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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-19)

आत्म-पूजा उपनिषद-भाग-2

प्रवचन-पहला

दसवाँ सूत्र

चिदग्नि स्वरूपं धूमः

स्वयं के भीतर चौतन्य की अग्नि कौ जलाना ही धूप है1

दर्शनशास्त्र के लिए बहुत-सी समस्याएँ हैं-अंत्तहीन। किन्तु घर्म के लिए सिर्फ एक ही समस्या है और वह समस्या है-स्वयं आदमी। ऐसा नहीं है किआदमी की समस्याएँ हैं, परन्तु आदमी स्वयं हो एक समस्या है। तब प्रश्न उठताहै कि आदमी समस्या क्यों है?
पशु समस्याएँ नहीं हैं। वे इतने मूच्छित्त हैं, आनन्दपूर्वक बेहोश हैं, अचेत हैं कि उनके लिए समस्याओं के प्रति सजग होने की कोई संभावना ही नहीं है। समस्याएँ तो हैं, किन्तु पशुओ को उसका कोई भी पता नहीं। देवताओं के लिए भी कोई समस्याएँ नहीं हैं क्योंकि वे पूर्णरूप से सजग हैं। जब मन पूर्णरूप सेजाग जाता है, तब समस्याएँ ऐसे ही विलीन हो जाती हैं जैसे कि प्रकाश होने पर अन्धकार। लेकिन आदमी के लिए पीड़ा है। आदमी का होना ही, उसका अस्तित्वही एक समस्या है, क्योंकि आदमी इन दो के बीच जीता है, वह पशु भी हैऔर देवता भी।

मनुष्य का होना एक सेतु है, इन अनंतताओँ के बीच अज्ञान की अनंत्तत्ताऔर ज्ञान की अनंतता ५ मनुष्य न तो पशु है और न दिव्य हुआ है। अथवा, कहेंकि मनुष्य दोनों है, पशु भी और दिव्य भी, और वही समस्या है। मनुष्य अधरमें लटकता हुआ अस्तित्व है कुछ अशुद्ध, जो कि अभी फूं। होने को हैय होनेकी प्रकिया में है अमी हुआ नहीं है।
पशु एक अस्तित्व है। मनुष्य ही रहा है। वह है नहीं, वह केवल हो रहा है। मनुष्य एक प्रक्रिया है होने की। और वह प्रक्रिया अमी अधूरी है। उसने अज्ञानका जगत तो छोड़दिया है, किन्तु अभी ज्ञान के संसार तक नहीं पहुँचा है। आदमी दोनों के मध्य में है। वही सारी समस्या, सारे संताप, सारे तनाव और निरंतर द्वंद्वकौ निर्मित करता है।
केवल दो ही मार्ग हैं शान्ति उपलब्ध करने के, समस्याओं के पार जाने के। एक तोवापस गिर जाएं, पीछे लौट जाएँ पशुओं के जगत मेंः और दूसरा है पारचले जाएँ, अतिक्रमण कर जाएँ और दिव्यता के हिस्से हो जाएँ। या तो पशु होजाएँ या देवता हो जाएँ ये ही दो विकल्प हैं।
पीछे लौट जाना सरल है परन्तु वह स्थायी नहीं हो सकता1 क्योंकि एकबार यदि आप विकसित हो गये तो स्थायीरूप से आप पीछे नहीं लौट सकतेआप क्षण भर के लिए पीछे गिर सकते हैं; पर फिर आप आगे को ओर धकेलदिये जायेंगे क्योंकि वस्तुतःपीछे लौटने का रास्ता है ही नहीं। वास्तव में पीछेलौटने की संभावना ही नहीं है। आप फिर से बच्चे नहीं हो सकते यदि आपयुवा हो चुके हैं। ओर यदि आप वृद्ध हो गये हैं तो आप पुनः युवा नहीं होसकते। यदि आप कुछ जानते हैं तो आप फिर से उसी अवस्था को नहीं पहुँचसकते जहां आपको कुछ भी पता नहीं था। आप वापस नहीं लौट सकते परन्तुआप कुछ समय के लिए वर्तमान भूल सकते हैं और अपनी स्मृति, अपने मनमें ही अतीत को पुनः जी सकते हैं
आदमी पशुत्व के तल पर गिर सकता है। वह आनंदपूर्ण होगा, किन्तु अस्थायीयही कारण है कि नशीले पदार्थ, शराब आदि का इतना आकर्षण है। जब आपकिसी मादक द्रव्य के कारण बेहोशा हो जाते हैं तो थोडी देर के लिए आप पीछे गिर जाते हैं। थीड़े समय के लिए आप आदमी नहीं रह जाते, आप एक समंस्या नहीं होते। आप फिर से पशुओं के जगत के हिस्से हो गये, अचेतन अस्तित्व के हिस्से हो गये। तब आप आदमी नहीं हैं। इसलिए फिर वहां कोई समस्याभी नहीं हैं।
मनुष्यतासदा से कुछ-न-कुछ खोज़करती रही है-सोमरस से लेकर एल.एस.डी. तक ताकि वह भूल सके, पीछे लौट सके, बच्चों जैसा हो सके, पशुओं की निर्दोषिताको फिर से पा सके, बिना समस्या के हो सके, यानी बिना मनुष्यता के हो सके, क्योंकि-मनुष्यता का मेरे लिए अर्थ होता है एक समस्या। यह पीछे लोट जाना, यह गिर जाना संभव है लेकिन केवल अस्यायी रूप् से। तुम फिर लौट आओगे, तुम फिर से आदमी हो जाओगे और वहीसमस्याएँ तुम्हारे सामने खडी हुई होंगी, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होंगी। बल्कि पहले से भी ज्यादा गहरी होंगी। तुम्हारीअनुपस्थिति से ये विलीन होने वाली नहीं, वरन वे और भी जटिल हो जायेंगीऔर तब एक दुष्ट-चक्र का निर्माण होगा
जब तुम लौटकर आओगे और जागोगे तो तुम पाओगे कि तुम्हारी गैरहाजिरीके कारण समस्याएँ और भी अधिक जटिल हो गई। वे बढ़गईं और तब तुम्हेंबार-बार स्वयं को विस्मृत करना पडे़गा और जितनी बार तुम भूलोगे और पीछेपिरोने, तुंम्हारी समस्याएं बढ़ती जायेंगी। तुम्हें अपनी मनुष्यता का बार-बार सामनाकरना पड़ेगा। कोई इस तरह बच नहीं सकता। कोई चाहे तो स्वयं को धोखादे सकता है, किन्तु इस तरह बच नहीं सकता।
दूसरा विकल्प अति कठिन है-विकसित होना; अपने चैतन्य को, बीइंग कोपा लेना। जब मैं कहता हूँ पीछे लौटना तो मेरा मतलब है बेहोशा होना; जो थोडीबहुत सजगता भी है उसे थी खो देना। जब मैं कहता हूँ होना-बीइंग तो मैरामलतब है बेहोशी को छोड़समग्र-सजगता को, पूर्ण चैतन्य को उपलब्ध होना।
जैसे हम हैं, हमारा केवल एक ही हिस्सा चेतन है। हमारे अस्तित्व का छोटा-सा द्वीप चेतन है, और पूरा प्रायःद्वीप, पूरी मुख्यभूमि अचेतन है। जब यह छोटा-सा हिस्सा भी मूच्छित हो जाता है तो तुम पीछे लौट गये, तुम पीछे गिर गयेयह अज्ञान क्री अवस्था आनन्दपूर्ण है क्योंकि अब तुम समस्याओँ से दूर हट गयेसमस्याएँ तो वहाँ अभी भी मौजूद हैं किन्तु तुम अब उनके प्रति सजग नहीं हो। इसलिए तुम्हारे लिए तुम्हें ऐसा लगता है कि जैसे वे समस्याएं नहीं हैं। यह शुतुरमुर्गकी विधि है, अपनी आँखें बंद कर लो ओर तुम्हारा शत्रु दिखाई नहीँ पड़ता क्योंकि-अब तुम उसे नहीं देख सकते--... यही बचकानी बुद्धि का तर्क कहता है कि जबतुम किसी वस्तु को नहीं देख सकते तो वह नहीं है। जब तक कि कोई चीज़तुम्हें दिखलाई नहींपड़ती वह नहीं है। इसलिए यदि तुम्हें समस्याएँ महसूस नहीं होतीं तो वे नहीं हैं।
