता नहीं। तो फिर तुम्हें पता किस बात का है? तुम किसी की हत्या कर सकते हो और कह सकते हो कि मुझे पता नहीं था। और वस्तुतः जो लोग हत्या करते हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं रहता। वे होश में नहीं होते। होश में रहते हुए किसी की हत्या करना मुश्किल है।
बुद्ध करेंगे-हिलें-डुलें, किंतु होश से भरे रहें। भीतर जानें कि आप चल रहे हैं। आपको कोई शब्द नहीं बोलना है, आपको कोई विचार नहीं करना है। आपको भीतर भी नहीं कहना है-मैं चल रहा हूं, क्योंकि यदि आप बोलते हैं, तो फिर आप चलने के प्रति सजग नहीं हैं। आप अपने विचार के प्रति सजग हो गए और आप चलने को चूक गए। शारीरिक तल पर सजग हो जाएं-न कि मानसिक। केवल महसूस करें कि आप चल रहे हैं। एक शारीरिक सजगता पैदा करें-एक संवेदना ताकि आप सीधे ही अनुभव कर सकें बिना मन को बीच में लाए।
हवा चल रही है, आप अनुभव कर रहे हैं। शब्दों का उपयोग न करें। केवल महसूस करें, और उप प्रतीति के प्रति सजग रहें। आप समुद्र के किनारे पड़े हैं, और रेत ठंडी है-काफी ठंडी। इसे अनुभव करें, शब्द काम में न लें। केवल अनुभव करें-उसकी ठंडक, भीतर प्रवेश करती हुई ठंडक। केवल महसूस करें, उसके प्रति जागे, शब्द काम में न लें। न कहें कि रेत बड़ी ठंडी है। जिसे ही आपने ये शब्द कहे, आप अस्तित्वगत क्षण के चूक गए। आप उसके बारे में बौद्धिक हो गए।
आप अपने प्रेम के साथ हैं अथवा अपनी प्रेमिका के साथ हैं; उपस्थिति को अनुभव करें। शब्दों का उपयोग न करें। केवल ऊष्मा का अनुभव करें, प्रेम बहता हुआ। ऐक्य जो कि घटित हुआ, उसका सिर्फ अनुभव करें। शब्द का उपयोग न करें। न कहें-मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, वरना आप उसे नष्ट कर देंगे। तब फिर मन बीच में आ गया। और जिस क्षण भी आप कहते हैं कि तुम्हें प्रेम करता हूं वह एक अतीत की स्मृति बन जाता है। केवल महसूस करें बिना शब्दों के। कुछ भी जो बिना शब्दों के अनुभव किया जाए, बिना मन को बीच में लाए, वही आपको सजगता प्रदान करेगा।
आप खा रहे हैं, होशपूर्वक खाए। प्रत्येक चीज को होशपूर्वक स्वाद लें। शब्दों का उपयोग न करें। स्वाद खुद ही बड़ी नाजुक और महत्वपूर्ण घटना है; शब्दों को काम में लेकर उसको नष्ट न करें। स्वाद को आखिर तक महसूस करें। आप पानी पी रहे हैं, उसे गले से नीचे जाते हुए महसूस करें। शब्दों का उपयोग न करें। केवल महसूस करें, उसके प्रति सजग रहे। पानी की गति, उसकी ठंडक, खोती हुई प्यास, संतोष का अनुभव जो कि हो रहा हो-उस सब को सिर्फ अनुभव करें।
आप धूप में बैठे हैं, गर्मी का अनुभव करें, शब्दों का उपयोग न करें। सूरज आपको स्पर्श कर रहा है। एक गहन ऐक्य हो रहा है। अनुभव करें उसे। इस तरह से शारीरिक सजगता, सोमेटिव अवेयरनेस बड़ती है। यदि आप शारीरिक सजगता बड़ा लेते हैं तो भी मन रुक जाता है। मन की कोई आवश्यकता भी नहीं रहती। और यदि मन रुक जाता है, तो आप एक गहरे अचेतन में फेंक दिए जाते हैं। एक बहुत गहरी सजगता के साथ आप उसमें प्रवेश कर सकते हैं। अब आपके पास प्रकाश है, और अंधेरा विलीन हो जाता है।
जो लोग कि शरीर केंद्रित हैं, उनके लिए शारीरिक सजगता अच्छी है। जो लोग शरीर केंद्रित नहीं हैं, उनके लिए अच्छा है कि श्वास के प्रति सजग हों। जिन्हें यह मुश्किल प्रतीत होता हो, वे कोई दूसरा कृत्रिम उपाय खोज सकते हैं। उदाहरण के लिए-मंत्रः यह एक कृत्रिम उपाय है। सजग होने के लिए। आप मंत्र का उपयोग करते हैं, जैसे कि राम-राम-राम लगातार बोलना। भीतर आप एक वर्तुल बना लें राम-राम-राम का या अल्लाह का या किसी भी चीज का। उसे दोहराते जाएं। किंतु खाली दोहराना ही किसी काम का नहीं होगा। साथ ही, सजग भी रहें। जब आप राम-राम-राम का उच्चारण कर रहे हैं, तब इस उच्चारण के प्रति सजग भी रहे। उसको सुनें-राम-राम-राम और सजग रहें।
क्रोध के प्रति सजग होना कठिन होगा, क्योंकि क्रोध अचानक आता है, और आप उसकी कोई योजना नहीं बना सकते और जब वह आता है, आप उसमें इतने ओतप्रोत हो जाते हैं कि आप भूल भी सकते हैं। इसलिए एक उपाय बना लें, जैसे कि राम-राम-राम और आप बना सकते हैं और यह कोई अचानक विधि नहीं है। और इसे इतने लंबे अरसे तक काम में लें कि यह आंतरिक गूंज हो जाए। जो कुछ भी आप कर रहे हैं, करें; किंतु राम-राम चलता रहे, एक मौन कड़ी की तरह। और उसके प्रति सजग रहें।
मंत्र पूरा हो जाता है, जप पूरा हो जाता है, उच्चारण पूरा हो जाता है, जब आप उस आवाज के पैदा करने वाले ही हनीं वरन सुनने वाले भी हो जाते हैं। उपयोग यह होगा कि आप कह रहे हैं-राम, आप उसे सुन भी रहे है। वर्तुल पूरा हो गया। मैं कुछ कहता हूं, आप सुनते हैं, ऊर्जा व्यय हो गई। यदि आप कहें राम और आप ही सुनें भी, तो ऊर्जा वापस लौट कर आ गई। आप बोलने वाले भी हैं और आप सुनने वाले भी। परंतु इसके प्रति सजग रहें। यह कोई मृत रोजमर्रा का कामन हो जाए। अन्यथा आप कहते ही जाएंगे-राम-राम-राम तोते की तरह, बिना उसके पीछे किसी बात की कोई सजगता के। तब यह कोई काम की नहीं है। हो सकता है कि यह गहरी निद्रा पैदा करे। यह एक सम्मोहन भी हो सकता है। आप बिल्कुल शिथिल भी हो सकते हैं।
कृष्णमूर्ति कहते हैं कि जो लोग मंत्र का जप करते हैं, वे, शिथिल हो जाते हैं, वे मूर्ख हो जाते हैं। और वे एक तरह से सही हैं, किंतु केवल एक ही तरह से। यदि आप किसी भी मंत्र का जप यांत्रिक पुनरुक्ति की तरह से करते हैं, तो आप सुस्त हो जाएंगे। उन तथाकथित धार्मिक लोगों की तरफ देखें; वे सब सुस्त और मूर्ख हैं। इनमें कोई बुद्धि नहीं है, उनकी आंखों में कोई योति नहीं है-जीवंत होने की। वे बस मरे हुए हैं, जस्ते की तरह से-भारी। उन्होंने जगत को कुछ भी नहीं दिया। उन्होंने सिर्फ मंत्रों का जप किया है!
