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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-20)

आत्म-पूजा उपनिषद, (भाग-2)

तीसरा-प्रवचन-

ज्ञानवृक्ष का निषिद्ध फल : काम

प्रश्न:

  1. ज्ञान के वृक्ष के फल के लिए निषेध का गहरा अर्थ क्या है?
  2. केन्द्रित होने व आंतरिक रिक्तता में क्या संबंध है?
पहला प्रशन:
भगवान, ज्ञान के वृक्ष का फल खा लेने के बाद, आदम और ईव ने पहली बार अपनी नग्नता का अनुभव किया और लज्जित हुए। इस अनुभव के पीछे क्या गहरा अर्थ हैं? और, दूसरा, यह कहा जाता है कि ज्ञान के वृक्ष का निषेधित फल यौन का ही ज्ञान हैं, आपका इस संबंध में वया दृष्टिकोण है?
प्रकृति स्वयं अपने में निर्दोष हैँ, किन्तु जिस क्षण भी मनुष्य उसके प्रति जागता है बहुत-सी समस्याएँ उठ खड़ी होती है। और जो भी प्राकृतिक है और निर्दोष है, उसे अर्थ देने शुरू ही जाते हैं, तो फिर न वह प्राकृतिक रहता है और न ही निर्दोष। प्रकृति अपने-आप में निर्दोष है। परन्तु जब मनुष्यता होश से भरकर उसकी विवेचना करने लगती है, तो वह विवेचना ही बहुत-से दोषों, पापों, अनैतिकताओ के सिद्धान्त पैदा करने लगती है।

आदम और ईव की कहानी कहती है, जब उन्होंने ज्ञान के वृक्ष का फल खाया तो उन्हें अपनी नग्नता का पहली बार पता चला और वे लज्जित अनुभव करने लगे। वे नग्न थे ही किन्तु उन्हें उसका पता नहीं था। इसका पता होना कि वे नग्न हैं, एक अन्तराल पैदा करता है। जैसे ही तुम्हें किसी बात का पता चलता हैं, वैसे ही तुम निर्णय करने लगते हो। तब तुम उससे भिन्न हो जाते हो उ़दाहरणार्थ-आदम नग्न था। प्रत्येक बच्चा आदम की भांति ही नग्न पैदा होता है और बच्चों को अपनी नग्नता के बारे में कुछ पता नहीं होता। वे कुछ भी निर्णय नहीं कर सकते कि यह ठीक है या गलत है। उन्हें पता नहीं है इसलिए वे कोई निर्णय नहीं कर सकते। जब आदम को मालूम हुआ कि वह नग्न है तभी निर्णय प्रवेश कर गया कि यह नग्नता अच्छी है या बुरी।
आदम के इर्द-गिर्द जितने भी पशु थे, वे भी नग्न धे, परन्तु कोई भी पशु अपनी नग्नता के प्रति होश से नहीं भरा था। आदम को पता चल गया और इस पता चलने के साथ ही आदम अनूठा हो गया। अब नग्न रहना-पशु होना था और आदम सचमुच ही अब पशु होना पसन्द नहीं कर सकता। कोई भी आदमी नहीं चाहता कि पशु हो, हालांकि हैं सभी पशु।
जब पहली बार डार्विन ने कहा कि आदमी एक विकास है-एक विशेष जाति के जानवर का विकास है, तो उसका भारी विरोध किया गया क्योंकि आदमी तो सदा से अपने को ईश्वर का वंशज समझता रहा है-देवदूतों से थोड़ा ही छोटा और बन्दर को अपना पिता मानना बड़ा कठिन था, एक तरह असंभव था अब तक ईश्वर पिता था, और अचानक डार्विन ने उसे बदल दिया। ईश्वर को सिंहासन से उतार दिया। और उसकी जगह बन्दर को बैठा दिया गया। बन्दर अब पिता हो गया। डार्विन भी दोषी अनुभव करने लगा जैसे कि वह कोई अधार्मिक आदमी हो। यह एक दुर्भाग्य था कि तथ्य बतला रहे थे कि आदमी पशु से विकसित हुआ है, कि वह पशु जगत का एक हिस्सा है, कि वह पशुओं से भिन्न नहीं है।
आदम को लज्जा का अनुभव हुआ क्योंकि वह अपनी पशुओ से तुलना कर सकता था। एक तरह से अब वह उनसे भिन्न था क्योंकि उसे नग्नता का पता था। आदमी अपने को इसलिए ढंकता है ताकि स्वयं को पशुओं से भिन्न कर सकें। और हम उस सभी के प्रति लज्जा का अनुभव करते है जो कि पशुओं जैसा है और जिस क्षण भी कोई पशुओं जैसा कोई कृत्य करता है, हम कहते हैं-क्या कर रहे हो? क्या तुम पशु हो? हम किसी भी चीज की निन्दा कर सकते हैं, यदि हम उसे पशुओं जैसी सिद्ध कर दें। हम यौन को निन्दित करते हैं, क्योंकि वह पाशविक है। हम किसी भी बात को निन्दित कर सकते है यदि पशुओं से उसे जोड़ा जा सके।
होश के साथ निन्दा का भाव आया- पशुओं की निन्दा। और निन्दा ने ही हमारे सारे दमन को जन्म दिया, क्योंकि आदमी एक पशु हैं। वह उसके पार जा सकता है, वह दूसरी बात है। परन्तु वह पशुओं से ही आया है तो उनसे ऊपर उठ सकता है, परन्तु वह है तो पशु ही। एक दिन वह पशु नहीं हो सकता है, वह अतिक्रमण कर सकता है, परन्तु वह पशुओं का वंशज है, इसे मना नहीं कर सकता। वह पशुता मौजूद है। और एक बार यह खयाल आ गया कि हम पशुओं से भिन्न हैं, तो आदमी उस सब को दमन करने में लग गया जो कि पशु-वंश परम्परा का हिस्सा था। इस दमन ने विभाजन कर दिया और इसलिए आदमी दो में बंटा हुआ है-दो है। वह जो वास्तविक, बुनियादी है, पशु ही रहता है और उसका बौद्धिक, दिमागी हिस्सा सोचता रहता है झूठी काल्पनिक दिव्यता को-बातें अतः केवल एक हिस्सा ही तुम्हारे मन का तुमसे तादात्स्य जोडे़ रखता है और बाकी सारा हिस्सा मना कर दिया जाता है।
शरीर में भी हमने विभाजन कर लिए हैं। शरीर के नीचे का हिस्सा निन्दित है। वह शारीरिक तौर से ही नीचे का नहीं है, वह मूल्यों के आधार पर भी नीचा है। ऊपर का हिस्सा खाली ऊपर का ही नहीं है, बल्कि वह ऊँचा है। तुम अपने नीचे के हिस्से के प्रति दोषी अनुभव करते हो। और यदि कोई पूछे कि तुम कहां स्थित हो तो तुम अपने सिर की ओर इशारा करते हो। वह दिमाग का, सिर का, बुद्धि का हिस्सा है। हम अपने को बुद्धि से जोड़ते है, न कि शरीर से। और यदि हमसे कोई बहुत ज्यादा आग्रह करे तो हम अपने को शरीर के ऊपरी हिस्से से जोड़ते है, नीचे के हिस्से से कभी नहीं। नीचे का हिस्सा निन्दित कर दिया गया है।
क्यों? शरीर तो एक है। तुम उसे बांट नहीं सकते। कहीँ कोई विभाजन नहीं है। सिर और पैर एक है, और तुम्हारा मस्तिष्क और जननेन्द्रियां एक हैं वे एक इकाई की भांति काम करते हैं। परन्तु यौन को मना करने के लिए, सेक्स की निन्दा करने के लिए हम रारीर के सारे निचले हिस्से को मना कर देते हैं।
आदम को पाप का अनुभव हुआ, क्योंकि पहली बार उसने अपने को पशुओं से भिन्न महसूस किया। और यौन सर्वाधिक पाशविक वृत्ति है। मैं ‘पाशविक’ शब्द का उपयोग कर रहा हूँ एक तथ्य की तरह, बिना किसी प्रकार के निदा के स्वर के। सबसे अधिक पशुता की बात सेक्स ही होगी। क्योंकि यौन जीवन है और स्रोत है तथा उद्गम है। आदम और ईव सेक्स के प्रति सजग हो गये उन्होंने उसे ढंकने की कोशिश को। केवल बाहरी रूप से नहीं बल्कि उन्होंने उस तथ्य को अपनी भीतरी चेतना में भी छिपाने का प्रयत्न किया। उससे चेतन और अचेतन मन के बीच विभाजन हो गया।
मन भी एक है, जैसे कि शरीर एक है। परन्तु यदि तुम किसी बात की निन्दा करते हो तो वह हिस्सा अचेतन में चला जाता है। तुम इतना उसके प्रति निन्दा से भर जाते हो कि तुम भी उसे जानने से डरते हो कि वह तुम्हारे भीतर कहीं भी है। तुम एक रुकावट पैदा करते हो, तुम एक दीवाल खडी कर देते हो। और जो कुछ भी निन्दित है उसे तुम दीवाल के उस पार डाल देते हो और फिर तुम उसे भूल जाते हो। वह वहाँ पड़ा रहता है, वह वहीं से काम करता रहता है, वह तुम्हारा मालिक बना रहता है। और अभी भी तुम अपने को धोखा दे सकते हो कि अब वह कहीं भी नहीं है।