जब मैं कहता हूँ ‘‘स्वयं का होना’’, मनुष्यता का अतिक्रमण कर जाता, दिव्यता को उपलब्ध हो जाना तो मेरा मतलब है पूर्ण चेतन हो जाना-एक द्वीपनहीं होना, बल्कि पूरा प्रायःद्वीप हो जाना। यह पूर्ण चेतनता भी तुम्हें सब समस्याओंके पार ले जायेगी क्योंकि समस्याएँ वस्तुतः हैं ही तुम्हारे कारण। समस्याएँ वस्तुगतसत्य नहीं हैं; वे विषयगत घटनाएँ हैं। तुम ही तुम्हारी समस्याओं के निर्माता हीतुम एक समस्या को सुलझाते हो और उसे सुलझाने में दूसरो बहुत-सी समस्याओंको पैदा कर देते हो क्योंकि तुम तो वही हो। समस्याएँ वस्तुगत नहीं हैं। वे तुम्हारेही हिस्से हैं। तुम ऐसे हो इसलिए तुम ऐसी समस्याएँ उत्पन्न करते हो।
बिज्ञान समस्याओ को वस्तु की तरह सुलझाने का प्रयत्न करता है। औरविज्ञान सोचता है कि यदि समस्याएँ नहीं होंगी तो मनुष्य सुखी हो सकेगा। समस्याएँवस्तु की तरह सुलझाई जा सकती हैं, परन्तु मनुष्य सुखी नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यस्वयं एक समस्या है1 यदि वह एक समस्या का सामाधान खोजता है तो वह दूसरीपैदा कर देता है। वही उनका स्त्रष्टा है। यदि तुम एक इससे अच्छे समाज कानिर्माण कर लो तो समस्याएँ बदल जायेंगी किन्तु समस्याएँ तो रहेंगी। यदि अच्छास्वास्थ्य, अच्छी दवा प्रदान कर दो, तो समस्याएँ बदल जायेंगी, किन्तु समस्यायेंतो रहेंगी।
समस्याओँ का अनुपात सदा उतना ही रहेगा जितना पहले था क्योंकि आदमीवही का वही है; केवल परिस्थिति बदल देते है। आप परिस्थिति बदल देते हैं; पुरानी समस्याएँ नहीं होंगी, किन्तु तब नई समस्याएँ होंगी। और नई समस्याएँ औरभी जटिल होंगी बजाय पुरानी समस्याओँ के। क्योंकि तुम पुरानी समस्याओं सेपरिचित हो चुके हो। नईं समस्याओँ के साथ तुम्हें और भी अधिक तकलीफ होगी। इसलिए यद्यपि हमारे समय में हमने सारी परिस्थिति बदल डाली है, परन्तु समस्याएँतो है-और भी अधिक घातक, और थी अधिक चिन्ताजनक।
विज्ञान और धर्म में यही भेद है। विज्ञान सोचता है कि समस्याएँ वस्तुगतहै, कहींबाहर हैं, तुम्हें रूपान्तरित किये बिना उन्हें बदला जा सकता है। धर्मसोचता है कि समस्याएँ यहीँ कहीं भीतर ही मौजूद हैं, मुझ में ही... बल्कि मैंही एक समस्या हूँ। जब तक मैं नहीं बदलता, कुछ भी भेद पड़ने वाला नहीं। रूप बदल सकता है, नाम दूसरा हो सकता है, किन्तु मुख्य वस्तु तो वही रहेगी। मैं समस्याओ का दूसरा संसार खड़ाकर दूंगा, मैं नई-नई समस्याओं को उत्पन्तकर दूँगा।
यह आदमी जो कि स्वयं के प्रति ही मूंच्छित है, जिसे स्वयं का कोई भीफ्ता नहीं है, यही सारी समस्याओँ का स्रष्टा है। वह कौन है, वया है इन सबसेअनभिज्ञ, स्वयं से अपरिचित रहकर वह समस्याओँ को सृजन करता चला जाताहै। क्योंकि जब तक तुम स्वयं को ही नहीं जानते तुम यह नहीं जान सकते कितुम क्यों हो और किसलिए जी रहे ही; तुम नहीं जान सकते कि तुम्हें कहाँ जानाहै, तुम अनुभव नहींकर सकते कि तुम्हारी नियति क्या है। और तब हर बाततुम्हें विषाद की और धकेलती जायेगी। क्योंकि यदि तुम कुछ भी करो बिना यहजाने कि तुम क्यों हो और तुम क्या हो तो तुम्हें वह कभी भी गहरी तृप्ति नहीं दे पायेगी। यह असंगत है। मुख्य बिन्दु ही खो गया, तुम्हारा प्रयत्न विफल हो गया। और अन्ततः प्रत्येक व्यक्ति विषाद को उपंलब्ध होता है। क्योंकि जो सफलनहीं होते उन्हें अभी भी सफलता की आशा होती है, लेकिन जो सफल हो जाते हैं वे अब आशा भी नहीं कर सकते। उनकी दशा बडी निराशाजनक हो जाती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सफलता से बडी विफलता खोजनी मुश्किल है।
धर्म विषयगत विचार करता है, विज्ञान वस्तुगत सोचता है। वह कहता हैकि परिस्थिति कोबदल दो, आदमी को स्पर्श न करो। धर्म कहता है कि आदमीको रूपान्तरित करो, परिस्थिति असंगत है। कोईभी परिस्थिति क्यों न हो एकभिन्न मन, एक रूपान्तरित व्यक्ति सब समस्याओं के पार होगा। इसीलिए एकबुद्ध भिखारी होकर भी पूर्ण शान्ति में जी सके, और एक मिडास भारी परेशानीसे घिरा है जबकि उसके पास चमत्कारी शक्ति है। वह जो भी छूता है, सोना हो जाता है। मिडास की परिस्थिति स्वर्णिम हो गई है। उसके स्पर्श करते-ही वस्तु सोना हो जाती है। किन्तु इससे कुछ भी हल नहीं होता, बल्कि मिडास और भीअधिक जटिल समस्यापूर्ण परिस्थिति में पड़ गया।
आंज हमारे जगत ने विज्ञान की मदद से एक मिडास की परिस्थिति उपस्थित कर दी है। अब हम कुछ भी छुए और वह सोने का हो जाता है। एक बुद्धभिखारी की तरह रहते हुए भी इतनी शान्ति और नीरवता मेँ जीते हैं कि सम्राटों को भी ईंष्यों होती है। वया है रहस्य? मनुष्य का अन्तरतम अधिक महत्त्वपूर्ण है, बाह्य परिस्थिति नहीं। इसलिए तुम्हें मनुष्य की आंतरिक अवस्था बदलनी होगी। और बदलाहट केवल एक हैः यदि तुम अपनी सजगता में बढ़ सकों तो तुम बदलते हो, तुम रूपान्तरित होते हो। यदि तुम अपनी सजगता में पीछे गिरे, तब भी तुमबदलते हो, रूपान्तरित होते हो परन्तु जब तुम्हारी चेतना कम हो जाती है तो तुमपशुतल पर गिर जाते हो। यदि तुम्हारी चेतना बढ़ जाती है तो तुम देवताओं कीओर बढ़ जाते हो।
धर्म के लिए यही एक मात्र कठिनाई है-कि अपनी सजगता को केसे बढाएँइसलिए धर्म सदैव से ही मादक पदार्थों के विरुद्ध रहा है। उसका कारण नैतिकनहीं है, और तथाकथित नैतिक लोगों ने सारी ज्ञात को ही एक बड़ा गलत रंगदे दिया। धर्मं के लिए यह कोई नैतिकता का प्रश्न नहीं है कि कोई शराब पीता है। यह कोई नैतिकता का सवाल नहीं है क्योंकि नैतिकत्ता का प्रारम्भ ही तबहोता है जब कि मैं किसी और से संबंधित होता हूँ। यदि मैं शराब पीता हूँ औरबेहोश हो जाता हूँ तो इसका किसी से कुछ लेना-देना नहीं। मैं जो कुछ कररहा हूँ स्वयं के साथ कर रहा हूँ।