सचमुच यदि आप किसी खास मंत्र को सिर्फ दोहराते जाएं बिना सजगता के, तो आप स्वयं ही उसे थक जाएंगे, और जो ऊब पैदा होगी, वह मूर्खता को पैदा करेगी। आप शिथिल हो जाएंगे। आपका सब रस खो जाएगा। एक खास आवाज बार-बार दोहराई जाने पर विक्षिप्तता भी पैदा कर सकती है। परंतु कृष्णमूर्ति एक ही अर्थ में सही हैं, अन्यथा वे पूर्णतया गलत हैं। और जब कभी कोई उनसे जो कि स्वयं के अनुभव से नहीं कह रहे हैं निर्णय लेता है, तो यह वास्तव में ठीक नहीं है। किसी भी चीज का निर्णय कुशल उदाहरण को लेकर करना चाहिए।
जप का विज्ञान केवल पुनरुक्त करना ही नहीं है। पुनरुक्ति तो द्वितीयक बात है। वह तो सिर्फ तरकीब है कुछ निर्मित करने की कि जिसके प्रति सजग हुआ जा सके। वास्तविक बात तो सजगता है, आधारभूत तो सजग होना है। यदि आप एक घर बनाते हैं, घर द्वितीयक बात है। आप उसे रहने के लिए बनाते हैं। और यदि रहना नहीं हो और आप एक घर बनाए और बाहर ही रहें, तो फिर आप मूर्ख हैं।
किसी नाम का दोहराना या किसी आवाज को पुनरुक्त करना एक घर बनाना है, उसमें रहने के लिए है, तो आप उसको आसानी से मोड़ सकते हैं बजाय अचानक होने वाली घटनाओं के। धीरे धीरे आप उसके अभ्यस्त भी हो सकते हैं, विश्राम में हो सकते हैं उसके प्रति एक गहरी सजगता बनाए हुए। परंतु वास्तविक बात, आधारभूत बात तो उसके प्रति सजग होना ही है।
जब का विज्ञान कहता है कि जब तुम अपनी ही ध्वनि को सुनने वाले बन जाओ, तो समझो तुम पहुंच गए। तब तुमने जप पूरा किया। और इसमें बहुत कुछ है। उदाहरण के लिए, जब तुम एक ध्वनि-राम का उपयोग करते हो, तो तुम्हारी परिधि का यंत्र उसको निर्मित करने में लग जाता है, तुम्हारा बोलने का यंत्र काम में संलग्न हो जाता है। यदि तुम मानसिक विधि निर्मित करते हो, तब तुम्हारा मानसिक यंत्र उसमें लग जाता है। परंतु जब तुम उसके लिए सजग हो जाते हो, तो वह सजगता केंद्र की होती है, न कि परिधि की।
यदि मैं कहता हूं-राम, तो यह मेरी बाह्य परिधि पर है। और जब मैं भीतर सुनता हूं राम, तो यह मेरे केंद्र से आ रहा है, क्योंकि सजगता केंद्र की बात है। यदि आप केंद्र पर सजग होते हैं, तो अब आपके पास प्रकाश है। आप मूर्च्छा को, अचेतन को दूर हटा सकते हैं। मंत्र का उपयोग एक टेकनीक की भांति किया जा सकता है। कितनी ही विधियां हैं, परंतु प्रत्येक विधि का एक प्रयत्न है, सजगता के लिए आप सजगता से नहीं बच सकते। आप कहीं से भी शुरू कर सकते हैं, परंतु लक्ष्य सजगता ही है।
ये सारी संकल्प की विधियां हैं। अच्छा हो यदि मैं कम से कम एक समर्पण की विधि की भी बात करूं। ये सारी पद्धतियां संकल्प की हैं; कि आपको कुछ न कुछ करना पड़ता है।
हुई-हाई एक झेन मास्टर था। वह अपने गुरु के पास आया। गुरु ने कहा-चुनाव कर लो। क्या तुम्हें संकल्प की विधियां चाहिए या तुम समर्पण करने के लिए तैयार हो? तब मैं तुम्हें कुछ विधियां बतला दूंगा। यदि तुम संकल्प का मार्ग चुनो, तो मैं तुमको कुछ करना पड़ेगा। मैं केवल मार्ग-दर्शन हो सकता हूं। संकल्प के मार्ग पर केवल मार्ग-दर्शक ही होते हैं। वास्तव में वे गुरु या मास्टर नहीं होते। वे केवल गाइड-मार्ग-दर्शक होते हैं। वे आपको समझा देते हैं; करना आपके ही सब कुछ पड़ता है। वे कुछ भी नहीं कर सकते।
इसलिए गुरु ने कहा-यदि तुम संकल्प के मार्ग पर चलना चाहो, तो मैं तुम्हारा मार्ग-दर्शक बन जाऊंगा। मैं तुम्हें सूचनाएं, विधियां आदि दूंगा, बाकी सब तुम्हें करना होगा। यदि तुम समर्पण का मार्ग चुनो, तो फिर तुम्हें कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। मैं स्वयं ही सब कुछ करूंगा। तब तुम्हें केवल परछाई की तरह होना होगा, मेरा अनुगमन करना होगा तब कोई संदेह, कोईप्रश्न, कोई पूछताछ नहीं होगी। जो कुछ मैं कहूं, तुम्हें करना है।
हुई-हाई ने समर्पण का मार्ग चुना। उसने अपने की गुरु को समर्पित कर दिया। तीन साल बीत गए। वह अपने गुरु के एक तरफ बैठता। कभी-कभी गुरु उसकी तरफ देखता, और फिर देखता ही रहता, सतत देखता रहता। वह देखता इतना भीतर प्रवेश करने वाला होता और इतना गहरा होता कि वह बाद में भी हुई-हाई का पीछा करता। जब वह अपने गुरु के पास नहीं होता, तब भी वह दृष्टि उसका पीछा करती। वह सो जाता, पर आंखें उसके साथ होती। गुरु उसकी और देखता होता। वह स्वप्न भी हनीं देख पाता, क्योंकि गुरु वहां भी मौजूद होता था।
तीन साल तक लगातार वह गुरु के एक तरफ बैठता रहा और अचानक गुरु उसकी ओर देखता और भीतर प्रवेश करता रहा और उसकी आंखें गहरी चली जाती रहीं। वे आंखें उसके स्वरूप का हिस्सा बन गई। वह क्रोधित भी नहीं हो सकता था, वह कामवासना में भी नहीं पड़ सकता था। वे आंखें वहां भी मौजूद होतीं। वह सब जगह उसका पीछा करतीं। गुरु सब जगह मौजूद होता। वह सदैव उसकी उपस्थिति में होता। तब तीन साल बाद, गुरु पहली बार, हंसा। उसने उसकी और देखा और हंसा। और फिर एक नई ही हॉन्टिग (पीछा करने वाली दृष्टि)प्रारंभ हुई। तब हर समय उसे हंसी सुनाई पड़ती। और यहां तक कि नींद में भी, और वह कांपने लग जाता। अकेले तीन सालों तक गुरु सिर्फ उसकी और देखता और हंस देता, और बस इतना ही होता रहा। और देखता और हंस देता, और बस इतना ही होता रहा।
और यह सब छह वर्ष तक चलता रहा। तब अचानक छह साल बाद एक दिन गुरु ने उसका हाथ स्पर्श कर दिया। उसने उसकी आंखों में देखा, उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया, और हुई-हाई को गुरु की ऊर्जा स्वयं में बहती हुई मालूम हुई। वह केवल एक साधन बन गया। वह बस ऊष्मा, ऊर्जा, विद्युत, सब कुछ अपने अंदर बहती हुई अनुभव करता। अब सोना भी असंभव हो गया, क्योंकि गुरु वहां मौजूद होता। और हर समय, हर क्षण, कुछ न कुछ बहता रहता।
तब फिर तीन वर्ष बाद यानी कुल मिलाकर नौ वर्ष बाद, गुरु ने उसे छाती से लगा लिया और हुई-हाई ने लिखा है कि उस दिन से वह पीछा करना बंद हो गया। अब वहां हुई-हाई नहीं था, केवल गुरु ही मौजूद था। इसी कारण से वह पीछा करना बंद हो गया।