वह निन्दित हिस्सा ही हमारा अचेतन बन जाता है। इसीलिए हम कभी ऐसा नहीं सोचते कि हमारा अचेतन मन हमारा ही है। तुम रात सपना देखते हो, तुम एक बहुत कामुकतापूर्ण सपना या बहुत भयानक सपना देखते हो, जिसमें तुमने किसी आदमी को हत्या कर दी हैं। जिसमें कि तुमने अपनी पत्नी की हत्या कर दी है। सुबह तुम्हें कोई अपराध का भाव नहीं लगता, तुम कहते हो कि वह तो केवल सपना था। वह केवल सपना नहीं था। कुछ भी यूं ही नहीं होता। वह तुम्हारा ही सपना था, किन्तु वह तुम्हारे अचेतन से संबंधित था। सवेरे तुम अपने को चेतन मन से जोड़ लेते हो और इसलिए तुम कहते हो कि यह सिर्फ सपना है। इससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं, यह तो बस हो गया। यह असंगत है, आकस्मिक है। तुम उससे कोई संबंध नहीं बना पाते। परन्तु वह तुम्हारा ही सपना था और तुमने ही उसे निर्मित किया था। और वह तुम्हारा ही मन था और तुमने ही कृत्य किया था। सपने में भी तुम्हीं ने हत्या की थी, बलात्कार किया था।
चेतन मन के इस निन्दा करने के कारण ही आदम और ईव डर गये, अपनी नग्नता से लज्जित हुए। उन्होंने अपने शरीर को ढंकने की कोशिश को। केवल अपने शरीर को ही नहीं बाद में अपने मन को भी ढंकने लगे। हम भी वहीं कर रहे हैं। क्या है अच्छा? क्या हैं ‘शुभ’? जो कि समाज के द्वारा अच्छा समझा जाता है, वही तुम अपने चेतन मन में रख लेते ही, और जो कुछ भी बुरा है, समाज द्वारा निन्दित है, उसे तुम अचेतन में फेंक देते हो। वह एक कचरे का थैला हो जाता है। तुम उसमें चीजें फेंकते चले जाते हो और वह वहीं पड़ी रहती है। गहरी जड़ों में, नीचे वे अपना काम करती रहती हैं। वे तुम्हें हर क्षण प्रभावित करती रहती हैं। तुम्हारा चेतन मन तुम्हारे अचेतन मन के समक्ष नपुंसक सिद्ध होता है क्योंकि तुम्हारा चेतन मन केवल समाज को उप-उत्पत्ति है और तुम्हारा अचेतन ही प्राकृतिक है, जैविक है। उसमें शक्ति है, उसमें ऊर्जा है। इसलिए तुम ‘भली’ बातें सोचते रह सकते हो, किंतु तुम ‘बुरी’ बातें करते चले जाओगे।
संत अगस्तीन बतलाते हैं- ‘हे परमात्मा, यही एक मात्र मेरे लिए समस्या है-जो कुछ भी मैं सोचता हूँ कि करने योग्य है मैं कभी नहीं करता, और जो कुछ भी मैं सोचता हूं कि नहीं करना है वही मैं सदैव करता हूं।’ यह समस्या संत अगस्तीन के लिए ही नहीं है, यह समस्या प्रत्येक के लिए है, जो भी चेतन और अचेतन में बंटे हैं लज्जित अनुभव करने के कारण ही आदम दो में बंट गया। वह अपने प्रति ही लज्जा से भर गया। और जिस हिस्से के प्रति वह लज्जित अनुभव करने लगा, वह हिस्सा उसके चेतन मन से कट गया। तब से आदमी एक बंटा हुआ, खण्डित जीवन जी रहा है। और उसे लज्जा क्यों अनुभव हुईं? वहां कोई भी तो नहीं था। न कोई उपदेशक था, न ही धार्मिक चर्च था, जिसने उसे शरम करने के लिए कहा हो।
जिस क्षण भी तुम सजग होते हो, अहंकार प्रवेश करता है। तुम एक परीक्षक हो जाते हो। बिना होश के तुम मात्र एक हिस्से होते हो- बड़े विराट जीवन के हिस्से। तुम अलग और भिन्न नहीं होते। यदि एक लहर होश में आ जाये तो उसका अहंकार खडा हो जायेगा और उसी क्षण वह सागर से भिन्न हो जायेगी यदि लहर होश में आ सके और सोचे कि मैं हूं तो लहर अपने को सागर से एक नहीं समझ सकती, दूसरी लहरों से एक नहीं मान सकती। वह भिन्न हो जाती है, और अपने को अलग मानने लगती है। अहंकार पैदा हो गया। ज्ञान अहंकार निर्मित करता है।
बच्चे बिना अहंकार के होते हैं, क्योंकि उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता। वे निर्दोष होते हैं, और निर्दोषिता में अहंकार प्रवेश नहीं कर सकता। जितने तुम विकसित न होते हो, इतने ही अधिक तुम अहंकार में भी बृद्धि करते हो। बूढ़ों के पास बड़ा सघन व गहरा अहंकार होता है। यह स्वाभाविक है। उनका अहंकार सत्तर अस्सी वर्ष तक जिया है। उनके पास लम्बा इतिहास है।
तुम्हें आश्चर्य होता है यह जान कर कि तुम याद क्यों नहीं रख पाते-अपने बचपन की। यदि तुम अपनी स्मृति में पीछे लौटकर जाओ, तो तुम तीन या चार वर्ष के अधिक पीछे नहीं जा सकते। ज्यादा-से-ज्यादा तुम पाँचवे या चौथे या तीसरे वर्ष की कोई बात याद कर सकते हो परन्तु पहले तीन वर्ष बिल्कुल खाली हैं। वे वर्ष भी थे तो जरूर और बहुत-सी घटनाएँ हुईं भी थीं किन्तु हम उनको याद क्यों नहीं कर पाते? क्योंकि उस समय कोई अहंकार निर्मित नहीं हुआ था, इसलिए समस्या आना कठिन है। एक प्रकार से तुम नहीं थे, इसलिए तुम याद कैसे कर सकते हो? तुम होते, तो तुम याद भी रख लेते, परन्तु तुम नहीं थे।
तुम याद नहीं कर सकते। स्मृति तभी बनती है जबकि अहंकार अस्तित्व में आ गया होता है। यदि तुम नहीं हो, तो स्मृति कहां खडी होगी। तीन साल तो बडी बात है, एक बच्चे के लिए तो प्रत्येक क्या ही एक घटना होती है। वास्तव में उसे अघिक याद होना चाहिए। उसे प्रारंभिक वर्ष अधिक स्मरण होने चाहिए जीवन के शुरू के दिन, क्योंकि तब हर चीज़ रंगीन थी, हर बात अपूर्व थी। जो कुछ होता था, नवीन था। परन्तु उसकी कोई स्मृति नहीं है। क्यों? क्योंकि अहंकार नहीं था। स्मृति को लटकने के लिए अहंकार की खूंटी की आवश्यकता होती हैं।
जैसे ही बच्चा अपने को दूसरों से भिन्न समझने लगता है उसे लज्जा अनुभव होती है। उसे वही शर्म मालूम होतीं है जो कि आदम को हुईं थी। आदम ने अपने को नग्न पाया-पशुओं की तरह नग्न, हर चीज की तरह नग्न। तुम्हें भिन्न होना चाहिए, अपूर्व होना चाहिए तुम्हें दूसरों के जैसा नहीं होना चाहिए। तभी केवल तुम्हारा अहंकार बढ़ सकता है। पहला कृत्य तो नग्नता को ढंकने का था अचानक आदम भिन्न हो गया। वह पशु नहीं रहा। आदमी आदम की तरह और उसकी लज्जा के साथ पैदा होता है। आदम की लज्जा की प्रतीति के साथ ही मनुष्य पैदा होता है। एक बच्चा आदमी नहीं होता। वह आदमी तभी होने लगता है जबकि वह अपने को भिन्न, दूसरों से अलग अनुभव करे-जबकि वह एक अहंकार हो जाए। इसलिए ध्यान रहे, धर्म तुमको दोष का भाव नहीं देता। बल्कि वह तुम्हारा ही अहंकार होता है। धर्म इस भाव का शोषण करता है-वह दूसरी बात है। हर पिता उसका शोषण करता है, वह भी दूसरी बात है। हर पिता अपने बेटे से कहता है, क्या कर रहे हो, पशुओं की तरह व्यवहार कर रहे हो? हंसो मत, चिल्लाओ मत, यह मत करो, वह मत करो, दूसरों के सामने यह मत करो। क्या कर रहे हो, पशुओं की तरह आचरण कर रहे हो। और यदि बच्चा सोचता है कि वह पशु है तो उसके अहंकार को चोट लगती है। अपने अहंकार को तृप्ति के लिए, वह अनुकरण करता है, वह भी पंक्ति में चलने लगता है।
पशु होना बड़ा आनन्दपूर्ण है, क्योंकि तब स्वतंत्रता है-एक गहरी स्वतंत्रता-चलने की, करने की। परन्तु इगो को, अहंकार को यह पीड़ा देता है इसलिए चुनाव करना पड़ता है। यदि तुम स्वतंत्रता को चुनते हो तो तुम पशुओं की भांति हो जाओगे निन्दित। इस संसार में भी और उस संसार में भी तुम निन्दित हो जाओगे। समाज तुम्हें नर्क में फेंक देगा। इसलिए तुम्हें आदमी होना है, पशु की तरह नहीं होना। तभी अहंकार की तृप्ति होती है।