हिंसा नैतिकता के लिए एक प्रश्न है, न कि शराब। यहाँ तक कि यदि मैंआपको किसी विशेष समय पर मिलने को समय दूँ और नहीँ मिलूँतो वह अनैतिकताकी बात हुई क्योंकि कोई और संबंधित है। शराब नैतिकता का एक प्रश्न हो सकताहै यदि उसमें दूसरा भी संलग्न हो, अन्यथा वह नैतिक सवाल बिल्कुल नहींयह तुम अपने साथ करते हो। धर्म के लिए यह कोई नैतिक सवाल नहीं हैधर्म के लिए यह और भी गहरा सवाल है। यह चेतना को कम करने और बढानेका सवाल है।
एक बार तुम्हारी आदत पीछे गिर कर अचेतन होने कोपड़ जाती है, तोतुम्हारी चेतना कोबढाना और भी कठिन हो जाता है। यह और भी मुश्किल होजाएगा क्योंकि तुम्हारा शरीर बढ़ती हुई सजगता में साथ नहीं देगा। वह तुम्हारीघटती हूई सजगता में साथ देगा। तुम्हारे शरीर की संरचनां तुम्हें अचेतन होने मेंसहायता देगी। वह तुम्हें सजग होने में सहायक नहीं होगी। और कोई भी चीजजो अघिक सजग होने में बाधा बनती हो वह धार्मिक समस्या है। वह कोई नैतिकसमस्या नहीं है।
इसलिए कभी-कभी एक शराबी अधिक नैतिक व्यक्ति हो सकता है बजायउसके जो कि शराब नहींपीता, किन्तु वह अधिक धार्मिक कभी भी नहींहोसकता। एक शराब पीने वाला व्यक्ति ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण हो सकता है बजायराराब नहीं पीने वाले व्यक्ति के। वह ज्यादा प्रेम-पूर्ण, ज्यादा ईमानदार हो सकताहै लेकिन ज्यादा धार्मिक कभी भी नहीं हो सकता। और जब मैं कहता हूँ घार्मिकतो मेरा मतलब होता है कि वह कभी भी अधिक सज़ग, अधिक सचेतन व्यक्तिनहीं हो सकता। सजगता-में विकसित होना संताप पैदा करता है।
आदम ओर ईव की बाइबिल की पुरानी कहानी को समझना अच्छा होगाउन्हें स्वर्ग से निकाल दिया गया था, उन्हें ईडन के बाग से निष्कासित कर दिया गया था। यह एक बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक कहानी है। परमात्मा ने उन्हें सिर्फएक फल को छोड़सारे फल खाने के लिए इजाजत दे दी थी। केवल एक वृक्षको नहीं छूना था और वह वृक्ष ज्ञान का वृक्ष था। यह बडी अजीब बात है किईश्वर अपने बच्चों को ज्ञान का फल खाने के लिए मना करे। यह बड़ा विरोधाभासी लगता है। यह कैसा ईश्वर है? और यह केसा पिता है जो कि अपने ही बच्चोंके और अधिक बुद्धिमान व ज्ञानी होने के खिलाफ है। परमात्मा क्यों ज्ञान के लिए निषेध कर रहा है? हम तो ज्ञान को बहुत मूल्य देते हैं। परंतु उन्हें मनाकर दिया गया।
आदम व ईव पशु जगत में विचरण कर रहे थे। वे आनंद में थे, किन्तुउन्हें इसका कोई पता नहीं था। बच्चे बडे़ आनंद में होते हैं किन्तु वे भी अनभिज्ञहोते हैं। और यदि बच्चों को विकसित होना हो तो उनके ज्ञान की वृद्धि होनीचाहिए। दूसरा कोई विकास का मार्ग नहीं है। यदि आप अज्ञानी हैं तो आप आनन्दपूर्णहो सकते हैं, परंन्तु आप अपने आनंद के प्रति सजग नहीं हो सकते
इसे समझ लेना चाहिएः तुम आनंदित हो सकते हो यदि तुम अज्ञान में हो, किन्तु तुम्हें अपने आनंद का कोई पता नहीं होगा। जैसे ही तुम्हें अपने आनन्दका अनुभव होना प्रारंभ होगा, तुम अज्ञान से बाहर होने लगो। ज्ञान ने प्रवेश किया, तुम एक जानने वाले बने। अतः आदम और ईव बिल्कुल पशुओं की भांति रहतेथे-समग्र-रूपेण अज्ञानी तथा, आनंदपूर्ण किन्तु यह स्मरण रखें कि इस आनन्दका उन्हें कोई पता नहीं था। वे केवल आनन्दमग्न थे बिना उसे जाने।
कहानी कहती है कि शैतान ने ईव को फल खाने के लिए ललचाया औरउसका कारया यह था कि उसने ईव से कहा कि यदि तुमने यह फल खा लियातो तुम देवताओँ के समान हो जाओगी। यह बहुत अर्थपूर्ण बात है। जब तकतुम ज्ञान का यह फल नहीं खाते हो तुम देवताओं के जैसे कभी भी नहीं होसकते। तुम पशु ही रहोगे। और इसीलिए परमात्मा ने उन्हें मना कर दिया था, निषेध कर दिया था कि उस वृक्ष को न छूएं, परन्तु फिर भी वे उसकी ओर आकर्षितहुए बिना नहीं रह सके।
यह शब्द ‘डेविल’ (शैतान) बड़ा सुन्दर है और विशेषज्ञः भारतीयों के लिएइसका ईसाइयों से भिन्न ही महत्त्व है क्योंकि ‘डेविल’ भी उसी शब्द से, उसीस्रोत से आया है जिससे कि ‘देव’ या ‘देवता’ बना है। दोनों उसी स्रोत से आयेहैं इसलिए ऐसा लगता है कि ईसाई कहानी ठीक बातन कह सकी, कहीं अधूरीरह गई। एक बात ज्ञात है कि ‘डेविल’ स्वयं भी एक विद्रोही देवता था-एकविद्रोही देवदूत जिसने ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था। परन्तु वह स्वयं भीदेवता था।
में यह क्यों कह रहा दूँ? क्योंकि मेरे लिए इस संसार में शैतान और देवताजैसी दोशक्तियाँ नहीं हैं। यह द्वैत झूठा है। केवल एक ही शक्ति है। और द्वैतदो दुश्मनों की तरह नहीं है बल्कि दोदुश्मनोंकी तरह काम कर रहा है क्योंकिजब तक शवित्त दोध्रवों की तरह काम न करेगी तब तक वह काम ही नहींकर सकती।
इसलिए मेरे लिए यह कहानी एक नया ही अर्थ रखती है। पत्मात्मा वे निषेधइसलिए किया क्योंकि आप आकर्षित तभी हो सकते हैं जब कि मना करें। यदिज्ञान के वृक्ष की चर्चा ही न की जाती तो यह संभव प्रतीत नहीं होता कि आदमऔर ईव ने उस विशेष वृक्ष के फल खाने की कल्पना-भी की होती। ईडन काबाग एक बहुत बड़ा बाग था। वहॉ अनगिनत वृक्ष थे; यहाँ तक कि हम उन वृक्षोंके नाम भी नहीं जानते हैं।
यह वृक्ष महत्त्वपूर्ण हो गया क्योंकि इसके लिए निषेध कर दिया गया1 यहनिषेध ही निमंत्रण बन गया; यह मना ही आकर्षण का कारण बन गया। वस्तुतःकोई शैतान नहीं था जिसने कि उन्हें ललचाया। सर्वप्रथम ईश्वर ने उन्हें आकर्षितकिया। यह एक ‘मारी आकर्षण था-ज्ञान के वृक्ष के निकट भी मत जाना, उसकाफल मत खाना। केवल एक वृक्ष का निषेध है, अन्यथा तुम्हें स्वतन्त्रता है। ‘अचानकयह एक वृक्ष सारे बाग में महत्त्वपूर्ण हो गया और मैरे लिए ‘डेविल’ (शैतान)दिव्यता का केवल दूसरा नाम है-दूसरा छोर, और उस डेविल ने ईव को प्रलोभितकिया क्योंकि तब वह देवताओं जैसी हो सकती थी। यह वादा था। और कौनदेवताओं जेसा नहीं होना चाहेगा? कौन नहीं चाहेगा कि वह देवता हो जाये?