तीन साल और गुजरे-यानी बारह वर्ष और एक दिन गुरु ने हुई-हाई के पैर स्पर्श किए। उस दिन गुरु भी विलीन हो गया, परंतु हुई-हाई एक ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति हो गया। बाद में कितने ही लोगों से उससे पूछा-आपको कैसे उपलब्ध हुआ यह? वह जवाब देता-मैं नहीं बता सकता। मैंने तो केवल समर्पण कर दिया था। उसके बाद सब कुछ उसी के द्वारा किया गया, और मुझे कुछ भी पता नहीं कि कैसे क्या हुआ।
जब आप समर्पण करते हैं, तो आप केवल चेतन मन ही समर्पित करते हैं, न कि अचेतन। आपको उसके बारे में कुछ भी पता नहीं है, फिर आप उसके कैसे समर्पित कर सकते हैं? यदि मैं आपको अपना धन छोड़ने को कहूं, तो आप वही धन छोड़ सकते हैं, जिसका कि आपको पता है कि आपके पास है। कैसे आप वह धन छोड़ सकते हैं, जो कि खजाने में छिपा पड़ा हैं। जिसका कि आपको कुछ पता नहीं है, कि आपके पास है? इसलिए केवल चेतन मन का चेतन हिस्सा ही समर्पित किया जा सकता है, और वह चेतन मन ही बाधा है।
यदि मैं आपसे कुछ कहता हूं, तो आपका चेतन मन सोचने लगता है कि यह बात सही है या गलत? सच है या झूठ? और यहां तक कि यदि यह सच भी है, तो भी मन में ख्याल उठने लगेगा कि इस आदमी का इस बात के कहने से क्या मकसद है? यह मुझसे क्या चाहता है? बहुत सी वस्तुएं, बहुत से प्रश्न, बहुत सी शंकाएं पैदा होंगी, और चेतन मन प्रतिरोध पैदा करता रहेगा। यदि आपको सम्मोहन के बारे में थोड़ा भी पता है, तो आपको मालूम होगा और आपने अवश्य अनुभव किया होगा कि सम्मोहन में सम्मोहित व्यक्ति से जी भी कहा जाए, वह करेगा-कुछ भी, कोईबिल्कुल व्यर्थ की बात भी। क्यों? सम्मोहित अवस्था में, चेतना मन सो जाता है। केवल अचेतन मन होता है। बाधा टूट गई होती है। सम्मोहन में आपका चेतन मन सो जाता है, वह वहां होता ही हनीं। इसलिए, सम्मोहन में यदि आप पुरुष भी हैं और मैं आपसे कहता हूं-तुम स्त्री हो-तो आप एक स्त्री की तरह व्यवहार करेंगे। आप स्त्री की भांति चलने लग जाएंगे, शर्मीले हो जाएंगे; आपका चलना-फिरना यादा खूबसूरत हो जाएगा; यादा स्त्रियों जैसा हो जाएगा; आपकी आवा भी बदल जाएगी।
क्या हो गया है? चेतन मन जो कि शंका पैदा करता, जो कि मुझसे कहता, क्या मूर्खता की बात करते हैं, मैं पुरुष हूं, न कि स्त्री! वह सो गया है। और अचेतन मन की कोई शंका नहीं है, अचेतन बिल्कुल ही श्रद्धालु है। उसकी श्रद्धा, उसका विश्वास पूर्ण है। अचेतन में कोई तर्क भी नहीं है। वह कोईप्रतिरोध नहीं कर सकता, इसलिए जो कुछ भी कहा जाता है उस पर विश्वास कर लिया जाता है। कोई समस्या नहीं है। इसीलिए इतना जोर दिया जाता है श्रद्धा पर। वह समर्पण के मार्ग का सूत्र है। उसका संबंध समर्पण के मार्ग से है।
समर्पण के मार्ग पर जो कुछ कहा जाता है, उस पर विश्वास कर लिया जाता है। दिन है और गुरु कहता है कि रात है। तो विश्वास कर लो। क्यों? क्योंकि यह विश्वास करना सवाल करने की आदत को, प्रतिरोध करने की आदत को, प्रतिरोध करने की आदत को तोड़ देगा। अंततः वह, आपके तथाकथित चेतन मन की आधा नष्ट कर देगा। और जब चेतन मन बीच में नहीं है तो आप और गुरु एक हो जाते हैं। तब आप काम कर सकते हैं-उसके पहले नहीं। तब वह टैलीपैथिक संबंध हो जाता है-सीधा अंतस्संबंध। तब आप एक गहरे संपर्क में आ जाते हैं। इसलिए जो कुछ भी गुरु सोचता है, वह आपका हिस्सा हो जताता है। अब जो कुछ भी वह चाहता है, वह कर सकता है। आप अब उसके प्रति पूर्णतया ग्रहणशील हो गए हैं। अब गुरु शिष्य में कोई लड़ाई नहीं है। अन्यथा यह एक लड़ाई है। अब एक धनिष्ठता है-एक गहरा मिलन।
इसलिए हुई-हाई ने कहा-मुझे कुछ भी पता नहीं है। मैंने तो सिर्फ समर्पण कर दिया था। ब स इतना ही किया था मैंने। इससे अधिक कुछ नहीं। मैंने स्वयं से कहा कि मैंने तोप्रयत्न करके देख लिया, और मैंने बहुत संघर्ष कर लिया लेकिन मैंने कोई आनंद नहीं जाना। हो सकता है कि मैं ही सब दुखों का कारण रहा होऊं। यदि मैं संकल्प का मार्ग चुनता हूं तो फिर मैं ही चुनूंगा, फिर मैं ही अभ्यास कर रहा होऊंगा, फिर मैं ही अभ्यास कर रहा होऊंगा, फिर मैं वहां मौजूद होऊंगा। कुछ भी परिणाम निकले लेकिन मैं तो उसमें उपस्थित रहूंगा ही। और यदि मैं ही दुःख हूं और मैंने सब जगह प्रयत्न करे देख लिया है, और मैंने सब कर लिया है, तो अच्छा हो कि मैं अपने आपको ही छोड़ दूं और देखूं कि क्या होता है इसलिए मैंने गुरु से कहा कि मैं समर्पण करूंगा, और उसके बाद मैं बारह वर्ष सिर्फ प्रतीक्षा करता रहा। मुझे पता नहीं कि गुरु क्या कर रहा था परंतु कितनी ही बातें घटित हों रही थीं। मैं रूपांतरित हो रहा था; मैं रूपांतरित किया जा रहा था, और मैं बदल रहा था; मैं रूपांतरित किया जा रहा था, और मैं बदल रहा था।
हमारे अचेतन मन हैं। वे एक हैं। जहां तक चेतन मन का सवाल है, हम द्वीपों की तरह से हैं; अन्यथा हम अलग नहीं हैं; वह जो गहनतर मन है वह एक है। यदि मैं आपसे बात कर रहा हूं, तब दो रास्ते हैं मेरे संदेश देने के-एक चेतन मन के द्वार और दूसरा अचेतन के द्वारा। चेतन का रास्ता संघर्ष का रास्ता है, क्योंकि आपका चेतन मन उसके बार में सोचता चला जाएगा। वह स्वीकार नहीं कर सकता, पहले उसे वर्जित करना पड़ेगा।
पहली चीज जो कि चेतन मन कहता है वह है नहीं; और हां बहुत ही हिचकिचाहट के साथ आता है; हां केवल लाचारी में आता है। आप ना नहीं कह सकते, आप कोई रास्ता ना कहने का नहीं खोज पा रहे, ना कहने में आप अपने को असमर्थ पाते हैं, आपके पास ना कहने के लिए कोई तर्क नहीं है, इसलिए आप हां कह देते हैं। आपकी हां नपुंसक है, बहुत ही कमजोर है, केवल असहाय अवस्था से आया है। जिस क्षण भी आपको दूसरा कोई कारण ना कहने का मिल जाएगा, आप फिर ऊर्जा से भरे हुए महसूस करेंगे। अब आपकी ना बहुत शक्तिशाली है। हां बिल्कुल मृत है-ना चेतन मन से जीवंत है।