तब कोई अहंकार के इर्दगिर्द जीने लगता है। वह वही करता है जो कि इगो-फुलफिलिंग है, अहंकार को मारने वाला है। परन्तु तुम प्रकृति को पूर्णतः झुठला नहीं सकते। वह तुम्हें प्रभावित करती रहेगी। तब कोई दो जीवन जीने लगता है, एक आदम के पूर्व को जिन्दगी, दूसरी आदम के बाद की जिन्दगी तब कोई दो जीवन जीने लगता-है, कोई दो मन के साथ, डबल माइंड के साथ जीने लगता है। तब एक चेहरा निर्मित होता है जो कि समाज को दिखाने के लिए होता है। एक निजी चेहरा होता है और एक सामाजिक चेहरा। परन्तु तुम अपने निजी चेहरे ही हो। और प्रत्येक मनुष्य आदम ही है-नग्न पशु की तरह परन्तु तुम उसे समाज को नहीं दिखा सकते। समाज को तुम आदम के बाद का चेहरा दिखलाते हो-साफ-सुथरा; हर एक बात समाज के अनुसार। जो कुछ भी तुम दूसरों को दिखाते हो वह वास्तविक नहीं होता, बल्कि अपेक्षित होता है जो है वह नहीं, जो होना चाहिए वह।
इसलिए हर मनुष्य को एक चेहरे से दूसरा चेहरा सतत बदलते रहना पड़ता है। निजी चेहरे से सामाजिक चेहरा बदलते रहना पड़ता हैं। यह एक बड़ा तनाव है। इससे बहुत उर्जा व्यय होती है। परन्तु मैं पशुओं की भांति हो जाने के लिए नहीं कह रहा हूं। वह अब तुम हो भी नहीं सकते। निषेधित फल वापस नहीं लौटाया जा सकता। तुमने उसे खा लिया है, वह तुम्हारी हड्डी और रक्त हो गया है। उसे फेंकने का कोई मार्ग भी नहीं, उसे वापस करने का भी कोई रास्ता नहीं कि हम परमात्मा के पास जाएं और कहें-मैं इसे वापस करता हूं- इस ज्ञान के निषेधित फल को। मुझे क्षमा करें। कोई रास्ता नहीं। वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं। अब वह तुम्हारा रक्त बन गया है। हम वापस नहीं लौट झुकते। हम केवल आगे जा सकते हैं। वापस लौटना होता ही नहीं। हम ज्ञान के नीचे नहीं जा सकते। हम केवल ज्ञान के पार जा सकते हैं केवल एक मन की निर्दोषिता संभव है-संपूर्ण जागरूकता की निदोंषिता।
दो तरह की निर्दोषितायें है-एक ज्ञान के नीचे की है-बच्चों को, आदम के पूर्व की, पशुओं जैसी। ज्ञान के नीचे तुम, तुम नहीं होते। अहंकार नहीं होता, वह उपद्रवी नहीं होता। तुम इस समग्र ब्रह्म के हिस्से होते हो। तुम नहीं जानते कि तुम उसके एक हिस्से हो, तुम किसी ब्रह्म को नहीं जानते। तुम कुछ भी नहीं जानते। तुम होते हो, बिना कुछ जानते हुए। सचमुच तब कोई दुख नहीं होता क्योंकि बिना ज्ञान के दुख असंभव है। दुख को भोगने के लिए भी किसी को सजग होना पड़ता है। तुम दुख को केसे भोगीगे, यदि तुम्हें उसका पता नहीं है।
तुम्हारा ऑपरेशन किया जा रहा है। एक शल्य-चिकित्सक तुम्हारा ऑपरेशन कर रहा है। यदि तुम होश में हो तो तुम्हें पीडा होगी। यदि तुम बेहोश हो तो तुम्हें पीड़ा नहीं होगी। पांव पूरा काट दिया गया है और फिर भी कोई पीड़ा नहीं है। पीड़ा का कुछ पता नहीं चलता है। तुम बेहोश हो, तुम बेहोशी में पीड़ा नहीं भोग सकते। तुम्हें पीड़ा होगी यदि तुम होश में हो। जितने अधिक सचेतन, उतनी ही अधिक पीड़ा होगी। इसीलिए जितना अधिक आदमी का ज्ञान बढ़ता है उतना ही वह अधिक पीड़ा को अनुभव करता है।
पुराने आदिम लोग इतने दुखी अनुभव नहीं करते थे, जितने कि तुम करते हो। इसका कारण यह नहीं कि वे अच्छे लोग थे बल्कि इसलिए कि उन्हें पता ही नहीं था। आज भी, गांव के रहने वाले लोग आधुनिक जगत के हिस्से नहीं हुए है और वे एक सरल, निर्दोष ढंग से रहते हैं। वे इतने दुखी नहीं है। इसके कारण बहुत-सी भ्रांत धारणाएँ विचारकों के खयाल में आई है। रूसो या टॉल्सटॉय या गाँधी : वे सोचते है कि चूंकि गाँव के लोग ज्यादा आनन्दपूर्ण हैं, अच्छा होगा यदि सारा संसार ही पुनः आदिम युग में पहुँच जाए, वापस जंगल में लौट जाए, प्रकृति में वापस पहुँच जाए। परन्तु वे गलत हैं क्योंकि जो आदमी सभ्यता से भरे शहर में रह चुका उसे गाँवों में कष्ट होगा। उस भाँति कोई भी गाँव का आदमी दुःखी नहीं होगा।
रूसो लगातार प्रकृति में वापस लौट जाने की बात करता चला जाता है और पेरिस में रहता जाता है। वह स्वयं गाँव में रहने नहीं जाएगा। वह गाँव के जीवन के संगीत की बात करता है, वहाँ के सौंदर्य की, वहाँ की सरलता की बात करता हैं परन्तु वह स्वयं गाँव नहीं जायेगा। और यदि वह वहाँ चला जाता है तो उसको इतना कष्ट होगा जितना कि किसी गाँव के रहने वाले को कभी नहीं होगा, क्योंकि यदि एक बार चेतना विकसित ही गई तो तुम उसे उतार नहीं सकते। वह ‘तुम’ हो। वह कुछ ऐसी-बात नहीं है जिसे कि तुम उतार सको, वह तुम्ही हो। केसे तुम स्वयं को उतार सकते हो? तुम्हारी चेतना ही तुम हो।
आदम लज्जा से पीड़ित हुआ, उसे अपनी नग्नता का बोध हुआ; उसका कारण है अहंकार। अहंकार एक केन्द्र है। आदम ने एक केन्द्र को पा लिया। यद्यपि वह मिथ्या ही था, परन्तु फिर भी केन्द्र तो था। अब आदम सारी समष्टि से भिन्न था। वृक्ष थे, तारे ये, सब कुछ था परन्तु आदम अपने में एक द्वीप बना पीड़ित हो रहा था। अब उसका जीवन इसका ही था, न किनारे ब्रह्म का एक हिस्सा और जैसे ही तुम्हारी जिन्दगी तुम्हारी हो जाती है, संघर्ष का प्रवेश होता है। तुम्हें एक-एक इंच संघर्ष करना पड़ता है जीने के लिए, बचने के लिए।
पशु संघर्षरत नहीं है। यद्यपि वे हमें अथवा डार्विन को संघर्षरत दिखाई पड़ते हैं, वे संघर्ष में नहीं है। वे डार्विन को लड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं क्योंकि हम अपने ही विचार प्रक्षेपित करते रहते है। वे संघर्ष में नहीं हो सकते। वे हमें संघर्षरत दिखाई पड़ सकते हैं क्योंकि हमारे लिए सभी कुछ संघर्ष है। ऐसा दिखलाई पड़ सकता है कि वह संघर्ष में डूबे है, परन्तु वस्तुतः वे संघर्ष में नहीं डूबे हैं। वे तो इस समष्टि की एकता में बह रहे हैं। यहाँ तक कि यदि वे कुछ भी कर रहे हैं तो उसके पीछे भी कोई कर्ता नहीं है। वह एक प्राकृतिक घटना है।
यदि एक शेर अपने किसी शिकार को खाने के लिए मार रहा है, तो उसके पीछे थी कोई कर्ता नहीं है, कोई हिंसा नहीं है। वह एक साधारण घटना है केवल भूख के लिए भोजन। वहाँ कोई भूखा नहीं है, पर सिर्फ भूख है। एक भोजन पाने को यांत्रिक व्यवस्था, न कि हिंसा। केवल आदमी हिंसक हो सकता है, क्योंकि केवल आदमी ही कर्ता हो सकता है। तुम बिना भूख के भी मार सकते हो, किन्तु एक शेर बिना भूख के कभी नहीं मार सकता। क्योंकि शेर में उसकी भूख किसी को मारती है, न कि शेर। एक शेर खेल में कभी नहीं मार सकता। शेर के लिए शिकार जैसा कोई खेल नहीं होता। वह सिर्फ मनुष्य के लिए ही होता है। तुम खेल में भी हत्या कर सकते हो- सिर्फ मजे के लिए। यदि शेर तृप्त हो गया है, तो फिर कोई हिंसा नहीं होगी, कोई खेल नहीं होगा। वह तो सिर्फ भूख की घटना है। वहाँ कोई करने वाला नहीं है।
प्रकृति एक गहन वैधिक प्रवाह है। इस प्रवाह में आदम अपने प्रति जाग जाता है। और इसलिए सजग हो जाता है कि उसने ज्ञान के वृक्ष का निषेधित फल खा लिया था। ज्ञान निषिद्ध था। ‘ज्ञान के वृक्ष के फल मत खाता।’ ऐसा आदेश था। आदम ने उसकी अवज्ञा की, और तब फिर वह वापस नहीं लौट सकता था। और बाइबिल कहती है कि आदम के विद्रोह के लिए सभी को दुःख उठाना पड़ेगा क्योंकि प्रत्येक आदमी एक तरह से पुनः आदम ही है।