आदम और ईव लोभ में आ गये और तब वे स्वर्ग री निकाल दिए गये। परन्तु यह निष्कासन प्रक्रिया का एक हिस्सा है। वस्तुतः यह स्वर्ग एक पशुवतअस्तित्व था-जो कि आनन्दपूर्ण था किन्तु अनजाना। क्योंकि ज्ञान के वृक्ष केइस फल को खाने के बाद आदम और ईव मनुष्य हो गये। उसके पहले वे मनुष्यकतई नहींथे। वे अब मनुष्य हो गये और साथ ही समस्या भी।
ऐसा कहा जाता है कि पहले शब्द जो आदम ने स्वर्ग के दरवाजे से निकलनेपर कहे वे थे ‘कि हम एक बहुत ही क्रान्तिकारी समय से गुजर रहे हैं।’ वहसचमुच एक क्रान्ति का काल था। मनुष्य का मन कभी भी इससे अधिक क्रान्तिसे नहीं गुजरेगा जैसा कि यह पशु जगत से उसका निकाले जाना था, आनन्द कीदुनिया से, अज्ञात अस्तित्व से निष्कासन। वह समय वास्तव में, बड़ा क्रान्ति कासमय था। दूसरी सारी क्रान्तियाँ उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह एक सर्वाधिकबडी क्रान्ति थी-स्वर्ग से निष्कासन।
लेकिन उनको निकाला क्यों गया? जिस क्षण भी तुम जान लेते हो, जिस क्षण भी सजग होते हो, तो फिर तुम आनन्द में नहीं रह सकते। समस्याएँ उठेगी। और यदि तुम आनन्द में भी हो तो ये समस्याएँ तुम्हारे मन में आयेंगी कि मैंआनन्द में क्यों हूँ? क्यों? और तुम्हें सुख का कोई फ्ता नहीं चल सकता जब तक कि तुम्हें दुख का पता न चले क्योंकि हर एक प्रतीति बिना उसके विपरीतके संभव नहीं। तुम्हें सुख का पता भी तभी चलेगा जबकि तुम्हें दुख अनुभवमें आता हो; तुम स्वास्थ्य से तभी परिचित हो सकते हो जबकि तुम्हें बीमारी काअनुभव ही; तुम जीवन केप्रति सजग नहीं हो सकते जबतक कि तुम मृत्यु रोभयभीत न हो।
पशु भी जीते हैं किन्तु उन्हें इसका कोई पता नहीं है कि वे जीवित हैं क्योंकिउन्हें मृत्यु का कोई पता नहीं। मृत्यु की कोई समस्या उनके लिए नहीं है, इसलिए वे चुपचाप जीवन से गुजर जाते हैं। परन्तु वे इसी भाँति जीवित नहीं हैं जिस तरह कि आदमी। मनुष्य जीता है और उसे होश है कि वह जीवित है क्योंकिवह जानता है फि मृत्यु है। ज्ञान के साथ विपरीत का एहसास होता है और समस्याओँ का आविर्भाव होता है। तब फिर हर पल द्वन्द्व का होता है। तब तुम हर क्षणदो में बंटे हुए लटके हो। तब फिर तुम कभी एक न हो सकोगे। तुम लगातारद्वन्द्धों में बंटे हुए आंतरिक उलझनों में फंसे हुए रहोगे।
इसलिए सचमुच वह एक बडी क्रान्ति थी-महान क्रान्ति-आदम और ईवको निष्कासित कर दिया गया। सच ही यह कहानी बडी सुन्दर है। किसी ने उनकोनहीं निकाला किसी ने उन्हें बाहर जाने की आज्ञा नहीं दी। किसी ने नहीं कहाकि जाओ बाहर वे बाहर हो गये। जिस क्षण ही वे होश से भरे कि वे फिरबाग में होकर भी नहीं थे। यह यंत्रवत होगया। इस पर जरा विचार करें-एककुत्ता जो कि यहाँ बैठा हो, अचानक वह होश में आ जाये। तो वह बाहर हो गया। कोई उसे बाहर नहीं निकालता। परन्तु अब वह कुत्ता नहीं रहा। वह अपनीपशु-स्थिति से बाहर चला गया और अब वह वापस वहीँ नहीं हो सकता।
आदम और ईव ने भी पुनः प्रवेश करने को कोशिश की, परन्तु उन्हें वह दस्वाजा फिर नहीं मिला। वे चारों ओर चक्कर लगाते रहे परन्तु सदैव ही द्वार चूक जाते। कहीं कोई दरवाजा ही नहीं है। निष्कासन समग्र है और अन्तिम है, वे पुनः प्रवेश नहीं कर सकते क्योंकि ज्ञान एक मीठा और कड़वा फल दोनो है। मीठा है क्योंकि वह तुम्हें शक्ति देता है, और कड़वा है क्योंकि उसके कारण समस्याएँ खडी होती हैं। मीठा है क्योंकि पहली बार तुम एक अहंकार की स्थिति में होते हो और कड़वा, क्योंकि अहंकार के साथ दूसरी सारी बीमारियाँ भी तुम्हारी होंगी। यह एक दुधारी तलवार जैसा है।
आदम आकर्षित हुआ क्योंकि शैतान ने उससे कहा कि तुम देवताओं की तरह हो जाओगे। तुम शक्तिशाली हो जाओगे। ज्ञान भी एक शक्ति है, परन्तु यहतुम जानते हो तो तुम्हें सिक्के के दोनों पहलूजानने पड़ेंगे। तुम्हें जीवन की अधिकप्रतीति होगी, तुम अधिक आनन्दपूर्ण हो सकोगे किन्तु तुम मृत्यु के प्रति भी सजग हो जाओगे। तुमअधिक आनन्द का अनुभव करोगे, परन्तु तुम उसी अनुपात मेंअधिक संताप को भी अनुभव करोगे। यही एक समस्या है। यही है आदमी-एकगहरा संताप, एक गहरी खाईं दो विरोधी ध्रवों के बीच।
तुम्हें जीवन की प्रतीति होगी, परन्तु जब मृत्यु सामने हो तो सबकुछ विषाक्त हो जाता है। जब मृत्यु है तो फिर हर क्षण हर चीज़ विषाक्त हो गई। तुम जीकैसे सकोगे जब कि मृत्यु सामने हो। तुम आनन्दित कैसे रहोगे जबकि पीड़ा भीघिरी हो। और यदि आनन्द का एक पल आता भी है तो वह भी भागता हुआ होता है। और जब वह क्या होता है तब भी तुम्हें पता ही हैं कि कहीं पीछेदुख खडा हैं, पीड़ा छिपी है। वह जल्दी ही प्रकट होगी। अतः एक आनन्द काक्षण भी आपकी सजगता के कारण विषेला हो जाता है कि कहीँ-न-कहीं दुखछिपा हुआ है, वह आता ही होगा। वह यहीं कहीं आसपास ही होगा, और तुम्हेंउससे साक्षात्कार करना पडे़गा।
आदमी भविष्य के प्रति जाग जाता है, अतीत के प्रति सजग हो जाता है, जीवन के प्रति, भृत्यु के प्रति सचेतन हो जाता है। किर्किगार्ड ने इसे ही ‘‘संताप’’ कहा है-इस जानने को ही। तुम पीछे गिर सकते हो, परन्तु वह अस्थायी रूप से होगा। फिर तुम वापस लौट आओगे। इसलिए एक ही संभावना है कि तुमबढ़ो-ज्ञान में आगे बढ़ो। उस बिन्दु तक, जहाँ से कि तुम उसके भी बाहर छलांगलगा सको, क्योंकि छलांग केवल अन्तिम छोर से ही संभव है। एक छोर हमारेपास हैं कि वापस गिर जाओ। हम वह कर सकते हैं परन्तु वह असंभव है क्योंकि हम सदैव के लिए उसमें नहीं रह सकते। हमें बार-बार आगे की ओर फेंक दियाजाता है। दूसरी संभावना यह है कि हम हमारी चेतना में बढ़ते चले जायें। एकबिन्दु ऐसा आता है कि तुम पूर्ण सजग हो जाते हो और जहां से कि तुम अतिक्रमणकर सकते हो।
हमने जान लिया है, अब हमें इस जानने के, इस ज्ञान के भी पार जाना होगा। हम बाग के बाहर आ गये हैं ज्ञान के कारण और हम इस बाग में वापसप्रवेश कर सकते हैं जब हम ज्ञान को फेंक देंगे। परन्तु यह फेंकना पीछे गिरने से संभव नहीं है। जिस द्वार से आदम को बाहर निकाला गया था वह द्वार अब फिर से नहीं मिल सकता। हमेँ दूसरा द्धार मिल सकता है जिससे कि क्राइस्ट को, बुद्ध को निमंत्रण मिला था। हम इस ज्ञान को फेंक सकते हैं, हम इस सजगताको फेंक सकते हैं, किन्तु केवल उस चरम बिन्दु से जहाँ कि हम पूर्ण सजग हो जायें।