चेतन मन सदैव ही द्वंद्वमय है-लगातार रक्षा करता हुआ, भय भीतर, चारों ओर भय से देखता हुआ। वह विश्वास नहीं कर सकता, वह समग्रताः हां भी नहीं कह सकता। यदि वह कहता भी है, तो वह एक अस्थापी बात होगी। वह वास्तविक ना के आने की प्रतीक्षा कर रहा है, और वह आएगी तब वह ना कह देगा। इसलिए आप किसी आदमी को आश्वस्त कर सकते हैं, परंतु उसे बदल नहीं सकते। आप किसी आदमी से तर्क कर सकते हैं और उसे चुप भी कर सकते हैं लेकिन उसे बदल नहीं सकते। वह ऐसा अनुभव करेगा कि वह कुछ और यादा नहीं कह सकता, परंतु भीतर गहरे में वह जानता है कि कुछ जरूर ही ऐसा खोज निकाला जा सकता है जो कि यह साबित कर दे कि आप गलत हैं और वह सही है। केवल इस क्षण ही वह ना कह सकने में असमर्थ है और इसलिए वह स्वीकार कर रहा है। परंतु यह स्वीकृति उसकी बदलाहट नहीं है। यह तो एक थोड़े से समय के लिए स्वीकृति हार है। और वह चोट खाया हुआ महसूस करता है, समय पाकर वह बदल लेगा। यही एक तरीका है जो कि आज के युग में महत्वपूर्ण बन गया है। यदि आपके कुछ प्रतिपादित करना है, तो आपको उसे चेतन मन के द्वारा ही प्रतिपादित करना पड़ेगा।
पुराने समय में इसके बिल्कुल ही विपरीत तरीका था, कि इस चेतन मन कोबिल्कुल ही गिरा दो, और अचेतन के द्वारा ही प्रतिपादित करो। इससे समय बचता है, शक्ति बचती है, और निरर्थक संघर्ष बचता है। यही अर्थ है समर्पण का। समर्पण का अर्थ है कि तुम कहते हो कि अब मैं कुछ भी नहीं हूं। अब जो कुछ भी आप कहेंगे, वही मैं मानूंगा। मैं अब बार-बार निर्णय हनीं करूंगा। अब किसी निर्णय के साथ कोईप्रश्न नहीं होगा। अब मैं अंतिम बार निर्णय करता हूं, आखिरी निर्णय करता हूं।
चेतन मन के साथ, आपका बार-बार, हर क्षण निर्णय लेना पड़ता है। समर्पित मन के साथ, आपने एक बार निर्णय ले लिया, आपने चुनाव कर लिया, और तब आप नहीं रहते। और जब तुम शंका नहीं करते हो, और जब तुम प्रश्न नहीं करते हो, तब धीरे-धीरे चेतन मन अपनी पकड़ छोड़ देता है, क्योंकि यह यंत्रवत चीज है। यदि आप इसको काम में नहीं लेते तो यह बेकार हो जाता है। यदि आप बारह वर्षों तक अपने पांवों का उपयोग न करें, तो वे बेकार हो जाएंगे तब आप चलने के योग्य न रहेंगे।
इसलिए हुई-हाई लगातार बारह वर्षों तक समर्पण की मनोदशा में प्रतीक्षा करता रहा। वह सोच भी नहीं सका, वह कोई तर्क नहीं कर सका, वह ना नहीं कह सका; हां ही उसकी स्थापी मनोदशा हो गई; फलतः हां शक्तिशाली हो गया, हां मजबूत और जीवंत हो गया। ना मर गयी। इसी स्थिति में सीधा रूपांतरण संभव है। तब गुरु बहुत कुछ कर सकता है। तब वह आपके भीतर प्रवेश करता है, तब वह आपको रूपांतरित करने लगता है। और जीने अधिक आप भीतर से रूपांतरित होते हैं, उतने ही चेतन आप होते जाते हैं। परंतु वह आपका काम नहीं है।
इंडोनेशिया में अभी एक नई पद्धति चलती हैः वे उसे लतिहान (सुबुद्ध पद्धति) कहते हैं। वह अदभुत ढंग से काम करती है। किसी को गुरु को भी समर्पित नहीं करना पड़ता; कोई बस उस परमात्मा को, दिव्य को समर्पित कर देता है। परंतु समर्पण समग्र होना चाहिए। कोई दिव्य को समर्पित कर देता है, और कहता है, अब अंतिम बार, मैं कहता हूं कि जो कुछ भी तुम्हें करना हो मेरे साथ, करो। मैं प्रतिरोध नहीं करूंगा। अब जो भी होता है, मैं उसको मानूंगा जैसे कि वह तुम्हारा ही आदेश है। और यदि कोई व्यक्ति कंपन महसूस करता है, तो वह कांपने लगता है। यदि वह चिल्लाना अनुभव करता है, तो वह दौड़ने लगता है। वह पागलों की तरह से व्यवहार करने लगता है। परंतु कोईप्रतिरोध वहां नहीं होता। जो कुछ भी घटित होता है, वह स्वीकार कर लेता है और उसके साथ बहता है। और कुछ ही दिनों में वह एक रूपांतरित व्यक्ति हो जाता है-एक बिल्कुल दूसरा ही व्यक्ति।
जब आप विश्वसत्ता के प्रति, उस ब्रह्म के प्रति, उस शक्ति के प्रति ग्रहणशील हो जाते हैं, तो वह आपको रूपांतरित कर देती है। तब आपको स्वयं को रूपांतरित करने की आवश्यकता नहीं। तब आप एक बहुत शक्तिशाली धारा द्वारा वहां लिए जाते हैं। ब्रह्म तो मौजूद है, परंतु आप ही प्रतिरोध करते हैं। आप ही उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। प्रत्येक इसी ब्रह्म से लड़ रहा है। प्रत्येक अपने आपको अधिक बुद्धिमान समझता है।
उसे ब्रह्म पर छोड़ दो। ब्रह्म को समर्पित कर दो, अथवा गुरु को समर्पित कर दो; इससे कोईफर्क नहीं पड़ता। वास्तविक चीज समर्पण है। किंतु यह पागलों का मार्ग है क्योंकि क्या होगा, पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। वह घटित हो, वह घटित नहीं भी हो। आप पहले कुछ नहीं जान सकते। आप एक अज्ञात, असीम सागर में उतर जाते हैं, और आप मालिक भी नहीं हैं। आपने तो समर्पण कर दिया। यह समर्पण आपका प्रतिरोध, आपका अहंकार तोड़ देता है। और जब समर्पण पूर्ण होता है, तोप्रकाश होता है, सजगता होती है, और होता है विकास। आप अचानक खिल जाते हैं।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि समर्पण की संभावना है, तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि यह आसान होगा-जैसे कि संकल्प का मार्ग बहुत कठिन होगा, और समर्पण का मार्ग आसान होगा, कुछ कुछ लिए समर्पण का मार्ग आसान है। यह आप पर निर्भर है; यह मार्ग पर निर्भर नहीं है। कोई भी मार्ग आसान नहीं है, कोई भी मार्ग कठिन नहीं है। यह तो आप पर निर्भर करता है। यदि मार्ग आपके माफिक है, तो वह सरल है।
हुई-हाई कुछ नहीं कर रहा था, इसलिए एक तरह से यह आसान था। परंतु आप जानते हैं कि उसने क्या किया? उसने पूर्णरूपेण समर्पण कर दिया। और वह एक क्षण में ही गया। परंतु क्या आप कर सकते हैं-इस तरह से बारह वर्षों तक प्रतीक्षा? अविश्वास और जाने कितनी ही बातें आ जाएंगे। कोई कहता-क्यों तुम अपना समय इस आदमी के साथ गंवा रहे हो? यह धूर्त है। इसने बहुतों को ठगा है। बहुत से आए और चले गए। तुम यहां क्या कर रहे हो?