परन्तु तुम उसके लिए दुःख नहीं मानोगे। तुम उसके लिए दुख केसे मानोगे जो कि किसी और ने कभी किया हो? परन्तु यह इतिहास प्रति दिन सतत पुनः होता रहता है। हर बच्चे को ईडन के बाग से निष्कासित किया जाता है। प्रत्येक बच्चा आदम की तरह पैदा होता है, और तब उसे निकाल दिया जाता है। इसी कारण कवियों में, कलाकारों में, साहित्यिक लोगों में नोसल्जिया-अतीत के प्रति इतना लगाव होता हैं। इन सभी लोगों में जो कि व्यक्त कर सकने की युक्ति जुटा सकें। अतीत के प्रति भारी लगाव होता है। वे सोचते हैं कि बचपन एक सुनहरा युग था।
प्रत्येक यह सोचता है कि बचपन बहुत सुन्दर था, स्वर्ग था, और हर एक बचपन में वापस लौटना चाहता है। यहाँ तक कि एक बूढ़ा भी जो मरण शैय्या पर पड़ा है, अपने बचपन के बारे में उसी तरह से सोचता है कि बचपन बड़ा सौन्दर्य से भरा था, आनन्द था, फूल थे, तितलियाँ थीं, परियों के सपने थे। प्रत्येक अपने बचपन में एक वण्डरलैण्ड में रहता है, खाली अलाइस ही नहीं, बल्कि प्रत्येक बच्चा! यह छाया हमारे साथ-साथ चलती है।
आखिर बचपन इतना सुन्दर, इतना आनन्दपूर्ण क्यों है? क्योंकि तुम तब समष्टि के बहाव के साथ एक होते हो, बिना किसी दायित्व के पूर्ण स्वतन्त्रता में, बिना किसी अन्तःकरण के, बिना किसी बोझ के। तुम इस तरह जिये-जैसे कुछ भी करने के लिए नहीं। तुम्हें कुछ भी तो नहीं करना था, बस जो जैसा था, स्वीकृत था। और तब अहंकार आता है, और तब आते हैं संघर्ष और द्वंद्व। तब हर बात एक दायित्व हो जाती है। और सारी स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है और हर क्षण एक बन्धन बन जाता है।
मनौवैज्ञानिक कहते हैं कि धर्म इसी नोसल्जिया को, इसी बचपन को वापस लौट जाने की इच्छा को प्रतिबिम्बित करता है। और वे इससे भी आगे चले जाते हैं-वे कहते हैं कि अन्त में प्रत्येक की मनोकामना फिर से माँ के गर्भ में पहुँच जाने की होती है, क्योंकि जब तुम गर्भ में थे तो तुम इस समिष्ट के हिस्से थे। यह समष्टि ही तुम्हें भोजन दे रही थी। श्वास लेने की भी आवश्यकता न थी माँ ही तुम्हारे लिए श्वास ले रही थी। तुम्हें माँ की कोई खबर नहीं थी। तुम्हें अपना भी कुछ होश नहीं था। तुम बिना किसी होश के थे।
गर्भ ही ईडन का बाग है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य आदम की भांति ही जन्म लेता है और प्रत्येक को ज्ञान का निषेधित फल खाना पड़ता है, क्योंकि जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो तुम्हारा ज्ञान भी बढ़ता है। वह अनिवार्य है, वह होगा ही; अतः ऐसा नहीं है कि आदम ने विद्रोह किया हो। विद्रोह विकास का हिस्सा है। वह ओर कुछ भी नहीं कर सकता उसे फल खाना ही पडेगा। हर बच्चे को विद्रोह करना ही पड़ता है, फल खाना ही पड़ता है। हर बच्चे को विद्रोही होना ही पड़ता है। जिन्दगी की ज़रूरत है। उसे माँ से दूर जाना ही पडेगा, पिता से अलग होना ही पड़ेगा। वह उसकी कामना करेगा, स्वप्न देखेगा। परन्तु फिर भी दूर जायेगा। यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसे टाला नहीं जा सकंता।
पूछा गया है कि इस भाव के पीछे क्या गहरा अर्थ छिपा है? यही अर्थ हैं कि ज्ञान अहंकार प्रदान करता है, अहंकार तुममें तुलना को, निष्कर्ष को, व्यक्तित्व को पैदा करता है। तुम अपने को पशु नहीं मान सकते। मनुष्य ने इस तथ्य को छिपाने के लिए कि वह ‘पशु है, सभी कुछ किया है। हम पशु हैं, इसे छिपाने के लिए हम हर रोज़ कुछ-न-कुछ कर रहे हैं। परन्तु हम पशु हैं, और इस तथ्य को छिपाने से तथ्य नष्ट नहीं हो जाता। बल्कि यह एक विकृत तथ्य हो जाता है। इसलिए जब यह ढंका हुआ तथ्य प्रकट होता है, तब आदमी और भी अधिक पशु साबित होता है। यदि तुम हिंसक होते हो, तो कोई भी पशु तुमसे प्रतियोगिता नहीं कर सकता। कैसे कर सकता है? किसी पशु ने कभी किसी हिरोशिमा, किसी वियतनाम को नहीं जाना। केवल मनुष्य ही हिरोशिमा को पैदा कर सकता है उसकी कोई तुलना नहीं है
सारे इतिहास में पशु सिर्फ कठपुतलियों से खेल रहे हैं- हिरोशिमा की तुलना में। उनकी हिंसा ना-कुछ है। यह इकट्ठी कर ली गयी हिंसा है- छिपी हुई, एकत्रित। हम छिपाते चले जाते हैं और वह जितनी इकट्ठी कर लेते है, इतनी ही हमें लज्जा लगती है, क्योंकि हम जानते हैं कि भीतर क्या छिपा है। हम उससे बच नहीं सकते।
एक मनोवैज्ञानिक छिपे हुए तथ्यों के बारे में प्रयोग कर रहा था, जिन्हें कि तुम कितना ही चाहो छिपा नहीं सकते। उदाहरण के लिए, यदि कोई कहे कि वह स्त्रियों के प्रति आकर्षित नहीं होता, तो वह उसका अभ्यास कर सकता है और वह स्वयं को व दूसरों को भरोसा भी दिला सकता है कि वह आकर्षित नहीं होता। परन्तु आदम तो ईंव के प्रति आकर्षित होगा ही, ईव आदम की ओर आकर्षित होगी हो। वह मनुष्य की प्रकृति का हिस्सा है, जब तक कि कोई पार नहीं चला जाये, जब तक कि कोई बुद्ध न हो जाए।
किन्तु तब बुद्ध नहीं कहते कि मैं स्त्रियों के प्रति आकर्षित नहीं होता, क्योंकि ऐसा कहने के लिए भी तुम्हें आकर्षण और विकर्षण की भाषा में सोचना पड़ता है। वे नहीं कहेंगे कि मैं स्त्रियों से विकर्षित होता हूँ, क्योंकि जब तक कोई आकर्षित नहीं होता, कोई विकर्षित भी नहीं होता। यदि तुम उनसे पूछो, तो वे इतना ही कहेंगे कि स्त्रियाँ व पुरुष दोनों ही मेरे लिए असंगत हैं। मैं दोनों ही नहीं. हूँ। यदि मैं पुरुष हूँ तो स्त्री कहीं-न-कहीं छिपी होगी। यदि में स्त्री हूँ तो पुरुष कहीं-न-कहीं छिपा होगा
एक मनोवैज्ञानिक ने अभी एक आदमी पर प्रयोग किया जो कि कहता था-मैं स्त्रियों से प्रभावित नहीं होता। और वह नहीं होता था, जहाँ तक ऊपरी बातों का संबंध है। उसे कभी किसी के प्रति आकर्षित होते नहीं देखा गया। तब इस मनोवैज्ञानिक ने उसे तस्वीरें दिखाईं-दस तस्वीरें अलग-अलग चीजों की। केवल एक तस्वीर उसमें एक नग्न स्त्री की थी। मनोवैज्ञानिक यह नहीं देख रहा था कि वह आदमी कौन-सी तस्वीर देख रहा है। वह तो उसकी आँखें देख रहा था। तस्वीर का उलटा हिस्सा मनोवैज्ञानिक की तरफ था। वह उस आदमी को तस्वारें दिखाता था और उसकी आँखों मेँ देखता था। उसने कहा कि यदि तुम आकर्षित नहीं होते, तो मुझे पता चल जाएगा। अन्यथा केवल तुम्हारी आँखें देखकर मैं तुम्हें बता दूंगा कि कब तुम नग्न स्त्री की तस्वीर देख रहे हो। मैं तस्वीर नहीं देख रहा हूँ।
तस्वीरें दिखलाई गई और इस बार मनस्विद कहता है कि अब तुम नग्न स्त्री को तस्वीर देख रहे हो, क्योंकि जिस क्षण भी नग्न चित्र सामने होगा, आँखें फैल जायेंगी-और वह अनैच्छिक कृत्य हैँ। तुम उस पर काबू नहीं कर सकते तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यह एक रिफलेक्स-ऐक्शन है। आँखें जैविक रूप से वैसी बनी हैं। वह आदमी कहता है कि मैं आकर्षित नहीं होता, परन्तु वह केवल चेतन मन है। अचेतन तो हर बार आकर्षित होता है।
जब तुम किसी तथ्य को छिपाते हो तो वे तुम्हें प्रेरित करते ही चले जाते हैं और तुम ज्यादा-और ज्यादा लज्जा का अनुभव करते हो। जितनी ऊँची सभ्यता और संस्कृति होगी, उतने ही अधिक लोग ज्यादा लज्जित अनुभव करेंगे। जितने तुम यौन के प्रति लज्जित होते हो उतने ही तुम अधिक सभ्य होते हो। पर तब सभ्य आदमी विक्षिप्त होकर रहेगा ही-खण्डित, विभाजित होगा ही। यह विभाजन शुरू हुआ आदम के साथा
और दूसरी बात पूछी गई है कि ज्ञान का निषेधित फल यौन का ही फल है। आपका इस बारे में क्या दृष्टिकोण है?