जब कोई पूर्णरूप से जागरूक हो जाए, जब यह भाव भी नहीं रहे कि मैंसजगहूँ जब कोईबिल्कुल पशु की तरह हो जाए प्रसन्न और आनन्दित। उन्हेंयह पता नहीं है कि जब तुम पूर्णरूप से सजग रहोगे या हो तो देवता हो जाते होयदि यह सजगता समग्र है तो तुम सजग होत बिना यह जाने कि तुम सजग होतब यह साधारण सजंगता ही प्रवेश की शुरुआत हो जाएगी-यही प्रवेश बन जायेगी।
तुम पुनः बाग में होओगे-पशुओं की भाँति नहीं, किन्तु देवताओं कौ भांति। और यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। यह आदम का निष्कासन ओर जीसस का प्रवेश एक अनिवार्य प्रकिया है। अपने अज्ञान में से बाहर निकलना ही होता है, यह प्रथम चरण है। और फिर अपने ज्ञान से भी बाहर निकलना होत्ता है, वह दूसरा चरण है।
यह सूत्र सजगता से संबंधित हैः
‘‘स्वयं में सजगता की अग्नि को जलाना ही धूप है।’’
स्वयं के भीतर होश की आग पैदा करना। पहली बात तो यह ठीक रो समझ लें कि होश से, सजगता से क्या मतलब है। तुम चल रहे हो; तुम बहुत-सी चीजोंके प्रति सजग हो-दूकानें हैं, लोग हैं जो पास से गुज़र रहे हैं, भीड़ है आदि। तुम ऐसी बहुत-सी चीजों के प्रति सजग हो, केवल एक ही चीज के प्रति तुम्हारा ध्यान नहीं है-तुम्हारे अपने प्रति। तुम सड़क पर चल रहे हौः तुम्हारा ध्यानबहुत-सी चीजों के प्रति रहता है, केवल तुम अपने ही प्रति सजग नहीं हो। यहस्वयं के प्रति होगा, इसे ही गुरजिएफ सेल्फ रिमेम्बरिग कहता-है। गुरजिएफ कहताहै कि तुम कहीं पर भी होओ, सदैव, स्वयं का स्मस्या रखो।
उदाहरण, के लिए, जैसे कि तुम यहॉ मुझे सुन रहे हो, किन्तु तुम सुनने वाले के प्रति ही सजग नहीं हो। तुम्हें बोलने वाले का पता है, परन्तु तुम उस सुनने वाले के प्रति होश में नहीं हो। सुनने वाले के प्रति भी सजग रहो। स्वयंकी यहॉ उपस्थिति अनुभव करो। एक क्षण के लिए एक झलक आती है औरतुम पुनः भूल जाते हो। कोशिश करो।
जो कुछ भी तुम कर रहे हो करते समय एक बात का ध्यान सतत भीतरबना रहे कि वह तुम कर रहे हो। तुम भोजन कर रहे ही, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम चल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम सुन रहे हो, तुम बोल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। जब तुमक्रोघित हो रहे हो, होश रहे कि तुम क्रोध में हो। यह स्वयं का सतत स्मस्ण एक सूक्ष्म शक्ति-को निर्मित कस्ता है। एकबहुत ही सूक्ष्म ऊर्जा तुम्हारे भीतर पैदा होने लगती है। तुम घनीभूत होने लगते हो।
साधारणतः तुम एक ढीलेढाले थैले की तरह होते हो, जिसमें कोई सघनता, कोई केन्द्र नहीं होता-केवल द्रव्यता होती है, खाली बहुत-सी चीजों का ढीलमढालामिश्रण होता है जिसमें कोई केन्द्र नहीं होता। एक भीड़ होती है जो कि लगातारयहाँ से वहाँ डोलती रहती है; जिसका ‘कोई मालिक नहीं। सजगता का अर्थ होता है कि मालिक बनो। और जब मैं कहता हूँ ‘मालिक बनो’ तो मेरा मतलबहै कि उपस्थित हो जाओ-एक सतत उपस्थिति। जो कुछ भी तुम कर रहे हो, या नहीं कर रहे हो, एक बात तुम्हारे ध्यान में बनी ही रहे कि तुम हो।
यह साघारण स्वयं की अनुभूति कि कोई है, यह एक केन्द्र क्रो निर्मित करतीहै-एक थिरता का केन्द्र, एक मौन का केन्द्र, एक आंतरिक मालकियत का केन्द्र एक भीतरी शक्ति। और जब मैं कहता हूँ कि एक भीतरी शक्ति-तो में शब्दशः कह रहा हूँ-है। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि सजगता की अग्नि। यह एक आग है, एक अग्नि है। यदि तुम सजग होना शुरू करो तो तुम अपने भीतर एक नई ऊर्जा को अनुभव करोगे-एक नई आग, एक नया जीवन। और इस नई अग्निनये जीवन, नई ऊर्जा के कारण बहुत सी चीजें जो कि तुम्हारे ऊपर अधिकार जमाये हुए हैं वे सब विलीन हो जाएंगी। तुम्हें उनसे लड़ना नहींपड़ेगा।
तुम्हें अपने क्रोध से, तुम्हारे लोभ से, तुम्हारे काम से, लड़ना पड़ता है क्योंकि तुम कमजोर हो। वास्तव में, काम, क्रोध, लोभ कोई समस्याएं नहीं हैं। कमजोरीही एक मात्र समस्या है। एक बार भी तुम भीतर मजबूत होना शुरू करो इस अनुभूतिके साथ कि तुम हो, तो तुम्हारी शक्तियॉ सघन होने लगती हैं, संगठित होने लगतीहैं भीतर एक बिन्दु पर और एक ‘स्व’ का उदय होने लगता है। स्मरण रहे, इगोका, अहंकार का नहीं, बल्कि ‘स्व’ का जन्म होगा। इगो‘स्व’ का झूठा भाव है। बिना किसी ‘स्व’ के तुम ऐसा मानते चले जाते हो कि तुम्हारे भीतर ‘स्व’ है वही अहं का भाव है। अहं का अर्थ होता है एक मिथ्या स्व। तुम स्व नहींहो, और फिर भी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम एक ‘स्व’ हो।
मौलिकपुत्र जो कि एक सत्य का खोजी था, बुद्ध के पास आया। बुद्ध ने पूछा कि तुम क्या खोज रहे हो? मौलिकपुत्र ने कहा-मैं अपने स्व को खोजरहा हूँ। मेरी मदद करें। बुद्ध ने कहा कि तुम एक वादा करो कि जो कुछ भी तुम्हें कहा जाएगा, तुम करोगे। मौलिकपुत्र रोने लगा। उसने कहा कि मैं कैसे वादा कर सकता हूँ? मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो अभी हूँ ही नहीँ, फिर वादाकेसे करूं? मुझेतो यह भी पता नहीं कि मैं मेरा कल वया होगा। मेरे भीतर कोई स्व नहीं जो कि वादा कर सके, इसलिए मुझसे ऐसी असंभव बात के लिए मत कहें। मैं प्रयत्न करूँगा, इतना ही कह सकता हूँ कि मैं कोशिश करूँगा, परन्तुमैं ऐसा नहीं-कह सकता कि जो कुछ आप कहेंगे, वही करूँगा, क्योंकि कौन करेगा? मैं उसे ही तो खोज रहा हूँ जो कि वादा कर सके और उसे पूरा कर सके। मैं तो अभी हूँ ही नहीं।
बुद्ध ने कहा-माँ ‘मौलिकपुत्र यह सुनने के लिए ही मैंने तुमसे यह प्रश्न पूछा था। यदि तुमने वादा किया होता तो मैं तुम्हें यहाँ से जाहर निकाल देता। यदितुमने कहा होता कि मैं वादा करता हूँ तो मैं जान लेता कि तुम कोई‘स्वं’ कीखोज में नहीं आये हो क्योंकि एक खोजी को तो पता होना चाहिए कि अभीवह है ही नहीं। अन्यथा, खोज की जरूरत ही क्या है? यदि तुम हो ही, तो कोई आवश्यकत्ता नहीं है। तुम नहीं होयदि कोई इस बात को अनुभव कर सके, तो उसका अहंकार वश्प्पीभूत हो जाता है।
अहंकार एक झूठा ख्याल है ऐसी वस्तु का जो है ही नहीं। ‘स्व’ का अर्थ होता है एक केन्द्र जो कि वादा-कर सके। यह केन्द्र तब निर्मित होता है जबकि कोई लगातार सजग रहे, सतत होश बनाये रखे। ध्यान रहे कि जब भी तुम कुछकर रहे हो, कि तुम बैठ रहे हो, कि अब तुम सोने जा रहे हो, कि अब तुम्हें नींद आ रही है, कि तुम अब नींद में डूब रहे हो, प्रत्येक क्षण में जागे रहनेका प्रयास करो और तब तुम्हें प्रतीत होगा कि एक केन्द्र तुम्हारे भीतर निर्मितहोने लगा, चीजें सघन होने लगी, एक केन्दीकरण होने लगा। अब प्रत्येक चीज़ केन्द्र से जुड़ने लगी।