हुई-हाई उनकी बात सुनना और कोईप्रतिक्रिया नहीं करता। और यहीं पर अंत नहीं था। गुरु भी कितनी ही ऐसी बातें करता, जो कि शंका उत्पन्न करने वाली थीं। अचानक हुई-हाई सोचने लगेगा-मैं यहां क्या कर रहा हूं? क्या हैं इस आदमी के पीछे पागल हो गया हूं? यह क्या कर रहा हूं? यदि यह बारह वर्षों बाद झूठा साबित हुआ तो मेरी जिंदगी तो बर्बाद हो गई। और यह आदमी, यह गुरु कितनी ही ऐसी स्थितियां निर्मित करेगा जो कि शंकाओं को जन्म देंगी। और मन काम करने लग जाएगा, परंतु हुई-हाई मन की नहीं सुनेगा। वह कहेगा-मैंने समर्पण कर दिया। मैंने समर्पण कर दिया और अब कोई पीछे लौटना नहीं है। यह इतना आसान नहीं है। कुछ भी सरल नहीं है, परंतु चीजें कठिन हो जाती हैं, यदि आप अलग चुनाव कर लेते हैं।
और आखिर में मैं यह कहना चाहूंगा कि यह बड़ा स्वाभाविक है कि हम गलत चुनाव कर लें। उसका कारण है, क्योंकि विपरीत सदैव आकर्षित करता है, यह स्वाभाविक है कि हम गलत को चून लें। सारा चुनाव बुनियादी रूप से काम संबंधी है, इसलिए एक आदमी स्त्री को चुनता है, एक स्त्री पुरुष को चुनती है, और यही बात हर एक आयाम में होती जाती है। यदि आप समर्पण के मार्ग के आदमी हैं, तो यादा संभावना है कि आप संकल्प का मार्ग चुन लें, संकल्प यादा आकर्षित करेगा, क्योंकि वह विपरीत है। यदि आप संकल्प के मार्ग के आदमी हैं तो समर्पण का मार्ग चुन सकते हैं, क्योंकि विपरीत यादा आकर्षक होता है। यह कितने ही तरीकों से होता है।
महावीर संकल्प के व्यक्ति हैं, परंतु उनके अनुयायी उनके प्रामाणिक अनुयायी समर्पण के आदमी होंगे, क्योंकि वे अपने से विपरीत को आकर्षित करेंगे। वे एक संकल्प के आदमी हैं; वे ऐसे लोगों को आकर्षित करेंगे जो कि समर्पण वाले होंगे। इसलिए यदि अनुयायी अपने आपसे विचारें, तो वे महावीर के मार्ग का अनुकरण करने लग जाएंगे। और यह एक गलत बात होगी, क्योंकि महावीर एक संकल्प के आदमी हैं, और उनका मार्ग एक संकल्प का मार्ग है। यदि वे वही करने लग जाएं, जो कुछ महावीर कर रहे हैं, तो वे गलत होंगे और अंततः विषाद को उपलब्ध होंगे। यदि वे महावीर पर ही सब कुछ छोड़ दें, तो महावीर हमेशा उनको समर्पण का मार्ग बतलाएंगे।
यही समस्या है। इसलिए जब गुरु मर जाता है, और लंबा समय बीत गया होता है तो अनुयायियों के लिए यह एक बड़ी ही उलझन का कारण बन जाता है-क्योंकि अब गुरु तो निर्णय कर नहीं सकता; निर्णय आपको करना पड़ता है। इस तरह कोई बुद्ध की ओर आकर्षित हो जाता है, और बुद्ध के मार्ग पर चलने लगता है और वह वही करने लगता है, जो बुद्ध करते थे। यह गलत होने वाली प्रक्रिया है। यदि बुद्ध से पूछा जाता, तो बुद्ध दूसरी ही बात बतलाते।
बुद्ध ने अंतिम, मरने के पहले, आनंद को कहे हुए शब्द थे-आनंद, स्वयं के दीपक बनो; मेरा अनुगमन मत करो। अप्प दीपो भव-स्वयं के दीपक बनो, मेरा अनुगमन मत करो। आनंद चालीस साल तक लगातार बुद्ध के पीछे चला। यह कोई थोड़ा समय नहीं था। अपनी सारी जिंदगी आनंद पूरी श्रद्धा से बुद्ध का अनुगमन करता रहा। और कोई नहीं कह सकता कि उसकी श्रद्धा में कुछ कमी रही होंगी, या उसकी शिक्षा में किसी भी तरह की कमी रही होगी। वह समग्र थी। लेकिन आनंद, जो कि सब से अधिक श्रद्धालु अनुयायी था, ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ और बुद्ध की मृत्यु निकट आ गई।
एक दिन बुद्ध ने कहा, अब, आज मैं इस शरीर को छोड़ रहा हूं। तो आनंद तो छाती पीट कर रोने लगा और कहने लगा कि अब मैं क्या करूंगा! चालीस वर्षों से हर बात में मैं आपका अनुगमन करता रहा हूं। यहां तक कि बुद्ध भी नहीं कह सकते थे कि तुमने ठीक से अनुगमन नहीं किया है। और इसलिए तुम नहीं पहुंच पाए। उसने अनुगमन किया था और वह बड़ा ईमानदार था, किंतु वह अभी तक अज्ञानी आदमी था। बुद्ध ने कहा-तब तक मैं नहीं मरता, आनंद, शायद तुम नहीं पहुंच पाओगे।
क्यों? आनंद ने पूछा। बुद्ध ने कहा-जब तक मैं नहीं मरता, तुम अपने पास वापस नहीं लौट सकते। तुम मेरे साथ बहुत यादा जुड़ गए हो, और मैं ही बाधा बन गया हूं। तुमने मेरा अनुगमन किया है, किंतु तुमने स्वयं कोबिल्कुल ही विस्मृत कर दिया है।
आप अंधे की तरह से एक गुरु का अनुकरण कर सकते हैं, परंतु फिर भी हो सकता है कि आप नहीं पहुंचे, यदि आप गुरु का अनुकरण अपनी मर्जी के अनुसार कर रहे हैं। इन शब्दों को याद रखें-अपनी मर्जी के अनुसार। तब आपने समर्पण नहीं किया। समर्पण का अर्थ होता है कि अब आप निर्णय करने के लिए नहीं हैं। अब तो गुरु ही निर्णय करता है। यदि गुरु भी न हो, तो ब्रह्म-ऊर्जा के प्रति समर्पण कर दो। तब ब्रह्म-ऊर्जा ही निर्णय करती है। जिस क्षण भी आप समर्पण कर देते हैं, आपका द्वार पूरा खुल जाता है, और कॉस्मिक एनर्जी-ब्रह्म ऊर्जा सब तरफ से आपके भीतर प्रवेश कर जाती है, और आपको रूपांतरित करती है।
इसको इस तरह से देखेंः मेरा घर अंधकार से भरा है। मैं दो काम कर सकता हूं। या तो अपने घर में प्रकाश पैदा करूं, तब मुझे ही वह पैदा करना पड़ेगा। अथवा मैं अपने द्वार-दरवाजे खोल दूं क्योंकि सूरज बाहर है ही। तो मैं तो सिर्फ अपने द्वार खोलता हूं; मेरा घर उस दिव्य अतिथि के लिए प्रस्तुत होता है, उस सूरज के लिए, उन किरणों के लिए। तब मैं ग्राहक बन जाता हूं और अंधकार विलीन हो जाता है।