सचमुच, ऐसा ही है। परन्तु इतना ही नहीं है। यौन पहला ज्ञान है, और यौन ही अन्तिम ज्ञान है। जब तुम मनुष्यता में प्रवेश करते हो, तो पहली चीज़ जो कि तुम अनुभव करते हो, और सजग होते हो वह है यौन; और आखिरी चीज़ जबकि तुम मनुष्यता के पार जाते हो, तब भी यौन ही होती है-पहली और अन्तिम। क्योंकि सेक्स बहुत बुनियादी है, वह प्रथम बार होगी ही। वह अल्फा और वही ओमेगा है।
एक बच्चा सिर्फ बच्चा ही है, जब तक कि वह काम की दृष्टि से परिपक्व नहीं हो जाता। जैसे ही वह काम की दृष्टि से परिपक्व हो जाता है, वह आदमी हो जाता है। काम परिपक्वता के साथ ही सारा संसार भिन्न हो जाता है। वह संसार फिर वही नहीं रह जाता, क्योंकि तब तुम्हारा दृष्टिकोण, तुम्हारी पकड़, तुम्हारा चीजों को देखने का सारा ढंग ही बदल जाता है। जब तुम स्त्री के प्रति सजग होते हो, तुम आदमी होने लगते हो।
वस्तुतः पुरानी बाइबिल की पुस्तक में, ‘नोलेज’ शब्द का हिब्रू भाषा में यौन के अर्थ में ही प्रयोग किया गया है। उदाहारण के लिए ऐसे वचन हैँ कि ‘वह दो वर्षों तक अपनी पत्नी के पास नहीं जाता’। ‘ही डू नॉट ‘नो’ हिज वाइफ फॉर टू इयर्स’। इसका अर्थ है कि दो वर्षों तक उनमें कोई यौन-सम्बन्ध नहीं थे। उसने अपनी पत्नी को पहली बार उस दिन जाना- हि ‘न्यू’ हिज वाइफ फॉर दि फर्स्ट टाइम ऑन दैट डे। इसका अर्थ होता है कि पहली बार यौन संबंध हुआ। ‘‘नोलेज’’ का हिब्रू भाषा में अर्थ हैं सैक्स। नोलेज यौन का ज्ञान। इसलिए यह सही बात है कि आदम और ईव वह विशेष फल खाने के बाद ही सेक्स से परिचित हुए।
यौन-सेक्स सर्वाधिक आधारभूत बात है। बिना यौन के जीवन नहीं हो सकता। जीवन प्रकट होता है-सेक्स के कारण ही और सेक्स के कारण ही खो भी जाता हैं। इसीलिए बुद्ध और महाबीर कहते हैं कि जब तक तुम यौन के पार नहीं चले जाते तुम बार-बार जन्मते रहोगे। तुम जीवन के पार नहीं जा सकते क्योंकि भीतर अगर काम-वासना है, तो तुम फिर से जन्म ले लोगे। अतः सेक्स किसी अन्य को पैदा करने के लिए नहीं है, अन्ततः यह तुमको भी जन्म देता है। यह दोहरा काम करता है। तुम काम के द्वारा किसी और को जन्म देते हो, किन्तु वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। तुम्हारी काम वासना के कारण ही तुम्हारा फिर जन्म होता है। तुम अपने को ही बार-बार जन्म देते रहते ही। आदम अपने काम के प्रति सजग हो गया, वह पहली सजगता थी। परन्तु यह काम सिर्फ प्रारंभ था। उसके बाद शेष सब पीछे-पीछे आयेगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक जिज्ञासा एक तरह से यौन-संबन्धी है इसलिए यदि कोई आदमी नपुंसक पैदा हो, तो उसे कोई जिज्ञासा नहीं होती-सत्य के लिए भी नहीं। क्योंकि जिज्ञासा बुनियादी रूप से सेक्सुअल ही होती है किसी छिपी चीज को खोजना, किसी अनजानी बात को जानना, अज्ञात को जानना-काम-संबंधी बात ही है। बच्चे एक दूसरे के साथ खेल खेलते हैं कि एक दूसरे के विभिन्न अंगों को जानें। यह जिज्ञासा की शुरुआत है, और सारे विज्ञान का प्रारंभ है-जो छिपा है उसे खोजना, जिसका पता नहीं है-उसे जानना।
वास्तव में, जितना कोई व्यक्ति कामुक होता है, उतना ही अधिक आविष्कारक हो सकता है। जितना अधिक कोई व्यक्ति कामुक होता है उतना ही बुद्धिमान होता है। कम काम-ऊर्जा के साथ कम बुद्धि होती है; क्योंकि यौन एक गहरा तथ्य है जिसे कि उघाड़ना है-केवल शरीर में ही नहीं, केवल विपरीत लिंगी-शरीर में ही नहीं-बल्कि सभी छिपी हुई वस्तुओं में।
अतः यदि समाज बहुत अधिक सेक्स की निन्दा से भरा है तो वह कभी भी वैज्ञानिक नहीं हो सकता, क्योंकि तब वह जिज्ञासा को ही निन्दित कर देता है। पूरब वैज्ञानिक नहीं हो सका क्योंकि वह यौन के प्रति अत्याधिक विरोध से भरा था। और पश्चिम भी वैज्ञानिक नहीं हो पाता यदि ईसाईयत की पकड़ उस पर बनी रहती। यह केवल तभी संभव हो सका जब कि वेटीकन विलीन-सा होने लगा, जबकि रोम अधिक महत्त्वपूर्ण न रहा। केवल इन तीन सौ सालों में ही पश्चिम वैज्ञानिक हो सका, जबकि ईसाईयत का महल धूल-धूसरित हो गया और विलीन हो गया। काम-ऊर्जा के मुवत होने से ही अनुसंधान का द्वार खुल गया।
यौन की दृष्टि से मुक्त एक समाज वैज्ञानिक होगा औरयौन को निषेध करने वाला एक समाज गैर-वैज्ञानिक होगा। सेक्स के साथ ही हर चीज़ जीवन्त होने लगती है। यदि तुम्हारा बच्चा, जबकि वह परिपक्व होने लगता है, यौन की दृष्टि से परिपक्व, तो वह विद्रोही होने लगता है। तब उसे भूल जाओ। वह बहुत प्राकृतिक बात है। उसको नसों में नई ऊर्जा के आने से, एक नये जीवन के प्रादुर्भाव की वजह से वह विद्रोही होगा ही। वह विद्रोह सिर्फ एक हिस्सा है। वह अवश्यमेव अविष्कारक होगा। वह नई चीजों की खोज करेगा, नये मार्गों की, नये ढंगों की, जीवन के नये तरीकों की, नये समाज की। वह नये सपने देखेगा, वह नये जगत के बारे में सोचेगा। यदि तुम सेक्स को निन्दित कर देते हो, तब फिर युवकों में कोई विद्रोह नहीं होगा। सारे संसार में युवकों का विद्रोह यौन स्वतन्त्रता का ही एक हिस्सा है।
पुरानी सभ्यता में कोई विद्रोह नहीं थो। चूंकि काम की इतनी अधिक निदा की गई थी कि ऊर्जा बुरी तरह दब गई। उस ऊर्जा के दमन के साथ ही हर तरह का विद्रोह भी दब गया। यदि तुम काम-ऊर्जा को स्वतन्त्रता देते हो, तो फिर सब प्रकार का विद्रोह होगा, सारा विद्रोह सामने आयेगा।
ज्ञान का यौन संबंधी आयाम भी होता है। इसलिए एक तरह से यह बात सही है कि आदम यौन के प्रति सजग हो गया-यौन के आयाम के प्रति। किन्तु उस आयाम के साथ हौ वह दूसरी भी बहुत-सी चीजों के प्रति सजग हो गया यह ज्ञान का सारा फैलाव, यह ज्ञान का विस्फोट, यह अज्ञात की खोज, यह चन्द्रमा तथा दूसरे नक्षत्रों को यात्रा यह सब सेक्स की, काम की प्यास है। और यह ज्ञान की खोज और-और दूरी तक होगी, क्योंकि एक नईं ऊर्जा का प्रादुर्भाव हुआ हैं। और अब यह ऊर्जा नये रूप लेगी तो नये साहस के काम करेगी।
यौन व यौन की सजगता के साथ, आदम एक लम्बी यात्रा पर निकल गया। हम सभी उस पर हैं, प्रत्येक उस यात्रा पर है। क्योंकि यौन केवल तुम्हारे शरीर का ही हिस्सा नहीं है। वही तुम हो। तुम यौन से ही पैदा होते हो, और यौन के नष्ट हो जाने पर तुम नष्ट हो जाते हो। तुम्हारा जन्म भी यौन का जन्म है और तुम्हारी मृत्यु ही यौन की मृत्यु है। इसलिए जैसे ही तुम्हें लगे कि काम-ऊर्जा समाप्त हो गई, जानें कि मृत्यु निकट है।
पैंतीस वर्ष शिखर के वर्ष हैं। काम-ऊर्जा शिखर पर होती है, और उसके बाद हर चीज़ नीचे की और जा रही है और व्यक्ति बूढा होने लगता है-मृत्यु की राह पर सत्तर या उसके करीब मृत्यु की उम्र है। यदि पचास की उम्र पर काम-ऊजां शिखर पर होगी तो व्यक्ति की सामान्य आयु सौ वर्ष हो जायगी। पश्चिम जल्दी ही औसत सौ वर्ष को उम्र प्राप्त कर लेगा, क्योंकि पचास साल का आदमी भी अब लड़कों की तरह व्यवहार करता है। यह अच्छा है। इससे पता चलता है कि समाज जिन्दा है। यह इस बात को बतलाता है कि जिन्दगी लम्बी ही गई है।