हम बिना केन्द्र के ही हैं। कभी-कभी हमें केन्द्र की प्रतीति होती है, किन्तुवे क्षण ऐसे ही होते हैं जबकि परिस्थितिवश तुम सजग हो जाते हो। यदि अचानकऐसी परिस्थिति हो, कि कोई खतरा पैदा हो गया हो तो तुम्हें तुम्हारे भीतर केन्द्रकी प्रतीति होगी क्योंकि खतरें के समय तुम सजग ही जाते हो। यदि कोई तुम्हेंमार डालने वाला हो तो तुम उस क्षण विचार नहीं कर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते हो। तुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते होतुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम भविष्य को भी नहीं विचार सकते। यह क्षणही सब कुछ हो जाता है। और तब केवल तुम घातक के प्रति ही होश से नहींमरत्ते बल्कि तुम अपने प्रति भी सजग हो जाते ही जो कि मारे जाने वाला है।
उस सूक्ष्म क्षण में तुम्हें अपने भीतर एक केन्द्र को प्रतीति होती है। इसीलिएखतरनाक खेलों के प्रति इतना आकर्षण है। पूछो किसी गौरीशंकर अथवा माउंट एवरेस्ट पर चढने वाले से। जब पहली बार हिलेरी वहाँ पहुँचा, तो उसे जरूरअपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव हुआ होगा। और जज पहली दफा कोई चन्द्रमापर उतरा, तो अचानक एक गहरे केन्द्र की प्रतीति उसे अवश्य हुई होगी। इसीलिए खतरों का इतना आकर्षण है। तुम एक कार चला रहे हो और तुम उसकी स्पीडबढाते चले जाते हो और तब एक खतरनाक गति आ जाती है। तब तुम कुछभी नहीं सोच सकते, विचार रुक जाता है। उस खतरनाक क्षण में जब मौत कमीभी घटित हो सकती है तुम अपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव करते ही। खतराआकर्षण का कारण है क्योंकि खतरे में कभी-कभी तुम्हें अपने भीतर उस केन्द्रको प्रतीति होती है।
नीत्से ने कहीं पर कहा है कि युद्ध चलते ही रहने चाहिए क्योंकि केवलयुद्ध में ही कभी-कभी ‘स्वं’ की प्रतीति होती है-केन्द्र की प्रतीति-क्योंकि युद्ध खतरनाक है। और जब मृत्यु एक सत्य बन जाती है तो जीवन मेँ सघनता आजाती है जब मृत्यु सामने ही हो तो जीवन सघन हो जाता हें और तुम अपने केन्द्र पर होते हो। परन्तु किसी भी क्षण जब भी तुम अपने प्रति जागे हुए हो तो तुम केन्द्र पर होते हो। परन्तु यदि वह स्थिति पर निर्भर है तो जब वह स्थिति चलीआयेगी तो वह भी चला जायेगा।
वह स्थितिजन्य नहीं होना चाहिए। वह आंतरिक ही हो। इसलिए सामान्य-से-सामान्य क्षण में भी सजग रहो। जब कुर्सी पर बैठो, तो भी इस बात का ध्यान रखो-बैठनेवाले के प्रति होश रहे। खाली कुर्सी का ही नहीं कमरे का ही नहीँ-चारोंओर के वातावरण का ही नहीं, वरन बैठने वाले का भी ध्यान रहे। अपनी आँखेंबन्द कर लें और स्वयं को महसूस करें, गहरे उतर जायें और स्वयं को अनुभव करें।
हेरीगेल एक जेन गुरु के पास ध्यान सीख रहा था। वह तीन वर्ष तक लगातार
धनुर्विद्या सीखता रहा। और गुरु सदैव कहता रहा कि ठीक है, जो भी तुम कर
रहे हो टीक है, परन्तु वह पर्याप्त नहीं है। हेरीगेल स्वयं एक बहुत अच्छा घनुविद हो गया। उसके सौ फीसदी निशाने ठीक लगते थे और फिर भी गुरु यही कहताकि तुम ठीक कर रहे हो, परन्तु इतना काफी नहीं है। ‘‘जब सौ प्रतिशत निशानेठीक लगते हैं तो इससे ज्यादा और क्या चाहिए? अब मैं आगे क्या करूँ? जबसौ प्रतिशत निशाने ठोक लगते हैँ तो इससे आगे मुझसे क्या आशा की जा सकती है?’’
कहते हैं ज़ेन गुरु ने कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे निशानों से अथवा तुम्हारी धनुर्विद्यासे कोईमतलब नहीं। मुझें तो तुम्हारे से मतलब है। तुम एक कुशल टेक्नीशियनबन गये हो। परन्तु जब तुम्हारा बाण धनुष से छूटता है तब तुम्हें अपना होश नहीं रहता। इसलिए यह बेकार है। तीर निशाने पर लगा या नहीं इस बात सेमेरा कोई संबंध नहीं है मेरा तो संबंध तुमसे है। जब तीर धनुष पर खिंचे तोतुम्हारे भीतर भी तुम्हारी चेतना का तीर खिंच जाये। और यदि तुम निशाना चुक भी जाते तो भी उससे कोई भेद नहींपढ़ता। परन्तु तुम्हारा भीतरी निशाना नहींचूकना चाहिए और तुम वही चूक रहे हो। तुम एक कुशल धनुबिद हो गये हो, किन्तु तुम खाली नकल करने वाले ही हो।’’ परन्तु पश्चिमी चित्त में था आधुनिकमन में, (और पश्चिमी चित्त ही आधुनिक चित्त है) यह बात ख्याल में आना बहुत ही कठिन है। यह उसको बकवास लगेंगी। धनुर्विद्या का संबंध ही इस बातसे है कि निशाने बिल्कुल ठीक लगते हों और उसमें एक विशेष कुशलत्ता हो।
धीरे-धीरे हैरीगेल हत्ताश हो गया, और एक दिन उसने कहा, ‘‘अब मैं छोड़कर जा रहा हूँ। यह तो असंभव मालूम पड़ता है। यह संभव नहीं जब तुमकिसी चीज पर निशाना लगा रहे हो, तो तुम्हारी चेतना उस बिन्दु पर चली जातीहै; उस चीज़ पर, और यदि तुम्हें एक सफल धनुर्धर बनना है तो तुम्हें अपनेकोबिल्कुलभूल ही जाना है। केवल निशाने को ही स्मरण रखना है, उस वस्तुको ही ख्याल रखना है और बाकी सब भूल जाता है। सिर्फ निशाना ही रह जाएपरन्तु जेन गुरु लगातार उसे भीतर भी एक निशाने का बिन्दु उत्पन्न करने के लिएकह रहा था। यह तीर दो-त्तरफा होना चाहिए-बाहर तो निशान के बिन्दु परलगा हुआ और भीतर भी सतत स्वयं की ओर सधा रहे, स्व की और।
हेरीगेल ने कहा, ‘‘अब मैं जाऊंगा। यह मेरे लिए असंभव है। तुम्हारी शर्तपूरी नहीं हो सकती, और जिस दिन वह जाने वाला था वह सिर्फ बैठा हुआ था। वह गुरु से छुदृटी लेने आया था, और गुरु किसी दूसरे बिन्दु पर निशाना लगा रहा था। कोई और शिष्य सीख रहा था और पहली बार हेरीगेल स्वयं इसमेंसंलग्न नहीं था। वह तो सिर्फ छुट्टी मांगने आया था और वह चुपचाप खाली बैठा था। जैसे ही गुरु खाली होगा, वह छुट्टी लेगा और चला जाएगा। पहलीबार वह उसमें संलग्न नहीं था।
तब अचानक उसे गुरु का ख्याल आया और उसकी दो-तरफा चेतना समझ में आई। गुरु निशाना लगा रहा था। तीन वर्ष तक वह उसी गुरु के पास था, परन्तु वह अपने ही प्रयास में लगा हुआ था। उसने इस आदमी को देखा ही नहीं था कि वह क्या कर रहा था। पहली बार उसने उसे देखा और उसे समझ मेंआया, और अचानक स्वयंस्फूर्त वह उठा बिना किसी प्रयत्न के, और मास्टर के पास गया। उसके हाथ से उसने धनुष लिया, निशाना साधा और तीर छोड़ दियागुरु ने कहा-‘‘ठीक पहली बार तुमने ठीक किया है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।’
क्या किया उसने? पहली बार वह अपने में केन्दित हुआ था। निशाने काबिन्दु था, परन्तु अब वह भी मौजूद था वहॉ। इसलिए जो भी तुम करो, चाहेकुछ भी करो-किसी धनुर्विद्या की जरूरत नहीँ जो भी तुम कर रहे हो, जब खाली बैठे भी होचेतना का तीर दो-तरफा हो-डबल-एरोड। स्मरण रहे कि बाहरक्या हो रहा है और यह भी याद रहे, कि भीतर कौन है।