संकल्प के मार्ग पर आपको स्वयं प्रकाश पैदा करना पड़ता है, समर्पण के मार्ग पर प्रकाश मौजूद ही है, आपको तो सिर्फ द्वार खुला रखना है। किंतु जब घर अंधकार से भरा हो, और सब जगह अंधेरा ही अंधेरा हो, तो द्वारा खोलने में कोई डर सकता है। बल्कि कोई यादा ही डरता है। कौन कहता है कि प्रकाश प्रवेश करेगा या चोर घूस जाएंगे! इसलिए आप ताला लगा देते हैं, आप सारी संभावना बंद कर देते हैं।
या तो स्वयं प्रकाश पैदा करें, तब अंधकार विलीन हो जाता है। अथवा ब्रह्म-प्रकाश का उपयोग करें। वह सदैव ही वहां है। अपने को खोलने की जरूरत है; खुले रहें। तब तैयार रहें जो कुछ भी हो उसके लिए। यही मतलब है समर्पण से कि तैयार रहें जो कुछ भी हो उसके लिए। यदि जोप्रकाश हो जाता है। ऐसी तैयारी के साथ कुछ भी अंधकारपूर्ण नहीं सकता। ऐसी तैयारी ही आपकी पूर्णतः रूपांतरित कर देती है।
दूसरा प्रश्नः भगवान, कल रात्रि आपने एक आदमी के बारे में कहा जिसने कि कृष्ण को स्वप्न में देखा था और जो सोचता था कि वह बहुत आगे बड़ा हुआ है, जबकि आने कहा कि उसने तो अभी पहला कदम भी नहीं उठाया है। तो कैसे कोई जाने कि कोई कहां तक पहुंचा? क्या ये दिव्य स्वप्न तथा दूसरी मनोगत घटनाएं, आध्यात्मिक प्रगति की ओर संकेत नहीं करती हैं? यदि नहीं, तो फिर कौन से ऐसे संकेत हैं?
दिव्य स्वप्न, कल्पनाएं, विजन्स हो सकते हैं और वे बड़ी हुई अवस्था के लिए संकेत कर सकते हैं। परंतु एक शर्त के साथ-कि जितना अधिक आप आगे बड़े हुए होंगे, उतना ही कम आपको लगेगा कि आप आगे बड़े हुए हैं। जितना अधिक आप ज्ञान की और गति करते हैं, उतना ही हम अहंकार होता है जो कि कहता है कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया। आध्यात्मिक प्रगति एक बहुत ही नम्र गति है।
इसलिए एक बातः विजन्स (दिव्य स्वप्न ऊंची स्थिति की और इशारा कर सकते हैं, लेकिन तभी जब कि आप यादा विनम्र अनुभव करें। यदि आपको ऐसा लगे कि आप जागे बड़ रहे हैं, तो वह दूसरी ही बात बतलाता है कि वे स्वप्न आध्यात्मिक नहीं हैं, बल्कि केवल आपके ही मन के प्रक्षेपण हैं। इसलिए यह निकष है, कसौटी है। यदि आपने सचमुच ही कृष्ण के दर्शन किए हैं, तो आप नहीं बचेंगे, यही वह प्रामाणिक है। यदि यह वास्तव में आत्मानुभव है, तो आप पूरी तरह मिटा दिए जाएंगे। आप कहेंगे कि कृष्ण ही है, और मैं नहीं हूं। किंतु यदि आप इस कल्पना के द्वारा मजबूत होते हैं, तो आप मिटे ही नहीं। इसके विपरीत आप तो और भी अधिक मजबूत हो गए और अब आप कहते हैं-मैं एक सिद्ध पुरुष हूं, एक आगे बड़ी हुई आत्मा हूं। मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। वह यह बतलाता है कि यह विजन, यह स्वप्न प्रामाणिक नहीं है, बल्कि अहंकार का ही प्रक्षेपण है।
अहंकार अपने ही प्रक्षेपणों से मजबूत हो जाता है। अन्यथा वह नष्ट हो जाता है। आध्यात्मिक व्हिजन अहंकार कोबिल्कुल ही नष्ट कर देता है। एक प्रक्षेपित अनुभव, आपको अपनी कल्पना, आपका अपना सपना आपको मजबूत करता है। वह अहंकार का भोजन बन जाता है, आपका अहंकार यादा जीवंत हो जाता है।
उपनिषद कहते हैं कि जो कहते हैं कि वे जानते हैं, वे नहीं जानते हैं। वे जो कि दावा करते हैं कि उन्होंने जान लिया है, वे उससे बहुत दूर हैं। इसलिए जब मैंने कहा कि एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा-मैं बहुत आगे बड़ा हुआ हूं; मैं तो सिद्ध हूं। मैंने यह देखा और वह देखा-जब उसने अपने व्हिजन्स का वर्णन किया, तो उसने ऐसे ही किया जैसे कि कोई अपने धन, या अपनी पड़ाई की डिग्रियां बता रहा है, जैसे कि कोई अपने डिप्लोमा के प्रमाणपत्र लिए हो। यह असंभव है। उसके दिव्य स्वप्न (व्हिजन्स) सब उसके अपने ही मन के द्वारा निर्मित किए हुए थे। यदि आपका मन ही स्वप्न निर्मित कर रहा हो, तो उससे आपका मन ही मजबूत होगा। यदि स्वप्न कहीं दूर से आ रहा हो, तो आपका मन नष्ट हो जाएगा। तो फिर आपके दिव्य-स्वप्न वैसे ही स्वप्न नहीं होंगे। परंतु प्रारंभ में आप स्वप्नों की इन भिन्नता को नहीं जान सकेंगे। आप निश्चित नहीं कर सकेंगे कि वास्तव में ही आपने कृष्ण को देखा था या वह सिर्फ आपका स्वप्न ही था। आप कोई भी अंतर नहीं निकाल पाएंगे, क्योंकि यदि आपने वास्तविक को देखा है, तो आपको स्वप्न दिखाई नहीं पड़ेगा, और यदि आपने सपना देखा है, तो आपको वास्तविक दिखाई नहीं पड़ेगा। इसलिए आप कैसे तुलना करेंगे? आप तुलना कर ही नहीं सकते।
परंतु एक बात अनिवार्य हैः आप यह जरूर बतलाएंगे कि आपने किस प्रकार की चीज देखी है। यदि यह स्वप्न आपके अहंकार को मजबूत करता है, तो फिर यह प्रक्षेपण ही होगा। यदि यह आपको पूरी तरह पोंछ डालता है, और आप बाकी बचते ही नहीं, तो यह प्रामाणिक व वास्तविक है। केवल यही एक कसौटी है।
इसलिए एक धार्मिक व्यक्ति, यदि वह और अधिक अहंकारी हो जाता है जैसे-जैसे वह अपनी धार्मिकता में बड़ता है, तो यह इस बात को बतलाता है कि वह गलत मार्ग पर है; वह कल्पना में जी रहा है। और यदि वह जितना आगे बड़ता है, उतना ही मिटता जाता है-अपने को कुछ नहीं महसूस करता है, यदि वह अपने को नहीं होने के समान अनुभव करता है और अंततः एक ना कुछ बिल्कुल शून्य ही हो जाता है, तो यह इस बात को बतलाता है कि वह आगे बड़ रहा है।