यदि सौ-साल का आदमी लड़कों की तरह व्यवहार करने लगे तो जिन्दगी दो सौ वर्ष की हो जायेगी, क्योंकि काम-ऊर्जा ही आघारभूत ऊर्जा है। काम-ऊर्जा के कारण ही तुम युवा हो, और काम-ऊर्जा के कारण ही तुम बूढे हो जाओगे। सेक्स के कारण ही तुम पैदा होते हो, और सेक्स के कारण ही तुम मर जाओगे। और इतना ही नहीं, बुद्ध, महावीर और कृष्ण कहते हैं किं कामवासना के कारण ही तुम फिर से पैदा होते हो। यह शरीर तो तुम्हारा काम से चलता ही है, बल्कि तुम्हारे सारे शरीर भी लगतार कामवासना से संचालित हैं।
सचमुच जब आदम पहली बार सचेत हुआ तो वह काम के प्रति ही सजग हुआ। यह एक बहुत बुनियादी तथ्य है। परन्तु ईसाईयत ने इसे गलत ही अर्थ दे दिया और तब बहुत नासमझी की बातें उसके पीछे आईं। ऐसा कहा गया कि चूँकि आदम सेक्स के प्रति सजग हो गया और उसे लज्जा अनुभव हुई इसलिए सेक्स बुरा है और पाप है- ओरिजनल सिन- प्रथम बुनियादी पाप- ऐसा नहीं है। यह ओरिजनल लाइट है- प्रथम प्रकाश है। वह इसलिए नहीं लज्जित हुआ कि यौन बुरा है, बल्कि इसलिए कि उसने देखा कि यौन तो पशुता का हिस्सा है और उसने सोचा कि मैं पशु नहीं हूं। इसलिए यौन से लड़ना पड़ेगा। उसे काटकर फेंकना पड़ेगा। किसी भी तरह काम रहित होना पड़ेगा। यह गलत अर्थ है। यह ईसाईयों द्वारा कहानी को गलत अर्थ देना है। अतः काम से लड़ो। धर्म काम के खिलाफ एक युद्ध हो गया। यदि धर्म काम के विरोध में युद्ध है तो फिर धर्म जीवन के खिलाफ भी एक युद्ध हो गया।
वस्तुतः धर्म काम के खिलाफ युद्ध नहीं है, वह सिर्फ एक प्रयास है- काम के पार जाने का, खिलाफत में नहीं। यदि तुम विरुद्ध हो गये तो तुम उसी तल पर रहोगे। तब तुम कभी पार नहीं जा सकोगे।
इसलिए ईसाई सन्त और रहस्यवादी मृत्यु-शैय्या पर पहुँचने तक सैक्स के खिलाफ ही लड़ते रहते हैं। तब आकर्षण पैदा होता है, और हर क्षण वे आकर्षित होते हैं। वहाँ उन्हें आकर्षित करने के लिए कोई भी नहीं है। उनका अपना दमन ही उनके आकर्षण का निर्माता होता है। वे अपने अन्तर्मन में सतत अपने से ही लड़ते हुए एक बहुत ही कष्टप्रद जीवन बिताते रहे हैं।
धर्मं पार जाने के लिए है, न कि लड़ने के लिए। यदि तुम्हें पार जाना है तो तुम्हें सेक्स के पार जाना होगा। अतः काम-ऊर्जा को अतिक्रमण करने के लिए प्रयोग में लाना पड़ेगा। तुम्हें उसके साथ चलना है न कि उससे लड़ना है। तुम्हें उसे अधिकाधिक जानना है। अज्ञान में रहना अब असंभव है। तुम्हें उसे और अधिक समझना है। ज्ञान ही मुक्ति है। यदि तुम उसे जानते ही चले जाओ, जानते ही चले जाओ-अधिकाधिक तो एक घड़ी आती है जब तुम समग्र रूप से सजग ही जाते हो और तब काम विलीन हो जाता है। अब उसी ऊर्जा का तुम्हारे पास एक भिन्न ही आयाम होता है।
काम समतल होता है। जब तुम पूर्ण सजग हो जाते हो, तो काम ऊर्ध्व हो जाता है, लम्ब की भांति होता है। और वे सेक्स की ऊपर की ओर गति ही कुण्डलिनी है। यदि सेक्स समतल रेखा में चले तो तुम दूसरों को और अपने को उत्पन्न करते चले जाते हो। यदि ऊर्जा ऊपर की और लम्ब को भाँति गति करती है तो तुम उसके बाहर हो जाते हो-अस्तित्व के चक्र के बाहर-जैसा कि बौद्ध कहते है कि जीवन के चक्र के बाहर यह एक नया जन्म होगा-नये शरीर में नहीं, बल्कि अस्तित्त्व के नये ही आयाम में। इसे बौद्धों ने निर्वाण कहा है। तुम उसे मोक्ष भी कह सकते हो अथवा जो भी तुम कहना चाहो कह सकते हो। नाम का कोई अर्थ नहीं है।
इसलिए दो मार्ग हैं। आदम अपने काम के प्रति सजग हो गया। अब वह उसे दबा सकता था। वह समतल रेखा में गति कर सकता था उससे सतत लड़ते हुए संताप से भरा और जानता रहता कि पशु भीतर छिपा है। और सदैव यह बहाना करता रहता कि वह वहाँ नहीं है। यही पीड़ा है। और कोई चाहे तो जन्मों समतल रेखा में चलता रह सकता हैं-बिना कहीं भी पहुँचे, क्योंकि वह घूमता हुआ चक्र है। इसीलिए हम उसे चा-चक्र कहते है-एक घुमता हुआ चक्र। तुम चाहो तो इस चक्र से बाहर छलाँग लगा सकते हो। दमन से वह छलांग नहीं लगेगी, वह अधिकाधिक ज्ञान से ही संभव होगी। अतः मैं कहूँगा कि तुमने निषेधित वृक्ष का फल तो खा लिया है, अब पूरा वृक्ष ही खा जाओ। वही केवल एक मात्र मार्ग है। अब वृक्ष ही खा जाओ। एक पत्ता भी पीछे न बचे। पीछे वृक्ष मचे ही नहीं, उसे पूरा ही खा जाओ। तभी केवल तुम ज्ञान से मुक्त हो पाओगे उसके पहले कभी भी नहीं।
और जब मैं कहता हूँ कि पूरा वृक्ष ही खा जाओ, तो मेरा मतलब होता हैं कि अब तुम जब जान ही गये हो, तो पूरा ही जान लो। खण्डित, टूटी-फूटी सजगता ही समस्या है। या तो पूर्णतः अनजान रहो अथवा पूरी तरह सजग हो जाओ। समग्रता ही आनन्द है। पूरी तरह अज्ञानी हो जाओ। तब भी तुम आनन्द में होते हो। तुम्हें उसका पता नहीं होता, परन्तु तुम आनन्द में होगे। जैसे कि तुम जब पूरी तरह नींद में. डूबे हो, कोई सपना भी नहीं चल रहा है, पर केवल नींद में डूबे हो, मस्तिष्क की कोई गति भी नहीं है, तो तुम आनन्द में हो, परन्तु तुम उसे अनुभव नहीं कर सकते। तुम सवेरे इतना ही कह सकते हो कि रात्रि नींद बडी मधुर थी। परन्तु तब उसका कोई फ्ता नहीं था, जब कि वह थी उसका अनुभव तब हुआ जबकि तुम उसमें से बाहर आ गये। जब ज्ञान प्रवेश करता हैं, सजगता आती है। तब तुम कह सकते हो कि रात्रि बडी आनन्दपूर्ण थी।
या तो पूर्णरूप से अज्ञानी हो जायें, जो कि असंभव है, अथवा समग्र रूप से जान लें। समग्रता के साथ ही आनन्द होता है। समग्रता ही आनन्द है। अतः फल को खा लें जड़ के साथ और जाग जाये। एक जागे हुए पुरुष का यही अर्थ होता है, एक बुद्ध का, एक ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति का यही अर्थ होता है कि उसने पूरा वृक्ष को खा लिया। अब कोई सजग होने को भी पीछे नहीं बचा, मात्र एक साघारण जागरूकता ही बची। यह मात्र सजगता-जागरूकता ही ईडन के जाग में पुनः प्रवेश है। तुम दोबारा से वही पुराना रास्ता नहीं खोज सकते, यह तो हमेशा के लिए खो गया। परन्तु तुम एक नया मार्ग खोज सकते हो, तुम फिर से प्रवेश कर सकते हो। और वास्तव मेँ जो कुछ भी शैतान ने आदम को वादा किया था पूरा हो जायेगा, तुम दिव्यस्वरूप हो जाओगे। वह एक तरह से सही है। यदि तुम ज्ञान का फल खा लेते हो तो देवताओं के समान ही जाओगे।