लींची एक दिन सुबह प्रवचन कर रहा था कि किसी ने अचानक पूछ लिया-मेरे एक प्रश्न का उतर दो‘‘मैं कौन हूँ?’’ लींची उठा और उस आदमी के पास गया। सारा हाल शान्त हो गया। वह क्या करने जा रहा था? यह एक साघारण-सा प्रश्न था। वह अपनी जगह से उतर दे सकता था। वह उस आदमी के पास पहुँचा। सारे हाल में स्तब्धता छा गई। लींची उस प्ररन पूछने वाले की आँखों में आँखें डाल कर देखने लगा। वह एक बड़ा गहरा क्षण था। सब कुछ ठहरगया। प्रश्नकर्ता तो पसीने-पसीने हो गया। खींची उसकी आँखों में घूरकर देख रहा था। और तब लींची ने पूछा-‘‘मुझसे मत पूछो कि मैं कौन हूँ? भीतर जाओ और खोजो उसको जो कि पूछ रहा है। कौन हैँ भीतर ये-प्रश्न पूछने बालाइस प्रश्न का स्रोत दूंढ़ निकालो। भीतर गहरे उत्तर जाओ।
और ऐसा कहा जाता है कि उस आदमी ने अपनी आँखें बन्द कर लीं, मौनहो गया, और अचानक वह आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उसने अपनी आँखें खोली, हँसा और लींची के पैर छुए और कहा, ‘‘आपने मुझे उतर दे दिया। यहप्रश्न मैं बहुतों से पूछता रहा हूँ और बहुत से उतर मुझे दिए गये परन्तु कोई भी उत्तर सिद्ध साबित न हुआ। परन्तु आपने उत्तर दे दिया।’
‘‘मैं कौन हूँ?’’ कैसे कोई इसका उत्तर दे सकता है1 परन्तु उस विशेष परिस्थितिमेँ-एक हजार आदमी चुप बैठे हों, सुई गिरने को भी आवाज़ जहां सुनाईं पड़ जाये-लींची अपनी आँखों को गड़ा दे और फिर वह आज्ञा दे कि अपनी आँखों को बन्द-करो, भीतर जाओ और पता लगाओ कि यह प्रश्न पूछने वाला कौन है। उत्तर की प्रतीक्षा मत करो। पता लगाओ उसका जो कि पूछ रहा है। और उसआदमी ने आंखें बन्द कीं। क्या हुआ उस क्षण? वह केन्दित हो गया। अचानक वह केन्द्र पर पहुँच गया। अचानक वह अपने अंतरतम के आखिरी बिन्दु को जानगया।
इसे ही खोजना है। और सजगता का अर्थ होता है-वह विधि जिससे अन्तसके इस अन्तिम छोर को खोज लेना होता है। जितने तुम मूच्छित होते हो, उतने ही तुम स्वयं से दूर होते हो। जितने अधिक चेतन, उतने ही स्वयं के निकटयदि सजगता संपूर्ण हो जाये तो तुम अपने केन्द्र पर होते हो। यदि यह चेतना थोड़ी-सी होती है, तो तुम परिधि के पास ही होते हो। जब तुम मूच्छित होतेहो, तो तुम परिधि पर ही होते हो जहाँ कि केन्द्र बिल्कुल विस्मृत हो जाता। इसलिए ये दो संभव मार्ग हैं। तुम परिधि पर आ सकते हो, त्तब तुम मूच्छित होतेहो। कोई फिल्म देखते हुए, कहीं कोई संगीत सुनते हुए तुम अपने कोभूल सकते हो। तब तुम परिधि पर हो। मुझे सुनते वक्त भी तुम स्वयं को भूल सकते होतब फिर तुम परिधि पर हो। गीत्ता कुरान या बाइबिल पढ़ते समय भी तुम अपनेको विस्मृत कर सकते हो। तब तुम परिधि पर हो।
जो कुछ भी तुम कर रहे हो, यदि तुम स्वयं के प्रति सजग रह सको, तोतुम केन्द्र के निकट हो। तब अचानक कभी भी तुम अपने केन्द्र को पा लोगे। तब तुम्हारे पास ऊर्जा होगी। वह ऊर्जा यह सूत्र कहता है कि, अग्नि है। सारा जीवन, यह सारा अस्तित्व ही ऊर्जा है। अग्नि पुराना नाम है। अब उसे विद्युत कहते हैं। आदमी बहुत-बहुत नामों से उसे पुकारता रहा है, किन्तु अग्नि अच्छा नाम है। विद्युत कहना कुछ मृत लगता है, अग्नि ज्यादा जीवन्त प्रतीत होता है। यह अंतरकी अग्नि, यह सूत्र कहता है कि यही धूप है। जब कोई पूजा करने के लिएजाता है तो वह अपने साथ धूप लेकर जाता है। वह धूप व्यर्थ है जब तक कितुम अपनी अन्तराग्नि को धूप की त्तरह नहीं लाये हो।
यह उपनिषद बाहरी संकेतों को उनके पीछे छिपे हुए भीतरी अर्थ दे रहा हैं। प्रत्येक संकेत का भीतरी हिस्सा भी होता है1 बाह्य भी अपने में ठीक है, किन्तु वह काफी नहीं है। और वह केवल प्रतीकात्मक है, वह वास्तविक बात नहीं हैं। वह कुछ संकेत करता है, परन्तु वह वास्तविक नहीं है। तुमने धूप देखीहोगी, वह सब जगह मन्दिरों में जल रही है। वह अपने-आपमें ठीक है, परन्तु यह बाहरी संकेत मात्र है। एक भीतरी अग्नि चाहिए। और जैसे घूप सुगन्ध प्रदानकरती है उसी तरह आंतरिक अग्नि हमें वह सुगन्ध देती है।
ऐसा कहते हैं कि जब महावीर चलते थे तो हर एक को एक सूक्ष्म सुगन्धसे उनकी उपस्थिति का अनुभव होत्ता था। ऐसा बहुत से लोगों के लिए कहा जाता हैँ। यह संभव है। जितना अधिक तुम अपने भीतर केन्दित हो जाते हो उतनीही अधिक तुम्हारी उपस्थिति एक सुगंघ बन जाती है। और जिनके पास भी ग्राहकताहोती है, उन्हें उसकी प्रतीति होती है। अतः मन्दिर में बाहरी धूप लेकर प्रवेशन करें, वरन आंतरिक धूप लेकर। और यह आंतरिक धूप केवल अवेयरनेस, केवलसजगता से ही उपलब्ध होती है। दूसरा कोई मार्ग नहीँ है।
जो भी करें होशपूर्वक करें। यह एक लम्बी और कठिन यात्रा है। और एकक्षण के लिए भी होश रखना बड़ा कठिन है। मन सत्तत्त चलता ही रहत्ता है। परन्तु यह असंभव नहीं है। यह अति कठिन है, बहुत श्रम चाहिए, परन्तु यह संभवहै। प्रत्येक के लिए यह संभव है। केवल श्रम चाहिए समग्र रूपेणा श्रम। कुछभी बाकी नहीं छूटना चाहिए, भीतरी कुछ भी अछूता नहीं छूटना चाहिए। सजगताके लिए हर चीज़ का बलिदान देना पड़ेगा। तभी केवल उस आंतरिक ज्योति को खोजा जा सकता है। वह वहाँ है। यदि कोई सब धर्मों में, जो कि हुए हैं औरजो कभी होंगे, एक अनिवार्य एकता को र्दूढ़ना चाहत्ता ही तो यहशब्द सजगतासब में मिलेगा।
जीसस एक कहानी कहते हैं। एक बड़े घर का मालिक बाहर गया औरउसने अपने घर के सारे नौकरों को लगातार सजग रहने के लिए कहा-क्योंकिकिसी भी क्या वह वापस लौट सकता है। इसलिए चौबीस घंटे उन्हें सावघानरहना पड़ता है। किसी क्षण भी मालिक लौट सकता है। कोई क्षण, कोई भी दिननिश्चित नहीं है। यदि कोई तारीख तय हो, तो तुम सो सकते हो, तब तुम जोचाहो कर सकते हो, और तुम केवल उस निश्चित तारीख को ही सचेत रह सकतेहो, क्योंकि तब मालिक आ रहा होगा। परन्तु मालिक ने कहा है, मैं किसी भी क्षण आ सकता हूँ। रात और दिन तुम्हें मेरा स्वागत करने के लिए जागते हुएरहना है।
यही जीवन को कहानी है। तुम स्थपित नहीं कर सकते। किसी भी क्षणपरमात्मा आ सकता है, किसी भी क्षण मालिक लौट सकता है। सतत सजग रहने की जरूरत है। कोई तिथि निश्चित नहीं है, कुछ भी पक्का पता नहीं है कि वहअचानक घटना कब घटित होगी। केवल इतना ही कोई कर सकता है कि सजगरहे और प्रतीक्षा करे।