दिव्य-स्वप्न भी कुछ बतलाते हैं, लेकिन वे सदैव आपके ही संदर्भ में कुछ बतलाते हैं, न कि अपने बारे में। यदि आप पूछें कि कृष्ण का दिव्य-स्वप्न वास्तविक है या नहीं, तो मैं कुछ भी नहीं कह सकता। मैं पूछूंगा-वास्तविक किसके लिए? मीरा के लिए वह वास्तविक था; उसने उसे पूरी तरह मिटा दिया। वह मिट ही गई। कोई मुझसे पूछ रहा था, जब मीरा को विष दिया गया, तो विष ने उस पर अपना प्रभाव क्यों नहीं किया? मैंने उससे कहा कि क्योंकि वह थी ही नहीं।
विष को भी आखिर कोई चाहिए जिस पर कि वह असर कर सके! उसने सुकरात को मार डाला; सुकरात मीरा नहीं था। सुकरात एक दार्शनिक था, न कि संत; सुकरात एक विचारक था, न कि बुद्ध। सुकरात चिंतन करता था, मनन करता था, तर्क करता था। वह एक बड़ी भारी बुद्धि रखने वाला आदमी था, किंतु एक संबुद्ध व्यक्ति, ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति नहीं था। यदि वह बुद्ध से तर्क करे तो वह जीत जाएगा; बुद्ध हार जाएंगे। वह एक दुर्लभ प्रतिभाशाली व्यक्ति था-ए रेयर जीनियस। इसलिए जब भी आप सुकरात के बारे में बुद्धिगत रूपेण सोचेंगे, तो उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। परंतु अस्तित्वगत रूप से वह बुद्ध के सामने कुछ भी नहीं था। एक बुद्ध उसके तर्कों पर हंसेंगे, और एक बुद्ध कहेंगे, तुम गोल-गोल घूमते ही जाओगे, परंतु तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। और जो कुछ भी बात तुम कर रहे हो, वह सिर्फ कोरी बात है। तुम तर्क करते हो, तुम एक तार्किक व्यक्ति हो, और तुम मुझसे अच्छा तर्क करते हो। बुद्ध कहेंगे- किंतु तुम अपना जीवन फिजूल तर्क में गंवा रहे हो।
सुकरात कोई अपने अहंकार से पार गया हुआ व्यक्ति नहीं है वह एक दुर्लभ व्यक्ति है, एक बहुत ही दुर्लभ, पैनी बुद्धि रखने वाला। यदि वह अहंकार के बारे में बात करे, तो उसकी समझ बुद्धिगत ही होगी। वह कोई अस्तित्वगत अनुभव वाला आदमी नहीं है। इसलिए सुकरात के कारण, सारा पश्चिम बुद्धि के शिखर पर आ गया है। तीन आदमियों के कारण यह बौद्धिक क्रांति संभव हो सकी हैः सुकरात, प्लेटो, व अरस्तू। मल स्रोत सुकरात है। सुकरात प्लेटो का गुरु था और प्लेटो अरस्तू का गुरु था। इन तीनों ने पूरे पश्चिमी मस्तिष्क का निर्माण किया है। सारा विज्ञान, तर्क, दर्शनशास्त्र(पश्चिम का) इन तीनों आदमियों की ही देन है। ये ही उसके सर्जक हैं।
बुद्ध एक दूसरे ही आयाम के व्यक्ति हैं। सुकरात बुद्धि के जगत में महान है, परंतु बुद्ध सिर्फ उस पर हंस सकते हैं। वे उससे कहते-तुम बच्चों के बीच में महान हो। तुम बुद्धि के शिखर पर पहुंच गए हो, परंतु यह बुद्धि ही तो बाधा है। तुमने बुद्धि के क्षेत्र में उस अंतिम को छू लिया है, किंतु बुद्धि कहीं भी तो नहीं ले जाती।
सुकरात भिन्न आदमी है; मीरा बिल्कुल ही भिन्न है। मीरा एक समर्पित आत्मा है-पूर्णतया समर्पित, पूरी तरह मिटी हुई। जब उसे विष दिया जाता है, तो वह उस विष को नहीं पी रही है, स्वयं कृष्ण उस विष को पी रहे हैं और विष भी कृष्ण ही है अब कोई भेद नहीं है, कोई अंतर नहीं है तीनों में। और यदि इतना भरोसा हो, तो विष बेकार हो जाएगा। यह चमत्कार लगता है, किंतु इस में कुछ भी चमत्कार नहींः सम्मोहन में, यदि कोई गहरे सम्मोहन में गया हुआ व्यक्ति हो और यदि आप उसको विष दे दें और कहें कि यह विष नहीं है, तो उस पर असर नहीं करेगा। क्या होगा है? यदि आप उस साधारण पानी भी दें और कहें कि यह जहर है, तो वह मर जाएगा। यह समग्र स्वीकृति है। सम्मोहन में यह भी हो सकता है।
सन उन्नीस सौ बावन में अमेरिका को एक कानून बनाना पड़ा। एण्टी-हिप्नोसिस लॉ-सम्मोहन के विरुद्ध कानून। अब आप अमेरिका में किसी को सम्मोहित नहीं कर सकते। यह गैरकानूनी है, क्योंकि एक विश्वविद्यालय में एक विद्यार्थी की मृत्यु हो गई। उसे चार दूसरे विद्यार्थी सम्मोहित कर रहे थे। वे सब मनोविज्ञान के विद्यार्थी थे, अतः सम्मोहन पर कुछ पुस्तकें उनके हाथ पड़ गई। उन्होंने खेल के रूप में उसे आजमाना चाहा। उन्होंने एक लड़के को सम्मोहित किया और उसे उन्होंने कितने ही सुझाव दिए और वह उनको मानता चला गया। उन्होंने कहा-रोओ। तुम्हारी मां मर गई। और वह रोने लगा। उन्होंने कहा कि-हंसो और नाचो। तुम्हारी मां वापस जिंदा हो गई। और वह हंसने और नाचने लगा। और तब एक लड़का बोला, बिना किसी उद्देश्य के-तुम मर गए हो। और वह लड़का गिर कर मर गया। तब उन्होंने उससे हर संभव तरीके से कहा कि-अब उठ जाओ। अब तुम जिंदा हो। परंतु तब कोई सुनने वाला उपस्थित नहीं था। वह पहले ही मर चुका था।
यह समग्र स्वीकृति है। और इसके कारण ही सरकार को सम्मोहन के विरुद्ध कानून बनाना पड़ा। केवल मनोवैज्ञानिक, मनोविशेषज्ञ आदि ही जो कि मनश्चिकित्सा करते हैं, या कोई जो कि शोधकार्य कर रहें हों, केवल ये ही लोग सम्मोहन के प्रयोग कर सकते हैं।