हम हमारी वर्तमान मनःस्थिति में इस बात को नहीं समझ सकते, क्योंकि हम नर्क में पड़े हैं। हम बीच में लटके हैं दो चीजों के, सदैव बंटे हुए पीड़ा में, संताप में। ऐसा लगता है कि शैतान ने हमें धोखा दिया आदम को धोखा दिया यह समग्र बात नहीं है, इतिहास अभी अधूरा है। तुम उसे पूरा कर सकते हो, और तभी केवल तुम यह कह सकते हो कि जो कुछ शैतान ने कहा था, यह सही था या गलत। सारे वृक्ष को ही खा जायें और तुम देवताओं के जैसे हो जाओगे
एक व्यक्ति जो कि पूर्णतः जागरूक हो गया वही दिव्य हो गया। वह अब मानव नहीं है। मानवता तो एक प्रकार का रोग है मेरा मतलब है, एक डिजीज, एक बेचौनी, एक सतत तनाव। या तो पशु जैसे हो जाओ और तुम स्वस्थ हो जाओगे. अथवा देवतास्वरूप हो जाओ और तब भी तुम स्वस्थ हो जाओगे-स्वस्थ, क्योंकि तुम समग्र हो गये, एक समग्रता ही हो गये।
अंग्रेजी का शब्द ‘होली’ बड़ा अच्छा है। इसका मतलब सिर्फ पवित्र ही नहीं होता। वस्तुतः इसका अर्थ होता है-‘होल’-समग्र। और जब तक तुम समग्र नहीं हो जाते, तुम ‘होली’ पत्रित्र नहीं हो सकते। और केवल दो ही प्रकार की समग्रताएँ हैं-एक पशुओं जैसी और दूसरी है देवताओं के समान।
भगवान, आपने कहा कि जागरूकता, अवेरयनेस व केन्दोकरण से सघनता निर्मित होती हैं, लेकिन मुझे तो लगता हैं कि जागरूकता मेरे भीतर एक गहरी शून्यता का भाव पैदा करती है। कृपया, केन्दीकरण व आंतरिक शून्यता के संबंध को समझायें।
जैसा मनुष्य है, वह बिना किसी केन्द्र के है-बिना एक वास्तविक, एक प्रामाणिक केन्द्र के। यूँ कहने के लिए केन्द्र है उसके पास, किन्तु वह एक झूठा केन्द्र है। वह केवल सोचता है कि उसके पास केन्द्र है। अहंकार एक झूठा केन्द्र है। तुम्हें प्रतीत होता है कि वह है, परन्तु वह है नहीं। यदि तुम उसे खोजने जाओ, तो तुम उसे कहीं भी नहीं खोज सकोगे।
बुद्ध के ग्यारह सौ वर्षों बाद बोधिधर्म चीन गया। वह स्वयं भी बुद्ध हो गया था। वहाँ का सम्राट बू स्वयं उसके स्वागत के लिए आया। जब वहाँ कोई नहीं था, तो उसने बोधिधर्म से पूछा-‘मैं’ बहुत अधिक परेशान हूँ। मेरा मन कभी शान्त नहीं रहता। मुझे बतायें कि मैं क्या करूँ? मेरा मन शान्त कर दें। उसे बेचौनी से मुक्त कर दें। मैं एक गहरे द्वन्द्ध में पड़ा हूँ। भीतर सदैव संघर्ष चलता रहता है। अतः कुछ करें।’’ बोधिधर्म ने कहा, ‘‘मैं अवश्य कुछ करूँगा। तुम कल सवेरे चार बजे आ जाना, लेकिन अपने स्वयं को साथ लाना-स्मरण रखना।’’
सम्राट ने सोचा कि या तो यह आदमी पागल है अथवा मैं इसकी बात नहीं समझ पाया। उसने कहा कि हाँ, मैं अवश्य आऊँगा। मैं अपने स्वयं के सहित ही आऊँगा। बोधिधर्म ने फिर से जोर देकर कहा कि देखो, भूलना मत। अपने स्वयं को भी साथ लाना, अन्यथा मैं शान्त किसे करूँगा?
सारी रात सम्राट सो भी नहीं सका। वह बात ही कुछ ऐसी अजीब थी बिल्कुल विचित्र बात लगती थी। इस आदमी का मतलब वया है। और तब सम्राट सोच में पड़ गया कि इस आदमी से मिलने जाये या नहीं, और वह भी सवेरे इतनी जल्दी-चार बजे ही। और बोधिधर्म ने अकेले ही बुलाया था-‘‘तुम्हारे साथ तुम अकेले ही आना, दूसरा कोई और नहीं।’’ अतः कोई नहीं कह सकता था कि वह क्या करने चाला था। और फिर वह आदमी पागल भी दिखलाईं पड़ता था। मामला खतरनाक लगता था। किन्तु, फिर भी उसको आकर्षण पैदा हूआ। यह अरदमी कुछ भिन्न प्रकार का था। वह खींचता था। वह चुम्बकीय था। इसलिए सम्राट महल में रुक नहीं सका और वह आया।
जब वह निकट आया तो बोधिधर्म ने उससे कहा-‘‘आ गये तुम। परन्तु तुम्हारा स्वयं कहाँ है. तुम्हारा मैं कहाँ है? बू ने कहा ‘‘तुम तो मुझे पागल किये दे रहे हो। मैं सारी रात नहीं सो सका। तुम्हारा मेरे स्वयं रो मतलब क्या है? मैं यहाँ मौजूद।’’ अतः बोधिधर्म ने कहा-‘‘तुम्हारा स्वयं बता दो। मैं उसे शान्त कर दूंगा, विश्राम में पहुँचा दूँगा। अपनी आंखें बन्द करो और खोजो कि वह कहाँ है। उसे मुझे बता दो और मैं उसे पूरी तरह गायब कर दूँगा. और फिर दोबारा कोई समस्या नहीं होगी।’’
अतः सम्राट बू ने बन्द कर लीं और बोधिधर्म के सामने बैठ गया सुबह बिल्कुल शान्ति थी। वहाँ कोई भी नहीं था। उसे अपनी श्वास की आवाज भी सुनाई दे रही धो, उसे अपनी हदृय की धड़कन भी सुनाईं पड़ रही थी। और बोधिधर्म वहाँ सामने ही बैठा उसे बार-बार कह रहा था-‘‘भीतर चले जाओ और खोजों कि वह कहाँ है। और यदि तुम उसे नहीं खोज सकते तो फिर में वया कर सकता हूँ?’’ और वह खोजता रहा, ढूंढता रहा भीतर-घंटों तक। उसके बाद उसने अपनी आँखें खोली और तब वह दूसरा ही आदमी हो चुका था।
उसने कहा-‘‘मुझे वह कहीं भी नहीं मिलता। भीतर सब कुछ शून्य कोई स्वयं कोई ‘मैं’ नहीं हैं।’’ ‘बोधिधर्म ने कहा-‘‘यदि भीतर कोई ‘मैं’ नहीं है और केवल शून्य ही तब भी क्या तुम्हें बेचौनी हो रही है? क्या भीतर कोई अशान्ति हैं? अब वह पीड़ा कहाँ है जिसकी कि तुम बात कर रहे थे? तुम उसकी इतनी चर्चा कर रहे थे, अब वह कहाँ है?’’ बू ने जबाब दिया वह अब कहीं भी नहीं है, क्योंकि वह आदमी ही चला गया, फिर बिना उसके अशान्ति कैसे हो सकती है? मैंने उसे खोजने की बहुत कोशिश की परन्तु उसका तो पता नहीं चलता। मैं भी धोखे में था। मैं तो सोचता था कि भीतर। मैंने उसे ढूंढा परन्तु वह तो कहीं भी नहीं है। केवल शून्य है-एक रिक्तता, एक खालीपन अतः बोधिधर्म ने कहां अब तुम घर जाओ। और जब कभी तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हें अपने साथ कुछ करने की जरूरत है, तो पहले उसे खोजना कि वह कहाँ है।’’
यह एक झूठा अस्तित्व है। चूंकि हमने कभी उसे खोजा नहीं इसलिए हमें लगता है कि वह है। हम कभी भीतर नहीं गये है, इसलिए हम केवल ‘मैं’ की बात करते रहते हैं। वह कहीं भी नहीं हैं। इसलिए पहली बात जो कि समझ लेनी है वह यह है कि यदि तुम ध्यान में जाओगे, यदि तुम शान्त होओगे, तो तुम्हें शून्य का अनुभव होगा, क्योंकि तुम अहंकार को नहीं खोज सकते। तब अहंकार के ही साथ कमरे में फर्नीचर भी था, अब फर्नीचर खो गया। तुम केवल एक कमरे हो-बल्कि एक कमरापन। यहाँ तक कि दीवारें भी विलीन हो गई। वे भी तुम्हारे अहंकार का ही हिस्सा थीं। सारा ढाँचा ही गिर गया, इसलिए तुम्हें शून्य का अनुभवं होगा।
यह पहला चरण है जब कि अहंकार विलीन हो जाता है। अहंकार एक झूठी बात है, वह है नहीं। सिर्फ लगता है कि वह है, और तुम सोचते चले जाते हो कि वह है। वह सिर्फ तुम्हारे विचार का हिस्सा है-न कि तुम्हारे ‘होने’ का वह तुम्हारे मन से संबंधित है, न कि तुम्हारे अस्तित्व से। चूँकि तुम सोचते हो वह वहाँ है, इसलिए वह है। जब तुम उसे खोजने जाते हो तो वह कभी भी नहीं मिलता। तब तुम्हें शून्यता का अनुभव होता है, रिक्तता का। अब इस रिक्तता पर जोर दो, अब इस शून्य में रहो।