रवीन्द्रनाथ ने एक कविता लिखी है-दि किंग आँफ दि नाइट-रात का राजायह एक बहुत गहरी प्रतीकात्मक कहानी है। एक बहुत बड़ा मन्दिर था जिसमें कई सौ पुजारी थे। एक दिन मुख्य पुजारी ने सपना देखा कि दिव्य अतिथि उसरात्रि आने वाला है-वह दिव्य अतिथि जिसके लिए वे बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहे है। शताब्दियों से सारा मन्दिर उस राजा के लिए प्रतीक्षा कर रहा है-उस दिव्य राजा के लिए। मन्दिर का देवता आने वाला है। बहुत से लोग हंसे कियह केवल सपना है, इसलिए इस पर ध्यान देने की ज़रूरतनहीं है। मुख्य पुजारीभी सन्देह से भरा आ, कि यह सपना ही तो है। और यदि यह केवल सपना हीसाबित हुआ, तो सब लोग उस पर हंसेंगे। परन्तु कौन जाने, सच ही हो। यहसूचना सच ही निकल जाये।
मुख्य पुजारी सोच में पड़ गया उसी दिन कि किसी को कहा जाये या नहीं। लेकिन फिर डर भी गया यह सच भी हो सकता है। त्तब दोपहर में उसने यहबात कह दी। उसने सारे पुजारियों को इकट्ठा किया, मन्दिर के सारे दरवाजे बन्दकिये और उसने कहा कि बाहर मत जाना और न ही किसी और से कुछ कहनायह केवल सपना भी हो सकता है, कौन जाने। परन्तु मैंने सपना देखा है, औरसपना इतना वास्तविक था। सपने में मन्दिर के देवता वे मुझे कहा था कि मैं आज रात आ रहा हूँ। तैयार रहना। इसलिए हमें सचेत रहना है। आज की रात हमसो नहीं सकते।
अतः उन्होंने सारे मन्दिर को सजाया, उन्होंने सारे मन्दिर को धोया. साफकिया, और उन्होंने अतिथि के स्वागत के लिए सारी तैयारियाँ की। और त्तब वे प्रतीक्षा करने लगे। तब धीरे-धीरे सन्देह पैदा होने लगा। फिर किसी ने कहा-यह सब व्यर्थ ही बात है। आधी रात बीत गई, तब और भी सन्देह बढ़ने लगा। तब किसी ने विद्रोह से भरकर कहा, मैं तो सोने जा रहा हूँ। ‘यह मूर्खता है, सारादिन व्यर्थ गया और अभी भी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं। कोई आने वाला नहीं है।
तब बहुत-से-लोगों ने उसका साथ दिया। तब मुख्य पुजारी भी झुक गयाऔर उसने कहा, हो सकता है कि वह मात्र सपना ही हो। मैं कैसे कह सकताहूँ कि वह सच था? हो सकता है हम मूर्खता की बात कर रहे हो कि एक सपने की बात के पीछे चल रहे हैं। अतः उन्होंने कहा कि सिर्फ द्वार पर जोआदमी है वह जगा रहे बाकी सब सो जायें। यदि कोई आता है तो वह हमेंखबर कर देगा।
निन्यानबे पुजारी सो गये और जो पुजारी इस काम के लिए नियुक्त किया गया था उसने कहा, जब निन्यानबे ऐसा सोचते हैं कि सपना था तो फिर मैं अपनीनींद खराब क्यों करूं? और यदि दिव्य अतिथि को आना ही हो तो आये। वहतो बहुत बडे रथ पर सवार होकर आयेगा, अतः उसका तो काफी शोरगुल होगाऔर सब लोग जान जायेंगे।
उसने द्वार बन्द किया और वह भी सो गया। तब रथ आया और रथ के पहियों की भारी आवाज हुई। तब कोई जो नींद में था बोला, लगता है कि राजाआ गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि रथ के पहिये भारी शोर मचा रहे हैं। कोईदूसरा जो कि सोने की तैयारी कर रहा था, उसने कहा, समय बर्बाद न करो, सो जाओ। कोई आने वाला नहीं है। यह रथ नहीं है। ये तो आकाश में धिरे बादल-है। और फिर दिव्य अतिथि द्वार पर आया और उसने दरवाजे पर दस्तक दी। फिर किसी ने नींद में ही कहा कि ऐसा लगता है कि कोई आया है और द्वार पर दस्तक दे रहा है। तब मुख्य पुजारी ने कहा कि अब सो जाओ, यारबार नींद खराब मत करो। कोई दरवाजे पर दस्तक नहीं दे रहा है, यह तो केवलहवा है।
सवेरे वे लोग रो रहे ये और चिल्ला रहे थे क्योंकि रात को रथ आया था। सड़क पर उसके चिह्नथे और दिव्य अतिथि द्वार तक आया था और उसने दस्तक दी थी। धूल पर निशान बने हुए थे और सीढियों पर उसके चिह्न थे।
ऐसी कितनी ही कहानियां हैं। महावीर और बुद्ध ने कितनी ही कहानियाँकही है जिसमें उन्होंने बतलाया है कि आत्म-ज्ञान कभी भी और किसी भी क्षण हो सकता हैं। यह संभव है। इसलिए बहुत सावघान सचेत और सजग रहने की आवश्यकता है। यह रात के राजा की कहानी मात्र कहानी नहीं है। यह सच है हम सभी चीजों कोइसी तरह लेते रहते हैं। और जितने भी अर्थ हम निकालतेहैं वे सभी हमारी नींद से आते हैं और नींद में ले जाने वाले होते हैं। हम कहतेहैं, यह कुछ नहीं है, सिर्फ हवा का झोंका ही है। हम कहते हैं कि वहां कुछनहीं है सिर्फ बादल की गड़गड़ाहट है। तब हम आराम से सो सकते हैं। हमधर्म को मना करते चले जाते हैं, हम उन सभी चीजों को जो कि हमारी नींद तोड़ती है, मना करते चले जाते हैं। हम तर्क करते हैं कि कोई परमात्मा नहींहै, कि कोई धर्म नहीं है कि कुछ भी नहीं है, सिर्फ हवा है, सिर्फ बादल हैतब हम बडे मजे से सो सकते हैँ।
यदि परमात्मा है, यदि दिव्यता है, यदि हमसे कुछ भी उच्चतर की संभावनाहै तो फिर हम आराम से नहींसो सकते। त्तब हमें सजग होना पड़ेगा। जगानापडे़गा और संघर्ष व श्रम करना पड़ेगा। तब फिर रूपान्तरण हमारी चिंता का कारणबन जाता है।
सजगता ही विधि है अपने को केन्दित करने के लिए-आंतरिक अग्नि को उपलब्धि के लिए। वह वहाँ छिपी है, उसे खोजा जा सकता है। और एक जारउसे खोजने के बाद ही हम प्रभु के मन्दिर में प्रवेश कर सकते है-उसके पहलेनहीं। पहले कभी भी नहीं।
परन्तु, हम अपने कोप्रतीकों से धोखा दे सकते हैं। प्रतीक हमें गहरी वास्तविकता की और इशारा करने के लिए किन्तु हम चाहें तो उनका प्रवंचनाकी तरह उपयोग कर सकते है। हम बाहरी धूप जला सकते हैं, हम बाहरी चीजोंसे पूजा कर सकते हैं, और तब हम मजे से कह सकते हैं कि हमने कुछ किया है। हम अपने को धार्मिक समझ सकते हैं बिना जरा भी धार्मिक हुए। यही हो रहा है। ऐसी ही तो मानवता हो गई है। प्रत्येक यही समझता है कि वह बड़ा घार्मिक है क्योंकि वे बाहरी प्रतीकों कोमान रहे हैं, बिना किसी आंतरिक अग्नि के।
प्रयत्न करते रहें। सफल न हों तब भी। शुरू-शुरू में ऐसा होगा। तुम बार-बार असफल हो जाओगे। परन्तु तुम्हारी असफलता भी मदद करेमी। जब तुम्हेंपता चलेगा कि तुम एक क्षण के लिए भी सजग नहीं हो सकते, तब तुम्हें पहलीबार मालूम पड़ेगा कि तुम कितने मूच्छित हो।
सड़क पर चलो और तुम कुछ कदम भी होशपूर्वक नहीं चल सकते। बार-बार तुम अपने को भूल जाते हो। तुम रास्ते पर लगे एक विज्ञापन कोपढ़ने लगतेहोऔर तुम अपने को भूल जाते को। कोई निकट से गुजरेगा और तुम उसे देखनेलगोगे, स्वयं को भूल जाओगे।
तुम्हारी असफलताएं भी सहायक होंगी। वे तुम्हें बतलाएंगी कि तुम कितने मूच्छित हो। और यदि तुम इतना भी जान सको कि तुम मूच्छित हो तो भी तुमनेथोड़ी सजगता तोपा ली। यदि कोई पागल इतना भी जान ले कि वह पागल है तो वह ठीक होनेके मार्ग पर चल पड़ा।
आज इतना ही।  

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