यदि सम्मोहन में भी यह घटित हो सकता है, तो मीरा के साथ क्यों नहीं? मीरा ने अपना चेतन मन समर्पित कर दिया है-वही जो कि सम्मोहन में समर्पित कर दिया जाता है। उसने पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया है। अब वह है ही हनीं, केवल कृष्ण ही हैं। यदि जरा भी संदेह बाकी नहीं है, तो जब वह जहर पी रही है और उसके हाथ नहीं कंपेंगे। यदि वह यह नहीं सोच रही है कि यह विष है, और मैं मर जाऊंगी, तो वह नहीं मरेगी। वह उसे अपने प्रियतम के उपहार ही है। प्रत्येक चीज उसी की तरह से है, इसलिए वह उसे भेंट की तरह ही लेती है। वह उसे पी जाती है, सुखद अनुभव करती है, और नाचने लगती है। विष विलीन हो जाता है। विष को भी काम करने के लिए आपका मन चाहिए। यदि कोई मन नहीं है, तो फिर बहुत कठिन है उसका कोई भी प्रभाव होना।
मीरा बच सकती है; सुकरात नहीं बच सकता। वह एक तार्किक आदमी था। वह जानता था कि विष उसे मार डालेगा। मीरा अतार्किक है-पूर्णतः अतार्किक। मैं तुम्हें सुकरात की मृत्यु के समय की वृत्तांत बतलाता हूंः जहर बाहर तैयार किया जा रहा है। सुकरात अपने बिस्तर पर लेटा है, और उसके शिष्य वहां उपस्थित हैं। वह एक शिष्य से कहता है-अब मेरा समय हो गया है। छह बजे जहर दिया जाना चाहिए। वह पूरा गणित का आदमी है, इसलिए वह कहता है-ऐसा लगता है कि उन्होंने विष अभी भी तैयार नहीं किया है। जाओ और पता लगाओ कि इतनी देर क्यों लगा रहे हैं! समय हो गया है, और मैं तैयार हूं।
तब विष लाया जाता है। वह उसे पी लेता है। तब यह कहता है-मेरे पांव शिथिल हो रहे हैं, लगता है कि विष काम करने लग गया है। अब जहां ऊपर आ रहा है। वह कहता जाता है। वह एक तीक्ष्ण बुद्धि वाला व्यक्ति है। मृत्यु में भी प्रयोग कर रहा है। वह एक वैज्ञानिक चिंतक है। वह कहता है-अब विष ऊपर चड़ रहा है, अब मेरा आधार शरीर मर चुका है। वह एक दुर्लभ व्यक्ति है। वह साधारण आदमी नहीं है। शिष्य लोग रो रहे हैं। वह कहता है-रुको। तुम लोग तो बाद में भी रो सकते हो। इस घटना को देखो, इस बड़ते हुए विष को देखो। जल्दी ही, मुझे लगता है कि मेरा हृदय रुक जाएगा। और मुझे देखना है कि जब मेरा हृदय रुक जाएगा। और मुझे देखना है कि जब मोर हृदय रुक जाएगा, और मुझे देखना है कि जब मेरा हृदय रुक जाएगा, क्या तब भी मस्तिष्क काम करता रहेगा! अतः अब वह निर्णय हो जाएगा कि हृदय मुखय केंद्र है या मस्तिष्क।
वह एक बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का आदमी है और वह बड़ी बारीकी से निरीक्षण करता है और उसका वर्णन करता जाता है। जब उसके हृदय पर भी असर होता है, तो वह कहता है-मुझे अनुभव हो रहा है कि हृदय डूब रहा है, नीचे की ओर जा रहा है। जल्दी ही मुझे लगता है कि मुझे अनुभव तो होगा, लेकिन मैं कुछ भी वर्णन नहीं कर सकूंगा, क्योंकि मेरी जिढ्ा शिथिल हो रही है-मर रही है। मित्रो, अब अनुभव तो मैं करूंगा, परंतु उस अनुभव को मैं बता नहीं सकूंगा। वह अवर्णनीय होगा, क्योंकि मेरी जिढ्ा मृत हो रही है।
आखिर तक उसकी आंखें कुछ कह रही थीं, कुछ वर्णन कर रही थीं। अंतिम क्षण में, कोई उससे पूछता है-सुकरात, क्या तुम्हें मृत्यु से डर नहीं लगता? वह यह नहीं कहता, मैं भयभीत नहीं हूं, क्योंकि मैं मगर हूं?-नहीं! वह यह नहीं कहता, मैं डरा हुआ नहीं हूं, क्योंकि मैं परमात्मा से मिलने जा रहा हूं।-नहीं! वह किसी परमात्मा को नहीं जानता और उसका मन किसी परमात्म में विश्वास नहीं करता।
वह कहता है कि मैं दो कारणों से डरा हुआ नहीं हूं। यह एक तार्किक बुद्धि है। वह कहता-दो कारणों से मैं डरा हुआ नहीं हूं। एक, या तो सुकरात पूरी तरह ही मर जाएगा, तब कोई भी डरने के लिए नहीं बचेगा। अथवा सुकरात बिल्कुल मरने वाला नहीं है और आत्मा जिंदा रहेगी, फिर क्यों डरना? ये दो कारण हैं जिनकी वजह से कि मैं भयभीत नहीं हूं। या तो मैं मर जाऊंगा सचमुच में ही, जैसा कि नास्तिक कहते हैं। भौतिकवादी कहते हैं। कि कोई आत्मा नहीं है। वे सही हो सकते हैं। यदि वे सही हैं तो फिर डरना क्यों? मैं पूरी तरह ही मर जाऊंगा। और कोई भी पीछे नहीं बचेगा, जो कि मृत्यु का दुःख सहे। कोई भी नहीं बचेगा जो कि किसी भी चीज से डरे। सुकरात बचेगा नहीं, फिर कैसा डरना। यदि केवल मेरा शरीर ही मरने वाला है, और मैं बचूंगा, तो फिर, डर में अपना समय क्यों गवाऊं? मुझे जाकर देखने दो।
परंतु वह जो कुछ हो रहा है, उसके अनुभव में नहीं जो रहा है। वह पूर्णतः तार्किक बुद्धि वाला व्यक्ति है। उसकी निर्भयता बुद्ध का या महावीर का या मीरा का अभय नहीं है और न ही चार्वाक (भारतीय भौतिकवादी) का ही। उसकी निर्भयता चार्वाक का अभय भी नहीं है क्योंकि चार्वाक कहता था-वह निश्चित तथ्य है कि मैं कर ही जाऊंगा, पूरी तरह, इसलिए मैं डरा हुआ नहीं हूं। यह निर्णीत निष्कर्ष है। एक महावीर जानते हैं कि मैं मरने वाला नहीं हूं इसलिए डरने का कोईप्रश्न नहीं। लेकिन वह भी एक निर्णय है-एक निर्णय की बात महावीर जानते हैं।
सुकरात दोनों से भिन्न है। वह कहता है कि या तो चार्वाक ठीक है या फिर महावीर सही हैं। किंतु चाहे एक सही हो चाहे दूसरों सही हो, दोनों ही मामलों में डरना अर्थहीन लगता है। इसलिए वह एक बिल्कुल भिन्न ही दिमाग है, और उसी ने पश्चिमी चिंतन का जो एक विशेष ढंग है, उसे निर्मित किया है। वह धार्मिक आदमी नहीं था। वह आखिरी तह तक वैज्ञानिक था-साइंटिस्ट डाउन टू दि अर्थ।
बंबई, रात्रि, दिनांक 6 दिनांक, 1972

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