मन बड़ा चालाक है। वह खेल खेल सकता है। यदि तुम सोचना शुरू कर दो कि वह शून्य है, यदि तुम सोचने लगो कि यह शून्यता है तो तुमने उसे फिर भर दिया। यदि तुम इतना-सा ही कहो कि ‘यह शून्य है’ तो भी तुम उसके बाहर हो गये-उसके बाहर जा चुके। शून्य खो गया 1 तुम बीच में आ गये। इस शून्यता में ही रहो। शून्य ही हो जाओ। विचार न करो। यह बहुत कठिन है, बड़ा भयानक है। उसमें सिर चकराने लगता है। वह एक बड़ा खड्ड है, एक अनन्त खड्ड तुम नीचे, और नीचे गिरते ही चले जाते हो और नीचे की पेंदी कहीं नहीं आती एैसे में कोई होश खोने लगता है और वह सोचने लगता है। जैसे ही तुम सोचने लगे, तुमने फिर से जमीन पकड़ ली। अब तुम शून्य में नहीं हो।
यदि तुम इस शून्य में रह सको-बिना भागे, बिना कुछ विचारे, तो अचानक वैसे ही यह शून्य थी विलीन हो जाएगा-जैसे अहंकार खो गया था वैसे, क्योंकि अहंकार के कारण ही शून्य प्रतीत होता है। अहंकार ही उसे भर रहा था। वही फर्नीचर था, और तब कोई शून्य नहीं था। अब अहंकार विलीन हो गया है। इसलिए तुम्हें शून्य की प्रतीति हो रही है। यह शून्य की प्रतीति इसलिए होती है, क्योंकि जो सदैव वहाँ था, अब वह वहाँ नहीं है।
अगर इस कुर्सी पर बैठे तुम मुझे देख रहे हो, तब अचानक यदि तुम मुझे इस कुर्सी पर न पाओ तो कुर्सी तुम्हें खाली लगेंगी-इसलिए नहीं कि कुर्सी खाली है, बल्कि इसलिए कि कोई यहाँ बैठा था और अब वह वहाँ नहीं है। इसलिए तुम्हें शून्य दिखाई पढ़ता है, न कि कुर्सी। तुम्हें शून्य मालूम होता है, किसी की अनुपस्थिति तुम्हें एक रिक्तता की तरह महसूस होती है। तुम अभी कुर्सी को नहीं देख रहे हो। तुम वहाँ पर एक व्यक्ति को. देख रहे थे, अब तुम उस व्यवित की अनुपस्थिति को देखते हो। परन्तु कुर्सी अभी भी दिखलाई नहीं पड़ रही है। इसलिए जब अहंकार विलीन हो जाता है, तुम्हें शून्य की प्रतीति होती है। यह तो मात्र प्रारंभ है क्योंकि यह शून्यता भी अहंकार का ही नकारात्मक हिस्सा है-दूसरा पहलू। यह शून्य भी विलीन हो जाना चाहिए।
र्रिझाई-एक जेन गुरु के लिए ऐसा कहा जाता है कि जब वह अपने गुरु के पास सीख रहा था तो गुरु हमेशा इस बात पर जोर देता था कि उसे शून्य को उपलब्ध करना चाहिए। अतः एक दिन वह आया, उसने शून्य उपलब्ध कर लिया था। वह एक लम्बा श्रम था। अहंकार को गलाने में बहुत मेहनत करनी पढ़ती है। वह एक बडी लम्बी यात्रा थी-बहुत कठिन और कभी-कभी सचमुच सी असंभव-किन्तु फिर भी उसने उसे पा लिया था। इसलिए वह हँसता हुआ,-नाचता हुआ आया, आनन्द में डूबा। वह अपने गुरु के चरणों में गिरा और उसने काश, मैंने पा लिया है, अब केवल शून्य ही। गुरु ने उसकी ओर बिना किसी सहानुभृति के देखा और कहा कि अब तुम जाओ ओर इस शून्य को भी फेंक कर आओ। उसे अपने साथ यहाँ मत लाओ। इस शून्य को भी फेंक दो। इस स्थितता को भी गिरा दो, क्योंकि यदि तुम्हारे पास खालीपन भी है, तो भी यह कूछ होने जैसा हो जायेगा। शून्य भी कुछ तो है। यदि तुम उसे भी अनुभव कर सको, तो वह भी कुछ है। यदि तुम उसे भी जान सको. तो वह भी कुछ है। यदि तुम उसे देख सको तो वह भी कुछ है। कुछ नहीं भी कुछ हो जाता है, यदि वह भी तुम्हारे हाथ में है।
इसलिए गुरु ने कहा, ‘‘इस शून्य को भी फेंक दो। मेरे पास तभी आना जबकि यह ‘नथिंगनेस’ (कुछ नहीं) भी नहीं हो।’’ रिंझाई तो रोने लगा। उसने ही यह बात क्यों नहीं देख ली? एक शून्य भी उपलब्धि है, वह भी कुछ है। यदि तुमने कुछ नहीं भी पा लिया तो फिर वह कुछ हो जाता। जब तुम इस शून्य में गहरे डूबते हो बिना किसी विचार के. बिना मन में जरा-भी कंपन लाये-यदि तुम इसी में ठहर जाते हो, तो अचानक शून्य भी विलीन हो जाता है और तब ‘स्व’ का बोध होता है। तब तुम केन्दित हुए। तब तुम असली केन्द्र पर आये।
एक तो झूठा केन्द्र है, और फिर उस झूठे केन्द्र का खो जाना और तब असली केन्द्र का होना है। केन्दित होने से मेरा मतलब एक भृमि-तुम्हारे होने की वास्तविक भूमि। यह तुम्हारा केन्द्र नहीं है। क्योंकि तुम तो मिथ्या केन्द्र हो अतः यह तुम्हारा केन्द्र नहीं है। वही असली केन्द्र है-तुम्हारे अस्तित्व का केन्द्र। पूरा अस्तित्व ही इसमें केन्द्रित हो गया।
तुम तो झूठे केन्द्र हो, तुम तो खोओगे। परन्तु तुम्हारे खोने में भी यदि तुम इस शून्य से भरने लगो, तो भी अहंकार बडे़ ही सूक्ष्म ढंग से लौट आया। बहुत ही सूक्ष्म तरीके से वह वापस आ गया। वह कहेगा कि मेंने इस शुन्य को पा लिया। इसका मतलब वह अभी भी है।
उसे वापस मत आने दो। इस शून्य में ही रहो। इस शून्य के साथ कुछ भी न करो, उसके बारे में सोचो भी मत, उसके बारे में कुछ महसूस भी मत करो। शून्य है, उसके साथ रहो, उसे रहने दो। वह चला जाएगा। वह सिर्फ नकारात्मक हिस्सा है। वास्तविक चीज़ तो खो गई, यह मात्र उसकी छाया है। इस छाया को मत पकडो, क्योंकि छाया थी तभी हो सकती है जबकि वास्तविकता कहीं-न-कहीं पास ही हो। तभी केवल छाया भी हो सकती है। अन्ततः शून्य भी विलीन हो जाता है, ओर तब केन्द्रीकरण-सेन्टरिंग होता है। तब पहली बार तुम ‘तुम’ नहीं होते और फिर भी तुम होते हो-न कि स्वयं की तरह वरन एक शुद्ध अस्तित्व की भाँतिः बल्कि सर्व को भाँति। और इस बात को ठीक से समझ लें कि यह तुम्हारा केन्द्र नहीं है। यह सर्व का केन्द्र है।
अपने झूठे केन्द्र को भूल जाओ। भीतर जाओ और उसे खोजो। और तब वह विलीन हो जाता है। वह कमी भी नहीं मिलता। वह कहीं भी नहीं है इसलिए तुम उसे खोज नहीं सकते। उसके बाद और भी कठिन काम तुम्हें करना होता है-तुम्हें शून्य का सामना करना पड़ता है। यह बिल्कुल मौन होता है। अहंकार के जगत की तुलना में यह बिल्कुल शान्त होता है। तुम एक गहरी शान्ति में होते हो। परन्तु इससे ही सन्तुष्ट मत हो जाना। वह झूठी है। क्योंकि वह ‘भी अहंकार का ही हिस्सा है। यदि तुम सन्तुष्ट हो गये, तो अहंकार पुनः प्रवेश कर जाएगा। वह वापस लौट जायेगा। उसका एक हिस्सा अमी भी वहाँ मौजूद था। वह हिस्सा फिर से उस सारे को भीतर ले आएगा। बिना किसी विचार के इस शून्य के साथ रहो।
वह करीब-करीब मृत्यु जैसा है। जैसै कोई अपनी ही आँखों के सामने मर रहा होता है-एक गहरे खड्ड में विलीन हो रहा होता है। और जल्दी ही तुम खो जाओगे और केवल खड्ड ही रह जाएगा-उस खड्ड का जानने वाला भी, नहीं बचेगा, उस खाई को देखने वाला भी पीछे नहीं छुटेगा, बल्कि मात्र खड्ड ही रह जायेगा। तब तुम केन्दित हुए-केन्द्र में केन्दित। वह तुम्हारा केन्द्र नहीं है। पहली बार, तुम हो।
अब भाषा का दूसरा ही अर्थ हो जाता है। तुम नहीं हो और फिर भी तुम हो। यहाँ जाकर ‘हाँ’ और ‘ना’ के परम्परागत अर्थ, उनके रूढिगत भेद खो जाते हैं। तुम तुम्हारी तरह वहाँ नहीं होते। अब तुम वहाँ दिव्य की तरह होते हो-स्वयं ब्रहा की भाँति। यही अस्तित्वगत केन्द्रीकरण है-अस्तित्व में केन्दित होना।
आज इतना ही

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